Wednesday, May 20, 2020

आसान नहीं आर्थिक त्रासदी से आर्थिक सुशासन की राह

विश्व  बैंक की हालिया रिपोर्ट यह बता चुकी है कि कोरोना वायरस के चलते भारत की अर्थव्यवस्था पर बड़ा असर पड़ने वाला है और आर्थिक वृद्धि दर में भी भारी गिरावट दर्ज होगी। मूडीज़ की रिपोर्ट ने भी भारत की वृद्धि अनुमान को घटाकर 0.2 फीसद कर दिया है। बीते मार्च में उसने यही 2.5 फीसद की उम्मीद जताई थी। हालांकि मूडीज 2021 में भारत की वृद्धि दर 6.2 प्रतिषत रहने की बात कह रहा है जो आर्थिक त्रासदी के इस दौर को देखते हुए बात पूरी तरह पचती नहीं है। मूडीज ने चीन की आर्थिक वृद्धि दर को भी एक प्रतिषत रहने की बात कही है। फिलहाल यह किसी से नहीं छुपा है कि कोरोना महामारी ने दुनिया समेत भारत की अर्थव्यवस्था को त्रासदी की ओर धकेल दिया है। एक ओर जहां कल-कारखाने से लेकर सभी प्रकार के कार्यों में व्यापक बंदी है वहीं सरकार को मिलने वाले आर्थिक लाभ मसलन जीएसटी व आयकर आदि भी हाषिये पर है। इतना ही नहीं लोकतंत्र की खूबियों से जकड़ी सरकार लोगों की स्वास्थ की रक्षा और जीवन के मोल को देखते हुए 20 लाख करोड़ रूपए का एक आर्थिक पैकेज का एलान कर चुकी है। हालांकि एक विषेशज्ञ के तौर पर इस आर्थिक पैकेज की पड़ताल से पता चलता है कि यह राहत से ज्यादा बिना आय वाला योजनागत व्यय का ब्यौरा है। देखा जाय तो  सरकार सारे इंतजाम कर रही है पर समस्या इतनी बड़ी है कि सब नाकाफी है। देष में 94 फीसदी गैर संगठित कामगार हैं जिनके हाथ इन दिनों पूरी तरह खाली हैं और लगातार उखड़ रही अर्थव्यवस्था के चलते उनकी राह में भूख और जीवन की समस्या भी स्थान घेर रही है। षहरों से मजदूर व्यापक पैमाने पर गांव की ओर हैं। बरसों बाद यह भी पता चला कि भारत वाकई में गांव का ही देष है और जब सभ्यता और षहर पर गाज गिरती है तब जीवन का रूख गांव की ओर ही होता है। सरकार के सामने दुविधायें एक नहीं अनेकों हैं पहला कोरोना से निपटना, दूसरा आर्थिक त्रासदी से मुक्ति, तीसरा ठप्प पड़ी व्यवस्था को सुचारू करना। इसमें कृशि, उद्योग व सेवा सम्बंधित सभी इकाईयां षामिल हैं। कहा जाय तो लोक विकास के लिए नीतियां बनाने वाली सरकारें आज कोरोना महामारी के चलते चैतरफा समस्याओं से घिरी हुई हैं। नागरिकों पर भी गरीबी की गाज लगातार गिर रही है। सवाल यह है कि आर्थिक त्रासदी से आर्थिक सुषासन की राह पर गाड़ी कब आयेगी। 
सुषासन एक ऐसा लोक सषक्तिकरण का उपकरण है जिसमें सबसे पहले आर्थिक न्याय ही आता है। यह एक ऐसी विधा है जहां षासन को अधिक खुला, पारदर्षी तथा उत्तरदायी बनने का अवसर मिलता है। मानवाधिकार, भूख से मुक्ति और सहभागी विकास के साथ लोकतंत्र को ऊंचाई देना सुषासन की सीमाएं हैं। गौरतलब है कि 1991 के उदारीकरण के दौर में आर्थिक मापदण्ड नये सिरे से विकसित करने के प्रयास हुये थे। सरकार और षासन ने इस तब्दीली से जनता को जो लाभ दिया जिसे आज भी महसूस किया जा सकता है। इस महामारी ने मानो सृश्टि और पृथ्वी को पुर्नसंरचना में डाल दिया हो। ऐसे