Wednesday, August 23, 2017

ऐसी दुर्घटना जिसमें यात्री हारता है

वर्ष 2012 में भारतीय रेल मंत्रालय ने भारतीय रेल के सुरक्षा पहलुओं की जांच और सुधार को लेकर एक समिति का गठन किया था। अनिल काकोदकर की अध्यक्षता वाली इस समिति ने वैधानिक रेल सुरक्षा प्राधिकार के निर्माण सहित 106 सुझाव दिये थे परन्तु रेलवे ने 68 सुझावों को पूरी तरह माना, 19 को पूरी तरह खारिज किया जाहिर है बाकी से कोई लेना-देना नहीं था। इस रिपोर्ट के आलोक में प्रासंगिक और सारगर्भित परिप्रेक्ष्य यह उभरता है कि आखिर रेल सुरक्षा से जुड़े उपायों को लेकर आई रिपोर्ट पर सरकार का अमल क्या था और इस समिति की सिफारिषें अभी भी खटाई में क्यों हैं जबकि रेल हादसों की सूची लगातार लम्बी होती जा रही है। मुजफ्फरनगर के खतौली में उत्कल एक्सप्रेस का दुर्घटनाग्रस्त होना रेल प्रबंधन पर ही सवाल खड़े कर देता है साथ ही सुरक्षित कही जाने वाली यात्रा के प्रति लोगों में अविष्वास का वातावरण विकसित करता है। दो टूक यह भी है कि प्रषासन और प्रबंध की लापरवाही का नतीजा यात्रियों को ही भुगतना पड़ता है। ऐसा भी देखा गया है कि जब भी रेल हादसे की षिकार हुई है तब सुरक्षा को लेकर षपथ लेने की बात बड़ी षिद्दत से दोहराई गई पर वास्तुस्थिति यह है कि नतीजे इसके उलट बने रहे। आखिर ट्रेने बेपटरी क्यों हो रही हैं और जिम्मेदार लोग इतने बेफिक्र क्यों और कैसे हैं? प्रतिदिन की दर से दो करोड़ भारतीय ट्रेनों के माध्यम से आवागमन करते हैं। औपनिवेषिक सत्ता के दिनों से चली आ रही इस व्यवस्था पर बीते कुछ दषकों से उंगलियां बहुत उठ रही है और इसके पीछे केवल और केवल मात्र सुरक्षा न दे पाना है। चूक छोटी हो या बड़ी जब दुर्घटना होती है तो जिन्दगियां बेमौत मारी जाती हैं। कहा जाय तो रेल दुर्घटना ऐसी दुर्घटना बन गयी है जिसमें हर बार यात्री ही हारता है। 
उत्कल एक्सप्रेस समेत बीते पांच सालों की रेल दुर्घटना की सूची पर गौर किया जाय तो इसमें 586 रेल हादसे षामिल होते हैं। हैरत भरी बात यह है कि आधे से अधिक घटना इसलिए घटी क्योंकि ट्रेने पटरी से उतर गई। जिस रेल का कायाकल्प करने का मन्सूबा इस तरह पाल के रखा गया है कि देष के यात्रियों को और स्पीड दी जायेगी साथ ही उनके गंतव्य को कम समय में तय करने की अनुकूलता विकसित की जायेगी। क्या इन पटरियों के भरोसे ये इरादे पूरे होंगे। खतौली के पास जो हुआ उस पर रेलवे में एक बार फिर हड़कंप मचना स्वाभाविक था। सुनने में यह भी आया है कि रेलवे कर्मचारी आपस में बात करते सुने गये कि हादसे के पीछे इंजीनियर की लापरवाही है। हालांकि सोषल मीडिया पर वायरल हो रहा यह आॅडियो कितना सही है यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा पर यह बात बिल्कुल सही है कि लापरवाही बड़े पैमाने पर हुई है। सवाल पुरानी तकनीक को लेकर उठ सकता है। सवाल पटरी के किनारे बढ़ रहे कब्जों का भी है और पटरियों की पुख्ता जांच-पड़ताल को लेकर हो रही ढिलाई पर भी प्रष्न उठाया जा सकता है। साथ ही सिग्नल सिस्टम भी इस सवाल से नहीं बच सकते। उत्कल एक्सप्रेस में भी पुरानी तकनीक से बने आईसीएफ डिब्बे लगे हुए थे। इसमें बोगी के ऊपर डिब्बा रखा होता है और जब ट्रेन पटरी से उतरती है तो ये डिब्बे बोगी से अलग हो जाते हैं जिससे डिब्बो के पलटने का खतरा बना रहता है। काकोदकर समिति रिपोर्ट को देखें तो ऐसे डिब्बों को बदलने का सुझाव दिया जा चुका है। समिति सुरक्षा उपकरणों की कमी को लेकर भी सिफारिष में व्यापक चिंता जताई है। पटरियों के पास हो रहे अवैध निर्माण को लेकर भी उसने रेल यातायात के लिए खतरा माना है। जाहिर है इससे नुकसान का पैमाना भी बढ़ जाता है पर अमल कितना हुआ तस्वीरें आईना दिखा रही हैं। काकोदकर समिति रिर्पोट को और बारीकी से पड़ताल किया जाय तो यह भी पता चलता है कि रेलवे के सिग्नलिंग और टेलीकाॅम्युनिकेषन सिस्टम को आधुनिक बनाने पर जोर दिया गया था। आधुनिक तो छोड़िए यहां परम्परागत तरीके से भी ट्रेन की सुरक्षा को लेकर उपाय नहीं अपनाये गये। 
यात्रियों के लिए दुर्भाग्यषाली उत्कल एक्सप्रेस के दुर्घटना होने के कारणों को समझने के बाद यह विष्वास करना बहुत मुष्किल है कि ऐसा भी हो सकता है साथ ही मन इस भ्रम से भी भर जाता है कि जिस षौक और षान के साथ ट्रेनों के माध्यम से हम आवाजाही को निहायत सुरक्षित मानते हैं वह कितना बड़ा मौत का सामान है और इसके पीछे चंद लोगों की लापरवाहियां षामिल हैं जो ऐसे ही यात्रियों के टैक्स भुगतान के चलते वेतन लेते हैं। इस हादसे को लेकर मैंने जो मंथन किया और इसे लेकर जो समझ में आया उससे यह पता चलता है कि खतौली स्टेषन के पास रेलवे लाइन की मरम्मत का काम चल रहा था तो जाहिर है कि गुजरने वाली ट्रेनों को लेकर सूचना और चेतना का अलग बंदोबस्त होना चाहिए पर ऐसा नहीं हुआ। उत्कल एक्सप्रेस सौ किलोमीटर प्रति घण्टे से अधिक की स्पीड से उस पटरी को पार करने की कोषिष में थी जिस पर आमतौर पर सूचना की स्थिति में 15-20 किलोमीटर की गति से आगे बढ़ना चाहिए था। जाहिर है जब पटरियों पर काम होता है या हो रहा होता है तो एक विषेश सावधानी की आवष्यकता पड़ती है। यहां कुछ भी स्पश्ट नहीं था। ट्रेन गुजरने के पहले मरम्मत करने वालों को भी जानकारी होनी चाहिए और रेलवे के चालक को भी। ऐसे में गाड़ी को धीमा करना सम्भव होता है और दुर्घटना की सम्भावनाएं भी टल जाती हैं पर जब सिस्टम समय और प्रबंधन की दृश्टि से काम न कर रहा हो तो नियम का अनुपालन चालक आखिर क्यों करेगा। ऐसे में गाड़ी की स्पीड का होना लाज़मी है परिणामस्वरूप 14 डिब्बे पटरी से उतर गये कुछ निकट के मकान में घुस गये जिसे काकोदकर समिति ने पहले ही चिंता पूर्वक चेताया था। यह महज़ एक संयोग ही कहेंगे कि हजारों किलोमीटर की यात्रा तय करने वाली उत्कल एक्सप्रेस गंतव्य हरिद्वार से कुछ ही किलोमीटर पहले दुर्घटनाग्रस्त हो गयी। मरने वालों की संख्या पूरी तरह पुख्ता नहीं है परन्तु जो भी इसकी जद्द में आये और दुनिया से चले गये उनके लिए यह यात्रा वाकई में मौत की यात्रा सिद्ध हुई।
पिछले रेल दुर्घटनाओं को जितना उकेरा जाय सूची उतरी बड़ी होती चली जाती है जिसमें कई रेल हादसे तो भीशण तबाही से भरे हैं जहां जान-माल का बेहिसाब नुकसान हुआ है। मसलन इंदौर-पटना एक्सप्रेस जब कानपुर के पास पिछले वर्श 20 नवम्बर को पटरी से उतरी थी तो मरने वालों की संख्या 150 से ज्यादा थी। जबकि घायलों की संख्या भी सैकड़ों में थी। यहां रेल लाइन में दरार होने सहित दुर्घटना से जुड़ी कई चीजों को जिम्मेदार ठहराया गया था पर लाख टके का सवाल यह उठता है कि सबक क्या लिया। बिलबिलाते लोग, बिलखते लोग, कराहते और पीड़ा से जकड़े लोगों को जब टीवी एवं समाचार पत्रों के माध्यम से देखना और पढ़ना होता है तो मन इस बात से पूरी तरह क्षुब्ध होता है कि 21वीं सदी के इस दौर में हम सुरक्षा को लेकर क्यों इस तरह हैं। क्यों हर बार यात्री हार रहा है और क्यों रेल मंत्रालय, प्रषासन एवं प्रबंधन कोताही से बाज नहीं आ रहा। दूसरे देषों में बिजली चली जाने मात्र पर मंत्री को इस्तीफा देना पड़ता है यहां सैकड़ों की तादाद में लोग हादसों का षिकार हो रहे हैं और सरकारें पुख्ता इंतजाम करने में विफल हो रही हैं। इस सवाल के साथ इस लेख को इति कर रहा हूं कि आखिर रेल यात्रा और उसमें समाहित सुरक्षा पर क्या हमारा विष्वास ऐसी दुर्घटनाओं के बावजूद कायम रह सकेगा? 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: suhsilksingh589@gmail.com

