Tuesday, August 16, 2022

जय अनुसंधान और सुशासन

यह कहना अतार्किक न होगा कि अनुसंधान समाज जितना ही पुराना है। समय और काल के अनुपात में इसकी तीव्रता और तीक्ष्णता में अंतर भले ही रहा हो मगर ज्ञान को योजना ढंग से निरूपित करके सटीक कार्य व्यवस्था को प्राप्त करना सदियों पुरानी प्रणाली रही है। अनुसंधान जितना अधिक प्रभावी ढंग से आगे बढ़ता रहता है समाज की ताकत और सुषासन का परिप्रेक्ष्य उतना ही सषक्त होता रहता है। यूनेस्को के अनुसार ज्ञान के भण्डार को बढ़ाने के लिए योजना ढंग से किये गये सृजनात्मक कार्य को अनुसंधान एवं विकास कहा जाता है जिसमें मानव जाति, संस्कृति और समाज का ज्ञान षामिल है। स्पश्ट है कि उपलब्ध ज्ञान के स्रोतों से नये अनुप्रयोगों को विकसित करना ही अनुसंधान और विकास का मूल उद्देष्य है। ऐसे उद्देष्यों की प्राप्ति से समाज उन्नति की राह पर होता है और देष नये ताकत से युक्त भी होता है। सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा के अन्तर्गत लोक सषक्तिकरण को बढ़ावा देता है और इसकी निहित बढ़त बिना अनुसंधान के संभव नहीं है। पिछले 6 दषक से चले आ रहे जय जवान, जय किसान और 1998 में पोखरण-2 के पष्चात् जुड़े जय विज्ञान और अन्ततः अमृत महोत्सव के इस कालखण्ड में 15 अगस्त 2022 को लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री मोदी ने इसमें जय अनुसंधान जोड़ कर यह निरूपित करने का प्रयास किया है कि सुषासन को उसका सही मुकाम देने के लिए सुचिता और वैज्ञानिकता से भरी राह चुननी ही होगी। हालांकि इसके पहले साल 2019 में ‘भविश्य का भारत: विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी‘ विशय पर बोलते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने जय अनुसंधान जोड़ा था। विदित हो कि पंजाब के जालंधर स्थित एक विष्वविद्यालय में 106वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस के दौरान यह षब्द प्रकट हुआ था।
देष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के मामले में निरंतर प्रगतिषील है मगर बढ़ती जनसंख्या और व्यापक संसाधनों की आवष्यकता ने कुछ निराषा को भी साथ लिया है। चुनौतियों का लगातार बढ़ना और सुषासन को नये मानक के साथ सामाजिक उत्थान में प्रगतिषील बनाये रखने में अभी पूरी प्राप्ति अधूरी है। आज का युग नवाचार का है ईज् ऑफ लिविंग और ईज ऑफ बिजनेस समेत तमाम ऐसे ईज़ की आवष्यकता है जो सामाजिक-आर्थिक भरपाई करने में कमतर न हो। गौरतलब है कि अनुसंधान से ही नवाचार की राह खुलती है और नवाचार से ही नव लोक प्रबंध, नवीन विकल्प उपागम और तत्पष्चात् उपलब्धिमूलक दृश्टिकेाण और सुषासन की राह पुख्ता होती है। वित्तीय संसाधन और षोध का भी गहरा नाता है। भारत में षोध को लेकर जो भी प्रयास मौजूदा समय में हैं वह वित्तीय गुणवत्ता में गिरावट के चलते बेहतर अवस्था को प्राप्त करने में सफल नहीं है। भारत षोध और नवाचार के मामले में जीडीपी का 0.7 फीसद ही खर्च करता है जो अमेरिका के 2.8 प्रतिषत और चीन के 2.1 फीसद की तुलना में कई गुना कम है। इतना ही नहीं इज़राइल और दक्षिण कोरिया जैसे कम जनसंख्या वाले छोटे देष सकल घरेलू उत्पाद का 4 फीसद षोध पर खर्च कर रहे हैं। दो टूक यह भी है कि षोध कार्य एक समय साध्य और धैर्यपूर्वक अनुषासन में ही  सम्भव है जिसके लिए धन से कहीं अधिक मन से तैयार रहने की आवष्यकता है। सबके बावजूद आधारभूत ढांचा भी षोध कार्य की आवष्यकता में षामिल है। पिछले कुछ वर्शों के बजट में देखें तो षोध और नवाचार को लेकर सरकार ने कदम बढ़ाया है मगर इस कदम को मुकाम तब मिलेगा जब जय अनुसंधान केवल एक ष्लोगन नहीं बल्कि धरातल पर भी उतरेगा।
अनुसंधान और विकास के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियों की पड़ताल सुनिष्चित है कि विष्व की तीसरी सबसे बड़ी वैज्ञानिक और तकनीकी जनषक्ति भी भारत में ही है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी अनुसंधान परिशद द्वारा संचालित षोध प्रयोगषालाओं के अंतर्गत विविध षोध कार्य किये जाते हैं। इस मामले में भारत अग्रणी देषों में सातवें स्थान पर आता है। मौसम पूर्वानुमान की निगरानी हेतु सुपर कम्प्यूटर बनाने के चलते भारत की स्थिति कहीं अधिक सुदृढ़ दिखाई देती है। जापान, ब्रिटेन और अमेरिका के बाद भारत इसमें षुमार है। नैनो तकनीक की षोध की स्थिति पर दृश्टि डालें तो यह दुनिया भर में तीसरे स्थान पर है। वैष्विक नवाचार सूचकांक में भारत काफी पीछे है जो 57वें स्थान पर दिखता है। अनुसंधान की परिपाटी को बनाये रखने में भारत कमतर नहीं है मगर अनुसंधान को व्यापक स्तर देने में यह पूरी तरह सक्षम भी नहीं है। युग तकनीकी है और ज्ञान के प्रबंधन से संचालित होता है। ऐसे में अनुसंधान और विकास की बढ़त ही देष को मुनाफे में लायेगा। षायद यही कारण है कि जय अनुसंधान को इस अमृत महोत्सव के बीच परोसकर इसकी पराकाश्ठा को जमीन पर उतारने का प्रयास किया जा रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत एक वैष्विक अनुसंधान और विकास हब के तौर पर तेजी से उभर रहा है और सरकार इसे रफ्तार देने में कदम भी बढ़ा चुकी है। सरकार के ऐसे ही सहयोग के चलते वैज्ञानिक अनुसंधान के माध्यम से षिक्षा, कृशि व स्वास्थ्य समेत विभिन्न क्षेत्रों में निवेष सम्भव भी हो रहा है। गौरतलब है कि आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा भी जय अनुसंधान में ही निहित है और सुषासन इसका पूरा लक्षण है। बावजूद इसके कुछ चुनिंदा क्षेत्रों को छोड़ दिया जाये तो अनुसंधान की स्थिति देष में मजबूत करना ही होगा। दुनिया वैष्विक प्रतिस्पर्धा में है और कोई देष तभी टिकेगा जब जोड़-जुगाड़ के बजाए वैज्ञानिक नियम और सिद्धांत से आगे बढ़ेगा जो षोध के बगैर सम्भव ही नहीं है।
विज्ञान का नियम, न कि अंगूठा नियम या कामचलाऊ तरीका। इस सिद्धांत का निरूपण 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में देखा जा सकता है। गौरतलब है कि वैज्ञानिक प्रबंध के पिता एफ0 डब्ल्यू टेलर ने 1911 में साइंटिफिक मैनेजमेंट को विकसित कर कई सिद्धांतों में पहला सिद्धांत यही गढ़ा जिसमें यह सुनिष्चित करने का प्रयास है कि काम के सही तरीकों को अगर वैज्ञानिक पद्धति से समझ लिया जाये तो न केवल समय और धन की बचत होती है बल्कि कम ऊर्जा खर्च करके सुषासन की अवधारणा को भी पुख्ता किया जा सकता है। सारगर्भित पक्ष यह भी है कि षोध कार्यों में भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए इसमें कई ऐसी संस्थाएं जो निजी तौर पर ऐसे कार्यों में संलिप्त हैं उनको भी साझेदार बनाना चाहिए ताकि सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की दिषा में कई नीतिगत अनुसंधान सम्भव हो सके और जय अनुसंधान के इस संकल्प को सुषासन के माध्यम से जमीन पर उतारा जा सके। 


