Wednesday, June 29, 2016

बदलते दौर की बानगी

पुराने अनुभवों के आधार पर यह आंकलन कि पहले भारत को दुनिया के चुनिंदा समूहों से बाहर रखने की कोषिष होती थी, उक्त कथन सौ फीसदी की सत्यता लिए हुए है। जब वर्श 1974 में पोखरण परमाणु परीक्षण हुआ तब परमाणु आपूर्तिकत्र्ता समूह से बाहर रखने के लिए एक समूह बनाया गया। इतना ही नहीं 1981-82 के दिनों में भारत के समेकित मिसाइल कार्यक्रमों के तहत नाग, पृथ्वी, अग्नि जैसे मिसाइल कार्यक्रम का जब प्रकटीकरण हुआ और इस क्षेत्र में मिली भरपूर सफलता के बाद मिसाइल तकनीक पर भी पाबंदी लगाने का पूरा इंतजाम किया जाने लगा। इसी के चलते वेसनार और आॅस्ट्रेलिया समूह समेत कईयों से दूर रखने का प्रयास भी किया गया। जाहिर है कि पहले दुनिया के तमाम देष नियम बनाते थे और उनका भारत अनुसरण करता था लेकिन यह बदलते दौर की बानगी ही कही जायेगी कि एमटीसीआर यानी मिसाइल तकनीक नियंत्रण व्यवस्था में भारत अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर नियमों का अनुसरणकत्र्ता ही नहीं निर्माता भी बन गया। इतना ही नहीं एमटीसीआर क्लब में षामिल होने से भारत को कूटनीतिक तौर पर सबल और सफल होते हुए देखा जा सकता है। गौरतलब है कि इसका सदस्य बनने के लिए चीन पिछले 12 वर्शों से प्रयासरत् है और अभी इस सूची से वह कोसो दूर है। एनएसजी के मामले में अड़ंगा लगाने वाला चीन भले ही अपनी पीठ थपथपा ले पर एमटीसीआर में भारत की एंट्री उसके लिए भी किसी खतरे की घण्टी से कम नहीं है। बदले दौर के परिप्रेक्ष्य को देखें तो भारत न केवल अनुसरण करने वाले देषों की सूची से बाहर निकल रहा है बल्कि अमेरिका का सबसे बड़ा रक्षा सहयोगी भी बन रहा है और स्वयं को बराबरी पर रख रहा है। उभरती अर्थव्यवस्था वाले देषों में इसका षुमार होना यह सिद्ध करता है कि वैष्विक कूटनीति के फलक पर मात्र एनएसजी में न होने से क्षमता कम नहीं होती है बल्कि एमटीसीआर के चलते निकट भविश्य में पड़ोसी चीन को भी भारत आइना दिखा सकता है। 
बीते दिन प्रधानमंत्री मोदी की वैदेषिक नीति की आलोचना इन बातों के लिए भी हुई कि एनएसजी के मामले में उनकी कूटनीति विफल हो गयी। यह सही है कि एनएसजी को लेकर अमेरिका, इंग्लैण्ड, स्विट्जरलैण्ड तथा मैक्सिको समेत कई देषों के समर्थन के बावजूद चीन के अड़ंगे के चलते सफलता अधूरी रह गयी पर इस प्रकरण के तीन दिन बाद ही एमटीसीआर में भारत की एंट्री इस बात का संकेत है कि बड़े कूटनीतिक परिदृष्य में असफलताएं रेस लगाने के काम आती हैं। हालांकि जिस प्रकार माहौल बना था उसे देखते हुए भारत को  एनएसजी के मामले में भी सफलता मिली होती तो कूटनीति का एक और चेहरा देखने को मिलता। फिलहाल विविधता और विस्तार से भरी दुनिया में ऐसे बहुत से दौर आते-जाते रहेंगे। एमटीसीआर की सफलता इस लिहाज़ से भी बड़ी है कि चीन इसका सदस्य नहीं है और भारत के सहमति के बगैर इसमें वह षामिल भी नहीं हो सकता। एमटीसीआर की धारणा और अवधारणा को विस्तार से समझा जाय तो इसकी प्रमुखता को और बेहतरी से उजागर किया जा सकेगा। देखा जाय तो अप्रैल 1987 में जी-7 में षामिल देष कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, ब्रिटेन और अमेरिका ने इसकी स्थापना की थी। भारत के षामिल होने से पहले इसमें सदस्य देषों की संख्या 34 थी अब 35वें देष के रूप में भारत भी हो गया है। असल में इस समूह के निहित उद्देष्य एवं प्रावधान को देखें तो पता चलता है कि इसके सदस्य न होने वाले देष 500 किलोग्राम विस्फोटकों के साथ 300 किमी. या उससे अधिक दूरी तक मार करने में सक्षम खतरनाक मिसाइलें सहित अन्य हथियारों या उपकरणों का निर्यात नहीं कर सकते पर इस व्यवस्था में षामिल होने से भारत कई अहम फायदे की ओर झुकता दिखाई देता है। जहां उसे मिसाइल तकनीक निर्यात करना आसान होगा वहीं क्रायोजनिक इंजन की तकनीक हासिल करने में सहूलियत भी होगी। ध्यान्तव्य है कि दो दषक पहले भारत रूस से अमेरिकी अड़ंगे के चलते क्रायोजनिक इंजन की यह विधा हासिल नहीं कर पाया था। तब का दौर आज की तुलना में कहीं अन्तर लिए हुए था। फिलहाल पांच साल के निरन्तर प्रयास के चलते भारतीय वैज्ञानिकों ने स्वयं का क्रायोजनिक इंजन निर्मित कर लिया था। यह दौर का बदलाव ही है कि विरोध करने वाले देष आज भारत को न केवल हाथों-हाथ ले रहे हैं बल्कि उसकी ताकत को अपनी मजबूती के लिए जरूरी भी मान रहे हैं। यह बात और पुख्ता तब होती है जब अमेरिका एनएसजी की सदस्यता के लिए भारत को पूरी तरह पात्र बताता है। इतना ही नहीं भारत में अमेरिका के राजदूत रिचर्ड वर्मा ने भी कहा है कि उनका देष सभी 48 सदस्यों को साथ लेकर एनएसजी में भी भारत की सदस्यता के लिए प्रयास जारी रखेगा। 
एमटीसीआर का सदस्य होने का मतलब है कि भारत को अपने मिसाइल तकनीक और प्रक्षेपण से जुड़ी प्रत्येक जानकारी सदस्य देषों को देना होगा। भारत के लिए दूसरे देषों से मिसाइल तकनीक तो हासिल करना आसान हो जायेगा मगर भारत किसी दूसरे देष को इस तरह का कोई तकनीक भेजता है या कारोबार करता है तो उसकी पूरी जानकारी भी सदस्य देषों को देना होगा। स्पश्ट है कि एमटीसीआर का तात्पर्य ‘सबका साथ, सबका विकास और सबको सूचना‘ भी देना है। जानकारों का यह भी मानना है कि एमटीसीआर के सूची में आने से भारत के लिए एनएसजी की सदस्यता हासिल करना एक मिषन की तरह होगा। देष की ऊर्जा जरूरतों के साथ-साथ सुरक्षा और मेक इन इण्डिया जैसे भारत की महत्वाकांक्षी योजनाओं को इस समूह में षामिल होकर प्रवाह दिया जा सकता है। भारत ने भी माना है कि इस समूह में उसका प्रवेष वैष्विक अप्रसार षर्तों को बढ़ाने के लिए परस्पर फायदेमंद होगा। गौरतलब है कि एमटीसीआर में भारत की सदस्यता किसी भी बहुपक्षीय निर्यात नियंत्रण व्यवस्था में पहला प्रवेष है। भारत इस समूह की अक्टूबर, 2016 में दक्षिण कोरिया में हेाने होने वाली बैठक में हिस्सा भी लेगा। इस समूह की खासियत यह भी है कि इसमें षामिल होने के लिए सभी की सहमति जरूरी है। पड़ोसी चीन एमटीसीआर के सदस्य बनने हेतु वर्श 1991 में ही इसके नियम स्वीकार करने पर सहमति जता दी थी लेकिन बाद में कुछ कारणों के चलते कदम पीछे खींच लिए थे। 2004 में एक बार फिर सदस्यता के लिए आवेदन दिया पर कई सदस्यों की खिलाफत के कारण उसकी एंट्री सम्भव नहीं हो पायी। चूंकि अब इस समूह में भारत पूरी दमदारी से प्रवेष कर चुका है। ऐसे में अब चीन के लिए भारत का राजी होना भी जरूरी है। जिस प्रकार चीन भारत को नीचा दिखाने के लिए वैष्विक मंचों पर अपनी कूटनीति का भेदभावपूर्ण तरीके से इस्तेमाल करता रहा उसे देखते हुए स्पश्ट है कि एमटीसीआर में चीन का प्रवेष भारत के चलते आसान होने वाला नहीं है। ऐसे में निकट भविश्य में दोनों देष अपने-अपने हितों को लेकर सौदेबाजी की कूटनीति भी कर सकते है।
फिलहाल एमटीसीआर में धमाकेदार एंट्री से दक्षिण एषिया में तो भारत की साख बढ़ेगी ही इसके अलावा आने वाले दिनों में इसके काफी सकारात्मक नतीजे भी देखने को मिलेंगे। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि इसके चलते भारत अपनी कूटनीति को भी संतुलित करने में काफी हद तक सफल होगा। आंख दिखाने वाले पड़ोसी चीन को उसी की कुटिल चाल से उस पर पलटवार करने की जोर-आजमाइष भी कर सकेगा। उपरोक्त सकारात्मक पक्षों के बावजूद भारत के लिए एमटीसीआर अभी भी बदलते दौर की एक बानगी मात्र ही कही जायेगी जबकि समूचा वैष्विक परिप्रेक्ष्य हासिल करने के लिए अभी भी उसे एड़ी-चोटी का जोर लगाये रखना होगा। 

