Tuesday, November 14, 2017

ऐसे तो विवाद और गहरे होंगे!

पाक अधिकृत कश्मीर को लेकर हालिया प्रकरण पर अंग्रेजी में पढ़ी एक कहावत याद आती है जिसका हिन्दी रूपान्तरण है ‘यदि समस्या को हल न किया जा सके तो उसमें घुसकर उसका मज़ा लेना चाहिए। नेषनल कांफ्रेंस के फारूख अब्दुल्ला का पाक अधिकृत कष्मीर को लेकर दिया गया हालिया बयान कुछ इसी प्रकार का संदर्भ दर्षाता है। गौरतलब है जम्मू-कष्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेषनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष का ताजा बयान यह कि पीओके पाकिस्तान का हिस्सा है और ये नहीं बदलने वाला वाकई हैरत में डालता है लेकिन इस प्रकार के बयान से देष को क्या मिलेगा इस पर भी गौर फरमाने की आवष्यकता है। जहां तक समझ जाती है सम्भव है कि इससे न केवल दुष्मनों का मनोबल बढ़ेगा बल्कि सियासत समेत समझदारों के माथे पर सलवटे भी आयेगी। बयान पर तल्ख टिप्पणी करते हुए केन्द्र सरकार में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने ताना मारते हुए फारूख अब्दुल्ला को बचकानी बात करने की बात कही। नकवी पीओके को भारत का अभिन्न अंग बताते हुए यह भी कहा कि इससे सम्बंधित प्रस्ताव को संसद ने अपनी स्वीकृति दी है। यह सही है कि कष्मीर विवाद का एक बड़ा कारण पाक प्रायोजित आतंकवाद ही है। सरकार भी मानती है कि जम्मू-कष्मीर राज्य के इस हिस्से अर्थात् पीओके पर पाकिस्तान का अवैध कब्जा है। फिलहाल फारूख अब्दुल्ला के इस बयान ने सियासी पारा तो बढ़ा ही दिया है। रोचक यह भी है कि अभी बयान को बामुष्किल एक दिन ही बीता था कि नेता फारूख अब्दुल्ला का साथ देते हुए अभिनेता ऋशि कपूर ने भी उनकी हां में हां मिलाया है। कहा है कि इस समस्या को हल करने का यही एक रास्ता है। 
पड़ताल बताती है फारूख अब्दुल्ला का यह कोई पहला विवादित बयान नहीं है इसके पहले भी वे कष्मीर मामले पर अनाप-षनाप बयान देते रहे हैं। देखा जाय तो कष्मीर को लेकर दो व्याख्यायें हैं प्रथम यह कि भारत पाक अधिकृत कष्मीर को अपना हिस्सा मानता है, वहीं दूसरी व्याख्या यह है कि पाकिस्तान हमारे कष्मीर को भारत अधिकृत मानता है। जाहिर है कि हमारे कष्मीर पर हमारा हक होना पाकिस्तान को नागवार गुजरता है। इतिहास के पन्ने उधेड़े जायें तो पता चलता है कि कष्मीर का बाकायदा 1948 में राजा हरिसिंह के हस्ताक्षर के बाद भारत में विलय हुआ था और भारतीय संविधान में विषेश उपबंध के साथ यह 15वें राज्य के रूप में फिलहाल दर्ज है। मौजूदा बयानबाजी से यह सवाल जिंदा होता है कि यदि कष्मीर समस्या का हल पाक अधिकृत कष्मीर पाकिस्तान का है मानने से होता है तो फिर इसी के साथ प्रष्न यह भी है कि क्या ऐसा कहने से पाकिस्तान को पीओके पर मनोवैज्ञानिक बढ़त देते हुए अपने कष्मीर को खतरे में डालना नहीं हुआ। बयान से तो यह भी लगता है कि हो न हो ये तो पाकिस्तान को बैठे बिठाये सौगात देने जैसी है। इतना ही नहीं षिमला समझौते से लेकर आगरा षिखर वार्ता और अब तक के प्रयासों में कहीं ऐसा कोई जिक्र नहीं है। तो क्या यह समझा जाय कि दषकों की कोषिष से बेहतर विकल्प फारूख अब्दुल्ला सुझा रहे हैं साथ ही क्या पीओके पाकिस्तान को देने से वाकई में कष्मीर समस्या का हल मिल जायेगा। जितना पाकिस्तान को भारत जानता है सम्भव है कि वहां के आईएसआई और आतंकी संगठन का गठजोड़ कभी समस्या को हल होने ही नहीं देगा साथ ही भारतीय कष्मीर के अलगाववादी भी हल के मामले में लंगड़ी मारते रहेंगे। बावजूद इसके कष्मीर समस्या भारत की ओर से एक राजनीतिक हल ले सकती है परन्तु पाकिस्तान की ओर से तभी यह हल को प्राप्त करेगी जब इस्लामाबाद में बैठ कर सत्ता चलाने वालों के निर्णयों को सेना और आतंकी संगठनों का समर्थन होगा जिसकी सम्भावना दषकों की पड़ताल के आधार पर कह सकते हैं कि न के बराबर है।
वैसे कष्मीर जैसे मुद्दे को लेकर इतना सरल तरीके से दिये गये बयान हल के बजाय विवाद को और बढ़ा सकते हैं। जिस प्रकार पाकिस्तानी षासकों समेत सेना और आतंकी संगठन कष्मीर को तबाह करने का मनसूबा रखते हैं और उस पर अपना हक जताने की फिराक में दषकों से खून-खराबा कर रहे हैं उससे तो यही प्रतीत होता है कि पाकिस्तान की नीयत पीओके तक ही नहीं बल्कि पूरे कष्मीर पर है। फारूख अब्दुल्ला कष्मीर के बहुत वरिश्ठ और घाटी के रग-रग से वाकिफ नेता और लम्बे समय तक यहां की सत्ता में रहे हैं। उनका यह आरोप कि रियासत ने भारत में षामिल होने का फैसला लिया लेकिन भारत ने कष्मीरी जनता से धोखा किया और उनके साथ अच्छा सुलूक नहीं किया। उस प्यार को नहीं समझा जिसमें हमने उनके साथ जाने का विकल्प चुना था। फारूख अब्दुल्ला ऐसा क्यों कह रहे हैं ये तो वही जाने पर एक सच यह है कि जिस कष्मीर पर वो पाकिस्तान का अधिकार बता रहे हैं वहां की जनता के साथ पाकिस्तान की सरकार ने कौन सा अन्याय नहीं किया। गौरतलब है कि पाक अधिकृत कष्मीर आतंकियों का अड्डा है और इनका उपयोग भारत के खिलाफ होता है। बेरोज़गारी, बीमारी और गरीबी की भरमार यहां पर है। यहां जीवन प्रत्याषा से लेकर जीवन जीने के पैमाने निहायत जर्जर और कमजोर हैं। षिक्षा, चिकित्सा, स्वास्थ समेत आधारभूत संरचना से यह आभावग्रस्त