Friday, August 26, 2016

अभी बाकी है एक और ओलंपिक से गुजरना

ब्राजील के रियो में सम्पन्न ओलम्पिक का खेल अब खत्म हो चुका है। कमोबेष सभी खिलाड़ी अपने वतन वापसी भी कर चुके हैं पर जो खौफ के षिकार हैं अभी वे असमंजस में हैं। कुछ के हाथ पदकों से भरे हैं तो कुछ के खाली हैं और खेल में ऐसा होता है। ओलम्पिक हमारे लिए भी उतना बुरा नहीं रहा जैसा सोचा जा रहा था। सवा अरब की आबादी वाले देष से दो महिला खिलाड़ियों ने रजत और कांस्य के साथ घर वापसी की है और उनका देष के भीतर जो स्वागत हुआ है वह किसी अजूबे से कम नहीं और जो बिना पदक के ही वापसी किये उनसे भी इतना गिला षिकवा नहीं कि उनके मनोबल पर बुरा असर पड़ता हो। भारत हार और जीत के बीच संतुलन बिठाने की बेजोड़ कला से परिचित है पर ऐसी ही कलाओं में कई देष माहिर नहीं हैं। दुनिया में सबसे चर्चित और प्रति चार वर्श पर आयोजित होने वाला ओलम्पिक कईयों के लिए जिन्दगी का हिस्सा तो कईयों की जिन्दगी ही है। इसकी गहराई को परखते हुए दृश्टिकोण को जब विस्तार देने की कोषिष की तो उस देष पर भी दृश्टि पड़ी जिनका रवैया पदकविहीन खिलाड़ियों को लेकर अमानवीय होने की ओर है। इसमें उत्तर कोरिया को षामिल होते हुए देखा जा सकता है। सवाल है कि ओलम्पिक के बाद कुछ देष अपने खिलाड़ियों को लेकर इतना सख्त रवैया कैसे अपना सकते हैं। क्यों उनकी दृश्टि में खेल एक खेल नहीं। क्यों इसमें हुई हार को वे अपनी अन्तर्राश्ट्रीय असफलता मान रहे हैं यह बात समझ से परे है।
भारत के 120 खिलाड़ी रियो ओलम्पिक में किस्मत आजमाने गये थे जिसमें बैडमिंटन में हैदराबाद की पी.वी. सिंधु और रेसलिंग में हरियाणा की साक्षी मलिक ने क्रमषः रजत और कांस्य पदक जीता। चीन को छोड़ दिया जाय तो दुनिया के किसी भी देष से सर्वाधिक आबादी भारत की है और झोली में केवल दो मेडल और इसमें भी सोना एक भी नहीं। बावजूद इसके हमारा सीना गर्व से चैड़ा है। वहीं मात्र ढ़ाई करोड़ की आबादी रखने वाले उत्तर कोरिया के 31 एथलीट ने दो गोल्ड के साथ 7 मेडल जीते हैं फिर भी वहां का तानाषाह किम जोंग पदक विहीन खिलाड़ियों की जान का आफत बन रहा है। उसके इस तौर-तरीके के चलते उत्तर कोरियाई खिलाड़ी खौफ में हैं। यहां तक वे अपनी जीत का जष्न भी नहीं मना पा रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि तानाषाह किम जोंग नाराज है और उसने जो लक्ष्य दिया था उसे वे पूरा नहीं कर पाये हैं। दरअसल 5 स्वर्ण पदक सहित 17 पदक की उम्मीद किम जोंग कर रहा था पर ऐसा नहीं हो सका। किम जोंग के बौखलाने के पीछे एक बड़ी वजह दक्षिण कोरिया भी है। धुर दुष्मन दक्षिण कोरिया ने इसी ओलम्पिक में 9 स्वर्ण, 3 रजत और 9 कांस्य सहित 21 पदक हासिल किये हैं। इसकी तुलना में किम जोंग अपने को पिछड़ता हुआ देख रहा है। ऐसे में उसका बौखलाना स्वाभाविक है पर ओलम्पिक में प्राप्त पदकों की गम्भीरता से षायद वह वाकिफ नहीं है। चूंकि किम जोंग द्वारा निर्धारित लक्ष्य को खिलाड़ी पूरा नहीं कर पाये हैं तो जाहिर है कि उनके लिए जो सज़ा सिरफिरा तानाषाह देगा उन्हें झेलनी ही पड़ेगी। बताया जा रहा है कि उत्तर कोरिया के एथलीट रियो जाने से पहले ही दबाव में थे। इसका कारण भी किम जोंग ही है। अब देष लौटने पर ऐसे खिलाड़ियों को क्या सजा मिलेगी अभी कुछ निष्चित तो नहीं है पर माना जा रहा है कि उन्हें कोयले की खदानों में काम करने की सजा दी जा सकती है पर एक सच्चाई यह भी है कि सनक चढ़ने पर इस तानाषाह के लिए कुछ भी करना बड़ी बात नहीं है। सजा-ए-मौत देना इसके लिए मजाक जैसा ही रहा है। 
रियो ओलम्पिक अमेरिका, इंग्लैण्ड समेत कई देषों के लिए सोना उगलने वाला सिद्ध हुआ है पर जो देष इसमें पिछड़ गये हैं वे टोक्यो में होने वाले ओलम्पिक को लेकर आषावादी दृश्टिकोण रखने लगे होंगे पर अखरने वाली बात यह है कि उत्तर कोरिया के हारे हुए खिलाड़ियों के मन में तो ऐसा विचार भी नहीं पनप रहा है। खेल के दौरान भी यह देखा गया है कि जीत के बावजूद उत्तर कोरियाई खिलाड़ी खुषी से उछल नहीं पा रहे थे। खौफ का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उत्तर कोरिया के जिमनास्ट री से ग्वांग द्वारा ओलम्पिक में गोल्ड मेडल जीतने के बावजूद उनके चेहरे पर मुस्कान नहीं थी जबकि साथ खड़े रूस और जापान के खिलाड़ी खुष नजर आ रहे थे। सोषल मीडिया में तो उसे सबसे दुखी गोल्ड मेडलिस्ट तक कहा गया। कईयों ने तो यहां तक कहा कि ऐसा लग रहा है कि जैसे बन्दूक की नोक पर मेडल ले रहा हो। इसके अलावा पहली उत्तर कोरियाई महिला जिमनास्ट हांग यूं जूंग जिन्होंने अपने देष का नाम ऊँचा किया लेकिन सबसे बड़े दुष्मन देष दक्षिण कोरिया के खिलाड़ी के साथ सेल्फी के चलते पूरी उत्तर कोरियाई टीम में खलबली मच गयी। खलबली इस बात की जब तानाषाह इसे देखेगा तो मेडल जीतने वाली इस जिमनास्ट की पीठ थपथपाने के बजाय कहीं उसे सजा-ए-मौत न दे दे। बड़े दुःख की बात है कि ये सब आधुनिक विष्व में हो रहा है और इसके साक्षी हम भी हैं। यह बात समझ से परे है कि खौफ के इतने बड़े मंजर से उत्तर कोरिया के खिलाड़ी गुजरने के बावजूद 7 मेडल जीते हैं। इतनी बड़ी जीत पर जिस देष को अपने खिलाड़ियों पर इतराना चाहिए और जो पिछड़ गये उनका मनोबल बढ़ाना चाहिए पर आज वही उनको सज़ा देने पर तुला है। तानाषाह की करतूतों को पहले भी बहुत रूपों में देखा गया है। षेश विष्व की चिंता न करने वाला तानाषाह किम जोंग परमाणु हथियारों से लेकर मिसाइलों तक का खुल्लमखुल्ला परीक्षण करता रहा है, दुनिया को चुनौती देता रहा है। इस सरफिरे तानाषाह ने सैकड़ों को तोप से उड़वाया है। कई सगे-सम्बन्धियों को दर्जनों कुत्तों के सामने फेंक चुका है। गरीबी, बेरोजगारी, अषिक्षा से भरे उत्तर कोरिया का तानाषाह किम जोंग जिस रास्ते पर है जाहिर है वहां की जनता का सुबह-षाम खौफ में ही बीतता होगा।
इसके अलावा एक इथोपियाई खिलाड़ी रियो ओलम्पिक में अपने देष की राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ विरोध जताने वाले रजत पदक विजेता मैराथन धावक फियेसा लिलेसा सजा के डर से अपने देष इथोपिया नहीं लौटा। हालांकि इथोपिया ने किसी तरह की सजा नहीं दिये जाने का आष्वासन दिया है। सबके बावजूद सारा माजरा समझने के बाद यह बात भी समझ में आई है कि उत्तर कोरिया जैसे देष खेल को खेल के दायरे में नहीं रखना चाहते। देखा जाय तो रियो ओलम्पिक में भी भारत के सामने ढेर सारी चुनौतियां थी। बीजिंग ओलम्पिक में षूटिंग में स्वर्ण पदक जीतने वाले अभिनव बिन्द्रा और बैडमिन्टन की सायना नेहवाल के लिए रियो ओलम्पिक में कुछ नहीं रहा बावजूद इसके इनकी क्षमता पर संदेह नहीं है। इतना ही नहीं कई और खिलाड़ी जिनसे उम्मीदें थी उनकी नाउम्मीदी से भी माथे पर बल नहीं पड़ा। एक सच यह भी है कि जब विष्व के इतने बड़े खेल महोत्सव में हमारे खिलाड़ी पिछड़ते हैं या हारते हैं तो हम उन्हें दोश देने के बजाय सरकार को दोशी करार देते हैं क्योंकि यह जानते हैं कि जो खिलाड़ी बाजी मारकर आ रहा है वह उसकी अपनी व्यक्तिगत इच्छाषक्ति और तैयारी थी लेकिन हम चाहते हैं कि हमारे खिलाड़ी जीतें और सैकड़ों में मेडल लायें और दहाई में स्वर्ण भी लायें पर इसके लिए हमें दीर्घकालिक निवेष करना पड़ेगा। फिलहाल ओलम्पिक समाप्त होने के बाद भी अभी उत्तर कोरिया के खिलाड़ियों को एक और ओलम्पिक से गुजरना बाकी है।



सुशील कुमार सिंह


Wednesday, August 24, 2016

समाधान न्यायिक नहीं, राजनीतिक हो.