सुशील कुमार सिंह


Monday, June 27, 2016

ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ को कहा अलविदा

जब दुनिया का कोई संघ या देष नये परिवर्तन और प्रगति की ओर चलायमान होता है तो उसका सीधा असर वहां के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक परिवेष पर तो पड़ता ही है साथ ही किसी भी अक्षांष और देषान्तर में स्थित जटिल दुनिया पर भी प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। यूरोपीय संघ यानी ईयू की सदस्यता पर ऐतिहासिक जनमत संग्रह के बाद ब्रिटेन का इससे अलग होने वाले नतीजे ऐसे ही संकेतों के चलते सुर्खियों में हैं। दरअसल बीते 23 जून को ब्रिटेन यूरोपीय संघ का सदस्य रहे या न रहे इसे लेकर जनमत संग्रह कराया गया और नतीजे मामूली अंतर के साथ अलग होने के पक्ष में आये। जिसमें 52 फीसदी लोगों ने यूरोपीय संघ से अलग होने तो 48 फीसदी ने साथ रहने के पक्ष में अपना मत दिया। राजधानी लन्दन में ज्यादातर लोगों का मत ईयू के साथ रहने का है लेकिन देष के बाकी हिस्से मसलन पूर्वोत्तर इंग्लैण्ड, वेल्स, मिड्लैंडस आदि इसके विरोध में हैं। फिलहाल 382 में से 378 सीटों के नतीजों से यह स्पश्ट हो गया कि ब्रिटेन ईयू का सदस्य नहीं रहेगा। हालांकि मतदान के ठीक पहले आये सर्वेक्षण में यह संकेत दिया गया था कि 28 देषों के यूरोपीय संघ में ब्रिटेन के बने रहने की सम्भावना बनी रहेगी पर ऐसा नहीं हुआ। जनमत संग्रह हेतु 4.6 करोड़ से ज्यादा षामिल मतदाताओं में करीब 12 लाख भारतीय मूल के भी थे जो ब्रिटेन में किसी भी चुनाव की भागीदारी का रिकाॅर्ड भी है। खास यह भी है कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने पत्नी समांथा के साथ वोट डालने के बाद ब्रिटेन का ईयू में बने रहने के पक्ष में ट्वीट किया। उन्होंने कहा कि अपने बच्चों के बेहतर भविश्य के लिए ईयू में बने रहने के पक्ष में मतदान करें। भले ही ईयू से ब्रिटेन अलग राह पकड़ लिया है पर यह माना जा रहा है कि इस प्रक्रिया को पूरा होने में 2020 तक का समय लगेगा तब तक ब्रिटेन में चुनाव भी सम्पन्न हो जायेगा। फिलहाल ईयू से ब्रिटेन का अलगाव कैमरन के लिए खतरे की घण्टी भी मानी जा रही है। 
पड़ताल से यह साफ है कि ब्रिटेन ने यूरोपीय यूनियन को अचानक अलविदा नहीं कहा है इसके पीछे बरसों से कई बड़े कारण रहे हैं जिसमें ब्रिटेन में बढ़ रहा प्रवासीय संकट मुख्य वजहों में एक रही है। दरअसल ईयू में रहने के चलते ब्रिटेन में प्रतिदिन 500 प्रवासी दाखिल होते हैं जबकि पूर्वी यूरोप के करीब 20 लाख लोग तो ब्रिटेन में बाकायदा रह रहे हैं। ब्रिटेन में बढ़ती तादाद के चलते ही यहां बेरोजगारी जैसी समस्याएं भी पनपी हैं। ईयू से अलग होने के बाद इन पर रोक लगाना सम्भव होगा साथ ही कई अपराधी प्रवासियों पर भी लगाम लगाया जा सकेगा। इतना ही नहीं सीरिया में जारी संकट के चलते भी यहां दिक्कतें बढ़ी थीं उससे भी निपटना आसान हो जायेगा। ईयू से अलग होने से ब्रिटेन को करीब एक लाख करोड़ रूपए की सालाना बचत भी होगी जो उसे ईयू में बने रहने के लिए मेम्बरषिप के रूप में चुकानी पड़ती थी। ब्रिटेन के लोगों को ईयू की अफसरषाही को भी नहीं पसंद करते। कईयों का मानना है कि यहां उनकी तानाषाही चलती है। केवल कुछ नौकरषाह मिलकर ब्रिटेन सहित 28 देषों के लोगों का भविश्य तय करते हैं जो बर्दाष्त नहीं है। गौरतलब है कि यूरोपीय संघ के लिए करीब 10 हजार अफसर काम करते हैं। कई तो राजनेता की पारी खत्म करके ईयू के हिस्से बने हैं जो मोटी सैलरी लेते हैं। रोचक यह भी है कि ये अफसर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कैमरन से भी ज्यादा वेतन पाने वालों में षामिल हैं। इन सबके अलावा मुक्त व्यापार का रास्ता बाधित होना भी रहा है। ईयू से अलग होने के बाद अमेरिका और भारत जैसे देषों से ब्रिटेन को मुक्त व्यापार करने की छूट होगी। गौरतलब है भारत का सबसे ज्यादा कारोबार यूरोप के साथ है। केवल ब्रिटेन में ही 800 भारतीय कम्पनियां हैं जिनमें एक लाख से ज्यादा लोग काम करते हैं। वर्श 2015 में इन्होंने ब्रिटेन में लगभग दो लाख पचास हजार करोड़ रूपए का निवेष किया। खास यह भी है कि भारतीय आईटी सेक्टर की 6 से 18 फीसदी कमाई ब्रिटेन से ही होती है। ऐसे में ब्रिटेन के रास्ते भारतीय कम्पनियों की यूरोपीय संघ के इन 28 देषों के 50 करोड़ लोगों तक पहुंच आसान होती है। अब डर यह भी बन गया है कि ब्रिटेन के ईयू से अलग होने से यह आसान पहुंच बन्द हो जायेगी। यूरोपीय संघ का ब्रिटेन के अलग होने की एक वजह यह भी है कि 50 फीसदी से अधिक कानून ब्रिटेन में ईयू के लागू होते हैं जो कई आर्थिक मामलों में किसी बंधन से कम नहीं हैं जबकि ब्रिटेन ईयू के मुकाबले बाकी दुनिया को करीब दो गुना ज्यादा निर्यात करने की कूबत रखता है। फिलहाल ब्रिटेन की ईयू से अलग-थलग होने वाले कारणों की फहरिस्त काफी लम्बी है उक्त तमाम कारकों के चलते ही वहां के मतदाताओं ने ईयू को अलविदा कहना ही उचित समझा।
वित्त मंत्री अरूण जेटली ने ब्रेक्जिट के मौजूदा रूझानों पर टिप्पणी करने से इंकार करते हुए कहा  था कि पूरे नतीजे आ जाने तक इंतजार करना पसंद करेंगे। ब्रिटेन और यूरोपीय यूनियन के अलगाव के लिए ब्रिटेन और एक्जिट षब्द जोड़कर ‘ब्रेक्जिट‘ षब्द बना है। देखा जाए तो ब्रिटेन के इतिहास में जनमत संग्रह कोई नया मामला नहीं है। यह ब्रिटेन के इतिहास का तीसरा और ईयू की सदस्यता को लेकर दूसरा जनमत संग्रह है इससे पहले 1975 में हुए जनमत संग्रह में लोगों ने ईयू के साथ रहने के पक्ष में वोट दिया था तब ईयू , यूरोपीयन इकोनोमिक कमेटी हुआ करता था। जनवरी 1973 में ब्रिटेन इसका सदस्य बना। वैसे इस समूह की षुरूआत 1957 में 6 यूरोपीय देषों के बीच रोम सन्धि के चलते सम्भव हुई थी जबकि ईयू के रूप में इसका अस्तित्व 1993 में आया। गौरतलब है कि वर्श 2014 में भी एक जनमत संग्रह हुआ था जो स्काॅटलैण्ड के ब्रिटेन का हिस्सा बने रहने से सम्बन्धित था।
यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के अलग होने से दुनिया भर में हडकंप मचा हुआ है। भारतीय बाजार ही नहीं ग्लोबल मार्केट में भी इसका असर दिख रहा है। जापान का बेंच मार्क इण्डेक्स नेक्कई और हांगकांग का हेंगसेंग 400 अंकों तक गिर चुका है। भारत के सेंसेक्स पर भी 900 अंकों तक की गिरावट दर्ज की गयी है। निफ्टी भी 300 अंकों तक लुढ़का है। डाॅलर के मुकाबले रूपए में भी गिरावट दर्ज की गयी है, एक डाॅलर की तुलना में यह 68 रूपए को पार कर गया है पर यह माना जा रहा है कि जनमत संग्रह से भारत की वैष्विक आर्थिक नीति प्रभावित नहीं होगी। फिलहाल ये तो दुनिया के बाजारों के बदलने की कुछ बानगी है और यह बदलाव अभी भी निरन्तरता लिए हुए है। गौरतलब है कि इस जनमत संग्रह पर दुनिया भर की नजरे टिकी थीं। जाहिर है सभी को अपनी चिंता है। चार महीने चली मुहिम के बाद हुई वोटिंग और प्राप्त नतीजे चैकाने वाले तो नहीं पर सोचने वाले जरूर हैं। सवाल तो यह भी है कि आखिर किसी भी संघ का निर्माण क्यों होता है और उससे क्या अपेक्षाएं होती हैं क्या ब्रिटेन की अपेक्षाओं पर यूरोपीय संघ खरा नहीं उतरा? इसकी भी जांच-पड़ताल समय के साथ होती रहेगी पर तात्कालिक परिस्थितियों को देखते हुए भारत को संतुलित वैष्विक आर्थिक नीति पर काम करने की कहीं अधिक आवष्यकता पड़ सकती है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: ेनेीपसोपदही589/हउंपसण्बवउ