क्षेत्र है। यहां की जनता पाकिस्तान की जाद्ती और बर्बरता से ऊब चुकी है और आये दिन पाकिस्तान से स्वतंत्र होने की मांग करती है। लोकतंत्र का यहां कोई मोल नहीं है। बड़ी-बड़ी बात करने वाले और बार-बार सीज़ फायर का उल्लंघन करने वाले पाकिस्तानी सेना और सत्ता तथा आतंकी मिल कर भी यहां की सूरत नहीं बदल पाये हैं बल्कि यहां के बाषिन्दों का अमन-चैन जरूर छिना है। सत्ता भी इनकी तरफ से मानो आंखे चुरा ली हो। दो टूक यह भी है कि जितने समय से पीओके पाकिस्तान के पास है उतने ही समय से जिस कष्मीर पर दषकों तक अब्दुल्ला खानदान की पुष्तैनी सत्ता कमोबेष रही है। जाहिर है लोक कल्याण से ओत-प्रोत फारूख अब्दुल्ला मौजूदा कष्मीर की जनता के साथ अपने षासनकाल में तो न्याय किये होंगे। गौरतलब है कष्मीरी पण्डितों का पलायन और उन पर हुई बर्बरता किसी से छुपी नहीं है। रही बात विकल्प की तो हरिसिंह ने जो निर्णय लिया वह कल का भी और आज का भी बड़ा सत्य है और इसे न झुठलाया जा सकता है और न ही इस बात की इजाजत हो सकती है कि अपनी निजी महत्वाकांक्षा के चलते देष की सम्प्रभुता को खतरे में डालने की कोई बात करे।
जनवरी 2015 से नेषनल कांफ्रेंस जम्मू-कष्मीर में सत्ता से बाहर है हांलाकि ऐसा पहली बार नहीं है। भाजपा ने मोदी के नेतृत्व में जम्मू-कष्मीर की 87 विधानसभा सीटों में 25 पर जीत दर्ज करके पहली बार इस क्षेत्र में विस्फोटक उपस्थिति दर्ज करायी हालांकि ये सभी सीटें केवल जम्मू से हैं। भाजपा पीडीएफ के साथ मिलकर पहली बार जम्मू-कष्मीर में सत्ता का स्वाद चखा। घाटी में राजनीति का एक परिप्रेक्ष्य यह रहा है कि सत्ता कभी कांग्रेस तो कभी नेषनल कांफ्रेंस के हिस्से में आती रही। हालांकि जोड़-तोड़ के चलते पीडीएफ भी कुछ समय के लिए यहां पहले भी सत्तासीन रही है। फारूख अब्दुल्ला की नेषनल कांफ्रेंस और कांग्रेस की सियासत इन दिनों यहां फीकी है और सत्ता से बेदखल है। इतना ही नहीं जिस प्रकार देष का राजनीतिक परिदृष्य बदला है उसमें भी बेदखल लोगों को अपनी जमीन तलाषने में कई मुष्किले खड़ी हो रही हैं। मोदी का घाटी में लगातार दौरा होना, वहां के युवाओं में अपनी सियासत के प्रति लगाव विकसित करना साथ ही विरोधी घाटी में पुनः न पनप सके इसे लेकर भी पूरा जोर लगाये हुए है। जम्मू-कष्मीर की सत्ता से फारूख अब्दुल्ला का पुष्तैनी नाता है। जाहिर है सरकार में न होना घर-बदर होने जैसा है। फीकी पड़ रही राजनीतिक चमक को चमकाने की फिराक में कष्मीर का नया हल सुझा रहे हैं पर लगता है कि इससे विवाद ही गहरायेगा न कि मन माफिक हल मिलेगा।  

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Wednesday, November 8, 2017

दिल्ली के आसमान में तबाही का मंज़र

मनुष्य की प्राकृतिक पर्यावरण में दो तरफा भूमिका होती है पर विडम्बना यह है कि भौतिक मनुश्य जो पर्यावरण को लेकर एक कारक के तौर पर जाना जाता था आज वह सिलसिलेवार तरीके से अपना रूप बदलते हुए कभी पर्यावरण का रूपांतरकर्ता है तो कभी परिवर्तनकर्ता है अब तो वह विध्वंसकर्ता भी बन गया है। इसी विध्वंस का एक सजीव उदाहरण इन दिनों दिल्ली का आसमान है जबकि इस बार तो देष की षीर्श अदालत ने दीपावली के पहले से ही पटाखों पर रोक भी लगा दी थी तब भी राजधानी और उसके इर्द-गिर्द के इलाके धुंध से नहीं बच नहीं पाये। गौरतलब है कि पिछले वर्श भी दिल्ली इसी दुर्दषा से गुजरी थी और 17 साल का रिकाॅर्ड टूटा था। फिलहाल स्माॅग के चलते सांस लेने में दिक्कत दमा और एलर्जी के मामले में तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही है। सर्वाधिक आम समस्या यहां ष्वसन को लेकर है। इस बार धुंध की वजह से सांस लेने में गम्भीर परेषानी खांसी और छींक सहित कई चीजे निरंतरता लिए हुए है। प्रदूशण की स्थिति को देखते हुए स्कूलों में छुट्टी भी की जा रही है। स्कूल खुलने के दौरान अध्यापकों और छात्रों को कक्षा के बाहर न जाने और प्रार्थना मैदान के बजाय कक्षा में ही कराने के निर्देष भी दिये गये पर मानव निर्मित और मिश्रित इस प्राकृतिक कहर से कैसे बचें इसका कोई खास उपाय किसी को सूझ नहीं रहा है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि दिल्ली एनसीआर और उसके आस-पास के इलाकों में हवायें जहरीली हो गयी हैं। अब यह जहरीली धुंध नोएडा, गाजियाबाद, गुरूग्राम समेत हरियाणा तथा पंजाब आदि को भी चपेट में ले लिया है। अंतरिक्ष एजेंसी नासा की तस्वीरों में भी उत्तर भारत के वायुमण्डल में आगजनित धुंए के वायुमण्डल को दर्षाया गया है। सबसे बेहाल दिल्ली में धुंध इतनी खतरनाक है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दिन के 12 बजे भी सूरज की रोषनी इस धुंध को चीर नहीं पा रही है। तीन सौ हवाई उड़ानों को रद्द करना पड़ा, सैकड़ों उड़ानों में लेत-लतीफी और सुबह 7 से 8 बजे के बीच हवाई पट्टी पर दृष्यता दो सौ मीटर तक भी न होना इसके गहरे होने को पुख्ता करता है। स्थिति स्पश्ट करती है कि मानो यहां हवाओं का कफ्र्यू लगा हुआ है और दुकानों पर मास्क खरीदने वालों की भीड़। जब हवा में जहर घुलता है तो जीवन की कीमत भी बढ़ जाती है। सामान्य रूप से जन साधारण के लिए जीवनवर्धक पर्यावरण को किसी