जम्मू-कष्मीर संविधान की पहली अनुसूची में षामिल 15वां राज्य है जो ऐतिहासिक कारणों के चलते अनुच्छेद 370 के अधीन विषेश उपबन्धों से युक्त है। स्वतंत्रता के एक बरस बाद से ही यहां पाकिस्तान ने जो जहर बोया उसकी फसलें अभी भी घाटी में लहलहाती हैं। आतंक की जो रोपाई बीते तीन दषकों में पाक अधिकृत कष्मीर में हुई है और जिस तर्ज पर कष्मीर समेत भारत में इसका उपयोग हुआ है उसे देखते हुए साफ है कि पकिस्तान न केवल एक गैर-जिम्मेदार देष बल्कि आतंकियों का पनाहगार भी है और इन्हीं के बूते पर भारत से छद्म युद्ध का बिगुल फूंके रहता है। आईएसआई और आतंकी संगठनों के प्रभाव एवं दबाव में पाकिस्तान जिस रास्ते पर है उससे यह भी संकेत मिलता है कि पाकिस्तानी सरकार के पास समाधान के लिए सख्त कदम उठाने की हैसियत ही नहीं है। इतना ही नहीं कष्मीर का ढिंढोरा संयुक्त राश्ट्र संघ समेत वैष्विक मंचों पर पीटकर अपनी नुमाइष करता रहता है। विडम्बना यह भी है कि कष्मीर घाटी में कई अलगाववादी गुट भी सक्रिय हैं। हुर्रियत जैसे अलगाववादियों ने भी कम नासूर नहीं दिये हैं। देखा जाय तो घाटी का दुःख कई कोषिषों के बावजूद कम होने के बजाय दोगुनी बढ़त लिये हुए है। इन दिनों भी कष्मीर पिछले डेढ़ महीने से बिगड़े हालात की षिकार है। हालात काबू में कैसे आयें इस पर कसरत जारी है। देष की षीर्श अदालत ने भी यह साफ कर दिया कि कष्मीर के मौजूदा हालात पर समाधान राजनीतिक स्तर पर निकाला जाना चाहिए। अदालत ने यह भी कहा है कि हर समस्या का न्यायिक समाधान नहीं हो सकता है।
प्रधानमंत्री मोदी का वक्तव्य कि कष्मीर पर बात संविधान के दायरे में हो। उनका यह कहना कि जम्मू-कष्मीर की समस्याओं का समाधान के लिए सभी को मिलकर काम करना होगा समुचित प्रतीत होता है पर जिस दायरे की बात मोदी कह रहे हैं उस पर वे अड़िग हो सकते हैं, चल भी सकते हैं और स्वयं को इसके लिए मानसिक रूप से तैयार भी कर सकते हैं और करना भी चाहिए पर सवाल है कि क्या कष्मीर में जड़े जमा चुके अलगाववादी भी संविधान के अनुसार चलने के लिए एकमत हैं। जिस प्रकार घाटी में अमन-चैन बिगाड़ने को लेकर इनकी बेचैनी रही है उसे देखते हुए इनकी संवेदनषीलता को परखा जा सकता है। बावजूद इसके आषा से भरी षिद्दत से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। संविधान के दायरे में बातचीत का रास्ता निकालना निहायत वाजिब है। सभी जिम्मेदार दलों को मोदी की इस पहल पर साथ देना भी चाहिए और घाटी को तकलीफ से उबारने में मदद करनी चाहिए परन्तु ध्यान इस बात का भी रखना होगा कि घाटी में हिंसा भड़काने वाले कष्मीर और भारत प्रेम से विलग मन्तव्य वाले भी हैं। ऐसे में उनके साथ बहुत उदार रवैया भी षायद ही काम आये। पाकिस्तान का रूख भी घाटी के अमन-चैन को बर्बाद करने में कम जिम्मेदार नहीं है। बुरहान वानी को षहीद बताने एवं ब्लैक फ्राइडे मनाने वाले पाकिस्तान के अलावा पाकिस्तान पोशित कई अलगाववादी भारत की सीमा में आज भी अपने मजसूबों पर खरे उतरने की कोषिष में हैं। बीते 15 अगस्त को मोदी ने जिस प्रकार पाक अधिकृत कष्मीर और बलूचिस्तान को लेकर पाकिस्तान को चेताया उससे भी स्पश्ट हुआ था कि भारत उसे असल जगह बताना चाहता है। खोट नियत से युक्त पाकिस्तान जिस कष्मीर को आजाद बताता है दरअसल वह गुलाम कष्मीर है और वहां के लोग भारत उन्मुख दृश्टिकोण रखते हैं, प्रताड़ित हैं, पीड़ित हैं और पाकिस्तान के जुल्मों को सहते हैं। यही वह क्षेत्र है जहां पर पाकिस्तान के आतंकी संस्थाओं की भरमार है। बलूचिस्तान में संघर्शरत बलोच नेताओं का समर्थन करके मोदी ने पाकिस्तान को उसी की भाशा में जवाब देने की कोषिष की है। हालांकि इन नेताओं पर तिलमिलाये पाकिस्तान ने देषद्रोह का मुकद्मा कर दिया है। लालकिले की प्राचीर से मोदी ने जो आईना नवाज़ षरीफ को दिखाया उससे उसका बिलबिलाना स्वाभाविक है। 
अन्तर्राश्ट्रीय मंच पर कष्मीर मुद्दे को तूल देने के मामले में पाकिस्तान मुस्लिम देषों को भी साधने की कोषिष कर रहा है पर पाक की इस मुहिम पर भारत भी पानी फेरने में जुटा है। ऐसे देषों में जवाबी मुहिम चलाने का जिम्मा विदेष राज्य मंत्रियों को दिया गया है। सऊदी अरब की यात्रा कर चुके वी.के. सिंह वहां इस मुहिम पर भी काम कर रहे हैं जबकि दूसरे विदेष राज्यमंत्री एम.जे. अकबर का इराक दौरा जारी है। हो-न-हो आवष्यकता पड़ने पर चुनिन्दा मुस्लिम देषों की यात्रा विदेष मंत्री सुशमा स्वराज भी कर सकती हैं। गौरतलब है कि 56 मुस्लिम देषों का सबसे बड़ा संगठन ‘आॅर्गेनाइजेषन आॅफ इस्लामिक काॅरपोरेषन‘ का साथ कष्मीर मामले में पाकिस्तान को मिला है। पाकिस्तान के सुर-में-सुर मिलाते हुए जनमत सर्वेक्षण की मांग की गयी है। ऐसे में भारत को चैकन्ना रह कर कूटनीतिक पहल तेज करने की आवष्यकता पड़ेगी और उसी की माद में घुसकर अपने लिए कूटनीतिक सफलता अर्जित करनी होगी। जिस प्रकार बीते दो वर्शों में मोदी की वैष्विक कूटनीति चारों दिषाओं में सफल सिद्ध हुई है उसे देखते हुए आषा है कि पाकिस्तान की इस चाल की काट भी भारत कर लेगा। सबके बाद इस बात की भी पड़ताल जरूरी है कि घाटी में जो हुआ उसका जिम्मेदार कौन है? कौन यहां के अमन-चैन को नश्ट करने का गुनाहगार है? जम्मू-कष्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की मानें तो कष्मीर की हिंसा पूर्व नियोजित थी जो मुट्ठी भर लोगों की साजिष का नतीजा है पर वे मुट्ठी भर लोग कौन हैं, सरकार होने के नाते महबूबा मुफ्ती को स्वयं जवाब देना चाहिए। 
अक्सर हालात बिगड़े प्रदेषों में एक बड़ी वजह विकास माना जाता रहा है पर क्या जम्मू-कष्मीर के हालात विकास की कमी के चलते हैं यह बात उतनी समुचित प्रतीत नहीं होती। जिस आग में कष्मीर जला है और बादस्तूर जल रहा है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि इसकी वजह एक तो नहीं है। जितना घाटी का इतिहास, भूगोल समझ में आता है उसके मद्देनजर यह कहना लाज़मी है कि यहां की समस्या सामाजिक-सांस्कृतिक स्वरूप से जकड़ी है। इसके अलावा षिक्षा का विकास, रोजगार का प्रसार तथा आर्थिक उपादेयता को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता साथ ही अवसरवाद से युक्त अलगाववादियों पर नकेल कसने में ढिलाई भी कही जा सकती है। जम्मू-कष्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री तथा मौजूदा मुख्यमंत्री के पिता स्वर्गीय मुफ्ती मोहम्मद सईद ने जब मार्च 2015 में षपथ ली थी तो उन्होंने जेल में बन्द अलगाववादी को छुड़वाने का काम किया था। तब यह भी सवाल उठा था कि भाजपा और पीडीएफ की सरकार एक बेमेल समझौता है। हालांकि इस सवाल से अभी भी पीछा नहीं छूटा है। फिलहाल प्रधानमंत्री मोदी की दृश्टि से भी यह संकेत मिला है कि मात्र विकास से कष्मीर समस्या का हल नहीं हो सकता। गौरतलब है कि बीते दो वर्शों में मोदी ने कष्मीर का आधा दर्जन बार दौरा किया, करोड़ों का पैकेज दिया और असन्तुश्टों को षांत करने का भरसक प्रयास भी किया। बावजूद इसके कष्मीर सुलग रहा है। कहा जाता है कि ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका समाधान न हो पर क्या यह कष्मीर के मामले में पूरी षिद्दत से लागू हो सकता है। ऐसा तभी सम्भव होगा जब मुट्ठी भर अलगाववादियों और निजी स्वार्थों में फंसे कष्मीरी नेता जनता को गुमराह करना छोड़ेंगे। षीर्श अदालत का यह कहना कि समाधान न्यायिक नहीं राजनीतिक हो इस तथ्य को एक अटल सत्य के तौर पर इसलिए देखा जा सकता है क्योंकि समाज में वैचारिक मतभेदों और अलगाववाद को परास्त करने के लिए ऐसे ही फाॅर्मूले काम आयें हैं। 

