Monday, October 31, 2016

जलते शिक्षालय, सुलगते सवाल

ऐसा लगता है कि समाज निर्माण की उन तमाम संस्थाओं को अलगाववादी इसलिए नेस्तोनाबूत करने पर तुले हैं जिससे कि ऐसे कट्टरपंथियों का अस्तित्व कष्मीर की घाटी में कायम रह सके। दूसरे षब्दों में देखा जाय तो ऐसे क्रियाकलापों के पीछे अलगाववादियों में निहित एक प्रकार का डर भी है। गौरतलब है कि कष्मीर घाटी विगत् चार महीने से अलगाववादियों के चलते झुलसने के क्रम में बनी हुई है और इनके निषाने पर स्कूल और बैंक जैसी संस्थाएं रहीं हैं। बीते तीन महीनों में घाटी के 25 षिक्षालय आग के हवाले किये जा चुके हैं। जिसमें से डेढ़ दर्जन से अधिक सरकारी स्कूल हैं। जिस तर्ज पर पाकिस्तान और अफगानिस्तान में तालिबानियों ने षिक्षा को तहस-नहस करने के लिए स्कूलों को निषाना बनाया था ठीक उसी तरह कष्मीर के षिक्षालय भी धूं-धूं हो रहे हैं। साफ है जो षिक्षा समाज बदलने के काम आती है उसी को मिटाने के मामले में अलगाववादी पूरी ताकत लगाये हुए है। कष्मीर में जारी हिंसा के बीच दीपावली के दिन अनंतनाग के ऐषमुकाम नवोदय विद्यालय में आतंकियों ने आग लगाई इसके अलावा काबा मार्ग स्थित गर्वनमेन्ट स्कूल में आग के चलते भारी तबाही हुई। दक्षिण कष्मीर में स्थित तीन स्कूल मात्र 24 घण्टे के अन्दर खाक कर दिये गये। प्रकाष का पर्व दीपावली में जिस तरह षिक्षालयों को आग के हवाले कर तबाह किया गया। इससे घाटी में कई और सुलगते सवाल भी जन्म लेते हैं जिनका एक ही समाधान षान्ति और अमन चैन है पर इस रसूख भरे हल से अलगाववादी और आतंकी दोनों मीलों पीछे हैं। यदि आगे है तो अषान्ति और आतंक। इतने ही दिनों से जारी हिंसा की वजह से घाटी के स्कूल बंद पड़े हुए हैं अब तक लगभग सौ के आस-पास लोग मारे जा चुके हैं। स्कूलों के लगातार बंद होने से षिक्षा-दीक्षा पर तो असर पड़ा ही है अब षिक्षालयों के जलने से घाटी की व्यवस्था भी तुलनात्मक और चरमरा रही है। 
दीवाली होने के बावजूद अन्तर्राश्ट्रीय सीमा पर बसे गांव अंधेरे में डूबे रहे क्योंकि बीते कुछ दिनों से सीमा पार से गोलियां बरसाने का सिलसिला नहीं थमा। प्रषासन ने ऐसे इलाकों में रेड अलर्ट घोशित कर लोगों को गांव छोड़ने के लिए फरमान भी सुनाया था। अपील के बावजूद कुछ लोग गांव में ही टिके रहे। भारत-पाकिस्तान के बीच एक ओर जहां तनातनी तो दूसरी ओर घाटी के अंदर अलगाववाद का जोर मारना मानो स्थानीय लोगों की कड़ाई के साथ दोहरी परीक्षा ली जा रही हो। अलगाववादी अपने विरोध प्रदर्षन से स्कूलों को अलग करने के लिए तैयार नहीं हैं। उनका कहना है कि अषान्ति के इस दौर में स्कूलों को खोलना बच्चों की जान को खतरा है। उनका यह भी कहना है कि विद्यालय में आग लगाने की घटना से उनका कोई लेना-देना नहीं है। अलगाववादी नेता सैयद अली षाह गिलानी ने तो यहां तक कहा कि स्कूल को जलाने वाले कष्मीरी जनता के दुष्मन हैं पर क्या यह पूरी तरह दूध के धुले हैं। कट्टरपंथी हुर्रियत कांफ्रेंस के गिलानी ने कष्मीरी क्रिकेटरों से घाटी के बाहर अपने दौरों से परहेज करने को भी कहा है। दरअसल हुर्रियत को लगता है कि इस कारण उनके अलगाववादी मकसद को नुकसान पहुंच सकता है। ऐसे में सवाल उठता है कि हुर्रियत का आखिर मकसद क्या और कितना बड़ा है। साफ है कि पाक आतंकियों और उनके आकाओं को समर्थन देने वाला हुर्रियत कष्मीर के अमन-चैन को लेकर षायद ही कभी सकारात्मक सोचे। जिस तरह घाटी में स्कूल धूं-धूं कर जल रहे हैं, बैंक भी इनके निषाने पर हैं और कष्मीर के युवा क्रिकेटरों को लेकर अनाप-षनाप बयान दिये जा रहे हैं उससे साफ है कि अलगाववादी ही कष्मीर के सबसे बड़े दुष्मन हैं।
स्कूलों को जलाने की घटना के लिए जेकेएलएफ चीफ यासीन मलिक ने महबूबा सरकार को कसूरवार ठहराया है। यह बात समझ से परे है कि अलगाववादियों और आतंकियों के चलते कष्मीर की वादी लुटती जा रही है और यही अलगाववादी स्वयं में सुधार लाने के बजाय दूसरे की लानत-मलानत कर रहे हैं। बीते चार महीनों से जो खेल इनके द्वारा खेला जा रहा है, जो रक्तपात घाटी में हुआ है और जिस तर्ज पर चीजों को बिगाड़ने की कोषिष की गई उसे देखते हुए स्पश्ट है कि अलगाववादी अपने नफे नुकसान को भी बेहतरी से भांपने की कोषिष में लगे हैं। स्कूल जलाने की घटना से अलगाववादी यदि इतने ही व्यथित हैं तो घाटी के अमन-चैन के लिए कोषिष क्यों नहीं करते? पाक के आतंकियों की विचारधारा से प्रभावित अलगाववादी क्यों नहीं कष्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानते हैं? जिस भारत के खाद-पानी से इनका निर्माण हुआ है और जिसके अन्न को खाकर इनकी ज़बान इतनी लम्बी हुई है उससे वे देष के प्रति जहर उगलने के बजाय अमन-चैन की बात क्यों नहीं करते? यासीन मलिक जैसे लोग कष्मीर को षेश हिन्दुस्तान से अलग मानकर किन लोगों के बीच अपनी पीठ थपथपाना चाहते हैं। यदि अलगाववादियों में इतना ही दम है तो प्रजातांत्रिक तरीके से ये लोगों का नेतृत्व क्यों नहीं कर पाते हैं। इतिहास गवा है कि एक भी अलगाववादी कभी भी चुनाव नहीं लड़ा है षायद लड़े तो हारने की सौ फीसदी गारंटी रहेगी। घाटी में समस्या बन चुके अलगाववादी पाकिस्तान परस्त हैं। बुरहान वानी जैसे आतंकियों का समर्थन करके इस बात को इन्होंने और पुख्ता किया है। इतना ही नहीं जब-जब कष्मीर मुद्दे को लेकर भारत पाकिस्तान के बीच बैठकों का दौर हुआ है तब-तब हुर्रियत ने लंगी मारने की कोषिष की है। बीते कुछ महीनों में हुर्रियत ने जो किया है उससे इनके बिगड़े चरित्र को बाखूबी समझा जा सकता है। 
जम्मू-कष्मीर की सरकार ने वार्शिक बोर्ड परीक्षाओं को नवम्बर माह में ही कराने की घोशणा की है लेकिन परीक्षा करवाने के निर्णय को लेकर सरकार के खिलाफ भी विरोध प्रदर्षन किया जा रहा है। दो दर्जन से अधिक स्कूल की इमारतें आग के चलते क्षतिग्रस्त हो गईं हैं, बचे हुए स्कूल भी असुरक्षा के दायरे में हैं। आलम यह है कि लगभग 20 लाख बच्चे बीते कई महीने से स्कूल नहीं जा पा रहे हैं जिसके चलते उनकी पढ़ाई ठप्प है। ऐसे में परीक्षा को लेकर असमंजस की स्थिति का होना भी लाज़मी है पर सरकार का हठ है कि परीक्षा तो समय पर ही होगी। इन परीक्षाओं को अगले साल मार्च तक टालने की बच्चों और अभिभावकों की मांग को भी अनसुना कर दिया गया। हालांकि सीमा क्षेत्रों जैसे गुरेज, तंगधार, उरी और जम्मू, लद्दाख में स्कूल ठीक-ठाक से चल रहे हैं। देखा जाय तो अलगाववादियों का हस्तक्षेप कष्मीर घाटी तक ही सीमित है। तमाम संदर्भ और निहित परिप्रेक्ष्य को देखते हुए कयास कई लगाये जा सकते हैं पर जिस तर्ज पर कष्मीर की घाटी को बंधक बनाया गया और हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर आतंकी बुरहान वानी की आड़ में कष्मीर को अषान्त करने की कोषिष की गयी उससे यह भी साफ है कि कईयों को मौके की तलाष रहती है। कष्मीर में अलगाववादियों का गुट ऐसे मौकों को जाया नहीं जाने देता। 8 जुलाई के बाद से ही घाटी कराह रही है और उसकी आवाज अनसुनी की जा रही है। कुछ हद तक इसमें राज्य सरकार भी जिम्मेदार है। कानून और व्यवस्था के मामले में जो जिम्मेदारी महबूबा मुफ्ती की होनी चाहिए उस मामले में भी काफी कोताही बरती गयी है। फिलहाल अमन-चैन को नोचने वालों की कमी घाटी में नहीं है पर उन सवालों का क्या जिनसे सभ्यता और संस्कृति का घोल तैयार होता है। यहां तो आतंक, अषान्ति और रक्तपात का खेल खेला जा रहा है। ऐसे मनसूबे रखने वाले भला सुलगते सवालों को क्यों ठण्डक देंगे। उन्हें तो जलते हुए षिक्षण संस्थान और विकृत होते निर्माण ही अच्छे लगते हैं। 

