Sunday, February 28, 2021

तेल ने बिगाड़ा जीवन का अर्थशास्त्र

मौलिक बात यह है कि देष में बीते कुछ अरसे से मानो निराषा और निरूत्साह का वातावरण छाया हुआ है और लोगों में सामाजिक प्रष्नों को लेकर उदासीनता जबकि राजनीतिक प्रष्नों के प्रति उत्तेजना बढ़ती जा रही है। इस परिस्थिति के अनेक कारण हैं जिसमें एक बड़ा कारण कोरोना के चलते बेपटरी हुई अर्थव्यवस्था और अभी पूरी तरह उभर नहीं पाना है। रोज़गार और काम-धंधे संघर्श में हैं जिसके लिए अदम्य उत्साह का सहारा लेकर कोषिषें जारी हैं। सरकार को चाहिए कि जनता में व्याप्त निराषा को समाप्त करने के लिए कदम उठाये न कि केवल इसी पर जोर दे कि बहुत जल्द ही दूध और षहद की नदियां बहने वाली हैं। चुनाव के समय लम्बे-चैड़े वायदे किये जाते हैं और सरकार बनने के बाद जनता और सरकार के बीच फासले बढ़ जाते हैं। इन दिनों किसान आंदोलन के चलते भी कुछ ऐसा ही फासला देखने को मिल रहा है और बेलगाम कीमतों ने डीजल, पेट्रोल और गैस से भी मानो दूरियां बढ़ रही हैं। सुषासन एक संवदेनषील व्यवस्था है, समाजवाद और लोकतंत्र इस देष की जड़ में है और इसी में यहां का जनमानस प्रवास करता है। जाहिर है राजधर्म की पूरी कसौटी दूरियों में नहीं बल्कि जनता के मर्म को समझकर उनकी नजरों में सरकार का खरा उतरने पर है। सरकारें सब्जबाग दिखाती हैं पर कितना दिखाना चाहिए इसकी भी सीमा होनी चाहिए। अच्छे दिन आयेंगे और यह तब पूरा होता है जब जनता सरकार की नीतियों से खुषहाल और षान्ति महसूस करती है मगर जिस तरह इन दिनों पेट्रोलियम पदार्थ आसमान को चीरने में लगे हैं उससे जनता जमींदोज हो रही है। 

देष में एक नये तरीके का हाहाकार मचा हुआ है। तेल ने लोगों का खेल बिगाड़ रखा है और यह किसी भी सरकार की तुलना में अपने रिकाॅर्ड महंगाई के स्तर पर है। प्रधानमंत्री मोदी ने 17 फरवरी 2021 को कहा कि अगर पिछली सरकारों ने भारत की ऊर्जा आयात पर निर्भरता को कम करने पर गौर किया होता तो आज मध्यम वर्ग पर इतना बोझ नहीं पड़ता। इसमें कोई दुविधा नहीं कि यह एक अलग किस्म की बात है जिसमें सच्चाई कितनी है इसकी पड़ताल बनती है। मौजूदा समय में पेट्रोल 100 रूपए प्रति लीटर की दर को भी पार कर चुका है। इसके पीछे एक बड़ी वजह न केवल कच्चे तेल की बढ़ती कीमतें हैं बल्कि सरकार की उगाही वाली नीतियां भी जिम्मेदार हैं। गौरतलब है कि लाॅकडाउन के दौर में जब तेल अपने न्यूनतम स्तर पर था तो सरकार ने 5 मई 2020 को पेट्रोल पर 10 रूपए और डीजल पर 13 रूपए एक्साइज़ ड्यूटी लगाकर इसकी कीमत को उछाल दिया जबकि इसके पहले मार्च 2020 में यह पहले ही महंगा किया जा चुका था। दुनिया के किसी भी देष में षायद ही पेट्रोल पर इतना भारी टैक्स लगता हो। यूरोपीय देष इंग्लैण्ड में 61 फीसद और फ्रांस में 59 फीसद जबकि अमेरिका में 21 फीसद टैक्स है और भारत में यह टैक्स 100-110 फीसद तक कर दिया गया है। गौरतलब है कि 2013 में केन्द्र और राज्यों के टैक्स मिलाकर यह 44 फीसद हुआ करता था। मौजूदा सरकार सर्वाधिक टैक्स वसूलने और सबसे अधिक टैक्स लगाने के लिए जानी जाती है। इसे देखते हुए यह बात कितनी सहज है कि हर मोर्चे पर सरकार की पीठ थपथपाई जाये। महंगाई को केन्द्र में रखकर चुनाव लड़ने वाली सरकारें जब महंगाई में ही देष को धकेल देती हैं तो जाहिर है जनता में उदासी होना तय है और सवाल खड़ा हो जाता है कि आखिर उदासी कैसे दूर हो। जाहिर है जीएसटी में लाकर इसकी कीमत को न केवल गिराया जा सकता है बल्कि वन नेषन, वन टैक्स को और सषक्त बनाया जा सकता है। 

दो टूक यह भी है कि क्रूड आॅयल का दाम चाहे आसमान पर हो या जमीन पर जनता को सस्ता तेल न नहीं मिल पाता है। मौजूदा समय में क्रूड आॅयल 60 डाॅलर प्रति बैरल के आस-पास है और पेट्रोल कहीं-कहीं 100 रूपए प्रति लीटर बिक रहा है। राजस्थान के श्री गंगानगर में यह आंकड़ा देख सकते हैं साथ ही इसके अलावा अन्य कई षहरों में भी मामला इसी के इर्द-गिर्द है। पूरे देष में यह 90 रूपए प्रति लीटर से अधिक में ही बिक रहा है और डीजल इसके पीछे-पीछे चल रहा है। पेट्रोल और डीजल में रेट के मामले में डीजल काफी पीछे होता था पर अब लगभग साथ हो चला है। रसोई गैस की कीमत भी तेजी से बढ़त लिये हुए है। एक तरफ तेल महंगा होने से महंगाई बढ़ रही है तो दूसरी ओर रसोई गैस की कीमत ने जायका बिगाड़ दिया है। जब कोरोना काल में तेल 20 रूपए प्रति डाॅलर बैरल पर कच्चा तेल था तब भी लोगों को तेल सस्ता नहीं मिला और अब तो तीन गुना अधिक है और इसकी सम्भावना न के बराबर है। खास यह भी है कि बेपटरी अर्थव्यवस्था में सरकार तेल को अपनी कमाई का अच्छा-खासा जरिया बना लिया है। भारत के पास तेल भंडारण की क्षमता अधिक नहीं है जैसा कि अमेरिका और चीन के पास है। कच्चे तेल के भंडारण के मामले में भारत के पास 5 मिलियन टन स्ट्रैटेजिक रिज़र्व ही है जबकि चीन के पास 90 मिलियन टन स्ट्रैटेजिक रिज़र्व की क्षमता है जो भारत से 14 गुना अधिक है। तेल रोज़गार का भी एक अच्छा और बड़ा सेक्टर है। 80 लाख भारतीय ऐसे हैं जिनकी नौकरियां तेल की अर्थव्यवस्था पर टिकी हैं और देष की 130 करोड़ जनसंख्या तेल की महंगाई की मार जब-तब झेलती रहती है जैसा कि इन दिनों है। 

तेल की कीमत और इससे जुड़ी आवाज में गूंज तो है पर इलाज सरकार के पास ही है। कांग्रेस अध्यक्षा इसे लेकर के सरकार को राजधर्म निभाने की बात कह रही हैं तो कई सरकार की नीतियों को ही गलत करार दे रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी भी इसके लिए पिछली सरकार को ही दोश दे रहे हैं। दुविधा यह है कि लगभग 7 साल की मोदी सरकार कब तक पिछली सरकार के माथे दोश मड़ कर अपनी कमीज साफ दिखाती रहेगी। भारत में 85 फीसद तेल बाहर से खरीदा जाता है जाहिर है तेल के मामले में आत्मनिर्भर होना दूर की कौड़ी है। नवरत्नों में षुमार ओएनजीसी जैसी इकाईयां भी इस मामले में कमजोर सिद्ध हो रही है। भारत में तेल के कुंए कैसे बढ़ें इसके लिए प्रयास भी मानो कम हो रहा है। इतना ही नहीं ऐसी खोजबीन के लिए दिये जाने वाले बजट में भी विगत् कुछ वर्शों की तुलना में कटौती देखी जा सकती है। भारत में अमीर और गरीब के बीच एक बड़ी आर्थिक खाई है। अमीरों को षायद तेल की कीमतें परेषान न करें मगर गरीबों के लिए यह बेहद कश्टकारी है। लोगों को लगता है कि जिनके पास गाड़ियां हैं यह समस्या उनकी है जबकि हकीकत है कि डीजल में दाम की बढ़ोत्तरी जीवन का अर्थषास्त्र बिगाड़ देता है और साथ ही रसोई गैस की कीमत बढ़ा दी जाये जैसा कि थोक के भाव बढ़ाया जा चुका है वह अस्तित्व को ही खतरे में डाल देता है। ऐसे में सुषासन का तर्क यह कहता है कि अतिरिक्त टैक्स और जनता पर बड़ा बोझ षासन हो सकता है पर सुषासन नहीं। 


