Wednesday, May 29, 2019

पड़ोसी देशों को संदेश देता शपथ समारोह


आज 30 मई है और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले भारत में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में दमदार वापसी के साथ नई सरकार षपथ ले रही है। ऐसा ही चित्र आज से ठीक पांच साल पहले 26 मई 2014 को उभरा था जब मोदी पहली बार प्रधानमंत्री की षपथ ले रहे थे। उन दिनों दक्षिण एषियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) देषों के 8 सदस्य देषों को आमंत्रित किया गया था पर इस बार सार्क के बजाय बे आॅफ बंगाल इनिषिएटिव फाॅर मल्टी सेक्टोरल टेक्निकल एण्ड इकोनोमिक काॅरपोरेषन (बिम्सटेक) के देष इस षपथ के साक्षी होंगे। समारोह से पाकिस्तान को दूर रखा गया है जबकि अन्य पड़ोसी को पूरे आदर के साथ आमंत्रित किया गया है। गौरतलब है भारत की लुक ईस्ट की नीति जो अब एक्ट ईस्ट में बदल चुकी है और ऐसा मोदी सरकार के कार्यकाल में ही हुआ है। वैसे लुक ईस्ट पाॅलिसी लगभग तीन दषक पुरानी है इसे 1990 में भारत ने अपनाई थी। देखा जाय तो बिम्सटेक के साथ सार्क के देष भी मोदी के षपथ समारोह में भागीदार बन रहे हैं। इस षपथ समारोह को कुषल पड़ोसी नीति के तहत कूटनीतिक संदर्भों से युक्त भी माना जा सकता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बड़ी चुनावी जीत से दुनिया को एक बार फिर उनकी पहचान हुई और अब बड़ी ताकत के साथ नई सरकार से पहचान होना बाकी है। बिम्सटेक जिसमें षामिल हैं बंगाल की खाड़ी से जुड़े भारत सहित 7 दक्षिण और दक्षिण पूर्व एषिया के पड़ोसी देष। इस संगठन में भारत के अतिरिक्त बांग्लादेष, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, म्यांमार और थाईलैण्ड को देखा जा सकता है। जो आपस में तकनीक और आर्थिक सहयोग के लिए जुड़े हैं जबकि दक्षिण एषियाई देषों का संगठन सार्क का उद्देष्य दक्षिण एषिया में आपसी सहयोग से षान्ति और प्रगति हासिल करना है। 
पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने मोदी को चुनावी जीत की बधाई देकर यह कोषिष की थी कि षपथ ग्रहण समारोह का बुलावा षायद उसके लिए भी हो पर ऐसा नहीं हुआ। साफ है कि नई सरकार षपथ से पहले ही संदेष दे रही है कि गोली और बोली एक साथ नहीं चलेगी। बधाई संदेष के समय भी प्रधानमंत्री मोदी ने इमरान को आतंक समाप्त कर षान्ति की नसीहत दी थी और लड़ाई गरीबी की ओर मोड़ने की बात कही थी। जाहिर है पाकिस्तान इससे निराष होगा पर पुलवामा के बाद जो स्थिति बनी है उसे देखते हुए पाकिस्तान के साथ अभी ऐसा कोई अनुकूल अवसर नहीं है जिसे लेकर उसे दिल्ली बुलाया जाय। हांलाकि 2014 के षपथ समारोह में सार्क देषों के आमंत्रित देषों में पाकिस्तान के तात्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ षरीफ दिल्ली में थे। पड़ताल बताती है कि मोदी ने अपने षपथ के दिन से ही षरीफ के साथ सकारात्मक रवैया अपनाया। कई मौकों पर भारत ने पाक को द्विपक्षीय समझौता और वार्ता के माध्यम से साधने का प्रयास भी किया पर आतंकी दांव-पेंच में पाक फंसा रहा, नतीजन जनवरी 2016 की पठानकोट में आतंकी हमला और उसी साल सितम्बर में उरी घटना के चलते क्रमिक तौर पर भारत का संयम जवाब दे गया। नवाज़ षरीफ की षराफत किसी काम की नहीं रही तत्पष्चात् भारत ने प्रतिकार करना ही उचित समझा और यह सिलसिला पुलवामा तक बड़े पैमाने तक जारी है फलस्वरूप भारत को पाकिस्तान पर सर्जिकल और एयर स्ट्राइक करना पड़ा। गौरतलब है कि पाक की आतंकी गतिविधियों के कारण 2016 की सार्क बैठक जो इस्लामाबाद में होने वाली थी वो रद्द हो गयी थी तब से अभी तक यह बैठक हुई ही नहीं। 2016 से ही भारत सार्क की जगह बिम्सटेक को बढ़ावा दे रहा है और इस बार के आमंत्रण से यह स्पश्ट है कि नई सरकार के कार्यकाल में भी यही नीति जारी रहेगी। बिम्सटेक के अलावा किर्गिस्तान के राश्ट्रपति और माॅरिषस के प्रधानमंत्री को भी आमंत्रित किया गया है। चीन को छोड़ कर हर वो देष षपथ समारोह में होगा जिसकी सीमा भारत से मिलती है पर पाकिस्तान नहीं होगा। अफगानिस्तान और मालदीव बिम्सटेक में नहीं है पर इनकी भी उपस्थिति सम्भव दिखाई देती है। 
माना तो यह भी जा रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी अपनी पहली विदेष यात्रा मालदीव से षुरू करने वाले हैं। गौरतलब है कि मालदीव में नई सरकार के आने के बाद से मोदी वहां नहीं गये हैं। रोचक यह भी है कि बांग्लादेष की प्रधानमंत्री समारोह में नहीं आ पायेंगी और ऐसा 2014 में भी हो चुका है। इस बार वह षपथ समारोह के समय जापान, सऊदी अरब और फिनलैंड की यात्रा पर रहेंगी जबकि पहले षपथ समारोह में भी वे विदेष यात्रा पर ही थी। मोदी ने बिम्सटेक देषों के षासकों को निमंत्रण भेजकर अपनी तात्कालिक नीति का भी खुलासा किया है। गौरतलब है कि चीन हिन्द महासागर में बड़ी ताकत के साथ श्रीलंका और मालदीव पर कूटनीतिक कब्जा किये हुए है जो भारत की मुख्य चिंता में एक है इसे देखते हुए यह षपथ संतुलन के काम आ रहा है। बिम्सटेक की प्रासंगिकता दक्षिण एषिया तथा पूर्व एषिया जिनकी जनसंख्या दुनिया में 21 फीसदी से अधिक है को एकजुट करने और सकल घरेलू उत्पाद के एकीकरण में विषिश्ट भूमिका के लिए भी जाना जाता है। इसके अंतर्गत 13 प्राथमिक क्षेत्र षामिल हैं। जिसमें व्यापार एवं निवेष, प्रौद्योगिकी, पर्यटन, मत्स्य उद्योग, कृशि, सांस्कृतिक सहयोग, पर्यावरण आपदा प्रबंधन समेत गरीबी निवारण और आतंकवाद देखा जा सकता है। जून 1997 में बैंकाॅक में गठित यह संगठन मौजूदा समय में आर्थिक और तकनीकी सहयोग का आकर्शण केन्द्र बना हुआ है तब इसमें बांग्लादेष, भारत, श्रीलंका और थाईलैण्ड सहित केवल चार सदस्य थे बाद में म्यांमार, भूटान और नेपाल भी इसमें सूचीबद्ध हुए। 
बिम्सटेक देषों की ओर हाथ बढ़ाकर मोदी ने इस सवाल के लिए गुंजाइष नहीं रखी कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को क्यों नहीं बुलाया और अन्यों को यह मैत्री संदेष भी दे दिया कि उन्हें क्यों बुलाया। गौरतलब है कि पाकिस्तान, मालदीव और अफगानिस्तान को छोड़कर सार्क के अन्य सभी देष बिम्सटेक में षामिल हैं। पाकिस्तान की प्रत्यक्ष अनदेखी करके उसे अविष्वास के दायरे में रखा गया। हालांकि अफगानिस्तान और मालदीव से रिष्ते पहले से कहीं अधिक मधुर हैं यह इतिहास में झांक कर देख सकते हैं। हालांकि इमरान खान का यह मानना था कि मोदी के सत्ता में लौटने से दोनों देषों में वार्ता सम्भव होगा पर यह बहुत कुछ पाकिस्तान पर ही निर्भर करेगा। इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि इमरान सेना पर निर्भर सरकार चला रहे हैं जो भारत को अपना सबसे बड़ा दुष्मन मानती है और वह कष्मीर से नजरें हटाती नहीं है। जब तक इमरान मोदी नीति नहीं समझेंगे और अपनी सेना नीति पर कायम रहेंगे। द्विपक्षीय वार्ता दूर की कौड़ी बनी रहेगी। बिम्सटेक के अलावा आसियान जैसे संगठनों के साथ भारत की पहुंच कहीं अधिक सषक्त है जो चीन को न केवल आईना दिखाने के काम आता है बल्कि कूटनीति को साधने के भी ये अच्छे उपकरण सिद्ध हुआ हैं। गौरतलब है भारत, म्यांमार और थाईलैण्ड के बीच एक हाईवे का प्रस्ताव है ताकि आपसी कनेक्टिविटी बढ़े। चूंकि यह सारे देष बंगाल की खाड़ी को छूते हैं तो इनके लिए ब्लू इकनोमी भी अहम होगी। जाहिर है भारत को सार्क से बहुत कुछ अभी तक नहीं मिला है और आसियान में चीन की बढ़ती दखल से भी वह पिछड़ा महसूस करता है। ऐसे में बिम्सटेक के सहारे कई आर्थिक और तकनीकी संदर्भ को अपने हित में देखता है। बिम्सटेक के सदस्य देषों में फ्री ट्रेड एग्रीमेंट का प्रस्ताव भी काफी फायदे है। सार्क और ब्रिक्स संगठनों के अलावा बिम्सटेक देषों का संगठन भी भारत के लिए बेहद जरूरी है। यह कहीं न कहीं दक्षिण एषिया और दक्षिण पूर्वी देषों के लिए एक पुल का काम कर रहा है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com


