यद्यपि यह संतोश की बात है कि वैष्विक पटल पर भारत की छवि इस एक वर्श में तुलनात्मक बढ़त के साथ कायम है। जहां सातवें वाइब्रेंट गुजरात में संयुक्त राश्ट्र संघ के महासचिव से लेकर दुनिया के उद्योगपति, राजनयिक और प्रमुखों का भारत में एक मंचीय होना वर्श की बेहतर षुरूआत थी वहीं गणतंत्र दिवस के अवसर पर पहली बार अमेरिकी राश्ट्रपति का मुख्य अतिथि होना भारत की वैदेषिक नीति की मजबूत साख ही थी। पड़ोसी देषों के अलावा चीन, रूस, आॅस्ट्रेलिया सहित दो दर्जन देषों और कई अन्तर्राश्ट्रीय मंच पर भारत की उपस्थिति षानदार रही है। इतना ही नहीं वर्श के अंत में मोदी की काबुल से लाहौर की लैण्डिंग और ग्यारह साल बाद पाकिस्तान की जमीन पर किसी भारतीय प्रधानमंत्री का होना और इस तरह होने से विष्व की मीडिया से लेकर राजनयिक तक आवाक रह गये। फिलहाल साल 2015 गुजर गया है तथा 2016 मुहाने पर खड़ा है। यदि इसे राजनीतिक दृश्टिकोण के अन्तर्गत परखा जाए तो उठा-पटक से भरा साल कहा जाएगा जिसका असर आगे भी रहेगा। देखा जाए तो डिजिटल से लेकर क्रिटिकल इण्डिया तक की पड़ताल में कई संदर्भ दृष्यमान होते हैं। संसदीय कार्यकलापों को लेकर यह वर्श बेहद निराष करने वाला रहा है। अपेक्षाओं से भरी मोदी सरकार से जनता को क्या-क्या मिला इस पर भी विमर्ष जरूरी है। अटल पेंषन योजना, प्रधानमंत्री जीवन ज्योति योजना, बेटी-बचाओ, बेटी पढ़ाओ, प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, स्मार्ट सिटी योजना के अलावा दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना सहित दर्जन भर कार्यक्रम इस एक वर्श में देष की आम जनता को मिले हैं पर इन्हीं सुखद परियोजनाओं के बीच देष के किसानों को बेमौसम बारिष का षिकार होना पड़ा। इतना ही नहीं बारिष के दिनों में सूखे के बवंडर से भी किसान बच नहीं पाये और कोषिषें इस कदर मायूस हुईं कि क्या उत्तर, क्या दक्षिण देष के कई इलाकों से किसानों की मौत की खबरें आईं। वैसे तो दषकों से विदर्भ और बुंदेलखण्ड किसानों की मौत के केन्द्र रहे हैं पर इस वर्श बारिष और सूखे के चलते ऐसे केन्द्रों का विकेन्द्रीकरण होते हुए भी देखा गया।
देष की तकदीर किस्तों में बदलती है मसलन पांच साल की सरकार पांच किस्तों में देष के ताने-बाने को फलक पर ला सकती है। मई, 2014 से निर्मित मोदी सरकार की एक छमाही की पड़ताल पहले की जा चुकी है। 2015 की वार्शिक पड़ताल कुछ उम्मीद तो कुछ नाउम्मीद के साथ छलक रही है। फरवरी में हुए दिल्ली विधानसभा के चुनाव का एक तरफा होना लोकतंत्र में नये सरोकार और नये इतिहास के साथ हैरत में डालने वाला था। कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी बजट सत्र के ठीक पहले बिन बताये 56 दिन के लिए गायब रहे यह भी वर्श की कौतूहल से भरी घटना थी पर जब वे अप्रैल में लौटकर आये तब उन्हें किसानों की फिक्र करते हुए देखा गया। इन्हीं दिनों किसान दिसम्बर 2014 में जारी भू-अधिग्रहण अध्यादेष को लेकर दिल्ली में मार्च भी कर रहे थे। अधिनियमित करने की कई कोषिषों के बाद अन्ततः सरकार ने इस अध्यादेष को आगे न बढ़ाने का फैसला