Saturday, June 25, 2016

विवादों के सुल्तान हैं सलमान

वर्शों पहले कहीं पढ़ने को मिला था कि फिल्मों में हत्यारे की भूमिका निभाने वालों को भी लोग हीरो मानते हैं। उक्त कथन षाहरूख खान की बाजीगर फिल्म के संदर्भ में था जिसमें उन्हें फिल्म की हिरोइन समेत कईयों की हत्या करते हुए देखा जा सकता है। यह बात इतनी अटपटी इसलिए नहीं लगी क्योंकि यह निभाया गया एक फिल्मी किरदार था जो कथानक पर निर्भर था। महज यह सोच कि फिल्म तो एक बनावटी ड्रामा है कई इससे पूरी तरह सहमत नहीं हैं। सिनेमा का समाज पर क्या असर पड़ता है इसे भी गम्भीरता से लेने की जरूरत तो है। हालांकि इसी फिल्मी दुनिया में देखा गया है कि कई कलाकार अपने चरित्र को लेकर काफी संजीदा रहे हैं ताकि समाज में उनका प्रभाव उसी रूप में जाना-समझा जाये जैसा वे आम जीवन दिखना चाहते हैं। मगर फिल्मी हीरो असल जिन्दगी में ऐसे कृत्य करने लगे या ऐसे वक्तव्य देने लगे जिससे कि सभ्य समाज असहज हो जाय तब उन्हें क्या संज्ञा दी जाये? इसे लेकर काफी कुछ मंथन और सोच के बाद ही स्पश्टता आ पायेगी। फिलहाल इन दिनों आपत्तिजनक वक्तव्यों के लिए सलमान खान सुर्खियों में हैं हालांकि उनके लिए यह नई बात नहीं है। देखा जाए तो सलमान और विवाद आपस में पर्याय के रूप में रहे हैं। 50 वर्श की उम्र पार कर चुके इस फिल्मी अभिनेता के हाल के उस बयान पर जिसमें उन्होंने फिल्म की षूटिंग के दौरान होने वाली थकावट की तुलना रेप पीड़िता से की काफी क्षुब्ध करने वाला माना जा रहा है। जिसे लेकर इन दिनों विरोध जारी है। यहां तक कि महिला आयोग समेत कई संगठन सलमान खान के इस कृत्य को लेकर लानत-मलानत कर रहे हैं। इतना ही नहीं कानपुर समेत कुछ स्थानों पर तो एफआईआर भी दर्ज की जा चुकी है। सलमान के इस टिप्पणी पर गायिका सोना महापात्रा के उस ट्वीट को उल्लेख करना भी जरूरी है जिसमें उन्होंने इस प्रकरण पर कहा था कि सलमान कई मामलों में आरोपी हैं इसके बाद भी लोग सम्मान देते हैं। उन्होंने महिलाओं की पिटाई की, लोगों को गाड़ी से कुचला, वन्य जीवों की हत्या की इसके बावजूद भी वह हीरो है, यह सही नहीं है। उक्त कथन के विवेचनात्मक पहलू से षायद ही कोई वाकिफ न हो पर सलमान के साथ यह विवादों का नाता पुराना है। वास्तविकता तो यह भी है कि यदि सलमान खान के कृत्यों से जुड़े संदर्भ और परिप्रेक्ष्य दोनों का विष्लेशण किया जाए तो कई अहम् सवाल पैदा होने से नहीं रोके जा सकते। 
सलमान खान और विवाद का सफर फिल्मी सफर जितना ही पुराना प्रतीत होता है। कभी उनके गुस्से की वजह से विवाद होता है तो कभी उनकी अनचाही हरकतों से। इस बार का बयान भी इनकी मुसीबत बढ़ा रहा है। भले ही सवाल के जवाब में सुल्तान बने सलमान अपने अनुभव की तुलना हल्के-फुल्के अंदाज में रेप पीड़िता महिला से की हो पर उन्हें इस मामले में इसलिए नहीं बख्षा जा सकता क्योंकि उन्होंने आधी दुनिया का दिल दुखाया है साथ ही लाखों-करोड़ों पुरूशों को भी यह बात नागवार गुजरी है। साथ ही कथन महिलाओं के प्रति असंवेदनषीलता को भी प्रकट करता है। इनके इस कृत्य को लेकर माफी की मांग की जा रही है जिसे देखते हुए प्रतीत होता है कि सलमान खान के माफी मांगने से मामले को आंषिक राहत तो मिलेगी पर पूरी की सम्भावना कम ही है। ‘मैंने प्यार किया‘ से अभिनेता के रूप में फिल्मी कैरियर षुरू करने वाले सलमान खान का विवाद से पहला नाता 1992 में तब हुआ जब फिल्म ‘हम साथ साथ हैं‘ की षूटिंग के दौरान जोधपुर में काले हिरन के षिकार के चलते प्रकाष में आये। जिसको लेकर उन्हें जोधपुर की जेल में भी रहना पड़ा अभी भी इस पर अन्तिम निर्णय आना बाकी है। हालांकि इस मामले में सलमान खान के साथ अन्य फिल्मी कलाकार भी षामिल रहे हैं। सलमान को लेकर बड़ा विवादित मामला तब आया जब वर्श 2002 में हिट एण्ड रन मामले में फंसे। फुटपाथ पर सोए लोग इनकी कार की चपेट में आये जिसमें एक की मौत और चार घायल हो गये। करीब 13 वर्श बाद इस मामले में पिछले वर्श के मई में जब इन्हें सजा सुनाने वाला निर्णय आया तब आनन-फानन में मुम्बई हाईकोर्ट में अपील करते हुए जमानत के चलते जेल जाने से स्वयं को बचा लिया पर मामले का अन्तिम निर्णय यहां भी आना बाकी है। 2002 के समय में ही फिल्म अभिनेत्री ऐष्वर्या राय के साथ की गयी इनकी बद्सलूकी भी उन दिनों सुर्खियों में थी और यहीं से दोनों के बीच अलगाव भी माना जाता है। इतना ही नहीं सुरेष ओबराॅय से इनकी हाथापाई होना और कैटरीना कैफ से पहले सकारात्मक बाद में तल्ख सम्बन्ध का होना इनके मिजाज को समझने का पूरा अवसर देता है। बावजूद इसके यह भी कहा जाता है कि सलमान खान मित्रों के लिए कहीं उदार और मददगार के साथ-साथ काफी खुले हृदय के व्यक्ति हैं। करोड़ों में चैरिटी करते हैं और जरूरतमंदों की मदद करते हैं। करोड़ों का उपहार देने की आदत से भी यह परिपूर्ण माने जाते हैं।
जब वर्श 2014 में सलमान खान श्रीलंका के राश्ट्रपति के चुनाव में महिन्द्रा राजपक्षे के लिए प्रचार किया था तब भी वे काफी चर्चे में रहे। अभी हाल ही में वो रियो ओलंपिक्स में गुडविल अंबेसडर बनाये जाने से भी सुर्खियों में थे। कई खिलाड़ियों एवं हस्तियों ने इस फैसले का विरोध किया जिसके बाद सचिन तेंदुलकर को गुडविल अंबेसडर बनाया गया। कहा तो यह भी जा रहा है कि सुल्तान फिल्म से अरिजीत सिंह के गाने को हटाने को लेकर भी विवाद हुआ था। इस मामले में गायक अरिजीत सिंह ने सलमान से माफी माग ली परन्तु जब अरिजीत के बारे में सलमान से पूछा गया तब वे अरिजीत सिंह को पहचानने से भी इंकार कर दिया था। बेषक सलमान खान सफल व्यक्तियों में बाकायदा षुमार हैं परन्तु कई बचकानी हरकतों और गलतियों के कारण अपने व्यक्तित्व को मटियामेट करने की वजह स्वयं ही हैं। अक्सर रसूखदार व सफल व्यक्तियों की एक समस्या पर्याप्त संतुलन न बनाने की रही है। इस मामले में सलमान खान को सूचबद्ध किया जा सकता है। बाॅलीवुड में ही कई ऐसे अभिनेता-अभिनेत्री एवं निर्माता-निर्देषक मिल जायेंगे जो सलमान से कई गुना सफल होने के बावजूद बेहतरीन इंसान होने का उदाहरण पेष किया है। दिलीप कुमार, राज कपूर, अमिताभ बच्चन जैसे कई नाम इस फिल्म उद्योग में देखे जा सकते हैं जिन्हें लेकर सिर्फ बाॅलीवुड ही नहीं दुनिया भी सम्मान की दृश्टि से देखती है। चार से अधिक दषकों तक फिल्मी कैरियर और अपार धन-दौलत के मामले में भी रईस होने के बावजूद इनका विवादों से दूर-दूर तक नाता नहीं रहा। सलमान खान सपने में भी नहीं सोचे होंगे कि इस गैर-इरादतन कथन से वे इतने बड़े बवंडर में फंस जायेंगे। कहा तो यह भी जा रहा है कि बातचीत का कुछ ही हिस्सा सामने आया है जबकि दूसरे हिस्से में वे अपनी अगली लाइन में बात को दुरूस्त भी कर रहे हैं। बयान के तुरंत बाद सलमान खान यह भी बोले थे कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए पर तब तक देर हो चुकी थी। पिता सलीम खान ने सलमान का बचाव करते हुए कहा है कि ऐसा किसी गलत इरादे से नहीं कहा था। फिलहाल फिल्म उद्योग की राय भी बंटी हुई देखी जा सकती है। सबके बावजूद यह कहना सही होगा कि सलमान के पास जो भी है यदि उसमें षालीनता, संवेदना और ओछेपन से दूरे होते हुए गम्भीरता जोड़ लें तो षायद ही समस्याएं उनके पास फटके।




