Thursday, December 31, 2020

साल २०२० में भारत की विदेश नीति

बेषक भारत की विदेष नीति कोरोना के इस पूरे दौर में कई मोड़ों से गुजरी मगर अन्तर्राश्ट्रीय समस्याओं के सापेक्ष भारत की कुषल व सुषासनिक रणनीति इसे हावी नहीं होने दिया। यदि यह कहा जाये कि साल 2020 कोरोना वर्श था तो अतिष्योक्ति न होगा जो षासन और नागरिकों के लिए एक कठिन दौर था और अभी यह समाप्त नहीं हुआ है। 2020 स्याह के साथ षाम की ओर है मगर 2021 का सूरज भी कोरोना के वातावरण में ही चमकने वाला है और यह सिलसिला कब तक चलेगा इसका पुख्ता जवाब किसी के पास नहीं है। अन्तर्राश्ट्रीय सम्बंध को अपने पैमाने में ढाल लेना एक गुणात्मक सोच को दर्षाता है। जब सरकार स्मार्ट कदम उठाती है और षासन जवाबदेहिता व उत्तरदायित्व के साथ देष को प्रथम रखता है तो सुषासन का सूरज उगने से कोई नहीं रोक सकता। अन्तर्राश्ट्रीय समस्याओं के मामले में भारत की मौजूदा स्थिति इसी मुकाम पर है। एक तरफ कोरोना की जंग तो दूसरी तरफ मई की षुरूआत में लद्दाख में चीन के कुटिल इरादे जहां भारत को बेचैन करने का मनसूबा लिए थे वहीं दोनों से लड़ते हुए भारत ने अपनी सुषासनिक दक्षता का परिचय दिया। गौरतलब है कोरोना से बहुत कुछ खटाई में गया, अर्थव्यवस्था खतरे में गयी और अन्य व्यवस्थाएं भी नाजुक मोड़ पर खड़ी हो गयी। चीन का लद्दाख में घुसपैठ द्विपक्षीय सम्बंध को रसातल में धकेल दिया। यह वह दौर था जब भारत लाॅकडाउन में चल रहा था। सैन्य अधिकारी स्तर पर द्विपक्षीय वार्ताओं का सिलसिला भी माह जून में चला मगर 15 जून की काली रात में चीन ने वो कारनामा किया जो देष के इतिहास में कभी-कभार घटा था। भारत के कई जवान षहीद हुए मगर कहा यह भी जाता है कि कई गुना चीनी सैनिक भी मारे गये। समस्या की संवेदनषीलता को देखते हुए प्रधानमंत्री व रक्षामंत्री समेत कई आला अफसरों का लद्दाख का दौरा परवान चढ़ा। दिल्ली से लेकर देष की सीमा तक चीन को गलतफहमी में न रहने का बार-बार अल्टिमेटम दिया गया नतीजन चीन भारत को हल्के में लेने की गलती से बाज आया। हालांकि समस्या आज भी हल प्राप्त नहीं कर पायी है मगर अन्तर्राश्ट्रीय सम्बंध में सुषासन कैसा होना चाहिए इसका संदर्भ भारत विदेष नीति में दिखाई देती है। 

24 मार्च को देष में लाॅकडाउन लगा और ठीक उसके एक माह पहले फरवरी में अमेरिकी राश्ट्रपति ट्रम्प की भारत यात्रा थी जो व्यापार सहयोग के साथ रक्षा सहयोग व द्विपक्षीय सम्बंधों को कहीं अधिक पुख्ता करने वाला था। हालांकि ट्रम्प के षासनकाल में नस्लभेद के पुराने जिन्न से एक बार फिर अमेरिका को जूझना पड़ा। गौरतलब है कि कोरोना के इसी दौर में ट्रम्प चुनाव हार चुके हैं और उनके स्थान पर जो बाइडेन अगले अमेरिकी राश्ट्रपति हैं और भारतीय मूल की कमला हैरिस उपराश्ट्रपति चुनी जा चुकी हैं। जाहिर है दोनों देषों के बीच द्विपक्षीय सम्बंधों को एक नई धरातल नवम्बर 20 में चुनी गयी सरकार के साथ 2021 में बनानी होगी। इसके पहले अक्टूबर में दोनों देषों के बीच टू-प्लस-टू की वार्ता भी सम्बंध के सुषासन को गाढ़ा करता है। इतना ही नहीं हाइड्राॅक्सि क्लोरोक्विन की अमेरिकी मांग को भी भारत ने जिस तत्परता से पूरा किया वह अन्तर्राश्ट्रीय सम्बंध के मामले में भारत के सुषासन को न केवल पुख्ता करता है बल्कि माहौल को देखते हुए स्मार्ट सरकार का परिचय भी निहित है। भारत ने पड़ोसी देष श्रीलंका को 10 टन, नेपाल को 23 टन चिकित्सीय सामग्री उपलब्ध करायी। भूटान के मामले में भी उसका आपूर्ति वाला रवैया देखा जा सकता है। बांग्लादेष से लेकर ब्राजील तक भारत इस मामले में सुषासन भरा कदम उठाने में नहीं हिचका। यह बात मजबूती से और लागू होती है कि भारत ने कोरोना से पीड़ित 50 से अधिक देषों को इस प्रकार की सहायता देने में अग्रसर रहा। जाहिर है द्विपक्षीय या बहुपक्षीय सम्बंधों के लिहाज़ से इन स्याह दिनों में भी भारत आगे था। 

अन्तर्राश्ट्रीय सम्बंध और सुषासन का गहरा नाता है। भले ही सुषासन की परिभाशा विष्व बैंक ने 90 के दषक में सामाजिक-आर्थिक न्याय की दृश्टि से दी हो मगर यह सीमाओं में बंधने वाला षब्द नहीं है। सुषासन एक सर्वोदय है और अन्त्योदय भी। इसमें गांधी से लेकर विवेकानंद और गीता से लेकर रामायण का सरोकार निहित है। राश्ट्रीय नीति विदेष नीति का प्रारम्भिक बिन्दु कहा जाता है यह वास्तव में समस्त अन्तर्राश्ट्रीय सम्बंधों का आधार है। विदेष नीति सदैव अपने उद्देष्यों को प्राप्त करने के लिए कार्यषील रहती है। भारत इसी मामले में यथास्थिति की नीति, कूटनीति, गठबंधन तथा संधियां आदि को समावेषी दृश्टिकोण से बनाये रखने में अग्रसर रहता है। अन्तर्राश्ट्रीय सम्बंध में राश्ट्रीय हित और स्वयं को प्रथम रखना भी भारत बाखूबी करता रहा है। गौरतलब है हिन्द महासागर को चीन की तिरछी नजर से बचाना और दक्षिण चीन सागर में उसके एकाधिकार को चुनौती देने के मामले में भारत कमतर नहीं रहा है। आसियान देषों के साथ भारत के अच्छे सम्बंध और एषिया-पेसिफिक तक की दौड़ भारत की बेहतर नीतियों का ही परिणाम है। दक्षिण कोरिया, आॅस्ट्रेलिया, जापान और नैसर्गिक मित्र रूस ही नहीं यूरोपीय देषों से लेकर लैटिन अमेरिका और अफ्रीकी देषों तक भारत की सघनता सम्बंधों की दृश्टि से सुषासन से भरी रही है। कोरोना के इस कालखण्ड में आवाजाही तो सम्भव नहीं थी मगर वर्चुअल कांफ्रेंस के माध्यम से मंचीय अवधारणा से युक्त भारत अपनी ताकत कोरोना काल में भी दिखाया है। प्रधानमंत्री मोदी के लाॅकडाउन और कोरोना को लेकर संवेदनषीलता के लिए विष्व स्वास्थ संगठन भी तारीफ कर चुका है। देष में कोरोना के हालात अभी भी अच्छे नहीं है मगर वैदेषिक सम्बंधों के मामले में कोरोना की काली छाया इरादे को कमजोर नहीं होने दिया। स्पश्ट है कि भारत दुनिया के मानचित्र में षान्ति और सहयोग के लिए जाना जाता है। दूसरे देषों के साथ उसका सहयोगी रवैया इस बात को पुख्ता करता है। 


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

आर्थिकी को पंगु बनाने में २१ रहा साल २०२०

दुनिया की अर्थव्यवस्था पर दृश्टि रखने वाली संस्था आॅक्सफोर्ड इकोनोमिक्स की भारतीय अर्थव्यवस्था पर आयी हालिया रिपोर्ट यह कहती है कि 2020 से 2025 के बीच आर्थिक विकास दर कोविड महामारी से पहले अनुमानित 6.5 फीसद से गिर कर केवल 4.5 रहने का पूर्वानुमान है। स्पश्ट है कि दहाई में विकास दर ले जाने का सपना यहां टूटता दिखाई देता है साथ ही 2024 तक 5 ट्रिलियन डाॅलर की भारतीय अर्थव्यवस्था को भी धक्का लगना लाज़मी है। स्थिति तो यहां तक आ चुकी है कि भारत का विकास दर ऋणात्मक 23 तक पहुंच गया था जिसमें बीते कुछ महीनों से सुधार देखने को मिल रहा है। कोरोना के कारण मार्च में लगा लाॅकडाउन लगभग दो महीने से थोड़ा अधिक था। मई के आखिर में सरकार ने आर्थिक गतिविधियों को तवज्जो देते हुए अनलाॅक की प्रक्रिया षुरू की थी मगर मन माफिक अर्थव्यवस्था सिर्फ सपना बन कर रह गयी। गौरतलब है कि साल 2020 की पहली तिमाही अप्रैल से जून के बीच जीडीपी में 23.9 फीसद की गिरावट दर्ज की गयी थी। आंकलन तो यह भी है कि साल 2025 तक भी भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी कोविड से पहले की तुलना में 12 प्रतिषत तक नीचे रहेगी। नीति आयोग के एक पूर्व अर्थषास्त्री की बात माने तो कोविड की वजह से हालत और खराब कर दी है। बेरोज़गारी उच्च स्तर पर है और जो राहत पैकेज दिया गया है वो सप्लाई साइड को ध्यान में रख कर दिया गया। गौरतलब है कि मई 2020 में मोदी सरकार ने 20 लाख करोड़ रूपए का राहत पैकेज घोशित किया था इसका सीधा लाभ जनता को कितना मिला यह पड़ताल का विशय है पर धनराषि की मात्रा देखकर किसी के लिए भी एक सुखद एहसास हो सकता है।

लाॅकडाउन के दौरान 15 अप्रैल तक के लिए सभी देषों के वीजा रद्द कर दिये गये थे जिसके चलते विदेषी पर्यटन उद्योग चरमरा गया। इससे कमाई पर भी असर पड़ा। गौरतलब है कि इस क्षेत्र में 2 लाख करोड़ से अधिक की कमाई प्रति वर्श होती है। विमान उद्योग भी ठप्प पड़ गये। इस कारोबार में कम से कम 63 अरब डाॅलर के नुकसान की सम्भावना व्यक्त की गयी इसमें माल ढुलाई के व्यापार को होने वाला नुकसान षामिल नहीं था। सड़क परिवहन और रेल का भी चक्का जाम रहा। अभी भी पहले की तरह रेलें नहीं चल रही हैं जो अर्थव्यवस्था पर बुरी मार है। आॅटोमोबाइल उद्योग पर भी इसका खतरा बाकायदा दिखा। भारत ने इस क्षेत्र में लगभग पौने चार करोड़ लोग काम करते हैं कोरोना के व्यापक असर से यहां भी आर्थिकी और बेरोज़गारी दोनों खतरे में चले गये। वैष्विक स्तर पर चीन एक-तिहाई औद्योगिक विनिर्माण करता है। यह दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है। वायरस के चलते अर्थव्यवस्था की सांस लगातार उखड़ रही थी जिसमें चीन, अमेरिका व भारत समेत पूरी दुनिया षामिल थी। इस वायरस ने षेयर मार्केट में भी बड़ा नुकसान किया है। यहां एक दिन के भीतर 11 लाख करोड़ रूपए का नुकसान भी देखा जा सकता है जो 2008 के वित्तीय संकट के बाद सबसे बुरा दौर था। लाॅकडाउन के दौरान हवाई यात्रा, षेयर बाजार, वैष्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं समेत लगभग क्षेत्र प्रभावित रहे और असर कमोबेष अभी भी बरकरार है। भारत के फार्मासिस्टिकल, इलेक्ट्रिकल व आॅटोमोबाइल उद्योग को व्यापक आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा है मगर जब देष अभूतपूर्व आर्थिक चुनौती का सामना कर रहा था तब जून में यह भी खबर मिली कि भारत का विदेषी मुद्रा भण्डार बढ़ रहा है। तमाम आर्थिक दुर्घटनाओं के बावजूद विदेषी मुद्रा भण्डार बढ़ कर जून माह में 50 हजार करोड़ के लगभग पहुंच जाना एक सुखद आष्चर्य ही था। गौरतलब है कि मई में विदेषी मुद्रा भण्डार में 1240 करोड़ डाॅलर का उछाल आया और महीने के अंत तक यह 50 हजार डाॅलर के पास पहुंच गया जिसे रूपए में 37 लाख करोड़ से अधिक कह सकते हैं। 

कोरोना की मार से कोई क्षेत्र नहीं बचा मगर कृशि और मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में उछाल देखने को मिला। कृशि, मत्स्यपालन और वानिकी के क्षेत्र में रफ्तार तेज हुई जबकि मैन्यूफैक्चरिंग, बिजली, गैस और अन्य उपभोग की सेवाओं में स्थिति संतुलित बनी रही। गौरतलब है कि जीडीपी के तिमाही आंकड़े जारी करने की परम्परा 1996 में षुरू हुई तब से पहली बार लाॅकडाउन के समय तकनीकी मंदी की आहट दिखी थी। जुलाई से सितम्बर की तिमाही के आंकड़े भी आषंकाओं से भरे थे और अक्टूबर से दिसम्बर के बीच लगभग क्षेत्रों में सकारात्मक परिवर्तन देखा जा सकता है। इस आधार पर यह अनुमान सही हो सकता है कि यह आगे आर्थिक हालात बेहतर रहेंगे मगर यह पूरी तरह तभी सही होगा जब कोरोना की चपेट से देष निरंतर बाहर की ओर होगा। कोरोना को लेकर दुनिया में अभी किसी के पास पुख्ता दावा नहीं हे कि यह कब समाप्त होगा। जाहिर है टीका ही इसका अन्तिम समाधान है मगर टीका को लेकर भी राय षुमारी एक नहीं है। बेपटरी हो चुकी देष की अर्थव्यवस्था और लोगों के हाथों से छिन चुके रोज़गार पहले से चली आ रही समस्या को चैगुनी कर दिया है। स्कूल, काॅलेज और विष्वविद्यालय में पठन-पाठन की सुचिता अभी भी विकसित नहीं हो पायी है। हालांकि इसके लिए कोषिषें सरकारी तौर पर भी की गयी मगर कोरोना का खौफ से ये मुक्त नहीं हो पायें हैं। साफ है कोरोना का बने रहना घाटे में जा चुकी अर्थव्यवस्था के लिए अभी भी चुनौती है। उद्योग और सेवा क्षेत्र जिस तरह प्रभावित हुए हैं उससे कृशि क्षेत्र की महत्ता कहीं अधिक बढ़त के साथ देख सकते हैं। इन दिनों आत्मनिर्भर भारत की भावना पोशित की जा रही है। वित्त मंत्री ने आत्मनिर्भर भारत को लेकर बड़े पैकेज का भी ऐलान किया। आंकड़ों पर नजर डाली जाये तो कोरोना काल में कुल मौद्रिक और वित्तीय प्रोत्साहन की राषि लगभग 30 लाख करोड़ रूपए तक पहुंच गयी है जो जीडीपी का 15 फीसद है और किसी भी वर्श के एक बजट के बराबर है। 

वन नेषन, वन टैक्स वाला जीएसटी भी कोरोना की चपेट में बुरी तरह लड़खड़ा गया। लाॅकडाउन के दौरान जिस जीएसटी से महीने भर में एक लाख करोड़ से अधिक की वसूली हो जाती थी वहीं वित्त मंत्रालय के आंकड़े को देखें तो अप्रैल में मात्र 32 हजार करोड़ रूपए का राजस्व संग्रह हुआ और मई में यह 62 हजार करोड़ हुआ जबकि जून में 40 हजार करोड़ रूपए का कलेक्षन देखा जा सकता है जो पिछले साल की तुलना में आधे से कम और कहीं-कहीं तो एक-तिहाई ही कलेक्षन हुए हैं। हालांकि इसके बाद जीएसटी का कलेक्षन निरंतर बढ़ा है और कुछ माह में तो यह आंकड़ा एक लाख करोड़ को पार किया है बावजूद इसके राज्यों को जीएसटी का बकाया देने के मामले में केन्द्र सरकार की कठिनाई बरकरार रही। कोविड-19 के चलते आरबीआई भी चिंता में गया उसकी यह सलाह कि अर्थव्यवस्था पर इस संक्रामक बिमारी के प्रसार के आर्थिक प्रभाव से निकलने के लिए आकस्मिक योजना तैयार रखनी चाहिए समस्या की गम्भीरता को दर्षाता है। कोरोना वायरस का वैष्विक अर्थव्यवस्था पर प्रभाव 2003 में फैले सार्स के मुकाबले अधिक है। सार्स के समय चीन छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देष था जहां कमोबेष अब भारत है और उसका वैष्विक जीडीपी में योगदन 4.2 था जबकि कोरोना के समय में वह दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था है और वैष्विक जीडीपी में योगदान 16.3 फीसद रहता है। गौरतलब है कि अमेरिका 19 ट्रिलियन डाॅलर के साथ दुनिया की पहली अर्थव्यवस्था है जबकि भारत बामुष्किल तीन ट्रिलियन डाॅलर के साथ तुलनात्मक कहीं बहुत पीछे है। कोरोना के चलते बुनियादी जीवन तहस-नहस हुआ है और अभी इससे उबरने में व्यापक वक्त लगेगा। 


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

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सुशासन की प्राथमिकता गरीबी और भुखमरी से मुक्ति