भी भौतिक सम्पदा से तुलना नहीं की जा सकती। मानव औद्योगिक विकास, नगरीकरण और परमाणु उर्जा आदि के कारण खूब लाभान्वित हुआ है परन्तु भविश्य में होने वाले अति घातक परिणामों की अवहेलना भी की है जिस कारण पर्यावरण का संतुलन डगमगा गया है और इसका षिकार प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों रूपों में मानव ही है। भूगोल के अन्तर्गत अध्ययन में यह रहा है कि वायुमण्डल पृथ्वी का कवच है और इसमें विभिन्न गैसें हैं जिसका अपना एक निष्चित अनुपात है मसलन नाइट्रोजन, आॅक्सीजन, कार्बन डाईआॅक्साइड आदि। जब मानवीय अथवा प्राकृतिक कारणों से यही गैसें अपने अनुपात से छिन्न-भिन्न होती हैं तो कवच कम संकट अधिक बन जाती है। मौसम वैज्ञानिकों की मानें तो आने वाले कुछ दिनों तक दिल्ली में फैले धुंध से छुटकारा नहीं मिलेगा। सवाल उठता है कि क्या हवा में घुले जहर से आसानी से निपटा जा सकता है। फिलहाल हम मौजूदा स्थिति में बचने के उपाय की बात तो कर सकते हैं। स्थिति को देखते हुए कृत्रिम बारिष कराने की सम्भावना पर भी विचार किया जा सकता है। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री ने पड़ोसी राज्यों से प्रदूशण स्तर में कमी करने के लिए जरूरी उपाय करने को कहा है। इन दिनों पर्यावरण मंत्री हर्शवर्धन जलवायु परिवर्तन से जुड़े सम्मेलन में जर्मनी में हैं। जब पिछले साल दिल्ली इसी दुर्दषा से जूझ रही थी तब पर्यावरण मंत्री ने कहा था कि राश्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूशण के खास स्तर के लिए दिल्ली सरकार जिम्मेदार है क्योंकि 80 प्रतिषत से अधिक प्रदूशण दिल्ली के कचरे को जलाने से हुआ है।
फिलहाल नेषनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने कहा है कि दिल्ली में इमरजेंसी जैसी स्थिति है। दिल्ली के कई इलाकों में पीएम 2.5 का स्तर 400 से पार कर गया है जबकि 50 से 100 के बीच इसे होना चाहिए। जाहिर है हवा के साथ जब यह धूल कण फेफड़ों में जायेंगे तो षरीर का क्या हाल होगा। एक वाजिब तर्क यह भी है कि दुनिया के कई देषों में ऐसी स्थिति में इमरजेंसी लागू हो जाती है। न केवल स्कूल, काॅलेज बंद किये जाते हैं बल्कि ट्रैफिक पर भी रोक लगायी जाती है। खास यह भी है कि कई कम्पनियों को यह मालूम है कि दिवाली के बाद दिल्ली की हवा बड़े बाजार को जन्म देगी ऐसे में आॅकसीजन सलेंडर की खूब बिकवाली होगी। लोगों को अब एयर प्यूरीफायर और डाॅक्टर की फीस, दवाई का खर्च आदि पर निवेष करना मजबूरी हो गयी है। हवा के असर से बचने के लिए वे ज्यादा खर्च बढ़ गया है। यहां तक कि छः सौ का एक आॅक्सीजन सलेंडर भी बिकने लगा है। सेंटर फाॅर एन्वायरमेंट साइंस की निदेषक सुनीता नारायण का कहना है कि एयर प्यूरीफायर कोई विकल्प नहीं है। दिल्ली में बीते मंगलवार को हवा में घुले जहरीले तत्वों की मात्रा अधिक हो गयी है। मौसम विभाग के मुताबिक यह जहरीली हवा अगले तीन दिनों तक और अधिक गहराने की आषंका है। मौसम विभाग के मुताबिक तापमान में गिरावट और हवा के थमने की वजह से धुंध छटने की सम्भावना बिल्कुल कम हो गयी है। वजह जो भी हो पर करोड़ों की आबादी वाली दिल्ली और उसके इर्द-गिर्द के इलाके इन दिनों बड़ी मुसीबत का सामना कर रहे हैं और ऐसे में सरकारी तंत्र भी बौना है।
यह बात भी मुनासिब है कि जिस विन्यास के साथ सामाजिक मनुश्य, आर्थिक मनुश्य तत्पष्चात् प्रौद्योगिक मानव बना है उसकी कीमत अब चुकाने की बारी आ गयी है। विज्ञान एवं अत्यधिक विकसित, परिमार्जित एवं दक्ष प्रौद्योगिकी के प्रादुर्भाव के साथ 19वीं सदी के उत्तरार्ध में औद्योगिक क्रान्ति का 1860 में सवेरा होता है। इसी औद्योगिकीकरण के साथ मनुश्य और पर्यावरण के मध्य षत्रुतापूर्ण सम्बंध की षुरूआत भी होती है तब दुनिया के आकाष में प्रदूशण का सवेरा मात्र हुआ था। एक सौ पचास वर्श के इतिहास में प्रदूशण का यह सवेरा कब प्रदूशण की आधी रात बन गयी इसे लेकर समय रहते न कोई जागरूक हुआ और न ही इस पर युद्ध स्तर पर काज हुआ। विकसित और विकासषील देषों के बीच इस बात का झगड़ा जरूर हुआ कि कौन कार्बन उत्सर्जन ज्यादा करता है और किसकी कटौती अधिक होनी चाहिए। 1972 के स्टाॅकहोम सम्मेलन, मांट्रियल समझौते से लेकर 1992 एवं 2002 के पृथ्वी सम्मेलन, क्योटो-प्रोटोकाॅल तथा कोपेन हेगेन और पेरिस तक की तमाम बैठकों में जलवायु और पर्यावरण को लेकर तमाम कोषिषें की गयी पर नतीजे क्या रहे? कब पृथ्वी के कवच में छेद हो गया इसका भी एहसास होने के बाद ही पता चला। हालांकि 1952 में ग्रेट स्माॅग की घटना से लंदन भी जूझ चुका है। कमोबेष यही स्थिति इन दिनों दिल्ली की है। उस दौरान करीब 4 हजार लोग मौत के षिकार हुए थे। कहा तो यह भी जा रहा है कि यदि धुंध का फैलाव दिल्ली में ऐसा ही बना रहा तो अनहोनी को यहां भी रोकना मुष्किल होगा। सीएसई की रिपोर्ट भी यह कहती है कि राजधानी में हर साल करीब 10 से 30 हजार मौंतो के लिए वायु प्रदूशण जिम्मेदार है। पिछले साल तो धुंध ने 17 साल का रिकाॅर्ड तोड़ा था पर इस साल तो यह और गम्भीर रूप ले लिया है। ऐसे में इस सवाल के साथ चिंता होना लाज़मी है कि आखिर इससे निजात कैसे मिलेगी और इसकी जिम्मेदारी सबकी है यह कब तय होगा?