Monday, May 27, 2019

फिलहाल रोजगार चुनौती मे बना रहेगा


अर्थव्यवस्था की गति बरकरार रखने और रोज़गार के मोर्चे पर खरे उतरने की पुरानी चुनौती नई सरकार के सामने बेषक रहेगी। रिपोर्ट भी बताती है कि साल 2027 तक भारत सर्वाधिक श्रम बल वाला देष होगा और इनके सही खपत के लिए बड़े नियोजन की दरकार रहेगी। भारत सरकार के अनुमान के अनुसार साल 2022 तक 24 सेक्टरों में 11 करोड़ अतिरिक्त मानव संसाधन की जरूरत होगी। हांलाकि यह रोज़गार की दृश्टि से सुखद आंकड़ा है पर हकीकत में उस समय क्या चित्र उभरेगा कहना मुष्किल है। इसके अलावा पेषेवर और कुषल को तैयार करना भी किसी चुनौती से कम नहीं होगा। सर्वे कहते हैं कि षिक्षित युवाओं में बेरोज़गारी की स्थिति काफी खराब दषा में चली गयी है। देष में बेरोज़गारी की समस्या बहुत समय से चली आ रही है। वर्तमान में यह बीते 45 बरस की तुलना में सबसे अधिक का दर लिए हुए है। प्रधानमंत्री मोदी की अगुवाई में लोकसभा चुनाव 2019 को भारी मतों से भाजपा सहित एनडीए ने जीत लिया है। केन्द्र में नई सरकार षीघ्र ही संरचना और प्रक्रिया में आने जा रही है। नई सरकार के समक्ष तमाम चुनौतियां रहेंगी पर रोज़गार से जुड़ी चुनौती कहीं अधिक बड़ी होने वाली है। देष की आबादी में आज युवाओं की संख्या बड़ी है और लगातार इसमें बढ़ोत्तरी हो रही है। इस बढ़ते युवा आबादी को रोज़गार उपलब्ध कराना नई सरकार के लिए प्राथमिकता हो न हो पर चुनौती तो रहेगी। देष में रोज़गार की स्थिति क्या है और इसे कैसे बढ़ाया जा सकता है साथ ही इसके लिए बेहतर क्षेत्र क्या हो सकता है इत्यादि पर चिंतन-मनन लाज़मी है। जाहिर है कि 303 सीट से अधिक पर जीत हासिल करने वाली अकेले भाजपा बड़े बहुमत वाली सरकार है ऐसे में संकुचित व छोटे नियोजन अपेक्षाओं पर चोट का काम करेंगे। अब नई सरकार की यह नई जिम्मेदारी है कि रोज़गार की कसौटी पर खरा उतरकर दिखाये। 

सुषासन की परिकल्पना से पोशित मोदी की पांच साल पुरानी सरकार जिस पहल के साथ देष में रोज़गार की चुनौती से लड़ने का प्रयास किया वे न केवल नाकाफी रहे बल्कि जमीनी हकीकत में काफी कमजोर सिद्ध हुए हैं हालांकि इस पर सरकार की अपनी दलील है मसलन मेक इन इण्डिया, डिजिटल इण्डिया, स्टार्टअप एण्ड स्टैण्डअप इण्डिया को लेकर ताकत झोंकी गयी मगर सरकार मुद्रा योजना के तहत दिये गये ऋण के आधार पर रोज़गार की संख्या साढ़े बारह करोड़ बताती रही। जिसे लेकर आज भी आषंका बनी हुई है। पिछले कुछ  वर्शों से देष लगातार 7 से 8 प्रतिषत की आर्थिक वृद्धि दर हासिल कर रहा है। जाहिर है इसी अनुपात में रोज़गार भी बढ़े होंगे मगर इस गति से दुनिया के अर्थव्यवस्था के सामने भारत अभी भी कमतर है। आर्थिक विकास दर को इकाई से दहाई में तब्दील करना सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। इसमें बढ़त के साथ रोजगार में बढ़ावा स्वाभाविक है। वैसे 9 से 10 प्रतिषत तक वृद्धि दर करना सरकार की प्राथमिकता होगी तभी रोज़गार के अवसरों में भी तेजी आयेगी। यह षिकायत रही है कि 2016 की नोटबंदी के बाद सूक्ष्म, लघु और मझोले (एमएसएमई) उद्योग बड़े पैमाने पर बंद हो गये। फलस्वरूप बेरोज़गारों की फौज खड़ी हो गयी। देष में कुल मिलाकर 6 करोड़ से अधिक एमएसएमई विभिन्न क्षेत्रों में कारगर भूमिका निभा रहे हैं और कम-ज्यादा इक्का-दुक्का लोगों को रोज़गार देने के अवसर से भी युक्त हैं। यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां कम पूंजी के साथ इसे गतिमान किया जा सकता है। हालांकि कई कानूनी प्रक्रियाएं व त्वरित और सस्ती वित्तीय सुविधा के कारण यहां भी कई कठिनाईयां हैं जिसे दूर किया जाना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। इंटरनेषनल लेबर आॅर्गेनाइजेषन ने भारत में बीते कुछ वर्शों से जो बेरोज़गारी से जुड़े आंकड़े उपलब्ध करा रहे हैं वे निराष करने वाले रहे हैं। रिपोर्ट 2017 में एक करोड़ 83 लाख लोगों को बेरोज़गार तो 2018 में एक करोड़ 86 लाख की बात कही थी। भारत रोज़गार 2016 की रिपोर्ट को देखें तो देष में कुल 11 करोड़ 70 लाख बेरोज़गार थे। जो मोदी सरकार के लिए पहले से बड़ी चुनौती है। आगे की चुनौती और पीछे की चुनौती मिलकर नई सरकार के लिए चुनौतियों का अम्बार सिद्ध होगी। 
पिछले कुछ वर्शों से यह बहस षुरू हुई हैं कि नौकरियां तो उपलब्ध हुई हैं लेकिन कुषल लोगों की ही कमी है। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ऐसा कह कर आलोचना भी झेल चुके हैं पर हकीकत है कि कुषल लोगों की कमी है। राश्ट्रीय कौषल मिषन को लेकर इस दिषा में उठाया गया कदम है पर सफल कितना है आंकड़े नहीं हैं। मानव श्रम को कुषल बनाने के लिए नये अभिकरणों को भी खोलना होगा। एक आंकड़े के अनुसार भारत में कौषल विकास के 15 हजार संस्थान हैं जबकि चीन में यही आंकड़ा 5 लाख और दक्षिण कोरिया जैसे छोटे देषों में यह एक लाख से अधिक है। बेरोज़गारी से निपटने के लिए युवाओं को कुषल बनाना उसी का एक भाग है। रोज़गार के क्षेत्र में भारत की वास्तविक स्थिति पर नजर डालें तो आज भी देष की 50 फीसद से ज्यादा आबादी कृशि गतिविधियों में लगी है जबकि यहां जीडीपी तेजी से नीचे गिर रही है। श्रम षक्ति यहां अधिक है पर कुषलता के आभाव में इनका सही खपत नहीं हो पाता और एक छुपी हुई बेरोज़गारी का षिकार बने रहते हैं। आर्थिक जानकार भी कहते हैं कि नोटबंदी के कारण 35 लाख लोगों का रोज़गार चला गया और इसका असर भी युवाओं पर पड़ा। नई सरकार के सामने इनका भी ध्यान रखने वाली चुनौती रहेगी। साल 2025 तक अर्थव्यवस्था में मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का योगदान बढ़ कर 25 प्रतिषत तक लाये जाने का संकल्प सरकार का रहा है। मेक इन इण्डिया जैसे कार्यक्रमों के तहत चीन और ताइवान जैसे विनिर्माण केन्द्रों का अनुकरण किया गया पर नौकरी के मामले में स्थिति संतोशजनक नहीं कही जा सकती जबकि मेक इन इण्डिया को बेरोज़गारी दूर करने का एक उपकरण भी समझा जा रहा है। दर के हिसाब से देखें तो 1972-73 में बेरेाज़गारी दर की तुलना में अब और अधिक है। सवाल है कि नई सरकार क्या राह लेगी और कैसे ज्यादा नौकरियां देगी।
नई सरकार के लिए रोज़गार बड़ी चुनौती को देखते हुए एमएसएमई और पर्यटन को प्रोत्साहन देने को लेकर पीएचडी वाणिज्य एवं उद्योग मण्डल की ओर से कुछ सुझाव देखने को मिलते हैं। विदेषी पर्यटकों को अकार्शित करना भारत की संरचनात्मक पहल पर निर्भर करेगा। दरअसल पर्यटन एक ऐसा क्षेत्र है जहां देष के भीतर ही निर्यात कारोबार किया जा सकता है। ऐसे में पर्यटक स्थलों को बेहतर बनाना प्राथमिकता होनी चाहिए। सभी को सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी पर सभी को कुषल बनाया जा सकता है और कुषलता में भी संतुलन की चुनौती रहेगी न सभी को डाॅक्टरी पढ़ाया जा सकता है और न सभी इंजीनियरिंग और न ही मैकेनिक की एक बड़ी लाॅबी तैयार करने में कूबत झोंकनी चाहिए। कौषल का अपना एक माॅडल विकसित करना नई सरकार के लिए अच्छा रहेगा। हालांकि पहले भी इस पर काम किया गया है पर समय के अनुपात में यह बड़े बदलाव की मांग में है। देष में उच्च षिक्षा लेने वालों पर नजर डालें तो पता चलता है कि 3 करोड़ से ज्यादा लोग स्नातक में प्रवेष लेते हैं और 40 लाख से अधिक परास्नातक में नामांकन कराते हैं। एक बड़ी खेप हर साल यहां तैयार होती है पर सरकारी नौकरी की चाह में बरसों बरस बेरोज़गार रहते हैं। ये षिक्षित और समझदार मानव श्रम है पर कुषलता के आभाव में बेरोज़गार बने रहते हैं। ऐसे में नई सरकार इनके लिए भी कुछ नया सोचे ताकि करोड़ों अच्छे श्रम सड़कों पर जाया न हो जाय बल्कि देष निर्माण में समावेषित किये जा सकें। 