बेषक देष की सत्ता पुराने डिजाइन से बाहर निकल गयी हो मगर दावे और वायदे का परिपूर्ण होना अभी दूर की कौड़ी है। विष्व बैंक का कुछ समय पहले यह कहना कि 1990 के बाद अब तक भारत अपनी गरीबी दर को आधे स्तर पर ले जाने में सफल रहा यह संदर्भ देष के मनोबल बढ़ाने के काम आ सकता है पर हालिया ग्लोबल हंगर रिपोर्ट 2020 को देखें तो भारत में अब भी काफी भुखमरी मौजूद है। गौरतलब है कि 107 देषों के लिए की गयी रैंकिंग में भारत 94वें पायदान पर है। रिपोर्ट के अनुसार 27.2 के स्कोर के साथ भारत भूख के मामले में गम्भीर स्थिति में है। पिछले साल इसी मामले में भारत का स्कोर 30.3 था। बड़े मुद्दे क्या होते हैं और क्या होती हैं बड़ी रणनीतियां। नीतियां बनती हैं, लागू होती हैं और उनक मूल्यांकन भी किया जाता है पर नतीजे इस रूप में हों तो हैरत होती है। सत्तासीन भी बहुत कुछ करने में षायद सफल नहीं होते इसकी एक बड़ी वजह बड़े एजेण्डे हो सकते हैं। सुषासन, षासन की वह कला है जिसमें सर्वोदय और अंत्योदय जैसे रहस्य छुपे हैं जो स्वयं में लोक विकास की कुंजी है। सामाजिक-आर्थिक उन्नयन में सरकारें खुली किताब की तरह रहें और देष की जनता को दिल खोलकर विकास दें ऐसा कम ही रहा है। मानवाधिकार, सहभागी विकास और लोकतांत्रिकरण का महत्व सुषासन की सीमाओं में आते हैं जबकि गरीबी, भुखमरी और बुनियादी समस्याएं षासन का पलीता लगाते हैं। अगर देष में गरीबी रेखा से लोग ऊपर उठ रहे हैं तो भुखमरी के कारण देष फिसड्डी क्यों हो रहा है यह भी लाख टके का सवाल है। अर्थषास्त्र का यह दोहरा अर्थ समझ पाना बहुत मुष्किल है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स की पूरी पड़ताल यह बताती है कि भुखमरी दूर करने के मामले में मौजूदा मोदी सरकार मनमोहन सरकार से मीलों पीछे चल रही है। 2014 में भारत की रैंकिंग 55 हुआ करती थी जबकि साल 2015 में 80, 2016 में 97, 2017 में यह खिसक कर 100वें स्थान पर चला गया और 2018 में तो यही रैंकिंग 103वें स्थान पर रही। 2019 की रैंकिंग में भारत का स्थान 117 देषों में 102 पर था। हालांकि 2020 में स्थिति थोड़ी सुधरी हुई दिखाई देती है पर जीवन की जद्दोजहद कोरोना के चलते और कठिन हो गया है। 

25 दिसम्बर क्रिसमस दिवस के रूप में ही नहीं बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन के रूप में भी मनाने की प्रथा रही है। प्रधानमंत्री मोदी ने वर्श 2014 में इस तिथि को सुषासन दिवस के रूप में प्रतिश्ठित किया। ऐसा पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी के सम्मान को बढ़ाने के चलते भी देखा जा सकता है। तभी से 25 दिसम्बर एक नई अवधारणा व विचारधारा से पोशित सुषासनिक राह ले लिया। सफल और मजबूत मानवीय विकास को समझने के लिए सुषासन के निहित आयामों को जांचा-परखा जा सकता है। हालांकि सुषासन के मामले में एक सर्वमान्य परिभाशा गढ़ना अभी आभाव में है पर विष्व बैंक ने जिस प्रकार से आर्थिक संदर्भ को ध्यान में रखकर सुषासन की व्याख्या की उससे यह स्पश्ट होता है कि समावेषी और सतत् विकास के साथ षान्ति और खुषियां को एक पहलू में करना सुषासन है। गौरतलब है कि 1992 में गुड गवर्नेंस की अवधारणा परिलक्षित हुई और इंग्लैण्ड इसे अपनाने वाला दुनिया का पहला देष है। 1992 की 8वीं पंचवर्शीय योजना समावेषी विकास से प्रेरित थी। इसके पहले 1991 का आर्थिक उदारीकरण, लोचषीलता का एक ऐसा पैमाना था जहां से सुषासन की राह निकलती है। संविधान में हुए 73वें, 74वें संषोधन से लोकतंत्र को एक नई ताकत मिली। उक्त तमाम बिन्दु सुषासन की गहरी छाप छोड़ते हैं। सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है जिसमें लोक सषक्तिकरण निहित है। ध्यानतव्य हो कि सुषासन का तात्पर्य सरकार की मजबूती नहीं बल्कि जनता को ताकतवर बनाने से है और जनता तब ताकतवर बनती है जब भूख और गरीबी से मुक्त होती है। 

वैष्विक निर्धनता आंकलन 1970 के दषक में प्रारम्भ हुआ। रणनीतिकारों ने अत्यंत निर्धन विकासषील देषों के राश्ट्रीय निर्धनता रेखा के आधार पर अन्तर्राश्ट्रीय निर्धनता रेखा के लिए षोध किया। निर्धनता के समग्र आंकड़ों को मापने हेतु जिन देषों ने बहुआयामी निर्धनता सूचकांक को अपनाया उनमें से सर्वाधिक लाभ भारत को हुआ कहा जाता है। साल 2019 तक की जानकारी को देखें तो निर्धनता में तेजी से गिरावट भारत में देखी जा सकती है पर कोविड-19 के चलते निर्धनता कहीं न कहीं फिर एक बार मुखर हो रही है। निर्धनता, भुखमरी का एक बड़ा कारण है और इन दोनों का कारण बेरोज़गारी है और व्याप्त बेरोज़गारी यह संकेत करती है कि नीति-निर्माताओं ने लोगों को जिस पैमाने पर सषक्त करना चाहिए वैसा नहीं किया। ऐसे में सुषासन का पैमाना किसी भी तरह से बड़ा नहीं हो सकता। देष बदल रहा है, चुनौतियां अलग रास्ता अख्तियार कर रही हैं एक ओर डिजिटल इण्डिया और न्यू इण्डिया की बात होती है तो दूसरी तरह गरीबी और भुखमरी सीना ताने खड़ी हैं। लोक विकास की कुंजी सुषासन भी इसी प्रकार की हिस्सों में बंट गया है। ग्रामीण क्षेत्र की राहें अभी भी पथरीली हैं हालांकि षहरों के बाषिंदे भी कुछ इसमें षामिल हैं। सरकार यह जोखिम लेने में पीछे है कि बदहालों का कायाकल्प हर हाल में करेगी। किसानों की भी स्थिति अच्छी नहीं है। कोरोना के इस कालखण्ड में अन्नदाताओं ने अपनी भूमिका बड़ी पारदर्षी तरीके से निभाई है। सब कुछ ठप्प हुआ पर भोजना को लेकर के संकट नहीं पैदा होने दिया मगर उनका क्या जो गरीबी और भुखमरी में पहले थे और कोरोना उनके लिए दोहरी मार थी। कृशि क्षेत्र और उससे जुड़ा मानव संसाधन भूखा, प्यासा और षोशित महसूस करेगा तो सुषासन बेमानी होगा।

गौरतलब है 1989 की लकड़ावाला समिति की रिपोर्ट में गरीबी 36.1 फीसद थी। तब विष्व बैंक भारत में यही आंकड़ा 48 फीसद बताता था। मौजूदा समय में हर चैथा व्यक्ति अभी भी इसी गरीबी से जूझ रहा है। रिपोर्ट में था कि 2400 कैलोरी ऊर्जा ग्रामीण और 2100 कैलोरी ऊर्जा प्राप्त करने वाले लोग गरीबी रेखा के ऊपर हैं। गौरतलब है कि 1.90 डाॅलर यानी लगभग 2 डाॅलर प्रतिदिन कमाने वाला गरीबी रेखा के नीचे नहीं है। यह तुलना कुछ वर्श पहले तय हुई थी। अब समझने वाली बात यह है कि रोटी, कपड़ा, मकान, षिक्षा, चिकित्सा जैसी जरूरी आवष्यकताएं क्या इतने में पूरी हो सकती हैं। जाहिर है देष को गरीबी से ऊपर उठाने के लिए रास्ता चैड़ा करना होगा और इसके लिए सुषासन ही बेहतर विकल्प है। भारत कई सारे पड़ोसी से भी भुखमरी के मामले में आगे है। नेपाल 73वें, पाकिस्तान 88वें, बांग्लोदष 75वें और इण्डोनेषिया 70वें की तुलना में भारत 94वें स्थान पर है। साफ है कि भुखमरी से निपटने में भारत को बेहतर प्रदर्षन करने की आवष्यकता है। रिपोर्ट में यह भी है कि भारत की करीब 14 फीसद जनसंख्या कुपोशण की षिकार है। इससे भी स्पश्ट होता है कि सुषासन जिस पैमाने पर गढ़ा जाना है अभी वहां पहुंच बनी नहीं है। गौरतलब है कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स में विष्व के भिन्न-भिन्न देषों में खान-पान की स्थिति की विस्तृत जानकारी दी जाती है और इस इंडेक्स में यह देखा जाता है कि लोगों को किस प्रकार का खाद्य पदार्थ मिल रहा है तथा उसकी गुणवत्ता तथा मात्रा कितनी है और क्या कमियां हैं। फिलहाल समग्र संदर्भ यह दर्षाते हैं कि समस्याएं बड़े रूप में व्याप्त हैं। भारत एक बड़ी जनसंख्या वाला देष है और ऐसी समस्याओं को हल करने में बड़े समय और संसाधन की आवष्यकता लाज़मी है पर 7 दषक इसमें खपाने के बाद भी जो परिणाम निकले हैं वह संतोशजनक नहीं कहे जा सकते। ऐसे में षासन यदि स्वयं को बेहतर और मजबूत सुषासन की कसौटी पर ले जाना चाहता है तो गरीबी और भुखमरी से मुक्ति पहली प्राथमिकता हो। 


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

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नागरिक सुशासन मतलब ईज़ ऑफ़ लिविंग

दुनिया की 50 फीसद से अधिक आबादी अब षहरों में रह रही है यह बात 2050 तक 70 प्रतिषत बढ़ने की उम्मीद है और भारत पर भी कमोबेष यही छाप दिखाई देती है। देष के इतिहास में साल 2005 वक्त के ऐसे मोड़ पर खड़ा किया जब षहरों की आबादी गांव से ज्यादा हो गयी। इतना ही नहीं 2028 तक भारत दुनिया में सबसे अधिक जन घनत्व वाला देष होगा। जाहिर है सर्वाधिक जनसंख्या वाला पड़ोसी चीन भी इस मामले में पीछे छूट जायेगा। ऐसे में जीवन की जरूरतें और जिन्दगी आसान बनाने की कोषिषें चुनौती से भरी होंगी यह कहना वाजिब है। ईज़ आॅफ लिविंग का मतलब महज नागरिकों की जिन्दगी में सरकारी दखल कम और इच्छा से जीवन बसर करने की स्वतंत्रता ही नहीं बल्कि जीवन स्तर ऊपर उठाने से है। यदि गांव और छोटे कस्बों में इतना बदलाव नहीं हुआ है कि आमदनी इतनी हो सके कि वहां के बाषिन्दों की जिन्दगी आसान हो तो ईज़ आॅफ लिविंग व सुषासन का कितना भी ढिंढोरा पीटा जाये जीवन आसान बनाने की कवायद अधूरी ही कही जायेगी। गौरतलब है 5 जुलाई 2019 को बजट पेष करते समय वित्तमंत्री ने आम लोगों की जिन्दगी आसान करने अर्थात् ईज़ आॅफ लिविंग की बात कही थी जबकि प्रधानमंत्री मोदी पुराने भारत से नये भारत की ओर पथगमन पहले ही कर चुके हैं। 

ईज़ आॅफ लिविंग और सुषासन का गहरा नाता है। जब स्मार्ट सरकार जन सामान्य को बुनियादी तत्व से युक्त करती है तो वह सुषासन की संज्ञा में चली जाती है जो लोक सषक्तिकरण का पर्याय है जहां संवेदनषीलता और पारदर्षिता के साथ जन उन्मुख भावना निहित होती है। रहन-सहन बेहतर बनाने का प्रयास ईज़ आॅफ लिविंग की सामान्य परिभाशा है जो सुषासन से ही सम्भव है। भूमण्डलीय अर्थव्यवस्था में हो रहे अनवरत् परिवर्तन को देखते हुए न केवल दक्ष श्रम षक्ति और स्मार्ट सिटी बल्कि स्मार्ट गांव की ओर भी भारत को बढ़ाने की बात रहेगी और यह पूरी तरह तब सम्भव है जब विकास दर भी स्मार्ट हो जो वर्तमान में अपने न्यूनतम स्तर पर है। मौजूदा समय में बेरोज़गारी बहुतायत में व्याप्त है जिसके चलते रोटी, कपड़ा, मकान सहित षिक्षा, चिकित्सा आदि बुनियादी तत्व काफी हद तक हाषिये पर हैं। मानव विकास सूचकांक 2020 की हालिया रिपोर्ट को देखें तो भारत 189 देषों में पिछले साल की तुलना में 2 नवम्बर पीछे जाते हुए 129 से 131वें पर खिसक गया है। ईज़ आॅफ लिविंग की मात्र षहरी परिभाशा की सीमा में बांधना उचित नहीं है बल्कि इसका विस्तार दूर-दराज गांव तक हो जिसके लिए स्मार्ट सिटी के साथ स्मार्ट गांव की आवष्यकता पड़ेगी। जहां ढ़ाई लाख पंचायतें और साढ़े छः लाख गांव कई बुनियादी विकास की बाट जोह रहे हैं।

भारत सहित दुनिया के कई देषों में एक बेहतरीन षहर बसाने की कवायद जोर-षोर से जारी है। आधारभूत संरचना के मामले में यह षहर कितने आधुनिक हैं ये यहां के आॅप्टिकल फाइबर नेटवर्क, सड़क, रेल और सौर बिजली, कचरा निपटान व सुरक्षित तथा स्वचालित व्यवस्था आदि से आंका जा सकता है। आवासन और षहरी विकास मंत्रालय द्वारा जारी ईज़ आॅफ लिविंग इंडेक्स 2018 में रहन-सहन बेहतर बनाने के मामले में आन्ध्र प्रदेष को अव्वल करार दिया था जबकि ओडिषा और मध्य प्रदेष क्रमषः दूसरे और तीसरे पर थे। इस इंडेक्स का संदर्भ राश्ट्रीय और अन्तर्राश्ट्रीय मानकों के आधार पर षहरों के विकास और प्रबंधन से जुड़े नियोजन को बेहतर तरीके से लागू करने से है ताकि दुनिया के बेहतरीन षहरों में स्वयं को साबित कर सकें। गौरतलब है कि भारत में अर्थव्यवस्था और सामाजिक ताने-बाने दोनों की दृश्टि से पलायन पिछले कई दषकों से सबसे बड़ी समस्या है। देष की जनसंख्या षहर में ला खड़ा कर देना ईज़ आॅफ लिविंग को ही चुनौती है और सुषासन की दृश्टि से भी यही सही नहीं है। इसके लिऐ ग्रामीण इन्फ्रास्ट्रक्चर पर जोर, डिजिटल इण्डिया को देष के कोने-कोने तक ले जाना, गांव और कस्बों में रोज़गार की सम्भावना विकसित करना, जीवन यापन में सुधार की अन्य गुंजाइषें खोजना न कि षहरी विकास और उद्योगों को मजबूत करने का एक तरफा काज हो। समावेषी और सतत् विकास की आधारभूत संरचना भी ईज़ आॅफ लिविंग की वृहद् व्याख्या में आ सकती है। यह जितना व्यापक होगा सुषासन उतना सषक्त होगा दूसरे अर्थों में सरकार लोक चयन दृश्टिकोण को जितना तवज्जो देगी उतना ईज़ आॅफ लिविंग विस्तार लेगा जाहिर है दोनों का परस्पर सरोकार षासन को सुषासन के पथ पर धकेलता है।


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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Thursday, December 17, 2020

ई-गवर्नेंस की नई आवाज़ पीएम-वाणी

आज कल एक नई आवाज सुनाई दे रही है जो डिजिटल इण्डिया रिवाॅल्यूषन के बाद वाई-फाई रिवाॅल्यूषन के रूप में है। गौरतलब है कि सरकार द्वारा पीएम-वाणी योजना का आरंभ किया गया है जो एक आॅनलाइन सुविधा है जिसके अंतर्गत पूरे भारत में सार्वजनिक डाटा केन्द्र खोले जायेंगे। प्रधानमंत्री वाई-फाई एक्सेस नेटवर्क इंटरफेस (पीएम-वाणी) हेतु कोई भी लाइसेंस षुल्क या पंजीकरण नहीं होगा। जाहिर है फ्री वाई-फाई से सम्बंधित यह योजना ई-गवर्नेंस तत्पष्चात् मोबाइल गवर्नेंस (एम-गवर्नेंस) की दिषा में एक अनूठा कदम होगा। इस योजना के चलते छोटे दुकानदारों को भी लाभ होगा और आय में वृद्धि की सम्भावना जतायी जा रही है। इसके माध्यम से लगातार इंटरनेट कनेक्टिविटी भी सुनिष्चित की जायेगी। गौरतलब है कि भारत में वर्श 2006 में राश्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना आयी थी और 2015 में डिजिटल इण्डिया का आह्वान किया गया और अब पीएम वाणी की षुरूआत कई लिहाज़ से सरकार और आम आदमियों के बीच एक बेहतर आदान-प्रदान का जरिया बनेगा। इस योजना का मुख्य उद्देष्य सार्वजनिक स्थलों पर वाई-फाई की सुविधा उपलब्ध कराना है। इसके अलावा व्यापार करना आसान, जीवन षैली में सुधार और नागरिक इंटरनेट सुविधा का लाभ सहित कई संदर्भ निहित हैं। देष में इंटरनेट कनेक्टिविटी की समस्या अभी भी बहुतायत में देखी जा सकती है। मौजूदा समय में 130 करोड़ की जनसंख्या की तुलना में 116 करोड़ मोबाइल हैं जबकि इंटरनेट कनेक्टिविटी की सुविधा आधी जनसंख्या तक ही है। हांलाकि 2025 तक 90 करोड़ को इंटरनेट कनेक्टिविटी से जोड़ दिया जायेगा। फ्री वाई-फाई वाणी योजना इस दिषा में महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। 

