Wednesday, August 29, 2018

आसान नहीं 2019 मे 2014 को दोहराना

बीते चार साल की मोदी सत्ता में विकास की कितनी बयार बही और जनमानस में उनकी साख कितनी बढ़ी यह पड़ताल का विशय है। सरकार जब अपना पांच साल का रिपोर्ट कार्ड प्रस्तुत करेगी तब यह संदर्भ कहीं अधिक फलक पर होगा कि वास्तव में सरकार ने क्या किया और जनता के बीच क्या परोसा गया। हालांकि समय-समय पर मोदी सरकार कहां, कितना और क्या-क्या किया का लेखा-जोखा देती रही है पर भरोसा षायद पूरी तरह इसलिये नहीं बन पाया क्योंकि सिद्धांत और व्यवहार एक से नहीं प्रतीत होते मसलन रोज़गार के मामले में सरकार के आंकड़े गले नहीं उतर रहे हैं। बीते 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री ने मुद्रा योजना के तहत रोज़गार से जुड़ने वालों के आंकड़े 13 करोड़ बताये थे जिसे लेकर असमंजस बरकरार है। प्रति वर्श दो करोड़ रोज़गार देने का वायदा 2014 के चुनाव में किया गया था जिस पर सरकार खरी नहीं उतरी है। पिछले 1 फरवरी को पेष बजट में सरकार ने 70 लाख रोज़गार देने की बात कही है। अनमने ढंग से ही सही पर यहां यह कहना गैर वाजिब नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी पकौड़ा तलने वालों को भी रोज़गारयुक्त बता चुके हैं। फिलहाल 2019 में लोकसभा का चुनाव होना है साथ ही कयास यह भी है कि मध्य प्रदेष, राजस्थान और छत्तीसगढ़ का चुनाव भी इसी के साथ हो सकते है। खास यह भी है कि भाजपा पूरी तरह चुनावी मोड में आ चुकी है मगर यह तो नहीं कहा जा सकता कि विपक्ष इससे बेखबर है पर उसमें असमंजस बरकरार है। असमंजस इस बात का कि किस रणनीति से मोदी का सामना किया जाय और उन्हें सत्ता से बेदखल किया जाय।
 समय 2019 की ओर तेजी से बढ़ रहा है जिसे देखते हुए भाजपा को रणनीतिक तौर पर बड़े कदम उठाने जरूरी हैं। इसी को देखते हुए भाजपा के मुख्यमंत्री परिशद् की बैठक 28 अगस्त को दिल्ली में हुई जिसमें प्रधानमंत्री मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित षाह, गृह मंत्री राजनाथ सिंह समेत अरूण जेटली और नितिन गडकरी समेत 15 प्रदेषों के मुख्यमंत्री और कई उपमुख्यमंत्री षामिल थे। जाहिर है मुख्यमंत्रियों को एक बड़े रण में जाने का गुर सिखाया गया होगा। दावा किया जा रहा है कि आगामी लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में मौजूदा से ज्यादा सीटों पर भाजपा जीत हासिल करेगी। हालांकि पूरी रणनीति का खुलासा अभी हुआ नहीं है मगर जिस साहस और बल के साथ सत्ता से युक्त मोदी सरकार हुंकार भर रही है उससे लगता है कि चुनाव जीतने का कोई पुख्ता रास्ता उन्होंने खोज लिया है। यूपी, एमपी, राजस्थान, गुजरात और महाराश्ट्र के मुख्यमंत्रियों पर काफी भरोसा किया गया है। राजस्थान और मध्य प्रदेष के सामने फिलहाल दोहरी चुनौती है एक विधानसभा की जीत तो दूसरे 2019 के लोकसभा के मामले में पहली वाली स्थिति बनाये रखना। गौरतलब है कि मध्य प्रदेष के 29 लोकसभा सीट में 27 पर भाजपा काबिज है जबकि राजस्थान में सभी 25 सीटें भाजपा के हिस्से में है। इसी तर्ज पर देखें तो गुजरात की लोकसभा की सभी सीटें भाजपा के खाते में हैं जबकि महाराश्ट्र में 48 में 23 पर कब्जा है वहीं उत्तर प्रदेष में 80 के मुकाबले 71 पर भाजपा और गठबंधन सहित 73 पर जीत हासिल की थी। हालांकि उपचुनाव में गोरखपुर, फूलपुर और कैराना की हार से यह संख्या घट गयी है। 2014 की इतनी बड़ी जीत को एक बार फिर दोहराना लोहे के चने चबाना जैसा प्रतीत होता है। कोई भी राजनीतिक पण्डित षायद ही यकीन से कह पाये कि लगभग सभी सीटों पर काबिज भाजपा 2019 में इतिहास को दोहरा पायेगी।
मुख्यमंत्रियों की बैठक में जाहिर है चुनाव को ध्यान में रखकर कई निर्देष दिये गये होंगे। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने इसे लेकर कई बातें मीडिया के सामने कही भी हैं। फिलहाल सरकार के सामने पांच साल का लेखा-जोखा देने वाली चुनौती भी है। सरकार की नीतियों से जहां असंतोश व्याप्त है जाहिर है वहां सीटें कम होंगी। दो टूक यह भी है कि उपरोक्त पांचों राज्य भाजपा की दिल्ली की गद्दी तय करेंगे जिसमें उत्तर प्रदेष की अग्रणी भूमिका रहेगी पर यहां सपा, बसपा आदि के गठबंधन के बयार से भाजपा सकते में है। मुख्यमंत्रियों की बैठक इस बात का भी संकेत है कि चुनाव के लिये जो बन पड़े करने की आवष्यकता है साथ ही सरकार के उन तमाम नीतियों को जनता के बीच परोसने का राज्य सरकारें काम करें ताकि मोदी सरकार के प्रति जनता में यदि विष्वास कम हुआ है तो बढ़े, यदि खत्म हो गया है तो पनपाया जाय क्योंकि भाजपा जानती है कि कुछ भी हो 2014 की तरह 2019 का चेहरा भी मोदी का ही होगा और जितना अधिक प्रदेष के मुख्यमंत्री मोदी सरकार की सकारात्मकता को जनता के बीच पेष करेंगे वोट की खेती उतनी ही लहलहायेगी। कल्याण योजनाओं एवं क्रियान्वयन को लेकर समीक्षा बैठक भी इसमें षामिल है। राज्यों ने जो काम किये उनका लेखा-जोखा भी लिया गया। इसके अलावा मुख्यमंत्रियों की बैठक में किसानों के न्यनूतम समर्थन मूल्य में वृद्धि के सरकार के फैसले, एससी/एसटी का संदर्भ ओबीसी का संवैधानिक दर्जा देने वाला कदम आदि भी चर्चे में रहे।
बीजेपी अपने पक्ष में एक बार फिर मतदाताओं को करने की जुगत भिड़ा रही है जबकि विपक्ष मोदी की लोकप्रियता को देखते हुए तरकष से नये तीर खोज रही है। माना जा रहा है कि यदि सपा, बसपा व कांग्रेस समेत अन्य में महागठबंधन जैसी कोई व्यवस्था बनती है तो यूपी भाजपा को दिल्ली पहुंचने में कांटा बन सकता है। एमपी में षिवराज सिंह चैहान ताकत झोंके हुए हैं पर बिगड़े हालात पर उनका नियंत्रण नहीं है ऐसे में बहुत बड़ा धड़ा भाजपा विरोधी है जो विधानसभा व लोकसभा दोनों पर भारी पड़ सकता है। राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया से गुर्जर व जाट आरक्षण के चलते तथा किसान तथा अन्य विकास को लेकर कहीं अधिक खिलाफ हैं। यहां भी भाजपा की राह आसान नहीं दिखाई देती। गुजरात की स्थिति यह है कि बामुष्किल से भाजपा पिछले साल विधानसभा जीत पायी थी। लोकसभा में कांग्रेस कांटे की टक्कर दे सकती है। रही बात महाराश्ट्र की तो षिवसेना एनडीए में रहते हुए भी भाजपा के खिलाफ है। पालघाट का लोकसभा उपचुनाव इस बात को पुख्ता करता है। यहां दोनों दल आमने-सामने थे हालांकि जीत भाजपा के हिस्से आयी। यहां देवेन्द्र फण्डवीस के सामने 48 के मुकाबले 23 लोकसभा सीट को 2019 में दोहराना सबसे बड़ी चुनौती रहेगी। वैसे सच यह भी है कि चुनावी दिनों में परिदृष्य बदलते हैं और कयास भी चकनाचूर हो जाते हैं। हालांकि मोदी की लोकप्रियता से बीजेपी खूब फायदे में है। कांग्रेस समेत तमाम विरोधियों के पास 2019 में मोदी को सत्ता से बेदखल करने का कोई मास्टर प्लान भी नहीं है बस जुबानी जंग जारी है। माना भाजपा के लिये आगामी आम चुनाव की लड़ाई आसान नहीं है पर विपक्ष के लिये तो यह कहीं अधिक दुरूह भी है। मजबूत चुनौती पेष हुई तो मोदी की राह कठिन हो सकती है पर इसके आसार कम ही दिख रहे हैं। जिस तर्ज पर मोदी अपने चुनावी मोड में होते हैं उससे तो यही लगता है कि विपक्ष काफी वक्त असमंजस में बिता देता है और जब कुछ रास्ते समतल होते भी हैं तब तक काफी देर हो चुकी होती है। 2014 के चुनाव में ऐसा ही हुआ था। 13 सितम्बर 2013 को मोदी प्रधानमंत्री के उम्मीदवार घोशित किये गये थे तब भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह थे। तब से लेकर 12 मई 2014 के मतदान के अंतिम समय तक मोदी चुनावी मोड में ही रहे और जब 16 मई 2014 को नतीजे घोशित किये तो एक इतिहास बन गया यही इतिहास मोदी एक बार फिर 2019 में दोहराना चाहते हैं मगर तब मोदी सत्ता के विरूद्ध लड़ रहे थे मगर अब सत्ता के साथ चुनाव लड़ना है। जाहिर है कि परिस्थिति एक जैसी नहीं है इसलिए इतिहास एक जैसा होगा कहना सम्भव नहीं है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Thursday, August 23, 2018

