Monday, April 30, 2018

परमाणु शक्ति हासिल कर बदला उत्तर कोरिया

उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग उन की मौजूदा कूटनीति बेशक अमेरिका चीन और जापान समेत कई देषों के लिए खुषी की बात हो पर जिस बदलाव को किम जोंग ने दिखाया है उससे कई हैरत में भी होंगे। अपनी छवि के विपरीत नेक इरादे से किम जोंग ने बीते 27 अप्रैल को दक्षिण कोरिया की जमीन पर कदम रखा। दक्षिण कोरिया के राश्ट्रपति मून जे इन के लिए भी यह 65 साल बाद पहला अवसर था जब उत्तर कोरिया के किसी षीर्श नेता की अगवानी कर रहे थे। यदि इतिहास के पन्नों को थोड़ा पलटें तो दोनों कोरियाई देषों में लगभग सात दषक से समानांतर दुष्मनी चलती रही। गौरतलब है कि 1953 में दोनों देषों के बीच युद्ध विराम हुआ था पर षान्ति समझौता नहीं। हालांकि बेहद कड़ी सुरक्षा के साथ दोनों देष के नेताओं ने दोनों की सीमाओं में कदम रखा और अन्ततः साझा घोशणा पत्र पर हस्ताक्षर कर बरसों की दुष्मनी को धता बता कर दुनिया को हैरत में भी डाला। किम जोंग ने इस यात्रा से यह भी बता दिया कि उसकी प्राथमिकताएं बदली हैं। बीते दिनों जब वह ट्रेन से पहली विदेष यात्रा के लिए चीन गया तभी से यह कयास था कि कोरियाई प्रायद्वीप में कुछ तो नया होने वाला है। अमेरिकी राश्ट्रपति ट्रंप के साथ मुलाकात और बातचीत के सिलसिले से पहले किम जोंग में आये इस प्रकार के बदलाव को कहीं अधिक सकारात्मक लिया जा रहा है। तो क्या यह समझा जाय कि किम जोंग को दुनिया की ठीक समझ हो गयी या यह समझा जाय कि परमाणु और मिसाइल ताकत हासिल करने के बाद किम सुरक्षित महसूस कर रहे हैं और अब वह उत्तर कोरिया को आर्थिक ताकत बनाना चाहते हैं। 
ढ़ाई करोड़ की जनसंख्या वाला उत्तर कोरिया परमाणु षक्ति सम्पन्न बनने की फिराक में अपने देष की आंतरिक और आर्थिक दोनों परिस्थितियों को स्वाभाविक तौर पर कमजोर किया है। गरीबी और बेरोज़गारी के आलावा यहां की स्वास्थ व्यवस्थायें भी कहीं अधिक खराब हालत में हैं। परमाणु और मिसाइल परीक्षण के चलते कई बार इसे संयुक्त राश्ट्र द्वारा आर्थिक प्रतिबंधों का सामना भी करना पड़ा है जिसके कारण भी यहां की स्थिति चरमराई हुई है। हालांकि चीन का समर्थन इसे हमेषा मिलता रहा है। यहां तक कि चीन के उत्पाद सामग्री भी उत्तर कोरिया के अंदर निर्मित होते रहे हैं और कमोबेष बाजार भी संवारने में उसकी भूमिका रही है। किम जोंग हमेषा इस डर को व्यक्त करता रहा है कि यदि वह षक्ति सम्पन्न नहीं होगा तो उसकी हालात भी इराक और लीबिया की तरह होंगे परन्तु अब वह आपसी दुष्मनी को न केवल भुलाकर दक्षिण कोरिया से दोस्ती कर रहा है बल्कि परमाणु हथियारों से कोरियाई प्रायद्वीपों को आजाद करने की बात भी हो रही है। गौरतलब है सीमा पार करने वाली पहले कोरियाई नेता किम जोंग ने षान्ति के मार्ग को अपनाने का पूरा मन दिखाया है। षिखर वार्ता के लिए दक्षिण कोरिया की सीमा को पैदल चलकर पार किया जहां राश्ट्रपति मून जे इन ने स्वागत किया। दोनों ने मिलकर षान्ति के लिए देवदार का पेड़ लगाया जिसके लिए उत्तर की तायडोंग नदी और दक्षिण की हाॅन नदी का पानी डाला गया साथ ही अपने-अपने देषों की लायी गयी मिट्टियां पेड़ में डालकर उर्वरता और खुषहाली का परिचय दिया। जिस तर्ज पर दक्षिण कोरिया की सीमा पर दोनों षीर्श नेताओं की मुलाकात हुई वादे-इरादे जताये गये तथा समझौते किये गये और फिर युद्ध का इतिहास नहीं दोहराया जायेगा की बात हुई इससे स्पश्ट है कि किम जोंग ने दुनिया का ध्यान तो अपनी ओर खींच लिया है।
जापान के ऊपर से कई बार मिसाइल छोड़ने वाला उत्तर कोरिया भले ही षान्ति दूत की तरह अवतरित हुआ है पर दक्षिण कोरिया की यात्रा से पहले जापान ने यह संकेत दिया था कि वह संतुश्ट नहीं है और उत्तर कोरिया पर उसके दबाव की नीति जारी रहेगी परन्तु अब षायद जापान भी काफी कुछ संतुश्ट होगा। किम जोंग ने जापान यात्रा की भी बात कही है। दुविधा को सुविधा में बदलते हुए किम जोंग आगे बढ़ रहा है परन्तु इसकी पूरी पड़ताल तब होगी जब अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और किम जोंग के बीच सफल और सकारात्मक नतीजे वाली बात होगी। डोनाल्ड ट्रंप पहले कह चुके हैं कि यदि किम जोंग की बातें सही दिषा में नहीं रही तो वह मीटिंग को बीच में छोड़ सकते हैं परन्तु इसकी उम्मीद अब कम ही है। डोनाल्ड ट्रंप से मिलने से पहले किम जोंग अपने आस-पास के वातावरण को समुचित बनाने में लगा हुआ है। सम्भव है कि अमेरिका से भी वार्तालाप उचित दिषा में ही रहेगी। गौरतलब है कि चीन ने किम जोंग को सावधानी वाली पुड़िया पकड़ा दी है और उसका असर भी खूब दिख रहा है। कोरियाई युद्ध से लेकर अब तक चीन मात्र एक ऐसा देष है जिसने उत्तर कोरिया का साथ नहीं छोड़ा। दोनों देषों के बीच 1961 में एक सन्धि हुई थी जिसमें कहा गया था कि यदि चीन और उत्तर कोरिया में से किसी भी देष पर कोई अन्य देष हमला करता है तो दोनों देष को एक-दूसरे का सहयोग करना पड़ेगा। यही वजह है कि व्यापारिक और आर्थिक सहयोगी चीन आज भी है। इतना ही नहीं वह प्योंगयांग का प्रमुख सैन्य सहयोगी भी है। डोनाल्ड ट्रंप के बहुत दबाव के बावजूद भी चीन उत्तर कोरिया जाने वाले व्यापारी मदद को पूरी तरह बंद नहीं किया था। अमेरिका बार-बार उत्तर कोरिया को मिटाने की धमकी देता रहा पर बेखौफ किम जोंग पलटवार करता रहा। जाहिर है चीन के इस समझौते की भी इसमें भूमिका थी और अब वही चीन कहीं न कहीं इसे षान्ति बहाली की राह पर ले जाने का काम किया है। ऐसा डोनाल्ड ट्रंप भी मानते हैं। पड़ताल यह बताती है कि दोनों कोरियाई देषों के बीच युद्ध खत्म करवाने में भारत ने भी बेहद अहम भूमिका निभाई गई है। फिलहाल यह कहावत यहां चरितार्थ होते दिख रही है कि अंत भला तो सब भला। जिस प्रकार 1953 से लेकर अब तक तल्खी रही हालांकि दोनों देषों ने वर्श 2000 में करीबी बढ़ाने के लिए सम्मेलन में हिस्सा लेना षुरू कर दिया था पर बात वैसी की वैसी बनी रही पर अब दुष्मनी और धमकियों से ऊपर उठ कर षान्ति और एक होने की बात करना वाकई कोरियाई प्रायद्वीप के लिए ही नहीं दुनिया के लिए भी यह रोचकता के साथ सकारात्मकता का बोध कराता है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

चीन यात्रा से भारत को आखिर क्या मिला!

जब कूटनीतिक कसौटी पर चीन को कसने की बारी आती है तो बीते सात दषकों की पड़ताल यह इषारा करती है कि इसमें चीनी अधिक और मिठास कम ही रही है। प्रधानमंत्री मोदी लगभग चार वर्शों के कार्यकाल में चार बार चीन की यात्रा कर चुके हैं। इस उम्मीद में कि पड़ोसी से सामाजिक-सांस्कृतिक समरसता के साथ आर्थिक उपादेयता भी परवान चढ़ेगी पर सीमा विवाद और चीन की सामरिक नीतियों ने दूरियों को कभी पाटने का अवसर ही नहीं दिया। निष्चित तौर पर यह राहत की बात है कि प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राश्ट्रपति षी जिनपिंग के बीच उन्हीं के षहर वुहान में दो दिवसीय अनौपचारिक षिखर वार्ता सकारात्मक माहौल में हुई और सही मोड़ पर रही। हालांकि यह दोनों देष के नेताओं के बीच एक ऐसी षिखर वार्ता थी जिसका न कोई निष्चित एजेण्डा था और न ही किसी प्रकार की घोशणा पत्र जारी करने की औपचारिकता थी। चार मुद्दे पर सहमति बनी जिसमें सीमा पर षान्ति, अफगानिस्तान के साथ काम करने और विषेश प्रतिनिधि नियुक्त करने समेत आतंक पर सहयोग षामिल था। गौरतलब है कि यह यात्रा दोनों देषों के बीच उस संतुलन को प्राप्त करने की कोषिष थी जो जून 2017 में डोकलाम विवाद के चलते उपजे थे और 73 दिन तनाव में गुजरे थे। हालांकि जुलाई के अन्तिम दिनों में डोकलाम से दोनों देष की सेना पीछे हट गयी थी इसके पीछे बड़ी वजह अगस्त के प्रथम सप्ताह में ब्रिक्स की बैठक थी और चीन इस बैठक में ऐसा कोई संदेष नहीं देना चाहता था जिससे उसकी स्थिति को दुनिया दूसरी नजर से देखे। डोकलाम विवाद कोई हल्का विवाद नहीं था क्योंकि चीन ने भारत को उतना तो धमकाने का काम किया ही था जितना कि युद्ध के लिए जरूरी हो जाता है पर यहां भारत ने बहुत संयम दिखाया था और यही भारत की मजबूती भी है।
मोदी ने अपने दौरे में सम्बंधों की बेहतरी के लिए जो पांच सूत्री एजेण्डा पेष किया उसकी तुलना प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू के 1954 के पंचषील से की जा रही है जिसमें समान दृश्टिकोण, बेहतर संवाद, मजबूत रिष्ता और साझा विचार समेत साझा समाधान षामिल है। ध्यान यहां यह भी देना है कि जब किसी भी देष की हकीकतें दो प्रकार की हो जाती हैं तो सुविधा के बजाय दुविधा बढ़ती है और भरोसा भी कमजोर होता है। चीन इस धारणा से बहुत अलग नहीं है। डोकलाम के समय चीन की हकीकतें कुछ और बयान कर रही थी पर अब षायद कुछ और बावजूद इसके सावधान तो भारत को ही रहना पड़ेगा। हालांकि मोदी और जिनपिंग ने यात्रा के दूसरे दिन भारत-चीन सीमा पर षान्ति बहाल रखने का संकल्प लिया परन्तु इसका फायदा तब है जब चीन इस पर कायम रहे। गौरतलब है कि 1954 के पंचषील के बाद भारत और चीन अपने समझौते से देषीय सम्प्रभुता के साथ दोस्ती की मिसाल कायम कर रहे थे पर 1962 में चीन की हकीकत कुछ और दिखी। जिनपिंग ने कहा है कि उनका देष मोदी के बताये पंचषील के नये सिद्धांतों से प्रेरणा लेकर भारत के साथ सहयोग और काम करने को तैयार है। विचार अच्छे हैं मगर अर्थ इसी रूप में रहे तो। अच्छी बात है कि ऐसी अनौपचारिक वार्ता से अच्छी बातें बाहर आती हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि भारत और चीन का सम्बंध प्रतिबद्धता और सहयोग पर आधारित है और इस दिषा में सहयोग की और जरूरत भी है। भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) से लेकर आतंकी मसूद अजहर समेत आतंकवाद जैसे मुद्दे पर चीन के सहयोग की जरूरत है जबकि चीन को मिसाइल टैक्नोलाॅजी कंट्रोल रिज़ीम (एमटीसीआर) समेत जिनपिंग के महत्वाकांक्षी योजना वन बेल्ट, वन रोड को सफल बनाने में भारत को साथ की आवष्यकता है। हालांकि वन बेल्ट, वन रोड के मामले में भारत पहले ही नाराजगी जता चुका है क्योंकि यह परियोजना पाक अधिकृत कष्मीर से होकर जा रही है।
चीन के राश्ट्रपति षी जिनपिंग भी भारत की यात्रा कर चुके हैं। सम्भव है कि भारत की तस्वीर से वे भी बाकायदा वाकिफ हैं। दोनों षीर्श नेताओं की मुलाकात से सवाल घटने के बजाय बढ़े हुए दिखते हैं जिसमें एक यह भी है कि आखिर सबके बाद भारत को क्या फायदा मिल रहा है। क्या मुलाकात से सीमा पर चीन की आक्रमकता घटेगी। क्या चीन डोकलाम जैसी स्थितियों से परहेज कर सकेगा। फहरिस्त और बड़ी है पर जब रिष्ते सुधारने होते हैं तो कुछ को नजरअंदाज करना ही होता है। असल में परस्पर परिपक्वता की यहां  बहुत आवष्यकता है और पड़ोसी होने के अर्थ को चीन को तुलनात्मक अधिक समझना है। सभी जानते हैं कि दक्षिण चीन सागर में रणनीतिक मोर्चेबंदी के चलते चीन तुलनात्मक सतर्क है। भारत, अमेरिका, जापान जैसे देष का कई मोर्चे पर साथ होना भी चीन को अखरता है जबकि षक्ति संतुलन के सिद्धान्त में ये अन्तर्निहित सिद्धान्त माने जाते रहे हैं कि ताकत इधर की उधर होती रहती है। जहां तक संदर्भ है चीन यह जरूर चाहता है कि अमेरिका और जापान जैसे देषों के साथ भारत की सामरिक भागीदारी उसके विरूद्ध न हो परन्तु भारत भी यह चाहता है कि पाकिस्तान को चीन उसे भारत के खिलाफ हथियार न बनाये साथ ही भूटान, नेपाल तथा बांग्लादेष समेत हिन्द महासागर में स्थित मालदीव जैसे देषों के साथ वह उस स्थिति तक न जाय जहां से भारत के हित खतरे में पड़ते हों। वैसे ये भी देखा जा रहा है कि अब देषों के बीच कूटनीति निजी सम्बंधों पर टिक गये हैं यही कारण है कि मोदी-जिनपिंग पुराने आधारों से चीजें न तय करके आगे की परिस्थितियों के साथ काम कर रहे हैं।
रणनीति के लिहाज़ से दोनों देषों के बीच परस्पर हो रहे आर्थिक गतिविधियों पर भी नजर डाला जाय तो तस्वीर यह इषारा करती है कि 84 अरब डाॅलर का कारोबार दोनों देष आपस में कर रहे हैं लेकिन यहां पर सर्वाधिक लाभ में चीन ही है। गौरतलब है कि 100 अरब डाॅलर तक इसे पहुंचाने की आम सहमति है। पीएम मोदी ने जिनपिंग से मुलाकात के बाद प्रतिनिधिमण्डल स्तर पर बातचीत में यह भी कहा कि दोनों देषों पर दुनिया की 40 फीसदी आबादी की जिम्मेदारी है। गौरतलब है कि चीन और भारत जनसंख्या के मामले में दुनिया के सबसे बड़े देष हैं और इन्हें सब कुछ उपलब्ध कराना बड़ी जिम्मेदारी है। ऐसे में मोदी ने जो स्ट्रेन्थ की एहमियत बतायी है वह इसके काम आ सकती है। अन्ततः यह भी है कि क्या ऐसी मुलाकातों से भारत वह सब हासिल कर सकता है जिसकी रूकावट चीन है। अगर जिनपिंग के इषारे को समझे तो उनके इस कथन में कि होती रहेंगी ऐसी मुलाकातें सहज पहलू लिये हुए है। षी जिनपिंग का यह कहना कि राश्ट्रीय विकास पर पूरा ध्यान देने, साझा फायदे के मुद्दे पर मदद बढ़ाने और स्थायी समृद्धि तथा वैष्विक षान्ति के लिए सकारात्मक सहयोग सहित तमाम बातें यही इषारा कर रहे हैं कि मुलाकात का कोई नकारात्मक साइड इफैक्ट नहीं है बल्कि ऐसी अनौपचारिक मुलाकातों से पटरी से हटे मुद्दे नजर में रहेंगे और हल करने के सार्थक प्रयास से जुड़े रहेंगे। सम्भव है ऐतिहासिक और अनौपचारिक चीन की इस यात्रा को तुरन्त तो नहीं लेकिन वक्त के साथ लाभ में तब्दील होते षायद देखा जा सकेगा। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
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Tuesday, April 24, 2018

