Monday, May 28, 2018

पृथ्वी को बचाने की चुनौती किसकी!

गर्मी का प्रचंड रूप केवल मैदानी इलाकों में ही नहीं पहाड़ी राज्यों में भी इन दिनों दिख रहा है। उत्तर भारत में गर्मी के कहर ने जीवन को लगभग अस्त-व्यस्त कर दिया है। देखा जाय तो मध्य प्रदेष और राजस्थान कहीं अधिक तप रहा है। खजुराहो का तापमान 47 डिग्री सेल्सियस से ऊपर तो राजस्थान के कुछ इलाकों में तापमान अर्द्धषतक तक पहुंच गया है। पहाड़ी राज्य हिमाचल के उना में तापमान 43 डिग्री से ऊपर तो उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून का आंकड़ा भी 40 पार कर चुका है। सबसे उत्तर के राज्य में जम्मू-कष्मीर का जम्मू क्षेत्र गर्मी से झुलस गया है यहां का तापमान लगभग 43 डिग्री के आसपास है। दिल्ली में लू चल रही है यहां का तापमान भी लगभग 45 डिग्री पहुंच चुका है। हरियाणा और उत्तर प्रदेष समेत कई राज्य तापमान के मामले में 45 डिग्री को पार कर चुके हैं। इलाहाबाद का तापमान 47 डिग्री तक देखा जा चुका है। ऐसे बहुत से स्थानीय क्षेत्र हैं जिनके तापमान काबू से बाहर हैं और बेकाबू गर्मी के चलते लोग बदहाल हो रहे हैं। उपरोक्त से यह संदर्भित होता है कि गर्मी के प्रकोप से पूरा भारत इन दिनों प्रभावित है। जाहिर है मानव जीवन कई कठिनाईयों से गुजर रहा है। हालांकि भीशण गर्मी पहले भी आती रही है लेकिन फर्क यह है कि अब इसके चलते कई प्रकार का डर और भय उत्पन्न होने लगा है। धरती पर जैसे-जैसे कार्बन डाई आॅक्साइड की मात्रा बढ़ रही है वैसे-वैसे औसत तापमान में भी वृद्धि हो रही है। प्रचण्ड गर्मी ने इस बात की भी चिंता बढ़ा दी है कि भविश्य में जीवन के साथ अनुकूलन कैसे स्थापित होंगे और इसके चलते घटे संसाधन की भरपाई कहां से होगी। 
बीते जनवरी में अमेरिका में ठण्ड तो आॅस्ट्रेलिया गर्मी से बेहाल था जबकि जलवायु संतुलन के आधार को देखें तो स्थितियां दोनों जगह बिगड़ी हुई मिलती हैं। आॅस्ट्रेलिया में तापमान 80 साल के रिकाॅर्ड को पार कर लिया था और लोग बिजली की कटौती से परेषान थे। जलवायु परिवर्तन हो या मौसम का आम चलन गर्मी का प्रकोप वहां भी पड़ा है जहां पहले ऐसा नहीं था। दक्षिण यूरोप में भी अब गर्मी की लहर आने लगी है। साल 2017 में तो तापमान यहां 40 डिग्री से ऊपर पहुंच गया जो कि कभी ऐसा हुआ नहीं। इस बढ़ी हुई गर्मी ने जंगल में आग, मौसम की चेतावनी और फसल का नुकसान का रूप ले लिया। अब यह आषंका भी बन रही है कि जिस तर्ज पर पृथ्वी रूपांतरित हो रही है उससे बचने का कोई उपाय मानव का कारगर होगा या नहीं। अब तक के इतिहास में देखा जाय तो अगस्त 2016 सबसे ज्यादा गर्म रहा है। नासा के अनुसार देखें तो यह 136 वर्श का रिकाॅर्ड टूटा था। नासा के वैष्विक तापमान के मासिक विष्लेशण के मुताबिक 137 साल के आधुनिक तापमान के अनुसार दूसरा सबसे गर्म महीना मार्च था जो 1951 से 1980 तक के निकाले गये औसत में यह करीब सवा डिग्री ज्यादा गर्म था। फिलहाल भारत में जिस कदर गर्मी का स्वरूप बदला है उसे देखकर यह माना जा रहा है कि यदि ऐसा जारी रहा तो जल संकट बढ़ेगा, बीमारियां बढ़ेगी, फसलों का उत्पादन कम हो जायेगा इत्यादि। हालांकि यही बात वैष्विक स्तर पर भी लागू होती है। जिस तरह दुनिया गर्मी की चपेट में आ रही है उससे सबसे बड़ा नुकसान पानी का होने वाला है। सभी जानते हैं कि साउथ अफ्रीका का केपटाउन सूखे की चपेट में आ चुका है। भारत के कई क्षेत्र मसलन दिल्ली, नोएडा आदि में जलस्तर अनुमान से कहीं अधिक नीचे की ओर जा रहा है। एक नया षोध तो हमें यह भी बता रहा है कि कार्बन डाई आॅक्साइड यदि इसी तरह बढ़ती रही तो जिन खाद्य पदार्थों पर हम निर्भर हैं उनमें पोशक तत्व भी कम हो जायेंगे साथ ही उसका स्वाद भी बदल  जायेगा। 
ग्लोबल वार्मिंग रोकने का फिलहाल कोई इलाज नहीं है। इसे लेकर केवल जागरूकता ही एक उपाय है। पृथ्वी को सही मायनो में बदलना होगा और ऐसा इसके हरियाली से ही सम्भव है। कार्बन डाई आॅक्साइड के उत्सर्जन को भी प्रति व्यक्ति कम करना ही होगा। पेड़-पौधे लगातार बदलते पर्यावरण के हिसाब से खुद को ढ़ालने में जुट गये हैं। जल्द ही इसकी कोषिष मानव को भी षुरू कर देनी चाहिए। हम प्रदूशण से जितना मुक्त रहेंगे पृथ्वी को बचाने के मामले में उतनी ही बड़ी भूमिका निभायेंगे पर यह कागजी बातें हैं हकीकत में ऐसा होगा संदेह अभी भी गहरा बना हुआ है। ऐसा माना जा रहा है कि ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन के वजह से रेगिस्तानों में नमी बढ़ेगी जबकि मैदानी इलाकों में इतनी प्रचण्ड गर्मी होगी जितना कि इतिहास में नहीं रहा होगा जाहिर है यह जानलेवा होगी। अब दो काम करने बड़े जरूरी हैं पहला कि प्रकृति को इतना नाराज़ न करें कि हमारा अस्तित्व ही समाप्त हो जाय। दूसरा प्रकृति के साथ छेड़छाड़ के मामले में अब उदार रवैये से काम नहीं चलेगा बल्कि सख्त नियमों को और कठोर दण्डों को प्रचलन में लाना ही होगा। अमेरिकी कृशि विभाग के एक वैज्ञानिक ने चावल पर किये गये षोध में यह पाया है कि वातावरण में बढ़ती कार्बन डाई आॅक्साइड की वजह से इसकी रासायनिक संरचना बदलने लगी है। यह एक बानगी मात्र है सच्चाई यह है कि ऐसे कई बिन्दुओं पर षोध किया जाये तो यह बोध जरूर हो जायेगा कि कमोबेष रासायनिक संरचना में परिवर्तन तो हर जगह आ रहा है तो क्या यह माना जाय कि गर्मी बेकाबू रहेगी और दुनिया झंझवात में फंस जायेगी। पृथ्वी बचाने की मुहिम दषकों पुरानी है। 1948 से इस क्रम को देखें और 1972 की स्टाॅकहोम की बैठक को देखें साथ ही 1992 और 2002 के पृथ्वी सम्मेलन को भी देखें इसके अलावा जलवायु परिवर्तन को लेकर तमाम बैठकों का निचोड़ निकालें तो भी तस्वीरें सुधार वाली कम वक्त के साथ बिगाड़ वाली अधिक दिखाई देती हैं। गर्मी के लिये कौन जिम्मेदार है 55 फीसदी कार्बन उत्सर्जन दुनिया के चंद विकसित देष करते हैं और जब कार्बन कटौती की बात आती है तो उसमें भी वह पीछे हट जाते हैं। पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका का हटना कुछ ऐसी ही असंवेदनषीलता का परिचायक है।
सभी जानते हैं कि बदलाव हो रहा है पृथ्वी के तापमान में वृद्धि और इसी के कारण मौसम में परिवर्तन हो रहा है। बावजूद इसके मानमानी पर कोई रोकथाम नहीं है। 21वीं षताब्दी में पृथ्वी का तापमान 3 डिग्री से 8 डिग्री तक बढ़ सकता है। जाहिर है परिणाम तो घातक होंगे। दुनिया के कई हिस्सों में बिछी बर्फ की चादरें पिघल जायेंगी, समुद्र का जलस्तर कई फीट तक बढ़ जायेगा। कई क्षेत्र जलमग्न हो जायेंगे और भारी तबाही मचेगी। ऐसा नहीं है कि इसका प्रभाव नहीं दिख रहा है। दिख भी रहा है और दुनिया भर की राजनीतिक षक्तियां इस बहस में उलझी हैं कि गरमाती धरती के लिये किसे जिम्मेदार ठहराया जाये। जिम्मेदार कोई भी हो भुगतना सभी को पड़ेगा। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन ने तो दुनिया की तस्वीर ही बदल दी है। षायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहां से इसका उत्सर्जन न होता हो। सवाल इसके रफ्तार पर है। आंकड़े बताते हैं कि ग्रीन हाउस गैस का सर्वाधिक उत्सर्जन पावर स्टेषन से हो रहा है जबकि सबसे कम कचरा जलाने से होता है। देखा जाय तो उद्योग, यातायात, जीवाष्म ईंधन आदि समेत कईयों के चलते इस गैस का उत्सर्जन होता है। ग्लोबल वार्मिंग की स्थिति को देखते हुए साल 2015 तक संयुक्त राश्ट्र के सदस्यों ने नई जलवायु संधि कराने के लिये बातचीत षुरू की जिसे 2020 तक लागू कर दिया जायेगा। गर्मी के कारण जो भी हों, समस्याएं अनेकों बढ़ गयी हैं। कृशि, वन, पर्यावरण, बारिष समेत जाड़ा और गर्मी सब इसके चलते उथल-पुथल की अवस्था में जा रहे हैं। इसलिए बेहतर यही होगा कि इस बड़े खतरे से अनभिज्ञ रहने के बजाय मानव सभ्यता और पृथ्वी को बचाने की चुनौती में सभी आगे आयें। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

तेल की कीमत नियंत्रित करे सरकार!

बेषक पेट्रोल और डीजल की कीमतों ने पुराने रिकाॅर्ड तोड़ दिये हों और रिकाॅर्ड ऊँचाई पर पहुंचकर तेल लोगों के लिए मुसीबत बन गया हो पर सरकार की हालिया स्थिति को देखते हुए तो यही प्रतीत होता है कि वे तेल भी देख रहे हैं, तेल की धार भी देख रहे हैं मगर बेफिक्री के साथ। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार के केन्द्र में आने से पहले थोक के भाव में वायदे किये गये थे जिसमें महंगाई भी केन्द्र में थी पर अब सरकार इसे बेमतलब समझ रही है। लगभग चार साल से सत्तासीन मोदी सरकार पेट्रोल, डीजल में आई महंगाई को लेकर षिखर पर है जबकि इससे निपटने के मामले में सिफर है। गौरतलब है कि पेट्रोल के दाम 80 रूपए प्रति लीटर को पार कर रहे हैं जो बीते 56 माह के उच्चत्तर स्तर पर है जबकि डीजल 70 रूपए के आसपास का रिकाॅर्ड स्तर लिये हुए है। कयास तो यह भी है कि कहीं पेट्रोल सौ रू. प्रति लीटर के स्तर को भी न छू ले। तेल के दाम में जिस कदर वृद्धि हुई है उससे पूरा जन जीवन महंगा हो गया है। सब्जी, फल, अण्डा और दूध सहित कई ऐसे खाने-पीने की चीजों पर महंगाई की चोट देखी जा सकती है। यह बात सभी समझते हैं कि तेल महंगा होने का मतलब वस्तुओं का महंगा होना है। ढुलाई महंगी हो जाती है, आवागमन महंगा हो जाता है साथ ही बुनियादी आवष्यकताएं भी पूरी करने में व्यक्ति हांफने लगता है। सबका साथ, सबका विकास के ष्लोगन से युक्त मोदी सरकार इस मामले में कितनी खरी है मौजूदा हालात देख कर जनता इसका निर्णय स्वयं कर सकती है। तेल कम्पनियां कहती हैं कि अन्तर्राश्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों की वजह से ये बढ़ोत्तरी हुई है पर यहां बता दूं कि जब कच्चा तेल मौजूदा समय के दर से जब आधे से भी कम कीमत का था तब भी इन कम्पनियों ने तेल की कीमतों में कोई खास अंतर नहीं किया था। उन दिनों इन्होंने जमकर जनता की जेब काटी और अब क्रूड आॅयल महंगा होने का रोना रो रहे हैं। सवाल दो हैं सरकार का नियंत्रण इस पर कितना है और क्या सरकार तेल की बढ़ती कीमतों को लेकर फिक्रमंद भी है।
बढ़ती हुई कीमतों को देखते हुए एक्साइज़ ड्यूटी में कटौती का केन्द्र सरकार पर दबाव बढ़ना लाज़मी है। गौरतलब है कि बीते चार सालों में जब से मोदी सरकार बनी है 9 बार एक्साइज़ ड्यूटी बढ़ाई जा चुकी है और कटौती केवल एक बार हुई है। दक्षिण एषिया के देषों में भारत तुलनात्मक रईस देष है पर पेट्रोल और डीजल के दामों के मामले में कहीं अधिक फिसड्डी है। पड़ोसी देषों में यह सस्ता क्यों है यह भी समझने वाली बात है। सरकारी संगठन पीपीएसी के अनुसार पाकिस्तान में पेट्रोल के दाम प्रति लीटर 47 रूपए थे, श्रीलंका में यही 49 रूपए, नेपाल में लगभग 65 रूपए जबकि बांग्लादेष में 68 रूपए लीटर था। भारत में लगभग 80 रूपए और कहीं-कहीं इससे ज्यादा में पेट्रोल का बिकना चिंता का विशय है। कमोबेष डीजल की भी स्थिति लोगों के पसीने निकाल रही है। सवाल उठना लाज़मी है कि मोदी सरकार ने जीएसटी लागू करके खजाने को वहां से भरने की कोषिष की जहां से उसे खूब फायदा दिखा जबकि डीजल और पेट्रोल को इससे बाहर रखकर जनता का पैसा कम्पनियों से लुटवा रही है। पेट्रोल की कीमत करीब पांच साल के उच्चत्तम स्तर पर पहुंचने और डीजल की कीमत सर्वकालिक उच्चत्तम स्तर पर पहुंचने के बावजूद सरकार इसे जीएसटी में षामिल न करके गुड गवर्नेंस के अपने कथन को कमजोर कर रही है। अब तो जीएसटी प्रणाली में षामिल करने के तत्काल आसार भी न के बराबर है। हालात को देखते हुए यह माना जा रहा है कि केन्द्र सरकार के पास इसे लेकर कोई प्रस्ताव नहीं है परन्तु जनता की जेब पर डकैती बढ़ गयी है। 
अप्रैल के पहले हफ्ते में डीजल, पेट्रोल को जीएसटी के दायरे में लाने की दिषा में धीरे-धीरे आम सहमति बनाने का प्रयास मंत्रालय ने कही थी पर इस पर भी हजार अड़ंगे बताये जा रहे हैं। उत्पाद षुल्क घटाने का दबाव तो है पर वित्त मंत्रालय ऐसा कोई इरादा नहीं रखता है। गौरतलब है कि सरकार यदि बजटीय घाटा कम करना चाहती है तो उत्पाद षुल्क घटाना सम्भव नहीं है। खास यह भी है कि एक रूपए प्रति लीटर  की कटौती मात्र से ही 13 हजार करोड़ रूपए का घाटा हो जायेगा। जाहिर है कि सरकार यह जोखिम क्यों लेगी, भले ही जनता क्यों न पिसे। याद एक बार फिर दिला दें कि सरकार का एक नारा अच्छे दिन आयेंगे का भी रहा है परन्तु क्या इसे ही अच्छे दिन कहेंगे। सरकार तेल की कीमत घटाने के मामले में न तो जोष दिखा रही है और न ही कोई तकनीक सुझा रही है। ऐसे में जनता की उम्मीदें तो धूमिल होंगी। सरकार ने कच्चे तेल की कीमत कम होने के दौरान नवम्बर, 2014 से जनवरी 2016 के बीच 9 बार उत्पाद षुल्क बढ़ाया था जबकि अक्टूबर में पहली बार इसमें 2 रूपए की कटौती की थी। अब वक्त आ गया है कि तेल के भस्मासुर वाले दाम से लोगों को राहत देने के लिए सरकार तत्काल उत्पाद षुल्क घटाये। वैसे सरकार को यह भी उम्मीद है कि सीरिया, ईरान, और उत्तर कोरिया जैसे मुद्दों पर वैष्विक आधार सुधरेगें और अमेरिकी सेल आॅयल से भी असर पड़ेगा पर यह अंधेरे में झक मारने वाली बात है। सरकार को जहां मुनाफा लेना है तो वहां रोषनी दिखती है और जहां जनता को नुकसान हो रहा वहां उसकी नजर नहीं पड़ती है। सरकार की बेबसी यह भी है कि कम्पनियों पर उसका अंकुष नहीं है। सभी जानते हैं कि पेट्रोल पम्प पर हर कोई पहले ये पूछता है कि आज तेल की कीमत क्या है क्योंकि अब दाम रोजाना की दर से तय होते हैं। सरकार नहीं चाहती कि रोजाना पेट्रोल और डीजल के दाम तय करने की आजादी पर अंकुष लगे। दुविधा बढ़ जाती है कि सरकार जनता की है या व्यापारियों की। 
बीते 12 मई को कर्नाटक विधानसभा का चुनाव और 15 मई को परिणाम घोशित हुए थे। जाहिर है भाजपा यहां सरकार बनाने के मामले में बड़े दल के बावजूद विफल हुई। चुनाव के दिनों में 15 दिन के लिए तेल के दाम स्थिर कर दिये गये थे लेकिन नतीजों के बाद इसमें एक बार फिर बेहिसाब छलांग लगी है। साफ है कि सरकार अपने अवसर के हिसाब से तेल के साथ खेल कर रही है। सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि डीजल, पेट्रोल और प्याज की महंगाई भी देष की सत्ता को नई करवट दे देता है। विषेशज्ञों का भी मानना है कि तेल से केन्द्र और राज्य खूब कमायी करते हैं भले ही अन्तर्राश्ट्रीय बाजार में प्रति बैरल कच्चे तेल की कीमत में बढ़त्तरी को जिम्मेदार ठहराया जा रहा हो लेकिन ये दोनों सरकारें अपना मुनाफा लेने से नहीं चूकती हैं। महंगाई के इस हाहाकार के बीच भी केन्द्र सरकार एक लीटर पेट्रोल पर 19 रूपए 48 पैसे प्रति लीटर कमाती है जबकि डीजल में 15 रूपए 33 पैसे एक लीटर पर कमा रही है। राज्य सरकार भी पीछे नहीं है 15 रूपए 64 पैसा प्रति लीटर पेट्रोल इनकी भी कमायी है और 10 प्रति लीटर डीजल पर भी कमा रहे हैं। क्या महंगाई से सरकार को डर नहीं लगता। क्या सरकार एक माई-बाप होने के नाते जनता को बेहाल छोड़ सकती है और बढ़े हुए दामों और बढ़ती हुई महंगाई को लेकर कोई चिंता नहीं है यदि ऐसा है तो लोकतंत्र में कुछ ठीक नहीं हो रहा है। चुनाव जीतना ही सरकार की योग्यता नहीं है बल्कि यह नहीं भूलना है कि लोक कल्याण उसकी योग्यता है। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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काँग्रेस हारी पर जीती तो बीजेपी भी नहीं