Wednesday, August 16, 2017

पुराने भारत में न्यू इंडिया की खोज

तेजी से बदलते विश्व  परिदृष्य परिदृश की चुनौतियों से निपटने के लिए भारत को नया रूप देना लाज़मी है शायद  न्यू इण्डिया की अवधारणा भी इसी मनोदषा से प्रभावित है। भूमण्डलीय अर्थव्यवस्था में हो रहे अनवरत् परिवर्तन को देखते हुए न केवल दक्ष श्रम षक्ति बल्कि स्मार्ट सिटी और स्मार्ट गांव की ओर भी भारत बढ़ चला है। आर्थिक विकास की प्रक्रिया में अर्थव्यवस्था को लेकर अनेक संरचनात्मक परिवर्तन भी बीते कुछ ही महीनों में सम्भव हुए है जिसमें नोटबंदी और जीएसटी जैसे बड़े बदलाव षामिल है। वास्तविकता तो यह है कि परिवर्तनों के आधार पर ही हम निश्कर्श पर पहुंचना चाहते हैं पर इस बात की सूझबूझ कितनी कि मौजूदा अर्थव्यवस्था विकास की किस स्थिति में है। बेषक आंकड़ों को परोसकर सरकारे वाहवही लूटती रही हैं पर जमीनी हकीकत यह भी है कि अभी भी पुराने भारत में जहां से न्यू इण्डिया की खोज हो रही है वहां हर चैथा व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे और इतने ही अषिक्षित हैं। बिजली, पानी, षिक्षा, चिकित्सा व रोजगार समेत सुरक्षा, संरक्षा इत्यादि की कमी व्याप्त है। नौनिहालों का भी हाल कम बुरे नहीं है। महिलाएं भी विकास की मुख्य धारा से बहुत नहीं जुड़ पाई हैं। यहां का युवा भी पढ़ा-लिखा पर बेरोजगारी के चलते श्रम षक्ति के उपयोग के मामले में पीछे है। भारत का आर्थिक ढ़ांचा और उससे जुड़ा व्यवहार बीते सात दषकों से कई प्रयोगों व अनुप्रयोगों से गुजरा है। स्वतंत्रता की 70वीं वर्शगांठ यह जताती है कि स्वाधीनता और लोकतंत्र को भारत में प्रवेष किये बहुत वक्त हो गया पर मुसीबतों की निषानदेही से अभी भी देष को छुटकारा नहीं मिला है। हद तो यह भी है कि 1974 में पांचवीं पंचवर्शीय योजना से गरीबी का उन्मूलन हो रहा है और 1952 के पहले आम चुनाव से गरीबी दूर करने का अभियान चल रहे हैं पर स्थिति यह है कि अभी भी अमेरिका जितनी जनसंख्या भारत में गरीबी रेखा के नीचे रहती है। जाहिर है इसी के बीच से न्यू इण्डिया को भी अपना रास्ता बनाना है। सफलता कितनी मिलेगी और क्या प्रधानमंत्री मोदी का यह सपना वास्तव में जमीन पर उतरेगा इस पर कुछ बरस के बाद ही कुछ कह पाना सम्भव है। 
स्वतंत्रता के बाद 15 मार्च 1950 को योजना आयोग का परिलक्षित होना तत्पष्चात् प्रथम पंचवर्शीय योजना की प्रारम्भिकी। सात दषकों में 12 पंचवर्शीय योजना और तीन बार योजना अवकाष का दौर भी आया। अन्ततः मोदी षासनकाल में इसका अन्त हो गया। फिलहाल थिंक टैंक के रूप में अब नीति आयोग को देखा जा सकता है। इसे भी पुराने भारत से न्यू इण्डिया की ही आहट कही जा सकती है। इसी तर्ज पर कई ऐसे मुद्दे हैं जो समय के साथ प्रकाषित हुए हैं मेक इन इण्डिया, स्टार्टअप एण्ड स्टैंडअप इण्डिया, क्लीन इण्डिया और आर्थिक सुधार की दृश्टि से गुड्स एण्ड सर्विसेज़ टैक्स आदि न्यू इण्डिया का ही आगाज़ करते हैं। हालांकि न्यू इण्डिया को लेकर अपना एक अलग से नियोजन है पर उपरोक्त की भी हिस्सेदारी कम नहीं है। जिस तर्ज पर चीजें बदलती हैं, संवरती हैं और जनमानस को संभावनाओं से भरती हैं क्या उसी प्रकार के विजन से न्यू इण्डिया युक्त है। साल 2022 तक प्रधानमंत्री मोदी का सपना भव्य भारत बनाने का है जिसके पास अपना पक्का घर होगा, बिजली होगी, किसानों की आय दोगुनी होगी और चैन की नींद होगी इसी फेहरिस्त को और बड़ा कर दें तो सभी का षौचालय, सभी को एलपीजी कनेक्षन, डिजिटल कनेक्टिविटी समेत बुनियादी और विकासात्मक चीजों की उपलब्धता होगी तो न्यू इण्डिया को और चार चांद लग जायेगा। हालांकि उपरोक्त दिषा में कमोबेष मोदी षासनकाल में पहले से ही कार्य चल रहा है। जनसंख्या प्रतिवर्श डेढ़ से पौने दो करोड़ बढ़ जाती है पर रेल बजट में ट्रेनों का बढ़ना मुष्किल हुआ है। दो पहिया वाहन से लेकर चार पहिया तक और एयर कंडीषन का सुख