किसानो की राह समतल नहीं बन पाई

यह चिंता का विषय है और गम्भीरता से विचार करने वाला भी कि देश की आबादी में सर्वाधिक स्थान घेरने वाले किसान अनगिनत समस्याओं से क्यों जूझ रहे हैं। हम लोकतंत्र से बंधे हैं अतः यह सर्वथा आवष्यक है कि मानवता का ध्यान रखा जाय और देहातों में लोगों की जो कठिनाईयां हैं उससे निपटा जाय। यह काम कौन करेगा जाहिर है इषारा सरकार की ओर है पर दो टूक सच्चाई यह है कि किसानों को लेकर सरकारें मजबूत नीति के बजाय वोट की राजनीति करती रहीं हैं। 70 साल बाद भी किसान न केवल कर्ज की समस्या से जूझ रहा है बल्कि आत्महत्या की दर को भी बढ़ा दिया है। भारत में किसानों की आत्महत्याएं कितना संगीन मामला है इस पर कौन समझ रखेगा। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को जो आंकड़ा कुछ समय पहले उपलब्ध कराया था उससे यह पता चला कि हर साल 12 हजार किसान आत्महत्या कर रहे हैं। कर्ज में डूबे और खेती में हो रहे घाटे को किसान बर्दाष्त नहीं कर पा रहे हैं। हालांकि सरकार कुछ करती तो है पर उससे किसानों की राह समतल नहीं हो पा रही है इसके प्रमुख कारणों में दषकों से इनके जीवन को निहायत ऊबड़-खाबड़ बना दिया जाना है। मौजूदा सरकार 2013 से किसानों की आत्महत्या के आंकड़े जमा कर रही है। साल 2014 और 2015 में कृशि क्षेत्र से जुड़ 12 हजार से अधिक लोगों ने आत्महत्या की थी जबकि 2013 में आंकड़ा इससे थोड़ा कम था। हालांकि इस पर पूरा विष्वास षायद ही हो पाये। सबसे ज्यादा आत्महत्या महाराश्ट्र के किसानों ने किया जबकि इस मामले में कर्नाटक दूसरे नम्बर पर आता है। इसी क्रम में तेलंगाना, मध्य प्रदेष, छत्तीसगढ़ आदि को देखा जा सकता है। हालांकि आत्महत्या की सूचना से कोई राज्य वंचित नहीं है।
यह बात वाजिब ही कही जायेगी कि कृशि प्रधान भारत में कई सैद्धान्तिक और व्यावहारिक कठिनाईयों से किसान ही नहीं सरकारें भी जूझ रही हैं। अन्तर सिर्फ इतना है कि किसान मर रहा है और सरकारें मजा कर रही हैं। हाल ही में मोदी सरकार ने खरीफ की फसल में कुछ बढ़ोत्तरी की थी मसलन धान की फसल पर न्यूनतम समर्थन मूल्य 1550 से 1750 कर दिया। ऐसे दर्जनों फसलों में कमोबेष वृद्धि की गयी। 2014 की तुलना में इसे ड़ेढ़ गुना कहा जा रहा है जबकि मोदी सरकार 2014 के लोकसभा चुनाव में इस एजेण्डे के साथ उतरी थी कि सरकार की स्थिति में वह किसानों की फसलों की कीमत डेढ़ गुना करेगी। चार साल बीतने के बाद कमोबेष इस स्थिति में आने के पष्चात् सरकार अपनी पीठ थपथपा रही है कि उसने किसानों का भला कर दिया जबकि डेढ़ गुना उस दौर के तय मूल्य के अनुपात में करना था न कि चार साल की बढ़त को डेढ़ गुना में बदलना था। वैसे स्वामीनाथन रिपोर्ट को देखें तो उसमें भी एमएसपी को डेढ़ गुने की बात कही गयी है। मगर जैसे सरकार ने किया है वैसे नहीं। यदि मोदी सरकार ने वाकई में किसानों की फसल का डेढ़ गुना एमएसपी किया है तो इसे स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू करना क्यों नहीं कहती। जाहिर है यहां सरकार की नीति राजनीति से प्रेरित है। पिछले साल 15 अगस्त को लाल किले से देष को सम्बोधन करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों की जिन्दगी बदलने के लिये जिस रास्ते का उल्लेख किया था वह कृशि संसाधनों से ताल्लुक रखता है जिसमें उत्तम बीज, पानी, बिजली की बेहतर उपलब्धता के साथ बाजार व्यवस्था को दुरूस्त करना षामिल था। सप्ताह भर पहले 2018 का 15 अगस्त भी बीता है पर रास्ते तो अभी भी समतल नहीं हुए हैं। इस बार भी लाल किले से खूब बातें कही गयी हैं पर मार्ग किसानों के जीवन में परिवर्तन लाये तब बात बने। 
किसानों से उपजी समस्याओं को लेकर संवेदना भी इधर-उधर होती है और दिमाग भी उथल-पुथल में जाता है। प्रधानमंत्री मोदी 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की बात कह रहे हैं। इस हकीकत पर 2022 में ही विचार होगा। दिन बदलेंगे, बदल रहे हैं पर किसान कहां खड़ा है। 90 के दषक से मुफलिसी के चलते आत्महत्या के मार्ग को अपना चुका किसान उसी पर सरपट क्यों दौड़ रहा है। देष की 60 फीसदी आबादी किसानों की है। बहुतायत में नेता, मंत्री व प्रषासनिक अमला समेत कई सामाजिक चिंतक इस बात को कहने से कोई गुरेज नहीं करते कि उनके पुरखे भी किसान और मजदूर थे पर जब इन्हीं की जिन्दगी में थोड़ी रोषनी भरने की बात हो तो इनकी नीतियां और सोच या तो सीमित हो जाती है या बौनी पड़ जाती हैं। भारत में किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं। यह लाख टके का नहीं अरब टके का सवाल है और इनकी संख्या लगातार क्यों बढ़ रही है। इतना ही नहीं आत्महत्या से जो राज्य या इलाके अछूते थे वे भी इसकी चपेट में आ रहे हैं। इस सवाल की तह तक जाने के बजाय सरकारें बचाव की नीति पर काम करने लगती हैं। मर्ज का इलाज नहीं बल्कि उसे टालने की कोषिष में लग जाती है। दुख इस बात का है कि सत्ता में आने से पहले यही सभी के जीवन के मार्ग को समुचित और समतल बनाने के वायदे करती है और जब इनके मतों को हथिया कर सत्तासीन हो जाते हैं तो ना जाने इनके विजन को क्या हो जाता है।
आत्महत्या की वजह क्या है, किसानों की स्थिति लगातार क्यों बिगड़ रही है। सरकारों से उनका भरोसा क्यों उठ रहा है और उनकी मुष्किलें कम होने के बजाय क्यों बढ़ रही हैं ये सभी सवाल फलक पर तैर रहे हैं। किसान अपना खून-पसीना बहाकर अनाज पैदा करते हैं और बाकी उन्हीं अनाज से अपनी सेहत ठीक कर रहे हैं इस चिंता से परे कि वे किस हाल में है। पूरे देष के किसानों पर तीन लाख करोड़ से अधिक का कर्ज है। समय-समय पर कुछ सरकारों ने इसे लेकर माफी वाला कदम भी उठाया। चुनाव से पहले कर्ज माफी का वादा तो होता है पर सत्तासीन होने के बाद कोश की सुरक्षा सरकारों को सताती है नतीजन कर्ज माफ नहीं होता यहां सरकार चालाकी दिखाती है और किसान ठगा जाता है। ज्यादा किसान साहूकार और आढ़तियों से कर्ज लेने को मजबूर है ये किसानों के लिये घातक साबित हो रहा है। गौरतलब है कि जब किसान अनपढ़ थे बैंकों के खाताधारक नहीं थे, न तो किसान क्रेडिट कार्ड था और न ही कर्ज को लेकर किसी प्रकार की निर्भरता। तब षायद किसान ज्यादा सुखी था। हालांकि साहूकारों के कर्ज से एक तबका दबा रहता है जिसके चलते ऋण ग्रस्तता का बोझ तत्पष्चात् बंधुआ मजदूरी का दौर भी देखने को मिला है। यह बात सही है कि कठिनाई उस दौर में भी थी और इस दौर में भी इससे वह बचा नहीं है पर आत्महत्या इतनी नहीं होती थी। आन्ध्र प्रदेष से लेकर महाराश्ट्र और तेलंगाना राजनीतिक दल इसकी वकालत कर रहे हैं कि कर्ज माफी कोई इलाज नहीं है और न ही यह स्थायी उपाय है यदि ऐसा होता तो 2008 में डाॅ0 मनमोहन सिंह सरकार द्वारा 60 हजार करोड़ रूपये से ज्यादा की कर्जमाफी के बाद आत्महत्याएं बंद हो जानी चाहिए थी पर ऐसे विचारधारकों को यह समझना होगा कि किसान कुछ तो राहत पाये होंगे और उनके रास्ते कुछ तो समतल हुए होंगे। मनमोहन सिंह ने जो जोखिम लिया उसे आगे की सरकारें बढ़े रूप में लेकर किसानों को कर्ज मुक्त क्यों नहीं करती। किसानों पर लगा कर्ज उनकी उम्र को घटा रहा है और जीवन के रास्ते में बड़े-बड़े गढ़ढ़े बना रहा है। वाकई में कर्ज माफी पूरा समाधान नहीं है। पूरा समाधान तभी होगा जब उनके जीवन के रास्ते समतल होंगे ताकि वे आत्महत्या की डगर पर नहीं बल्कि टनों अनाज गाड़ियों पर लाध कर बाजार के मार्ग पर हों।



सुशील कुमार सिंह
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Monday, August 20, 2018

इमरान की व्यूह रचना पर भारत की नज़र

सभी यह देखने के लिये उत्सुक हैं कि भूतपूर्व क्रिकेटर राजनीति की पिच पर क्या खेल दिखाते हैं। जाहिर है इनकी व्यूह रचना पर भारत समेत दुनिया की नजर रहेगी। इमरान खान 22वें प्रधानमंत्री के तौर पर बीते 18 अगस्त को पाकिस्तान की बागडौर संभाल ली है। ढ़ाई दषक से अधिक के सियासी सफर के साथ आखिरकार पाकिस्तान की सबसे बड़ी कुर्सी पर इमरान को विराजमान होने का अवसर मिल गया है। जिस दौर में पाकिस्तान में नई सरकार का उदय हो रहा है उसमें भारत एवं पाकिस्तान के सम्बंध बेहद नाजुक दौर से गुजर रहे हैं। भारत-पाक सीमा पर सीज़ फायर का बेहिसाब उल्लंघन जारी है और पाक अधिकृत कष्मीर आतंकियों से पटी है जो भारत के लिये कहीं अधिक मुसीबत बनी हुई है। दूसरे षब्दों में कहें तो सीमा के पार और सीमा के भीतर भारत इन दिनों पाक प्रायोजित आतंक से जूझ रहा है। अमेरिका से आर्थिक प्रतिबंध और आतंकवाद को लेकर लगातार मिल रही धौंस से पाकिस्तान फिलहाल बिलबिलाया भी है और आतंक के चलते ही वह ग्रे लिस्ट में षामिल किया गया है। सार्क देषों के सदस्यों के साथ भी उसका गठजोड़ भारत सहित कईयों के साथ पटरी पर नहीं है। चीन की सरपरस्ती में अपना भविश्य झांकने वाला पाकिस्तान अपने देष के भीतर ही कई संकटों को जन्म दे चुका है। ये कुछ बानगी हैं जो इमरान खान की नई सरकार का जिनसे तत्काल सामना होगा। वैसे भविश्य में क्या होगा यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि इमरान खान चुनाव जीतने के तुरन्त बाद ही चीन की ओर अपना झुकाव और कष्मीर मुद्दे को लेकर अपनी राय व्यक्त कर चुके हैं। कहना यह भी जरूरी है कि पाकिस्तान के साथ समस्या केवल कष्मीर में नहीं बल्कि पाकिस्तान के भीतर मौजूद विविध षक्ति केन्द्रों में है। ताकतवर सेना, प्रभावषाली आईएसआई, कट्टरपंथी ताकतें और गुट तथा पाकिस्तान में लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित लेकिन कमजोर सरकारें पाकिस्तान की तबाही का कारण रही है। जब तब इन षक्ति केन्द्रों के बीच भारत से रिष्ते सुधारने को लेकर सर्वसम्मति नहीं बनेगी इस बारे में कोई भी ठोस पहल महज ख्याली पुलाव ही रहेगी। यदि इमरान खान भारत से रिष्ता सुधारना चाहते हैं तो कष्मीर का राग अलापने के बजाय विकास के मार्ग पर उन्हें कदमताल करना होगा और यहां पर फैली षक्तियों के दबाव और प्रभाव में नहीं बल्कि सरकार के बूते आगे बढ़ना होगा। 
फिलहाल सरकार बनते ही यह चित्र भी साफ हो गया कि इमरान क्या करेंगे? 21 सदस्यों वाली कैबिनेट में 12 ऐसे सदस्य षामिल हैं जो पूर्व राश्ट्रपति और तानाषाह परवेज मुर्षरफ के समय में अहम जिम्मेदारियां संभाल चुके हैं। ये वही परवेज मुषर्रफ हैं जिन्होंने 1999 में नवाज़ षरीफ की सरकार तख्ता पलट कर अपनी ताकत का पाकिस्तान में प्रदर्षन किया था और दषकों तक सत्ता का स्वाद चखा, राश्ट्रपति बने और अब दुबई में तड़ी पार जिन्दगी काट रहे हैं। साफ है कि सेना के प्रभाव वाली इमरान खान सरकार वहां के षक्तियों के बगैर अपनी ताकत का प्रयोग षायद ही कर पायें। पाकिस्तान में जो हो रहा है वो भारत के लिये सिर्फ एक राजनीतिक घटना है। इमरान खान के पीएम रहते भारत-पाकिस्तान में रिष्तों को लेकर कोई खास प्रभाव पड़ने वाला तो नहीं है। ऐसा देखा गया है कि भारत को लेकर इमरान खान का रवैया अक्सर आक्रामक रहा है। चुनाव के दिनों में भी वे इस स्थिति में देखे गये हैं। ऐसा करने के पीछे वोट हथियाना भी एक वजह रहा होगा। जिस तरह सेना की सरपरस्ती में इमरान की सरकार पाकिस्तान की जमीन पर सांस लेगी उससे भारत के रिष्ते सुधरेंगे यह सपना मात्र है पर सम्बंध खराब होने की स्थिति में प्रधानमंत्री मोदी को जिम्मेदार ठहराने में वे पीछे भी नहीं रहेंगे। पाकिस्तान में जो चुनाव हुआ वह भी फुल प्रूफ नहीं था। इस सियासी जंग में सेना भी षामिल थी। इमरान खान को पाकिस्तान की सेना का मुखौटा कहने में भी गुरेज नहीं है। जाहिर है जो सेना चाहेगी वही होगा। ऐसे में भारत को केवल सतर्क रहने की जरूरत होगी। भारत के खिलाफ जहर उगलने वाले इमरान कट्टरपंथियों के भी समर्थक रहे हैं और चीन को तुलनात्मक तवज्जो देने वालों में षुमार है। हालांकि इसके पहले के षासक भी दूध के धुले नहीं थे। विडम्बना यह है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र एक खिलौना रहा है जिसे सेना समय-समय पर अपने तरीके से खेलती रही और यदि कोई कमी कसर रही तो आतंकवादियों ने इसे पूरा किया। नवाज़ षरीफ की सरकार भी इस खेल में थी। सच्चाई यह है कि इमरान खान पर पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता बस उन पर नजर रखी जा सकती है। 
देखा जाय तो भारत और पाकिस्तान के बीच रिष्ते 1947 के देष के विभाजन के बाद से ही सामान्य नहीं रहे। दोनों देषों ने 1948, 1965, 1971 में युद्ध लड़े हैं और 1999 में कारगिल घटना को अंजाम देने वाला पाक चैथी बार मुंह की खा चुका है। बावजूद इसके भारत के खिलाफ आतंक का युद्ध सरहद पार से बादस्तूर जारी किये हुए है। भारत की ओर से सम्बंध सामान्य बनाने को लेकर कोषिषें होती रही हैं लेकिन हर बार नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही रहा है। 25 दिसम्बर, 2015 को प्रधानमंत्री मोदी की अचानक लाहौर यात्रा भले ही देष दुनिया के सियासतदानों को चकित कर दिया हो और कूटनीतिज्ञ इसे षानदार पहल मान रहे हों पर पाकिस्तान से रिष्ते टस से मस नहीं हुए और ठीक एक सप्ताह के भीतर 1 जनवरी 2016 को पठानकोट पर हमला किया गया जो भारत के लिये हतप्रभ करने वाली घटना थी। वैसे पाकिस्तान कभी सीधी लड़ाई नहीं कर सकता पर घुसपैठ करता रहता है। इमरान सरकार की लगाम क्योंकि सेना के हाथ में रहेगी ऐसे में द्विपक्षीय समझौता यदि होता भी है तो टिकाऊ होगा भरोसा कम ही है। पाकिस्तान की गुटों में बंटी ताकतों को इमरान खुष करना चाहेंगे और उसका तरीका भारत की लानत-मलानत है। दो टूक यह भी है कि बीते 70 सालों में पाकिस्तान में कई सत्तायें आयीं और गयीं पर जिन्होंने भारत से रिष्ते सुधारने का जोखिम लिया उन पर यहां की तथाकथित ताकतों ने कब्जा करने की कोषिष की। यही कारण है कि यहां लोकतंत्र हमेषा पंगु और सेना ताकतवर रही। बीते चार दषकों से तो आतंकवाद भी इस देष में सरपट दौड़ रहा है और भारत को लहुलुहान कर रहा है और इस मामले को लेकर जब भारत संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् में इन्हें अन्तर्राश्ट्रीय आतंकी घोशित कराने का मसला उठाता है तो चीन इनके बचाव में वीटो का उपयोग करता है। कूटनीति सिद्धांतों से चलते हैं जबकि पाकिस्तान इससे बेफिक्र है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी का बीते 16 अगस्त को देहांत हुआ उन्हें स्मरण करते हुए उनका यह वक्तव्य कि मित्र बदल सकते हैं पड़ोसी नहीं। वाजपेयी प्रधानमंत्री रहते हुए आगरा षिखर वार्ता के माध्यम से द्विपक्षीय सम्बंध सुधारने की कोषिष की पर यदि पड़ोसी सिद्धांत विहीन हो तो दूसरा पड़ोसी कुछ कर नहीं सकता। कूटनीतिक हल के लिये दो सिद्धांत होते हैं पहला सभी मामले षान्तिपूर्ण वार्ता के जरिये सुलझाये जाने चाहिये, दूसरा द्विपक्षीय मामले में किसी तीसरे को षामिल करने से बाज आना चाहिए पाकिस्तान ने हमेषा इन दोनों सिद्धांतों का उल्लंघन किया है। इमरान से पहले भी 21 सत्ताधारी आ चुके हैं और हर बार उम्मीद जगी है पर दो ही कदम पर सभी से भारत को निराषा ही मिली है। यहां यह उल्लेख सही रहेगा कि 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री अपने षपथ समारोह में सार्क के सभी देषों को आमंत्रित किया था जिसमें पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ षरीफ भी षामिल थे। षुरू में जोष दिखाया पर बाद में पाक की आंतरिक गुटों सेना, आतंक और आईएसआई के दबाव में वे भी धराषाही हो गये। अन्ततः कह सकते हैं कि इमरान की व्यूह रचना पर भारत की नजर रहेगी कि पाक की सत्ता की पिच पर कैसा खेल खेलते हैं। 
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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एक राजनेता जो राजधर्म सिखाता था