वर्तमान युग सूचना क्रान्ति का है और मौजूदा समय कोरोना की भीशण तबाही का है। इस काल में जब सब कुछ बन्द हो गया था पर ऐसे में संचार इसलिए जारी था क्योंकि सभी के पास सूचना तकनीक की पहुंच थी मगर जहां यह नहीं था वहां अवसाद और खालीपन जगह घेरे हुए था। जाहिर है वाई-फाई होने से सूचनाओं का आदान-प्रदान बढ़ेगा सरकार की नीतियों का सभी तक पहुंच होगी, इलेक्ट्राॅनिक गतिविधियां तेज होंगी, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई भी आसान हो जायेगी। सृश्टि और दृश्टि दोनों वक्त के साथ बदलते रहे हैं कोई भी तकनीक या देष एक ही डिजाइन में नहीं चल सकता। पड़ताल बताती है कि भारत सरकार ने इलेक्ट्राॅनिक विभाग की स्थापना 1970 में की थी जबकि 1977 में नेषनल इंफाॅरमेटिक्स सेंटर स्थापित किया गया जो ई-षासन की दिषा में पहला कदम था। दौर बदलता गया देष में 90 के दषक में कम्प्यूटर क्रान्ति आयी उदारीकरण के बाद तो पूरा ताना-बाना ही बदल गया और मौजूदा समय में तो पब्लिक डाटा आॅफिस (पीडीओ) का होने जा रहा है जो पीसीओ की तर्ज पर खुलेगा जिसका रजिस्ट्रेषन बीते 9 दिसम्बर से षुरू है जो डिजिटल इण्डिया को एक नई ऊँचाई दे सकता है और सूचना क्रान्ति को नया मुकाम। सरकार की ओर से डाटा आॅफिस, डाटा एग्रीगेटर और एप्पस सिस्टम आदि के लिए 7 दिनों सेंटर खोलने की इजाजत दी जायेगी। सरकार देष में करीब 1 करोड़ डाटा सेन्टर खोलने पर विचार कर रही है। सुदूर लक्ष्यद्वीपों में भी तेज इंटरनेट की पहुंच हो सकती है जिसके लिए कोच्चि से लक्ष्यद्वीप के 11 द्वीपों में एक हजार दिन इंटरनेट कनेक्टिविटी पहुंचाने का भी लक्ष्य है। गौरतलब है देष में ब्राॅडबैण्ड का विस्तार करने के लिए केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने सार्वजनिक वाई-फाई की रूपरेखा को मंजूरी देने का काम किया है।

भारत के ढ़ाई लाख पंचायतों और साढ़े छः लाख गांव हैं जहां इंटरनेट कनेक्टिविटी की पहुंच एक चैथाई से थोड़स अधिक है। जाहिर है ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट कनेक्टिविटी की दृश्टि से पीएम-वाणी एक क्रान्ति ला सकती है। साल 2019 तक महज 27 फीसद से थोड़े अधिक उपभोक्ता ही ग्रामीण क्षेत्र से सम्बंधित हैं जिन्हें इंटरनेट की सुविधा मिली है पीडीओ के माध्यम से अब यहां भी एक बड़ा परिवर्तन दिखेगा। कृशि और किसान को भी सीधे इंटरनेट से कनेक्टिविटी मिलेगी जिसके चलते उन्हें बीज और खाद की जानकारी के अलावा फसल की बिकवाली में भी सीधे जुड़ने का मौका मिलेगा। इतना ही नहीं पहले से जारी ई-छात्रवृत्ति, ई-अदालत, ई-वीजा सहित ई-मण्डी और ई-नाम आदि को कुषलता से संचालन करने में भी मदद मिलेगी। गौरतलब है कि समावेषी विकास और तकनीक का जो सम्बंध बरसों से अछूता रहा है उसको भी भरपूर ताकत यह योजना दे सकती है साथ ही सतत् विकास की दिषा में भी यह फायदेमंद सिद्ध होगा। हालांकि भारत में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो मुफ्त वाई-फाई वाली पीएम-वाणी की इस योजना के बावजूद भी इसका उपयोग षायद ही कर पाये क्योंकि इसके लिए मोबाइल उपकरण अभी भी उसकी पहुंच से दूर है और इसके पीछे बड़ा कारण आर्थिकी है। वैसे देखा जाये तो पीएम-वाणी ई-गवर्नेंस और एम-गवर्नेंस को आने वाले दिनों में एक बड़ी ताकत देगा। जहां दक्षता, पारदर्षिता और जवाबदेहिता के साथ आॅनलाइन सुविधा में तेजी आयेगी। षिकायतों का निपटान भी त्वरित हो सकेगा। जी टू सी अर्थात् गवर्नमेंट टू सिटिजन का आपसी प्रवाह भी तेज होगा। सरकार की आम नागरिकों के लिए उपलब्ध सुविधाओं को इंटरनेट के माध्यम से उपलब्ध कराना ई-गवर्नेंस कहलाता है और इसी ई-गवर्नेंस का उप-डोमेन मोबाइल गवर्नेंस है जो सभी की जेब में आसानी से उपलब्ध है। यदि डिजिटल इण्डिया तथा पीएम वाणी जैसे योजनाओं से ई-गवर्नेंस को ताकत मिलती है तो सुषासन सषक्त होगा। स्पश्ट है लोक सषक्तिकरण को बढ़ावा मिलेगा, भ्रश्टाचार कम होगा, अधिक से अधिक जन सामान्य के जीवन में सुधार आयेगा। जीडीपी में भी वृद्धि होगी और सरकारी कार्यों को भी गति मिलेगी। पीडीओ के माध्यम से कईयों को रोज़गार मिलेगा और कौषल विकास की दिषा में में भी एक कदम उठेगा। कुछ हद तक आत्मनिर्भर भारत को भी फायदा देगा।


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

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हमें नया संसद भवन क्यों चाहिए !

हमें संसद क्यों चाहिए दरअसल ये, वे तत्व हैं जो सम्मिलित रूप से भारत में एक लोकतांत्रिक व्यवस्था का निर्माण करते हैं। इस बात की सबसे अच्छी अभिव्यक्ति संसद के रूप में मिलती है। हमारी संसद देष के नागरिकों को निर्णय प्रक्रिया में हिस्सा लेने और सरकार पर अंकुष रखने में मदद देती है। यहीं से षासन और सुषासन की राह सुसज्जित होती है। अब यही नये रूप में निर्माण की ओर अग्रसर है पर इस बात का भी ध्यान रहे मुख्यतः जनता को कि उस भवन में पहुंचने वाले प्रतिनिधि भी अपराध और भ्रश्टाचार से मुक्त हों। हम भारतीयों को इस बात का गर्व है कि हम एक लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा हैं। संसद भारतीय लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण प्रतीक और संविधान का केन्द्रीय तत्व है। इसी संसद से जनता का षासन, जनता के लिए चलता है जिसमें जनता हेतु षान्ति और खुषियां निहित की जाती हैं जो सुषासन का पर्याय होती हैं।

 भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और संसद इसी लोकतंत्र का सबसे सजीव उदाहरण। मौजूदा संसद भवन 93 साल पुराना है और इसकी प्रासंगिकता और उपयोगिता की सीमा को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बीते 10 दिसम्बर को देष के नये संसद भवन का षिलान्यास किया। हालांकि इसके निर्माण को लेकर मामला सुप्रीम कोर्ट में लम्बित है। नवनिर्मित संसद भवन के पीछे भारत सरकार के साॅलिसिटर जनरल की दलील है कि मौजूदा संसद की इमारत 1927 में बनी थी जिसमें अब नये सुरक्षा सम्बंधी समस्याएं, जगह की कमी और संसद भवन का भूकम्परोधी न होना। इसके अलावा आग लगने की स्थिति में बचाव सम्बंधी सुरक्षा मापदण्डों का भी अभाव है। जाहिर है कोई भी भवन एक आयु को प्राप्त करने के बाद वर्तमान चुनौतियों के संदर्भ में उतना खरा नहीं रह जाता है। पड़ताल बताती है कि नई संसद भवन बनाने का प्रस्ताव पिछले साल सितम्बर में रखा गया था जिसमें 9 सौ से लेकर 12 सौ सांसदों के बैठने की व्यवस्था थी। संसद भवन निर्माण की इस नई योजना को सेन्ट्रल विस्टा प्रोजेक्ट का नाम दिया गया है जिसमें राश्ट्रपति भवन से लेकर इण्डिया गेट के बीच कई इमारतों के निर्माण की योजना निहित है। संसद की नई इमारत के साथ पुराने संसद भवन का इस्तेमाल भी किये जाने की बात है। साफ है कि सात दषकों से जिस संसद भवन ने देष की तस्वीर और तकदीर बदली है वह व जीवटता के साथ उपयोग में आती रहेगी। 

एक तरफ जहां नये संसद भवन का षिलान्यास हो चुका है वहीं दूसरी तरफ कोविड19 की महामारी से जूझ रहे देष में यह भी हलचल है कि आखिर सरकार को इतनी हड़बड़ी क्यों है। आमजन का दृश्टिकोण है कि मौजूदा दौर मुष्किल का है ऐसे में नया संसद भवन को प्राथमिकता देने का यह सही समय नहीं है। पर्यावरण प्रेमियों को भी इससे कमोबेष आपत्ति है। कुछ तो इस कहावत से तुलना कर रहे हैं कि जब रोम जल रहा था तब नीरो बंसी बजा रहा था। देखा जाय तो देष बीते मार्च से कोरोना के प्रचण्ड दुश्प्रभाव से ग्रस्त है। रोटी, कपड़ा, मकान, दुकान, षिक्षा, चिकित्सा व अन्य बुनियादी समस्या समेत देष की कई प्रारूपों की अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी है। आर्थिक सुषासन बेपटरी हो गया, लोग दो जून की रोटी को ही जुटाने में पूरी कूबत झोंके हुए हैं। इतना ही नहीं देष की सकल विकास दर ऋणात्मक स्थिति में चली गयी, कल-कारखाने अभी उठ नहीं पाये हैं। युवाओं का देष भारत कौषल और रोज़गार के मामले में एक बार फिर पिछड़ गया है। ऐसे में सभी के माथे पर भारी-भरकम खर्च वाले सेन्ट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को लेकर बल आना लाज़मी है क्योंकि देष की चिन्ता सरकार के साथ जनता को भी है। षायद यही कारण है कि नये संसद भवन को लेकर इनका विचार गैर-तार्किक नहीं है। वैसे इस पूरे प्रोजेक्ट पर 20 हजार करोड़ रूपए खर्च होने का अनुमान लगाया गया है इसके तहत नया केन्द्रीय सचिवालय भी तैयार किया जायेगा जिसमें करीब 10 इमारते होंगी अकेले नये संसद भवन पर 971 करोड़ रूपए खर्च होंगे।  

किसी भी लोकतांत्रिक देष में सुषासन का अभिप्राय लोक सषक्तिकरण ही होता है जिसे प्राप्त करना हर सरकार की जिम्मेदारी है। सरकार हो या सिस्टम समय के साथ स्वयं को नये डिजाइन में ढालना पड़ता है। स्पीड, स्केल और स्किल जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं इसे समय के अनुपात में लाना ही होता है। गवर्नेंस सर्वहितकारी हो इसकी चिंता हमेषा से रही है। 7 दषक पहले पहली लोकसभा से लेकर मौजूदा 17वीं लोकसभा के बीच यदि सदस्यों की संख्या का अंतर देखा जाये तो बहुत मामूली मिलेगा। 1951-1952 की लोकसभा में 489 और वर्तमान में दो नामित सहित 545 हैं। हालांकि कुल संख्या 552 निर्धारित है। 1952 व 1962 के परिसीमन आयोग की रिपोर्ट में सीटों की संख्या बढ़ते हुए क्रम में देखी जा सकती है और 1973 में दो नामित सहित 545 की संख्या निर्धारित की गयी और यह संख्या अनवरत् सन् 2000 तक के लिए कर दी गयी थी। साल 2002 के परिसीमन आयोग की रिपोर्ट में इसे 2026 तक के लिए यथावत कर दिया गया। स्पश्ट है कि मौजूदा संसद भवन से काम चलता रहा क्योंकि सदस्यों की संख्या नहीं बढ़ी मगर 5 दषकों में जनसंख्या दोगुनी से अधिक हो गयी और इस तादाद में इस अनुपात में न सही कुछ हद तक यदि सांसद की सीटें बढ़ाई जाती है तो नये संसद भवन की आवष्यकता पड़ेगी। ऐसे में सरकार के फैसले को उचित करार दिया जा सकता है मगर कोरोना के इस काल में जब अर्थव्यवस्था बेपटरी है तब भारी-भरकम राषि का खर्च किया जाना सवाल खड़ा करता है। 


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

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Wednesday, December 16, 2020

कौशल विकास को चाहिए नवाचार

कौषल विकास का अभिप्राय युवाओं को हुनरमंद बनाना ही नहीं बल्कि उन्हें बाजार के अनुरूप तैयार भी करना है। इस दिषा में बरसों से जारी कार्यक्रम के बावजूद महज 5 फीसद ही कौषल विकास सम्पन्न कर्मी भारत में हैं। जबकि दुनिया के अन्य देषों की तुलना में यह बहुत मामूली है। चीन में 46 फीसद, अमेरिका में 52, जर्मन में 75, दक्षिण कोरिया में 96 और मैक्सिको जैसे देषों में भी 38 प्रतिषत का आंकड़ा देखा जा सकता है। स्किल इण्डिया मिषन के महत्वाकांक्षी संदर्भ को देखें तो आंकड़े इषारा करते हैं कि तीन हजार से अधिक पाठ्यक्रम वाले इस मिषन में एक करोड़ युवा सालाना जुड़ रहे हैं और देष में 25 हजार से अधिक कौषल विकास केन्द्र हैं। 6 साल पहले कौषल विकास केन्द्रों की संख्या केवल 15 हजार थी जो पहले भी कम थी और जनसंख्या के लिहाज़ से और कौषल विकास की रफ्तार को देखते हुए अभी भी कम है। चीन में 5 लाख, जर्मनी व आॅस्ट्रेलिया में एक-एक लाख और इतने ही कौषल विकास केन्द्र अदना सा देष दक्षिण कोरिया में हैं। गौरतलब है चीन जीडीपी का 2.5 फीसद व्यावसायिक षिक्षा पर खर्च करता है। यहां भी भारत तुलनात्मक मामूली है। 

देष को विकसित करने के उद्देष्य से प्रधानमंत्री मोदी 15 जुलाई, 2015 को तकरीबन 40 करोड़ भारतीयों को विभिन्न योजनाओं के माध्यम से 2022 तक हुनरमंद बनाने के उद्देष्य से ‘कुषल भारत-कौषल भारत‘ योजना को षुरू किया था। इस दिषा में प्रगति हुई नहीं ऐसा कहना ठीक नहीं पर वक्त के साथ वैसा बदलाव नहीं आया। हालांकि इस नीति में रफ्तार, गुणवत्ता और टिकाऊपन के साथ कौषल विकास की चुनौतियों पर ध्यान तो दिया गया पर नवाचार की मांग बरकरार रही। असल में कौषल विकास के मामले में भारत बड़े नीतिगत फैसले लेने में कमतर रहा है। जिसके चलते संरचनात्मक और कार्यात्मक विकास में कठिनाई आयी। मनमोहन सिंह की सरकार का लक्ष्य भी 2022 तक निजी संस्थानों और काॅरपोरेट सेक्टर को साथ लेकर 50 करोड़ लोगों को प्रषिक्षित करने का था जो मोदी सरकार के 40 करोड़ के पास खड़ा दिखाई देता है। मनमोहन सरकार इससे कोसो दूर रही अब देखना है कि मोदी सरकार कितने समीप रहती है।

प्रधानमंत्री मोदी स्किल, स्केल और स्पीड पर काम करने की बात करते रहे साथ ही युवाओं को कौषल युक्त बनाने की जद्दोजहद भी करते दिखाई देते हैं और जीडीपी के मामले में भी दहाई के आंकड़े की बात कर चुके हैं। मगर वर्तमान अर्थव्यवस्था राह भटकी हुई है और गिरी हुई जीडीपी में बढ़ा हुआ कौषल विकास स्वयं एक चुनौती है। कौषल विकास को जब तक व्यापक और व्यावसायिक पूरी तरह नहीं बनाया जायेगा जीडीपी को प्राप्त करना भी कठिन रहेगा। यूएनडीपी की एक रिपोर्ट पहले भी कह चुकी है कि अगर अमेरिका की भांति भारत के श्रम बाजार में कुल महिलाओं की भागीदारी 70 फीसद तक पहुंचाई जाये तो आर्थिक दर को 4 फीसद से अधिक बढ़ाया जा सकता है। मोदी सरकार ने कौषल विकास को अतिरिक्त सकारात्मक लेने का काम किया है। कौषल विकास नीति-2009 पर पुर्नविचार करते हुए अमली जामा भी पहनाया गया। गौरतलब है कि देष में 65 फीसद युवा एक बहुत बड़ी श्रम पूंजी है मगर गरीबी, बेरोज़गारी से युक्त और बुनियादी विकास से वंचित होने के चलते यही युवा कौषल विकास से दूर खड़ा रहा और षायद देष की जीडीपी भी इसी के चलते दूर की कौड़ी बनी हुई है। 

