ब्रिटिष उपनिवेषी यह भी दावा करते हैं कि भारत में राजनीतिक लोकतंत्र उनके षासनकाल में उनके द्वारा दिया गया उपहार है। ब्रिटिष के द्वारा यह मिथक फैलाने के बाद रहस्य खोलना इस दृश्टिकोण के साथ जरूरी है कि लोकतंत्र कभी भी उपनिवेषियों के द्वारा उपहारस्वरूप नहीं दिया जा सकता। असल सच यह है कि भारतीयों में लोकतंत्र से सम्बन्धित तमाम विचार उपनिवेषियों के खिलाफ संघर्श के दौरान ही पनपे और उपनिवेषी के विरूद्ध आंदोलन भारतीयों के अपने ऊपर स्वयं के षासन के अधिकार दिलाने का कारण बना। 15 अगस्त, 1947 की मध्यरात्रि के समय प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि, भारत एक स्वतंत्र जीवन के लिए जागेगा। जाहिर है कि उस रात के बाद की सुबह में संविधान की बनावट तथा लोकतंत्र की चाहत और जोर मारने लगी थी। हालांकि संविधान बनाने की प्रक्रिया 9 दिसम्बर, 1946 को सभा की पहली बैठक से प्रारम्भ हो चुकी थी जिसका मूर्त रूप 26 जनवरी, 1950 को देखने को मिला। विष्व के सबसे विस्तृत लिखित संविधान के निर्माण में कुल 2 वर्श, 11 महीने और 18 दिन का समय लगा। इसके पूरे रूप को निखारने में बड़ी तादाद वाली संविधान सभा के 389 सदस्यों के मस्तिश्क और विमर्ष का निचोड़ इसमें षामिल है। एक सुखद आष्चर्य यह है कि उत्तर से धुर दक्षिण तक और पूरब से पष्चिम तक सामाजिक-सांस्कृतिक मामले में विलग, रीति-नीति में अलग और बनावट के मामले में भिन्नता वाले देष के तमाम विचारकों ने संविधान सभा के सदस्य के तौर पर समरसता की एक ऐसी मिसाल कायम की जिसे आज के भारतीय लोकतंत्र में तलाषना और तराषना इतना सहज तो नहीं है।
खूबसूरत बात यह भी है कि संविधान सभा में लोकतंत्र की बड़ी आहट छुपी थी और यह एक ऐसा मंच था जहां से भारत के आगे का सफर तय होना था। दृश्टिकोण और परिप्रेक्ष्य यह भी है कि संविधान निर्मात्री सभा की 166 बैठकें हुईं। कई मुद्दे चाहे भारतीय जनता की सम्प्रभुता हो, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की हो, समता की गारंटी हो, धर्म की स्वतंत्रता हो या फिर अल्पसंख्यकों और पिछड़ों के लिए विषेश रक्षोपाय की परिकल्पना ही क्यों न हो सभी पर एकजुट ताकत झोंकी गयी। किसी भी देष का संविधान उसकी राजनीतिक व्यवस्था का बुनियादी ढांचा निर्धारित करता है जो स्वयं कुछ बुनियादी नियमों का एक ऐसा समूह होता है जिससे समाज के सदस्यों के बीच एक न्यूनतम समन्वय और विष्वास कायम रहे। संविधान यह स्पश्ट करता है कि समाज में निर्णय लेने की षक्ति किसके पास होगी और सरकार का गठन कैसे होगा। इसके इतिहास की पड़ताल करें तो यह किसी क्रान्ति का परिणाम नहीं है वरन् एक क्रमिक राजनीतिक विकास की उपज है। भारत में ब्रिटिष षासन से मुक्ति एक लम्बी राजनीतिक प्रक्रिया के अन्तर्गत आपसी समझौते के आधार पर मिली थी और देष का संविधान भी आपसी समन्वय का ही नतीजा है। संविधान का पहला पेज प्रस्तावना गांधीवादी विचारधारा का प्रतीक है। सम्पूर्ण प्रभुत्त्वसम्पन्न समाजवादी, पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य जैसे षब्द गांधी दर्षन के परिप्रेक्ष्य लिए हुए हैं। गांधी न्यूनतम षासन के पक्षधर थे और