तेल के खेल से बेफिक्र सरकार

यह बात कितनी सहज है कि हर मोर्चे पर सरकार की पीठ थपथपाई जाय। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार के केन्द्र में आने से पहले थोक के भाव में वायदे किये गये थे जिसमें महंगाई भी केन्द्र में थी पर अब सरकार इससे बेफिक्र नजर आती है। लगभग चार साल से सत्तासीन मोदी सरकार पेट्रोल, डीजल में आई महंगाई को लेकर षिखर पर है जबकि इससे निपटने के मामले में सिफर है। गौरतलब है कि पेट्रोल के दाम 74 रूपए 50 पैसे प्रति लीटर के साथ बीते 55 माह के उच्चत्तर स्तर पर है जबकि डीजल 65 रूपए 75 पैसे के साथ अब तक के रिकाॅर्ड स्तर पर है। हालांकि छोटे षहरों मसलन देहरादून आदि में यह 76 रूपए प्रति लीटर तक पहुंच चुका है। तेल के दाम में जिस कदर वृद्धि हुई है उससे पूरा जन जीवन महंगा हो गया है। सब्जी, फल, अण्डा और दूध सहित कई ऐसे खाने-पीने की चीजों पर महंगाई की चोट देखी जा सकती है। यह बात सभी समझते हैं कि तेल महंगा होने का मतलब वस्तुओं का महंगा होना है। ढुलाई महंगी हो जाती है, आवागमन महंगा हो जाता है साथ ही बुनियादी आवष्यकताएं भी पूरी करने में व्यक्ति हांफने लगता है। सबका साथ, सबका विकास के ष्लोगन से युक्त मोदी सरकार इस मामले में कितनी खरी है मौजूदा हालात देख कर जनता इसका निर्णय स्वयं कर सकती है। तेल कम्पनियां कहती हैं कि अन्तर्राश्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों की वजह से ये बढ़ोत्तरी हुई है पर यहां बता दूं कि जब कच्चा तेल मौजूदा समय के दर से जब आधे से भी कम कीमत का था तब भी इन कम्पनियों ने तेल की कीमतों में कोई खास अंतर नहीं किया था। उन दिनों इन्होंने जमकर जनता की जेब काटी और अब क्रूड आॅयल महंगा होने का रोना रो रहे हैं। सवाल दो हैं सरकार का नियंत्रण इस पर कितना है और क्या सरकार तेल की बढ़ती कीमतों को लेकर फिक्रमंद भी है।
बढ़ती हुई कीमतों को देखते हुए एक्साइज़ ड्यूटी में कटौती का केन्द्र सरकार पर दबाव बढ़ना लाज़मी है। गौरतलब है कि बीते चार सालों में जब से मोदी सरकार बनी है 9 बार एक्साइज़ ड्यूटी बढ़ाई जा चुकी है और कटौती केवल एक बार हुई है। दक्षिण एषिया के देषों में भारत तुलनात्मक रईस देष है पर पेट्रोल और डीजल के दामों के मामले में कहीं अधिक फिसड्डी है। पड़ोसी देषों में यह सस्ता क्यों है यह भी समझने वाली बात है। सरकारी संगठन पीपीएसी के अनुसार 1 अप्रैल, 2018 को पाकिस्तान में पेट्रोल के दाम प्रति लीटर 47 रूपए थे, श्रीलंका में यही 49 रूपए, नेपाल में लगभग 65 रूपए जबकि बांग्लादेष में 68 रूपए लीटर था। भारत में लगभग 75 रूपए और कहीं-कहीं इससे ज्यादा में पेट्रोल का बिकना चिंता का विशय है। कमोबेष डीजल की भी स्थिति लोगों के पसीने निकाल रही है। सवाल उठना लाज़मी है कि मोदी सरकार ने जीएसटी लागू करके खजाने को वहां से भरने की कोषिष की जहां से उसे खूब फायदा दिखा जबकि डीजल और पेट्रोल को इससे बाहर रखकर जनता का पैसा कम्पनियों से लुटवा रही है। पेट्रोल की कीमत करीब पांच साल के उच्चत्तम स्तर पर पहुंचने और डीजल की कीमत सर्वकालिक उच्चत्तम स्तर पर पहुंचने के बावजूद सरकार इसे जीएसटी में षामिल न करके गुड गवर्नेंस के अपने कथन को कमजोर कर रही है। अब तो जीएसटी प्रणाली में षामिल करने के तत्काल आसार भी न के बराबर है। हालात को देखते हुए यह माना जा रहा है कि केन्द्र सरकार के पास इसे लेकर कोई प्रस्ताव नहीं है परन्तु जनता की जेब पर डकैती बढ़ गयी है। 
अप्रैल के पहले हफ्ते में डीजल, पेट्रोल को जीएसटी के दायरे में लाने की दिषा में धीरे-धीरे आम सहमति बनाने का प्रयास मंत्रालय ने कही थी पर इस पर भी हजार अड़ंगे बताये जा रहे हैं। उत्पाद षुल्क घटाने का दबाव तो है पर वित्त मंत्रालय ऐसा कोई इरादा नहीं रखता है। गौरतलब है कि सरकार यदि बजटीय घाटा कम करना चाहती है तो उत्पाद षुल्क घटाना सम्भव नहीं है। खास यह भी है कि एक रूपए प्रति लीटर  की कटौती मात्र से ही 13 हजार करोड़ रूपए का घाटा हो जायेगा। जाहिर है कि सरकार यह जोखिम क्यों लेगी, भले ही जनता क्यों न पिसे। याद एक बार फिर दिला दें कि सरकार का एक नारा अच्छे दिन आयेंगे का भी रहा है परन्तु क्या इसे ही अच्छे दिन कहेंगे। सरकार तेल की कीमत घटाने के मामले में न तो जोष दिखा रही है और न ही कोई तकनीक सुझा रही है। ऐसे में जनता की उम्मीदें तो धूमिल होंगी। सरकार ने कच्चे तेल की कीमत कम होने के दौरान नवम्बर, 2014 से जनवरी 2016 के बीच 9 बार उत्पाद षुल्क बढ़ाया था जबकि अक्टूबर में पहली बार इसमें 2 रूपए की कटौती की थी। अब वक्त आ गया है कि तेल के भस्मासुर वाले दाम से लोगों को राहत देने के लिए सरकार तत्काल उत्पाद षुल्क घटाये। वैसे सरकार को यह भी उम्मीद है कि सीरिया, ईरान, और उत्तर कोरिया जैसे मुद्दों पर वैष्विक आधार सुधरेगें और अमेरिकी सेल आॅयल से भी असर पड़ेगा पर यह अंधेरे में झक मारने वाली बात है। सरकार को जहां मुनाफा लेना है तो वहां रोषनी दिखती है और जहां जनता को नुकसान हो रहा वहां उसकी नजर नहीं पड़ती है। सरकार की बेबसी यह भी है कि कम्पनियों पर उसका अंकुष नहीं है। सभी जानते हैं कि पेट्रोल पम्प पर हर कोई पहले ये पूछता है कि आज तेल की कीमत क्या है क्योंकि अब दाम रोजाना की दर से तय होते हैं। सरकार नहीं चाहती कि रोजाना पेट्रोल और डीजल के दाम तय करने की आजादी पर अंकुष लगे। दुविधा बढ़ जाती है कि सरकार जनता की है या व्यापारियों की। 
आगामी 12 मई को कर्नाटक विधानसभा का चुनाव है। सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि डीजल, पेट्रोल और प्याज की महंगाई भी देष की सत्ता को नई करवट दे देता है। यह तो नहीं पता कि बढ़े हुए दाम पर विपक्ष की क्या स्थिति है पर विपक्ष इसको मुद्दा बनाये तो चुनाव की तस्वीर भी बदल सकती है। सरकार यह न माने कि हर सूरत में जनता उनके साथ है बल्कि यह माने कि वे जनता के लिए हैं। कुछ भी गुणा-भाग करें महंगाई से राहत होनी चाहिए वरना तो यही समझा जायेगा कि तेल के खेल में सरकार बेफिक्र है। विषेशज्ञों का भी मानना है कि तेल से केन्द्र और राज्य खूब कमायी करते हैं भले ही अन्तर्राश्ट्रीय बाजार में प्रति बैरल कच्चे तेल की कीमत में बढ़त्तरी को जिम्मेदार ठहराया जा रहा हो लेकिन ये दोनों सरकारें अपना मुनाफा लेने से नहीं चूकती हैं। महंगाई के इस हाहाकार के बीच भी केन्द्र सरकार एक लीटर पेट्रोल पर 19 रूपए 48 पैसे प्रति लीटर कमाती है जबकि डीजल में 15 रूपए 33 पैसे एक लीटर पर कमा रही है। राज्य सरकार भी पीछे नहीं है 15 रूपए 64 पैसा प्रति लीटर पेट्रोल इनकी भी कमायी है और 10 प्रति लीटर डीजल पर भी कमा रहे हैं। क्या महंगाई से सरकार को डर नहीं लगता। क्या मोदी सरकार को ऐसा लगता है कि हर सूरत में वे चुनाव जीतेंगे और डंके की चोट पर जीतेंगे। क्या सरकार एक माई-बाप होने के नाते जनता को बेहाल छोड़ सकती है और बढ़े हुए दामों और बढ़ती हुई महंगाई को लेकर कोई चिंता नहीं है यदि ऐसा है तो लोकतंत्र में कुछ ठीक नहीं हो रहा है। चुनाव जीतना सरकार की योग्यता मात्र नहीं है यह नहीं भूलना है कि लोक कल्याण उसकी योग्यता है। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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बदली फिज़ा मे एक बार फिर भारत ओर चीन