भी मिले इसकी पहुंच भी न्यू इण्डिया में झलकती है। ऐसे भारत की बात हो रही है जिसमें सभी साक्षर होंगे, सभी के लिए स्वास्थ्य सेवायें उपलब्ध होंगी। रेल और रोड़ का बड़ा नेटवर्क इसके विजन में है। स्वच्छता के मामले तो षहर के साथ गांव का भी समावेषन है। जब कहा जाता है कि भव्य और दिव्य हिन्दुस्तान बनायेंगे तब माथे पर यह बल बनता है कि साढ़े छः लाख से पटे भारत के गांव में जहां वायदे के मुताबिक बिजली और पानी समेत बुनियादी तत्वों का आभाव है क्या उससे निपटे बगैर भव्यता और दिव्यता सम्भव है। यह महज़ एक सवाल है क्योंकि न्यू इण्डिया में इतनी बड़ी-बड़ी बात हो रही है तो मन में एक छोटा सा सवाल उठा था। 
कुछ माह पहले जब न्यू इण्डिया का विजन आया था तो उसमें अगले 15 साल में सालाना आमदनी में दो लाख रूपये की वृद्धि करने की बात कही गयी थी। जाहिर है नेहरू युगीन योजना आयोग को समाप्त कर इस चुनौती से सरकार भी दो-चार हुई होगी कि बदलते दौर के मुताबिक बड़ा और बेहतर क्या हो सकता है। नीति आयोग एक थिंक टैंक है न्यू इण्डिया के विज़न को पूरा करने में मदद कर सकता है पर मामला घरेलू उपचार तक रहेगा तो षंका बढ़ेगी यदि षोधात्मक और सैद्धान्तिक माध्यमों से इसे हासिल किया जायेगा तो उम्मीद बढ़ेगी। प्रधानमंत्री मोदी चैथी बार स्वतंत्रता दिवस के इस मौके पर लाल किले की प्राचीर से बोले रहे थे। उन्होंने कहा कि हम न्यू इण्डिया बनाना चाहते हैं जो सुरक्षित हो, समृद्ध हो और षक्तिषाली हो। जहां सभी को समान अवसर मिले, जहां आधुनिक विज्ञान का दबदबा हो। प्रधानमंत्री ठीक कह रहे हैं आखिर इन सबके आभाव में न्यू इण्डिया का क्या मतलब। उनकी दृश्टि में वर्श 2018 एक महत्वपूर्ण साल है आषय 21वीं सदी में जन्में नौजवानों के लिए 18 वर्श का होना। जब नये ढांचे, नये प्रारूप में देष की अर्थव्यवस्था को नई आदत देनी होती है और विकास उस गति से नहीं बढ़ता है तो बदलाव से लोगों को परेषानी होती है। मोदी षासनकाल में कई बदलाव हुए हैं जाहिर है परेषानियां भी कई किस्म की हैं। गौरतलब है कि सामाजिक अर्थव्यवस्था जितनी सषक्त होगी, जीवन उतना ही सुलभ होगा। जिस चाह के साथ सरकार नये विजन के साथ न्यू इण्डिया का आगाज़ कर रही है उसमें इस बात का कितना ख्याल है कि पंक्ति में खड़े अन्तिम व्यक्ति को न्यू इण्डिया का एहसास होगा। 
फिलहाल जिस तेवर के साथ प्रधानमंत्री मोदी देष के तंत्र में अपना रसूख रखते हैं उसे देखते हुए नये-नये प्रयोगों की गुंजाइष आगे भी रहेगी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। इसी वर्श बीते 23 अप्रैल को नीति आयोग की एक बैठक में उन्होंने नसीहत दी कि बदल गया है जमाना, बदल जायें आप। देष के नौकरषाहों को भी आगाह किया कि हिम्मत और ईमानदारी से काम करें। इसी बैठक में उन्होंने मुख्यमंत्रियों को सलाह दिया था कि सुषासन और विकास को अपना हथियार बनायें। दावा तो यह भी किया जा रहा है कि बीते सात दषकों में देष की जीडीपी में जितनी वृद्धि हुई उससे कई गुना आने वाले 15 वर्शों में हो जायेगी। हालांकि नोटबंदी के बाद विकास दर में एक फीसदी की गिरावट दर्ज हुई पर उम्मीद पर सवाल कैसा। उम्मीद तो यह भी जताई जा रही है कि 8 फीसदी विकास दर से देष आगे बढ़ेगा। उक्त मापदण्ड न्यू इण्डिया के रास्ते को चैड़ा करते दिखाई देते हैं। निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि 2022 तक जमीन पर उतरने वाले न्यू इण्डिया के इस संकल्प को सरकार का परोसा हुआ एक विजन समझे या फिर पूरा न होने वाला सपना भी। सवाल इसलिए क्योंकि पुराना भारत कमोबेष उथल-पुथल में रहा है और उसी में से न्यू इण्डिया को भी रफ्तार देना है। फिलहाल भव्यता और दिव्यता से युक्त प्रधानमंत्री मोदी के इस विचार को बिना किसी असमंजस के जमीन पर उतरने का इंतजार करना ही चाहिए। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Monday, August 14, 2017