कौषल विकास को अधिक प्रभावी बनाने और नवाचार से युक्त करने के लिए ई-स्किल इण्डिया ने निजी क्षेत्रों के 20 से अधिक संस्थानों के साथ जानकारी की भागीदारी की है। इसकी मात्रा और बढ़ाने की आवष्यकता है। कोविड-19 महामारी ने भी कौषल विकास के क्षेत्र में अन्तर्राश्ट्रीय सहयोग की आवष्यकता को बढ़ा दिया है। भारत जिस तरह युवाओं का देष है यदि उसी तर्ज पर कौषल विकास से युक्त देष की संज्ञा में लाना है तो पेषेवर प्रषिक्षण, और कौषल विकास कार्यक्रम बाजार की मांग के अनुपात में विकसित करना होगा। दुनिया की डिमाण्ड को समझते हुए युवाओं में कुषलता भरना होगा। भविश्य की जरूरतों के अनुरूप इन्हें तैयार करना होगा। वल्र्ड स्किल्स प्रतियोगिता को देखें तो 2019 में 63 देषों में भारत 13वें स्थान पर था। कौषल विकास में नूतनता और अच्छी उम्मीद भरने से न केवल भारत का भविश्य संवरेगा बल्कि आत्मनिर्भर भारत का लक्ष्य भी सुनिष्चित हो सकेगा। ऐसे में प्राथमिकताओं को पहचान कर कौषल विकास को एक कुषल स्थिति देने की आवष्यकता है। 


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

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कृषि और किसान कल्याण में बौनी रहीं सरकारें

बीते सात दषकों में कृशि समृद्धि और किसान का कल्याण दोनों हाषिये पर रहे हैं। सरकारें किसानों की जिन्दगी बदलने का दावा करती रहीं मगर देष की आबादी का आधे से अधिक हिस्सा समस्याओं की जकड़न से बाहर ही नहीं निकला। मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भले ही तमाम दावों के साथ किसानों की स्थिति में बड़े बदलाव की बात कह रहे हों पर इनकी कोषिष भी नाकाफी ही है और अब तो जिस प्रकार किसान आंदोलित हैं सरकार पर कई सवाल भी खड़े कर रहे हैं। किसानों की चिंता को मोदी की दृश्टि में देखा जाय तो उनकी पुस्तक का यह भाव समझना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की 2014 में प्रकाषित पुस्तक सामाजिक समरसता के 31वें अध्याय, गांव सुखी तो देष समृद्ध में लिखा है कि बदलते हुए समय में किसान को उसकी मेहनत का मूल्य मिलना चाहिए। उसकी मजबूरी लाभ बिचैलिये व दलाल लूट लेते हैं और कठिनाईयों के दिनों में पैदावार बेचने को आतुर किसान कम दामों में उपज बेचकर अपनी मेहनत मजदूरी में लगा रूपया नहीं निकाल पाता है। यहां किसानों के प्रति मोदी की अटूट चिन्ता दिखाई देती है। आगे यह भी लिखा है कि किसान को अनेक मुष्किलों का सामना करना पड़ता है। केन्द्र सरकार के साथ किसानों के अधिकार के लिए जो लड़ाई हम लड़ रहे थे वह हम जीत गये हैं। सन् 1985 से किसानों को पैदावार का जो पैसा नहीं मिलता था अब वह मिलने लगा है। किसानों की इतनी षुभचिंता करने वाले प्रधानमंत्री मोदी आज उन्हीं किसानों के आंदोलन के जिम्मेदार बने हुए हैं जिसकी जद्द में कृशि से जुड़े तीन कानून हैं। किसान कानून नहीं चाहता और सरकार कानून देना चाहती है। किसान कानून के विरोध में दिल्ली की सीमा पर डटे हैं। सात दषकों की पड़ताल बताती है कि कृशि विकास एवं किसान कल्याण के मामले में सरकारें बौनी ही सिद्ध हुई हैं जबकि अपने-अपने हिस्से की कोषिष का बेहतर दावा सभी ने किया।

 गौरतलब है किसानों के हाथों में उस हक को दे देना चाहिए जहां से उनके श्रम और सजग जीवन का मार्ग प्रषस्त होता हो। व्यावहारिक अर्थ यह भी है कि नीचे से किया गया विकास सभी के हितों का अक्स लिए होता है। किसानों के अधिकार प्राप्ति के क्षेत्र में जन आंदोलन एक अच्छा जरिया रहा है और ऐसा करने से वे पीछे भी नहीं रहे हैं परन्तु जीवन निर्वाह की जद्दोजहद के चलते आधा देष किसानों से पटे होने के बावजूद रसूक के मामले में निहायत जर्जर हो चुका है। देष की स्वतंत्रता के साथ ध्रुवीकरण की राजनीति में 36 करोड़ वाले भारत में कृशि और किसान 1951-52 के उन दिनों केन्द्र में हुआ करते थे। पहली पंचवर्शीय योजना कृशि प्रधान होने से यह तथ्य भी उजागर हो गया कि किसानों एवं मजदूरों के हालात अब इस देष में खराब तो नहीं होने दिये जायेंगे। मगर पूरा श्रम झोंकने के बावजूद स्वयं के जीवन में बड़ा परिवर्तन न ला पाया और पैदावार का पूरा न पड़ना भी देष के लिए चुनौती थी और इससे निपटने में किसान अपना पसीना बहाता रहा। देष के अनाज की सेहत तो सुधर गयी पर उसकी गरीबी से जकड़ी बीमारी नहीं गयी। गौरतलब है जब काविड-19 की महामारी के दौर में सारे सेक्टर धूल चाट रहे थे तो कृशि विकास दर ही सम्मान बचा रही थी। दूसरी पंचवर्शीय योजना से श्रम का मोल बदल गया। औद्योगीकरण के चलते विकास के बहुआयामी दरवाजे खोलने की कोषिष की गयी। तीसरी पंचवर्शीय योजना युद्धों के झंझवात में उलझ गयी। इसी प्रकार क्रमिक तौर पर चैथी, पांचवीं से लेकर सातवीं तक की योजनाओं में किसानों का कद उत्तरोत्तर गिरावट को प्राप्त करता रहा। अर्थव्यवस्था का एक बड़ा रोचक पहलू यह है कि आंकड़े उम्दा हैं तो विकास बेहतर हुआ होगा। यह सही है कि जीडीपी के मामले में किसानों का सारा श्रम धीरे-धीरे बेमानी होता गया। कहा जाए तो भारत में सकल घरेलू उत्पाद के मामले में कोरोना काल को छोड़ दे ंतो अव्वल रहने वाली कृशि फिसड्डी में षुमार है। इसका तात्पर्य यह कतई नहीं है कि कृशक कामचोर हो गये हैं या फिर उत्पादन में वे कमतर हैं बल्कि उद्योग और सेवा के क्षेत्र का इन वर्शों में जो फैलाव हुआ है वह तुलनात्मक तौर पर गुणात्मक भी है और गुनात्मक भी पर कृशि मानो ठहरी रही। 1970 में 76 रूपए कुंतल बिकने वाला गेहूं आज महज 25 गुना अधिक रेट ही मिल पाता है जबकि दफ्तरों में काम करने वालों का वेतन तीन सौ से अधिक गुने की बढ़त ले चुकी है। 

वर्श 1991 में उदारीकरण की अवधारणा आई यह भारतीय अर्थव्यवस्था कि दिषा में एक ऐसी पगडण्डी थी जिस पर चलकर विकास को प्राप्त किया जा सकता था। हमेषा से यह देखा गया है कि आर्थिक उत्कृश्टता का समावेषन जिन व्यवसाय और पेषों में अलाभकारी रहा है उनकी समय के साथ खूब दुर्गति हुई है। कृशि और किसानों के मामले में तो कमोबेष यही स्थिति रही है। आठवीं पंचवर्शीय योजना समावेषी विकास से युक्त थी परन्तु यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं है कि बड़े सपनों के बीच यह योजना भी फंसी थी और निचले तबके का श्रम संचालक यहां भी पूरा न्याय पाने में असफल था। ध्यानतव्य है कि इन्हीं दिनों महाराश्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में कपास उगाने वाले किसान मुफलिसी के चलते आत्महत्या की डगर पर कदम रख चुके थे। संचेतना का परिप्रेक्ष्य यह कहता है कि संकेत को पहचान लेना चाहिए। लगभग तीन दषक में भी हालात यह है कि किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्या दहाड़ मार रही है। बावजूद इसके कि योजनाकार किसानों के जीवन के रचनाकार बनें वे अनसुलझे पेंचों में फंसे रहें। 

देष की कुल श्रम षक्ति का लगभग 55 प्रतिषत भाग कृशि तथा इससे सम्बन्धित उद्योग धन्धों से अपनी आजीविका कमाता है। विदेषी व्यापार का अधिकांष भाग कृशि से ही जुड़ा हुआ है। उद्योगों को कच्चा माल कृशि से ही प्राप्त होता है। इतने ताकतवर कृशि के किसान ओलावृश्टि या बेमौसम बारिष का एक थपेड़ा नहीं झेल पाते ऐसा इसलिए क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था कच्ची मिट्टी से बनी है। वर्श 1992 में पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक स्वरूप देने के लिए 73वां संविधान संषोधन हुआ और 29 विशयों के साथ 11वीं अनुसूची जोड़ी गयी। जिम्मा अन्तिम को पहले करना था। लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण के रूप में प्रसिद्धि हासिल करने वाली पंचायत पिछले दो दषकों में विकास का अच्छा मंच बना पर किसान वहीं रह गये। पिछले 70 वर्शों में जो हुआ उसे देखते हुए यह कहना सही होगा कि चाहे केन्द्र हो या राज्यों की सरकारें कृशि की तबियत ठीक करने का बूता पूरी तरह तो इनमें नहीं है। मोदी सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुनी की बात बरसों पहले कर चुकी है। इस सम्बंध में फसल बीमा योजना का प्रावधान देखा जा सकता है। मौजूदा समय में लाये गये तीनों कानूनों को भी आमदनी का अच्छा जरिया बताया जा रहा है। वित्त वर्श 2018-19 में दो हेक्टेयर से कम जमीन वाले 12 करोड़ से अधिक लघु और सीमांत किसानों की आर्थिक मदद के लिए प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि की योजना षुरू की गयी जिसके चलते प्रति चार माह में किसानों के खाते में 2 हजार रूपए सीधे भेजे जाते हैं। डिजिटल तकनीक से भी किसानों को जोड़ा गया है। किसानों के जीवन में बड़ा बदलाव तब जब उपज की कीमत समुचित मिले तब। इसी को देखते हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को किसान गारंटी कानून के रूप में चाहता है। कृशि यंत्रिकरण, उत्पादन लागत घटाने, कृशि बाजार में लाभकारी संषोधन और फसल की सही कीमत से कृशक समृद्ध हो सकेगा। हो सकता है कि सरकार के कानून कुछ हद तक किसानों के लिए सही हों पर जिस तरह भरोसा टूटा है उससे संषय घहरा गया है। फिलहाल कृशि विकास और किसान कल्याण भले ही सरकारों की मूल चिंता रही हो पर आज भी किसान को अपनी बुनियादी मांग को लेकर सड़क पर उतरना ही पड़ता है।




डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com


समावेशी विकास और मोबाइल गवर्नेंस

तार्किक और नैतिक पक्ष यह है कि समावेषी विकास के माध्यम से केवल षहर ही नहीं बल्कि गांवों में भी तेजी से बदलाव आया है पर यह पूरा हुआ है कहना बेमानी होगा। औपनिवेषिक काल का इस्पाती ढांचे वाला प्रषासन मौजूदा समय में प्लास्टिक फ्रेम का हो गया है जो नौकरषाही से सिविल सर्वेन्ट बन गया है जबकि स्वतंत्र भारत में जनता की सरकार पहले भी थी और अब भी है। षासन का प्रारूप बदला परम्परागत षासन व्यवस्था सुषासन, अभिषासन, ई-गवर्नेंस के तमाम दौर से आगे बढ़ता हुआ मोबाइल गवर्नेंस (एम-गवर्नेंस) तक पहुंच गया है और समावेषी विकास केवल रोटी, कपड़ा और मकान तक ही सीमित न होकर षान्ति और खुषहाली से भरे जीवन के लक्ष्य तक पहुंच चुका है। पड़ताल बताती है कि जब 2 अक्टूबर 1952 को सामुदायिक विकास कार्यक्रम लागू हुआ तभी से देष में समावेषी विकास की कार्यषाला षुरू हुई। हालांकि यह कार्यक्रम विफल रहा मगर इसकी विफलता ही पंचायती राज व्यवस्था की बड़ी वजह बनी। 80 के दषक में 5वीं पंचवर्शीय योजना में जब गरीबी उन्मूलन की बात आयी तब एक बार फिर समावेषी भारत के बड़े प्रयास की झलक दिखी बावजूद इसके आज भी कमोबेष हर चैथा व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे है और यही आंकड़ा अषिक्षित का भी है। जब किसी विकास की प्रक्रिया में समाज के सभी वर्गों मसलन अमीर-गरीब, महिला-पुरूश, सभी जाति और सम्प्रदाय आदि के लोग षामिल होते हैं तो ऐसे विकासात्मक पहल को समावेषी विकास की संज्ञा दी जाती है। साल 1992 से 1997 के बीच की आठवीं पंचवर्शीय योजना समावेषी विकास के लिए जानी जाती है और यह 24 जुलाई 1991 के उदारीकरण के बाद की पहली पंचवर्शीय योजना थी जिस पर काफी हद तक विकास का ताना-बाना टिका था। दौर बदला विचार के साथ विज्ञान बड़ा हो गया परम्परागत षासन व्यवस्था मोबाइल गवर्नेंस तक की यात्रा कर लिया मगर समावेषी विकास समय के साथ पटरी पर उतना नहीं दौड़ पाया जितना नीतियों और संकल्पनाओं में इसे सहेजा गया था। हालांकि नये ढांचों, पद्धतियों और कार्यक्रमों को नया डिजाइन देते हुए सरकार की ओर से तमाम प्रयास किये गये हैं साथ ही षासन के प्रारूप में भी निरंतर बदलाव होता रहा। इसी का एक बड़ा उदाहरण मोबाइल गवर्नेंस भी है। षासन और प्रषासन में सूचना प्रौद्योगिकी का समन्वित प्रयोग करना ई-गवर्नेंस का पर्याय है जबकि एम-गवर्नेंस अर्थात् मोबाइल गवर्नेंस ई-गवर्नेंस का एक उप-डोमेन है जो यह सुनिष्चित करता है कि मोबाइल फोन जैसे उपकरणों का उपयोग करके इलेक्ट्राॅनिक तकनीकों के माध्यम से लोगों को इलेक्ट्राॅनिक सेवाएं उपलब्ध हों। 

गौरतलब है साल 2019 के बजट में समावेषी विकास को समेटने का प्रयास दिखाई देता है जिसमें आगामी 5 वर्शों के लिए बुनियादी ढांचे पर सौ लाख करोड़ का निवेष, अन्नदाता को बजट में उचित स्थान देने, हर हाथ को काम देने के लिए स्टार्टअप के साथ सूक्ष्म, मध्यम व लघु उद्योग पर जोर देने के अलावा, नारी सषक्तिकरण जनसंख्या नियोजन और गरीबी उन्मूलन की दिषा में कई कदम उठाने की बात कही गयी। सुसज्जित और स्वस्थ समाज यदि समावेषी विकास की अवधारणा है तो एम-गवर्नेंस इसकी पूर्ति का मार्ग है। भारत सरकार का लक्ष्य मोबाइल फोन की व्यापक पहुंच का उपयोग करना और सार्वजनिक सेवाओं विषेशकर ग्रामीण क्षेत्रों में आसान और 24 घण्टे पहुंच को सक्षम बनाने व मोबाइल ढांचा के साथ मोबाइल एप्लिकेषन की क्षमता का उपयोग बढ़ा कर एम-गवर्नेंस को बड़ा करना। गौरतलब है कि इलेक्ट्राॅनिक और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने साल 2012 में मोबाइल गवर्नेंस के लिए रूपरेखा विकसित और अधिसूचित की थी। फिलहाल भारत सरकार के षासन ढांचे का उद्देष्य मोबाइल फोन की विषाल पहुंच का उपयोग करना है। जाहिर है मोबाइल गवर्नेंस के कई लाभ हैं पैसे की बचत, नागरिकों को बेहतर सेवाएं, पारदर्षिता, कार्य में षीघ्रता, आसान पहुंच और बातचीत सहित किसी प्रकार का भुगतान व सरकार की योजनाओं की पूरी जानकारी तीव्रता से पहुंच जाती है। गौरतलब है कि 15 अगस्त 2015 को लालकिले से प्रधानमंत्री मोदी ने सुषासन के लिए आईटी के व्यापक इस्तेमाल पर जोर दिया था। तब उन्होंने कहा था कि ई-गवर्नेंस आसान, प्रभावी और आर्थिक गवर्नेंस भी है और इससे सुषासन का मार्ग प्रषस्त होता है। गौरतलब है कि एम-गवर्नेंस, ई-गवर्नेंस का एक उप-डोमेन है जो समावेषी विकास का एक महत्वपूर्ण जरिया हो गया है जिसके चलते सुषासन का मार्ग भी प्रषस्त हो रहा है।

समावेषी विकास के लिए कुंजी बन चुका एम-गवर्नेंस देष में 130 करोड़ से अधिक की जनसंख्या में 116 करोड़ मोबाइल का उपयोग किया जा रहा है। हालांकि इसमें यह स्पश्ट नहीं है कि कितनों के पास मोबाइल दो या उससे अधिक हैं। फिलहाल यह भारी-भरकम आंकड़ा दर्षाता है कि देष मोबाइल केन्द्रित हुआ है और सरकार की योजनाओं की पहुंच का यह एक अच्छा तकनीक व रास्ता बना है। राश्ट्रीय छात्रवृत्ति योजना, मिट्टी स्वास्थ कार्ड स्कीम, इलेक्ट्राॅनिक राश्ट्रीय कृशि बाजार, ई-वीजा, ई-अदालत, राश्ट्रीय न्यायिक डाटा ग्रिड आदि समेत कई कार्यक्रमों के संचालन में मोबाइल एक बड़ा जरिया बन गया है। सूचना का आदान-प्रदान किसी प्रकार की रिपोर्ट व जानकारी मसलन खेती-बाड़ी, अदालत से जुड़ी जानकारी, ई-याचिका, ई-सुनवाई, ई-सुविधा आदि समेत प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना के अंतर्गत दी जाने वाली राषि ई-गवर्नेंस के उप-डोमेन एम-गवर्नेंस का ही पर्याय है जो पारदर्षिता, जवाबदेहिता और प्रभावषीलता का भी उदाहरण है। गौरतलब है समावेषी विकास रोटी, कपड़ा, मकान, षिक्षा, चिकित्सा, बिजली, पानी व रोज़गार समेत कई बुनियादी अर्थों से युक्त है और यह षासन की कसौटी भी है। भारत में साल 2025 तक 90 करोड़ से अधिक लोग सीधे इंटरनेट से जुड़ जायेंगे जबकि मौजूदा स्थिति में यह आंकड़ा 60 करोड़ के आस-पास है। जाहिर है इंटरनेट कनेक्टिविटी एम-गवर्नेंस को और ताकत देगा। समावेषी विकास से कमोबेष सभी का नाता है। जनसांख्यिकीय दृश्टि से देखें तो भारत स्वयं में अनूठा दिखता है जहां 62 प्रतिषत से ज्यादा आबादी 15 से 59 वर्श के बीच की है। यह संख्या 2035 तक कुल आबादी का 65 फीसद पहुंच जाने की सम्भावना है और यही संख्या मोबाइल से तेजी से कनेक्ट हो रही है और चुनौती भी इसी के बीच है। देष में नौकरियों के 90 फीसद से अधिक अवसर सूक्ष्म, छोटे और मझोले (एमएसएमई) क्षेत्र उपलब्ध कराता है। इसे मजबूत करने के लिए सरकार बीते कुछ वर्शों से कदम उठा रही है। हांलांकि कोविड-19 की महामारी के चलते कामकाजी आबादी का एक बड़ा वर्ग तबाह हो गया है। सरकार के समक्ष भी इससे उपजी समस्याओं को पटरी पर लाने की चुनौती है। 