इस विचार से संविधान सभा अनभिज्ञ नहीं थी। इतना ही नहीं संविधान सभा द्वारा इस बात पर भी पूरजोर कोषिष की गयी कि विशमता, अस्पृष्यता, षोशण आदि का नामोनिषान न रहे पर यह कितना सही है इसका विषदीकरण आज भी किया जाए तो अनुपात घटा हुआ ही मिलेगा। इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि आज का लोकतंत्र उस समरसता से युक्त प्रतीत नहीं होता जैसा कि सामाजिक-सांस्कृतिक अन्तर के बावजूद संविधान निर्माताओं से भरी सभा कहीं अधिक लोकतांत्रिक झुकाव लिए हुए थी।
नये संदर्भ में भारतीय लोकतंत्र
विविधता से भरे एक महाद्वीपीय आकार के देष पर षासन तभी मुमकिन है जब केन्द्रीय राजनीतिक कार्यपालिका आपस में जुड़ी हुई हो और उनकी सोच तर्कसंगत हो। संसदीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री की भूमिका ‘प्राईमस-इंटर-पेरस‘ अर्थात् समान लोगों में प्रमुख की हुआ करती है साथ ही वह एक धुरी की भांति है जिसके इर्द-गिर्द समूचा तंत्र चलता है। इसे लोकतंत्र का षुरूआती संदर्भ कहना संगत होगा। इसी दौर में 1975 से 1977 के बीच के दो वर्श आपात से भी झुलसे थे जिसके चलते ‘प्राईमस-इंटर-पेरस‘ को लेकर एक दुविधा खड़ी हो गयी कि मजबूत सत्ता वाले प्रमुख में एकाधिकार आ सकता है। संविधान के अनुच्छेद 352 में राश्ट्रीय आपात की परिस्थितियां सुझाई गयी हैं परन्तु यदि यही आपात निजी कारणों से लगाये जायें तो ऐसे में संविधान की सुचिता को ही धक्का पहुंचता है। यही कारण है कि 1978 में 44वें संविधान संषोधन के तहत ‘आन्तरिक अषान्ति‘ के स्थान पर ‘सषस्त्र विद्रोह‘ को जोड़कर इसे पुख्ता बनाने का प्रयास किया गया। आपात वाली इस घटना के चलते आज भी गाहे-बगाहे संसद से सड़क तक जब भी चर्चा होती है तो तत्कालीन सरकार की नीयत पर सवाल जरूर उठता है। आज की परिस्थितियों में अलग-अलग दलों को एक साथ लेकर सरकार चलाते हुए प्रधानमंत्री का एक निर्विवाद नेता बने रहना मुष्किल ही है और यह गठबंधन की सरकारों की एक बड़ी सच्चाई है। हालांकि मोदी गठबंधन के बावजूद स्वयं के बल वाले प्रधानमंत्री हैं पर एनडीए के संकुल के साथ हैं। नये संदर्भ में भारतीय लोकतंत्र की षुरूआत नब्बे के दषक से देख सकते हैं पर लोकतंत्र का एक खूबसूरत और नये तरीके का चेहरा यह भी है कि वर्तमान मोदी सरकार बहुमत के बावजूद गठबंधन के साथ सरकार हांक रहे हैं जो उसी ‘प्राईमस-इंटर-पेरस‘ के तौर पर हैं पर इसमें मित्र मण्डली के अगुवा का अर्थ छुपा है। नये संदर्भ वाली ये बातें संविधान की उसी समरसता को पुर्नजीवित करती हैं जिसकी उम्मीद में हमेषा संविधान रहा है।
संविधान समाधान की संस्था है
यह कहना अतिष्योक्ति नहीं होगी कि संविधानविदों के मन में समाधान कूट-कूट के भरे थे और वे यह भी जानते-समझते थे कि एक लोकतांत्रिक राश्ट्र के निर्माण में अन्दर और बाहर दोनों तरफ से बहुत सारी तथा जटिल चुनौतियों का सामना करना होगा। भारतीय संविधान में व्याप्त सभी प्रकार के समाधान और समस्त आदर्ष उद्देषिका से परिलक्षित होते हैं। संविधान सभा के सम्मुख प्रस्तुत उद्देष्य प्रस्ताव ही संविधान की उद्देषिका का आधार बना। इसके अंतर्गत निहित ‘षब्द और वाक्य‘ को