यह बात गैरवाजिब नहीं है कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे कईयों के सपने को चकनाचूर कर गया। पांच साल से सरकार चला रही कांग्रेस को यहां उम्मीद से कहीं कम सीटें मिली जबकि बहुमत का सपना पालने वाली बीजेपी भी इस मामले में कमतर ही रह गयी। हालांकि 2013 की तुलना में बीजेपी का प्रदर्षन बहुत अच्छा था पर सत्ता का जादुई आंकड़ा हाथ न लगने से सियासत की अठखेलियां राज्य की फिजा में खूब तैर रही हैं। रोचक राजनीतिक प्रसंग यह भी है कि बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस ने नतीजे का बिना इंतजार किये जनता दल (एस) को अपना समर्थन देकर सियासी पासा ही पलट दिया। फिलहाल कर्नाटक त्रिषंकु का षिकार हुआ है जिसकी सम्भावना पहले भी व्यक्त की जा चुकी है पर किंग मेकर जनता दल (एस) के कुमार स्वामी को किंग बनने का इतना आसान मौका मिलेगा इसकी सम्भावना कम ही आंकी गयी थी। यह सियासत का ही मिजाज़़ है कि जनता को लुभाने में कुछ तो कोसों दूर रह जाते हैं तो कुछ मील का पत्थर गाड़ देते हैं। जब एक मई को प्रधानमंत्री मोदी कर्नाटक पहुंचे और ताबड़तोड़ 21 रैलियां कर डाली तो चुनाव प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। मोदी की रैली का प्रभाव 169 विधानसभा क्षेत्रों पर रहा। जाहिर है कि 224 के मुकाबले यह बहुत बड़ा क्षेत्र है। ऐसे में मोदी मैजिक का चलना लाज़मी भी था और चला भी था। बावजूद इसके सत्ता का आंकड़ा जो 112 था उससे 8 सीट कम रहते हुए 104 पर आकर बीजेपी थम गयी। गौरतलब है कि चुनाव 222 सीटों पर हुआ था जिसमें कांग्रेस 78, जनता दल (एस) 38 और अन्यों ने 2 पर बाजी मारी। 
देखा जाये तो कर्नाटक के नतीजे ने कांग्रेस को सियासी तौर पर और पीछे धकेल दिया है। वोट प्रतिषत के मामले में भाजपा से कांग्रेस आगे रही पर सीट कब्जाने में बहुत पीछे। वैसे जनता दल (एस) को समर्थन देकर न केवल उसने अपनी हार को छुपा लिया बल्कि कर्नाटक के सियासत को भी गरम कर दिया। वैसे हर हार के बाद राहुल गांधी पर सवाल उठते रहे हैं। जाहिर है यहां भी उठना था सो उठा। इस चुनावी नतीजे से कई सवाल उठते हैं एक यह कि कांग्रेस की हार कब तक जारी रहेगी, दूसरा 2019 के लोकसभा में क्या कांग्रेस अपनी राजनीतिक हैसियत तुलनात्मक बढ़ा पायेगी। सियासत स्थानीयता से ओत-प्रोत होती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा के अमित षाह और प्रधानमंत्री मोदी को इसकी नब्ज पकड़े में महारत हासिल है। हिन्दी में बोलते हैं और कन्नड़ के वोटरों को वोट के लिये उकसाते हैं और सत्ता हथियाने के करीब पहुंचते हैं। कांग्रेस ने भी स्थिति को समझने में बहुत गलती नहीं की है पर मौजूदा मुख्यमंत्री सिद्धरमैया के फैसले हवा हवाई जरूर सिद्ध हुए हैं। लिंगायात कार्ड फेल हो गया और कांग्रेस मोदी का काट नहीं खोज पायी। अमित षाह का चुनावी प्रबंधन भी कांग्रेस की लुटिया डुबो दी। हालांकि राहुल गांधी ने साॅफ्ट काॅर्नर लिया पर हिन्दुत्व कार्ड उनका भी फेल हो गया, उनका मठों और मन्दिरों में मत्था टेकना भी काम नहीं आया। हालांकि हार तो बीजेपी की भी हुई है इसलिए क्योंकि एक तो बहुमत से वे दूर हैं दूसरे मंत्री, सांसद, मुख्यमंत्री और स्वयं प्रधानमंत्री समेत सभी ने जोर लगाया तब भी एक तरफा जीत हासिल नहीं कर पाये और कर्नाटक मौजूदा समय में गठबंधन की अवस्था में चला गया। स्थिति को देखते हुए सियासी मेले से कुछ दूर खड़ी सोनिया गांधी ने ऐन मौके पर देवगौड़ा को फोन कर कुमार स्वामी को मुख्यमंत्री बनाने की पेषकष की। कांग्रेस का यह आखिरी दांव ऐसे समय में चला गया जहां बीजेपी भी समझ नहीं पायी कि इतना ताबड़तोड़ कैसे हो गया। यह कौटिल्य अमित षाह पर सत्ता को उंगलियों पर नचाने वाली सोनिया का सियासी प्रहार था जिसमें सत्ता अभी भी उलझी हुई है। 
कांग्रेस जानती थी कि गोवा, मणिपुर और मेघालय में बीजेपी ने सत्ता हथियाने का कौन सा खेल खेला था। गौरतलब है कि यहां कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद हाषिये पर रही जबकि कोसो दूर खड़ी बीजेपी सत्ताधारी बनी और ऐसा अवसर कांग्रेस के ढुलमुल रवैये के कारण ही भाजपा को मिला था पर कर्नाटक में ऐसा नहीं हुआ। फिलहाल उतार-चढ़ाव से भरी कर्नाटक की सियासी पारी में राज्यपाल की भूमिका कहीं अधिक अहम हो गयी। गौरतलब है कि जब भी त्रिषंकु की स्थिति होती है तो केन्द्र में राश्ट्रपति और राज्य में राज्यपाल की यह जिम्मेदारी होती है कि उस दल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करे जिसमें बहुमत सिद्ध करने की पूरी सम्भावना हो। सम्भावना तो यह भी व्यक्त की गयी है कि भाजपा 104 विधानसभा सीट के साथ सर्वाधिक स्थान पर है ऐसे में सरकार बनाने का उसे अवसर मिलना चाहिए। सभी भाजपा नेता और समर्थक ऐसा मानते हैं जबकि कांग्रेस यह दलील दे रही है कि जब जनता दल (एस) के साथ समर्थन जुटा लिया गया है तो अवसर कुमार स्वामी को दिया जाना चाहिए। इस दलील पर भाजपा नहीं टिक रही है जबकि इसके पहले भाजपा उपरोक्त प्रांत में यही किया है। कहा तो यह भी जा रहा है कि यदि कांग्रेस जनता दल (एस) को सरकार बनाने का अवसर नहीं मिला तो वह सुप्रीम कोर्ट जा सकती है। गौरतलब है कि गोवा मामले में भी कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट गयी थी तब षीर्श अदालत ने कहा था कि यदि चुनाव के बाद का गठबंधन बहुमत सिद्ध करने में सक्षम है तो उसे सरकार हेतु आमंत्रित करना संविधान सम्वत् है। जाहिर है अदालत एक ही तथ्य पर दो निर्णय नहीं होगे। ऐसे में इस बार पलड़ा कांग्रेस और जनता दल (एस) गठबंधन का भारी है। यह भी समझने योग्य बात है कि भाजपा के येदियुरप्पा मुख्यमंत्री बनते हैं तो बहुमत कहां से जुटायेंगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि विधायकों की खरीद-फरोख्त होगी और एक बार फिर राजनीति हाॅर्स ट्रेडिंग की षिकार होगी। गठबंधन दल के मुख्यमंत्री के दावेदार कुमार स्वामी भी कह चुके हैं कि उनके विधायकों को सौ करोड़ में भाजपा खरीदने की बात कर रही है। हालांकि इसका कोई पुख्ता प्रमाण उनके पास भी नहीं है।
कर्नाटक चुनाव में यह इतिहास रहा है कि किसी भी दल को बीते 1985 के बाद दोबारा सत्ता नहीं मिली है। गौरतलब है कि राम कृश्ण हेगड़े यहां सत्ता दोहरा चुके हैं। कर्नाटक की सियासत में लिंगायत को बिना समझे पूरी राजनीति नहीं समझी जा सकती। येदियुरप्पा के रूप में स्थानीय लिंगायत चेहरा पीएम मोदी के मैजिक और अमित षाह के बेहतर प्रबंधन की बदौलत भाजपा ने पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार 65 सीट ज्यादा और करीब 17 फीसदी अतिरिक्त वोट हासिल किये। हालांकि यह वोट लोकसभा की तुलना में करीब साढ़े छः फीसदी कम है। यहां लिंगायतों का 17 फीसदी वोट है इस पर भी अलग धर्म बनाने को लेकर सियासत गरम हुई थी। गौरतलब है कि ये भाजपा के वोटर हैं लेकिन कांग्रेस को भी इनका वोट मिला है इसकी एक वजह लिंगायत को लेकर कांग्रेस का साॅफ्ट काॅर्नर रहा है। उत्तर प्रदेष में वजूद तलाष रही बसपा का भी यहां 24 साल बाद खाता खुला है। सियासी धरातल पर मतलब राजनीतिक ही निकाले जाते हैं। मोदी अपने भाशणों में पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा को भी साधने की कोषिष की। इतना ही नहीं राहुल गांधी पर भी देवगौड़ा को लेकर निषाना साधा। मोदी भी समझ रहे थे कि त्रिषंकु की स्थिति में उनके साथ की जरूरत पड़ सकती है इसीलिए उनका वक्तव्य जनता दल (एस) के मामले में काफी सधा हुआ थ। सबके बावजूद स्थिति त्रिषंकु ही बनी परन्तु कुमार स्वामी की किंग की भूमिका में आने से भाजपा के इरादे धरे के धरे रह गये और अब नजरे राजभवन की ओर हैं।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Wednesday, May 23, 2018