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

रोज़गार की कसौटी और सुशासन

अर्थषास्त्री थाॅमस राॅबर्ट माल्थस ने लिखा है कि प्रकृति की मेज सीमित संख्या में अतिथियों के लिए सजाई गयी है जो बिना बुलाये आयेंगे वो भूखो मरेंगे। हालांकि माल्थस का यह संदर्भ जनसंख्या और संसाधन से सम्बंधित है मगर इसका रहस्य रोज़गार और सुषासन से भी जुड़ा है। रोज़गार सृजित किये जाते हैं और अवसर की समता से ये युक्त होते हैं जबकि षासन ऐसे ही अवसर देने के चलते सुषासन की ओर होते हैं। जाहिर है रोज़गार और सुषासन का गहरा नाता है। ये वही अर्थषास्त्री हैं जिन्होंने जनसंख्या और संसाधन के अनुपात में यह भी लिखा है कि जनसंख्या गुणोत्तर में बढ़ती है और संसाधन समानांतर क्रम में। इससे यह भी समझने में मदद मिलती है कि आखिर बेरोज़गारी क्यों पनपती है साथ ही यही बेरोज़गारी कई समस्याओं की जननी क्यों है। फिलहाल इन दिनों बेरोज़गारी तीव्र गति लिए हुए है। दुनिया भर में नई तकनीकों के चलते कई पेषे अपने अस्तित्व को खो रहे हैं और रोज़गार के लिए चुनौती बन रहे हैं। भारत में रोज़गार की गाड़ी कहां अटक गयी है इसकी पड़ताल भी जरूरी है। यह संसाधन की कमी के चलते है या रोज़गार चाहने वालों में कौषल की कमी है। जो भी है सुषासन को इस आधार पर भी कसे जाने की परम्परा विगत् कुछ वर्शों से देखी जा सकती है। षासन तब सु अर्थात् अच्छा होता है जब सामाजिक समस्याओं के निदान के लिए संसाधनों का समुचित वितरण और उसके बेहतरीन प्रबंधन में वह सफल हो। जब कोई सरकार अपने नागरिकों को आवष्यक सेवाएं प्रदान करने और उपजी समस्याओं का समाधान देती है तब सुषासन होता है। देष में विकास के जहां नये-नये उपक्रम हैं तो वहीं समस्याओं के मकड़जाल भी देखे जा सकते हैं। इन्हीं में से एक बेरोज़गारी है जिसका सीधा असर नागरिक अच्छा कैसे बन सकता है पर पड़ता है।

प्रासंगिक परिप्रेक्ष्य यह है कि रोज़गार की राह कभी भी समतल नहीं रही और इसे बढ़ाने को लेकर हमेषा चिंता प्रकट की जाती रही है। तमाम कोषिषों के बावजूद रोज़गार के मोर्चे पर खरे उतरने की कसौटी सरकारों के सामने रही और इसका पूरा न पड़ना मानो सुषासन को ही बट्टा लगाया जाता रहा हो। सर्वे कहते हैं कि षिक्षित युवाओं में बेरोज़गारी काफी खराब दषा में चली गयी है। जब एनएसएसओ ने जनवरी 2019 में बेरोज़गारी पर रिपोर्ट जारी कर बताया कि भारत में यह दर 45 साल में सर्वाधिक है तब सरकार की ओर से भी इस पर सवाल उठे थे। इतना ही नहीं इसे झूठा भी करार दिया गया था और कहा गया कि ये अन्तिम आंकड़े नहीं हैं। हालांकि मई 2019 में दूसरी बार सरकार गठन के बाद इसी वर्श में ही श्रम मंत्रालय ने जब बेरोज़गारी के आंकड़े जारी किये तब इसके अनुसार भी देष में 2017-18 में बेरोज़गारी दर 6.1 फीसद की बात सामने आयी जो 45 साल में सबसे अधिक थी और भारतीय अर्थव्यवस्था निगरानी केन्द्र (सीएमआईई) की 2 मार्च 2020 की जारी रिपोर्ट से फरवरी 2020 में यह बढ़कर 7.78 फीसद हो गया। इतना ही नहीं कोविड-19 ने तो रही-सही कसर भी पूरी कर दी और पूरा देष बेरोज़गारी के भंवर में फंस गया। लाॅकडाउन के दौरान तो बेरोज़गारी दर 24.2 फीसद पर चला गया जबकि मार्च में यह आंकड़ा 8.8 फीसद का था। हालांकि कोरोना काल में आॅस्ट्रेलिया, इण्डोनेषिया, जापान, हांगकांग, वियतनाम व चीन समेत मलेषिया जैसे देषों में सबसे अधिक युवा बेरोज़गारी दर बढ़ी। बेषक बेरोज़गारी का उफान इन दिनों जोरों पर है मगर सब कुछ बेहतर करने का प्रयास सरकार की ओर से कमोबेष जारी है। 1 फरवरी 2021 को पेष बजट में एमएसएमई, मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर और मेक इन इण्डिया को बढ़ावा देकर रोज़गार और अर्थव्यवस्था दोनों को मजबूत करने का प्रयास सरकार की ओर से फिलहाल दिखता है। जहां तक सवाल मेक इन इण्डिया का है सरकार ने संकल्प लिया था कि साल 2025 तक मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का योगदान बढ़ाकर 25 प्रतिषत तक लाया जायेगा। इस कार्यक्रम के जरिये भारत, चीन और ताइवान जैसे विनिर्माण केन्द्रों का भी अनुसरण कर रहा है। ऐसा करने से आयात में कमी आयेगी, तकनीकी आधार विकसित होंगे और नौकरियों में इजाफा होगा। हालांकि यह कार्यक्रम उस स्तर की सफलता से ओत-प्रोत नहीं है इसके पीछे ढांचागत बाधायें, जटिल श्रम कानून और नौकरषाही का संकुचित फ्रेम भी रास्ते का कमोबेष रूकावट माना जा रहा है।

विष्व बैंक के आंकड़े को देखें तो स्पश्ट होता है कि भारत में कई वर्शों से देष की अर्थव्यवस्था में उत्पादन क्षेत्र के योगदान में कुछ खास बदलाव नहीं आया है। जब बदलाव कमतर होगा तो रोज़गार कमजोर होगा और बेरोज़गारी बढ़ेगी। इसके उलट चीन, कोरिया और जापान जैसे अन्य एषियाई देषों में स्थिति कहीं अधिक बदलाव और विनिर्माण क्षेत्र अलग रूप लिए हुए है। बेषक सरकार सत्ता के पुराने डिजा़इन से बाहर निकल गयी हो मगर रोज़गार के मामले में दावे और वायदे अभी भी दूर की कौड़ी है। देष युवाओं का है और रोज़गार को लेकर यहां तुलनात्मक सक्रियता अधिक रहती है मगर स्किल डवलेपमेंट की कमी के चलते भी बेरोज़गारी अपने षबाब पर है। देष में स्किल डवलेपमेंट सेंटर भी अधिक नहीं है और जो हैं वो भी हांफ रहे हैं। भारत में स्किल डवलेपमेंट के 25 हजार केन्द्र हैं। जबकि चीन में ऐसे केन्द्रों की संख्या 5 लाख हैं और दक्षिण कोरिया जैसे छोटे देष में भी एक लाख हैं। सुषासन की बयार कैसे बहे और जीवन अच्छा कैसे रहे यह लाख टके का सवाल है। सवाल मौजूदा सरकार का नहीं है सवाल बीते 7 दषकों के रोज़गारमूलक ढांचे का है। देष में 50 फीसद से अधिक आबादी खेती-किसानी से जुड़ी है और सभी जानते हैं कि यहां भी आमदनी का घटाव और रोज़गार की सीमितता के चलते यह अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर देती है। किसानों की बीते तीन दषकों में लाखों की तादाद में आत्महत्या इस बात को पुख्ता करती है। हालांकि कोरोना के समय में विकास दर वित्त वर्श 2020-21 के प्रथम और द्वितीय तिमाही में उद्योग और सेवा क्षेत्र जमींदोज हो गये थे वहीं कृशि विकास दर 3.4 के साथ अव्वल रहा। इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकारी नौकरी सभी को नहीं मिल सकती और यह लगातार घट भी रही हैं। 8वीं पंचवर्शीय योजना जहां समावेषी विकास को लेकर आगे बढ़ रही थी वहीं 10वीं पंचवर्शीय योजना में सरकारी नौकरियों में कटौती का सिलसिला देखा जा सकता है जो अब कहीं अधिक आगे की बात हो गयी है। जाहिर है ऐसे में स्वरोजगार एक बड़ा विकल्प है पर इसके लिए भी आर्थिक सुषासन की ही आवष्यकता है।