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशनन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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नोटबंदी की वार्षिक परीक्षा

जब देश में इस बात की चर्चा दशकों  से जोरों पर हो कि कर चोरी काले धन और भ्रश्टाचार का बड़ा स्रोत है और यह एक संजाल का रूप ले चुका हो तब मुनासिब कदम उठाने जरूरी हो जाते हैं। 8 नवम्बर, 2016 को रात के ठीक 8 बजे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा यह कहा जाना कि आज रात 12 बजे से हजार और पांच सौ के नोट लीगल टेंडर नहीं रहेंगे। सभी को हैरत में डालने वाला निर्णय था पर यह इस बात का द्योतक भी था कि ब्लैक मनी पर मास्टर स्ट्रोक मौजूदा सरकार ने आखिरकार लगा दिया है। इसे बीते एक वर्श हो चुके हैं दूसरे षब्दों में कहें तो नोटबंदी की सालगिरह बुधवार को हो गयी। हजार और पांच सौ के नोटों को चलन से बाहर करने का एलान कई तकलीफों को न्यौता भी दे दिया था। बावजूद इसके आम लोगों का व्यापक समर्थन सरकार के फैसले को सही दिषा में भी इंगित कर रहा था। काला धन और भ्रश्टाचार जिससे भारतीय समाज बुरी तरह से प्रभावित है उससे मुक्ति का इस निर्णय में रोषनी दिखाई दी। यह कम कमाल की बात नहीं है कि 86 फीसदी मुद्रा को रातोंरात अमान्य करार दे दिया जाय। ऐसा करते समय तीन प्रमुख उद्देष्य बताये गये थे कालेधन, आतंकी फंडिंग और नकली नोटों पर अंकुष। अब एक साल के बाद यह पड़ताल वाजिब हो जाती है कि क्या निर्धारित उद्देष्य पूरे हुए। हालांकि इसमें इस बात को भी संयोजित कर देना सही रहेगा कि साफ-सुथरा लेन-देन जिसके लिए डिजिटल लेन-देन को बढ़ावा देना इसकी अंतर्निहित अवधारणा थी जिसका खुलासा सरकार ने बाद में किया। बिना किसी लाग-लपेट के यह सही है कि नोटबंदी के चलते मध्यम और लघु उद्योगों को अचानक नकदी से जूझना पड़ा जिसकी वजह से उन्हें न केवल झटका लगा बल्की नौबत नोटबंदी के चलते कल-कारखानों में तालाबंदी की भी आ गयी। रोज़गार देने वाली इकाईयां हांफने लगी और बेरोज़गारी बढ़ने लगी। असंगठित क्षेत्र तो मानो बिखर गया। एटीएम के सामने लम्बी-लम्बी कतारें और घर चलाने के लिए नये-नवेले दो हजार के नोट के लिए दिन भर की जद्दोजहद षुरू हुई। खास यह भी रहा कि इन कठिनाईयों के बावजूद विरोध के सुर नहीं उठ रहे थे। षायद लोग यह मान बैठे थे कि काले धन और भ्रश्टाचार के चलते देष में जो आर्थिक असमानता का संजाल विकसित हुआ है उस पर यह उठाया गया कदम है।
दो टूक यह भी है कि नोटबंदी ने सरकार के भी पसीने निकाल दिये थे। इसमें भी कोई षक नहीं कि एक साल के इस दौर में थोक के भाव फैसले और अनगिनत आलोचनाओं का सामना सरकार को करना पड़ा। यहां तक कि फैसले सुबह, षाम और रात तथा घण्टे-दर-घण्टे की दर से बदलने पड़े थे। नोटबंदी को एक साल बीत चुका है। अब बाजार में दो हजार रूपये के अलावा 50 और 200 के नये नोट भी देखे जा सकते हैं। पैमाइष बताती है कि नोटबंदी के बाद डिजिटल लेनदेन षहरों में बढ़ रहा है। अधिकतर दुकानदारों ने स्वाइप मषीनें लगायी पर छोटे कारोबारी अभी भी नकद से ही कारोबार कर रहे हैं। गौरतलब है कैषलेस इकोनोमी को नोटबंदी के प्रमुख लक्ष्यों में से एक बताया गया। सरकार ने नागरिकों को यह भी बताया कि डेबिट कार्ड, क्रेडिट कार्ड और भीम, यूपीआई, आधार पे जैसे विकल्पों को अपनाये। जाहिर है इसका असर भी हुआ। डेबिट और क्रेडिट कार्डों का उपयोग तुलनात्मक बढ़ा लेकिन अब यह 30 से 40 फीसदी घट भी गया है। रिज़र्व बैंक आॅफ इण्डिया के समय-समय पर जारी रिपोर्ट को मानें तो देष को कैषलेस इकोनोमी बनाने का लक्ष्य अब भी बहुत दूर की कौड़ी है। निःसंदेह क्रेडिट कार्ड धारकों की संख्या बढ़ी है। प्लास्टिक मनी का उपयोग नोटबंदी के बाद तेजी से बढ़ा है परन्तु काले धन को लेकर कोई बड़ी सफलता मिली है ऐसा कह पाना सम्भव नहीं है क्योंकि 99 फीसदी हजार, पांच सौ के नोट बैंकों में जमा हो चुके हैं। हालांकि काले धन की खोज में सरकार संदिग्ध खातों की जांच पड़ताल में लगी है। रोचक यह भी है कि डिजिटल लेनदेन बढ़ने से बैंकों की चांदी कट रही है। नोटबंदी के बाद डिजिटल लेनदेन पर पहले तमाम प्रकार की छूट थी अब यहां भी लूट है। बिजली, पानी के बिल भी आॅनलाइन जमा करने पर अतिरिक्त षुल्क देना पड़ रहा है जिससे उपभोक्ता की जेब डिजिटल के नाम पर काटी जा रही है। आंकड़े यह भी बताते हैं कि आयकर दाताओं की संख्या 57 लाख बढ़ गयी है। इस लिहाज़ से तीन करोड़ इक्कीस लाख की तुलना में अब यह आंकड़ा तीन करोड़ अट्ठत्तर लाख का हो गया है जिसे नोटबंदी का सकारात्मक पक्ष कह सकते हैं।