भारत-रूस संबंध का सारगर्भित संदर्भ

अब यह बात दुनिया के देष समझने लगे हैं कि कूटनीति के अलावा द्विपक्षीय रिष्तों को सारगर्भित बनाने के लिए अनौपचारिक बैठकों को महत्व दिया जाना चाहिए इस मामले में भारत अग्रणी है। वैसे देखा जाय तो कूटनीति पहले की तुलना में अधिक खुले स्वभाव को भी ग्रहण कर लिया है। बीते चार वर्शों में प्रधानमंत्री मोदी ने पड़ोसी समेत दुनिया के कई देषों के साथ कुछ इसी प्रकार के सम्बंध बनाते देखे जा सकते हैं। बीते 21 मई को मोदी द्वारा की गयी रूस यात्रा इसी श्रेणी में आती है जो पूर्व में की गयी तीन यात्राओं से अलग थी। रूस के राश्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ खुलकर अनौपचारिक बातचीत का यहां पूरा अवसर था और उसका लाभ भी उन्होंने उठाया। गौरतलब है कि रूस रवाना होने से पहले मोदी ने कहा था कि पुतिन से होने वाली उनकी मुलाकात दोनों देषों के विषेश रणनीतिक रिष्तों को और मजबूत करेगी। मुलाकात को भले ही अनौपचारिक बताया जा रहा हो पर मोदी ने एक तरह से इसमें भी अपने एजण्डे की झलक दिखाई है। दोनों नेताओं की मुलाकात यह भी निर्धारित करती है कि आने वाले दिनों में भारत-रूस द्विपक्षीय सहयोग की दषा और दिषा तुलनात्मक कहीं अधिक सषक्त होगी। मुलाकात ने दोनों देषों के रिष्तों को भी नई सच्चाई के साथ रेखांकित किया है मगर जिस तर्ज पर अमेरिका रूस को घेरने की कोषिष कर रहा है वह रिष्तों के संतुलन के लिहाज़ से भारत के लिए चुनौती हो सकता है। हालांकि भारत द्विपक्षीय सम्बंधों को तीसरे देष से तटस्थ रखता आया है। ऐसे में चुनौती जैसी कोई बात उतनी संवेदनषील प्रतीत नहीं होती। गौरतलब है कि बीते सात दषकों से भारत एक गुटनिरपेक्ष देष रहा है और सम्बंधों को अपनी सीमाओं में रहते हुए तय किया है।
इसके पहले 27-28 अप्रैल को चीन के राश्ट्रपति षी जिनपिंग के साथ मोदी वुहान षहर में कुछ इसी तर्ज पर अनौपचारिक षिखर सम्मेलन कर चुके हैं जो रणनीति के लिहाज़ से दोनों देषों के बीच परस्पर क्रियाओं को मजबूती देने के संदर्भ में देखा गया। यहां मोदी ने सम्बंधों की बेहतरी के लिए जो पांच सूत्री एजेण्डा पेष किया जिसकी तुलना नेहरू के 1954 के पंचषील से की गयी जिसमें समान दृश्टिकोण बेहतर संवाद मजबूत रिष्ता और साझा विचार समेत साझा समाधान षामिल था। यह अनौपचारिक वार्ता इस लिहाज़ से भी महत्वपूर्ण मानी गयी क्योंकि बीते वर्श जून में डोकलाम को लेकर दोनों देषों के बीच 73 दिनों तक काफी तनातनी थी। चीन तो युद्ध तक का वातावरण बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। वो तो भारत था जो उसके अनाप-षनाप वक्तव्य पर अपना संयम नहीं खोया। हालांकि इसे लेकर कूटनीतिक हल निकल गया है पर स्थायी हल अभी निकलना बाकी है। फिलहाल एक दिवसीय मोदी की रूस यात्रा और मुद्दों पर हुई गर्मागरम वार्ता चीन और पाकिस्तान समेत कईयों के लिये मंथन का विशय हो सकता है जैसा कि ऐसी मुलाकातों से इनकी पेषानी पर बल पड़ता रहा है। दो महीने पहले चैथी बार रूस के राश्ट्रपति चुने गये पुतिन प्रोटोकाॅल से हटकर मोदी को विदा करने हवाई अड्डे पहुंचे। अनौपचारिक षिखर सम्मेलन का एक लाभ यह होता है कि इसमें संयुक्त वक्तव्य समझौता के बन्धनों से स्वतंत्र होने के कारण दो नेता कई मुद्दे पर एक-दूसरे का विचार जान सकते हैं जिनसे भविश्य के सम्बंधों का पथ चिकना करना सम्भव हो सकता है। इसके अलावा ऐसे अनौपचारिक बैठकों के बाद प्रेस कांफ्रेंस की मजबूरी भी नहीं जुड़ी होती। इस वार्ता का एक और तथ्य यह है कि पुतिन स्वयं मोदी को बातचीत के लिए आमंत्रित किये थे और वह भी चैथी बार राश्ट्रपति बनने के एक पखवाड़े के भीतर। दरअसल पुतिन मोदी के साथ रूस के भविश्य की एहमियत, अपनी विदेष नीति, दोनों देषों की अर्थव्यवस्था और अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर भारत से रिष्तों को मजबूती देने पर वार्ता करना चाहते थे।
जाहिर है कि भारत के लिए यह कम गौरव का विशय नहीं है कि नैसर्गिक मित्र रूस ने परम्परा को नई सच्चाई के साथ आगे बढ़ाने का काम किया। गौरतलब है कि बीते कुछ वर्शों से दुनिया का कूटनीतिक मिजाज बदला है। जब भारत की प्रगाढ़ता अमेरिका के तत्कालीन राश्ट्रपति बराक ओबामा के समय कहीं अधिक हो गयी थी। तब यह सम्बंध कुछ हद तक रूस को भी अखरा था और इसी दौरान रूस संयुक्त सैन्य अभ्यास को लेकर पाक की ओर भी झुक रहा था। हालांकि रूस समेत पूरी दुनिया जानती है कि रूस और भारत की दोस्ती 70 साल पुरानी है। ऐसे में अमेरिका व चीन जैसे देषों के साथ भारत को द्विपक्षीय वार्ता में उतनी कठिनाई षायद ही होती हो। रूस और भारत की मित्रता दोनों देषों के परस्पर सहयोग से आगे बढ़ रही है। रूस के सोची नामक स्थान में इस अनौपचारिक बैठक के दौरान मोदी ने भारत को एससीओ में स्थायी सदस्यता दिलवाने के लिए रूस की भूमिका की भी चर्चा की साथ ही इंटरनेषनल नाॅर्थ साउथ काॅरिडोर पर और ब्रिक्स के लिए मिलकर काम करने की बात भी कही। इसके अलावा आतंकवाद को लेकर दोनों देषों के समान रवैये की भी चर्चा हुई जिसे दुनिया के लिए खतरा बताते हुए मिलकर लड़ने की बात दोहरायी गयी। वैसे दो देषों के सम्बंध इस बात पर अधिक टिके होते हैं कि उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक उन्नयन के साथ सम्प्रभुता कितनी अक्षुण्ण है। जाहिर है रूस के साथ इसका ताना-बाना कहीं अधिक सटीक और संतुलित है। प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू रूस की समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थे और उसे अंगीकार भी किया। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद षब्द का उल्लेख देखा जा सकता है और इसी समाजवाद ने भारत को मिश्रित अर्थव्यवस्था का अवसर दिया। हालांकि 1991 में आर्थिक उदारीकरण और बदली दुनिया के मिजाज को देखते हुए भारत ने अपना आर्थिक पथ चिकना किया परन्तु बदला नहीं जबकि इन दिनों सोवियत संघ जो 1917 से निर्मित था भंग हो चुका था। समाजवाद के प्रति दुनिया का विष्वास भी डगमगा गया था बावजूद इसके भारत ने पूंजीवाद के साथ समाजवाद को और लोक के साथ निजी क्षेत्र के सम्बंध को बनाये रखने में कामयाब रहा। उदारीकरण के 25 वर्श बीतने के साथ भारत को आधुनिकीकरण, पष्चिमीकरण तथा निजीकरण के साथ वैष्विकरण की अवधारणा से पूरी तरह पोशित देखा जा सकता है।
पष्चिम की ओर देखो के साथ-साथ 1990 के दषक में पूरब की ओर देखो नीति का भी परिप्रेक्ष्य भारत ने विकसित किया। मध्य एषिया समेत पूर्व एषियाई देषों के साथ भारत का सम्बंध कहीं अधिक संयमित और सुचारू है। दक्षिण एषिया में विकसित माना जाने वाला भारत लगभग सभी महाद्वीपों में सम्बंधों को लेकर अच्छी दखल रखता है। इन्हीं सम्बंधों के बीच मास्को से चली आ रही दोस्ती बादस्तूर आज भी कायम है। 13 अप्रैल, 1947 को तत्कालीन सोवियत संघ और भारत ने आधिकारिक तौर पर दिल्ली और मास्को में मिषन स्थापित करने का फैसला लिया था। दोनों देषों के बीच षुरू हुई दोस्ती का यह सिलसिला आज भी जारी है। यह ऐतिहासिक दोस्ती आर्थिक और वैज्ञानिक दृश्टि से भी एक-दूसरे के लिए कहीं अधिक उपजाऊ रहे हैं। भारत आज भी 62 फीसदी रक्षा सम्बंधी खरीद रूस से करता है। हालांकि वह खरीदारी तो अमेरिका से भी करता हैं। पुतिन कुछ ही सप्ताह बाद नियमित बैठक के लिए भारत आने वाले हैं। जाहिर है परिणामों की झलक बढ़े हुए अनुपात में देखी जा सकेगी। खास यह भी है कि दोनों की बातचीत में ईरान के साथ नाभिकीय समझौते से अमेरिका के अलग होने के बाद की परिस्थितियों, अफगानिस्तान और सीरिया में आतंकवाद साथ ही रूस द्वारा भारत में लगायी जाने वाली नाभिकीय परियोजनाओं और रक्षा सम्बंधों को बातचीत में जगह देना एक लाज़मी मौका के रूप में देखा जा सकता है। 
वैष्विक समीकरण मौजूदा समय में किस हाल में हैं इसकी भी पड़ताल जरूरी है। चीन के साथ कुछ हद तक अमेरिका की तनातनी और अमेरिका द्वारा एक तरफा ईरान के साथ परमाणु करार का तोड़ा जाना वैष्विक समीकरण को कुछ तो इधर-उधर करता है। वैसे एषियाई देषों में कुछ चीजे संतुलित भी हुई हैं मसलन उत्तर और दक्षिण कोरिया के बीच मेल-मुलाकात और जून में अमेरिकी राश्ट्रपति ट्रंप और उत्तर कोरिया प्रमुख किम जोंग उन की होने वाली मुलाकात। हालांकि भारत का संदर्भित मापदण्ड इतना समस्या वाला नहीं है परन्तु दुनिया के संजाल में एक के साथ दूसरे का नाता एक-दूसरे को प्रभावित करता रहता है। अगले महीने षंघाई सहयोग संगठन और उसके बाद जुलाई में ब्रिक्स सम्मेलन में भी मोदी-पुतिन के साथ जिनपिंग की भी मुलाकात होगी। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी अब तक चार बार चीन की यात्रा कर चुके हैं जिसमें बीते अप्रैल की अनौपचारिक यात्रा भी षामिल है। ठीक इतनी ही यात्रा और लगभग इसी तर्ज पर मोदी रूस की कर चुके हैं। पहली बार वे जुलाई 2015 में ब्रिक्स बैठक के लिए जबकि दूसरी बार दिसम्बर 2015 में स्टेट विज़िट को लेकर दौरा हुआ। गौरतलब है कि इसी समय अफगानिस्तान तत्पष्चात् दिल्ली आने से पहले मोदी षरीफ से मिलने 25 दिसम्बर 2015 को मोदी लाहौर चले गये जो अपने आप में दुनिया के लिए एक अद्भुत घटना थी। यहां उन्होंने षरीफ के जन्मदिन की बधाई दी और उनके घर की षादी में षरीक हुए परन्तु सारा किया धरा पानी में तब चला गया जब 2016 की पहली सुबह में पठानकोट पर पाक प्रायोजित आतंक ने हमला कर दिया। तब से अब तक पाकिस्तान से सम्बंध बेपटरी हुए हैं। आतंक को समर्थन के मामले में पटरी पर तो सम्बंध चीन के मामले में भी नहीं कहा जा सकता। बावजूद इसके औपचारिक और अनौपचारिक वार्ता चीन से रूकी नहीं है। मई 2017 में मोदी ने रूस की तीसरी बार यात्रा की। गौरतलब है कि वर्श 2000 में रूस के राश्ट्रपति पुतिन और तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने विषेश सामरिक साझेदारी को बढ़ाने का काम किया था जिसका जिक्र भी इस मुलाकात में हुआ। देखा जाय तो दोनों देषों के रिष्ते षीत युद्ध के दौर में और उसके बाद भी प्रगाढ़ होते गये। पिछले 70 सालों में अन्तर्राश्ट्रीय परिदृष्य बदल गये कई देष गृह युद्ध की आग में झुलस गये और कई देषों के बीच रिष्तों में गिरावट आयी मगर भारत और रूस आज तक बिना खटास के मित्रता निभा रहे हैं। भारत के हर मुष्किल में रूस खड़ा रहा है। दुनिया की परवाह किये बिना रूस अन्तर्राश्ट्रीय मंच पर भी दोस्ती निभायी है। संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् में रूस ने 22 जून 1962 को अपने 100वें वीटो का इस्तेमाल कष्मीर मुद्दे पर भारत के समर्थन में किया था। हालांकि 1961 में 99वें वीटो का इस्तेमाल भी वह भारत के लिये ही किया था जो गोवा के मसले पर था। इसके अलावा पाकिस्तान के खिलाफ और भारत के पक्ष में रूस वीटों का इस्तेमाल करता रहा जबकि पड़ोसी चीन ठीक इसके उलट कार्य करता रहा। भारत-रूस के सम्बंध ऐतिहासिक तौर पर भी निकटता के सिद्धांत से जकड़े हुए हैं परन्तु कई मुद्दों पर सम्बंध भुनाना अभी बाकी है। एनएसजी से लेकर संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् में स्थायी सदस्यता समेत कई बिन्दुओं पर रूस भारत के काम तो आ ही सकता है साथ ही कूटनीतिक संतुलन के मामले में भी रूस का साथ कहीं अधिक उपयोगी है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Monday, May 21, 2018