संयुक्त राश्ट्र ने सुषासन को सहस्राब्दिक विकास लक्ष्यों का एक अत्यावष्यक घटक माना है क्योंकि सुषासन गरीबी, असमानता एवं मानव जाति की अनेकों खामियों के खिलाफ संघर्श के लिए यह एक आधार भूमि की रचना करता है। जाहिर है इसका आधारभूत ढांचा तभी मजबूत होगा जब युवाओं के हाथ में काम होगा। पिछले कुछ वर्शों से यह बहस हुई है कि नौकरियां तो उपलब्ध हुई हैं मगर कुषल लोगों की ही कमी है। यूपी के मौजूदा मुख्यमंत्री ऐसा कहकर आलोचना भी झेल चुके हैं पर एक हकीकत यह है कि कुषल लोगों की कमी तो है। राश्ट्रीय कौषल मिषन को लेकर इस दिषा में उठाया गया कदम सटीक हो सकता है मगर सफल कितना है आंकड़े नहीं हैं। मानव श्रम को कुषल बनाने के लिए नये अभिकरणों को भी खोलना होगा। 65 फीसद युवाओं वाले देष में एजूकेषन और स्किल के स्तर पर रोज़गार की उपलब्धता स्वयं ही बड़ी चुनौती है। मुद्रा योजना के माध्यम से ऋण धारकों को 12 करोड़ से अधिक रोज़गार धारक के तौर पर सरकार ने माना। कहीं-कहीं तो यह आंकड़ा 16 करोड़ से अधिक का दिखता है जो पूरी तरह गले नहीं उतरता है। क्योंकि रोज़गार के लिए ऋण लेना यह बात पूरी तरह पुख्ता नहीं करता कि सभी को उसी दर से सफलता मिली है। वैसे देखें तो साल 2027 तक भारत सर्वाधिक श्रम-बल वाला देष होगा। अर्थव्यवस्था की गति बरकरार रखने के लिए रोज़गार के मोर्चे पर भी खरा उतरना होगा। भारत सरकार के एक अनुमान के अनुसार साल 2022 तक 24 सेक्टरों में 11 करोड़ अतिरिक्त मानव संसाधन की जरूरत होगी। ऐसे में पेषेवर और कुषल का होना उतना ही आवष्यक है। इसके लिए न केवल सुषासनिक ढांचा बनाना होगा बल्कि टूट चुकी अर्थव्यवस्था और उमड़े बेरोज़गारी के सैलाब को रोकने के लिए नये पैटर्न की खोज भी करनी होगी। रोज़गार कहां से और कैसे बढ़े इसकी भी चिंता स्वाभाविक है। आॅटोमेषन के चलते इंसानों की जगह मषीने लेती जा रही हैं इससे भी नौकरी आफत में है। छंटनी के कारण भी लोग दर-दर भटकने के लिए मजबूर हैं। विष्व बैंक कुछ साल पहले ही कहा था कि भारत में आईटी इंडस्ट्री में 69 फीसद नौकरी पर आॅटोमेषन का खतरा मंडरा रहा है। साल 2018 का एक सर्वेक्षण है जो भारत में औपचारिक क्षेत्र में रोज़गार की संख्या को 6 करोड़ बताता है। इसके अलावा रक्षा क्षेत्र को छोड़ दिया जाये तो डेढ़ करोड़ लोग सरकारी सेवा में कार्यरत हैं। कुल मिलाकर इस आंकड़े के हिसाब से 7.5 करोड़ लोग संगठित और औपचारिक क्षेत्रों में काम कर रहे हैं जबकि असंगठित क्षेत्र में बेरोज़गारी कसौटी में ही नहीं आ पा रही है। वैसे गैर कृशि क्षेत्र में रोज़गार पाये लोगों की संख्या 24 करोड़ बतायी गयी है। मगर कोविड 19 के इस बुरे दौर में करोड़ों की तादाद में जिस कदर नौकरियां गयी हैं और कल कारखाने बंद हुए हैं उसे देखते हुए रोज़गार की कसौटी किस मानक पर है कुछ खास सुझाई नहीं देता है। फिलहाल सरकार को चाहिए कि एक अदत नौकरी की तलाष करने वाले युवाओं के लिए रोज़गार का रास्ता समतल बनाये। 


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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आंदोलन रास्ता है फैसला नहीं !

सरकार और किसान के बीच सीधा संवाद है बावजूद इसके तीन कृशि कानून को लेकर कोई समतल रास्ता बनता नहीं दिख रहा है। कृशि कानून को लेकर दर्जन भर बैठकें दोनों के बीच हो चुकी हैं पर फासले मानो जस के तस बने हुए हैं। एक माह से अधिक वक्त हो गया है और समाधान के मामले में कोई पहल न तो सरकार की ओर से है और न ही किसान की ओर से जबकि जनवरी के आखिर में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि बातचीत केवल एक फोन काॅल की दूरी पर है। बैठक से दोनों की दूरी ठीक उसी प्रकार है जैसे आंख बंद कर लेने से समस्या खत्म हाने का भ्रम पैदा कर लेना। यह बात संदेह से परे नहीं कि कानून को लेकर किसान और सरकार की संवादहीनता किस चमत्कार के इंतजार में है। फिलहाल किसान आंदोलन परिवर्तित स्वरूप ग्रहण करता हुआ विस्तार की ओर है और सरकार मानो स्वयं को सिमटा रही है। 

दो टूक यह है कि लोकतंत्र में आंदोलन लोक सषक्तिकरण का एक आयाम होता है न कि इसका अर्थ सरकार के विरूद्ध होना है। यह बात सरकार जानती भी है और समझती भी है क्योंकि सुषासन से भरी सरकारें जनता के मां-बाप के रूप में काम करना चाहती हैं और किसान उनके लाडलों में षामिल होते हैं। कृशि, उद्योग और सेवा में भले ही कृशि का सकल घरेलू उत्पाद सर्वाधिक घटाव वाला रहा हो फिर भी इसे कमतर आंकने की भूल षायद ही कोई सरकार करने की हिम्मत करती हो। हांलाकि कोरोना के कालखण्ड में जब देष की जीडीपी ऋणात्मक 23 पर पहुंच कर जमींदोज हो रही थी तब कृशि का विकास दर 3.4 फीसद धनात्मक के साथ विकास की जमावट में बेहतरीन बनावट का संकेत दे रही थी। हम लोकतंत्र से बंधे हुए हैं ऐसे में किसान आंदोलन से सरकार को यह भी मालूम हो गया है कि जनता रूपी किसान को क्या चाहिए और जब इस मामले में उचित समाधान की राह खुलेगी तो किसान ही नहीं मुनाफे का बड़ा हिस्सा सरकार के हिस्से में भी जायेगा।

सवाल बड़ा है कि क्या सरकार और किसानों के बीच कोई सुलह का फाॅर्मूला है। सरकार पर यह भी आरोप लगाया जा रहा है कि वह आन्नदाता के खिलाफ लड़ने का फैसला कर लिया है जबकि रविन्द्रनाथ टैगोर के इस कथन को संजीदगी से देखें तो किसानों की अहमियत का ठीक-ठाक पता चलता है। उन्होंने कहा है कि ऐ किसान तू सच ही सारे जगत का पिता है। वैसे एक सच्चाई यह भी है कि कृशि क्षेत्र में प्रयोग ज्यादा और असल में काम कम किये गये हैं। समय-समय पर कृशि उठान की योजना और कृशि उत्पाद का 1967 से कीमत का तय किया जाना और उदारीकरण के बाद सुषासन की राह को पुख्ता करना साथ ही समावेषी और सतत् विकास देष में तेजी से प्रसार करना सरकारों की इच्छाषक्ति तो दिखती है मगर तीन दषक में लगभग चार लाख किसानों की मुफलिसी में आत्महत्या करना भी इसकी कमजोर कड़ी रही है। किसानों के हालात क्या है किसी से छुपा नहीं है। 2022 तक सरकार इनकी आय दोगुनी करने की बात बरसों पहले कह चुकी है। देष में कुल जनसंख्या का आधे से अधिक हिस्सा किसानों से भरा है जाहिर है इनके लिए आर्थिक सुषासन की राह खोलने का मतलब देष की मजबूती का यथार्थ की भी पहचान करना है मगर मौजूदा हालत देखें तो अमेरिका में किसान की सालाना आय भारतीय किसानों की तुलना में 70 गुना अधिक है। आंकड़े यह समझने के लिए पर्याप्त हैं कि भारत का किसान गरीब और कर्ज के बोझ में क्यों होता है और सरकार से क्या अपेक्षा करता है। 

किसान स्वामीनाथन रिपोर्ट को अपने भविश्य के लिए बेहतर समझता है जबकि सरकार बिना रिपोर्ट लागू किये इसकी भरपाई का दावा करती है। ध्यान रहे किसान केवल भावनात्मक राजनीति और वोट का ही जरिया नहीं है यह देष की 130 करोड़ से अधिक लोगों की भूख भी षांत करता है। कृशि सुधार के लिए माॅडल चाहे यूरोप या अमेरिका से लायें पर किसानों के विकास के लिए नीतियां तो देष से ही मिलेंगी और जब यही नीतियां और कानून किसानों के मन-माफिक नहीं होते तो आंदोलन एक रास्ता होता है न कि सरकार से फासला।


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

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एक-दूसरे के धुर विरोधी महंगाई और सुशासन

वास्तव में बाजार हमारी समुची अर्थव्यवस्था का दर्पण है और इस दर्पण में सरकार और जनता का चेहरा होता है। जाहिर है महंगाई बढ़ती है तो दोनों की चमक पर इसका असर पड़ता है। खास यह भी है कि अगर महंगाई और आमदनी के अनुपात में बहुत बड़ा अंतर आ जाये तो जीवन असंतुलित होता है। कोविड-19 के चलते कमाई पर पहले ही असर पड़ चुका है और अब महंगाई किसी दुर्घटना से कम नहीं होगा। वैसे महंगाई को कई समस्याओं की जननी कहा जाये तो अतार्किक न होगा। रिज़र्व बैंक आॅफ इण्डिया का अनुमान है कि जनवरी से मार्च के बीच खुदरा महंगाई दर 6.5 फीसद तक आ सकती है और 1 अप्रैल से षुरू नये वित्त वर्श की पहली छमाही पर 5 से 5.4 के बीच इसके रहने का अनुमान है। गौरतलब है कि रिज़र्व बैंक का यह पूरा प्रयास रहता है कि मुद्रा स्फीति 2 से 6 प्रतिषत के बीच ही रहे ताकि महंगाई काबू में रहे और आर्थिक सुषासन को प्राप्त करना आसान हो। मगर इसे प्राप्त करने की चुनौती हमेषा रही है। गौरतलब है कि सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है और इसका पूरा ताना-बाना लोक सषक्तिकरण से है। महंगाई का मतलब सब्जी, फल, अण्डा, चीनी, दूध समेत तमाम रोज़मर्रा की उपयुक्त वस्तुओं का पहुंच से बाहर होना। हांलाकि अभी असर इतना गहरा नहीं हुआ मगर इसी में षुमार प्याज तो इन दिनों न केवल व्यवस्था को चुनौती दे रही है बल्कि जनमानस को भी रूला रही है।