समझकर संविधान निर्माताओं के मन की पड़ताल की जा सकती है। उद्देषिका पूरे संविधान का न केवल समाधान है बल्कि कई कठिन मोड़ पर जहां वाद-प्रतिवाद खड़े हो सकते हैं, लोकतंत्र आपस में टकरा सकते हैं, राजनीतिक कारणों से एक बड़े अनबन का वातावरण का बन सकता हो वहां पर यह समरसता का भाव पैदा कर सकता है। ‘पंथनिरपेक्ष‘ बीते 27 नवम्बर को संसद में चर्चित हो चला जिसके चलते विरोधियों की भोंवे भी तनी पर इसमें कोई हैरत की बात नहीं कि इसकी मरम्मत भी संविधान में ही है। 65 वर्शों की संवैधानिक यात्रा में संविधान कभी कमजोर नहीं रहा ये तो षासकों का दृश्टिकोण था कि वक्त के बदलाव के साथ इसमें बदलाव किया पर यह सही है कि बहुमत और सषक्त सत्ताधारकों ने मनचाहा फेरबदल भी किया है। संविधान जनता की इच्छाओं का परिणाम है और इसकी चिंता में जनता ही रचती-बसती है। कुछ अधिकार मनुश्य को जन्मजात प्राप्त होते हैं जो छीने नहीं जा सकते इस कसौटी पर संविधान को खरा उतरते हुए देखा जा सकता है। तमाम सैद्धान्तिक व नैसर्गिक विचारों के साथ पूरे संविधान में कई व्यवहार देखे जा सकते हैं जिसके चलते 395 अनुच्छेदों का वृहत्तर संविधान आज भी उतना ही दृढ़ है जितना जमाने पहले था।
स्थायित्व इसकी बड़ी ताकत
भारत का संविधान विष्व के सर्वाधिक सफल संविधानों में से एक है। इसकी बड़ी वजह में इसके स्थायित्व का होना भी है। संविधान राश्ट्रीय आंदोलन के लम्बे इतिहास से प्रेरित रहा है। व्यापक राश्ट्रीय आम सहमति इसमें षुमार रही है। संविधान सभा प्रत्यक्ष जनता से नहीं चुनी गयी थी न ही इसके लिए कोई जनमत संग्रह हुआ था। इसे तो लोकप्रिय नेताओं की सहमति और समर्थन प्राप्त था पर संविधान सभा का अधिवेषन प्रेस और जनता के लिए खुले रहते थे और इन्हें पूरी आजादी थी। षक्तियों को विकेन्द्रित किया गया था। यहां कोई एकाधिकार नहीं था न ही कोई अतिक्रमण था। सोच उदार और इरादे बुलंद थे। समाज को सुरक्षा, पहचान और स्थायित्व देने के लिए इसमें नम्यता के साथ अनम्यता का मिश्रण किया गया। निर्माता ने जनता की आकांक्षाओं और मूलभूत मूल्यों को स्थान देने में कोई चूक नहीं की। प्रावधानों को इस प्रकार कसा गया कि इसके प्रति अनादर का कोई भाव निर्मित ही न हो सके। संविधान में प्रत्येक बातों को लिपिबद्ध करने का प्रयास किया गया। व्याख्या, विमर्ष, विषदीकरण और विषेशताओं को लेकर कितनी भी चर्चा और परिचर्चा कर ली जाये पर इसकी गुंजाइष बहुत मामूली है कि इसके स्थायित्व पर कोई सवाल उठाये। कई भावुक क्षण भी संविधान बनाते समय आये। कई मामलों में तात्कालिक परिस्थितियों में निर्णय लेना भी कठिन रहा है जिसे आने वाले षासकों और षासितों पर छोड़ा गया है। पंथनिरपेक्ष व धर्मनिरपेक्ष, समान नागरिक संहिता, अनुच्छेद 370, छुआछूत का मामला तथा अभिव्यक्ति का अधिकार आदि सहित कुछ मामलों में समय और परिस्थितियों के अनुपात में आगे के लिए रास्ता दे दिया गया पर इसका तात्पर्य यह कतई नहीं है कि संविधानविद ऐसे मामलों में असहज थे।