सत्तर साल की स्वाधीन ऊर्जा


आज पूरे देश में आजादी की 70वीं वर्षगांठ को लेकर ख़ुशी की लहर दौड़ रही है और यह होना भी चाहिए आखिरकार सैकड़ों वर्षों की गुलामी और इतने ही वर्शों के संघर्श का नतीजा आज की हमारी स्वतंत्रता है। अब तक 70 बार स्वतंत्रता दिवस मनाने का अवसर मिल चुका है पर हर बार जब यह लेखा-जोखा होता है कि अंतिम पंक्ति में खड़े कमजोर षरीर और धुंधली रोषनी वालों के लिए इस आजादी के क्या मायने हैं तब अनायास ही मन में कई सवाल पनप जाते हैं। जितने बड़े सपनों से भारत को सींच कर पाला-पोसा गया क्या वाकई में पैदावार भी उसी दर्जे की हुई है इस सवाल के उत्तर की फिराक में सत्तर साल का भारत आज भी दो-चार होता है। पहली बार भारत में जब पहली लोकसभा के चुनाव 1952 में हुए तब 17 करोड़ लोगों ने वोट डाला था और तब के राजनेताओं ने उन्हें यह सपना दिखाया था कि वास्तव में हम आपके लिए जमीन पर वह सबकुछ उतारेंगे जिसकी चाह में आपका जीवन ठहरा हुआ है। दषकों बीत गये चुनाव दर चुनाव होते गये और सपनों का अम्बार भी लगा। क्रमिक तौर पर अन्ततः 16वीं लोकसभा का चुनाव भी मई 2014 में आखिरकार उन्हीं तमाम सपनों और उम्मीदों के साथ सम्पन्न हुआ तब मतदाता 80 करोड़ के आसपास थे। अन्तर मात्र इतने का है कि जब लोकतंत्र उशाकाल में था तब मौजूदा समय के अनुपात में सपने बोये गये थे और अब जब लोकतंत्र सात दषक की यात्रा तय कर चुका है तब भी दौर के अनुपात में जनमानस की आंखों में सपने भरने का सिलसिला बादस्तूर जारी है। राग वही है, सुर-ताल वही है कि वर्गों में बंटे समाज और हाषिये पर जा पहुंचा जनमानस वाकई में स्वाधीनता के इस 70 साल की खुषी को स्वयं में रचा-बसा पा रहा है।
पीले पड़ गये पन्नों को उधेड़ा जाय तो इतनी बढ़ी स्वाधीनता की यात्रा को समझना कोई दुरूह कार्य नहीं है। देष स्वाधीनता को लेकर जितना पुराना होता गया जनमानस की भावना को उतना ही उकसाता भी गया। समय के साथ देष की जनसंख्या बढ़ी साथ ही ज्ञान-विज्ञान और तकनीक में भी बढ़ोत्तरी हुई, जीवन स्तर को ऊंचा उठाने को लेकर एड़ी-चोटी का जोर भी लगाया गया। बावजूद इसके बुनियादी खामियों का रोना बंद नहीं हुआ। 1951 की पहली जनगणना में 36 करोड़ की जनसंख्या और 18 फीसदी से थोड़ी ही ज्यादा साक्षरता थी। 2011 में यही जनसंख्या 121 करोड़ और साक्षरता 75 फीसदी के आसपास हो गई। ताजे आंकड़ों पर भी गौर करें तो पांचवीं पंचवर्शीय योजना से गरीबी उन्मूलन को लेकर उठाया गया कदम आज भी हांफता दिखाई देता है। हर चैथा व्यक्ति आज भी गरीबी से जूझ रहा है। यह तब है जब आंकड़ों को तोड़-मरोड़कर पेष किया जाता है। यदि विष्व बैंक के आंकड़ों पर गौर करें तो मामला दोगुने के आस-पास है। फिलहाल बदलते दौर के अनुपात में संसाधन जुटाने और उसके अनुप्रयोग को लेकर हर सत्ताधारी ने साफगोही से अपना-अपना पक्ष रखा पर टीस इस बात की है कि हालत फिर भी इतनी खराब क्यों है। दक्षता बढ़ी है जीवन इंटरनेट, फेसबुक, व्हाट्सअप सहित अनेक तकनीकों के चलते हाईटैक हुआ है। कहें तो बोतल बंद पानी की प्रथा भी देष में खूब प्रचलित हो चुकी है ये बात और है कि साढ़े छः लाख से अधिक गांव से भरे भारत में अभी भी दो लाख गांव बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहे हैं। षहरी और ग्रामीण जीवन का अंतर भी बीते 70 सालों में काफी ऊंच-नीच के साथ रच-बस गया है। षहरों का बाजारवाद और संरचनात्मक विकास ने लोगों के मूल्य एवं मानव होने के एहसास में मानो चैगुना वृद्धि कर दिया हो जबकि खेती किसानी वाले तीन लाख से अधिक लोग बीते तीन दषकों से स्वाधीन भारत में स्वेच्छा से जीवन त्याग चुके हैं। कहने के लिए तो यह अन्नदाता हैं पर दुनिया को रोटी देने वाले स्वयं ही दो निवाले के लिए तरस गये और फांसी लगाना उनके लिए आसान काज बना। जिस कदर अन्नदाताओं ने मौत को गले लगाया है उससे साफ है कि उन्होंने अपना मूल्य सिफर और मोल दो कौड़ी का समझा। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि चमक सबकी आंखों में है पर चमकती चीज देखने का अवसर 70 सालों के बाद अभी भी सभी के लिए नहीं है।
हमारे पास प्राकृतिक संसाधन हैं क्योंकि हमारी पिछली पीढ़ियों ने इसको संजो कर रखा है। हमें भावी पीढ़ियों के लिए ऐसा ही करना होगा। यह बात प्रधानमंत्री मोदी ने इसी माह के षुरू में कही थी। दुनिया को आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन से अधिक खतरा है। यह भी इक्कसवीं सदी की मूल चिंता में षामिल है। आजादी सत्तर साल की तो समस्या भी सात सौ से अधिक होगी ही। हालांकि कई राजनेता यह दावा करते दिख जायेंगे कि सत्तर सालों में वो नहीं हुआ जो तीन सालों में मोदी सरकार ने कर दिखाया बेषक प्रधानमंत्री मोदी के क्रियाकलापों से बेहतरी के सारे आयाम विकसित होते हों पर सच्चाई तो यह है कि इनके कार्यकाल में भी स्वाधीनता का स्वाद कईयों के लिए कसैला ही रहा। गरीबी, अषिक्षा, बेरोजगारी एवं चिकित्सा समेत बुनियादी संरचना को लेकर अभी भी कवायद जारी है पर मंजिल दूर है। आठवीं पंचवर्शीय योजना समावेषी विकास की थी। इसका उल्लेख इसलिए क्योंकि इसके ठीक पहले 1991 में देष उदारीकरण की राह पकड़ी थी। इसके माध्यम से न केवल समस्याओं से निजात पाना था बल्कि आर्थिक व तकनीकी दक्षता को अपनाकर ऊर्जा से स्वयं को भरना भी था। दो टूक यह भी है कि स्वाधीनता का पूरा अर्थ उर्जा उन्मुख होना ही है पर इस सवाल के साथ दुविधा बढ़ी है कि क्या सत्तर साल की स्वाधीनता देष को उर्जावान बनाया है। आखिर इसे प्राप्त करने के लिए जिन लक्ष्यों की पूर्ति करनी थी उस पर खरे उतरे हैं। 
स्वाधीनता के मायने कई अर्थों में हो सकते हैं जो स्त्री-पुरूश समेत सभी वर्गों में भिन्न स्थान रखते हैं। इसी स्वतंत्रता के अंतर्गत सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता की भी लौ जलती है पर कईयों का यहां चिराग भी बुझा है। गोरखपुर के एक अस्पताल में 50 से अधिक बच्चों की मौत इसलिए हो गयी क्योंकि 69 लाख बकाये के चलते आॅक्सीजन की आपूर्ति रोक दी गयी और यह 70वीं स्वाधीनता दिवस के ठीक पांच दिन पहले हुआ। क्या ऐसी घटनाओं के साथ स्वाधीनता ऊर्जावान कही जायेगी। गरीबी, बीमारी समेत बिगड़े कानून-व्यवस्था व अन्य मानकों को स्पर्ष करें तो नतीजा बहुत संतोशजनक नहीं है परन्तु अंतरिक्ष समेत दूसरे ग्रहों मसलन मंगल तक की पहुंच इस बात का द्योतक है कि रेस में हम पीछे भी नहीं हैं। क्रमिक तौर पर देखें तो कुछ उदाहरण उर्जा से देष को ओत-प्रोत करते हैं। स्वाधीनता के तुरन्त बाद 1948 में लंदन ओलम्पिक में भारतीय हाॅकी टीम ने अपना पहला गोल्ड मेडल जीता। 1954 में अटाॅमिक एनर्जी प्रोग्राम लाॅच करने वाला भारत पहला देष बना। 1961 में गुटनिरपेक्ष देषों की पहली बैठक का भारत नेतृत्व किया। 1971 में बांग्लादेष को पाकिस्तान से मुक्त कराकर दुनिया को लोकतंत्र की ताकत दिखाई। 1976 में बंधुआ मजदूर प्रथा बंद करना, 1980 में चेचक से मुक्ति और 1982 में एषियन गेम्स की मेज़बानी करके खेल की दुनिया में भी धमक बढ़ाई। 1983 में क्रिकेट का वल्र्डकप जीता और ठीक एक साल बाद अंतरिक्ष की यात्रा करने वाले देषों में भारत भी षुमार हुआ। तत्पष्चात् उदारीकरण, वैष्वीकरण और पष्चिमीकरण के फलस्वरूप दुनिया की अर्थव्यवस्था के साथ देष को दुविधा से निकालते हुए उसी दुनिया की चुनौतियों के लिए भारत को सषक्त किया गया। सबके बावजूद खामियां अभी भी हैं पर इस बात की तसल्ली और खुषी होनी ही चाहिए कि आज स्वतंत्रता का 70वां सालगिरह मना रहे हैं।