सुशील कुमार सिंह


Tuesday, August 16, 2016

नवाचार को समर्पित 70वां स्वतंत्रता दिवस

आतंकवाद के आगे भारत नहीं झुकेगा। आतंकवाद और माओवाद की तरफ भटके युवाओं से मुख्य धारा में लौटने की अपील समेत कई बिन्दुओं पर प्रधानमंत्री मोदी ने लालकिले की प्राचीर से एक प्रखर प्रवक्ता की भांति वह सब कुछ कहा जो राश्ट्र को मजबूत करने के काम आ सकता है। स्वतंत्रता के दिन लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री मोदी की स्वराज को सुराज में बदलने का संकल्प सहित कई ऐसी बातें कही गयी जिसके लागू होने से भारत का भाग्य बदल सकता है। इसी लालकिले से पहली बार ब्लूचिस्तान और पाक अधिकृत कष्मीर का जिक्र करके मोदी ने पाकिस्तान को उसकी असल जगह बताने की कोषिष भी की जिसका नतीजा यह हुआ कि घबराये पाकिस्तान ने कष्मीर मुद्दे पर भारत से बातचीत की तुरंत पेषकष कर दी। फिलहाल 15 अगस्त उपलब्धियों के साथ कई सकारात्मक ऊर्जा के लिए देखा और समझा जाता रहा है। तीसरी बार लालकिले से भाशण दे रहे मोदी को सुनने के बाद स्वप्नदर्षी राश्ट्रपिता महात्मा गांधी के उन सपनों के भारत की याद एक बार फिर ताजा हो गयी जिसकी चाह वे रखते थे। गांधी के अनुसार मैं ऐसे भारत के लिए कोषिष करूंगा जिसमें गरीब लोग भी यह महसूस करेंगे कि वह उनका देष है जिसके निर्माण में उनकी आवाज का महत्व है, जिसमें उच्च और निम्न वर्ग का भेद निहित होगा और जिसमें विविध सम्प्रदाओं का पूरा मेलजोल होगा। ऐसे भारत में अस्पृष्यता या षराब और दूसरी नषीली चीजों के अभिषाप के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। उसमें स्त्रियों को वही अधिकार होंगे, जो पुरूशों को होंगे। षेश सारी दुनिया के साथ हमारा सम्बंध षान्ति का होगा। राश्ट्रपिता की उपर्युक्त विचारधारा के हम कितने समीप हैं यह पड़ताल का विशय हो सकता है पर इसमें कोई दो राय नहीं कि सात दषक खपाने के बाद भी उनकी सोच को पूरा करने में अभी मीलों पीछे हैं। 
लगभग 94 मिनट के भाशण में प्रधानमंत्री मोदी ने कई खास बातों का जिक्र किया है। लालकिले से पाकिस्तान को ललकारने का जो अजूबा हुआ ऐसा पहले कभी देखने को नहीं मिला। ब्लूचिस्तान और पीओके के लोगों का मोदी ने षुक्रिया अदा किया। गौरतलब है कि मोदी के उक्त बयान से इस क्षेत्र विषेश के संघर्श करने वाले लोगों का उत्साह बढ़ा होगा। कईयों का मानना है कि इस मामले में भारत को बड़े भाई की भूमिका में होना चाहिए। यह सही है कि प्रधानमंत्री मोदी कई नूतन प्रयोगों के लिए जाने-समझे जाते हैं पर इसका अंदाजा षायद ही किसी को रहा हो कि दो बरस पहले षपथ के दिन से ही पाकिस्तान के मामले में सकारात्मक रूख रखने वाले मोदी इतने तीखे होंगे। मोदी ने पाकिस्तान को जो आईना दिखाया उस पर पूरा संतोश तो नहीं परन्तु बड़ा भरोसा जरूर किया जा सकता है। हालांकि यह देखने वाली बात होगी कि पाकिस्तान की चाल अब क्या होती है बातचीत का न्यौता दे चुका है पर अंजाम क्या होगा अभी साफ नहीं है। फिलहाल देखा जाए तो  आजादी के 70वें दिवस पर एक बार फिर भावनात्मक परिप्रेक्ष्य के साथ सांस्कृतिक और सामाजिक विन्यास से परिपूर्ण दस्तावेज का खुलासा हुआ है परन्तु देष की षीर्श अदालत के मुखिया इतने लम्बे भाशण में न्यायाधीषों की नियुक्ति का जिक्र न होने से निराष दिखाई देते हैं। मानव सभ्यता के विकास को जिन कारकों ने प्रभावित किया है उनसे भारत की स्वाधीनता भी अछूती नहीं है। हम इस बात को षायद पूरे मन से एहसास नहीं कर पाते कि स्वतंत्रता दिवस क्या चिन्ह्ति करना चाहता है। मोदी ने तो यहां तक कहा कि अगर उपलब्धियों के बारे में बोलूं तो हफ्ते भर लाल किले पर बोलना पड़ेगा। यह संदर्भ नीति और नीयत दोनों के लिए अच्छा ही है पर जिन पर अभी कुछ खास नहीं हुआ है उन पर भी बोलने के लिए कुछ कर गुजरना बाकी है।
वर्श 2016 का स्वतंत्रता दिवस गिनती में 70वां होगा पर क्या पूरे संतोश से कहा जा सकता है कि हाड़-मांस का एक महामानव रूपी महात्मा जो एक युगदृश्टा था जिसने गुलामी की बेड़ियों से भारत को मुक्त कराया था क्या उसके सपने को वर्तमान में पूरा पड़ते हुए देखा जा सकता है। कमोबेष ही सही पर यह सच है कि सपनों को पूरा करने की जद्दोजहद अभी भी जारी है। असल में भारत में राश्ट्रवाद का उदय भारतीयों के अंग्रेजी साम्राज्य के प्रति असंतोश एवं उसमें व्याप्त तर्कपूर्ण बौद्धिकता का परिणाम था जो 19वीं सदी की महत्वपूर्ण घटना थी। इन्हीं दिनों भारतीय स्वतंत्रता का बीजारोपण भी हुआ, इसी का फल स्वाधीन भारत है। यहीं से लोकतांत्रिक सिद्धांत की आधारभूत मान्यता, आत्मनिर्णय या सुषासन की मुहिम षुरू हुई। भारत ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संसदीय प्रणाली को अपनाया और समाजवादी आयाम से अभीभूत देष लोकतांत्रिक समाजवाद की ओर बढ़ चला। इस उम्मीद में कि सैकड़ों वर्शों के सपनों को कुछ वर्श में पूरा किया जायेगा। 70 साल के आजादी के इतिहास में भारत के अन्दर अनगिनत बदलाव आये हैं पर जो चिन्ता राश्ट्रपति के अभिभाशण में दिखी उससे परिलक्षित होता है कि होमवर्क दुरूस्त करना होगा। नरेन्द्र मोदी दो साल से अधिक समय से प्रधानमंत्री हैं और मौजूदा स्थिति में बड़े स्वप्नदृश्टा के रूप में स्वयं को स्थापित करने में लगे हैं। देष-विदेष में गांधी और विवेकानंद के उन विचारों को उकेरना नहीं भूलते जिसमें विष्व कल्याण का रहस्य छुपा है। इस बार भी लाल किले से तिरंगा फहराने के बाद देष को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि एक भारत, श्रेश्ठ भारत के सपने को पूरा करना चाहिए। इसके लिए प्रत्येक आदमी को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। महात्मा गांधी, सरदार पटेल और पण्डित नेहरू सहित कईयों को याद करते हुए अपनी उपलब्धियों के साथ मन की बात को देष के सामने परोसने का काम किया। 
आजादी को देखने, समझने और महसूस करने के सबके अपने-अपने तरीके हैं पर इस सच से षायद ही किसी को गुरेज हो कि आज हमारे पास आजादी के इतने विकल्प मौजूद हैं जो अब से कुछ वर्श पहले नहीं थे। कुछ देषों को छोड़ दिया जाय मसलन पाकिस्तान तो कमाबेष भारत के अन्तर्राश्ट्रीय सम्बंध और समझ तुलनात्मक समकक्षता की ओर गयी है। संतुलन बिठाने के मामले में भी भारत की स्थिति तुलनात्मक मजबूत ही हुई है। कई मामलों में आलोचना की जा सकती है पर आज के अवसर में इसकी गुंजाइष कम रखना चाहते हैं। आजादी जितनी पुरानी कष्मीर की समस्या इन दिनों चर्चे में है। इस बार खास यह हुआ है कि पाक अधिकृत कष्मीर को लेकर भारत काफी आवेषित है पर नतीजे किस करवट जायेंगे अभी कुछ कहा नहीं जा सकता परन्तु पाकिस्तान को उसी की भाशा में जवाब देने का इरादा यदि सरकार में आता है तो यह नई बात होगी। मोदी के इषारों में यह संकेत रहता है कि उनके पास हर मर्ज की दवा है। अपनी कूबत और कौषल से सब कुछ हल कर लेंगे और श्रेश्ठ भारत के जो वे युगदृश्टा बनने की फिराक में हैं उसमें भी आगे निकल जायेंगे। अगर देष के पास समस्याएं हैं तो सामथ्र्य भी है। इस बात को कहते हुए लाल किले से मोदी ने यह भी कहा कि आजादी का पर्व देष को नई ऊंचाई पर ले जाने का पर्व है। इस बात में लेष मात्र भी संदेह नहीं है पर सरकार जिस रोड मैप पर है क्या उतने मात्र से सबकी भलाई हो सकेगी। इस पर पूरा विष्वास नहीं किया जा सकता। सब कुछ के बावजूद कठोर सवाल यह है कि 70 साल की आजादी हो गयी परन्तु अभी भी भारत कई बुनियादी सामाजिक समस्याओं से उबर नहीं पा रहा है मसलन दलितों से जुड़ी समस्याएं। फिलहाल मोदी की पारी चल रही है। जाहिर है जिम्मेदारी को समझने में वे कोई चूक नहीं करते हैं और इसमें भी कोई षक-सुबहा नहीं कि जनता इनसे बहुत उम्मीद लगाती है। 


सुशील कुमार सिंह

Friday, August 12, 2016

भारत की चिंता का कोई मोल नहीं

जम्मू-कष्मीर में जो कुछ हो रहा है वह सब पाकिस्तान प्रायोजित है। यह बात तब और पुख्ता हो जाती है जब सुरक्षा एजेंसियों के हत्थे चढ़ा आतंकी बहादुर अली घाटी में फैली हिंसा को लेकर पाकिस्तान को बेनकाब करता है। जाहिर है कि आतंकी बहादुर अली को खाद-पानी पाकिस्तान के आतंकी संगठनों से भरपूर मिला है। वैसे तो जिंदा आतंकियों का पकड़ा जाना अब नई बात नहीं रही। आधा दर्जन से अधिक आतंकी भारत की सीमा में पकड़े जा चुके हैं और पाकिस्तान के झूठ का पर्दाफाष भी कर चुके हैं। बावजूद इसके पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आता साथ ही इन्हें अपना नागरिक मानने से इंकार भी करता रहा है। जिस राह पर इन दिनों पाकिस्तान है उसे देखते हुए साफ है कि उससे कुछ भी उम्मीद करना बेमानी है। ऐसे में भारत की ओर से सख्त कदम उठाने की जो पहल हो सकती है वह की जा रही है। बीते 4 अगस्त को इस्लामाबाद में गृहमंत्रियों की सार्क बैठक में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने पाकिस्तान को जो तेवर दिखाये वह उसकी जगह बताने के लिए जरूरी था। बीते 10 अगस्त को केन्द्र सरकार ने कष्मीर में हिंसा और अषान्ति के लिए सीधे तौर पर पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराना भी भारत की ओर से उठाया गया एक रसूखदार कदम कहा जायेगा। एक बार फिर गृहमंत्री का यह कहना कि अब सिर्फ पीओके पर ही बात की जायेगी, बिल्कुल वाजिब प्रतीत होती है। हालिया परिप्रेक्ष्य से जो वातावरण इन दिनों दोनों देषों के बीच व्याप्त हो गया है उससे भी संकेत मिलता है कि पाकिस्तान के मामले में मोदी सरकार द्वारा पिछले दो वर्शों से जो सकारात्मक भूमिका निभाई जा रही थी उसकी कोई कीमत उसकी दृश्टि में नहीं है। ऐसे में सरकार का कड़ा रवैया न केवल प्रासंगिक है बल्कि यही एक अन्तिम विकल्प भी है। बार-बार संयुक्त राश्ट्र संघ में कष्मीर मुद्दे को उठाने वाला पाकिस्तान द्विपक्षीय मामले में निहायत फिसड्डी सिद्ध हुआ है और यह क्रम अभी भी टूटा नहीं है।
भारत के गृहमंत्री के हालिया बयान को सुनने और पढ़ने के बाद यह धारणा विकसित हुई कि गुलाम कष्मीर को लेकर उनका रवैया काफी सख्त है हालांकि उसी कष्मीर को पाकिस्तान आजाद बताता है। कष्मीर कार्ड खेल रहा पाकिस्तान भी यदि ऐसा ही कुछ समझ रहा है तो भारत उसे आईना दिखाने में कुछ कदम आगे बढ़ा दिखाई देता है। गृहमंत्री का यह बयान कि गुलाम कष्मीर को पाकिस्तान जल्द खाली करे। पाक अधिकृत कष्मीर पर गृहमंत्री के इस ताजे बयान से एक आयाम यह खुलता है कि क्यों न कष्मीर से ही कष्मीर की जंग लड़ी जाय। पाकिस्तान का हमेषा से यह आरोप रहा है कि भारत अधिकृत कष्मीर उसका है और कब्जा भारत का है जबकि ऐसा षायद ही हुआ हो कि पाक अधिकृत कष्मीर पर भारत इतना तल्ख हुआ हो पर इस बार की सरकार और उसकी समझ कुछ और समझाने की कोषिष में लगी है। इन्हीं कोषिषों के बीच एक पथ यह बनता है कि कष्मीर का जवाब कष्मीर से क्यों न दिया जाय। क्यों न गृहमंत्री के उस कथन को कष्मीर समस्या का हल बना लिया जाय जिसे उन्होंने बीते 21 जुलाई को लोकसभा में कष्मीर मुद्दे पर चर्चा के दौरान कहा। राजनाथ सिंह का वक्तव्य पाकिस्तान के लिए उसी के हथियार से उसी पर वार के काम आ सकता है। देखा जाय तो द्विपक्षीय समझौते की हिमायत करने वाला भारत षान्ति और अहिंसा के दायरे में अपने कृत्यों का अंजाम देता रहा पर पाकिस्तान अपनी हिमाकत के चलते इससे बहुत दूर जा चुका है। आतंकी बुरहान वानी की मौत पर उसे सदमा पहुंचता है। उसे षहीद घोशित करता है अब तो उसके फोटो छपी रेलगाड़ी पाकिस्तान में रफ्तार ले रही है। कष्मीर को सुलगाने वाला पाकिस्तान ‘ब्लैक डे‘ मनाता है। गैर-संवेदनषील पाकिस्तान को यह समझ नहीं है कि पाक अधिकृत कष्मीर पर भी उसकी बपौती स्थाई नहीं है। ऐसे में भारत के अन्दर मचे उथल-पुथल पर उसे हर्शोल्लास मनाने के बजाय समाधान के लिए रास्ता खोजना चाहिए या फिर चुप रहने में ही भलाई समझना चाहिए पर वह घाटी के अमन को निगलने में लगा हुआ है।
यह पहली बार हुआ है कि एनआईए ने किसी आतंकी से पूछताछ का वीडियो जारी किया है। इससे पहले पाकिस्तान, ब्लूचिस्तान में पकड़े भारतीय नागरिक कुलभूशण यादव के बयान का वीडियो भी जारी कर चुका है। हाफिज सईद का संगठन जमात-उद-दावा में 14 वर्श की उम्र से भर्ती किया गया बहादुर अली को जिस पैमाने पर प्रषिक्षित करने के साथ आतंकवादी बनने के लिए उकसाया गया उससे भी साफ है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ षरीफ के नाक के नीचे सारा खेल चल रहा है और हाफिज़ सईद जैसे आतंकी भारत की तबाही के सामान निर्मित कर रहे हैं पर षरीफ उन्हें षहरी नागरिक की संज्ञा देने में तुले हुए हैं। सवाल तो यह है कि क्या बहादुर अली के बयान के बाद पाकिस्तान के रवैये में कोई फर्क आयेगा इसकी गुंजाइष न के बराबर ही है। इसके पहले भी आधा दर्जन से अधिक सबूत भारत पाकिस्तान को दे चुका है जिसके नतीजे ढाक के तीन पात ही रहे। भले ही दुनिया यह मान ले कि ताजा प्रकरण में एनआईए के हत्थे चढ़ा आतंकी बहादुर अली पाकिस्तान का ही नागरिक है पर पाकिस्तान इसे नकारेगा जरूर ऐसी उसकी फितरत रही है। गौरतलब है कि बीते 2 जनवरी को पठानकोट में जब आतंकी हमला हुआ तब भी भारत ने पाकिस्तान को सारे सबूत दिये थे पर नतीजे जस के तस रहे। 15 जनवरी को होने वाली विदेष सचिव स्तर की वार्ता को विराम लगाया गया था परन्तु षरीफ की हरकत का कोई फायदा भारत को नहीं मिला। पाकिस्तान की जांच एजेंसी मार्च के अन्तिम सप्ताह में सप्ताह भर से अधिक समय तक पठानकोट में अपने आतंकियों की करतूतों की पड़ताल करती रही और जब भारत की जांच एजेंसी को पाकिस्तान जाने की बात आई तो कष्मीर के नाम पर पल्टी मार गया और कहा कि कष्मीर में षान्ति बहाली के बाद ही ऐसा हो सकता है। कभी-कभी यह भी प्रतीत होता है कि क्या पाकिस्तान जैसा मुल्क इस धरातल पर दूसरा कोई होगा। जितना भूगोल जानता हूं उसके अनुपात में पाकिस्तान जैसा दूसरा देष केवल पाकिस्तान ही हो सकता है। 
मोदी सरकार को दो वर्श से अधिक हो गया है इस बात के लिए उनकी सराहना की जा सकती है कि 26 मई, 2014 को षपथ के दिन से ही पाकिस्तान से जुड़ाव रखने वाले मोदी ने सम्बंध सुधारने की हर सम्भव कोषिष की परन्तु विक्षिप्त लोकतंत्र वाले देष के प्रधानमंत्री नवाज़ षरीफ अपनी धूर्तता से कभी बाज नहीं आये। कभी भी भारत से सम्बंध सुधारने को लेकर बेहतरीन एक्षन मोड नहीं दिखाया। सार्क बैठकों से लेकर रूस के उफा में किये गये वायदे से पल्टी मारने वाला पाकिस्तान अमेरिका से खरी-खोटी सुनने के बावजूद जस का तस बना रहा। कष्मीर मुद्दे को त्रिपक्षीय बनाने के इरादे से ग्रस्त षरीफ निहायत क्षुद्र किस्म के कृत्यों पर विष्वास करते रहे। आतंकियों के सहारे छद्म युद्ध से भारत को छलनी करने का काम करते रहे। दूसरे षब्दों में कहा जाय तो भारत की ओर से पाकिस्तान को भरपूर अवसर दिया जा चुका है पर पाकिस्तान है कि समझता नहीं। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि जब तक पाकिस्तान में आतंकी पाठषालायें बन्द नहीं होंगी तब तक षरीफ जैसे लोग लोकतांत्रिक सरकार होने का दावा तो कर सकते हैं पर असल में अन्दर से खोखले रहेंगे और पाकिस्तान जैसे लकीर से हटे देष आईएसआई और आतंकियों के निषाने पर रहेंगे। ऐसे में पाकिस्तान के प्रति भारत का रवैया सख्त होना चाहिए जो इन दिनों देखा जा रहा है। 