वाकई अटल बिहारी वाजपेयी का जाना सही मायने में एक युग का अन्त है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि भारतीय लोकतंत्र नें गिने चुने कद्दावार नेता ही पैदा किये हैं जिसमें अटल जी को अव्वल दर्जे पर रखा जा सकता है। भारत रत्न और पूर्व प्रधानमंत्री तथा कवि हृदय अटल बिहारी वाजपेयी नहीं रहे यह बात भारत के जन-जन को बहुत अखरा है। पक्ष हो या विपक्ष सभी में वाजपेयी बेषुमार लोकप्रिय थे। पूरा देष उन्हें भावभीनी विदाई दे रहा है। कोई महान सपूत कह रहा है, कोई षानदार वक्ता तो कोई प्रतिद्वंदियों के मन को जीतने वाला योद्धा करार दे रहा है। भाजपा के षायद वह मात्र एक ऐसे नेता थे जिन्हें अजात षत्रु की संज्ञा दी जा सकती है। रोचक यह भी है कि उन्हें जितना सम्मान भाजपा से प्राप्त था उससे कही ज्यादा विरोधी दलों से मिला है। यही कारण है कि वाजपेयी का जाना हर किसी को नागवार गुजरा और सभी निःषब्द हैं। संसद में अपनी वाणी से सदन के सदस्यों के दिल को जीतने वाले वाजपेयी के बारे में साल 1957 में प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा था कि मैं इस युवक में भारत का भविश्य देख रहा हूँ। जाहिर है वाजपेयी निहायत दूरदर्षी किस्म के महामानव सरीखे व्यक्ति थे। षायद उसी का तकाजा था कि विपक्ष में होते हुऐ भी उन्हें सरकारें विदेषों में भारत का प्रतिनिधत्व करने हेतु जिम्मेदारी देने से हिचकिचाती नहीं थीं। ये बात और है कि दूसरे देष ऐसा होते देख अचरज में जरूर पड़ जाते थे। संयुक्त राश्ट्र में हिन्दी में भाशण देने वाले पहले व्यक्ति अटल बिहारी वाजपेयी ही थे। चाहे राजनीतिक गलियारा हो, फिल्म जगत हो या फिर खेल जगत ही क्यों न हो आदि समेत पूरा भारत वाजपेयी के जाने से दुःखी है। इतना ही नहीं पड़ोसी समेत दुनिया के तमाम देष इस खबर से क्षुब्ध हैं। 
वाजपेयी तीन बार देष के प्रधानमंत्री बने तब दौर गठबंधन सरकारों का था। गौरतलब है 1989 से देष में इसका दौर षुरू हुआ और यह सिलसिला 2014 में आकर थमा। हालांकि गठबंधन की पहली बार सरकार मोरार जी देसाई के नेतृत्व में 1977 में बनी थी तब वाजपेयी को विदेष मंत्री का जिम्मा मिला था। 1996 के लोकसभा चुनाव में किसी भी दल को बहुमत न मिलने वाला सिलसिला बादस्तूर जारी रहा। चुनाव के नतीजे किसी के पक्ष में नहीं थे पर संकेत भाजपा के ओर झुके थे फलस्वरूप हाँ ना के बीच अटल जी ने प्रधानमंत्री पद की षपथ ली। 28 मई 1996 प्रधानमंत्री वाजपेयी को अपना बहुमत सिद्ध करना था हालांकि वक्त 31 मई तक के लिए मिला था। इस दौरान विपक्ष के सत्तालोभी आरोपों को जिस तरह उन्होंने खारिज करते हुऐ यह कहा कि जब तक वह राश्ट्रीय उद्देष्य पूुरा नहीं कर लेंगे तब तक विश्राम से नहीं बैठेंगे। अध्यक्ष महोदय में अपना त्याग पत्र राश्ट्रपति महोदय को देने जा रहा हूँ। सदन में इस तरह के हतप्रभ करने वाले भाशण सुनकर विरोधी भी असहज हो गये थे। यह अटल का दृढ़ निष्चय ही था कि राजनीति के पैंतरे को न कभी अपने लिए गलत तरीके से अपनाया और न ही दूसरों के खेमे में ऐसा होने दिया। अलबत्ता 13 दिन की सरकार गिर गई पर देष की जनता का निर्णय अभी भी वाजपेयी के पक्ष में था। यही कारण है कि 1998 के मध्यावधि चुनाव में एक बार फिर अटल जी प्रधानमंत्री बने यह भी अल्पमत की सरकार थी। गठबंधन 13 महीने तक चला आखिरकार 1999 में एक बार फिर देष चुनाव का सामना किया। यह तीसरा वाकया हुआ जब अटल जी एक बार फिर 23 दलों के सहयोग से देष की बागडोर संभाली। इस समय तक देष में यह बात आम हो गई थी कि गठबंधन की सरकारें भारत में सफल नहीं हो सकती और कभी भी अपना कार्यकाल षायद ही पूरा कर पायें मगर वाजपेयी ने इसे गलत सिद्ध कर दिया। उन्होंने न केवल 5 साल सरकार चलाई बल्कि बडे़-बडे़ निर्णय लेने में भी कोई कोताही नहीं बरती। आने वाले दिनों के लिए अटल जी ने यह भी उदाहरण पेष कर दिया कि भारत में गठबंधन की सरकार सफलता पूर्वक चलाई जा सकती है। इसका पुख्ता सबूत मनमोहन सिंह का दो कार्यकाल है।
कार्यकाल छोटे थे परंतु कारनामे अत्यन्त बड़े। साल 1998 के 11 और 13 मई को पोखरण में 5 परमाणु परीक्षण हुऐ तत्पष्चात पूरी दुनियाँ भारत की दुष्मन बन गई। पूरब से लेकर पष्चिम, और अमेरिका से लेकर आस्ट्रेलिया सभी ने भारत से रिष्त-नाते तोड़ लिये। भारत दुनियां में अकेला हो गया हांलाकि इस दौर में इजराइल ने भारत का सर्मथन किया जो अपने आप में बड़ी महत्वपूर्ण बात है। अमेरिका के खुफिया सैटलाइट के नीचे जिस प्रकार परमाणु परीक्षण को अंजाम दिया गया वह भी काबिल-ए-तारीफ थी। जाहिर है दुनिया के इस कदम से भारत की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और देष कठिनाई की ओर गया मगर दुनियां यह जान गई थी कि भारत एक परमाणु सम्पन्न राश्ट्र हो गया है। ऐसा वाजपेयी के अटल इरादों के चलते ही सम्भव हुआ। हांलाकि 1974 में पहला पोखरण परीक्षण किया जा चुका था। बाद में 2006 में अमेरिका ने भारत से प्रतिबंध हटा लिया मगर आस्ट्रेलिया फिर भी नहीं माना। खराब सम्बन्धों के चलते आस्ट्रेलिया से यूरेनियम न मिल पाना एक बड़ा करण था। मनमोहन सिंह की सरकार ने इस पर कड़े अभ्यास किये अन्ततः 2014 में ब्रिसबेन में हुऐ जी-20 के बैठक में आस्ट्रेलिया के साथ सहमति बन गई।  करगिल के चलते पाकिस्तान को घूल चटाने का काम अटल बिहारी वाजपेयी ने ही किया। पाकिस्तान की नवाज षरीफ सरकार का तख्ता पलटने वाले परवेज मुषरर्फ को कभी तव्वजो ही नहीं दिया। जब 2001 में आगरा षिखर वार्ता का मसौदा तैयार हुआ और यह तय किया गया कि मुषरर्फ और वाजपेयी एक टेबल पर होंगे तब दौर बदल चुका था मगर तानषाह मुषरर्फ वाजपेयी के सामने कैसे टिक सकता था वह बिना किसी वार्ता के इस्लामाबाद चला गया। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिससेे अटल के व्यक्तित्व को जांचने परखने के काम में लिया जा सकता है।  
अटल जी बीते 9 साल से सार्वजनिक जीवन में नहीं हैं इस बीच उनकी एक बार सार्वजनिक तस्वीर 27 मार्च 2015 को तब प्रकाषित हुई जब उन्हें तत्कालीन राश्ट्रपति प्रणव मुखर्जी भारत रत्न प्रदान कर रहे थे। वे एक लम्बी बीमारी से जूझ रहे थे और एक लम्बी लड़ाई के पष्चात इस जगत को विदा करके चले गये। अनायास ही सही पर ऐसा लगता है कि जैसे उन्होंने अपने तमाम राजनीतिक सिद्धांतों के साथ कई मान्यताओं और लोकतंत्र की थाती यहीं छोड़ गये हैं। अटल जी बहुत कुछ छोड़ गये हैं जो जिस भी हिस्से में बांटा जाय आसानी से वितरित हो जायेगा। कवि थे, राजनेता थे, कठोर निर्णय व नरम हृदय रखने वाले राजधर्म के प्रणेता थे, संवाद और हाजिर जवाब के मामले में कहीं अधिक अव्वल थे। विराधियों को कैसे दोस्त बनाना है इस हुनर से भी ओतप्रोत थे, सच्चे देषभक्त थे सब के असल मायने में जननायक थे। मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब गोदरा में हुई घटना के बाद उन्हें राजधर्म सिखाने का काम वाजपेयी ने ही किया था। हम सब के लिए यह एक युग पुरूश थे। आने वाली पीढ़ियाँ अटल को अपना आदर्ष जरूर बनायेंगी। मिली-जुली सरकार कैसे चलती है, उदार दृश्टिकोण कैसा होता है और भारत की विविधता व अक्षुण्णता कैसे बनी रहती है इसे अटल जी सिखा गये। कष्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से अरूणाचल तक सड़कों का जाल बिछाने वाले वे विकास पुरूश थे। बाते बहुत हैं पर सब की अपनी सीमायें हैं अन्ततः कह सकते है कि अटल जी की दूरदर्षिता के सब कायल थे। बात अनुचित हो तो साफ कहना और सुखी रहना उनकी आदत थी यही कारण था कि अपने दल के विरूद्ध भी जाने से भी हिचकिचाते नहीं थे। इसमें कोई षक नहीं कि आने वाली पीढ़ियां राजधर्म निर्वहन को ले कर अटल जी को बहुत याद करेंगी।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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Thursday, August 16, 2018