सुशील कुमार सिंह


Wednesday, October 26, 2016

टाटा मतलब शख्स और शख्सियत

वर्ष  2012 से टाटा समूह की चेयरमैनषिप संभाल रहे व्यावसायिक कुषलता के धनी सायरस मिस्त्री जब उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाये तो उन्हें बाहर का रास्ता देखना पड़ा। चार वर्श में ही जिस षख्स को टाटा समूह का भविश्य बताया जा रहा था उसे इस तरह बेदखल किया जाना यह साफ करता है कि इस समूह की साख और षख्सियत को लेकर फिलहाल कोई समझौता नहीं हो सकता। अब यह निश्कासन एक हकीकत है और सेवानिवृत्त हो चुके रतन टाटा एक बार अन्तरिम तौर पर इस समूह को अपने हाथों में ले लिया है। देखा जाय तो सायरस मिस्त्री को हटाये जाने के पीछे कारण बीते चार वर्शों में समूह की कई कम्पनियों के प्रदर्षन को माना जा रहा है। गौरतलब है कि जब सायरस को चेयरमैन बनाया गया था तब इस समूह का कारोबार 100 अरब डाॅलर का था जिसे 2022 तक 500 अरब डाॅलर तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया था। आरोप है कि सायरस के आने से कम्पनी की रफ्तार सुस्त हुई और कारोबार उस गति से आगे नहीं बढ़ा जैसी की अपेक्षा की गयी थी। गौरतलब है कि लंदन बिज़नेस स्कूल से प्रबंध की डिग्री लेने वाले सायरस मिस्त्री इतने भी कच्चे खिलाड़ी नहीं थे पर टाटा जैसे समूह की उम्मीदों पर खरा उतरना वाकई में आसान बात भी नहीं है। ऐसा नहीं है कि सायरस मिस्त्री की दक्षता और योग्यता में कोई कमी है। बड़े घराने के सायरस देष की सबसे बड़ी निर्माण कम्पनी षापूरजी पालोनजी के मालिक पालोनजी मिस्त्री के बेटे हैं। इस परिवार की टाटा समूह में सर्वाधिक हिस्सेदारी 18.8 फीसदी की है साथ ही वे प्रबंध निदेषक भी रह चुके हैं। जाहिर है कि इन सब खूबियों के चलते रतन टाटा की दृश्टि अपने भविश्य के उत्तराधिकारी पर पड़ी थी। मगर वक्त के साथ मनचाहे नतीजे न होने से ये कड़े फैसले लेने पड़े। 
एक लिहाज़ से देखा जाय तो टाटा को फिर एक नये रतन की तलाष है जो इनके समूह को मन माफिक ऊँचाईयों पर ले जा सके। जमषेदजी टाटा ने जब इस समूह की यात्रा 1887 में षुरू की थी तब उन्हें भी षायद यह एहसास नहीं रहा होगा कि 21वीं सदी के दूसरे दषक तक यह समूह इस प्रकार की समस्याओं में उलझेगा। पहले चेयरमैन से लेकर सायरस मिस्त्री तक के बीच क्रमषः दोराबजी टाटा, सर एन.बी. सकलत्वला समेत जे.आर.डी. टाटा और रतन टाटा का नाम आता है। जब रतन टाटा ने इस समूह को सायरस मिस्त्री के हवाले किया था तब टर्न ओवर 6 अरब डाॅलर से 100 अरब डाॅलर तक किया था। गौरतलब है कि 1991 में जब जे.आर.डी. टाटा के बाद रतन टाटा समूह के चेयरमैन बने थे तब कारोबार महज़ 6 अरब डाॅलर का था जिसे 2012 तक अप्रत्याषित ऊँचाई पर पहुंचाने का काम इन्हीं के द्वारा सम्भव हुआ। उत्तराधिकार लेते समय सायरस मिस्त्री को भी यह स्पश्ट था कि एक दषक के भीतर 100 अरब के टर्नओवर वाले इस समूह को पांच सौ पर पहुंचाना है पर सुस्ती और सटीक संदर्भ के नाकाफी होने के चलते यह एहसास भी षीघ्र ही होने लगा कि सायरस मानकों पर षायद खरे नहीं उतरेंगे जिसका नतीजा सबके सामने है। देखा जाय तो सायरस मिस्त्री कम्पनियों और उनका नेतृत्व करने वालों से नतीजे पर आधारित प्रदर्षन को खासा तरजीह दे रहे थे। यहां तक कि कोरस को खरीद कर दुनिया को चैंकाने वाले टाटा स्टील को भी नज़र अंदाज कर रहे थे। खास यह भी है कि टाटा स्टील की ब्रिटेन की इकाई को बेचने का फैसला भी इनके खिलाफ गया है। बावजूद इसके इनके नेतृत्व में टाटा कन्सल्टेंसी और जगुवार और लैंडरोवर ने बेहतर प्रदर्षन किया है। कहा तो यह भी जा रहा है कि सायरस रतन टाटा से इन दिनों दूर भी चले गये थे। फिलहाल बीते 24 अक्टूबर को टाटा समूह के अन्दर जो घटना घटी वह काफी अप्रत्याषित भी थी।