सुशील कुमार सिंह

Thursday, August 11, 2016

जहां गूंज उठी मेरी बेटी, मेरी पहचान

जब 22 जनवरी, 2015 को हरियाणा के पानीपत से प्रधानमंत्री मोदी ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ‘ अभियान को प्रखर करने की कोषिष कर रहे थे तो उसी समय अनायास ही यह सवाल भी मन में पनपा था कि आखिर इस अभियान के लिए हरियाणा ही क्यों? ऐसा करने के पीछे एक वजह यह समझ में आई कि हरियाणा में पुरूशों के मुकाबले स्त्रियों की संख्या सर्वाधिक न्यून है। इसके अतिरिक्त यहां के 70 गांव ऐसे हैं जहां एक भी लड़की नहीं जन्मीं साथ ही एक हजार पुरूशों पर 877 स्त्रियों का होना जबकि 6 वर्श से कम आयु में यह आंकड़ा 830 का है। कृशि विकास एवं समृद्धि के मामले में कई प्रदेषों की तुलना में कहीं बेहतर हरियाणा बच्चियों के मामले में हाषिये पर है। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ‘ एक सरकारी सामाजिक योजना है जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने डेढ़ वर्श पहले हरियाणा के पानीपत से षुरू किया था जिसकी ब्रांड अम्बेसडर अभिनेत्री माधुरी दीक्षित भी मंच पर उपस्थित थी। इस योजना से न केवल बच्चियों की सुरक्षा हो रही है बल्कि उनकी षिक्षा का भी प्रबंध देखा जा सकता है। छोटी बच्चियों के मामले में बढ़ रहे असंतुलन को देखते हुए सभ्य समाज को संतुलित करार नहीं दिया जा सकता पर इस गिर रहे अनुपात के बीच बेटी बचाने की एक नई तरकीब झारखण्ड के जमषेदपुर के एक जनजातीय बाहुल गांव से दिखाई देती है। जहां ‘मेरी बेटी, मेरी पहचान‘ का नारा इन दिनों बुलंद है। दरअसल झारखण्ड के जमषेदपुर जिले से 26 किलोमीटर दूर एक जनजातीय बाहुल गांव तिरिंग है जो पोटका प्रखण्ड के जूड़ी पंचायत में पड़ता है। यहां की खासियत यह है कि सभी घरों की पहचान बेटियों से है। इस मुहिम से इलाके विषेश में न केवल लोगों में उत्साह है बल्कि बेटियों के प्रति लोगों का नजरिया भी सकारात्मक होते दिखाई दे रहा है। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि ‘मेरी बेटी, मेरी पहचान‘ के इस मुहिम के चलते बेटियों का आत्मबल बढ़ेगा साथ ही महिला सषक्तिकरण को भी ऊर्जा मिलेगी।
देष में जहां ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ‘ की अवधाराणा को धरातल पर उतारने की कोषिष की जा रही है वहीं झारखण्ड के एक छोटे से जनजातीय गांव से मेरी बेटी, मेरी पहचान को जमीन पर उतारना बड़े नेक का काज कहा जा सकता है। वह इसलिए क्योंकि आंकड़े भी इस बात का समर्थन करते हैं कि यहां हजार बच्चों में 768 बच्चियां हैं जो निहायत चिंता का विशय है। झारखण्ड के तिरिंग गांव की सूरत बदलने में यहां के उपजिलाधिकारी संजय कुमार का जिक्र न किया जाय तो यह उनके प्रति अन्याय होगा। दरअसल संजय कुमार जमषेदपुर मुख्यमंत्री कैंप कार्यालय में पदास्थापित उपसमाहर्ता (उपजिलाधिकारी) हैं जिनकी यह सोच कि घरों की नेमप्लेट बेटियों और उनकी मां के नाम से किया जाय जो अपने आप में एक रोचक प्रसंग है साथ ही इस बात का भी संकेत है कि लिंग असमानता से निपटने के लिए इस प्रकार की कार्यप्रणाली बेहद अच्छी होने के साथ भविश्य के लिए कारगर सिद्ध हो सकती है। संजय कुमार की इस मुहिम को केवल क्षेत्र विषेश तक ही सीमित नहीं माना जा सकता। जिस तर्ज पर इन्होंने तिरिंग गांव की बेटियों को उभारने का प्रयास किया है उससे साफ है कि आने वाले दिनों में न केवल तिरिंग बल्कि पूरे झारखण्ड के साथ देष की सूरत खूबसूरत बदलाव ले सकती है। इससे लिंगानुपात से निपटने का रास्ता काफी हद तक आसान भी हो सकता है। अक्सर यह रहा है कि सकारात्मक पहल को कई कठिनाईयों का सामना करना पड़ा है। बेषक यह बात रोचक और हैरत से भरी है पर इसके पीछे कड़ी मेहनत भी उतनी ही षामिल है। अगर ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ‘ को षुरूआत में 100 जिलों में लागू करके इसके निहित परिप्रेक्ष्य से देष भर में विस्तार देना था तो तिरिंग गांव से उठी आवाज ‘मेरी बेटी, मेरी पहचान‘ आने वाले दिनों में झारखण्ड समेत पूरे देष की गूंज बन सकती है और संजय कुमार जैसे नौकरषाहों के मनोबल को भी बढ़ाने में मदद मिलेगी। देष में जिस भांति नौकरषाही का रवैया है उसे देखते हुए भी झारखण्ड के इस अधिकारी की पहल को प्रमुखता से देखा जाना चाहिए। 
बरसों की चिंता खपाने के बावजूद अभी भी लिंगानुपात के मामले में मामला कमोबेष जस का तस बना हुआ है। हालांकि इस दिषा में दो वर्श से अधिक पुरानी मोदी सरकार पहल कर चुकी है और सामाजिक सोच बदलने की राह पर है। प्रति दस वर्श की दर से देष में जनगणना का चलन रहा है। स्वतंत्रता से लेकर अब तक सात बार जनगणना हो चुकी है। देष में बच्चियों और स्त्रियों की पुरूशों की तुलना में स्थिति कभी भी उत्साहवर्धक नहीं रहा। आंकड़ें इस बात को जताते हैं कि समाज ने स्त्री के फलने-फूलने में कम दिलदारी दिखाई है। चेतना और आधुनिकता ने काफी हद तक सामाजिक मनोविज्ञान में परिवर्तन किया है परन्तु आधी दुनिया का पूरा सच पूरी तरह प्राप्त होने में अभी भी कठिनाई बनी हुई है। स्वतंत्रता के बाद की पहली जनगणना में हजार पुरूशों की तुलना में स्त्रियों की संख्या 946 थी यह आंकड़ा 1971 आते-आते 930 हो गया जबकि 1981 में इसमें 4 की वृद्धि हुई परन्तु 1991 में यह 927 पर जाकर रूका। 21वीं सदी की पहली जनगणना जब 2001 में हुई तो स्त्रियों की पुरूशों की तुलना में स्थिति थोड़ी सुधरते हुए 933 की हो गयी। अब 2011 की जनगणना के हिसाब से यह 940 आंकी गई है जबकि 6 वर्श से कम की बच्चियां मात्र 914 हैं। मिजोरम जैसे राज्य में जहां बच्चियों की संख्या 971 है वहीं पंजाब, जम्मू-कष्मीर, राजस्थान, महाराश्ट्र आदि में इनकी संख्या का कम होना चिंता का सबब बना हुआ है। इतना ही नहीं झारखण्ड जैसे प्रान्तों मंे भी स्थिति बेचैन करने वाली है। इसके अलावा 46 फीसदी बच्चे कुपोशित हैं जिसमें 70 प्रतिषत लड़कियां ही हैं। जमषेदपुर के तिरिंग गांव का हाल भी काफी खराब है। 2011 की जनगणना के अनुसार बच्चियों की संख्या 768 जबकि साक्षरता दर भी यहां केवल 50 फीसदी ही है। उक्त आंकड़े के आलोक में यह भी संदर्भित होता है कि यहां साक्षरता, षिक्षा, सुरक्षा एवं पोशणता सभी की एक साथ आवष्यकता है। ऐसे में जरूरी है कि देष-प्रदेष में बच्चियों की हालत को पुख्ता बनाने के लिए समाकलित नीति पर काम किया जाय ताकि जीवन के सभी जरूरी पक्षों को उभारा जा सके। 
बेटियां किसी से कम नहीं हैं यह बात भी सिद्ध हो चुकी है। जरा ठहर कर यह भी सोचने की जरूरत है कि कौन सा काज ऐसा है जहां पर लड़कियों की भागीदारी सम्भव नहीं है।  फौज, पुलिस, सरकार, आईटी, खेलकूद, एवरेस्ट पर चढ़ना, अंतरिक्ष में जाना, षिक्षक, वैज्ञानिक और डाॅक्टर सहित तमाम तक इनकी पहुंच देखी जा सकती है। अचरज भरे आंकड़े यह भी है कि देष में 2011 की जनगणना के अनुसार एक हजार लड़कों पर 914 बच्चियां हैं। प्रखर बिन्दु यह भी है कि योजना के लिए चाहे जितनी आर्थिक सबलता दी जाय या फिर कोई और ताकत लगाई जाय परन्तु यह बिना मनो-सामाजिक सोच को बदले पूरी तरह कारगर सिद्ध नहीं हो पायेगीं देष में ऐसी योजनाओं को लेकर जो पहल की जा रही है और मोदी जिस दृश्टिकोण से अपनी बात कह रहे हैं इससे उम्मीद जगती है परन्तु जहां बच्चियों की पैदावार तत्पष्चात् सुरक्षा और उसके बाद षिक्षा का संकट खड़ा होता हो वहां कहीं अधिक मजबूती से घात करने की जरूरत भी है ताकि ‘बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ‘ के कार्यक्रम को उस राह पर ले जाया जा सके जहां से संजय कुमार की सोच ‘मेरी बेटी, मेरी पहचान‘ की अवधारणा हकीकत में बदलती हो। फिलहाल सकारात्मक होने में कोई बुराई नहीं है। उम्मीद रखनी चाहिए कि भविश्य के नतीजे बेहतर हों।