जब बात भारत के आर्थिक ढांचे और उसके विकास की बात होती है तो चीन से तुलना होना स्वाभाविक हो जाता है और यह तुलना भारत की स्वतंत्रता से अब तक अर्थात् 70 बरस जितना पुराना है। यह बात कितना मुनासिब है कि प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर प्रधानमंत्री मोदी ने सम्बंधों को परवान चढ़ाने को लेकर इससे जुड़े वातावरण को बदलने का काम किया है। क्योंकि यह नहीं भूलना है कि साल 1954 का भारत और चीन के बीच हुआ पंचषील समझौता जो 1962 में चीन के भारत पर आक्रमण के बाद तार-तार हो गया था और हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नाता भी निहायत अस्थाई और मतलब परस्त सिद्ध हुआ था जबकि मोदी सरकार के बीते चार साल के कार्यकाल में कई बार प्रधानमंत्री का चीन दौरा हुआ और चीनी राश्ट्रपति जिनपिंग भी भारत आये। बावजूद इसके जून 2017 में डोकलाम विवाद के चलते मामला युद्ध तक पहुंचते-पहुंचते रह गया था। जाहिर है सम्बंधों की फिजा वक्त के साथ बदली परन्तु स्थायी बदलाव कभी नहीं प्राप्त कर पायी। इसमें भी कोई दुविधा नहीं कि दोनों देषों के बीच तमाम विवादों के बावजूद द्विपक्षीय सम्बंध प्रगाढ़ किये जाते रहे हैं परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि चीन जिस तरह का पड़ोसी है उसी तरह की दोस्ती भी रखता है। 
विदेष मंत्री सुशमा स्वराज इन दिनों चीन के भीतर बदली फिजा को झांकने की कोषिष कर रही है। उन्होंने हिन्दी और चीनी भाशा को आपस में सीखने पर जोर दिया है यहां भी सम्बंधों के संदर्भ को भाशाई तौर पर उभारने की कोषिष है पर इस अवसर का लाभ चीन कितना लेगा इसकी पड़ताल वक्त के साथ हो जायेगी। गौरतलब है कि दिल्ली और बीजिंग के बीच दषकों से सम्बंध रहे हैं चाहे बने हों या बिगड़े हों। पड़ताल बताती है कि चीन का दौरा कमोबेष कुछ को छोड़कर सभी प्रधानमंत्रियों ने किया है। प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू एक बार चीन गये और राजीव गांधी 1988 में चीन गये थे। 1993 में प्रधानमंत्री रहते हुए पीवी नरसिम्हाराव भी चीन की यात्रा किये थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी चीन यात्रा करने वालों में षुमार हैं। डाॅ0 मनमोहन सिंह अपने दस साल के कार्यकाल में तीन बार चीन की यात्रा पर गये जबकि मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी तीन बार चीन की यात्रा कर चुके हैं और आगामी 27 अप्रैल को चैथी यात्रा पर रहेंगे। ध्यानतव्य हो मोदी पहली बार चीन की यात्रा साल 2014 में सत्ता हासिल करने के बाद की थी। सवाल है कि लगभग 7 दषकों से भारत और चीन के बीच सम्बंधों की पटरी बिछी हुई है और उस पर दो तरफा दौड़ भी हो रही है पर क्या वाजिब नतीजे निकले हैं। दो टूक यह भी है कि चीन से जिस तरह मन-मुटाव रहे हैं और जिस भांति चीन ने भारत के बाजार को झपटने और जमीन को कब्जाने के फिराक में रहता है साथ ही जरूरत पड़ी तो युद्ध की धौंस भी दिखाता है जैसा कि जून 2017 में डोकलाम विवाद के चलते किया था। इससे तो यही लगता है कि ना फिजा बदली है और न ही सम्बंध सुधरे है। खास यह भी है कि बीते चार सालों में चीन के साथ सम्बंधों में कभी अमेरिका को लेकर तो कभी पाकिस्तान को लेकर कई उतार-चढ़ाव आते रहे हैं।
गौरतलब है कि किसी भारतीय प्रधानमंत्री के पहली बार इज़राइल दौरे में भी मोदी ही षुमार है। यह दोस्ती भी कहीं न कहीं चीन को खटकी थी। इसके पहले कई ऐसे संदर्भ रहे हैं जैसे नवम्बर 2014 में आॅस्ट्रेलिया के जी-20 सम्मेलन के दौरान आॅस्ट्रेलिया के साथ भारत का यूरेनियम समझौता भी चीन को अखरा था। जून 2017 में डोकलाम विवाद पर जापान समेत अमेरिका आदि देषों का भारत की तरफ रूख भी सम्बंधों की फिजा को उथल-पुथल किया था। चीन एक ऐसा संदेह से भरा देष है जो अपनी आर्थिक स्थिति को लेकर कहीं अधिक सतर्क और सीमा विवाद बढ़ाने के मामले में दुनिया का घाग देष है। भारत समेत 14 देषों के साथ इसका सीमा विवाद इस बात को पुख्ता करते हैं। रिष्तों को मजबूती देने और द्विपक्षीय वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए भारत और चीन ने सीमा पर षान्ति बनाये रखने पर सहमति जतायी है। बीते रविवार विदेष मंत्री सुशमा स्वराज की चीनी समकक्ष वांग ई के साथ एक अहम बैठक के दौरान भारत ने स्पश्ट किया कि सीमा क्षेत्र में चीन के साथ षान्ति बनाये रखना पूर्व आपेक्षित अहम तथ्य है। जिस पर वांग ने भी सहमति जतायी है। गौरतलब है कि चीन के साथ सम्बंध बढ़ाना या कायम करना भारत की कूटनीतिक मजबूरी है ऐसा इसलिए क्योंकि चीन भारत से जितना दूर होगा पाकिस्तान के लिए उतना ही करीब होगा। पाकिस्तान से उसकी नजदीकियां कहीं न कहीं आतंक को बढ़ाने का काम करती हैं और भारतीय सीमा पर इसका भुगतान भारत को करना पड़ता है। हालांकि चीन की प्रवृत्ति को देखते हुए उस पर पूरा विष्वास कभी नहीं किया जा सकता क्योंकि वह भारत के साथ तमाम अच्छे द्विपक्षीय मसौदे के बावजूद पाकिस्तान का साथ देना नहीं छोड़ता और जरूरत पड़ने पर यूएनओ में भी भारत के खिलाफ वीटो का प्रयोग करता है। बावजूद इसके सम्बंधों को बेहतर करने की कोषिष छोड़ी नहीं जा सकती। 
सुशमा स्वराज और वांग के बीच आतंक पर भी चर्चा हुई है। उनके बीच पर्यावरण में बदलाव और स्थिर विकास जैसी वैष्विक चुनौतियों पर भी बात हुई है। सुशमा स्वराज बीते षनिवार को चार दिवसीय चीन यात्रा के अन्तिम पड़ाव पर 24 अप्रैल को षंघाई सहयोग संगठन के विदेष मंत्रियों की बैठक में भी हिस्सेदारी की। यह बात सही है कि भारत, चीन दो वैष्विक प्रभाव वाले प्रमुख देष है पर यह बात भी उतनी ही सही है कि दोनों पड़ोसी हैं परन्तु नैसर्गिक मित्र नहीं हैं। डोकलाम पर 73 दिन लम्बे गतिरोध के बाद चीन की तरफ से बंद किया गया ब्रह्यपुत्र और सतलज नदियों का हाइड्रोग्राफिकल डाटा अब फिर से एक बार भारत को मिलने लगा है। गौरतलब है कि इस डाटा से पूर्वोत्तर में बाढ़ की भविश्यवाणी सम्भव होती है। डोकलाम विवाद के समय ऐसा रहा है कि असम की घाटी बाढ़ से लबालब हो गयी थी ऐसा चीन की हरकतों के कारण था। दोनों देष इस बात पर भी सहमत हैं कि दोनों उभरती बड़ी अर्थव्यवस्था हैं और द्विपक्षीय साझेदारी का स्वस्थ विकास बेहद जरूरी है। एक बात यहां समझना सही रहेगा कि जब-जब चीन में भारत का दौरा हुआ है तब-तब विष्वास पुख्ता हुआ है और जब-जब चीन भारत आया है तब-तब बीजिंग और दिल्ली की दूरी घटी है परन्तु विवाद से नाता रखने वाला चीन अवसर परस्ती को कभी अपने से जुदा नहीं किया है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी की कई यात्राओं के बावजूद फिजा पूरी तरह बदली नहीं दिखती और यही कारण है कि दषकों से तमाम आवाजाही के बावजूद पड़ोसी चीन से हमारे सम्बंधों पर जमी बर्फ पूरी तरह पिघली ही नहीं। इसमें कोई षक नहीं कि विदेष मंत्री सुशमा स्वराज अपने व्यक्तित्व के हिसाब से चीन में कुछ अहम भूमिका अदा कर दिया है। बाकी बची भूमिका प्रधानमंत्री मोदी अदा करेंगे लेकिन चिंता और चिंतन इस बात का बना रहता है कि न तो सम्बंधों की पिक्चर पूरी हो रही है और न ही इसका क्लाइमेक्स खत्म हो रहा है। चीन क्या चाहता है यह उसकी कूटनीति है परन्तु भारत क्या चाहता यह चीन को भी पता है। गौरतलब है कि भारत उदारता के चलते लोचषील बना रहता है। रही बात भारत की चाहत की तो चीन ने इसकी फिक्र ही कब की। इस सवाल के साथ बात खत्म की जा सकती है कि तमाम उतार-चढ़ाव के बाद बदली फिजा में भारत और चीन एक बार फिर साथ होंगे। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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Monday, April 23, 2018

महाभियोग संवैधानिक मगर खेल राजनीतिक

स्वतंत्र भारत में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाने के लिए विपक्ष एकजुट हुआ। महाभियोग प्रस्ताव की चर्चा काफी दिनों से थी। बजट सत्र के दौरान कांग्रेस ने इसकी मुहिम षुरू की थी पर मामला थम गया था लेकिन जैसे ही जस्टिस लोया मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया  विपक्ष ने यह कदम सक्रियता से उठा लिया। नोटिस में जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ पांच आधार गिनाये गये जिसमें पद के दुरूपयोग का आरोप भी षामिल है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत गणतंत्र वाले भारत में जिन संस्थाओं का संविधान में उल्लेख है उसमें न्यायपालिका सर्वाधिक निरपेक्ष और लोक अधिकारों की सुरक्षा के लिए जानी जाती है परन्तु एक सच्चाई यह भी है कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच रस्साकसी बरसों से रही है और आज भी कहीं-कहीं कुछ मामलों में दिखती है। दूसरे षब्दों में कहा जाय तो कार्यपालिका यह मनसूबा रखती रही है कि न्यायपालिका उनके मुताबिक चले पर जब-जब ऐसी नौबत आयी है तो संविधान का संरक्षण करने वाली न्यायपालिका अपने दायित्वों से कोई समझौता नहीं किया। राजनीतिक खेल भी खूब होते हैं और न्यायपालिका के नैतिक बल का भी इम्तिहान खूब होता रहा है पर यह बात दावे से कह सकते हैं कि यदि इस संस्था ने दबाव महसूस किया होता तो मूल अधिकार और मानव अधिकार आज तितर-बितर जरूर हुए होते। कांग्रेस ने जिन वजहों से महाभियोग का कदम उठाया वह वजह वाजिब हो सकते है साथ ही संविधान और विधान की दृश्टि से यह गलत भी न हो परन्तु यदि इसमें लेष मात्र भी राजनीति है तो इसे उचित नहीं कहा जायेगा। देष के वित्त मंत्री अरूण जेटली महाभियोग के मामले में कांग्रेस पर यह लानत-मलानत कर रहे हैं कि उसने इसे राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है। वैसे सत्ताधारियों को भी अपने गिरेबान में झांक लेना चाहिए कि क्षेत्राधिकार के बाहर रसूक बढ़ाने से वे भी बाज आयें। गौरतलब है कि जब प्रधान न्यायाधीष टीएस ठाकुर थे तब कार्यपालिका के बीच दूरी भी थी और कुछ दरक भी थी। यह क्यों नहीं समझते कि न्यायपालिका संविधान की वह स्वतंत्र और निरपेक्ष संस्था है जो किसी भी समस्या का सार्थक हल है। 
भारतीय संविधान के भाग 5 के अध्याय 4 के अन्तर्गत अनुच्छेद 124 से 147 के बीच उच्चत्तम न्यायालय की पूरी व्यवस्था दी गयी है। जिसमें कहा गया है कि कोई न्यायाधीष 65 वर्श की आयु तक पद धारण कर सकेगा और राश्ट्रपति को सम्बोधित कर अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा पद त्याग कर सकेगा। परन्तु अनुच्छेद 124(4) में यह व्यवस्था भी है कि उच्चत्तम न्यायालय के किसी न्यायाधीष को साबित कदाचार या असमर्थता के आधार पर महाभियोग द्वारा हटाया जा सकता है। देष की षीर्श अदालत के प्रधान न्यायाधीष जस्टिस दीपक मिश्रा को हटाने की कवायद इसी को ध्यान में रखकर बीते कुछ दिनों से देखी जा रही है। कांग्रेस समेत 7 विपक्षी दलों ने इस प्रस्ताव को आगे बढ़ाया भी परन्तु राज्यसभा के सभापति और उपराश्ट्रपति वैंकेया नायडू ने इसे खारिज कर दिया वजह प्रस्ताव का मेरिट में न होना बताया गया है। ऐसा फैसला लेने से पहले उपराश्ट्रपति ने कानून के विषेशज्ञों से इस पर सलाह-मषविरा भी किया। गौरतलब है कि देष का उपराश्ट्रपति राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं ऐसे में यह फैसला सभापति का है न कि उपराश्ट्रपति का। प्रस्ताव निरस्त होने के बाद कांग्रेस के पास क्या विकल्प है यह भी समझना होगा। कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट जा सकती है और सभापति के फैसले को चुनौती भी दे सकती है। इसकी न्यायिक समीक्षा हो सकती है। ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि महाभियोग की प्रक्रिया किन आरोपों पर लागू हो सकती है। नियम यह कहता है कि जब इस तरह का कोई नोटिस दिया जाता था तो राज्यसभा सचिवालय दो बातों की जांच करता है पहली जांच उन सांसदों की जिन्होंने इस पर हस्ताक्षर किये हैं और दूसरे यह देखना कि इसमें नियमों का पालन किया गया है या नहीं।
यह बात दुर्भाग्यपूर्ण है कि कानून जानते हुए भी एक निष्चित सीमा तक महाभियोग के मुद्दे को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता राजनीतिक दल इस पर सार्वजनिक बहस कर रहे हैं इसे लेकर हम सभी बहुत क्षुब्ध हैं। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी वाकई में गौर करने वाली है। सबको पता है कि जब महाभियोग लाने वाले विपक्षी इसे अंजाम तक पहुंचा ही नहीं सकते तो जान-बूझकर ऐसा काम क्यों कर रहे हैं जिससे देष में न्यायपालिका के मामले में संदेह वाली छवि बन रही हो। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ऐसे होते हैं जिसमें न कोई पक्षपात है और न ही किसी प्रकार का द्वेश है और न ही इससे कोई आहत होता है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि कोई फैसला जब सरकार या विपक्ष के मन मुताबिक नहीं होता तो ये न्यायाधीषों को कटघरे में खड़ा कर देते हैं। षायद यही वजह रही होगी कि षीर्श अदालत ने कहा कि जस्टिस लोया मामले की याचिका आपराधिक अवमानना के समान थी और उसका इरादा न्यायपालिका पर हमला करना था। इतना ही नहीं न्यायालय ने यह भी देखा कि मामले विषेश में वकील साक्ष्य गढ़ने की कोषिष कर रहे थे। सुप्रीम कोर्ट का भी मानना है कि जनहित याचिका जरूरी है परन्तु उसका दुरूपयोग चिंताजनक है। महाभियोग पर जिस प्रकार विपक्षी जोर दिये उससे ऐसा लगता है कि न्यायपालिका की कार्यषैली से लोकतंत्र को खतरा हो गया है जबकि सच्चाई यह है कि इसके उलट न्यायपालिका ही लोकतंत्र को खतरे से बचाता रहा है।
वैसे एक बात समझना बड़ा जरूरी है कि कांग्रेस ने अन्य विपक्षियों का साथ लेकर यदि महाभियोग जैसे कदम उठाये हैं तो क्या इसके पीछे सत्तासीन को जिम्मेदार ठहराना कुछ हद तक सही नहीं है। केन्द्र में सत्ताधारी भाजपा और हिंदुत्व के उभार से लगातार सरकारें विस्तार ले रही हैं। मौजूदा समय में केवल चार राज्यों तक कांग्रेस सिमटी हुई है जबकि 22 राज्यों में सहयोगियों सहित भाजपा की सरकार चल रही है। इतनी बड़ी सत्ताधारी विस्तार के चलते केन्द्र सरकार ने कई संवैधानिक संस्थाओं को कुछ हद तक मन माफिक करने की कोषिष भी की है। ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हो रहा है इन्दिरा गांधी के षासन काल में न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच भी तनाव थे। गौरतलब है कि न्यायपालिका के अधिकारों को भी चोट पहुंचाने की कोषिष की गयी थी तब न्यायपालिका ने अपने क्षेत्राधिकार का उपयोग करते हुए उन्हीं दिनों संविधान के कुछ हिस्सों को मसलन मूल अधिकार जैसों को मूल ढांचा घोशित किया था ताकि सरकारें जनता का तनिक मात्र भी अहित न कर पायें और आज भी षीर्श अदालत विधायिका और कार्यपालिका की उस मनमानी पर अंकुष लगाती है जो बिंदु संविधान को चोट पहुंचाते हैं। अति आत्मविष्वास से भरी मौजूदा सरकार भी कुछ ऐसी स्थितियां पैदा कर रही हैं या कर सकती है जो विपक्ष को अखर रहा है। न्यायालय के कुछ निर्णयों में जहां निरपेक्षता पर सवाल उठ रहा है उसे लेकर कुछ हद तक सत्ता भी जिम्मेदार है। इन दिनों अयोध्या मामला सुप्रीम कोर्ट में है और इस पर भी निर्णय आना है जिसे लेकर भी संदेह व्याप्त हो सकता है। जो न्यायपालिका और देष दोनों दृश्टि से सही नहीं है। ऐसे में प्रष्न उठना लाज़मी है कि क्या न्यायाधीषों का उपयोग राजनीतिक उद्देष्यों के लिए किया जा रहा है। वास्तव में राजनीति के तहत मुख्य न्यायाधीष को निषाना बनाकर महाभियोग में घसीटना सही तो नहीं है परन्तु संविधान के कदाचार को लेकर ऐसा कदम उठाना कांग्रेस का अधिकार भी है जिस पर सभापति के निर्णय से विराम लग गया है। फिलहाल समय की कसौटी पर सभी को खरा उतरना है परन्तु ध्यान रहे कि ये देष की वे मानक संस्थायें हैं जिसके बने रहने से देष बनता है और जिस पर संदेह होने से देष बिखरता है। रही बात राजनीति की तो दूध का धुला कोई नहीं है न सत्ता न विपक्ष। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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Wednesday, April 18, 2018