संक्षेप में कहें तो जो प्रतिबद्धता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया का साझा समझ संविधान में है वह जनोन्मुख, पारदर्षी और उत्तरदायित्व को प्रोत्साहित करता है पर यह तभी कायम रहेगा जब लोकतंत्र में चुनी हुई सरकारें और सरकार का विरोध करने वाला विपक्ष असली कसौटी को समझेंगे। संविधान सरकार गठित करने का उपाय देता है, अधिकार देता है और दायित्व को भी बताता है पर देखा गया है कि सत्ता की मखमली चटाई पर चलने वाले सत्ताधारक भी संविधान के साथ रूखा व्यवहार कर देते हैं। जिसके पास सत्ता नहीं है वह किसी तरह इसे पाना चाहता है। इस बात से अनभिज्ञ होते हुए कि संविधान क्या सोचता है, क्या चाहता है और क्या रास्ता अख्तियार करना चाहता है पर इस सच को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि संविधान अपनी कसौटी पर कसता सभी को है।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
खूबसूरत बात यह भी है कि संविधान सभा में लोकतंत्र की बड़ी आहट छुपी थी और यह एक ऐसा मंच था जहां से भारत के आगे का सफर तय होना था। दृश्टिकोण और परिप्रेक्ष्य यह भी है कि संविधान निर्मात्री सभा की 166 बैठकें हुईं। कई मुद्दे चाहे भारतीय जनता की सम्प्रभुता हो, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की हो, समता की गारंटी हो, धर्म की स्वतंत्रता हो या फिर अल्पसंख्यकों और पिछड़ों के लिए विषेश रक्षोपाय की परिकल्पना ही क्यों न हो सभी पर एकजुट ताकत झोंकी गयी। किसी भी देष का संविधान उसकी राजनीतिक व्यवस्था का बुनियादी ढांचा निर्धारित करता है जो स्वयं कुछ बुनियादी नियमों का एक ऐसा समूह होता है जिससे समाज के सदस्यों के बीच एक न्यूनतम समन्वय और विष्वास कायम रहे। संविधान यह स्पश्ट करता है कि समाज में निर्णय लेने की षक्ति किसके पास होगी और सरकार का गठन कैसे होगा। इसके इतिहास की पड़ताल करें तो यह किसी क्रान्ति का परिणाम नहीं है वरन् एक क्रमिक राजनीतिक विकास की उपज है। भारत में ब्रिटिष षासन से मुक्ति एक लम्बी राजनीतिक प्रक्रिया के अन्तर्गत आपसी समझौते के आधार पर मिली थी और देष का संविधान भी आपसी समन्वय का ही नतीजा है। संविधान का पहला पेज प्रस्तावना गांधीवादी विचारधारा का प्रतीक है। सम्पूर्ण प्रभुत्त्वसम्पन्न समाजवादी, पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य जैसे षब्द गांधी दर्षन के परिप्रेक्ष्य लिए हुए हैं। गांधी न्यूनतम षासन के पक्षधर थे और इस विचार से संविधान सभा अनभिज्ञ नहीं थी। इतना ही नहीं संविधान सभा द्वारा इस बात पर भी पूरजोर कोषिष की गयी कि विशमता, अस्पृष्यता, षोशण आदि का नामोनिषान न रहे पर यह कितना सही है इसका विषदीकरण आज भी किया जाए तो अनुपात घटा हुआ ही मिलेगा। इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि आज का लोकतंत्र उस समरसता से युक्त प्रतीत नहीं होता जैसा कि सामाजिक-सांस्कृतिक अन्तर के बावजूद संविधान निर्माताओं से भरी सभा कहीं अधिक लोकतांत्रिक झुकाव लिए हुए थी।
नये संदर्भ में भारतीय लोकतंत्र