सुशील कुमार सिंह
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साल 2017 की अगस्त क्रांति

जिस तर्ज पर गुजरात में राज्यसभा के चुनाव के दौरान बीते 8 अगस्त की आधी रात को सियासी ड्रामा चला उससे स्पष्ट है कि राजनेताओं के लिए सब कुछ जायज़ है बशर्ते उन्हें फायदा होता हो। गौरतलब है कि गुजरात में तीन राज्यसभा सीटों का चुनाव मंगलवार को समाप्त हुआ परन्तु षाम होते-होते मामला हाई-वोल्टेज ड्रामे में तब तब्दील हो गया जब दो बागी कांग्रेसियों के वोट को निरस्त कराने को लेकर कांग्रेस ने दिल्ली में चुनाव आयोग से गुहार लगाई। गौरतलब है कि इन बागी विधायकों ने चुनाव नियम का उल्लंघन करते हुए मतपत्र को दिखाने का कृत्य किया था। मामले को तूल पकड़ता देख और सीट हारने के खतरे से घबराई भाजपा इसके विरोध में आधा दर्जन मंत्री समेत कई षीर्श नेता आनन-फानन में आयोग के समक्ष हाज़िरी लगाई और ऐसा दोनों दलों की तरफ से दो घण्टे के अंदर तीन बार हुआ। फिलहाल चुनाव आयोग ने वीडियो फूटेज देखने के बाद लगभग आधी रात को अपना फैसला सुनाया। आयोग ने कांग्रेस के दावे को सही माना और दोनों विधायकों का वोट रद्द कर दिया। जाहिर है इससे भाजपा का नुकसान और कांग्रेस को सीधे एक सीट का फायदा हुआ। कांग्रेस की ओर से अहमद पटेल को 44 वोट मिले यदि रद्द किये गये वोट भी गिने जाते तो कांग्रेस के उम्मीदवार पटेल एक वोट से राज्यसभा पहुंचने से न केवल वंचित हो जाते बल्कि लोकसभा में गुजरात में सिफर कांग्रेस राज्यसभा में भी इसी इतिहास को दोहराती। तीन सीटों के सम्पन्न चुनाव में भाजपा के राश्ट्रीय अध्यक्ष अमित षाह समेत केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी की भी जीत हुई है। पूरी पटकथा की पड़ताल ये इषारा करती है कि आखिरकार भाजपा को फायदा पहुंचाने के नियत से की गई क्राॅस वोटिंग के बावजूद नतीजा कांग्रेस के पक्ष में एक सीट के तौर पर चला ही गया। इसमें कोई दो राय नहीं कि गुजरात की एक सीट की इस हार से भाजपा की रणनीति काफी हद तक विफल हुई है और सियासी ड्रामे के फलस्वरूप जो ताना-बाना भाजपाईयों की ओर से बुना गया उसे लेकर भी बड़ी विफलता उन्हें मिली है। आने वाले दिनों में भाजपा इस जख्म को जरूर ध्यान में रखेगी कि सियासी पटरी पर कांग्रेस मुक्त भारत की अवधारणा को लेकर जो दौड़ लगा रही है उसमें जंग हर बार वही नहीं जीतेगी। 
भाजपा और कांग्रेस के बीच यह कोई अंतिम लड़ाई नहीं है लोकतंत्र के जमीन पर इस प्रकार की प्रतिस्पर्धा आने वाले दिनों में भी होती रहेगी पर इस घटना की रोचकता इस बात के लिए अधिक है कि लोकतांत्रिक तरीके से चुने जाने वाली व्यवस्था के बीच जो छीना-झपटी बीते 8 अगस्त की रात हुई वह मानो लोकतंत्र के लिए कोई महा लड़ाई रही हो। मौजूदा समय के राजनेता देष के 70 साल की आजादी के बाद किस कदर सियासत हथियाने की फिराक में अनाप-षनाप कर रहे हैं यह चिंता के साथ चिंतन का भी विशय है। गुजरात में घटी 8 अगस्त की घटना ने उस अगस्त की क्रान्ति की याद दिला दी जिसने ब्रिटिष षासन की नींव को हिला कर रख दिया था। हालांकि दोनों में कोई तुलना नहीं है पर 75 साल पहले भारत छोड़ो आंदोलन की पटकथा का उजागर करना इसलिए स्वाभाविक है क्योंकि स्वाधीनता और लोकतंत्र की पराकाश्ठा को प्राप्त करने के लिए 8 अगस्त, 1942 को जब आंदोलित नेताओं ने अन्तिम रूप से अंग्रेजों को यह जता दिया कि अब उन्हें भारत छोड़ना ही पड़ेगा तब इतिहास के पन्नों में उकरे उन षब्दों को पढ़कर यह एहसास होता है कि वाकई में वह अगस्त क्रान्ति स्वाधीनता और लोकतंत्र की प्राप्ति की अन्तिम महा लड़ाई थी। इतिहास की इस परिघटना को और समीप से देखा जाय तो 8 अगस्त, 2017 की मध्यरात्रि जब गुजरात में राज्यसभा की सीटों को लेकर हमारे राजनेता एक-दूसरे की लानत-मलानत कर रहे थे तो 1942 की 8 अगस्त की मध्यरात्रि में ही अंग्रेजी सरकार उस दौर के आंदोलित नेताओं को गिरफ्तार करने की योजना बना रही थी। दोनों में एक फर्क यह भी है कि यहां कांग्रेस या भाजपा में चाहे जो जीतती या हारती आखिरकार विजय तो लोकतंत्र का ही होना था पर अगस्त क्रान्ति के उन दिनों में कांग्रेस का जीतना ही अंग्रेजों की हार थी। फिलहाल अंग्रेजी सरकार की निर्धारित योजना के तहत 9 अगस्त की सुबह ‘आॅपरेषन जीरो आॅवर‘ के अन्तर्गत कांग्रेस के सभी महत्वपूर्ण नेता गिरफ्तार कर लिए गये। महात्मा गांधी को पूना के आगां खां पैलेस में रखा गया। इसी पैलेस में सरोजनी नायडू और कस्तूरबा गांधी भी रखी गयी थी। खास यह भी है कि 9 अगस्त, 1942 की अगस्त क्रान्ति बिना किसी नेतृत्व के भारत छोड़ों आंदोलन को लेकर एक महा लड़ाई थी क्योंकि नेतृत्वकत्र्ता जेल में ठूंस दिये गये थे। देखा जाय तो यह देष की जनता की उस इच्छा की अभिव्यक्ति थी जिसमें उसने ठान लिया था कि हमें आजादी ही चाहिए। स्पश्ट है कि 15 अगस्त 1947 को उसी जनता ने आजादी का सूरज उगते हुए देखा था।
बीते कुछ वर्शों से कई महापुरूशों के नाम पर देष की राजनीति में चाषनी खूब घोली जा रही है। राश्ट्रपिता महात्मा गांधी और पण्डित दीन दयाल उपाध्याय को अक्सर एक साथ जोड़कर सियासत को भाजपा परवान चढ़ाती रही है। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की आलोचना और सरदार पटेल पर जान छिड़कना भाजपा की नीति में षामिल है। इसके अलावा अम्बेडकर से लेकर लोहिया तक पर भी उसकी नजर रही है। बीते 25 जुलाई को जब नवनिर्वाचित राश्ट्रपति रामनाथ कोविंद षपथ लेने के पष्चात् अपना अभिभाशण दे रहे थे तब भी उन्होंने राश्ट्रपति गांधी और पण्डित दीनदयाल के सपनों की बात कही थी। इस पर भी सियासत जोर पकड़ी थी कि जवाहर लाल नेहरू जैसे राजनेता यहां भी बाहर क्यों हैं। स्पश्ट है कि भाजपा इस दुविधा में कभी नहीं रही कि उसे विपक्ष को लेकर क्या करना है और इस मामले में भी वह कभी पीछे नहीं रही कि क्या और किसे अपनाने से उसकी सियासत परवान चढ़ेगी। प्रधानमंत्री मोदी ने महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद व दीनदयाल उपाध्याय समेत उन सभी को अपने आदर्षों का हिस्सा बनाया जिनसे उनकी राजनीति को चमक मिलती हो या फिर नीतियों को बल मिलता हो। हालांकि महात्मा गांधी और स्वामी विवेकानंद को लेकर कोई बंटवारा नहीं किया जा सकता पर इनके सपनों को परवान चढ़ा कर केवल सियासत चमकाना कितना सही है। इस मामले में भाजपा और कांग्रेस दोनों षामिल रही फर्क इतना है अपने-अपने हिस्से के महापुरूशों का इन्होंने बंटवारा कर दिया है।
प्रधानमंत्री मोदी कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को बीते चार साल से बुलंद किये हुए हैं और इस पर वो बाकायदा सफलता के साथ आगे बढ़ भी रहे हैं। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए गुजरात में राज्यसभा से कांग्रेस का सफाया भी षामिल था जिसके लिए हाई वोल्टेज सियासत हुई। रोचक पहलू यह भी है कि कांग्रेस अपना घर बचाने के लिए विधायकों को बंगलुरू में रखा इतने जतन के बावजूद मामला खटाई में लगभग जाते-जाते बचा। पटकथा के हीरो कोई और नहीं पहले के भाजपाई नेता षंकर सिंह बघेला ही थे जो बगावत करके कांग्रेस में गये और एक बार फिर उन्होंने कांग्रेस से बगावती तेवर के साथ क्राॅस वोटिंग कर भाजपा को मदद पहुंचाने का काम किया। किसी ने ठीक ही कहा है सियासत में न तो कोई स्थायी षत्रु होता है और न ही मित्र बल्कि सब समय का फेर है। गुजरात के राज्यसभा चुनाव में सियासी ड्रामे के बीच जो अगस्त क्रान्ति देखने को मिली उसे षायद आगे भी देखा जा सकेगा पर 1942 की उस महान क्रान्ति को दोहराना किसी के बूते में नहीं है। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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Tuesday, August 8, 2017