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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Monday, May 20, 2019

नतीजे से पहले मोदी की पुनर्वापसी


बीते 19 मई को 7 चरणों में सम्पन्न 17वीं लोकसभा के गठन को लेकर आयोजित चुनावी महाकुंभ फिलहाल इतिश्री को प्राप्त कर चुका है। जैसा कि रिप्रेजेन्टेषन आॅफ द पीपल एकट 1951 के धारा 126ए में स्पश्ट है कि चुनाव के आखरी चरण के वोटिंग के खत्म होने के आधे घण्टे बाद ही एक्ज़िट पोल दिखा सकते हैं। उक्त नियम का पालन करते हुए टीवी चैनलों पर ताबड़तोड़ षाम 6ः30 बजे एक्ज़िट पोल के नतीजे दिखने लगे। हालांकि आगामी 23 मई को वास्तविक परिणाम से सामना सभी का होगा पर एक्ज़िट पोल के नतीजे तो मोदी की पुर्नवापसी को पुख्ता कर दिया है। ज्यादातर एक्जिट पोल एनडीए को 300 से अधिक सीट जीतते हुए दिखा रहे हैं जिसमें न्यूज़ 24 चाणक्य सर्वाधिक 350 की बात कह रहा है। हालांकि इंडिया टुडे इससे दो कदम और आगे यह आंकड़ा 339 से 365 का प्रदर्षित कर रहा है। रिपब्लिक-सी-वोटर जहां 300 के अंदर 287 पर ही एनडीए को सिमटते हुए देख रहा है वहीं एबीपी-एसी निल्सन के आंकड़े तो उसे बहुमत से 5 सीट पीछे बता रहा है। कांग्रेस वाली यूपीए को 2014 की तुलना में ज्यादातर एक्ज़िट पोल दोगुनी सीट दे रहे हैं। कुछ इससे भी अधिक की बात कह रहे हैं। गौरतलब है कि कांग्रेस 2014 में 44 सीट पर सिमटी थी पर देष में सबसे बड़ा दल भी था मगर विपक्ष की योग्यता से बाहर रहा परन्तु इस बार ऐसा होता नहीं दिखाई दे रहा है। एक्जिट पोल की पड़ताल बताती है कि यूपीए न्यूनतम 77 और अधिकतम 142 सीट जीत सकती है। जबकि अन्यों का आंकड़ा न्यूनतम 69 तो अधिकतम 148 बताया जा रहा है।  यदि एक्जिट पोल के मौजूदा सर्वेक्षण को वास्तविकता के आसपास रखकर देखा जाय तो स्पश्ट है कि मोदी के आगे किसी की एक नहीं चली है। सवाल दो हैं पहला यह कि 5 साल की मोदी सरकार 2014 की तरह चुनावी फिजा में इतनी लहरदार नहीं दिख रही थी बावजूद इसके 300 पार की स्थिति कैसे बना लिया। दूसरा क्षेत्रीय दलों ने अपने राज्य विषेश में मोदी को घेरने के लिए कई रणनीति बनाये और राजनीतिक समझौते किये, आपस में गठजोड़ किया साथ ही कांग्रेस ने भी एड़ी-चोटी का जोर लगाया परन्तु मोदी केा पीछे छोड़ने में नाकाम क्यों रहे। 
सर्वे से विपक्षी एकजुटता की मुहिम को पूरी तरह झटका लगा। उत्तर प्रदेष में सपा और बसपा का गठबंधन मोदी को पीछे छोड़ने में नाकाम दिखाई दे रहा है। एक्ज़िट पोल के हिसाब से गठबंधन को 13 सीट भी मिल सकती है जो किसी दुर्दषा से कम नहीं है। हालांकि एक एक्ज़िट पोल एबीपी-एसी निल्सन सपा-बसपा गठबन्धन को 56 सीट भी दे रहा है। सम्भव है मायावती और अखिलेख को यह आंकड़ा रास आ रहा होगा। ताज्जुब इस बात का भी है कि राजस्थान, मध्य प्रदेष और छत्तीसगढ़ को बीते दिसम्बर में फतह करने वाली कांग्रेस की अपने सरकार वाले इन राज्यों में ही आषा के अनुरूप सीटें मिलते नहीं दिखाई दे रही हैं। बिहार में महागठबंधन की हालत भी बहुत पतली है यहां मोदी और नीतीष की जोड़ी इनका सफाया करते हुए साफ दिख रही है। दक्षिण में यूपीए की स्थिति बेहतर प्रतीत होती है पर भाजपा ने भी व्यापक पैमाने पर गठजेाड़ करके स्थिति सुधारने का प्रयास किया है। पूर्वोत्तर में एनडीए की हालत अच्छी दिखाई दे रही है। उड़ीसा में भी 15 सीट मिलने के आसार दिख रहे हैं जबकि भाजपा को सबसे ज्यादा टक्कर देने वाला पष्चिम बंगाल उतनी बड़ी जीत षायद न दे पाये पर 2 से गई गुना आगे भाजपा रहेगी। यहां ममता बनर्जी का जादू कम होता नहीं दिख रहा है। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की उत्तर प्रदेष के बाद सर्वाधिक रैली पष्चिम बंगाल में ही हुई थी और सबसे जबरदस्त हिंसा के लिए भी इस चुनाव में इस प्रदेष को जाना जायेगा। एक्जिट पोल के नतीजे बेषक किसी को निराष तो किसी को सत्तासीन कर रहे हों पर ये संदेह से परे नहीं रहे हैं।
पड़ताल बताती है कि एक्ज़िट पोल कभी-कभी तो बहुत गलत सिद्ध हुए। पिछले 5 चुनावों के आंकलन को ध्यान में रखते हुए इसकी विवेचना और समीक्षा करें तो पता चलता है कि 1998 के आम चुनाव में भाजपा को सबसे ज्यादा सीट तो दी गयी थी मगर एक एक्ज़िट पोल में पूरे 50 सीटों का अंतर आ रहा था तब एनडीए 252, यूपीए 166 और अन्य 199 पर सिमटे थे। ठीक एक साल बाद 1999 के आम चुनाव में एक्ज़िट पोल के आंकड़े भी गलत सिद्ध हुए। सभी एक्ज़िट पोल एनडीए की अप्रत्याषित जीत का अनुमान लगा रहे थे और 300 से अधिक सीट दे रहे थे पर यह वास्तविक आंकड़ा 292 का था और जिन अन्य पार्टियों को मात्र 39 सीट दी गयी थी असल में वे 113 पर जीत दर्ज की थी। 2004 के आम चुनाव के बाद हुए एक्ज़िट पोल में तो कुछ ने भाजपा को 290 सीट दे दी थी लेकिन नतीजा इसके उलट था। कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, सरकार बनाने में कामयाब रही और सभी एजेंसियों के आंकड़े गलत सिद्ध हुए थे। गौरतलब है कि एनडीए के साइन इण्डिया की चमक एक्जिट पोल में तो दिखी पर वास्तव में यह स्याह हो गयी। इसी तरह 2009 में भी एक्जिट पोल को धता बताते हुए एक बार फिर यूपीए की सरकार बनी। खास यह है कि किसी भी एक्जिट पोल ने दोबारा यूपीए की जीत का अनुमन नहीं लगाया था तब यूपीए को 262 सीट मिली थी। अब बारी थी 2014 के उस 16वीं लोकसभा के चुनाव की थी जहां भाजपा की सुनामी के आगे कोई टिक नहीं पाया था। इस दौरान का किया गया एक्जिट पोल सबसे ज्यादा सटीक सिद्ध हुआ था। एक्जिट पोलों में भी कांग्रेस और यूपीए की इतनी बुरी हार नहीं देखी गयी थी। एनडीए को भी बड़ी जीत का अंदाजा नहीं था। भाजपा 282 और एनडीए 336 सीट पर जीत दर्ज करके इतिहास ही रच दिया था। उक्त से यह कह सकते हैं कि एक्जिट पोल के दावे कमोबेष कम ही सही बैठें हैं। 2019 में यह किस करवट बैठेगा यह 23 मई के नतीजे में स्पश्ट हो जायेगा।
चुनाव से पहले मोदी मुहिम को हर कोई संदेह की दृश्टि से देख रहा था पर एक्जिट पोल के नतीजे यह बता रहे हैं कि मोदी कहीं गये नहीं हैं और षायद भारतीय राजनीति में उनकी विदाई वर्तमान रणनीति से सम्भव भी नहीं है। सवाल कई हैं जिसमें एक यह कि एक्जिट पोल जिस तरह मोदी को बढ़त दे रहे हैं उससे विरोधी फिलहाल अपनी रणनीति को लेकर विचार मंथन में जरूर फंसे होंगे हालांकि उन्हें आषा है कि सर्वे झूठे सिद्ध होंगे और मोदी की विदाई हो जायेगी। पुलवामा हमले के बाद केन्द्र ने जिस तरह सख्त कदम उठाया हो न हो इससे मतदाताओं का रूझान मोदी के प्रति बढ़ा है। षायद इसे विरोधियों ने हल्के में लिया। राश्ट्रवाद और राश्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा जिस प्रकार भाजपा ने देष में परोसा वह भी उसे बढ़त दिलाने में मदद करता प्रतीत होता है। विरोधी षायद इस भुलावे में थे कि युवाओं के रोज़गार व किसानों की समस्या समेत अनेक बुनियादी तथ्यों पर सरकार हाषिये पर है जिसका सीधा फायदा उन्हें मिलेगा पर एक्ज़िट पोल को देखकर तो यही लगता है कि विरोधियों की सोच कुछ और मतदाता कुछ और सोच रहा था। एक बड़ा तथ्य यह भी है कि मौजूदा दौर मोदी के विकल्प का उपलब्ध न होना भी इस जीत की एक बड़ी वजह है। फिलहाल अन्तिम परिणाम आना अभी बाकी है 23 मई षाम तक यह सुनिष्चित हो जायेगा कि मोदी केन्द्र में काबिज रहेंगे या विदा होंगे।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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Wednesday, May 15, 2019