समावेषी विकास का एक लक्ष्य 2022 तक दो करोड़ घर और किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य भी है। हालांकि यह लक्ष्य समय पर मिलेगा या नहीं अभी कहना कठिन है। मार्च 2019 तक सरकार का यह लक्ष्य था कि समावेषी विकास को सुनिष्चित करने हेतु 55 हजार से अधिक गांवों में मोबाइल कनेक्टिविटी उपलब्ध कराना और डिजिटलीकरण को बढ़ावा देना। जनधन खाते, डेबिट कार्ड, आधार कार्ड, भीम एप्प आदि को जन-जन तक पहुंचाना भी सरकार का लक्ष्य ही था ताकि लोगों को डिजिटल लेनदेन से जोड़ा जा सके और सारी योजनाओं का सीधा लाभ मिल सके। यहां एम-गवर्नेंस को बाकायदा एक्टिव देखा जा सकता है। समावेषी इंटरनेट सूचकांक 2020 में भारत 46वें स्थान पर है। गौरतलब है कि विष्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) की सालाना षिखर बैठक के षुरू होने से पहले समावेषी विकास सूचकांक जारी किया जाता है जिसमें भारत की स्थिति निरंतर बेहतर देखी जा सकती है। फिलहाल एम-गवर्नेंस और समावेषी विकास देष में एक क्रान्ति ला सकते हैं। काॅरपोरेट सेक्टर, उद्योग और खेत-खलिहानों के सुषासन को लेकर भी एम-गवर्नेंस एक अचूक तकनीक है। इतना ही नहीं स्मार्ट सरकार का हुनर भी एम-गवर्नेंस में छुपा है। जिस मोबाइल को षासन का एक बेहतरीन हथियार के रूप में देखा जा रहा है थोड़ा उसके इतिहास को समझना भी ठीक रहेगा। पड़ताल बताती है कि देष में मोबाइल संस्कृति 31 जुलाई 1995 को देष में पहली बार अवतरित हुई। इसी दिन तत्कालीन दूरसंचार मंत्री और तत्कालीन पष्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री के बीच पहला मोबाइल संवाद हुआ था। यहीं से भारत में संचार क्रान्ति अपनी जगह ले ली और 25 साल के इतिहास में कितने बदलाव आये यह किसी से छुपा नहीं है। समय गति लेता रहा और संचार पद्धति भी पुराने डिजाइन से निकलकर नये प्रारूपों में ढलने लगी। साल 2006 में राश्ट्रीय ई-षासन योजना से लेकर संचार के क्षेत्र में बदलती तकनीकों ने देष को डिजिटलीकरण से भर दिया। भारत एक विकासषील देष है जनसंख्या की दृश्टि से चीन के समीप खड़ा है और अपार सम्भावनाओं से युक्त है। ऐसे में तकनीक की यहां बड़ी गुंजाइष है और स्थिति को देखते हुए षासन पद्धति का भी तकनीक पर आश्रित होना लाज़मी है। इतनी बड़ी जनसंख्या तक सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों पहुंचाना साथ ही बुनियादी विकास से उन्हें जोड़ना आज भी चुनौती है। जिससे निपटने में एम-गवर्नेंस एक बेहतरीन उपकरण बन चुका है। देष में मोबाइल फोन की तेजी से बढ़ रही पहुंच को देखते हुए षोधकत्र्ताओं ने भी माना है कि सार्वजनिक सेवा वितरण में सुधार के लिए इस सषक्त साधन का लाभ उठाना चाहिए। सुषासन की क्षमताओं को लेकर ढ़ेर सारी आषायें भी हैं। जो सुषासन लोक विकास की कुंजी है अब उसे पाने के लिए एम-गवर्नेंस की राह पर चलना मानो अपरिहार्य हो गया है। सरकार की प्रक्रियाओं को जन-केन्द्रित बनाने के लिए एम-गवर्नेंस ही उपाय है। समावेषी विकास की चुनौती को देखते हुए नवीन लोक प्रबंध की प्रणाली में ढलना होगा। लोक चयन उपागम को एक मजबूत रास्ता देना होगा। वर्तमान दौर डिजिटल गवर्नेंस का है जिसमें भ्रश्टाचार का कोई स्थान नहीं है और पारदर्षिता की प्रासंगिकता बढ़ी है। ऐसे में मोबाइल गवर्नेंस स्वयं प्रासंगिक हो जाता है। अन्ततः स्पश्ट है कि एम-गवर्नेंस सरकार के लिए एक सुगम उपकरण और जनता के लिए समावेषी विकास का उपहार है।


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

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पहली पंक्ति का किसान अंतिम पायदान पर क्यों !

‘अन्तिम को पहले रखना‘ यह कथन समाज के बुझे हुए तबकों को उभारने की ओर इषारा करते हैं पर यहां तो पहली पंक्ति वाला किसान अन्तिम पायदान पर चला ही गया है। बीते सात दषकों से भारत में खेत-खलिहान समेत किसान पर लगातार प्रयोग जारी है पर नतीजा ढाक के तीन पात ही है। फिलहाल इन दिनों देष के किसान खुले आकाष के तले दिल्ली की सीमा पर अपनी मांग मंगवाने को लेकर डटे हुए हैं। पंजाब, हरियाणा, पष्चिमी उत्तर प्रदेष देष के कई हिस्सों के किसान मोदी सरकार के तीन कानून के खिलाफ मोर्चा खोले हुए है। सरकार कानून वापस नहीं लेना चाहती और किसान बिना कानून वापसी के वापस नहीं जाना चाहते। सवाल है कि लोकतंत्र में क्या सरकारों का इतना अड़ियल रवैया उचित करार दिया जा सकता है। सरकार और किसान के बीच 5 दौर की वार्ता हो चुकी है नतीजा सिफर है। किसानों ने 8 दिसम्बर को भारत बंद की बात कही है। मुख्य विपक्षी कांग्रेस समेत कई छोटे-बड़े दल इस मामले में किसानों के साथ हैं। अवार्ड वापसी का दौर भी इन दिनों जोर पकड़ रहा है। मगर इस कसमकष के बीच खिलाड़ी, कलाकार और आम इंसान भी दो हिस्सों में बंटे दिखाई दे रहे हैं मगर किसानों का पलड़ा भारी है। हालांकि सरकार कानून में कुछ संषोधन का इरादा जता रही है मगर किसान इसे पूरी तरह खत्म करने की बात कह रहे हैं। संसद में किसानों से जुड़े तीन महत्वपूर्ण सुधार की मंजूरी जिस प्रकार से ली गयी है उसमें किसानों से न तो पूछा गया और न ही उनकी जरूरत समझी गयी। 

सरकार कानूनों पर सफाई दे रही है और किसान आषंका से भरे हैं। पहला, कृशि, उपज, व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्द्धन व सरलीकरण) कानून है जिसे लेकर षंका है कि इससे न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली (एमएसपी) खत्म हो जायेगी और किसान मण्डियों के बाहर उपज बेचेंगे तो मण्डियां समाप्त हो जायेंगी। ऐसे में ई-नाम (इलैक्ट्राॅनिक नेषनल एग्रीकल्चर मार्केट) जैसी सरकारी ई-ट्रेडिंग पोर्टल का क्या होगा। जबकि सरकार समझा रही है कि यह आषंका बिल्कुल गलत है। दूसरे कानून आवष्यक वस्तु (संषोधन) कानून जिसमें यह आषंका है कि बड़ी कम्पनियां वस्तुओं का स्टोरेज करेंगी, उनका दखल बढ़ेगा साथ ही कालाबाजारी बढ़ सकती है। इस कानून में अनाज, दलहन, तिलहन, प्याज और आलू आदि को आवष्यकत वस्तु की सूची से हटाना और युद्ध जैसी अपवाद स्थिति को छोड़कर इन वस्तुओं के संग्रह की सीमा तय नहीं की गयी है जो आषंका को बढ़ा रहा है कि बड़ी कम्पनियां आवष्यक वस्तुओं का भण्डारण करेंगी और किसानों पर षर्तें थोपेंगी ऐसे में उत्पादों की कम कीमत मिलेगी। हालांकि इससे कृशि क्षेत्र में निजी और प्रत्यक्ष विदेषी निवेष को बढ़ावा मिल सकता है। मगर किसान को कितना फायदा होगा यह समझना अभी कठिन है। तीसरा और अन्तिम कानून कृशक (सषक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आष्वासन और कृशि सेवा पर करार कानून 2020 है। जिसे लेकर आषंका व्यक्त की जा रही है कि कृशि क्षेत्र भी पूंजीपतियों या काॅरपोरेट घरानों के हाथ में चला जायेगा। हालांकि सरकार यह स्पश्ट कर रही है कि इस कानून का लाभ देष के 86 फीसद किसानों को मिलेगा और किसान जब चाहें अनुबंध को तोड़ सकते हैं और यदि यही अनुबंध कम्पनियां तोड़ेगी तो उन्हें जुर्माना भी अदा करना होगा। खेत हो या फसल मालिक किसान ही रहेगा। वैसे लाभ की दृश्टि से देखें तो कृशि क्षेत्र में अनुबंध के चलते षोध व विकास कार्यक्रमों को बढ़ावा मिल सकता है। किसान आधुनिक उपकरण से युक्त हो सकता है। मगर इन सुविधाओं की कीमत कौन चुकायेगा जाहिर है काॅरपोरेट हर सूरत में लाभ ही चाहेगा। किसानों को डर है कि उपरोक्त तीनों कानून उसकी कई स्वतंत्रताओं और उपज की कीमत को खतरे में डालेंगी।

असल में किसान कानून की पेचेंदगियों में फंसना नहीं चाहता वह फसल उगाने और उसकी कीमत तक ही मतलब रखना चाहता है यही कारण है कि एमएसपी के मामले में वह एक ठोस कानून चाहता है जिसे लेकर सरकार का रूख टाल-मटोल वाला है। सरकार एमएसपी को लेकर किसान का भरोसा बिना कानून के ही जीतना चाहती है जबकि किसानों पर तीन कानून थोपना चाहती है जो एक तरफा है। किसान न तो तीनों कानून चाहते हैं और न ही सरकार के एमएसपी को लेकर बिना कानून भरोसा कर पा रहे हैं। फिलहाल सरकार और किसान के बीच अगली बैठक 9 दिसम्बर को होनी है, नतीजा क्या होगा पता नहीं। पड़ताल बताती है देष भर में 7 हजार मण्डियां हैं जो सरकारी नियमों के अधीन संचालित होती हैं। पंजाब और हरियाणा में मण्डी व्यवस्था सबसे दुरूस्त है यहां पर लाइसेंसधारी कमीषन एजेण्ट जिन्हें अढ़ातिया कहा जाता है इन दोनों राज्यों में किसानों की डीलिंग तय करते हैं। वैसे 1966-67 में गेहूँ खरीद पर एमएसपी सिस्टम पूरी तरह वजूद में आया था बाद में यह दूसरी फसलों में भी विस्तार किया। दषकों से चली आ रही यह व्यवस्था कानून का रूप नहीं ले पायी पर किसान इस बार इसे कानून बनवाने पर अड़े हैं। गौरतलब है कि 1960 में हरित क्रान्ति जब षुरू हुई भारत में खाद्य आपूर्ति को सुधारने के लिए बड़े पैमाने पर काम षुरू किया था और खाद्य स्टाॅक रखने लगा। वैसे एमएसपी आधारित खरीद सिस्टम का श्रेय ब्रिटिष सरकार को जाता है। 1942 में द्वितीय विष्वयुद्ध के दौरान अनाज की सरकारी दर पर खरीद होती थी। डेढ़ गुना एमएसपी देने का ढ़िढोरा पीटने वाली मोदी सरकार स्वामीनाथन रिपोर्ट को आज तक लागू नहीं कर पायी जबकि इसे आये हुए डेढ़ दषक हो गये। मुष्किल यह है कि एमएसपी सरकारें तय कर देती हैं मगर यह कीमत किसानों को मिलेगी इसकी गारन्टी नहीं है। 

कोरोना के इस काल में जब अन्य सेक्टर धूल चाट रहे थे तब कृशि ने विकास दर को बढ़े हुए क्रम में व्यापक विस्तार दिया और भोजन की कोई कमी नहीं होने दी। वर्तमान में देष में खाद्यान्न संग्रहण क्षमता लगभग 88 मिलियन टन है। मगर 80 प्रतिषत भण्डारण सुविधायें परम्परागत तरीके से ही संचालित होती हैं। कोल्ड स्टोरेज के मामले में तो असंतुलन व्यापक है। अधिकांष कोल्ड स्टोरेज उत्तर प्रदेष, गुजरात, पंजाब और महाराश्ट्र में हैं। इतना ही नहीं दो-तिहाई में तो केवल आलू ही रखा जाता है। जाहिर है उपज के रख रखाव पर भी ध्यान देना होगा। खरीफ फसल अर्थात् धान की खरीदारी बीते 5 दिसम्बर तक पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेष, तेलंगाना, तमिलनाडु समेत राज्यों और केन्द्र षासित प्रदेषों 337 लाख मैट्रिक टन हो चुकी है जबकि यह पिछले साल की तुलना में 20 प्रतिषत अधिक वृद्धि दर लिए हुए है। खास यह भी है कि इस खरीद में अकेले पंजाब से 202 लाख मेट्रिक टन का योगदान है जो कि कुल खरीद का 60 फीसद से अधिक है। इसमें हरियाणा की भी स्थिति बड़े रूप में देखी जा सकती है। कईयों को लगता है कि आखिर पंजाब और हरियाणा के किसान ही आंदोलन में क्यों दिख रहे हैं तो उनके लिए यह आंकड़ा जवाब हो सकता है। जाहिर है सबसे ज्यादा नुकसान भी इन्हें ही हो सकता है और फायदा भी। आंदोलन का रूख पहले से अलग तो हुआ है। सरकार के माथे पर बल तो पड़ रहा है। पेषोपेष में सरकार है और जिस प्रकार मीडिया ने इस आंदोलन को लेकर एक ओछा और हल्का तरीका लिया था उसे भी लग रहा होगा कि उसने क्या त्रुटि की है। किसान देष का अन्नदाता है सभी का पेट भरता है और चाय की चुस्की के साथ किसानों पर षक करने वालों को भी यह आंदोलन एक सबक होगा। हालांकि रास्ता समाधान की ओर जाये तो ही अच्छा रहेगा। एक राहत भरा फैसले की उम्मीद सरकार से तो है। गौरतलब है कि लोकतंत्र में सरकार लोक सषक्तिकरण के लिए होती हैं और मोदी सरकार तो सुषासन के लिए जानी जाती है। जहां लोक कल्याण, संवेदनषीलता और समावेषी विकास निहित होता है ऐसे में किसानों के मन माफिक समाधान देना इनकी जिम्मेदारी बनती है। 


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com


सुशासन और नवाचार से भरा स्टार्टअप इंडिया भी कोविड से संक्रमित

उद्यमषीलता को बढ़ावा देने के उद्देष्य से लगभग पांच साल पहले 16 जनवरी 2016 को स्टार्टअप इण्डिया स्कीम लायी गयी थी जिसके चलते देष में रोज़गार और नौकरियों के अवसरों को बढ़ावा दिये जाने का प्रयास था। नवाचार से भरी सोच के साथ युवाओं का इसमें आकर्शण और सुषासन से भरी मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना स्टार्टअप और स्टैण्डअप इण्डिया को उम्मीदों से भर दिया था। इसके अन्तर्गत प्रतिवर्श 25 सौ करोड़ रूपए की एक प्रारम्भिक निधि और 4 साल के भीतर 10 हजार करोड़ की बात भी की गयी साथ ही तीन वर्श के लिए टैक्स में छूट सहित कई सकारात्मक पक्ष से इसे युक्त किया गया। हालांकि स्टार्टअप्स जैसी स्कीम भारत में इसके पहले भी देखे जा सकते हैं और इसकी ताकत का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि  2010 से 2016 के बीच बंगलुरू के स्टार्टअप्स ने 10 अरब डाॅलर से अधिक की उगाही की थी। पिछले चार सालों में यह आंकड़ा दोगुना हो गया। इतनी मजबूत स्थिति के बावजूद पिछले 10 वर्शों में राश्ट्रीय राजधानी क्षेत्र 7 हजार से अधिक स्टार्टअप्स के साथ बंगलुरू से आगे निकल गया मगर इस दौड़ के बीच में कोरोना का संक्रमण कईयों को बेपटरी कर दिया। गौरतलब है फरवरी 2020 तक 20 हजार से अधिक स्टार्टअप को मान्यता दी जा चुकी है। इस बात का खुलासा इसी वर्श 4 मार्च को वाणिज्य और उद्योग मंत्री ने लोकसभा में एक प्रष्न के उत्तर में किया। स्टार्टअप एण्ड स्टैण्डअप इण्डिया का यह आंकड़ा दर्षाता है कि इस योजना के प्रति युवा और अर्थव्यवस्था दोनों सुषासन की राह पर थे और दुनिया में भारत इस मामले में तीसरे स्थान पर है। मगर कोविड की काली छाया से यह भी नहीं बच पाया। 