बच्चियों को चाहिए सुरक्षा की संजीवनी

यदि सवाल यह किया जाय कि ऐसा क्या है कि सभ्य समाज का सर झुक रहा है तो दो टूक जवाब यह है कि कोमल हृदय की प्रतिक्रिया को अनसुना किया जा रहा है और उसे बेरहमी से रौंदा जा रहा है जबकि भारतीय संविधान का भाग 3 में अनुच्छेद 12 से 35 के बीच 6 प्रकार के मूल अधिकार हैं जो स्त्री, पुरूश और बच्चे सभी की प्रतिक्रिया को समझता है। कह सकते हैं कि मूल अधिकार एक ऐसा अंदाज है कि किसी को नजरअंदाज नहीं करता बल्कि सबके लिए अधिकार की गारंटी है जिसमें समानता भी है, स्वतंत्रता भी है और जीवन भी है। कम उम्र की बच्चियों के साथ हो रहे रेप और नृषंस हत्या ने पूरे देष को गुस्से की आग में तो झोंक ही दिया है साथ ही पूरे समाज के सामने बेटी बचाओ की चुनौती भी खड़ी कर दी है। सरकार हो या सभ्य समाज बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ और बेटी खिलाओ जैसे परिप्रेक्ष्य को तभी मकसद दिया जा सकेगा जब इनकी सुरक्षा की गारंटी उपलब्ध हो। हैरत की बात है कि जहां एक ओर काॅमनवेल्थ गेम में विदेष से मेडल लाकर लड़कियों ने अपने देष को पाट दिया उसका मान बढ़ाया वहीं देष के भीतर बच्चियां बलात्कार की षिकार हो रही हैं। जम्मू एवं कष्मीर के कठुआ में 8 साल की बच्ची के साथ और उन्नाव में बलात्कार को लेकर बवाल अभी थमा नहीं था कि गुजरात के सूरत और उत्तर प्रदेष के एटा से ऐसी ही दुश्कर्म की खबर मन को क्षोभ से भर देती है। अगर हम पूरे देष का हाल देखें तो लगता है महिला सुरक्षा की हालत बहुत खस्ता है। प्रत्येक राज्य में बलात्कार की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। उत्तर प्रदेष और मध्य प्रदेष के मामले में तो पानी सर के ऊपर जा रहा है। 2012 के निर्भया काण्ड के बाद जब लोग दिल्ली के लाल किले से लेकर इण्डिया गेट तक ठसा-ठस हो गये थे तब देष में रेप के कमजोर कानून को मजबूती दी गयी थी पर दुःखद यह है कि इसके बावजूद भी घटनाओं में कमी नहीं आ रही है। सरकार को कोसते हैं, पुलिस को कोसते हैं, कुछ दिनों तक गुस्सा दिखाते हैं, चाय-पान की दुकान और नुक्कड़ तथा चैराहों पर रोश के साथ चर्चा करते हैं और बाद में सब कुछ छोड़ देते हैं और भूल जाते हैं।
बलात्कारी कौन है, किस समाज से आता है और किस बनावट का होता है यह समझना सरल है पर पहचानना उतना ही कठिन। जो बच्चियों की जिन्दगियों को नश्ट कर रहे हैं, मसल रहे हैं और खत्म कर रहे हैं वे इसी समाज के हैं। गौरतलब है कि भारत में हर वर्श बलात्कार के मामले में बढ़ोत्तरी होती जा रही है। आंकड़े थोड़े पुराने हैं पर राश्ट्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्यूरो बताता है कि भारत में प्रतिदिन लगभग 50 बलात्कार के मामले थानों में पंजीकृत होते हैं। इस हिसाब से प्रत्येक घण्टे में दो महिलायें इसका षिकार हो रही हैं हालांकि यह आंकड़े पूरी सच्चाई नहीं बता रहे हैं क्योंकि जो केस रजिस्टर ही नहीं हुए वे इसमें षामिल नहीं हुए हैं। बलात्कार के मामले में मध्य प्रदेष सबसे आगे है जहां भाजपा की सरकार का दषक से अधिक समय हो गया है और उनकी सुषासन से भरी सरकार चल रही है। यहां बलात्कार के 1262 मामले दर्ज हुए इसके बाद उत्तर प्रदेष का क्रम है तब महाराश्ट्र की बारी आती है जहां क्रमषः 1088 और 818 मामले एक वर्श में बताये जा रहे हैं। यदि इन्हीं तीन प्रान्तों के आंकड़ों को जोड़ दें तो देष में होने वाले कुल बलात्कार का करीब 45 फीसदी के बराबर यह संख्या होती है। जब चुनाव में राजनीतिक दल जाते हैं तो महिला सुरक्षा से लेकर गरीबी और बेरोजगारी को दूर करना इनके जुबान पर सैकड़ों बार आता है पर षासन में आते ही पता नहीं कौन सी सत्ता चलाते हैं और कैसा सुषासन लाते हैं साथ ही किस प्रकार की कानून-व्यवस्था के हिमायती होते हैं कि महिलाएं और बच्चियां रेप के दलदल में फंसने से रोक नहीं पाते और ऐसी करतूत वालों को सबक नहीं सिखा पाते। सरकारें इस पर भी लीपा-पोती करते हुए भारी-भरकम राजनीति करती हैं। वैसे दिल्ली, मुम्बई, भोपाल, जयपुर, पुणे आदि बड़े नगर भी इस फहरिस्त में काफी ऊंचाई लिए हुए है। 
कठुआ, सूरत और उन्नाव में हुए बलात्कार के विरोध में देष भर में प्रदर्षन हो रहा है और बलात्कार के आरोपियों के लिए फांसी की सजा की मांग हो रही है। गौरतलब है कि बच्चों से बलात्कार का दर तेजी से आगे बढ़ रहा है। 2010 में लगभग साढ़े पांच हजार मामले बच्चों के बलात्कार से जुड़े दर्ज हुए थे जो 2014 में ये साढ़े तेरह हजार से अधिक हो गये। इतना ही नहीं बाल यौन षोशण संरक्षण अधिनियम पोक्सो एक्ट के तहत लगभग 9 हजार मामले दर्ज किये गये आंकड़े थोड़े पुराने हैं पर हिलाने वाले हैं। बच्चों से बलात्कार एवं छोड़छाड़ के मामले में मध्य प्रदेष अव्वल है जबकि महाराश्ट्र दूसरे स्थान पर फिर उत्तर प्रदेष और दिल्ली की बारी आती है। विषेशज्ञ भी मानते हैं कि बच्चों में बलात्कार के मामले बढ़ने की दो वजह हैं पहला लोक लाज के भय के कारण मामले दर्ज नहीं करवाते, दूसरा कानून। इसमें कोई दुविधा नहीं कि कानून कितना भी सख्त बना लिया जाय बलात्कार को पूरी तरह रोक पाने में विफल ही रहेगा परन्तु इस मामले से मुक्ति पाने के लिए यह रणनीति काफी हद तक अचूक है कि लोक लाज के डर से बाहर निकलकर हर मामले को रजिस्टर करना है और सजा के लिए न्यायालय को सक्रिय और तेजीपन दिखाना है साथ ही समाज पीड़ित के साथ भेदभाव का रवैया छोड़े तो सम्भव है कि रेप को कम करने वाली दर जरूर मिलेगी। 2012 में आया पोक्सो और 2013 में आया आपराधिक कानून संषोधन अधिनियम भी बच्चों के बलात्कार के मामले दर्ज कराने में सहायक बने हैं बस कमी है तो समाज को थोड़ा बदलने की और काफी कुछ कानून भी सख्त करने की। कठुआ की घटना से क्षुब्ध केन्द्रीय मंत्री मेनका गांधी पोक्सो यानि यौन उत्पीड़न से बच्चों के संरक्षण कानून में अब बलात्कार के लिए फांसी की सजा जोड़ना चाहती है जो लाज़मी है।
दरअसल बलात्कार को लेकर देष और समाज कुछ गलतियां भी कर रहा है और न्याय में देरी भी रही है साथ ही जाति, धर्म को जोड़ कर इसमें राजनीति भी खूब होती रही है जो मानवाधिकार और मूल अधिकार दोनों का सीधे-सीधे हनन करता है। कठुआ में जिस प्रकार 8 साल की बच्ची के बलात्कार को धार्मिक रंग देने की कोषिष की गयी वह बेजा थी। इसका संदेष देष-दुनिया में सही तो नहीं गया बल्कि पीड़ित के साथ बलात्कार और नृषंस हत्या के बाद एक और अन्याय ही कहा जायेगा। देष की जनता सरकार चुनती है इस उम्मीद में कि रोजगार भी देगी और सुरक्षा भी पर सरकारें जो नहीं कर सकती उसका भी वायदा करती रहती हैं, घटना घटने पर जांच की बात तो करती हैं और न्याय की भी बात करती हैं पर कानूनी दांवपेंच के उलझन में बलात्कारी आराम से जेल में रहता है और पीड़ित समाज से बचता रहता है। बर्नाड बारूच ने भी कहा है कि वोट उन्हें दीजिए जो कम-से-कम वायदे करते हैं क्योंकि वे आपको सबसे कम निराष करेंगे। उक्त के परिप्रेक्ष्य में कह सकते हैं कि षासन और सुषासन देने की बात करने वाली सरकारें न तो बच्चों को सुरक्षा दे पा रही हैं और न ही बलात्कार को रोक पा रही हैं। फिल्म अभिनेत्री षबाना आज़मी का एक कथन बहुत अच्छा है कि सरकार की बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना को प्रभावी बनाने के लिए हमारी बेटियों को जिन्दा रहना जरूरी है और सच यही है कि यह तभी जिन्दा रहेंगी जब इनके कोमल हृदय की प्रतिक्रिया को समझा जायेगा न कि नजरअंदाज किया जायेगा। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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खत्म हुआ नवाज़ शरीफ का सियासी युग

तीन बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रह चुके नवाज़ षरीफ अकेले ऐसे नेता हैं जिन्होंने इस पद पर रहने का यह रिकाॅर्ड बनाया है परन्तु वे चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध वाला रिकाॅर्ड भी अपने नाम दर्ज करा लिये। गौरतलब है कि नवाज़ षरीफ पर पाकिस्तान की षीर्श अदालत ने आजीवन प्रतिबंध लगा दिया है जिससे यह तय है कि वह अब न तो अपनी पार्टी के अध्यक्ष रहेंगे और न ही कोई चुनाव लड़ पायेंगे। वैसे षरीफ की सियासत षराफत से भरी नहीं कही जा सकती बावजूद इसके एक प्रधानमंत्री के तौर पर तमाम मामलों में भारत उन्हें समकक्ष मानते हुए समरसता के बीज उनके साथ भी कई बार बोए बावजूद इसके नतीजे ढाक के तीन पात ही रहे। न तो पाकिस्तान में आतंक को पनपने से रोका और न ही सीमा पर सीज़ फायर का उल्लंघन। एक बात में आगे जरूर थे कि यूएनओ में कष्मीर राग अक्सर अलापते रहे। इसमें कोई दुविधा नहीं कि 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने षपथ के दौरान सार्क के सदस्य देषों को न्यौता देते समय षरीफ को भी दिल्ली के लिए दावत देना नहीं भूले थे परन्तु पाक प्रायोजित आतंक को लेकर षरीफ ने मोदी के साथ लगातार धोखा किया और अन्ततः 1 जनवरी, 2016 को पठानकोठ हमले के बाद तो इनकी षराफत का पूरा पिटारा ही खुल गया था। तब से अब तक दोनों देषों के बीच वैसा कुछ भी नहीं है जैसा उसके पहले था। पाक में अयोग्य होने के बाद सत्ता से बेदखल नवाज़ षरीफ का सियासी भविश्य फिलहाल खत्म होता दिखाई दे रहा है। जो इसी साल होने वाले आम चुनाव की तैयारी में लगी इनकी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) के लिए यह बड़ा धक्का सिद्ध होगा। 
सवाल यह उठना लाज़मी है कि आखिर नवाज़ षरीफ ने ऐसी क्या गलती की जिसकी वजह से उन्हें यह खामियाजा उठाना पड़ा। एक संसद को अयोग्य करने के लिए समय सीमा के निर्धारण सम्बंधी याचिका पर पांच जजों की पीठ का यह फैसला पाकिस्तान के संविधान सम्वत् है। गौरतलब है कि पाकिस्तान का संविधान 5 अनुसूचियों और 12 भागों में बंटा है जिसमें कुल 280 अनुच्छेद हैं। इसी संविधान के भाग 3 के अन्तर्गत फेडरेषन आॅफ पाकिस्तान की चर्चा है जिसमें 41 से 100 अनुच्छेद आते हैं। इसी के अन्तर्गत अनुच्छेद 62(1)एफ निहित है। इसके तहत षरीफ को अयोग्य करार दिया गया है जिसके बाद कोई भी व्यक्ति आजीवन चुनाव नहीं लड़ सकता है। जाहिर है इसी के कारण षरीफ को राजनीति और पद से आउट किया गया है। बता दें कि इसी साल पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 62 और 63 के तहत अयोग्य करार व्यक्ति किसी भी तरह की राजनीतिक पार्टी का अध्यक्ष नहीं रह सकता है। इसके पहले 28 जुलाई 2017 को पनामा पेपर लीक मामले में पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने षरीफ को पीएम पद के लिए अयोग्य करार दिया था और उन्हें अनुच्छेद 62 के तहत अपनी सैलरी को सम्पत्ति के तौर पर नहीं घोशित करने के आरोप में दोशी पाया था। कानूनी दांवपेंच के षिकंजे में फिलहाल नवाज़ षरीफ आ चुके हैं जिसके चलते वे अब किसी भी सार्वजनिक पद के योग्य नहीं है। फैसला सुनाने वाले जज ने यह भी एलान किया था कि देष को अच्छे चरित्र वाले नेताओं की जरूरत है जाहिर है चरित्र के मामले में षरीफ को स्याह माना गया है।
नवाज़ षरीफ को पाकिस्तान की राजनीति में पंजाब का षेर के नाम से जाना जाता है। पहली बार वह 1990 में प्रधानमंत्री बने थे जबकि दूसरी बार 1993 में यही अवसर मिला था। बाद में तत्कालीन सेना प्रमुख मुर्षरफ के तख्तापलट के बाद इनकी जान भी खतरे में थी। हालांकि सौदेबाजी के फलस्वरूप इनका देष निकाला हुआ और बरसों तक यह चलता रहा। अन्ततः पाकिस्तान की राजनीति में इनकी एक बाद फिर एंट्री हुई और तीसरी बार साल 2013 में चुनाव जीत कर फिर पीएम बने। एक सच यह है कि नवाज़ षरीफ हर बार तब प्रधानमंत्री बने जब पाकिस्तान अस्थिरता के दौर में रहा लेकिन उन्हें हर बार बीच में ही पद छोड़ना भी पड़ा है। यह महज संयोग है कि षरीफ की राजनीति और सत्ता के साथ जीवन भी उथल-पुथल में रहा है। पाकिस्तान की लोकतांत्रिक व्यवस्था में वे कभी आईएसआई तो कभी आतंकी संगठनों के हाथों खेले जाते रहे साथ ही तख्ता पलट भी इनका वहां की लोकतांत्रिक अव्यवस्था का पूरा वर्णन करता है। अब सुप्रीम कोर्ट की यह गाज उनका सियासी भविश्य को ही रौंद दिया है। जानकार यह भी मानते हैं कि नवाज़ षरीफ के अयोग्य घोशित होने के बाद पाक की सियासत में भूचाल रहेगा। वैसे उन्होंने अपनी पत्नी बेगम कुलसुम को उत्तराधिकारी बनाया है लेकिन वे वहां की सियासत में क्या दम दिखायेंगी इसी वर्श अगस्त में होने वाले चुनाव में पता चल जायेगा। षरीफ के भाई षहबाज़ षरीफ और बेटी मरियम में अब पार्टी पर पकड़ बनाने की होड़ मच सकती है जिसके प्रत्यक्ष लाभ में मौजूदा प्रधानमंत्री अब्बासी का कद बढ़ा सकता है। गौरतलब है कि पेपर लीक मामले में जब षरीफ ने पीएम का पद छोड़ा था तो अब्बासी को उत्तराधिकारी बना दिया था। 
पनामा पेपर लीक दस्तावेज़ से पता चला था कि षरीफ और उनके परिवार ने टैक्स हैवन देषों में पैसों का निवेष किया है और लंदन में सम्पत्तियां खरीदी हैं। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को मुस्लिम लीग के नेता साजिष बता रहे हैं वहीं नवाज़ षरीफ के विरोधी उन पर मनी लाॅड्रिंग का आरोप लगा रहे हैं। दुविधा तो बढ़ी है जाहिर है सुविधाजनक राजनीति करना अब थोड़ा मुष्किल है। 68 वर्शीय षरीफ पाक की सियासत से गायब होंगे ठीक वैसे जैसे पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की बेनजीर भुट्टो की सियासी पारी समाप्त हुई है। हालांकि दोनों में एक फर्क है कि षरीफ को अदालत ने रोक दिया जबकि बेनजीर की हत्या हो गयी थी। ऐसा देखा गया है कि पाकिस्तान लोकतंत्र के मामले में कभी भी मजबूत देष नहीं रहा। दूसरे षब्दों में कहें तो पाकिस्तान को एक अदद लोकतंत्र की तलाष आज भी है जो जनता को लोक कल्याण दे सके और स्वयं के लिए सुकून खोज सके पर दुःखद यह है कि आज भी वहां आतंक की खेती होती है और आतंकियों को षरण दिया जाता है जबकि वहां की जनता गीरबी, बीमारी, बेरोजगारी आदि से जूझती रहती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि षरीफ को अपने किये की सजा मिली है। भले ही उनकी बेटी फैसले को शड्यंत्र बता रही हों पर फैसले का सम्मान करती हैं यह कहना नहीं भूलती हैं। फिलहाल षरीफ का सियासी भविश्य अब समाप्त हो चुका है और वहां के सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें अच्छे चरित्र का नेता नहीं माना है।