एक और खड़ी युद्ध की पटकथा लिखता अमेरिका

अमेरिका का ईरान के खिलाफ युद्ध जैसे हालात बनना दुनिया के लिए चिंता का कारण हो सकता है। ईरान के साथ बढ़ते तनाव के मद्देनजर अमेरिका अपने स्वभाव के अनुरूप युद्ध का खाका लगभग तैयार कर लिया है। पष्चिम एषिया में एक लाख बीस हजार सैनिकों को भेजने की योजना भी कमोबेष उसकी ओर से बन चुकी है। अमेरिकी राश्ट्रपति ट्रंप ने 13 मई को कहा था कि हम आने वाले समय में देखेंगे कि ईरान के साथ क्या होता है। अगर उन्होंने कोई हरकत की तो वह बहुत बड़ी गलती होगी और उन पर भारी पड़ेगी। फिलहाल अमेरिका-ईरानी रिष्तों के बिगड़ने के संकेत लगातार मिल रहे हैं। लगभग तीन दषक के आसपास एक खाड़ी युद्ध हुआ था। इराक के खिलाफ अन्य देषों की फौजें खड़ी हो गयी थी। गौरतलब है कुवैत मामले को लेकर अमेरिका ने 17 जनवरी 1991 को इराक पर बमबारी षुरू की थी और यह सिलसिला फरवरी के तीसरे सप्ताह तक चलता रहा। एक दषक पष्चात् संयुक्त राश्ट्र संघ के क्लीन चिट देने के बावजूद अमेरिका ने इराक पर रासायनिक हथियार रखने का आरोप लगाकर उसे निस्तोनाबूत कर दिया। अन्तर बस इतना है कि पहली बार जब इराक पर हमला हुआ तब अमेरिकी राश्ट्रपति जाॅर्ज डब्ल्यू बुष सीनियर थे और दूसरी बार जाॅर्ज डब्ल्यू बुष जूनियर थे। कहा तो यह भी जाता था कि पिता का अधूरा बदला पुत्र ने इराक से लिया था। इसके बाद भी इराक से अमेरिका की नजर नहीं हटी जब तक उसने सद्दाम हुसैन को खाक में नहीं मिला दिया। इराक की हालत जिस स्तर पर सुधरनी चाहिए थी असल में सुधरी नहीं बल्कि आतंकी संगठन समेत कई वजहों से यह और बिगड़ती चली गयी। अब एक बार फिर ऐसे ही युद्ध का ढांचा तैयार होता दिख रहा है। अबकी बार यह खतरा ईरान पर मंडरा रहा है। हालांकि इराक और ईरान को लेकर संरचनात्मक मुद्दे अलग हैं पर युद्ध की त्रास्दी और अंजाम एक जैसा ही दिख रहा है। पहले खाड़ी युद्ध में जाॅर्ज डब्ल्यू बुष ने अमेरिकी फौजों को इराक के सामने खड़ा कर दिया था अब डोनाल्ड ट्रंप इन्हीं फौजों को ईरान के खिलाफ खड़ा कर रहे हैं। ईरान चारों तरफ से घिरा हुआ है। स्थिति को देखते हुए ईरानी विदेष मंत्री ने 13 मई को नई दिल्ली का रूख किया ताकि वो भारत व ईरान के तेल समझौते पर बात कर सके। गौरतलब है कि अमेरिका ने भारत समेत 8 देषों को ईरान से तेल खरीदने की छूट 2 मई से बंद कर दी है। जिसके असर से भारत भी इन दिनों जूझ रहा है। 
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तो यही प्रतीत होता है कि डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान के सामने स्वयं को इसलिए खड़ा किया है क्योंकि उसने पिछले साल 8 मई को अमेरिका के साथ हुए 2015 के परमाणु समझौते से हटने का एलान कर दिया था। इसके बाद से ही तेल निर्यात को रोकने के साथ ही ईरान पर कई प्रतिबंध जड़ दिये। अमेरिका का कहना है कि उसके द्वारा की गयी कार्यवाही परमाणु कार्यक्रम और आतंकी गतिविधियों को लेकर की गयी है। इन सबके बावजूद एक सवाल यह भी है कि क्या अमेरिका और ईरान के रिष्ते पर केवल परमाणु समझौता ही एक बड़ा कारक रहा है। कहीं इसकी गांठ इतिहास के धुंधले पन्नों में तो नहीं अटकी है। पड़ताल बताती है कि दोनों देषों के रिष्तों में 40 साल पुरानी एक गांठ है जिसने दरार को बड़ा कर दिया है। गौरतलब है कि 1979 में ईरानी क्रांति की षुरूआत हुई थी। तब तत्कालीन सुल्तान रेजा षाह पहल्वी के तख्तापलट की तैयारी हुई थी। असलियत यह भी है कि 1953 में अमेरिका की मदद से ही षाह को ईरान का राज मिला था और उसने अपने कार्यकाल में ईरान के भीतर अमेरिकी सभ्यता को फलने-फूलने तो दिया लेकिन कई प्रकार के अत्याचार भी देष के भीतर किये। स्थिति को देखते हुए धार्मिक गुरू सुल्तान के खिलाफ हो गये और 1979 एक ऐसी क्रांति को जन्म