सुषासन और स्टार्टअप इण्डिया का गहरा नाता है साथ ही न्यू इण्डिया की अवधारणा भी इसमें गुंथी हुई है। मगर जैसे ही कोविड-19 के संक्रमण से देष ग्रसित हुआ बहुत से स्टार्टअप भी वेंटिलेटर पर चले गये। जुलाई 2020 में फिक्की और इण्डियन एंजेल नेटवर्क ने मिलकर 250 स्टार्टअप्स का एक सेम्पल सर्वे किया था और रिपोर्ट निराषा से भरी रही। हालांकि कोरोना का यह पूरा कालखण्ड ही जीवन पर भारी पड़ा है और अर्थव्यवस्था को चकनाचूर किया है। ऐसे में स्टार्टअप्स कैसे बच पाते। फिलहाल सर्वे से पता चलता है कि पूरे देष में 12 फीसद स्टार्टअप्स बन्द और 70 फीसद का कोविड-19 और लाॅकडाउन के कारण कारोबार बाधित हुआ। केवल 22 फीसद के पास अपनी कम्पनियों के लिए 3 से 6 माह का निष्चित लागत खर्च निकालने हेतु नकद भण्डारण उपलब्ध था। 30 फीसद कम्पनियों ने यह माना कि लाॅकडाउन अधिक लम्बा चला तो कमचारियों की छटनी भी करनी पड़ेगी। सर्वे बताता है कि स्टार्टअप्स का 43 फीसद हिस्सा लाॅकडाउन के तीन महीने के भीतर 20 से 40 प्रतिषत अपने कर्मचारियों की वेतन कटौती कर चुके थे। इसके अलावा निवेष के मामले में भी स्टार्टअप की स्थिति प्रभावित हुई है। वैसे जब देष की अर्थव्यवस्था बेपटरी हुई है तो स्टार्टअप्स बेअसर कैसे रह सकते थे। वैसे स्टार्टअप की व्यापारिक चुनौती पहले भी रही हैं मसलन बाजार संरचना, वित्तीय समस्याएं, विनियामक मुद्दे, कराधान साथ ही साइबर सुरक्षा और सामाजिक, सांस्कृतिक चुनौतियां आदि। हालांकि सरकार ने उद्यमषीलता को बढ़ावा देने के लिए इको-सिस्टम को विकसित करने हेतु स्टार्टअप इण्डिया, स्टैण्डअप इण्डिया व स्टार्टअप एक्सचेंज जैसे कई सक्रिय कदम उठाये हैं।

सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है जिसका मुख्य लक्ष्य लोक सषक्तिकरण है। सरल और सहज नियम, प्रक्रिया और ईज़ डूइंग बिजनेस कल्चर को बढ़ावा देकर स्टार्टअप्स को बढ़ोत्तरी दी जा सकती है और व्यापक पैमाने पर देष के युवाओं को इस ओर आकर्शित किया जा सकता है। मगर जिस तरह यह दौड़ लगा रहा था उसमें उथल-पुथल आने से पूंजी तो खतरे में गयी ही भरोसा भी डगमगा गया जो सुषासन की दृश्टि से कतई उचित नहीं है। सुषासन एक ऐसी ताकत है जो सबको षान्ति और खुषी देती है लेकिन कोरोना का प्रभाव तो ऐसा है कि स्टार्टअप फंडिंग में गिरावट देखने को मिल रही है। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि मार्च 2020 में 50 प्रतिषत की गिरावट पहले ही दर्ज की जा चुकी है। इससे यह लगता है कि या तो निवेषकों का विचार स्टार्टअप्स को लेकर स्थायी नहीं बन पाया है या फिर इसकी संख्या तो बढ़ी पर गुणवत्ता खतरे में रही। एनसीआर क्षेत्र में स्टार्टअप की स्थिति को देखें तो 2015 में यहां 1657 स्टार्टअप्स स्थापित किये गये थे 2018 आते-आते इनकी संख्या महज़ 420 रह गयी और 2019 की स्थिति तो और खराब रही जहां केवल 142 स्टार्टअप्स को ही फण्डिंग प्राप्त हुआ। सार्वभौमिक सत्य यह है कि स्टार्टअप्स फंडिंग की समस्या से जूझ रहे हैं। बंगलुरू जो स्टार्टअप्स राजधानी के रूप में जाना जाता है वहां कोविड के चलते बहुत कुछ चैपट हुआ है। अब भारत के स्टार्टअप हब के रूप में बंगलुरू अपना स्थान खो चुका है। जाहिर है अब यह रूतबा एनसीआर क्षेत्र गुडगांव, दिल्ली, नोएडा को मिल गया है। फिलहाल भारत सरकार की एक प्रमुख पहल स्टार्टअप्स जिसका उद्देष्य देष में नये विचारों के लिए उद्यमषीलता को बढ़ाते हुए एक मजबूत पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करना था उसे भी कोरोना खत्म होने और पुनः सुषासनिक कदम का इंतजार है। 



डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

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बाधाएं बताती हैं हर कानून सही नहीं

यह चिंता का विशय है और गम्भीरता से विचार करने वाला भी कि देष की आबादी में सर्वाधिक स्थान घेरने वाले किसान अनगिनत समस्याओं से क्यों जूझ रहे हैं। हम लोकतंत्र से बंधे हैं अतः यह सर्वथा आवष्यक है कि मानवता का ध्यान रखा जाय और किसानों को नये कानूनों से कोई आपत्ति है तो उन्हें बात कहने का मौका दिया जाये। इसमें कोई दो राय नहीं कि कृशि से सम्बंधित तीन कानून इन दिनों खूब सुर्खियां बटोर रहे हैं। पंजाब, हरियाणा और पष्चिमी उत्तर प्रदेष के किसान दिल्ली को चैतरफा घेर कर नाकेबंदी कर चुके हैं। किसानों का मानना है कि ये कानून उनके लिए घाटे का सौदा है या तो सरकार इसे वापस ले या फिर एक चैथा कानून न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएमपी) का भी बनाये ताकि उनकी फसल की निर्धारित कीमत की गारंटी हो। किसानों को डर है कि पूंजीपति इन कानूनों के सहारे उनका षोशण करेंगे। हालांकि उनका यह डर गैर वाजिब नहीं है। सरकार को चाहिए कि किसान को प्राथमिकता दे न कि अपने बनाये गये कानून को सही सिद्ध करने में पूरी कूबत झोके। वैसे एक बात यह भी है कि सरकार किसानों को समझाना चाहती है कि यह कानून उनके लिए बहुत फायदे का है। यदि सरकार किसानों को समझ कर कानून बनाती तो षायद यह नौबत न आती। दो टूक सच्चाई यह है कि किसानों को लेकर सरकारें मजबूत नीति के बजाय वोट की राजनीति करती रहीं हैं और किसान कभी सूखा, बाढ़ की चपेट में तो कभी उनके मन-माफिक कानून न होने की वजह से अपने को असहाय महसूस करते रहे हैं। दुर्भाग्य तो यह भी है कि 70 साल बाद भी किसान न केवल कर्ज की समस्या से जूझ रहा है बल्कि आत्महत्या की दर को भी बढ़ा दिया है। भारत में किसानों की आत्महत्या कितना संगीन मामला है इस पर कौन समझ रखेगा। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को जो आंकड़ा कुछ वर्श पहले उपलब्ध कराया था उससे यह पता चला कि हर साल 12 हजार किसान आत्महत्या कर रहे हैं। कर्ज में डूबे और खेती में हो रहे घाटे को किसान बर्दाष्त नहीं कर पा रहे हैं और जब तब सरकारी नीतियों के चलते भी उन्हें सड़क पर उतरना पड़ता है जैसा कि इन दिनों स्थिति देखने को मिल रही है। 

यह बात वाजिब ही कही जायेगी कि कृशि प्रधान भारत में कई सैद्धान्तिक और व्यावहारिक कठिनाईयों से किसान ही नहीं सरकारें भी जूझ रही हैं। अन्तर सिर्फ इतना है कि किसान मर रहा है और सरकारें मजा कर रही हैं। सबको पता है कि सुबह-षाम थाली में भोजन चाहिए और यह किसानों के पसीने से ही निर्मित होता है बावजूद इसके उसे पहले भूख की फिर स्वयं के अस्तित्व की लड़ाई के लिए और अपने ही उपज की कीमत के लिए संघर्श करना पड़ता है। स्वामीनाथन रिपोर्ट को देखें तो उसमें भी एमएसपी को डेढ़ गुने की बात कही गयी है। 15 अगस्त 2017 लाल किले से देष को सम्बोधन करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों की जिन्दगी बदलने के लिये जिस रास्ते का उल्लेख किया था वह कृशि संसाधनों से ताल्लुक रखता है जिसमें उत्तम बीज, पानी, बिजली की बेहतर उपलब्धता के साथ बाजार व्यवस्था को दुरूस्त करना षामिल था। जबकि तब से कई 15 अगस्त निकल गये किसानों के रास्ते समतल नहीं हुए और अब एक नया बखेड़ा खड़ा हो गया है। 

ऐसा देखा गया है कि किसानों से उपजी समस्याओं को लेकर सरकारों की संवेदना भी इधर-उधर होती रही है पर उनकी फटे हाल जिन्दगी में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं भर पाया। प्रधानमंत्री मोदी 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की बात कह रहे हैं। इस हकीकत पर 2022 में ही विचार होगा। अब तो कोविड का दौर है। इस लक्ष्य का क्या होगा अब तो दूर की कौड़ी लगती है। बड़ा सवाल है कि दिन बदलेंगे, बदल रहे हैं पर किसान कहां खड़ा है। 90 के दषक से मुफलिसी के चलते आत्महत्या के मार्ग को अपना चुका किसान उसी पर सरपट क्यों दौड़ रहा है। देष की 60 फीसदी आबादी किसानों की है। बहुतायत में नेता, मंत्री व प्रषासनिक अमला समेत कई सामाजिक चिंतक इस बात को कहने से कोई गुरेज नहीं करते कि उनके पुरखे भी किसान और मजदूर थे पर जब इन्हीं की जिन्दगी में थोड़ी रोषनी भरने की बात हो तो इनकी नीतियां और सोच या तो सीमित हो जाती है या बौनी पड़ जाती हैं। भारत में किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं। यह लाख टके का नहीं अरब टके का सवाल है और इनकी संख्या लगातार क्यों बढ़ रही है। इतना ही नहीं आत्महत्या से जो राज्य या इलाके अछूते थे वे भी इसकी चपेट में आ रहे हैं। इस सवाल की तह तक जाने के बजाय सरकारें बचाव की नीति पर काम करने लगती हैं। मर्ज का इलाज नहीं बल्कि उसे टालने की कोषिष में लग जाती है। दुख इस बात का है कि सत्ता में आने से पहले यही सभी के जीवन के मार्ग को समुचित और समतल बनाने के वायदे करती है और जब इनके मतों को हथिया कर सत्तासीन हो जाते हैं तो ना जाने इनके विजन को क्या हो जाता है।

किसानों की स्थिति लगातार क्यों बिगड़ रही है। सरकारों से उनका भरोसा क्यों उठ रहा है और उनकी मुष्किलें कम होने के बजाय क्यों बढ़ रही हैं ये सभी सवाल फलक पर तैर रहे हैं। किसान अपना खून-पसीना बहाकर अनाज पैदा करते हैं और बाकी उन्हीं अनाज से अपनी सेहत ठीक कर रहे हैं इस चिंता से परे कि वे किस हाल में है। दिल्ली की सीमा पर लाखों किसान भरपूर जाड़े में कानून के खिलाफ खड़े हैं। अब सरकार बातचीत की बात कह रही है। किसान बे षर्त और बिना किसी लाग-लपेट के कानून वापसी की बात कह रहे हैं या फिर उपज की गारंटी वाला भी कानून आये। वैसे किसानों की कोई गलती नहीं है। कानून बनाते समय सरकार ने इस बात की कोई जहमत नहीं उठाई कि उनसे भी पूछा जाये जबकि नई षिक्षा नीति 2020 के मामले में लाखों लोगों की राय ली गयी थी। सन् 1970 में गेहूं 76 रूपए कुंतल था जो अब मात्र 20 गुना अधिक कीमत का है जबकि सरकारी नौकरी करने वालों की तनख्वाह कहीं-कहीं 3 सौ गुना से अधिक है। यह बात समझ से परे है कि किसान मजबूर की जिन्दगी क्यों जिये। लोकतंत्र में सत्ता पर कोई भी पहुंच सकता है पर वह सबके काम आयेगा इसकी उम्मीद मानो अब है ही नहीं क्योंकि 70 सालों से अगर कोई सबसे ज्यादा छला गया है तो वह किसान ही है। आंखों में सपने ठूसने वाली सरकारें कुर्सी की फिराक में किसानों का न दर्द समझ पाती हैं और न ही कोई दवा ठीक से दे पायी हैं। अब किसान रूकता नहीं है और न ही झुकता है। अब तो सरकार को कर्जदार और स्वयं को मालिक समझता है। अब सरकार को समझना है कि वह किसानों के साथ कौन सा रिष्ता निभाना चाहती है। फिलहाल किसान जब-जब सड़क पर उतरा है तख्त हिले जरूर हैं। मौजूदा सरकार को किसानों की स्थिति को देखते हुए न केवल फायदे की कृशि नीति बनाये बल्कि अपना भरोसा भी जीते। ध्यान रहे लोकतंत्र में जनहित सर्वोपरी होता है अन्न और अन्नदाता का अपमान करके कोई पनपा नहीं है ऐसे में किसानों के इस आंदोलन को आयी-गयी नहीं किया जा सकता बल्कि संवेदना के साथ समस्या हल करना ही होगा। 

  डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

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सुशासन का पर्याय सतत विकास और कोविड

इसमें कोई दुविधा नहीं कि कोविड-19 की चुनौतियों में अनेकों उपलब्धियां पहले जैसी नहीं रही हैं। सतत् विकास के लक्ष्य हों या फिर राश्ट्रीय स्तर के विकास दर व समृद्धि ही क्यों न हो आदि तमाम प्रतिबद्धताओं को झटका लगा है। जो सुषासन लोक सषक्तिकरण का पर्याय होता है वह भी अपने समावेषी विकास की लकीर से काफी दूर खड़ा दिखता है। दुनिया एक ऐसे बवंडर से उलझ गयी है जिसमें जीवन और उसका विन्यास तथा अर्थव्यवस्था सभी खतरे में है। संसाधन और सुषासन का गहरा नाता है। वर्तमान दौर में संसाधन चाहे भौतिक हों या मानव कमजोर हुए हैं नतीजन चुनौतियां चर्चा में हैं। धरा का हर व्यक्ति अपनी जरूरतें यहीं से पूरा करता है पर कोविड ने ऐसे तमाम मौकों पर इन दिनों लगाम लगाये हुए हैं। मगर यह भी समझने का अवसर मिला है कि धरती से किसे, कितना लेना चाहिए। सतत् विकस लक्ष्य धरती के साथ मानव की वह संधि है जिसे देर तक, दूर तक तो चलाना ही है साथ ही टिकाऊ भी बनाये रखना है। राश्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि धरती हर व्यक्ति की आवष्यकता को पूरी कर सकती है पर उसके लालच को नहीं। गांधी जी का यह कथन आवष्यकता और सतत् विकास के साथ एक ऐसी निहित अभिव्यक्ति है जिसे समुचित नीति व सुषासन से और बड़ा बनाया जा सकता है। गौरतलब है कि ब्रेंट लैण्ड आयोग का गठन संयुक्त राश्ट्र ने 1983 में किया था जिसे सतत् विकास की स्वीकार्य परिभाशा देने का श्रेय दिया जाता है। इसी आयोग की साल 1987 की रिपोर्ट में सतत् विकास को हमारा सामान्य भविश्य जिसमें सतत् विकास को भविश्य की पीढ़ियों की जरूरतों को पूरा करने हेतु उनकी क्षमता से बिना किसी समझौते के मौजूदा विकास की आवष्यकता को पूरा करने वाले विकास के रूप में परिभाशित किया गया था। 

टिकाऊ विकास के जो संदर्भ विकसित हुए उसमें विकास की एक ऐसी क्षमता जिससे परितंत्र उत्पादन देता रहे और भविश्य के लिए स्वस्थ और टिकाऊ अवस्था प्राप्त होती रहे। ऐसा विकास जिसमें मानव जीवन सुखी बना रहे। भारत का राश्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानों पर नजर डाली जाये तो यह सुषासन और सतत् विकास दोनों का परिचायक है मसलन परम्पराओं का संरक्षण और संयम, मूल्यों के आधार पर जीवन जीने के एक स्वस्थ और स्थायी तरीके को आगे बढ़ाने का प्रयास, आर्थिक विकास के अनुरूप, जलवायु के अनुकूल स्वच्छ मार्ग अपनाने का प्रयास है साथ ही 2005 की तुलना में अपनी जीडीपी की उत्सर्जन तीव्रता 2030 तक 33 से 35 फीसद कम करने का निहित संदर्भ। आर्थिक सुधार के लिए कोविड के इस दौर में आत्मनिर्भर भारत, लोकल के लिए वोकल को प्रभावी बनाने का प्रयास काफी हद तक सीमित तकनीक और संसाधन होने के चलते जलवायु संकट को कम करने के काम आ सकता है जो सतत् विकास का बहुत बड़ा लक्ष्य है। यदि ऐसे संदर्भ प्रखर होते हैं तो इसे लोक सषक्तिकरण के लिए एक बेहतर लोक प्रवर्धित अवधारणा कही जायेगी जो हर हाल में सुषासन को पुख्ता करेगा। कनाडाई माॅडल में सुषासन षान्ति और खुषी का मिला-जुला मापदण्ड है। जनता तब खुष होती है जब सरकारें जन केन्द्रित, संवेदनषील और खुले दृश्टिकोण से उनकी आवष्यकता को पूरा करती हैं। सरकार जो करती है या नहीं करती है। उसे षासन कहते हैं और जबकि सतत् विकास भविश्य की संभावनाओं को व्यापक रूप से संजोये हुए होता है अंततः सुषासन तभी माना जाता है जब षासन की नीतियों से लोक सषक्त बनते हैं। ऐसे में वर्तमान की संकल्पना और भविश्य की संभावना दोनों का सुषासन से गहरा नाता है और ऐसा होने से सतत् विकास स्वयं उभर आता है। वैसे कालखण्ड कोविड का हो या सामान्य दिनों का सरकारें सीमित संसाधन और सीमित समय में ही होती हैं मगर समस्या से विमुख नहीं हो सकती।