में सरकार को भी नई राह पर चलना अपरिहार्य होंगा। सूचना का अधिकार, नागरिक घोशणापत्र और ई-सुविधा का दौर यदि उदारीकरण के पष्चात् आया तो इन महामारी के बाद एक नये भारत का खाका खींचने और सुषासन की राह पर ले चलने के लिए नये थिंक टैंक की आवष्यकता पड़ेगी। संयुक्त राश्ट्र ने हाल ही में वल्र्ड इकोनाॅमी सिचुयेषन एण्ड प्रोस्पेक्टस रिपोर्ट 2020 15 मई को जारी किया। रिपोर्ट से यह पता चलता है कि वैष्विक अर्थव्यवस्था 3.2 फीसद सिकुड़ जायेगी। विकसित देषों में जीडीपी की वृद्धि मौजूदा वर्श में घटकर -0.5 फीसद रह जायेगी। अगर इस रिपोर्ट को भारत के परिप्रेक्ष्य में देखें तो 2018 में जहां विकास दर 6.8 कहा गया था, 2019 में 4.1 कही गयी थी जबकि 2020 में 1.2 कहा जा रहा है। बावजूद इसके 2021 में 5.5 की बात कहना मूडीज रिपोर्ट के इर्द-गिर्द प्रतीत होता है। दुविधा यह है कि राजकोश से विनियोजन की मात्रा बढ़ना और आय का जरिया सिकुड़ना यह कठिन स्थिति पैदा करेगा। भविश्य में राजकोशीय घाटे का होना तत्पष्चात् बजटीय घाटे का निष्चित तौर पर होना साथ ही लोगों के जीवन स्तर में गिरावट दिखेगी। सुषासन जिस आर्थिक न्याय की बात करता है उससे उपरोक्त बिन्दु से कोई वास्ता नहीं है। 
हालांकि सरकार ने नाबार्ड समेत कई अन्य एजेन्सियों के माध्यम से किसानों को सुविधा एमएसएमई की परिभाशा बदलने के साथ निवेष आदि के लिए नये फाॅर्मूले तय करना साथ ही उत्पादन के लगभग सभी क्षेत्रों में नये ढंग से नियोजन की बात करके आर्थिक त्रासदी से निकलने की बात सोच रही है। लगातार गांव में बढ़ती लोगों की आबादी काम की कमी का सीधा समीकरण बनाता है। 40 हजार करोड़ रूपए की अतिरिक्त व्यवस्था करके मनरेगा के माध्यम से सुचिता लाने का एक प्रयास तो यहां दिखता है मगर रोजगार सृजन के नये पहलू खोजना सरकार के लिए चुनौती रहेंगी। बेषक देष की सत्ता को पुराने डिजाइन से बाहर निकलना होगा लेकिन बाहर भूख और भीड़ है सभी को रोजगार और रोटी देना न पहले सम्भव था न अब दिखाई देता है। मोदी सरकार पर यह आरोप रहा है कि उसके कार्यकाल में बेरोज़गारी सबसे निचले स्तर पर पहुंच गयी थी और अब तो कोरोना महामारी ने कमर ही तोड़ दी है। प्रधानमंत्री न्यू इण्डिया की बात कह रहे हैं जबकि पुराना भारत इन दिनों सड़कों पर है जब तक कृशि क्षेत्र और इससे जुड़ा मानव संसाधन भूखा प्यासा और षोशित महसूस करेगा तब तक देष सुषासन की राह पर होगा ही नहीं। यह गांधी के चिंतन का अंष है। विष्व बैंक ने 1989 की एक रिपोर्ट फ्राॅम स्टेट टू मार्केट प्रकाषित किया था। इसका सीधा तात्पर्य था कि राज्य को न्यून होना चाहिए और बाजार को अवसर देना चाहिए। आज स्थिति यह है कि बाजार भी न्यूनतम की ओर चले गये हैं। रोजगार छिन गये हैं, मानव संसाधन से षहर खाली हो गया है और आर्थिकी सबसे बड़े संकुचन की ओर है। लाॅकडाउन के कारण कई साईड इफेक्ट और डिफेक्ट देखने को मिल रहे हैं। जानकारों का तो यह भी कहना है कि कोरोना वायरस से अर्थव्यवस्था को मिली चुनौती एक-दो बरस में तो हल नहीं होगी। 
भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए भारत सरकार को सभी राज्यों के साथ मिलकर महत्वपूर्ण निर्णय लेने होंगे। भारतीय रिज़र्व बैंक का आंकलन भी अर्थव्यवस्था की दुर्दषा ही बताता है। गौरतलब है कि 1930 की मन्दी के बाद यह सबसे बड़ी भयावह स्थिति है। मगर भारत के लिए यह एक ऐसा मौका भी है जो अपने घरेलू वस्तुओं को बाजार तक पहुंचा कर सही कीमत के साथ जीडीपी को कुछ बढ़त दे सकते है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी लोकल से वोकल व ग्लोबल की बात कह रहे हैं। जाहिर है विष्व के बाजार भी उखड़े हैं ऐसे में भारत को आत्मनिर्भरता की राह लेनी ही पड़ेगी। अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश भारत के हित में दिखाई देता है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि गांवों के देष भारत अन्य देषों की तुलना में आत्मनिर्भर की सम्भावना अधिक रखता है। बस नियोजन और क्रियान्वयन दुरूस्त कर लिया जाय तो। आर्थिक सुषासन की गाड़ी अब स्थानीय उत्पादों पर कहीं अधिक टिकी दिखाई देती है। लाॅकडाउन के चलते भारत को 9 लाख करोड़ रूपए का नुकसान उठाना पड़ सकता है जो आर्थिक त्रासदी से कम नहीं है। पहले कोरोना से निपटना है या उसी के साथ आर्थिक सुषासन की राह को भी समतल बनाना अब सरकार की जिम्मेदारी है। जाहिर है षिथिलता जितनी देर रहेगी आर्थिक त्रासदी उतना ही विस्तार लेगी।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Saturday, May 16, 2020

आखिर मज़दूर को मज़बूर समझने की गलती क्यों !

मजदूरों की गांव वापसी की होड़ और सड़क पर मचा मौत का तांडव संवेदनाओं को इन दिनों झकजोर कर रख दिया है। सैकड़ों हजारों मील की यात्रा बूढ़े से लेकर बच्चे एवं महिलाओं का जो हुजूम सड़कों पर इन दिनों पैदल जाने का दिख रहा है वह लोकतंत्र की मर्यादा में निहित सरकारों के लिए न केवल चुनौती है बल्कि उनके काम-काज पर भी सवालिया निषान लगाता है। जिस प्रकार सड़कों पर हादसों की तादाद बढ़ी है और मौत के आंकड़े गगनचुम्बी हो रहे हैं वो किसी भी सभ्य समाज को हिला सकते हैं। हादसे यह इषारा करते हैं कि कोरोना वायरस से भी बड़ी समस्या इन दिनों मजदूरों की घर वापसी है। लाॅकडाउन के कारण करोड़ों की तादाद में लोग बेरोज़गार हो गये। 50 दिनों के इस लाॅकडाउन में भूख और प्यास में भी इजाफा हो गया। सरकारी संस्था हो या गैर सरकारी सभी को इस वायरस ने हाषिये पर खड़ा कर दिया है। कुछ स्वयं सेवी संस्थाएं आज भी सेवा में अपनी तत्परता दिखा रही हैं मगर वो भी असीमित संसाधन से युक्त नहीं है। सवाल यह है कि क्या लाॅकडाउन से पहले सरकार इस बात का अंदाजा नहीं लगा पायी कि जो दिहाड़ी मजदूर या कल-कारखानों में छोटी-मोटी नौकरी करते हैं, रिक्षा, आॅटो, टैक्सी चलाते हैं, घरों में झाड़ू-पोछा का काम करते हैं, दफ्तरों में आउटसोर्सिंग के तौर पर सेवाएं देते हैं इतना ही नहीं मूंगफली बेचने से लेकर चप्पल-जूते बनाने वाले मोची सहित करोड़ों कामगार का जब काम तमाम होगा तो उनका रूख क्या होगा। 25 मार्च से लागू लाॅकडाउन के तीसरे दिन ही दिल्ली में घर जाने की जो लाखों का जो जमावड़ा दिखा वह इस बात को तस्तीक करती है।