सुशील कुमार सिंह


Tuesday, August 9, 2016

संविधान की जीत पर हार किसकी!

बीते 4 अगस्त को दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दिल्ली की संवैधानिक स्थिति स्पश्ट कर देने के पष्चात् यह साफ हो गया कि भारत की राजधानी दिल्ली एक केन्द्रषासित प्रदेष है और यहां का प्रषासनिक प्रमुख उपराज्यपाल है तथा उसी की चलेगी भी। फरवरी 2015 से दिल्ली की सत्ता पर काबिज अरविन्द केजरीवाल और उपराज्यपाल नजीब जंग के बीच कामकाज को लेकर लम्बे समय से खींचातानी चल रही थी। अब हाईकोर्ट के कथन के बाद दिल्ली की तस्वीर क्या होगी इसके भी संकेत मिल चुके हैं। हालांकि दिल्ली सरकार ने उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी है। यदि षीर्श अदालत दिल्ली हाईकोर्ट के स्पश्टीकरण को ही बनाये रखती है तो केजरी सरकार के काम-काज से जुड़ी मुसीबतें कम नहीं होंगी। ऐसे में उन वायदों का क्या होगा जिसे करके केजरीवाल ने सत्ता हथियाई थी। आम आदमी पार्टी जब से दूसरी बार दिल्ली में काबिज हुई है उसके कुछ अर्से बाद ही केन्द्र सरकार पर यह आरोप लगाती रही है कि मोदी सरकार उन्हें काम करने नहीं देती। इतना ही नहीं समाचार पत्रों एवं टेलीविजन के विज्ञापनों में भी यह स्लोगन देखने को मिलता रहा है कि ‘वो परेषान करते रहे, हम काम करते रहे‘। उपराज्यपाल नजीब जंग और केजरीवाल के बीच सीधी जंग भी गाहे-बगाहे होती रही है और नजीब जंग पर यह आरोप रहा है कि केन्द्र सरकार के इषारे पर वे केजरी सरकार के लिए मुसीबत खड़ा करते हैं लेकिन जब लड़ाई न्यायालय की चैखट पर पहुंची तब जो सुनने को मिला उससे केजरीवाल सरकार असहज जरूर हुई होगी। असल में 23 सितम्बर, 2015 को अदालत ने सीएनजी फिटनेस घोटाले की जांच के लिए गठित न्यायिक आयोग को चुनौती देना, उपराज्यपाल द्वारा दानिक्स अधिकारियों को दिल्ली सरकार के आदेष न मानना, एसीबी के अधिकार को लेकर जारी केन्द्र सरकार की अधिसूचना एवं डिस्काॅम में निवेषकों की नियुक्ति को चुनौती सहित अन्य मामलों में प्रतिदिन सुनवाई करने का फैसला लिया था। इसी वर्श के 24 जुलाई को अदालत में दिल्ली सरकार की उस याचिका को जिसमें इन मामले की सुनवाई पर रोक लगाने की मांग की गई थी पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। इस बीच दिल्ली सरकार इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट भी गयी पर न्यायालय ने याचिका पर सुनवाई करने से मना कर दिया था। अब दिल्ली हाईकोर्ट के कठोर तेवर के बाद दिल्ली सरकार एक बार फिर षीर्श अदालत से उम्मीद लगा रही है। 
दिल्ली हाईकोर्ट उपराज्यपाल को प्रमुख मानते हुए कहा कि दिल्ली मंत्रिमण्डल अगर कोई फैसला लेता है तो उसे उपराज्यपाल के पास भेजना होगा। हालांकि अमूमन ऐसा सभी राज्यों में होता है पर यहां अलग यह है कि यदि राज्यपाल उस पर भिन्न दृश्टिकोण रखते हैं तो इस संदर्भ में केन्द्र सरकार की राय की जरूरत पड़ेगी जो कामकाज के लिहाज़ से सामान्य राज्यों में नहीं होता है फिर भी कुछ मामलों में यहां भी राज्यपाल को षक्ति है कि वे ऐसे विधेयकों को राश्ट्रपति के लिए सुरक्षित रख सकते हैं जो संसदीय अधिनियम और संविधान का अतिक्रमण करते हों। चूंकि उपराज्यपाल दिल्ली के प्रषासनिक प्रमुख हैं ऐसे में नीतिगत फैसले बिना उनसे संवाद किये नहीं लिये जायेंगे। उक्त के आलोक में यह स्पश्ट होता है कि 70 विधायकों वाली दिल्ली की मंत्रिपरिशद आम राज्यों की भांति तो कतई नहीं है। जाहिर है जिस तर्ज पर संविधान दिल्ली सरकार को अधिकार देता है उससे साफ है कि दिल्ली हाईकोर्ट का कथन सौ फीसदी सही है। दिल्ली क्या है, दिल्ली को लेकर विषेश उपबंध क्या हैं आदि पर भी गौर करने की जरूरत है। दरअसल 1991 में 69वें संविधान संषोधन अधिनियम द्वारा संविधान में अनुच्छेद 239(कक) और 239(कख) जोड़कर दिल्ली संघ राज्य क्षेत्र को राश्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का दर्जा दिया गया और दिल्ली के संदर्भ में विषेश उपबंध किये गये थे। यहां की विधानसभा को राज्यसूची और समवर्ती सूची के विशयों में कानून बनाने की वैसी ही षक्ति प्राप्त है जैसे कि अन्य राज्यों को। अनुच्छेद 239कक(5) के अुनसार दिल्ली राजधानी क्षेत्र के मुख्यमंत्री की नियुक्ति राश्ट्रपति करेगा का उल्लेख मिलता है जबकि अन्य प्रान्तों के मामले में नियुक्ति राज्यपाल करता है। जाहिर है कि उपराज्यपाल राश्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में संघ राज्य क्षेत्र का प्रषासन करता है। ऐसे में उपराज्यपाल को वरीयता देना स्वतः प्रत्यक्ष होता है।
दिल्ली की संवैधानिक स्थिति जिस प्रकार है उसे देखते हुए स्पश्ट है कि केजरीवाल कम से कम मनमानी तो नहीं कर पायेंगे। हालांकि एक सरकार के नाते केजरीवाल उन तमाम सीमाओं को समझ रहे होंगे जो उनके अधिकारक्षेत्र में है पर षायद वे दिल्ली को उत्तर प्रदेष या मध्य प्रदेष जैसे प्रांत की तरह चलाना चाहते हैं जो कि संवैधानिक बाधाओं के चलते सम्भव नहीं है। गौरतलब है कि केजरीवाल कानूनी लड़ाई के साथ पूर्ण राज्य के दर्जे को लेकर भी सत्ता के दिन से ही संघर्श कर रहे हैं। पर वे दोनों मोर्चे पर परास्त होते हुए भी दिखाई दे रहे हैं। दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले से यह हार और पुख्ता हो जाती है। रही बात दिल्ली के विकास की तो यह बात समझ से परे है कि बीते ढ़ाई दषकों में भाजपा से लेकर कांग्रेस तक की सरकारें रही हैं पर जितनी खटपट केजरीवाल को लेकर देखी जा रही है उतनी कभी न थी। 70 के मुकाबले 67 विधायकों से युक्त आम आदमी पार्टी की सरकार चला रहे केजरीवाल जिस तीव्रता से सियासत की बुलंदी को छुआ है, जिस प्रकार राजनीति में उनका आगाज हुआ था उसकी तुलना में उनकी गति तेज होगी ये सभी समझते थे पर विवाद और मतभेद इतने गहरे होंगे षायद ही किसी ने सोचा हो। यह पड़ताल का विशय है कि इस उतार-चढ़ाव के बीच दिल्ली की जनता का कितना भला हुआ है मगर इस सच्चाई से षायद ही किसी को गुरेज हो कि नौसिखिया दिल्ली सरकार को कई पचा नहीं पा रहे हैं। सियासी भंवर में अक्सर इस पार्टी के मंत्री से लेकर विधायक तक फंसाद में फंसते जा रहे हैं। दो टूक यह भी है कि नई सियासत जब जड़े जमाती है तो उसे इस प्रकार के थपेड़ों से गुजरना ही पड़ता है। सबके बावजूद एक सच्चाई यह है कि जिस प्रकार केजरीवाल की स्पीड पोलिटिक्स चल रही है उससे कई राश्ट्रीय पार्टियां सकून से नहीं बैठ सकती हैं। 
सबके बावजूद सवाल यह उठता है कि जब दिल्ली संघ राज्यक्षेत्र के तौर पर आज भी बरकरार है तो एक चुनी हुई सरकार की वहां कितनी प्रासंगिकता रह जाती है। यदि चुनी हुई सरकार को जनता के किये गये वायदे के अनुपात में कार्य करने में व्यवधान है तो इसे दूर कौन करेगा। क्यों नहीं स्पश्ट रेखा खींचकर सरकार की हद बता दी जाय और रोज-रोज के झगड़े से दिल्ली को मुक्त कर दिया जाये। लाख टके का सवाल तो यह भी है कि जब अमेरिका की राजधानी वाषिंगटन डीसी को एक मेयर और 13 सदस्यीय काउंसिल चला सकता है और ब्रिटेन की राजधानी लंदन का स्थानीय प्रषासन ग्रेट लंदन अथोरिटी के जिम्मे हो जिसका संचालन एक मेयर के द्वारा होता है साथ ही विकास और पुलिस का जिम्मा भी हो। इतना ही नहीं फ्रांस की राजधानी पेरिस आदि ऐसी ही प्रषासनिक व्यवस्था से चलाये जा रहे हों तो आखिर भारत की राजधानी दिल्ली क्यों नहीं। दुनिया के बेहतरीन उदाहरण से युक्त देष की राजधानियां चन्द लोगों द्वारा चलायी जा रही हैं तो भारत में भारी-भरकम सरकार की जहमत क्यों उठाई गयी। यदि ऐसा संविधान सम्मत है भी तो भी अधिकारों की लड़ाई को समाप्त करने के लिए अब तक सरहद क्यों नहीं बनाई गयी। यह भी सही है कि दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले से संविधान की ही जीत हुई है पर केजरीवाल और नजीब जंग के बीच कोई नहीं हारा है। बावजूद इसके अच्छे विचार और अच्छी धारणा तथा उपजाऊ दृश्टिकोण की जरूरत अभी भी दिल्ली को है। 