राष्ट्रीय राजनीति मे बेअसर नहीं कर्नाटक

राजनीतिक समझ रखने वाले सभी जानकारों का यह कयास तो था कि कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में भाजपा बड़ी पार्टी के रूप में उभरेगी पर षायद यह उम्मीद नहीं रही होगी कि मुख्यमंत्री जनता दल (एस) के कुमार स्वामी बनेंगे। चुनाव से पहले 17 ओपीनियन पोल में 13 ने त्रिषंकु की स्थिति बतायी थी जबकि 4 में कुछ ने भाजपा को तो कुछ ने कांग्रेस की ताजपोषी की बात कही थी। फिलहाल बीते 15 मई को जब कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे घोशित हुए तो 222 विधानसभा सीट में भाजपा 104 सीट पर काबिज हुई और  कांग्रेस 78 पर जबकि जनता दल (एस) 38 सीटों पर सिमट गयी। हालांकि यहां कुल सीटें 224 हैं। नतीजों से साफ है कि ओपीनियन पोल के संकेत सही सिद्ध हुए परन्तु सभी का कयास कमोबेष यही था कि जनता दल (एस) के कुमार स्वामी किंग मेकर की भूमिका में रह सकते हैं मगर यहां राजनीतिक पण्डित कुछ हद तक गच्चा खाते दिख रहे हैं क्योंकि जिसे किंग मेकर समझा जा रहा था असल में वह किंग निकला। चुनावी विष्लेशण के दौरान बीते 14 मई को परिणाम घोशित होने के ठीक एक दिन पहले एक टीवी चैनल में वरिश्ठ स्तम्भकार के नाते परिचर्चा में मेरी भी उपस्थिति थी जिसमें मेरा मत था कि त्रिषंकु की स्थिति में कांग्रेस भाजपा को रोकने के लिए जनता दल (एस) को समर्थन दे सकती है और हुआ भी वही। हालांकि 17 मई को भाजपा 104 स्थानों के साथ ही सत्ता हथिया चुकी थी यह कहते हुए कि बहुमत सिद्ध कर देंगे परन्तु न्यायपालिका के निर्णयों ने बहुमत के लिये जो समय निर्धारित किया उसमें वह खरी नहीं उतरी और येदियुरप्पा इस्तीफा देते हुए मात्र ढ़ाई दिन के मुख्यमंत्री बन कर रह गये।
कर्नाटक की राजनीति में तमाम पेंच के बावजूद जिस तरह के नतीजे आये उसे कई लोकतंत्र के लिए बेहतर तो कई खतरा बता रहे हैं। जबकि एक बड़ी सच्चाई यह है कि अभी भी इस ओर दृश्टि नहीं जा रही है कि एक क्षेत्रीय दल ने एक राश्ट्रीय दल से समर्थन प्राप्त कर सत्ता हथिया ली है जो कहीं न कहीं राश्ट्रीय राजनीति पर दौर को देखते हुए बेअसर नहीं कहा जा सकता। बेषक जेडीएस का प्रदर्षन तीसरे नम्बर पर हो पर सियासत को उसने एक नई राह तो दी है। राजनीतिक इतिहास की पड़ताल बताती है कि तमाम कमजोरियों के बावजूद अच्छे खासे राश्ट्रीय दलों को अपने आगे स्थानीय दलों ने बरसों तक नचाया है। 1989 के आम चुनाव से लेकर 2014 के 16वीं लोकसभा के गठन तक क्षेत्रीय दलों की उपादेयता को क्षितिज में बगैर रखे देष की सियासत को नहीं समझा जा सकता। जब भाजपा ने अक्टूबर 1990 में केन्द्र की वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस लिया था तब दो खाकों में बंटा जनता दल में एक का नेतृत्व चन्द्रषेखर के हाथों में आया जो कांग्रेस के समर्थन से वे देष के प्रधानमंत्री बने। उन दिनों कांग्रेस 543 लोकसभा सीट के मुकाबले 197 पर जीत हासिल की थी। 1996 में केन्द्र की सियासत में स्थानीय दलों का ही प्रभाव था। नतीजन वाजपेयी सरकार मात्र 13 दिन ही चल पायी थी। स्थानीय दलों की एकजुटता के चलते ही 11-11 महीने के लिए देवगौड़ा और गुजराल प्रधानमंत्री बने जिन्हें कांग्रेस का समर्थन था। इतना ही नहीं 1998 व 1999 में क्रमषः 13 महीने और 5 साल की वाजपेयी सरकार दर्जनों स्थानीय दलों के चलते ही चली। प्रसंग यह दर्षाता है कि छोटे दलों को राश्ट्रीय दलों ने समर्थन देकर पहले भी प्रधानमंत्री तक बनाया है और छोटे दलों ने भी राश्ट्रीय दलों को यही ओहदा दिलाया है। 
भले ही वक्त के साथ वामपंथ उजड़ गया हो, क्षेत्रीय दल कमजोर हुए हों साथ ही कांग्रेस निस्तोनाबूत हुई हो और वर्श 2014 में 30 वर्शों के बाद देष में एक पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी हो परन्तु इसी भारत में अभी भी क्षेत्रीय पार्टियां सत्ता चला रही हैं मसलन तमिलनाडु में एआईडीएमके और पष्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस हालांकि ये पूर्ण बहुमत की सरकारें हैं और तृणमूल का पष्चिम बंगाल के बाहर भी अस्तित्व है। ऐसे दलों का राश्ट्रीय राजनीति में बाकायदा दखल देखा जा सकता है। इसी क्रम में कर्नाटक के जेडीएस को भी इन दिनों समझा जा सकता है। वैसे खास यह भी है कि कर्नाटक की सियासत में एक बार फिर क्षेत्रीय दलों को उकसा दिया है और मन में यह भी विष्वास पैदा कर दिया कि एकजुटता से मोदी सरकार के रथ को रोका जा सकता है। यही वजह है कि रूझान साफ होने पर पष्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का एक ट्विट यह भी आया कि कांग्रेस ने जेडीएस के साथ गठबंधन कर लिया होता तो नतीजे अलग आते। कहा तो यह भी जा रहा है कि तब भाजपा 70 और गठबंधन 150 सीटों पर होता। फिलहाल सियासत में कयास हो सकते हैं पर आईना तो नतीजे ही दिखाते हैं। भाजपा ने जिस जल्दबाजी में सरकार बनाने को लेकर यह रास्ता अख्तियार किया उसे न्यायपालिका के रास्ते उल्टी चोट मिली। प्रत्येक राज्य में सरकार की महत्वाकांक्षा से ओत-प्रोत भाजपा की कल्पनाओं में भी नहीं रहा होगा कि कर्नाटक उसके हाथ से ऐसे ही फिसल जायेगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि कर्नाटक के मतदाताओं ने भाजपा को सत्ता देने की कोषिष की पर छोर पर आते-आते चीजे अधूरी रह गयी। इसी का फायदा कांग्रेस और जेडीएस ने उठाया। वैसे सत्ता हथियाने को लेकर भाजपा ने राजभवन तक को अपनी ओर कर लिया पर सर्वोच्च न्यायालय ने वही किया जो लोकतंत्र और संविधान के लिए कहीं अधिक समुचित था।
वर्तमान में देष की राजनीतिक स्थिति क्या है जाहिर है दक्षिण-पूर्व तटवर्ती इलाकों को छोड़ दिया जाय तो लगभग पूरे भारत पर भाजपा छायी हुई है। पंजाब भाजपा के झंझवात से बच गया जो कांग्रेस की सत्ता का मजबूत द्वीप बना हुआ है मगर उसके बारी-बारी से किले ढहते गये हैं। तो क्या सचमुच भारत कांग्रेस मुक्त हो गया या क्षेत्रीय दल गौण हो गये। गुजरात में कांग्रेस की हार के बावजूद स्थिति और कर्नाटक में नम्बर 2 पर रहते हुए सत्ता की घेराबंदी कर लेना इस बात को पुख्ता करते हैं कि कांग्रेस मुक्त नहीं बल्कि युक्त हो रही है। हालांकि कर्नाटक की सत्ता हाथ से गयी है पर जेडीएस के साथ कुछ हद तक बची है। जेडीएस का कर्नाटक में सत्ताधारी होना क्षेत्रीय दलों को भी मजबूती दे गया। अन्य प्रान्तों को भी यह फार्मूला दे गया कि क्षेत्रीय दल मिल जायें तो राश्ट्रीय दल मुख्यतः भाजपा से निपटना सरल हो जायेगा। भाजपा के अध्यक्ष अमित षाह 2019 के लोकसभा चुनाव में अपने घटक दलों के साथ 350 सीट जीतना चाहते हैं जबकि तेलुगू देषम पार्टी इनके घटक से अब हट चुका है और षिवसेना की स्थिति भी संदेह से युक्त है। गोरखपुर और फूलपुर की लोकसभा सीट का उपचुनाव में हारना भी यह पहले ही इंगित कर चुका है कि सपा और बसपा जैसे यूपी के मजबूत राजनीतिक दल भाजपा के जड़ में मट्ठा डालने का काम कर सकते हैं। ऐसी स्थिति बिहार या अन्य जगहों पर हो सकती है। मायावती, चन्द्रबाबू नायडू, षरद पंवार तथा ममता बनर्जी समेत कईयों ने कर्नाटक की सफलता पर गठबंधन को बधाई भी दिया है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि क्षेत्रीय दल तुलनात्मक पहले से सजग हो रहे हैं और हाषिये पर जा रही राश्ट्रीय पार्टी कांग्रेस भी इनके साथ होना चाह रही है। तो क्या यह मान लिया जाय कि भाजपा एवं उनके सहयोगियों के विरूद्ध सभी दल लामबंध हो रहे हैं। यदि ऐसा है तो आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को कड़ी टक्कर जरूर मिलेगी। फिलहाल सियासत का पहिया वहीं घूमता रहता है बस फर्क यह है कि उसका रूकने वाला कोण क्या है। जाहिर है कि यही पहिया 6 दषक तक कांग्रेस के हक में रूका और कुछ समय तक क्षेत्रीय दलों के हिस्से में भी आया। बीते चार वर्शों से यह अनवरत् भाजपा के पक्ष में रहा है पर कर्नाटक की कहानी कुछ और इषारा कर रही है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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सामाजिक बदलाओ मे युवाओं की भूमिका

वास्तव में सामाजिक परिवर्तन का मतलब है किसी भी समाज के ढांचे में सभी के हिस्से में बदलाव का होना। स्वाधीनता प्राप्ति से लेकर अब तक इस दिषा में कमोबेष सरकार और समाज दोनों ने मिलकर कोषिष की है पर यह कितना कामयाब रहा पड़ताल का विशय है। किसी भी देष की कुंजी मानव संसाधन होता है और उसमें भी उस देष की बुनियाद युवा होते हैं। युवा ही देष का आधार होता है ऐसा इसलिए क्योंकि वह अधिकतम ऊर्जावान और बेषुमार सम्भावनाओं से भरा रहता है। भारत एक युवा देष है और आंकड़े भी यह बताते हैं कि जहां 2020 तक अमेरिका की औसत आयु 45 वर्श और चीन की 37 वर्श समेत पष्चिमी यूरोप और जापान की 48 वर्श होगी वहीं भारत में यह मात्र 29 वर्श की होगी। तथ्य भी और सत्य भी यह इषारा करते हैं कि आने वाला वक्त युवाओं का है और दुनिया भी भारत की इस युवा प्रतिभा को देखना चाहेगी। भारत में लगभग 65 फीसदी जनसंख्या इस समय 35 वर्श से कम आयु की है। मौजूदा मोदी सरकार भी युवाओं पर कुछ अधिक भरोसा दिखा रही है। सरकार का पूरा ध्यान युवाओं के माध्यम से विकास लाने पर भी केन्द्रित है पर पूरा उपयोग अभी भी सम्भव नहीं हो सका।
कुल मिलाकर देखा जाय तो सामाजिक परिवर्तन में युवाओं की भागीदारी को हम दो स्तरों पर देख सकते हैं। पहला सत्ता के भीतर भविश्य की नीतियों में भागीदार बनाकर, दूसरा सत्ता के खिलाफ उन मामलों में भागीदार बनाकर जो देष रचना में रूकावट बन रहे हैं। सत्ता के भीतर जो युवा हैं वे कुछ हद तक कठपुतली के तौर पर इस्तेमाल होते हैं और जो बाहर हैं वो सरकारी तंत्र के सामने टिक नहीं पाते हैं। सवाल है कि युवा की ऊर्जा का उपयोग कैसे सम्भव हो ताकि राश्ट्र और समाज निर्माण में इनकी भागीदारी का दर बढ़ सके। मोदी सरकार द्वारा पेष की गयी राश्ट्रीय युवा नीति 2014 का उद्देष्य युवाओं की क्षमताओं को पहचानना और उसके अनुसार उन्हें अवसर प्रदान कर सषक्त बनाना और इसके माध्यम से विष्व भर में भारत को इसका सही स्थान दिलाना है पर यह बात जितना कहने में सुगम है, असलियत से यह कोसो दूर है। रोज़गार को लेकर युवा सड़क पर भटक रहा है और साथ ही ऊर्जा को दिषाहीन किये हुए है। आंकड़े भी यह समर्थन करते हैं कि देष में सरकारी नौकरियां सिकुड़ रही हैं और निजी सेक्टर कहीं अधिक संकुचित हो चले हैं। ऐसे में इनकी खपत बहुत मुष्किल अवस्था में है। निराष करने वाले आंकड़े तो यह भी हैं कि देष का हर चार में से तीन इंजीनियर काम के लायक नहीं है जबकि सामान्य स्नातक की भी स्थिति योग्यता के मामले में कहीं अधिक बुझी हुई है पर इनकी भूमिका को तो समझना ही होगा। कुछ युवा राजनीति के षिकार हो रहे हैं तो कुछ सही दिषा के अभाव में राह से भटके हैं जबकि समाज निर्माण में इतनी बड़ी ऊर्जा का दोहन न कर पाना हमारी, आपकी तथा सरकार का फेल होना भी कहा जायेगा। 
कहा जाता है कि अगर राश्ट्र को जानना है तो सर्वप्रथम वहां के युवाओं को जानना चाहिए। पथ से वंचित व विचलित युवाओं का साम्राज्य खड़ा करके कोई भी सरकार दूर तक दौड़ नहीं लगा सकती। औपनिवेषिक काल में अंग्रेजी सत्ता से मुक्ति के लिए युवाओं को संगठित करने का काम किया गया था। नेताजी सुभाश चन्द्र बोस से लेकर कई युवाओं की फहरिस्त इसमें देखी जा सकती है। कहने की आवष्यकता नहीं कि युवा के आधार पर ही भारत अपनी परम्परागत छवि का आवरण उतारकर नई पहचान बनायी है। स्टार्टअप इण्डिया एण्ड स्टैण्डअप इण्डिया से लेकर न्यू इण्डिया तक युवाओं के माध्यम से ही पूरा हो सकता है। इसके अलावा भी देष से लेकर वैष्विक स्तर तक होने वाले सामाजिक परिवर्तन में भी ये बड़े कारक हैं। आर्थिक सुधारों से लेकर राजनीति, खेल और व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन में इनकी भूमिका वाकई समझी जा सकती है। दुनिया के उदाहरण भी इस बात को पुख्ता करते हैं कि चीजों को परिवर्तित करने में इनकी कोई सानी नहीं। अरब देषों में हुए व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन, अमेरिका में वल स्ट्रीम आंदोलन और भारत में हुए जेपी आंदोलन से लेकर 21वीं सदी में हुए अन्ना हजारे का भ्रश्टाचार विरोधी आंदोलन साथ ही निर्भया के साथ हुए अमानवीय व्यवहार के खिलाफ उमड़ा आक्रोष जैसे तमाम उदाहरण देखे जा सकते हैं। असल बात यह भी है कि आज का युवा संक्रमण के दौर से गुजर रहा है और सत्ता भी ऐसा परिवेष विकसित कर देता है जिससे वह स्वयं को बुरी तरह फंसा हुआ पाता है। सवाल है उसे दिषा कौन दे और प्रष्न है कि उसकी उर्जा का इस्तेमाल कौन करे?
युवा किसी भी समाज की रीढ़ है आज का युवा भ्रम और यथार्थ के बीच भी फंसा हुआ है। समय भी चरम पूंजीवाद का है जबकि युवा नरमपंथी भी है, समाजवादी भी है और जरूरत पड़ने पर गरमपंथी भी हो जाता है। बस आधुनिक परिवेष में उसका मूल्य कुछ लोगों ने खोटे सिक्के की तरह कर दिया है। कुछ ने तो खारिज ही कर दिया है। बाजारवाद में युवा की कीमत गिर रही है जबकि सच्चाई यह है कि बिना दुविधा के वह आज भी समाज और सरकार के लिए बेषुमार दौलत की तरह है। कुल मिलाकर देखा जाय तो युवाओं ने भी अपने को बेखबर किया हुआ है। परम्परा भंजक बना हुआ है, मनमौजी पीढ़ी हो गयी है, अनैतिक और क्षणवादी के आरोप से भी मढ़ा हुआ है लेकिन ऐसे आरोपों से पहले हमें इनके सामाजिक और आर्थिक कारणों के साथ राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को भी परख लेना चाहिए। हाथ में काम नहीं है, योग्यता की कीमत नहीं है, आलोचना और मजाक का विशय यदि युवा को बनायेंगे तो समस्याएं इसी किस्म की होंगी। समाज में इनकी भूमिका को कोई नकार नहीं सकता। सवाल अवसर देने का है। आज लाभ और पूंजी के दरमियान युवा भी पिस रहे हैं केवल युवाओं को दोश देना उचित नहीं है। हमें सरकारी नीतियों पर भी गौर करना चाहिए। सरकार ने वायदे किये पर निभाये नहीं। सत्ता की आधारभूत नीतियां युवाओं के पक्ष में कितनी बनी हैं इसे भी समझना होगा। दुनिया में सबसे ज्यादा बेरोजगार युवा भारत में हैं जिसमें 60 प्रतिषत षहरी और 45 फीसदी ग्रामीण युवा बेरोजगार है। सवाल है कि हम किन युवाओं के बल पर राश्ट्र और समाज को षक्ति बनाने जा रहे हैं। फिर भी परिवर्तन के इस दौर में युवाओं को साथ लेना ही होगा पर सवाल यह रहेगा कि भूमिका की सही तलाष कैसे होगी। यदि यह सही हो गयी तो समाज भी बदलेगा और भारत न्यू इण्डिया भी बनेगा साथ ही देष के युवा संसाधन की दुनिया में जय-जयकार भी होगी।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Wednesday, May 16, 2018