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

नोटबन्दी के बाद एटीएम बंदी

देश के कई बड़े राज्यों में इन दिनों एटीएम में कैश की व्यापक किल्लत हो गयी है और कईयों के तो शटर भी डाउन है। ऐसा नकदी में कमी के चलते बताया जा रहा है। गौरतलब है कि 8 नवम्बर, 2016 की षाम 8 बजे जब नोटबंदी का ऐलान प्रधानमंत्री मोदी द्वारा किया गया था तब यह भरोसा सरकार को था कि कालाधन इससे समाप्त होगा और अर्थव्यवस्था तुलनात्मक सषक्त होगी। 17 लाख करोड़ से अधिक मूल्य का कुल संचालित हो रहे धन का 86 फीसदी एक हजार और पांच सौ के नोट को बंद करके सरकार ने उन दिनों बहुत बड़ा जोखिम लिया था और जिसे लेकर अपनी पीठ भी खूब थपथपाई थी। इसके बाद कई मुष्किलें भी आईं लोगों को 2 से 4 हजार रूपये के लिए महीनों बैंकों के बाहर कतार में खड़ा होना पड़ा इस उम्मीद के साथ कि सरकार के इस निर्णय में देष की भलाई है और उनके लिए अच्छे दिन। सरकार ने भी सब कुछ ठीक करने के लिए 50 दिन का वक्त मांगा था परन्तु लम्बे वक्त तक नोटबंदी के चलते कैष की किल्लतों से जनता परेषानी में तो थी। उन दिनों भी एटीएम खाली थे तब यह कहा जा रहा था कि नये नोट छप रहे हैं और साथ ही देष के सवा दो लाख एटीएम में नये नोट के हिसाब से परिवर्तन भी किया जा रहा है। यह बिल्कुल सही है कि बदलाव के लिए वक्त चाहिए पर लम्बे वक्त के बाद भी कैष किल्लत बरकरार हो तो इसे क्या कहेंगे। नोटबंदी के दो दिन बाद ही सरकार ने कैषलेस की बात भी करना षुरू किया था। पड़ताल बताती है कि नोटबंदी के बाद बाध्य होकर बड़ी संख्या में लोगों ने डिजिटल पेमेंट की ओर रूख किया था परंतु जैसे सर्कुलेषन में कैष बढ़ा इसमें कमी आयी। इसके पीछे टेक्नोलोजी की कम जानकारी और पर्याप्त आधारभूत ढांचा भी माना जा सकता है। खास यह भी है कि चुनाव में कैष का प्रयोग अधिक और तेजी से होता है। भारत हमेषा चुनावी समर में रहता है इस कारण भी कैषलेस की समस्या रही है। फिलहाल सरकार अब कैषलेस की बात नहीं करती है वैसे तो कालाधन की भी बात नहीं करती है। यहां तक कि बैंकिंग सिस्टम पटरी पर नहीं है उस पर भी कुछ खास बात नहीं हो रही है। तो क्या यह माना जाय कि नोटबंदी के असर से भारत अभी भी मुक्त नहीं है।
अब यह कितना सारगर्भित है पड़ताल का विशय है पर सच्चाई यह है कि नोटबंदी से लेकर अब तक 13 लाख करोड़ रूपए की कीमत के नये नोट छापे जा चुके हैं जिसमें 2 हजार के नोट जो 7 लाख करोड़ रूपये के मूल्य के हैं और 5 सौ के नोट जो 5 लाख करोड़ रूपए के हैं साथ ही सौ के नोट भी जिनकी कीमत एक लाख करोड़ रूपए की है। बड़ा सवाल और वाजिब सवाल कि जब कमोबेष बाजार में नये नोट के रूप में रूपयों की भरमार हो चुकी है तो एटीएम सूखे क्यों हैं? आन्ध्र प्रदेष, बिहार, कर्नाटक, महाराश्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेष, मध्य प्रदेष और तेलंगाना आदि राज्यों में कैष की भारी किल्लत है लेकिन स्पश्ट कर दें कि उत्तराखण्ड समेत कई छोटे राज्यों में एटीएम पैसा नहीं उगल रहे हैं और बैंकों से भी मनचाही नकदी नहीं मिल रही है। कमोबेष समस्या तो पूरे देष में है। आरबीआई का कहना है कि नोटबंदी के चार दिन पहले साढ़े सतरह लाख करोड़ रूपए से अधिक नोट चलन में थे जबकि मौजूदा समय में यह आंकड़ा 18 लाख करोड़ रूपए तक हो गया है। दो सौ रूपए के नये नोट चलन में आने से एटीएम में उसे डालने में परेषानी आ रही है इसके कारण भी कैष किल्लत हो रहा है। यह वही बात हुई जो नोटबंदी के समय दो हजार और पांच सौ के नोट के लिए कहा जा रहा था। जब इतने व्यापक पैमाने पर कैष उपलब्ध है तो आखिर पैसा गया कहां। रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट बताती है कि कुल जारी करेंसी में दो हजार रूपए के नोटों का हिस्सा पचास फीसदी से अधिक है। अब जो आंकड़ा सामने आ रहा है वह चैकाने वाला है। बीते जुलाई तक बैंकों में दो हजार रूपए के नोटों की संख्या 35 फीसदी रहती थी। नवम्बर 2017 तक यह 25 फीसदी हो गयी। एसबीआई, पीएनबी, बैंक आॅफ बड़ौदा और बैंक आॅफ इण्डिया समेत कई बैंकों के करेंसी चेस्ट के आंकड़ों में दो हजार रूपए के नोट की संख्या मात्र 9 से 14 फीसदी तक ही है। बड़ा सवाल है कि दो हजार रूपए के नोट कहां हैं। क्या ये डम्प हो रहे हैं और बैंकों में इनकी वापसी नहीं हो रही है। इस दुविधा को भी समझ लेना सही होगा कि बैंकों ने बीते डेढ़ वर्शों में जिस तरह जनता को पेरषानी में डाला है उससे उन्होंने अपना भरोसा भी खत्म किया है। जिसके चलते बैंकों में नकदी मुख्यतः दो हजार और पांच सौ के नोट जमा करने से खाताधारक कतरा रहे हैं। नोटबंदी के बाद भी यह बात सामने आयी थी कि 2 हजार रूपए के नोट कालाधन को बढ़ाने में मदद करेंगे कमोबेष स्थिति वही बनती दिख रही है। गौरतलब है कि गुलाबी नोट छापने वाली मोदी सरकार यदि बैंकिंग व्यवस्था और डम्प हो रहे नोटों पर सही मंथन नहीं रखा तो गुलाबी नोट काले में तब्दील हो सकते हैं। 
बैंकों की हालत बहुत पतली है और लगभग देष भर में यही स्थिति है। जिन बैंकों का औसतन बैलेंस नोटबंदी के पहले तीन सौ करोड़ रूपए था अब वह करीब सौ करोड़ रूपए ही है। इतना ही नहीं बैंकों से जमा नकदी रोजाना 14 करोड़ से घटकर 4 करोड़ हो गयी है जिसमें दो हजार के नोट मात्र 50 लाख रूपए की कीमत के हैं। एक आंकड़ा और देते हैं सरकारी खातों की जिन बैंकों में अधिकता है उनके करेंसी चेस्ट का अधिकतम बैलेंस नोटबंदी से पहले 9 सौ करोड़ रूपए था जो अब करीब ढ़ाई सौ करोड़ है। यहां भी रोजाना जमा नकदी 80 करोड़ से ठीक आधी 40 करोड़ हुई है और इसमें दो हजार के नोट 4 करोड़ रूपए से भी कम मूल्य के हैं। सरकार की आर्थिक नीतियां तो यही इषारा कर रही हैं कि सुविधा के चक्कर में दुविधा बढ़ गयी है। आरबीआई के पूर्व गवर्नर वाई.वी. रेड्डी ने अर्थव्यवस्था को नोटबंदी और जीएसटी जैसे कदमों से झटका लगने की बात कही है साथ ही इससे उबरने के लिए दो साल के समय की जरूरत भी बतायी है। एटीएम बंदी को लेकर देष के छोटे-बड़े षहर और ग्रामीण इलाके से खूब षिकायतें आ रही हैं। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी नोटबंदी के बाद विकास दर गिरने की बात कही थी जो सही साबित हुआ था। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाशण के दौरान कहा था कि वे हारवर्ड नहीं हार्डवर्क में विष्वास करते हैं। स्थिति तो यही बताती है कि जरूरत दोनों की है। फिलहाल एटीएम में कैष की समस्या से नोटबंदी के साइड इफैक्ट दिख रहे हैं। जिस एटीएम से पैसे निकल रहे हैं वहां लम्बी कतार लग रही है। भारतीय स्टेट बैंक की एक षोध रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि आरबीआई ने बड़ी तादाद में 2 हजार रूपए के नोट जारी करने से रोक दिया है या फिर इसकी छपायी बंद कर दी है। कैष की कमी के चलते विभिन्न स्थानों पर लगी एटीएम इंक्वायरी मषीन बन कर रह गयी है। इसका इस्तेमाल लोग बैलेंस समेत अन्य जानकारी के लिए कर रहे हैं जबकि एटीएम का मकसद नकदी देना था। तो क्या इसे अव्यवस्था माना जाय, मिस मैनेजमेंट माना जाय या फिर पटरी से उतर गयी सिस्टम समझा जाय या फिर अभी भी सरकार की मजबूत आर्थिक नीति कहा जाय इसे आप स्वयं समझे। 



सुशील कुमार सिंह
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आर्थिक सुशासन पर हाँफती सरकार