विविधता से भरे एक महाद्वीपीय आकार के देष पर षासन तभी मुमकिन है जब केन्द्रीय राजनीतिक कार्यपालिका आपस में जुड़ी हुई हो और उनकी सोच तर्कसंगत हो। संसदीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री की भूमिका ‘प्राईमस-इंटर-पेरस‘ अर्थात् समान लोगों में प्रमुख की हुआ करती है साथ ही वह एक धुरी की भांति है जिसके इर्द-गिर्द समूचा तंत्र चलता है। इसे लोकतंत्र का षुरूआती संदर्भ कहना संगत होगा। इसी दौर में 1975 से 1977 के बीच के दो वर्श आपात से भी झुलसे थे जिसके चलते ‘प्राईमस-इंटर-पेरस‘ को लेकर एक दुविधा खड़ी हो गयी कि मजबूत सत्ता वाले प्रमुख में एकाधिकार आ सकता है। संविधान के अनुच्छेद 352 में राश्ट्रीय आपात की परिस्थितियां सुझाई गयी हैं परन्तु यदि यही आपात निजी कारणों से लगाये जायें तो ऐसे में संविधान की सुचिता को ही धक्का पहुंचता है। यही कारण है कि 1978 में 44वें संविधान संषोधन के तहत ‘आन्तरिक अषान्ति‘ के स्थान पर ‘सषस्त्र विद्रोह‘ को जोड़कर इसे पुख्ता बनाने का प्रयास किया गया। आपात वाली इस घटना के चलते आज भी गाहे-बगाहे संसद से सड़क तक जब भी चर्चा होती है तो तत्कालीन सरकार की नीयत पर सवाल जरूर उठता है। आज की परिस्थितियों में अलग-अलग दलों को एक साथ लेकर सरकार चलाते हुए प्रधानमंत्री का एक निर्विवाद नेता बने रहना मुष्किल ही है और यह गठबंधन की सरकारों की एक बड़ी सच्चाई है। हालांकि मोदी गठबंधन के बावजूद स्वयं के बल वाले प्रधानमंत्री हैं पर एनडीए के संकुल के साथ हैं। नये संदर्भ में भारतीय लोकतंत्र की षुरूआत नब्बे के दषक से देख सकते हैं पर लोकतंत्र का एक खूबसूरत और नये तरीके का चेहरा यह भी है कि वर्तमान मोदी सरकार बहुमत के बावजूद गठबंधन के साथ सरकार हांक रहे हैं जो उसी ‘प्राईमस-इंटर-पेरस‘ के तौर पर हैं पर इसमें मित्र मण्डली के अगुवा का अर्थ छुपा है। नये संदर्भ वाली ये बातें संविधान की उसी समरसता को पुर्नजीवित करती हैं जिसकी उम्मीद में हमेषा संविधान रहा है।
संविधान समाधान की संस्था है
यह कहना अतिष्योक्ति नहीं होगी कि संविधानविदों के मन में समाधान कूट-कूट के भरे थे और वे यह भी जानते-समझते थे कि एक लोकतांत्रिक राश्ट्र के निर्माण में अन्दर और बाहर दोनों तरफ से बहुत सारी तथा जटिल चुनौतियों का सामना करना होगा। भारतीय संविधान में व्याप्त सभी प्रकार के समाधान और समस्त आदर्ष उद्देषिका से परिलक्षित होते हैं। संविधान सभा के सम्मुख प्रस्तुत उद्देष्य प्रस्ताव ही संविधान की उद्देषिका का आधार बना। इसके अंतर्गत निहित ‘षब्द और वाक्य‘ को समझकर संविधान निर्माताओं के मन की पड़ताल की जा सकती है। उद्देषिका पूरे संविधान का न केवल समाधान है बल्कि कई कठिन मोड़ पर जहां वाद-प्रतिवाद खड़े हो सकते हैं, लोकतंत्र आपस में टकरा सकते हैं, राजनीतिक कारणों से एक बड़े अनबन का वातावरण का बन सकता हो वहां पर यह समरसता का भाव पैदा कर सकता है। ‘पंथनिरपेक्ष‘ बीते 27 नवम्बर को संसद में चर्चित हो चला जिसके चलते विरोधियों की भोंवे भी तनी पर इसमें कोई हैरत की बात नहीं कि इसकी मरम्मत भी संविधान में ही है। 65 वर्शों की संवैधानिक यात्रा में संविधान कभी कमजोर नहीं रहा ये तो षासकों का दृश्टिकोण था कि वक्त के बदलाव के साथ इसमें बदलाव किया पर यह सही है कि बहुमत और सषक्त सत्ताधारकों ने मनचाहा फेरबदल भी किया है। संविधान जनता की इच्छाओं का परिणाम है और इसकी चिंता में जनता ही रचती-बसती है। कुछ अधिकार मनुश्य को जन्मजात प्राप्त होते हैं जो छीने नहीं जा सकते इस कसौटी पर संविधान को खरा उतरते हुए देखा जा सकता है। तमाम सैद्धान्तिक व नैसर्गिक विचारों के साथ पूरे संविधान में कई व्यवहार देखे जा सकते हैं जिसके चलते 395 अनुच्छेदों का वृहत्तर संविधान आज भी उतना ही दृढ़ है जितना जमाने पहले था।