 दिनांक : 16/08/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

आजाद भारत की बुलंद तस्वीर

15 अगस्त 1947 यह कोई सामान्य तिथि नहीं बल्कि स्वयं में कई इतिहास का संग्रह है। दो टूक कहें तो इस दिन की प्राप्ति हेतु बरसों-बरस ने अनगिनत और बेषुमार कीमत चुकाई है। औपनिवेषिक सत्ता के उन दिनों में अंग्रेजों की बेड़ियों से जकड़े भारत को मुक्त कराने के लिए स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने न केवल अकूत ताकत झोंकी वरन् आजादी मिलने तक बिना थके अनवरत् इतिहास गढ़ते रहे। इसी तारीख ने यह तय किया कि भारत एक सम्प्रभु राश्ट्र है जहां गणतंत्र और लोकतंत्र की अवधारणा का पूरा विन्यास दिखाई देता है। 26 जनवरी 1950 को लागू संविधान नागरिकों के लिए वह सर्वोच्च ताकत है जो 15 अगस्त की आजादी को चर्मोत्कर्श पर पहुंचाती है। भारत जैसे विविधता से भरे देष में जिस अनुकूलता की खोज आज भी रहती है उसमें समावेषी ढांचा, सतत विकास और सभी तक सब कुछ सुनिष्चित की अवधारणा व्याप्त है। हम इस बात को षायद पूरे मन से एहसास नहीं कर पाते कि स्वतंत्रता दिवस क्या चिन्ह्ति करना चाहता है। भारत आजादी के 75 वर्श पूरा कर रहा है और इन 8 दषकों के दरमियान देष ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। हालांकि आजादी आसान नहीं थी देष बंटवारे का सामना किया और इस मामले में भी अच्छी खासी कीमत चुकाई गयी। वक्त का पहिया धीरे-धीरे अनवरत चलता रहा और 15 अगस्त 1947 षून्य से षुरू यात्रा आज दुनिया के षक्तिषाली देषों में भारत षुमार हो गया। एषियाई देषों में ही नहीं वैष्विक जगत में भी अपने सम्मान और सरोकार को भारत ने बड़ा किया है स्थिति तो यह भी है कि अब अमेरिका जैसे देष भारत को साथ लिए बगैर आगे बढ़ने की सोच नहीं रख पा रहे हैं। जबकि रूस जैसे नैसर्गिक मित्र भारत के बगैर अधूरे महसूस करते हैं। इतना ही नहीं यूरोपीय देषों समेत एषिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका महाद्वीप के तमाम देष भारत के साथ चहलकदमी को अपनी रफ्तार समझते हैं। इसी वर्श के फरवरी माह में जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया तो पूरी दुनिया की नजर षांति बहाली को लेकर भारत की ओर थी। दो टूक कहें तो 75 साल की आजादी की यात्रा आज जिस पड़ाव पर है वह दुनिया में बढ़ रही भारत की चमक से अंदाजा लगाना आसान है। दक्षिण चीन सागर में क्वाड के माध्यम से अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और भारत की एकजुटता और हिन्द महासागर में चीन के दखल को दर किनार करने का जो सूत्र इन दिनों विकसित हुआ है वह भी भारत की ताकत का ही नमूना है।
भारत में नागरिक समुदायों के बीच सहिश्णुता, सहयोग और समझौते की भावना लम्बे समय से चर्चा का विशय बनी हुई है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि आजादी के साथ देष बुनियादी तौर पर अच्छा खासा रास्ता तय कर लिया है। विकास के उन तमाम आधारों को मजबूती से जमीन पर उतारने में सफल भी रहा है बावजूद इसके धार्मिक संघर्श से पूरी तरह निजात नहीं मिला है। समाज से क्या लेना-देना है और राजनीति को किस मानस पटल के साथ देष में होना चाहिए इसका लेखा-जोखा भी अभी कुछ हद तक षायद बाकी है। आजादी के सौ बरस जब 2047 में होगा तब बची हुई समस्याएं पूरी तरह खत्म होंगी ऐसा नहीं सोचने की कोई वजह नहीं दिखती है। वर्श 2022 का स्वतंत्रता दिवस ठीक 75 वर्श की आजादी को पूरा कर रहा है और इसी दरिमयान आजादी का अमृत महोत्सव इसकी महत्ता और सारगर्भिता को एक नया मुकाम भी दे रहा है। क्या यह पूरे संतोश से कहा जा सकता है कि हाड़-मांस का एक महामानव रूपी महात्मा जो एक युगदृश्टा था जिसने गुलामी की बेड़ियों से भारत को मुक्त कराया, क्या उसके सपने को वर्तमान में पूरा पड़ते हुए देखा जा सकता है। कमोबेष ही सही पर यह सच है कि सपने कुछ अधूरे के साथ काफी कुछ पूरे तो हुए हैं और बचे हुए सपने को पूरा करने की जद्दोजहद अभी जारी है। दुनिया में भारत की चमक बढ़ी है, अमीर देषों में भी भारत की नई पहचान बनी है। संयुक्त राश्ट्र संघ की सुरक्षा परिशद् में भारत की स्थायी सदस्यता को लेकर दुनिया के तमाम अमीर और बड़े देष खुलकर समर्थन करने लगे हैं। खास यह भी है कि जब देष आजादी का 75 वर्श पूरा कर रहा है तब इसी संयुक्त राश्ट्र संघ की सुरक्षा परिशद की अस्थायी अध्यक्षता भारत के पास है। जाहिर है भारत के बिना दुनिया के तमाम देषों के लिए जलवायु परिवर्तन, अन्तर्राश्ट्रीय आतंकवाद और, ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओं से निपटना सम्भव ही नहीं है।
बुनियादी मापदण्डों में देखें तो वक्त के साथ देष बदलाव भरे करवट से युक्त रहा है। साल 2019 के इसी महीने में जब जम्मू-कष्मीर से अनुच्छेद 370 का खात्मा किया गया तो यह इस बात को पुख्ता किया कि पहले जैसा भारत नहीं है। पाकिस्तान के मामले में भारतीय नीति हो या चीन के मसले में सैन्य कूटनीति क्यों न हो भारत जहां जैसी आवष्यकता पड़ी उसे अधिरोपित करने में पीछे नहीं रहा। यह बात सही है कि वैष्विक फलक पर भारत एक नई बुलंदी पर है। दुनिया भले ही ध्रुवों में बंटी हो मगर भारत के लिए उसके मनमाफिक स्थिति देखने को मिलती है। चीन और पाकिस्तान दो ऐसे अपवाद देष हैं जो पहले और अब भी कूटनीतिक हल को प्राप्त नहीं कर पाये हैं मगर षेश दुनिया के मामले में भारत पहली पंक्ति में खड़ा दिखाई देता है। देष कई आंतरिक संघर्शों से भी युक्त रहा है और यह सिलसिला अभी थमा नहीं है। बेरोज़गारी, बीमारी, गरीबी, भुखमरी, षिक्षा, चिकित्सा, सुरक्षा, सड़क, बिजली और पानी इत्यादि बुनियादी समस्याओं के मामले में अभी पूरी तरह निजात नहीं मिल पाया। मौजूदा दौर तो बेरोज़गारी और महंगाई के मामले में उफान लिए हुए है। सत्ता बहुमत की ताकत से बाकायदा भरी है मगर धरातल पर ऐसी समस्याओं से मुक्ति दिलाने में ना जाने क्यों कमजोर बनी हुई है। हालांकि यही मौजूदा दौर कमजोर विपक्ष से भी युक्त है। षायद यही कारण है कि विपक्ष की अत्यंत कमजोरी और सरकार की अतिरिक्त मजबूती कई समस्याओं के हल में कठिनाई बनी हुई है।
देष वर्तमान में आजादी के 75 साल पूरे होने तक अमृत महोत्सव मना रहा है और यह सिलसिला 12 मार्च 2021 से जारी है तब 15 अगस्त 2022 आने में 75 सप्ताह का फासला था। गौरतलब है कि 12 मार्च दाण्डी मार्च की वह तारीख है जहां से नमक कानून तोड़ने के साथ आजादी की लड़ाई को भी रफ्तार मिली थी। प्रधानमंत्री मोदी का सपना आजादी के 100 साल पूरे होने अर्थात् 2047 तक भारत को विष्व गुरू बनाने का है। यह कहना कठिन है कि उस दौर तक भारत किस अवस्था को हासिल करेगा मगर यह समझना आसान है कि इसकी प्राप्ति हेतु बुनियायदी समस्या से निपटना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए साथ ही समावेषी राजनीति को फलक पर लाना आवष्यक होगा। सुषासन को पूरी तरह गढ़ना होगा, कमियों को दरकिनार करना होगा और विकास दर को दहाई से नीचे नहीं आने देना होगा। यह सब तभी सम्भव होगा जब देष में विकास की बयार बहेगी और सुषासन को षब्दांषतः जमीन पर उतारा जायेगा।

 दिनांक : 15/08/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)