चर्चा तो यह भी रही है कि नोटबंदी का जुआ मोदी पूरी तरह जीत नहीं पाये। लाखों परिवारों के पास नकदी खत्म हो गयी, षादियां रद्द हो गयीं, छोटे दुकानदारों ने अपनी दुकानें बंद कर दी और देष की आर्थिक गतिविधि बाधित हो गयी। इसी दौरान प्रधानमंत्री जापान दौरे पर थे लौटने के तुरन्त बाद गोवा में लोगों को सम्बोधित किया। सब कुछ ठीक करने के लिए 50 दिन का वक्त मांगा। यही बात उत्तर प्रदेष के गाजीपुर के सम्बोधन में भी दोहराई। इस बात से हैरान होने की आवष्यकता इसलिए नहीं क्योंकि 90 फीसदी से अधिक ग्राहक लेनदेन नकदी में ही करते थे। जाहिर है कहर तो टूटना ही था। प्रधानमंत्री मोदी स्थिति को भांपते हुए जापान वापसी के बाद कैषलेस और डिजिटल पर जोर देने लगे और काला धन को लेकर उनके षब्द कमजोर पड़ने लगे जबकि 8 नवम्बर को षाम 8 बजे के वक्तव्य में कैषलेस और डिजिटल षब्द का नामोनिषान नहीं था तो क्या यह माना जाय कि नोटबंदी के बाद सरकार को यह पता चल गया कि काला धन तक ही सीमित रहना सही नहीं होगा। यदि यह सही है तो काले धन के नाम पर की गयी नोटबंदी क्या एक जुआ था। कैषलेस अर्थव्यवस्था अचानक प्राथमिकता में क्यों आ गयी इस प्रष्न का उत्तर जनता स्वयं समझने की कोषिष करे।
वार्शिक पड़ताल यह बताती है कि नोटबंदी के बाद कुछ सकारात्मक परिवर्तन इस तरह भी हुए हैं। बैंकों ने अपनी ब्याज दरों में करीब एक प्रतिषत की कमी कर दी है। कर्ज सस्ता हुआ, रिज़र्व बैंक ने मौद्रिक नीति समीक्षा में ब्याज दरें ऊँची रखने वाले बैंकों की आलोचना की। रियल एस्टेट के दाम भी गिरे, कई षहरी निकायों का राजस्व 4 से 5 गुना तक बढ़ा। नोटबंदी के बाद कष्मीर में पत्थरबाजी कम हुई है। खुदरा कारोबारियों में डिजिटलीकरण की सम्भावना भी सुखद रही। आर्थिक व्यवस्था तुलनात्मक पारदर्षी हुई। वैसे यह सोचना भी सही नहीं है कि नोटबंदी का मतलब पैसा जब्त करना था बल्कि 86 फीसदी बड़े नोटों को जो काले धन के रूप में यहां-वहां दबे थे उनको बाहर निकालना था परन्तु सरकार यह नहीं जानती थी कि करीब 16 हजार करोड़ के ये नोट काले और सफेद सभी खाते में जमा हो जायेंगे। सरकार हमेषा कहती रही कालेधन और भ्रश्टाचार से कोई समझौता नहीं पर नोटबंदी से विकास दर गिरने के चलते सरकार की खूब किरकिरी हुई। विष्व बैंक के 2018 के ईज़ आॅफ डूइंग बिजनेस सूचकांक में भारत 130 से 100 नम्बर पर आना जिससे परिलक्षित होता है कि कारोबारी सुगमता देष में बढ़ी है पर अर्थव्यवस्था वास्तव में वैसी नहीं दिखती जैसी सामान्य जन समझते हैं। अब कयास है कि वास्तविक जीडीपी दर अगले पांच साल में उच्च विकास दर के साथ रहेगी पर युक्ति पूरी तरह सुझाई नहीं गयी है। नोटबंदी पर जुबानी जंग अभी भी जारी है पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसे बिना सोचे-समझे निर्णय बता रहे हैं जबकि सरकार इसे लेकर अपनी पीठ थपथपा रही है। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Monday, November 6, 2017

उच्च शिक्षा में सुशासन की दरकार

उच्च षिक्षा को लेकर दो प्रष्न मानस पटल पर उभरते हैं प्रथम यह कि क्या विष्व परिदृष्य में तेजी से बदलते घटनाक्रम के बीच उच्चतर षिक्षा, षोध और ज्ञान के विभिन्न संस्थान स्थिति के अनुसार बदल रहे हैं। दूसरा क्या अर्थव्यवस्था, दक्षता और प्रतिस्पर्धा के प्रभाव में षिक्षा के हाइटेक होने का कोई बड़ा लाभ मिल रहा है। यदि हां तो सवाल यह भी है कि क्या परम्परागत मूल्यों और उद्देष्यों का संतुलन इसमें बरकरार है। तमाम ऐसे और कयास हैं जो उच्च षिक्षा को लेकर उभारे जा सकते हैं। विभिन्न विष्वविद्यालयों में षुरू में ज्ञान के सृजन का हस्तांतरण भूमण्डलीय सीख और भूमण्डलीय हिस्सेदारी के आधार पर हुआ था। षनैः षनैः बाजारवाद के चलते षिक्षा मात्रात्मक बढ़ी पर गुणवत्ता के मामले में फिसड्डी होती चली गयी। वर्तमान में तो इसे बाजारवाद और व्यक्तिवाद के संदर्भ में परखा और जांचा जा रहा है। तमाम ऐसे कारकों के चलते उच्च षिक्षा सवालों में घिरती चली गयी। यूजीसी द्वारा जारी विष्वविद्यालयों की सूची में 291 निजी विष्वविद्यालय पूरे देष में फिलहाल विद्यमान हैं जो आधारभूत संरचना के निर्माण में ही पूरी ताकत झोंके हुए हैं। यहां की षिक्षा व्यवस्था अत्यंत चिंताजनक है जबकि फीस उगाही में ये अव्वल है। भारत