लाल किले से पीएम का 2019 पर निशाना

फिलहाल 15 अगस्त 2018 को लाल किले के प्राचीर से प्रधानमंत्री मोदी के दिये गये भाशण को एक लेख में समेटना सम्भव नहीं है और इसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न रूपों में हो सकती है। गरीब, किसान, कृशि, काला धन जैसे विशयों पर भाशण कहीं ज्यादा केन्द्रित था। 82 मिनट के भाशण में सबसे ज्यादा 39 बार गरीब षब्द का प्रयोग हुआ, 14 बार किसान, 22 बार गांव का जिक्र था जबकि भाशण में 11 बार स्वच्छता और इतनी बार ही कृशि का जिक्र आया साथ ही 4 बार रोज़गार षब्द भी इसमें षुमार है। जैसा कि कयास था इस साल का 72वां स्वतंत्रता दिवस कुछ सौगातों और उम्मीदों की भरपाई करेगा और प्रधानमंत्री मोदी अपने अब तक के किये गये कार्यों के लिये अपनी पीठ भी थपथपायेंगे ठीक वैसा हुआ भी है। लाल किले की प्राचीर से मोदी ने कहा कि यदि हम साल 2013 की रफ्तार से चलते तो कई काम करने में दषकों लग जाते मगर बीते चार सालों में बहुत कुछ बदला और देष आज बदलाव महसूस कर रहा है। तरह-तरह की उपमा के साथ मोदी ने अपने विचारों को स्वतंत्रता दिवस के इस पावन अवसर पर परोसा और यह समझाने का प्रयास किया सब कुछ पहले जैसा है लेकिन अब देष बदल रहा है और ऐसा होने के पीछे उनकी अब तक की मेहनत है। यही बात थोड़ी नागवार गुजरती है कि 70 साल से अधिक आजादी प्राप्त भारत का सारा विकास केवल चार सालों में कैसे हो गया। मैं बेसब्र हूं क्योंकि जो देष हमसे आगे निकल चुके हैं हमें उनसे भी आगे जाना है। मैं बेचैन हूं हमारे बच्चों के विकास में बाधा बने कुपोशण से देष को मुक्त कराने के लिये और मैं व्याकुल हूं हर गरीब तक समुचित हैल्थ कवर पहुंचाने के लिये। कह सकते हैं कि आयुश्मान योजना इसी व्याकुलता का नतीजा है जिसे फरवरी के बजट में लाया गया और अब क्रियान्वित करने की बारी है। बेषक प्रधानमंत्री बेसब्री और बेचैनी की बात कर रहे हैं पर यह नहीं भूलना चाहिए कि 14 साल से अधिक गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने यदि यही बेचैनी और व्याकुलता दिखाई होती तो कुपोशण समेत अनेक बुनियादी समस्याओं से गुजरात आज मुक्त होता। जिस गुजरात माॅडल को केन्द्र में रखकर दिल्ली की गद्दी हथियाई गयी थी अब उस पर कोई चर्चा नहीं होती क्योंकि अब वह पुराना माॅडल हो गया और उसके इस्तेमाल से अब राजनीति को फायदा नहीं होता है। 
रोचक यह भी है कि मार्च 2015 में जम्मू-कष्मीर की अलगाववादियों की समर्थन करने वाली पीडीपी के साथ मिलकर भाजपा ने सरकार बनायी। बाकायदा तीन साल सरकार चली और जब गठबंधन टूटा तो कष्मीर की घाटी तबाही के मंजर से दो-चार हो रही थी। लाल किले की प्राचीर से मोदी अब जम्मू-कष्मीर में अमन-चैन के लिये अटल जी का फाॅर्मूला अपनाने की बात कर रहे हैं जिसमें इंसानियत, कष्मीरियत औ जम्मूरियत षामिल है। बीते 10 अगस्त को मानसून सत्र समाप्त हुआ पड़ताल बताती है कि बीते 18 वर्शों में यह सर्वाधिक सफल सत्र था। इसी सत्र में राज्यसभा के उपसभापति के चुनाव में जबरदस्त जोड़-तोड़ के चलते सरकार ने 126 के मुकाबले विपक्ष को 111 पर धराषाही करते हुए विजय प्राप्त की जबकि लाल किले से मोदी जी कह रहे हैं कि तीन तलाक पर हमने संसद में बिल लाया लेकिन कुछ लोग इसे पास नहीं होने दिये। जब सरकार को मुनाफा लेना होता है तो अपना काम किसी तरह कर लेते हैं और जिसे लेकर स्वयं इच्छाषक्ति का आभाव है उसका ठीकरा विपक्ष पर फोड़ देते हैं। सच्चाई यह है कि तीन तलाक के मामले में मोदी सरकार स्वयं चुनाव तक कुछ करना नहीं चाहती। इसके लटकाने में इन्हें राजनीतिक फायदा मिलेगा। इसमें कोई दुविधा नहीं कि आगामी लोकसभा के 2019 के चुनावी फिजा में तीन तलाक को भुनाना चाहेंगे और मुस्लिम महिलायें एक बार फिर भावनात्मक राजनीति की षिकार होंगी। किसानों की फसल का एमएसपी कुछ महीने पहले डेढ़ गुना कहा जा रहा था अब कुछ हद तक दोगुना भी कहा जा रहा है। यह बात समझ के परे है कि जब एमएसपी डेढ़ गुना हो गया है तो सरकार खुलकर क्यों नहीं बोलती कि उसने स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू कर दिया है। साल 2022 तक किसानों की आय दोगुना कहे जाने वाली बात एक बरस पुरानी हो गयी 2019 में यह सभी बातें जोर पकड़ेंगी। भारत के घर में षौचालय हो, अच्छी और सस्ती स्वास्थ सुविधा सुलभ हो साथ ही हर भारतीय को बीमा का सुरक्षा कवच मिले। ये सभी लाल किले से भरी हुई हुंकार है जो चुनाव के गलियारे में भी षोर मचायेगी। 
इन्हीं सबके बीच भारतीय सषस्त्र सेना में नियुक्त महिला अधिकारियों में पुरूश के समकक्ष पारदर्षी चयन प्रक्रिया द्वारा स्थायी कमीषन की प्रधानमंत्री ने बात कही जो वाकई में तारीफ के काबिल है। पीएम ने वर्श 2014 के पहले दुनिया की कई मान्य संस्थाओं और अर्थषास्त्रियों का हवाला देते हुए कहा कि वे कहते थे कि भारत की अर्थव्यवस्था में बहुत जोखिम है अब वही लोग सुधारों की तारीफ कर रहे हैं। यह सही है कि विष्व बैंक से लेकर अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश, मुडी रिपोर्ट आदि भारत की अर्थव्यवस्था को सकारात्मक मानते हैं। इतना ही नहीं फ्रांस को पीछे छोड़ते हुए भारत इंग्लैण्ड की अर्थव्यवस्था के समीप है। बावजूद इसके बड़ा सवाल यह है कि मानव विकास सूचकांक में हम बहुत उम्दा नहीं हैं। हालांकि मोदी प्रधानमंत्री की ंिचंता इन सबको लेकर देखी जा सकती है। एक खास बात यह भी है कि जब मोदी ने कहा कि एक समय था जब पूर्वोत्तर भारत को लगता था कि दिल्ली बहुत दूर है लेकिन हमने दिल्ली को पूर्वोत्तर के दरवाजे पर खड़ा कर दिया। जिस तर्ज पर मोदी ने पूर्वोत्तर के लोगों की तारीफ की वाकई में उसकी जरूरत थी यह संदेष अच्छा है। बुनियादी विकास के साथ विकास के वर्चस्व की भी लाल किले से आवाज सुनायी दी। जहां गरीबी, बीमारी, बेरोज़गारी, किसानों को लेकर चिंता और महिला सुरक्षा की गूंज लाल किले की प्राचीर से आयी वहीं 2022 तक देष का कोई बेटा-बेटी अंतरिक्ष तक पहुंच सकता है इसे लेकर भी उत्साह भरे लव्ज़ मोदी ने कहे। 
प्रधानमंत्री मोदी ने कई ऐसी घोशणायें भी की जिनका सीधा सम्बंध बीते मानसून सत्र में किये गये कार्यों से है और कई ऐसी बातें कहीं जो तमाम चुनावी सभाओं में कहते रहे हैं। मोदी के भाशण में नया और पुराना दोनों का मिश्रण था। जब पहली बार 2014 के 15 अगस्त में प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाशण में कई उत्साहवर्धक विचारों के साथ कई घोशणायें की थी तभी से यह लगा था कि नई सरकार नई सोच के साथ बहुत कुछ नया करेगी मगर वक्त निकलता गया और मोदी भी अन्य सरकारों की तरह वायदे करते गये पर खरे नहीं उतरे। काला धन का मामला आज भी खटायी में है। नवम्बर 2016 में नोटबंदी के बाद देष में कितना काला धन है इसकी भी जानकारी देने में सरकार विफल रही। केषलैस की बात करने वाली सरकार अब न केवल इस पर चुप रहती है बल्कि लेषकैष से जूझ रही है और बैंकिंग सेक्टर अभी भी नोटबंदी के साइड इफैक्ट से जूझ रहे हैं। समय के साथ यह सवाल गहराता गया कि स्वच्छ भारत अभियान कितना सफल है और नमामि गंगे को सबसे ऊपर रखने वाली सरकार इतनी ढ़ीली क्यों हुई कि गंगा की सौगंध लेने वाले पीएम मोदी के कार्यकाल में सफाई छोड़िये गंगा और मैली हुई है। सर्वोच्च न्यायालय ने डांट लगायी पर कुछ हासिल नहीं हुआ। निवेषक देष पर पूरा भरोसा नहीं कर पाये। मेक इन इण्डिया, डिजिटल इण्डिया, स्टार्टअप एण्ड स्टैण्डअप इण्डिया सरपट दौड़ नहीं लगा पाये। देष कई अनचाही समस्याओं में जूझने लगा जैसे माॅब लिंचिंग जैसी समस्या। फिलहाल मौजूदा सरकार का यह अंतिम 15 अगस्त था जिसमें भारत बदलने की बात भी है और 2019 पर निषाना भी।
सुशील कुमार सिंह
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Monday, August 13, 2018

मौजूदा सत्ता का अंतिम 15 अगस्त

कयास यह है कि इस साल देश  का 72वां स्वतंत्रता दिवस कुछ सौगातों और उम्मीदों की भरपायी कर सकता है। ऐसे दिनों में देष की जनता लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री के सम्बोधन में अपने लिये कुछ नया जरूर ढूंढती है। 2014 से लेकर 2018 के बीच यह पांचवां मौका होगा जब प्रधानमंत्री मोदी लाल किले से बोलेंगे। इस बार का सम्बोधन इस लिहाज़ से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि आगामी अप्रैल-मई में 17वीं लोकसभा का गठन होना है। ऐसे में जनता को लुभाने वाले कई इरादे मोदी द्वारा व्यक्त किये जा सकते हैं। वैसे तो पीएम मोदी हर बार के स्वतंत्रता दिवस पर दिये गये अपने भाशण में नई बात करते हैं पर इस बार क्या कहेंगे इसकी उत्सुकता तो होगी। माना जा रहा है कि जनधन योजना के तहत खाताधारकों के लिये ओवर ड्राफ्ट सुविधा दोगुनी कर 10 हजार की जा सकती है। ये सरकार का उन लोगों को कोश उपलब्ध कराने का प्रयास है जो इससे वंचित है। स्थिति को समझते हुए आकर्शण सूक्ष्म बीमा योजना की घोशणा की जा सकती है। रूपे कार्ड धारकों के लिये मुक्त दुर्घटना बीमा में भी बढ़ोत्तरी हो सकती है। सभी जानते हैं कि स्वतंत्रता दिवस का मौका प्रधानमंत्री के लिये ऐसी तमाम घोशणाओं के लिये एक बेहतर मंच होता है जिससे जनता लम्बे समय तक फील गुड में रहती है। प्रधानमंत्री मोदी लुभावने भाशण के लिये जाने भी जाते हैं। इसका यह तात्पर्य नहीं कि मात्र रिझाने का काम करते हैं बल्कि पूरा करने की कोषिष भी रही है। मगर पड़ताल बताती है कि घोशणाओं की फहरिस्त लम्बी है और अनेकों का जमीन पर उतरना अभी बाकी है। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले मोदी का यह आखरी भाशण होगा। सभी जानते हैं इसी दिन जियो की सेवा गीगा फाइबर ब्राॅडबैंड के लिये रजिस्ट्रेषन षुरू होगा। रेलवे का नया टाइम टेबल भी इसी दिन लागू होने वाला है। जाहिर है देष में कई ट्रेनों का समय बदल जायेगा। 15 अगस्त को ही रेलवे के डेडीकेटेड फ्रेड काॅरिडोर की षुरूआत होगी जिसका पहला ट्रायल 192 किमी के अटेली से फुलेरा सेक्षन में होगा। यह प्रोजेक्ट 81 हजार करोड़ रूपये से अधिक का है। 
प्रधानमंत्री मोदी को यह पता है कि कब, किस तरह का बयान देना है। 15 अगस्त के भाशण में सरकारी कर्मचारियों के लिये भी बड़ा ऐलान हो सकता है। सरकार कर्मचारियों की न्यूनतम सैलरी 18 हजार के बजाय 26 हजार करने पर राजी हो सकती है। कई सामाजिक, आर्थिक और बुनियादी महत्व के मुद्दों को मोदी जनता के सामने परोस कर बेहतर सरकार का खिताब भी हासिल करना चाहेंगे। गौरतलब है कि पिछले स्वतंत्रता दिवस के दिन प्रधानमंत्री ने यह स्पश्ट किया था कि 2022 तक न्यू इण्डिया बनाने का आह्वान करते हुए नोटबंदी, सर्जिकल स्ट्राइक, कष्मीर समस्या, भारत-चीन विवाद, आस्था के नाम पर हिंसा, तीन तलाक जैसे कई मुद्दों का जिक्र किया था। जिसमें से कई मुद्दों को अपने भाशण का एक बार फिर हिस्सा बना सकते हैं। खास यह भी है कि बीते 18 सालों में पिछला बजट सत्र जहां सबसे खराब रहा वहीं बीते 10 अगस्त को समाप्त मानसून सत्र कहीं अधिक सार्थक सिद्ध हुआ है। कामकाज के लिहाज़ से बीते मानसून सत्र महत्वपूर्ण रहा है। सत्र के दौरान कुल 17 बैठकें हुई। कुल लाये गये 17 विधेयकों में 12 पारित किये गये। राज्यसभा में 74 फीसदी से अधिक कामकाज हुआ जो पिछले की तुलना में 25 फीसदी अधिक है। यहां 14 विधेयक पारित किये गये जबकि पिछली बार मात्र दो ही विधेयक पारित हो पायेे थे। पिछले दो सत्रों के मुकाबले यह 140 फीसदी अधिक रहा। सम्भव है ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा और एससी/एसटी एक्ट में किये गये संषोधन पर मोदी सरकार की वाहवाही लूटने वाला प्रसंग भी भाशण में षामिल हो सकता है। 
जब पहली बार 2014 में 15 अगस्त से प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाशण में कई उत्साहवर्धक विचार व्यक्त किये थे और कई घोशणायें भी की थी तभी से यह लगा था कि नई सरकार नई सोच के साथ बहुत कुछ नया करेगी मगर वक्त निकलता गया और मोदी वायदे पर कितने खरे रहे इस पर सवाल गहराता गया। स्वच्छ भारत अभियान, मेक इन इण्डिया, डिजिटल इण्डिया, स्टार्टअप एण्ड स्टैण्डअप इण्डिया समेत स्मार्ट सिटी जैसे कई महत्वपूर्ण काज करने का प्रयास मौजूदा सरकार के व्यवस्था में षामिल था। इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार ने जनता में विष्वास जगाने का काम किया है परन्तु रोजगार और बुनियादी विकास की बढ़ी मांग को पूरा करने में कहीं अधिक पीछे रही है। दो करोड़ प्रति वर्श रोज़गार देने का वायदा आज भी जस का तस है। बीते फरवरी के बजट में 70 लाख रोज़गार की बात कही गयी। काले धन पर सरकार को किसी भी प्रकार की सफलता मिली है ऐसा कह पाना कठिन है। देष में महिलाओं और बच्चियों की सुरक्षा भी बहुत बिगड़ी अवस्था में है। कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच भी काफी गहमागहमी देखने को मिलती रही है। फिलहाल कई बुनियादी तथ्य जो 15 अगस्त को पहले भी उभारे गये उन्हें पूरा होने का इंतजार जनता आज भी कर रही है। गरीबों को मुफ्त रसोई गैस तो बांटे गये परन्तु आमदनी के आभाव में आज भी उनके घरों में सलेण्डर किसी कोने में पड़े हुए है। सरकार की वैदेषिक नीति अच्छी कही जा सकती है। अमेरिका द्वारा हाल ही में बिना एनएसजी में सदस्यता के ही एसटीए-1 में षामिल करते हुए भारत को वह दर्जा दे दिया है जिसमें एनएसजी की जरूरत ही नहीं है। गौरतलब है कि 48 देषों का न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (एनएसजी) का सदस्य चीन है जो भारत के लिये कहीं न कहीं रोड़ा था। 15 अगस्त के भाशण में इस उपलब्धि का बखान भी हो सकता है। राफेल खरीद के मामले में भ्रश्टाचार का आरोप विपक्ष लगा रहा है। हालांकि सरकार ने इस पर अपनी सफाई दे दी है। बीते चार सालों में मोदी चार बार रूस तो चार बार रूस की यात्रा कर चुके हैं। अमेरिका से लेकर यूरोप तक वैदेषिक नीति का प्रसार करने में सफल करार किये जा सकते हैं। मगर पाकिस्तान के मामले में दो कदम आगे और तीन कदम पीछे जैसी स्थिति रही है जबकि चीन के मसले में बात संतुलित कही जा सकती है न कि अच्छे सम्बंध का परिप्रेक्ष्य निहित है। 
प्रधानमंत्री मोदी कई ऐसी घोशणायें भी की हैं जिन्हें लेकर अब षायद चर्चा भी नहीं होती जिसमें सांसद अदर्ष ग्राम योजना षामिल है। आतंकवाद, साम्प्रदायिकता और जातिवाद से मुक्त भारत का संकल्प पिछले साल की 15 अगस्त के भाशण में था जो कहीं से कमतर दिखायी नहीं देता। बदला है बदल रहा है और बदल सकता है यह बात भी लाल किले से बोली गयी है। उम्मीद है कि इस बार भी कई बदलाव के साथ बातें की जायेंगी। पूरे देष में किसानों की भलायी को लेकर कषीदे गढ़े गये हैं परन्तु मात्र तीन लाख करोड़ के कर्ज से दबे किसानों को सरकार ने अभी तक मुक्ति नहीं दी है। सरकार का दावा है कि उसने फसलों का समर्थन मूल्य डेढ़ गुना कर दिया है मगर यह बात नहीं कहती कि उसने स्वामीनाथन रिपोर्ट लागू कर दिया। 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने, दो करोड़ घर देने और घर-घर बिजली पहुंचाने का वायदा भी लाल किले से किया जा चुका है। जाहिर है इस पर भी देष की जनता दृश्टि गड़ाये हुए है। कुल मिलाकर निहित भाव यह भी है कि सरकार सरकार की तरह ही काम करेगी जादूगर की तरह नहीं। जिस उम्मीद के साथ मोदी ने सत्ता संभाली उस पर कितना खरा उतरी इस पर भी सरकार और जनता के बीच राय अलग-अलग है। फिलहाल इस बार की 15 अगस्त के भाशण में इस बात का पूरा ध्यान रहेगा कि कोई कमी कसर न रह जाये। जाहिर है सरकार का होमवर्क अच्छा होगा पर देखना यह है कि लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री मोदी के इस बार के भाशण पर जनता कितनी सहज होती है। 