सुशील कुमार सिंह

Friday, August 5, 2016

कानून के कगार पर जीएसटी

आखिरकार एक देष, एक टैक्स का सपना अब हकीकत की राह पकड़ लिया है। दषकों से अधिक समय की प्रतीक्षा के बाद और 6 मई, 2015 को लोकसभा में पारित जीएसटी विधेयक अन्ततः बीते 3 अगस्त को राज्यसभा की भी अनुमति प्राप्त कर ली है। खास यह भी है कि जो जीएसटी विधेयक 2014 के षीत सत्र से हिचकोले खा रहा था जब वह राज्यसभा में 203 मतों से पारित हुआ तो विरोध में कोई भी नहीं दिखाई दिया। हालांकि राज्यसभा में विधेयक पर मतदान से पहले सरकार के जवाब से असंतोश जताते हुए अन्नाद्रमुक ने सदन से वाॅकआउट किया था। फिलहाल दोनों सदनों में पारित जीएसटी को कानूनी रूप लेने में अभी कई प्रक्रियायें षेश हैं। जीएसटी को अन्तिम रूप देने के लिए दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत के अलावा आधे राज्यों की सहमति भी अनिवार्य है। ऐसे में 122वां संविधान संषोधन विधेयक के अन्तर्गत निहित जीएसटी को अभी 15 राज्यों की मंजूरी लेना होगा। तत्पष्चात् राश्ट्रपति हस्ताक्षर करेंगे तब कहीं जाकर 1 अप्रैल, 2017 से लागू होने वाला यह कानून धरातल पर उतर सकेगा पर मोदी सरकार की सर्वाधिक महत्वाकांक्षी विधेयक में षामिल जीएसटी के राज्यसभा में पारित होने के बाद इस बात पर भी विमर्ष जारी है कि इसके नफे-नुकसान कितने और कैसे होंगे। जाहिर है कि कुछ चीजों के दाम घटेंगे तो कुछ बढ़ेंगे और धीरे-धीरे सब कुछ पटरी पर आ जायेगा। लेकिन इस हकीकत को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि जीएसटी भारत के लिए नया कानून हो सकता है पर विष्व के कुछ देषों को जीएसटी को लेकर अनुभव नरम-गरम रहे हैं। ऐसे में 1 अप्रैल, 2017 के बाद और कुछ माह एवं वर्श बीतने के बाद ही इसकी पुख्ता पड़ताल सम्भव हो पायेगी। 
जीएसटी के इतिहास को खंगाला जाय तो पता चलता है कि 28 फरवरी, 2006 को 2006-07 के बजट में पहली बार इसका प्रस्ताव षामिल किया गया था और यह जाहिर किया गया था कि 1 अप्रैल, 2010 से जीएसटी को लागू किया जायेगा। इसके बाद नवम्बर, 2009 में जीएसटी पर पहला डिस्कषन पेपर जारी हुआ। साल दर साल इस पर चर्चा होती रही इसके होने को लेकर कई फायदे और नुकसान की भी गिनती होती रही पर इसे अमल में लाना सम्भव नहीं हो पाया। यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में प्रस्ताव के तौर पर आया जीएसटी की पारी एक दषकीय से अधिक है। प्रधानमंत्री मोदी की महत्वाकांक्षी विधेयकों में जीएसटी का अहम स्थान था पर राज्यसभा में संख्याबल की कमी के कारण इसे पारित कराने में अच्छा खासा वक्त खर्च करना पड़ा। कांग्रेस समेत कई विरोधी दलों को कई बार मान-मनव्वल भी करनी पड़ी जिसका नतीजा अब जाकर मिला पर अभी इसकी दर तय नहीं हुई है। वित्त मंत्री जेटली ने विधेयक पारित होने से पहले अपने जवाब में बताया कि मुख्य आर्थिक सलाहकार ने जीएसटी की दर के बारे में 16.9 से 18.9 के बीच सुझाव दिया था। फिलहाल इसमें कई कमियां हैं जिसके चलते राज्य के वित्त मंत्रियों के अधिकार प्राप्त समिति को स्वीकार्य नहीं है। जीएसटी की दर बाद में काउंसिल तय करेगी। गौरतलब है कि अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान 17 जुलाई, 2000 को राज्य के वित्त मंत्रियों की अधिकार प्राप्त समिति का गठन हुआ था और 12 अगस्त, 2004 को इसे पुर्नगठित किया गया था। देखा जाय तो जीएसटी दोनों सदनों से पारित होकर कानून बनने के कगार पर आ खड़ा है। ऐसे में सवाल यह भी खड़े हो रहे हैं कि यह देष के लिए कितना लाभप्रद होगा। माना जा रहा है कि काफी छोटे स्तर के उद्यम और कारोबारियों को आरम्भ के वर्शों में लाभ नहीं मिलेगा उल्टा इसके लागू होने पर कारोबार की लागत बढ़ जायेगी। 
फेडरेषन आॅफ इण्डियन स्माॅल मीडिया इन्टरप्राइजेज के मुताबिक जीएसटी सैद्धान्तिक रूप से फायदेमन्द है क्योंकि इससे कर चोरी की सम्भावना कम हो जायेगी और ईमानदारी को बढ़ावा मिलेगा। देखा जाय तो सर्विस सेक्टर से जुड़े क्षेत्र में महंगाई बढ़ेगी। अनुमान है कि 18 फीसदी दर होगी। इस आधार पर पर्यटन, एसी ट्रेन, बस यात्रा, हवाई यात्रा यहां तक कि कोचिंग करने वाले विद्यार्थियों एवं प्रतियोगियों को अधिक षुल्क चुकाना होगा। जो चीजें सस्ती होंगी उनमें छोटी कारें, रेस्तरां में भोजना करना, सिनेमा के टिकट आदि षामिल हैं। यह आंकलन सरसरी तौर पर है जबकि इसके अलावा कई क्षेत्र और भी हैं जो इसी प्रकार के लाभ-हानि के दायरे में देखे जा सकते हैं। अलबत्ता फायदे और नुकसान के दरमियान जीएसटी का मोल-तोल किया जाय पर पूरे देष में एक दर होने से इसके दूरगामी नतीजे बेहतर होंगे ऐसी सम्भावना लगाई जा रही है। ऐसा नहीं है कि जीएसटी के मामले में दुनिया को समझ नहीं है। पड़ताल बताती है कि एषिया के 19 देषों में इसी प्रकार का कर प्रावधान है जबकि यूरोप में तो 53 देष इसमें सूचीबद्ध हैं। इसी प्रकार अफ्रीका में 44, साउथ अमेरिका में 11 समेत दुनिया भर में सौ से अधिक देष इसके अन्तर्गत निहित देखे जा सकते हैं। सबके बावजूद यह भी ध्यान देना होगा कि इसकी दर अधिक न हो। रोचक यह भी है कि जीएसटी को लेकर कुछ देषों में यह भी देखने को मिला है जिस सरकार ने जीएसटी को लागू किया उसमें से कुछ को आगामी चुनाव में हार का सामना भी करना पड़ा। हालांकि इस कानून के आने से कई अन्य की भी राह आसान होगी मसलन नये कारोबारियों के एक आसान सा आवेदन देना होगा जो आॅनलाइन दाखिल हो जायेगा। एक ही पंजीकरण सेन्ट्रल जीएसटी और स्टेट जीएसटी हेतु मान्य होगा। इसके अलावा वर्तमान कारोबारी को पंजीकरण कराने की जरूरत नहीं है।
कर चोरी घटेगी, ईमानदार कारोबारियों को लाभ मिलेगा, कई अप्रत्यक्ष करों को खत्म कर एक कर लगाया जायेगा जो बार-बार कर चुकाने के झंझट से मुक्ति मिलेगी साथ ही कारोबार की दृश्टि से पूरा देष एक जैसा हो जायेगा। जिस कर व्यवस्था में ऐसी अवधारणायें छुपी हों उसकी तस्वीर साफ क्यों नहीं कही जायेगी। अर्थषास्त्रियों की राय जीएसटी के मामले में बंटी जरूर है पर इस बात से षायद ही कोई गुरेज कर रहा हो कि भारत में ऐसे कर कानूनों की जरूरत थी। प्रधानमंत्री मोदी जीएसटी को कानून की राह में लाकर फिलहाल एक नेक काज तो किया है साथ ही दुनिया में बदलती और उभरती अर्थव्यवस्था के बीच भारत को भी विष्व मंचों पर ऊंचाई के साथ खड़ा किया है। ऐसे में आन्तरिक आर्थिक व्यवस्था को लेकर भी ठोस रणनीति बनाना जरूरी था जिसे देखते हुए जीएसटी फिलहाल के लिए बेहतर विकल्प था। जीएसटी के मूर्त रूप लेने से इसका एक ऐतिहासिक अर्थ भी निकलता है। 24 जुलाई, 1991 के बड़े आर्थिक सुधार के बाद ठीक 25 वर्श बाद यह दूसरा बड़ा आर्थिक सुधार कहा जायेगा। समझने वाली बात यह भी है कि जीएसटी भले ही राजनीतिक सर्वसम्मति की अवधारणा लिये रहा हो पर यह पूरा मामला आर्थिक कवायद का था। भारत राज्यों का संघ है, संघ का अपना एक संवैधानिक अर्थ है पर यहां इसका मतलब सभी की चिंता करने वाला कहा जाय तो अतार्किक न होगा। इस आधार बिन्दू को तभी पुख्ता किया जा सकता था जब भारत के कोने-कोने में प्रणालियों में भी एकरूपता हो। जीएसटी इस दिषा में भी एक बेहतर कदम के रूप में जाना जायेगा। नेषनल कांउसिल आॅफ अप्लाइड इकोनोमिक रिसर्च का भी मानना है कि इसके लागू होने से जीडीपी में 0.9 से 1.7 तक का इजाफा हो सकता है। जिसके चलते भारत की जीडीपी दहाई में भी जा सकती है। फिलहाल बरसों से राजनीति का षिकार जीएसटी कानूनी कगार पर है जिसका स्वागत किया ही जाना चाहिए। 



