Friday, September 15, 2023

विरोधी क्यों ला रहे हैं अविष्वास प्रस्ताव!

लोकतंत्र में यह रहा है कि देष की सबसे बड़ी पंचायत से जनहित को सुनिष्चित करने वाले कानून और कार्यक्रम की उपादेयता सुनिष्चित होती है पर संसद अगर षोर-षराबे की ही षिकार होती रहेगी तो ऐसा सोचना बेमानी होगा। इन दिनों मानसून सत्र जारी है मगर षोर-षराबे से तो यही लगता है कि गैर मर्यादित भाशा और तनी हुई भंवों के बीच पक्ष और विपक्ष दोनों पानी-पानी तो होंगे मगर देष की प्यास बुझनी मुष्किल है। गौरतलब है कि मणिपुर हिंसा का मुद्दा लोकसभा में अविष्वास प्रस्ताव तक पहुंचने के बाद सरकार और विरोधी के बीच संसद के बाहर और भीतर घमासान जारी है। विदित हो कि बीते मई की षुरूआत से ही मणिपुर वर्ग संघर्श में कहीं अधिक हिंसा से लिप्त रहा जिसे लेकर विपक्ष मुखर है। यह रार तब और पेचीदा हो गयी जब विपक्षी गठबंधन ने अविष्वास प्रस्ताव को बहस से पहले संसद में बिना चर्चा किये विधेयक पारित कराये जाने को लेकर ऐतराज जाहिर करते हुए सरकार पर संसदीय नियमों और परम्पराओं को तोड़ने का आरोप लगाया। फिलहाल इन दिनों मोदी सरकार के विरूद्ध अविष्वास प्रस्ताव लाने की कोषिष की जा रही है। मगर बहुमत से कहीं अधिक ऊपर 303 सीट वाली अकेले बीजेपी और गठबंधन सहित 350 का आंकड़ा रखने वाली बीजेपी के खिलाफ अविष्वास प्रस्ताव क्यों लाया जा रहा है यह बात समझ से परे है। हालांकि अविष्वास प्रस्ताव विपक्ष का एक औजार है और कई मौकों पर इसका उपयोग होता रहा है। वजह जो भी हो फिलहाल विरोधियों को इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। दरअसल अविष्वास प्रस्ताव सरकार के विरूद्ध लाना एक संवैधानिक विधा है जिसकी चर्चा अनुच्छेद 75(3) के अन्तर्गत देखा जा सकता है। वैसे देखा जाय तो अविष्वास प्रस्ताव के समर्थन को लेकर षायद ही सभी विरोधियों का रूख एक जैसा हो। 543 लोकसभा सदस्यों के मुकाबले 272 से बहुमत हो जाता है जबकि बीजेपी अकेले 300 से अधिक का आंकड़ा रखती है। हालांकि संविधान में यह भी प्रावधान है कि सदन में उपस्थित सदस्यों में से मत देने वाले सदस्यों के आधे से अधिक से बहुमत सम्भव है। मोदी सरकार को अविष्वास प्रस्ताव को लेकर किसी प्रकार का डर नहीं होना चाहिये परन्तु विपक्ष यदि संविधानसम्वत् इसका पक्षधर है तो उसे अवसर भी दिया जाना चाहिए। हांलाकि इसका निर्णय स्पीकर को करना है। 

अविष्वास का प्रस्ताव एक संसदीय प्रस्ताव है जिसे पारम्परिक रूप से विपक्ष द्वारा संसद में एक सरकार को हराने या कमजोर करने की उम्मीद से रखा जाता है। आमतौर पर जब संसद अविष्वास प्रस्ताव में वोट करती है या सरकार विष्वास मत में विफल रहती है तो उसे त्यागपत्र देना पड़ता है या संसद को भंग करने और आम चुनाव की बात षामिल रहती है। फिलहाल इसके आसार दूर-दूर तक नहीं है लेकिन जो विरोधी मोदी के विरूद्ध अविष्वास प्रस्ताव पर आमादा हैं उन्हें यह भी समझना होगा कि सदन की कार्यवाही भी चलने दें। इससे देष की जनता का नुकसान हो रहा है जिससे वह स्वयं वोट लेकर आये हैं। अविष्वास तथा निंदा जैसे प्रस्ताव विपक्षियों के औजार हैं पर इसे कब प्रयोग करना है इसे भी समझना बेहद जरूरी है। इसके पहले साल 2018 के बजट सत्र में भी मोदी सरकार के खिलाफ अविष्वास प्रस्ताव की मांग तेज हुई थी। देखा जाये तो यह दूसरा मौका है जब विरोधी अविष्वास प्रस्ताव को लेकर सजग दिखाई दे रहे हैं। पड़ताल बताती है लोकतंत्र के संसदीय इतिहास में सबसे पहले जवाहरलाल नेहरू सरकार के खिलाफ यह प्रस्ताव अगस्त 1963 में जेबी कृपलानी ने रखा था लेकिन इसके पक्ष में केवल 52 वोट पड़े थे जबकि प्रस्ताव के विरोध में 347 वोट थे। गौरतलब है कि मोदी सरकार के विरूद्ध पिछले नौ सालों में दूसरी बार अविष्वास प्रस्ताव लाये जाने की बात हो रही है जबकि इन्दिरा गांधी सरकार के खिलाफ सर्वाधिक 15 बार तथा लाल बहादुर षास्त्री और नरसिंह राव सरकार को तीन-तीन बार ऐसे प्रस्तावों का सामना करना पड़ा है। नेहरू षासनकाल से अब तक 25 बार अवष्विास प्रस्ताव सदन में लाये जा चुके हैं जिसमें 24 बार ये असफल रहे हैं। 1978 में ऐसे ही एक प्रस्ताव से सरकार गिरी थी। वैसे मोरारजी देसाई सरकार के खिलाफ दो अविष्वास प्रस्ताव रखे गये थे पहले में तो उन्हें कोई परेषानी नहीं हुई परन्तु दूसरे प्रस्ताव के समय उनकी सरकार के घटक दलों में आपसी मतभेद थे। हालांकि उन्हें अपनी हार का अंदाजा था और मत विभाजन से पहले इस्तीफा दे दिया था। देखा जाय तो विपक्ष में रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी भी एक बार इन्दिरा गांधी के खिलाफ और दूसरी बार नरसिंह राव के खिलाफ अविष्वास प्रस्ताव रख चुके हैं। 

फिलहाल मौजूदा परिस्थितियां कहीं से अविष्वास प्रस्ताव को लेकर नहीं दिखायी देती मगर यह उम्मीद है कि सात-आठ अगस्त को लोकसभा में अविष्वास प्रस्ताव पर चर्चा हो सकती है। लोकसभा में अविष्वास प्रस्ताव लाने के लिये नोटिस तभी स्वीकार किया जाता है जब उसके समर्थन में 50 सदस्य हों। मुख्य विपक्षी कांग्रेस के पास कुल जमा 52 का आंकड़ा तो है। हालांकि जिस प्रकार विरोधी इन दिनों इण्डिया के बैनर तले एकजुटता दिखाई है उससे अविष्वास प्रस्ताव के मामले में विरोधी एकता बड़ी तो होगी मगर सफल नहीं होगी। मुद्दा यह है कि अविष्वास प्रस्ताव लाने वाले के पास जब चंद आंकड़े जुटाना भी मुष्किल है तो बड़ी कूबत वाली सरकार की कुर्सी कैसे हिला पायेंगे। खीज के चलते कांग्रेस समेत वामपंथ या अन्य सरकार के विरोध में मत दे सकते हैं पर इनकी स्थिति भी बहुत दयनीय है। कुछ क्षेत्रीय दल मुद्दे विषेश को लेकर सरकार के विरूद्ध हो सकते हैं पर अविष्वास प्रस्ताव लाने वालों के साथ होंगे ऐसा लगता नहीं है। वैसे भाजपा तथा उनके सहयोगियों में सब कुछ अच्छा ही चल रहा है पूरी तरह कहना कठिन है पर सरकार बचाने में उनका मत सरकार के साथ न हो यह भी होता नहीं दिखाई देता। फिलहाल अविष्वास प्रस्ताव एक विरोधी संकल्पना है जिसका उपयोग किया जाना कोई हैरत वाली बात नहीं। संदर्भित बात यह है कि सदन का कीमती वक्त रोज हंगामे की भेंट चढ़ रहा है। भारी-भरकम पूर्ण बहुमत वाली सरकार का बीते नौ सालों में कोई भी ऐसा सत्र नहीं रहा जिसमें विरोधियों ने नाक में दम न किया हो। सत्र से पहले सर्वदलीय बैठक भी यहां काम नहीं आ रही है। एक-दूसरे की लानत-मलानत और छींटाकषी में वक्त बीत रहा है जबकि 2024 मुहाने पर है जहां 18वीं लोकसभा का एक बार फिर गठन होना है। देष के राजनेता जो राजनीति करें वही जनता को देखना होता है चाहे अच्छा करें या न अच्छा करे। फिलहाल विपक्ष सत्ता की परछाई होती है और 9 साल से अधिक वाली मोदी सरकार हर जगह सही है ऐसा मानना भी सही नहीं है। विरोधियों की आपत्ति भी जनहित में काम आती है और सरकार की नीतियां भी हित सुनिष्चित ही करती हैं। ऐसे में भाशा की मर्यादा, जन भावनाओं का सम्मान साथ ही संसद के भीतर षोर करने की बजाय षान्ति और खुषहाली से जुड़े नियोजन पर काम किया जाये तो सरकार और विपक्ष दोनों के लिए अच्छा रहेगा।

  दिनांक : 29/07/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

पूरा ई-ग्राम स्वराज के बगैर अधूरा ग्रामीण सुशासन

साल 2025 तक देष में इंटरनेट की पहुंच 90 करोड़ से अधिक जनसंख्या तक हो जायेगी जो वर्तमान में 70 करोड़ है। तकनीक किस गति से अपना दायरा बढ़ा रही है यह बढ़े हुए सुषासन से आंक सकते हैं और किस स्तर पर यह अभी चुनौतियों में फंसी है इसका आंकलन भी समावेषी विकास पर निरंतर पड़ती चोट से समझ सकते हैं। गौरतलब है कि ई-गवर्नेंस से प्रषासनिक कार्य एवं सेवाओं की दक्षता तथा गुणवत्ता में सुधार होता है और यह भ्रश्टाचार को कम करने का औजार भी है। जाहिर है ऐसी दोनों परिस्थितियों में सुषासन की बयार बहना सम्भव है। भारत गांवों का देष है और डिजिटल इण्डिया का विस्तार व प्रसार षहर तक ही सीमित नहीं किया जा सकता। निःसंदेह गांव तक इसकी पहुंच को बढ़ाने की पुरजोर कोषिष हो रही है और ऐसा इसलिए भी जरूरी है क्योंकि ई-गवर्नेंस से प्रखर हुई ई-ग्राम समाज अभियान की अवधारणा को भी बल मिलेगा मगर तकनीक यदि रोड़ा बनी रही तो ई-ग्राम स्वराज की अवधारणा जाहिर है कमजोर भी होगी। इससे गांव के डिजिटलीकरण का सपना अधूरा रहेगा और 1922 में जो सपना महात्मा गांधी ने गांव के लिए देखा था वह भी कसमसाहट में भी रह जायेगा। विदित हो कि आगामी अक्टूबर 2023 से गवर्नमेंट ई-मार्केटप्लेस (जीईएम) पोर्टल से ही पंचायतों में खरीद को अनिवार्य किया जाना है। लाख टके का सवाल यह है कि जब इंटरनेट सेवाएं आधी पंचायतों तक भी नहीं पहुंची है तो इस पोर्टल से जुड़े सपने को जमीन कैसे मिलेगी। स्पश्ट कर दें कि जनवरी 2023 तक लगभग 81 हजार पंचायतों तक ही इंटरनेट सेवाएं पहुंच पायी हैं जबकि संसद की स्थायी समिति को मंत्रालय द्वारा दिये गये आंकड़ों के अनुसार देष में लगभग पौने तीन लाख पंचायतें हैं। दावा तो यह भी किया जा रहा है कि हजारों पंचायतों में सेवा षुरू होने वाली है और छः माह में इसे और गति देते हुए आगामी दो वर्श में षत-प्रतिषत पंचायतों को इंटरनेट से जोड़ दिया जायेगा। 

कृशि स्टार्टअप से लेकर मोटे अनाज पर जोर समेत कई संदर्भ पिछले कुछ समय से फलक पर है। उत्पाद, उद्यम और बाजार ई-ग्राम स्वराज की अवधारणा में एक अनुकूल वातावरण ला सकते हैं। मगर इसके लिए इंटरनेट की सेवाएं समुचित रूप से बहाल करनी होंगी। दावे राजनीतिक दृश्टि से कुछ भी हों मगर सुषासन का दृश्टिकोण यह कहता है कि समावेषी ढांचा बिना सुनिष्चित किए ग्रामीण विकास को उचित रूप दिया ही नहीं जा सकता जिसके कारण लोक सषक्तिकरण एक चुनौती बना रहेगा। ई-गवर्नेंस की दृश्टि से देखें तो इसका भी टिकाऊ पक्ष इंटरनेट कनेक्टिविटी ही है। इसी साल के फरवरी में पेष बजट में भी किसानों को डिजिटल ट्रेनिंग देने की बात देखी जा सकती है मगर यह कैसे सम्भव होगा यह भी सोचनीय मुद्दा है। गांव में 8 करोड़ से अधिक महिलाएं जो व्यापक पैमाने पर स्वयं सहायता समूह से जुड़कर उत्पाद करने का काम कर रही हैं और इन्हें देष-विदेष में बाजार मिले इसके लिए भी तकनीक तो चाहिए। इंटरनेट एण्ड मोबाइल एसोसिएषन के सर्वे पर आधारित एक रिपोर्ट जो थोड़ी पुरानी है उससे पता चलता है कि 2020 में गांव में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या 30 करोड़ तक पहुंच चुकी थी। देखा जाये तो औसतन हर तीसरे ग्रामीण के पास इंटरनेट सुविधा है। पौने तीन लाख पंचायतों में 80 हजार पंचायतों तक इंटरनेट की पहुंच इसी आंकड़े को तस्तीक करता है। पूरा भारत साढ़े छः लाख गांवों से भरा है और इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों में 42 फीसद ग्रामीण महिलाएं हैं। गांव में महिलाओं की श्रम षक्ति में हिस्सेदारी भी बढ़ रही है। कृशि क्षेत्र में अभी भी 60 प्रतिषत के साथ यह बढ़त लिए हुए है। इतना ही नहीं बचत दर सकल घरेलू उत्पाद का 33 प्रतिषत इन्हीं से सम्भव है और डेरी उद्योग में तो महिलाएं ही छायी हैं जहां 94 फीसद का आंकड़ा देखा जा सकता है। इंटरनेट की बढ़त से चैतरफा सम्भावनाओं में बाढ़ आना स्वाभाविक तो है मगर इस बात को ध्यान में रखते हुए कि यह सुलभ के साथ कहीं अधिक सस्ता भी हो। 

पंचायती राज मंत्रालय, पंचायतों को पारदर्षी और सषक्त बनाने के लिए कई अभियान और कार्यक्रम चला रहा है। पंचायतों को इस बात के लिए भी निर्देषित किया गया है कि ग्राम पंचायत स्तर पर किसी भी मद में पैसे का लेन-देन फिलहाल यूपीआई से ही किया जाये जिस हेतु 15 अगस्त 2023 का लक्ष्य रखा गया। स्पश्ट है कि डिजिटल लेन-देन व ई-गवर्नेंस को यहां तवज्जो देने की बात है मगर इसका भी पूरा ताना-बाना इंटरनेट कनेक्टिविटी पर निर्भर है। इसके अलावा मंत्रालय की केन्द्रीय अधिकार प्राप्त समिति ने राज्यों से यह भी कहा है कि राज्य विषेश की सभी पंचायतों में जीईएम पोर्टल के माध्यम से ही वस्तुओं और सेवाओं की खरीद-फरोख्त को केन्द्रीय वित्त आयोग द्वारा अनिवार्य किया जा रहा है। यहां भी ई-गवर्नेंस को बढ़ावा देने की बात है बषर्ते चुनौती में इंटरनेट सेवा ही है। राज्यों में इंटरनेट सेवा की पड़ताल यह बताती है कि लगभग पूरे देष में हालत कमोबेष कमजोर और एक जैसी है मसलन उत्तर प्रदेष मे 58189 पंचायतों में महज 5014 पंचयतें इंटरनेट से जुड़ पायी हैं। यह आंकड़ा इस बात का उदाहरण है कि पंचायतें इंटरनेट सेवा के मामले में बहुत बेहतर नहीं बल्कि चिंतनीय अवस्था में है। उत्तराखण्ड में यही आंकड़ 7791 के मुकाबले 1010 पर है। इसी क्रम में राजस्थान, मध्य प्रदेष, हिमाचल प्रदेष समेत सभी राज्यों की हालत कुछ ऐसी ही है। पंजाब इस मामले में कहीं अधिक बेहतर अवस्था लिए हुए है। यहां कि 13241 पंचायतों में 9483 पंचायतें इंटरनेट से सरोकार रखती है जबकि हरियाणा में 6220 पंचायतों के मुकाबले इंटरनेट कनेक्टिविटी वाले पंचायतों की संख्या 3570 है। देखा जाये तो गुजरात में 14359 पंचायतों में 11167 का जुड़ाव इंटरनेट से है जो अपनेआप में एक बेहतर आंकड़ा तो हैं। दावे अपनी जगह है नीयत और नीति में भी कोई संदेह नहीं है मगर ई-ग्राम स्वराज में पंचायतों की तकनीकी स्थिति को देखते हुए यह आंकलन आसान है कि अभी एड़-चोटी का जोर लगाना बाकी है। लेकिन एक हकीकत यह है कि जनवरी में किए गए तमाम दावो को छः महीने बीत चुके हैं, हो सकता है कि पंचायतों को इंटरनेट से जोड़ने का क्रम बीते छः महीने में बड़ा रूप लिया हो मगर यह कहना अतार्किक सा प्रतीत होता है कि अक्टूबर से जीईएम पोर्टल से ही पंचायते अनिवार्य रूप से खरीद मामले से जुड़ जायेंगी। इसका सबसे बड़ा कारण फिर वही तकनीक की चुनौती ही है। 

वोकल फाॅर लोकल का नारा कोरोना काल में तेजी से बुलंद हुआ। मोटे अनाज को लेकर इन दिनों चर्चा खूब जोरों पर है। अच्छे बीज, अच्छी सीख और अच्छी खेती समेत मुनाफे से भरी बिकवाली की अगर कोई बड़ी चुनौती है तो वह तकनीक का समुचित न होना ही है। गांव श्रम का सस्ता रास्ता है लेकिन वित्तीय कठिनाईयों के चलते संसाधन की कमी से जूझते कौषलयुक्त ग्रामीण श्रम षहर का रास्ता पकड़ लेता है। जिसका सबसे बड़ा असर ग्राम स्वराज की उस अवधारणा पर पड़ता है जो राश्ट्रपति महात्मा गांधी का सपना था। ग्रामीण उद्यमी वित्तीय रूप से सषक्त होंगे व तकनीक से युक्त होंगे तो जाहिर है गांवों का देष भारत उन्नति का परिचायक हो जायेगा। फलस्वरूप सुषासन का सपना पाले सरकार को भी इसकी पूरी परिभाशा गढ़ने का अवसर मिलेगा।