उत्तर कोरिया के बहाने चीन की कूटनीति

जिस उत्तर कोरिया के बरसों की हिमाकत पर चीन तनिक मात्र भी कसमसाया न हो वही चीन जब उसे अपना मिसाइल और परमाणु हथियार विकास कार्यक्रम रोकने की बात कहे तो बात पचती नहीं है। उत्तर कोरिया बीते कई वर्शों से दुनिया की आंखों में परमाणु कार्यक्रम को लेकर खटक रहा है। अमेरिका, जापान और दक्षिण कोरिया समेत कई देष उसकी हरकतों से पेषोपेष में रहे हैं जबकि इस मामले में चीन उत्तर कोरिया के सहयोगी के तौर पर उसके साथ खड़ा रहा। अब वही चीन उसे हथियार बनाना बंद करे की नसीहत दे रहा है। गौरतलब है कि विष्व की कूटनीति जब बदलती है और संघर्श का पैमाना तुलनात्मक बढ़ जाता है तब कुछ देष अपनी फितरत में भी बदलाव ला लेते हैं। चीन की उत्तर कोरिया को लेकर उठाये गये कदम से अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी काफी प्रभावित हैं। इस प्रभाव का चीन कितना फायदा लेगा इस पर भारत को भी गौर करना चाहिए। मौजूदा समय में भारत और चीन सिक्किम में डोकलाम विवाद से दो-चार हो रहे हैं। दोनों तरफ की सेनाएं सीमा पर डटी हुईं हैं। कूटनीतिक पैंतरेबाजी में चीन कभी पीछे नहीं रहा है और युद्ध की धौंस दिखाना भी उसकी घटिया चाल रही है। तिब्बत की राजधानी ल्हासा से लेकर चीन अपने सीमावर्ती इलाकों में जिस तरह हथियारों का अभ्यास कर रहा है। उससे तो साफ है के भारत को मनोवैज्ञानिक दबाव में लेने की हर सम्भव कोषिष कर रहा है। हालांकि इस मामले में उसे तनिक मात्र भी सफलता नहीं मिली है परन्तु ट्रंप की प्रषंसा प्राप्त करके इसे डोकलाम से जोड़ना उसके लिए कोई बड़ी बात नहीं है। चीन के विदेष मंत्री ने अपने समक्ष उत्तर कोरियाई मंत्री से सम्पर्क के बाद कहा कि एषिया प्रषान्त क्षेत्रों के देषों के विदेष मंत्रियों के हो रहे तीन दिवसीय सम्मेलन में विचारणीय बिन्दु कोरियाई प्रायद्वीप की स्थिति भी है। यह वक्तव्य चीन का तब आया है जब इससे एक दिन पहले संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् में उत्तर कोरिया की आदतों को देखते हुए माल खरीदने पर प्रतिबंध लगाया गया था। 
ऐसा नहीं है कि संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् द्वारा उत्तर कोरिया पर प्रतिबंध पहली बार लगाया गया है और ऐसा भी नहीं है कि उत्तर कोरिया को प्रतिबंध से कोई असर पड़ा हो। खराब आदतों से मजबूर यह देष खराब और विध्वंसक नीतियों के मामले में मीलों आगे है। इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि वर्श 2006 से 2016 के बीच उसने चार बार परमाणु परीक्षण किया है। 6 जनवरी 2016 को जब उसने चैथा परमाणु परीक्षण किया तब उसकी दादागिरी से बड़े से बड़े सूरमाओं को यह एहसास हुआ कि अभी चिंताओं से मुक्त होने का वक्त नहीं आया। फिर नये प्रतिबंधों के प्रस्ताव की बात चलने लगी। देखा जाय तो निडर उत्तर कोरिया पर प्रतिबंधों का प्रहार ज्यों-ज्यों हुआ है उसके दुस्साहस त्यों-त्यों बढ़े हैं। इसी वर्श 16 अप्रैल को उत्तर कोरिया ने तमाम दबाव के बावजूद बैलिस्टिक मिसाइल का परीक्षण किया था। हालांकि यह परीक्षण असफल हो गया था परन्तु इस नाकामी के बावजूद दुनिया को वह यह संदेष दिया कि उसके ऐसे कार्यक्रम किसी के दबाव से नहीं रूकेंगे। अमेरिका समेत कई देषों ने कार्यक्रम असफल होने के कारण राहत की सांस तो ली पर स्थाई तौर पर समाधान अभी भी किसी के पास नहीं है। निःसंदेह उत्तर कोरिया ने परमाणु परीक्षण से लेकर मिसाइल परीक्षण तक के कार्यक्रम में दुनिया की एक नहीं सुनी और तानाषाह किम जोंग अपनी मदमस्त चाल में चलता रहा। पिछले एक दषक से विवादों को जन्म देने वाला देष यदि संसार के मानचित्र पर कोई है तो उसमें एक उत्तर कोरिया भी आता है। इससे भी बड़ी बात यह है कि खराब देषों का समर्थक चीन ही होता है। भारत के मुकाबले पाकिस्तान को समर्थन देकर चीन अपनी कूटनीति को दूशित तरीके से आगे बढ़ाता है तो वहीं उत्तर कोरिया का सहयोगी बनकर दक्षिण कोरिया और जापान के लिए समस्या बढ़ाने का काम करता है। चीन की खासियत यह है कि अवसर पर ही मुंह खोलता है। चीन वन बेल्ट, वन रोड जिसका भारत ने विरोध किया है और अब डोकलाम को लेकर भारत को आंखे दिखा रहा है साथ ही वैष्विक संतुलन बनाये रखने के लिए सिरफिरे उत्तर कोरिया को अब डांट लगा रहा है और मुफ्त में डोनाल्ड ट्रंप के प्रषंसा का केन्द्र बन रहा है। यहां बताते चलें कि उत्तर कोरिया पर लगाये गये प्रतिबंध से सालाना करीब 65 अरब का नुकसान होगा साथ ही इस प्रतिबंध से उसका एक-तिहाई निर्यात प्रभावित होगा। अमेरिका के इस प्रस्ताव का चीन और रूस ने भी समर्थन किया। जाहिर है चीन इस समर्थन के जरिये अमेरिका से नज़दीकी बढ़ाने में कुछ कदम तो आगे बढ़ेगा।
सुरक्षा परिशद में इस प्रस्ताव के पारित होने से उत्तर कोरिया का तो नुकसान तय है सभी जानते हैं कि सुरक्षा परिशद में चीन भी है और अब वह इस प्रस्ताव के साथ है। जाहिर है उत्तर कोरिया के विरोध में चीन इस समय है यह उसकी बदली रणनीति का हिस्सा है पर अप्रत्यक्ष तौर पर उसे कितना लाभ पहुंचायेगा इसका गुणा-भाग तो डोनाल्ड ट्रंप भी नहीं लगा सकते। यह बात भी समझने वाली है कि आतंक के मसले में जब पाक आतंकियों को सुरक्षा परिशद में भारत ले जाता है तब चीन उन पर वीटो करके भारत को झटका देता है और अब उत्तर कोरिया के साथ खड़ा न होकर भी वह भारत को ही कुछ हद तक झटका दे रहा है। ऐसा करने से रूस, चीन, अमेरिका और जापान आदि के बीच कुछ मामले में चीन के साथ मंतव्य एक होते दिखाई दे रहे हैं और इस कूटनीतिक बढ़त को हो न हो वह भारत पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के काम ला सकता है। डोकलाम को लेकर भारत बहुत संवेदनषील है पर नतीजे कैसे निकलेंगे अभी पुख्ता कूटनीति बाहर नहीं आ पाई है। चीन की लगातार बढ़ती धौंस से भी बेचैनी है पर उसका डोकलाम पर ढीठता से अड़े रहना भी समाधान को समस्या की ओर धकेल रहा है। दक्षिण चीन सागर पर चीन कई बार कमजोर पड़ा है। भारत और इज़राइज के बीच बढ़ी दोस्ती से भी चीन बेचैन हुआ और इज़राइल के रास्ते भारत अमेरिका के और समीप गया है। गौरतलब है कि अमेरिका और इज़राइल की दोस्ती बड़ी गाढ़ी है। उत्तर कोरिया के नसीहत देने के पीछे चीन की संतुलित करने वाली कूटनीति भी हो सकती है क्योंकि इस रास्ते से वह भी अमेरिका से और नज़दीकी बढ़ा रहा है। 
प्रासंगिक भाव यह भी है कि दक्षिणी चीन सागर पर चीन आखिरकार आसियान में अपनी षर्त मनवाने में कामयाब रहा। दो दिवसीय बैठक समाप्त होने बाद जब बयान जारी किया गया तो इस बात का खास ख्याल रखा गया कि चीन को नाराज़ न किया जाय जिसके चलते हल्का साझा बयान ही देखने को मिला। गौरतलब है कि आसियान दस देषों का समूह है और चीन अपने फ्रेमवर्क में सभी को यहां भी ढालने के मामले में लगभग कामयाब रहा। प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राश्ट्रपति जिनपिंग के बीच हाल ही में हुए पेरिस मुलाकात को भी जोड़ दिया जाय तो मुलाकातों की संख्या 5 होती है। दुखद यह है कि दर्जन भर मुलाकात के बाद पाकिस्तान से धोखा मिला और लगभग आधा दर्जन मुलाकात के बाद चीन से भी ऐसी ही कुछ प्राप्ति हुई है। भारत उदार और संवेदनषील देषों में षुमार है विष्व की बदलती कूटनीति को लेकर उसे समझ है बावजूद इसके चीन जैसे चतुर और फितरती देषों से उसे कट-टू-कट ही सम्बंध रखना चाहिए। अच्छी उदारता और अच्छी भावना के लायक कम से कम चीन और पाकिस्तान तो नहीं हैं।


सुशील कुमार सिंह
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कांग्रेस विहीन भारत का मतलब