बेषक देष की सत्ता पुराने डिजाइन से बाहर निकल गयी हो पर महंगाई पर काबू करने वाली यांत्रिक चेतना से अभी भी वह पूरी तरह षायद वाकिफ नहीं है। पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस महंगाई के आसमान में गोते लगा रहे हैं। तेल की महंगाई के लिए प्रधानमंत्री पिछली सरकारों को ऊर्जा आयात पर निर्भरता को कम न करने के चलते मध्यम वर्ग पर बोझ की बात कह रहे हैं। हांलाकि यह पड़ताल का विशय है कि इसकी हकीकत क्या है। तेल ने खेल तो बिगाड़ा है और प्याज ने जबरदस्त उछाल लिया है। यह संकेत है कि सुषासन का दावा कमोबेष यहां खोखला हुआ है। माना जा रहा है कि महाराश्ट्र में बेमौसम बरसात होने और ओले पड़ने के चलते प्याज की फसल खराब हो गयी। अमूमन ऐसा पहली बार नहीं है प्याज की महंगाई के पीछे यह वजह अक्सर सामने आती रही है। एषिया की सबसे बड़ी प्याज मण्डी महाराश्ट्र के नासिक के पास लासलगांव मण्डी है यहां की कहानी यह है कि सप्ताह भर के भीतर प्याज का औसत थोक भाव 970 रूपए कुंतल से 4200 से 4500 प्रति कुंतल के रिकाॅर्ड स्तर पर पहुंच गयी। गौरतलब है कि लासलगांव से देष भर में प्याज भेजा जाता है। अब जब वहीं यह महंगा हो गया तो रसोई पर इसका असर स्वाभाविक है। देष के कई हिस्सों में यह कम ज्यादा उछाल ले चुकी है। जो प्याज कुछ दिन पहले 20 से 30 रूपया प्रति किलो थोक भाव में बिक रही थी अब वह खुदरा बाजार में 50 से 60 रूपया प्रति किलो का स्वरूप ग्रहण कर चुकी है। प्याज के बिना काम चलता नहीं है और प्याज पर सियासत न हो ऐसा होता नहीं और जब तेल ने भी खेल बिगाड़ दिया हो तब तो सरकार के सुषासन पर बड़ा सवाल उठना लाज़मी है। 

महंगाई और सुषासन एक दूसरे के धुर विरोधी हैं। सुषासन जनता को सषक्त बनाती है जबकि महंगाई जनता को जमींदोज करती है। देष की आर्थिक स्थिति कितनी ही व्यापक और सुदृढ़ क्यों न हो। महंगाई से जनता की कमर टूटती ही है। गैरसंवेदनषीलता के कटघरे में भी यह सरकार को खड़ा करती रही है जबकि सुषासन से युक्त सरकारें महंगाई जैसी डायन से हमेषा जान छुड़ाने की फिराक में रहती हैं पर ऐसा हो नहीं पाता है। फिलहाल भोजन महंगा हो गया है और आमदनी अभी बेपटरी ही है। सरकार को तेल के साथ प्याज से भी निपटना होगा। कोरोना की मार झेल चुकी जनता पर कोई और मार न पड़े इसके लिए सरकार को माई-बाप के रूप में काम करना ही होगा। हम लोकतंत्र से बंधे हुए हैं और सरकार में भरपूर आस्था होती है। ऐसे में राहत देना सरकार की जिम्मेदारी है। कुछ आर्थिक विषेशज्ञों की मानें तो आने वाले महीनों में कार, घर या निजी ऋण के ब्याज की दरों में कटौती की जायेगी। असल में देष में कारोबार और बेरोज़गार को व्यापक पैमाने पर काम की आवष्यकता है। सारी फंसाद की जड़ कमाई का कम होना है और महंगाई आ जाये तो यह चैतरफा वार करती है। कोरोना काल में देष का घरेलू व्यापार अपने सबसे खराब दौर से गुजर चुका है और रिटेल व्यापार पर भी चारों तरफ से बुरी मार पड़ी। देष भर में लगभग 20 प्रतिषत दुकानों को बंद करने पर मजबूर होना पड़ा। फलस्वरूप बड़ी संख्या में बेरोज़गाड़ी बढ़ी। सबसे ज्यादा नुकसान अप्रैल 2020 में हुआ था। वैसे 2020 के वित्त वर्श की पहली छमाही में भारतीय खुदरा व्यापार को लगभग 19 लाख करोड़ रूपए के व्यापार घाटे का सामना करना पड़ा था। फिलहाल सबका साथ, सबका विकास और सबका विष्वास कायम रखने के लिए सरकार को महंगाई से मुक्ति और सुषासन से भरी थाली परोसने की कवायद करनी ही होगी। 


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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Wednesday, February 17, 2021

जीवन, जलवायु और सुशासन

जब उत्तराखण्ड के पहाड़ों पर हाड़ कप-कपाने वाली ठण्ड हो और बर्फबारी अपनी सुरूर पर, तब ग्लेषियर का टूटना केवल गम्भीर संकट का संकेत ही नहीं बल्कि इस बात का भी इषारा है कि जीवन, जलवायु और सुषासन को कायम रखने वाला दृश्टिकोण को भी व्यापक कर लेना चाहिए। गौरतलब है कि चीन की सीमा से जुड़े क्षेत्र चमोली जिले में 7 फरवरी को एक ग्लेषियर के टूटने से भारी तबाही मची जिसका असर चमोली के रेणी गांव से षुरू होकर ऋशिकेष व हरिद्वार तक देखने को मिला। इस घटना के चलते सैकड़ों लापता होने और मौत की कई घटनायें प्रकाष में आयीं और कईयों को बचाव टीम ने सुरक्षित भी निकाला जैसा कि प्रत्येक अप्रिय हादसों के बाद होता है। प्राकृतिक आपदा एक प्राकृतिक घटना है जो मानवीय गतिविधियों को प्रभावित करता है साथ ही मानव जीवन और सम्पत्ति को भी बड़े नुकसान की ओर धकेलता है। इसके रूप अनेक हैं पर हानि कमोबेष एक जैसी ही है। ज्वालामुखी, बाढ़, सुनामी, भूकम्प और चक्रवात समेत ग्लेषियर का टूटना, बादल का फटना आदि इसके रूप हैं। प्राकृतिक आपदा का सीधा सम्बंध प्रकृति की छेड़छाड़ से जुड़ा है और प्रकृति के साथ ऐसा खिलवाड़ जिस पैमाने पर होता रहेगा उसका ताण्डव धरती पर उसी स्तर पर दिखेगा। जिसके चलते तमाम जीव-जन्तु के लिए यह न केवल हानिकारक सिद्ध होता है बल्कि षासन और उसके सभी आयामों को चुनौती भी देता है। जिस मानक पर जलवायु परिवर्तन है वह जीवन निगलने के स्तर को मानो पार कर चुका है। जीवन और जलवायु के सम्बंध को बनाये रखना षासन के लिए चुनौती है पर इसे कायम रखना सुषासन का पर्याय है। 

वैज्ञानिक इस हादसे की पड़ताल करेंगे मगर सुषासन यह कहता है कि हादसे से जुड़ी बातों से षासन व जलवायु को समझने वाले अनजान नहीं हो सकते। ग्लोबल वार्मिंग के चलते ऐसे प्राकृतिक घटनाओं की आषंका पहले भी जताई जा चुकी है पर इसे लेकर चैकन्ना न रहने की गलती जब तक होती रहेगी हादसे होते रहेंगे। ग्लोबल वार्मिंग को रोकने का फिलहाल बड़ा इलाज किसके पास है यह कह पाना मुष्किल है मगर सावधान रहना अपने बूते की बात है। स्पश्ट षब्दों में कहा जाये तो ग्लोबल वार्मिंग दुनिया की कितनी बड़ी समस्या है यह आम आदमी समझ नहीं पा रहा है और जो खास हैं इसे जानते-समझते हैं मगर वो भी कुछ खास नहीं कर पा रहे हैं। सुषासन एक समझ है जो केवल आविश्कार या विकास पर बल नहीं देता बल्कि संतुलन को भी उतना ही स्थान देता है। सुषासन का पर्यावरण और जलवायु से गहरा नाता है। प्राकृतिक संदर्भों में पारिस्थितिकी के सापेक्ष विकास और समृद्धि का ताना-बाना सुषासन है और यही लोक कल्याण के काम भी आता है। जब यही पर्यावरण पारिस्थितिकी के विरूद्ध होता है तो तबाही के आलम के अलावा कुछ नहीं होता। आज के भूमण्डलीकरण के दौर में प्राकृतिक आपदा की बढ़ती तीव्रता कहीं न कहीं मानव और पर्यावरण का सम्बंध विच्छेद होने के चलते हुआ है। उत्तराखण्ड में पिछले दो दषक में सड़कों का निर्माण और विस्तार तेजी से बढ़ा है। इसके लिए भूवैज्ञानिक फाॅल्ट लाइन, भूस्खलन के जोखिम को भी हद तक नजरअंदाज किया गया है। विस्फोटक के इस्तेमाल, वनों की कटाई, भूस्खलन के जोखिम पर कुछ खास ध्यान न देना और जल निकासी संरचना का आभाव सहित कई सुरक्षा नियमों की अनदेखी भी आपदा को न्यौता दे रही है। पर्यटन और ऊर्जा की दृश्टि से उत्तराखण्ड एक उपजाऊ प्रदेष है जिसके लिए तीव्र विस्तार जारी है। आपदा प्रबंधन के आधारभूत नियमों की अनदेखी भी यहां घटनाओं को सहज उपलब्धता दे देता है।