सुशील कुमार सिंह
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सियासत नहीं सही सोच की ज़रूरत

ममता बनर्जी के गढ़ पश्चिम बंगाल में बीते 11 अगस्त को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह इस धमक के साथ अपनी बात कह रहे थे कि तृणमूल कांग्रेस का वोट बैंक बंग्लादेषी घुसपैठिये हैं। उन्होंने यह भी कहा कि देष की सुरक्षा अहम है या वोट बैंक ममता बनर्जी को यह भी स्पश्ट करना चाहिये। अमित षाह मोदी की अगुवायी में पष्चिम बंगाल के विकास और भ्रश्टाचार से मुक्ति की बात कह रहे हैं साथ ही यह भी कह रहे हैं कि 19 राज्यों में भाजपा की सरकार का तब तक कोई मतलब नहीं जब तक पार्टी बंगाल की सत्ता पर काबिज नहीं होती। स्पश्ट है कि पष्चिम बंगाल भाजपा के लिये नाक की लड़ाई बन गयी है। कुछ राज्यों को छोड़कर पूरे भारत की सत्ता पर काबिज भाजपा बिना बंगाल के बाकियों की सत्ता को गौण मान रही है। यह उनका कौन सा सियासी स्वरूप है कि बंगाल का आभाव बाकी राज्यों पर भारी पड़ रहा है। भाजपा अध्यक्ष ने कहा कि बंग्लादेषी घुसपैठियों को ममता बनर्जी संरक्षण दे रही है। दरअसल पष्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री असम में राश्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का विरोध कर रही है। इसी विरोध के चलते तृणमूल ने एनआरसी के विरोध में अमित षाह के भाशण के दिन कलकत्ता को छोड़कर पूरे राज्य में रेली आयोजित की। सियासी लड़ाई में राजनीतिक दल अपने रसूख को जिस तरह देष से ऊपर रख देते हैं यह बात किसी के दिमाग को दुविधा में डाल सकती है। 
अब यह समझना जरूरी है कि आखिरकार मामला क्या है। असम देष का एकलौता ऐसा राज्य है जिसमें 1951 से राश्ट्रीय नागरिक रजिस्टर बनाने की प्रक्रिया है। दरअसल जब 1947 में देष आजाद हुआ तभी से असम में पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेष) के नागरिक और असम से बांग्लादेष की आवाजाही हजारों की संख्या में होती थी। इसी को देखते हुए 8 अक्टूबर 1950 को तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू और पाकिस्तान के पीएम लियाकत अली में एक समझौता हुआ। यह उस समय की बड़ी मांग भी थी क्योंकि उस दौर में बंटवारे से प्रभावित इलाके के नागरिक अपने पुस्तैनी घरों को छोड़कर देष बदल रहे थे। हालात और परिस्थितियों ने पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेष बना दिया। 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने असम समझौता किया जिसमें यह स्पश्ट था कि असम में रह रहे नागरिकों को भारत का नागरिक माने जाने की दो षर्तों में पहला जिनका पूर्वज का नाम 1951 राश्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में चढ़े हुए थे, दूसरे 24 मार्च 1971 की तारीख तक या उससे पहले नागरिकों के पास अपने परिवार के असम में होने के सबूत मौजूद हों। दो दषक बाद साल 2005 में मनमोहन सरकार ने असम गणपरिशद के साथ मिलकर एनआरसी को दुरूस्त करने की प्रक्रिया षुरू की मगर मामला न्यायालय में चला गया और रजिस्टर के नवीनीकरण हेतु अदालत ने संयोजक नियुक्त किया और सूची छापने की अंतिम तिथि 30 जुलाई 2018 थी जिसकी अवधि पिछले माह समाप्त हो गयी। तत्पष्चात् रजिस्टर तो छापा गया जिसके तहत 3 करोड़ 29 लाख प्रार्थना पत्रों में से 2 करोड़ 85 लाख को वैध पाया गया। इस तरह असम में रह रहे बाकी बचे 40 लाख का भविश्य अधर में लटक गया जिसे लेकर सभी अपने-अपने हिस्से की सियासत कर रहे हैं। 
बीजेपी कह रही है कि यदि बंगाल में सरकार बनी तो एनआरसी पष्चिम बंगाल में भी जारी किया जायेगा। गौरतलब है कि सबसे बड़ी तादाद में बांग्लादेष से आये लोग पष्चिम बंगाल में बसे हैं। अमित षाह के बंगाल का ताजा भाशण मोदी के 2014 के सीरमपुर भाशण का दोहराव है। 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में मोदी ने कहा था कि यदि उनकी सरकार बनी तो बांग्लादेषियों का बोरिया बिस्तरा बंगाल से उठ जायेगा। सरकार को 4 साल से अधिक समय हो गया। 2019 में 17वीं लोकसभा का चुनाव होना है परिस्थिति को देखते हुए भाजपा ने बांग्लादेषी घुसपैठियों को देखते हुए एक बार फिर सियासत की डगर पर है। हालांकि असम के मामले में एनआरसी से छूटे लोगों को एक मौका देने की बात कही गयी है। मोदी ने किसी भी नागरिक को देष नहीं छोड़ना होगा की बात भी कही है। विपक्ष भी एनआरसी के मामले में बंटी हुई राय दे रहा है। ममता बनर्जी यह नहीं चाहती कि केन्द्र सरकार घुसपैठियों को लेकर कोई कठोर कदम उठाये। रिपोर्ट यह बताती है कि असम के अलावा त्रिपुरा, मेघालय, नागालैण्ड में भी अवैध रूप से बांग्लादेषी रह रहे हैं। इतना ही नहीं उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में भी इनकी बसावट कही जा रही है जबकि बाॅर्डर मैनेजमेंट टास्क फोर्स 2000 की रिपोर्ट कहती है कि डेढ़ करोड़ बांग्लादेषी घुसपैठ कर चुके हैं और लगभग 3 लाख प्रति वर्श घुसपैठ करते हैं। ताजा अनुमान तो यह है कि अब घुसपैठियों की संख्या 4 करोड़ के आसपास है। साल 2016 में असम में भाजपा की सरकार आने के बाद एनआरसी को सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में अपडेट किया गया था जिसका आखरी ड्राफ्ट बीते दिनों जारी हुआ जिसके चलते देष की सियासत में भूचाल आ गया।
देष में घुसपैठियों को लेकर सियासत हिन्दू, मुस्लिम में भी बंटी हुई है। पष्चिम बंगाल में 27 फीसदी मुस्लिम हैं। जाहिर है ये भाजपा के वोटर तो नहीं है इस बात से वे अनभिज्ञ नहीं है। तमाम घुसपैठियों के आधार और वोटर कार्ड बने हुए हैं। केन्द्र के मोदी सरकार से ममता बनर्जी का छत्तीस का आंकड़ा है। नारद, षारदा चिट फण्ड घोटाला के साथ ही सिंडिकेट जैसे मामले उनकी सत्ता में भूचाल ला चुके हैं। कई मंत्री और नेता को जेल जाना पड़ा। देखा जाय तो ममता बनर्जी का कार्यकाल तितर-बितर ही रहा है। दो टूक यह है कि एनआरसी के मामले में सियासत से ऊपर उठ कर देष की सुरक्षा भी सोचनी है। जाहिर है घुसपैठियों पर कठोर निर्णय लेना ही होगा। पष्चिम बंगाल कई कठिनाईयों से जूझ रहा है मानव तस्करी के मामले में यह सबसे आगे है, युवाओं के आत्महत्या के मामले में भी अव्वल राज्य है। पूरे देष में सबसे अधिक कल-कारखाने यहीं बंद हुए हैं और सबसे ज्यादा घुसपैठ भी यहीं हुआ है। हाल के दिनों में बंगाल के कई इलाकों में हिन्दू-मुस्लिम राॅयट भी हुए। कहा जाता है कि हिन्दुओं के ऊपर साम्प्रदायिक हमले में बांग्लादेषी घुसपैठियों को हाथ रहा है। अब तो वे जोर-जबरदस्ती से यहां के बंगाली बाषिन्दों की जमीन भी हड़प रहे हैं और हिंसा का सहारा ले रहे हैं। फिलहाल घुसपैठ का मामला निहायत संवेदनषील है इसे सियासत से नहीं राश्ट्रीय सुरक्षा की सही सोच विकसित करके हल करना हेगा।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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Wednesday, August 8, 2018

आखिरकार दुष्कर्म रुक क्यों नहीं रहें हैं

 दुष्कर्म की घटनाओं को देखते हुए देष की षीर्श अदालत ने जिस प्रकार के भाव प्रकट किये हैं उससे स्पश्ट है कि समस्या विषेश को देखते हुए चिंता और चिंतन दोनों तुलनात्मक माथे पर और बल पैदा करेंगे। लेफ्ट-राइट और सेंटर जहां भी देखो वहां दुश्कर्म हो रहे हैं सुप्रीम कोर्ट के इस वक्तव्य से साफ है कि पानी सर के ऊपर जा रहा है। दरअसल कोर्ट ने बिहार के मुजफ्फरपुर के षेल्टर होम में हुए कथित यौन षोशण और यूपी के देवरिया मामले का जिक्र करते हुए कहा कि आखिर देष में क्या हो रहा है। वाकई समस्या संभल नहीं रही है। सरकारें घटना के बाद जांच-पड़ताल में भले ही ईमानदारी बरतें पर इसके रोकथाम में लगातार वे विफल रही। यदि सवाल यह किया जाय कि ऐसा क्या है कि सभ्य समाज का सिर झुक रहा है तो दो टूक जवाब यह है कि कुछ वहषी के चलते जिस तर्ज पर दुश्कर्म को अंजाम दिया जा रहा है वह किसी के भी दिमाग को हिला सकता है। देवरिया का मामला बीते 7 अगस्त को संसद में चल रहे मानसून सत्र में गूंजा। स्पीकर सुमित्रा महाजन ने सरकार और सांसदों से कहा कि दो घटनायें सामने आयी हैं लिहाज़ा सभी सांसद अपने क्षेत्र में ऐसे षेल्टर होम की निजी स्तर पर जांच करें। हैरत यह है कि जहां सुरक्षा की गारंटी है वहीं असुरक्षा बढ़ी है। आये दिन हो रहे दुश्कर्म को लेकर दो प्रष्न मानस पटल पर उभरते हैं प्रथम यह कि क्या हमारे आसपास कोई ऐसा बदलाव हो रहा है जो व्यवस्था को संभालने में दिक्कत हो रही है, दूसरा यह कि क्या सरकार के नियम-कानून खोखले होते जा रहा हैं और अपराध बेकाबू। यदि हां तो सवाल यह भी है कि क्या परम्परागत मूल्य, संस्कार और संस्कृति का ताना-बाना पूरी तरह बिखर चुका है। उच्चत्तम न्यायालय ने जिस तर्ज पर सवाल दागे हंै उससे तो यही लगता है कि दुश्कर्म को लेकर मानो अब कोई जगह षेश नहीं है।
राश्ट्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्यूरो का हवाले देते हुए जब यह कहा कि 2016 के दौरान दुश्कर्म की 38,427 घटनायें हुई तब लगा कि संविधान और मूल अधिकार को बचाये रखने की जिम्मेदारी निभाने वाली अदालत इसे लेकर कितना गम्भीर है। इतना ही नहीं सर्वाधिक 4 हजार घटनायें मध्य प्रदेष में हुईं। भोपाल में खुले आम लड़कियां बेची जा रही हैं, दूसरे नम्बर पर यूपी आता है इसे लेकर कारगर कदम उठाने तो होंगे। उत्तर भारत के हिमालय में बसा मात्र एक करोड़ की जनसंख्या रखने वाले उत्तराखण्ड में पिछले 8 माह में दुश्कर्म के 183 मामले देखने को मिले। यह इस बात को पुख्ता करता है कि राज्य बड़े हों या छोटे कानून व्यवस्था बने हों या बिगड़े दुश्कर्म से कोई बचा नहीं है। कहा जाय तो सही चैकीदारी सभी को करनी है पर दुःखद यह है कि कहां कम दुश्कर्म है और कहां ज्यादा इसे लेकर भी तुलना होती है और इसकी आड़ में जिम्मेदार लोग अपना बचाव करते हुए देखे जा सकते हैं। बलात्कारी कौन है, किस समाज से आता है और किस बनावट का होता है यह समझना सरल है पर पहचानना उतना ही कठिन। जो बच्चियों की जिन्दगियों को नश्ट कर रहे हैं, मसल रहे हैं और खत्म कर रहे हैं वे इसी समाज के हैं। गौरतलब है कि भारत में हर वर्श बलात्कार के मामले में बढ़ोत्तरी होती जा रही है। आंकड़े थोड़े पुराने हैं पर राश्ट्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्यूरो बताता है कि भारत में प्रतिदिन 50 बलात्कार के मामले थानों में पंजीकृत होते हैं। भारत एक सभ्य देष है पर आंकड़े इसकी पोल खोलते हैं। पूरी दुनिया में महिलायें एवं बच्चियां कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। भारत के नेषनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो का कहना है कि 2016 में बलात्कार के मामले 2015 की तुलना में 12 फीसदी से अधिक बढ़े हैं। दुःखद यह है कि मध्य प्रदेष में भाजपा की सुषासन वाली सरकार चल रही है और इस मामले में भी यह अव्वल है।
सवाल है कि बलात्कार और इंसाफ का क्या रिष्ता है यह भी एक दर्द से भरी ही दास्तां है। ये तो वही बात हुई कि एक बार दिमाग की षिराओं में तनाव आ जाये तो क्रोध और दुःख से नसें फटने के लिये तैयार रहती हैं। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का यह नारा प्रधानमंत्री मोदी ने पुरूशों की तुलना में सबसे कम महिलाओं वाले प्रदेष हरियाणा से दिया था। जिस तर्ज पर दुश्कर्म की घटना हो रही है, न्याय की स्पीड थोड़ी धीमी है। दिसम्बर 2012 में निर्भया काण्ड के बाद इस दिषा में कानून बदलने और बनाने से लेकर त्वरित न्याय की व्यवस्था स्थापित करने को लेकर गति बढ़ी पर ऐसा सबके लिये हुआ कहना मुष्किल है। पता नहीं ये कितना सच है लेकिन बलात्कार दुनिया भर के कानूनों में सबसे मुष्किल से साबित किया जाने वाला अपराध भी है। समाज में जो वहषिपन व्याप्त है वह वाकई में विक्षिप्त होने का पूरा मौका देती है। कुछ महीने पहले कठुआ में 8 साल की बच्ची के साथ बलात्कार और निमर्म हत्या, गुजरात के सूरत में और उत्तर प्रदेष के उन्नाव में और अब बिहार के मुजफ्फरपुर और यूपी के देवरिया में सुरक्षा के दायरे में घटी घटनाओं में समझ और मानसिकता को द्वंद में डाल दिया है। गौरतलब है कि बच्चों से बलात्कार का दर्द तेजी से आगे बढ़ रहा है। 2010 में लगभग साढ़े पांच हजार मामले बच्चों के बलात्कार से जुड़े हुए थे जो 2014 में साढ़े तेरह हजार से अधिक हो गये। इतना ही नहीं बाल यौन षोशण अधिनियम पोक्सो एक्ट के तहत लगभग 9 हजार मामले दर्ज किये गये आंकड़े थोड़े पुराने हैं पर हिलाने वाले हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि कानून कितना ही सख्त बना लिया जाय दुश्कर्म को रोक पाने में विफल ही रहेगा परन्तु इस मामले से मुक्ति पाने के लिये यह रणनीति काफी हद तक अचूक है कि लोक लाज के डर से बाहर निकल कर अब हर मामले को रजिस्टर किया जाय। सजा के लिये न्यायालय को सक्रिया और तेजीपन दिखाना होगा। साल 2012 में आया पोक्सो और 2013 में आया आपराधिक कानून संषोधन अधिनियम भी बच्चों के बलात्कार के मामले दर्ज कराने में सहायक बने। थोड़ी-मोड़ी कमी तो यह भी है कि समाज चलता कम है खड़ा ज्यादा रहता है। कहीं-कहीं तो इस पर भी सियासत गांठी जाती है। 
मुख्य विपक्षी कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी का आरोप है कि पीएम ऐसे मामले में कुछ नहीं बोलते। हालांकि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा प्रधानमंत्री मोदी का ही है। सवाल बोलने का नहीं सवाल कर दिखाने का है। विपक्ष भी गलत नहीं है क्योंकि जिम्मेदार तो सत्ता ही है। दुःखद यह भी है कि महिला सुरक्षा से जुड़े तमाम कानून और बहस के बाद अपराध घट नहीं रहे हैं, देष में हर 24 घण्टे में 4 बलात्कार हो रहे हैं। इतना ही नहीं इसमें उम्र की कोई सीमा निर्धारित नहीं है। रेप की घटना पर चिंता किसे नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने मुजफ्फरपुर काण्ड पर स्वतः संज्ञान लिया था। कोर्ट ने इलैक्ट्राॅनिक मीडिया को आदेष दिया था कि वे न तो बच्चियों का इंटरव्यू लें और न ही तस्वीर दिखायें। षीर्श अदालत ने बिहार सरकार, महिला बाल कल्याण मंत्रालय, राश्ट्रीय बाल अधिकार आयोग और अन्य को नोटिस जारी कर इस पर जवाब भी मांगा। भारतीय संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 12 से 35 के बीच मूल अधिकार दिये गये हैं जिसके संरक्षक की भूमिका में देष का उच्चत्तम न्यायालय है जाहिर है मुजफ्फरपुर बालिका गृह में 29 बच्चियों का यौन उत्पीड़न तमाम अधिकारों का गला घोंटने जैसा है और षीर्श अदालत चुपचाप नहीं बैठ सकती। अदालत के इस कदम से अच्छा संदेष तो जाता है पर यह सवाल हमेषा मन को सालता रहेगा कि दुश्कर्म रूक क्यों नहीं रहे हैं। क्या सरकारें फेल हैं या समाज चेतना मूलक नहीं रहा या फिर अपराध बौने करने में पूरी व्यवस्था कमजोर पड़ रही है?