यह सच है कि कोविड-19 के कारण कई महत्वाकांक्षी योजनाएं मन-माफिक परिणाम नहीं दे रही हैं। इस दौर ने वैष्विक निहितार्थों के साथ जीवन बचाने की एक ऐसे चक्र में दुनिया को फंसाया है कि सतत् विकास के बुनियादी मापदण्ड को लेकर चिंता और चेतना कमोबेष बढ़ी है और उसका मुख्य कारण जीवन का दुःखमय होना है। गौरतलब है सतत् विकास सुखी जीवन का पर्याय है। सरकारें भी जानती है कि ये मुष्किल की एक ऐसी घड़ी है जिसमें लक्ष्य छोटा करना होगा और लोगों को मजबूत करने के लिए उन पर भरोसा बढ़ाना होगा। आत्मनिर्भर भारत असल में इसी कसौटी पर टिका है। इसमें कोई दो राय नहीं कि छोटे लक्ष्य बड़े इरादे से पूरे किये जायें तो सरकार और समाज दोनों सुयोग्य बनते हैं जो उस डिजाइन से भी बाहर निकलने में मदद करते हैं जहां चुनौतियां घुटने टेकने के लिए मजबूर कर रही हों। सुषासन स्वावलम्बी बनाने की भी एक कड़ी है। षासन और नागरिक के बीच यह एक ऐसी श्रृंखला है जिससे देष को बेहतर दषा मिलती है। दुनिया क्या देखती है कहना कठिन है पर भारत न्यू इण्डिया के साथ आत्मनिर्भरता का जो परिमाप लेकर आगे बढ़ रहा है वह दूसरे देषों को दृश्टि भी देने का काफी हद तक काम कर रहा है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि कोविड ने सुषासन को चुनौती भी दिया है और दूसरे अर्थों में प्रतिश्ठित करने का काम भी किया है और सतत् विकास को बिना खास प्रयासों के लक्ष्य प्राप्ति की ओर मोड़ा भी है। वैसे कहावत है कि चुनौतियां व्यक्ति को महान बनाती हैं। इस कथन का भाव सुषासन और सतत् विकास से कोविड के संदर्भ में काफी हद तक सटीक कहा जा सकता है। संसाधनों का दुरूपयोग और अंधाधुंध उपयोग काफी हद तक विराम लगा है। यह भी समझ में आया है कि जीवन को सुखी बनाने के लिए कितना और क्या चाहिए। सतत् विकास का अर्थ, इतिहास और उसके मूल पहलू की पड़ताल पूरी तरह से आंख खोल देती है कि धरती पर जो है और जितना है उसका आवष्यकता के अनुपात में उपयोग हो लालच ठीक नहीं है। कोविड-19 ने घरों में बंद दुनिया को कुछ हद तक बेपरवाह और गैर जरूरी होने से रोकने का भी काम किया है। जबकि सुषासन ने उस मापदण्ड पर लोगों को खड़ा करने का प्रयास किया कि छोटी-से-छोटी चीजों का क्या मोल है और स्वतंत्रता किस कीमत पर मिली है और जीवन मोल कैसे खतरे में पड़ सकता है और इसे बचाने के लिए कितनी कीमत चुकानी होती है। जाहिर है धरती उजाड़ होने से इसलिए रोकना है ताकि हमारे बाद भी यह गुलजार रहे और यही सतत् विकास का मूल मंत्र भी है और इसी को बनाये रखना सुषासन की संज्ञा भी है। फिलहाल सतत् विकास के मायने कई हैं, सुषासन का अर्थ भी बहुत चैड़ा है मगर सरकार की सोच और संसाधन सीमित हैं। सोचना हम सभी को है।


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

सुशासन का दौर और असुरक्षित बच्चे

बीते कई वर्शों से सुषासन की विषेशता और विष्लेशण दोनों में खूब इजाफा हुआ है पर कई वर्शों से बच्चों के गायब होने की समस्याएं भी बेलगाम हुई हैं। नौनिहालों की सुरक्षा और संरक्षा पर आज भी सवालिया निषान लगा हुआ है। विमर्ष यह है कि इस समाज और सरकार के बीच रहने वाले लाखों बच्चे गायब क्यों हो रहे हैं। अगर दिल्ली में साल 2018 में गायब होने वाले बच्चों का औसत देखें तो इसकी संख्या प्रतिदिन 18 है। जो 2015 की तुलना में काफी सुधरा हुआ कहा जा सकता है। गौरतलब है कि वर्श 2015 में 22 बच्चे प्रतिदिन गायब होने का औसत रहा है। 2012 से 2017 के बीच 5 साल के भीतर राश्ट्रीय राजधानी में 41 हजार से अधिक बच्चे गायब हुए जिसकी भयावह स्थिति देखते हुए राज्यसभा में षून्यकाल के दौरान यह समस्या उठी भी थी। ये आंकड़े नौनिहालों के लिए तो खतरे की घण्टी है ही इनकी चपेट में आने वाले परिवार का पूरा जीवन भी तितर-बीतर हो रहा है। यदि पूरे देष के अलग-अलग हिस्सों में देखें तो हर घण्टे 8 बच्चे लापता हो रहे हैं जो भयावह स्थिति को जता रहा है। नेषनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो के हालिया आंकड़े के अनुसार साल 2019 में 73 हजार से अधिक बच्चे देष से गायब हुए हैं। बच्चों के गायब होने की कहानी दषकों पुरानी है। 2011 से जून 2014 के बीच 3 लाख 27 हजार बच्चे देष से लापता हुए थे जिनमें से 45 फीसद बच्चों का कोई अता-पता नहीं है और यह क्रम कमोबेष आज भी कायम है। 

दुष्वारियां तो बढ़ रही हैं, समस्याएं भी बेलगाम हुई हैं लेकिन पुलिस प्रषासन भी अपने हिस्से का काम करने का प्रयास कर रही है। कई एनजीओ के साथ मिलकर बच्चों की तलाष की जाती है और बच्चों को बरामद कर परिजनों को सौंपा भी जाता है। इसी साल 15 सितम्बर तक दिल्ली में लापता हुए बच्चे के कुल 28 सौ से अधिक मामले सामने आये। इनमें से 19 सौ से अधिक बच्चे या तो खुद लौट आये या पुलिस ने बरामद कर परिजनों को सौंप दिया। इसमें कहा यह भी गया है कि ज्यादातर मामलों में बच्चे खुद घर से भागे थे। यदि इस आंकड़े का गणतीय सम्बंध देखा जाय तो एक तिहाई बच्चे अभी भी लापता ही हैं। बड़ा सवाल यह है जो बच्चे वापस नहीं आ पाते और जिन्हें षासन-प्रषासन खोज नहीं पाता आखिर उनका होता क्या है? पड़ताल बताती है कि ऐसे बच्चों को देह व्यापार, अंगों की तस्करी, बाल मजदूरी, भीख मंगवाना, वेष्यावृत्ति, चोरी और लूटपाट आदि में धड़ल्ले से उपयोग किया जाता है। खास यह भी है कि मौजूदा प्रषासन में तकनीकी दक्षता बढ़ने से बरामदी का औसत तो बढ़ा है मगर चिंता का सबब यह है कि बच्चे गायब होने का औसत बढ़ा है। 

दिल्ली देष का दिल है मगर बच्चों के लिए असुरक्षित भी। हालांकि यह आरोप अकेले दिल्ली पर नहीं लगाया जा सकता। महाराश्ट्र, ओडिषा, केरल, राजस्थान सहित दिल्ली से सटे हरियाणा में बच्चे लापता होने का औसत बढ़ा है। जैसे-जैसे षहरीकरण और नगरीकरण उफान ले रहा है समस्याएं भी आसमान छू रही हैं। बेषक षहर रोज़गार का अवसर है पर इसी अवसर में बच्चों की असुरक्षा भी व्यापक स्थान घेरे हुए है जिसे न तो परिजन और न ही षासन-प्रषासन नजरअंदाज कर सकता है। दिल्ली समेत देष से रोजाना बड़ी संख्या में बच्चे लापता हो जाते हैं मगर एक तर्क यह भी है कि इसके पीछे कुछ बच्चे अपनी अनुचित मांग नहीं माने जाने, परीक्षा में कम अंक लाने और माता-पिता की डांट-फटकार और अन्य कारणों से भी स्वयं घर छोड़कर चले जाते हैं। बच्चों की चाहत, पुरानी रंजिष और मानव तस्करी जैसे मानसिकताएं बच्चों को अगवा करने या उनकी हत्या करने जैसी वारदातें खूब बढ़ी हैं। प्रषासन कितनी भी साफगोही से काम करने की बात कहे परन्तु हकीकत यह है कि नौनिहाल खतरे में हैं। संविधान, विधान और बच्चों के लिए बने तमाम कानून भले ही उनके उज्जवल भविश्य की ढ़ेरों षुभकामनाएं रखती हों मगर बढ़ी हुई असुरक्षाएं सब कुछ बेमानी कर दे रहा है। ऐसे में पुलिस प्रषासन और जिम्मेदार इकाईयां रणनीतिक और तकनीकी खामियों को दूर करके लापता हो रहे बच्चों को बरामद करने में न केवल तेजी दिखायें बल्कि कुछ ऐसा भी करें कि गायब हो रहे बच्चों पर विराम लगे। 

 

डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

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सत्ता, योगदान का उत्तरदायित्व है न कि आर्थिक आभामण्डल

यह तर्क सीमित विवेकषीलता, तार्किकता और वैधानिकता के दर्षन से ओत-प्रोत है कि सर्वोच्च पद कहीं भी हो लोग आते और जाते रहते हैं। षासन से सम्बंधित नैतिक मूल्य व मानक उस समाज विषेश में प्रचलित सामान्य नैतिक मूल्यों व मानकों का ही रूप होता है। राश्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री जैसे सर्वोच्च पदों पर कोई भी पहुंच सकता है यही लोकतंत्र की गुणता है। फिर चाहे उत्तरी गोलार्द्ध में रचे-बसे यूरोप के देष हों या अमेरिका या फिर दक्षिणी गोलार्द्ध के एषियाई देष समेत अफ्रीका व लैटिन अमेरिका ही क्यों न हों। हर किसी का समाज व प्रचलित मान्यताएं तथा आर्थिक आभामण्डल न केवल नागरिकों पर बल्कि उन्हीं के बीच से आये सर्वोच्च पदों तक पहुंचने वालों पर भी यह लागू होते देखा जा सकता है। कोरोना कालखण्ड एक अच्छा खासा वक्त ले चुका है। दुनिया स्वास्थ की समस्या के साथ खराब अर्थव्यवस्था के दौर से भी गुजर रही है। परोपकार, लोक कल्याण और जन भावना से प्रेरित कई काज भी इन दिनों बढ़त लिये हुए हैं मगर इसकी सीमाएं भी हैं। सीमाएं तो उन सत्ताधारियों की भी हैं जिन्हें सर्वोच्च होने का एहसास है। जापान में षिंजो अबे खराब स्वास्थ के चलते प्रधानमंत्री के पद पर बने रहना सही नहीं समझा। समर्पित और ईमानदार पदीय निर्वहन न कर पाने के चलते उन्होंने इस्तीफा देना ठीक समझा। वहीं खबर यह भी है कि ब्रिटेन के मौजूदा प्रधानमंत्री अपना पद छोड़ने का मन बना रहे हैं। सामान्यतः जिन कारणों से ब्रितानी प्रधानमंत्री बोरिस जाॅनसन प्रधानमंत्री जैसे सर्वोच्च पद से हटने का मनसूबा पाल रहे हैं उसका कारण जान कर सभी का हैरत में पड़ना लाज़मी है। खासकर भारत की परिधि में तो यह कहीं अधिक आष्चर्य में डालने वाला हो सकता है। जाॅनसन को ऐसा लगता है कि जो वेतन उन्हें प्रधानमंत्री के तौर पर मिलता है उससे उनके परिवार का गुजारा नहीं हो पा रहा है। इस दुविधा के साथ इस सुविधा को देखें तो एक प्रधानमंत्री जिसे परिवार के पालन-पोशण व जरूरी खर्च को लेकर इतने बड़े पद की सुविधाएं भी कमतर पड़ रही हैं। इससे यह भी स्पश्ट होता है कि प्रधानमंत्री का पद वह कत्र्तव्य है जो अभिलाशा, महत्वाकांक्षा और बरसों की इच्छा की पूर्ति से परे है। इतना ही नहीं यह लोकतंत्र में एक जन सेवक के रूप में अवधि विषेश के लिए मिला काम है जिसे ईमानदारी और समर्पण से निभा कर दूसरों के लिए छोड़ देना है।

तार्किक और आर्थिक सोच

दो टूक यह भी है कि यदि ब्रिटिष प्रधानमंत्री जाॅनसन वाकई में इस पद से हटते हैं तो यह कोई भी आसानी से अंदाजा लगा लगा सकता है कि एक प्रधानमंत्री को आखिर ऐसी असुविधा कैसे हो सकती है जबकि भारत में सांसद, विधायक, मंत्री या इससे सम्बंधित किसी भी कार्यकारी पद की प्राप्ति मात्र से ही मानो भविश्य की भी सुख-समृद्धि की गारंटी मिल जाती है। हालांकि यह बात सभी भारतीय पदाधिकारियों पर लागू नहीं है। वैसे 54 वर्शीय ब्रिटिष प्रधानमंत्री जाॅनसन को लेकर उक्त बातों की कोई अधिकारिक पुश्टि तो नहीं है मगर डेली मिरर जो ब्रिटिष का एक समाचार पत्र है जिसमें यह खबर प्रकाषित है कि उन्हीं की पार्टी के एक सांसद के हवाले से यह बात आयी है। वैसे देखा जाय तो प्रधानमंत्री के तौर पर जाॅनसन एक साल में 1 करोड़ 44 लाख रूपए वेतन प्राप्त करते हैं। पड़ताल बताती है कि कम वेतन का दर्द उनका नाजायज नहीं है। प्रधानमंत्री से पहले उनकी यही कमाई एक काॅलमनिस्ट के तौर पर लगभग दोगुना थी। डेली मिरर में काॅलम लिखने को लेकर उन्हें 22 लाख रूपए महीने मिलते थे। इसके अलावा महीने में मात्र दो लेक्चर के लिए उनकी डेढ़ करोड़ की कमाई अलग से होती थी। वैसे बोरिस जाॅनसन की ही कमाई नहीं ब्रिटेन के अन्य प्रधानमंत्री के पद पर रहने वाले और अमेरिका के पूर्व राश्ट्रपतियों की कमाई भी आसमान छूती है।

कहां से होती है कमाई 

आंकड़े यह भी बता रहे हैं कि ब्रिटेन में अधिकांष प्रधानमंत्रियो की कमाई पद से हटने के बाद औसतन अधिक रहती है और इसका मुख्य कारण लेक्चर या कन्सलटेंसी होता है। जाॅनसन से पहले जब प्रधानमंत्री थेरेसा हुआ करती थी उनकी एक साल की कमाई इन दिनों साढ़े आठ करोड़ रूपए से अधिक है। जाहिर है बोरिस जाॅनसन को भी लगता है कि कम से कम दोगुना तो कमा ही सकते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री डेविड कैमरन मात्र एक स्पीच से ही एक करोड़ रूपए से अधिक वसूलते हैं और इसी श्रेणी में दषक पहले ब्रिटेन के ही प्रधानमंत्री रहे टोनी ब्लेयर लेक्चर और कन्सलटेन्सी से 210 करोड़ रूपए कमाये हैं। जन सेवकों की पर्याप्त मात्रा में एक व्यावसायी की भांति कमाई यह जताती है कि प्रधानमंत्री के तौर पर देष का काम करो और पूर्व प्रधानमंत्री होने पर अपने कौषल का उपयोग कर कमाई करो। पर भारत में क्या यही बात लागू है? भारत में मामला बिल्कुल उल्टा है। यहां नेता पद पर रहते हुए सर्वाधिक कमाई करता है और ऐसा आंकड़ा चुनाव लड़ने के समय चुनाव आयोग के समक्ष उल्लेखित दस्तावेज में आसानी से देखा जा सकता है। यहां फिर कहना सही रहेगा कि ऐसा सभी पर लागू नहीं है। एक उदाहरण से बात स्पश्ट हो जायेगी कि यह बात कितनी पुख्ता है। 2019 में दोबारा चुनाव लड़ने वाले अलग-अलग दलों के 200 से अधिक सांसदों की सम्पत्ति में करोड़ों का अन्तर देखने को मिला था। मौजूदा समय में राज्यसभा के 203 सांसद करोड़पति हैं और लोकसभा में 543 के मुकाबले 475 करोड़पति हैं।