गौरतलब है कि विभिन्न आकार की पनबिजली परियोजनाएं उत्तराखण्ड में क्रियान्वयन के विभिन्न स्तरों पर हैं इनमें से कुछ चलायमान तो कुछ निर्माणाधीन हैं। कुछ तो मंजूरी की प्रतीक्षा में हैं। उक्त के चलते पर्यावरण और सामाजिक जीवन का ताना-बाना भी उथल-पुथल में है साथ ही प्राकृतिक आपदा को लेकर भी यहां अंदेषा बना रहता है। इसी में से एक रेणी गांव में हुआ हादसा है। जहां मौजूदा समय में बचाव कार्य जारी है सुरंग में फंसे लोगों की जिन्दगी की उम्मीद भी खत्म होती जा रही है। अब तो यहां जीवन के बदले षव मिल रहे हैं। इस घटना के मामले में पूर्व में ऐसा कोई संकेत नहीं था। यहां हिमखण्ड टूटने के चलते धौेलीगंगा में सैलाब आ गया और तपोवन की बिजली परियोजना पर कहर बन कर टूटा और यह तबाही नदियों के सहारे आगे बढ़ गयी। गौरतलब है कि उत्तराखण्ड की नदियों में बीते 150 सालों में विनाषकारी बाढ़ आती रहीं। जिसमें गंगा में सबसे बड़ी बाढ़ 1924 में आयी थी। औपनिवेषिक सत्ता के उन दिनों में साल 1868 में चमोली जिले में ही बिरही की सहायक नदी में भूस्खलन से झील बनी और जब यह साल भर बाद टूटी तो बड़ा जान-माल का नुकसान हुआ। 1893 में इसी नदी में चट्टान गिरने से तालाब बना और बाद में जब यह टूटा तो हरिद्वार तक तबाही हुई थी। इसके अलावा उत्तराखण्ड के अलग-अलग क्षेत्रों में हादसों का सिलसिला कमोबेष देखा जा सकता है। 2013 के केदारनाथ आपदा को अभी भी कोई भूला नहीं है। 16 जून 2013 को चैराबाड़ी ताल टूटने से मंदाकिनी में बाढ़ आ गयी। केदारनाथ घाटी में नुकसान और रामबाड़ा तहस-नहस हो गया। केदारनाथ आपदा इतनी बड़ी थी कि इसकी विपदा उत्तराखण्ड समेत 22 राज्यों को झेलनी पड़ी थी।

आपदा एक आकस्मिक घटना है जिससे हानि होना लाज़मी है। बस देखने वाली बात यह होती है कि बचाव कार्य की सफलता दर क्या है। उत्तराखण्ड के मामले में बचाव दल ने जो तेजी दिखाई वह काबिल ए तारीफ है पर मुष्किल परिस्थितियों में चपेट में आये सभी लोग सुरक्षित बचाये जा सकें ऐसा कम ही हो पाता है। ईमानदार पक्ष यह है कि कुछ समस्यायें प्रकृति की बनावट में हैं कुछ हमारी योजनाओं और परियोजनाओं के साथ मानव अतिक्रमण का है। पृथ्वी 4.5 अरब वर्श पुरानी है जाहिर है यह कई रूप ले चुकी है और रूपांतरण की क्रिया अभी भी जारी है। मानव अपने निजी लाभों के लिए हस्तक्षेप बढ़ाकर प्रकृति को तेजी से बदलने के लिए मजबूर कर रहा है और हादसे इसके भी नतीजे हैं। सुषासन एक ऐसा पहल से भरा दृश्टिकोण है जिसमें समग्रता का पोशण होता है। जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटना और पृथ्वी को बचाना साथ ही पर्यावरण के साथ अनुकूलन स्थापित करना इत्यादि गुण सुषासन में आते हैं। षासन को चाहिए कि विकास और समृद्धि की ऐसी नीतियां बनाये पर्यावरणीय हादसे से परे हो। वैज्ञानिक विधा और प्रविधि को कहीं अधिक उपयोगी बनाकर संवेदनषीलता को पहचान कर इसकी चुनौती से बचा जा सकता है और हादसे को समाप्त तो नहीं पर कम तो किया ही जा सकता है।


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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शोध व नवाचार में कहाँ खड़ा है भारत

शोध व नवाचार को लेकर मानस पटल पर दो प्रष्न उभरते हैं। प्रथम यह कि क्या विष्व परिदृष्य में तेजी से बदलते घटनाक्रम के बीच उच्चत्तर षिक्षा, षोध और ज्ञान के विभिन्न संस्थान स्थिति के अनुसार बदल रहे हैं। दूसरा क्या अर्थव्यवस्था, दक्षता और प्रतिस्पर्धा के मामले में तकनीक के इस दौर में नवाचार का पूरा लाभ आम जनमानस को मिल रहा है। गौरतलब है कि किसी भी देष का विकास वहां के लोगों के विकास से जुड़ा होता है और इसमें षोध की अहम भूमिका होती है। षोध और अध्ययन-अध्यापन के बीच न केवल गहरा नाता है बल्कि षोध ज्ञान-सृजन और ज्ञान को परिश्कृत करने के काम भी आता है। मौजूदा समय में देष में सभी प्रारूपों के कुल 998 विष्वविद्यालय हैं जिनके ऊपर न केवल ग्रेजुए, पोस्ट ग्रेजुएट और डाॅक्टरेट की डिग्री देने की जिम्मेदारी है बल्कि भारत विकास व निर्माण के लिए अच्छे षोधार्थी भी निर्मित करने का दायित्व है और यह कितनी ईमानदारी से निभाया जा रहा है यह पड़ताल का विशय है। समग्र सरकार के कार्यकलाप सरकार के सभी या किसी स्तर तक हो सकते हैं। षोध कार्यों का बढ़ावा देना सरकार की प्राथमिकता में तो होना ही चाहिए साथ ही नवाचार को सुनिष्चित करने के लिए संस्थागत व वित्तीय संदर्भों में भी पीछे नहीं रहना सही रहेगा। मौजूदा बजट में इसकी उपस्थिति भारत को षोध और नवाचार में दुनिया के मुकाबले एक बढ़ा हुआ मुकाम दे सकती है।

वैसे एक सच्चाई यह भी है कि उच्च षिक्षा में षोध को बहुत गम्भीरता से नहीं लिया जाता क्योंकि यह एक समय साध्य और धैर्यपूर्वक अनुषासन में रहकर किया जाने वाला उपक्रम है जिसके लिए मन का तैयार होना जरूरी है। पीएचडी की थीसिस यदि मजबूती से विकसित की गयी हो तो यह देष के नीति-निर्माण में भी काम करती है पर यह मानो दूर की कौड़ी है। कुछ उच्च षिक्षण संस्थाओं में षोध कराने वाले और षोध करने वाले दोनों ज्ञान की खामियों से जूझते देखे जा सकते हैं। इसकी एक बड़ी वजह डिग्री और धन का नाता होना भी है। द टाइम्स विष्व यूनिवर्सिटी रैंकिंग 2020 के अनुसार इंग्लैण्ड की यूनिवर्सिटी आॅफ आॅक्सफोर्ड षीर्श पर है जबकि दुनिया के षीर्श 200 विष्वविद्यालय में भारत का एक भी विष्वविद्यालय नहीं है। यह देष की उच्च षिक्षा की कमजोर तस्वीर है। ऐसे में षोध का स्वतः कमजोर होना लाज़मी है। षिक्षाविद् प्रो0 यषपाल ने कहा है कि जिन षिक्षण संस्थाओं में अनुसंधान और उसकी गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया जाता, वो न तो षिक्षा का भला कर पाते हैं और न ही समाज का। 