सुशील कुमार सिंह


Friday, June 24, 2016

जीएसटी के मामले में बैकफूट पर कांग्रेस

सच्चाई यह है कि जीएसटी मोदी सरकार के लिए किसी महत्वाकांक्षी योजना-परियोजना से कम नहीं रहा है पर इसके प्रति विरोधियों का निभाया गया आचरण अनुपात में कहीं अधिक सियासी रहा। मुख्य विपक्षी कांग्रेस इस मामले में हठ् की राजनीति पर अभी भी काम कर रही है जबकि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जीएसटी के फायदे बताते हुए इसका समर्थन कर चुके हैं। प्रचण्ड बहुमत वाली मोदी सरकार राज्यसभा में संख्याबल के आभाव के चलते इस मामले में पूरी तरह खरी नहीं उतर सकती थी और कांग्रेस का समर्थन लेना जरूरी था पर रोचक यह है कि 2014 के षीत सत्र से जो मोदी सरकार कांग्रेस की मान-मनव्वल में लगी रही अब वही बिना कांग्रेस के राज्यसभा में आंकड़े की बाजीगरी में अव्वल होते दिखाई दे रही है। जब बीते 18 मई को वित्त मंत्री अरूण जेटली ने बिना कांग्रेस के जीएसटी विधेयक को पास कराने की बात कही थी तो अचरज से भरी प्रतीत हुई मगर अब यह सम्भव होते दिखाई दे रहा है। उच्च सदन में भाजपा एवं सहयोगियों की संख्या 81 है जबकि जीएसटी के समर्थन की घोशणा कर चुके सपा, जदयू, बसपा, टीएमसी सहित 15 दलों के सदस्यों की संख्या 76 है। विधेयक को पारित करने के लिए दो-तिहाई बहुमत यानी 164 सदस्यों की आवष्यकता है। मौजूदा स्थिति में सात सदस्यों की और जरूरत है। सुगबुगाहट यह है कि वामदल के नौ और अन्नाद्रमुक के 14 का समर्थन हासिल करना सरकार के लिए कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि इनकी मांगों को लेकर सरकार का रूख नरम है। वैसे देखा जाय तो केरल के मुख्यमंत्री और वित्तमंत्री दोनों जीएसटी के समर्थन में आवाज़ बुलन्द कर चुके हैं। आगामी 27 जून को संसदीय मामलों की समिति मानसून सत्र की तारीख तय होगी और इसी सत्र में सम्भव है कि बीते पांच सत्रों से सर्दी-गर्मी झेल रहा जीएसटी कानूनी रूप हासिल कर लेगा। 
जीएसटी को लेकर विपक्षियों के अपने-अपने सुर और राग रहे हैं। कांग्रेस की मांग थी कि इसे संविधान का हिस्सा बनाया जाए जबकि कई विपक्षी दल इस मांग से सहमत नहीं है। विपक्ष की यह भी मांग रही है कि एक प्रतिषत प्रवेष कर का प्रावधान खत्म हो। इसके अलावा विवाद निपटाने वाली समिति में राज्य को केन्द्र के बराबर अधिकार मिले साथ ही जीएसटी के कर की दर कम हो। अनुमान है कि जीएसटी 18 से 25 प्रतिषत के बीच रहेगा पर गणित और अर्थषास्त्र का यह घालमेल किस संख्या पर टिकेगा आने वाले वक्त में स्पश्ट हो जायेगा। फिलहाल दो-तिहाई बहुमत के पार दिख रही सरकार का इस मामले में लम्बा वक्त जरूर लग गया पर बिन कांग्रेस इसकी मंजूरी की सम्भावना के चलते सरकार फलक पर और कांग्रेस बैकफुट पर जाते हुए दिखाई देती है। बीते 14 जून को कोलकाता में जीएसटी को लेकर एक बैठक का आयोजन किया गया था जिसमें दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री समेत 22 राज्यों के वित्त मंत्री षमिल हुए। तमिलनाडु को छोड़ सभी इस पर राजी भी हैं। इसी दौरान वित्त मंत्रालय ने जीएसटी से जुड़ा एक मसौदा भी जारी किया। गौरतलब है कि बीते बजट सत्र में 24 विधेयक पारित हुए थे बावजूद इसके जीएसटी पर कांग्रेस का रूख जस का तस रहा। प्रधानमंत्री मोदी की इस विधेयक को लेकर दर्द का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि उन्होंने बीते 13 मई को राज्यसभा में फेयरवेल के दौरान कहा था कि अगर जीएसटी बिल आप लोगों के रहते पारित हो जाता तो अच्छा होता। इसके अलावा कैम्पा बिल के पारित नहीं होने का मलाल भी उनमें देखा जा सकता है। दरअसल राज्यसभा के 57 सदस्य जुलाई में यानी अगले सत्र से पहले रिटायर्ड हो रहे थे जिसे लेकर उन्हें फेयरवेल दिया जा रहा था। इसी माह हुए राज्यसभा चुनाव ने भी उच्च सदन में सरकार के गणित को बदला है पर बिना सहयोग के अभी भी राज्यसभा में सरकार अपने बूते काम नहीं कर सकती। फिलहाल कहना सही होगा जीएसटी को लेकर जिस प्रकार पिछले दो वर्शों में सदन की कार्यवाही रही है उससे साफ है कि एक अच्छा विधेयक सियासत की भेंट चढ़ा है। 
देखा जाय तो जीएसटी एक ऐसी समुच्चय अवधारणा है जिसके चलते पूरे देष में टैक्स की एक समान व्यवस्था सम्भव होगी। केन्द्र और राज्य के बीच अप्रत्यक्ष करों के वितरण को लेकर जो अनबन है उसे भी ठीक किया जा सकेगा साथ ही अप्रत्यक्ष करों के वितरण को लेकर पनपे विवादों को भी समाधान दिया जा सकेगा। गौरतलब है कि केन्द्र और राज्य के बीच विवाद झेल चुका जीएसटी विधेयक जिसे वर्ष 2014 में 122वें संविधान संशोधन के तहत शीत सत्र में पेश किया गया था और प्रधानमंत्री मोदी ने इसे 1 अप्रैल, 2016 में लागू करने की बात कही थी वह कई सियासी थपेड़ों से जूझता रहा। ध्यान्तव्य हो कि केन्द्र और राज्य के बीच टैक्स बंटवारे को लेकर विवाद पहले ही खत्म हो चुके हैं। मौजूदा केन्द्र सरकार के वित्त मंत्री अरूण जेटली ने पहले ही कह दिया था कि इसके आने के बाद राज्यों को जीएसटी पर होने वाले घाटे पर पांच साल तक क्षतिपूर्ति मिलेगी। शुरूआती तीन साल पर शत् प्रतिशत, चैथे साल 75 प्रतिशत और पांचवे साल 50 फीसदी का प्रावधान किया गया। जीएसटी काउंसिल में राज्यों के दो-तिहाई जबकि केन्द्र के एक-तिहाई सदस्य होंगे साथ ही यह भी कहा गया कि राज्यों को एंट्री टैक्स, परचेज़ टैक्स तथा कुछ अन्य तरह के करों से जो घाटे होंगे उसकी भरपाई के लिए दो वर्ष के लिए एक फीसदी के अतिरिक्त कर का प्रावधान किया गया है। उक्त संदर्भ को देखते हुए स्पश्ट है कि जीएसटी को लेकर सरकार ने कांटों को दूर करने की पूरी कोशिश की है। नेशनल काउंसिल आॅफ एप्लाइड इकोनोमिक रिसर्च के मुताबिक इसके लागू होने के पश्चात् जीडीपी में 0.9 से 1.7 तक का इजाफा किया जा सकता है। अनुमान तो यह भी है कि भारत की मौजूदा जीडीपी में 15 से 25 फीसदी का विकास दर बढ़ सकता है। 
कई मुनाफो से भरे जीएसटी में रोचक तथ्य तो यह भी है कि यह मात्र मोदी सरकार की ही कवायद नहीं है। पहली बार सन् 2000 में जीएसटी सम्बन्धी एम्पावर्ड कमेटी बनायी गयी थी उस समय भी एनडीए की सरकार थी जिसका नेतृत्व अटल बिहारी वाजपेयी कर रहे थे। यह अप्रत्यक्ष कर ढ़ाचे में सुधार लाने के लिए था। इसी कमेटी के जिम्मे जीएसटी का माॅडल तैयार करना तथा आईटी से सम्बन्धित ढांचे को भी रूपरेखा देना था। केन्द्रीय स्तर पर एक्साइज़ ड्यूटी और सर्विस टैक्स तथा प्रांतीय स्तर पर वैट और स्थानीय कर इसके लागू होने के बाद समाप्त करने का लक्ष्य रखा गया। मतलब साफ था कि कर ढांचे को तर्कसंगत बनाना और देष को एक एकीकृत व्यवस्था देना था। जिसे यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान पेष किया गया परन्तु राज्यों से असहमति के कारण यह पास नहीं हो सका जिसकी मुख्य वजह पेट्रोलियम, तम्बाकू और षराब पर लगने वाला टैक्स था। ये टैक्स जीएसटी के चलते समाप्त हो जाते। इसके चलते राज्यों ने भारी राजस्व नुकसान को देखते हुए इसका विरोध किया। गौरतलब है कि कई राज्यों के कुल राजस्व का यह दो-तिहाई होता है। एक दषक से यूपीए सरकार से लेकर एनडीए सरकार तक जीएसटी को लेकर गम्भीरता दिखाई जा रही है पर अधिनियम के रूप में इसे ला पाने में कोई सरकार सफल नहीं दिखती परन्तु बदले हालात को देखते हुए उम्मीद है कि मानसून सत्र में बिना कांग्रेस के ही इसे पारित करा लिया जायेगा। यदि ऐसा हुआ तो इसे मोदी सरकार की अर्थषास्त्र के साथ राजनीतिषास्त्र की जीत भी कही जायेगी पर हाषिये पर जा चुकी कांग्रेस के लिए यही जीएसटी उसके डेढ़ वर्श के सियासी दांव को विफल कर सकता है। 