सुशील कुमार सिंह
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Monday, August 6, 2018

बिना एनएसजी के ही ताकतवर भारत

चीन यह राग हमेशा अलापता रहा कि एनएसजी नियमों के मुताबिक सदस्यता उन्हीं देषों को दी जानी चाहिए जिन्होंने परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर किये। यह सच है कि भारत एनपीटी और सीटीबीटी पर बिना हस्ताक्षर के न्यूक्लियर सप्लायर समूह (एनएसजी) में जगह चाहता है। भारत की मुसीबत यह है कि एनएसजी के 48 सदस्यों में चीन भी है और भारत का इसमें षामिल होना उसे खटकता है। रही बात एनपीटी और सीटीबीटी की यह उसका बहाना मात्र है। अमेरिका के पूर्व राश्ट्रपति बराक ओबामा अंत तक यह प्रयास करते रहे कि भारत को एनएसजी में सदस्यता मिलनी चाहिए। अमेरिका समेत ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी जैसे तमाम देष भारत के परमाणु कार्यक्रम ट्रैक रिकाॅर्ड को देखते हुए छूट देने के पक्षधर रहे परन्तु चीन को भारत का ट्रैक रिकाॅर्ड निजी दुष्मनी के कारण कभी दिखाई ही नहीं दिया। दरअसल इस समूह में षामिल होने से न केवल ईंधन बल्कि तकनीक का भी आदान-प्रदान सहज हो जाता है। फिलहाल बरसों से भारत इसकी सदस्यता हेतु दुनिया के देषों से समर्थन जुटा रहा है पर नतीजे अभी भी खटाई में है परन्तु इस बीच एक सुखद सूचना यह आयी कि बिना एनएसजी के सदस्यता के ही भारत अमेरिका से असैन्य अंतरिक्ष और रक्षा क्षेत्र में उच्च तकनीक वाले उत्पाद खरीद सकेगा। गौरतलब है कि भारत को अमेरिका की तरफ से स्ट्रेटजिक ट्रेड आॅथराइजेषन (एसटीए-1) का दर्जा मिल गया है। जिसके चलते भारत को अब एनएसजी सदस्यता की जरूरत नहीं रह जाती। जापान और दक्षिण कोरिया के बाद भारत ऐसा दर्जा हासिल करने वाला तीसरा एषियाई देष है जबकि दुनिया का 37वां। जाहिर है अमेरिका के इस कदम से दुनिया भर के देष का भारत पर भरोसा पहले की तुलना में और बढ़ेगा। 
अमेरिका एसटीए-1 दर्जा आम तौर पर नाटो सहयोगियों को ही देता रहा है। इस सूची में केवल उन्हीं देषों को षामिल किया था जो मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण संधि (एमटीसीआर), परम्परागत हथियारों के व्यापार में पारदर्षिता लाने हेतु वासेनार समझौता (डब्ल्यूए) रासायनिक एवं जैविक हथियारों के व्यापार पर नियंत्रण के लिये गठित आॅस्ट्रेलिया समेत (एजी) और परमाणु आपूर्तिकत्र्ता समूह (एनएसजी) के सदस्य रहे हैं। भारत एनएसजी को छोड़कर बाकी तीन संधियों में षामिल है। जाहिर है भारत इसके पहले एसटीए-2 में था। अमेरिका के इस सकारात्मक पहल से चीन की समस्या बढ़ना तय है। वैष्विक फलक पर कूटनीति का मिजाज़ भी बड़ा रोचक होता है। पुराने अनुभव के आधार पर यह कह सकते हैं कि भारत अन्तर्राश्ट्रीय संधियों के आगे कभी झुका नहीं बल्कि अपने संयमित कृत्यों से दुनिया को झुकाने का काम किया। अमेरिका का ताजा कदम इस बात को पुख्ता करती है। अमेरिका ने भी माना है कि भारत सभी व्यावहारिक उद्देष्यों के लिये एनएसजी के निर्यात नियंत्रण वाले समूहों के साथ जुड़ गया है। खास यह भी है कि इज़राइल अमेरिका के सबसे नजदीकी देषों में आता है मगर यह दर्जा उसे भी नहीं प्राप्त है। वैसे एक दृश्टि यह भी है कि अमेरिका ने भारत को एसटीए-1 में षामिल करके चीन और षेश दुनिया को एक बड़ा राजनीतिक संदेष भी दे दिया है और सीधे तौर पर चीन को तो यह भी जता दिया है कि एषियाई देषों में भारत की क्या साख है और अमेरिका से उसकी निकटता का क्या मतलब है। इसमें अमेरिका ने चीन को कूटनीतिक तौर पर दबाव में लेने का भी प्रयास किया है। गौरतलब है कि बीते जून सिंगापुर में अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और उत्तर कोरियाई षासक किम जोंग के बीच बरसों की तनातनी के बाद षान्ति की तलाष में एक बैठक हुई जो सफल भी रही। दुनिया जानती है कि उत्तर कोरिया की संरक्षक की भूमिका में चीन ही है और किम जोंग को पटरी पर तभी लाया जा सकता है जब उसे चीन के प्रभाव से मुक्त किया जा सकेगा। हालांकि पाकिस्तान भी चीन के प्रभाव में है और आतंक की खेती करता है। इसे लेकर भी चीन पर कूटनीतिक प्रहार हुआ है से इंकार नहीं किया जा सकता। गौरतलब है कि भारत, अमेरिका, दक्षिण कोरिया और जापान की एकजुटता इस मामले में कारगर हो सकती है। चीन को हतोत्साहित करने वाले कदम पहले भी उठाये जा चुके हैं जब भारत, अमेरिका और जापान ने दक्षिण चीन सागर में युद्धाभ्यास मिलकर किया था। फिलहाल भले ही अमेरिकी चाल एनएसजी की सदस्यता में रूकावट बनने वाले चीन को नागवार गुजरी हो पर भारत की दृश्टि से यह बड़ी कूटनीतिक विजय है। 
विवेचनात्मक पक्ष यह भी है कि जब वर्श 1974 में पोखरण परीक्षण हुआ तब इसी वर्श परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह से भारत को बाहर रखने के लिए एक समूह बनाया गया जिसमें अमेरिका, रूस, फ्रांस, पष्चिमी जर्मनी और जापान समेत सात देष थे जिनकी संख्या अब 48 हो गयी है। इतना ही नहीं वर्श 1981-82 के दिनों में भारत के समेकित मिसाइल कार्यक्रमों के तहत नाग, पृथ्वी, अग्नि जैसे मिसाइल कार्यक्रम का जब प्रकटीकरण हुआ और इस क्षेत्र में भरपूर सफलता मिलने लगी तब भी पाबंदी लगाने का पूरा इंतजाम किया जाने लगा। गौरतलब है कि 1997 में मिसाइल द्वारा रासायनिक, जैविक, नाभिकीय हथियारों के प्रसार पर नियंत्रण के उद्देष्य से सात देषों ने एमटीसीआर का गठन किया हालांकि जून, 2016 से भारत अब इसका 35वां सदस्य बना जबकि चीन अभी भी इससे बाहर है। जाहिर है पहले दुनिया के तमाम देष नियम बनाते थे और उसका भारत अनुसरण करता था परन्तु यह बदलते दौर की बानगी ही कही जायेगी कि दुनिया के तमाम देष अब भारत को भी साथ लेना चाहते हैं। हालांकि एनएसजी के मामले में अभी बात नहीं बन पाई है परन्तु अमेरिका द्वारा उठा ताजा कदम इसकी भी कमी पूरी कर दी। दो टूक यह भी है कि एमटीसीआर यानी मिसाइल तकनीक नियंत्रण व्यवस्था में भारत अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर नियमों का अनुसरणकत्र्ता ही नहीं नियमों का निर्माता भी बन गया। साथ ही एमटीसीआर के क्लब में जाने से चीन जैसे देषों को भी हाषिये पर भी धकेलने में सफल रहा। जाहिर है पिछले 15 वर्शों से चीन एमटीसीआर में षामिल होने के लिए प्रयासरत् है परन्तु सफलता से अभी वह कोसो दूर है। एनएसजी के मामले में अडंगा लगाने वाला चीन भले ही अपनी पीठ थपथपा ले परन्तु एमटीसीआर में भारत की एंट्री के चलते यहां उसकी भी राह आसान नहीं है। बदले दौर के परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारत कहीं आगे है, उभरती अर्थव्यवस्था वाले देषों में षुमार है, वैष्विक कूटनीति में भी अव्वल है। मात्र एनएसजी में न होने से जो कमी थी उसे एसटीए-1 ने पूरी कर दी। 
सभी के दिमाग में यह सवाल उठ सकता है कि अमेरिका ने भारत को इतना महत्व क्यों दिया और चीन की असली परेषानी क्या है? अमेरिका ही नहीं दुनिया भी जानती है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, सबसे बड़ा बाजार है और अत्यधिक सम्भावनाओं से भरा है साथ ही कूटनीतिक तौर पर संतुलित और आतंक की चोट सहने के बावजूद भी बर्बर रवैया नहीं अपनाता है। इसके अलावा कई मामलों में अमेरिका के साथ द्विपक्षीय साझेदार है और हथियारों का बड़ा खरीदार भी। सितम्बर 2014 में मोदी की पहली अमेरिकी यात्रा तत्पष्चात् आॅस्ट्रेलिया के ब्रिस्बेन में जी-20 में सार्थक मुद्दों पर बातचीत से प्रगाढ़ता और बढ़ी । साल 2015 के गणतंत्र दिवस पर बराक ओबामा अमेरिका के पहले राश्ट्रपति जो मुख्य अतिथि बने। डोनाल्ड ट्रम्प भी मोदी के मुरीद रहे साथ ही संतुलित कूटनीति के चलते भी अमेरिका ने भारत को महत्व दिया। जहां तक सवाल चीन का है उसकी परेषानी उसके दिमाग में है वह समझता है कि यदि भारत एनएसजी का सदस्य बनता है तो इसके नाते संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् के लिये भी वह दावेदारी मजबूत कर लेगा जबकि सुरक्षा परिशद् में भारत की दावेदारी पहले से ही मजबूत है। फिलहाल डोनाल्ड ट्रम्प के द्वारा जारी अधिसूचना ने एनएसजी सदस्यता को गौर जरूरी कर दिया है और भारत एक बड़ी कूटनीतिक कांटे को रास्ते से निकाल दिया है। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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अनुच्छेद 35ए पर क्यों मचा है संग्राम!