लिया। रोचक यह भी रहा कि सरकार की कई महत्वाकांक्षी योजनाएं कानून का रूप न ले पाई। अप्रैल में आये नेपाल के भूकम्प में भारत ने राहत और बचाव के लिए जी-जान लगा दिया पर नेपाल के नये संविधान ने कूटनीतिक रिष्तों को काफी तल्ख कर दिया। असल में नेपाल के नये संविधान में मधेसियों को वो हक नहीं दिया गया जिसके वे अधिकारी थे जिसके चलते मधेसियों का आंदोलन हुआ और इसके लिए भी लानत-मलानत भारत पर उतारा गया। हालांकि इन्हीं दिनों नेपाल में नई सरकार ने भी अवतार लिया था जिसका झुकाव इन दिनों चीन की ओर है। अब हाल यह है कि नेपाल के मामले में भारत एक बड़ी कूटनीतिक कमाई काफी हद तक खोने के कगार पर है।
गुजरात के पाटीदार आरक्षण को लेकर हार्दिक पटेल का फलक पर आना भी एक विमर्षीय संदर्भ रहा है। उत्तर प्रदेष के दादरी में हुई घटना ने तो भारत को एक बड़े विमर्ष की ओर ही धकेल दिया। आष्चर्यजनक यह है कि विपक्ष ने इसे तूल देते हुए सरकार पर सारा दोश मढ़ दिया। हालात इस कदर बिगड़ गये कि साहित्य जगत से लेकर कई फिल्मकार तथा कलमकार असहिश्णुता का माहौल बताते हुए सरकार के विरोध में आ गये जिसके चलते उन्होंने अवार्ड वापसी का जोरदार अभियान चलाया पर साल का अन्त होते-होते न्यायपालिका द्वारा एक सकारात्मक राय रखने के चलते असहिश्णुता को करारा जवाब दिया गया। प्रधान न्यायाधीष ने कहा था कि असहिश्णुता जैसा कोई माहौल देष में नहीं है और न्यायपालिका के रहते किसी को डरने की जरूरत नहीं। सबके बावजूद इस वर्श का भाजपाई सकून यह है कि जम्मू-कष्मीर में पीडीपी के साथ ही सही पहली बार सरकार बनाने का भाजपा को मौका मिला पर साल खत्म होते-होते बिहार विधानसभा की हार ने भाजपा की उम्मीदों पर पानी भी फेर दिया। इतना ही नहीं प्रधानमंत्री मोदी के मुखर विरोधी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीष कुमार की महागठबंधन की बड़ी जीत ने भारतीय राजनीति के फलक पर नये समीकरण को प्रकट कर दिया। जिसका नतीजा यह हुआ कि नाउम्मीद हो चुकी राजनीतिक पार्टियां भी हुंकार भरने लगी। बरसों से बिहार में सुप्त पड़ी कांग्रेस की षारीरिक भाशा बदल गयी। केन्द्र में मोदी ‘सुषासन‘ के अगुवा तो बिहार में नीतीष ‘सुषासन बाबू‘ की संज्ञा में रहे साथ ही बिहार की जीत ने न केवल नीतीष के कद को बढ़ाया बल्कि लालू की राजनीतिक विरासत को भी उबार दिया।
इस वर्श को इस रूप में भी जाना जायेगा कि सभी सत्रों में मोदी सरकार विधायी मुसीबत से छुटकारा नहीं पाई। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि पिछले पन्द्रह सालों में कहीं अधिक उपजाऊ इस वर्श का बजट सत्र ही रहा है पर व्यापमं से लेकर धर्मांतरण से जुड़े मुद्दे भी यहां छाए रहे। संसद का मानसून सत्र भी निराष करने वालों में ही गिना जाएगा। इसे पूरी तरह राजनीति की भेंट चढ़ते हुए देखा जा सकता है। जीएसटी जैसे विधेयक जिसे बड़ी प्रमुखता दी जा रही है इस सत्र में ही क्या पूरे वर्श मुंहकी ही खाते रहे। रही बात षीत सत्र की तो खर्च हुए करोड़ों और मुनाफा कुछ खास नहीं रहा कुल जमा पूंजी बामुष्किल एक दर्जन विधेयक ही अधिनियमित हो पाये। लगभग