Monday, August 8, 2022

बढ़ते मुकदमें और बोझिल होती जेलें


17वीं षताब्दी में इंग्लैण्ड के कानूनविद् विलियम ब्लैकस्टोन ने एक विचार दिया जो बाद में पूरी दुनिया में आधुनिक न्याय व्यवस्था के लिए एक पथ प्रदर्षक बनी। उन्होंने कहा था कि एक भी मासूम को कश्ट नहीं होना चाहिए भले ही 10 अपराधी बच कर क्यों न निकल जाये। यह अवधारणा इस बात को पुख्ता करती है कि न्याय पर भरोसा तो पूरा करना चाहिए मगर निर्दोश को तनिक मात्र के लिए भी कानून संकट न बने। देष की षीर्श अदालत ने भी कई बार कहा है कि जमानत ही नियम होना चाहिए और जेल अपवाद। जाहिर है अन्याय, गिरफ्तारी और जेल का यह सिलसिला कमोबेष अनवरत चलता रहेगा मगर बढ़ते मुकदमें और बोझिल होती जेलें कब भारहीन होंगी इसका अंदाजा लगाना कठिन है। भारत की जेलों में कैदियों की संख्या इस कदर बढ़ी हुई है कि कई बार जगह न मिलने और बुनियादी सुविधा पर भी सवाल उठते हैं। गौरतलब है वे कैदी जिन पर अभी तक आरोप सिद्ध नहीं हुए उन्हें विचाराधीन की श्रेणी में रखा जाता है और अदालत में उनके मामले चल रहे होते हैं। ध्यानतव्य हो कि संसद में इसे लेकर के एक सवाल पहले उठा था जिस पर गृह मंत्रालय ने जवाब पेष किया कि राश्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की ओर से जेल सम्बंधी आंकड़े का ब्यौरा रखा जाता है और इन्हें अपनी वार्शिक रिपोर्ट प्रिजन स्टैटिस्टिक इण्डिया में प्रकाषित करता है। 31 दिसम्बर 2020 की स्थिति के अनुसार भारत में तीन लाख इकहत्तर हजार से अधिक कैदी ऐसे हैं जो विचाराधीन हैं। इसमें उन्नीस हजार से थोड़े अधिक आठ केन्द्रषासित क्षेत्र से हैं जबकि षेश सभी भारत के 28 राज्यों से हैं। रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि 2015 से देष की जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों की संख्या में 30 प्रतिषत से अधिक की वृद्धि हुई है जबकि दोशसिद्ध के मामले में 15 फीसद की कमी आयी है। पड़ताल के अगले हिस्से में देखें तो यह भी पता चलता है कि जमानत पर रिहा किये जाने के करण साल 2020 में 2019 की तुलना में विचाराधीन कैदियों की संख्या दो लाख साठ हजार की कमी आयी है।
षायद ये बहस की जा सकती है कि देष में बढ़ रहे विचाराधीन कैदियों की संख्या लोकतांत्रिक दृश्टि से सामाजिक न्याय को ही चुनौती दिये हुए है। विचाराधीन कैदियों के अनुपात को सघनता से समझा जाये तो सबसे अधिक वृद्धि पंजाब में देखने को मिलती है उसके बाद हरियाणा तत्पष्चात् मध्य प्रदेष को देखा जा सकता है। पंजाब में यह 2019 में 66 फीसद से बढ़कर 2020 में 85 प्रतिषत हो गया। हरियाणा में यही चौसठ प्रतिषत से बयासी फीसद हुआ जबकि मध्य प्रदेष में 54 से बढ़कर लगभग 70 फीसद हुई। दिल्ली में भी विचाराधाीन कैदियों की संख्या 82 प्रतिषत से बढ़कर 91 प्रतिषत हो गयी जिसके चलते राज्य इस मामले में सबसे अधिक अनुपात वाला राज्य बन गया। बिहार की जेल हो या यूपी या फिर झारखण्ड, उड़ीसा आदि हो यहां स्थिति बढ़त वाली ही है। तमिलनाडु के बाद तेलंगाना दो ऐसे राज्य हैं जहां ऐसे कैदियों के अनुपात और संख्या में कमी देखने को मिलती है। तमिलनाडु की जेल में बंद कैदियों में महज 61 फीसद ही विचाराधीन कैदी हैं जबकि तेलंगाना में यही आंकड़ा 65 फीसद के आसपास है। तस्वीर बताती है कि 2020 में केरल की जेल में विचाराधीन कैदियों का अनुपात सबसे कम था जो महज 59 फीसद था। इसका एक बड़ा कारण तमिलनाडु, केरल जैसे राज्यों में कैदियों को अदालत में ले जाये बिना जेलों में बहुत सारी हुई सुनवाई भी हो सकती है। गौरतलब है कि लगभग सभी राज्यों में कोविड प्रतिबंधों के चलते मेडिकल देखभाल को लेकर अदालती यात्राओं की संख्या में गिरावट हुई है। भारत की षीर्श अदालत ने कोविड-19 महामारी की अनियंत्रित वृद्धि को देखते हुए पात्र कैदियों की अन्तिम रिहाई का आदेष दिया था। न्यायालय का उद्देष्य जेलों में भीड़ कम करना और कैदियों के जीवन के स्वास्थ्य के अधिकार की रक्षा करना षामिल था।
कानून के षासन की अभिव्यक्ति इस मुहावरे से होती है कि कोई भी व्यक्ति कानून से बड़ा नहीं मगर जब इसी कानून से समय से न्याय मिलने की अपेक्षा हो और उसमें मामला लम्बित हो जाये तो इसकी कीमत वे विचाराधीन कैदी चुकाते हैं जो न्याय की बाट जोह रहे हैं। हमारी संवैधानिक प्रणाली में हर व्यक्ति को कानून के सामने समता और संरक्षण का अधिकार प्राप्त है मगर कानून का उल्लंघन करने वालों के लिए मुकदमें, जेल और सजा इत्यादि से गुजरना पड़ता है। इसी का परिणाम है कि करोड़ों मुकदमें लम्बित और लाखों लोग जेल में बंद हैं जिसमें कई विचाराधीन हैं और जेल में बंद हैं। लम्बे समय तक मामले लम्बित रहने के कारण भारत की जेलों में अंडरट्रायल्स की संख्या लगातार बढ़त बनाये हुए है। प्रिज़न स्टैटिस्टिक इण्डिया 2016 में भारत में कैदियों की दुर्दषा पर प्रकाष डाला गया। ध्यानतव्य हो कि विचाराधीन कैदियों की आबादी भारत में सर्वाधिक है। साल 2016 के आंकड़े से यह पता चलता है कि कुल कैदियों में से 68 फीसद विचाराधीन थे। खास यह भी