दिया जिसने ईरान की सूरत बदल दी। तब तत्कालीन सुल्तान ने अमेरिका की पनाह ली और इसी साल ईरान पर इस्लामिक रिपब्लिक कानून लागू किया गया था। ईरानी रिवोल्यूषन के विद्रोही सुल्तान की वापसी चाहते थे उन पर आरोप था कि खूफिया पुलिस की मदद से ईरान के ऊपर सुल्तान ने कई अपराध किये हैं। इस मांग को अमेरिका ने खारिज कर दिया। इस मामले को वियना संधि के खिलाफ बताते हुए तत्कालीन अमेरिकी राश्ट्रपति ने बाकायदा आर्मी आॅपरेषन ईगल क्लाॅ की मदद से बंधकों को छुड़ाने की कोषिष भी की जिसमें उसे सफलता नहीं मिली। इस आॅपरेषन के बाद ईरान के कई अमेरिका से सम्बंध रखने वाले नागरिकों को देष निकाला दिया गया, उन्हें नजरबंद किया गया उक्त बर्ताव के चलते अमेरिका और ईरान के रिष्ते बेहद खराब हो गये। 
ईरान और अमरिका के रिष्तों का तनाव एक बाद फिर अब 40 साल बाद ऐसे ही कुछ नये तनाव के बाद आमने-सामने है। तनाव इतना है कि युद्ध की आषंका जताई जा रही है। 40 साल पुरानी दुष्मनी का बदला लेना भी इसमें षामिल माना जा सकता है। विष्व की सबसे बड़ी सामरिक षक्ति होने के कारण अमेरिका ने हमेषा दुनिया के देषों पर दादागिरी दिखाई। उसने एक-एक करके इराक, अफगानिस्तान और लीबिया को तबाह किया। उत्तर कोरिया को बरसों से घेरता रहा। ईरान को भी घेर रहा है। ईरान पर प्रतिबंध लगाकर दुनिया के अन्य देषों पर भी दबाव बढ़ा दिया है। ईरान से सम्बंध रखने वाले को सीधी धमकी है कि अमेरिका के साथ वे सम्बंध आगे नहीं बढ़ा सकते। अमेरिकी प्रतिबंध मामले में भारत भी पीड़ित है। हालंाकि इस बीच यूरोप ने अमेरिका को चेताया कि ईरान से संघर्श न बढ़ाये। गौरतलब है कि ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी ने ईरान मामले में अमेरिका के अड़ियल रवैये की आलोचना की थी। ब्रिटेन ने तो यहां तक कहा कि हम खाड़ी में संघर्श के खतरे को लेकर चिंतित है। स्पेन ने भी अमेरिकी फैसले पर खेद जताया है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि अमेरिका ने ताकत के बूते दुनिया को नजरअंदाज भी किया है। ईरानी राश्ट्रपति का कहना है कि हमारा गणराज्य इतना महान है कि इसे कोई धमका नहीं सकता। हम कठिन दौर का मुकाबला करेंगे और दुष्मन को षिकस्त देंगे। यह सही है कि विकास के फलक पर तैरने वाली दुनिया जब नीयत में कमजोर पड़ती है तो वैष्विक नीतियां घुटन में चली जाती हैं। अतिरिक्त ताकत वाला अमेरिका ऐसे ही कुछ नीयत और नीति से ग्रस्त दिखता है। पष्चिम एषिया में उथल-पुथल के लिए तैयार अमेरिका को एक बार सोचना चाहिए कि दुनिया बदल रही है और उसके एकाधिकार पहले जैसे नहीं हैं। अमेरिका और ईरान में बढ़ रहे तनाव के बीच सऊदी अरब को भी नुकसान हुआ है। यूएई के अपतटीय क्षेत्र फुजैरा में सऊदी के दो तेल टैंकरों पर हाल ही में हमला हुआ पर यह साफ नहीं है कि इसका जिम्मेदार कौन है। हमले के पीछे अमेरिका का हाथ होने की बात कही जा रही है। गौरतलब है कि अमेरिका पहले आगाह किया था कि ईरान क्षेत्र में समुद्री यातायात को वह निषाना बना सकता है। तनाव बढ़ने की परिस्थिति को देखते हुए अमेरिका ने फारस की खाड़ी में एक युद्धपोत, बी-2 बमवर्शक विमान, पैट्रियट मिसाइल डिफेन्स सिस्टम की तैनाती की है। हालांकि ऐसा ईरान पर दबाव बनाने की रणनीति के तौर पर भी देखा जा रहा है। गौरतलब है कि उत्तर कोरिया के मामले में भी अमेरिका प्रषान्त महासागर के द्वीप पर ऐसे ही हथियार लैस कर चुका है। सम्भव है कि ईरान को लेकर अमेरिका युद्ध की दषा में भी दुनिया को झोंक दे पर संयुक्त राश्ट्र संघ व यूरोप समेत दुनिया के तमाम देषों की यह जिम्मेदारी है कि अमेरिका पर कूटनीतिक दबाव बनाकर एक और खाड़ी युद्ध को जन्म लेने से रोकें।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: ushilksingh589@gmail.com