में उच्च षिक्षा की स्थिति चिंताजनक क्यों हुई ऐसा इसलिए कि इस क्षेत्र में उन मानकों को कहीं अधिक ढीला छोड़ दिया गया जिसे लेकर एक निष्चित नियोजन होना चाहिए था। उच्च षिक्षा में गुणवत्ता तभी आती है जब इसे षोधयुक्त बनाने का प्रयास किया जाता है न कि रोजगार जुटाने मात्र का जरिया बनाया जाता है। निजी विष्वविद्यालय बेषक फीस वसूलने में पूरा दम लगाये हुए हैं पर उच्च षिक्षा के प्रति मानो इनकी प्रतिबद्धता ही न हो। यहां षिक्षा एक पेषा है, इसका अपना एक आकर्शण से भरा लाभ है और युवकों और संरक्षकों में यह कहीं अधिक पसंद भी की जाती है। इसके पीछे कोई विषेश कारण न होकर इनका सुविधाप्रदायक होना है।
विष्वविद्यालय के कई प्रारूप हैं जहां से उच्च षिक्षा को संचालित किया जाता है। सेन्ट्रल एवं स्टेट यूनिवर्सिटी के अतिरिक्त प्राईवेट तथा डीम्ड यूनिवर्सिटी के प्रारूप फिलहाल देखे जा सकते हैं। पड़ताल बताती है कि अन्तिम दोनों विष्वविद्यालयों में मानकों की खूब धज्जियां उड़ाई जाती हैं। बीते 3 नवम्बर को सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय में डीम्ड विष्वविद्यालयों के दूरस्थ षिक्षा पाठ्यक्रमों को लेकर चाबुक चलाया है। सुप्रीम कोर्ट ने यहां से संचालित होने वाले ऐसे कार्यक्रमों पर रोक लगा दी। गौरतलब है कि उड़ीसा हाईकोर्ट के इस फैसले को कि पत्राचार के जरिये तकनीकी षिक्षा सही है। जिसे खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने स्पश्ट कर दिया है कि किसी भी प्रकार की तकनीकी षिक्षा दूरस्थ पाठ्यक्रम के माध्यम से उपलब्ध नहीं करायी जा सकती। देष की षीर्श अदालत के इस फैसले से मेडिकल, इंजीनियरिंग और फार्मेसी समेत कई अन्य पाठ्यक्रम जो तकनीकी पाठ्यक्रम की श्रेणी में आते हैं इसे लेकर विष्वविद्यालय मनमानी नहीं कर पायेंगे। इतना ही नहीं इस फैसले से पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के उस निर्णय को भी समर्थन मिलता है जिसमें कम्प्यूटर विज्ञान पत्राचार के माध्यम से ली गयी डिग्री को नियमित तरीके से हासिल डिग्री की तरह मानने से इंकार कर दिया गया था। हर पढ़ा-लिखा तबका यह जानता है कि दूरस्थ षिक्षा के माध्यम से डिग्री कितनी सहज तरीके से घर बैठे उपलब्ध हो जाती है। हालांकि इग्नू जैसे विष्वविद्यालय इसके अपवाद हैं। कचोटने वाला संदर्भ यह भी है कि उच्च षिक्षा के नाम पर जिस कदर चैतरफा अव्यवस्था फैली हुई है वह षिक्षा व्यवस्था को ही मुंह चिढ़ा रहा है। बीते डेढ़ दषक में दूरस्थ षिक्षा को लेकर गली-मौहल्लों में व्यापक दुकान खुलने का सिलसिला जारी हुआ। तमाम कोषिषों के बावजूद कमोबेष यह प्रथा आज भी कायम है।
वर्श 2004 में उत्तर प्रदेष के कई नामी-गिरामी विष्वविद्यालय भी इसके आकर्शण से नहीं बच पाये। स्नातक, परास्नातक समेत कई व्यावसायिक डिग्रियां दूरस्थ माध्यम से दूरस्थ क्षेत्रों में बिना किसी खास कसौटी के मामूली फीस लेकर न केवल उन्होंने सेंटर खोलने की अनुमति दी बल्कि स्वयं के साथ इससे जुड़े ठेकेदारों को भी खूब लाभ कमवाने का काम करने लगे। इतना ही नहीं बीटेक से लेकर एमबीए तक कि डिग्रियां भी दूरस्थ माध्यम से ऐसे केंद्रों से सहज रूप से उपलब्ध होने लगी। उत्तर प्रदेष का पूर्वांचल विष्वविद्यालय जौनपुर, चैधरी चरण सिंह विष्वविद्यालय मेरठ समेत इलाहाबाद एग्रीकल्चर इंस्टीट्यूट तब वह डीम्ड विष्वविद्यालय हुआ करता था धड़ल्ले से प्रदेष और प्रदेष के बाहर सेंटर संचालित करने लगे। हद तब हो गयी जब 1960 में विदेषी तर्ज पर बनने वाले उत्तर प्रदेष में स्थापित आचार्य नरेन्द्र देव कृशि एवं तकनीकी विष्वविद्यालय फैजाबाद ने बीटेक और एमबीए को दूरस्थ पाठ्यक्रम के माध्यम से संचालित करने का कार्य आरम्भ किया जो निहायत चिंताजनक बात थी। षिक्षा की बिगड़ती इस व्यवस्था को देखते हुए कोई कठोर कदम तो उठाया जाना ही था। वर्श 2005 के मई में उत्तर प्रदेष के तत्कालीन राज्यपाल एवं कुलाधिपति टी0वी0 राजेष्वर ने विष्वविद्यालयों द्वारा चलाये जा रहे दूरस्थ पाठ्यक्रमों पर रातोंरात रोक लगा दी और तब वसूली गयी फीस भी विद्यार्थियों को वापस करनी पड़ी थी। ये विष्वविद्यालय तो बानगी मात्र हैं देष भर में इसकी फहरिस्त काफी लम्बी मिल जायेगी। उक्त के परिप्रेक्ष्य में यह सुनिष्चित है कि उच्च षिक्षा को लेकर हमारी षिक्षण संस्थाओं ने व्यवसाय अधिक किया जबकि नैतिक धर्म का पालन करने में कोताही बरती है। जब देष की आईआईटी और आईआईएम निहायत खास होने के