महीने भर चलने वाले इस सत्र में दो दिन संविधान को समर्पित थे बाकी दिन हंगामा बरपता रहा। इसी बीच नेषनल हेराल्ड की बीमारी से भी संसद जकड़ा था दिसम्बर में चेन्नई की बाढ़ ने साल के अन्त को बुरी तरह से पानी-पानी कर दिया। तीन बरस पुराना निर्भया मामला भी इस बीच प्रकाष में रहा। हालांकि नये ‘जुवेनाइल एक्ट‘ के चलते इसका अन्त सही हुआ। षीत सत्र में भी असहिश्णुता का मुद्दा पूरे दमखम के साथ छाया रहा। इन सबके बावजूद इस वर्श की सुषासनिक परियोजना ‘डिजिटल इण्डिया‘ को महत्व की दृश्टि से जरूर देखा जायेगा। देष में जिस तरह स्टार्टअप की गिनती बढ़ रही है, निवेष बढ़ रहा है, ई-काॅमर्स में बढ़ोत्तरी हो रही है। उसे देखते हुए स्टार्टअप इण्डिया-स्टैण्डअप इण्डिया के चलते तस्वीर बदलने की उम्मीद है। सबके बावजूद नीति और क्रियान्वयन को मजबूत करने के लिए जो प्रयोग इस वर्श हुए हैं उससे भारत में सुषासन को लेकर बड़ी कूबत वाली आहट सुनाई देती है।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
देष की तकदीर किस्तों में बदलती है मसलन पांच साल की सरकार पांच किस्तों में देष के ताने-बाने को फलक पर ला सकती है। मई, 2014 से निर्मित मोदी सरकार की एक छमाही की पड़ताल पहले की जा चुकी है। 2015 की वार्शिक पड़ताल कुछ उम्मीद तो कुछ नाउम्मीद के साथ छलक रही है। फरवरी में हुए दिल्ली विधानसभा के चुनाव का एक तरफा होना लोकतंत्र में नये सरोकार और नये इतिहास के साथ हैरत में डालने वाला था। कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी बजट सत्र के ठीक पहले बिन बताये 56 दिन के लिए गायब रहे यह भी वर्श की कौतूहल से भरी घटना थी पर जब वे अप्रैल में लौटकर आये तब उन्हें किसानों की फिक्र करते हुए देखा गया। इन्हीं दिनों किसान दिसम्बर 2014 में जारी भू-अधिग्रहण अध्यादेष को लेकर दिल्ली में मार्च भी कर रहे थे। अधिनियमित करने की कई कोषिषों के बाद अन्ततः सरकार ने इस अध्यादेष को आगे न बढ़ाने का फैसला लिया। रोचक यह भी रहा कि सरकार की कई महत्वाकांक्षी योजनाएं कानून का रूप न ले पाई। अप्रैल में आये नेपाल के भूकम्प में भारत ने राहत और बचाव के लिए जी-जान लगा दिया पर नेपाल के नये संविधान ने कूटनीतिक रिष्तों को काफी तल्ख कर दिया। असल में नेपाल के नये संविधान में मधेसियों को वो हक नहीं दिया गया जिसके वे अधिकारी थे जिसके चलते मधेसियों का आंदोलन हुआ और इसके लिए भी लानत-मलानत भारत पर उतारा गया। हालांकि इन्हीं दिनों नेपाल में नई सरकार ने भी अवतार लिया था जिसका झुकाव इन दिनों चीन की ओर है। अब हाल यह है कि नेपाल के मामले में भारत एक बड़ी कूटनीतिक कमाई काफी हद तक खोने के कगार पर है।