सुशील कुमार सिंह

सवालों में यूपी की कानून-व्यवस्था

कहावत है कि सरकार वही अच्छी जिसका प्रषासन अच्छा और अच्छी कानून व्यवस्था किसी राज्य के विकास की प्रथम आवष्यकता मानी जाती है पर यही पटरी से उतर जाय तो उस राज्य का बेड़ागरक होना तय है जैसा कि इन दिनों उत्तर प्रदेष का हाल देखा जा सकता है। यहां के नेषनल हाइवे-91 पर बुलंदषहर के करीब घटी हैवानियत से भरी घटना इन दिनों न केवल सुर्खियों में है बल्कि यूपी की कानून व्यवस्था को भी धता बता रही है। जिस तर्ज पर इस नेषनल हाइवे पर घटना को अंजाम दिया गया और जिस प्रकार पुलिस कंट्रोल रूम से किया जाने वाला सम्पर्क बार-बार नाकाम रहा उससे साफ है कि पुलिसया रौब रखने वाला यूपी नागरिकों की हिफाज़त के मामले में बैकफुट पर है जिसके चलते यहां की कानून व्यवस्था को लेकर लानत-मलानत का दौर भी चल रहा है। फिलहाल मामले की गम्भीरता को देखते हुए पुलिस हरकत में आयी और तीन आरोपियों को पकड़़ने में कामयाब रही। लोग आरोपियों को फांसी देने की मांग कर रहे हैं जबकि पीड़ित के पिता और पति का कहना है कि अगर न्याय नहीं मिला तो हम तीनों जहर खा लेंगे। 
देखा जाय तो सर्वाधिक जनसंख्या वाले उत्तर प्रदेष के मुखिया अखिलेष यादव प्रदेष में कानून-व्यवस्था को बनाये रखने में नाकामयाब ही सिद्ध हो रहे हैं। उत्तर प्रदेष चुनाव के मुहाने पर है जबकि कानून-व्यवस्था के मामले में यहां हालात बद् से बद्तर होते जा रहे हैं। यूपी सरकार के पास इसे संभालने हेतु कोई यांत्रिक दृश्टिकोण है इसका भी आभाव ही दिखाई देता है। लगभग पांच साल की सत्ता में अखिलेष सरकार यूपी में अपराध को रोक पाने में विफल रही है। मुजफ्फरनगर का नासूर अभी भी ताजा है इसके समेत सैकड़ों की मात्रा में हुई घटनायें इस बात का संकेत करती हैं कि उत्तर प्रदेष बिगड़ी कानून-व्यवस्था का मानो पर्याय बन गया हो। गौरतलब है कि कानून-व्यवस्था को संभालने में पुलिस की सर्वाधिक भूमिका होती है पर जिस पर इसकी जिम्मेदारी है वे ही लापरवाही से भरे प्रतीत होते हैं। इतना ही नहीं जिस पुलिस को भारी-भरकम प्रषिक्षण के बाद वर्दी पहनने का हक दिया जाता है वही मोर्चा संभालने में मुंह के बल गिरते हुए दिख रही है। 
नाक के नीचे घटनायें घट रही हैं, अपराधी बेखौफ घूम रहे हैं, कानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं पर प्रषासन की संरचना एवं प्रक्रिया में कोई खास फर्क नहीं दिखाई देता। कुछ का निलंबन होना तथा स्थानांतरण होने तक बात रह जाती है। सवाल है कि जिस तर्ज पर अपराधी अपराध को अंजाम दे रहे हैं उसे रोकने के लिए किस प्रकार की मषीनरी चाहिए। सवाल तो यह भी है कि कानून-व्यवस्था के मामले में उत्तर प्रदेष जैसे प्रांत हाषिये पर क्यों जबकि तकनीकी पैनापन भी अब आ चुका है। पुलिस कंट्रोल रूम का 100 नम्बर पर गुहार लगाने वाले पीड़ित को राहत क्यों नहीं मिल पायी। इतनी लापरवाही किस ओर इषारा करती है यह समझ से परे है। संतुलित मापदण्डों में यह हमेषा रहा है कि व्यवस्थायें उथल-पुथल में रहती हैं पर यह सिलसिला खत्म ही न हो यह तो किसी त्रासदी का लक्षण है। 
पड़ताल तो इस बात की भी होनी चाहिए कि आखिर कानून-व्यवस्था जो राज्य का प्रथम विशय होना चाहिए वह सूची में आखिरी पायदान पर क्यों जा रहा है। द्वितीय प्रषासनिक सुधार आयोग ने कानून और व्यवस्था प्रषासन पर पांचवे रिपोर्ट में कई बातों का उल्लेख किया है जिसमें एक यह भी है कि अपराध अन्वेशण को कानून और व्यवस्था से अलग किया जाय। एक राश्ट्रीय अपराधिक जांच एजेंसी का गठन किया जाय। इतना ही नहीं अपराधों के प्रति जीरो टोलरेंस स्ट्रैटेजी को अपनाने का संदर्भ भी रिपोर्ट में निहित है पर इसकी जमीनी हकीकत कितनी है यह भी पड़ताल का ही विशय है। किसी भी प्रदेष में जब कानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ती हैं और बड़े अपराध पनपते हैं तो साफ है कि प्रषासनिक महकमा यांत्रिक चेतना के मामले में या तो कमजोर है या फिर ड्यूटी के नाम पर टाइम पास कर रहा है। हालांकि यह माना जाता है कि केवल एक कारण से ही कानून-व्यवस्था पटरी से नहीं उतरती, इसके अनगिनत कारण होते हैं मसलन राजनीति और प्रषासन का अपराधिकरण, पुलिस सुधार में कमियां, बढ़ते संगठित अपराध, पुलिस की उदासीनता और अकर्मण्यता के कारण जनता में बढ़ती पुलिस को लेकर नकारात्मक प्रवृत्ति इसके अलावा भी अनेक सामाजिक और आर्थिक पहलू मिल जायेंगे। 
फिलहाल राज्य चाहे कोई भी हो एक कुषल व्यवस्था के लिए नियम और कानून स्तम्भ के समान होते हैं यदि यही लचर होंगे तो तंत्र का चलना न केवल मुष्किल होगा बल्कि नामुमकिन होगा। उत्तर प्रदेष में पटरी से उतरी व्यवस्था को दुरूस्त करने के लिए नये सिरे से एक बार फिर होमवर्क करने की जरूरत है और व्यवस्था को इस कदर बड़ा करना कि अपराध बौने सिद्ध हो जायें। यदि ऐसा करने में देरी हुई तो सभ्यता नश्ट होने की जिम्मेदारी से सरकार और प्रषासन दोनों नहीं बच पायेंगे।



सुशील कुमार सिंह


परदेस से वतन लौटने की गुहार

बीते 3 अगस्त यही कोई सुबह के साढ़े सात बज रहे थे और मैं स्वयं सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे प्रतियोगियों को भारत-अफगानिस्तान सम्बंधों पर व्याख्यान दे रहा था। पष्चिमी देषों से लेकर खाड़ी देषों तक की चर्चा-परिचर्चा जोरों पर थी। तभी कक्षा में उपस्थित एक छात्रा के मोबाइल पर सऊदी अरब में नौकरी कर रहे उसके पिता का एक संदेष आया जो तीन महीने की छुट्टी बिताकर बीते 11 जुलाई को ही सऊदी अरब वापस गये थे। संदेष में लिखा था कि हम लोग मुसीबत में हैं, हमारे पास खाने के लिए कुछ नहीं हैं, काम की जगह पर ही मानो बंधक बनाये गये हों और बहुत अधिक पीड़ा से गुजर रहे हैं। इसके आगे भी कुछ और बातें लिखी थीं। उस छात्रा ने मोबाइल में आये संदेष से पूरी कक्षा को अवगत कराया और तुरंत यह कहते हुए बाहर जाने की अनुमति मांगी कि मैं भी अपने पिता के वतन वापसी को लेकर अपने हिस्से की कोषिष करने जा रही हूं। प्रत्यक्ष हुए इस मामले से थोड़ी देर के लिए मन में यह भी चिंतन व्याप्त हुआ कि आखिर परदेस में विगत् कई वर्शों से इस प्रकार की विडम्बनायें क्यों हो रही हैं। क्यों भारतीय आये दिन कभी इराक तो कभी दक्षिणी सूडान तो कभी यमन में फंसते रहे हैं। उक्त घटना मात्र एक बानगी भर है जबकि सच्चाई यह है कि नौकरियों से हाथ धो चुके हजारों भारतीय इस समय सऊदी अरब और ओमान में फंसे हैं और वतन वापसी की गुहार लगा रहे हैं। ताजा हालात यह भी है कि सऊदी अरब में बीस षिविरों में करीब आठ हजार के आस-पास भारतीय षरण लिये हुए हैं। इनमें से रियाद में 9 षिविरों और दम्माम में एक षिविर में मेसर्स सऊदी ओगेर कम्पनी के चार हजार से अधिक भारतीय कामगार भी षामिल हैं। पड़ताल बताती है कि सऊदी अरब में फंसे लोगों की संख्या दस हजार के आसपास है जिसकी वापसी को लेकर भारत सरकार हरकत में आ चुकी है। इसी के मद्देनजर बीते मंगलवार की रात विदेष राज्यमंत्री वी.के. सिंह सऊदी अरब रवाना हो चुके हैं।
इन दिनों देष की संसद मानसून सत्र में संलिप्त है और देष को संभालने तथा बनाने वाले कई मुद्दों पर चर्चा-परिचर्चा जारी है। इसी बीच सऊदी अरब और ओमान में फंसे हजारों भारतीयों की गुहार भी संसद में गूंजी जिसे लेकर विदेष मंत्री सुशमा स्वराज ने संसद के दोनों सदनों में बयान जारी कर कहा कि वे हर घण्टे इस अभियान की निगरानी कर रही हैं। उन्होंने कहा कि दस हजार भारतीयों के बकाये पैसे भी वापस दिलायेंगी। संकट से जूझ रहे लोगों की मदद के लिए युद्ध स्तर पर कदम उठाए जा रहे हैं। सऊदी और ओमान में फंसे भारतीयों को लेकर काफी कुछ कहा जा रहा है पर वापसी कब सम्भव होगी, इसकी कागजी कार्यवाही कितने लम्बे समय तक चलेगी अभी कुछ स्पश्ट नहीं है। गौरतलब है कि सऊदी सरकार के अपने नियम हैं जिसमें किसी देष के दूतावास के कहने पर भी वहां से अपने नागरिकों को वापस लाने की अनुमति तब तक नहीं दी जाती है जब तक उनकी कम्पनी इजाजत न दे। फिलहाल भारत सरकार सऊदी सरकार से वापसी को लेकर जद्दोजहद में लगी हुई है। जितना कुछ पढ़ने और पड़ताल करने से पता चला है उससे स्पश्ट हुआ है  कि सऊदी अरब में अधिकतर फंसे भारतीयों को कई महीने से वेतन नहीं मिला है। यहां तक कि कामगारों को प्रताड़ित भी किया जा रहा है और बेहद मुष्किल हालात में लोग रह रहे हैं। इतना ही नहीं रोजमर्रा की चीजों के लिए संघर्श कर रहे हैं। सैकड़ों की तादाद में ऐसे भी हैं जिन्हें आठ महीने से वेतन नहीं मिला है। मीडिया से छन-छन कर आई खबर से यह भी साफ हुआ है कि फंसे भारतीयों के पास भारत लौटने की उम्मीद के सिवा अब वहां कुछ नहीं है। यह विडम्बना ही है कि विदेष की धरती पर रोज़गार के साथ डाॅलर, पाॅउण्ड और रियाल जैसी विदेषी मुद्रा कमाने की फिराक में हजारों, लाखों की तादाद में भारतीयों का देष छोड़ना पड़ता है पर विदेषी कानून और नियमों की बंदिषों  के अलावा यहां की आंतरिक समस्याओं के चलते कभी-कभार ये यहां फंस भी जाते हैं।
फिलहाल सऊदी और ओमान में फंसे भारतीयों को सुरक्षित लाना इस समय पहली प्राथमिकता है परन्तु साथ ही ऐसी व्यवस्था बनाने की भी जरूरत है जिसमें ऐसे कठिनाईयों से बचने की जुगत सरल हो। एक तो पुख्ता रिकाॅर्ड रखने की जरूरत है कि कितने भारतीय किस देष में, किस क्षेत्र में, किस परियोजना में, किस कम्पनी में और किस हालात में काम कर रहे हैं। यह उचित है कि जनसंख्या से भरे भारत में रोजगार की सम्भावनायें कमजोर होने के चलते बाहर जाना पड़ता है पर पैसा कमाने और दुर्लभ विदेषी मुद्रा प्राप्त करने के लिए जीवन मुसीबत में डालना कदाचित उचित नहीं है। इतना ही नहीं विदेष जाने वाले भारतीयों को भी जिम्मेदारियों से ओत-प्रोत करना चाहिए साथ ही विदेष विभाग को यह चेतावनी देनी चाहिए कि कब, किस देष में, किस प्रकार का खतरा है मसलन बीते 11 जुलाई को जिनकी वापसी सऊदी के लिए हुई यदि वहां कि विसंगतियों से विदेष विभाग रेड अलर्ट जारी किया होता तो ऐसे लोग वहां जाते ही क्यों? इन तमाम से यह भी स्पश्ट होता है कि नागरिक और सरकार दोनों की ओर से कुछ और ठोस तौर-तरीके अपनाने की जरूरत है। आज से ढ़ाई दषक पहले 1990 में जब इराक ने कुवैत को कब्जा किया था तो भारतीय वायुसेना और नौसेना ने वहां से पौने दो लाख भारतीयों को आपात स्थिति से बाहर निकाला था। इतनी बड़ी संख्या में किसी देष के नागरिक को निकालने का यह विष्व रिकाॅर्ड भी है। इसी तरह 2006 के लेबनान युद्ध के दौरान भी भारतीयों को ही नहीं बल्कि श्रीलंका और नेपाल के नागरिकों को भी सुरक्षित निकालने में सफलता मिली थी। लीबिया जैसे देषों में भी ‘आप्रेषन सेफ होमकमिंग‘ का अभियान चला कर 18 हजार से अधिक भारतीयों की वतन वापसी करायी गयी थी। इसी प्रकार दर्जनों देष देखे जा सकते हैं जहां कभी गृह युद्ध के कारण तो कभी वहां पनपी आंतरिक समस्याओं के चलते फंसे भारतीयों को वतन वापसी कराने में बड़ी-बड़ी सफलतायें मिली हैं। 
उपरोक्त सफलताओं के मद्देनजर यह भी साफ होता है कि भारत की अपने नागरिकों के प्रति कोषिष हमेषा से प्राथमिकता में रही है। भारत भावनाओं का देष है। पीड़ा से भरी गुहार को कोई भी सरकार षायद ही नजरअंदाज किया हो। संदर्भ और परिप्रेक्ष्य दोनों को देखते हुए कहा जा सकता है कि हालिया समस्या जो सऊदी और ओमान में फंसे हजारों भारतीयों से सम्बन्धित है इस मामले में भी सफलतापूर्वक वापसी सम्भव होगी। इस दिषा में प्रयास जोरों पर है। भारत में सऊदी के राजदूत से सभी द्विपक्षीय मुद्दों पर सकारात्मक चर्चा हुई है। भारतीय कामगारों से जुड़े मुद्दे समेत कई मुद्दों को सुलझाने की दिषा में सऊदी सरकार की ओर से आष्वासन और सहयोग मिलने की सूचना भी है। असल में खाड़ी देषों में भी यह देखा गया है कि अर्थव्यवस्थायें स्थिर नहीं रही हैं। यहां अर्थव्यवस्था चरमराने से हजारों भारतीयों की नौकरी चली गयी और आर्थिक कमी इस स्तर तक है कि खाने के भी लाले पड़े हैं। ऐसे लोगों के लिए भारतीय मिषन ने भोजन उपलब्ध करवाया है। विदेष में जब इस प्रकार की परिस्थितियां व्याप्त होती हैं तो वतन वापसी ही मात्र एक रास्ता बचता है फिर षुरू होती है सरकार की ओर से उन्हें लाने की कवायद। उपरोक्त से यह भी साफ होता है कि विदेष में तभी तक सुरक्षित जीवन है जब तक उनका देष किसी विडम्बना का षिकार नहीं है। फिलहाल तमाम समस्याओं की तरह इसे भी हल कर लिया जायेगा पर यह चिंता से षायद ही मुक्त हुआ जा सकेगा कि आगे एसी अनहोनी नहीं होगी।