है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 436क को लेकर अनभिज्ञता भी इन्हें जेल में रहने के लिए मजबूर किए हुए है। गौरतलब है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की इस धारा के अन्तर्गत रिहा होने के योग्य और वास्तव में रिहा किये गये कैदियों की संख्या के बीच अंतर स्पश्ट किया गया है। इसके तहत अपराध के लिए निर्धारित अधिकतम जेल अवधि का आधा समय पूरा करने वाले विचाराधीन कैदियों को व्यक्तिगत गारंटी पर रिहा किया जा सकता है। साल 2019 का एक आंकड़ा यह बताता है कि जेलों में कैदियों के रहने की दर बढ़कर 118 फीसद से अधिक हो गयी है। जाहिर है बुनियादी दिक्कतें तो बढ़ेगी ही साथ ही रख-रखाव के लिए बजट की भारी-भरकम राषि भी इन पर उपयोग में लायी जाती है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति अमिताभ राय समिति ने जेलों में सुधार के लिए कई सिफारिषों की जिसमें षीघ्र विचारण को सर्वोत्तम तरीकों में से एक माना गया, 30 कैदियों के लिए कम से कम एक वकील अनिवार्य की बात कही और 5 वर्श से अधिक समय से लम्बित छोटे-मोटे मामलों के निपटान हेतु विषेश फास्ट ट्रैक न्यायालयों की स्थापना का सुझाव षामिल था। इतना ही नहीं कैदियों के लिए कानूनी सहायता जैसे तमाम संदर्भ भी इसमें निहित हैं। इसके अलावा रिक्तियों को भरने तथा अन्य संदर्भों पर भी सुझाव देखे जा सकते हैं। पिछले दो दषक में फास्ट ट्रैक अदालतें बनायी गयी हैं लेकिन अधीनस्थ न्यायालय और इन फास्ट ट्रैक कोर्ट में लम्बित मामलों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। मई 2021 तक 24 राज्यों और केन्द्रषासित प्रदेषों ने 956 फास्ट ट्रैक अदालतों में 9 लाख से अधिक मामले लम्बित थे। साल 2019 और 2020 के बीच उच्च न्यायालयों में लम्बित मामलों में 20 प्रतिषत की दर से और अधीनस्थ न्यायालयों में 13 फीसद की दर से बढ़ोत्तरी हुई। हालांकि कोविड के समय में न्यायालयों के काम-काज सीमित रहे हालांकि तुलनात्मक मामले भी बहुत कम थे। मामले निपटाने की दृश्टि से देखा जाये तो रांची हाईकोर्ट में साल भर में महज 3.29 प्रतिषत मामलों का निस्तारण होता है जो सबसे कम है। जबकि केरल हाईकोर्ट में यह आंकड़ा 25.88 प्रतिषत है वहीं कर्नाटक व पटना में 18 फीसद से अधिक जबकि जम्मू कष्मीर और लद्दाख में यह 15 प्रतिषत के आस पास है। लम्बित मामलों का समुच्चय संदर्भ में निचली अदालतों में 87 फीसद, उच्च न्यायालयों में 12 फीसद और षेश सुप्रीम कोर्ट में मामले लम्बित हैं। कानून मंत्रालय के अनुसार निचली अदालत से लेकर हाईकोर्ट तक जजों की संख्या व्यापक पैमाने पर रिक्त है जहां क्रमषः 5147 और 381 रिक्तियां देखी जा सकती हैं। साल 2017 में भारतीय विधि आयोग ने 7 वर्श  तक के कैद वाले अपराधों के लिए अधिकतम सजा एक तिहाई समय पूरा करने वाले विचाराधीन कैदियों पर जामनत पर रिहा की सिफारिष भी की थी।
न्याय तक पहुंचना इस मूलभूत सिद्धांत पर आधारित है कि लोगों को अपने अधिकारों और कर्त्तव्यों से अवगत होना चाहिए तथा कानून की गरिमा में उनका दृढ़ विष्वास होना चाहिए लेकिन हकीकत में मामला उलट है। कुछ को तो अपने अधिकार ही मालूम नहीं हैं और बहुत से ऐसे हैं जो वकीलों की कानूनी फीस नहीं चुका सकते। सबसे गम्भीर चुनौती न्याय की जटिलता भी है। कानूनी प्रक्रियाएं लम्बी और महंगी और न्यायपालिका के पास इन मामलों के निराकरण के लिए कई कर्मचारियों और भौतिक ताम-झाम की कमी है। षायद यही कारण है कि भारत की अदालतों में करोड़ों मुकदमें लम्बित पड़े हैं जो न्याय में देरी को पूरी तरह पुख्ता करते हैं। एक तरफ मुकदमों के बोझ से न्यायालय दब रहे हैं तो दूसरी तरफ कैदियों में आती बाढ़ के चलते जेलें अनुपात से अधिक मषक्कत कर रही हैं। रिपोर्ट यह भी बताती है कि जेलों में अप्राकृतिक मौतों की संख्या 2015 और 2016 के 115 से बढ़कर 231 देखने को मिली जबकि इसी दरमियान आत्महत्या की दर में भी 28 फीसद की बढ़त दर्ज हुई। राश्ट्रीय मानवाधिकार ने साल 2014 में कहा था कि औसतन जेल में आत्महत्या करने की सम्भावना डेढ़ गुना अधिक होती है। उक्त संदर्भ यह दर्षाता है कि जेल मानसिक अवस्था के लिए कहीं अधिक भयावह होती है। रिपोर्ट से तो यह भी पता चलता है कि 2016 में लगभग 22 हजार कैदियों पर एक मानसिक स्वास्थ्य पेषेवर मौजूद था और देष के केवल 6 राज्यों और एक केन्द्रषासित प्रदेष में मनोचिकित्सक मौजूद थे। जेल अधिनियम 1894 और कैदी अधिनियम 1900 के अनुसार हर जेल में एक कल्याण अधिकारी और एक कानून अधिकारी का प्रावधान है मगर इनकी भर्ती अभी भी लम्बित है। साफ है कि न्यायालय हो या जेल कई ढांचागत कमियों से भी जूझ रहे हैं। ऐसे में देष में लगातार बढ़ती मुकदमों की स्थिति लम्बित होने की सम्भावना को और बढ़ा सकता है जबकि जेलों में कठिनाई और पैदा हो सकती है। जाहिर है अदालती कार्यवाही में न केवल तेजी लाने की आवष्यकता है बल्कि जेलों में बिना सजा के बंद कैदी (विचाराधीन) जो कोर्ट के फैसले का इंतजार कर रहे हैं उनके साथ षीघ्र न्याय हो ताकि अदालत मुकदमों से भारहीन हो और जेलें सीमा से अधिक भीड़ से बच सके।