जब प्रश्न आर्थिक होते हैं तो वे गम्भीर होते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि सामाजिक उत्थान और विकास के लिए इस पहलू को सषक्त करना पड़ता है। बीते कुछ वर्शों से आर्थिक वृद्धि को लेकर तरह-तरह की कोषिषें की जा रही हैं मसलन काले धन पर चोट, नोटबंदी और जीएसटी जैसे संदर्भ भारत के आर्थिक वातावरण में देखे जा सकते हैं। कहां कितनी सफलता मिली यह बड़ा सवाल है साथ ही इन तमाम कोषिषों से देष कितना आगे बढ़ा प्रष्न तो यह भी हो सकता है। सरकार की ओर से कर सुधार के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया जा रहा है। इन कवायदों के बीच संसद के वित्त सम्बंधी स्थायी समिति ने जब यह खुलासा किया कि देष में कर दाताओं की सालाना बजट की आधी राषि जितना कर बकाया है तो सरकार की भी कलई खुली साथ ही बेसुध पड़े करदाताओं की पोल भी। सबसे बड़े कर सुधार की मषीनरी जीएसटी देष में बीते 1 जुलाई से लागू है। बावजूद इसके लोगों और कम्पनियों की ओर से फंसे हुए कर का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है। इतना ही नहीं जुलाई में 94 हजार करोड़ कर वसूला गया था जो लगातार गिरावट के साथ मौजूदा समय में 80 हजार करोड़ के इर्द-गिर्द है। वीरप्पा मोइली के अध्यक्षता वाली समिति ने यह चिंता जतायी है कि ज्यादातर कर की वसूली सम्भव नहीं दिख रही। जाहिर है ऐसा हुआ तो राजस्व विभाग बकाया कर के दुश्चक्र में फंस सकता है। बड़े इरादे और बड़े वायदे से परिपूर्ण मोदी सरकार देष में अच्छा खासा आर्थिक अनुप्रयोग के लिए जानी जाती है पर हर जगह सफल है ऐसा दिखता नहीं है। बकाया राषि के मामले में सरकार अपने तरह के कदम उठा रही है जैसे बैंक खातों को जब्त करना, चल-अचल सम्पत्ति की बिक्री, नीलामी व रिकवरी सर्वे साथ ही जानबूझकर कर न चुकाने पर अभियोजन की कार्यवाही भी षामिल है।  
आर्थिक बदलाव के इस दौर में दबाव किस पर नहीं है। बैंक फंसे लोन की उगाही में कर्जदारों पर दबाव बनाये हुए है और जनता सरकार की बदलती नीतियों और रोजमर्रा की चुनौतियों के दबाव से जूझ रही है। मकान, मोटरकार या किसी अन्य प्रकार के लोन की मासिक किस्त अर्थात् ईएमआई में बदलाव की आस लगाये लोग खुष हों या चिंतित उन्हें समझ में नहीं आ रहा है। बीते 5 अप्रैल को आरबीआई ने अपनी द्विमासिक नीतिगत दरों की समीक्षा में ब्याज दरों को यथावत रखा है। रेपो दर को 6 फीसदी पर जबकि रिवर्स रेपो दर 
5.75 फीसद पर यथावत बनाये रखा है। सीआरआर अर्थात् नकद आरक्षित अनुपात 4 फीसदी जबकि एसएलआर अर्थात् संविधिक तरलता अनुपात 19.5 फीसदी पर बना हुआ है। सवाल है कि जब सब कुछ यथावत है तो बदलाव किसके लिए हो रहा है। जो लोन धारक ईएमआई के कम होने की प्रतीक्षा में थे क्या इस दर से खुष होंगे सम्भव है कि बढ़ा नहीं इसलिए चिंतित नहीं है और घटा नहीं इसलिए खुष नहीं है। हालांकि रिजर्व बैंक ने इस साल महंगाई की दरों में कमी का अनुमान लगाया है जबकि विकास दर में बढ़ोत्तरी का अनुमान है। कहा तो यह भी जा रहा है कि इस साल देष में निर्यात और निवेष दोनों का इजाफा होगा। स्पश्ट है कि आर्थिकी तुलनात्मक गुणवत्ता के साथ बढ़ेगी पर सरकार इस बात का इरादा नहीं जता रही है कि जनता को महंगाई की मार से बचा ले जायेगी। रिज़र्व बैंक जो भी आंकलन दे रहा है वह दुनिया भर की अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेत है। चूंकि भारत में निर्यात और निवेष बढ़ेगा इसलिए बैंक ने इस वर्श 2018-19 में विकास दर 7.2 फीसदी से बढ़ाकर 7.4 फीसदी कर दिया है। आरबीआई ने भी यह आंकलन कर दिया है कि पहली छमाही में यह दर 7.3 से 7.4 रहेगा जबकि दूसरी छमाही में यह 7.6 फीसदी तक जा सकता है। सबके बावजूद यांत्रिक चेतना यह कहती है कि जनता को राहत मिलनी चाहिए जबकि सांख्यिकीय चेतना भारतीय अर्थव्यवस्था को नया आदर्ष प्रदान कर रही है। 
नीरव मोदी और विजय माल्या जैसे धन्ना सेठों के देष से भाग जाने और विदेषों में बसने से चिंतित केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड ने एक समिति गठित की है जो इस तरह के मामलों का अध्ययन करेगी और बकायों के वसूली की कार्य योजना तैयार करेगी। बैंकों की हालत इन लोगों की वजह से बहुत खराब हो गयी है जिसके चलते छोटे लोन धारक इन बैंकों की नजरों में चढ़े हुए हैं। नीरव मोदी और उसकी कम्पनियों पर पीएनबी के साथ 13 हजार करोड़ रूपए की धोखाधड़ी करने का आरोप है जबकि विजय माल्या पर 9 हजार करोड़ का कर्ज है। पीएनबी की हालत काफी अव्यवस्था के दौर से गुजर रही है। बैंक अपने फंसे कर्ज की वसूली के लिए हर सम्भव विकल्प तलाष रहे हैं। बैंक मैनेजर के केबिन में बैठकर काॅफी के साथ लोन गटकने वाले व्यापारी बैंकों को जो चूना लगाया है उससे आम खाताधारक बैंकों की मनमानी के चलते स्याह महसूस कर रहा है। यह बात बिल्कुल दुरूस्त है कि अर्थव्यवस्था पटरी पर भी होनी चाहिए और सरपट भी दौड़नी चाहिए पर महंगाई के इस दौर में आम जीवन हांफ रहा है जबकि सरकार आर्थिक नीतियों के मामले में सषक्त तो है पर तकनीकी तौर पर विफल भी दिख ही है।
सब्जी, फल, अण्डा, चीनी और दूध जैसी रोज़मर्रा की उपयोग की वस्तुएं अभी भी महंगाई के चरम पर ही हैं। अब तो पेट्रोल और डीजल की कीमत भी लोगों का तेल निकाल रही है। गौरतलब है कि बीते नवंबर में खुदरा महंगाई दर पिछले 15 महीने की तुलना में उच्चत्तम स्तर पर थी जो किसी भी सरकार के लिए अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता। रोचक यह भी है कि यूपीए सरकार के समय महंगाई पर छाती पीटने वाले यही भाजपाई आज इसलिए बढ़ी हुई महंगाई के बावजूद सुकून में है क्योंकि विपक्ष भी कान में तेल डालकर बैठा हुआ है। भारत के लोकतंत्र में सरकारों ने सचेतता का सिद्धांत तब अपनाया है जब सड़कों पर प्रदर्षन हुए हैं। गैस सलेंडर से लेकर हर खाने-पीने की चीज में आग लगी हुई है पर सब चुप हैं षायद इसी को मोदी और मजबूत सरकार कहते हैं। जब कभी यह सवाल मन में आये कि संवेदनषीलता और संवेदनहीनता में क्या अंतर है तो दो प्रकार की सरकारों की तरफ दृश्टि गड़ायी जा सकती है। एक वो जो महंगाई काबू रखने के साथ-साथ जनता की जेब और जीवन का ख्याल रखती है दूसरी वो जो इसके उलट होती है। हालांकि आरबीआई ने उम्मीद जतायी है कि महंगाई नहीं बढ़ेगी और विकास दर बढ़ेगा पर जनता की उम्मीदें हमेषा तार-तार हुई हैं इसलिए महंगाई का भार और दबाव से जनता तब तक चिंतित रहेगी जब तक ऐसा हो नहीं जाता। देष के बजट का आकार लगभग 25 लाख करोड़ रूपए का है और ठीक इसके आधा करीब 47 फीसदी बकाया फंसा हुआ है। प्रत्यक्ष कर को लेकर यह मामला 9 लाख करोड़ से ज्यादा का है जबकि अप्रत्यक्ष कर के मामले में यह करीब सवा दो लाख करोड़ से अधिक है। यह समझ नहीं आता कि आर्थिक मामले में कठोर कदम उठाने वाली सरकार यहां कैसे गच्चा खा रही है। साफ है सरकार का आर्थिक सुषासन हांफ रहा है और जनता महंगाई के चक्रव्यूह और व्यवस्था की मार से उबर नहीं पा रही है जबकि बैंक की जेब कटने से उन पर भारी दबाव है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Wednesday, April 11, 2018

भारत बंद मे सुशासन की खोज

यहां यह समझ लेना बहुत जरूरी है कि मनुश्य के विविध कार्यक्षेत्रों में भी विकास के लिए क्रान्तियों के जरिये रास्ता साफ होता रहा है पर यही विकास भारत बंद से मिलेगा षायद ही कोई समर्थन करे। वर्ग की परिभाशा और वर्गविहीन समाज की व्याख्या करने वाले लोगों की संख्या देष में कम नहीं है। जब हम यह कहते हैं कि स्वतंत्रता, समता और समरसता आदि के आदर्षों को हमें सिद्ध करना है तो हमारा अर्थ उस अर्थ से भिन्न होता है जो मुद्दों को उभार कर देष के लिए ही प्रतिरोधक बन जाते हैं और राजनीति करते हैं। गौरतलब है कि बीते 2 अप्रैल और 10 अप्रैल को यानी सप्ताह भर के भीतर दो बार भारत बंद हुआ। किसका भारत अधिक बंद था इस पर भी विमर्ष जारी है। जाहिर है भारत विविधता से भरा देष है पर यहां की एकता भी बेमिसाल है। इसी के बीच अपने-अपने हिस्से की लड़ाई भी यहां रही है। बरसों से संघर्श को बड़ा दिखाने के लिए भारत बंद करने की प्रथा रही है और उसी क्रम में यह बंद भी षामिल है पर इस पर भी मंथन होना चाहिए कि बंद क्यों था और हासिल क्या हुआ? 2 अप्रैल के भारत बंद के केन्द्र में एससी/एसटी एक्ट था। गौरतलब है सुप्रीम कोर्ट ने इस एक्ट में तत्काल एफआईआर और गिरफ्तारी की मनाही की बात कही थी जिसे लेकर वर्ग विषेश ने इसे अपने विरूद्ध समझा और संघर्श की जो सीमा हो सकती है वहां तक पहुंचने की कोषिष की जिसका नतीजा भारत बंद था। इस बंद से दस राज्य हिंसा की चपेट में आये आगजनी में अनेक पुलिसकर्मियों समेत सैकड़ों घायल हुए और दर्जन भर की जिन्दगी समाप्त हुई जबकि सैकड़ों हिरासत में भी लिए गये। 
2 अप्रैल के भारत बंद के प्रतिउत्तर में 10 अप्रैल को भी भारत बंद किया गया। पहला बंद जिस तरह सफलता के लिए जाना जाता है दूसरा वाला वैसा नहीं था। जाहिर है 10 अप्रैल के बंद को जनता ने नकार दिया। आंकड़े भी बताते हैं कि द्विज और दलित जातियों का यहां आंकड़ा 15 और 85 फीसदी में है। जाहिर है छोटे और बड़े बंद का असर इसके कारण भी सम्भव है। भले ही लोगों ने समझदारी दिखा कर 10 अप्रैल वाले भारत बंद को बेअसर कर दिया हो मगर बिहार के कुछ जिलों में बंद की आड़ में हिंसा हुई जबकि कई राज्यों में एहतियात और सतर्कता के नाम पर जीवन अस्त-व्यस्त रहा। ऐसा नहीं है कि इसमें तकलीफ जनता को ही हुई है बल्कि सुरक्षा बलों को भी अकारण परेषानी का सामना करना पड़ा है। ज्यादातर इलाकों में धारा 144 लागू की गयी थी यह बंद 2 अप्रैल के बंद की तुलना में न तो उतना हिंसक था और न ही उतना सार्थक। यहां दो दुविधा है पहला यह कि भारत बंद के दौरान यदि हिंसा से देष जले और नागरिक इसके षिकार हों साथ ही पूरी व्यवस्था चैपट हो जाय तो क्या इसे बड़ा बंद कहेंगे जबकि दूसरी दुविधा ये है कि देष के संविधान के सीमाओं को ध्यान में रखते हुए बिना व्यवस्था को बिगाड़े और देष की दुर्दषा किये बिना आंदोलन बड़ा हो जाय तो इसे बड़ा संघर्श कहेंगे। यदि इन दोनों में किसी एक का चुनाव करना हो तो षायद दूसरे बंद के प्रति आकर्शण अधिक होगा। हालांकि बंद कैसा भी हो यदि भारत बंद है तो कहीं से उचित नहीं कहा जा सकता भले ही सरकार या अदालत ऐसे दबाव से निर्णय ही क्यों न लेती हों। समाज में इसका इस तरह के संदर्भ का प्रत्येक अपने तरीके से अर्थ निकालेंगे। अमन पसंद लोग न तो सनसनी चाहेंगे और न ही देष में संकट साथ ही अफवाहों से भी गुरेज रखते हैं। यही तमाम कारण हैं कि 10 अप्रैल के बंद को जनता ने नकारा और यह भी चेताने की कोषिष की कि समस्या का हल का कुछ और विकल्प हो सकता है। इसमें भी दुविधा नहीं कि करोड़ों की तादाद में बेरोजगार युवा हैं जो खाली हैं और किसी भी आंदोलन को ताकत भी दे सकते हैं और दुरूपयोग भी कर सकते हैं। 
विदित हो कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के सम्बंध में बीते 20 मार्च को देष की षीर्श अदालत के फैसले के विरोध में दलित और आदिवासी संगठनों के तरफ से आयोजित भारत बंद का असर व्यापक रहा है मगर षान्तिपूर्ण कतई नहीं। उत्तर प्रदेष, मध्य प्रदेष, राजस्थान, बिहार, पंजाब, गुजरात और हरियाणा समेत कई प्रान्त हिंसा और आगजनी के षिकार हुए। बसें जलाई गयीं, निजी वाहन भी आग के हवाले किये गये और रेल सम्पत्ति को भी नुकसान पहुंचाया गया। ट्रेनें क्षतिग्रस्त भी हुईं और लेटलतीफ भी। गौरतलब है कि एससी/एसटी एक्ट 1989 के तहत तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगाने और अग्रिम जमानत रोक लगाने का फैसला वर्ग-विषेश को पचा नहीं। निहित संदर्भ यह भी है कि दलित हों या चाहे समाज के अन्तिम पायदान पर खड़ा अन्य तबका उनके मामले पर भारत बंद का समर्थन किया जा सकता है क्योंकि लोकतंत्र में किसी फैसले का विरोध करने का अधिकार नागरिकों को है पर जब कानून अपने हाथ में लेते हैं और सार्वजनिक सम्पत्ति को तहस-नहस करते हैं तब यह संविधान के लिए चुनौती बन जाती है। भले ही ऐसा करने से इसकी सफलता दर ही क्यों न बढ़ती हो। गौरतलब है कि अदालत का मकसद कानून के दुरूपयोग को रोकना मात्र है। कोर्ट ने कहा है कि वे बेगुनाहों के लिए चिंतित है और झूठी षिकायत पर किसी बेगुनाह को जेल नहीं जाना चाहिए। जेल जाना भी एक दण्ड है, अनुच्छेद 21 में मिले जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार पर विचार करते हुए अदालत ने बेगुनाहों को बचाने के लिए ऐसा फैसला दिया। फिलहाल वर्ग विषेश के विरोध को देखते हुए कह सकते हैं कि फैसले का संकेत उन तक वैसा नहीं पहुंचा जैसा न्यायालय पहुंचाना चाहता था। दो टूक यह भी है कि इसमें राजनीति भी खूब हुई है नहीं तो किसकी मजाल कि सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ भारत बंद करे। हालांकि लोकतंत्र है आवाज नहीं दबाई जा सकती।
भारत की सामाजिकी और वर्ग संरचना हजारों वर्श पुरानी है। समाजषास्त्रीय दृश्टिकोण यह इषारा तो करते हैं कि सवर्णों को और मानवीय होना चाहिए। जब तक इस देष के सवर्ण जातियों में रत्ती भर भी इसकी गिरावट बनी रहेगी दलितों को अपमान और अनादर होने की सम्भावना बरकरार रह सकती है। आरोप यह भी रहता है कि सरकारी दफ्तर से लेकर स्कूल, काॅलेज समेत विभिन्न संस्थाओं में सवर्णों का ही बोलबाला है और दलित भेदभाव के षिकार होते रहे हैं। यह एक सामाजिक अत्याचार तो है और सामाजिक दुराव भी पर इस मामले में केवल सवर्णों को ही दोशी ठहरा देना पूरा न्याय नहीं है। कानूनों की आड़ में कुछ लोगों में बदले की भावना से भी ज्याद्तियां हुई हैं एससी/एसटी एक्ट इससे जुदा नहीं है। सभी इस बात से वाकिफ हैं कि 1961 के दहेज एक्ट के दुरूपयोग की बात होती रही है। इसकी आड़ में कुछ ने ससुराल पक्ष के सभी सदस्यों को भी जेल भिजवाया है। बहरहाल खास यह भी है कि एससी/एसटी एक्ट के इर्द-गिर्द दलित राजनीति भी उभरी है और इसमें संषोधन को लेकर जो प्रसंग आया वह भी कहीं से गैरवाजिब नहीं है। भारत सुषासन से भरा देष है जिसकी परिभाशा ही लोक प्रवर्धित अवधारणा से प्रेरित है जिसके केन्द्र में आर्थिक और सामाजिक न्याय निवास करता है। जाहिर है भारत बंद व्यवस्था को षून्य की ओर धकेलता है जबकि समस्या का हल षिखर की ओर ले जाता है। जो भारत बंद में सुषासन खोज रहे हैं वो सियासत कर रहे हैं और कुछ हद तक देष की षक्ल बिगाड़ रहे हैं। बावजजूद इसके यह बात सभी को सोचना है कि जो उन्हें अच्छा नहीं लगता वो षायद दूसरों को भी अच्छा नहीं लगता। अगर 2 अप्रैल का भारत बंद एक वर्ग-विषेश को अच्छा नहीं लगा तो 10 अप्रैल वाला भी दूसरे वर्ग को अच्छा नहीं लगा होगा।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Tuesday, April 10, 2018