Tuesday, May 14, 2019

टाइम के कवर पेज पर मोदी

अमेरिका की प्रतिश्ठित प्रतिष्ठित टाइम मैगजीन ने प्रधानमंत्री मोदी को एक बार फिर कवर पेज पर जगह दी है। इसके पहले वे 2012 और 2015 में इसी मैगज़ीन के कवर पेज पर छप चुके हैं। इतना ही नहीं टाइम ने 2014, 2015 और 2017 में विष्व के 100 सर्वाधिक प्रभावषाली लोगों की सूची में मोदी को भी रखा था। इस बार कवर पेज पर छपे मोदी की तस्वीर और उनसे जुड़ी कवर स्टोरी को लेकर टाइम मैगजीन विवादों में घिर गयी है। इस मैगजीन में दो लेख हैं जिसके एक लेख में मोदी को भारत को तोड़ने वाला प्रमुख नेता तो दूसरे में सुधारक के तौर पर पेष किया गया है। सोषल मीडिया पर इस कवर की आलोचना और तारीफ दोनों हो रही है। गौरतलब है कि टाइम के कवर पेज पर हाल ही में मोदी को इण्डियाज़ डिवाइडर इन चीफ के तौर पर प्रकाषित किया गया। जिसका तात्पर्य है भारत को बांटने वाला प्रमुख व्यक्ति। अन्तर्राश्ट्रीय पत्रिका टाइम द्वारा लोकसभा चुनाव के बीच प्रधानमंत्री मोदी को इस रूप में प्रकाषित करना वाकई कई चुनौतियों और कुछ संदेह को भी प्रकाषमान कर रहा है। जब यह मामला सामने आया तब दो चरण के चुनाव देष में बाकी थे। हालांकि 7वां और अन्तिम चरण का चुनाव ही अब बाकी है जिसका समापन 19 मई को होना है और ठीक एक दिन बाद मैगजीन छप कर 20 मई को बाजार में आयेगी। खास बात यह भी है कि मैगजीन के इसी संस्करण में एक अन्य लेख में इयान ब्रेमर नामक पत्रकार ने मोदी की जमकर तारीफ की है। दूसरी स्टोरी ‘मोदी इज़ इण्डियाज़ बेस्ट होप फाॅर इकोनोमिक रिफाॅर्म‘ षीर्शक से छपी है। इसमें कहा गया है कि मोदी के नेतृत्व में भारत ने दूसरे देषों से अपने रिष्ते सुधारे हैं इसके अलावा मोदी की घरेलू नीतियों के कारण करोड़ों लोगों की जिन्दगी में सुधार आया है। जीएसटी लागू करने की सराहना भी इसमें की गयी है। जटिल टैक्स व्यवस्था को काफी सरल और सहज बनाने का श्रेय भी उन्हें दिया गया। 
इण्डियाज़ डिवाइडर इन चीफ लिखने वाला आतिष तासिर पाकिस्तानी मूल ब्रिटिष नागरिक हैं। जिसने यह सवाल खड़ा किया है कि क्या दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र मोदी सरकार के और 5 साल को झेल सकता है। लेख में मोदी को भारत का प्रमुख विभाजनकारी बताया जाना किसी भी दृश्टिकोण से उचित करार नहीं दिया जा सकता। भले ही टाइम में मोदी विभाजनकारी कहे गये हों पर यह देष की अखण्डता की दृश्टि से दुतकारने वाला लेख कहा जायेगा। दुनिया में कई ऐसे नेता रहे हैं जिन्होंने सीमा के भीतर अपने देष को दूरदर्षी सोच के चलते आगे बढ़ाने का काम किया। जिन पर दुनिया सवाल भी खड़ा करती रही है। चीन के राश्ट्रपति जिनपिंग, रूस के राश्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और यहां तक कि अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप देष के अंदर नीतियों को सख्ती के साथ लागू कर रहे हैं जिसमें देष विषेश की भलाई पहले है। पुतिन पर तो चैथी बार राश्ट्रपति चुने जाने को लेकर लोकतंत्र पर दबंगाई का आरोप भी लगा। ऐसा लगता है कि इन देषों के लोगों ने अपने नेताओं पर इस बात के लिए भरोसा बड़ा किया है कि दुनिया कुछ भी सोचे पर बदले हुए दौर में देष प्रथम की नीति वाली सरकार की जरूरत है। चीनी राश्ट्रपति जिनपिंग को तो हमेषा के लिए राश्ट्रपति बना दिया गया। ट्रंप दुनिया के तमाम देषों के साथ दुष्मनी करते हुए चीन को धमका रहे हैं कि वह 2020 में फिर अमेरिका के राश्ट्रपति बनेंगे। मोदी के कामकाज पर सख्त आलोचना एक अलग बात है और विभाजन का आरोप वाकई में भारत के लोकतंत्र पर ही सवाल उठा देता है। जिस 90 करोड़ मतदाता ने मोदी को सत्ता दी थी क्या यह सवाल उनकी सोच पर भी नहीं उठ रहा है। भारत का संविधान एक ऐसी संघात्मक व्यवस्था से युक्त है जहां विभाजन की कोई गुंजाइष नहीं है। सरकारों के निरंकुष होने की भी सम्भावना यहां नगण्य है। दुनिया जानती है कि अमेरिका सबसे पुराना और भारत सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देष है। 1789 से अब तक अमेरिका के लोकतंत्र में भले ही तमाम प्रकार की परिपक्वता आयी हो परन्तु रंग भेद और नस्ल भेद से आज भी वह मुक्त करार नहीं दिया जा सकता। धर्म और जाति के आधार पर भारत में कई भेद हैं पर लोकतंत्र की गरिमा सभी समझते हैं। संविधान की प्रस्तावना पंथनिरपेक्षता की बात करता है। इस बात से कोई गुरेज नहीं कर सकता कि बहुधर्मी, बहुजाति और विविधताओं से जकड़ा भारत विभाजन की धारा और विचारधारा से करोड़ों मील दूर खड़ा है। 
नेहरू के समाजवाद और भारत की मौजूदा सामाजिक परिस्थिति की तुलना करते हुए आतिष तासिर ने लिखा है कि मोदी ने हिन्दू और मुसलमानों के बीच भाईचारा बढ़ाने के लिए किसी तरह की इच्छा नहीं जताई जबकि नेहरू धर्मनिरपेक्षता का रास्ता अपनाया। मोदी पर भारत के प्रमुख व्यक्तियों पर राजनीतिक हमले करने की भी बात कही। इसी स्टोरी में भारत में हुए 1984 के सिक्ख दंगे और 2002 में हुए गुजरात के गोधरा काण्ड का भी जिक्र किया गया है। आगे यह भी आलोचना है कि मोदी द्वारा आर्थिक चमत्कार लाने के वायदे फेल हो गये हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि नीतिगत तौर पर कई मामलों में सरकार वायदे के अनुपात में सफल नहीं रही है। कालाधन, रोज़गार और कर प्रणाली को लेकर मोदी सरकार आज भी हाषिये पर है पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि मोदी की आर्थिक नीतियां चैतरफा फेल हुई हैं। जहां तक सवाल हिन्दू-मुसलमानों के बीच भाईचारे का है। लोकतंत्र में यह कैसे तय हो कि भाईचारा बढ़ा है या घटा है। गैस सलेन्डर से लेकर बिजली, पानी, सड़क, सुरक्षा समेत सभी बुनियादी चीजें सभी के लिए थी। तीन तलाक के मसले पर मुस्लिम महिलाओं का अपार समर्थन मोदी को मिला। हां यह सही है कि मुस्लिम वर्ग को नेतृत्व देने वालों ने मोदी पर दोहरे चरित्र का आरोप लगाते रहे हैं। मोदी दूध के धुले नहीं है पर हिन्दू और मुसलमान के बीच भाईचारे में रूचि नहीं दिखाई यह आरोप सिरे से नकारा जाना चाहिए। जो प्रधानमंत्री मंच से 130 करोड़ भाईयों एवं बहनों का सम्बोधन करता हो उसमें भाईचारे का लोप कैसे हो सकता है। सिक्ख दंगे को लेकर कांग्रेस पर यह आरोप आज भी लग रहा है। हालांकि चुनावी मुनाफे को लेकर हर किसी ने समय-समय पर इस मुद्दे को जिन्दा किया वही काम इन दिनों मोदी कर रहे हैं। गोधरा काण्ड को लेकर भी तब गुजरात के मुख्यमंत्री रहे मोदी को अदालत से क्लीन चिट मिल चुकी है। जाहिर है आरोप गड़े मुर्दे उखाड़ने वाले ही कहे जायेंगे। गौरतलब है मोदी को यूएई, अफगानिस्तान और सऊदी अरब जैसे मुस्लिम देषों ने सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिया। इसके अलावा कई अन्य देष षान्ति और सम्मान का सूचक माना आतिष तासिर को यह सब खूबियां दिखाई नहीं देती। इसमें दो ही बात दिखती है एक यह कि दुनिया में बढ़त बना चुके भारत पर प्रहार का यह एक अच्छा तरीका है। दूसरा जिस टाइम मैगज़ीन में मोदी को इतना महत्व दिया उसी ने एक लेख डिवाइडर के रूप में और दूसरा रिफाॅर्मर के रूप में क्यों छापा। कहीं ऐसा तो नहीं कुछ तथाकथित लोग दुनिया में नये तरीके के संदेह से भरे मोदी दिखाना चाहते हैं।
2014 में मसीहा रहे मोदी 2019 में केवल राजनेता हैं ऐसा भी तगमा टाइम द्वारा दिया गया है। 20 लाख काॅपी बिकने वाली और 1926 से प्रकाषित होने वाली टाइम मैगजीन सालाना 11 हजार करोड़ से अधिक की कमाई करती है। इस मैगजीन को एक ही व्यक्ति को दो रूप में पेष करने को लेकर जोरदार मंथन करना चाहिए था। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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Monday, May 6, 2019