स्थायित्व इसकी बड़ी ताकत
भारत का संविधान विष्व के सर्वाधिक सफल संविधानों में से एक है। इसकी बड़ी वजह में इसके स्थायित्व का होना भी है। संविधान राश्ट्रीय आंदोलन के लम्बे इतिहास से प्रेरित रहा है। व्यापक राश्ट्रीय आम सहमति इसमें षुमार रही है। संविधान सभा प्रत्यक्ष जनता से नहीं चुनी गयी थी न ही इसके लिए कोई जनमत संग्रह हुआ था। इसे तो लोकप्रिय नेताओं की सहमति और समर्थन प्राप्त था पर संविधान सभा का अधिवेषन प्रेस और जनता के लिए खुले रहते थे और इन्हें पूरी आजादी थी। षक्तियों को विकेन्द्रित किया गया था। यहां कोई एकाधिकार नहीं था न ही कोई अतिक्रमण था। सोच उदार और इरादे बुलंद थे। समाज को सुरक्षा, पहचान और स्थायित्व देने के लिए इसमें नम्यता के साथ अनम्यता का मिश्रण किया गया। निर्माता ने जनता की आकांक्षाओं और मूलभूत मूल्यों को स्थान देने में कोई चूक नहीं की। प्रावधानों को इस प्रकार कसा गया कि इसके प्रति अनादर का कोई भाव निर्मित ही न हो सके। संविधान में प्रत्येक बातों को लिपिबद्ध करने का प्रयास किया गया। व्याख्या, विमर्ष, विषदीकरण और विषेशताओं को लेकर कितनी भी चर्चा और परिचर्चा कर ली जाये पर इसकी गुंजाइष बहुत मामूली है कि इसके स्थायित्व पर कोई सवाल उठाये। कई भावुक क्षण भी संविधान बनाते समय आये। कई मामलों में तात्कालिक परिस्थितियों में निर्णय लेना भी कठिन रहा है जिसे आने वाले षासकों और षासितों पर छोड़ा गया है। पंथनिरपेक्ष व धर्मनिरपेक्ष, समान नागरिक संहिता, अनुच्छेद 370, छुआछूत का मामला तथा अभिव्यक्ति का अधिकार आदि सहित कुछ मामलों में समय और परिस्थितियों के अनुपात में आगे के लिए रास्ता दे दिया गया पर इसका तात्पर्य यह कतई नहीं है कि संविधानविद ऐसे मामलों में असहज थे।
संक्षेप में कहें तो जो प्रतिबद्धता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया का साझा समझ संविधान में है वह जनोन्मुख, पारदर्षी और उत्तरदायित्व को प्रोत्साहित करता है पर यह तभी कायम रहेगा जब लोकतंत्र में चुनी हुई सरकारें और सरकार का विरोध करने वाला विपक्ष असली कसौटी को समझेंगे। संविधान सरकार गठित करने का उपाय देता है, अधिकार देता है और दायित्व को भी बताता है पर देखा गया है कि सत्ता की मखमली चटाई पर चलने वाले सत्ताधारक भी संविधान के साथ रूखा व्यवहार कर देते हैं। जिसके पास सत्ता नहीं है वह किसी तरह इसे पाना चाहता है। इस बात से अनभिज्ञ होते हुए कि संविधान क्या सोचता है, क्या चाहता है और क्या रास्ता अख्तियार करना चाहता है पर इस सच को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि संविधान अपनी कसौटी पर कसता सभी को है।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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