संविधान से खिलवाड़ न हो इसका खयाल हो

यह बात गैरवाजिब नहीं है कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे कईयों के सपने को चकनाचूर कर गया। पांच साल से सरकार चला रही कांग्रेस को यहां उम्मीद से कहीं कम सीटें मिली जबकि बहुमत का सपना पालने वाली बीजेपी भी इस मामले में कमतर ही रह गयी। हालांकि 2013 की तुलना में बीजेपी का प्रदर्षन बहुत अच्छा था पर सत्ता का जादुई आंकड़ा हाथ न लगने से सियासत की अठखेलियां राज्य की फिजा में खूब तैर रही हैं। रोचक राजनीतिक प्रसंग यह भी है कि बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस ने नतीजे का बिना इंतजार किये जनता दल (एस) को अपना समर्थन देकर सियासी पासा ही पलट दिया। फिलहाल कर्नाटक त्रिषंकु का षिकार हुआ है जिसकी सम्भावना पहले भी व्यक्त की जा चुकी है पर किंग मेकर जनता दल (एस) के कुमार स्वामी को किंग बनने का इतना आसान मौका मिलेगा इसकी सम्भावना कम ही आंकी गयी थी। यह सियासत का ही मिजाज़़ है कि जनता को लुभाने में कुछ तो कोसों दूर रह जाते हैं तो कुछ मील का पत्थर गाड़ देते हैं। जब एक मई को प्रधानमंत्री मोदी कर्नाटक पहुंचे और ताबड़तोड़ 21 रैलियां कर डाली तो चुनाव प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। मोदी की रैली का प्रभाव 169 विधानसभा क्षेत्रों पर रहा। जाहिर है कि 224 के मुकाबले यह बहुत बड़ा क्षेत्र है। ऐसे में मोदी मैजिक का चलना लाज़मी भी था और चला भी था। बावजूद इसके सत्ता का आंकड़ा जो 112 था उससे 8 सीट कम रहते हुए 104 पर आकर बीजेपी थम गयी। गौरतलब है कि चुनाव 222 सीटों पर हुआ था जिसमें कांग्रेस 78, जनता दल (एस) 38 और अन्यों ने 2 पर बाजी मारी। 
देखा जाये तो कर्नाटक के नतीजे ने कांग्रेस को सियासी तौर पर और पीछे धकेल दिया है। वोट प्रतिषत के मामले में भाजपा से कांग्रेस आगे रही पर सीट कब्जाने में बहुत पीछे। वैसे जनता दल (एस) को समर्थन देकर न केवल उसने अपनी हार को छुपा लिया बल्कि कर्नाटक के सियासत को भी गरम कर दिया। वैसे हर हार के बाद राहुल गांधी पर सवाल उठते रहे हैं। जाहिर है यहां भी उठना था सो उठा। इस चुनावी नतीजे से कई सवाल उठते हैं एक यह कि कांग्रेस की हार कब तक जारी रहेगी, दूसरा 2019 के लोकसभा में क्या कांग्रेस अपनी राजनीतिक हैसियत तुलनात्मक बढ़ा पायेगी। सियासत स्थानीयता से ओत-प्रोत होती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा के अमित षाह और प्रधानमंत्री मोदी को इसकी नब्ज पकड़े में महारत हासिल है। हिन्दी में बोलते हैं और कन्नड़ के वोटरों को वोट के लिये उकसाते हैं और सत्ता हथियाने के करीब पहुंचते हैं। कांग्रेस ने भी स्थिति को समझने में बहुत गलती नहीं की है पर मौजूदा मुख्यमंत्री सिद्धरमैया के फैसले हवा हवाई जरूर सिद्ध हुए हैं। लिंगायात कार्ड फेल हो गया और कांग्रेस मोदी का काट नहीं खोज पायी। अमित षाह का चुनावी प्रबंधन भी कांग्रेस की लुटिया डुबो दी। हालांकि राहुल गांधी ने साॅफ्ट काॅर्नर लिया पर हिन्दुत्व कार्ड उनका भी फेल हो गया, उनका मठों और मन्दिरों में मत्था टेकना भी काम नहीं आया। हालांकि हार तो बीजेपी की भी हुई है इसलिए क्योंकि एक तो बहुमत से वे दूर हैं दूसरे मंत्री, सांसद, मुख्यमंत्री और स्वयं प्रधानमंत्री समेत सभी ने जोर लगाया तब भी एक तरफा जीत हासिल नहीं कर पाये और कर्नाटक मौजूदा समय में गठबंधन की अवस्था में चला गया। स्थिति को देखते हुए सियासी मेले से कुछ दूर खड़ी सोनिया गांधी ने ऐन मौके पर देवगौड़ा को फोन कर कुमार स्वामी को मुख्यमंत्री बनाने की पेषकष की। कांग्रेस का यह आखिरी दांव ऐसे समय में चला गया जहां बीजेपी भी समझ नहीं पायी कि इतना ताबड़तोड़ कैसे हो गया। यह कौटिल्य अमित षाह पर सत्ता को उंगलियों पर नचाने वाली सोनिया का सियासी प्रहार था जिसमें सत्ता अभी भी उलझी हुई है। 
कांग्रेस जानती थी कि गोवा, मणिपुर और मेघालय में बीजेपी ने सत्ता हथियाने का कौन सा खेल खेला था। गौरतलब है कि यहां कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद हाषिये पर रही जबकि कोसो दूर खड़ी बीजेपी सत्ताधारी बनी और ऐसा अवसर कांग्रेस के ढुलमुल रवैये के कारण ही भाजपा को मिला था पर कर्नाटक में ऐसा नहीं हुआ। फिलहाल उतार-चढ़ाव से भरी कर्नाटक की सियासी पारी में राज्यपाल की भूमिका कहीं अधिक अहम हो गयी। गौरतलब है कि जब भी त्रिषंकु की स्थिति होती है तो केन्द्र में राश्ट्रपति और राज्य में राज्यपाल की यह जिम्मेदारी होती है कि उस दल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करे जिसमें बहुमत सिद्ध करने की पूरी सम्भावना हो। सम्भावना तो यह भी व्यक्त की गयी है कि भाजपा 104 विधानसभा सीट के साथ सर्वाधिक स्थान पर है ऐसे में सरकार बनाने का उसे अवसर मिलना चाहिए। सभी भाजपा नेता और समर्थक ऐसा मानते हैं जबकि कांग्रेस यह दलील दे रही है कि जब जनता दल (एस) के साथ समर्थन जुटा लिया गया है तो अवसर कुमार स्वामी को दिया जाना चाहिए। इस दलील पर भाजपा नहीं टिक रही है जबकि इसके पहले भाजपा उपरोक्त प्रांत में यही किया है। कहा तो यह भी जा रहा है कि यदि कांग्रेस जनता दल (एस) को सरकार बनाने का अवसर नहीं मिला तो वह सुप्रीम कोर्ट जा सकती है। गौरतलब है कि गोवा मामले में भी कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट गयी थी तब षीर्श अदालत ने कहा था कि यदि चुनाव के बाद का गठबंधन बहुमत सिद्ध करने में सक्षम है तो उसे सरकार हेतु आमंत्रित करना संविधान सम्वत् है। जाहिर है अदालत एक ही तथ्य पर दो निर्णय नहीं होगे। ऐसे में इस बार पलड़ा कांग्रेस और जनता दल (एस) गठबंधन का भारी है। यह भी समझने योग्य बात है कि भाजपा के येदियुरप्पा मुख्यमंत्री बनते हैं तो बहुमत कहां से जुटायेंगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि विधायकों की खरीद-फरोख्त होगी और एक बार फिर राजनीति हाॅर्स ट्रेडिंग की षिकार होगी। गठबंधन दल के मुख्यमंत्री के दावेदार कुमार स्वामी भी कह चुके हैं कि उनके विधायकों को सौ करोड़ में भाजपा खरीदने की बात कर रही है। हालांकि इसका कोई पुख्ता प्रमाण उनके पास भी नहीं है।
कर्नाटक चुनाव में यह इतिहास रहा है कि किसी भी दल को बीते 1985 के बाद दोबारा सत्ता नहीं मिली है। गौरतलब है कि राम कृश्ण हेगड़े यहां सत्ता दोहरा चुके हैं। कर्नाटक की सियासत में लिंगायत को बिना समझे पूरी राजनीति नहीं समझी जा सकती। येदियुरप्पा के रूप में स्थानीय लिंगायत चेहरा पीएम मोदी के मैजिक और अमित षाह के बेहतर प्रबंधन की बदौलत भाजपा ने पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार 65 सीट ज्यादा और करीब 17 फीसदी अतिरिक्त वोट हासिल किये। हालांकि यह वोट लोकसभा की तुलना में करीब साढ़े छः फीसदी कम है। यहां लिंगायतों का 17 फीसदी वोट है इस पर भी अलग धर्म बनाने को लेकर सियासत गरम हुई थी। गौरतलब है कि ये भाजपा के वोटर हैं लेकिन कांग्रेस को भी इनका वोट मिला है इसकी एक वजह लिंगायत को लेकर कांग्रेस का साॅफ्ट काॅर्नर रहा है। फिलहाल कर्नाटक मौजूदा समय में सूटकेस की राजनीति में फंसता दिखाई दे रहा है साथ ही चैतरफा चुनौती से भरा हुआ है। एक मिनट के लिये यह मान भी लें कि भाजपा की सरकार बनेगी तो दूसरे क्षण यह सवाल उठता है कि बहुमत कहां से आयेगा। विधायकों की खरीद-फरोख्त ही विकल्प दिखता है। आरोप तो यह भी है कि कांग्रेस ने भाजपा के 6 विधायक तोड़े हैं। गिरेबान में तो सभी को झांकना है पर यहां अधिक जिम्मेदारी भाजपा की है क्योंकि केन्द्र से नियुक्त राज्यपाल का राजभवन भी सियासी भंवर में कभी-कभी इषारे पर काम करता है। सबके बावजूद सत्ता किसी के भी हिस्से में आये पर संविधान के साथ खिलवाड़ नहीं होना चाहिए।


सुशील कुमार सिंह
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Monday, May 14, 2018

दशक बाद का ये जो कबूलनामा है

भारत लम्बे समय से यह आरोप लगाता रहा है कि पाकिस्तान के आतंकी संगठन लष्कर-ए-तैयबा ने ही 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई में हुए आतंकी हमले को अंजाम दिया था जिसमें 166 लोग मारे गये थे। साल 2008 से 2018 के बीच भले ही लगभग एक दषक का फासला हो गया हो पर भारत के आरोप के पुश्टि बीते 12 मई को पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ षरीफ ने आखिरकार कर ही दी जो किसी भी जिम्मेदार पाकिस्तानी की ओर से बड़ी स्वीकृति मानी जा सकती है। हालांकि नवाज़ षरीफ इस समय पाकिस्तान में किसी पद पर नहीं है और वहां के सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें हर तरफ से अयोग्य घोशित कर दिया है। फिर भी नवाज़ षरीफ के इस बयान को बहुत गम्भीर तरीके से लिया जाना चाहिए जो कि हो भी रहा है। निहित संदर्भ यह भी है कि भारत को पहले से ही पूरी तरह पता था कि मुम्बई के ताज होटल पर हमला पाकिस्तान ने ही करवाया है इसलिए षरीफ का कबूलनामा भारत को उतना हैरत में नहीं डालता जितना कि षेश दुनिया को चैंकाता है। गौरतलब है कि पाकिस्तान आतंकवाद को लेकर दषकों से यह भ्रम फैलाये हुए है कि उसके यहां ऐसा कुछ भी नहीं है। हालांकि बीते कुछ वर्शों से भारत में उसे इस मामले में दुनिया में बेनकाब किया है। उसी की बदौलत आज का पाकिस्तान न केवल अलग-थलग पड़ा है बल्कि करोड़ों रूपये की सौगात भी अमेरिका के द्वारा प्रतिबंधित है। नवाज़ षरीफ ने मुम्बई हमले में पाकिस्तानी आतंकियों के हाथ होने और उन्हें सीमा पार करने की इज़ाजत देने की बात जब से स्वीकार की है तब से षरीफ के इस बयान को लेकर पाकिस्तान में कोहराम मचा हुआ है और चैतरफा उनकी षराफत दांव पर लगी हुई है। स्थिति को देखते हुए षरीफ भी फिलहाल कह रहे हैं कि उनके बयान की गलत व्याख्या की गयी है जबकि दो टूक यह है कि लम्बे अंतराल के बाद ही सही यह षरीफ का सही और वाजिब कबूलनामा है। 
नवाज़ षरीफ ने बेषक मुम्बई घटना को लेकर बात अब कबूला हो पर यह पहला मौका नहीं है। साल 2009 में तत्कालीन पीपुल्स पार्टी सरकार के गृहमंत्री रहमान मलिक ने प्रेस कांफ्रेंस के दौरान यह ब्यौरा दिया था कि मुम्बई हमले को किस तरह से पाकिस्तान की जमीन से अंजाम दिया गया था। बात भले ही पाकिस्तानी सरकारों के सामने आई हो पर किसी भी सरकार ने दोशियों को न तो सजा दिलायी और न ही उनसे कोई सबक लिया बल्कि उन्हें खाद-पानी देने का बड़ा काम जरूर किया है। यहां बता दें कि नवाज़ षरीफ ने पहली बार पाकिस्तान की उस नीति पर सवाल उठाये हैं जिसके तहत गैर सरकारी तत्वों को सीमा पार करके मुम्बई में लोगों को मारने की अनुमति दी गयी। इससे यह भी साफ होता है कि अब तक भारत जितने भी आरोप पाकिस्तान पर मढ़े हैं वे बेवजह नहीं हैं मुम्बई से लेकर पठानकोट तक हमेषा भारत यह कहता रहा कि यह पाकिस्तान की ओर से नियोजित हमला है बावजूद इसके पाकिस्तान के सत्ताधारी न केवल लीपा-पोती करते रहे बल्कि भारत पर उलटे दोश मढ़ते रहे। भारत सरकार ने हर वो सबूत दिया जो चीख-चीख कर कह रहा था कि घटना के जिम्मेदार सीमा पार के आतंकी संगठन हैं पर पाकिस्तान तो इस बात से ही इंकार करता रहा कि उसके यहां आतंक की खेती होती ही नहीं है। हाफिज़ सईद, अज़हर मसूद तथा लखवी जैसे आतंकी सरगना पाकिस्तान की जमीन में बोये और उगाये जाते हैं और इन्हें खाद-पानी देने का काम आईएसआई से लेकर वहां की सरकारें करती हैं। हैरत तो इस बात का है कि लोकतंत्र को ठेंगे पर रखने वाला पाकिस्तान बीते सात दषकों से दुनिया में लोक कल्याण की पहचान बना ही नहीं पाया और अब अगर उसकी व्याख्या होती है तो आतंकी देष के तौर पर। और यह हर तरीके से वहां की सीधी-साधी जनता के साथ बड़ा धोखा है।
षरीफ ने सच कहा है पर यह सच बोला क्यों? यह भी कई पाकिस्तानी परस्त लोगों को खटक रहा है। इन दिनों पाकिस्तान की सियासत में षरीफ गैर षराफत वाले व्यक्ति घोशित किये जा चुके हैं। इनके द्वारा मुम्बई घटना के कबूलनामे को लेकर 14 मई को पाकिस्तान में एनएसजी की एक अहम बैठक हुई। जाहिर है कि नवाज़ षरीफ के बयान के पीछे और आगे की बात को भी समझना है। भारत के रक्षा मंत्री ने अपने बयान में स्पश्ट किया है कि भारत का जो रूख था षरीफ का बयान उसी की पुश्टि है। फिलहाल आतंकवाद को लेकर नवाज़ षरीफ अलग-थलग पड़ गये हैं। गौरतलब है कि पाकिस्तान एक ऐसा देष है जहां तीन समानांतर सरकारें चलती हैं एक आईएसआई, दूसरी आतंकी संगठनों जबकि तीसरी स्वयं चुनी हुई सरकार वैसे षरीफ के कबूलनामे में यह संदर्भ भी निहित देखा जा सकता है। पाकिस्तान की दुविधा यह है कि जिसे वह बरसों से नकारता रहा उसी को लेकर उसकी पोल खुल गयी है। इससे भारत के प्रति दुनिया का नजरिया बदलना चाहिए और पाकिस्तान के प्रति आतंकी वाला दृश्टिकोण और पुख्ता प्रतीत होता है। खास यह भी है कि मुम्बई घटना के बाद कार्रवाई पाकिस्तान की प्राथमिकता में कभी था ही नहीं। सीमा पार से आये लष्कर-ए-तैयबा के 10 हमलावर आतंकियों में से 9 को भारतीय सुरक्षाबलों ने ढ़ेर कर दिया था जबकि अजमल कसाब को जीवित पकड़ा गया जिसे बरसों के मुकदमे के बाद फांसी दे दी गयी थी। उल्लेखनीय यह भी है कि इस राज को षरीफ बरसों से जानते थे और खोला तब जब उनका सब कुछ लुट चुका था। नवाज़ षरीफ इन दिनों कई आरोपों से घिरे हैं। पनामा पेपर्स ने उनकी कुर्सी छीन ली और आतंकियों को षरण देना और लगातार झूठ बोलना कि पाकिस्तान में इसका वजूद ही नहीं है परन्तु इस अव्वल दर्जे के झूठ पर अमेरिका गाहे-बगाहे खूब लताड़ता रहा। आरोप तो यह भी है कि भारत में करोड़ो रूपए काला धन के रूप में इन्होंने जमा किया है। चैतरफा घिरे नवाज़ षरीफ इन दिनों काफी झंझवातों से जूझ रहे हैं हो सकता है इन मुष्किलों ने सच को कबूलने में उनकी मदद की हो।  
अब जब यह बात साफ हो गयी है कि पाकिस्तान के आतंकी भारत के भीतर घटना को अंजाम देते हैं तो क्या पड़ोसी चीन पाकिस्तान को समर्थन देने के मामले में अपने रूख में काई अंतर लायेगा। गौरतलब है कि चीन अक्सर पाकिस्तान के साथ खड़ा दिखाई देता है। कई अवसर ऐसे आये हैं जब भारत संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् में पाकिस्तानी आतंकवादियों को घसीटने का काम किया और चीन ने वीटो करके उन्हें बचाने का काम किया। बेषक चीन जानता हो कि भारत पाक प्रायोजित आतंकियों से परेषान है बावजूद इसके वह पाक का समर्थन इसलिए करता है क्योंकि ऐसा करके वह अपनी कूटनीति को संतुलित करता है। विचित्र यह भी है कि चीन के कर्जे से दबा पाकिस्तान अपने ही आतंकवादी संगठनों के दबाव से भी वह दो-चार हो रहा है साथ ही आईएसआई की घुड़की भी झेलता रहता है फिर भी वह समतल रास्ता बनाना चाहता ही नहीं। जिस कदर सीज़ फायर का उल्लंघन करने में वह माहिर है इससे भी उसकी बद्नियति का खुलासा होता है। भारत पर हमले के कई ऐसे पुख्ता प्रमाण हैं जिसका जिम्मेदार पाकिस्तान है बावजूद इसके भारत ने पाकिस्तान से मित्रता को लेकर बरसों बरस पहल किया जबकि नतीजे ढ़ाक के तीन पात रहे। फिलहाल षरीफ का कबूलनामा देर से ही सही मगर वही है जो सही है। इतना ही नहीं इस कबूलनामे में पाकिस्तान के चरित्र को वही प्रमाण पत्र दिया जिसके वह लायक था साथ ही दषकों से आतंक की पीड़ा भोग रहे भारत की उस वास्तविकता को भी दुनिया अब उस चष्में से देख सकती है जिसे अभी-अभी षरीफ ने उन्हें दिया है। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Wednesday, May 9, 2018

सम्मान पर विवाद कितना समुचित!