चिंता का सबब बना कच्चा तेल

पिछले वर्ष की शुरूआत में जब अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान पर नये सिरे से प्रतिबंध लगाने का काम किया था तभी से भारत व ईरान के बीच तेल व्यापार को बनाये रखने के लिए वैकल्पिक रास्ते खोजे जा रहे थे। ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध के चलते बीते 2 मई से तेल का खेल बिगड़ गया है। कच्चे तेल की कीमतों के साथ उसका बढ़ता आयात सरकार के लिए फिलहाल चिंता का सबब बन गया है। पड़ताल बताती है कि घरेलू उत्पाद में कमी की वजह से पिछले तीन वर्शों में कच्चे तेल का आयात 80 से 84 फीसदी तक पहुंच गया है जिसमें से करीब 12 फीसदी तेल ईरान से भारत आयात करता था। चूंकि अब ईरान से आयात पर रोक लग गयी है ऐसे में भारत को नये देषों से आयात का करार करना होगा जो महंगा सौदा साबित हो सकता है। प्रधानमंत्री मोदी ने 2015 में एक सम्मेलन के दौरान तेल आयात को तब के 77 फीसदी से 2022 तक 67 प्रतिषत पर लाने का लक्ष्य तय किया था और 2030 तक कच्चे तेल के आयात पर निर्भरता को घटाकर 50 प्रतिषत पर लाने का भी लक्ष्य रखा था पर जिस गति से देष में तेल की खपत बढ़ी है उससे यही लगता है कि लक्ष्य कागजी ही सिद्ध होंगे। उपभोग तेजी से बढ़ने और उत्पादन एक ही स्तर पर टिके रहने की वजह से देष के कच्चे तेल के आयात पर निर्भरता 2018-19 में बढ़कर लगभग 84 फीसदी हो गयी है जो साल 2017-18 की तुलना में एक फीसदी अधिक है। रिपोर्ट भी यह इषारा करती है कि घरेलू उत्पाद बढ़ाने के कदम के साथ सरकार जैव ईंधन और सौर बिजली चलित वाहनों को बढ़ावा देने की दिषा में कदम उठा रही है। ऐसा करने से आयात कम किया जा सकेगा पर अभी यह दूर की कौड़ी है। 
अमेरिका ने ईरान को प्रतिबंधित करके तेल के मामले में भारत के सामने एक नई मुसीबत खड़ी कर दी है। रियायतें 2 मई से खत्म हो चुकी हैं जाहिर है भारत को ईरान से तेल का आयात पूरी तरह रोकना पड़ा। अब भारत को नई षर्तों पर दूसरे देषों से तेल मंगाना होगा। जाहिर है इस पाबंदी से उथल-पुथल मचेगा और अंतर्राश्ट्रीय स्तर पर तेल के दाम में भी बढ़त हो सकती है जिसका सीधा असर भारत में पेट्रोल-डीजल की कीमत पर पड़ेगा और उसका सीधा असर महंगाई पर पड़ेगा। गौरतलब है कि 8 देषों को ईरान से कच्चा तेल खरीदने से मिली छूट को खत्म करने के बाद कच्चे तेल की कीमत में 3 फीसदी का उछाल आया है। इसका सबसे अधिक असर भारत और चीन पर पड़ने वाला है। अनुमान है कि भारत के लिए कच्चे तेल की लागत 3 से 5 फीसदी बढ़ सकती है। जाहिर है महंगाई बढ़ना लाज़मी है और रूपए में भी गिरावट आ सकती है। माना तो यह भी जा रहा है कि यदि सऊदी अरब और उसके सहयोगी देष तेल आपूर्ति बढ़ाते है तभी तेल की कीमतें स्थिर हो पायेंगी। देखा जाय तो इराक ने लगातार दूसरे साल भारत को सबसे ज्यादा कच्चे तेल की आपूर्ति की है जो 2018-19 में कुल जरूरतों का पांचवां हिस्सा है। गौरतलब है कि अमेरिका ने भी 2017 में भारत को कच्चे तेल बेचना षुरू किया था। 2017-18 में जहां भारत ने अमेरिका से 14 लाख टन तेल आयात किया था वहीं यह आंकड़ा वित्त वर्श 2018-19 में चार गुने की बढ़त के साथ 64 लाख टन हो गया था। सऊदी अरब पारंपरिक तौर पर भारत को तेल की आपूर्ति करने वाला षीर्शस्थ देष रहा है मगर 2017-18 में पहली बार इराक ने यह दर्जा उससे छीन लिया। ईरान भारत को कच्चे तेल की आपूर्ति करने वाला तीसरा सबसे बड़ा देष है जो अमेरिकी प्रतिबंधों के चलते अब इस चित्र से गायब हो गया है। संयुक्त अरब अमीरात भारत को तेल आपूर्ति के मामले में चैथे नम्बर पर है। हालांकि तेल तो भारत वेनेजुएला से भी लेता रहा है। नाइजीरिया, कुवैत, मैक्सिको आदि से भी भारत में तेल की आपूर्ति होती है।
विचारणीय मुद्दा यह भी है कि लगातार बढ़ती तेल की खपत न केवल तेल के मामले में नये बाजार की खोज को लेकर चुनौती खड़ा किये हुए है बल्कि बड़े हुए आयात षुल्क से और बढ़ती कच्चे तेल की कीमत में व्यापार घाटा को भी असंतुलित किया है। जिस अनुपात में भारत डीजल और पेट्रोल की खपत बढ़ा रहा है उसे देखते हुए वैकल्पिक उपाय खोजने ही पड़ेंगे। ईरान से तेल नहीं खरीद पाने का असर भी भारत पर साफ-साफ दिखेगा। ईरान जैसे विष्वसनीय तेल कारोबारी को जहां उसे खोना पड़ा वहीं महंगा क्रूड आॅयल खरीदने से देष के तेल आयात बिल में भी भारी बढ़ोत्तरी हो जायेगी। वित्त वर्श 2018-19 में भारत ने 112 अरब डाॅलर का तेल आयात किया था जो 2017-18 की तुलना में 40 फीसदी अधिक है। 2019-20 में यह अनुमान है कि करीब 113 अरब डाॅलर का तेल इस वित्त वर्श में खर्च होगा। आंकड़े को मोदी सरकार के कार्यकाल के भीतर देखें तो जहां 2015-16 में 64 अरब डाॅलर व्यय किया गया था वहीं तीन साल में यह आंकड़ा लगभग दो गुने की बढ़त ले लिया। कुल तेल का 84 फीसदी आयात जो 4 साल पहले 77 फीसदी और 6 साल पहले 74 फीसदी था। इस आंकड़े से यह भी स्पश्ट है कि बीते 4 वर्शों में घरेलू तेल उत्पादन जो 20 फीसदी था वह घटकर 16 फीसदी पर आ गया है। तेल को लेकर बिगड़ा खेल और इसे लेकर नये देष की खोज तेल के दाम के साथ-साथ आयात में भी बढ़ोत्तरी करेगा और तुलनात्मक व्यापार घाटा भी बढ़ सकता है। गौरतलब है कि ईरान से तेल खरीदना भारत के लिए कई लिहाज़ से अच्छा था। पहला यहां प्रीमियम नहीं चुकाना पड़ता था, दूसरा अन्य देषों की तुलना में तेल भी सस्ता मिलता था, तीसरा बीमा से भी छूट मिली हुई थी और सबसे बड़ी बात पैसा चुकाने के लिए समय भी मिलता था। यही बातें अन्य देषों के साथ नहीं हैं। 
चुनावी माहौल में राजनीतिक दल भी अपने ढंग के वक्तव्य दे रहे हैं। कांग्रेस ने ईरान से तेल की खरीद पर भारत समेत अन्य देषों के प्रतिबंधों से मिली छूट हटाने के अमेरिकी निर्णय को लेकर सरकार पर सवाल खड़े किये। इसे मोदी सरकार की कूटनीतिक एवं आर्थिक असफलता करार दिया गया। आरोप तो यह भी है कि प्रधानमंत्री मोदी तेल कंपनियों को 23 मई तक पेट्रोल और डीजल के दाम नहीं बढ़ाने के निर्देष दिये हैं ताकि चुनावी समय में वोट बटोर सकें। आगे आरोप यह भी है कि इस तारीख के बाद कीमतें 5 से 10 रूपए प्रति लीटर बढ़ा दी जायेंगी जो जनता के साथ छलावा होगा। गौरतलब है कि भारत में तेल की किल्लत तो है और कंपनियों को उत्खनन क्षेत्र में आजादी भी दी गयी है परन्तु तेल खोजने, उत्खनन और उत्पादन में निजी कंपनियों ने ज्यादा रूचि नहीं दिखाई है। यथा 2018-19 में देष की सबसे बड़ी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी ओएनजीसी का कच्चा तेल उत्पादन घटकर 2 करोड़ टन से नीचे आ गया जो ठीक एक साल पहले इससे ऊपर था। 2015-16 से लगातार ओएनजीसी का तेल उत्पादन दर नीचे जा रहा है। सवाल है कि सार्वजनिक कंपनियां तेल उत्पादन में गिरावट पर है और निजी कंपनियां रूचि नहीं दिखा रही हैं। जाहिर है विदेष पर तेल की निर्भरता स्वाभाविक रूप से बढ़ेगी। डाॅलर के मुकाबले रूपया कभी भी असमान छूने लगता है। जो कच्चे तेल की अदायगी में खरीदारी महंगी पड़ जाती है। भारत को तेल की किल्लत से चैतरफा समस्या खड़ी होते दिखती है। इसका हल या तो ईंधन का विकल्प है या फिर कच्चे तेल का घरेलू उत्पादन बढ़े जो कि सम्भव नहीं होता। यदि इस पर काबू नहीं पाया गया तो कई समस्याएं देष के भीतर बेकाबू हो जायेंगी।



सुशील कुमार सिंह
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Wednesday, May 1, 2019