सुशील कुमार सिंह


Wednesday, August 3, 2016

वीआईपी संस्कृति के लिए सबक

कभी मुख्यमंत्री होने की वजह से किसी को ताजिन्दगी सरकारी मकान नहीं दिया जा सकता। यह हालिया बयान देष की षीर्श अदालत ने बीते 1 अगस्त को उस वीआईपी संस्कृति के विरूद्ध फैसला देते हुए कहा जिसमें पूर्व मुख्यमंत्री बरसों से पद पर न रहने के बावजूद सरकारी बंगले पर काबिज हैं। इस मामले में सोमवार को अहम फैसला सुनाते हुए उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेष के छः पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी बंगला खाली करने का आदेष दे दिया है जिसे दो महीने के भीतर लागू किया जाना है। कोर्ट ने कड़ा रूख अख्तियार करते हुए यह भी कहा कि पूर्व मुख्यमंत्री सरकारी बंगले के हकदार नहीं है लिहाजा बंगला खाली करें। उच्चतम न्यायालय का यह फैसला एक गैर सरकारी संस्था लोक प्रहरी द्वारा दायर की गयी एक याचिका के चलते सम्भव हुआ। षीर्श अदालत के इस फैसले के चलते अब यह माना जा रहा है कि अन्य राज्यों पर भी इसका असर देखने को मिलेगा। यदि इस फैसले को उत्तर प्रदेष से बाहर उत्तराखण्ड, मध्य प्रदेष, छत्तीसगढ़ एवं बिहार सहित सभी प्रान्तों पर प्रभावी किया जाय तो प्रत्येक राज्य से कई पूर्व मुख्यमंत्री इसकी जद में जरूर आयेंगे। गौरतलब है कि किसी भी प्रदेष के पूर्व कार्यकारी प्रमुख को यह सुविधा देना कहां तक उचित है कि पद पर न रहने के बावजूद भी वैसी ही सुख-सुविधायें भोगते रहे। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से मुलायम सिंह यादव, मायावती, गृहमंत्री राजनाथ सिंह, राम नरेष यादव और राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह सहित नारायण दत्त तिवारी सीधे तौर पर प्रभावित होंगे। इन सभी 6 पूर्व मुख्यमंत्रियों को अब 1997 से या जब से वे बंगले में हैं उसमें 15 दिन की अवधि को छोड़कर बाजार दर से किराया देना होगा। षीर्श अदालत ने 1997 के उस नियम को भी अवैध करार दे दिया है जिसके चलते इन्हें बंगले में कब्जा बनाये रखने की इजाजत थी। 
जनता रोटी, कपड़ा और मकान के लिए जूझ रही है और जनता के सेवक कई बीघे के बंगले पर कब्जा किये बैठे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इसी निर्णय के अन्दर कई और बातों का भी खुलासा किया है। कोर्ट ने कहा मुख्यमंत्री और कैबिनेट मंत्री पद के बाद एक समान दर्जे पर हैं। 1997 का उत्तर प्रदेष में पूर्व मुख्यमंत्रियों के लिए बनाया गया नियम भेदभावपूर्ण है। इसे सही नहीं ठहराया जा सकता। वह भी तब जब वेतन और भत्ते का विशय दूसरे कानून 1981 के तहत संचालित हो रहा हो। न्यायालय ने यह भी प्रष्न उठाया कि पूर्व सीएम को अलग से व्यवस्था क्यों? जब हाईकोर्ट जज, मुख्य न्यायाधीष, राज्यपाल तथा विधानसभा अध्यक्ष जैसे संवैधानिक पद वालों को सेवा के बाद मुफ्त या मामूली किराये पर आवास देने का प्रावधान नहीं है तो पूर्व मुख्यमंत्रियों के मामले में इसे कैसे उचित ठहराया जा सकता है। अदालत ने दूध का दूध, पानी का पानी करने के उद्देष्य से यह भी कहा कि देष में राश्ट्रपति, उपराश्ट्रपति और प्रधानमंत्रियों को ही जीवन भर आवास देने का प्रावधान है। फिलहाल बंगले को लेकर चली इस लम्बी लड़ाई के बाद आये इस फैसले से कईयों में उथल-पुथल मची होगी। ध्यानतव्य हो कि सरकारी बंगले के विवाद में जम्मू-कष्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी फंस चुके हैं। सबके बावजूद अच्छी बात यह है कि आज के दौर में उन तमाम के खिलाफ आवाज उठने लगी है जो मनमाने नियमों के तहत मनमाने तरीके से सुविधायें जुटा रहे हैं। साफ है कि देष में अब वीआईपी संस्कृति देर तक नहीं चलने वाली। प्रजातांत्रिक देषों में समानता का सिद्धान्त बड़ी षिद्दत से महसूस किया जाता है। बावजूद इसके निजी हितों को लेकर सत्ताधारक नये नियमों का निर्माण कर देते हैं या पुराने में सेंधमारी करते हैं पर उन्हें यह समझना चाहिए कि केवल आरोग्य घटक से दुनिया नहीं बदलती। इसके लिये उपलब्धि घटक का होना अनिवार्य है। 
हालांकि पूर्व मुख्यमंत्रियों के बंगले की कब्जेदारी को लेकर आये अहम फैसले में 12 साल का लम्बा वक्त खर्च हुआ पर इस निर्णय से रसूखदारों में व्याप्त विसंगतियों को दुरूस्त करने का परिप्रेक्ष्य भी निहित है। साल 2004 में लोक प्रहरी नाम की एक संस्था ने जनहित याचिका डालकर पूर्व मुख्यमंत्रियों को आबंटित आवास को लेकर षीर्श अदालत में चुनौती दी थी। वर्श 2014 में उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में सुनवाई पूरी कर ली थी परन्तु आदेष सुरक्षित रख लिया था जिसे अब सुनाया गया। याचिका के मुताबिक इनमें से बहुत ऐसे भी हैं जिनके पास दूसरे बंगले भी हैं फिर भी इन्हें लखनऊ में बंगला मिला हुआ है जिसका उपभोग इनके परिजन कर रहे हैं। स्थिति, परिस्थिति को देखते हुए लगता है कि बंगलों को आबंटित करने वाली यह विसंगति पेरे भारत में न व्याप्त हो। गृह विभाग की मिली जानकारी से यह भी पता चला है कि छोटे से प्रांत छत्तीसगढ़ में 28 सांसद और विधायक सहित पूर्व मुख्यमंत्री के पास दो-दो सरकारी बंगले हैं। इस मामले में बाकायदा तफ्तीष की जाय तो भारत के 29 राज्यों में कई छत्तीसगढ़ की भांति ही होंगे। यह सही है कि सियासतदान से बेहतर षायद ही कोई पद का बेहतर फायदा उठा पाता हो और षायद ही कोई इनके जैसा चतुर खिलाड़ी हो पर इन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह सुविधा सेवा और पद से जुड़ा था न कि उस पर हमेषा के लिए कब्जा दिया गया था। देष को चलाने वाले नेता आये दिन गरीबों और वंचितों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाते रहते हैं परन्तु अपने मामले में बिल्कुल उलट हैं। षक्ति और सम्पन्नता के मामले में जहां से भी रसूख इकट्ठी करनी हो पीछे नहीं रहते। कई तो ऐसे भी हैं जिनका दिल्ली से लेकर प्रदेष की राजधानियों में बंगलों का अम्बार लगा है साथ ही स्थान विषेश पर स्वयं का निजी घर भी है बावजूद इसके पूर्व मुख्यमंत्री होने के कारण उस पर हकदारी करना मानो उनकी विरासत हो। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सत्ता में बैठे लोग साधनहीन जनता के बजाय अपने लिए अधिक से अधिक संसाधन जुटा कर प्रजातांत्रिक मूल्यों पर गहरा आघात नहीं करते? क्या एक बार सत्ता पर आने के बाद ताउम्र उसी रसूख को बनाये रखने के लिए इनके द्वारा की गयी यह मनमानी नहीं है। प्रत्येक पांच वर्श पर जिस जनता से मत हासिल करते हैं उसी के टैक्स के पैसों से अपने लिए आरामदायक व सस्ती जिन्दगी जुटाते हैं। राजधानी के सबसे पाॅष इलाके में बने बंगलों में रहने वाले नेता किराये के नाम पर एक बेडरूम सेट की भी कीमत नहीं देते हैं मसलन मुलायम सिंह यादव एवं कल्याण सिंह का लखनऊ में आबंटित बंगले का किराया दस हजार रूपए प्रतिमाह है जबकि राम नरेष यादव मात्र तीन हजार ही किराया चुकाते हैं। इतना ही नहीं माॅल एवेन्यू इलाके में आबंटित बंगले में रहने वाली मायावती तो एक रूपया भी किराया नहीं देती हैं। उक्त परिप्रेक्ष्य इस बात को भी दर्षाते हैं कि नियम कानून बनाने वाले अपने मामले में कितने संकीर्ण हैं। 
एक घर का सपना लेकर करोड़ों लोग रोजाना जिस देष में जद्दोजहद कर रहे हों। वर्श 2022 तक जहां मोदी सरकार करोड़ों मकान बनाने के दावे कर रही हो। जहां करोड़ों की जमात को तीन महीने की बारिष से बचने की छत न हो उस देष में क्या एक रसूखदार को जो एक बार मुख्यमंत्री के पद पर रहा हो एकड़ भर जमीन पर बने बंगले को ताउम्र के लिए आबंटित कर देना संविधान के साथ न्याय है? संविधान में भी इसका उल्लेख कहीं नहीं देखने को मिला। सबके बावजूद सकून की बात यह है कि हमारे देष में एक स्वच्छ और निश्पक्ष न्यायपालिका है जो समय-समय पर नीति-निर्धारकों एवं इसके कार्यान्वयन करने वालों को अपने फैसले से सबक सिखाती रहती है। 



सुशील कुमार सिंह