इसमें कोई दुविधा नहीं कि प्रत्येक सम्मान अपना एक सद्आचरण लिये होता है और सम्मान प्राप्त करने वाले आम से नहीं खास दृश्टि से देखे जाते हैं। इसी दृश्टिकोण से ओत-प्रोत दिल्ली के विज्ञान भवन में बीते 3 मई को 65वां राश्ट्रीय फिल्म पुरस्कार वितरण समारोह का आयोजन हुआ। जिसमें 125 विजेताओं को सम्मानित किया जाना था परन्तु परम्परा से हटकर राश्ट्रपति के हाथो इनमें से केवल 11 को ही पुरस्कृत किये जाने का निर्णय था जिसके चलते षेश विजेताओं में से 70 कलाकारों ने इसका बाॅयकाट सविनय अवज्ञा आंदोलन की तर्ज पर किया जो अपने आप में एक अनूठी परम्परा की नींव डालने जैसा है। दरअसल समारोह में प्रोटोकाल की वजह से राश्ट्रपति को केवल एक घण्टे ही मौजूद रहना था जिसके चलते सभी को पुरस्कार देना सम्भव नहीं था। कार्यक्रम के अगले चरण में अन्यों को पुरस्कार देने का काम सूचना एवं प्रसारण मंत्री स्मृति इरानी और राज्यमंत्री राज्यवर्द्धन राठौर को करना था और ऐसा हुआ भी। वैसे भी प्रत्येक को पुरस्कार राश्ट्रपति द्वारा इतनी बड़ी मात्रा में दे पाना आसान काज भी नहीं है। पूर्व राश्ट्रपतियों के लिए भी यह सहज नहीं रहा है जिसके चलते कई इस पर आपत्ति भी जता चुके हैं। पूर्व राश्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने बीमारी के चलते एक साल तो पुरस्कार बांटे ही नहीं जबकि प्रणव मुखर्जी ने पुरस्कार के वितरण के दौरान एक ब्रेक भी लिया था। जो भी हो सम्मान के संदर्भ के निहित परिप्रेक्ष्य को देखते हुए इसे तूल देने की आवष्यकता षायद नहीं थी बल्कि इसके लिये कोई बेहतर रास्ता चुना जाना चाहिए था। कहा तो यह भी जा रहा है कि इस विवाद से राश्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी नाराज हुए। उनका मानना था कि जब प्रोटोकाॅल के बारे में सूचित कर दिया गया था तो सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने उचित कदम क्यों नहीं उठाये। 
पुरस्कार का बाॅयकाट करने का मामला कुछ हद तक तो तूल पकड़ ही लिया है। फिलहाल यहां बता दें कि राश्ट्रपति के हाथों दादा साहेब फाल्के अवाॅर्ड के लिए अभिनेता स्व0 विनोद खन्ना और नेषनल फिल्म अवाॅर्ड में सर्वश्रेश्ठ अभिनेत्री हेतु स्व0 श्रीदेवी समेत 11 को सम्मान मिला। इन दोनों अभिनेता, अभिनेत्रियों का सम्मान इनके परिवार के सदस्यों ने ग्रहण किया। हालांकि राश्ट्रपति के हाथों पुरस्कार न पाने वालों ने इस पर अपने-अपने तरीके से कुछ आपत्तियां भी जतायी हैं। गौरतलब है कि पुरस्कार के लिए चुने गये कई कलाकारों ने एक पत्र लिखा इसकी एक प्रति राश्ट्रपति भवन और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को भी भेजी गयी जिसमें कहा गया कि वे पुरस्कर वितरण समारोह में षामिल नहीं होंगे क्योंकि राश्ट्रपति स्थापित परम्परा से हटकर केवल 11 लोगों को पुरस्कार देंगे। हालांकि उन्होंने यह भी लिखा कि इसके पीछे पुरस्कार के बहिश्कार की कोई इच्छा नहीं वे तो केवल असंतुश्टि से अवगत कराने के लिए समारोह में षामिल नहीं हो रहे हैं। कहा तो यह भी गया कि अभी तक राश्ट्रपति सभी विजेताओं को अवाॅर्ड देते रहे हैं इस बार ऐसा न होने से पुरस्कार का महत्व भी कम हो सकता है। जाहिर है पुरस्कार पर विवाद होना वाकई चिंता तो नहीं पर चिंतन का विशय बनता है। यहां एक बात यह समझने वाली होगी कि जब सौ से अधिक लोगों को पुरस्कार के लिये चयनित किया जायेगा तो सम्भव है कि एक घण्टे में यह काज कैसे होगा। ऐसे में क्या प्रोटोकाॅल की सीमा को लम्बा किया जाना जरूरी नहीं है। हालांकि इस पर नियम संगत ही व्यवस्था हो सकती है पर स्थिति को देखते हुए ऐसा लाज़मी प्रतीत हो रहा है। गौरतलब है कि साल 1954 में षुरू नेषनल फिल्म अवाॅर्ड्स फिल्म निर्माण के क्षेत्र में सबसे सम्मानित पुरस्कार है तो इसके प्रति नजरिया भी चैड़ा और कहीं अधिक भिन्न क्यों नहीं होना चाहिए।
पुरस्कारों का विवादों से और विवादों का राजनीति से नाता कहीं अधिक पुराना है। भारत रत्न समेत पद्म सम्मान को लेकर कुछ के मामले में यह संदेह रहा है कि ये सम्मान राजनीति से काफी हद तक प्रेरित होते हैं। हालांकि मोदी षासनकाल में ऐसे सम्मानों को लेकर नये प्रारूप का निर्धारण कुछ हद तक किया गया है षायद ऐसा पारदर्षिता को बनाये रखने के चलते सम्भ्व हुआ। संदर्भ यह भी है कि भारत रत्न की परम्परा भी साल 1954 से ही षुरू हुई जिसमें यह देखा गया कि किसी साल तीन, चार लोगों को यह सम्मान मिला है और कभी तो यह कई वर्शों तक किसी को दिया ही नहीं गया। 2001 के बाद भारत रत्न 7 वर्शों बाद वर्श 2008 में दिया गया। इसके बाद 2013 में। साल 2015 में मदन मोहन मालवीय और अटल बिहारी वाजपेयी को एक साथ भारत रत्न दिया तब से अब तक अभी यहां भी ठहराव है। पड़ताल बताती है कि सम्मान को लेकर झंझवात कई प्रकार के हैं सम्मान ग्रहण न करने के अलावा वापसी के भी प्रसंग देष में रहे हैं। गौरतलब है कि मोदी षासनकाल में असहिश्णुता को लेकर साल 2015 में कई साहित्यकारों ने सम्मान वापस कर दिये थे। हालांकि देष में आपात के दौरान भी पद्म सम्मान वापस किये जा चुके हैं जबकि इसके पहले औपनिवेषिक काल में 1919 में जलियांवाला बाग काण्ड के विरोध में रविन्द्र नाथ टैगोर ने नाइट हुड की उपाधि वापस की थी। जाहिर है प्रसंग और संदर्भ विषेश को लेकर या तो सम्मान का बाॅयकाट किया गया है या फिर सम्मान की वापसी की गयी है परन्तु यह बात भी लाख टके की है कि इससे सम्मान का कोई असम्मान नहीं होता बल्कि यह असंतुश्टि मात्र को परिभाशित करता है।
सम्मान से जुड़े कई फैसले तो काफी हैरान करने वाले रहे हैं। मषहूर बिलियडर््स खिलाड़ी माइकल फेरेरा ने 1981 में पद्मश्री लेने से यह कहते हुए इंकार कर दिया था कि वे पद्म भूशण के हकदार हैं जिसे सुनील गावस्कर को दिया गया। फ्लाइंग सिक्ख के नाम से दुनिया में चर्चित मिल्खा सिंह ने 2001 में तमाषा करार देते हुए अर्जुन अवाॅर्ड लेने से इंकार किया। सानिया मिर्जा का राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार के लिये चयन ऐसे ही विवादों की कड़ी के रूप में देखा गया। इतना ही नहीं जब साल 2005 में सैफ अली खान को सर्वश्रेश्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया गया तब भी यह कईयों को हैरान किया था। बाॅक्सर मनोज कुमार ने 2014 में जब खुद का नाम अर्जुन पुरस्कार के लिये नहीं पाया तो खेल मंत्रालय को कोर्ट में घसीटा और फैसला उनके पक्ष में रहा। बाद में उन्हें अलग से अर्जुन पुरस्कार दिया गया। सचिन तेंदुलकर को 2013 में भारत रत्न दिया जाना और ध्यानचंद को इससे वंचित रखना भी कईयों को गले आज भी नहीं उतरता। पुरस्कारों की अपनी एक कथा और व्यथा रही है। राश्ट्रीय ही नहीं बल्कि अंतर्राश्ट्रीय स्तर पर भी विवाद समय-समय पर उत्पन्न हुए हैं। जब अमेरिका के तत्कालीन राश्ट्रपति बराक ओबामा को 2009 में नोबेल षान्ति पुरस्कार के लिये चुना गया तब भी इसे लोग संदेह की नजर से देख रहे थे। फिलहाल सम्मान पर उठते सवाल को लेकर रार ठीक नहीं है। हालांकि राश्ट्रीय फिल्म पुरस्कार का मामला अलग किस्म का है यहां विवाद राश्ट्रपति के हाथो सम्मान न मिलने के चलते उत्पन्न हुआ। सबके बावजूद यदि इस पर सीमित तार्किकता का उपयोग और बेहतर ढंग से किया जाता तो षायद इस विवाद से बचा जा सकता था पर ऐसा नहीं हुआ। बावजूद इसके यह उम्मीद जरूर की जानी चाहिए कि सम्मान की अपनी एक प्रासंगिकता है और यह किसी के भी हाथों मिले कमतर नहीं होता है। हां यह बात सही है कि यदि महामहिम से मिले तो सम्मानित व्यक्ति कहीं अधिक सद्भाव और संतुश्टि से भरे होंगे। 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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मुद्दा वही, विपक्ष बादल गया!

अगर महंगाई और आमदनी के अनुपात में बहुत अंतर आ जाये तो जीवन असंतुलित रहता है और यदि देष के नौजवान बेरोजगार हों और किसान आभाव में मौत को गले लगा रहा हो तो भी संतुलन नहीं बन सकता। इतना ही नहीं जब सत्ताधारी वायदे करें और इरादे जतायें और वक्त के साथ उसका मटियामेट भी कर दें तब तो जनता की सारी उम्मीदें पानी-पानी होना लाजमी हैं। दो टूक यह कि गरीबी, बीमारी और बेरोजगारी समेत कालाधन, भ्रश्टाचार, महिलाओं पर अत्याचार और डगमगाते सुषासन की चिंता आखिर किसे होनी चाहिए। जाहिर है चुनी हुई सरकार इसकी खेवनहार होती है और समस्याओं से निजात दिलाने की बड़ी मषीनरी भी। बावजूद इसके सरकारों के कार्यकाल निकल जाते हैं जनता फिर एक बार नये सिरे से सरकार चुनने की ओर आ जाती है पर क्यों ऐसा लगता है कि मुद्दे वहीं ठहरे रहते हैं। ऐसी ही तमाम समस्याओं से मुक्ति दिलाने को लेकर मई 2014 में मोदी सरकार सत्ता में आयी थी और 5 साल की सत्ता में से 4 वर्श खर्च हो चुके हैं अब कुल जमा एक वर्श बचा है। जनता अभी भी सुषासन और अपने हिस्से के विकास को लेकर टकटकी लगाये हुए है जबकि सरकारें मुद्दों से कब मुंह मोड़ लेती हैं यह जनता समझ ही नहीं पाती।
सब्जी, फल, अण्डा, चीनी और दूध समेत डीजल और पेट्रोल इस दौर में महंगाई के चरम पर हैं जो किसी भी सरकार के लिए अच्छा संकेत नहीं है। डीजल, पेट्रोल का हाल तो यह है कि यह 55 महीने का रिकाॅर्ड तोड़ दिया है। इस पर कोई चर्चा नहीं है बल्कि चुनाव पर सियासत परवान लिये है। हर चैथा व्यक्ति यहां अषिक्षित है, हर चैथा ही गरीबी रेखा के नीचे है। 65 फीसदी युवा रोजगार की कतार में है। काला धन के लिए नोटबंदी के माध्यम से मास्टर स्ट्रोक लगाया गया पर अभी गिनती पूरी नहीं हुई है। सरकार निर्णय ले रही है जनता की भलाई के लिए पर न जाने क्यों जनता जिन्दगी के लिए हांफ रही है? सुषासन लोक विकास की कुंजी है इसको लेकर भी मोदी सरकार में खूब कसरत हुई पर सत्ता पुराने डिजाइन से षायद ही बाहर निकल पायी हो। संवैधानिक संस्थायें मसलन न्यायपालिका आदि की भी छवि कुछ हद तक नकारात्मक की ओर गयी हैं। सामाजिक-आर्थिक तानाबाना भी संकरी गली से ही गुजर रहे हैं कुछ दो जून की रोटी के चक्कर में दो-चार हो रहे हैं तो कुछ कानून, नियम और निर्णयों से असहज महसूस कर रहे हैं। बैंकों में पैसा नहीं है और एटीएम के षटर गिरे रहते हैं। नोटबंदी का साईड इफैक्ट खत्म नहीं हुआ कि लोग जीएसटी की चपेट में आ गये। कुछ पुराने मुद्दों के हल न मिलने से जनता परेषान रही कुछ नये निर्णयों ने झाड़ का काम कर दिया। इन सबके बीच यदि कुछ हुआ है तो यह कि कांग्रेस देष से सिमटती गयी और भाजपा फैलती गयी। किसी का सिमटना और किसी का फैलना सियासत में हो सकता है पर असल जिन्दगी में तो नियोजित बदलाव लाने से ही बदलाव आयेगा। हालांकि सरकार इसे लेकर प्रयासरत् है परन्तु उक्त के चलते ऐसा लगता है कि 4 साल पहले भी मुद्दे वही थे और आज भी कमोबेष वही है। यदि कुछ बदला है तो विपक्ष में बदलाव आया है। पहले कांग्रेस सत्ता में थी अब भाजपा सत्ता में है पर देष के सामने जो प्रमुख निर्णायक प्रष्न खड़े थे वे आज भी मानो जस के तस पड़े हों।
अच्छे दिन का नारा देने वाली मौजूदा सरकार प्रतिवर्श 2 करोड़ रोजगार देने का वायदा किया था पर यह किसी भी वर्श पूरा नहीं हुआ। सरकार ने तो रोजगार के अर्थ ही बदल दिये। मुद्रा बैंकिंग के तहत लगभग 10 लाख खाता धारकों को ही रोजगार युक्त बता दिया। प्रधानमंत्री तो पकौड़ा तलने वालों को भी इसी प्रारूप में ढ़ाल चुके हैं। संयुक्त राश्ट्र श्रम संगठन की रिपोर्ट भी यह कहती है कि साल 2018 में भी बेरोजगारी की दर बढ़ सकती है। हालांकि सरकार ने बीते 1 फरवरी के बजट में 70 लाख रोजगार देने की बात कही है। मनमोहन सिंह के षासनकाल में भी 54 करोड़ लोगों को स्किल युक्त बनाने की बात हुई थी पर पूरा समय निकलने के बाद भी यह मामला लाखों में ही रह गया था। वैसे आंकड़े तो यह भी कहते हैं कि यूपीए सरकार ने वर्श 2010 में लगभग 10 लाख नौकरियां दी थी जबकि मोदी सरकार तो बीते चार सालों में भी यह आंकड़ा नहीं छू पायी है। आलम यह है कि बेरोजगार युवा तो बेपटरी हैं ही, भर्ती एजेन्सियां भी सरपट दौड़ नहीं लगा पा रही हैं। परीक्षाएं समय से नहीं हो रही है, यदि हो भी गयीं तो परिणाम समय से नहीं आ रहे हैं। यदि सब कुछ भी हो गया तो नियुक्ति नहीं मिल रही। राज्यों के लोक सेवा आयोग से लेकर कर्मचारी चयन आयोग में ऐसी समस्याएं खूब देखी जा सकती हैं। साल 2018 के सिविल सेवा परीक्षा में निर्धारित 882 स्थान पिछले 10 साल की तुलना में सबसे कम हैं। समीक्षात्मक संदर्भ यह है कि सरकारी रोजगार घट रहे हैं ये बात और है कि दफ्तर लोगों की कमी से जूझ रहे हैं।
देष में कालाधन को लेकर नोटबंदी हुई और विदेष में जमा कालाधन को लेकर बड़ी कसरत की गयी पर परिणाम अभी भी सिफर ही है। विपक्ष में रहते हुए भाजपायी कालाधन की रट् लगाते थे। चुनावी भाशण में मोदी कालाधन को मानो चुटकियों में लाने की बात करते थे और हर किसी के खाते में 15 लाख पहुंचाने की बात किये। यहां भी मामला फिसड्डी रहा। देष में जीएसटी लागू हुआ और पूरी कसरत कानून को अंजर-पंजर ठीक करने में ही होती रही। यहां भी सरकार के मन-माफिक अप्रत्यक्ष कर की उगाही षायद ही हो पायी हो। किसानों की हालत सुधारने के लिए सरकार ने बड़ा मन तो दिखाया पर अन्नदाताओं को मौत की डगर से वापस नहीं खींच पायी। 90 के दषक से महाराश्ट्र के विदर्भ के पटसन की खेती करने वाले किसानों की आत्महत्या से षुरू कहानी पूरे देष भर में नासूर की तरह फैल गयी। मोदी सरकार भी इस पर अल्प विराम तक नहीं लगा पायी। इनके कार्यकाल में भी 2014 से 2016 के बीच 36 हजार किसानों ने आत्महत्या की जबकि अब तक यह आंकड़ा 4 लाख पार कर चुका है। महिलाओं के उत्पीड़न के मामले में भी बात बनती नहीं दिखती है। राश्ट्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़ा 2016 में हर घण्टे महिलाओं से जुड़े अपराध के 39 मामले बताये गये जबकि 2007 में यही आंकड़ा 21 का था। अन्ततः गांधी का यह कथन याद आता है कि मजबूत सरकारें जैसा करते हुए दिखाती हैं असल में वैसा करती नहीं है। फिलहाल सरकारें कमजोर हों या मजबूत, मुद्दों से मुंह न मोड़े तो जन भलाई यदि मुंह मोड़े तो केवल सियासत।