सुशील कुमार सिंह


ऑफिस ऑफ़ प्रॉफिट के चक्रव्यूह में दिल्ली सरकार

एक दषक बाद एक बार फिर आॅफिस आॅफ प्राॅफिट का मामला सुर्खियों में है। ऐसा दिल्ली की केजरीवाल सरकार द्वारा 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाये जाने के चलते हुआ। दोबारा सत्ता में वापसी के साथ 2015 में की गयी इनकी नियुक्ति के चलते मामले को तूल पकड़ते देख केजरीवाल ने अपने इन्हें बचाने के लिए संसदीय सचिव को लाभ के पद से दूर रखते हुए एक विधेयक विधानसभा में पास कराया जो उपराज्यपाल नजीब जंग के माध्यम से राश्ट्रपति की चैखट पर पहुंचा जिसे बीते 13 जून को राश्ट्रपति द्वारा मंजूरी देने से इन्कार कर दिया गया। इस कदम से केजरीवाल सरकार को तो झटका लगा ही है साथ ही उनके 21 सदस्यों की विधायकी भी खतरे में जाते दिखाई देती है। यदि यह बात सिद्ध हो जाती है कि केजरीवाल सरकार द्वारा नियुक्त संसदीय सचिव का पद लाभ के दायरे में था तो इनकी सदस्यता जाना तय है और इतने ही सीटों पर दिल्ली एक बार फिर विधानसभा चुनाव से गुजर सकती है। विधेयक के अनुमति न मिलने से इन दिनों सियासत भी जोर पकड़े हुए है और पहले की भांति दिल्ली सरकार केन्द्र की मोदी सरकार पर खुलकर आरोप-प्रत्यारोप कर रही है। आप का यह भी आरोप है कि 17 विधेयकों को केन्द्र सरकार ने पास नहीं होने दिया है।  
बिल की मंजूरी न मिलने से तमतमाये आप के नेता का कहना है कि देष भर में संसदीय सचिव बनाना वैध है तो दिल्ली में क्यों नहीं? मामले को विस्तारपूर्वक समझा जाए तो इसमें कई संवैधानिक पेंच भी हैं। पहली बात तो यह कि लाभ का पद की अभी तक कोई संवैधानिक परिभाशा ही नहीं बन पायी है। संविधान के अनुच्छेद 102(1)क और 191(1)क में क्रमषः संसद और विधानसभा सदस्य यदि भारत या राज्य सरकार के अधीन ऐसे पद को छोड़कर जिसको धारण करने वाले का निरर्हित न होना विधि द्वारा घोशित किया गया है के अलावा कोई लाभ का पद धारण करता है तो वह आॅफिस आॅफ प्राॅफिट के रडार पर आ सकता है। संसदीय सचिव के मामले में केजरीवाल सरकार इसी चक्रव्यूह में फंसते हुए दिखाई देती है। राश्ट्रपति के फैसले को अदालत में ले जाने की बात भी दिल्ली सरकार कर रही है जबकि बड़ा सच यह है कि अदालतों ने संसदीय सचिवों की नियुक्ति के विरोध में कई निर्णय दिये हैं। जून 2015 में कोलकाता उच्च न्यायालय ने 13 संसदीय सचिवों की नियुक्ति को अमान्य करार दिया था। मुम्बई उच्च न्यायालय की गोवा खण्डपीठ ने 2009 में ऐसी ही नियुक्तियों को रद्द कर दिया था। इसी प्रकार के नियुक्तियों को लेकर पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, तेलंगाना समेत कई राज्यों के उच्च न्यायालय द्वारा या तो इसे रद्द किया गया है या उन पर सख्त नोटिस जारी किया गया। कुछ राज्यों में तो मामले आज भी विचाराधीन है। साफ है कि न्यायालय संविधान की मर्यादाओं और सीमाओं का ख्याल रखते हुए ही कोई कदम उठाता है। यदि केजरीवाल सरकार के संसदीय सचिव के मामले में लिए गये निर्णय संवैधानिक मर्यादाओं का तनिक मात्र भी उल्लंघन नहीं करते हैं तो हो सकता है कि राहत मिल जाए पर उपरोक्त घटनाक्रम को देखते हुए इसकी गुंजाइष कम ही है। संविधान के 91वें संषोधन 2003 के तहत अनुच्छेद 75(1) और अनुच्छेद 164(1) में परिवर्तन करके यह प्रावधान किया गया कि केन्द्र या राज्यों में मंत्रियों की कुल संख्या सदन की कुल सदस्य संख्या के 15 फीसदी से अधिक नहीं होगी। संसदीय सचिवों की नियुक्ति के मामले में उक्त संवैधानिक मर्यादा का भी निहित परिप्रेक्ष्य देखा जा सकता है। 
नियम के मुताबिक दिल्ली जैसे अधिराज्य में सात विधायक मंत्री बन सकते हैं। विरोधियों का आरोप है कि 21 विधायकों को संसदीय सचिव के रूप में स्थापित करके केजरीवाल सरकार इन्हें मंत्रियों जैसा रूतबा और लाभ देना चाहती है जो कानून के मुताबिक सही नहीं है। वैसे देखा जाए तो संसदीय सचिव का चलन नेहरू काल में भी रहा है तब इसके मायने लाभ या अन्यथा सुविधा से न लगाकर मंत्रालयी कार्यों को सीखने तथा दक्षता से चहेते युवाओं और नेताओं को जोड़ना था। हालांकि बाद के दिनों में केन्द्रीय सरकार के स्तर पर इसकी प्रासंगिकता का लोप होता दिखाई देता है पर राज्यों में यह किसी न किसी रूप में बरकरार रहा। वर्श 2006 में लाभ के पद को लेकर एक भीशण चर्चा एवं विमर्ष देष में प्रकट हुआ जिसकी चपेट में कई आये। रायबरेली से लोकसभा सदस्य और यूपीए की चेयरमैन रहीं सोनिया गांधी को इसके चलते पद से इस्तीफा देना पड़ा था और जया बच्चन को उत्तर प्रदेष फिल्म विकास परिशद् के अध्यक्ष के रूप में लाभ के पद पर होने के आधार पर सदस्यता रद्द कर दी गयी। इसके अलावा अनिल अंबानी सहित कईयों को राज्यसभा से हटना पड़ा था। इतना ही नहीं आॅफिस आॅफ प्राॅफिट के बिल को जब मनमोहन सिंह की मंत्रिपरिशद् ने तत्कालीन राश्ट्रपति डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के पास भेजा तो उन्होंने इस बिल को पुर्नविचार के लिए वापस कर दिया और उसकी वजह एकरूपता का आभाव होना था। वर्श 2007 के बाद जब कलाम साहब राश्ट्रपति के पद पर नहीं थे तब उन्होंने एक वाकये में कहा था कि उनके पांच साल के राश्ट्रपति के कार्यकाल में सर्वाधिक कठिन दौर आॅफिस आॅफ प्राॅफिट बिल पर निर्णय लेना था। साफ है कि लाभ का पद एक ऐसी समस्या है जिसे लेकर अच्छे से अच्छे दिमागदार पदस्थ व्यक्ति को भी चिंतनयुक्त बना देता है। परिप्रेक्ष्य और संदर्भ को देखते हुए यह समझा जा सकता है कि राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा केजरीवाल सरकार के बिल लौटाने के पीछे विधेयक में खामियां ही वजह होंगी जबकि दिल्ली सरकार इसे सियासी चष्में से देख रही है।
वैसे देखा जाए तो दिल्ली में पहली विधानसभा के गठन से ही संसदीय सचिवों की नियुक्ति की परम्परा रही है। 1993 में जब दिल्ली में बीजेपी सरकार बनी और मदन लाल खुराना मुख्यमंत्री बने तो इस दौरान संसदीय सचिव नियुक्त नहीं किये गये थे लेकिन साहिब सिंह वर्मा ने नन्द किषोर गर्ग को पहला संसदीय सचिव नियुक्त किया। कहा जाता है कि इस पर बवाल न हो इसके लिए कुछ कांग्रेसी नेताओं को भी विष्वास में लिया गया था लेकिन जब गर्ग को आधिकारिक तौर पर यह पता चला कि उनका पद गैरसंवैधानिक है तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। वर्श 1998 में षीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार बनी तो अजय माकन को संसदीय सचिव बनाने का निर्णय लिया गया। इस दौरान विपक्ष के जगदीष मुखी से बात की गई थी और रजामंदी के बाद ऐसा सम्भव हुआ। गौरतलब है कि अजय माकन को मंत्री स्तरीय सुविधाएं मिली थीं। हालांकि केजरीवाल का मामला उठने पर अजय माकन अपने को मुख्यमंत्री का संसदीय सचिव बता रहे हैं। उपरोक्त संदर्भ से साफ है कि आपसी समझदारी से गैरसंवैधानिक पद को संवैधानिक बना लिया गया था जिसे न्यायोचित तो नहीं कहा जा सकता। चूंकि पहले के मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में कोई षिकायत नहीं हुई इसलिए इसे वाजिब मान लिया गया पर केजरीवाल के मामले में भाजपा और कांग्रेस दोनों ने मोर्चा खोल दिया इसलिए मामला तूल पकड़ लिया है। सबके बावजूद केजरीवाल की चूक यह भी है कि संसदीय सचिव पद को वैधानिक बनाने की फिराक में विधेयक पास करके राश्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए भेज दिया जबकि पहले की सरकारों ने संसदीय सचिव तो बनाये पर इस मामले को वैधानिक बनाने की कोषिष नहीं की। फिलहाल आॅफिस आॅफ प्राॅफिट एक ऐसी समस्या है जिसे हल करने में माथे पर बल तो पड़ता है पर सटीक संवैधानिक और वैधानिक विवेचना के तहत इसमें व्याप्त सकारात्मक गुंजाइषों को एक बार उभार कर इस पर उठने वाले विवादों को समाप्त किया जाना कहीं अधिक जरूरी है।


सुशील कुमार सिंह

Wednesday, June 15, 2016

संगम के रस्स्ते मिशन यूपी पर भाजपा

इसमें कोई अतिष्योक्ति नहीं कि लोकसभा की जीत की भांति भाजपा यूपी विधानसभा की जीत की चाह रखती है। इसी संदर्भ से युक्त होकर यूपी मिषन को कामयाब बनाने के लिए अबकी बार पार्टी गंगा-यमुना दोनों का सहारा लेते हुए इलाहाबाद से चुनावी षंखनाद किया है। उत्तर प्रदेष में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए भाजपा राश्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक बीते 12 और 13 जून को इलाहाबाद में आयोजित हुई जिसमें प्रधानमंत्री मोदी समेत भाजपा के राश्ट्रीय अध्यक्ष अमित षाह तथा दल के बड़े से बड़े नेता एवं रणनीतिकार षामिल थे। इतना ही नहीं भाजपा षासित राज्यों के मुख्यमंत्री सहित संसद की भी हिस्सेदारी इस सियासी महफिल में बाकायदा देखी जा सकती है। गौरतलब है कि गांधी-नेहरू के गढ़ में भाजपा की इस प्रकार की उपस्थिति कांग्रेस के लिए बेचैनी बढ़ाने वाला होगा। हालांकि कहा जा रहा है कि बीते मार्च कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी इलाहाबाद गई थीं तब उन्होंने संकेत दिया था कि कांग्रेस अपने चुनावी अभियान की षुरूआत 19 नवम्बर को इन्दिरा गांधी की जन्म षताब्दी समारोह के साथ करेगी पर कांग्रेस के इस कदम से पहले ही भाजपा ने यहां से चुनावी बिगुल फूंक कर इस मामले में भी कांग्रेस को झटका देने का काम किया है। इलाहाबाद में हुई परिवर्तन रैली के जरिए यूपी जीत की चुनौती एक बार फिर मोदी के जिम्मे जाती हुई दिखाई देती है। रैली में सम्बोधन के दौरान उन्होंने सपा और बसपा की जुगलबन्दी को खत्म करने की बात कही। अभियान को बुलन्दी देते हुए यह भी कहा कि 50 साल में जो नहीं हुआ उसे 5 साल में करके दिखाऊँगा। यूपी ने देष को सबसे ज्यादा पीएम और अनेकों महापुरूश दिए हैं लेकिन आजादी के इतने वर्श बाद 1529 गांवों में बिजली का खम्भा तक नहीं पहुंचा और लोग 18वीं षताब्दी की भांति अंधेरे में जीवन जी रहे हैं। ऐसे तमाम नागरिकों से जुड़े मुद्दों को प्रधानमंत्री मोदी उजागर करते हुए जनता से पूर्ण बहुमत देने की अपील की। 
देखा जाए तो वर्श 2014 के 16वीं लोकसभा के चुनाव में भाजपा उत्तर प्रदेष में अपनी सियासी जमीन को एकतरफा मजबूती देने की फिराक में बनारस को राज्य की राजनीति का केन्द्र बिन्दु बनाया था और मोदी बनारस की सीट के साथ गुजरात के बडोदरा से चुनाव लडे़ थे साथ ही दोनों पर भारी बहुमत से जीत सुनिष्चित करते हुए उन्होंने भविश्य की सियासत और उसके साथ सापेक्षता बिठाते हुए बनारस पर बने रहना सही समझा। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी बनारस और गंगा को लेकर उन दिनों बड़ी षिद्दत और कूबत भरी राजनीति की थी जिसका नतीजा यह हुआ कि 80 लोकसभा सीटों के मुकाबले 73 पर भाजपा एवं सहयोगी की जीत हुई जिसमें 71 स्थानों पर अकेले भाजपा ही थी। ऐसा देखा गया है कि राजनीति में सियासी चतुराई का जिस भी दल में आभाव रहा उसका सीधा असर उनके नतीजों पर पड़ा है। फिलहाल गंगा प्रदूशण को मुद्दा बनाने वाली भाजपा के लिए षायद ही इलाहाबाद से बेहतर कोई स्थान यूपी मिषन के लिए होता। इलाहाबाद से पूर्वांचल, अवध और पष्चिमी उत्तर प्रदेष को साधने की नई कवायद में भाजपा की रणनीति कारगर भी हो सकती है। वैसे भी भाजपा मत ध्रुवीकरण की राजनीति में दिल्ली एवं बिहार जैसे राज्यों को छोड़कर अन्य में काफी हद तक सफल रही। हाल ही में असम में सत्ता हथियाना और केरल में उपस्थिति दर्ज कराना पार्टी की एक बड़ी काबिलियत कही जायेगी। 
वैसे देखा जाए तो उत्तर प्रदेष की सियासत अन्य राज्यों से काफी भिन्न है यहां के मत ध्रुवीकरण में जात-पात तथा सम्प्रदाय के अलावा क्षेत्रवाद भी हावी रहता है। भाजपा के रणनीतिकार भी जानते हैं कि यहां के सियासी रूख को अपनी ओर मोड़ने के लिए स्थान, समय और मुद्दों के सही चयन के साथ यहां के तमाम पहलुओं पर समुचित होमवर्क करना होगा। इसी के मद्देनजर भाजपा अपने एजेण्डे को भी ताकत दे सकती है। पार्टी एक ओर तो प्रधानमंत्री मोदी के विकासमंत्र को चुनाव में उतारना चाहेगी तो दूसरी ओर अखिलेष सरकार के समय की गलतियों को जनता के बीच बताना चाहेगी मसलन कैराना में कथित तौर पर हिन्दुओं का पलायन भी चुनाव में जोर पकड़ सकता है। इलाहाबाद के दो दिवसीय रैली के दौरान जष्न में डूबी पार्टी को मोदी ने आगाह किया और पार्टी की बढ़ी ताकत पर अभिमान न करने की नसीहत दी। इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा के लिए वर्तमान दौर स्वर्णिम युग की भांति है। यदि भाजपा यूपी में वापसी करती है तो यह सोने पर सुहागा होगा साथ ही मोदी सरकार के रसूख को भी बल मिलेगा। प्रदेष में भाजपा का मुख्य टकराव षासन कर रही सपा से तो रहेगी पर बसपा और कांग्रेस से भी पार्टी को बाकायदा चुनौती मिलेगी। अलबत्ता कांग्रेस यहां बीते तीन दषकों में इकाई-दहाई से आगे नहीं बढ़ पाई है पर उसे हल्के में लेने की गलती भाजपा नहीं कर सकती है जैसा कि पहले भी कहा गया है कि यहां जातीय समीकरण सियासत के रूख को पलट देते हैं ऐसे में भाजपा को अधिक चैकन्ना रहना होगा। विगत् तीन वर्शों से मोदी कांग्रेस मुक्त भारत का अभियान चलाए हुए है। उसे उत्तर प्रदेष में भी बरकरार रखना चाहेंगे साथ ही सपा सरकार की कई खामियों का सहारा लेकर मत प्रतिषत में भी इजाफा करेंगे। जाहिर है कि भाजपा मायावती और बसपा के सियासी रणनीति से भी वाकिफ है ऐसे में उसे भी हाषिये पर धकेलने की कोषिष रहेगी। हालांकि भाजपा के विरोध में चुनाव लड़ने वालों के पास मोदी सरकार की कई खामियां गिनाने के लिए अपने तर्क-वितर्क उपलब्ध होंगे जो उनके लिए किसी एजेण्डे से कम नहीं होंगे। 
गौरतलब है कि जून 1991 में कल्याण सिंह के नेतृत्व में भाजपा सरकार की उत्तर प्रदेष में एंट्री हुई थी और 2002 से राज्य में पार्टी सत्ता से बेदखल है, तब मुख्यमंत्री वर्तमान गृहमंत्री राजनाथ सिंह थे। देखा जाए तो भाजपा का चैदह बरस का वनवास पूरा हो चुका है और इस चैदह बरस में बसपा और सपा पूर्ण बहुमत के साथ पूरे पांच साल के लिए सत्ता वापसी कर चुके हैं जिसमें अखिलेष सरकार का अन्तिम साल जारी है। मौजूदा स्थिति में भाजपा की उत्तर प्रदेष विधानसभा में 403 सदस्यों के मुकाबले 50 से भी कम विधायक हैं। पिछले एक दषक से राज्य में पार्टी के प्रभाव में भी काफी कमी आई है। राश्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक में इस बात का भी मंथन होना स्वाभाविक है कि यूपी विधानसभा में पूर्ण बहुमत की पहुंच कैसे बनाई जाय। लक्ष्य है कि 403 के मुकाबले 265 सीटें झोली में आयें पर यह मात्र योजनाकारों के चलते सफल नहीं होगा बल्कि मतदाताओं के मन में भी भाजपा को उतरना होगा। जाहिर है विधानसभा चुनाव के अपने एजेण्डे होंगे पर मोदी कार्यकाल का रिपोर्ट कार्ड भी सीटों की संख्या बढ़ाने में मदद्गार होगा पर ध्यान रहे कमियां भी विरोधियों द्वारा उछाली जायेंगी। केन्द्रीय मंत्री कलराज मिश्र का कहना है कि यूपी चुनाव प्रधानमंत्री मोदी की अगुवाई में ही लड़ा जायेगा। साफ है कि भाजपा मुख्यमंत्री का चेहरा भले ही देर-सवेर घोशित करे या न करे पर मोदी के चेहरे के भरोसे यूपी का समर जरूर जीतना चाहेगी। फिलहाल वर्तमान में भाजपा अन्यों की तुलना में मजबूत संरचना और प्रकार्यवाद से भरी पार्टी है। नागरिकों को आकर्शित करने वाले मोदी जैसे नेता से यह भरपूर है। लिहाजा पहले की तुलना में भाजपा की धमक तेज होगी पर पूर्ण बहुमत मिलेगा इस पर अभी से पूरा कयास लगाना सम्भव नहीं है पर यह सही हे कि सियासी जोड़-तोड़ में यदि रणनीतिकार सफल हुए तो उम्मीद करना बेमानी नहीं होगा।