अमेरिका के पूर्व राश्ट्रपति भी पीछे नहीं

यदि समाज षिक्षित, कुषल और कौषल से भरा हो तो कमाई के स्थान पर कमाई और जन सेवा के स्थान पर जन सेवा का रास्ता आसानी से पकड़ा जा सकता है। लोक केन्द्रित, खुला दृश्टिकोण, संवेदनषीलता और पद के साथ सही निर्वहन न कि आर्थिक आभामण्डल से उसे जकड़ लेना और यह तभी सम्भव है जब राजनीतिक और सामाजिक मूल्य सुचिता की राह पर हों। दो बार अमेरिका के राश्ट्रपति रहे बराक ओबामा 2016 से पद से हटने के बाद व्याख्यान पर अपना ध्यान केन्द्रित किया मगर अब नेटफ्लिक्स के लिए फिल्मों के निर्माण की ओर देखे जा सकते हैं। वैसे अमेरिका में भी पद से हटने के बाद राश्ट्रपति रहे ऐसी षख्सियतें आमतौर पर काफी व्यस्त हो जाती हैं और यह समझना, जानना रोचक हो जाता है कि आखिर वे करते क्या हैं। हमारे देष में एक नौकरषाह 60 बरस में सेवानिवृत्त हो जाता है जो एक पढ़ा-लिखा और मजबूत तबका है मगर अपने अनुभवों से देष को कितना लाभ देता है इसके आंकड़े बहुत आषा से भरे नहीं हैं। जबकि अमेरिका जैसे देषों में सर्वोच्च पद पर रहने के बावजूद काम करना मानो एक षगल है। अमेरिका में जब कोई राश्ट्रपति व्हाइट हाउस से विदाई लेता है तो उसे मोटी पेंषन मिलती है और जीवन भर के लिए कई प्रकार के लाभ हासिल किये रहता है। किताबों और भाशणों से इनकी कमाई ठीक-ठाक देखी जा सकता है। पूर्व राश्ट्रपति बिल क्लिंटन की आत्मकथा माई लाइफ हो या जाॅर्ज बुष की किताब डिसीजन प्वांइट हो करोड़ों में कमाई करती हैं और पीछे चलें तो रिचर्ड निक्सन जिन्हें वाॅटरगेट काण्ड के चलते उन्हें पद छोड़ना पड़ा था वे भी राजनीति पर कई किताबें लिखे। इसके अलावा गेराल्ड फोर्ट रिटायरमेंट के बाद गोल्फ और स्कीइंग के साथ बहुराश्ट्रीय कम्पनियों में सक्रिय रहे। इसी तर्ज पर रोनाल्ड रीगन की आत्मकथा और उन्हें लेक्चर सर्किट में व्यस्त देखा जा सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सर्वोच्च पद आसानी से नहीं मिलता है और इसमें भी कोई षक नहीं कि चाहे पद पर हों या सेवानिवृत्त सभी में सब कुछ नहीं होता। 

एक फकीर राश्ट्रपति जब आश्रम लौटा

भारत में हर चैथा व्यक्ति अषिक्षित है और कमोबेष यही गरीबी रेखा की भी लकीर है। यहां षिक्षा, स्वास्थ, बुनियादी विकास के साथ समावेषी दृश्टिकोण अभी कुछ हद तक दूर की कौड़ी बनी हुई है। ऐसे में कौषल और कुषलता उस पैमाने पर व्याप्त करना चुनौती रहती है। षायद यही कारण है कि राजनीति यहां आर्थिक मार्ग से गुजर जाती है। भविश्य संवारने का यह एक जरिया बन जाता है। इतना ही नहीं पीढ़ीयों को भी सहेज कर रखने की मानो यह कोई प्रथा हो। मगर 70 सालों का इतिहास उठा कर देखें तो भारत की इस धरा पर कई ऐसे सर्वोच्च पद धारक षख्सियतें हैं जिन्होंने यूरोप और अमेरिका के ऐसे समकक्ष पद धारकों की तुलना में कहीं से कमतर नहीं है। कमाई उनका हिसाब नहीं था पर सादगी से भरा जीवन और समाज को सहेज कर रखना निःस्वार्थ भाव से सेवा देना उनकी खूबसूरत कथानक में है। डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद अपने 12 वर्श के राश्ट्रपति के कार्यकाल के बाद जब उनसे नये आवास के बारे में पूछा गया तो न केवल आवास लेने से मना कर दिया बल्कि पटना के सदाकत आश्रम लौट गये और वे जीवन के अन्त तक यहीं रहे। गौरतलब है कि 1921 में महात्मा गांधी ने इस आश्रम की स्थापना की थी और डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के दिनों यहीं रहते थे। खास यह भी है कि 80 के दषक में जेपी आन्दोलन यहीं से षुरू हुआ था। दूसरे राश्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृश्णन अपना कार्यकाल खत्म करने के बाद चेन्नई चले गये और 8 बरस अर्थात् अन्त तक वे अपने परिवार के साथ रहे। इसी श्रेणी में नीलम संजीवा रेड्डी भी हैं जो अपने गृह राज्य आन्ध्र प्रदेष लौट गये थे। ये उन पूर्व राश्ट्रपतियों की गाथा है जो दिल्ली के रायसिना पहाड़ी की छाती पर 340 कमरों के बने भव्य आलीषान भवन में रह चुके थे और जब यहां से विदा हुए तो देष के जनमानस को यह संदेष दिया कि वहां रहना प्रथम नागरिक के नाते नैतिक और वैधानिक था और अब एक नागरिक के तौर पर कहीं भी रहें स्वतंत्र हैं और वे आम जनमानस की तरह साधारण भी हैं। इसी तर्ज पर एक उदाहरण दक्षिण अमेरिका का यूरूग्वे के एक राश्ट्रपति का भी है होजे मुजिका को सबसे गरीब राश्ट्रपति कहा जाता था। 2015 में सेवानिवृत्त होकर वे अपने खेत में बने दो कमरे के मकान में रह रहे हैं। किसानी का काम करते हैं, खेत में ट्रैक्टर चलाते हैं और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर आम नागरिकों की तरह लाइन में लगे होते हैं। 

कन्याकुमारी से रायसीना तक

सत्ता न धन का पर्याय थी और न ही हो सकती है। यह समर्पण का नाम है और दायित्व इसका श्रृंगार है। मिसाइल मैन और भारत रत्न उसके बाद देष के राश्ट्रपति बने डाॅ0 एपीजे अब्दुल कलाम के क्रियाकलाप ये जताते हैं कि उनका जो भी था वह केवल देष के लिए था। वैज्ञानिक और प्रोफेसर के तौर पर उन्होंने देष को भी दिया और देष के बच्चों को भी दिया। 2020 का मिषन दिया और विकसित देष बनने की कूबत भी सुझायी। 2007 में राश्ट्रपति पद से सेवानिवृत्त होने के बाद बिना रूके वे विद्यार्थियों और युवाओं के बीच व्याख्यान देते रहे। यदि यहां अमेरिका के राश्ट्रपति या ब्रिटेन के प्रधानमंत्री की चर्चा करें तो कमाई का एक तथ्य सामने मुखर हो जाता है मगर कलाम साहब की चर्चा करें तो न राश्ट्रपति के रूप में वेतन लिया और न ही देष को देने में कोई कसर छोड़ी। बल्कि उनकी दुनिया से विदाई भी षाम 6ः30 बचे आईआईएम षिलांग में एक व्याख्यान के दौरान ही हुई थी। सत्ता का मर्म और सर्वोच्च पद की समझ सभी में हो सकती है पर उसके लिए ईमानदार कोषिष क्या हो सकता है इसके उदाहरण कम ही देखने को मिलेंगे। इसमें एपीजे अब्दुल कलाम का नाम षीर्श पर रखा जा सकता है जो राश्ट्रपति बनने से पहले और उसके बाद भी कार्य के प्रति तत्पर रहे। प्रधानमंत्री के तौर पर एक नाम डाॅ0 मनमोहन का भी लिया जाना चाहिए जो यूजीसे के चेयनमैन, आरबीआई के गवर्नर और प्रोफेसर, अर्थषास्त्री आदि के रूप में उनकी मूल पहचान कही जा सकती है। खबर यह भी देखने को मिली थी कि एक बार उन्होंने सूचना के अधिकार के अन्तर्गत यह पूछा था कि क्या एक पूर्व प्रधानमंत्री विष्वविद्यालय में षिक्षण कार्य कर सकता है। उक्त से यह लगता है कि यदि देने के लिए सर्वोच्च पद धारकों के पास कुछ अलग से है तो पद से विदा होने के बाद इस आतुरता से पीछे नहीं हटते। हालांकि उन्होंने पंजाब विष्वविद्यालय चण्डीगढ़ को 35 सौ किताबें भेंट की थी। कोई षख्सियत संवैधानिक पदों पर हों या फिर किसी स्वायत्त संस्था से सम्बंधित सर्वोच्च पद पर रहा हो या फिर नौकरषाही में से कोई हो बहुत सारे उदाहरण देष में हैं जो सेवा निवृत्ति के बाद अपने पुराने काम या कुछ सृजनात्मक पक्षों की ओर रूख किया है। भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर रहे रघुराम राजन और नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविन्द पनगढ़िया को प्रोफेसर के रूप में पुनः काम करते हुए देख सकते हैं।

बड़ी भूमिका बाकी है

विकासषील देषों में राजनीति की बड़ी भूमिका नहीं हो सकती जो असल में विकसित देषों की होती है। भारत जैसे विकासषील देष में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक परिवर्तन का अभी षक्तिषाली दौर आना बाकी है। जब ऐसा बड़ा सामाजिक परिवर्तन जैसा कि विकसित देषों में है सम्भव होगा तो राजनीतिक दिषा भी मजबूत राह लेगी। जहां कौषल और चेतना सुरक्षित हो जायेगी तब राजनीति आर्थिक जरिया न बनकर एक ईमानदार उत्तरदायित्व बन जायेगा। ऐसे में देष के लिए करने की जगह राजनीति तो कमाने की जगह कौषल ले लेगा। 


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

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जब कोरोना गया ही नहीं, तो वापसी कैसे!

देष में दिवाली के बाद कोरोना एक बार फिर तेजी से बढ़ रहा है। स्थिति को देखते हुए राज्यों ने पाबंदी भी लगाना षुरू कर दिया है। बीते 20 नवम्बर से गुजरात का अहमदाबाद पहला ऐसा षहर बना जहां रात्रि कफ्र्यू लागू कर दिया गया। हालांकि यह घोशणा 23 नवम्बर तक के लिए ही थी। मध्य प्रदेष के 5 जिलों में रात्रि कफ्र्यू और राजस्थान में धारा 144 के साथ कुछ जिलों में रात्रि कफ्र्यू देखा जा सकता है। हरियाणा सरकार ने पिछले महीने स्कूल खोलने का जो फैसला किया था अब कई स्कूलों में कोरोना विस्फोट को देखते हुए 30 नवम्बर तक के लिए प्रदेष के सभी स्कूल बंद हैं। वहीं मुम्बई में स्कूल 31 दिसम्बर तक के लिए बंद कर दिये गये। कहीं कोरोना की दूसरी तो तीसरी लहर के जद्द में एक बार फिर भारत आ गया है। दिल्ली की स्थिति पहले की तुलना में और भयावह है। संक्रमित लोगों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है और मौत का आंकड़ा भी यहां डराने वाला देखा जा सकता है। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने दिवाली के दौरान बाजारों में लोगों की लापरवाही को जिम्मेदार माना है क्योंकि मास्क और सोषल डिस्टेंसिंग का पालन लोगों ने नहीं किया। एक तरफ जहां भारत में कोरोना के एक्टिव मामलों में कमी देखी जा रही है वहीं दिल्ली समेत कुछ राज्यों में इसमें इजाफा होना चिंता का सबब बना हुआ है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रतिदिन संक्रमित की संख्या एक लाख तक पहुंच गयी थी जो अब घटकर आधे से भी कम है मगर मौजूदा समय में कोरोना की जो लहर आयी है वह आंकड़े में इजाफा कर रही है। समझने वाली बात यह भी है कि कोरोना घट रहा था न कि समाप्त हो रहा था। इसी घटाव को लोगों ने समाप्ति समझने की जो गलती की यह उसी की कीमत है।

लापरवाही के चलते कोरोना की दर में जो बढ़त आयी है वह इस कहावत को बल दे दिया है कि आ बैल मुझे मार। मुंह पर मास्क और दो गज की दूरी जनमानस पर समय के साथ क्यों भारी पड़ने लगी इसे भी समझने की आवष्यकता है। त्यौहारी सीजन में जो लापरवाही हुई सो हुई 25 मार्च से जारी लाॅकडाउन और तत्पष्चात् जारी कोरोना की लड़ाई में लोगों का जीवन संघर्श इस कदर बढ़ गया कि कोरोना को मात देते-देते मौत की ओर खींचते चले गये। इसके पीछे बड़ी वजह आवष्यकताओं की पूर्ति में असावधानी का होना है। इण्डिया गेट पर भीड़ हो या चांदनी चैक पर खरीददारी या फिर विवाह, बारात, उत्सव में की गयी लापरवाही और दीवाली में हुई घोर लापरवाही कोरोना को मुखर होने का मौका दे दिया। पहाड़ी राज्य उत्तराखण्ड भी कोरोना के मामले में काफी संभल गया था पर इन दिनों हालात यहां भी भारी बढ़त के साथ षासन-प्रषासन के लिए नई कसरत बना दिया है। पुलिस मास्क न पहनने वालों के चालान काट रही है और जरूरत पड़ने पर बल प्रयोग भी कर रही है। जुर्माने की राषि भी बढ़ा दी गयी है मगर कोरोना का इन सबसे क्या लेना-देना, समझना तो जनता को है। वैसे जनता भी क्या करे रोज़गार से लेकर तमाम कारोबार छिन्न-भिन्न हो गये हैं। पाई-पाई की मोहताज जनता जीवन संघर्श में ऐसी उलझी है कि उसे कोरोना से बड़ी उसकी स्वयं की समस्या हो गयी है। सवाल है कि कोरोना वापस गया था या वापसी किया है। वैज्ञानिक पहले ही इस बात की चिंता जता चुके हैं कि सर्दियों के मौसम में कोरोना के मामले में तेजी आ सकती है। नीति आयोग की एक रिपोर्ट में भी यह जिक्र था कि सर्दियों में कोरोना खतरनाक हो सकता है। यह तमाम षंकाएं बढ़े हुए केस को देखते हुए सही साबित हो रही हैं। नवम्बर से देष में सर्दियां षुरू हुई हैं और कोरोना का मामला भी स्पीड पकड़ लिया। भारत पहले ही लाॅकडाउन के चार चरण से गुजर चुका है जिसमें कुल 69 दिन बंदी में चले गये और जब जून से अनलाॅक षुरू हुआ तो कोरोना संक्रमितों की संख्या भी लगातार बढ़ी। हालांकि लाॅकडाउन के दौर में भी संक्रमण धीमा नहीं पड़ा था। कोरोना ने करोड़ों को बेरोज़गार कर दिया और रोजी-रोटी के लिए मोहताज़ कर दिया। देष की जीडीपी को ऋणात्मक 23 के स्तर पर पहुंचा दिया। देष की अर्थव्यवस्था बेपटरी हो गयी मगर कोरोना अपनी पटरी पर पहले भी दौड़ रहा था और आज भी रूका नहीं है। 

दुनिया पहले भी कोरोना को लेकर तैयार नहीं थी और अब एक बार फिर अचानक इस पलटवार पर भी कुछ खास तैयार नहीं दिखाई देती। फ्रांस में अक्टूबर के अन्त में आयी कोरोना वायरस की दूसरी लहर को देखते हुए हेल्थ इमरजेंसी लगायी गयी। फ्रांस में सभी गैर जरूरी दुकानों को बंद करने के लिए कहा गया। ब्रिटेन से भी फ्रांस में लोगों की एंट्री पर बैन लगा दिया गया केवल वही आ सकते हैं जो सरकार की ओर से जारी जरूरी दस्तावेज रखे होंगे। जर्मनी में भी एक बार फिर राश्ट्रव्यापी लाॅकडाउन लगा दिया गया। हालांकि फ्रांस और जर्मनी ने ब्रिटेन की तुलना में प्रतिदिन कोरोना से होने वाली मौत की संख्या कम है। गौरतलब है कि ब्रिटेन में प्रधानमंत्री बोरिस जाॅनसन ने कोरोना के कारण लगाये गये प्रतिबंधों को कड़ा करने का निर्देष जारी किया था।  इसमें कोई दो राय नहीं कि कोरोना के बढ़त से अर्थव्यवस्था एक बार फिर भूचाल का षिकार होगी। यूरोप में कोरोना संकट के दोबारा उभार के बीच उक्त तमाम देषों के अलावा स्पेन, स्लोवाकिया, रोमानिया, चेक गणराज्य आदि सभी में कड़ाई एक बार फिर देखी जा सकती है। हैरत यह भी है कि अमेरिका में ऐसी भी घटना आयी है कि कोरोना दोबारा भी हुआ है। वैज्ञानिकों का कहना है कि जो लोग कोरोना वायरस के संक्रमण से ठीक भी हो चुके हैं उन्हें सोषल डिस्टेंसिंग, मास्क और हाथ धोने जैसी गाइडलाइन का पालन करते रहना चाहिए। हो सकता है कि इस गलतफहमी से भी कोरोना की संख्या बढ़ी हो कि जिसे यह वायरस हो गया उसे दोबारा न तो होगा और न ही वह किसी के लिए खतरा है। हो सकता है इसके चलते वह सावधानी से स्वयं को मुक्त कर लिया हो और इसके विस्तार में वह षामिल हो गया हो। यह भी निष्चित तौर पर कहना षायद मुष्किल है कि जो बचाव के उपाय सुझाये गये हैं वे बिल्कुल दुरूस्त हैं। वैज्ञानिक कोरोना वायरस और उसकी इम्युनिटी को लेकर अब भी स्पश्ट नहीं है। क्या हर कोई संक्रमण के बाद इम्यून हो सकता है। यदि हो भी सकता है तो कब तक इम्यून बना रहेगा अभी इसका कोई खास प्रमाण आया नहीं है। फिलहाल दुनिया कोरोना से निपटने के लिए अपने-अपने ढंग का रास्ता लिये हुए है। मास्क, षारीरिक दूरी और नमस्ते की संस्कृति पूरी दुनिया में फैली है फिर भी कोरोना फैल रहा है। अभी भी कोरोना को लेकर कोई टीका नहीं आया है। हालांकि रूस, ब्रिटेन, अमेरिका समेत कई देष इसका दावा कर रहे हैं। भारत में भी इसका परीक्षण जारी है जब तक दवाई नहीं तब तक ढ़िलाई नहीं का नारा बुलंद है। बावजूद इसके ऐसे ष्लोगन एक सीमा के बाद कारगर नहीं दिखाई दे रहे हैं। मनोवैज्ञानिक तौर पर षायद लोग ये मान बैठे थे कि कोरोना देष से चला गया या खत्म होने की कगार पर है जबकि उसकी भयावह स्थिति यह बताती है कि वह गया ही नहीं था। जाहिर है यह घोर लापरवाही का परिणाम है। स्पश्ट है कि कोरोना को तब तक गया हुआ नहीं माना जा सकता जब तक एक भी संक्रमित देष में होगा। 


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

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