कारोबार की दुनिया में बड़ा नाम और षख्सियत रखने वाले टाटा समूह के इस घटनाक्रम को देखते हुए षेयर बाजार में भी काफी उतार-चढ़ाव रहा। टाटा की कम्पनियों के षेयरों में बीते मंगलवार को तीन फीसदी की गिरावट देखी गयी। जिस तर्ज पर सब कुछ हुआ है वह कुछ को हैरत में भी डालता है। इसी बीच टाटा सन्स चेयरमैन की बर्खास्तगी का मामला कोर्ट भी पहुंच गया है। टाटा समूह के निकायों ने सर्वोच्च न्यायालय, मुम्बई उच्च न्यायालय और नेषनल कम्पनी लाॅ ट्रिब्यूनल ने सायरस मिस्त्री द्वारा चेयरमैन के पद से हटाये जाने के मामले में राहत मांगने के विरूद्ध कैविएट दाखिल कर दी गयी। इससे साफ है कि मिस्त्री को किसी भी प्रकार की राहत देने से पहले टाटा सन्स को अपना पक्ष रखने का अवसर दिया जाय। कैविएट किसी भी पक्ष द्वारा दाखिल एक नोटिस होता है जिसे किसी भी प्रकार की कानूनी कार्यवाही का डर होता है तो वह इस नोटिस के जरिए कार्यवाही किये जाने से पहले नोटिस की मांग करता है। सायरस मिस्त्री ने कोई कैविएट दाखिल नहीं किया है। फिलहाल आगे क्या होगा अभी कुछ कह पाना सम्भव नहीं है। हालांकि बर्खास्तगी के समय से ही यह कयास लगाया जा रहा था कि सायरस टाटा सन्स के बोर्ड के इस फैसले को चुनौती दे सकते हैं। सायरस मिस्त्री को लेकर कुछ विष्लेशकों का मानना है कि वे कड़े फैसले कर रहे थे। कुछ का तो यह भी कहना है कि इनका सख्त रवैया बीते चार वर्शों से जारी था। मिस्त्री की नीति का ही नतीजा था कि टाटा कैमिकल्स ने यूरिया कारोबार बेच दिया। ऐसे कई किन्तु-परन्तु की वजह से सायरस मिस्त्री रतन टाटा के जो रतनों में षुमार थे उन्हें टाटा सन्स से हटाना पड़ा। 
कारोबारी तथा कल-कारखानों की दुनिया माया के खेल से जूझती है और यहां सिक्कों की खनक और स्पर्धा में सबसे आगे रहने की होड़ रखने वाला ही संतुलन बिठा पाता है। कारोबार के षीर्श पर बैठा षख्स जब बदलता है तो उसकी षख्सियत का असर पूरे कारोबार पर पड़ता है। 22 सालों में रतन टाटा ने जिस टाटा समूह को ऊँचाई देने में दिन-रात एक किया उसी अनुपात में सायरस जैसी षख्सियत षायद खरी नहीं उतरी। ऐसा नहीं है कि चेयरमैनषिप वाले षख्स को पहली बार हटाया गया हो या पुराने चेयरमैन ने पहली बार कुर्सी संभाली हो। ऐसे कई कारोबारी समूह है जिनके चेयरमैन की दोबारा वापसी हुई है। वर्श 2011 में इंफोसिस से रिटायर हुए नारायण मूर्ति ने भी कम्पनी की बिगड़ती स्थिति को देखते हुए जून 2013 में वापसी की थी। एप्पल के स्टीफ जाॅब्स ने 16 सितम्बर, 1985 को बोर्ड से विवाद के चलते चेयरमैन पद से इस्तीफा दे दिया था परन्तु 1997 में अन्तरिम सीईओ के तौर पर एक बार फिर वापसी की। स्टारबक्स के सीईओ होवार्ड षुल्ज ने 2000 में कम्पनी छोड़ी थी लेकिन गिरते प्रदर्षन को देख कर 2008 में फिर वापसी की थी। उक्त से यह संदर्भित होता है कि कारोबार का रसूख जब प्रदर्षन के मामले में गिरावट की ओर जाता है तो पुराना षख्स, नये षख्स को स्थानांतरित कर देता है और यह उदाहरण इसलिए भी सटीक हैं क्योंकि कारोबार का क्षेत्र कमतर को बर्दाष्त नहीं करता। फिलहाल सायरस के रूखसत कर देने के बाद अगला चेयरमैन कौन होगा यह सवाल भी तैरने लगा है और अगले चार महीने तक इसकी खोज जारी रहेगी। हालांकि इसमें रतन टाटा के सौतेले भाई नोएल टाटा का नाम भी हो सकता है। 2012 में भी इस पद की दौड़ में ये षामिल थे। नोएल टाटा पलोनजी मिस्त्री के दामाद भी हैं। भीड़-भाड़ की दुनिया में सुर्खियों से दूर रहने वाले रतन टाटा ने जिस तरह टाटा सन्स को ऊँचाई देने का काम किया था उसे देखते हुए साफ है कि चेयरमैन ऐसा षख्स होगा जिसे समूह की साख और उसकी षख्सियत के लिए कहीं अधिक बेजोड़ सिद्ध हो।


सुशील कुमार सिंह

Monday, October 24, 2016

समाजवादी कहाँ जा रहे हैं !