सुशील कुमार सिंह


Monday, June 13, 2016

छ: दिन, पांच देश और वैश्विक फलक पर भारत

वैष्विक फलक पर भारत की कूटनीति का जो स्वरूप बीते छः दिनों में दिखा, यह पहली बार नहीं है। विगत् दो वर्श के कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी के तीन दर्जन से अधिक देषों की यात्रा में ऐसे अवसर पहले भी कई बार आ चुके हैं। जिस प्रकार मोदी की वैदेषिक नीति एक समुच्य ताकत के साथ विस्तार ले चुकी है उसे देखते हुए भारत के बारे में दुनिया के तमाम देषों ने अपनी सोच में व्यापक संषोधन भी कर लिया होगा। इस छः दिवसीय यात्रा में अफगानिस्तान, कतर, स्विट्जरलैण्ड तथा अमेरिका समेत मैक्सिको षामिल था जिसमें उम्मीद से ज्यादा हासिल होते हुए दिखाई देता है। यात्रा 4 जून को अफगानिस्तान से षुरू होकर छठवें दिन मैक्सिको पहुंची। अफगानिस्तान पहुंचकर मोदी ने कई परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण के साथ अफगानिस्तान-इण्डिया फ्रेन्डषिप डैम का उद्घाटन किया और कारवां कतर की ओर बढ़ा जहां विभिन्न क्षेत्रों में सात समझौतों पर न केवल दोनों देष सहमत हुए बल्कि एक बार फिर भारत ने मोदी के सहारे ऊर्जा सुरक्षा नीति को पुख्ता बनाने का काम किया। मोदी का तीसरा पड़ाव स्विट्जरलैण्ड था जहां से भारत एक नई दिषा को अख्तियार करते हुए दिखाई देता है। दरअसल भारत ने परमाणु आपूर्ति समूह की सदस्यता हेतु 12 मई को आवेदन किया था जिसका पाकिस्तान व चीन ने विरोध किया। गौरतलब है कि स्विट्जरलैण्ड ने एनएसजी यानी न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में भारत की एन्ट्री का समर्थन करके इस पड़ाव की यात्रा को सबसे बड़ी कूटनीतिक सफलता में बदल दी। इसके बाद अमेरिका और मैक्सिको का समर्थन मिलना सोने पर सुहागा जैसा था। जाहिर है कि एनएसजी पर मिले समर्थन के चलते चीन और पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों को भारत ने न केवल मुंहतोड़ जवाब दिया बल्कि प्रधानमंत्री मोदी की उस चाल को भी कामयाबी मिली जिसमें उन्होंने पड़ोसियों की चाल को कामयाब न होने का बीड़ा उठाया था। 
पांच देषों की यात्रा के इस क्रम में अमेरिकी यात्रा भी काफी प्रमुखता से देखी जा रही है। यहां एक बार फिर मोदी का पुराना अंदाज देखने को मिला। भारत अमेरिका का अपरिहार्य सहयोगी है। आप मान सकते हैं कि मजबूत और समृद्ध भारत अमेरिका के रणनीतिक फायदे में है। भारत के हर क्षेत्र में अमेरिका की भागीदारी बढ़ी है साथ ही परमाणु सहयोग समझौते ने भारत अमेरिका के द्विपक्षीय रिष्तों में नया रंग भर दिया है। जैसी तमाम बातों को अपने अंदाज में व्यक्त करते हुए मोदी ने अमेरिकी संसद में अपनी उपस्थिति इस कदर दिखाई कि मेडिसिन स्कवायर से लेकर आॅस्ट्रेलिया में दिये गये तमाम देषों के भाशणों की याद एक बार फिर ताजा कर दी। अन्तर सिर्फ यह था कि मेडिसिन स्कवायर जनता से खचाखच भरा था जबकि अमेरिकी संसद में उनके 535 जनप्रतिनिधि थे। इसकी मजबूती का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 45 मिनट के भाशण में अमेरिकी कांग्रेस के लोगों ने 62 बार न केवल तालियां बजायीं बल्कि 9 बार भाशण के बीच में खड़े होकर भारतीय प्रधानमंत्री के प्रति सम्मान जताने का भी काम किया। आकर्शण से युक्त मोदी के वक्तव्य को जिस प्रकार अमेरिकी सांसदों द्वारा हाथो-हाथ लिया गया उसे देखते हुए पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की याद भी ताजा हो जाती है जिन्होंने 14 सितम्बर 2000 को इसी प्रकार की महफिल में अपनी गहरी छाप छोड़ी थी। देखा जाए तो मोदी समेत अब तक छः प्रधानमंत्रियों को अमेरिकी जनप्रतिनिधियों को सम्बोधित करने का अवसर मिला है जिसमें जवाहरलाल नेहरू, राजीव गांधी, पी.वी. नरसिंहराव और मनमोहीन सिंह भी षामिल हैं। गौरतलब है कि आवेष से भरे अमेरिकी वातावरण में मोदी का विस्तार और आकर्शण किसी से छुपा नहीं है और सितम्बर 2014 से अब तक जितनी बार भी अमेरिका में मोदी का प्रवेष हुआ है जाहिर है कि वहां मोदीमय की छाप पड़ी जरूर है।
अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल का यह अन्तिम साल है। बीते दो वर्शों में ओबामा से मोदी की मुलाकात कुल मिलाकर सात बार हो चुकी है। 2015 के गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि रहे ओबामा और उसके पूर्व 2014 के सितम्बर के अन्तिम सप्ताह में मोदी की पहली अमेरिकी यात्रा दोनों देषों के बीच एक नये मिजाज़ को जन्म दे चुकी थी। दोनों देषों के बीच बढ़ी नजदीकियों से चीन और पाकिस्तान जैसे देष न केवल बौखलाये बल्कि थोड़े देर तक रूस भी असहज महसूस कर चुका है। देखा जाए तो संतुलित कूटनीति के मामले में प्रधानमंत्री मोदी आज भी पीछे नहीं हैं पर जिस भांति चीन और पाकिस्तान राह में रोड़ा बनने की कोषिष करते हैं उसे देखते हुए अमेरिका जैसे देषों से भारत का गहरा सम्बंध मुनाफे की कूटनीति कही जायेगी। संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् में आतंकियों के मामले में वीटो को लेकर चीन भारत के खिलाफ और पाक का पक्षधर रहा है। इतना ही नहीं भारत की परेषानी की चिंता किये बिना पाकिस्तान को मदद देता रहा। पाक के पक्ष में हमेषा खड़ा होने वाला चीन आज अमेरिका से बढ़ी नज़दीकियों से भयभीत होकर भारत को दर्षन दे रहा है। चीन जहां अमेरिका पर एषिया-प्रषांत क्षेत्र को अस्थिर करने का आरोप लगा रहा है वहीं भारत को यह नसीहत दे रहा है कि गुटनिरपेक्षता से इसे पीछे नहीं हटना चाहिए यह उसकी विरासत है। चीन भारत के विकास में सहयोगी बनने और यहां तक की चीन के भारत के सपने पूरे नहीं होंगे जैसी बातें बीजिंग के समाचारपत्रों से आ रही हैं। सवाल है कि जो चीन भारत के मामले में दषकों से सीमा विवाद के साथ बार-बार घुसपैठ करता है और जो पाकिस्तान भारत के भीतर और बाहर आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देने में पीछे नहीं है उसका समर्थन करके चीन किस सपने की बात कर रहा है। आरोप यह भी है कि अमेरिका भारत को अपने दाहिने हाथ के रूप में प्रयोग करके चीन को संतुलित करने का प्रयास कर रहा है जबकि सच्चाई यह है कि भारत न तो किसी का दाहिना और न किसी का बायां हाथ है बल्कि वह अपने सकारात्मक सोच और विमर्ष के साथ दुनिया के साथ न केवल नाता जोड़ रहा है बल्कि अपनी ताकत से भी अवगत करा रहा है। स्विट्जरलैण्ड, अमेरिका और मैक्सिको का एनएसजी पर मिला ताजा समर्थन भारत की इसी सोच और मजबूती का ही सबूत है। ऐसा भी रहा है कि कूटनीतिक स्थितियां जब किसी के फायदे की ओर झुकती हैं, तो तभी किसी के नुकसान की ओर भी झुकी होती हैं। जाहिर है एनएसजी पर मिले समर्थन से जहां भारत फायदे की ओर है वहीं पड़ोसी त्रासद महसूस कर रहे हैं।
कूटनीति में सापेक्षता के सिद्धान्त इस बात की महत्ता लिए होते हैं कि वक्त के साथ संतुलन की आवष्यकता सभी को पड़ती है। इन दिनों भारत जिस वैष्विक फलक पर है उसे देखते हुए साफ है कि बढ़ती ताकत से कई देष असहज होंगे। सबके बावजूद चीन भी यह मानता है कि भारत और अमेरिका के सम्बंध अभूतपूर्व मुकाम पर हैं ऐसे में इसका असर दक्षिण चीन सागर की स्थितियों पर पड़ना तय है। गौरतलब है कि 2012 से लेकर अब तक दक्षिण चीन सागर के मामले में स्थितियां बदलाव की ओर झुकी प्रतीत होती हैं। फिलहाल छः दिवसीय और पांच देषों की यात्रा पर निकले प्रधानमंत्री मोदी मैक्सिको से इसको विराम लगाते हुए एक बार फिर बढ़ी हुई हैसियत के साथ वापसी कर रहे हैं। यात्रा के आखिरी दिन एक रोचक प्रसंग देखने को मिला कि जब मैक्सिको के राश्ट्रपति स्वयं गाड़ी चलाकर मोदी के साथ रेस्तरां गये। देखना तो यह भी है कि अमेरिका की धरती से बिना नाम लिए आतंक को लेकर पाक पर मोदी का हमला उसके सुधार में कितने काम आती है साथ ही देषों से हुए समझौते का कितना असर होता है। 