जब सितम्बर, 2013 में भाजपा के तत्कालीन राश्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर कार्यरत् नरेन्द्र मोदी को 2014 के लोकसभा चुनाव हेतु प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में भारतीय लोकतंत्र में परोसा तब मोदी ने अपने साख और कूबत को समूचे देष में प्रासंगिक बनाने के लिए कांग्रेस विहीन नारे को इजाद किया। छः करोड़ गुजरातियों के बीच सत्ता की हैट्रिक लगाने वाले मोदी अपनी पार्टी में सबसे अधिक कूबत वाले नेता के तौर पर न केवल उभरे बल्कि 2014 में उम्मीद से अधिक नतीजे भी दिये। 70 साल के इतिहास में 55 साल कांग्रेस तो बाकी समय की सरकार कमोबेष विपक्ष के हिस्से में ही रही है। मोरारजी देसाई से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक और अब स्वयं मोदी की सरकार इस श्रेणी में आती है। सूत्र वाक्य यह है कि 2014 के लोकसभा के चुनाव के पहले किसी भी विरोधी में न तो ऐसी कूबत थी न ही ऐसी सोच कि देष को कांग्रेस विहीन कहने की हिम्मत दिखाये पर मोदी दोनों काम करते दिख रहे हैं कांग्रेस विहीन नारे को बुलंद भी कर रहे हैं और इसके लिए जान भी लड़ा रहे हैं। गौरतलब है कि मोदी के प्रधानमंत्री के उम्मीदवारी के साथ ही एनडीए के घटक दलों में तोड़फोड़ हुई थी। बिहार के मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीष उसी समय अलग हुए थे जो पखवाड़े भर पहले एक बार फिर उसी में समा गये। फिलहाल इस मुद्दे से आगे बढ़ते हुए इस प्रसंग को समझना है कि क्यों मोदी कांग्रेस मुक्त भारत चाहते हैं। क्या इसके पीछे उनकी मंषा बिना विपक्ष की सत्ता चलाने से है या फिर विपक्ष को अपाहिज करके मैस्लो के उस सिद्धान्त की ओर जाना चाहते हैं जिसे ‘सेल्फ एक्चुलाइजेषन‘ कहा जाता है। 
कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने माना कि कांग्रेस विहीन भारत वाली मोदी की चाहत को वो गम्भीरता से लेते हैं पर उन्होंने यह भी कहा कि कांग्रेस के विचार की षुरूआत क्यों हुई उस पर भी गौर करने की जरूरत है। गौरतलब है कि कांग्रेस की षुरूआत 1885 में भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के उन दिनों में हुई थी जब देष औपनिवेषिक सत्ता से जकड़ा हुआ था। जिस कांग्रेस को मोदी समाप्त करना चाहते हैं उसी कांग्रेस की छतरी तले गांधी ने भी अंग्रेजों की दषकों लानत-मलानत की। अफ्रीका से जब गांधी 1915 में भारत आये और पहले सत्याग्रह में बिहार के चम्पारण गये जिसका 100वां वर्श फिलहाल चल रहा है। उस समय भी देष में विस्तृत कांग्रेस की विचारधारा से वे वाकिफ थे। असहयोग आंदोलन हो या भारत छोड़ो आंदोलन या अंग्रेजी वायसरायों के साथ बैठकर समझौता करने की बात रही हो बिना कांग्रेस के भारत का पक्ष कभी पूरा नहीं हुआ। यहां तक कि 1923 में बनी स्वराज पार्टी भी कांग्रेस का दाहिना हाथ ही थी। 1929 में लाहौर में हुए कांग्रेस के अधिवेषन के दौरान रावी नदी के तट पर 26 जनवरी 1930 को झण्डा लहरा कर पूर्ण आजादी की कसम खाई गयी थी। आज इसी दिन को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है और यही भारतीय संविधान लागू होने का दिन भी है। लंदन के तीन गोलमेज सम्मेलन में इतिहास उसी सम्मेलन को भारत के नेतृत्व के तौर पर मानता है जिसमें कांग्रेस की उपस्थिति थी। जाहिर है द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस की ओर से गांधी षामिल हुए थे। दो टूक यह भी है कि राश्ट्रवादियों ने जाति और धर्म से ऊपर उठकर देष की आजादी के लिए हर मौके पर स्वयं को खड़ा किया पर इस झुण्ड को एकीकृत करने में गांधी समेत कई अन्य नेता और कांग्रेस को ही इतिहास में दर्षाया गया है। विरोधाभास तो यह भी है कि महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद एवं पण्डित दीनदयाल उपाध्याय के बगैर मोदी की दिनचर्या अधूरी रहती है जबकि 1924 में बेलगाव के कांग्रेस अधिवेषन की अध्यक्षता स्वयं महात्मा गांधी ने की थी। यदि कहा जाय कि जिस गांधी के बगैर मोदी के सपने अधूरे हैं उस गांधी ने देष की आजादी के लिए कांग्रेस के सपनों के साथ हर कदम पर साथ रहे और यही बात कांग्रेस की गांधी के साथ लागू होती है पर यह बड़ा विरोधाभास है कि मोदी को केवल गांधी चाहिए कांग्रेस नहीं।
हांलाकि एक सच यह भी है कि गांधी स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस को बनाये रखने के पक्ष में नहीं थे पर इन बातों से ऊपर उठकर देखा जाय तो कांग्रेस लोकतंत्र से सत्ता हथियाई थी न कि कोई छीना-झपटी की थी। 70 सालों के लोकतांत्रिक इतिहास में इस बात का मंतव्य कांग्रेस में कितना रहा है कि विपक्ष हो ही न यह कह पाना मुष्किल है। नेहरू का यह वक्तव्य कि उनके नीतियों की भी आलोचना हो ताकि व्यवस्था समूचित रहे। इस बात का पुख्ता सबूत है कि विपक्ष विहीन सोच कांग्रेस नहीं रखती थी। बाद के कालों में इसकी गुंजाइष बनी है पर विपक्ष के बगैर देष न तो लोकतांत्रिक हो सकता है और न ही जनहित में। ऐसे में सवाल है कि कांग्रेस विहीन भारत के पीछे मोदी का इरादा देष को विपक्ष विहीन करना तो नहीं है या फिर कांग्रेस रूपी विपक्ष मात्र से छुटकारा पाना है। हालांकि यह सब बातें जनता पर टिकी हैं पर जिस कदर मोदी कांग्रेस विहीन भारत की अवधारणा को लेकर जनमानस को उकसाया है मौजूदा स्थिति में उसे लेकर लगातार कामयाब भी हो रहे हैं।
राहुल गांधी 2013 से कांग्रेस के उपाध्यक्ष हैं जबकि सोनिया लगातार कई वर्शों से अध्यक्ष हैं। खास यह भी है कि 1998 में बिना किसी सदन के सदस्यता के बगैर सोनिया गांधी को ठीक उसी तर्ज पर कांग्रेस पार्लियामेंटरी कमेटी का चेयरमैन चुना गया जैसे 1970 में इन्दिरा गांधी चुनी गयी थी। राजीव गांधी की हत्या के 6 साल बाद जब उनका राजनीति में आगमन हुआ तो पार्टी में सत्ता के दो केन्द्र बनने लगे थे। यहीं से कांग्रेस का आन्तरिक लोकतंत्र एक बार फिर खानदानी मिजाज से ग्रस्त हुआ। हालांकि 2004 के चुनाव में वाजपेयी को पटकनी देते हुए कांग्रेस वामपंथियों के साथ मिलकर सत्ता में वापसी कर ली पर हो रहे नुकसान पर लगाम नहीं लगा पाये और यूपीए-2 में तो भ्रश्टाचार का पुलिंदा इतना मोटा हो गया कि मोदी को कांग्रेस विहीन भारत कहने में कोई गुरेज नहीं हुआ। राहुल गांधी को आगामी प्रधानमंत्री के रूप में परोसने की फिराक में भी कांग्रेस को काफी नुकसान हुआ है। मोदी जानते हैं कि कांग्रेस संरचनात्मक और कार्यात्मक दृश्टि से देष के कोने-कोने में है और मुकाबले में भी कुछ राज्यों को छोड़ दिया जाय तो कांग्रेस ही है। हालांकि अब कांग्रेस का किला बहुत ढह चुका है पर चुनौतियां तो अभी भी बाकी हैं। वैसे मोदी कांग्रेस विहीन के साथ विपक्ष विहीन की अवधारणा पर भी कदम बढ़ा चुके हैं। बिहार में बदली सियासी दांव-पेंच में बिना किसी खास प्रयास के सत्ता उनकी गोद में आकर बैठ गई और लगभग दो साल पुरानी हार बिना किसी खास प्रयास के जीत में बदल गयी। सुगबुगाहट यह भी है कि तमिलनाडु की सरकार चला रहे एआईडीएमके एनडीए का हिस्सा बनेंगे। जाहिर है दक्षिण का यह राज्य भी उन्हीं के प्रभाव में आने वाला है। पष्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और मोदी के बीच 36 के आंकड़े में रत्ती भर की कमी नहीं आई है। जाहिर है आगामी चुनाव में देर-सवेर बड़े वार से पष्चिम बंगाल भी नहीं बचेगा। गुजरात में चुनाव होने वाला है और कांग्रेस वहां भी पतझड़ की अवस्था में है चुनाव से पहले उत्तराखण्ड में भी कांग्रेस टूटी थी और हश्र इतना बुरा हुआ कि 70 के मुकाबले 11 सीटों पर ही सिमट गई। खास यह भी है कि कुछ महीने पहले मिजोरम और गोवा में कांग्रेस से कम सीट जीतने वाली भाजपा सत्ता में आई। बीते 20 जुलाई एवं 5 अगस्त को रामनाथ कोविंद राश्ट्रपति एवं वैंकेया नायडू उपराश्ट्रपति के लिए चुने गये जो एनडीए से ही सम्बन्धित रहे हैं। प्रधानमंत्री एवं लोकसभा स्पीकर समेत ये सभी चारों संवैधानिक पद पर ऐसा पहली बार हुआ है जब कांग्रेस विहीन व्यक्तित्व विराजमान हुए हैं। फिलहाल कांग्रेस पर से जनता का उठता विष्वास और मोदी के प्रगाढ़ होते रिष्ते भी कांग्रेस विहीन भारत की अवधारणा को बलवती कर रहा है।