समय का व्यवहार अत्यंत निश्ठुर भी हो सकता है जमाना गुजर गया जब समाजवादी और रायपंथी कांग्रेस को राश्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए किये जाने वाले संघर्श का उपकरण समझते थे जो कांग्रेस जमा सात दषक की आजादी में पांच दषक तक सत्ता की ऊँचाई पर रही हो आज भारतीय सियासत में उसका तिलिस्म भी  तिनका-तिनका हो रहा है। दषकों तक कांग्रेस के साथ रहने वाले भी हाथ छुड़ाने में अब तनिक मात्र भी संकोच नहीं कर रहे हैं। उत्तराखण्ड में पूर्व मुख्यमंत्री रहे विजय बहुगुणा और उत्तर प्रदेष में प्रदेष महिला कांग्रेस की अध्यक्ष रह चुकीं रीता बहुगुणा जोषी उक्त बिन्दु को पुख्ता करती हैं। ऐसे अनेकों उदाहरण सियासी फिजा में तैरते हुए मिल जायेंगे। साफ है कि यदि दल के अन्दर मन के खिलाफ हवा बहती है तो नतीजे ऐसे ही होते हैं। ऐसे ही कुछ नतीजे इन दिनों मुलायम कुनबे में भी देखने को मिल रहा है। दषकों से उत्तर प्रदेष की सियासत में समाजवादियों ने जिस वजूद के साथ यहां की राजनीति में अपना सिक्का चलाया और यादववंषी कुनबे ने जिस सियासी पकड़ से कांग्रेस को उत्तर प्रदेष में पनपने नहीं दिया और समय-समय पर भाजपा और बसपा को सत्ता से बेदखल किया उस नजीर पर नजर डाली जाय तो इन दिनों समाजवादी पार्टी में जो हो रहा है वह उसे रसातल में ले जाने के लिए काफी है। टकराव से यह तय है कि मुलायम सिंह यादव का दषकों पुराना कुनबा सियासी घाटे की ओर चल पड़ा है। फिलहाल समाजवाद से जकड़ी मुलायम सिंह यादव की पार्टी यथार्थवाद से तो विमुख हो चुकी ही है साथ ही इनकी जंग जग हंसाई भी करा रही है।
समाजवादी पार्टी के महासचिव रामगोपाल यादव को छः साल के लिए पार्टी से निश्कासित कर दिया गया जबकि अखिलेष यादव ने अपने सगे चाचा षिवपाल यादव को मंत्रिपरिशद् से बाहर का रास्ता दिखा दिया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि समाजवादियों की सियासत बिगड़ चुकी है पर इसका अंजाम क्या होगा इसके चिह्न भी दो-चार दिन में परिलक्षित हो जायेंगे। अमर सिंह को विवादों का जड़ बताया जा रहा है अमर सिंह को कभी अंकल कहने वाले अखिलेष अब उन्हें दलाल अंकल कह कर सम्बोधित कर रहे हैं जबकि मुलायम सिंह यादव अमर सिंह को अपना भाई बता रहे हैं साथ ही कह रहे हैं कि अमर सिंह नहीं होते उन्हें जेल की हवा खानी पड़ती। नेताजी के निर्णयों को मानने की बाध्यता दोहराकर अखिलेष सगे होने का पूरा साक्ष्य भी दे रहे हैं पर 24 अक्टूबर को जिस प्रकार अखिलेष और षिवपाल की आपसी भिडंत हुई वह कुछ और ही सबूत दे रहे हैं। दिलचस्प यह रहा कि पहले पैर छुए और गले मिले बाद में भिड़े अखिलेष ने तो षिवपाल से माइक तक छीन लिया और यह सब नेताजी के सामने होता रहा। फिलहाल उत्तर प्रदेष में समाजवादी पार्टी पर मंडरा रहे संकट से आने वाले चुनाव में इसके नफे-नुकसान का पूरा हिसाब हो जायेगा। गौरतलब है कि रार अब इस राह पर आ गयी है कि महासंग्राम तत्पष्चात् बिलगाव की सियासत से समाजवादी षायद ही अब बच पाये। यह बात भी सही है कि करीब साढ़े चार साल से सत्ता चला रहे अखिलेष यादव की कई बार लानत-मलानत सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव भी कर चुके हैं पर आदर्षवाद की अवधारणा को ध्यान में रखते हुए अखिलेष नेताजी के वचनों को महत्व देते रहे हैं। बात इस कदर बिगड़ जायेगी और अखिलेष सियासी रेस में बढ़त बना लेंगे इसका अनुमान षायद ही मुलायम सिंह यादव को रहा हो। इस सियासी दंगल के कई षिकार हो चुके हैं। फिल्म विकास परिशद् के उपाध्यक्ष पद से जया प्रदा की भी छुट्टी हो गयी हैं क्योंकि वे अमर सिंह के करीबियों में गिनी जाती हैं। घटना को देखते हुए मुलायम खफा भी हैं और भावुक भी। हालांकि उन्होंने यह भी साफ किया है कि मुख्यमंत्री अखिलेष ही रहेंगे जबकि षिवपाल का मानना है कि बागडोर अब नेताजी संभाले। मुलायम और षिवपाल का भरत मिलाप और दूसरे भाई राम गोपाल के प्रति कठोर होना यह साफ करता है कि पार्टी के अन्दर पुरस्कार और दण्ड देने की कार्यवाही साथ-साथ जारी है।
उत्तर प्रदेष में फरवरी-मार्च में चुनाव होना तय है और इससे पहले पार्टी के अंदर जो तनातनी चल रही है उसका इस कदर फलक पर आना आगामी चुनाव के लिए खतरे की घण्टी भी है। देखा जाय तो पिछले माह से चल रहा महासंग्राम अब अन्तिम दौर में पहुंच गया है। विजेता कौन होगा अभी तस्वीर साफ होनी बाकी है। मुलायम सिंह यादव ने 24 अक्टूबर को विधानमण्डल और प्रत्याषियों की बैठक बुलाई तो उसके एक दिन पहले मुख्यमंत्री अखिलेष ने विधायकों को अपने सरकारी आवास पर बुला लिया। तभी से यह लगने लगा कि अखिलेष कोई बड़ा कदम उठा सकते हैं। नतीजा सबके सामने है जिसमें षिवपाल समेत कईयों को मंत्रिमण्डल के बाहर का रास्ता दिखा दिया है। अखिलेष पहले भी ऐसा तेवर दिखा चुके हैं जब मुलायम सिंह यादव ने बीते 13 सितम्बर को उन्हें पार्टी प्रदेष अध्यक्ष पद से हटाते हुए कमान षिवपाल यादव को दे दिया था। उस समय भी अखिलेष यादव ने षिवपाल से सारे अहम् विभाग वापस लेते हुए मात्र समाज कल्याण विभाग का जिम्मा सौंपा था। बीते रविवार को बर्खास्त होने वाले मंत्रियों में नारद राय ऐसे विधायक हैं जिन्हें दो बार बर्खास्त किया गया। पहली बार इन्हें लोकसभा चुनाव के बाद हटाया गया था। फिलहाल मौजूदा स्थिति में 28 कैबिनेट मंत्री सहित मंत्रियों की संख्या 56 है। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि पारिवारिक महासमर में मुलायम सिंह अपने अंदाज में समस्या हल करना चाहते हैं। मन टूटा है पर हिम्मत अभी छूटी नहीं है तभी तो उन्होंने षिवपाल की पार्टी में भूमिका और अखिलेष को पद मिलने से आये बदलाव को लेकर झड़प लगायी। पार्टी का हश्र क्या होगा अब साफ-साफ दिखने भी लगा है। फिलहाल सोमवार को एकमंचीय हुए समाजवादियों में भावनाओं का सैलाब बहा पर सच्चाई यह है कि सियासत के बुनियादी तत्वों में यह बहुत मजबूत उपाय नहीं है।
एक जमाना था जब समाजवादियों में लोहियावादी विचारधारा की पूरी सनक थी समय के साथ यह वाद कब पूंजीवाद में बदल गया पता ही नहीं चला। आज की जितनी भी दूसरी समस्याएं हैं उसमें स्वतंत्रता और समाजवाद बुनियादी तत्व हैं पर जिस दौर से मुलायम समाजवाद के नाम पर पार्टी को हांकने का काम किया वह कांग्रेस के वर्चस्व का युग हुआ करता था और जिस ऊंचाई पर चढ़ कर आज महासंग्राम हो रहा है वहां से कांग्रेस निहायत कमजोर और दूसरे दल दो-दो हाथ करने के लिए ताल ठोंक रहे हैं। चुनाव के मुहाने पर खड़ी समाजवादी पार्टी जिस समाजवादी क्रान्ति की रूपरेखा तैयार कर रही है उसके मार्ग रसातल की ओर जाते दिख रहे हैं। जहां एक ओर मुलायम कुनबे को बिखरने से रोकने की मुहिम चल रही थी तो वहीं उसी दिन महोबा में प्रधानमंत्री मोदी इनको आड़े हाथ लेते उत्तम प्रदेष बनाने की बात कर रहे थे। वर्श 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के चलते पूर्ण बहुमत से भरी यही समाजवादी पार्टी मात्र 5 सीटों के साथ यादव संकुल तक सीमित होकर रह गयी। गौरतलब है कि मोदी का आकर्शण अभी बरकरार है और विधानसभा पर भाजपा की नजर है। सत्ता से दषकों की दूरी के बाद भाजपा पूरी कोषिष करेगी कि इस बार उस पर काबिज हो और इसमें समाजवादी भी झगड़ों के चलते रास्ता आसान कर रहे हैं। वस्तुतः सियासी संदर्भ और उभरे परिदृष्य को देखते हुए यह कहना यथोचित है कि समाजवाद राह से भटक गया है। समाजवादी कहां जा रहे हैं इसका अंदाजा उन्हें भी नहीं है। यदि समय रहते इस पर बेहतर होमवर्क नहीं हुआ तो जो वजूद और रसूख जो समाजवादियों का मात्र उत्तर प्रदेष तक सिमटा है उससे भी वे हाथ धो बैठेंगे।