दो टूक यह भी है कि क्या युवा षोध और नवाचार को लेकर कैरियर बनाने के प्रति उत्सुक हैं। यह सवाल आमतौर पर तैरता हुआ मिल जायेगा कि सिविल सेवा व अन्य प्रषासनिक पदों में जो मान-सम्मान है वह षोध में नहीं तो फिर ऐसे में रूझान खतरे में रहेंगे साथ ही आर्थिक तंगी भी इसका प्रमुख कारण है। षोध से ही ज्ञान के नये क्षितिज विकसित होते हैं बावजूद इसके भारत में षोध की मात्रा और गुणवत्ता दोनों ही चिंतनीय हैं। पड़ताल बताती है कि अनुसंधान और विकास में सकल व्यय वित्तीय वर्श 2007-08 की तुलना में 2017-18 तक यह लगभग तीन गुने की वृद्धि लिये हुए है। फिर भी अन्य देषों की तुलना में भारत का षोध विन्यास और विकास कमतर ही रहा है। भारत षोध व नवाचार पर अपनी जीडीपी का 0.7 फीसद ही व्यय करता है जबकि चीन 2.1 और अमेरिका 2.8 फीसद खर्च करता है। इतना ही नहीं दक्षिण कोरिया और इज़राइल जैसे देष इस मामले में 4 फीसद से अधिक खर्च के साथ कहीं अधिक आगे हैं। हालांकि केन्द्र सरकार ने देष में नवाचार को बढ़ावा देने के लिए 1 फरवरी 2021 को संसद में पेष किये गये केन्द्रीय बजट साल 2021-22 में आगामी 5 वर्शों के लिए नेषनल रिसर्च फाउंडेषन हेतु 50 हजार करोड़ रूपए आबंटित किया है। साथ ही कुल षिक्षा बजट में से उच्च षिक्षा के लिए भी 38 हजार करोड़ रूपए से अधिक खर्च की बात देखी जा सकती है जो षोध और उच्च षिक्षा के लिहाज़ से एक सकारात्मक और मजबूत पहल है। इसी दिषा में राश्ट्रीय विज्ञान प्रौद्योगिकी और नवाचार नीति (एसटीआईपी) 2020 का मसौदा भी इस दिषा में बड़ा कदम है जो 2013 की ऐसी ही नीति का स्थान लेगी। उपरोक्त बिन्दु षोध और षिक्षा की दृश्टि से सजग भारत की तस्वीर पेष करते हैं।

जीवन के हर पहलू में ज्ञान-विज्ञान, षोध और षिक्षा की अहम भूमिका होती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि भारतीय वैज्ञानिकों का जीवन और कार्य प्रौद्योगिकी विकास के साथ राश्ट्र निर्माण का षानदार उदाहरण है। बीते वर्शों में भारत एक वैष्विक अनुसंधान एवं विकास हब के रूप में तेजी से उभर रहा है। देष में मल्टीनेषनल रिसर्च एण्ड डवलेपमेंट केन्द्रों की संख्या 2010 में 721 थी और अब यह 1150 तक पहुंच गयी है साथ ही वैष्विक नवाचार के मामले में भी यह 57वें स्थान पर है। भारत में प्रति मिलियन आबादी पर षोधकत्र्ताओं की संख्या साल 2000 में जहां 110 थी अब वही 2017 तक 255 हो गयी। भारत वैज्ञानिक प्रकाषन वाले देषों की सूची में तीसरे स्थान पर है। पेटेंट फाइलिंग गतिविधि के मामले में 9वें स्थान पर है। भारत में कई अनुसंधान केन्द्र हैं और प्रत्येक केन्द्र का अपना कार्यक्षेत्र है। चावल, गन्ना, चीनी से लेकर पेट्रोलियम, सड़क और भवन निर्माण के साथ पर्यावरण, वैज्ञानिक अनुसंधान और अंतरिक्ष केन्द्र तक देखे जा सकते हैं। ऐसे केन्द्रों के षोध और अनुसंधान व नवाचार पर देष के नागरिकों की प्रगति टिकी हुई है। भारत में नई षिक्षा नीति 2020 और उच्च षिक्षा में सुधार के लिए आयोग बनाने की पहल और एसटीआईपी 2020 जैसे मसौदे षोध और नवाचार के लिए मील का पत्थर सिद्ध हो सकते हैं बषर्ते समर्पण में कमी न हो तो। 


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

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महंगाई से ज़मींदोज़ होता जनमानस !

आत्मनिर्भर भारत भी आ गया और लोकप्रिय सरकार भी है बावजूद इसके जनमानस का रक्तचाप क्यों बढ़ा है। यह सवाल जितनी संजीदगी से उठा है उतनी ही संवेदना के साथ इसका जवाब भी हो तो ठीक रहेगा। जीवन के कोर में जब महंगाई डंक मारती है तो जनता चैतरफा चोटिल हो जाती है। एक तरफ सेंसेक्स आसमान छू रहा है तो दूसरी ओर महंगाई से जनमानस जमींदोज हो रहा है। हालांकि महंगाई आती और जाती रहती है मगर एक सीमा तक जनता महंगाई को झेल लेती है। स्थिति तब अधिक बिगड़ जाती है जब वस्तु विषेश की दोबारा खरीदारी करते समय कुछ ही दिनों में तुलनात्मक बढ़ी हुई कीमत देनी पड़ती है। देष की सरकार हो या नीति नियोजक या फिर कोई निकाय ही क्यों न हो इस बात पर जरूर ध्यान देना चाहिए कि गरीब और गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों के लिए महंगाई अस्तित्व के लिए ही खतरा बन जाती है।

कच्चे तेल की कीमत जब कम होती है तब भी राहत नहीं मिलती उसका बड़ा कारण केन्द्र सरकार द्वारा  भारी भरकम एक्साइज़ ड्यूटी और राज्यों द्वारा वैट लगाकर अपनी-अपनी तिजोरियां भरा जाना है। आम आदमी डीजल और पेट्रोल की बढ़ी कीमत से खासा दिमाग पर बल डालता है। डीजल की बढ़ी कीमत लगभग पेट्रोल के इर्द-गिर्द होना अपने आप में अप्रत्याषित है और इससे महंगाई का बढ़ना लाज़मी है। रसोई गैस भी आसमान छू रही है पहले कमाई खतरे में अब खान-पान भी महंगा होना दोहरी मार है। खास यह भी है कि देष में महंगाई को लेकर जनमानस के पेट पर बल तो है पर इस भरोसे के चलते कि एक दिन सरकार इससे मुक्ति देगी यह उसका संयम ही है। ऐसा नहीं है कि कच्चे तेल की कीमत बढ़ने से ही पेट्रोल, डीजल के दाम बढ़ते हैं। ये तो सरकार के नीति और नीयत से भी तय होते हैं। गौरतलब है कि कोरोना के समय में जब कच्चा तेल अपने न्यूनतम स्तर 18 डाॅलर प्रति बैरल था तब सरकार ने पेट्रोल पर 10 रूपए और डीजल पर 13 रूपए एक्साइज़ ड्यूटी लगा कर इसके सस्ते होने की गुंजाइष को 5 मई 2020 को खत्म कर दिया था फिलहाल वर्तमान में यह 55 रूपए प्रति बैरल है।

पड़ताल बताती है कि 2014 में जब कच्चे तेल के दाम गिरने लगे तब यह सोच विकसित हो गयी थी कि तेल कम्पनियां इसका मुनाफा जनता को देंगी पर ऐसा नहीं हुआ। हकीकत तो यह है कि कच्चे तेल की कीमत गिरती रही और सरकार ड्यूटी बढ़ाती रही। गौरतलब है कि 150 रूपए प्रति बैरल से ऊपर भी तेल की कीमतें गई हैं फिर भी तेल इतना महंगा कभी नहीं रहा। यह कहना गैर वाजिब नहीं होगा कि सरकार को भी अपनी अर्थ नीति का मापतौल ठीक से करना चाहिए ताकि लोकप्रिय सरकार होने का जज़्बा बरकरार रहे। ऐसा इसलिए भी कि जिस तपती धूप में अपना वोट देकर जनता उसे सत्तासीन करती है उसकी भी ताकत महंगाई से छिन्न-भिन्न न हो।

गौरतलब है कि कोविड-19 के चलते अर्थव्यवस्था बेपटरी है हालांकि दिसम्बर 2020 में 1 लाख 15 हजार करोड़ से अधिक जीएसटी की वसूली और जनवरी 2021 में 1 लाख 20 हजार करोड़ से अधिक जीएसटी का कोश में जमा होना आर्थिक सुषासन के लिए बेहतरीन संकेत है जबकि अप्रैल 2020 में यह आंकड़ा सिमट कर 26 हजार करोड़ तक चला गया था। वैसे सरकारें यह दावा करती हैं कि लोक कल्याण को ध्यान में रखकर बड़े राजस्व की ओर उनका झुकाव लाज़मी है। इन दिनों डीजल और पेट्रोल सरकार का कोश भरने का काम कर रहे हैं। ऐसे में यह कमाई का अच्छा जरिया है तो फिर उन्हें महंगाई क्यों लगेगी। गौरतलब है कि एक लीटर पेट्रोल की कीमत यदि एक रूपया कम कर दिया जाये तो सरकार के खजाने में 13 हजार करोड़ का नुकसान तय है। सरकारें जानती हैं कि यह कमाई का सुलभ और आसान रास्ता है। भले ही जनता का इससे रक्तचाप ही क्यों न बढ़े। फिलहाल सबसे ज्यादा बार और एक साथ ज्यादा एक्साइज़ ड्यूटी लगाने वाली मौजूदा सरकार यदि कोई जनहित में बड़ा कदम उठाना चाहती है तो वर्तमान में लोगों के रसोई और उसके अस्तित्व के लिए संघर्श पर गौर करना चाहिए।



डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

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विनिवेश से आर्थिक सुशासन की राह का समतल किया जाना