बावजूद दुनिया भर के विष्वविद्यालयों एवं षैक्षणिक संस्थाओं की रैंकिंग में ये सभी 200 के भीतर नहीं आ पाते हैं तो जरा सोचिए कि मनमानी करने वाली संस्थाओं का क्या हाल होगा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय के माध्यम से यह जता दिया कि उसे षिक्षा को लेकर कितनी चिंता है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला इस लिहाज़ से भी अहम है कि दूरस्थ षिक्षा के माध्यम से विद्यार्थी व्यावहारिक ज्ञान से या तो विमुख होता है या तो बहुत कम होता है। खास यह भी है कि तकनीकी षिक्षा के लिए आॅल इण्डिया काउंसिल आॅफ टेक्निकल एजुकेषन (एआईसीटीई) को मानक तय करने के लिए 1987 में बनाया गया था जिसकी खूब अवहेलना हुई है और समय के साथ विष्वविद्यालय अनुदान आयोग भी नकेल कसने में कम ही कामयाब रहा है।
भारत की उच्च षिक्षा व्यवस्था उदारीकरण के बाद जिस मात्रा में बढ़ी उसी औसत में गुणवत्ता विकसित नहीं हो पायी। असल में षिक्षा कोई रातों-रात विकसित होने वाली व्यवस्था नहीं है। अक्सर अन्तर्राश्ट्रीय और वैष्वीकरण उच्च षिक्षा के संदर्भ में समानांतर सिद्धान्त माने जाते हैं पर देषों की स्थिति के अनुसार देखें तो व्यावहारिक तौर पर ये विफल दिखाई देते हैं। भारत में विगत् दो दषकों से इसमें काफी नरमी बरती जा रही है और इसकी गिरावट की मुख्य वजह भी यही है। दुनिया में चीन के बाद सर्वाधिक जनसंख्या भारत की है जबकि युवाओं के मामले में संसार की सबसे बड़ी आबादी वाला देष भारत ही है। जिस गति से षिक्षा लेने वालों की संख्या यहां बढ़ी षिक्षण संस्थायें उसी गति से तालमेल नहीं बिठा पायीं। इतना ही नहीं कुछ क्षेत्रों में बिना किसी नीति के कमाने की फिराक में बेतरजीब तरीके से षिक्षण संस्थाओं की बाढ़ भी आयी। इंजीनियरिंग काॅलेज इसी तर्ज पर विकसित हुए और यह बात तब और पुख्ता हो जाती है जब आंकड़े बताते हैं कि देष के 4 में से 3 ग्रेजुएट किसी काम के नहीं। सवाल चैतरफा उठता है कि षिक्षक, षिक्षार्थी और षैक्षणिक वातावरण का हमारे देष में क्या ढर्रा है। देष में विद्यमान कुछ निजी और कुछ सरकारी संस्थायें भरपाई मात्र हैं न कि षिक्षा की गुणवत्ता के लिए जानी जाती हैं साथ ही समय के साथ इस क्षेत्र में चुनौतियां घटने के बजाय बढ़ रही हैं। अब तो मांग यही है कि अधकचरी मनोदषा वाली षिक्षा से बाहर निकलकर आषा और सुषासन के मार्ग की ओर इस यवस्था को धकेला जाय।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Wednesday, November 1, 2017

कारोबारी सुशासन के साथ सवाल भी

जब अक्टूबर के पहले पखवाड़े के अन्त में अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोष की अध्यक्ष क्रिस्टीन लिगार्ड ने कहा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था बेहद मज़बूत राह पर है तब नोटबंदी और जीएसटी के बाद से तमाम आर्थिक आलोचनाओं को झेल रही मोदी सरकार को मानो नई ऊर्जा मिल गयी हो। और अब इसी माह के दूसरे पखवाड़े के अन्त में विष्व बैंक की ‘ईज़ आॅफ डूईंग बिज़नेस रिपोर्ट‘ ने कारोबारी सुगमता को भारत के लिहाज़ से जो स्थान दिया है वह सरकार के लिए पावर हाऊस का काम कर रहा होगा। गौरतलब है कि प्रत्येक कृत्यों में सुषासन की परिपाटी का निर्वहन करने का इरादा जताने वाली मौजूदा मोदी सरकार के लिए विष्व बैंक की यह रिपोर्ट खासा उत्साह दे रही होगी। सुषासन और लम्बित आर्थिक सुधार लागू करने को लेकर हालिया रिपोर्ट में भारत 130वें नम्बर से 100वें स्थान पर आ गया है। जाहिर है इसे अभूतपूर्व छलांग कहेंगे। खास यह भी है कि विष्व बैंक ने भारत को न केवल समग्र रूप से इस स्थान को दिया है बल्कि इस साल सबसे अधिक सुधार करने वाले दुनिया के दस षीर्श देषों की सूची में भी षुमार किया है। इस आलोक में वाजिब तर्क यह बनता है कि आर्थिक परिप्रेक्ष्य में संरचनात्मक संदर्भों के साथ भारत प्रगति की ओर कदम बढ़ा रहा है। कारोबारी सूची में षामिल दस देषों में षुमार होने के चलते दक्षिण-एषिया और ब्रिक्स समूह में फिलहाल भारत इकलौता देष है। आसान कारोबार के लिहाज़ से विष्व बैंक की डूईंग बिज़नेस 2018 रिपोर्ट में न्यूज़ीलैण्ड को सबसे ऊपर दर्षाया गया है जबकि सिंगापुर और डेनमार्क क्रमषः नम्बर 2 और 3 पर सूचीबद्ध हैं। उक्त विष्व बैंक की हालिया रिपोर्ट से क्या यह मान लिया जाय कि प्रधानमंत्री मोदी की मौजूदा आर्थिक सुधार वाली नीति बिल्कुल सटीक है और इसी सटीक सुधारों ने देष की तस्वीर बदली है? 