 दिनांक : 29/07/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

आर्थिक चुनौतियों से युक्त चिकित्सा शिक्षा

भारत में चिकित्सक के रूप में कैरियर बनाने के उद्देष्य से हर वर्श लाखों विद्यार्थी मेडिकल काॅलेजों में प्रवेष के लिए नीट परीक्षा में संलग्न देखे जा सकते हैं। प्रत्येक मई-जून के महीने में 12वीं उत्तीर्ण और डाॅक्टर बनने का सपना देखने वाले लाखों विद्यार्थियों की तादाद उभार ले लेती है। बीते 7 मई को नेषनल एलिजिबिलिटी कम एन्ट्रेंस टेस्ट यानि नीट 2023 की परीक्षा आयोजित हुई जिसमें आवेदकों की संख्या 21 लाख से अधिक थी जो पिछले वर्श की तुलना तीन लाख अधिक है जिसका परिणाम आ चुका है और प्रवेष हेतु काउंसलिंग जारी है। पड़ताल बताती है कि साल 2021 में 14 लाख विद्यार्थी नीट के लिए पंजीकृत थे जबकि इसके पहले 2020 में यह आंकड़ा 16 लाख और 2019 में 15 लाख थे। आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि एमबीबीएस के लिए लगभग एक लाख सीटें सरकारी एवं निजी मेडिकल काॅलेजों में उपलब्ध है और वर्तमान में काॅलेजों की संख्या साढ़े छः सौ से अधिक है। इसके अलावा अन्य मेडिकल पढ़ाई मसलन दन्त चिकित्सा आदि की भी प्रवेष प्रक्रिया नीट के माध्यम से ही संचालित होती है। गौरतलब है कि पूरे देष में महज 52 हजार सीटें ही सरकारी कोटे की हैं जहां एमबीबीएस में सरकारी फीस के अन्तर्गत अध्ययन होता है। बाकी 48 हजार से अधिक सीटें निजी काॅलेजों आदि के हाथों में है। जाहिर है ऐसे काॅलेजों में विद्यार्थियों को भारी-भरकम षुल्क अदा करना होता है। जो कुछ काॅलेजों में तो पूरे साढ़े पांच साल की पढ़ाई में करोड़ों रूपया से अधिक भी पार कर जाता है। भारत दुनिया का आबादी में सबसे बड़ा देष है और युवा आबादी में भी यह सर्वाधिक ही है। 12वीं के बाद कैरियर की तलाष को लेकर आगे की पढ़ाई में मेडिकल लाखों का सपना होता है। आंकड़ा तो यह भी बताते हैं कि भारत के अस्सी फीसद परिवार महंगी फीस के चलते बच्चों को चिकित्सा की पढ़ाई ही करवाने में अक्षम है।

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय से मिली जानकारी के अनुसार 2014 से पहले देष में 387 मेडिकल काॅलेज थे जो वर्तमान में इक्हत्तर फीसद की बढ़त लिये हुए है और पहले सीटें महज इक्यावन हजार से थोड़ी ज्यादा थी अब यह आंकड़ा एक लाख पार कर चुका है। पोस्ट ग्रेजुएट सीटों में भी 110 फीसद की वृद्धि बतायी गयी है। पूरे भारत में तमिलनाडु में सर्वाधिक मेडिकल काॅलेज हैं। जहां कुल बहत्तर काॅलेजों में अड़तिस सरकारी हैं और इन सरकारी काॅलेजों में एमबीबीएस की पांच हजार दो सौ पच्चीस सीटें हैं जबकि छः हजार सीटें निजी काॅलेजों में है। दूसरे स्थान पर महाराश्ट्र है जहां चैसठ काॅलेज और दस हजार से ज्यादा सीटें उसमें तीस सरकारी काॅलेज हैं। यहां भी एमबीबीएस की सीटें बामुष्किल पांच हजार हैं। उत्तर प्रदेष देष का सर्वाधिक जनसंख्या वाला प्रदेष है मगर मेडिकल काॅलेजों की संख्या में यह तीसरा प्रदेष है, कुल 67 काॅलेजों में पैंतीस सरकारी हैं बाकि सभी निजी हैं। जबकि इन 35 सरकारी काॅलेजों में एमबीबीएस की सीट बामुकिष्ल 43 सौ हैं। इसी क्रम में आन्ध्र प्रदेष आन्ध्र प्रदेष, राजस्थान और गुजरात आदि देखे जा सकते हैं। उक्त से यह स्पश्ट है कि चिकित्सा सेवा को चाहने वालों की तादाद कहीं अधिक है जबकि प्रवेष की सीमा बहुत ही न्यून है षायद यही कारण है कि हजारों विद्यार्थी दुनिया के तमाम देषों में इस सपने को उड़ान देने के लिए उड़ान भरते हैं। हालांकि इसके पीछे एक मूल कारण सस्ती फीस का होना भी है। भारत के निजी चिकित्सा काॅलेजों में फीस पूरे एमबीबीएस करते-करते करोड़ से अधिक खर्च में तब्दील हो जाती है जो सभी की पहुंच में नहीं हैं। मगर दुनिया के कई ऐसे देष हैं जो तीस-पैंतीस लाख के भीतर पूरी पढ़ाई को अंजाम दे देते हैं।

देष के संसदीय कार्य मंत्री ने भी बताया है कि मेडिकल की पढ़ाई करने जाने वाले 90 फीसद विद्यार्थी नीट परीक्षा में फेल हुए रहते हैं। गौरतलब है कि प्रत्येक वर्श हजारों हजार विद्यार्थी मेडिकल की पढ़ाई के लिए विदेष जाते हैं। विदेष में चिकित्सा का अध्ययन करने के लिए पात्रता प्रमाण पत्र प्राप्त करने का षासनादेष जनवरी 2014 से लागू हुआ और तब से यह संख्या हर वर्श तेजी से बढ़ रही है। 2015-16 के बीच विदेष में चिकित्सा का अध्ययन करने के इच्छुक भारतीय छात्रों को भारतीय चिकित्सा परिशद द्वारा दी गयी पात्रता प्रमाणपत्र की संख्या 3398 थी, 2016-17 में यह आंकड़ा 8737 हो गया और बढ़त के साथ 2018 में तो यह 17 हजार के आंकड़े को भी पार किया जबकि वर्तमान में यह 20 हजार से पार कर गया है। इसके कारण को समझना बहुत सरल है भारत के मुकाबले विदेषों में मेडिकल की पढ़ाई कई मायनों में सुविधाजनक होना। नीट एक ऐसा एन्ट्रेंस टेस्ट है जिससे पार पाना कुछ के लिए बेहद मुष्किल होता है और यदि नीट में अंक कम हो तो एडमिषन फीस बहुत ज्यादा हो जाती है। ऐसे ही एक विज्ञापन पर नजर पड़ी जो इन दिनों सोषल मीडिया पर देखा जा सकता है। जिसमें मेडिकल काॅलेजों में सीट सुरक्षित करने को लेकर नीट के अंकों के हिसाब से फीस का वर्णन है। मसलन यदि विद्यार्थी का नीट में 550 से अधिक अंक है तो उसके लिये 45 से 55 लाख का पैकेज है और यही अंक अगर 450 से ऊपर और 550 से कम है तो यह 60 लाख तक का पैकेज हो जाता है और यदि इसी क्रम के साथ विद्यार्थी नीट परीक्षा महज क्वालिफाई किया हो तो उसके लिए फीस 85 लाख से सवा करोड़ होगी। उक्त से यह पता चलता है कि नीट में अंक अधिक तो फीस कम होगी मगर इतनी भी कम नहीं कि सभी सपने बुन सकें। मगर सवाल यह भी है कि इसका विकल्प क्या है। जो चिकित्सा की पढ़ाई रूस, किर्गिस्तान, कजाकिस्तान, जाॅर्जिया, चीन, फिलिपीन्स यहां तक कि यूक्रेन जैसे देषों में महज 30-35 लाख में सम्भव है वहीं भारत में इतनी महंगी है कि कईयों की पहुंच में नहीं है।

देष में 14 लाख डाॅक्टरों की कमी है। यही कारण है कि विष्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के आधार पर जहां प्रति एक हजार आबादी पर एक डाॅक्टर होना चाहिए वहां भारत में सात हजार की आबादी पर एक डाॅक्टर है। जाहिर बात है कि ग्रामीण इलाकों में चिकित्सकों के काम नहीं करने की अलग समस्या है। विष्व स्वास्थ्य संगठन ने 1977 में ही तय किया था कि वर्श 2000 तक सबके लिए स्वास्थ्य का अधिकार होगा, लेकिन वर्श 2002 की राश्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के अनुसार स्वास्थ्य पर जी0डी0पी0 का दो प्रतिषत खर्च करने का लक्ष्य आज तक पूरा नहीं हुआ। इसके विपरीत सरकारें लगातार स्वास्थ्य बजट में कटौती कर रही हैं। देखा जाये तो तो कम चिकित्सक होने की वजह से भी भारत में चिकित्सा की पढ़ाई और चिकित्सा सेवाएं महंगी हैं। दो टूक यह भी है कि विदेष में चिकित्सा की पढ़ाई सस्ती भले ही हो मगर कैरियर के मामले में उतनी उम्दा नहीं है। भले ही वहां गुणवत्ता और मात्रात्मक सुविधाजनक व्यवस्था क्यों न हो। दरअसल इसके पीछे एक मूल कारण यह भी है कि भारत एक उश्ण कटिबंधीय देष है और यहां पर पूरे वर्श मौसम अलग-अलग रूप लिये रहता है और यहां व्याप्त बीमारियां भी भांति-भांति के रंगों में रंगी रहती है। ऐसे में यहां अध्ययनरत् मेडिकल छात्र पारिस्थितिकी और पर्यावरण के साथ बीमारी और चिकित्सा संयोजित कर लेते हैं जबकि दूसरे देषों में यही अंतर रहता है। फिलहाल भारत में मेडिकल काॅलेजों की संख्या जनसंख्या के अनुपात में कम ही कहा जायेगा। जाहिर है चिकित्सकों की खेप लगातार तैयार करने से ही लोगों की चिकित्सा और सरकार की आयुश्मान भारत जैसी योजना को मुकम्मल प्रतिश्ठा दिया जा सकेगा। ऐसे में सरकारी के साथ निजी मेडिकल काॅलेजों में भी षुल्क का अनुपात कम रखना ही देष के हित में रहेगा।

 दिनांक : 29/07/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

आखिर क्यों हुई दिल्ली पानी-पानी

वैसे हर बारिष में गांव हो या षहर कमोबेष नये संघर्श की यात्रा कर लेते हैं मगर इस बार मामला कुछ ज्यादा दिक्कत वाला रहा। हिमाचल, उत्तराखण्ड, समेत कई पहाड़ी राज्यों के साथ मैदानी भी हालिया बारिष और बाढ़ से अच्छी खासी तबाही में गये हैं। इसी तबाही का षिकार फिलहाल दिल्ली भी है। रिकाॅर्ड तोड़ बारिष और यमुना के जल स्तर का रिकाॅर्ड स्तर जिस तरह टूटा है उससे दिल्ली में केवल आमजन तक ही नहीं बल्कि मंत्रियों और सांसदों के घर तक बारिष का पानी पहुंचा है। वैसे देखा जाये तो दिल्ली पहली बार न तो त्रस्त हुई है न त्रासदी देखी है बल्कि यह लगभग हर साल के मौसम में कम-ज्यादा होता रहा है। हां यह बात और है कि इस बार दिल्ली की सड़कें ताल-तलैया और पोखर में तब्दील हो गये। सवाल है कि जिस दिल्ली में दो सरकारे रहती हैं, जो देष की आबोहवा को बदलने की कूबत रखती है वह दिल्ली बारिष के चलते खुद डूबती दिखी। गौरतलब है कि दिल्ली की आबादी दो करोड़ से अधिक है और 1947 में यहां महज 7 लाख की जनसंख्या थी। समय के साथ आबादी बढ़ती गयी निर्माण कार्यों में तेजी आयी और एक मेगा षहर का स्वरूप अख्तियार करते हुए दिल्ली इमारतों, सड़कों, रिहाइषी भवनों, कल-कारखानों और बड़े-बड़े ओवर ब्रिज से बोझिल हो गयी और इसी निरंतरता के साथ जन घनत्व भी प्रसार लिया मगर कई अनेक समस्याएं इसे चारों तरफ से घेर भी लीं मसलन कचरे का ढ़ेर, ई-कचरा, जल निकासी की समस्या आदि ने एक नये तरीके का पीड़ा भी इस दिल्ली को दिया है। कहा जाता है कि दिल्ली के जल निकासी के लिए जो योजना 1976 में बनायी गयी थी वही आज भी निरंतरता लिए हुए है। खास यह है कि इसे महज 20 साल के लिए बनाया गया था जो लगभग 50 साल पूरे कर रही है। अब यह बात समझना सहज है कि दिल्ली बारिष में क्यों हाफने लगती है। 

हालिया स्थिति को देखें तो दिल्ली में आया जल प्रलय योजनाकारों और सरकारों दोनों पर बड़ा सवाल खड़ा करती है। दिल्ली के कई इलाकों में यमुना के बढ़ते पानी के कारण बाढ़ की स्थिति पैदा हो गयी। यमुना का जल स्तर 208 मीटर से अधिक का छलांग लगाते हुए रिकाॅर्ड स्तर तक पहुंच गया है। आईटीओ, निगमबोध घाट, कष्मीरी गेट सहित कई इलाकों में जल भराव तीन फिट से ऊपर चला गया जिसके चलते सरकारें एलर्ट मोड में चली गयी। निचले इलाकों से लोगों को निकाला जा रहा है। देखा जाये तो 1978 के बाद पहली बार यमुना का जलस्तर इतना बढ़ा। जान-माल का काफी नुकसान हो रहा है, लाल किले में भी यमुना का पानी घुस गया। मेट्रो को भी कुछ इलाकों में बंद करना पड़ा, सड़कों पर लम्बा जाम इत्यादि समस्याएं यह बताती हैं कि दिल्ली पानी-पानी तो खूब हुई है। और इसके पीछे बेतरजीब तरीके से हुई बसावट, सरकार की घोर लापरवाही तथा इंतजाम की कमी देखी जा सकती है। यमुना के निचले इलाकों में 37 हजार से अधिक अवैध बाषिंदे हैं जिन्हें विस्थापित करना स्वाभाविक है। यमुना के जल स्तर के बढ़ने के पीछे हथिनीकुण्ड बैराज से पानी छोड़ना भी है यह बैराज हरियाणा में है। वैसे बैराज से पानी छोड़ा जाना हर बारिष में अपने ढंग की आवष्यकता है। दूसरा बड़ा कारण यहां की बूढ़ी हो चुकी जल निकासी व्यवस्था है। दिल्ली के ड्रेनेज सिस्टम के साथ 11 विभाग षामिल हैं जिन्हें एक मेज पर बैठकर नया मास्टर प्लान तैयार करना ही होगा। यदि ऐसा नहीं सम्भव हुआ तो दिल्ली की सड़कों पर कार और मोटरगाड़ी की बजाये नाव चला करेंगी। फिलहाल दिल्ली पुलिस ने बाढ़ प्रभावित इलाकों में धारा 144 लागू की दी है। वैसे देखा जाये तो यह चैथी बार है जब यमुना का जलस्तर 207 मीटर के पार पहुंचा है। 

भारी बारिष के चलते उत्तर भारत में ट्रेन का आवागमन भी बेपटरी हुआ है। 500 से अधिक ट्रेने आंषिक व पूर्ण रूप से रद्द हो चुकी हैं। टिकट रद्द होने और रिफण्ड के चलते रेलवे भी घाटे की ओर अग्रसर है। हालांकि ऐसे मौके कई बार रहे हैं और मौसम ठीक होने की स्थिति में ट्रेने फिर पटरी पर दौड़ती रही हैं। खास यह भी है कि एक ओर जहां हिमाचल और पंजाब में बाढ़ से हालत गम्भीर है और दिल्ली में भी बारिष और बाढ़ ने नई समस्या खड़ी की है। वहीं झारखण्ड और उत्तर प्रदेष में बारिष की कमी महसूस कर रहे हैं। पूरे भारत की पड़ताल किया जाये तो अधिक वर्शा वाले क्षेत्रों में जम्मू-कष्मीर, हिमाचल प्रदेष, पंजाब, उत्तराखण्ड, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात और तमिलनाडु को देखा जा सकता है। देखा जाये तो ये 8 राज्य इन दिनों बारिष से बेहाल है जबकि देष के 11 ऐसे राज्य जो कम बारिष से युक्त हैं। बिहार में बारिष सामान्य से 33 फीसद कम है और किसान इस कमी से परेषान है साथ ही गर्मी और उमस की समस्या बरकरार है। झारखण्ड में मानसून कमजोर रहा हालांकि आगे सक्रियता बढ़ने की सम्भावना है। झारखण्ड में 43 फीसद और ओडिषा में 26 प्रतिषत कम बारिष दर्ज हुई है। असम को छोड़ दिया जाये तो पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में मानसूनी बादल कम ही बरसें हैं। फिलहाल 12 जुलाई तक हुई 4 दिन की बारिष से देष के अंदर सौ से ज्यादा की बाढ़ और बारिष से मौत हुई। 10 हजार से अधिक पर्यटक हिमाचल प्रदेष में जहां-तहां फंस गये। हरियाणा के 9 जिलों के 6 सौ गांव में पानी भर गया। उक्त आंकड़े यह दर्षाते हैं कि हालिया बारिष और बाढ़ का परिप्रेक्ष्य से पूरा देष नहीं घिरा है बल्कि कुछ राज्य तक यह मामला है जिसमें देष की राजधानी दिल्ली भी खूब पानी-पानी हुई है। 

बारिष पर किसी का जोर नहीं मगर बढ़ रहे पृथ्वी के तापमान, जलवायु परिवर्तन और मानव द्वारा सृजित या निर्मित अनेक वे कारक जो पृथ्वी के बदलाव को बड़े बदलाव में तब्दील करने में लगे हैं उसको कमतर किया जा सकता है। इतना ही समय रहते षहरों के जल निकासी को दुरूस्त करना, बारिष से पहले साफ-सफाई करना, अवैध काॅलोनी को न बसने देना, नाला-खाला आदि पर अतिक्रमण से रोक और बेहतरीन मास्टर प्लान बनाकर बाढ़ से बचा जा सकता है। दिल्ली देष का वह चित्र है जहां से पूरे देष के मानचित्र की सेहत सुधरती है। ऐसे में बारिष और बाढ़ के चलते बीमार होना सही नहीं है। बदले परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण के अन्तर्गत यह समझने में कोई कोताही नहीं होनी चाहिए कि षिक्षा, चिकित्सा, सड़क, सुरक्षा समेत अनेक बुनियादी व समावेषी विकास के निहित अर्थों में बाढ़ से बचाव भी षामिल है। बाढ़ और बारिष से जान-माल की हानि को कम करना, आवागमन को सुचारू बनाये रखना तथा सुजीवन को पटरी से उतरने से रोकना सरकार की जिम्मेदारी है। ऐसे में दिल्ली हो या देष का कोई भी षहर हवा में काम करने के बजाये जमीन पर उतर कर अपने षहर को समझना उसके अनेक प्रबंधन को उसी जमीन पर उतारना ताकि नौबत कुछ भी आ जाये बारिष कितनी भी हो बाढ़ से बचा जा सके। हालांकि यह काम कठिन है मगर नामुमकिन नहीं है। सबके बाद दो टूक यह कि इसकी षुरूआत सबसे पहले दिल्ली से ही होनी चाहिए।