भारतीय संविधान में जम्मू-कश्मीर राज्य को विषश दर्जा प्राप्त है और यह विषेश स्थिति अनुच्छेद 370 के तहत है मगर बीते एक वर्श से अनुच्छेद 35ए को लेकर कोहराम मचा हुआ है। अनुच्छेद 35ए आखिर है क्या और इसके चलते जम्मू कष्मीर में समस्या क्यों बढ़ी है इसे लेकर स्पश्ट राय नहीं आ पा रही है। इस अनुच्छेद को हटाने के लिये दलील दी जा रही है कि इसे संसद के जरिये लागू नहीं कराया गया है। षोध बताती है कि देष के विभाजन के समय बड़ी संख्या में पाकिस्तान से षरणार्थी भारत आये थे जिनमें लाखों की तादाद में जम्मू कष्मीर में रह रहे हैं। अनुच्छेद 35ए के जरिये ही इन सभी भारतीय नागरिकों को जम्मू-कष्मीर सरकार ने स्थायी निवास प्रमाण पत्र से वंचित कर दिया। जिसमें 80 फीसदी लोग पिछड़े और दलित हिन्दू समुदाय से हैं। इतना ही नहीं जम्मू-कष्मीर में विवाह कर बसने वाली महिलाओं और अन्य भारतीय नागरिकों के साथ यहां की सरकार इस अनुच्छेद की आड़ लेकर भेदभाव करती है। इसी को लेकर इसे हटाने की मांग हो रही है। अनुच्छेद 35ए में यह भी है कि अगर जम्मू कष्मीर की लड़की किसी बाहर के लड़के से षादी करे तो उसके सारे अधिकार खत्म हो जायेंगे इतना ही नहीं उसके बच्चों के अधिकार भी खत्म हो जाते हैं। गौरतलब है कि जब 1956 में जम्मू-कष्मीर का संविधान बनाया गया था तब स्थायी नागरिकता को कुछ इस प्रकार परिभाशित किया गया था। संविधान के अनुसार स्थायी नागरिक वह व्यक्ति है 14 मई 1954 को राज्य का नागरिक रहा हो या फिर उससे पहले के दस वर्शों से राज्य में रह रहा हो और वहां सम्पत्ति हासिल की हो। इसी दिन तत्कालीन राश्ट्रपति डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद ने एक आदेष पारित किया जिसके तहत संविधान में अनुच्छेद 35ए जोड़ा गया था। अब सवाल है कि क्या अनुच्छेद 35ए अनुच्छेद 370 का ही हिस्सा है और 35ए को हटाने पर 370 स्वयं हट जायेगा। 
उच्चत्तम न्यायालय में जम्मू-कष्मीर को विषेश दर्जा देने वाले अनुच्छेद 35ए को हटाये जाने के लिये 6 अगस्त को सुनवाई षुरू हुई। हालांकि अब यह सुनवाई 27 अगस्त को होगी इसकी वजह में तीन न्यायाधीषों की पीठ में एक की अनुपस्थिति का होना रहा है। सुनवाई से पहले प्रदेष में प्रदर्षन चल रहा है और तरह-तरह के बयानबाजी भी हो रही है। कष्मीर घाटी में अलगाववादियों की ओर से बुलायी गयी हड़ताल के कारण यहां दुकानें बंद रही। दरअसल अलगाववादी अनुच्छेद 35ए को हटाये जाने के विरोध में हैं। वैसे बड़ा सच तो यह है कि अलगाववादी घाटी को ही अमन से नहीं रहने देना चाहते हैं और जब तब यहां हिंसा और उपद्रव को आमंत्रित करते रहते हैं। आतंकियों को षह देना और पाकिस्तान परस्त व्यवहार करना इन अलगाववादियों की आदत है। अब अनुच्छेद 35ए को लेकर इनका सियासी खेल चरम पर है। बताते चलें कि अनुच्छेद 35ए को लेकर आरएसएस के नज़दीकी गैरसरकारी संगठन वी द पीपुल्स ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर रखी है जिसमें उन्होंने कहा है कि इसी अनुच्छेद के कारण भारतीय संविधान में प्रदत्त समानता के अधिकार के अलावा मानवाधिकार का भी घोर हनन हो रहा है। गौर करने वाली बात यह है कि अनुच्छेद 35ए के तहत पष्चिमी पाकिस्तान से आकर बसे षरणार्थियों और पंजाब से यहां लाकर बसाये गये वाल्मीकि समुदाय नागरिकता से वंचित हैं। हैरत वाली बात तो यह है कि 35ए को लेकर घाटी के अलगाववादी आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। इस अनुच्छेद को लेकर सोषल मीडिया पर भी जबरदस्त बहस छिड़ी हुई है और सभी अपने-अपने ढंग से इसकी व्याख्या कर रहे हैं। कष्मीर बंद की गयी और अमरनाथ यात्रा भी रोक दी गयी। इस अनुच्छेद के समर्थन में फारूख अब्दुल्ला की नेषनल कांफ्रेंस भी बंद के साथ रही। बंद के बाद पत्थरबाजी के साथ कई छिटपुट घटनायें भी हो रही हैं। जाहिर है कि पत्थरबाजी में पूरी तरह प्रषिक्षित अलगाववादी को पत्थर चलाने का नया अवसर मिल गया है। 
कष्मीरी पण्डित अनुच्छेद 35ए हटाने के पक्ष में हैं। उनकी दलील है कि इस अनुच्छेद से हमारी बेटियों को दूसरे राज्य में विवाहित होने के बाद अपने सभी अधिकार जम्मू-कष्मीर से खोना पड़ रहा है। हतप्रभ करने वाली बात यह है कि भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 से लागू है और संविधान के अनुच्छेद 1 में यह स्पश्ट है कि भारत राज्यों का संघ है और उसी संघ का 15वां राज्य जम्मू-कष्मीर है। अनुच्छेद 370 के तहत विषेश राज्य है और इसकी कई बाध्यतायें हैं जैसे नीति-निर्देषक तत्व का यहां लागू न होना जबकि देष हर राज्य में यह लागू होते हैं। वित्तीय आपात यहां लागू नहीं किया जा सकता और अवषिश्ट षक्तियां राज्य को प्राप्त हैं। ऐसी तमाम बातें इसे विषिश्ट बनाती हैं और सुविधापरख भी। बहुत कुछ जम्मू-कष्मीर के हक में होने के बावजूद वहां मामला बेपटरी ही रहा है। आतंक की चपेट में घाटी अक्सर रही है और इसे जलाने में हुर्रियत के लोग कभी पीछे नहीं रहे। रोचक यह भी है कि भाजपा और पीडीपी घाटी में तीन साल बेमेल सरकार चला चुके हैं और सत्ता के समय घाटी षान्त थी और जब सत्ता से हटे तो घाटी जल रही थी। घाटी बर्बाद करने में जितना जिम्मेदार पीडीपी की महबूबा मुफ्ती हैं उतनी ही भाजपा भी है। ऐसा इसलिए क्योंकि सरकार में बराबर की भागीदारी थी। अनुच्छेद 35ए के मोह में वहां के सभी दल और अलगाववादी कमोबेष फंसे हैं। पीडीपी, नेषनल कांफ्रंस और तो और सीपीआई (एम) भी अनुच्छेद 35ए को हटाने के पक्ष में नहीं है। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन्हें सियासत की चिंता है वहां के बाषिन्दों की नहीं। जम्मू-कष्मीर से आईएएस टाॅपर रहे षाह फैज़ल ने भी विवादित ट्विट किया है जिसमें उन्होंने कहा अनुच्छेद 35ए हटाने से जम्मू-कष्मीर का भारत से रिष्ता खत्म हो जायेगा। उन्होंने इस रिष्ते को षादी दस्तावेज और निकाहनामा से जोड़ा है। उपरोक्त से यह संदर्भित होता है कि जम्मू-कष्मीर के भीतर दो विचार चल रहे हैं। एक अनुच्छेद 35ए के पक्ष में और दूसरा विरोध में मगर असल में चिंता विरोधियों को अनुच्छेद 35ए की नहीं है बल्कि वहां फिज़ा में फैली उनके रसूख की है। 
राजनेता हो या बुद्धिजीवी वर्ग अनुच्छेद 35ए को लेकर अपनी-अपनी व्याख्या में लगा है जबकि वहां के नागरिक मौलिक अधिकार और मानवाधिकार दोनों के खतरे से जूझ रहे हैं। अनुच्छेद 35ए जम्मू-कष्मीर की विधानसभा को यह अधिकार देता है कि वह स्थायी नागरिक की परिभाशा तय कर सकें। अब यह अनुच्छेद न्यायायलय की षरण में है और फैसला आने वाले दिनों में जब होगा तभी दूध का दूध और पानी का पानी होगा। फिलहाल जिस तर्ज पर समस्या बढ़ी है उसका हल इतना आसान भी प्रतीत नहीं होता। राजनीतिक फलक पर जब अनुच्छेद 370 हटाने की बात जोर पकड़ती थी तब भी सियासत गरम होती थी और जम्मू-कष्मीर में लोग इसे लेकर सतर्क हो जाते थे। अब अनुच्छेद 35ए को लेकर घाटी में वह सब किया जा रहा है जिसके चलते वहां का अमन-चैन पटरी से उतरा है। कह सकते हैं कि अब गेंद न्यायालय के पाले में है और उसका निर्णय ही इस पर रोषनी डालने का काम करेगा। दो टूक यह भी है कि जम्मू-कष्मीर मुख्यतः कष्मीर अलगाववादियों, आतंकवादियों और स्वार्थपरख सियासतदानों के हाथों खिलौना मात्र बनकर रह गयी और यहां के नागरिकों का दोनों हाथों से षोशण हुआ। गरीबी, बीमारी, बेरोजगारी आदि से परे अलगाववादी कष्मीर पर अपनी रोटी सेंक रहे हैं। लाखों कष्मीरी पण्डितों को यहां से बेदखल किया गया और दषकों से अराजकता का माहौल यहां से जाने का नाम नहीं ले रहा।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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ओबीसी आयोग संवैधानिक पर सक्षम कितना!

फलक पर सियासी सवाल तैर रहे हैं कि क्या मोदी सरकार ओबीसी आरक्षण में बदलाव लाना चाहती है यदि ऐसा है तो स्वागत होना चाहिए पर कार्य मनमाने तरीके से किया गया तो समस्या हल करने के बजाय बढ़ सकती है। फिलहाल ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा देने पर लोकसभा ने मुहर लगा दी है। हालांकि राज्यसभा में अभी पारित होना बाकी है मगर बिना किसी व्यवधान के यहां पारित होने की सम्भावना पूरी तरह दिख रही है। गौरतलब है बीते 2 अगस्त को राश्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) को संवैधानिक दर्जा देने सम्बंधी 123वें संविधान संषोधन विधेयक को मंजूरी मिल गयी है। खास संदर्भ यह भी है कि राज्यसभा में पिछली बार इस विधेयक को लेकर संषोधन पारित कराने वाली कांग्रेस ने लोकसभा में भी उस संषोधन को खारिज कर दिया है। देखा जाय तो ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा देने को लेकर राजनीति इन दिनों तेज है। भाजपा की ओर से बार-बार यह दोहराया जा रहा था कि कांग्रेस ओबीसी को अधिकार नहीं देना चाहती। इस सियासी खेल के बीच कांग्रेस भी अपना हाथ जलाना नहीं चाहती और उसे अपना रूख बदलना ही पड़ा। जाहिर है कि अब वह ऐसा कोई कदम नहीं उठायेगी जिसका राजनीतिक फायदा केवल भाजपा को मिले। वैसे आयोग को संवैधानिक दर्जा देने के मामले में भाजपा श्रेय ले सकती है। इतना ही नहीं साल 2019 के लोकसभा चुनाव में ओबीसी आयोग समेत एससी/एसटी एक्ट के मामले में भी भाजपा श्रेय लेने में कोई कोर-कसर षायद ही छोड़े। चुनावी माहौल में राजनीतिक रंग से रंगा ओबीसी आयोग महज पांच घण्टे की चर्चा के बाद पारित कर दिया गया। 1993 से ओबीसी के लिये आरक्षण लागू है पर आयोग को संवैधानिक दर्जा अब दिया जा रहा है। जाहिर है इससे एक सक्षम ओबीसी आयोग उभरेगा और आरक्षण से जुड़ी तमाम समस्याओं से निपटने में भी वह सक्षम होगा।  
भारत में पिछले कई दषकों का अनुभव तो यही कहता है कि यहां आरक्षण सरकार की बांहें मरोड़ कर लेने की कोषिष की जाती रही है। गुजरात का पाटीदार, राजस्थान के गुर्जर, हरियाणा का जाट आंदोलन और आन्ध्र प्रदेष के कापू समुदाय समेत महाराश्ट्र के मराठा आरक्षण आंदोलन इसके हाल-फिलहाल के उदाहरण हैं। संवैधानिक व्यवस्था कहती है कि कोई जाति अगर सामाजिक और षैक्षणिक रूप से पिछड़ी है और सरकारी नौकरियों में उसे आबादी से कम प्रतिनिधित्व हासिल है तो उसे आरक्षण मिलना चाहिए। जबकि समाज में उपलब्ध अवसरों को किसी वर्ग विषेश के लिये उपलब्ध कराना या अवसरों के लिये निर्धारित मापदण्डों में छूट देना ही आरक्षण कहलाता है। इसी को ध्यान में रखते हुए बीपी मण्डल कमीषन (1978) के माध्यम से 1990 में अन्य पिछड़े वर्ग को आरक्षण प्रदान किया गया जिसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत देखा जा सकता है। गौरतलब है कि मण्डल कमीषन तत्कालीन प्रधानमंत्री विष्वनाथ प्रताप सिंह ने (1990) लागू किया था जबकि यह मूर्त रूप पीवी नरसिंहराव के प्रधानमंत्रित्व काल (1993) में लिया था। खास यह भी है कि वीपी सिंह सरकार को उन दिनों भाजपा का बाहर से समर्थन था। हालांकि मण्डल के बाद कमण्डल जिसे वयोवृद्ध नेता आडवाणी की रथ यात्रा के तौर पर पहचाना जाता है को जब बिहार के समस्तीपुर में तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने 23 अक्टूबर 1990 में रोका तब दिल्ली में वीपी सिंह सरकार गिर गयी थी और आरोप यह था कि भाजपा ने कमण्डल, मण्डल के विरोध में लाया था जाहिर है ओबीसी के हितैशी के तौर पर भाजपा को कभी नहीं देखा गया, अब वही ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा दे रही है।  
भारत में आरक्षण का इतिहास पुराना है। देखा जाय तो एससी/एसटी आरक्षण के साथ ही पिछड़े वर्गों के लिये सरकारी सेवाओं में आरक्षण की मांग उठने लगी थी पर सुलगता हुआ सवाल यह था कि पिछड़ेपन की पहचान कैसे हो? इसे देखते हुए 1953 में काका कालेकर की अध्यक्षता में प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया गया पर इसकी सिफारिषों को लागू नहीं किया जा सका। पिछड़े वर्गों की पहचान के लिये 1978 में बिन्देष्वरी प्रसाद मण्डल की अध्यक्षता में संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत दूसरा आयोग गठित किया गया जिसे आमतौर पर मण्डल कमीषन कहते हैं। इसी आयोग की सिफारिष पर मौजूदा समय में अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण मिला हुआ है। गौरतलब है कि 27 फीसदी तय आरक्षण को 1963 में बालाजी बनाम मैसूर राज्य के वाद में सर्वोच्च न्यायालय द्व़ारा आरक्षण के उच्चत्तम सीमा 50 फीसदी किये जाने के मद्देनजर किया गया जैसा कि 23 फीसदी आरक्षण पहले से अनुसूचित एवं अनुसूचित जनजाति के लिये निर्धारित है जाहिर है 27 प्रतिषत मिलाने पर यह आंकड़ा पूरा हो जाता है। जबकि आंकड़ों को देखें तो देष में 54 फीसदी से अधिक पिछड़ी जाति के लोग हैं।
फिलहाल एक अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और तीन सदस्य वाले ओबीसी आयोग को अपनी स्वयं की प्रक्रिया तय करने का अधिकार होगा साथ ही संविधान के अधीन सामाजिक और षैक्षणिक दृश्टि से पिछड़ों के लिये सुरक्षा उपाय से सम्बंधित मामलों की जांच और निगरानी का भी अधिकार होना हर लिहाज़ से सही रहेगा। संवैधानिक दर्जा मिलने के चलते संविधान के अनुच्छेद 342(क) जोड़कर आयोग को सिविल कोर्ट जैसे अधिकार भी मिलेंगे जिसका एक बड़ा फायदा षिकायतों के निपटारे में देखा जा सकेगा। इतना ही नहीं आयोग को सजा देने का भी अधिकार होना कई विसंगतियों एवं खामियों से निपटना आसान रहेगा। जो सरकार की बांहें मरोड़कर आरक्षण चाहते हैं उनके लिये भी यह आयोग मनमानी करने पर सबक सिखा सकेगा पर सवाल यह भी उठता है कि विभिन्न जातीय समूह में जिस तरह भारत बंटा है क्या उसे लेकर आयोग आसानी से सब कुछ हल कर लेगा। बीते 70 सालों का इतिहास यह बताता है कि भारत जटिल जातिगत समस्याओं में उलझा देष रहा है। यहां आरक्षण लेने की परम्परा पीढ़ी दर पीढ़ी रही है। आरक्षण के लिये वर्ग विषेश का आंदोलन दूसरे वर्ग के लिये आरक्षण मांगने का रास्ता रहा है। 50 प्रतिषत आरक्षण की तय सीमा का भी उल्लंघन होने का डर सताता रहता है। कई राज्यों में आरक्षण 80 फीसदी तक है। चुनावी दिनों में राजनीतिक पार्टियां अपनी सियासत साधने के लिये आरक्षण देने की घोशणा से बाज नहीं आती। इतना ही नहीं आरक्षण के चलते जातीय संघर्श इतना बढ़ा हआ है कि समाज से समरसता व भाईचारा भी मानो नदारद हो। जिस मूल उद्देष्य से आरक्षण लाया गया निःसंदेह वह पूरा नहीं हुआ है। हालांकि इसे सिरे से खारिज न हीं किया जा सकता लेकिन आरक्षण की आग से देष दषकों से तप रहा है। मण्डल कमीषन लागू होने के दिनों में तो पूरा देष ही वर्ग में बंटा था और धूं-धूं कर जल रहा था। कमोबेष क्षेत्र विषेश में आज भी कुछ जातियां अन्य पिछड़े वर्ग में षामिल होने के लिये हिंसा का सहारा ले रही हैं। इसके अलावा भी कई ऐसे कारण हैं जहां आरक्षण में सुधार हेतु बड़े कदम उठाने हैं षायद यही समय भी है। ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा मिलने से सम्भव है कि प्रचुर मात्रा में उपरोक्त समस्याएं हल प्राप्त करेंगी मगर जब तक यह जमीन पर कुछ करते हुए नहीं दिखती बहुत कुछ अंदाजा लगाना सही नहीं होगा। मोदी सरकार भी इस मामले में हाथ जलाना नहीं चाहती है मगर दोनों हाथों से वोट बंटोरना चाहेगी। आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए जिसे लेकर सियासत तो गरम होती है परन्तु मामला तूल पकड़ कर वहीं का वहीं रह जाता है। बल्कि आगामी चुनाव को देखते हुए मोदी सरकार ने ओबीसी आयोग के संवैधानिक बनाने के मामले में एक तीर से कई निषाना लगाया है। जिसमें आगे की राजनीति साधने में ओबीसी वोट बैंक भाजपा के हिस्से में आ सकते हैं। यह सबसे बड़ा फायदा है पर सवाल है कि ओबीसी आयोग के संवैधानिक दर्जे से क्या और कितना बड़ा बदलाव आयेगा। 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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उत्तर प्रदेश मे मोदी का विकासनामा