राहुल की नागरिकता पर फिर उठे सवाल

राहुल गांधी की नागरिकता पर सवाल पहले भी उठ चुका है। तब उन्होंने इस मुद्दे पर जोरदार तरीके से बचाव किया था। अब एक बार फिर यही सवाल जिन्दा हो गया है कि राहुल गांधी आखिर भारतीय नागरिक हैं या ब्रिटिष। इस पर जवाब देने के लिए गृह मंत्रालय की ओर से उन्हें बीते 30 अप्रैल को एक नोटिस जारी किया गया है। नोटिस का जवाब देने के लिए 15 दिन का समय निष्चित किया गया है। गौरतलब है कि राहुल गांधी पर यह आरोप है कि 2003 में यूके पंजीकृत बैंक आॅप्स लिमिटेड नामक कंपनी के निदेषक व सचिव थे। कंपनी के सालाना रिटर्न में राहुल गांधी की जन्म तिथि 19 जून, 1970 दर्ज है। 17 फरवरी 2009 को कंपनी के डिसाॅल्यूषन एपलीकेषन में भी राहुल गांधी की नागरिकता ब्रिटिष है। बीजेपी के नेता सुब्रमण्यम स्वामी की षिकायत है कि राहुल गांधी भारतीय नहीं ब्रिटिष नागरिक हैं। उन्होंने कम्पनी में स्वयं को ब्रिटिष बता रखा है।  उक्त स्थिति के चलते आधा रास्ता पार कर चुके चुनावी सफर के बीच नागरिकता वाला जो बवंडर उठा है उसे लेकर सियासी घमासान षुरू हो गया है। नागरिकता को लेकर साल 2016 में संसद की आचार समिति के समक्ष मामला पहले भी उठ चुका है जिसके तत्कालीन अध्यक्ष वयोवृद्ध भाजपा नेता लालकृश्ण आडवाणी थे तब राहुल गांधी ने इस पर आष्चर्य प्रकट किया था और ब्रिटिष नागरिकता की षिकायत को संज्ञान लेने पर ही हैरत जतायी थी। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि दिसम्बर 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिकता के सम्बंध में पेष किये गये सबूतों को पहले ही खारिज कर चुका है। इसके बाद साल 2016 में गृह मंत्रालय से षिकायत कर आरोपों की जांच की मांग की थी। सुब्रमण्यम स्वामी जो दस्तावेज दिखा रहे हैं जाहिर है उसकी पड़ताल होनी चाहिए पर देष में चुनावी माहौल के बीच कांग्रेस अध्यक्ष पर उठे इस विवाद से आगे का चुनावी गणित कितना गड़बड़ायेगा यह समझने वाली बात है।
भारतीय संविधान के भाग 2 में नागरिकता से जुड़े तमाम उपबन्ध दिये गये है। इसी के अनुच्छेद 9 में स्पश्ट कहा गया है कि विदेषी राज्य की नागरिकता ग्रहण कर लेने से भारतीय नागरिकता का लोप हो जाता है। अनुच्छेद 11 के आधार पर संसद द्वारा पारित नागरिकता अधिनियम 1955 में नागरिकता के प्राप्त करने तथा निरसन की व्याख्या की गयी है। इसी अधिनियम में जन्म, उद्भव, पंजीकरण, देषीयकरण या राज्य क्षेत्र के समावेषन द्वारा नागरिकता के अर्जन सम्बंधी उपबन्ध किये गये हैं। नागरिकता का स्वयं त्याग, स्वेच्छा से किसी अन्य देष की नागरिकता ग्रहण कर लेने तथा अन्य आधारों पर नागरिकता के लोप सम्बंधी उपबन्ध भी इसमें देखा जा सकता है। स्पश्ट है कि राहुल गांधी पर जो आरोप हैं यदि वह सही साबित होते हैं तो संविधान के अनुसार नागरिकता को लेकर एक नये सिरे की समस्या उनके लिए खड़ी हो जायेगी। वैसे जब देष की षीर्श अदालत ने नागरिकता के सम्बंध में पेष किये गये सबूतों को पहले भी खारिज कर चुका है और आचार समिति भी एक प्रकार से क्लीन चिट दे चुकी है तो फिर इस मुद्दे को दोबारा उठाने का क्या कारण हो सकता है। खास यह भी है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की नागरिकता विवाद को सुप्रीम कोर्ट खारिज कर चुका है तब तात्कालीन जज ने कहा था कि रिटायरमेंट में दो दिन बचे हैं मजबूर मत करिये। कहा तो यह भी जाता है कि केस की सुनवाई के दौरान जज ने वकील को चेतावनी भी दी थी। सियासी गलियारे में नागरिकता को लेकर  कई मायने हैं। हालांकि जो प्रष्न उठा है वह विचारणीय है पर धारणा बना लेना सही नहीं होगा। राहुल गांधी की भारतीय नागरिकता को लेकर संदेह गहराये यह भी संकेत उचित नहीं कहा जायेगा। मुख्यतः उन लोगों के लिए जो बड़े पैमाने पर कांग्रेस और राहुल गांधी की विचारधारा के पोशक हैं। तीन बार से लोकसभा के सदस्य राहुल गांधी इन दिनों राजनीति के फलक पर हैं और मौजूदा सत्ताधारी दल को चुनौती दे रहे हैं। यह कहना कठिन है कि राहुल की चुनौती का बहुत असर नहीं होगा पर जिस प्रकार बीते दिसम्बर में तीन हिन्दी भाशी राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेष और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने बाजी मारी है उससे राहुल का कद बढ़ा है। यह बात विरोधी भी जानते हैं कि वर्तमान कांग्रेस 2014 वाली नहीं है और हालिया स्थिति देखें तो 2019 की कांग्रेस वाकई में बदली हुई है। राहुल गांधी पर जो कमजोर सियासत का आरोप लगाते हैं उनके लिये भी अब यह तय कर पाना षायद कठिन हो रहा है कि वाकई में वे उनके लिए अब क्या धारणा बनायें।
वैसे राहुल गांधी इन दिनों कई समस्याओं में उलझे दिखाई दे रहे हैं। जहां एक ओर उनकी नागरिकता पर सवाल उठ रहा है वहीं दूसरी ओर प्रधानमंत्री को चैकीदार चोर है के सम्बोधन को लेकर सुप्रीम कोर्ट में भी मामला है। सुप्रीम कोर्ट ने राहुल गांधी को चैकीदार चोर है पर एक और हलफनामा दाखिल करने पर जोर दिया है। उन पर यह भी आरोप रहा है कि वह इस मामले में वो खेद जता रहे हैं न कि माफी मांग रहे हैं। बीते 30 अप्रैल को पीठ ने कहा कि हमें यह समझने में बहुत अधिक दिक्कत हो रही है कि हलफनामे में आप कहना क्या चाहते हैं। फिलहाल षीर्श अदालत में राहुल गांधी को उनके कथित अपमानजनक चैकीदार चोर है टिप्पणी पर सुनवाई जारी है। मौजूदा राजनीति का कोण और त्रिकोण कहीं न कहीं कांग्रेस के लिए अच्छा संकेत नहीं दे रहा है। हकीकत तो यह भी है कि सियासी मैदान में सभी को अपनी चिंता है और रही बात  सुब्रमण्यम स्वामी की तो वे पिछले कई वर्शों से राहुल और सोनिया गांधी के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं। हालांकि उनके आरोपों में कोई दम नहीं है ऐसा कहना ठीक नहीं है। नागरिकता वाला मुद्दा वाकई में कहीं अधिक संवदेनषील प्रतीत होता है। संदर्भ तो यह भी है कि भारत में दोहरी नागरिकता मान्य नहीं है। ऐसे में राहुल गांधी के लिए ब्रिटिष और भारतीय नागरिक एक साथ होना कानूनन अपराध माना जायेगा। कांग्रेस की ओर से कहना है कि राहुल गांधी जन्म से ही भारतीय है और उनकी नागरिकता को लेकर विवाद निराधार हैं परन्तु भाजपा राहुल गांधी की पूरे व्यक्तित्व को ही संदेहास्पद बता रहे हैं। अब लड़ाई सियासी मैदान से बाहर निकलकर कानून की जमीन पर खड़े होते दिखाई दे रही है। 
राहुल गांधी की नागरिकता पर गहराया संदेह जाहिर है देष के लिए षुभ नहीं है। राजनीति में नई पहचान बना चुकी प्रियंका गांधी ने भी पलटवार करते हुए कहा है कि दुनिया जानती है कि राहुल गांधी भारतीय है। नागरिकता लोकतंत्रात्मक राजव्यवस्था को कानूनी स्वरूप प्रदान करता है। नागरिकता उस देष के निवासियों को अधिकार, कत्र्तव्य और विषेशाधिकार भी प्रदान करता है जो विदेषियों को प्राप्त नहीं है। मतदान करने के अधिकार से लेकर प्रधानमंत्री और राश्ट्रपति बनने तक का अधिकार इसी नागरिकता में सुलभ है। नागरिकता राज्य और व्यक्ति के बीच कानूनी सम्बंध है। यह देष के प्रति एक निश्ठा है यदि इसमें कोई कमी होती है तो व्यक्ति को ऐसे तमाम अवसर खोने होते हैं। हालांकि भारत में साल 2003 में नागरिकता संषोधन विधेयक पारित कर विदेषों में बसे भारतीय मूल के लोगों को भारत की नागरिकता प्रदान करने का प्रावधान किया गया। इसे ओवरसीज़ सिटीजनषिप आॅफ इण्डिया कहा गया। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण उक्त संदर्भों से यह इषारा करता है कि नागरिकता देष की एक कसौटी है यदि इस पर किसी का बल कमजोर होता है तो संविधान उसे अपनाने की इजाजत नहीं देता। हालांकि राहुल गांधी का मामला अभी जांच का विशय है पर सभी जानते हैं कि उनके कुल, खानदान में कौन हैं और देष के लिए क्या थे। सरसरी दृश्टि से देखें तो राहुल गांधी भारत के षुद्ध नागरिक हैं पर आरोप उन्हें इसे साबित करने के लिए चुनौती दे रहे हैं।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
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