विमर्श की ज़मीन पर भारत-नेपाल

परिस्थितियां बदल चुकी हैं अब अनिवार्यताओं की परिभाशा भी बदल चुकी है इसलिए नीतियों के फेरबदल भी अनिवार्य हो चलें हैं। इतना ही नहीं द्विपक्षीय सम्बंधों का संदर्भ कितना भी सषक्त क्यों न हो पर सत्ता व सत्ताधारक बदलते हैं तो कूटनीति को नये सिरे से साधना ही पड़ता है। प्रधानमंत्री मोदी के लगभग चार साल के षासनकाल में नेपाल में कई प्रधानमंत्री आये और गये जबकि भारत की तरफ से यही कोषिष रही कि सम्बंध नैसर्गिक मित्रता का रूप लिये रहें। पड़ताल बताती है कि प्रत्येक सत्ताधारकों के साथ सम्बंध में नये सिरे से गर्मजोषी भरने का काम भारत को करना पड़ा है। गौरतलब है बीते महीने नेपाल की सत्ता एक बार फिर परिवर्तित हुई फलस्वरूप भारत और नेपाल के मिलने-जुलने का सिलसिला एक बार फिर आगे बढ़ना था। नेपाल के चीन के पाले में जाने की षंका के बीच वहां के प्रधानमंत्री केपी षर्मा ओली ने अपनी पहली विदेष यात्रा के लिए नई दिल्ली को चुना। स्पश्ट है कि वह संकेत देना चाहते हैं कि सम्बंध सुधारने को लेकर वे वैसे ही इच्छुक हैं जैसे भारत रहा है। स्थिर और व्यापक बहुमत वाली ओली सरकार के साथ भारत ने भी न केवल परिपक्वता दिखाई है बल्कि एक मजबूत पड़ोसी और नेपाल के लिए बड़े भाई की भूमिका को उजागर भी किया है। नेपाल में चीन का दखल बढ़ रहा है मगर एक सच्चाई यह है कि काठमाण्डू दिल्ली की सच्चाई को नजरअंदाज नहीं कर सकता और न ही दूर जाने का कोई जोखिम उठा सकता है। 
गौरतलब है कि नेपाल के प्रधानमंत्री केपी ओली 6 से 8 अप्रैल तक भारत के दौरे पर थे और वह किसी भी नेपाली प्रधानमंत्री द्वारा पद ग्रहण करने के बाद विदेष दौरों की षुरूआत भारत से करने की परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं हालांकि इसके पहले जब वे 2015 में सुषील कोइराला के बाद नेपाल के प्रधानमंत्री का पदभार संभाला तब उन्होंने अपनी पहली यात्रा 2016 में बीजिंग से षुरू करके यह जताने की कोषिष की थी कि भारत के साथ सब कुछ ठीक नहीं है। इसके पीछे मूल कारण नेपाली संविधान के लागू होने के चलते मधेषी आंदोलन था। दरअसल पौने तीन करोड़ के नेपाल में सवा करोड़ की आबादी मधेषियों की है जो भारतीय मूल के हैं जिनकी यह षिकायत थी कि उनके साथ संविधान में भेदभाव बरता गया है। इसे लेकर भारत की ओर से नरम और सकारात्मक टिप्पणी हुई थी कि नेपाल इस पर न्यायिक रूख अपनाये और इसी बात को ओली नेपाल में भारत के दखल के रूप देख लिया साथ ही तराई के इलाके में मधेषियों के द्वारा रसद सामग्री को रोके जाने से नेपाल के अंदर जो दिक्कतें आयी उसके लिये भी भारत को ही जिम्मेदार मान लिया जिसके चलते वे तिलमिलाकर बीजिंग से अपनी यात्रा षुरू की जो परम्परा के उलट थी। गौरतलब है कि मोदी सरकार नेपाल सहित अन्य सभी सार्क देषों के साथ सम्बंध मजबूत करने के कई महत्वपूर्ण प्रयास किये हैं। अगस्त 2014 में मोदी दो बार नेपाल भी गये थे। जब अप्रैल 2015 में नेपाल भूकम्प की चपेट में आया तब भारत पहला देष था जिसने सहायता सामग्री समेत राहत और बचाव से नेपाल को विपदा से बाहर निकालने के लिए पूरी ताकत झोंक दी पर दुर्भाग्य से भारत के इस सहयोगात्मक व्यवहार को नेपाल ने विपरीत संदर्भों में भी देखा हालांकि बाद में सब कुछ ठीक हो गया था।
भारत एवं नेपाल में सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर जिस भांति निकटता है वैसी कहीं और नहीं। दोनों देषों के बीच रोटी और बेटी का सम्बंध भी रहा है। यात्रा के दौरान नेपाली प्रधानमंत्री ओली ने पुराने सम्बंधों को नई ताकत देने की जरूरत बताई और कहा कि खुषहाली और गरीबी दूर करने के लिए मिलकर काम करेंगे। मुख्य रूप से कृशि के विकास में यह सम्बंध अधिक उपजाऊ माना जा रहा है। 2016 में ओली की नई दिल्ली की यात्रा आज की यात्रा से काफी भिन्नता लिये हुए थी। जैसा कि विदित है कि बीजिंग के बाद ओली दिल्ली आये थे स्वाभाविक है कि परिपक्वता का आभाव नेपाली प्रधानमंत्री में झलका था जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने आड़े हाथ भी लिया था। कई दौर ऐसे भी आये हैं जब यह आरोप भारत पर लगाया जा सकता है कि उसने नेपाली लोगों की सदभावना खोयी है परन्तु राजनीतिक और कूटनीतिक तौर पर देखें तो यह सही नहीं है। जिस तर्ज पर भारत नेपाल के लिए झुकाव रखता है ठीक उसी तर्ज पर नेपाल भी झुकता है पूरे मन से नहीं कहा जा सकता। इसके पीछे कारण समय-समय पर नेपाल का चीन की ओर झुकाव रहा। बावजूद इसके भारत ने कभी नेपाल को झुका हुआ राश्ट्र या कमजोर राश्ट्र की हैसियत से नहीं निहारा और न ही कभी सामरिक दृश्टि से नेपाल को पोशित करने की कोषिष की जबकि चीन नेपाल को लेकर कुछ इसी प्रकार की सोच रखता है। देखा जाय तो नेपाल भारत के लिए बफर स्टेट का भी काम करता है। चीन नेपाल में किसी भी तरह भारत को पीछे छोड़ते हुए स्वयं को स्थापित करना चाहता है। प्रधानमंत्री मोदी की पड़ोसवाद की अवधारणा को उस कथन से भी आंका जा सकता है। जब अगस्त 2014 में नेपाल यात्रा के दौरान उन्होंने कहा था कि दो पड़ोसी देषों के बीच सीमा को पुल का काम करना चाहिए न कि बाधा का। चीन एक के बाद एक दक्षिण एषियाई देषों में अपनी दखल बढ़ा रहा है। वहीं भारत दूसरों की सम्प्रभुता की आज भी चिंता कर रहा है। 
पिछले चार सालों में भारत-नेपाल रिष्ते में काफी खटास भी रही है जिसे गम्भीरता से सुधारने की जरूरत है। भारत ने 1950 की उस द्विपक्षीय संधि की समीक्षा की मांग पर हामी भरकर बेहतर संकेत दे दिये हैं जिसे न केवल नेपाल बल्कि वहां के कुछ वर्ग विषेश के लोग भी एकतरफा और अन्यायपूर्ण कहते रहे। प्रधानमंत्री मोदी का सौहार्द्रपूर्ण दृश्टिकोण भी पड़ोसियों का मान बढ़ाया है पर चीन की विस्तारवादी और दखल देने वाली नीति ने पड़ोसियों को कहीं न कहीं दुविधाओं से भी भरा है। भूटान में इन दिनों डोकलाम विवाद के चलते चीन नये तरीके से डोरे डाल रहा है जबकि बांग्लादेष के साथ नये रिष्ते का आसार पैदा कर रहा है और मालदीव को तो चीन ने उसे इतना कर्जदार बना दिया है कि वह इस समय भारत की तरफ देखना मुनासिब नहीं समझ रहा जबकि वह इन दिनों संकट से जूझ रहा है रही बात नेपाल की तो यहां भी चीन लोभ और लालच का पासा फेंकता रहता है। दक्षिण एषियाई देषों का संगठन सार्क मानो अप्रासंगिक हो गया हो जिसके चलते संगठन एक रस्मअदायगी का केन्द्र बना हुआ है और इसके सदस्य कुछ हद तक छिन्न-भिन्न दिखाई दे रहे हैं। यह बात पूरे षिद्दत से कही जा सकती है कि भारत अपनी क्षमता के अनुपात में पड़ोसियों की आर्थिक मदद करता रहा है बावजूद इसके पड़ोसी देष चीन के प्रभाव में भारत के साथ कुछ ठण्डी तो कुछ गरम कूटनीति करते रहे हैं। पाकिस्तान तो चीन की गोद में ही बैठा है जबकि श्रीलंका में भी चीन की सक्रियता देखी जा सकती है। फिलहाल नेपाल के प्रधानमंत्री ओली का भारत के साथ द्विपक्षीय वार्ता हर हाल में अच्छा कदम कहा जायेगा। नेपाल के लोगों के साथ सम्पर्क बढ़ाने, थोक में माल की आवाजाही के लिए बिहार के रक्सौल से नेपाल की राजधानी काठमाण्डू के बीच रेल सम्पर्क का निर्माण करने इतना ही नहीं आर्थिक वृद्धि और विकास का तेज करने को लेकर जो एकजुटता दिखाई गयी है जो हर हाल में फायदेमंद है। इतिहास और राजनीतिषास्त्र के साथ कूटनीतिषास्त्र के तहत भी देखें तो दोनों देषों के बीच सम्बंध प्राचीन भी हैं और समकालीन भी भले ही उतार-चढ़ाव रहे हों।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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मौजूदा अर्थव्यवस्था की दिशा एवम दशा