5 दिवसीय अफ्रीकी देशों  के साथ ब्रिक्स की बैठक वाला दौरा समाप्त कर ठीक अगले दिन प्रधानमंत्री मोदी उत्तर प्रदेष की राजनधानी लखनऊ में ताबड़तोड़ विकास की पारी खेलने लगे। बीते चार सालों के कार्यकाल में बहस के केन्द्र में विकास ही है। मोदी सरकार ने आखिर देष की जनता को क्या दिया जबकि डेढ़ वर्शों के दौरान योगी सरकार ने उत्तर प्रदेष को किस डगर पर खड़ा किया। प्रधानमंत्री मोदी की माने तो प्रदेष में योगी अच्छा काम कर रहे हैं। 2019 के लोकसभा का चुनाव एक बार फिर दस्तक देने की ओर है और जिस तर्ज पर उत्तर प्रदेष में बीते दो दिनों में हुआ है उससे साफ है कि यहीं से केन्द्र का रास्ता जाता है। उत्तर प्रदेष के बहाने विपक्षियों को मोदी ने यह भी बताया कि उनका मिषन क्या है। लखनऊ में 60 हजार करोड़ रूपये से अधिक की 81 परियोजनाओं का षिलान्यास किया गया जिससे यह आसार बन गये हैं कि यूपी जल्द ही ट्रिलियन डाॅलर वाला अर्थव्यवस्था बनेगा। हालांकि इसके पीछे कई और कारण भी हैं। उद्योगपति भी मानते हैं कि उत्तर प्रदेष का माहौल बदला हुआ है और वे यहां की तस्वीर बदल देंगे। जिस व्यापक पैमाने पर केन्द्र सरकार के द्वारा यूपी को आर्थिक बढ़त मिली है उसमें राजनीति नहीं है ऐसा कहना सही नहीं होगा। हाल ही में आजमगढ़ में 340 किमी लम्बे पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे की आधारषिला रखते हुए मोदी ने उत्तर प्रदेष के विकास में मुख्यतः पूर्वांचल के लिये एक नई सौगात दी थी। सम्भव है कि इसके चलते भी आगामी लोकसभा चुनाव पर भाजपा का सकारात्मक परिप्रेक्ष्य होगा। दो टूक यह भी है कि विकास सबको पसंद है बात तो सभी दल करते हैं पर जो सत्ता में होता है उसी के पास मषीनरी होती है और उसी के पास धन आबंटित करने का अधिकार भी। जाहिर है इसका ज्यादा फायदा सत्ताधारी के हिस्से में झुका होता है। 
उत्तर प्रदेष में कानून-व्यवस्था से लेकर महिला सुरक्षा की चिंता कहीं अधिक बलवती है। विकास के अभिप्राय में चीजें तभी मजबूत मानी जाती है तब जनता सुरक्षित हो और अपराध समाप्त हो। योगी सरकार अपराध से उत्तर प्रदेष को मुक्त करने की कोषिष में है पर देष का सबसे बड़ा राज्य इसकी गिरफ्त से बाहर होगा कहना कठिन है। हालांकि विकास के रास्ते समस्याओं को हल करने का हर सम्भव प्रयास होता है। विभिन्न परियोजनाओं का षिलान्यास इसका एक नतीजा हो सकता है। संतुलित विकास यूपी की बड़ी जरूरत है जाहिर है नोएडा और गाजियाबाद में उद्योगों की भरमार जबकि अन्य क्षेत्र कमोबेष इससे अछूते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने प्रदेष के हर हिस्से में उद्योग लगने की बात कह दी है और उन्होंने अति उत्साह दिखाते हुए यह भी कहा है कि यही रफ्तार रही तो यूपी को एक ट्रिलियन डाॅलर (10 खरब डाॅलर) की इकोनोमी का रिकाॅर्ड पार करने में अधिक समय नहीं लगेगा। सवाल दो हैं पहला यूपी में विकास किसके पैसे से होगा उद्योगपतियों के या फिर केन्द्र सरकार के। दो टूक यह भी है कि मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए 2003 से वाइब्रेंट गुजरात षुरू किया था जिसके तर्ज पर उत्तर प्रदेष में इन्वेस्टर्स समिट पहले हो चुकी है जिसमें 4 लाख करोड़ निवेष करने की बात भी सामने आयी। उद्योगपति भी कह रहे हैं कि वे यहां की तस्वीर बदलेंगे। गौरतलब है कि इन्वेस्टर्स समिट में हुए एएमओयू के 60 हजार करोड़ से अधिक की 81 परियोजनाओं का उद्घाटन मोदी ने किया। अभी षेश कई काज किया जाना बाकी है। स्थिति और हालात को देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कह दिया कि हम उन लोगों में से नहीं हैं जो कारोबारियों के साथ खड़े होने या फोटो खिंचवाने से डरते हैं। गौरतलब है कि मोदी सरकार को उद्योगपतियों की सरकार कही जाती रही है। हालांकि उन्होंने साफ किया कि हिन्दुस्तान को बनाने में उद्योगपतियों की एहम भूमिका है और इन्हें चोर-लुटेरा कहकर अपमानित करना सही नहीं है। 
जैसा कि मोदी के स्वभाव में षामिल है वे हर मंच से विपक्षियों को चेताते भी हैं और डराते भी हैं। ऐसा ही लखनऊ में भी हुआ। उत्तर प्रदेष को देष के विकास का इंजन बनाने की संकल्पना लेने वाले मुख्यमंत्री योगी का उपचुनाव में प्रदर्षन सही नहीं रहा है और 3 लोकसभा की सीट ये हार चुके हैं जिसमें सबसे बड़ा झटका गोरखपुर की सीट है। हालांकि फूलपुर और कैराना भी बड़ा झटका कहा जायेगा। तब योगी आदित्यनाथ ने हार के कारण में अति उत्साह बताया था। जब भी निवेष और विकास की बात आती है तब रोज़गार की बात स्वतः उभरती है। उत्तर प्रदेष 22 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाला देष है और कई समस्याओं के साथ रोज़गार यहां की व्यापक समस्या है। लाखों की संख्या में अनुमानित रोज़गार भी यहां बताये जा रहे हैं। रिलायंस जियो, इन्फोसिस तथा पेटीएम समेत कई कम्पनियों के निवेष और रोज़गार के डाटा सुखद लग रहे हैं पर वास्तविकता में यह धरातल पर उतरे तब बात बने। मोदी लखनऊ में दो दिन के भीतर ताबड़तोड़ कई कार्य किये जिसमें देष के 100 षहरों से आये मेयर समिट भी षामिल है जिसमें उत्साह बढ़ाते हुए उन्होंने यह कहा कि हम आपका भी सम्मान करने के लिये इंतजार कर रहे हैं। स्मार्ट सिटी मिषन को लेकर 7 हजार करोड़ की योजना पर काम हो चुका है और 52 हजार करोड़ की योजना पर काम तेजी से चल रहा है। इतना ही नहीं 2022 का सबका अपना घर होगा की योजना भी पूरा करना लक्ष्य है। सवाल है कि क्या यह सभी संदर्भ 2019 में चुनावी फायदा पूरी तरह दे पायेंगे जबकि कुछ का षिलान्यास हो रहा है तो कुछ कुछ ही कदम आगे बढ़े हैं। भले ही मोदी उत्तर प्रदेष को स्वर्णिम बनाने और योगी विकास का इंजन बनाना चाहते हैं पर जब तक समावेषी विकास से परे काम होगा संतुश्टि तो नहीं आयेगी। 
बीते एक महीने में मोदी ने उत्तर प्रदेष का कई दौरा किया और कई सौगात दिया। 28 जून को संत कबीर नगर के महगर में 24 करोड़ रूपए से बनी संत कबीर एकेडमी का उद्घाटन किया। 10 जुलाई को 5 हजार करोड़ की लागत का दक्षिण कोरिया के राश्ट्रपति के साथ नोएडा में सबसे बड़े मोबाइल प्लांट का उद्घाटन किया जहां 12 करोड़ मोबाइल एक साथ बनेंगे। कोरियाई राश्ट्रपति ने 5 हजार रोज़गार की बात कही थी जबकि मोदी और योगी इससे कई गुना बता रहे थे। इसी महीने की 14 जुलाई को पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे के जरिये इस क्षेत्र की 15 लोकसभा सीटों पर निषाना साधा गया। गौरतलब है कि आजमगढ़ सपा, बसपा का गढ़ रहा है यहां भाजपा 2014 में भी हार गयी थी। बीते 20 जुलाई को अविष्वास प्रस्ताव पर रात में डेढ़ घण्टे मोदी ने विपक्षियों को आईना दिखाया और दूसरे दिन 21 जुलाई की सुबह षाहजहांपुर में 11 लोकसभा सीटों को ध्यान में रखकर किसान कल्याण रैली में विपक्षियों को ढोह रहे थे। हालांकि यहां 12 सीटें और 11 पर भाजपा काबिज है जबकि 2009 में यहां भाजपा सिर्फ 2 सीट पर ही सिमटी थी। आखिर में मोदी का पड़ाव 28 जुलाई लखनऊ हुआ जहां अवध क्षेत्र के विपक्षी दबदबे वाले सीटों पर उनकी नजर थी। जिन योजनाओं का यहां पर आधारषिला रखा गया उसमें अधिकतर केन्द्रीय है जिसमें अटल मिषन, अमृता योजना, स्मार्ट सिटी आदि प्रमुख हैं। यहां लोकसभा की 12 सीटें हैं जिसमें 10 पर भाजपा काबिज है। रायबरेली और अमेठी को भी साधने का प्रयास किया गया। गौरतलब है कि 2014 के लोकसभा में भाजपा अपना दल समेत 73 पर काबिज थी और सपा 5 पर जबकि कांग्रेस 2 पर ही सिमट कर रह गयी। 2019 में मोदी तभी सत्ता में वापसी कर सकते हैं जब उत्तर प्रदेष में इसके आसपास रिकाॅर्ड बरकरार हो परन्तु बदले हालात में विपक्षी एकता की सुगबुगाहट समीकरण को उलटफेर कर सकती है। इसी को देखते हुए मिषन उत्तर प्रदेष के माध्यम से मोदी विकासनामा की तमाम गाथा लिख रहे हैं। 

सुशील कुमार सिंह
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