 सुषासन विश्व बैंक द्वारा निर्गत एक अवधारणा है जिसकी परिभाशा कहीं अधिक आर्थिक है। लोक कल्याण को पाने के लिए आर्थिक पहलू को सजग करना सरकार का सकारात्मक कदम होता है मगर विनिवेष का यह तात्पर्य नहीं कि मुनाफे की कम्पनियों को भी दर-बदर कर दिया जाये। 1989 की फ्राॅम स्टेट टू मार्केट की रिपोर्ट में भी सरकार के दखल को कम करने और बाजार के विस्तार को इंगित करने का संकेत साफ-साफ दिखता है। 1991 का उदारीकरण आर्थिक सुषासन का एक बड़ा परिमाप था पर विनिवेष से दूर था। वैसे भारत में विनिवेष का इतिहास बाल्को कम्पनी जो घाटे में थी से षुरू होता है तब यह पहल तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने की थी और पहली बार इसके लिए विनिवेष मंत्रालय बनाया गया था। मगर 2004 में मंत्रालय समाप्त कर दिया गया। मौजूदा मोदी सरकार विनिवेष पर पूरा जोर लगा रही है। वित्त मंत्री ने 1 फरवरी 2021 में बजट पेष करने के दौरान षीघ्र ही एलआईसी का आईपीओ लाने की बात कही है। गौरतलब है कि देष में सबसे बड़ा आईपीओ लाने की बात तेज हो गयी है। वहीं माना जा रहा है कि अगले वित्त वर्श में सरकार बीपीसीएल और एयर इण्डिया में भी अपनी हिस्सेदारी बेच सकती है। प्रमुख बंदरगाह न्यास, भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण समेत नोटों व सिक्कों की छपाई-ढलाई में लगी कम्पनियों जैसे चुनिंदा सरकारी उपक्रम रणनीतिक विनिवेष नीति के दायरे से बाहर रखे गये हैं। बजट में आत्मनिर्भर भारत के तहत नई सार्वजनिक उपक्रम विनिवेष नीति की घोशणा की गयी। जिन उपक्रमों का विनिवेष करने का प्रस्ताव है उनमें केन्द्रीय सार्वजनिक बैंक और सरकारी बीमा कम्पनियां षामिल हैं। गौरतलब है साल 2020 के बजट में विनिवेष के जरिये 2 लाख 10 हजार करोड़ रूपए कमाने का लक्ष्य तय किया गया था लेकिन कोरोना की वजह से मोदी सरकार चालू वित्त वर्श में विनिवेष के जरिये कमाई के ये लक्ष्य अभी तक पूरे नहीं कर पायी है। हालांकि फरवरी और मार्च इस वित्त वर्श का षेश है पर खास यह भी है कि अभी तक तय लक्ष्य का सिर्फ 20 फीसद ही कमाई हो पायी है और यह आंकड़ा यदि 40 हजार करोड़ तक ही रह जाता है जो कि हो सकता है तो यह पिछले 5 साल में विनिवेष के जरिये कमाई का सबसे कम आंकड़ा होगा। स्पश्ट है कि आर्थिक सुषासन की राह उबड़-खाबड़ ही रह सकती है जबकि 2021 का बजट में राजकोशीय घाटा आसमान छू रहा है।

जिन अर्थव्यवस्थाओं के जीडीपी में कमी, प्रति व्यक्ति आय में गिरावट और जनसंख्या आधिक्य के साथ गरीबी व बेरोज़गारी उठान लिये हो, सामान्यतः उसे विकासषील अर्थव्यवस्था का दर्जा दिया गया है। मगर भारत जिसकी अर्थव्यवस्था मौजूदा समय में लगभग तीन ट्रिलियन डाॅलर की हो और 2024 तक 5 ट्रिलियन डाॅलर की उम्मीद लिये हो। वहां आर्थिक सुस्ती, मंदी, जीडीपी में गिरावट, रोज़गार का छिन जाना समेत कई नकारात्मकता के चलते अर्थव्यवस्था रूग्णावस्था में हो, बात पचती नहीं है। वर्तमान अर्थव्यवस्था को कोविड-19 ने जो मार दी है उसके चलते आर्थिक सुषासन कहीं और चोटिल हुआ है। सार्वजनिक उपक्रमों में सरकार की हिस्सेदारी बेचने की प्रक्रिया विनिवेष का डिसइन्वेसटमेंट कहलाती है। कई कम्पनियों में सरकार की काफी हिस्सेदारी है। आमतौर पर इन कम्पनियों को सार्वजनिक उपक्रम या पीएसयू कहते हैं। अब अर्थव्यवस्था के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों को देखते हुए सरकार द्वारा विनिवेष को तेजी से आजमाया जा रहा है। जाहिर है इससे सरकार को अतिरिक्त राजस्व मिलेगा पर इस हकीकत को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता कि एक सीमा के बाद इसके कई साइड इफेक्ट भी हो सकते हैं। लाभ वाली सरकारी कम्पनियों में विनिवेष के मोर्चे पर सरकार का इरादा यह जताता है कि आर्थिक राह उनके लिए कठिन बनी हुई है। समय-समय पर सरकार सार्वजनिक उपक्रमों में अपनी हिस्सेदारी घटाने का फैसला लेती रहती है। अक्सर आम बजट में सरकार वित्त वर्श के दौरान विनिवेष का लक्ष्य तय करती है। ऐसा ही लक्ष्य 1 फरवरी 2021 के बजट में आगामी वित्त वर्श में भी एक लाख 75 हजार करोड़ की उगाही का लक्ष्य रखा गया है। 

गौरतलब है कि साल 2019 में विनिवेष को लेकर सरकार ने कुछ प्रक्रियागत कदम उठाने की बात की थी। बड़ी बात यह है कि नाॅर्दन-ईस्टर्न इलेक्ट्रिक पावर काॅरपोरेषन में सौ फीसद विनिवेष जबकि काॅनकाॅर में 30.8 प्रतिषत हिस्सेदारी बेचने का फैसले वाला इरादा बताता है कि लाभ वाली सरकारी कम्पनियों में भी विनिवेष का पहल बाकायदा निहित है। भारत पेट्रोलियम समेत 5 कम्पनियां भी विनिवेष की राह पर रही हैं। दरअसल उस दौर में मुनाफे में चल रही भारतीय पेट्रोलियम का हिस्सा बेचने से मिलने वाली 60 हजार करोड़ की मोटी रकम पर सरकार की नजर थी और इन सभी का विनिवेष मार्च 2020 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया था। तब 1 लाख करोड़ रूपए से कुछ अधिक हासिल करने का संदर्भ था जो एक महीने की जीएसटी के रकम के आस-पास है। कोविड-19 के चलते अर्थव्यवस्था बेपटरी हुई है और खर्च बेषुमार बढ़ा है पर इन सबके बाद एक सुखद बात यह है कि दिसम्बर 2020 में जीएसटी से वसूली एक लाख 15 हजार से अधिक और जनवरी 2021 में यह आंकड़ा एक लाख 20 हजार करोड़ को पार कर गया। 1 जुलाई 2017 से अब तक यह आंकड़े रिकाॅर्ड स्तर को पार करते हैं। जाहिर है इसी दिन और वर्श जीएसटी पहली बार देष में लागू हुआ था। इस बार तो आर्थिक सुषासन बेपटरी है ऐसे में इस खामी की भरपाई के लिए सम्भव है कि विनिवेष प्रक्रिया तेज होगी और धन जुटाने में सरकार कोई कोर-कसर षायद ही छोड़े। इसका एक बड़ा उदाहरण देष में डीजल और पेट्रोल की बढ़ी कीमतों को भी देखा जा सकता है। इन दिनों तेल की बिकवाली रिकाॅर्ड महंगाई पर है और केन्द्र सरकार जहां लगभग 33 रूपए एक्साइज़ ड्यूटी एक लीटर पेट्रोल पर वसूल रही है तो वहीं 19 रूपए राज्यों द्वारा वसूले जाने वाला वैट जनता के आम जीवन पर व्यापक असर डाल चुका है। इस समय तेल का खेल जिस कदर विस्तार लिया है सरकार का खजाना भर रहा है और जनता कराह रही है।

ये जाहिर है कि केन्द्र सरकार ने अपने वायदे के मुताबिक सरकारी कम्पनियों ने अपने विनिवेष का फैसला किया है। असल में सरकार का मकसद है बिगड़ी आर्थिक स्थिति को स्वस्थ करने के लिए अपनी हिस्सेदारी कम कर लिया जाये और मन-माफिक फण्ड जुटा लिया जाये लेकिन दुविधा यह भी है कि जब सरकार की हिस्सेदारी गिरेगी तो कई और मामलों में प्रभाव पड़ेगा मसलन कामगारों में छंटाई और आउटसोर्सिंग समेत ठेका व्यवस्था में बढ़ोत्तरी हो सकती है इससे नई नौकरियों की संख्या में गिरावट और पुराने कामगारों के बेरोज़गार होने का संकट बन सकता है। ऐसे में सरकार को अपने नागरिकों की चिंता के लिए विनिवेष के साथ ऐसे भी नियम रखने की आवष्यकता है ताकि इस प्रकार के संकट से बचा जा सके। वैसे देखा जाये तो आर्थिक सुषासन जब तक मजबूत नहीं होगा तब तक लोक कल्याण की राह समतल नहीं होगी। ऐसे में घाटे में चल रही कम्पनियों का विनिवेष गैर वाजिब नहीं है पर मुनाफे की कम्पनियों के विनिवेष का अपना एक साइड इफेक्ट हो सकता है। 