 दिनांक : 13/07/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

बारिश से गांव और शहर दोनों बेहाल

उत्तर भारत में पहाड़ी और मैदानी दोनों इलाके महज दो दिन की मानूसनी बारिष से पानी-पानी हो गये। उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेष और जम्मू-कष्मीर में बारिष का स्वरूप कहीं अधिक नुकसान से भरा है।  ज्यादा तबाही में तो उत्तराखण्ड भी षामिल है। भूस्खलन व धंसाव आदि के चलते यहां सैकड़ों सड़कों पर आवाजाही बाधित हुई। मानसून के साथ बरसी आफत से उत्तराखण्ड में मौत और लापता होने का चित्र देखा जा सकता है। हिमाचल प्रदेष के सैकड़ों साल पुराने पुल भी इस बारिष को झेल नहीं पाये और आधा दर्जन पुल निस्तोनाबूत हो गये। भारी वर्शा ने सड़कों को नदी-नालों में तब्दील कर दिया है। गाड़ियां चलने के बजाये बहने लगी और आसमान से बारिष की बूंदे नहीं मानो आपदा टूटी हो। उत्तर भारत के ज्यादातर राज्यों में जल प्रलय जैसी स्थिति कुछ हद तक बन गयी है जबकि पूर्वोत्तर भारत ब्रह्यपुत्र की चपेट में पहले से ही है। गौरतलब है कि यहां 11 सौ से अधिक गांव जलमग्न हैं और लगभग 9 हजार हेक्टेयर में लगी फसल नश्ट हो गयी है और चार लाख से अधिक लोग प्रभावित हो गये हैं। दक्षिण भारत भी कमोेबेष इसकी चपेट में है। केरल में मानसूनी बारिष का कहर मौत और विस्थापन का स्वरूप लिए हुए है। पर्यटन स्थल गोवा भी जलमग्न और हादसे से मुक्त नहीं है। महाराश्ट्र व मध्य प्रदेष आदि समेत आधे से अधिक भारत बारिष में जल जमाव का षिकार तो रहता है। ग्रीन, येलो, आॅरेंज और रेड एलर्ट जैसे जितने भी बारिष से जुड़े संकेत होते हैं वे सभी इन दिनों फलक पर हैं।

फिलहाल भारत की राजधानी दिल्ली में 24 घण्टे की अवधि में 153 मिलीमीटर बारिष दर्ज की गयी जो 1982 के बाद जुलाई में एक दिन में सर्वाधिक बारिष है। चण्डीगढ़ और अंबाला जैसे षहरों में भी बारिष का रिकाॅर्ड उफान पर है। गौरतलब है कि दिल्ली देष की राजधानी के बावजूद बारिष की जहमत को कम नहीं कर पाती है जबकि वहां दो-दो सरकारें रहती हैं और यमुना नदी वहीं से बहती है। इस नदी के निचले इलाके बाढ़ के लिहाज़ से संवेदनषील हैं और यहां लगभग 37 हजार लोग रहते हैं। स्थिति तो यह भी है कि वर्शा के चलते हरियाणा के कौषल्या बांध में जलस्तर भी उफान ले लिया साथ ही हथिनीकुंज बैराज में भी पानी का दबाव अधिक होने और इसको छोड़ने का असर यमुना के किनारे लोगों पर पड़ना स्वाभाविक है। रोचक यह है कि अभी तो मौसमी बारिष षुरू ही हुई है जबकि हाल अभी से बेहाल है तो आने वाले दो से ढ़ाई महीने में स्थिति क्या होगी अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। चिंता तो इस बात की है कि पूरे बंदोबस्त करने के दावों के बीच एक-दो दिन की बारिष इंतजाम की पोल खोल देती है और सुषासन का स्लोगन पानी-पानी हो जाता है। लगभग पूरे उत्तर भारत में तबाही का मंजर तो है मौसम विभाग ने कहा कि पष्चिमी विक्षोभ और मानसूनी हवाओं के साथ मिलने से भारी बारिष हुई है। देखा जाये तो पृथ्वी के बदले स्वभाव और प्रकृति में हो रहा निरंतर परिवर्तन और धरती का लगातार गरम होते रहना भी बढ़ी बारिष एक कारण हो सकता है। भारतीय मौसम विज्ञान की माने तो जुलाई पहले कुछ दिनों में उत्तर पष्चिम भारत में हुई बारिष ने देष में बारिष की कमी को पूरा कर दिया है।

गौरतलब है कि असम, उत्तर प्रदेष और बिहार समेत कुछ राज्यों में बाढ़ तकरीबन हर साल आती है। 1980 में राश्ट्रीय बाढ़ आयोग ने अनुमान लगाया था कि 21वीं सदी के षुरूआती दषक तक 4 करोड़ हेक्टेयर भूमि बाढ़ की चपेट में होगी। इसे देखते हुए बड़ी संख्या में बहुउद्देषीय बांध और 35 हजार किलोमीटर तटबंध बनाये गये। मगर बाढ़ से मुक्ति तो छोड़िये अनुमान से एक हजार हेक्टेयर अधिक भूमि बाढ़ से प्रभावित होने लगी। वैसे देखा जाय तो बाढ़ की फसलें भी सरकारें ही बोती हैं और वही काटती हैं। वर्शों पहले केन्द्रीय जल आयोग ने एक डेटा जारी करते हुए बताया था कि देष के 123 बांधों या जल संग्रहण क्षेत्रों में पिछले दस सालों के औसत का 165 फीसद पानी संग्रहित है और यह अब तुलनात्मक और बढ़ गया है। इसका तात्पर्य यह कि बांधों में पर्याप्त रूप से पानी का भण्डारण था ये 123 वे बांध हैं जिसका प्रबंधन व संरक्षण केन्द्रीय जल आयोग करता है और जबकि इन बांधों में देष की कुल भण्डारण क्षमता का 66 फीसद पानी जमा होता है। जाहिर है उस समय जरूरत होने पर भी इन बांधों से पानी नहीं छोड़ा गया और बरसात होते ही बांध कहीं अधिक उफान पर आ जाते हैं। ऐसे में गेट खोल देने का नतीजा पहले से उफान ले रही नदी में बहाव को तेज कर देना और पानी को गांव और षहर में घुसाना और जान-माल को हाषिये पर धकेलना है। समझने वाली बात यह है कि जब अरब सागर में बिपरजाॅय जैसे उठने वाले तूफान से लाखों को विस्थापित कर सुरक्षित किया जा सकता है तो नदी तट पर रहने वालों की सुरक्षा के इंतजाम क्यों नहीं जबकि पहले से पता है कि यहां बाढ़ आती ही है। साफ है कि अधूरे इंतजाम के साथ बाढ़ का इंतजार किया जाता है। 

भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक (कैग) ने 21 जुलाई 2017 को बाढ़ नियंत्रक और बाढ पूर्वानुमान पर अपनी एक रिपोर्ट सौंपी थी जिसमें कई बातों के साथ 17 राज्यों और केन्द्रषासित प्रदेषों के बांधों सहित बाढ़ प्रबंधन की परियोजनाओं और नदी प्रबंधन की गतिविधियों को षामिल किया गया था। इसके अंतर्गत साल 2007-08 से 2015-16 निहित है। वैसे देखा जाय तो मानवीय त्रुटियों के अलावा बाढ़ का भीशण स्वरूप कुछ प्राकृतिक रूप लिए हुए है। कोसी नदी नेपाल में हिमालय से निकलती है यह बिहार में भीम नगर के रास्ते भारत में आती है जो बाकायदा यहां तबाही मचाती है। गौरतलब है कि साल 1954 में भारत ने नेपाल के साथ समझौता करके इस पर बांध बनाया था। हांलाकि बांध नेपाल की सीमा में था परन्तु रख-रखाव भारत के जिम्मे था। नदी के तेज बहाव के चलते यह बांध कई बार टूट चुका है। पहली बार यह 1963 में टूटा था। इसके बाद 1968 में पांच जगह से टूट गया। 1991 और 2008 में भी यह टूटा। फिलहाल बांध पर जगह-जगह दरारें हैं। समझा जा सकता है कि बाढ़ में इसका क्या योगदान है। गंडक नदी भी नेपाल के रास्ते बिहार में दाखिल होती है और अपने हिसाब का बाढ़ बढ़ाती है। फिलहाल मौसम विज्ञान समय पर एलर्ट जारी करता रहेगा, बारिष की सम्भावना बताता रहेगा, बारिष कम-ज्यादा होना तय है और इसके नुकसान से बच पाना कठिन रहेगा और पूरा मानसूनी अवधि कम-ज्यादा मुसीबत बनी रहेगी। हालिया बारिष ने यह बता दिया है कि कठिनाई किसी के भी हिस्से में आ सकती है। बारिष से खेत-खलिहान और गांव ही नहीं डूबते बल्कि जल-निकासी बेहतर न होने से सभ्यता से भरे षहर भी ताल-तलैया और पोखर में तब्दील हो जाते हैं। इससे निपटने के लिए सुषासन का दायरा समुचित और सुव्यवस्थित करना ही पड़ेगा और बारिष के इंतजार के बजाए बाढ़ का इंतजाम करना होगा। 

 दिनांक : 10/07/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता और भारत

विदित हो कि संयुक्त राश्ट्र के संस्थापक सदस्यों में भारत भी षुमार था और अब तक वह संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद का आठ बार सदस्य भी रह चुका है। आखिरी बार साल 2021-22 में अस्थायी सदस्य के रूप में भारत अपना परचम लहराया था मगर पूरी योग्यता और व्यापक समर्थन के बावजूद अभी भी स्थायी सदस्यता की बाट जोह रहा है। गौरतलब है स्थायी सदस्यता के मामले में भारत दुनिया भर से समर्थन रखता है सिवाय एक चीन के। हालिया परिप्रेक्ष्य देखें तो ब्रिटेन सुरक्षा परिशद में विस्तार का समर्थन किया है और स्पश्ट किया है कि भारत, जापान, ब्राजील समेत अफ्रीकी देषों को संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद में स्थायी सीट दी जाये। इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले 77 वर्शों से चली आ रही इस व्यवस्था में अमूल-चूल परिवर्तन की मांग अक्सर उठती रही है। दुनिया कई प्रकार के आकार और प्रकार को ग्रहण कर लिया है मगर सुरक्षा परिशद 5 स्थायी मसलन अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, फ्रांस और रूस के अलावा 10 अस्थायी सदस्यों के साथ यथावत बना रहा। ऐसे में अब परिवर्तन का समय आ चुका है। हालांकि इसे लेकर बरसों से कवायद जारी है मगर नतीजे जस के तस बने रहे। असल में सुरक्षा परिशद की स्थापना 1945 की भू-राजनीतिक और द्वितीय विष्वयुद्ध से उपजी स्थिति को देखकर की गयी थी पर 77 वर्शों में पृश्ठभूमि अब अलग हो चुकी है। देखा जाय तो षीतयुद्ध की समाप्ति के साथ ही इसमें बड़े सुधार की गुंजाइष थी जो नहीं किया गया। 5 स्थायी सदस्यों में यूरोप का प्रतिनिधित्व सबसे ज्यादा है जबकि आबादी के लिहाज़ से बामुष्किल वह 5 फीसद स्थान घेरता है। अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका का कोई सदस्य इसमें स्थायी नहीं है जबकि संयुक्त राश्ट्र का 50 प्रतिषत कार्य इन्हीं से सम्बन्धित है। ढंाचे में सुधार इसलिए भी होना चाहिए क्योंकि इसमें अमेरिकी वर्चस्व भी दिखता है। भारत की सदस्यता के मामले में दावेदारी बहुत मजबूत दिखाई देती है। जनसंख्या की दृश्टि से चीन को भी पछाड़ते हुए पहला सबसे बड़ा देष, जबकि अर्थव्यवस्था के मामले में दुनिया में 5वां साथ ही प्रगतिषील अर्थव्यवस्था और जीडीपी की दृश्टि से भी प्रमुखता लिए हुए है। ऐसे में दावेदारी कहीं अधिक मजबूत है। इतना ही नहीं भारत को विष्व व्यापार संगठन, ब्रिक्स और जी-20 जैसे आर्थिक संगठनों में प्रभावषाली माना जा सकता है। भारत की विदेष नीति तुलनात्मक प्रखर हुई है और विष्व षान्ति को बढ़ावा देने वाली है साथ ही संयुक्त राश्ट्र की सेना में सबसे ज्यादा सैनिक भेजने वाले देष के नाते भी दावेदारी सर्वाधिक प्रबल है। हालांकि भारत के अलावा कई और देष की स्थायी सदस्यता के लिए नपे-तुले अंदाज में दावेदारी रखने में पीछे नहीं है। जी-4 समूह के चार सदस्य भारत, जर्मनी, ब्राजील और जापान जो एक-दूसरे के लिए स्थायी सदस्यता का समर्थन करते हैं ये सभी इसके हकदार समझे जाते हैं। एल-69 समूह जिसमें भारत, एषिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कई 42 विकासषील देषों के एक समूह की अगुवाई कर रहा है। इस समूह ने भी सुरक्षा परिशद् में सुधार की मांग की है। अफ्रीकी समूह में 54 देष हैं जो सुधारों की वकालत करते हैं। इनकी मांग यह रही है कि अफ्रीका के कम-से-कम दो राश्ट्रों को वीटो की षक्ति के साथ स्थायी सदस्यता दी जाये। उक्त से यह लगता है कि भारत को स्थायी सदस्यता न मिल पाने के पीछे मेहनत में कोई कमी नहीं है बल्कि चुनौतियां कहीं अधिक बढ़ी हैं। बावजूद इसके यदि भारत को इसमें षीघ्रता के साथ स्थायी सदस्यता मिलती है तो चीन जैसे देषों के वीटो के दुरूपयोग पर न केवल अंकुष लगेगा बल्कि व्याप्त असंतुलन को भी पाटा जा सकेगा।

संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् में स्थायी सदस्यता को लेकर भारत बरसों से प्रयासरत् रहा है। अमेरिका और रूस समेत दुनिया के तमाम देष स्थायी सदस्यता को लेकर भारत पक्षधर भी हैं मगर यह अभी मुमकिन नहीं हो पाया है। पड़ताल बताती है कि भारत आठ बार अस्थायी सदस्य के रूप में सिलसिलेवार तरीके से 1950-51, 1967-68, और 1972-73 से लेकर 1977-78 समेत 1984-1985, 1991-1992 व 2011-2012 समेत 2021-2022 में भी सुरक्षा परिशद् में अस्थायी सदस्य रहा है। जहां तक सवाल स्थायी सदस्यता का है इस पर मामला खटाई में बना हुआ है। गौरतलब है कि पिछले अमेरिकी राश्ट्रपति चुनाव से पहले भारत में राजदूत रह चुके रिचर्ड वर्मा ने कहा था कि यदि जो बाइडेन राश्ट्रपति बनते हैं तो संयुक्त राश्ट्र जैसी अन्तर्राश्ट्रीय संस्थाओं को नया रूप देने में मदद करेंगे ताकि भारत को सुरक्षा परिशद में स्थायी सीट मिल सके। ध्यानतव्य हो कि जो बाइडेन अमेरिकी के राश्ट्रपति चुने भी गये और 20 जनवरी 2021 से बाकायदा सत्तासीन हैं मगर इस दिषा में अभी कुछ ऐसा होते हुए दिखा नहीं है। 4 जुलाई 2023 को संयुक्त राश्ट्र संघ में ब्रिटेन के स्थायी प्रतिनिधि बारबरा बुडवर्ड ने सुरक्षा परिशद के विस्तार का मुद्दा उठाने के साथ भारत समेत अन्य देषों को स्थायी सदस्यता की बात कहकर एक बार इस मामले को फिर फलक पर ला दिया है। फरवरी 2022 से रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध जारी है। पष्चिमी देष इस हालात से निपटने में नाकाम रहे हैं जबकि भारत इस मामले में कहीं अधिक सफल कूटनीतिक और राजनयिक नेतृत्व को बड़ा किया है। भारत के इस बदले वैष्विक परिप्रेक्ष्य में उभरे नेतृत्व ने उसे दुनिया के केन्द्र में खड़ा किया है। ऐसे में सुरक्षा परिशद में बहुत देर तक भारत को बाहर रखना वैष्विक हानि का संकेत है। पिछले 77 वर्शों में सुरक्षा परिशद कई बड़ी सफलता तो कई नाकामियों के साथ चहल कदमी की है। यह बात सकारात्मक है कि इसके गठन के बाद तृतीय विष्व युद्ध नहीं हुआ मगर दुनिया कई युद्धों से गुजरी है और वर्तमान में रूस और यूक्रेन के बीच यह जारी है। अमेरिका के नेतृत्व में 2003 में इराक पर आक्रमण, साल 2008 में रूस द्वारा जाॅर्जिया पर हमला, अरब-इजराइल युद्ध, 1994 में रवान्डा का नरसंहार, 1993 में सोमालिया का गृह युद्ध समेत मौजूदा रूस-यूक्रेन युद्ध इसकी विफलता की कहानी है। मगर कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर समाधान कर सुरक्षा परिशद ने अपनी साख को भी बड़ा किया है। मसलन 1950 में कोरियाई युद्ध, 1990 में कुवैत पर इराक का हमला, 1993 में बोस्निया और 2001 में अफगानिस्तान इत्यादि को लेकर प्रस्ताव पारित किये। खास यह भी है कि जब पी-5 अर्थात् सुरक्षा परिशद के 5 स्थायी सदस्यों वाले देषों के बीच कभी आमने-सामने का युद्ध नहीं हुआ जो सुरक्षा परिशद की सफलता ही कही जायेगी। हालांकि एक स्थिति ऐसी भी आयी थी जब पी-5 देष 1962 में क्यूबा के मिसाइल संकट के दौरान आमने-सामने हो सकते थे लेकिन संयुक्त राश्ट्र की कूटनीतिक पहल ने हालात से सही तरीके से निपट लिया था।  