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Wednesday, August 2, 2017

आतंक पर भारी ऑपरेशन ऑल आउट

जिस प्रारूप पर आतंकियों के सफाये को लेकर इन दिनों घाटी में आपरेषन आॅल आउट कामयाबी की ओर है उससे तो यही लगता है कि वर्शों से हिंसा के शिकार कश्मीर घाटी अमन की ओर जा रही है। हालांकि ऐसा दावा करना अभी पूरी तरह पुख्ता नहीं है फिर भी जिस तरह टेरर फण्डिंग पर षिकंजा कसा गया है और जिस तरह लोगों को भड़काने से हुर्रियत नेता अब बाज आ रहे हैं साथ ही जिस भांति पत्थरबाजों की संख्या में कमी आई है उसे देखते हुए तो यही लगता है। सेना द्वारा 2 माह पहले षुरू आॅपरेषन आॅल आउट लगभग आधा रास्ता तय कर चुका है। चिन्ह्ति 258 दुर्दान्त आतंकियों में से 120 का सफाया फिलहाल किया जा चुका है। बीते 1 अगस्त को सुरक्षा बलों को 12 से अधिक बार चकमा दे चुका लष्कर का षीर्श कमाण्डर अबु दुजाना भी मुठभेड़ में मारा गया। जाहिर है भारतीय सेना के हाथ एक बड़ी कामयाबी लगी है और पाकिस्तान के आतंकियों को बड़ा मनोवैज्ञानिक झटका हालांकि आतंकी नेटवर्क इतना बड़ा है कि इकाई-दहाई की सफलता से बात नहीं बनेगी बल्कि सैकड़ों-हजारों की तादाद में आतंकियों के सफाये की जरूरत है। 15 लाख का इनामी यह मोस्ट वांटेड पाकिस्तानी आतंकी भारत के लिए बरसों से सिरदर्द बना हुआ था। सोचने वाली बात यह भी है कि कष्मीर के अमन-चैन के साथ जिस तरह से अलगाववादियों ने बेइमानी की है उसे पचाना फिलहाल बहुत मुष्किल है। आधा दर्जन से ज्यादा हुर्रियत नेता हवालात में ठूसे जा चुके हैं जाहिर है इनके मनोबल पर दोहरी मार तो पड़ी है। दो टूक यह भी है कि सुरक्षा बलों को जिस तरह की समस्या झेलनी पड़ी है उसे षब्दों में बयान करना कठिन है। पत्थरबाजी के चलते घाटी के हालात का बेकाबू होना षिक्षा, स्वास्थ, चिकित्सा समेत वहां की कानून-व्यवस्था के चरमराने जैसे कई घटनायें घाटी के दर्द को बयान करती हैं। अब लड़ाई आतंक के खिलाफ तो बड़ी प्रतीत होती है पर जब तक पाक अधिकृत कष्मीर से आतंकियों का नामोनिषान नहीं मिट जाता तब तक बात अधूरी ही रहेगी। 
सुखद यह भी है कि इस साल अब तक सौ से ज्यादा आतंकी मारे जा चुके हैं जिसमें कई षीर्श कमाण्डर भी षामिल हैं जिसमें सब्जार भट्ट, जुनैद मट्टू तथा बसीर लष्करी षामिल है। निहित भाव यह भी है कि पाकिस्तान में इज्जतदार नागरिक की जिन्दगी जीने वाला जमात-उद-दावा का मुखिया हाफिज़ सईद की नज़रबन्दी की अवधि दो महीने के लिए और बढ़ा दी गई। गौरतलब है कि इसी वर्श 20 जनवरी से अमेरिका में सत्ता परिवर्तन हुआ। बराक ओबामा की जगह डोनाल्ड ट्रंप राश्ट्रपति बने जिन्होंने षपथ के एक हफ्ते की भीतर ही सात मुस्लिम देषों पर अमेरिका में प्रवेष पर बैन लगा दिया। अमेरिका के इस कदम से पाकिस्तान भी सकपका गया और उसके भी खूब पसीने छूटे। मामले की गम्भीरता को देखते हुए हाफिज़ सईद को 31 जनवरी से नज़रबंद करने का फरमान पाकिस्तान ने जारी किया गया जिसकी अवधि अब बढ़ा दी गयी है। अमेरिका की पाकिस्तान पर आतंक को लेकर टेड़ी हुई नज़र भारत को बल प्रदान करने में सहायक तो है पर पाकिस्तान के बढ़ते करतूतों से तो यही लगता है कि उसे कोई बड़ा भय षायद ही सता रहा हो। इसके पीछे एक बड़ी वजह चीन का उसे प्राप्त हो रहा समर्थन है। पाकिस्तान जानता है कि चीन की सरपरस्ती में भारत के साथ छद्म युद्ध बरसों तक बनाये रखा जा सकता है। जिस तरह सिल्क मार्ग व वन बेल्ट, वन रोड के माध्यम से चीन पाकिस्तान को अपना उपनिवेष बना रहा है और जिस तरह का लोभ पाकिस्तान को दिखा रहा है उस चकाचैंध में पाकिस्तान अपनी गुलामी को न्यौता दे बैठा है। पाकिस्तान यह नहीं जानता कि तिब्बत से लेकर ताइवान और अब भूटान पर कुदृश्टि रखने वाला चीन कब आर्थिक प्रभाव दिखा कर बीजिंग और इस्लामाबाद के फासले को खत्म कर देगा इसका उसे पता ही नहीं चलेगा। गौरतलब है कि पाक अधिकृत कष्मीर में चीन का वन बेल्ट, वन रोड परियोजना का भारत विरोधी है। हैरत इस बात की है कि भारत और चीन के बीच सिक्किम सैक्टर में जारी सैन्य तनाव के बीच 25 जुलाई को दो सौ चीनी सैनिक उत्तराखण्ड की सीमा में एक किमी अंदर घुसपैठ किये। हालांकि बीते कुछ वर्शों से चीन उत्तराखण्ड की सीमा पर अपनी कुदृश्टि डाले हुए है उत्तराखण्ड समेत भारत सरकार को इस मामले में तुलनात्मक अधिक चैकन्ना रहने की जरूरत तो है।
वैसे देखा जाय तो वैष्विक परिप्रेक्ष्य में आतंक को लेकर बड़े-बड़े मंचों से बड़ी-बड़ी बाते कही जा रही है। अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से लेकर रूसी राश्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन तक दुनिया से आतंक के सफाये को लेकर एकजुटता की बात कर रहे हैं पर षायद वे अभी भी पूरी तरह भिज्ञ नहीं हैं कि इसकी षुरूआत पहले पाकिस्तान से ही होनी चाहिए और आतंकियों को समर्थन देने वाले चीन को भी कुछ सद्बुद्धि देनी चाहिए। सभी जानते हैं कि कष्मीर घाटी में पसरा आतंकवाद पाकिस्तान की सरपरस्ती में फलता-फूलता है और घाटी में रहने वाले अलगाववादी नेता मसलन हुर्रियत जैसे इसे खाद-पानी देने में कभी भी पीछे नहीं रहे। कष्मीर में आतंकवाद का जो प्रभाव बीते तीन दषकों से है और जिस तरह इसकी पैदावार प्रतिवर्श की दर से बढ़ी है उसे देखते हुए तुरंत निपट पाना तो सम्भव नहीं है पर सेना जिस तर्ज पर आॅपरेषन आॅल आउट के माध्यम से इनके सफाये में जुटी है उससे बड़ी उम्मीद बंधती है। निर्धारित रणनीति के अन्तर्गत इसे लेकर मीलों का सफर तय भी किया गया और नतीजे बेहतरी की ओर हैं। गौरतलब है कि जब इस प्रकार की गतिविधियों को सेना द्वारा अंजाम दिया जा रहा था तो इसी बीच टेरर फण्डिंग पर कसा गया षिकंजा कार्यवाही में मददगार सिद्ध हुआ। दो टूक यह भी है कि घाटी में अलगाववादियों ने आतंकियों के हिंसक मन में खूब पेट्रोल छिड़कने का काम किया है। इतना ही नहीं देष के प्रति जब भी कुछ बोला भारत के लिए भारी ही रहा है। स्पश्ट है कि कई महीनों से कष्मीर घाटी में पत्थरबाजी का परिदृष्य बना रहा जिसकी चपेट में सेना भी रही। ताण्डव इस प्रकार का फैला था कि मानो घाटी पर फैलती आग पर काबू पाना सम्भव ही नहीं है पर आॅपरेषन आॅल आउट के माध्यम से अमन का रास्ता थोड़ा चैड़ा होता दिखाई दे रहा है। 
घाटी में दो काम करना है एक आतंकियों के खात्मे को लेकर आॅपरेषन बनाये रखना दूसरा राजनीतिक बिसात पर पारदर्षिता को प्रतिस्थापित करके कष्मीरियों का दिल भारत के लिए धड़काना मुख्यतः यह बात उन पर लागू है जो अलगाववादियों की चपेट में है। पाकिस्तान की जमीन पर भारत को नश्ट करने का जो खाका खींचा जाता है उससे पूरी तरह निजात तभी मिलेगी जब पीओके से भी आतंकी और उनके लांचिंग पैड को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया जाय। सितम्बर 2016 में उरी घटना के 10 दिन के भीतर जब भारतीय सेना ने पीओके में 10 किमी अंदर घुस कर 40 से अधिक आतंकियों को मार गिराया और कई लांचिंग पैड नश्ट किये तो दुनिया ने भारत के साहस की तारीफ ही की थी और यह उम्मीद जगी थी कि पीओके रास्ते घाटी में अमन को निगलने वाले आतंकियों को सबक सिखाया जा सकता है। आॅपरेषन आॅल आउट के माध्यम से भारतीय सेना जिस कदर अपने मिषन में आगे बढ़ रही है उससे यह बल तो मिलता ही है कि आतंकियों समेत घाटी के भीतर के अलगाववादियों का मनोबल टूटेगा पर इस चिंता से पूरी तरह कैसे मुक्त हुआ जायेगा कि जम्मू एवं कष्मीर जो भारतीय संविधान के पहली सूची में उल्लेखित 15वां राज्य है वहां आम राज्यों की तरह वातावरण कायम होगा। फिलहाल आॅपरेषन आॅल आउट इन दिनों आतंकियों पर भारी है और घाटी इनके बोझ से मुक्त हो रही है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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