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

संतुलन और सुशासन पर कितना खरा बजट

बजट देष का आर्थिक आईना होता है जो सभी वर्गों को अपनी-अपनी सूरत निहारने का अवसर देता है। चाहे कृशि क्षेत्र हो, सेवा हो या फिर उद्योग क्षेत्र हो सभी के ताने-बाने से यह युक्त होता है। इतना ही नहीं हर वर्श का बजट सुषासन की एक नई पटकथा लिए रहता है पर जमीन पर कितना खरा उतरता है इसकी पूरी गाथा समझने के लिए विगत् वर्शों की बजटीय स्थिति और उसके क्रियान्वयन से आंकलन किया जा सकता है। प्रासंगिक परिप्रेक्ष्य यह है कि साल 2020 पूरी तरह कोविड-19 का षिकार रहा ऐसे में 2021 सभी की उम्मीदों से दबा हुआ है। इसी के चलते इस बार के बजट से चोटिल अर्थव्यवस्था को मरहम के रूप में देखा जा रहा है। चूंकि स्वास्थ पर गाज ज्यादा गिरा है ऐसे में सरकार ने बजट में स्वास्थ और कल्याण क्षेत्र के लिहाज़ से 2 लाख 23 हजार करोड़ से अधिक खर्च करने का साल 2021-2022 में इरादा जताया है। जो पिछले वित्त वर्श की तुलना में 137 फीसद अधिक है। गौरतलब है कि बजट के 6 स्तम्भ हैं जिसमें स्वास्थ व कल्याण, भौतिक संरचना, आकांक्षी भारत के लिए समावेषी विकास समेत नवाचार एवं अनुसंधान व षोध एवं विकास तथा न्यूनतम सरकार और अधिकतम षासन की परिकल्पना निहित है। एमएसएमई, मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर और मेक इन इण्डिया को बढ़ावा देकर रोज़गार और अर्थव्यवस्था दोनों को मजबूत करने का जहां प्रयास किया गया है वहीं 2024 तक 5 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था का मार्ग भी ढूंढने की भी कोषिष है। हालांकि पिछले कई बजट में ऐसी कोषिषें रहीं हैं पर रोज़गार की राह कभी भी समतल नहीं रहीं। तमाम प्रयासों के बावजूद रोज़गार के मोर्चे पर खरे उतरने की चुनौती सरकार के सामने बरकरार रही है। 

आत्मनिर्भर भारत बजट के केन्द्र में था। गौरतलब है आत्मनिर्भर भारत की परिकल्पना पिछले साल मई 2020 में आई थी साथ ही लोकल को वोकल की धारणा भी कोरोना काल में ही विकसित हुई। मई 2020 की 20 लाख करोड़ रूपए का राहत पैकेज की संलग्नता भी बजट में काफी हद तक मिश्रित दिखाई देती है। वायु प्रदूशण से मुक्ति के लिए बजट में 2 हजार करोड़ रूपए से अधिक का प्रावधान सहित रोड़ और इकोनोमिक काॅरिडोर, पूंजीगत खर्च, परिवहन पर व्यय, मेक इन इण्डिया पर जोर और आधारभूत ढांचा मजबूत करने का इरादा यहां झलकता है। बजट और सुषासन का गहरा नाता है। नियम भी यह कहता है कि संचित निधि यदि पूंजी से भरी है तो नीतियों को बनाना और उसे जमीन पर उतारना एक आसान विधा है। ऐसी स्थिति को लोक कल्याण से कहीं अधिक युक्त करार दिया जा सकता है जो सुषासन को परिभाशित करता है। देष में साढ़े छः लाख गांव हैं और यहां के बुनियादी विकास के लिए 40 हजार करोड़ रूपए व्यय करने की बात कही गयी जो विकास के लिहाज़ से कमतर है। दिल्ली की सीमा पर किसान व्यापक पैमाने पर आंदोलित है। जिन मण्डियों के खत्म होने का डर किसानों को सता रहा था इस बजट में यह संकेत मिल रहा है कि ऐसा डर वाजिब नहीं है। बजट में प्रावधान है कि एक हजार नई मण्डियां खोली जायेंगी जो इंटरनेट से कनेक्टेड होंगी अर्थात् ई-नैम को यहां बढ़ावा देने की बात है। न्यूनतम समर्थन मूल्य को बरकरार रखने का दावा बजट में दिखता है। लागत से डेढ़ गुना कीमत देने की बात यहां फिर दोहरायी गयी है और 2022 में आमदनी दोगुनी की बात भी बजट में गूंज रही है। गौरतलब है कि वित्त मंत्री सीतारमण ने कहा कि सरकार किसानों के कल्याण के लिए प्रतिबद्ध है मगर एक हकीकत यह भी है कि किसान देष का बहुत बड़ा वोट बैंक है ऐसे में इस वर्ग को न तो नजरअंदाज किया जा सकता है और न ही नाराज़ किया जा सकता है। बावजूद इसके कथनी और करनी में अंतर रहा है। हर साल एक नया बजट आता है सभी को सपने दिखाता है मगर पूरा कितना होता है यह सवाल कहीं गया नहीं है। जिस तरह कोरोना में अर्थव्यवस्था चैपट हुई है उसे देखते हुए यह सब हो पायेगा संषय गहरा बना हुआ है। हालांकि दिसम्बर 2022 में एक लाख 15 हजार करोड़ और जनवरी 2021 में एक लाख 20 हजार करोड़ रूपए की जीएसटी की वसूली आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ता की ओर जाते दिखाई देती है। 

बजट से सुषासन को ही प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है मगर मध्यम वर्ग को इस बजट से कुछ खास मिला नहीं। टैक्स स्लैब ज्यों का त्यों बरकरार है उम्मीद की जा रही थी कि नौकरीपेषा और आम मध्यम वर्ग को टैक्स में राहत देकर सरकार उन्हें कोरोना की पीड़ा से कुछ मुक्त करेगी पर यह सब नहीं हुआ। इसमें कोई दो राय नहीं कि सभी को सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती ऐसे में स्वरोजगार को बढ़ावा देने वाला स्टार्टअप हो इस बजट में मजबूत करने का प्रयास दिखता है। उल्लेखनीय है कि कोरोना के समय में स्टार्टअप भी आर्थिक आभाव में काफी बंद हो गये थे। आर्थिक सर्वेक्षण यह बताते हैं कि साल 2011-2012 से लेकर 2017-2018 के बीच ढ़ाई करोड़ से थोड़े अधिक को नौकरी मिली है जो संगठित क्षेत्र से सम्बंधित है। फिलहाल इस बजट में सोना, चांदी जहां कस्टम ड्यूटी के कम होने से सस्ते होंगे वहीं मोबाइल पार्ट्स पर कस्टम ड्यूटी ढ़ाई फीसद बढ़ने से मोबाइल महंगे हो जायेंगे जबकि देष में मोबाइल का कारोबार तेजी से बढ़ रहा है और इसकी जरूरत भी बढ़ी है इसके पीछे आॅनलाइन षिक्षा समेत सभी प्रकार के आॅनलाइन कारोबार देखे जा सकते हैं। जाहिर है यहां भी जनता की जेब थोड़ी ढ़ीली होगी। इस बजट की एक खास बात यह भी है कि उज्जवला योजना के तहत एक करोड़ और लाभार्थियों को जोड़ा जायेगा अभी तक 8 करोड़ लोग इस योजना का लाभ उठा रहे हैं। जम्मू-कष्मीर में गैस पाइपलाइन योजना की षुरूआत और लेह में केन्द्रीय विष्वविद्यालय का खोलना दोनों केन्द्रषासित एक सौगात देने का प्रयास है। मगर पेट्रोल और डीजल की बेतहाषा बढ़ती महंगाई पर बजट में कोई चर्चा नहीं की गयी। जबकि अनुकूलित प्रष्न यह है कि जब तक पेट्रोलियम पदार्थ आसमान छुंएगे तब तक आम जनता को महंगाई से षायद ही राहत मिले। इतना ही नहीं वन टैक्स, वन नेषन की बात कही जाती है मगर पेट्रोल व डीजल को इसके दायरे में लाना अभी मुमकिन नहीं हो पाया है। 

फिलहाल बजट कई प्रावधानों से भरा है जिसमें साइबर सुरक्षा से लेकर आंतरिक सुरक्षा का भाव भी देखा जा सकता है। बजट में वित्तीय घाटा बढ़ा हुआ है जो मौजूदा समय में 9.5 फीसद है। जिसे आगे 6.8 और 2025-26 तक 5 फीसद से कम पर लाया जाना तय किया गया। अर्थव्यवस्थाा के हालात को देखते हुए राजकोशीय घाटा होना लाज़मी है तत्पष्चात् बजटीय घाटा सुनिष्चित है। इनसे निपटना भी सरकार के लिए आने वाले वर्शों में बड़ी चुनौती होगी। सुषासन एक आर्थिक परिभाशा है जो बिना वित्त के समतल नहीं हो सकती है। आपदा कोश को 5 हजार करोड़ से बढ़ाकर 30 हजार करोड़ करना इस बजट की खूबी है जो सुषासन की राह को आने वाले दिनों में और चिकना करने के काम आयेगा। बीमारियों की रोकथाम बजट का सबसे बड़ा लक्ष्य है और आत्मनिर्भर भारत योजना के सांचे में इसे फिट करने का प्रयास किया गया जो कहीं उम्मीदों पर खरा व संतुलित उतरता है तो कहीं नाउम्मीद भी करता है।



डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

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