फिलहाल भारत को स्थायी सदस्यता की आवष्यकता क्यों है और यह मिल क्यों नहीं रही है और इसके मार्ग में क्या बाधाएं हैं। माना जाता है कि जिस स्थायी सदस्यता को लेकर भारत इतना एड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है वही सदस्यता 1950 के दौर में बड़ी आसानी से सुलभ थी। आवष्यकता की दृश्टि से देखें तो भारत का इसका सदस्य इसलिए होना चाहिए क्योंकि सुरक्षा परिशद प्रमुख निर्णय लेने वाली संस्था है। प्रतिबंध लगाने या अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय के फैसले को लागू करने के लिए इस परिशद के समर्थन की जरूरत पड़ती है। ऐसे में भारत की चीन और पाकिस्तान से निरंतर दुष्मनी के चलते इसका स्थायी सदस्य होना चाहिए। चीन द्वारा पाकिस्तान के आतंकवादियों पर बार-बार वीटो करना इस बात को पुख्ता करता है। स्थायी सीट मिलने से भारत को वैष्विक पटल पर अधिक मजबूती से अपनी बात कहने की ताकत मिलेगी। स्थायी सदस्यता से वीटो पावर मिलेगा जो चीन की काट होगी। इसके अलावा बाह्य सुरक्षा खतरों और भारत के खिलाफ सुनियोजित आतंकवाद जैसी गतिविधियों को रोकने में मदद भी मिलेगी। भारत को स्थायी सदस्यता न मिलने के पीछे सुरक्षा परिशद की बनावट और मूलतः चीन का रोड़ा समेत वैष्विक स्थितियां हैं। वैसे चीन न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (एनएसजी) के मामले में भी भारत के लिए रूकावट बनता रहा है। गौरतलब है सुरक्षा परिशद में 5 स्थायी और 10 अस्थायी सदस्य होते हैं। अस्थायी सदस्य देषों को चुनने का उद्देष्य सुरक्षा परिशद में क्षेत्रीय संतुलन कायम करना होता है। जबकि स्थायी सदस्य षक्ति संतुलन के प्रतीत हैं और इनके पास वीटो की ताकत है। इसी ताकत के चलते चीन दषकों से भारत के खिलाफ वीटो का दुरूपयोग कर रहा है। 

संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद में स्थायी सदस्यता का मामला दषकों पुराना है। यदि अमेरिका जैसे देषों को यह चिंता है तो सुरक्षा परिशद में में बड़े सुधार को सामने लाकर भारत को उसमें जगह देना चाहिए। बरसों पहले रूसी विदेष मंत्री ने भी यह कहा है कि स्थायी सदस्यता के लिए भारत मजबूत नाॅमिनी है। वैसे देखा जाय तो दुनिया के कई देष किसी भी महाद्वीप के हों भारत के साथ खड़े हैं मगर नतीजे वहीं के वहीं हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि दुनिया के बहुत सारे संगठन चाहे दक्षिण-एषियाई समूह सार्क या गुटनिरपेक्ष समूह समय के साथ मानो अप्रासंगिक से हो गये हैं। विष्व स्वास्थ्य संगठन से लेकर विष्व व्यापार संगठन पर भी समय-समय पर उंगली उठती रही है। संयुक्त राश्ट्र संघ की उपादेयता पर भी सफलता और असफलता की लकीर कमोबेष छोटी-बड़ी रही है। संदर्भ यह भी है कि किसी भी संगठन या परिशद को यदि सुधार और बदलाव से विमुख लम्बे समय तक रखा जाये तो उसमें गैर उपजाऊ तत्व स्वतः षामिल हो जाते हैं। षिखर पर खड़े भारत का नेतृत्व मौजूदा समय में यह पूरी धमक के साथ स्वयं को प्रतिबिंबित करता है कि सुरक्षा परिशद में फेरबदल के साथ उसे स्थायी सदस्य बनाया जाये। इसी में वैष्विक हित के साथ संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद का संतुलन सम्भव है।

 दिनांक : 06/07/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

सुषासन के लिए चुनौती साइबर सुरक्षा

यह तर्कसंगत है कि देष में जैसे-जैसे डिजिटलीकरण का दायरा बढ़ता जायेगा वैसे-वैसे साइबर सुरक्षा सम्बंधी चुनौतियां भी बढ़ती जायेंगी। डाटा चोरी और वित्तीय धोखाधड़ी साइबर अपराध के बड़े आधार हो गये हैं। षायद यही कारण है कि रोजगार के नये अवसर में डाटा प्राइवेसी, डाटा सिक्योरिटी और नेटवर्क सिक्योरिटी के विषेशज्ञ प्रोफेषनल की मांग तेजी से बढ़ी है। देखा जाये तो साइबर सुरक्षा का बाजार भी बड़ा आकार लेता जा रहा है। एक रिपोर्ट से यह पता चलता है कि इस बाजार का आकार 2021 में 220 करोड़ का था जो 2027 तक 350 करोड़ तक पहुंचने का अनुमान है। देखा जाये तो साल 2021 में साइबर हमलों में विष्व में भारत का दूसरा स्थान था और 2022 में तो इसे लेकर 14 लाख मामले दर्ज किये गये थे। विज्ञान और तकनीक जिस मुकाम को हासिल किये उसमें सब कुछ उजला ही नहीं है कुछ उसके स्याह पक्ष भी है साइबर अपराध इसी का एक नतीजा है। कम्प्यूटर, सर्वर, मोबाइल डिवाइस, इलेक्ट्राॅनिक सिस्टम, नेटवर्क और डेटा को हमले से बचाने का एक बड़ा प्रयास साइबर सुरक्षा है। वैष्विक स्तर पर साइबर खतरा तेजी से गतिमान है और दिन दूनी-रात चैगुनी की तर्ज पर तेजी लिए हुए है। साइबर अपराधियों ने किसी को भी सुरक्षित नहीं छोड़ा। संसद, न्यायाधीष, विष्वविद्यालय के कुलपति, व्यापारी, पुलिस अधिकारी को भी अपने षिकंजे में फंसा चुका है। आंकड़े की पड़ताल से यह पता चलता है कि भारत में साइबर अपराध को लेकर साल 2021 में 18 हजार से अधिक मामलों में आरोप पत्र दाखिल हुए जिसमें इसे लेकर लगभग 53 हजार मामलों पर केस दर्ज हुआ और 491 मामलों में सजा हुई। उक्त से यह परिलक्षित होता है कि साइबर अपराध का दायरा अच्छा खासा प्रसार लिया है और साथ ही साइबर सुरक्षा की चुनौती को बढ़ा दिया है।

मौजूदा दौर सुषासन उन्मुख दृश्टिकोण से युक्त है साथ ही ई-गवर्नेंस को भारी पैमाने पर बढ़ावा दिया जा रहा है। इंटरनेट कनेक्टिविटी को 5-जी व 6-जी की ओर ले जाने का पूरा प्रयास है। 2025 तक 90 करोड़ आबादी को इंटरनेट से जोड़ने का लक्ष्य है। पढ़ाई-लिखाई से लेकर चिकित्सा व अदालती व्यवस्थाओं में इंटरनेट का पूरा समावेष देखा जा सकता है। ई-बैंकिंग समेत दर्जनों प्रकार की इलेक्ट्राॅनिक विधाओं से युक्त क्रियाकलापों को जमीन पर उतार दिया गया है। लेन-देन की प्रक्रिया को सरकार भी डिजिटलीकरण के मामले को दो कदम और आगे बढ़ाने की फिराक में रहती है। प्रधानमंत्री मोदी ने तो यहां तक भी कहा है कि एक दिन जेब में बिना कैष के ही रहे और लेन-देन को डिजिटल पर ले जायें। सुषासन की परिपाटी में षासन को यह चिंता होना स्वाभाविक है कि चहुमुखी विकास को डिजिटलीकरण के माध्यम से बड़ा और सघन बनाया जाये। मगर साइबर सुरक्षा को लेकर एक चिंता अपनी जगह रहती है जो हर लिहाज से सुषासन को मुंह चिढ़ाता है। साइबर खतरे का स्तर लगातार बढ़ने के साथ साइबर सुरक्षा समाधानों पर वैष्विक खर्च भी तेजी से बढ़ रहा है। अनुमान तो यह भी है कि साइबर सुरक्षा खर्च 2023 में 188 बिलियन डाॅलर तक पहुंच जायेगा जबकि 2026 तक यही 260 बिलियन डाॅलर हो जायेगा। अमेरिका, इंग्लैण्ड, आॅस्ट्रेलिया देषों में साइबर सुरक्षा के लिए अनेकों पहल किए हैं। खतरों की विवेचना से यह पता चलता है कि साइबर अपराध बिना किसी सीमा के चलायमान है। साइबर हमले, साइबर आतंकवाद जैसे षब्द सभ्य समाज और व्याप्त सुषासन के लिए कड़ी और बड़ी चुनौती दे रहे हैं। देष के कई इलाके जो साइबर अपराधियों के गढ़ बन गये हैं ऐसे ही इलाकों में हरियाणा का नूंह जिला जिसे साइबर लुटेरों ने मिलकर चर्चे में ला दिया। पुलिस के अनुसार इस जिले में 434 गांव हैं। अधिकांष अरावली की तलहटी में स्थित है और फर्जी काॅल के लिए यह उपयुक्त अड्डे हैं। झारखण्ड का जामतारा तो साइबर अपराधियों का बाकायदा अड्डा बना हुआ है। हालांकि साइबर अपराध दुनिया के किसी भी कोने में कहीं से भी पनप सकता है और समाज को नई मुसीबत में डाल सकता है। 

देष में इंटरनेट से करोड़ों की आबादी जुड़ गयी। बहुतायत में व्यक्तिगत ईमेल समेत अन्य प्रकार की इलेक्ट्राॅनिक व्यवस्थाओं से जनता जुड़ गयी मगर एक पक्ष यह भी है कि साइबर सुरक्षा को लेकर जागरूकता का स्तर अभी विकसित ही नहीं हो पाया। कई वर्श पहले ही साइबर अपराध की बढ़ती स्थिति और इलेक्ट्राॅनिक व्यवस्था से गतिमान संदर्भ को देखते हुए यह अनुमान लगा लिया गया था कि देष में साइबर सुरक्षा से जुड़े रोज़गार के आकार में बढ़ोत्तरी होगी। इतना ही नहीं सरकार को साइबर सुरक्षा के मसले पर कठोर नियम और कानून से भी गुजरना पड़ेगा। सुषासन की परिपाटी को देखें तो अपराध मुक्त समाज इसकी परिभाशा का एक हिस्सा है जो अब दबे पांव आॅनलाइन लोगों पर हमला करता है और उन्हें वित्तीय समस्या समेत कई सामाजिक-मनोवैज्ञानिक समस्या की ओर धकेलता है। आज इंटरनेट हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग बन गया है और जीवन के सभी पहलुओं को कमोबेष प्रभावित कर रहा है। साइबर जागरूकता और सावधानी इसका प्राथमिक बचाव है मगर जिस देष की अभी भी हर चैथा व्यक्ति अषिक्षित हो वहां साइबर षिक्षा कितनी सबल होगी यह समझना कठिन काम नहीं है। साइबर स्टाॅकिंग, बौद्धिक सम्पदा की चोरी, वाइरस समेत कई ऐसे प्रारूप हैं जो अपराध के लिहाज से परेषानी का सबब है। गौरतलब है कि साल 2013 से पहले भारत में कोई साइबर नीति नहीं है मगर अब ऐसा नहीं है। राश्ट्रीय साइबर सुरक्षा नीति 2020 साइबर सुरक्षा और साइबर जागरूकता में सुधार लाने की इच्छा से युक्त है। इसी वर्श भारतीय साइबर अपराध समन्वयक केन्द्र की स्थापना की गयी जबकि 2017 में साइबर स्वच्छता केन्द्र और 2018 में साइबर सुरक्षित भारत पहल जैसी कवायद देखी जा सकती है। सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 डेटा एवं सूचना उद्योग को नियंत्रित करता है। इसके अलावा भी कई ऐसी व्यवस्थाएं हैं जिसमें साइबर सुरक्षा को लेकर भारत पहले करता दिखाई देता है। विदित हो कि भारत ने अमेरिका, रूस, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ जैसे देषों के साथ अनेकों साइबर सुरक्ष सम्बंधी संधियों पर दस्तखत किये। 

दृश्टिकोण और परिप्रेक्ष्य यह है कि साइबर अपराध वर्तमान में वृद्धि के साथ बना हुआ है और इसे रोकने के उपाय वक्त के साथ ढूंढे जा रहे हैं। यद्यपि सरकार साइबर सुरक्षा को लेकर कई सुषासनिक कदम उठाए हैं इसके लिए साइबर सेल भी बनाये गये हैं। इससे प्रभावित व्यक्ति केस दर्ज करा सकता है और राहत पाने की उम्मीद अंदर पनपा सकता है मगर ज्यादातर मामलों में निराषा ही मिलती है। दो टूक कहें तो यह हवा में किया जाने वाला एक ऐसा अपराध है जो कमाई को उड़ा देता है। हालांकि साइबर अपराध की श्रेणी में पोनोग्राफी जैसे चित्र और फिल्म को भी षामिल किया गया है इसके अलावा भी कई ऐसे संदर्भ हैं जो समाज को चुनौती दे रहे हैं। सूचना सुरक्षा भण्डारण में भी सेंध लगने से अखण्डता और गोपनीयता को भी खतरा पैदा हो रहा है। साइबर अपराध की बढ़ती प्रवृत्ति और प्रकार को देख कर यह सोचना सही रहेगा कि इससे सुरक्षा की जिम्मेदारी केवल साइबर सेल और सरकार पर नहीं छोड़ना चाहिए बल्कि जन मानस को साइबर सुरक्षा के प्रति जागरूकता और सावधानी का स्तर भी तुलनात्मक बढ़ा लेना चाहिए। 

  दिनांक : 06/07/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

सुशासन के दौर में सुलगता मणिपुर

दो टूक कहें तो सुषासन का अभिप्राय षांति और खुषहाली है जो लोक सषक्तिकरण की अवधारणा पर टिकी है। मगर इन दिनों पूर्वोत्तर का मणिपुर जिस तरह हिंसा में झुलसा हुआ है उससे कई सवाल खड़े हो गये हैं। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि आखिर यह समस्या पनपी ही क्यों। विदित हो कि मणिपुर में मेइती और कूकी समुदाय के बीच मई के षुरूआती दिनों में भड़की हिंसा से सौ से अधिक मौत हो चुकी है। अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मेइती समुदाय की मांग के विरोध में 3 मई को पर्वतीय जिलों में आदिवासी एकजुटता मार्च के आयोजन के बाद यह घटना घटित हुई। गौरतलब है कि मणिपुर की 53 फीसदी आबादी इसी समुदाय की है जो मुख्य रूप से इम्फाल घाटी में प्रवास करती है जबकि नगा और कूकी की आबादी भी 40 फीसद है जिनका प्रवास पर्वतीय जिले हैं। घटना का स्वरूप कुछ भी हो पर लम्बे समय तक नियंत्रण का पूरी तरह न हो पाना सुषासनिक पहलू की कमजोरी को तो दर्षाता ही है। इतना ही नहीं सुलगते मणिपुर में इस बात को भी जता दिया है कि सरकार से भरोसा भी कम हुआ है। षायद यही कारण है कि जातीय हिंसा से निपटने में नाकाम रहे मुख्यमंत्री एन विरेन्द्र सिंह ने इस्तीफा देने का मन भी बना लिया था। हालांकि ऐसा कहा जा रहा है कि जनता के दबाव में उन्होंने अपना मन बदल लिया। महिलाएं नहीं चाहती थी कि वे इस्तीफा दें और त्यागपत्र की प्रति भी फाड़ दी गयी। यह घटनाक्रम भी मणिपुर की संवेदना को मुखर करता है और इस बात को इंगित करता है कि किसी भी हिंसा को यदि देर तक जिंदा रखा जायेगा तो बड़े नुकसान के लिए तैयार रहना चाहिए जो सुषासन से भरी सरकारों के लिए कहीं से ठीक नहीं है।

मणिपुर के मुख्यमंत्री की मानें तो आदिवासी समुदाय के लोक संरक्षित जंगलों और वन अभ्यारण्य में गैर कानून कब्जा करके अफीम की खेती कर रहे हैं। यह कब्जा हटाने के लिए सरकार मणिपुर वन कानून 2021 के अंतर्गत वन भूमि पर किसी तरह के अतिक्रमण को हटाने के लिए एक अभियान चला रही हैं। आदिवासियों का इस पर मत है कि यह उनकी पैतृक जमीन है न कि उन्होंने अतिक्रमण किया है। जिसके कारण विरोध पनपा और सरकार ने धारा 144 लगा कर प्रदर्षन पर पाबंदी लगा दी। नतीजन कूकी समुदाय के सबसे बड़े जातीय संगठन कूकी ईएनपी ने सरकार के खिलाफ बड़ी रैली निकालने का एलान कर दिया। वैसे देखा जाये तो कूकी जनजाति के कई संगठन 2005 तक सैन्य विद्रोह में षामिल रहे हैं। मनमोहन सरकार के दौरान साल 2008 में सभी कूकी विद्रोही संगठनों से केन्द्र सरकार ने उनके खिलाफ सैन्य कार्यवाही रोकने के लिए सस्पेंष्न आॅफ आॅप्रेषन एग्रिमेंट किया था। 60 विधायको वाले मणिपुर में 40 विधायक मेइती समुदाय से आते हैं जाहिर है इनका दबदबा है और इसमें से ज्यादातर हिन्दु हैं। यहां के पहाड़ी इलाकों में 33 मान्यता प्राप्त जनजातियां रहती हैं जिसमें नागा और कूकी प्रमुख हैं और इनका सरोकार मुख्यतः इसाई धर्म से है। उक्त से यह परिलक्षित होता है कि दो समुदायों की लड़ाई कैसे धार्मिक हिंसा में तब्दील हुई है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 371(ग) को समझे तो मणिपुर की पहाड़ी जनजातीयों को संवैधानिक विषेशाधिकार मिले हैं और मेतई समुदाय इससे अलग है। भूमि सुधार अधिनियम के चलते मेतई समुदाय पहाड़ी इलाकों में जमीन खरीदकर प्रवास नहीं कर सकते हैं जबकि दूसरा समुदाय घाटी में आकर बसने में कोई रोक-टोक नहीं है। नतीजन समुदायों के बीच खाई बढ़ती जा रही है। ऐसे में मणिपुर की ताजी घटना भले ही तात्कालिक परिस्थितियों के चलते पनपी हों मगर यह इसका ऐतिहासिक पहलू और संरचना द्वन्द्व और संघर्श से भरा दिखता है। इन सबके बावजूद यहां आठ फीसद मुस्लिम और लगभग इतने ही सनमही समुदाय के लोग रहते हैं। 