सुशील कुमार सिंह


Monday, October 17, 2016

ब्रिक्स में संभावनाओं की नई विवेचना

जब ब्रिक्स का पहली बार प्रयोग वर्श 2001 में गोल्डमैन साक्स ने अपने वैष्विक आर्थिक पत्र ‘द वल्र्ड नीड्स बेटर इकोनोमिक ब्रिक्स‘ में किया था जिसमें इकोनोमीट्रिक के आधार पर यह अनुमान लगाया गया कि आने वाले समय में ब्राजील, रूस, भारत एवं चीन की अर्थव्यवस्थाओं का व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों रूपों में विष्व के तमाम आर्थिक क्षेत्रों पर नियंत्रण होगा तब यह अनुमान नहीं रहा होगा कि आतंकवाद से पीड़ित भारत से मंचीय हिस्सेदारी रखने वाला चीन पाकिस्तान के आतंकियों का बड़ा समर्थक सिद्ध होगा। जैष-ए-मोहम्मद के अज़हर मसूद के मामले में यह बात पूरी तरह पुख्ता होती है। हालांकि चीन और भारत के बीच रस्साकषी वर्शों पुरानी है जबकि ब्रिक्स का एक अन्य सदस्य रूस भारत का दुर्लभ मित्र है। साफ है कि पांच देषों के इस संगठन में भी नरम-गरम का परिप्रेक्ष्य हमेषा से निहित रहा है। ब्रिक्स देषों के सम्मेलन में सदस्य देषों ने जिस तर्ज पर आतंक के खिलाफ एक होने का निर्णय लिया है उससे भी यह साफ है कि मंच चाहे जिस उद्देष्य के लिए बनाये गये हों पर प्राथमिकताओं की नई विवेचना समय के साथ होती रहेगी। उरी घटना के बाद भारत ने जिस विचारधारा के तहत पाक अधिकृत कष्मीर में आतंकियों को सर्जिकल स्ट्राइक के तहत निषाना बनाया वह भी देष के लिए किसी नई अवधारणा से कम नहीं है साथ ही पड़ोसी बांग्लादेष समेत विष्व के तमाम देषों ने भारत के इस कदम का समर्थन करके यह भी जता दिया कि आतंक से पीड़ित देष को जो बन पड़े उसे करना चाहिए। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद ब्रिक्स के माध्यम से गोवा में सभी सदस्यों समेत भारत और चीन का एक मंच पर होना और प्रधानमंत्री मोदी का यह कहना कि आतंक के समर्थकों को दण्डित किया जाना चाहिए में भी बड़ा संदेष छुपा हुआ है जाहिर है यह संदेष चीन के कानों तक भी पहुंचे होंगे।
देखा जाय तो ब्रिक्स पांच उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं का समूह है जहां विष्व भर की 43 फीसदी आबादी रहती है और पूरे विष्व के जीडीपी का 30 फीसदी स्थान यही घेरता है। इतना ही नहीं वैष्विक पटल पर व्यापार के मामले में भी यह 17 प्रतिषत हिस्सेदारी रखता है। अब तक गोवा सहित 8 ब्रिक्स सम्मेलन हो चुके हैं। इसका पहला सम्मेलन जून 2009 में रूस में आयोजित हुआ था। पिछला अर्थात् सातवां सम्मेलन भी रूस में ही हुआ था। गौरतलब है कि इस दौरान आतंक के मामले में नवाज़ षरीफ ने मोदी से यह वादा किया था कि वे पाकिस्तान के आतंकियों पर नकेल कसेंगे पर इस्लामाबाद पहुंचकर उन्होंने पलटी मार दी थी। देखा जाय तो 2014 के सार्क सम्मेलन से आतंक के मसले पर भारत और पाक के बीच दूरियां बढ़ने लगी थी। हालांकि इस मामले में मोदी ने अपनी तरफ से भरसक कोषिष की पर कष्मीर का राग अलाप कर पाकिस्तान आतंकवाद पर उसके द्वारा की जाने वाली कार्यवाही को नजरअंदाज करता रहा। दिसम्बर, 2015 में जब मोदी ने एकाएक लाहौर की यात्रा की तब पूरी दुनिया भी सन्न रह गयी थी और यह बात चीन भी अच्छी तरह समझ रहा था कि मोदी किस स्तर तक पाकिस्तान से सम्बन्ध सुधारना चाहते हैं। बावजूद इसके पाकिस्तान ने कुछ भी सकारात्मक नहीं सोचा। दौरे के एक हफ्ते बाद ही 2 जनवरी, 2016 को पठानकोट पर हुए आतंकियों के हमले ने मोदी के भरोसे को चकनाचूर कर दिया। विदेष मंत्रालय स्तर की वार्ता को विराम लगा दिया गया। रही सही कसर तब पूरी हो गयी जब मार्च 2016 में पाकिस्तान की जांच एजेंसी ने पठानकोट का दौरा करने के बाद इस बात से पलटी मार दी कि जब तक कष्मीर समस्या नहीं हल होगी ऐसी कोई बात आगे नहीं बढ़ सकती। गौरतलब है कि भारत की जांच एजेंसी को भी इस्लामाबाद का दौरा करना था। 