कोरोना का मीटर रोजाना की गति से बढ़ने लगा लेकिन समस्या कहीं और भी बढ़ रही थी वह थी बेरोजगार हो चुके कामगारों के लिए ठिकाना और भूख जिसने इन्हें जीवन से दर-बदर कर दिया। सिलसिला पहले बहुत मामूली था पर इन दिनों बाढ़ ले चुका है। पूरे देष से चैतरफा घर वापसी के कदम-ताल देखे जा सकते हैं और पूरे देष में मौत के हादसे भी आंकड़ाबद्ध हो रहे हैं और अब तो दिन भर में कई हादसे देखे जा सकते हैं। 16 मई के एक आंकड़े का उदाहरण दें तो उत्तर प्रदेष के औरेय्या में 24 मजदूर काल के ग्रास में चले गये। ये हरियाणा और राजस्थान से अपने गांव जा रहे थे। जिसमें ज्यादातर मजदूर पष्चिम बंगाल, झारखण्ड और बिहार के थे।  ज्यों-ज्यों दिन बीतते गये कोरोना का डर लोगों में बढ़ता गया और लोग पूरी तरह घरों में कैद हो गये पर यह बात मानो मजदूरों पर लागू ही नहीं होती। जाहिर है भूख और प्यास क्या न करवा दे। अपने ही बच्चों और परिवार के सदस्यों की भूख से बिलबिलाहट आखिर कौन देख सकता है। ऐसे में जब उम्मीदों में षहर खरा नहीं उतरता है तो गांव की याद आना लाज़मी है और मजदूरों ने यही किया। भले ही उन्हें हजार किलोमीटर की यात्रा पैदल करनी पड़ रही है पर उनके मन में गांव जाने का सुकून किसी-न-किसी कोने में तो है। लोकतंत्र में कहा जाता है कि सरकारें जनता के दर्द को अपना बना लेती हैं। लेकिन यहां स्पश्ट रूप से दिख रहा है कि सरकारें इनके दर्द से मानो कट गयी हों। वैसे अनुभव भी यही कहते हैं कि दुःख-दर्द में गांव और जब कहीं से कुछ न हो तो भी गांव ही षरण देता है। इतनी छोटी सी बात समझने में षासन-प्रषासन ने कैसे त्रुटि कर दी। रेल मंत्रालय का आंकड़ा है कि 10 लाख लोगों को उनके घर वापस पहुंचाने का काम किया है। हो सकता है कि यह आंकड़ा अब बढ़ गया हो पर यह नाकाफी है। उत्तर प्रदेष सहित कुछ राज्य सरकारों ने मजदूरों और विद्यार्थियों समेत कुछ फसे लोगों को बस द्वारा वापसी करायी है यह एक अच्छी पहल थी पर इसे समय से पहले कर लिया जाता तो निर्णय और चोखा कहलाता। 
पैदल अपने-अपने गांव पहुंचने का क्या आंकड़ा है इसकी जानकारी सरकार को है या नहीं कहना मुष्किल है। एक नकारात्मक परिप्रेक्ष्य यह भी है कि मजदूरों की लगातार वापसी पूरे भारत में कोरोना मीटर को गति दे दिया है। गौरतलब है कि इन दिनों अर्थव्यवस्था ठप्प है। 12 मई से कुछ रेले चलाई गयी हैं धीरे-धीरे सम्भावनाएं और क्षेत्रों में खोजी जा रही हैं। लाॅकड़ाउन का चरण भले ही ढ़िलाई के साथ रहे पर कोरोना से मुक्ति कब मिलेगी किसी को नहीं पता। समाधान कितना और कहां कह पाना कठिन है जबकि अभी तो समस्या ही उफान पर है। महामारी के नाम पर करोड़ों मजदूरों की जिन्दगियों में जोखिम आया मध्यम वर्ग भी आर्थिक चोट से लहुलुहान है। श्रम कानूनों में बदलाव को लेकर भी इन दिनों चर्चा आम है। सरकार ने 20 लाख करोड़ का आर्थिक पैकेज घोशित करके सभी को राहत देने का काम कर रही है पर तात्कालिक परिस्थितियों में यह पैकेज कितना खरा उतरेगा यह अभी षोध का विशय है। आर्थिक पैकेज पारखी नजर यह बताती है कि सरकार अभी भी दिल खोलकर नहीं दे रही है। हालांकि देने के लिए बड़ा दिल दिखा रही है। देष में खाद्य की कोई समस्या नहीं है ऐसा खाद्य मंत्री की तरफ से बयान है। 