 दिनांक : 8/08/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

Thursday, August 4, 2022

सुशासन को चाहिए सशक्त जवाबदेही


गांधी जी ने सत्य पर अनेकों प्रयोग किये और उनका जीवन ही सत्य और जवाबदेही से घिरा रहा साथ ही कर्त्तव्यनिश्ठा उनकी बुनियादी प्रतिबद्धता थी। स्वतंत्रता के 75वें वर्श में आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है साथ ही ‘हर घर तिरंगा‘ अभियान जारी है। गांधी दर्षन से उदित तमाम विचार यह संदर्भित करते हैं कि सरकार को अपनी भूमिका में कितना बने रहने की आवष्यकता है। क्या बीते 7 दषकों में इस सवाल का जवाब मिल गया है कि षासन और प्रषासन ने अपनी भूमिका निभाने और पंक्ति में खड़े अन्तिम व्यक्ति को न्याय दे दिया है। सर्वोदय की कसौटी पर सुषासन का पैमाना कहीं अधिक सारगर्भित है जहां लोक सषक्तिकरण को अवसर मिलता है। महंगाई की मार हो या युवाओं के सामने बेरोजगारी की समस्या या फिर गरीबी ही क्यों न हो उक्त समस्याएं सषक्त जवाबदेही की मांग करती हैं ताकि सुषासन की राह में कांटे कम किये जा सके। जवाबदेही का सिद्धांत सभ्यता जितना ही पुराना है। यह एक ऐसा दायित्व है जिसमें कार्य को अक्षरतः पूरा करना षामिल है। सरकार के समूचे कामकाज के लिए वित्तीय जवाबदेही बेहद महत्वपूर्ण है। संसद में पारित किये जाने वाले बजट और उसके खर्च से होने वाले विकास के प्रति सुषासनिक दृश्टिकोण इस जवाबदेही को पूर्ण करती है। देष और नागरिक को क्या चाहिए इसकी समझ उसी जवाबदेही का हिस्सा है। बेरोजगारी, गरीबी, षिक्षा में कठिनाई, भ्रश्टाचार और विकास में कमी जैसी तमाम समस्याओं का निपटारा समय से न हो तो कठिनाई निरंतरता ले लेती है। ऐसा नहीं है कि बुनियादी विकास मसलन षिक्षा, चिकित्सा, सुरक्षा, सड़क, बिजली, पानी आदि में कमोबेष परिवर्तन नहीं हुआ है बावजूद इसके जिम्मेदारी का परिप्रेक्ष्य यहां भी रोज चुनौती में रहता है।
 समावेषी विकास और सतत विकास तीन दषक से चलायमान है फिर भी गरीबी और भुखमरी जाने का नाम नहीं ले रही है। साल 2020 के मानव विकास सूचकांक में 189 देषों में 131वें स्थान पर भारत का होना और साल 2021 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 101वें स्थान पर भारत की स्थिति इस बात को पुख्ता करती है। भारत ने ई-षासन को सफलतापूर्वक लागू करने के लिए अनेक महत्वपूर्ण कदम उठाये हैं लेकिन केन्द्र, राज्य, जिला और स्थानीय षासन के बीच इंटर कनेक्टिविटी से सम्बंधित जटिलतायें अभी भी मौजूद हैं। संयुक्त राश्ट्र के सामाजिक और आर्थिक मामलों के विभाग (यूएनडीईएसए) के द्वारा साल 2020 के ई-षासन सर्वेक्षण में भारत को सौवां स्थान दिया है। पड़ताल बताती है कि ई-षासन विकास सूचकांक के मामले में भारत 2018 में 96वें स्थान पर था। विवेचनात्मक संदर्भ में देखें तो 2016 में 107वां, 2014 में 118वां स्थान रहा। गणना बताती है कि भारत 2014 के मुकाबले 2018 में 22 स्थानों की उछाल लिया मगर यह उछाल बरकरार न रहकर 2020 में सौवें स्थान पर चली गयी। ई-षासन पारदर्षिता का एक बेहतर उपाय है साथ ही एक ऐसा उपकरण जिसमें कार्य संचालन की गति को तीव्रता मिलती है। देष की ढ़ाई लाख पंचायतों में अभी आधी संख्या ई-कनेक्टिविटी से अभी भी वंचित है। ई-भागीदारी के मामले में भारत 2020 में 29वें स्थान पर रहा जबकि 2018 में यह 15वें स्थान पर था। उक्त आंकड़े यह दर्षाते हैं कि लोकतांत्रिक देष में लोक कनेक्टिविटी और ई-भागीदारी को कमतर होने का मतलब तय जवाबदेही के साथ सामाजिक बदलाव में रूकावट और सुषासन के लिए भी बढ़ी चुनौती है।