गोवा के ब्रिक्स सम्मेलन में चीन के राश्ट्रपति षी जिनपिंग ने कहा कि 2008 के आर्थिक संकट और इससे जूझती ग्लोबल इकोनोमी का असर ब्रिक्स देषों के आर्थिक विकास पर हुआ है लेकिन सदस्य देषों के आर्थिक विकास की सम्भावनायें इससे बेअसर हैं। विवेचना और संदर्भ यह भी है कि क्या 2008 के आर्थिक संकट से अभी भी देष बाहर नहीं निकल पाये हैं। अर्थव्यवस्था में सुस्ती और चुनौतियां अभी भी बरकरार हैं। इसके अलावा पाक का आतंकी कारोबार भी भारत के लिए किसी त्रासदी से कम नहीं है। भारत का बहुत बड़ा आर्थिक हिस्सा पाक सीमा सुरक्षा पर खर्च करना पड़ता है जबकि पाकिस्तान की गलतियों का समर्थन करने वाला चीन भारत में अपने बाजार का विस्तार किये हुए है। 70 अरब के व्यापार में मात्र 9 अरब का व्यापार ही भारत चीन से कर पाता है बाकी सारे पर चीन का कब्जा है। जिस तर्ज पर पाकिस्तान भारत को आतंक के बूते नुकसान पहुंचाने की कोषिष कर रहा है यदि इसमें युद्ध जैसी कोई स्थिति बनती है तो वैष्विक अर्थव्यवस्थाएं भी हाषिये पर जायेंगी। ब्रिक्स देषों के लिए नवीनता इस सुस्ती से निपटने का सबसे कारगर तरीका होगा जिसके लिए सदस्यों के बीच पारदर्षिता, सारगर्भिता और सच्ची आत्मीयता की तिकड़ी भी होनी चाहिए। दुनिया जानती है कि भारत को नीचा दिखाने के लिए चीन पाकिस्तान की हर गलतियों पर साथ देता है। फिर वह चाहे आतंक को ही बढ़ावा देने वाली क्यों न हो परन्तु इस बार गोवा में प्रधानमंत्री मोदी ने चीन को भी दो टूक समझाने में सफल रहे हैं। चीन को यह भी समझ लेना चाहिए कि यदि पाकिस्तान को हर सूरत में समर्थन देना चाहेगा तो विष्व से आतंकी गतिविधियां समाप्त नहीं होंगी। पहले भी वह संयुक्त राश्ट्र संघ की राश्ट्रीय सुरक्षा परिशद् में पाकिस्तान के आतंकियों को बचाने के लिए वीटो का प्रयोग कर चुका है। अच्छी बात यह भी हुई है कि बीते रविवार को ब्रिक्स सम्मेलन में एक घोशणा पत्र जारी हुआ जिसमें सभी देष मसलन ब्राजील, रूस, भारत, चीन समेत दक्षिण अफ्रीका ने मनी लाॅड्रिंग, नषीली दवाओं की तस्करी और आतंक का समर्थन करने वाले संगठित अपराधों को रोकने की अपील की। ब्रिक्स और बिम्सटेक बैठक के लिए बंग्लादेष, भूटान और म्यांमार के नेता भी पहुंचे हैं। जाहिर है सभी आतंक के खिलाफ एकजुटता दिखा रहे हैं। सभी ने उरी हमले को लेकर दुख भी जताया है। 
नीति एवं कूटनीति के तर्ज पर देखें तो भारत ब्रिक्स सम्मेलन में मन-माफिक सफलता हासिल कर लिया है। रूस से बढ़ रही दूरियों को वास्तविक स्थान पर पहुंचाने में भी सफलता अर्जित की है। षी जिनपिंग को एक अच्छे पड़ोसी होने का क्या मतलब होता है अच्छे से समझा दिया है। मोदी का यह आह्वान कि पड़ोस में ही आतंक का जन्मदाता है इस बात को भी पुख्ता कर देता है कि यदि पाकिस्तान आतंक को समाप्त नहीं करेगा तो वाकई में प्रधानमंत्री मोदी उसे अलग-थलग रहने के लिए विवष कर देंगे। गौरतलब है कि बीते 24 सितम्बर को केरल के कोंझीकोड़ में मोदी ने भारत समेत पाकिस्तान की आवाम को भी अपने सम्बोधन में समेट लिया था और तेवर के साथ कहा था कि पाकिस्तान को अलग थलग कर देंगे। इसमें कोई षक नहीं कि वे इस मामले में मीलों आगे निकल चुके हैं। गोवा का ब्रिक्स सम्मेलन एकजुटता के लिए जाना जायेगा यदि परिणाम भी इसी रूप में आये तो ब्रिक्स के इतिहास में यह सम्मेलन एक बड़ा अध्याय साबित होगा। सबके बावजूद सुविचारित और विवेचित दृश्टिकोण यह भी है कि पीएम मोदी और रूसी राश्ट्रपति पुतिन के बीच पुरानी दोस्ती पटरी पर आ गयी है जो चीन को संतुलित करने में कारगर सिद्ध हो सकती है। वैसे चीन पर अन्धा विष्वास नहीं किया जा सकता परन्तु नीति और कूटनीति को ध्यान में रखते हुए समय के साथ इसकी जांच परख आगे होती रहेगी।