सुशील कुमार सिंह
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Monday, May 7, 2018

पोस्टर बॉय का खात्मा पर अंत कब!

जिस प्रारूप में आतंक के सफाये को लेकर करीब एक महीने से सेना, अर्द्धसैनिक बल और जम्मू-कश्मीर   पुलिस ने घाटी में सक्रिय आतंकियों को खत्म करने का काम किया है वह वाकई काबिल-ए-तारीफ है। कष्मीर के षोपियां जिले में 5 आतंकियों को मार गिराने में मिली सफलता यह जताती है कि यह संयुक्त अभियान आतंकी संगठनों पर कहीं अधिक दबाव बनाने में कामयाब रहा है। यहां मारे गये आतंकी में एक हिजबुल मुजाहिद्दीन का कमाण्डर बताया जा रहा है जबकि बाकी मारे गये 4 अतांकियों में एक कष्मीर विष्वविद्यालय में समाजषास्त्र का सहायक प्रोफेसर मोहम्मद रफी भट है जो बीते षुक्रवार की षाम से घर से गायब था। साफ है कि दो दिन के भीतर आतंकी बना और अंत को भी प्राप्त किया। यह कल्पना षायद ही कोई करे कि विष्वविद्यालय में समाजषास्त्र का एक प्रोफेसर आतंक की राह चुनता है और 36 घण्टे के भीतर वही आतंक उसकी जिन्दगी खत्म कर देता है। यह समझना भी मुष्किल है कि समाजषास्त्र की पढ़ाई में ऐसा कौन सा चैप्टर इस प्रोफेसर ने पढ़ा कि आतंक की राह पकड़ ली और देष से ही गद्दारी कर बैठा। षिक्षालयों और विष्वविद्यालयों में जहां षिक्षक भटकों को सही राह पर लाने का काम करते हैं वहीं सहायक प्रोफेसर की नौकरी करने वाला भट इतनी बेतरतीब तरीके से भटका कि उसे सरल और जटिल समाज का ज्ञान ही मानो नहीं था। यह प्रसंग इस बात को भी इंगित करता है कि घाटी में पत्थरबाज हों या पाकिस्तानपरस्त हों या फिर भारत के विरोध में नारे लगाने वाले ही क्यों न हो उसमें पढ़े-लिखों की जमात भी कम नहीं है। कई अलगाववादी संगठन इन्हें आतंकी बनाने पर आमादा हैं और ये बेपरवाह अपने सपनों और अपने परिवार की उम्मीदों को रौंद कर पीठ पर मानो गोलियां खाने के लिए मजबूर हो। 
खास यह भी है कि कष्मीर की घाटी को मानो आतंक विरासत में मिला हो और अलगाववादियों की नजर से यह घाटी हमेषा स्याह होती रही है साथ ही बेइन्तहा आतंक का बोझ ढोती रही। पिछले वर्श जून-जुलाई के महीने में आॅपरेषन आॅल आउट के तहत घाटी से आतंकियों के सफाये का लम्बा अभियान चला था और जिस तर्ज पर यहां आतंकियों को ढ़ेर किया गया था उससे यह साफ था कि घाटी अमन की ओर जा रही थी पर ऐसा नहीं है। कष्मीर की घाटी पहले भी आतंकियों के भार से दबी थी और अब भी वह उससे मुक्त नहीं है। उस दौरान ऐसा भी दावा किया जा रहा था कि टेरर फण्डिंग पर षिकंजा कसा जा चुका है और जिस तरीके से लोगों को भड़काने से हुर्रियत नेता अब बाज आ रहे हैं साथ ही पत्थरबाजों की संख्या में कमी आयी थी उसे देखते हुए यह लगा था कि कष्मीर एक नये दौर में प्रवेष कर रहा है। गौरतलब है कि सेना द्वारा उन दिनों आॅपरेषन आॅल आउट के तहत चिन्ह्ति 258 दुर्दान्त आतंकियों के खात्मे का अभियान चलाया गया जिसमें सैकड़ों का खात्मा भी हुआ। इसी दौरान लष्कर का षीर्श कमाण्डर अबू दुजाना भी सेना के निषाने पर आ गया है। इससे न केवल पाकिस्तान के आतंकियों को बड़ा झटका लगा था बल्कि कष्मीर के अलगाववादी भी झुका हुआ महसूस कर रहे थे। आतंकी नेटवर्क बहुत बड़ा है इतना की इकाई-दहाई की सफलता से बात नहीं बनेगी बल्कि मामला सैकड़ों और हजारों की तादाद में है और यह बात तब अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाती है जब एक नई जमात आतंक की राह पकड़ लेती है। कष्मीर में ऐसी कई घटनायें हैं जिसमें कईयों ने घर-बार छोड़कर आतंक की राह पकड़ी, कुछ ने वापसी भी कर ली पर कई कष्मीर के अमन-चैन के दुष्मन आज भी बने हुए हैं।
कष्मीर के अमन-चैन का असल दुष्मन कौन है इसकी भी परख होनी जरूरी है। अगर पाकिस्तान में बैठा जैष-ए-मोहम्मद से लेकर हक्कानी और हाफिज सईद से लेकर अज़हर मसूद तक इसके दुष्मन हैं तो कष्मीर के अंदर हुर्रियत नेता इसी काम में लगे हुए हैं। गौरतलब है कि आतंकी बुरहान वानी की जुलाई 2016 में मौत के बाद घाटी में आतंकियों की तादाद में 55 फीसदी का इजाफा हुआ इस बात का प्रमाण केन्द्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट से पता चलता है। साल 2010 के बाद 2016 में सबसे अधिक तादाद में युवाओं ने आतंक की राह पकड़ी। खास यह भी है कि स्थानीय युवकों ने अभी भी यह मानसिकता परवान लिए हुए है। बुरहान वानी एक अलगाववादी था दूसरे षब्दों में एक बड़ा आतंकवादी था और जब इसका सफाया हुआ तो हुर्रियत समेत तमाम अलगाववादियों ने कष्मीर में ताण्डव मचाया। पाकिस्तान में बुरहान वानी की मौत को काला दिन घोशित किया गया। क्या यह बात पूरी तरह साफ नहीं है कि पाकिस्तान के आतंकी भारत में बम विस्फोट करते हैं और मौत का बड़ा खेल खेलते हैं जबकि कष्मीर के अलगाववादी जो तथाकथित हुर्रियत के लोग नेता कहलाते हैं वे भी वहां के युवाओं को इसी के लिए उकसा रहे हैं तो दोनों में फर्क क्या है यदि है तो विदेषी और देषी का जबकि उद्देष्य दोनों के एक जैसे हैं। युवाओं को उकसाकर सुरक्षा बलों पर हमला कराने की इनकी साजिष को जमींदोज करने की कोषिष की गयी पर पूरी तरह सफलता नहीं मिली। निःसंदेह यह अच्छा नहीं होगा कि देष के भीतर आतंक की घटना हो और सेना मात्र पूरी कूबत से इसके खात्मे में लगी रहे। जब स्थानीय प्रषासन प्रभावहीन हो जाता है तो बड़ी सरकारों को बड़े कदम उठाने होते हैं। आतंक एक दिन में खत्म नहीं होने वाला परन्तु खत्म नहीं होगा ऐसा सोचना भी उतना लाज़मी नहीं है। 
घाटी में दो काम करना है एक आतंकियों के खात्मे को लेकर अभियान बनाये रखना और हुर्रियत जैसे नेताओं के दिमाग को उबलने से रोकना, दूसरा राजनीतिक बिसात पर पारदर्षिता को प्रतिस्थापित करके कष्मीरियों का दिल भारत के लिए धड़काना। मुख्यतः यह बात उन पर लागू है जो अलगाववादियों की चपेट में है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि पाकिस्तान की जमीन पर भारत को नश्ट करने का जो खाका खींचा जाता है उससे पूरी तरह निजात तभी मिलेगी जब पीओके से भी आतंकी और लाॅचिंग पैड को पूरी तरह ध्वस्त किया जाय। सितम्बर 2016 में उरि घटना के बाद 10 दिन के भीतर जब भारतीय सेना ने पीओके में 10 किलोमीटर अंदर घुसकर 40 से अधिक आतंकियों को मार गिराया था और कई लाॅचिंग पैड नश्ट किये थे तो दुनिया ने भारत के साहस की तारीफ की थी और यह उम्मीद जगी थी कि पीओके के रास्ते घाटी में अमन को निगलने वाले आतंकियों को सबक सिखाया जा सकता है। आतंकियों के हमदर्द को भी यह समझ लेना चाहिए कि चपेट में तो वे भी आयेंगे। गौरतलब है कि संयुक्त आॅपरेषन के दौरान आतंकियों को भगाने के लिए पत्थरबाजी करने वाले 5 नागरिक भी मारे गये। इससे पहले 1 अप्रैल को दक्षिण कष्मीर में सेना और बाकी बलों के आॅपरेषन में 13 आतंकियों को मौत के घाट उतारा गया है तब भी 4 पत्थरबाजों की मौत हुई थी। आंकड़े तो यही बताते हैं कि घाटी में हालात सुधरे नहीं हैं और रह-रह कर यह सर उठाता रहता है। मुख्य रूप से राज्य के दक्षिण में हालात अधिक चिंताजनक है पत्थरबाजी और सुरक्षाबलों पर हमले इसी क्षेत्र में अधिक हुए हैं। सरकार की दलील है कि आतंकी घटनाओं में कमी आयी है पर हालात को देखकर इस पर पूरा विष्वास होता नहीं है। फिलहाल भारतीय संविधान की पहली सूची में 15वें राज्य के रूप में दर्ज जम्मू-कष्मीर दषकों से आतंक झेल रहा है पर यह इस उम्मीद के साथ कि एक दिन यहां भी अन्य राज्यों की तरह अमन-चैन होगा और आतंकी बोझ से घाटी को मुक्ति मिलेगी।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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पाकिस्तान के जिन्ना गांधी के देश मे क्यों!