घटना का स्वरूप किसी भी कारण से विकसित हुआ हो मगर यह सुषासन के लिए बड़ी चुनौती है। खास तौर पर तब यह अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है जब दौर सुषासन और अमृतकाल का हो। सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है जिसमें कानून और व्यवस्था को प्राथमिकता देना और बुनियादी विकास को बनाये रखना षामिल है। मणिपुर की कानून और व्यवस्था इस जातीय हिंसा के चलते हाषिये पर है और केन्द्र और मणिपुर सरकार की जमकर किरकिरी हो रही है। मामले पर केन्द्र अपने स्तर पर समाधान खोज रहा है जबकि राज्य की तरकीब समस्या से निपटने में नाकाफी रही है। मुख्य विरोधी कांग्रेस के नेता राहुल गांधी भी स्थिति को देखते हुए मणिपुर का दौरा किया और वहां की स्थितियों को समझने का प्रयास किया है। हालांकि इसे लेकर भी सियासत गर्म है। फिलहाल 50 हजार से अधिक लोग राहत षिविरों में षरण लिए हुए है जिनमें दोनों समुदाय के लोग षामिल हैं। पड़ताल बताती है कि गुस्सा का स्तर बराबरी का है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार सौ मंदिरों के अलावा दो हजार मेइती घरों पर भी हमला हुआ है। कहा तो जा रहा है कि चर्च को भी नुकसान हुआ है। यानि कि हक की लड़ाई लड़ते-लड़ते हिंसा ने भी धार्मिक रूप ले लिया। दो टूक यह भी है कि मणिपुर इस कदर तूफान से घिरा मगर केन्द्र हो या राज्य सरकार किसी ने इसे तत्काल प्रभाव से काबू में करने का प्रयास क्यों नहीं किया। वैसे देखा जाये तो भारत में जातीय और धार्मिक हिंसा की छुटपुट घटनाएं कहीं पर भी विकसित हो जाती हैं मगर मणिपुर एक खास ख्याल रखने वाला प्रदेष है। यह पूर्वोत्तर का राज्य है और दिल्ली से भी दूर है। यहां कि सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष से षेश भारत उतना वाकिफ नहीं है साथ ही राजनीतिक दृश्टि से भी यह बहुत रसूक की जगह नहीं है। ऐसे में हिंसा का बड़ा हो जाना और हालात को इतने लम्बे वक्त तक बनाये रखना केन्द्र और राज्य दोनों सरकारों के लिए सही नहीं है। 

राहुल गांधी के मणिपुर दौरे के दौरान राहत षिविरों में जाना और राज्यपाल से मिलना विपक्षी की दृश्टि से सही कदम है और यह कहना कि हिंसा का कोई समाधान नहीं है बिल्कुल दुरूस्त बात है। चाहे सरकार केन्द्र की हो या राज्य की जिम्मेदारी को ठीक से निभायें और जिस सुषासन को लेकर गम्भीर चिंता से जकड़े हुए हैं उसे देखते हुए मणिपुर को षान्ति और खुषहाली के मार्ग पर ले आयें। 2024 का चुनाव एक वर्श से कम समय का रह गया है ऐसे में मोदी सरकार अपनी राजनीतिक सुचिता को सकारात्मक बनाये रखने के लिए मणिपुर को लेकर कम चिंतित नहीं होगी मगर इस राज्य के बढ़े दर्द को सुषासन के मरहम से दूर किया जाना तत्काल की आवष्यकता है। मणिपुर में जो हुआ वो बेहद कश्टकारी है और इस बात का द्योतक भी कि षासन-सुषासन व प्रषासन सभ्यता की ऊँचाई को कितना भी प्राप्त कर ले पर समावेषी और सतत विकास की अवधारणा के साथ सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पहलू के साथ कानून और व्यवस्था के बिना सुषासन को दुरूस्त नहीं कर सकती। बड़ी सरकार बड़े मतों से नहीं बल्कि षांति और खुषहाली से सम्भव है। 

 दिनांक : 01/07/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

भारत-अमेरिका सम्बंध: खुलकर खेलने का समय

भारत और अमेरिका के सम्बंधों की एक ऐसी पिच बीते कई वर्शों में तैयार हुई है जिस पर खुल कर खेलने को लेकर भारत को कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। मोदी षासनकाल की प्रथम अमेरिकी यात्रा जब सितम्बर 2014 में षुरू हुई तब तत्कालीन अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा से गहरी दोस्ती हुई। ओबामा के बाद डोनाल्ड ट्रंप के साथ भी मोदी असरदार बने रहे और अब एक बार फिर जो बाइडन और मोदी की केमिस्ट्री पूरी दुनिया को एक नई चेतना और नये पथ का अनुगमन करा रही है। देखा जाये तो एक ओर जहां रूस और यूक्रेन एक दूसरे पर हमलावर हैं तो वहीं अमेरिका सहित नाटो के सभी देष रूस के खिलाफ बाकायदा खड़े हैं। जबकि भारत इन सभी के साथ समन्वय और सहृदयता को ध्यान में रखते हुए सम्बंधों की पिच को कहीं अधिक पुख्ता किये हुए है। अमेरिका जानता है कि भारत महज दक्षिण एषिया का ही नहीं बल्कि दुनिया में एक अलग रसूक रखने वाला देष बन चुका है। ऐसे में जो बाइडन ये जरूर सोचते होंगे कि एषिया समेत वैष्विक फलक पर उभरे मुद्दों के मामले में मोदी एक अच्छा समाधान हो सकते हैं। गौरतलब है कि भारत धार्मिक बहुलवाद और सबसे बड़े लोकतंत्र का हिमायती है जो इस बात को मजबूत करता है कि वैष्विक पटल पर वह सषक्त है। हालांकि बराक ओबामा का प्रधानमंत्री मोदी और भारत में मुसलमानों पर दिया गया बयान चर्चा में है। ओबामा ने कहा था कि अगर मैं मोदी से मिलता तो हिन्दू बहुल भारत में अल्पसंख्यक मुसलमानों के अधिकार का मुद्दा उठाता। फिलहाल ओबामा के मन में ऐसा क्या है यह कहना मुष्किल है और उन्हें यह आभास कैसे हो रहा है इसकी पड़ताल भी जरूरी है मगर ये वही ओबामा है जिन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान एक साल के भीतर 7 मुस्लिम देषों पर 26 हजार से अधिक बम गिराये और अब भारत को ज्ञान दे रहे हैं। 

भारत और अमेरिका के बीच की बातचीत पहली बार तो नहीं है मगर हर बार की तरह यह दौरा भी मजबूत दिषा लिए हुए है। अमेरिका के तीन दिवसीय राजकीय दौरे पर गये पीएम मोदी जो बाइडन के साथ द्विपक्षीय बातचीत को जिस गति से आगे बढ़ाने में सफल दिखे और जिस प्रकार व्हाइट हाउस में उनकी उपस्थिति को महत्व मिला है उसे देखते हुए एक सफल यात्रा करार दी जानी चाहिए। हर बार की तरह समझौतों की फहरिस्त भी अच्छी-खासी है जिसमें दोनों देषों के षीर्श नेतृत्व में पहले समझौते में भारत निर्मित स्वदेषी विमान तेजस के लिए सेकण्ड जेनरेषन जीई-414 जेट विमान के निर्माण पर हस्ताक्षर देखा जा सकता है। इसके अलावा रक्षा क्षेत्र में बातचीत सहित प्रौद्योगिकी की आपसी साझेदारी आदि कई ऐसे संदर्भ इस दौरे में षामिल हैं। देखा जाये तो पिछले ढ़ाई दषक में भारत और अमेरिका द्विपक्षीय सम्बंधों में मजबूती को लेकर कहीं अधिक सषक्त प्रयास से युक्त रहे हैं। हालांकि इसमें भारत कहीं अधिक षामिल दिखाई देता है। तमाम अड़चनों और मजबूत नकारात्मकता को दूर करते हुए दोनों देषों ने सम्बंधों को जो मुकाम दिया है इसे मील का पत्थर कहना अतार्किक न होगा। आपसी कारोबार को आगे बढ़ाने के लिए अमेरिका, बंगलुरू और अहमदाबाद में दो नये वाणिज्य दूतावास खोलने के लिए सहमत हुए जबकि भारत भी सिएटल में अपना मिषन स्थापित करेगा। दोनों देषों के बीच अर्टेमिस संधि पर बनी सहमति भी महत्वपूर्ण है। भारत ने भी इस संधि में षामिल होने की स्वीकृति दी है। गौरतलब है कि इसके अंतर्गत समान विचारधारा वाले देषों को आंतरिक खोज के मुद्दों को एक करना है। भारत का पड़ोसी चीन अमेरिका के लिए लम्बे अरसे से सिरदर्द बना हुआ है और भारत के लिए तो वह एक बीमारी है जिससे निपटने के लिए भारत, अमेरिका, जापान और आॅस्ट्रेलिया मिलकर क्वाॅड का गठन पहले ही कर चुके हैं। वैष्विक फलक पर अन्तर्राश्ट्रीय संगठनों का अलग-अलग स्थितियों में भिन्न-भिन्न स्वरूप है मगर भारत-अमेरिका द्विपक्षीय सम्बंध स्वयं में एक ऐसा फलक लिए हुए है जो चीन जैसे देषों को व्याकुल कर सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत की नीति और रीति में बड़ा बदलाव तो है पर बड़ा फायदा भारत को कितना और कब मिलेगा इस पर भी दृश्टि रहेगी। 

दुनिया के तमाम देषों व संगठनों के साथ भारत का सकारात्मक रूख इस बात का संकेत है कि संसार भारत को हल्के में तो नहीं लेता। भारत की वैदेषिक नीति कहीं अधिक खुली है और मैले-कुचैले भावना से इसका दूर-दूर तक वास्ता नहीं है। वहीं पड़ोसी पाकिस्तान आतंकवाद को संरक्षण देने के चलते कूटनीतिक और वैदेषिक दोनों स्तर पर विफल है और जबकि आर्थिक स्तर पर कहीं अधिक जर्जर। दोनों षीर्श नेताओं ने पाकिस्तान के आतंकी परिवेष और स्वभाव को देखते हुए लताड़ लगायी है। जाहिर है चीन अमेरिका के साथ भारत की इस प्रगाढ़ता से परेषान होगा तो पाकिस्तान अपने लिए बेहतर न कहे जाने को लेकर माथे पर बल जरूर लाया होगा। फिलहाल अमेरिका जानता है कि भारत दुनिया का बड़ा बाजार है और एषियाई देषों में संतुलन की दृश्टि से भी भरोसे से भरा देष है। विदित हो कि रूस और अमेरिका के बीच सम्बंध कहीं अधिक खटास और खटाई से युक्त रहे हैं जबकि भारत दोनों के साथ क्रमषः नैसर्गिक और स्ट्रैटेजिक रिष्तों के साथ बेझिझक आगे बढ़ रहा है। देखा जाये तो मौजूदा समय में कई हिस्सों में बंटी दुनिया का हर हिस्सा भारत से संलग्न है दूसरे षब्दों में कहें तो भारत एक ऐसे मैदान में है जहां किसी भी खिलाड़ी से खुलकर खेलने में कोई दिक्कत नहीं है। बीते कुछ वर्शों से वैष्विक ताना-बाना बिगड़ा है दुनिया के हर देष मुख्यतः यूरोप और अमेरिका और चीन जैसे देष प्रथम के सिद्धांत को अंगीकृत करने की होड़ में है। चीन मानो दुनिया से जंग करने के लिए तैयार बैठा हो जबकि भारत बाजार, व्यापार, आदान-प्रदान और सहिश्णु वैदेषिक नीति के चलते सभी को एक साथ लेकर चलने के बड़े प्रयास में रहा है। यही कारण है चीन और पाकिस्तान को छोड़ दिया जाये तो भारत का कोई बड़ा दुष्मन दुनिया में है ही नहीं। भारत की वैदेषिक नीति कहीं अधिक सकारात्मक और घुलनषील है। ऐसे में भारत को अपने लाभ की चिंता बढ़ा देनी चाहिए। संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् में स्थायी सदस्यता को लेकर एड़ी-चोटी का जोर दषकों से लगाया जा रहा है। हालांकि अमेरिका सहित दुनिया के सैकड़ों देष भारत का इस मामले में समर्थन करते हैं। न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में भारत को षामिल करने का इरादा भी बरसों पहले अमेरिका जता चुका है मगर चीन की वजह से यह मामला भी खटाई में है। हालांकि इसे लेकर बिना सदस्यता के ही भारत को मिलने वाला लाभ जारी है। हिन्द महासागर में चीन को संतुलित करने के लिए भी भारत-अमेरिकी सम्बंध कहीं अधिक कारगर सिद्ध हो सकते हैं। मोदी का अमेरिकी यात्रा हमेषा एक यादगार परिस्थिति को पैदा करती है। समय के साथ किसी भी रिष्ते में बदलाव स्वाभाविक है मगर भारत और अमेरिका एक बेहतरीन दौर के रिष्ते में हैं। देखना यह है कि दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र और सबसे बड़े लोकतंत्र भारत वैष्विक फलक पर कल्याणकारी दृश्टिकोण के साथ स्वयं को कितना मजबूत कर पाते हैं। 

 दिनांक : 24/06/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

गर्मी, बाढ़, बारिश और दुनिया की तस्वीर

अगर सभी देष कार्बन उत्सर्जन में कटौती के अपने वायदे को पूरा कर भी लें तब भी भारत की 60 करोड़ से अधिक आबादी समेत दुनिया भर में 2 सौ करोड़ से अधिक लोगों को खतरनाक रूप से भीशण गर्मी का सामना करना ही पड़ेगा जो अस्तित्व का संकट पैदा कर सकती है। जलवायु वैज्ञानिकों की मानें तो वर्तमान जलवायु नीतियों के परिणामस्वरूप सदी के अंत तक तापमान में 2.7 डिग्री सेल्सियस वृद्धि होगी। इस मात्रा के तापमान के चलते विष्व स्तर पर लू की घातक लहरें, चक्रवात और बाढ़ तथा समुद्र के स्तर में वृद्धि की सम्भावना रहेगी। इसमें कोई दो राय नहीं कि ग्लोबल वार्मिंग दष्कों से दुनिया के लिए सबसे बड़ी चिंता बनी हुई है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते ही धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है और प्राकृतिक आपदायें विकराल रूप ले रही हैं। गौरतलब है कि हर साल 54 अरब टन कार्बन डाई आॅक्साइड का उत्सर्जन हो रहा है जिससे धरती की सतह का तापमान तेजी से बढ़ रहा है। फिलहाल चिंताओं और चर्चाओं के बीच लू के थपेड़े जारी हैं, गर्मी प्रचण्ड रूप लिए हुए है और समुद्र भी अपने तूफान को बेपरवाह छोड़ दिया है। उत्तर भारत के ज्यादातर इलाकों में गर्मी या लू से हाल बुरा है। राजधानी दिल्ली समेत उत्तर प्रदेष, बिहार, झारखण्ड, पष्चिम बंगाल लू की चपेट में है। दक्षिण में आन्ध्र प्रदेष और तेलंगाना के ज्यादातर हिस्सों में भीशण गर्मी पैर पसारे हुए है। ओडिषा और छत्तीसगढ़ भी गर्मी के कहर से कराह रहे हैं जबकि पष्चिमी तट के ज्यादातर इलाकों में समुद्री चक्रवात बिपरजाॅय के चलते एक नई अव्यवस्था विकसित हो गयी है। गौरतलब है अरब सागर में उठे इस चक्रवाती तूफान के चलते लगभग एक लाख लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने का काम किया गया और सरकार समेत पूरा महकमा अलर्ट मोड पर रहा। मध्य भारत और उत्तर भारत में लू का कहर है, पूर्वोत्तर में भारी बारिष की चेतावनी है और पष्चिमी भारत चक्रवात के असर से बेजार है। उक्त तमाम बातें यह तस्तीक कर रही हैं कि पृथ्वी जलवायु परिवर्तन के चलते नित नई समस्याओं से भर रही है। 

विष्व मौसम विज्ञान संगठन ने 2023 में कहा था कि अगले 5 वर्शों में वैष्विक तापमान बढ़ने की सम्भावना है जिसमें 2023-27 अब तक के सबसे गर्म साल रह सकते हैं। अमेरिका में बर्फीले तूफान का कहर बरप रहा है तो कई यूरोपीय देष विंटर हीटवेव की चपेट में हैं। नीदरलैंड और डेनमार्क समेत चेक गणराज्य जैसे कुल 7 देषों में साल की षुरूआत बीते कई दषकों में सबसे गर्म रही। जलवायु परिवर्तन हो या मौसम का आम चलन गर्मी का प्रकोप वहां भी पड़ा है जहां पहले ऐसा नहीं था। दक्षिण यूरोप भी बरसों पहले गर्मी की लहर में था साल 2017 में तो तापमान यहां 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला गया था जो कि कभी ऐसा हुआ ही नहीं था और इस गर्मी ने जंगल में आग, फसल का नुकसान सब कुछ बढ़ा दिया था। अब तक के इतिहास को देखा जाये तो अगस्त 2016 सबसे ज्यादा गर्म रहा है और यह सम्भावना विष्व मौसम विज्ञान संगठन ने एक महीने पहले ही जता दिया था कि 2016 में स्थापित तापमान रिकाॅर्ड भी टूट सकता है। अप्रैल 2023 से रिकाॅर्ड तोड़ गर्मी की लहर ने भारत, बांग्लादेष, चीन, थाईलैण्ड, वियतनाम सहित तमाम एषियाई देषों को प्रभावित किया है। हीट वेव के चलते, हीट स्ट्रोक के कारण कई मौतें भी हुई हैं और इस मामले में दो दर्जन देष देखे जा सकते हैं। इस साल बनने वाले अलनीनो की घटना भी एक नई मुसीबत को लेकर खड़ी है। गौरतलब है अल नीनो गर्म समुद्री जलधारा है जिसके प्रभाव से दक्षिण-पष्चिम मानसून कमजोर हो जाता है। फलस्वरूप भारत में अकाल और सूखे की सम्भावना बढ़ जाती है और बारिष कम होती है। अलनीनो की घटना न केवल इस साल नुकसान पहुंचायेगी बल्कि साथ ही साथ इसका प्रभाव 2029 तक दर्ज किये जाने की बात की जा रही है। वैष्विक अर्थव्यवस्था को इससे 2029 तक 3 लाख करोड़ डाॅलर का नुकसान हो सकता है। हालांकि अलनीनो पेरू के तट से उठने वाली एक जलधारा है जो कुछ वर्शों के अंतराल पर प्रकट होती रहती है।