सुशील कुमार सिंह


ऊर्जा सुरक्षा नीति पर ज़रूरी कूटनीति

प्रधानमंत्री मोदी को इस बात का पूरा आभास है कि उच्च वृद्धि दर बनाये रखने के लिए ऊर्जा सुरक्षा नीति कितनी आवष्यक है। इसी के मद्देनजर पहले से चली आ रही ‘पष्चिम की ओर देखो नीति‘ को मोदी ने कतर की यात्रा करके और पुख्ता बनाने की कोषिष की है। विगत् दो वर्शों के कार्यकाल में तीन दर्जन से अधिक देषों की यात्रा कर चुकने के पष्चात् तीसरे वर्श के कार्यकाल में यह मोदी की प्रथम यात्रा कही जायेगी जिसमें छः दिन और पांच देष षामिल है इसी में कतर भी षुमार है जिसकी यात्रा बीते दिनों समाप्त हो गयी। भारत-कतर के बीच के सम्बंधों का विषदीकरण किया जाए तो यह देखना महत्वपूर्ण है कि भारत के लिए कतर इतना महत्वपूर्ण क्यों है। दरअसल दुनिया के तमाम देषों में षुमार कतर एक ऐसी पहचान रखता है जिस पर काफी हद तक भारत निर्भर है और उसके इसी आपूर्ति के चलते भारत ऊर्जा सुरक्षा के मामले में गारंटी प्राप्त करता है। देखा जाए तो ऊर्जा सुरक्षा नीति को लेकर भी भारत अपने वैष्विक दौरों को प्राथमिकता देता रहा है इसी क्रम में कतर अहम् हो जाता है। प्रधानमंत्री का दो दिवसीय पड़ाव कतर की राजधानी दोहा में बीते दिन समाप्त हुआ। जहां कई अहम समझौतों पर दोनों देषों के मुखिया ने बीते 5 जून को सहमति दी। इस दौरे से मोदी न केवल भारत-कतर सम्बंधों को पुख्ता बनाने में कामयाब होते हुए दिखाई देते हैं बल्कि दोहा में उनकी उपस्थिति से कई अप्रत्यक्ष संदर्भों को भी बल मिलता है। दोनों देषों का निवेष के अतिरिक्त स्वास्थ, पर्यटन, कौषल विकास जैसे कई मुद्दों पर एकमत होना कई व्यावसायिक अनुप्रयोगों को भी बढ़ावा देने का काम करेगा जिसमें ऊर्जा सुरक्षा नीति काफी अहम है। 
दुुनिया के प्रमुख तेल एवं गैस उत्पादक देष कतर के साथ हुए आधा दर्जन से अधिक करार प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों रूपों में भारत के लिए लाभकारी सिद्ध हो सकेंगे। देखा जाए तो पष्चिम की ओर देखो नीति के तहत ही वर्श 2008 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने कतर और ओमान की एक साथ यात्रा की थी। ध्यान्तव्य हो कि कतर विष्व का सबसे बड़ा तरल प्राकृतिक गैस का निर्यातक है और भारत के साथ उसका दीर्घावधि का समझौता है जिसके तहत भारत को प्रति वर्श 7.5 मिलियन टन एनएनडी की आपूर्ति करता है। हालांकि भारत इसे और बढ़ाने के लिए भारत प्रयासरत रहता है। प्रधानमंत्री मोदी खाड़ी क्षेत्र के देषों के साथ सम्बंधों को सुधारने में काफी वक्त दे रहे हैं। बीते मई के आखिरी सप्ताह में वे ईरान की यात्रा पर थे। केवल कतर और ईरान ही नहीं, देखा जाय तो समूचा खाड़ी क्षेत्र भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। रही बात कतर की तो यहां 6 लाख से अधिक भारतीय मूल के लोग रहते हैं और वर्श 2014-15 में कतर का भारत के साथ व्यापार डेढ़ लाख डाॅलर को पार कर गया था। कतर भारत को सबसे अधिक एलएनजी के आपूर्तिकत्र्ता के साथ-साथ कच्चे तेल का प्रमुख स्रोत है। आवागमन के परिप्रेक्ष्य में भी कतर और भारत का सःसम्बंध अक्सर कायम रहा है। इसी क्रम को बरकरार रखते हुए वर्श 2015 के मार्च में कतर के प्रमुख ने भी भारत की यात्रा की थी। भले ही प्रधानमंत्री मोदी के साथ बीते दिनों ऊर्जा संदर्भ को लेकर कतर के साथ कोई बड़ा समझौता न देखने को मिला हो पर यह सच है कि मोदी प्रभाव के चलते कतर भारत की ऊर्जा सुरक्षा नीति पर और अधिक सकारात्मक रूख जरूर अपनायेगा। वैसे मोदी जिस भी देष में जाते हैं केवल कारोबार तक ही सीमित नहीं रहते बल्कि व्यक्तिगत प्रभाव से भी कूटनीति को साधने का काम करते रहे हैं। 
कतर के कारोबारियों को आमंत्रण देते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने अपने अंदाज में कहा कि भारत प्रचुर सम्भावनाओं वाला देष है तथा सरकार निवेष के रास्ते समस्त बाधाओं को दूर करने का वादा करती है। अर्थ साफ है कि मोदी की ‘रेड कारपेट थ्योरी‘ यहां भी विद्यमान थी। यह भी सही है कि निवेष के रास्ते में जो भी अड़चने रही हैं उसे लेकर भी मोदी सरकार ने काफी काम किया है। यहां तक कि कई पुराने कानूनों को न केवल समाप्त किया है बल्कि नये कार्यक्रमों और विधाओं को भी अंगीकृत करते हुए देष में विदेषी पूंजी को तुलनात्मक बढ़ाने का काम किया है जिसमें मेक इन इण्डिया जैसे कार्यक्रम वैष्विक लोकप्रियता हासिल कर चुके हैं। दोहा में मोदी का भारत के युवा श्रम का उल्लेख करना इस बात की बड़ी ताकत है कि बुनियादी ढांचों और निहित विस्तार को लेकर भारत में आधुनिक और तकनीकी श्रम की केाई कमी नहीं है। आम लोगों के जीवन सुधार को देखा जाय तो सरकारे ही रचनाकार रही हैं पर सुधार के लिए कई बुनियादी स्रोतों की आवष्यकता होती है इसे ध्यान में रखते हुए भी कतर के निवेषकों का ध्यान मोदी ने खींचने का अतिरिक्त काम किया है। मसलन भारत में कृशि उत्पाद प्रसंस्करण, रेलवे और सौर उर्जा के क्षेत्र में निवेष को उन्होंने काफी फायदे वाला बताया है। यह सच है कि विदेषी निवेषकों के लिए भारत के कई बुनियादी इकाईयों में निवेष करके लाभ लेने का पूरा अवसर छुपा है पर उनके अन्दर उस विष्वास को अधिरोपित कैसे सम्भव किया जाए कि उनकी पूंजी की क्षति नहीं होगी। इस असमंजस को देखते हुए मोदी ने निवेषकों के अन्दर विष्वास भरने का काफी बड़ा काम किया है। षायद ही इसीलिए उन्हें ब्रान्ड के रूप में स्थापित राजनेता भी माना जाता है। 
वर्तमान अन्तर्राश्ट्रीय और वित्तीय स्थिति भारत के लिए सुनहरा अवसर प्रदान करती है कि वह खाड़ी में अत्यधिक संचित धनराषि को भारत के विकास की ओर मोड़े। ऐसा एक दूसरे देषों में निवेष और व्यापार का बढ़ावा देकर ही किया जा सकता है। कतर हाइड्रोकार्बन के मामले में भी धनी माना जाता है। भारत को हाइड्रोकार्बन के साथ-साथ भरपूर निवेष की जरूरत है। इस मामले में मोदी का यह दौरा एक सुगम पथ बना सकता है। कई क्षेत्रों के अलावा भारत और कतर के बीच षिक्षा का क्षेत्र भी सम्बंधों को बढ़ाने का एक आधार हो सकता है। फिलहाल जो सात अहम समझौते हुए हैं वे भी विकास के रूख को मोड़ने की ताकत रखते हैं। हालांकि ऐसी बातों का न तो एकतरफा असर होता है न ही षीघ्र प्रभाव दिखाई देते हैं पर जिस तर्ज पर वैदेषिक कूटनीति समाधान प्राप्त करती है उसे देखते हुए यह सौ फीसदी सही है कि कतर के साथ रिष्ते पटरी पर हैं। इसके पहले भी उन ऐतिहासिक समझौतों पर हस्ताक्षर हुए हैं जिसमें रक्षा और सुरक्षा षामिल रहा है। प्रवाह से भरी दुनिया में रक्षा, सुरक्षा और ऊर्जा सुरक्षा की चिंता किसे नहीं है पर भारत के मामले में यह इसलिए और संवेदनषील है क्योंकि यहां की सवा अरब आबादी की निर्भरता व्यापक विस्तार लिए हुए है। इसकी आपूर्ति जाहिर है पष्चिम की ओर देखो नीति में ज्यादा संदर्भित दिखाई देती है। ऐसे में भारत को एक तिहाई गैस आपूर्ति करने वाले देष कतर से क्या लाभ होंगे और भारत के लिए वह कितना महत्वपूर्ण है इसे आंकना कठिन नहीं है। सबके बावजूद निहित संदर्भ यह भी है कि खाड़ी देषों में षामिल कतर से भारत कारोबारी रूख के साथ जिस तरह जुड़ने की कोषिष की है उसके दूरगामी नतीजे तो देखने को मिलेंगे ही साथ ही ऊर्जा कवच वाले कतर का भारत पर भरोसा भी इन दिनों की नीतियों के चलते जरूर बढ़ा होगा। 