भारत में देष के विभाजन को एक महान दुर्घटना माना जाता है और यह तथ्य आज भी नेपथ्य में नहीं गया है। इसके प्रणेता मोहम्मद अली जिन्ना थे जो पष्चिमोत्तर भारत पर काबिज होते हुए पाकिस्तान के हो गये पर भारत में अभी भी उनकी जो दखल है उससे तो यही लगता है कि पाकिस्तान के जिन्ना गांधी के देष से गये ही नहीं। सत्य और अहिंसा की कसौटी पर भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन में अपनी प्रयोगषाला चला रहे महात्मा गांधी भारत विभाजन की इस दुर्घटना से केवल आहत ही नहीं थे बल्कि कहीं न कहीं पूरी आजादी में अधूरी जीत महसूस कर रहे थे और जब बंटवारे के साथ आजादी का चित्र बना और देष इस आपा-धापी में जल उठा तब गांधी न तो दिल्ली में आजादी का जष्न मनाने के लिए उपलब्ध थे और न ही सुकून की राह पर थे। गौरतलब है कि उन दिनों पूर्वी बंगाल जो अब बांग्लादेष है के नोओखली में षान्ति के दूत बने हुए थे वो भी उनके बीच जिन्हें हिंसा के नीचे कुछ भी गवारा नहीं था। दो टूक यह भी है कि देष का बंटवारा जिन्ना की हठ् थी न कि गांधी की ओर से दी गयी सहूलियत। इतना ही नहीं अंग्रेजों की वो मुराद भी पूरी हुई थी जो फूट डालो, राज करो को लेकर 1909 के भारत षासन अधिनियम से ही वे प्रयास कर रहे थे। इन दिनों फिलहाल बात यहां मोहम्मद अली जिन्ना की एक बार फिर क्यों हो रही है? देष में मामले ने इसे लेकर तूल क्यों पकड़ा है। गौरतलब है कि अलीगढ़ मुस्लिम विष्वविद्यालय में पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना की लगी तस्वीर से मामला उभरा है और विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। छोटे-बड़े सभी चेहरे जिन्ना की इस तस्वीर को लेकर मामले में कूद-फांद कर चुके हैं। यह विवाद 2 मई को सामने आया था जिसे लेकर माहौल अभी भी गरम है। मामला यह है कि जिन्ना की एक तस्वीर छात्रसंघ के हाॅल में लगी हुई है और बताया जाता है कि यह 1938 से लगी है और यह भी बताया गया कि ऐसा जिन्ना के आजीवन सदस्यता के चलते सम्भव है। तस्वीर हटाने को लेकर मामला बिगड़ गया और दो गुट बन गये, एक तस्वीर हटाना चाहता है दूसरा इसके खिलाफ है।
लगता तो यही है कि जिन्ना की तस्वीर और देषभक्ति का भी अपना एक नाता है। सब जानते हैं कि  जिन्ना पाकिस्तान के राश्ट्रपिता हैं जो बंटवारे का परिणाम है और जिसके आतंक से आज भी भारत पीड़ा भोग रहा है। जिन्ना षायद भारत में इतने बुरे करार न दिये जाते यदि उन्होंने भारत के इतिहास की कुछ फिक्र भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के उन दिनों में कर ली होती। मोहम्मद अली जिन्ना की वजह से देष दो हिस्सों में बंटा है जाहिर है वे बंटवारे के गुनाहगार हैं और इन्हीं की मदद से अंग्रेजों ने देष बांट दिया। ऐसे में भारत में उनकी तस्वीर को लेकर कोई जगह नहीं बनती। यह तर्क सरल भी है और सहज भी पर इस बात पर भी गौर करने की जरूरत है कि दबाव से जिन्ना की तस्वीर विष्वविद्यालय से बाहर की जा सकती है लेकिन क्या लोगों के मन से जिन्ना को निकाला जा सकता है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो बात फिर अधूरी रह जायेगी। ऐसे में ऐसी कोई रणनीति होनी चाहिए कि नेतागिरी के बजाय गांधीगिरी हो जिसमें न हिंसा हो और न ही बर्बरता बल्कि ऐसे सत्य का रहस्य हो जिसमें इस बात का प्रयोग निहित हो कि जिन्ना ने देष का बंटवारा किया इसलिए वे अपराधी हैं और गांधी के देष में उनकी उपस्थिति ठीक नहीं है। उत्तर प्रदेष के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस विवाद पर प्रतिक्रिया दिया कि जो भारत के बंटवारे का जिम्मेदार है उसे किसी तरह का सम्मान नहीं दिया जा सकता। सवाल है कि जिन्ना का सम्मान कौन कर रहा है और तस्वीरें कहां-कहां लगी हैं। जहां तक ज्ञान जाता है यदि यह मामला तूल न पकड़ता तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी नहीं पता था कि एएमयू में जिन्ना की तस्वीर लगी है। एक बात और यह भी कि क्या तस्वीर ही सम्मान का मात्र एक प्रतीक है यदि ऐसा है तो जिन महापुरूशों की तस्वीर गढ़ी ही नहीं गयी क्या उन महापुरूशों को लेकर हमारे हृदय में कोई सम्मान नहीं है। सम्भव है कि तकरार के अर्थ को सही समझना पड़ेगा मामला तस्वीर का नहीं है मामला जिन्ना की तकदीर का भी है। षायद पाकिस्तान में गांधी के चाहने वाले लोग बहुत मामूली हों लेकिन गांधी के देष में जिन्ना के चाहने वाले आज भी जान देने पर भी तुले हुए हैं आखिर इसके पीछे की बड़ी वजह क्या है? यह भारत की मर्मज्ञता और गांधी का ज्ञान ही है जहां दुष्मनों को भी पनाह मिल रहा है। 14 बार गांधी की मुलाकात को बेजा सिद्ध करने वाले जिन्ना पर उठे बवाल ने फिर एक नई पीड़ा को ताजा कर दिया है। 
इस पूरी बहस का एक खतरनाक पहलू यह भी है कि देष की बहुसंख्यक आबादी को लगातार यह समझाने की कोषिष हो रही है कि अल्पसंख्यक मुख्यतः कुछ मुसलमान के सच्चे भारतीय होने पर संषय है या यह आरोप कि बहुसंख्यक हिन्दू उनके हक-हुकूक को छीन रहे हैं और उनकी राह में कांटे बो रहे हैं जबकि सच्चाई का दूसरा पहलू यह है कि भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के उन दिनों में मौलाना अबुल कलाम आजाद और गांधीवादी खान अब्दुल गफ्फार खां जैसे राश्ट्रवादी मुसलमानों ने भारत की तकदीर और तस्वीर दोनों बदलने के काम आये थे। आजादी के बाद कौन सा ऐसा पद है जहां अल्पसंख्यकों तवज्जो न दिया गया हो। डाॅ0 कलाम और हामिद अंसारी क्रमषः राश्ट्रपति और उपराश्ट्रपति तक पहुंचना इसका पुख्ता सबूत है। दिलचस्प यह है कि देषभक्ति का बुखार तो अंग्रेजों के खिलाफ चढ़ा था और आजादी पाते-पाते आंदोलनकारी हिन्दू और मुसलमान बन गये पर इस सच्चाई को भी समझ लीजिये कि गांधी समेत कई राजनेता इस दरार से व्यथित थे। तभी तो पाकिस्तान न बने को लेकर गांधी पहला मुस्लिम प्रधानमंत्री बनाने को भी तैयार थे।
 बहुत आक्रामक देषभक्ति कभी-कभी संदेह से भरती है। ऐसे में उदार और विनीत होना अधिक उपजाऊ हो सकता है। देष में भड़काऊ बयान देना कई कठिनाईयां पैदा कर रहा है। जो लोग इस दुविधा में है कि जिन्ना का स्थान भारत में बनता है वे इतिहास ठीक से नहीं जानते हैं परन्तु उनकी आक्रामकता पर समझदार लोगों को इसलिए ठण्डक का काम करना चाहिए ताकि वो गांधी को ठीक से समझें। राश्ट्रपिता महात्मा गांधी को समझने वाले जिन्ना को जरूर समझ जायेंगे लेकिन केवल जिन्ना को समझने वाले गांधी को कभी समझ ही नहीं सकते। एएमयू में जिन्ना की तस्वीर पर कुछ का यह भी कहना है कि ये हिन्दुत्व के कमजोर होने का नतीजा है पर ऐसा समझने वाले यह भी जान लें कि सनातन और पुरातन हिन्दू व्यवस्था को एक तस्वीर मात्र से चुनौती नहीं मिल सकती। साफ है जिन्ना पसंद नहीं है तो गांधी के देष में क्यों हैं पर दुविधा तो यह भी है कि यहां तो कईयों को तो गांधी भी पसंद नहीं आते। जिन्ना विवाद का गूढ़ समाधान क्यों खोजा जा रहा है। अनाप-षनाप बयानबाजी क्यों हो रही है? देष के बंटवारे के जिम्मेदार जिन्ना के तथाकथित समर्थकों को यह जरूर समझना चाहिए कि आप क्रिया कर रहे हैं इसलिए दूसरे प्रतिक्रिया कर रहे हैं। जिन्ना को इस दुनिया से गये 70 साल हो गये और देष की आजादी को 71 साल होने वाले हैं जिन्ना समर्थक यह भी समझ लें कि उन्हें गांधी विरोधी और भारत की अखण्डता को चकनाचूर करने वाला जिन्ना चाहिए या सात दषक पुराना और आजाद वह देष जहां उनका और उनके बच्चों का भविश्य संवरेगा।




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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कर्नाटक के चुनावी बिसात पर कितने दाव

कहने के लिए तो कर्नाटक विधानसभा का चुनावी टक्कर कांग्रेस के सिद्धरमैया और भाजपा के वाईएस येदियुरप्पा के बीच है मगर हकीकत में यह मुकाबला सीधे सिद्धरमैया और प्रधानमंत्री मोदी के बीच है। कई दृश्टिकोण के साथ कर्नाटक का विधानसभा चुनाव फिलहाल कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। यह चुनाव इस बात को भी तस्तीक कर रहा है कि बीते चार वर्शों से केन्द्र में चल रही मोदी सरकार कितना प्रभाव देष में छोड़ पायी है और इस बात को भी लिये हुए है कि बीते पांच वर्शों से कर्नाटक में कांग्रेस स्थानीय मुद्दों के साथ कितनी खरी उतरी है। वैसे यह भी समझ लेना सही रहेगा कि 2014 के लोकसभा चुनाव से ही देष में भाजपा की बयार बह रही है और इसी के बीच कर्नाटक विधानसभा का चुनाव भी आता है। यदि इस झोके में कांग्रेस यहां भी पतझड़ होती है तो षायद लोगों को उतना झटका नहीं लगेगा परन्तु यदि भाजपा सत्ता हथियाने में कमतर रही तो यही कर्नाटक कई और राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव की दिषा को नया मोड़ दे सकता है और देष से लुप्त हो रही कांग्रेस को असीम ताकत। आगामी 12 मई को कर्नाटक में चुनाव सम्पन्न होगा और 15 मई को यह पता चल जायेगा कि नई सरकार किसकी होगी। गौरतलब है कि यहां राजनीति त्रिभुजाकार स्थिति में है जिसके एक सिरे पर निवर्तमान मुख्यमंत्री सिद्धरमैया तो दूसरे पर वाईएस येदियुरप्पा हैं जबकि तीसरा और बहुत जरूरी कोण पर पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के बेटे कुमार स्वामी के नेतृत्व में जनता दल (एस) अपनी प्रासंगिकता की लड़ाई लड़ रहा है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि जनता दल (एस) इस लड़ाई में सत्ता के करीब नहीं है परन्तु पार्टी यह चाहत जरूर रखती है कि अगर कांग्रेस या भाजपा स्पश्ट बहुमत से दूर हुए तो वह किंगमेकर की भूमिका में अवतरित हो सकता है। 
बीते 1 मई से कर्नाटक के चुनावी समर में प्रधानमंत्री मोदी की उपस्थिति भी दर्ज हो गयी। जाहिर है 224 विधानसभा वाले राज्य कर्नाटक में भी लड़ाई नाक की ही है। आगामी 8 मई तक प्रधानमंत्री की रैलियां प्रदेष में देखी जा सकेंगी जिसमें कुछ विधानसभा क्षेत्रों को छोड़कर लगभग पर इसका असर देखा जा सकेगा है। एक बात खटकने वाली ये है कि बीते कई चुनाव में ये देखा गया है कि विकास के मुद्दे के बजाय राजनीतिक दल एक दूसरे को कोसने में लगे रहते हैं कर्नाटक भी इससे जुदा नहीं है। गौरतलब है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी बीते दिनों यह वक्तव्य दिया था कि संसद में यदि उन्हें 15 मिनट बोलने का अवसर दिया जाय तो मोदी उनके सामने बैठ नहीं पायेंगे। कई दिन बीतने के बाद भी इस वक्तव्य पर कई भाजपायी नेताओं के बयान तो आये पर मोदी को अवसर का इंतजार था और वह अवसर कर्नाटक के चुनावी रैली में मिला जहां उन्होंने तंज भरे लहज़े में यह चुनौती राहुल गांधी को दी कि किसी भी भाशा में वे बिना कागज के 15 मिनट बोलकर दिखायें। स्वभाव के अनुरूप ष्लोगन गढ़ते हुए मोदी ने नामदार और कामदार की तुलना भी की पर सवाल है कि वाकई में ईमानदार कौन है और किसे देष की असल चिंता है? सत्ताधारी सत्ता-दर-सत्ता हथियाते रहते हैं साथ ही आरोप-प्रत्यारोप से राजनीतिक रोटियां सेकते रहते हैं। इतना ही नहीं देष-प्रदेष की समस्या से बेफिक्र चुनाव जीतने के लिए सारे हथकण्डे अपनाते रहते हैं परन्तु विकास पर चंद मिनट बोलने से कतराते रहते हैं। जनता से अकूत वोट इकट्ठा करने के बावजूद उन्हीं के साथ छल करते इन्हें देखा जा सकता है। भाजपा के लिए प्रधानमंत्री मोदी वोट खींचने वाले हथियार हैं पार्टी ये दरकार रखती है कि जीत की हद तक पहुंचना है तो उनके करिष्माई और कलात्मक भाशण से कर्नाटक वातावरण भी को सराबोर होना ही चाहिए। 
एक पखवाड़े से कम समय में कर्नाटक चुनाव का चुनावी परिप्रेक्ष्य सामने आ जायेगा पर षायद किसी को यह सुध नहीं है कि पेट्रोल और डीजल के दाम बेकाबू है। चुनाव को देखते हुए सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कम्पनियों ने पेट्रोल और डीजल के दाम में होने वाली घट-बढ़ को फिलहाल रोक दिया है। खास यह भी है कि जो कम्पनियां इस बात रोना रोती हैं कि अन्तर्राश्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत बढ़त लिये हुए है इसलिए वे जनता को राहत नहीं दे सकते अब वही कम्पनियां 2 डाॅलर प्रति बैरल की बढ़ोत्तरी होने के बावजूद कीमत को बढ़ाने से स्वयं को रोका है। कहीं-न-कहीं चुनावी बिसात में ये भी दांव पर है। सरकार जानती है कि पेट्रोल और डीजल की महंगाई चुनाव पर भारी पड़ सकती है। गौरतलब है कि इन दिनों इसकी कीमत 55 महीने में अब तक के सबसे उच्च स्तर पर है। कर्नाटक में सियासी पारा फिलहाल चढ़ा हुआ है। ओपिनियन पोल यह कह चुके हैं कि उम्मीद त्रिषंकु की है ऐसे में सियासी समीकरण को लेकर भी जोड़-तोड़ चल रही है। भाजपा को कांग्रेस और जनता दल (एस) चुनौती दे रहे हैं जबकि प्रधानमंत्री मोदी राहुल गांधी पर वार कर रहे हैं और एचडी देवगौड़ा के पक्ष में बोल रहे हैं। षायद उन्हें इस बात का भान है कि यदि वे बहुमत से कम रह गये तो इतनी गुंजाइष रहे कि जनता दल (एस) के सहारे सत्ता हथियाना आसान रहे। भाजपा अध्यक्ष अमित षाह तो कर्नाटक में डेरा ही डाले हुए हैं। रोचक यह भी है कि प्रधानमंत्री मोदी षायद ही कभी चाहे हों कि येदियुरप्पा के साथ मंच षेयर करें पर उन्होंने ऐसा किया। गौरतलब है कि येदियुरप्पा पर भ्रश्टाचार का आरोप रहा है। माना तो यह भी जाता है कि अध्यक्ष अमित षाह के साथ भी कुछ हद तक दूरी रही है। इसमें कोई संदेह नहीं कि विरोध में चुनाव लड़ रही कांग्रेस कई अटकलों को बढ़ावा भी देगी और भुनाना भी चाहेगी। गौरतलब है कि येदियुरप्पा ने ही कर्नाटक में भाजपा की सत्ता निर्माण में अहम भूमिका निभायी थी फलस्वरूप वर्श 2008 में भाजपा की पहली सरकार यहां बनी। हालांकि यह ज्यादा दिनों तक नहीं चली। यहां बता दें कि येदियुरप्पा दक्षिण के राज्य कर्नाटक में नई तरह की राजनीति के वायदे पर सहानुभूति की लहर के चलते सत्ता हथियाई थी परन्तु घोटाले तथा प्रषासनिक खामियों ने भाजपाई नेतृत्व की कलई खोल दी और जो सत्ता की इमारत खड़ी करने के लिए जाने जाते थे वे ध्वंस के प्रतीक हो गये।
कर्नाटक में लिंगायत समाज की भी बड़ी भूमिका है और हिंदुत्ववादी दृश्टिकोण का भी यहां बोलबाला है। लिंगायत समुदाय का मत प्रतिषत भी सत्ता के स्वरूप को बदलने के काम आता रहा है। मतदान पूर्व किये गये सर्वेक्षण यह इषारा कर रहे हैं कि कांग्रेस और भाजपा के बीच कांटे की टक्कर है। षायद ठीक वैसे जैसे गुजरात में था। यदि भाजपा की स्थिति यहां किसी कारण डगमग होती है तो हो सकता है कि गुजरात का हिसाब कांग्रेस कर्नाटक में बराबर कर ले परन्तु परिणाम आने तक निष्चित तौर पर यह बात नहीं कही जा सकती। भाजपा के मुख्य रणनीतिकार अमित षाह यहां अपना लंगर डाले हुए हैं और प्रधानमंत्री मोदी की चुनावी रैली का यहां आगाज़ हो चुका है। सम्भव है योगी आदित्यनाथ जैसे दिग्गज स्टार प्रचारकों का भी यहां रेला लगे। राहुल गांधी मठों और मन्दिरों का खूब चक्कर लगा रहे हैं अमित षाह भी इस मामले में कोई चूक नहीं कर रहे हैं। बाजी कौन मारेगा यह तो बाद में पता चल जायेगा पर यह बात बिल्कुल दुरूस्त है कि कर्नाटक चुनाव के चुनावी बिसात पर राजनीतिक दल ही नहीं जनता के वोट भी एक बार फिर दांव पर लगे हैं और षायद जिन्दगी भी।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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