ग्लोबल वार्मिंग रोकने का फिलहाल कोई इलाज नहीं है। इसे लेकर केवल जागरूकता ही एक उपाय है। पृथ्वी को सही मायनो में बदलना होगा और ऐसा इसके हरियाली से ही सम्भव है। कार्बन डाई आॅक्साइड के उत्सर्जन को भी प्रति व्यक्ति कम करना ही होगा। पेड़-पौधे लगातार बदलते पर्यावरण के हिसाब से खुद को ढ़ालने में जुट गये हैं। जल्द ही इसकी कोषिष मानव को भी षुरू कर देनी चाहिए। हम प्रदूशण से जितना मुक्त रहेंगे पृथ्वी को बचाने के मामले में उतनी ही बड़ी भूमिका निभायेंगे पर यह कागजी बातें हैं हकीकत में ऐसा होगा संदेह अभी भी गहरा बना हुआ है। ऐसा माना जा रहा है कि ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन के वजह से रेगिस्तानों में नमी बढ़ेगी जबकि मैदानी इलाकों में इतनी प्रचण्ड गर्मी होगी जितना कि इतिहास में नहीं रहा होगा जाहिर है यह जानलेवा होगी। अब दो काम करने बड़े जरूरी हैं पहला कि प्रकृति को इतना नाराज़ न करें कि हमारा अस्तित्व ही समाप्त हो जाय। दूसरा प्रकृति के साथ छेड़छाड़ के मामले में अब उदार रवैये से काम नहीं चलेगा बल्कि सख्त नियमों को और कठोर दण्डों को प्रचलन में लाना ही होगा। वर्शों पहले अमेरिकी कृशि विभाग के एक वैज्ञानिक ने चावल पर किये गये षोध में यह पाया था कि वातावरण में बढ़ती कार्बन डाई आॅक्साइड की वजह से इसकी रासायनिक संरचना बदलने लगी है। यह एक बानगी मात्र है सच्चाई यह है कि ऐसे कई बिन्दुओं पर षोध किया जाये तो यह बोध जरूर हो जायेगा कि कमोबेष रासायनिक संरचना में परिवर्तन तो हर जगह आ रहा है तो क्या यह माना जाय कि गर्मी बेकाबू रहेगी और दुनिया झंझवात में फंस जायेगी। पृथ्वी बचाने की मुहिम दषकों पुरानी है। 1948 से इस क्रम को देखें और 1972 की स्टाॅकहोम की बैठक को देखें साथ ही 1992 और 2002 के पृथ्वी सम्मेलन को भी देखें इसके अलावा जलवायु परिवर्तन को लेकर तमाम बैठकों का निचोड़ निकालें तो भी तस्वीरें सुधार वाली कम वक्त के साथ बिगाड़ वाली अधिक दिखाई देती हैं। गर्मी के लिये कौन जिम्मेदार है 55 फीसदी कार्बन उत्सर्जन दुनिया के चंद विकसित देष करते हैं और जब कार्बन कटौती की बात आती है तो उसमें भी वह पीछे हट जाते हैं। पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका का हटना कुछ ऐसी ही असंवेदनषीलता बरसों पहले देखी जा चुकी है। 

दुनिया के कई हिस्सों में बिछी बर्फ की चादरें पिघल जायेंगी, समुद्र का जलस्तर कई फीट तक बढ़ जायेगा। कई क्षेत्र जलमग्न हो जायेंगे और भारी तबाही मचेगी। ऐसा नहीं है कि इसका प्रभाव नहीं दिख रहा है। दिख भी रहा है और दुनिया भर की राजनीतिक षक्तियां इस बहस में उलझी हैं कि गरमाती धरती के लिये किसे जिम्मेदार ठहराया जाये। जिम्मेदार कोई भी हो भुगतना सभी को पड़ेगा। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन ने तो दुनिया की तस्वीर ही बदल दी है। कृशि, वन, पर्यावरण, बारिष समेत जाड़ा और गर्मी सब इसके चलते उथल-पुथल की अवस्था में जा रहे हैं। इसलिए बेहतर यही होगा कि इस बड़े खतरे से अनभिज्ञ रहने के बजाय मानव सभ्यता और पृथ्वी को बचाने की चुनौती में सभी आगे आयें। 

 दिनांक : 16/06/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

पढ़ाई-लिखाई में शैक्षिक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल

आज के युग में मानव जीवन का प्रत्येक पक्ष वैज्ञानिक खोज तथा अविश्कारों से प्रभावित है और षिक्षा का क्षेत्र भी इस प्रभाव से मुक्त नहीं है। पढ़ाई-लिखाई में षैक्षिक तकनीक का बोलबाला है। जब षिक्षक अपने षिक्षण को प्रभावषाली बनाने के लिए विभिन्न साधनों की मदद लेता है जिसके चलते षिक्षण और उपागम दोनों प्रभावित होते हैं तो उसे षिक्षण प्रौद्योगिकी कहते हैं जो वर्तमान में एजुटेक के रूप में लोकप्रिय है। इस तकनीक में मुख्यतः दो बिन्दु निहित है जिसमें एक षिक्षण उद्देष्यों की प्राप्ति करना जबकि दूसरा षिक्षण की क्रियाओं का यंत्रिकरण करना है। बीते एक दषक में यह देखने को मिला है कि षैक्षिक प्रौद्योगिकी तीव्रता के साथ बड़े बाजार और ग्राहक दोनों को निर्मित करने में सफल रही है। हाल के दिनों में एजुटेक स्टार्टअप्स अरबों के कारोबारी हो गये हैं और निरंतर कई सम्भावनाओं से यह युक्त होते जा रहे हैं। देखा जाये तो एजुटेक एप्स से भरे स्मार्ट फोन अब षिक्षा का पर्याय बन गये हैं। जब चाहें, जहां चाहें और जितना चाहें मानो षिक्षा अब जेब में हो बस उसमें इंटरनेट का डेटा भरा होना चाहिए। पड़ताल बताती है कि भारत का एजुटेक अपने विभिन्न क्षेत्रों व उपक्षेत्रों में लगभग चार सौ स्टार्टअप्स के साथ दुनिया में कहीं अधिक बड़े आकार का है। गौरतलब है कि भारत की जनसंख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है और पढ़ाई-लिखाई का सरोकार और सम्भावनाएं भी यहां तुलनात्मक बढ़त में हैं। जनसांख्यिकीय लाभांष, प्रौद्योगिकी का बुनियादी ढांचा और बढ़ता बाजार एजुटेक के मामले में नया स्वरूप ले रहा है। सस्ते इंटरनेट की उपलब्धता और कमाई के बैठे-बिठाये बढ़ते स्रोत भी इस उद्यम को बढ़ावा देने का काम कर रहा है। अनुमान है कि अगले 25 वर्श में सौ करोड़ विद्यार्थी स्नातक होंगे। वैसे भारत में तीव्र डिजिटलीकरण और 2010 से 2022 के बीच इंटरनेट उपभोगकर्ता की संख्या में 10 गुने की वृद्धि यह इषारा कर रही है कि इसमें अभी और तेजी रहेगी। साल 2040 तक मौजूदा इंटरनेट उपयोगकत्र्ता जो तकरीबन 90 करोड़ के आसपास हैं वे डेढ़ अरब को पार कर जायेंगे। फिलहाल अभी देष की जनसंख्या एक अरब 40 करोड़ है और आने वाले 15 वर्शों में यह डेटा अच्छे खासे बढ़त के साथ रहेगा। 

एजुटेक में अचानक तेजी लाने का काम कोविड-19 ने किया था तब से षुरू हुआ यह सिलसिला अब दुनिया में एजुटेक इण्डस्ट्री के रूप में जाना जाने लगा। इतना ही नहीं नई सोच को बढ़ावा देने वाली इस एजुटेक इण्डस्ट्री का पूरा फोकस अब जनरेषन जेड पर है। डिजिटल दौर में पैदा हुए बच्चों के हाथों में स्मार्ट फोन और हाई स्पीड इंटरनेट कनेक्षन के बीच रहन-सहन उन्हें भी एक नये आयाम की ओर ले गया है जिसे आम तौर पर ज्यादा एडवांस के रूप में कह सकते हैं जो दुनिया को अलग ढंग से देखते हैं और इनके तौर-तरीके, बोल-चाल का ढंग भी काफी अलग होता है। गौरतलब है कि अमेरिकी खुफिया संस्था सीआईए वल्र्ड फैक्ट बुक के अनुसार 1997 से 2012 के बीच पैदा हुए बच्चों को जेनरेषन जेड कहा जाता है जो दौड़ती-भागती दुनिया में काफी तेज हो गये हैं। फिलहाल दुनिया में तकनीक के विकास की रफ्तार 1995 के बाद तेजी से बढ़ी है और कोविड-19 के बाद यह कहीं अधिक षैक्षणिक तकनीक के रूप में लोकप्रियता को ग्रहण किया है। एक सर्वे से यह भी पता चलता है कि भारत में 33 फीसद माता-पिता इस बात को लेकर बेहद चिंतित है कि वर्चुअल लर्निंग से बच्चों के सीखने और प्रतियोगी दक्षता पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। इतना ही नहीं एजुटेक को बड़ा बाजार मिले इसे लेकर भी एजुकेषन के तरीके में मनोरंजनात्मक क्रियाओं का भी भरपूर उपयोग किया जा रहा है। वैसे भारत का डिजिटल षैक्षणिक ढांचा कितना फल-फूल रहा है इसे उक्त आंकड़ों से और समझना आसान है। देष में नेषनल डिजिटल एजुकेषन आर्किटेक्चर बनाया गया है। पीएम ई-विद्या प्रोग्राम 2020 में ई-लर्निंग को आसान बनाने में स्कूलों में षुरू किया जा चुका है। 25 करोड़ स्कूली छात्रों और लगभग 4 करोड़ उच्च षिक्षा हासिल करने वालों का इसमें फायदा षामिल है। ई-पाठषाला पोर्टल, स्वयंप्रभा, दीक्षा आदि ऐसे तमाम कार्यक्रम हैं जो डिजिटल एजुकेषन की दिषा में अनवरत् हैं। इस तथ्य को भी एक सकारात्मक पहलू के रूप में देख सकते हैं कि पिछले 10 वर्शों में स्मार्ट फोन की कीमतों में निरंतर गिरावट रही है और साथ ही भारत वैष्विक स्तर पर सबसे सस्ती मोबाइल डाटा दरों में से एक है। इसके अलावा डिजिटल बुनियादी ढांचे के विस्तार में सरकार की रूचि भी एजुटेक को बड़ा किया है। राश्ट्रीय ब्राॅडबैण्ड मिषन, डिजिटल इण्डिया और डिजिटल क्रान्ति ने एजुटेक के लिए दूरस्थ क्षेत्रों तक पहुंच आसान बना दिया। 

पढ़ाई-लिखाई के मामले में भले ही एजुटेक एक सुलभ माध्यम बना हो मगर भारत में व्याप्त गरीबी और भुखमरी दो ऐसी बीमारी है जो ऐसी सुविधाओं के बावजूद करोड़ों हाषिये पर हैं। हंगर इंडेक्स की हालिया स्थिति देखें तो भारत में तुलनात्मक भुखमरी बढ़ी है जबकि गरीबी से देष का पीछा नहीं छूट रहा है। इतना ही नहीं हर चैथा व्यक्ति अष्क्षिित के साथ, बेरोजगारी की दर भी एक बड़ा स्वरूप लिये हुए है। षैक्षिक तकनीक आज के तकनीकी युग में उपयोगी है और षैक्षणिक समस्याओं में निदान का काम कर रही है मगर बुनियादी डिजिटलीकरण का ढांचा इतना भी सामान्यीकरण नहीं हुआ है कि सभी की पढ़ाई-लिखाई में इसकी पहुंच पूरी तरह हुई हो। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस टेक्नोलाॅजी में षिक्षा के साथ जुड़ाव को आसान किया है। सीखने की प्रक्रिया को तुलनात्मक मजेदार बना दिया है। छात्र एक ही स्थान से सारी सूचनाएं पा रहे हैं। चाहे होमवर्क हो या कोई असाइनमेंट तकनीक की मदद से सब कुछ मानो एक छोटे से यंत्र में समाया हुआ है। विदित हो कि सब कुछ आसान होने के बावजूद षिक्षा जगत में तकनीक के कुछ नुकसान भी हैं। पढ़ाई-लिखाई के इसी यंत्र के अंदर सोषल मीडिया से लेकर अनेक गैर उत्पादक कृत्यों से भी विद्यार्थी दो-चार हो रहा है। षोध तो यह भी बताते हैं कि तकनीक का ज्यादा इस्तेमाल विद्यार्थियों में भटकाव की स्थिति भी पैदा किया है। सर्वे तो यहां तक भी है कि माता-पिता बच्चों को मनोवैज्ञानिक के पास भी ले जाने के लिए विवष है। पढ़ाई-लिखाई की तकनीक कब मनोवैज्ञानिक चोट बन गयी है इसका अंदाजा षायद ही किसी को रहा हो। स्मार्ट फोन और लैपटोप पर लगातार काम करने से बच्चों की पीठ, कंधों और आंखों में दर्द होने लगा है। गैजेट्स के कारण बच्चों की दिनचर्या में भी काफी बदलाव हुआ है। यहां तक कि फोन का इस्तेमाल मना करने पर उनके भाव-भंगिमाएं चिड़चिड़ापन से भरा मिलता है। आॅनलाइन दुनिया इतनी स्वयं में समा लेते हैं कि फेस-टू-फेस बात करना कईयों के लिये असहज हो जाता है। देखा जाये तो एजुटेक एक सकारात्मक संदर्भ से युक्त है मगर इसके साथ व्याप्त कई समस्याओं से यह मुक्त नहीं है। 

एजुटेक के समग्र प्रभाव को एक सही दिषा और सुनिष्चित मापदण्ड तैयार करने के लिए, प्रौद्योगिकी और पारम्परिक षिक्षा विधियों के लिए संतुलन बनाना महत्वपूर्ण है। यह समझ लेना कि प्रौद्योगिकी ही अन्तिम उपाय है यह सर्वथा उचित तर्क नहीं है। षिक्षा की सुलभता एजुटेक से सम्भव है मगर यही अन्तिम सत्य है यह अतिषय को बढ़ावा दे देगी। एजुटेक उच्च दक्षता, बड़े पैमाने पर अवसर और षिक्षा को कई स्तरों पर परिवर्तित करने की क्षमता से युक्त है। मगर इसी एजुटेक ने पढ़ाई को एक प्रोडक्ट के रूप में भी परोस दिया है और विद्यार्थी एजुटेक कम्पनियों के ग्राहक बन गये हैं जो षैक्षणिक दृश्टि से उचित संकेत नहीं है। डिजिटल षिक्षा के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रभाव अब सीधे तौर पर दिखते हैं। माता-पिता के मन मस्तिश्क पर भी इसका प्रभाव साफ-साफ झलकता है। बावजूद इसके अब बिना एजुटेक के पढ़ाई-लिखाई सम्भव भी नहीं है। वैसे देखा जाये तो भारत में षिक्षा प्रौद्योगिकी के उपयोग का पता 1980 के दषक में सांकेतिक होता है। जब कुछ स्कूलों में कम्प्यूटर एडेड षिक्षा षुरू की गयी थी। एजुटेक में कई ऐसे तत्व हैं जो सीखने और षिक्षा को बड़ा करने के लिए पूरक दृश्टिकोण लिए हुए है। जब तक विद्यार्थियों द्वारा डिजिटल व्यवस्था को षैक्षणिक नजरिये से उपयोगी नहीं समझा जायेगा तब तक लैपटाॅप, मोबाइल व गैजेट्स का उपयोग गैर उत्पादक तरीके से होता रहेगा। राश्ट्रीय षिक्षा नीति 2020 एक समग्र षिक्षा की अवधारणा से युक्त है। एजुटेक कार्यक्रमों को यह सुनिष्चित करना चाहिए कि समग्र षिक्षा के निहित मूल तत्व, व्यक्तित्व और मनो-सामाजिक दिषा और दषा के साथ पर्यावरणीय जिम्मेदारी साथ ही सतत् विकास और मानवीय मूल्यों को एकीकृत करने का काम करें। यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी देष का जो वर्तमान होता है वही भविश्य की आहट देता है। एजुटेक जिस पैमाने पर मौजूदा समय में विस्तार ले रहा है वह केवल पढ़ाई-लिखाई को ही मजबूत नहीं करेगा बल्कि नई चुनौतियों और संघर्शों को भी सामने खड़ा कर सकता है। 

 दिनांक : 14/06/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

डिजिटल अवसंरचना और आम आदमी

ई-गवर्नेंस एक ऐसा क्षेत्र है और एक ऐसा साधन भी जिसके चलते नौकरषाही तंत्र का समुचित प्रयोग करके व्याप्त व्यवस्था की कठिनाईयों को समाप्त किया जा सकता है। इसके अलावा आॅनलाइन सेवा देकर सीधे और बिना रूकावट के कार्य संस्कृति को बनाये रखना आसान है। दो टूक कहें तो अब देष की विकास यात्रा डिजिटलीकरण पर कमोबेष निर्भर है। ऐसे में डिजिटल अवसंरचना मजबूत बनाना न केवल समय की मांग है बल्कि आम आदमी तक पहुंचने का यह एक जरिया है। बषर्ते आम आदमी समावेषी और बुनियादी विकास की चुनौती से मुक्त होकर सुजीवन की राह पर है। विदित हो कि एक मजबूत डिजिटली आधारभूत ढांचे से उत्पादकता को बढ़ाकर जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि करने वाली सेवाओं को समुचित किया जा सकता है। ई-सुविधा, ई-अस्पताल, ई-याचिका और ई-अदालत जैसे कई ऐसे ‘ई’ अब फलक पर हैं जिससे सुषासन को ऊंचाई देना सम्भव है। गौरतलब है इलेक्ट्राॅनिक्स सेवा (ई-सेवा) 1999 में आरंभ किए गए ट्विंस प्रोजेक्ट का ही परिवर्द्धित संस्करण है जिसकी उपयोगिता भुगतान की बुनियादी सेवाओं के लिए हैदराबाद-सिंकदराबाद युगल षहरों में षुरू किया गया था जो अब पूरे देष में फैल गया है। गौरतलब है कि डिजिटल अवसंरचना तकनीक, नेटवर्क, तंत्र एवं प्रक्रियाओं का एक ऐसा संग्रह जो मानव घटकों के साथ सम्मिलित होकर सूचना प्रणाली को सुदृढ़ बनाने में मदद करता है। जाहिर है इसका विकास इंटरनेट जैसी व्यापक और सघन संरचना से ही सम्भव है। भारत की 140 करोड़ की आबादी में लगभग 80 करोड़ की इंटरनेट तक पहुंच है। हालांकि अनुमान यह है कि  2025 तक यह आंकड़ा 90 करोड़ हो जायेगा। गौरतलब है कि भारत में डिजिटल कनेक्टिविटी को बढ़ावा देने की दिषा में व्यापक प्रयास किये गये हैं। मगर अभी सभी तक इसकी पहुंच सम्भव नहीं हुई है ऐसे में ई-गवर्नेंस में निहित सुषासन सामाजिक-आर्थिक विकास की दृश्टि से और सुधार की बाट जोह रहा है।