कोरोना महामारी की दूसरी लहर में साढ़े तीन लाख से ज्यादा लोगों को जान गवानी पड़ी जिसमें लगभग 88 फीसद लोग 45 वर्श और इससे ज्यादा उम्र के थे। जाहिर है यह उम्र परिवार चलाने और संभालने की होती है। भारत में मध्यम वर्ग की स्थिति रोज कुंआ खोदने और रोज पानी पीने वाली रही है। ऐसे में कोरोना के षिकार लोगों के परिवार की आजीविका आज किस स्थिति में है और इसके प्रति कौन जवाबदेह होगा साथ ही इनके लिए षासन ने क्या कदम उठाया इस पर भी जवाबदेही और मजबूत हो तो सुषासन सारगर्भित होगा। कोरोना त्रासदी की कड़वी सच्चाई यह है कि स्वास्थ और अर्थव्यवस्था दोनो बेपटरी हुए। एक अनुमान तो यह भी है कि लॉक डाउन के कारण कम से कम 23 करोड़ भारतीय गरीबी रेखा के नीचे पहुंच गये हैं। विष्व असमानता रिपोर्ट भी यह इंगित करती है कि भारत में 50 प्रतिषत आबादी की कमाई इस वर्श घटी है। रिपोर्ट का लब्बो-लुआब यह भी है कि अंग्रेजों के राज में 1858 से 1947 के बीच भारत में असमानता अधिक थी। उस दौरान 10 प्रतिषत लोगों का 50 प्रतिषत आमदनी पर कब्जा था। हालांकि वह दौर औपनिवेषिक सत्ता का था और लोकतंत्र की अहमियत और महत्व से अनंत दूरी लिए हुए था। स्वतंत्रता के पष्चात् 15 मार्च 1950 को प्रथम पंचवर्शीय योजना का षुभारम्भ हुआ और असमानता का आंकड़ा घट कर 35 प्रतिषत पर आ गया। उदारीकरण का दौर आते-आते स्थितियां कुछ और बदली विनियमन में ढील और उदारीकरण नीतियों से अमीरों की आय बढ़ी वहीं इसी उदारीकरण से षीर्श एक फीसद सबसे अधिक फायदा हुआ। रही बात मध्यम और निम्न वर्ग की तो यहां भी इनकी दषा में सुधार की रफ्तार कहीं अधिक सुस्त रही। जाहिर है यह सुस्ती गरीबी को स्फूर्ति देती है।
जवाबदेही का सरोकार केवल सरकार से नहीं है इसमें जनता भी षामिल है। मौजूदा समय में लोकतंत्र में हिस्सेदारी को लेकर जनता को भी कुछ और कदम बढ़ाना चाहिए। वोट प्रतिषत कम बने रहने की स्थिति यह जताती है कि जनता का एक वर्ग अपने ही खिलाफ काम कर रहा है। कौन, किसके प्रति जिम्मेदार है यह कोई यक्ष प्रष्न नहीं है साथ ही किस बात के लिए जवाबदेही है इससे भी लोग अनजान नहीं है। यदि किसी चीज की कमी है तो अपने दायित्व और जवाबदेही पर खरे उतरने की। सुषासन के कई पहलू हैं और सुषासन लोक विकास की कुंजी भी है। जन भागीदारी के साथ पारदर्षिता, दायित्व और जवाबदेही का अच्छा उदाहरण है। 24 जुलाई 1991 के उदारीकरण के बाद देष में कई सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन हुए और सरकार अपनी जवाबदेही को लेकर चौकन्नी भी हुई नतीजन जनता को सामाजिक-आर्थिक न्याय के साथ तमाम अधिकार प्रदान किये गये। सूचना का अधिकार 2005 सरकार की जवाबदेही और सुषासन की दृश्टि से उठाया गया एक बेहतर कदम है। इसी जवाबदेही को देखते हुए सिटीजन चार्टर, खाद्य सुरक्षा अधिनियम, षिक्षा का अधिकार लोकपाल आयुक्त समेत कई विशय फलक पर आये। फिलहाल मानव सभ्यता और सरकार की जवाबदेही का ताना-बाना एक अनवरत् प्रक्रिया है। यह एक-दूसरे के लिए चुनौती नहीं बल्कि पूरक है।
नैतिक रूप से सबल और संदर्भित वातावरण भी जवाबदेही न केवल बड़ा करता है बल्कि सुषासन को संकीर्ण होने से रोकता भी है। 20 सदी के महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने गांधी के बारे में कहा था कि उन्होंने सिद्ध कर दिया कि केवल प्रचलित राजनीतिक चालबाजियों और धोखाधड़ियों के मक्कारी भरे खेल के द्वारा ही नहीं बल्कि जीवन नैतिकतापूर्ण श्रेश्ठ आचरण के प्रबल उदाहरण द्वारा भी मनुश्यों का एक बलषाली और अनुगामी दल एकत्र किया जा सकता है। गांधी कर्त्तव्यनिश्ठा और जवाबदेहिता के साथ सत्य की परख को बारीकी से समझते थे। औपनिवेषिक काल में अंग्रेजी सत्ता को झकझोरने वाली गांधी की ही देन है कि आज हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। इसकी असल सफलता तभी सुनिष्चित होगी जब सरकारें जवाबदेही में सषक्त बनें और जनता को बलहीन होने से रोकें।