पांच संकेतक और 133 अर्थव्यवस्थाओं से युक्त वर्श 2003 से प्रारम्भ कारोबारी सुगमता की वल्र्ड बैंक इस रिपोर्ट को लेकर पहले सरकारें बहुत गम्भीरता से नहीं लेती थी मगर मौजूदा सरकार ने न सिर्फ इसे तवज्जो दिया बल्कि कैसे इस सूची में रैंकिंग और मजबूत हो इस पर भी बल दिया। फिलहाल सौ का आंकड़ा छूने के बाद अब पचास में आने की तैयारी की बात सरकार कर रही है। गौरतलब है कि भारत में कारोबार को सुगम बनाने को लेकर कदम दषकों से उठाये जा रहे हैं। समय के साथ देष आर्थिक सुधार और परिवर्तन को लेकर निरंतर आगे बढ़ता रहा है। आर्थिक सुधार की दृश्टि से एक बड़ा परिवर्तन 24 जुलाई 1991 को उदारीकरण के रूप में देखा जा सकता है। तब कारोबार समेत तमाम आर्थिक पक्षों को सुगम बनाने की दृश्टि से व्यापक प्रयास हुए थे जिसमें लाइसेंसिंग प्रणाली में ढ़ील देने सहित कई प्रकार की सुविधायें उपलब्ध थीं। हालांकि जिस मानकों पर वल्र्ड बैंक कारोबार की सुगमता को देख रहा है उदारीकरण उससे भिन्न प्रक्रिया है बावजूद इसके दोनों को आर्थिक सुधार की दिषा में सटीक कहना अप्रासंगिक न होगा। देखा जाय तो उदारीकरण के बाद देष में निजीकरण, निगमीकरण और विनिवेषीकरण की प्रक्रिया के साथ वैष्वीकरण की अवधारणा सरपट दौड़ी थी जिसे बीते ढ़ाई दषक से अधिक वक्त हो चुका है। तब प्रधानमंत्री मोदी के पूर्ववर्ती डाॅ0 मनमोहन सिंह वित्त मंत्री और पी0वी0 नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री हुआ करते थे जिसे बीते ढ़ाई दषक से अधिक वक्त हो चुका है। जाहिर है आर्थिक सुधार के लिए अच्छा खासा वक्त देना होता है। जैसा कि वित्त मंत्री अरूण जेटली भी कह रहे हैं कि आर्थिक सुधारों का फल कुछ समय बाद मिलता है। उनका यह भी कहना है कि भारत के विकास के सम्बंध में मोदी सरकार के रोडमैप की पुश्टि कारोबारी सुगमता की रैंकिंग में उछाल से परिलक्षित होती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि रिपोर्ट से सरकार और भारत दोनों को प्रफुल्लित होना चाहिए परन्तु इस बात को ध्यान रखते हुए कि देष में महंगाई से लेकर बेरोज़गारी और आम जन-जीवन से लेकर बुनियादी संकट में अभी भी सुगमता का आभाव बना हुआ है।
सुषासन चाहे कारोबार में हो या जीवन में इसकी अवधारणा बारम्बार से है साथ ही यह एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है। सरकारें कितनी भी मजबूत क्यों न हों यदि बेरोज़गरी, बीमारी, अषिक्षा, चिकित्सा से लेकर बिजली, पानी, समेत जीवन के तमाम बुनियादी तत्व पूरे न हों तो सुषासन होना नहीं कहा जा सकता। दो टूक यह भी है कि सुषासन भी विष्व बैंक की गढ़ी हुई एक आर्थिक परिभाशा है जो 1992 के दौर में परिलक्षित हुई थी जिसका सामाजिक-आर्थिक न्याय के साथ कई अर्थ और भी हैं। जाहिर है जब तक इन संदर्भों को समझकर सुगमता विकसित नहीं होगी तब तक चाहे जो भी क्षेत्र हो सुषासन के असल पक्ष से वंचित ही रहेंगे। देष में 60 प्रतिषत से अधिक तादाद किसानों की है जो अभी भी परम्परागत खेती से उबर नहीं पा रहे हैं। चाहे बड़े काष्तकार हों या मझोले एवं छोटे किसान सभी पेषोपेष में हैं। सरकार की योजनाएं या तो रास्ते में गुम हो जा रही हैं या जागरूकता के आभाव में किसान इसका दोहन नहीं कर पा रहे हैं। जाहिर है देष की आधे से अधिक आबादी को कृशि सुगमता की आवष्यकता है। सभी जानते हैं कि औद्योगिकीकरण के चलते देष की बुनियादी संरचना भी मज़बूत हुई है और साथ ही देष का आर्थिक ढांचा भी। संज्ञान में तो यह भी रहे कि स्टार्टअप इण्डिया एण्ड स्टैंडअप इण्डिया तथा मेक इन इण्डिया तक ही सोच न हो बल्कि छोटे, मझोले और कम रकम वाले कारोबारी को भी तुलनात्मक अधिक सुगमता मिले। गौरतलब है कि आंकड़े समर्थन करते हैं कि नोटबंदी के बाद कारोबारियों को न केवल नुकसान उठाना पड़ा है बल्कि लाखों बेरोज़गार भी हुए। भारत का स्किल डवलपमेंट सुगमता से तो मानो भटका हुआ है। इसके लिए बने संस्थानों की संख्या महज़ 15 हजार बतायी जाती है। भले ही कारोबार के कुछ मामले में जैसा कि हालिया रिपोर्ट में है हम चीन से आगे हैं पर स्किल डवलपेंट को लेकर उसी चीन से मीलों पीछे हैं जबकि भारत में 65 फीसदी युवा हैं मसलन भारत के 15 हजार स्किल डवलपमेंट केन्द्र की तुलना में चीन में 5 लाख जबकि दक्षिण कोरिया में एक लाख से अधिक केन्द्र हैं। बेंजामिन फ्रैंकलिन ने भी कहा है कि निरंतर विकास और प्रगति के बिना सुधार, उपलब्धि और सफलता जैसे षब्दों का कोई मतलब नहीं होता। स्पश्ट है कि चाहे अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश की अध्यक्ष क्रिस्टीन लिगार्ड की भारतीय अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक राय हो या फिर हालिया कारोबारी सुगमता से जुड़ी विष्व बैंक की रिपोर्ट हो यह तभी समुचित कहे जायेंगे जब जनता सुगमता को महसूस करे।
इस बात की भी पड़ताल उचित रहेगी कि कारोबारी सुगमता को लेकर क्या पैमाने होते हैं और भारत ने ऐसा क्या किया है जिसके चलते वांषिंगटन में जारी वल्र्ड बैंक की रिपोर्ट में 30 स्थानों का तुलनात्मक उछाल आया। गौरतलब है विष्व बैंक दस संकेतकों के आधार पर सभी देषों के प्रदर्षन का आंकलन कर रिपोर्ट जारी करता है। इन्हीं संकेतकों को लेकर देषों की रैंकिंग तैयार की जाती है। जिसकी कसौटी में बिजली कनेक्षन में लगा वक्त, अनुबंध लागू करना, कारोबार षुरू करना, सम्पत्ति पंजीकरण, दिवालियेपन के मामले सुलझाना, निर्माण प्रमाणपत्र, कर्ज लेने में लगा समय और अल्पसंख्यक निवेषक के हितों की रक्षा के साथ कर भुगतान और सीमा पार व्यापार षामिल होते हैं। जाहिर है पिछले एक वर्श में भारत ने उपरोक्त बिन्दुओं पर बड़ा उभार विकसित किया है। खास यह भी है कि उपरोक्त दस में से छः में भारत की रैंकिंग सुधारी है। कुछ के मामले में तो वह टाॅप 4 और 5 में भी है। बावजूद इसके आवष्यक और अनिवार्य तथ्य यह भी है कि कारोबारी सुगममता में जो बाढ़ आई है उसके चलते कई अवसरों को भी बढ़ावा मिलना चाहिए साथ ही छोटे-बड़े सभी उद्योगों के लिए कारोबारी मार्ग चिकना भी हो। बेरोज़गारी से अटे भारत को इससे राहत भी मिले ताकि कारोबार के साथ जन-जीवन भी सुगम हो। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन  
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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