5 किलो राषन दिया गया। अब यह कितना भरपाई किया यह भी पड़ताल का विशय है। सवाल है कि जब खाद्य वितरण में सुचिता है तो मजदूरों ने घर वापसी का मन क्यों बनाया। कहीं ऐसा तो नहीं कि स्याह कागज पर गुलाबी अक्षर लिखकर कहानी कुछ और बतायी जा रही है। राम विलास पासवान ने यह बात स्वीकार किया है कि कितने मजदूर गरीब है यह पता लगाना मुष्किल है ऐसे में 5 किलो राषन को मुफ्त देने की घोशणा में देरी स्वाभाविक है। 
प्रदेष की सरकारों ने सुषासन का जिम्मा तो खूब उठाया मगर मजदूरों के काम यह भी पूरी तरह नहीं आयी। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीष कुमार को सुषासन बाबू के रूप में माना जाता है पर वे अपने ही प्रदेष के निवासियों को वापस लेने से बहुत दिनों तक कतराते रहे। उन्हें डर था कि बिहार में उनके आने से कोरोना फैल जायेगा। केन्द्र सरकार ने कई आर्थिक कदम उठाई है जाहिर है सबको राहत पूरी तरह नहीं मिलेगी परन्तु सरकार के इरादे को भी पूरी तरह नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ईएमआई की भरपाई में तीन महीने की छूट सम्भव है कि यह और आगे बढ़ेगा से लेकर रिटर्न दाखिल करने तक पर कई कदम पहले ही उठाये जा चुके है और अब एक मिनी बजट के माध्यम से सरकार दरियादिली दिखा रही है। किसान, मजदूर, मध्यम वर्ग से लेकर रेहड़ी और पटरी वाले इनकी सौगात की जद्द में हैं मगर लाभ कितना होगा यह समय ही बतायेगा। फिलहाल इस बात पर भी गौर करना जरूरी है कि मजदूर भी मोदी सरकार को 300 के पार ले जाने में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी ली है। वह केवल एक मतदाता नहीं है बल्कि देष के इज्जतदार नागरिक हैं। एक-एक मजदूर की समस्या देष की समस्या है। सरकार को इस पर अपनी आंखें पूरी तरह खोलनी चाहिए। हो सकता है कि इस कठिन दौर में सरकार के सारे इंतजाम कम पड़ रहे हों बावजूद इसके जिम्मेदारी तो उन्हीं की है। गौरतलब है कि आगामी दिनों में जब कल-कारखाने खुलेंगे, सड़कों पर वाहन दौड़ेगें, विमान भी हवा में उड़ान लेंगे तो इन्हीं कामगारों की कमी के चलते कठिनाईयां भी बादस्तूर दिखाई देंगी। गांव जाने वाले मजदूर षहर का अब रूख कब करेंगे कहना मुष्किल है। स्थिति यह भी बताती है कि सरकार पर उनका भरोसा भी कमजोर हुआ है जिसकी कीमत सरकारों को चुकानी पड़ेगी। फिलहाल कोरोना से निपटना प्राथमिकता है परन्तु देष के नागरिकों के साथ हो रहे हादसों पर भी लगाम और उनके घर पहुंचने का इंतजाम भी जरूरी है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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