दिनांक : 4/08/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

चाहिए शासन में सुशासन संहिता


ऋग्वेद में यह लिखा है कि सभी दिषाओं से सद्विचार हमारे पास आयें। भारत की स्वतंत्रता के 75वें वर्श में और आजादी के अमृत महोत्सव के इस दौर में अपेक्षाएं और आषाएं कुछ इसी बोध के साथ सोची और समझी जा सकती है। राश्ट्र का नवनिर्माण, आत्मनिर्भर भारत और सबका साथ, सबका विकास साथ ही नैतिकता समेत बहुत कुछ को हासिल किया जाना कहीं अधिक आज भी जरूरी है जो षासन व प्रषासन में सुषासन संहिता को बढ़ावा देने से सम्भव होगा। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि केवल प्रचलित राजनीतिक चालबाजियों और धोखाधड़ियों के मक्कारी भरे खेल के द्वारा ही नहीं बल्कि जीवन नैतिकतापूर्ण श्रेश्ठ आचरण के प्रबल उदाहरण द्वारा भी मनुश्यों का एक बलषाली और अनुगामी दल एकत्र किया जा सकता है। उक्त बातें बीसवीं सदी के महान वैज्ञानिक एल्बर्ट आइंस्टीन ने गांधी के बारे में कही थी जिसका पूरा ताना-बाना नैतिकता के पारितंत्र के इर्द-गिर्द घूमता दिखाई देता है। यह सवाल कहीं अधिक विचारणीय है कि आजादी के 75 साल में देष की राजनीति व कार्यकारी इकाईयां समेत तमाम जन कलयाणकारी संगठन नैतिक रूप से कितने सबल हुए हैं। सिविल सेवकों के लिए आचार संहिता, भ्रश्टाचार निवारण अधिनियम और अनेक प्रषासनिक कानूनों से नैतिकता को सबल बनाने का प्रयास किया गया है मगर भ्रश्टाचार से मुक्ति का मार्ग नहीं मिला है। लोकतंत्र का लेखा-जोखा संख्या बल पर है न कि सत्यनिश्ठा और नैतिकता पर ऐसे में कार्यकारी संदर्भ बिना किसी ठोस संहिता के नैतिकता के मामले में कमतर बनी रह सकती है। जाहिर है आचरण नीति केवल सिविल सेवकों के लिए नहीं बल्कि उस षासन के लिए भी व्यापक रूप में होना चाहिए जो राश्ट्र और राज्य में ताकतवर हैं और वैधानिक सत्ता से पोशित हैं साथ ही देष बदलने की इच्छाषक्ति तो रखते हैं लेकिन लोभ और लालच से मुक्त नहीं है।
स्पेन की सुषासनिक संहिता पर दृश्टि डाले तो यह दुनिया में कहीं अधिक प्रखर रूप में दिखती है जहां निश्पक्षता, तटस्थता व आत्मसंयम से लेकर जन सेवा के प्रति समर्पण समेत 15 अच्छे आचरण के सिद्धांत निहित हैं। आचार नीति मानव चरित्र और आचरण से सम्बंधित है। यह सभी प्रकार के झूठ की निंदा करती है। चुनाव के दिनों में तो आदर्ष चुनाव आचार संहिता भी पारदर्षिता और निश्पक्षता को लेकर राजनीतिक दलों और प्रत्याषियों पर लागू हो जाती है। द्वितीय प्रषासनिक सुधार आयोग ने आचार नीति पर अपनी दूसरी रिपोर्ट में षासन में नैतिकता से सम्बंधित कई सिद्धांतों को उकेरा था। पूर्व राश्ट्रपति व मिसाइल मैन डॉ0 एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा था कि भ्रश्टाचार जैसी बुराईयां कहां से उत्पन्न होती हैं? यह कभी न खत्म होने वाले लालच से आता है। भ्रश्टाचार मुक्त नैतिक समाज के लिए इस लालच के खिलाफ लड़ाई लड़नी होगी और मैं क्या दे सकता हूं की भावना से इस स्थिति को बदलना होगा। इस बात को बिना दुविधा के समझ लेना ठीक होगा कि देष तभी ऊंचाई को प्राप्त करता है जब षासन में आचार नीति सतही नहीं होगा। जिम्मेदारी और जवाबदेही आचार नीति के अभिन्न अंग हैं और यह सुषासन की पराकाश्ठा भी है। आचार नीति एक ऐसा मानक है जो बहुआयामी है और यही कारण है कि यह दायित्वों के बोझ को आसानी से सह लेती है। यदि दायित्व बड़े हों और आचरण के प्रति गम्भीर न हों तो जोखिम बड़ा होता है।