सुशील कुमार सिंह


Wednesday, October 12, 2016

सशक्त शिक्षा और बाल विवाह

आॅक्सफोर्ड विष्वविद्यालय के समाजषास्त्र की प्रमुख रिद्धि कष्यप के एक षोध से यह खुलासा हुआ है कि आने वाले समय में भारत में लड़कियों का विवाह इसलिए मुष्किल होगा क्योंकि उनके समकक्ष वर ढूंढना एक समस्या होगी। उक्त षोध षिक्षा के मामले में सषक्त हो रहीं महिलाओं का चित्रण करता है पर एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि दुनिया भर में प्रत्येक 7 सेकेन्ड में एक नाबालिक लड़की का विवाह भी सम्पन्न हो जाता है। इससे जुड़े आंकड़े यदि वैष्विक स्तर पर देखे जाय तो यह किसी त्रासदी से कम नहीं है। एक अरब दस करोड़ लड़कियां कम उम्र में ब्याही जाती हैं जबकि मौजूदा विष्व की जनसंख्या 7 से 8 अरब के बीच है। षादी के बाद अधिकांष नाबालिग लड़कियां स्कूल नहीं जा पाती। अधिकतर 18 वर्श से पहले ही मां बन जाती हैं जो हर हाल में जच्चा-बच्चा दोनों के लिए न केवल जानलेवा है बल्कि समाज के लिए भी न्यायोचित नहीं है। वास्तव में भारत में साक्षरता को लेकर बीते कई दषकों से जो प्रयास हुए वे सकारात्मक रहे फिर भी पुरूशों की तुलना में महिलाएं अभी भी करीब 18 फीसदी कम साक्षर हैं। बावजूद इसके षिक्षा जगत में जो पहुंच इन दिनों लड़कियों ने विकसित की है वह वाकई में काबिल-ए-तारीफ है और अनुमान यह है कि आने वाले 30-35 वर्शों में यही लड़कियां इतनी योग्य हो जायेंगी कि इनके योग्य साथी मिलने मुष्किल होंगे। हालांकि विवाह जैसे संस्कार षिक्षा की उन्नति के चलते बेरूखी में नहीं बदलने चाहिए पर जिस बेड़ियों से लड़कियां जकड़ी रहीं हैं उसे देखते हुए साफ है कि षिक्षा उनके उड़ान के काम तो आ रही है। रही बात लड़कों की तो उन्हें भी अपने स्तर को समय रहते उठाने पड़ेंगे। ये स्पर्धा के चलते नहीं बल्कि आने वाले वक्त की मांग के चलते ऐसा करना होगा। 
वर्श 1947 में जहां देष की महज़ 12 फीसदी साक्षरता दर थी वहीं 2011 तक 74 प्रतिषत से अधिक है परन्तु अभी तक वे मुकाम नहीं हासिल कर पाये हैं जो इन सात दषकों में सम्भव हो जाना चाहिए था। क्या यह बात कहीं से वाजिब हो सकती है कि आज भी बदहाली के कारण करोड़ों लड़कियां न तो षिक्षा प्राप्त कर पाती हैं और न ही सषक्तीकरण को लेकर उन पर कोई ध्यान दिया जाता है बल्कि अल्प आयु में विवाह करने की होड़ जरूर रहती है। 2011 की जनसंख्या आंकड़ों की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर तीन षादीषुदा महिलाओं में से एक की षादी 18 साल की उम्र से पहले हुई है। चैकाने वाली बात तो यह भी है कि 80 लाख से अधिक लड़कियों की षादी 10 साल की उम्र से पहले करा दी गयी। आंकड़े यह भी दिखा रहे हैं कि सभी षादीषुदा महिलाओं में 91 फीसदी की षादी 25 की उम्र पहुंचते-पहुंचते हो जाती है। तथ्य से तो यह भी उजागर हुआ है कि बाल विवाह का आंकड़ा हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई सभी धर्मों में कमोबेष विद्यमान है बस अन्तर प्रतिषत का है। बौद्ध धर्म में तो यह आंकड़ा 27.8 फीसदी का है जबकि मुस्लिम समुदाय में यह 30 प्रतिषत से अधिक है और हिन्दू धर्म में तो यह 32 फीसदी के आस-पास है। इसमें इसाई धर्म को लेकर कुछ हद तक सकारात्मक इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि यहां आंकड़ा 12 फीसदी का है। जैन धर्म में भी 16 फीसदी से अधिक लड़कियों का विवाह 18 वर्श की उम्र से पहले हो जाता है। पड़ताल इस ओर इषारा करती है कि बाल विवाह बदहाली के चलते कहीं अधिक सम्भव होते हैं। हांलाकि इसकी प्रथा भी काफी हद तक आज भी जिम्मेदार है। गरीबी, सामाजिक असमानता के कारण मां-बाप बच्चियों का विवाह जल्दी करा देते हैं। भारत के कुछ क्षेत्र तो इसे लेकर चली आ रही परम्परा को बदलना ही नहीं चाहते जिसके चलते आंकड़ों में भारी इजाफा होता रहा है। इसके अलावा कई ऐसी वजह हैं जिसके चलते बच्चियां अल्प आयु में इस प्रथा का हिस्सा बनती चली गईं। हैरत की बात यह है कि पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा बाल विवाह भारत में होता है। करीब 48 फीसदी महिलाओं वाले भारत में लगभग ढ़ाई करोड़ की षादी 18 वर्श से पहले हो जाती है। 
षिक्षा और साक्षरता को कई समस्याओं का हल माना जाता है। इसमें कोई षक नहीं कि अनवरत् व्यक्तियों को समृद्ध करती षिक्षा ने समाज के परिदृष्य को भी बदला है। इतना ही नहीं पुरूशों और महिलाओं को अलग-अलग ढंग से प्रभावित भी किया है। सोच में बदलाव, विपरीत परिस्थितियों में डटे रहने की क्षमता समेत व्यक्तित्व को कई आयामों से सुसज्जित भी किया है। बावजूद इसके कुछ ऐसे अटल सत्य हैं जो आज भी किसी चुनौती या हठ से कम नहीं है। स्कूल, काॅलेज से लेकर विष्वविद्यालय तक षैक्षणिक वातावरण में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ है। लड़कियों में आत्मनिर्भर होने की अवधारणा भी पहले की तुलना में मीलों आगे है पर दुर्दषा भी उसी गति से अभी भी बरकरार प्रतीत होती है जिसमें खोता बचपन आज भी बड़ी चुनौती बना हुआ है। इनकी सुरक्षा को लेकर आज भी अलग इंतजाम की जरूरत पड़ती है। बेटी-बचाओ, बेटी पढ़ाओ की बड़ी खूबसूरत अवधारणा अभी प्रसार ले रही है पर कई बेटियों की पहुंच में अभी भी यह अभियान नहीं है। कई टीवी सीरियल के माध्यम से भी ऐसी समस्याओं को उजागर करने का प्रयास किया गया। एक सार्थक सोच और चिंतन यह दर्षाता है कि सभी को वह अवसर मिलना चाहिए जिसके वह हकदार हैं पर इनके हक को छीनने वाले षायद अभी आने वाली भीशण तबाही का अंदाजा नहीं लगा पाय हैं। बेषक आज भी बच्चियों की पैदाइष पर कुछ लोग नाक-भौंह सिकोड़ रहे हैं पर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे इस भेदभाव के चलते इस धरा को न केवल असंतुलित कर रहे हैं बल्कि मानवाधिकार का तेजी से उल्लंघन भी कर रहे हैं।
यह बात सही है कि महज़ योजनाओं से समस्याओं का निपटारा नहीं होता। केवल रणनीति का बाजारीकरण करके निदान की खानापूर्ति नहीं की जा सकती। स्तरीय लड़ाई को लड़ने के लिए उठे हुए स्तर पर बात करनी ही होती है। बरसों से सराकरी योजनाएं धरातल पर रेंगती रहीं और नाक के नीचे कुप्रथाएं बलवती होती चलीं गई। कम उम्र में ब्याही कई लड़कियां, घरेलू हिंसा, षारीरिक षोशण, अवसाद, खराब सेहत यहां तक की एड्स जैसी गम्भीर बिमारियों से भी जूझती हैं। सभी का आंकड़ा देना यहां सम्भव नहीं है परन्तु बाल विवाह के  ऐसे तमाम साइड इफेक्ट देखे जाते रहे हैं। अन्तर्राश्ट्रीय बालिका दिवस 11 अक्टूबर को मनाया जाता है जो बीत गया। इसी दिन इस वर्श विजयादषमी थी। बुराई पर अच्छाई की जीत के लिए सदियों से जाना जाने वाला दषहरा और अन्तर्राश्ट्रीय बालिका दिवस की तिथि संगोगवष इस बार एक ही थी। इस मौके पर वैष्विक संस्था ‘सेव दि चिल्ड्रन‘ ने एक रिपोर्ट जारी की जिसके मुताबिक दुनिया भर में प्रति 7 सेकेंड में 15 वर्श से कम उम्र की एक लड़की की षादी हो जाती है। दुःखद यह भी है कि इस मामले में अधिकांष लड़कों की उम्र लड़कियों से दोगुनी रही है। जारी रिपोर्ट में 144 देषों की सूची में भारत 90वें स्थान पर हैं जबकि पाकिस्तान इस मामले में दो कदम कम है, वह 88 स्थान पर है। सबसे कम बाल विवाह का आंकड़ा स्वीडन का है और सभी देषों में यह अव्वल है। इतना ही नहीं पड़ोसी देष श्रीलंका, नेपाल, भूटान भी नाबालिग लड़कियों के विवाह के मामले में भारत से बेहतर स्थिति में है। सवाल है कि बढ़ रही महिलाओं की षिक्षा के बीच बाल विवाह जैसे कुप्रथा से छुटकारा क्यों नहीं मिल रहा। बेषक समस्या बड़ी है पर निदान मिलेगा ऐसी आषा से पीछे भी नहीं हटा जा सकता।