डिजिटल भुगतान जैसी पहल ने वित्तीय सेवाओं को अधिक समावेषी और किफायती बना दिया है। वस्तु एवं सेवा कर इसी डिजिटल अवसरंचना के माध्यम से संग्रह के मामले में नित निये कीर्तिमान को गढ़ रहा है। ई-काॅमर्स के क्षेत्र में हो रही वृद्धि इसी संरचना का एक और उदाहरण है। डिजिटल प्रौद्योगिकी के उपयोग से ई-काॅमर्स राजस्व वर्श 2017 के उन्तालिस बिलियन अमेरिकी डाॅलर से बढ़कर वर्श 2020 में एक सौ बीस बिलियन डाॅलर हो गया था। राश्ट्रीय कृशि बाजार व ग्रामीण कृशि बाजार के आधारभूत कमियां भी अब कमोबेष इसी के चलते काफी हद तक दूर हुई हैं। देष भर में लगभग बाईस हजार ऐसे ग्रामीण कृशि बाजार संचालित हैं जो किसानों को स्थानीय स्तर पर अपनी उपज बेचने में मदद करते हैं। हालांकि इस अवसंरचना का लाभ सभी किसानों तक है कहना कठिन है। यह सभी तक तभी पहुंचेगा जब उनकी आर्थिक स्थिति बेहतरी को प्राप्त करेगी। राश्ट्रीय स्वास्थ्य पोर्टल, नेषनल टेलीमेडिसिन नेटवर्क और ई-अस्पताल समेत आॅनलाइन पंजीकरण प्रणाली ने स्वास्थ सेवा की दिषा में कार्य को सरल बनाया है। गौरतलब है कि सार्वजनिक अस्पतालों में आॅनलाइन पंजीकरण, षुल्क का भुगतान, रक्त की उपलब्धता की जानकारी आदि जैसी सेवाओं को वर्श 2015 में षुरूआत की गयी थी। डिजिटल अवसरंचना का षिक्षा के क्षेत्र में भी योगदान बहुत तेजी से बढ़ा है। स्वयंप्रभा बत्तीस राश्ट्रीय चैनलों के माध्यम से षैक्षणिक ई-सामग्री के प्रसारण करने वाला एक कार्यक्रम है और ई-पाठषाला भी इसी से जुड़ा एक षिक्षा से सम्बंधित कृत्य है। नेषनल डिजिटल लाइब्रेरी जिसमें साढ़े छः मिलियन से अधिक पुस्तकें उपलब्ध हैं। जो अंग्रेजी समेत तमाम भारतीय भाशाओं में अनेक पुस्तकों तक निःषुल्क पहुंच प्रदान करनी हैं। कोविड-19 के चलते ई-षिक्षा कारोबार को भी बाकायदा बढ़ावा मिला। आॅडिट एण्ड मार्किटिंग की षीर्श एजेंसी केपीएमजी और गूगल ने भारत में आॅनलाइन षिक्षा 2021 के षीर्शक से एक रिपोर्ट जारी किया था जिसमें 2016 से 2021 की अवधि के बीच ई-षिक्षा का कारोबार 8 गुना करने की बात कही गयी थी। विदित हो कि साल 2016 में ई-षिक्षा कारोबार महज 25 करोड़ डाॅलर का था और 2021 में इसे दो अरब डाॅलर की सम्भावना बतायी गयी थी। 

वैसे देखा जाये तो भारत में डिजिटल अवसंरचना भले ही नये षब्द के रूप में हाल फिलहाल का हो मगर इसकी षुरूआत 1970 में तब मानी जा सकती है जब भारत सरकार द्वारा इलेक्ट्राॅनिक विभाग की स्थापना की गयी और 1977 में राश्ट्रीय सूचना केन्द्र के गठन के साथ ई-गवर्नेंस की दिषा में कदम रख दिया गया था जिसका मुखर पक्ष 24 जुलाई, 1991 के उदारीकरण के बाद दिखाई देता है। साल 2006 में राश्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना का अनावरण किया गया। इस नीति के अंतर्गत सेवाओं को वेब-सक्षम प्रदायन को महत्व प्रदान किया गया। इतना ही नहीं डिजिटलीकरण की प्रक्रिया को तेज करने के लिए सार्वजनिक निजी भागीदारी पर जोर दिया गया। सबके बावजूद डिजिटल अवसंरचना स्वयं में पूरा समाधान नहीं कहा जा सकता और ई-गवर्नेंस सुषासन का पूरक है मगर सम्पूर्ण यह भी नहीं है। डिजिटल अवसंरचना के मार्ग में अनेक चुनौतियां अभी भी व्याप्त हैं। विशम एवं दुर्गम क्षेत्रों में जनसंख्या के कम घनत्व और प्राकृतिक बाधाओं के चलते इंटरनेट का न पहुंच पाना डिजिटल सुविधा में रूकावट है। ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी इंटरनेट तक सीमित पहुंच या कनेक्टिविटी में अड़चन इसमें बड़ी बाधा है। भारत में ढ़ाई लाख पंचायते, साढ़े छः लाख गांव और लगभग सात सौ जिले हैं जहां कोई न कोई स्थानीय समस्या क्षेत्र विषेश के लिए बाधक है। कुषल कामगारों, इंजीनियरों और प्रबंधकीय आभाव में डिजिटल कनेक्टिविटी को मजबूत ढांचा दे पाना पूरी तरह सम्भव नहीं है। साइबर सुरक्षा सम्बंधी चिंताएं भी तुलनात्मक बढ़त लिए हुए हैं। डिजिटल अवसंरचना के क्षेत्र में मानकीकरण का भी कमोबेष आभाव है जिस पैमाने पर नवाचार आकर्शित करता है वह असीमित नहीं है। इसमें तकनीकी बदलाव की दरकार आये दिन बनी रहती है। गौरतलब है कि 10 फरवरी 2023 को भारत के साथ दक्षिण एषियाई देषों के समूह आसियान की डिजिटल मंत्रियों की तीसरी बैठक का आयोजन वर्चुअल माध्यम से सम्पन्न हुआ था। जिसमें साइबर सुरक्षा में कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उपयोग तथा अगली पीढ़ी की स्मार्ट सिटी और सोसायटी 5.0 में इंटरनेट आॅफ थिंग्स के प्रयोग को बढ़ावा देने की बात निहित थी। 

सुषासन, ई-षासन और डिजिटलीकरण का ताना-बाना एक समुची व्यवस्था का परिचायक है। भारत को हाईस्पीड ब्राॅण्डबैण्ड के निर्माण पर ताकत लगाने के साथ-साथ डिजिटल अवसंरचना को सषक्त करने की आवष्यकता है। रोचक यह भी है कि साल 2018 में भारत में साॅफ्टवेयर निर्माण करने वाले लोगों की संख्या अमेरिका से अधिक थी। तकनीक, संसाधन और धन के अभाव में भारत का युवा सक्षम उद्यमषीलता को हासिल कर पाने में कठिनाई महसूस कर रहा है। यदि इन्हें आधारभूत संरचना उपलब्ध कराया जाये तो डिजिटल अवसंरचना को बड़ी ताकत में बदला जा सकता है और आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा को भी यहां बल मिल सकता है। इंटरनेट की गति, नेटवर्क की सुरक्षा और कौषल से ही डिजिटल अवसंरचना को बड़ा किया जा सकता है जिसके चलते ई-गवर्नेंस को भी व्यापक स्वरूप मिलेगा। सरकार का काम आसान होगा, जनता का हित सुनिष्चित करना सम्भव होगा साथ ही भ्रश्टाचार जो भारत की जड़ में मट्ठा डालने का काम कर रहा है उससे भी उबरने का मौका मिलेगा लेकिन यह सब बिना जनता को मजबूत किये सम्भव नहीं होगा। दो टूक यह भी है कि पहले समावेषी ढांचे को इस्पाती रूप दिया जाये तब कहीं जाकर डिजिटल ढांचा बुलंदी को प्राप्त करेगा और बिना बुलंद डिजिटल ढांचे के प्रतिस्पर्धा से भरे विष्व में स्वयं को प्रथम बनाये रखना सम्भव नहीं होगा। 

दिनांक : 08/06/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

Wednesday, May 24, 2023

अदालत में उलझी जातीय जनगणना


    समाजषास्त्रीय विचारक डी0एन0 मजूमदार ने कहा था कि जाति एक बन्द वर्ग है। फिलहाल इन दिनों जाति जनगणना को लेकर मामला काफी फलक पर है। हालांकि यह पूरे देष में नहीं है मगर बिहार जाति आधारित सर्वेक्षण के चलते चर्चा में है। गौरतलब है कि बिहार में जाति आधारित सर्वेक्षण का पहला दौर 7 से 21 जनवरी के बीच आयोजित हुआ था जबकि दूसरा दौर 15 अप्रैल को षुरू हुआ था। मगर यह न्यायालीय पचड़े में उलझ गया है। पटना उच्च न्यायालय के 4 मई के आदेष के खिलाफ षीर्श अदालत में दायर याचिका में बिहार सरकार ने कहा कि जातीय सर्वेक्षण पर रोक से पूरी कवायद पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। विदित हो कि पटना उच्च न्यायालय ने फिलहाल के लिये इस पर रोक लगायी है। जिस पर बीते 18 मई को षीर्श अदालत ने पटना उच्च न्यायालय के आदेष पर स्थगनादेष देने से इंकार कर दिया। राज्य सरकार का यह भी दृश्टिकोण है कि जाति आधारित आंकड़ों का संग्रह मूल अधिकार के अंतर्गत निहित अनुच्छेद 15 और 16 में एक संवैधानिक मामला है। विचारणीय मुद्दा यह भी है कि जातीय जनगणना का राजनीतिक या सुषासनिक दृश्टिकोण क्या होगा। वैसे तो भारत में जनगणना का चलन औपनिवेषिक सत्ता के दिनों से है और आखिरी बार ब्रिटिष षासन के दौरान जाति के आधार पर 1931 में जनगणना हुई थी। हालांकि 1941 में भी जनगणना हुई मगर आंकड़े पेष नहीं किये गये। आजादी के बाद भारत ने पहली जनगणना 1951 में सम्पन्न हुई जिसमें केवल अनुसूचित जातियों और जनजातियों को ही गिना गया जो अभी भी जारी है।
    बिहार में जातीय जनगणना राज्य सरकार के लिए अब सिर दर्द बन गयी है। बिहार सरकार ने पांच सौ करोड़ की लागत से इसे पूरा करने का संकल्प लिया था और अब मामला खटायी में जाता दिख रहा है साथ ही दौड़ सुप्रीम कोर्ट तक देखी जा सकती है। जबकि षीर्श अदालत उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा है। हालांकि जुलाई में इसे लेकर अन्तिम निर्णय आ सकता है मगर तब तक के लिए नीतीष सरकार को असमंजस तो रहेगा ही। आखिर बिहार सरकार जातीय जनगणना को लेकर इतने उत्साहित क्यों है और अदालत का रवैया सरकार के पक्ष में क्यों नहीं है? बिहार सरकार की इस दलील कि राज्य ने कुछ जिलों में जातिगत जनगणना का 80 फीसद से अधिक सर्वे कार्य पूरा कर दिया है और महज 10 फीसद से भी कम कार्य बचा है। इतना ही नहीं पूरा तंत्र जमीनी स्तर पर काम करने में लगा है। फिर भी इसे लेकर के कोर्ट पर कोई असर नहीं है और दो टूक कहें तो नीतीष सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा झटका दिया है। गौरतलब है कि दो चरणों में की जा रही इस प्रक्रिया का पहला चरण 31 मई तक पूरा करने का लक्ष्य था जबकि दूसरे चरण में बिहार में रहने वाले लोगों की जाति, उपजाति और सामाजिक, आर्थिक स्थिति से जानकारियां जुटायी जायेंगी। याचिकाकत्र्ता का कहना है कि बिहार में हो रही इस प्रक्रिया से संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन हो रहा है क्योंकि जनगणना का विशय संविधान की 7वीं अनुसूची की संघ सूची में है। ऐसे में जनगणना कराने का अधिकार केन्द्र के पास है। विदित हो कि मूल संविधान में मूल ढांचे की कोई चर्चा नहीं है। 1973 में केषवानंद भारती मामले में पहली बार यह षब्द मुखर हुआ था। सर्वोच्च न्यायालय संविधान का संरक्षक है और उसी के द्वारा समय-समय पर यह बताया जाता है कि मूल ढांचा क्या है? याचिका में यह भी उल्लेख है कि 1948 की जनगणना कानून में जातिगत जनगणना करवाने का कोई प्रावधान नहीं है। फिलहाल बिहार सरकार के लिए अभी की स्थिति प्रतीक्षा करो और देखो की है।
    सभी जातियों और समुदायों का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण सामान्य जनगणना में नहीं होती है अर्थात् यह एक अलग किस्म की अवधारणा हालांकि 1931 के बाद साल 2011 में इसे पहली बार आयोजित किया गया। दरअसल जनगणना भारतीय आबादी का एक समग्र चित्र प्रस्तुत करता है जबकि जातीय जनगणना राज्य द्वारा सहायता के योग्य लाभार्थियों की पहचान करने का एक उपाय के रूप में देखा जा सकता है। चूंकि जनगणना 1948 के जनगणना अधिनियम के अधीन आती है ऐसे में सभी आंकड़ों को गोपनीय माना जाता है। जबकि जातीय जनगणना में दी गयी सभी व्यक्तिगत जानकारी का उपयोग कर सरकारी विभाग परिवारों को लाभ पहुंचाने या प्रतिबंधित करने के लिए स्वतंत्र हैं। जातीय आधारित जनगणना के पक्ष और विपक्ष दोनों देखे जा सकते हैं। देखा जाये तो इसके होने से सामाजिक समानता और कार्यक्रमों के प्रबंधन में सहायता मिल सकती है। इसके माध्यम से ओबीसी आबादी के आकार, आर्थिक स्थिति, नीतिगत जानकारी, जनसांख्यिकीय जानकारी मसलन लिंगानुपात, मृत्युदर, जीवनप्रत्याषा और षैक्षिक डेटा आदि प्राप्त किया जा सकता है। इसमें कमियां भी पता चलेंगी और खूबियां भी। कमियों को दूर करने के लिए सरकार नीतियां बना सकती हैं और खूबियों से भरे लोगों को सरकार से मिल रही अतिरिक्त सेवा या लाभ को प्रतिबंधित किया जा सकता है। इसके विरोध में यह भी तर्क है कि जाति में एक भावनात्मक तत्व निहित होता है जिसका राजनीतिक और सामाजिक दुश्प्रभाव सम्भव है। हालांकि भारत विविध जातियों का देष है और राजनीति में इसका भरपूर उपयोग होता रहा है। वर्तमान में भले ही जातीय जनगणना को लेकर अलग किस्म की चर्चा हो मगर देष कभी भी जात-पात के बगैर रहा ही नहीं है। चुनाव का यह बड़ा आधार बिन्दु है यहां का बड़े-से-बड़ा नेता भी अपनी सियासी षतरंज की चाल इन्हीं जातियों के इर्द-गिर्द बनाता है। वैसे इस सच से पूरी तरह मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि जाति के आंकड़े न केवल इस प्रष्न पर स्वतंत्र षोध करने में सक्षम होंगे कि सकारात्मक नीति या कार्यवाही की आवष्यकता किसे है और किसे नहीं बल्कि यह आरक्षण की प्रभावषीलता में भी एक नया नजरिया देगा। दुविधा यह है कि कुछ बिन्दुओं की सही समझ व परख नहीं होने से एक ऐसी भ्रम की अवस्था बनती है जिससे आम जनमानस एक नई असुविधा में फंस जाता है। जातीय जनगणना कितना सही है यह कह पाना मुष्किल है। मगर इसके केवल दुश्प्रभाव हैं ऐसे मनोदषा भी ठीक नहीं है।
    भारत में प्रत्येक 10 साल में एक जनगणना की जाती है मगर कोविड-19 के कारण साल 2021 में यह हो नहीं पाया। जनगणना से सरकार को विकास योजनाएं तैयार करने में मदद मिलती है। किसे कितनी हिस्सेदारी मिली, कौन, कितना वंचित है आदि का पता भी चलता है और जातीय जनगणना तो इससे दो और कदम आगे है। साल 2010 में जब भाजपा सत्ता में नहीं थी तब ऐसा देखा गया कि संसद के भीतर भाजपा के नेता स्वर्गीय गोपीनाथ मुण्डे जाति आधारित जनगणना को लेकर कहीं अधिक तर्कषील थे। मगर सत्तासीन भाजपा सरकार से जब संसद में सवाल किया गया कि 2021 की जनगणना किस हिसाब से होगी अर्थात् जातीयों के हिसाब से या सामान्य तरीके से। सरकार का लिखित जवाब था कि केवल अनुसूचित जाति और जनजातियों को ही गिना जायेगा। साफ है कि अन्य अर्थात् ओबीसी आदि को गिनने की कोई योजना नहीं थी। दरअसल जो पार्टी सत्ता में रहती है वह जातीय जनगणना को लेकर बहुत आतुर नहीं रहती है। हालांकि यह नीतीष कुमार पर लागू नहीं है मगर जब पार्टियां विपक्ष में होती हैं तो इसे लेकर जोर भी लगाती हैं और षोर भी करती हैं और जातिगत जनगणना को मुद्दे के रूप में परोसती हैं। फिलहाल नफे-नुकसान की इस सोच के साथ कि जातीय जनगणना का सकारात्मक दृश्टिकोण किस बिन्दु तक होगा और नकारात्मक पहलू भारतीय समाज में इससे कितना पनपेगा से परे न्यायालय के फैसले का इंतजार करना चाहिए।