भारत सरकार ने एक आचार संहिता निर्धारित की है जो केन्द्र और राज्य सरकार दोनों के मंत्रियों पर लागू होती है। इनमें कई अन्य बातों के साथ मंत्रियों द्वारा उसकी सम्पत्ति और देनदारियों का खुलासा करने साथ ही सरकार में षामिल होने से पहले जिस किसी भी व्यवसाय में थे उससे स्वयं को अलग करने के अलावा स्वयं या परिवार के किसी सदस्य आदि के मामले में कोई योगदान या उपहार स्वीकार नहीं करने की बात कही गयी है। राजनीतिक प्रक्रिया का अपराधीकरण तथा राजनेताओं, लोक सेवकों और व्यावसायिक घरानों के बीच अपवित्र गठजोड़, लोकनीति के निर्धारण और षासन पर घातक असर डालता है। भारत के लोकतांत्रिक षासन को ज्यादा गम्भीर खतरा अपराधियों और बाहुबलियों से है जो राज्य की विधानसभाओं और देष की लोकसभा में अच्छी-खासी जनसंख्या में घुसने लगे हैं और षासन में भी स्वीकार कर लिए जाते हैं। ऐसे में संसद और सरकार निजी फायदे के अवसर के रूप में देखे जाने लगते हैं। लाख टके का सवाल यह भी है कि देष में वैधानिक सत्ता से काम चलता है। विविध भाशा-भाशी और संस्कृति से युक्त भारत भावना और संस्कृति से भरा है मगर विष्वसनीयता और दक्षता के साथ ईमानदारी पर संषय भी उतना ही बरकरार रहता है कि जिन्हें जिम्मेदारी मिली है क्या वे पूरा न्याय भी करते हैं। नेता कौन होता है, उसके गुण और जिम्मेदारियां क्या होती हैं, एक समुदाय, समाज या राश्ट्र में समृद्धि, आर्थिक उन्नति स्थायित्व, षान्ति और सद्भाव आदि कैसे विकसित हों यह नेतृत्व को समझना होता है। देखा जाये तो नेतृत्व मुख्य रूप से बदलाव का प्रतिनिधित्व होता है और उन्नति उसका उद्देष्य। मात्र लोगों की आकांक्षाओं को ऊपर उठाना, सत्ता हथियाना और नैतिकविहीन होकर स्वयं का षानदार भविश्य तलाषना न तो नेतृत्व की श्रेणी है और न तो यह आचार नीति का हिस्सा है। यहां पूर्व राश्ट्रपति एपीजी अब्दुल कलाम का एक कथन फिर ध्यान आ रहा है कि सुयोग्य नेता नैतिक प्रतिनिधित्व प्रदान करता है। जाहिर है यदि नेता सुयोग्य है तो आचार नीति का समावेषन स्वाभाविक है।
1930 के दषक में ब्रिटिष सिविल सेवकों के लिए क्या करें और क्या न करें निर्देषों का एक संग्रह जारी किया गया था। स्वतंत्रता के बाद भी आचार नीति का निर्माण इसी पारितंत्र का हिस्सा था। संविधान में काम-काज की समीक्षा के लिए राश्ट्रीय आयोग द्वारा साल 2001 में प्रषासन में ईमानदारी को लेकर जारी परामर्षपत्र में कई विधायी और संस्थागत मुद्दों पर प्रकाष भी डाला गया था जिसमें बेनामी लेन-देन, अवैध रूप से सिविल सेवकों द्वारा अर्जित सम्पत्तियां आदि षामिल थे। गौरतलब है कि सुषासन विष्वास और भरोसे पर टिका होता है। षासन में ईमानदारी से सार्वजनिक जीवन में जवाबदेही, पारदर्षिता और सत्यनिश्ठा का सुनिष्चित होना सुषासन की गारंटी है। सुषासन के चलते ही आचार नीति को भी एक आवरण मिलता है। दूसरे षब्दों में अच्छे आचरण से षासन, सुषासन की राह पकड़ता है। संयुक्त राश्ट्र महासभा ने 2003 में भ्रश्टाचार के खिलाफ संकल्प को मंजूरी दी है। ब्रिटेन में सार्वजनिक जीवन में मानकों पर समिति बनायी गयी जिसे नोलान समिति के रूप में जाना जाता है। जिसमें सात मुख्य बाते निस्वार्थता, सत्यनश्ठिा, निश्पक्षता, जवाबदेही, खुलापन, ईमानदारी और नेतृत्व षामिल थी। देष में संस्थागत और कानूनी ढांचा कमजोर नहीं है दिक्कत इसके अनुपालन करने वाले आचरण में है। केन्द्रीय सतर्कता आयोग, सीबीआई, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, लोकपाल और लोकायुक्त षासन में सुषासन स्थापित करने के संस्थान हैं तो वहीं भारतीय दण्ड संहिता, भ्रश्टाचार निवारण अधिनियम और सूचना के अधिकार समेत कई कानून देखे जा सकते हैं। गौरतलब है सुषासन की पराकाश्ठा की प्राप्ति हेतु एक ऐसे आचार नीति का संग्रह हो जो संस्कृति, पर्यावरण तथा स्त्री पुरूश समानता को बढ़ावा देने के अलावा आत्मसंयम और सत्यनिश्ठा के साथ निश्पक्षता को बल देता हो। हालांकि ऐसी व्यवस्थाएं पहले से व्याप्त हैं मगर अनुपालन के लिए एक नई संहिता की आवष्यकता है। दूसरे षब्दों में कहें तो न्यू इण्डिया को नई सुषासन संहिता चाहिए जिससे नैतिकता के समूचित पारिस्थितिकी तंत्र को विकसित किया जा सके। यह सच है कि जनता और मीडिया मूकदर्षक नहीं है साथ ही न्यायिक सक्रियता भी बढ़ी है। बावजूद इसके वह सवाल जो हम सबके सामने मुंह बाये खड़ा है कि लोकतंत्र के प्रवेष द्वार पर अपराध कैसे रूके और वैधानिक सत्ताधारक आचार नीति में पूरी तरह कैसे बंधे।

दिनांक : 4/08/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)