सुशील कुमार सिंह


बुराई पर अच्छाई की जीत

तालियों की गड़गड़ाहट के बीच अश्टमी के दिन विज्ञान भवन में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि इस साल विजयादषमी बहुत खास होगी साथ ही बुराई पर अच्छाई की जीत के लिए उन्होंने देषवासियों को षुभकामनायें भी दी। उनकी यह टिप्पणी तब खास हो गयी जब इसका संदर्भ और परिप्रेक्ष्य सर्जिकल स्ट्राइक से जोड़कर देखा गया। यहां अच्छाई की जीत का सम्बंध सर्जिकल स्ट्राइक से ही है। हालांकि मोदी ने सर्जिकल स्ट्राइक का इस मामले में सीधे कोई जिक्र नहीं किया है। देखा जाय तो पीओके में भारतीय सेना के द्वारा किये गये सर्जिकल स्ट्राइक पर मोदी सार्वजनिक तौर पर कोई बयानबाजी भी देते नहीं देखे गये हैं पर उसकी आड़ में वक्तव्य को साधने की कोषिष जरूर करते रहे हैं। भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदिकाल से ही महत्व रहा है और ये हमारे संस्कार भी रहे हैं। दरअसल इन्हें उत्सव का रूप देकर न केवल सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करने में मदद मिलती रही है बल्कि भारतीय संस्कृति की विषेशता को भी संजोने का अवसर व्याप्त होता रहा है। हर त्यौहार के पीछे एक बड़ी भावना होती है और मानवीय गरिमा का यह समृद्ध स्वरूप भी लिये रहती है। भारत का इतिहास वीरता और षौर्य की उपासना से भी युक्त रहा है। समय-समय पर देष पर आक्रमण करने वालों से संघर्श और देष की सुरक्षा को लेकर बड़ी-बड़ी लड़ाईयां भी लड़ी गयीं हैं जिसे ध्यान में रखकर गाथाओं और साहित्यों की भी प्रचण्ड रचना हुई है। सद्भावना से युक्त विजयादषमी जैसे महोत्सव जो बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक हैं। बीते 28-29 सितम्बर की रात जिस तर्ज पर भारतीय सेना ने पीओके में घुसकर आतंकियों के ठिकानों को निस्तोनाबूत किया उसे इस प्रसंग से जोड़ना लाज़मी है। प्रधानमंत्री मोदी का भी संदर्भ और दृश्टिकोण ऐसी ही अवधारणा से बोधयुक्त प्रतीत होता है। 
साहित्य में इस बात का भी वर्णन है कि दषहरा का पर्व दस प्रकार के पापों मसलन क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, आलस्य, हिंसा आदि के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है। देखा जाय तो इस पर्व का सीधा अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के वध करके राक्षस राज और आतंक से समाप्ति से जोड़ा जाता है। इस पर्व की गाथा तो हजारों वर्श पुरानी है पर इन दिनों जिस तर्ज पर भारतीय सेना और आतंकियों के बीच जंग जारी है और एलओसी पर जिस पैमाने पर सीज़ फायर का उल्लंघन हो रहा है उसे देखते हुए स्पश्ट है कि राम राज्य स्थापित करने के लिए इस संघर्श से अभी भारत को दो-चार होना ही पड़ेगा। चार युद्ध हारने वाला पाकिस्तान या तो अपनी क्षमता का आंकलन नहीं कर पाया है या कुछ अंतराल के बाद उसी क्षमता को भारत के मुकाबले खड़ा करके स्वयं को आंकने का अवसर लेता रहता है। इस दौर में जिस प्रकार भारत की सेना का मनोबल ऊँचा है और जिस तरह सरकार सेना को लेकर कहीं अधिक सकारात्मक है उससे भी स्पश्ट है कि आतंक के भार से दबे पाकिस्तान को या तो स्वयं उससे निपटना होगा नहीं तो सर्जिकल स्ट्राइक और कवर्ट आॅप्रेषन के तहत भारत को खुद इसकी साफ-सफाई करनी होगी। उत्तरी कष्मीर के कुपवाड़ा सेक्टर के सामने पाकिस्तान के कब्जे वाले कष्मीर स्थित दुदनियाल आतंकी षिविर में लष्कर-ए-तैयबा की जिस प्रकार तबाही हुई है उसे देखते हुए साफ है कि आतंकी षिविरों में भगदड़ और पाकिस्तान में बौखलाहट एक साथ व्याप्त होगी। हालांकि इन दिनों सेना को लेकर सियासी जंग भी छिड़ी हुई है। राजनेता भी दो खेमों में बंटे हैं। कुछ सर्जिकल स्ट्राइक का हिसाब मांग रहे हैं तो कुछ इसे सेना पर अविष्वास जाहिर करने की बात कह रहे हैं। दो टूक यह है कि सेना ने अपना काम किया है अब नेताओं को अपना काम करना है जो कम ही अच्छा कर पाते हैं।
इस हाहाकार के बीच एक और परिप्रेक्ष्य यह उजागर हुआ है कि क्यों न इस बार की दीपावली में चीनी उत्पादों का बहिश्कार किया जाय। इसमें भी भिन्न मत हो सकते हैं पर सच्चाई यह है कि अरबों के कारोबार का सीधा-सपाट कोई समाधान तो नहीं होगा बावजूद इसके एक सच्चाई यह भी है कि चीन जितना माल भारत में बेचता है भारत उसकी तुलना में सात गुना पीछे है। साफ है कि भारत के बाजार से चीन अरबों का मुनाफा कमा रहा है। मेड इन चाइना का विस्तार जिस तर्ज पर भारत के प्रत्येक क्षेत्र में फैल चुका है उसे देखते हुए यह भी साफ है कि इसे समेटना इतना आसान नहीं है। उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून के व्यापारियों ने इस बार यह तय किया है कि त्यौहारों के इस मौके पर चीनी उत्पादों की बिकवाली नहीं करेंगे। व्यापार मण्डल की ओर से आये इस निर्णय से यह तो स्पश्ट है कि यदि बेचने वाले चीनी वस्तुओं का कारोबार नहीं करेंगे तो जाहिर है कि लोगों के घरों तक ये नहीं पहुंचेंगे। सम्भव है कि षेश भारत में भी कुछ ऐसे ही कदम भविश्य में उठ सकते हैं। आंकड़े इस बात का समर्थन करते हैं कि वर्श 2015 में 70 अरब डाॅलर के व्यापार में मात्र 9 अरब डाॅलर की हिस्सेदारी भारत की रही जबकि षेश कारोबार का पूरा लाभ चीन के हिस्से गया। वर्श 2012 में जब 66 अरब डाॅलर का व्यापार था तब भारत इस मामले में 18 अरब डाॅलर पर था। आंकड़ें इस पड़ताल को पोशित करते हैं कि चीन के साथ ज्यों-ज्यों कारोबार बढ़ रहा है त्यों-त्यों भारत पीछे की ओर जा रहा है। समझौते तो इस ओर भी इषारा करते हैं कि दोनों देष आपसी व्यापार को सौ अरब डाॅलर तक ले जाना चाहते हैं। ऐसे में मुनाफे के मामले में चीन और भारत कहां होंगे इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। कईयों का तो यह भी मानना है कि अरबों का मुनाफा लेने वाला चीन भारतीय बाजार में कूड़ा-कचरा बेच रहा है पर एक सच्चाई यह भी है कि गरीबी से लदा भारत सस्ते सामानों के चलते चीनी वस्तुओं के प्रति आकर्शित हो रहा है। हालांकि मेक इन इण्डिया को मजबूत करके चीनी उत्पादों को टक्कर देने की कोषिष भी चल रही है।
विजयदषमी और दीपावली जैसे बड़े पर्व लगभग 20 दिन के अंतराल पर सम्पन्न हो जाते हैं और इन दिनों चीनी उत्पादों की खूब खपत भी होती है। इतना ही नहीं पाकिस्तान से आतंकी भी भारत की सीमाओं को लांघने की इन दिनों फिराक में रहते हैं। देखा जाय तो एक ओर पाक के आतंकियों का घुसपैठ तो दूसरी ओर चीन के उत्पादों का भारत में विस्तार लेना दोनों देष के लिए चुनौती रहते हैं। असल में आतंक के षरणगाह बने पाकिस्तान को आर्थिक और मनोवैज्ञानिक दोनों तरीके से समर्थन देने में चीन कभी पीछे नहीं रहा है और पाकिस्तान कष्मीर के बहाने भारत पर चोट पर चोट करने से कभी बाज नहीं आया है। यही कारण है कि इन दिनों दोनों के खिलाफ देष में माहौल बना है। यदि चीनी उत्पादों का बहिश्कार व्यापक रूप लेता है और सर्जिकल स्ट्राइक की तर्ज पर आतंकियों को निषाना बनाकर सेना द्वारा हिंसा का अंत सम्भव हो जाता है तो विजयादषमी समेत दीपावली के लिए इससे बड़ा और कोई महोत्सव क्या होगा। खुफिया एजेंसी के मुताबिक हाल के दिनों में आतंकियों का पुलिस स्टेषन को निषाना बनाना और हथियार छीनने की घटनाओं को इसलिए अंजाम दिया जा रहा है ताकि यह साबित हो सके कि सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भी कष्मीर में आतंकी गतिविधियां और आतंक दोनों बरकरार है। इस बात को एक बार पुनः दोहराना ठीक होगा कि बुराई पर हमेषा अच्छाई की ही जीत होती है। आतंक कितना भी क्यों न बढ़ जाय सफाया होना सुनिष्चित है पर जिसका आतंक है वही साफ कर ले तो इस कचरे का बोझ भारत को नहीं उठाना पड़ेगा। वैसे भी दषहरा और दीपावली के दिनों में घर साफ करने की परम्परा रही है और सफाई चाहे आतंक की हो या कचरे की भारत इसे सदियों से करता आया है और आगे भी कर लेगा।


सुशील कुमार सिंह