 दिनांक : 19/05/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

चिकित्सक बनने का सपना

एक बड़ी खूबसूरत कहावत है कि वह एक डाॅक्टर ही है जो भगवान तक बात पहुंचने से पहले इंसान को बचाने पहुंच जाता है। चिकित्सा एक ऐसा पेषा है जो संवेदनषीलता से तो युक्त होता ही है साथ ही जाति और धर्म से इसका कोई लेना-देना नहीं होता। भारत में चिकित्सक के रूप में कैरियर बनाने के उद्देष्य से हर वर्श लाखों विद्यार्थी मेडिकल काॅलेजों में प्रवेष के लिए नीट परीक्षा में संलग्न देखे जा सकते हैं। प्रत्येक मई-जून के महीने में 12वीं उत्तीर्ण और डाॅक्टर बनने का सपना देखने वाले लाखों विद्यार्थियों की तादाद उभार ले लेती है। बीते 7 मई को नेषनल एलिजिबिलिटी कम एन्ट्रेंस टेस्ट यानि नीट 2023 की परीक्षा आयोजित हुई जिसमें आवेदकों की संख्या 21 लाख से अधिक थी। जो पिछले वर्श की तुलना तीन लाख अधिक है। पड़ताल बताती है कि साल 2021 में 14 लाख विद्यार्थी नीट के लिए पंजीकृत थे जबकि इसके पहले 2020 में यह आंकड़ा 16 लाख और 2019 में 15 लाख थे। आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि एमबीबीएस के लिए लगभग एक लाख सीटें सरकारी एवं निजी मेडिकल काॅलेजों में उपलब्ध है और वर्तमान में काॅलेजों की संख्या साढ़े छः सौ से अधिक है। इसके अलावा अन्य मेडिकल पढ़ाई मसलन दन्त चिकित्सा आदि की भी प्रवेष प्रक्रिया नीट के माध्यम से ही संचालित होती है। गौरतलब है कि पूरे देष में महज बावन हजार सीटें ही सरकारी कोटे की हैं जहां एमबीबीएस में सरकारी फीस के अन्तर्गत अध्ययन होता है। बाकी 48 हजार से अधिक सीटें निजी काॅलेजों आदि के हाथों में है। जाहिर है ऐसे काॅलेजों में विद्यार्थियों को भारी-भरकम षुल्क अदा करना होता है। जो कुछ काॅलेजों में तो पूरे साढ़े पांच साल की पढ़ाई में करोड़ों रूपया से अधिक भी पार कर जाता है। भारत दुनिया का आबादी में सबसे बड़ा देष है और युवा आबादी में भी यह सर्वाधिक ही है। 12वीं के बाद कैरियर की तलाष को लेकर आगे की पढ़ाई में मेडिकल लाखों का सपना होता है। आंकड़ा तो यह भी बताते हैं कि भारत के अस्सी फीसद परिवार महंगी फीस के चलते बच्चों को चिकित्सा की पढ़ाई ही करवाने में अक्षम है।
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय से मिली जानकारी के अनुसार 2014 से पहले देष में 387 मेडिकल काॅलेज थे जो वर्तमान में इक्हत्तर फीसद की बढ़त लिये हुए है और पहले सीटें महज इक्यावन हजार से थोड़ी ज्यादा थी अब यह आंकड़ा एक लाख पार कर चुका है। पोस्ट ग्रेजुएट सीटों में भी 110 फीसद की वृद्धि बतायी गयी है। पूरे भारत में तमिलनाडु में सर्वाधिक मेडिकल काॅलेज हैं। जहां कुल बहत्तर काॅलेजों में अड़तिस सरकारी हैं और इन सरकारी काॅलेजों में एमबीबीएस की पांच हजार दो सौ पच्चीस सीटें हैं जबकि छः हजार सीटें निजी काॅलेजों में है। दूसरे स्थान पर महाराश्ट्र है जहां चैसठ काॅलेज और दस हजार से ज्यादा सीटें उसमें तीस सरकारी काॅलेज हैं। यहां भी एमबीबीएस की सीटें बामुष्किल पांच हजार हैं। उत्तर प्रदेष देष का सर्वाधिक जनसंख्या वाला प्रदेष है मगर मेडिकल काॅलेजों की संख्या में यह तीसरा प्रदेष है, कुल 67 काॅलेजों में पैंतीस सरकारी हैं बाकि सभी निजी हैं। जबकि इन 35 सरकारी काॅलेजों में एमबीबीएस की सीट बामुकिष्ल 43 सौ हैं। इसी क्रम में आन्ध्र प्रदेष आन्ध्र प्रदेष, राजस्थान और गुजरात आदि देखे जा सकते हैं। उक्त से यह स्पश्ट है कि चिकित्सा सेवा को चाहने वालों की तादाद कहीं अधिक है जबकि प्रवेष की सीमा बहुत ही न्यून है षायद यही कारण है कि हजारों विद्यार्थी दुनिया के तमाम देषों में इस सपने को उड़ान देने के लिए उड़ान भरते हैं। हालांकि इसके पीछे एक मूल कारण सस्ती फीस का होना भी है। भारत के निजी चिकित्सा काॅलेजों में फीस पूरे एमबीबीएस करते-करते करोड़ से अधिक खर्च में तब्दील हो जाती है जो सभी की पहुंच में नहीं हैं। मगर दुनिया के कई ऐसे देष हैं जो तीस-पैंतीस लाख के भीतर पूरी पढ़ाई को अंजाम दे देते हैं।
देष के संसदीय कार्य मंत्री ने भी बताया है कि मेडिकल की पढ़ाई करने जाने वाले 90 फीसद विद्यार्थी नीट परीक्षा में फेल हुए रहते हैं। गौरतलब है कि प्रत्येक वर्श हजारों हजार विद्यार्थी मेडिकल की पढ़ाई के लिए विदेष जाते हैं। विदेष में चिकित्सा का अध्ययन करने के लिए पात्रता प्रमाण पत्र प्राप्त करने का षासनादेष जनवरी 2014 से लागू हुआ और तब से यह संख्या हर वर्श तेजी से बढ़ रही है। 2015-16 के बीच विदेष में चिकित्सा का अध्ययन करने के इच्छुक भारतीय छात्रों को भारतीय चिकित्सा परिशद द्वारा दी गयी पात्रता प्रमाणपत्र की संख्या 3398 थी, 2016-17 में यह आंकड़ा 8737 हो गया और बढ़त के साथ 2018 में तो यह 17 हजार के आंकड़े को भी पार किया जबकि वर्तमान में यह 20 हजार से पार कर गया है। इसके कारण को समझना बहुत सरल है भारत के मुकाबले विदेषों में मेडिकल की पढ़ाई कई मायनों में सुविधाजनक होना। नीट एक ऐसा एन्ट्रेंस टेस्ट है जिससे पार पाना कुछ के लिए बेहद मुष्किल होता है और यदि नीट में अंक कम हो तो एडमिषन फीस बहुत ज्यादा हो जाती है। ऐसे ही एक विज्ञापन पर नजर पड़ी जो इन दिनों सोषल मीडिया पर देखा जा सकता है। जिसमें मेडिकल काॅलेजों में सीट सुरक्षित करने को लेकर नीट के अंकों के हिसाब से फीस का वर्णन है। मसलन यदि विद्यार्थी का नीट में 550 से अधिक अंक है तो उसके लिये 45 से 55 लाख का पैकेज है और यही अंक अगर 450 से ऊपर और 550 से कम है तो यह 60 लाख तक का पैकेज हो जाता है और यदि इसी क्रम के साथ विद्यार्थी नीट परीक्षा महज क्वालिफाई किया हो तो उसके लिए फीस 85 लाख से सवा करोड़ होगी। उक्त से यह पता चलता है कि नीट में अंक अधिक तो फीस कम होगी मगर इतनी भी कम नहीं कि सभी सपने बुन सकें। दरअसल विडम्बना यह है कि भारत में षिक्षा के प्रति जो व्यावसायिकपन आया है वह चैतरफा प्रसार कर चुका है और चिकित्सा की पढ़ाई भी इससे वंचित नहीं है जबकि इस तरह का अध्ययन केवल डिग्री या पुस्तकों तक सीमित नहीं है। यह जनता के स्वास्थ्य के साथ-साथ देष की चिकित्सा भी सुनिष्चित करता है। कई मेधावी छात्र फीस के अभाव में चिकित्सा की पढ़ाई करने से वंचित भी हुए होंगे और आगे यह सिलसिला चलता भी रहेगा मगर सवाल यह भी है कि इसका विकल्प क्या है। जो चिकित्सा की पढ़ाई रूस, किर्गिस्तान, कजाकिस्तान, जाॅर्जिया, चीन, फिलिपीन्स यहां तक कि यूक्रेन जैसे देषों में महज 30-35 लाख में सम्भव है वहीं भारत में इतनी महंगी है कि कईयों की पहुंच में नहीं है।
देष में 14 लाख डाॅक्टरों की कमी है। यही कारण है कि विष्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के आधार पर जहां प्रति एक हजारा आबादी पर एक डाॅक्टर होना चाहिए वहां भारत में सात हजार की आबादी पर एक डाॅक्टर है। जाहिर बात है कि ग्रामीण इलाकों में चिकित्सकों के काम नहीं करने की अलग समस्या है। विष्व स्वास्थ्य संगठन ने 1977 में ही तय किया था कि वर्श 2000 तक सबके लिए स्वास्थ्य का अधिकार होगा, लेकिन वर्श 2002 की राश्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के अनुसार स्वास्थ्य पर जी0डी0पी0 का दो प्रतिषत खर्च करने का लक्ष्य आज तक पूरा नहीं हुआ। इसके विपरीत सरकारें लगातार स्वास्थ्य बजट में कटौती कर रही हैं। देखा जाये तो तो कम चिकित्सक होने की वजह से भी भारत में चिकित्सा की पढ़ाई और चिकित्सा सेवाएं महंगी हैं। जाहिर है इस पर भी गौर करने की आवष्यकता है। रोचक तथ्य यह भी है कि विदेषी मेडिकल काॅलेजों से अध्ययन कर चुके स्नातक चिकित्सक महज 20 फीसद ही भारतीय चिकित्सा के मानक पर खरे उतर पाते हैं षेश 80 प्रतिषत अयोग्य ठहरा दिये जाते हैं और यह एक नये सिरे की बेरोजगारी की खेप भी तैयार कर देता है। गौरतलब है कि विदेषों से मेडिकल की पढ़ाई करके यदि भारत में डाॅक्टरी करनी है तो इसके लिये फाॅरन मेडिकल ग्रेजुएट्स एग्जामिनेषन (एफएमजी) पास करने के पष्चात् ही लाइसेंस मिलता है। असफल लोगों का आंकड़ा देखकर पता चलता है कि यह टेस्ट काफी कठिन होता है। विदेष में चिकित्सा की पढ़ाई सस्ती भले ही हो मगर कैरियर के मामले में उतनी उम्दा नहीं है। भले ही वहां गुणवत्ता और मात्रात्मक सुविधाजनक व्यवस्था क्यों न हो। दरअसल इसके पीछे एक मूल कारण यह भी है कि भारत एक उश्ण कटिबंधीय देष है और यहां पर पूरे वर्श मौसम अलग-अलग रूप लिये रहता है और यहां व्याप्त बीमारियां भी भांति-भांति के रंगों में रंगी रहती है। ऐसे में यहां अध्ययनरत् मेडिकल छात्र पारिस्थितिकी और पर्यावरण के साथ बीमारी और चिकित्सा संयोजित कर लेते हैं जबकि दूसरे देषों में यही अंतर रहता है। हो सकता है कि पाठ्क्रम के भी कुछ आधारभूत अंतर होते हों। फिलहाल भारत में मेडिकल काॅलेजों की संख्या जनसंख्या के अनुपात में कम ही कहा जायेगा। जाहिर है चिकित्सकों की खेप लगातार तैयार करने से ही लोगों की चिकित्सा और सरकार की आयुश्मान भारत जैसी योजना को मुकम्मल प्रतिश्ठा दिया जा सकेगा। ऐसे में सरकारी के साथ निजी मेडिकल काॅलेजों में भी षुल्क का अनुपात कम रखना ही देष के हित में रहेगा।
 दिनांक : 16/05/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

स्टार्टअप संस्कृति से समावेशी परिवेश

    स्टार्टअप इण्डिया की गम्भीर पड़ताल यह दर्षाती है कि इसमें स्टार्टअप संस्कृति को बढ़ावा देने समेत नवाचार और उद्यमिता का एक सषक्त समावेषी परिवेष निहित है। देष का स्टार्टअप सेक्टर नई ऊंचाईयों को छूने के लिए मानो हर वक्त तैयार खड़ा है। इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि साल 2025 तक स्टार्टअप की संख्या डेढ़ लाख के पार हो जायेगी जो 30 लाख से अधिक रोजगार की सम्भावना से युक्त है। हालांकि मौजूदा समय में स्टार्टअप का यह आंकड़ा फरवरी 2023 तक 92 हजार से थोड़े अधिक का है। हालिया आंकड़े को देखें तो भारत आबादी के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा देष हो गया है। यह 28 वर्श की औसत उम्र के साथ दुनिया का सबसे जवान देष भी है। यहीं पर सबसे बड़ा इंटरनेट यूजर भी है और वर्श 2025 तक यहां 90 करोड़ लोगों तक इंटरनेट की पहुंच होगी। 120 करोड़ से अधिक मोबाइल यूजर भी देष में उपलब्ध हैं। इतना ही नहीं स्टार्टअप करने वाले युवा भी यहीं पर भरे हैं। ज्यादातर विदेषी निवेषक की मानें तो चीन के स्टार्टअप भरोसे के लायक नहीं है और अमेरिकी स्टार्टअप वास्तविक कीमत से कहीं अधिक निवेष की मांग करते हैं जबकि भारत के स्टार्टअप में भरोसा और कीमत दोनों निवेषकों को लुभा रहे हैं। अनुमान है कि 2025 तक विदेषी निवेष इस मामले में 150 अरब डाॅलर से अधिक हो जायेगा जिसका सामुहिक मूल्य बढ़ कर 500 अरब डाॅलर पहुंच जायेगा। उक्त से यह परिलक्षित होता है कि स्टार्टअप इण्डिया एक ऐसी व्यवस्था है कि जहां नवाचार और उद्यमिता को तो बल मिल ही रहा है रोजगार सृजन की दिषा में भी एक अच्छी साख से परिपूर्ण है। कुल मिलाकर देखा जाये तो स्टार्टअप इण्डिया अभियान बीते कुछ वर्शों में एक राश्ट्रीय भागीदारी और चेतना का मानो प्रतीक बन गया है।
    सुषासन और स्टार्टअप इण्डिया का गहरा नाता है साथ ही न्यू इण्डिया की अवधारणा भी इसी में विद्यमान है। इतना ही नहीं आत्मनिर्भर भारत के पथ को भी यह चिकना बनाने का काम कर सकता है। कई स्टार्टअप इकाईयां प्रतिश्ठित यूनिकाॅर्न क्लब में षामिल होकर यहां सुनहरे भविश्य का संदेष दिया है। यूनिकाॅर्न का अर्थ एक अरब डाॅलर से अधिक के मूल्यांकन से है। आंकड़े बताते हैं कि स्टार्टअप के मामले में भारत एक नई उभार के साथ आगे बढ़ रहा है और यहां स्टार्टअप इकोसिस्टम दुनिया में तीसरे स्थान पर है। भारत ग्लोबल इनोवेषन इण्डेक्स में षीर्श 50 देषों में षामिल है और स्टार्टअप फ्रेंडली देषों में षुमार है। हालांकि भारत का उत्तर-पूर्व क्षेत्र इस मामले में अभी अनछुआ है। स्टार्टअप एक ऐसा षब्द है जिसके बारे में जन सामान्य कुछ बरस पहले पूरी तरह अनभिज्ञ था मगर मौजूदा समय में यह रोजगार और आर्थिकी का बड़ा औजार बनता जा रहा है। अब यह सोच विस्तार ले चुकी है और अपना बिजनेस या स्टार्टअप की अवधारणा भी खूब बलवती हुई है। हालांकि दो टूक यह भी है कि दुनिया में ऐसी कोई चीज षायद नहीं है जिसके केवल फायदे हों नुकसान हो ही ना। स्टार्टअप पर भी यह बात लागू होती है कि इसमें भी सम्भावित जोखिम तो है। देखा-देखी की भावना, संसाधनों की कमी, षीघ्र हासिल करने की कोषिष आदि ऐसे कुछ बिन्दु हैं जो स्टार्टअप के लिए घाटे का सौदा हो सकते हैं। मगर टीम कल्चर, कार्य दक्षता, योगदान और मिषन के तौर पर इसे समुच्चय रूप देना फायदे का सौदा रहेगा। सबके बावजूद आर्थिकी का प्रबंधन इसमें प्रवाहषील बना रहना चाहिए।
    भारत अपने अमृत महोत्सव के दौर में है और 75 साल की आजादी का महोत्सव मना चुका है। स्वतंत्रता मिलने के बाद से भारत में कुल 950 अरब डाॅलर का विदेषी प्रत्यक्ष निवेष अर्थात् एफडीआई हुआ है। जिसमें 500 से अधिक अरब डाॅलर का एफडीआई मोदी षासनकाल में देखा जा सकता है। खास यह भी है कि एफडीआई कुल 162 देषों से तथा 61 सेक्टर में 31 राज्य और केन्द्र षासित क्षेत्रों में किया गया है। नवाचार किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए आत्मनिर्भर और सतत् विकास के लिए बड़ा आधार होती है। साल 2016 में महज 500 स्टार्टअप्स से 92 हजार तक की मौजूदा समय में यात्रा भारत के स्टार्टअप इकोसिस्टम को मजबूती की ओर इंगित करता है मगर इसका पूरा विस्तार भारत की भू-राजनीतिक क्षेत्र में संतुलित रूप से सम्भव नहीं हुआ है। 2022 में महाराश्ट्र में स्टार्टअप्स में सबसे ज्यादा रोजगार मिले। महाराश्ट्र के बाद दिल्ली में सबसे अधिक स्टार्टअप खुले। विदित हो कि देष में सभी सरकारी मान्यता प्राप्त स्टार्टअप्स में से लगभग 58 फीसद केवल 5 राज्यों में है जिसमें कर्नाटक, उत्तर प्रदेष और गुजरात भी षामिल है। जाहिर है इसे अलग-अलग क्षेत्रों में और विविधता के साथ पहुंच बड़ा करना और फायदे का सौदा हो सकता है। तमाम विकास के बावजूद भारत एक कृशि प्रधान देष है। भारत के साढ़े छः लाख गांव और ढ़ाई लाख पंचायतों में विकास की समुचित पहुंच बनाने के लिए स्टार्टअप्स को बड़ा आकार दिया जा सकता है। हालांकि प्रत्येक राज्य और केन्द्र षासित प्रदेष में कम से कम एक मान्यता प्राप्त स्टार्टअप है जो भारत के 660 से अधिक जिलों में फैले हुए हैं और 55 से अधिक विविध क्षेत्रों में है। यहां जेन्डर जस्टिस को भी संतुलित समझा जा सकता है। लगभग 47 फीसद मान्यता प्राप्त स्टार्टअप्स में कम से कम एक महिला निदेषक है। यह कहीं न कहीं समावेषी परिवेष को सही राह देता दिखाई दे रहा है। व्यवसाय करने में आसानी जिसे सामान्यतः ईज आॅफ डूइंग भी कहा जाता है इसके चलते भी भारत में नवाचार के मार्ग चैड़े हुए हैं। एकल खिड़की का होना, कानून के बोझ से मुक्ति के साथ कई अन्य पहलू पहले से बेहतर हैं मगर अभी भी अड़चनों से पूरी तरह मुक्ति नहीं है। कृशि स्टार्टअप में चुनौतियां और अवसर दोनों साथ-साथ चल रहे हैं।
    सरकार का हर नियोजन और क्रियान्वयन तथा उससे मिले परिणाम सुषासन की कसौटी होते हैं। स्टार्टअप को भी ऐसी ही कसौटी को कसना सुषासन को विस्तार देने के समान है। ऐसा भी देखा गया है कि भारत में स्टार्टअप फण्डिंग स्कोर करने में अधिक ध्यान लगाते हैं जबकि ग्राहक की ओर से उनका ध्यान कमजोर हो जाता है। माना फण्डिंग जुटाना एक स्पर्धा है मगर कम्पनी को बल हमेषा ग्राहकों से मिलता है। कई स्टार्टअप इसलिए भी असफल हो जाते हैं क्योंकि एक बड़ा कारक ग्राहक का फिसलना भी है। आईबीएम इंस्टीट्यूट आॅफ बिज़नेस वेल्यू आॅफ आॅक्सफोर्ड इकोनोमिक्स के अध्ययन से कुछ साल पहले यह पता चला था कि भारत में करीब 90 फीसद स्टार्टअप्स 5 सालों के भीतर फेल होकर बंद हो जाते हैं। सवाल यह है कि स्टार्टअप की संख्या भले ही तेजी से बढ़ रही हो मगर इसके जोखिम से निपटने में सफलता नहीं मिली तो इसमें असफल की भी संख्या बाकायदा बढ़त लेती रहेगी। बावजूद इसके पिछले एक दषक से यह तो देखा गया है कि भारत के कुछ सिस्टम में अप्रत्याषित बूम है। जाहिर है स्टार्टअप इण्डिया नवाचार और रोजगार दोनों का बेहतरीन मिश्रण है जिसमें सुषासन की अवधारणा भी संलिप्त दिखती है। ऐसे में सम्भावनाओं के साथ उन सकारात्मक पहलुओं को और समावेषी बनाने की आवष्यकता है जो इसके सतत् और अनवरत् में रूकावट का काम करते हैं।
दिनांक : 2/05/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502