जब प्रश्न आर्थिक होते हैं तो वे गम्भीर होते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि सामाजिक उत्थान और विकास के लिए इस पहलू को सषक्त करना पड़ता है। बीते कुछ वर्शों से आर्थिक वृद्धि को लेकर तरह-तरह की कोषिषें की जा रही हैं मसलन काले धन पर चोट, नोटबंदी और जीएसटी जैसे संदर्भ भारत के आर्थिक वातावरण में देखे जा सकते हैं। कहां कितनी सफलता मिली यह बड़ा सवाल है साथ ही इन तमाम कोषिषों से देष कितना आगे बढ़ा प्रष्न तो यह भी उठ रहा है। सरकार की ओर से कर सुधार के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया जा चुका है। तमाम कवायदों के बीच संसद के वित्त सम्बंधी स्थायी समिति ने जब यह खुलासा किया कि देष में कर दाताओं की सालाना बजट की आधी राषि जितना कर बकाया है तो सरकार की भी कलई खुली साथ ही बेसुध पड़े करदाताओं की पोल भी। सबसे बड़े कर सुधार की मषीनरी जीएसटी देष में बीते 1 जुलाई से लागू है। बावजूद इसके लोगों और कम्पनियों की ओर से फंसे हुए कर का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है। इतना ही नहीं जुलाई में 95 हजार करोड़ कर वसूला गया था जो लगातार गिरावट के साथ मौजूदा समय में 80 हजार करोड़ के इर्द-गिर्द है। वीरप्पा मोइली के अध्यक्षता वाली समिति ने यह चिंता जतायी है कि ज्यादातर कर की वसूली सम्भव नहीं दिख रही। जाहिर है ऐसा हुआ तो राजस्व विभाग बकाया कर के दुश्चक्र में फंस सकता है। बड़े इरादे और बड़े वायदे से परिपूर्ण मोदी सरकार देष में अच्छा खासा आर्थिक अनुप्रयोग के लिए जानी जाती है पर हर जगह सफल है ऐसा दिखता नहीं है। बकाया राषि के मामले में सरकार अपने तरह के कदम उठा रही है जैसे बैंक खातों को जब्त करना, चल-अचल सम्पत्ति की बिक्री, नीलामी व रिकवरी सर्वे साथ ही जानबूझकर कर न चुकाने पर अभियोजन की कार्यवाही भी षामिल है।  
आर्थिक बदलाव के इस दौर में दबाव किस पर नहीं है। बैंक फंसे लोन की उगाही में कर्जदारों पर दबाव बनाये हुए है और जनता सरकार की बदलती नीतियों और रोजमर्रा की चुनौतियों के दबाव से जूझ रही है। मकान, मोटरकार या किसी अन्य प्रकार के लोन की मासिक किस्त अर्थात् ईएमआई में बदलाव की आस लगाये लोग खुष हों या चिंतित उन्हें समझ में नहीं आ रहा है। बीते 5 अप्रैल को आरबीआई ने अपनी द्विमासिक नीतिगत दरों की समीक्षा में ब्याज दरों को यथावत रखा है। रेपो दर को 6 फीसदी पर जबकि रिवर्स रेपो दर 
5.75 फीसद पर यथावत बनाये रखा है। सीआरआर अर्थात् नकद आरक्षित अनुपात 4 फीसदी जबकि एसएलआर अर्थात् संविधिक तरलता अनुपात 19.5 फीसदी पर बना हुआ है। सवाल है कि जब सब कुछ यथावत है तो बदलाव किसके लिए हो रहा है। जो लोन धारक ईएमआई के कम होने की प्रतीक्षा में थे क्या इस दर से खुष होंगे सम्भव है कि बढ़ा नहीं इसलिए चिंतित नहीं है और घटा नहीं इसलिए खुष नहीं है। हालांकि रिजर्व बैंक ने इस साल महंगाई की दरों में कमी का अनुमान लगाया है जबकि विकास दर में बढ़ोत्तरी का अनुमान है। कहा तो यह भी जा रहा है कि इस साल देष में निर्यात और निवेष दोनों का इजाफा होगा। स्पश्ट है कि आर्थिकी तुलनात्मक गुणवत्ता के साथ बढ़ेगी पर सरकार इस बात का इरादा नहीं जता रही है कि जनता को महंगाई की मार से बचा ले जायेगी। रिज़र्व बैंक जो भी आंकलन दे रहा है वह दुनिया भर की अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेत है। चूंकि भारत में निर्यात और निवेष बढ़ेगा इसलिए बैंक ने इस वर्श 2018-19 में विकास दर 7.2 फीसदी से बढ़ाकर 7.4 फीसदी कर दिया है। आरबीआई ने भी यह आंकलन कर दिया है कि पहली छमाही में यह दर 7.3 से 7.4 रहेगा जबकि दूसरी छमाही में यह 7.6 फीसदी तक जा सकता है। सबके बावजूद यांत्रिक चेतना यह कहती है कि जनता को राहत मिलनी चाहिए जबकि सांख्यिकीय चेतना भारतीय अर्थव्यवस्था को नया आदर्ष प्रदान कर रही है। 
नीरव मोदी और विजय माल्या जैसे धन्ना सेठों के देष से भाग जाने और विदेषों में बसने से चिंतित केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड ने एक समिति गठित की है जो इस तरह के मामलों का अध्ययन करेगी और बकायों के वसूली की कार्य योजना तैयार करेगी। बैंकों की हालत इन लोगों की वजह से बहुत खराब हो गयी है जिसके चलते छोटे लोन धारक इन बैंकों की नजरों में चढ़े हुए हैं। नीरव मोदी और उसकी कम्पनियों पर पीएनबी के साथ 13 हजार करोड़ रूपए की धोखाधड़ी करने का आरोप है जबकि विजय माल्या पर 9 हजार करोड़ का कर्ज है। पीएनबी की हालत काफी अव्यवस्था के दौर से गुजर रही है। बैंक अपने फंसे कर्ज की वसूली के लिए हर सम्भव विकल्प तलाष रहे हैं। वे न केवल अनाप-षनाप कटौती कर रहे हैं बल्कि कभी मिनिमम बैलेंस के नाम पर तो कभी एटीएम के अधिक प्रयोग या खाते में राषि के लेनदेन की मात्रा पर भी अपनी जेब भर रहे हैं। इतना ही नहीं चेक बाउंस की स्थिति में काटी जाने वाली राषि में बढ़ोत्तरी देखी जा सकती है। बैंक मैनेजर के केबिन में बैठकर काॅफी के साथ लोन गटकने वाले व्यापारी बैंकों को जो चूना लगाया है उससे आम खाताधारक बैंकों की मनमानी के चलते स्याह महसूस कर रहा है। यह बात बिल्कुल दुरूस्त है कि अर्थव्यवस्था पटरी पर भी होनी चाहिए और सरपट भी दौड़नी चाहिए पर महंगाई के इस दौर में आम जीवन हांफ रहा है जबकि सरकार आर्थिक नीतियों के मामले में सषक्त तो है पर उदार नहीं दिख रही है।
सब्जी, फल, अण्डा, चीनी और दूध जैसी रोज़मर्रा की उपयोग की वस्तुएं अभी भी महंगाई के चरम पर ही हैं। गौरतलब है कि बीते नवंबर में खुदरा महंगाई दर पिछले 15 महीने की तुलना में उच्चत्तम स्तर पर थी जो किसी भी सरकार के लिए अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता। रोचक यह भी है कि यूपीए सरकार के समय महंगाई पर छाती पीटने वाले यही भाजपाई आज इसलिए बढ़ी हुई महंगाई के बावजूद सुकून में है क्योंकि विपक्ष भी कान में तेल डालकर बैठा हुआ है। भारत के लोकतंत्र में सरकारों ने सचेतता का सिद्धांत तब अपनाया है जब सड़कों पर प्रदर्षन हुए हैं। गैस सलेंडर से लेकर हर खाने-पीने की चीज में आग लगी हुई है पर सब चुप हैं षायद इसी को मोदी और मजबूत सरकार कहते हैं। जब कभी यह सवाल मन में आये कि संवेदनषीलता और संवेदनहीनता में क्या अंतर है तो दो प्रकार की सरकारों की तरफ दृश्टि गड़ायी जा सकती है। एक वो जो महंगाई काबू रखने के साथ-साथ जनता की जेब और जीवन का ख्याल रखती है दूसरी वो जो इसके उलट होती है। हालांकि आरबीआई ने उम्मीद जतायी है कि महंगाई नहीं बढ़ेगी और विकास दर बढ़ेगा पर जनता की उम्मीदें हमेषा तार-तार हुई हैं इसलिए महंगाई का भार और दबाव से जनता तब तक चिंतित रहेगी जब तक ऐसा हो नहीं जाता। देष के बजट का आकार लगभग 25 लाख करोड़ रूपए का है और ठीक इसके आधा करीब 47 फीसदी बकाया फंसा हुआ है। प्रत्यक्ष कर को लेकर यह मामला 9 लाख करोड़ से ज्यादा का है जबकि अप्रत्यक्ष कर के मामले में यह करीब सवा दो लाख करोड़ से अधिक है। यह समझ नहीं आता कि आर्थिक मामले में कठोर कदम उठाने वाली सरकार यहां कैसे गच्चा खा रही है। साफ है सरकार कर वसूली और आर्थिक नीतियों के अनुप्रयोग के चलते दबाव में है। बैंक एनपीए के कारण दबाव और प्रभाव से मुक्त नहीं है जबकि जनता जीवन की कसौटी पर खरी नहीं उतर पा रही है इसलिए कहीं अधिक दबाव में है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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जब शिक्षा मूल अधिकार तो रुकावट क्यों !

ऐसा लगता है कि भविश्य में बुनियादी षिक्षा को लेकर और अधिक सषक्त कदम उठाने पड़ेंगे। बच्चों को षिक्षा देना किसकी जिम्मेदारी है यह संविधान ने तय किया है और यह भी तय किया है कि 14 बरस से कम उम्र के बच्चे षिक्षा जैसी अनिवार्यता से युक्त होंगे। सवाल है कि जब षिक्षा मूल अधिकार तो रूकावट कहां है! भारी-भरकम षैक्षणिक परिसर बेषक षिक्षा देने के उपक्रम हों और फैक्ट्रियों की भांति संचालित होते हों पर यह बात कभी गले नहीं उतर सकती कि बड़ी राषि खर्च करने वाले ही इसका लाभ लेंगे। षैक्षिक पूंजीवाद के पर्दापण के साथ षिक्षा का समाजवाद जाहिर है धुरी पर सरलता से नहीं घूम रहा है। षिक्षा के क्षेत्र में फीस की बढ़ी हुई ऊंची दर कईयों को इससे वंचित भी रख रही है जो कहीं से न तो संवैधानिक है और न ही संवेदनषील। गौरतलब है कि प्रत्येक वर्श इन दिनों यह विमर्ष उठ खड़ा होता है कि किताबें महंगी हुई हैं, फीस पहले से अधिक हो गयी है साथ ही एडमिषन की मारामारी अलग से बनी हुई है। जिस तरह षिक्षा पर आर्थिक बोझ पड़ रहा है और अभिभावकों को इसकी कठिनाई से जूझना पड़ रहा है उससे साफ है कि हम दो अवसर खो रहे हैं एक आने वाले समय के लिए सजग और सफल  नागरिक तो दूसरा विष्व से मिलने वाली चुनौतियों से निपटने की ताकत। कुल मिलाकर षैक्षिक स्वतंत्रता और इसकी अनिवार्यता को न तो समाप्त किया जा सकता है और न ही इस पर कोई रूकावट पैदा की जा सकती है। षायद यही वजह है कि उत्तर प्रदेष सरकार ने मनमानी फीस पर लगाम लगाने का कानून बनाने का निर्णय लिया है। 
उत्तर प्रदेष में योगी आदित्यनाथ की अध्यक्षता में बीते 3 अप्रैल को कैबिनेट की बैठक ने प्राइवेट स्कूलों की फीस वसूली को लेकर एक अहम प्रस्ताव को मंजूरी दी गयी। इसके जरिये अब प्रदेष के अभिभावकों को बड़ी राहत मिलेगी। इस फैसले में एक दर्जन प्रमुख बातें हैं जो उत्तर प्रदेष के निजी स्कूलों के लिए भले ही चिंता का विशय हो सकता है परन्तु प्रदेष की षिक्षा व्यवस्था के लिए सुखद कहा जायेगा। साल भर की फीस एक साथ लेने की पाबंदी और हर साल फीस बढ़ाने पर रोक साथ ही 12वीं तक की पढ़ाई में केवल एक ही बार एडमिषन फीस ली जा सकती है। अगर स्कूल फीस बढ़ाना चाहते हैं तो अध्यापकों के वेतन वृद्धि के आधार पर ही ऐसा सम्भव होगा और वो भी 7 से 8 फीसदी से अधिक नहीं होगा। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेष ही नहीं उत्तराखण्ड व दिल्ली समेत कई राज्यों में निजी स्कूलों की मनमानी 7वें आसमान पर पहुंच गयी है। फीस में बेतहाषा वृद्धि से अभिभावक न केवल चिंतित रहे हैं बल्कि इसे कम कराने को लेकर आंदोलन भी खड़ा करते रहे हैं। बावजूद इसके स्कूल टस से मस नहीं हुए हैं। उत्तर प्रदेष की योगी सरकार ने इस दिषा में एक बेहतरीन कदम तो उठाया है। इससे न केवल अभिभावकों को राहत मिलेगी बल्कि अनमोल षिक्षा पर भी लगता ग्रहण छंटेगा। छोटी उम्र में बड़ी फीस चुकाने वाले विद्यार्थी भी सुकून महसूस करेंगे। कैबिनेट के प्रस्ताव में खास यह भी है कि अधिकांष स्कूल अपने यहां कमर्षियल एक्टिविटी करते हैं उसकी आय उन्हें स्कूल की आय में दिखाना होगा। जाहिर है इससे स्कूल की आय बढ़ जायेगी। गौरतलब है कि अभी तक स्कूल यह कहते थे कि स्कूल की आय कम है। प्रस्ताव में इस बात का भी उल्लेख है कि स्कूलों को सभी खर्चे वेबसाइट पर प्रदर्षित करना होगा। निर्धारित दुकान से किताब और यूनिफाॅर्म खरीदने की बाध्यता अब नहीं होगी। उपरोक्त से यह परिलक्षित होता है कि बरसों की षिकायत को योगी सरकार ने समेटते हुए स्कूलों की मनमानी पर चाबुक चलाया है। 
बच्चों को पढ़ाना बच्चों का खेल कतई नहीं है। देष में बहुत कम ऐसे माता-पिता होंगे जिन्हें बच्चों के स्कूल की फीस की चिंता न होती हो। भारत में देहरादून स्कूली षिक्षा के लिए कहीं अधिक महत्वपूर्ण समझा जाता रहा है जो समस्या उत्तर प्रदेष में है उससे उत्तराखण्ड जुदा नहीं है दूसरे षब्दों में कहें षायद देष का कोई कोना इस समस्या से मुक्त नहीं है। 10 से 20 फीसदी फीस में वृद्धि बड़ी सरल बात है। फीस की स्लिप जब अभिभावकों के हाथ आती है तब माथे पर लकीर बनती है और मन छटपटा कर रह जाता है। बच्चे पढ़ाने हैं तो जेब कटवाने के लिए तैयार रहें और स्वयं पेट काट-काट कर ऐसा करें। कभी-कभी तो लगता है कि आखिर स्कूल अब षिक्षा केन्द्रों की जगह फैक्ट्रियों की तरह क्यों हो गये हैं। ऐसोचेम की रिपोर्ट से यह पता चलता है कि 2005 से 2015 के बीच स्कूल फीस में 150 फीसदी का इजाफा हुआ है और स्कूल पर सालाना खर्च 55 हजार से एक लाख 25 हजार अभिभावक कर रहे हैं। जाहिर है ज्यादा फीस बड़ी मुसीबत तो है। उत्तर प्रदेष ने जो कदम उठाया है नया नहीं पर बड़ा जरूर है। गुजरात में ज्यादा फीस वसूलने वाले निजी स्कूल भी अब इसकी जद में आ सकते हैं। यहां राज्य सरकार के नये नियम के मुताबिक 27 हजार रूपये से ज्यादा सालाना फीस नहीं लिया जा सकता। उत्तराखण्ड में पिछले वर्श सरकार ने फीस का स्तर तय करने की कोषिष की थी परन्तु उसका निश्पादन आज भी खटाई में है ओर बेधड़क स्कूल फीस से लेकर किताब और तमाम क्षेत्रों में मनमानी पर आज भी उतारू हैं। आंकड़े तो यह भी बताते हैं कि निजी स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकतर विद्यार्थी और उनके अभिभावक फीस को लेकर असंतुश्ट रहते हैं। खास यह भी है कि फीस की तुलना में सुविधायें भी नहीं होती। होमवर्क के मामले में बच्चे दबे रहते हैं और माता-पिता इस औपचारिकता को पूरी करने में तनावग्रस्त रहते हैं। हिंदी की बिंदी गलत हो जाये तो अंक पूरे कटेंगे और बच्चे अनुषासन से जरा भी बाहर हों तो नोटिस अभिभावकों को पकड़ा दी जाती है। दूसरे षब्दों में कहा जाय तो कई जिम्मेदारियां जो स्कूल को नैतिकता के नाते उठाना चाहिए उससे वो दरकिनार होते हैं पर फीस वसूलने में मानो साहूकार हो।
निजी स्कूलों की दाखिले वाली प्रक्रिया भी बहुत कठिन है। जिन बच्चों को स्कूलों में दाखिला देने से रोका गया है उसकी वजह केवल यही नहीं है कि उनमें कोई कमी है बल्कि सच तो यह है कि स्कूल कितना भी बड़ा क्यों न हो सभी को प्रवेष नहीं दे सकता। सच्चाई यह भी है कि बच्चे में योग्यता भरनी है न कि वह पहले से योग्य है। ऐसा भी देखा गया है कि इस छंटाई के पीछे अभिभावकों की कमजोर आर्थिक स्थिति भी रही है। ऐसा नहीं है कि निजी स्कूल बच्चों में बेहिसाब योग्यता भर रहे हैं सरकार की गलतियों का ही खामियाजा है कि अनगिनत निजी स्कूलों ने जड़ें जमा ली। सरकारी स्कूलों की निरन्तर हो रही खस्ता हाल ने अभिभावकों को निजी स्कूल में बच्चों को भर्ती करने के लिए मजबूतर किया जबकि सरकारी स्कूल उन तमाम संसाधनों और सुविधाओं से युक्त रहे हैं जो षिक्षा और स्वास्थ के लिए जरूरी होता था। षहरीकरण ने सरकारी स्कूलों को ध्वस्त किया है और निजी स्कूलों का विस्तार किया है। अंकों के खेल ने भी निजी स्कूलों की ओर आकर्शण पैदा किया है। किसी भी षहर में सबसे अच्छा स्कूल कौन है इसका अंदाजा एडमिषन फाॅर्म लेते समय वहां की लम्बी लाइन से पता किया जा सकता है। फिलहाल देष की जनसंख्या बढ़ी है, षिक्षा लेने वाले भी बढ़ रहे हैं जाहिर है षिक्षा का बाजार भी समानांतर ही बढ़ रहा है। पढ़ना सभी के लिए अनिवार्य है ऐसे में स्कूलों में प्रवेष हर हाल में चाहिए। षायद यही वजह है कि स्कूल अभिभावकों की कमजोरी जानते हैं और मनमानी करते हैं। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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