सुशील कुमार सिंह

Thursday, June 2, 2016

चेहरा बदलने की कवायद में कांग्रेस

यह कोई नई बात नहीं है जब कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी को लेकर कमान संभालने की बात कही जा रही हो। अक्सर राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाये जाने की अकुलाहट तभी देखी गयी है जब चुनाव के बाद कांग्रेस की सियासी जमीन खिसकती है। बीते 19 मई को पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव ने कांग्रेस को एक बार फिर झटका देने का काम किया। हांलाकि केन्द्र षासित पुदुचेरी में डीएमके के साथ सत्ता तक पहुंचने में पार्टी मामूली तौर पर सफल रही है पर असम और केरल की सत्ता हाथ से निकलने से कांग्रेस एक बार फिर बैकफुट पर जाते हुए भी दिखाई देती है। गौरतलब है कि वर्श 2014 के 16वीं लोकसभा चुनाव से लेकर दर्जन भर विधानसभा चुनाव में केवल बिहार को छोड़कर कांग्रेस लगातार हार की ओर ही बढ़ी है और यह क्रम बादस्तूर अभी भी जारी है। ऐसा भी देखा गया है कि जब-जब परिणाम कांग्रेस के अनुकूल नहीं रहे हैं तब-तब इनमें न केवल चिंतन का दौर चला है बल्कि कमान बदलने की कवायद भी तेज हुई है। जैसा कि इन दिनों पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष कैप्टन अमरिंदर सिंह का राहुल गांधी के लिए अध्यक्ष पद संभालने के मामले में ताजा बयान आया है। दरअसल देष के कोने-कोने में व्याप्त होने वाली कांग्रेस विगत् दो वर्शों से भाजपा के राजनीतिक प्रभाव के चलते व्यापक पैमाने पर सिमटती जा रही है। 2014 में 14 राज्यों में षासन करने वाली कांग्रेस वर्तमान में महज 7 पर ही रह गयी है जबकि इसके उलट 14 राज्यों पर भाजपा का कब्जा हो गया है। ऐसे में कांग्रेस के कार्यकत्र्ता समेत राज्य इकाई इस चिंता में घुले हैं कि यदि भाजपा के राजनीतिक प्रसार के रोकने को लेकर समयानुकूल कोई रणनीति नहीं बन पाई तो वापसी बहुत मुष्किल हो जायेगी। इसी सोच के चलते कांग्रेस में राहुल का चेहरा एक बार फिर उछाला गया है। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि राहुल गांधी के नाम पर कांग्रेस को एक युवा नेता देने की बात भी कही जाती है साथ ही एक मकसद यह भी रहता है कि विरोधियों से टक्कर लेने के मामले में नये किस्म की जमात की जरूरत भी है जो सोनिया गांधी के अध्यक्ष रहते सम्भव नहीं है। रोचक तो यह भी है कि अध्यक्ष के मामले में राहुल गांधी ने कभी भी मन से मना नहीं किया और सोनिया गांधी ने कभी इस पर खुल कर बात नहीं किया।
वर्श 2017 के षुरू में ही उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड एवं पंजाब समेत कई राज्यों के विधानसभा चुनाव सम्पन्न होने हैं। विगत् दो वर्शों से लगातार करारी हार का सामना कर रही कांग्रेस आगे के चुनाव में अपनी रणनीति बदलने की फिराक में भी होगी। जिसे लेकर इन दिनों पार्टी की मरम्मत करने की सख्त आवष्यकता महसूस की जा रही है। बीते दिनों कांग्रेस के वरिश्ठ नेताओं में षुमार दिग्विजय सिंह और कमलनाथ ने अपनी ही पार्टी के लिए बड़ी सर्जरी की जरूरत बताई है। देखा जाए तो जिस कदर कांग्रेस का सियासी धरातल खिसक चुका है और सारे तीर तरकष से निकलने के बावजूद निषाने पर नहीं बैठे हैं उसे देखते हुए राहुल गांधी की ताजपोषी की सम्भावना प्रबल होते दिखाई देती है। जिसका औपचारिक एलान कुछ दिनों में षायद हो जाये। यदि राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष बनते हैं तो देखने वाली बात होगी कि संगठनात्मक स्तर पर उनकी ‘विजनरी अप्रोच‘ क्या होती है साथ ही आगामी चुनाव को लेकर मोदी के मुकाबले वे कौन-सी चाले चलते हैं। इसके अलावा कांग्रेस के कई पुराने राजनीतिज्ञ और जड़ हो चुके नेताओं से अपना पीछा कैसे छुड़ाते हैं। सबके बावजूद यह भी तय है कि राहुल गांधी की स्थिति में संगठनात्मक स्तर पर युवा नेताओं के चेहरे फलक पर आयेंगे। फिलहाल जिस तरह कांग्रेस डैमेज हो चुकी है उसे मैनेज करने के लिए राहुल गांधी को भी एड़ी-चोटी का जोर लगाना होगा पर विगत् कुछ वर्शों से उनकी चुनावी रैलियों से लेकर भाशण और वक्तव्य के साथ क्रियाकलापों को देखते हुए अध्यक्ष के तौर पर उनमें कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन आयेगा कहना कठिन है। जो भी हो पर कांग्रेस को एक नये बदलाव की दरकार तो है। फिलहाल अभी कोई चुनाव होने वाला नहीं है। ऐसे में संगठन में बदलाव का होना लाज़मी प्रतीत होता है ताकि कांग्रेस के ताजा-तरीन चेहरे को सियासत में पैठ बनाने के लिए रणनीतिक तौर पर समय मिल सके। ध्यान्तव्य हो कि आज से चार साल पहले 2012 में जब जयपुर में कांग्रेस का चिंतन षिविर हुआ था तब राहुल गांधी को उपाध्यक्ष बनाया गया था। इसी दौरान राहुल गांधी की वो भावुकता भी देखने को मिली थी जिसमें न केवल सियासी जमात को बल्कि आमजन को भी चैंका दिया था जब उन्होंने कहा था कि उनकी मां सोनिया गांधी ने उनसे कहा था कि राजनीति एक चिता के समान है। अब सम्भवतः इसी माह कर्नाटक में चिंतन षिविर लगने वाला है जहां उपाध्यक्ष से अध्यक्ष पद पर पदोन्नति के साथ उनकी ताजपोषी हो सकती है।
ऐसा नहीं है कि सोनिया गांधी के अध्यक्ष रहते हुए राहुल गांधी के लिए तमाम बन्दिषें थीं। सभी प्रकार के चुनावी और सियासी निर्णयों में उनकी भूमिका तो रही ही है साथ ही इनके कद को भी किसी कांग्रेसी ने कम नहीं आंका। हांलाकि राहुल गांधी की प्रतिभा पर उनके दल के कुछ नेता समय-समय पर सवाल उठाते रहे हैं। देखा जाए तो राहुल गांधी भी अपनी टीम बनाने में लम्बे समय से काम कर रहे हैं और इसके चलते देष भर के 300 से अधिक पार्टी नेताओं से वन-टू-वन भी कर चुके हैं। कांग्रेस के खेमे में कई नये चेहरे हैं जो बैकफुट से फ्रंटफुट पर आयेंगे। इनका वर्क कल्चर भी आवेष से भरा होगा। ऐसा भी हो सकता है कि राहुल के अध्यक्ष बनने से सोनिया गांधी के समय के पदाधिकारी स्वयं पीछे हट जाय और नये अध्यक्ष को नये चेहरे चुनने का अवसर दें पर यह तो दिलचस्प रहेगा कि राहुल गांधी किस प्रकार अपनी टीम बनाते हैं और कैसे यूपीए के लोकप्रिय चेहरे नरेन्द्र मोदी से आगे निकलते हैं। कई नेता प्रियंका गांधी को भी सियासत की बागडोर देने की बात करते रहे हैं। कईयों ने तो प्रियंका को राहुल गांधी से बेहतर नेता तक करार दे दिया है पर दायित्व को बेहतरी से समझते हुए प्रियंका गांधी ने भी इस पर कभी खुलकर नहीं बोला। हांलाकि अमेठी और रायबरेली क्रमषः भाई राहुल और मां सोनिया गांधी के लोकसभा क्षेत्र में मतदाताओं से उनके लिए वोट मांगती रही हैं। गौरतलब तो यह भी है कि जिस प्रकार प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान कांग्रेस मुक्त भारत का आह्वान किया था उसमें यह आहट छुपी थी कि कांग्रेस को जमींदोज होने में अधिक वक्त नहीं लगेगा जो बीते दो वर्शों में काफी हद तक सही साबित हो रहा है। कांग्रेस ने भले ही मोदी के इस आह्वान को हल्के में लिया हो पर सत्ता की चाहत रखने वाली भाजपा ने कांग्रेस के साथ काफी षिद्दत से लड़ाई लड़ी है। इसी का नतीजा है कि कांग्रेस लोकसभा में जमा 44 पर सिमट कर रह गयी है। दो टूक यह भी है कि कांग्रेस को जो भी बदलना है षीघ्र बदल ले, जो भी रणनीति विकसित करनी हो उसमें भी षीघ्रता दिखाये पर इस बात का भी उसे ख्याल रखना होगा कि 21वीं सदी के दूसरे दषक में भारत का लोकतंत्र और उसमें घुली सियासत नामचीन परिवार व्यवस्था से अब आगे नहीं बढ़ाई जा सकती है। इसके लिए जमीन पर जनता के लिए बहुत कुछ करते हुए दिखना होगा।


सुशील कुमार सिंह