गुजरात के पाटीदार आरक्षण को लेकर हार्दिक पटेल का फलक पर आना भी एक विमर्षीय संदर्भ रहा है। उत्तर प्रदेष के दादरी में हुई घटना ने तो भारत को एक बड़े विमर्ष की ओर ही धकेल दिया। आष्चर्यजनक यह है कि विपक्ष ने इसे तूल देते हुए सरकार पर सारा दोश मढ़ दिया। हालात इस कदर बिगड़ गये कि साहित्य जगत से लेकर कई फिल्मकार तथा कलमकार असहिश्णुता का माहौल बताते हुए सरकार के विरोध में आ गये जिसके चलते उन्होंने अवार्ड वापसी का जोरदार अभियान चलाया पर साल का अन्त होते-होते न्यायपालिका द्वारा एक सकारात्मक राय रखने के चलते असहिश्णुता को करारा जवाब दिया गया। प्रधान न्यायाधीष ने कहा था कि असहिश्णुता जैसा कोई माहौल देष में नहीं है और न्यायपालिका के रहते किसी को डरने की जरूरत नहीं। सबके बावजूद इस वर्श का भाजपाई सकून यह है कि जम्मू-कष्मीर में पीडीपी के साथ ही सही पहली बार सरकार बनाने का भाजपा को मौका मिला पर साल खत्म होते-होते बिहार विधानसभा की हार ने भाजपा की उम्मीदों पर पानी भी फेर दिया। इतना ही नहीं प्रधानमंत्री मोदी के मुखर विरोधी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीष कुमार की महागठबंधन की बड़ी जीत ने भारतीय राजनीति के फलक पर नये समीकरण को प्रकट कर दिया। जिसका नतीजा यह हुआ कि नाउम्मीद हो चुकी राजनीतिक पार्टियां भी हुंकार भरने लगी। बरसों से बिहार में सुप्त पड़ी कांग्रेस की षारीरिक भाशा बदल गयी। केन्द्र में मोदी ‘सुषासन‘ के अगुवा तो बिहार में नीतीष ‘सुषासन बाबू‘ की संज्ञा में रहे साथ ही बिहार की जीत ने न केवल नीतीष के कद को बढ़ाया बल्कि लालू की राजनीतिक विरासत को भी उबार दिया।
इस वर्श को इस रूप में भी जाना जायेगा कि सभी सत्रों में मोदी सरकार विधायी मुसीबत से छुटकारा नहीं पाई। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि पिछले पन्द्रह सालों में कहीं अधिक उपजाऊ इस वर्श का बजट सत्र ही रहा है पर व्यापमं से लेकर धर्मांतरण से जुड़े मुद्दे भी यहां छाए रहे। संसद का मानसून सत्र भी निराष करने वालों में ही गिना जाएगा। इसे पूरी तरह राजनीति की भेंट चढ़ते हुए देखा जा सकता है। जीएसटी जैसे विधेयक जिसे बड़ी प्रमुखता दी जा रही है इस सत्र में ही क्या पूरे वर्श मुंहकी ही खाते रहे। रही बात षीत सत्र की तो खर्च हुए करोड़ों और मुनाफा कुछ खास नहीं रहा कुल जमा पूंजी बामुष्किल एक दर्जन विधेयक ही अधिनियमित हो पाये। लगभग महीने भर चलने वाले इस सत्र में दो दिन संविधान को समर्पित थे बाकी दिन हंगामा बरपता रहा। इसी बीच नेषनल हेराल्ड की बीमारी से भी संसद जकड़ा था दिसम्बर में चेन्नई की बाढ़ ने साल के अन्त को बुरी तरह से पानी-पानी कर दिया। तीन बरस पुराना निर्भया मामला भी इस बीच प्रकाष में रहा। हालांकि नये ‘जुवेनाइल एक्ट‘ के चलते इसका अन्त सही हुआ। षीत सत्र में भी असहिश्णुता का मुद्दा पूरे दमखम के साथ छाया रहा। इन सबके बावजूद इस वर्श की सुषासनिक परियोजना ‘डिजिटल इण्डिया‘ को महत्व की दृश्टि से जरूर देखा जायेगा। देष में जिस तरह स्टार्टअप की गिनती बढ़ रही है, निवेष बढ़ रहा है, ई-काॅमर्स में बढ़ोत्तरी हो रही है। उसे देखते हुए स्टार्टअप इण्डिया-स्टैण्डअप इण्डिया के चलते तस्वीर बदलने की उम्मीद है। सबके बावजूद नीति और क्रियान्वयन को मजबूत करने के लिए जो प्रयोग इस वर्श हुए हैं उससे भारत में सुषासन को लेकर बड़ी कूबत वाली आहट सुनाई देती है।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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