Thursday, October 17, 2019

समावेशी विकास में सुशासन की भूमिका

स्वतंत्रता दिवस के दिन अगस्त 2015 में प्रधानमंत्री मोदी सुषासन के लिए आईटी के व्यापक इस्तेमाल पर जोर दिया था तब उन्होंने कहा था कि ई-गवर्नेंस आसान, प्रभावी और आर्थिक गवर्नेंस भी है और इससे सुषासन का मार्ग प्रषस्त होता है। गौरतलब है कि सुषासन समावेषी विकास का एक महत्वपूर्ण जरिया है। समावेषी विकास के लिए यह आवष्यक है कि लोक विकास की कुंजी सुषासन कहीं अधिक पारंगत हो। प्रषासन का तरीका परंपरागत न हो बल्कि ये नये ढांचों, पद्धतियों तथा कार्यक्रमों को अपनाने के लिए तैयार हो। आर्थिक पहलू मजबूत हों और सामाजिक दक्षता समृद्धि की ओर हों। स्वस्थ नागरिक देष के उत्पादन में वृद्धि कर सकता है इसका भी ध्यान हो। समावेषी विकास पुख्ता किया जाय, रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ, षिक्षा और चिकित्सा जैसी तमाम बुनियादी आवष्यकताएं पूरी हों। तब सुषासन की भूमिका पुख्ता मानी जायेगी। सुषासन का षाब्दिक अभिप्राय एक ऐसी लोक प्रवर्धित अवधारणा जो जनता को सषक्त बनाये। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिष्चित करे। मोदी सरकार का दूसरा संस्करण 30 मई 2019 से षुरू हो गया। आर्थिक आईना कहे जाने वाला बजट नई सरकार में नये रूप-रंग के साथ 5 जुलाई को पेष किया। बजट के माध्यम से सुषासन की धार मजबूत करने की कोषिष की क्योंकि उसने इसके दायरे में समावेषी विकास को समेटने का प्रयास किया। अगले पांच वर्शों में बुनियादी ढांचे पर सौ लाख करोड़ का निवेष, अन्नदाता को बजट में उचित स्थान देने, हर हाथ को काम देने के लिए स्टार्टअप और सूक्ष्म, मध्यम, लघु उद्योग पर जोर देने के अलावा नारी सषक्तीकरण, जनसंख्या नियोजन और गरीबी उन्मूलन की दिषा में कई कदम उठाने की बात कही गयी है। सुसज्जित और स्वस्थ समाज यदि समावेषी विकास की धारा है तो सुषासन इसकी पूर्ति का मार्ग है।
यह कहना सही है कि डिजिटल गवर्नेंस का दौर बढ़ा है पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि नौकरषाही में पूरी तरह पारदर्षिता आ गयी है। संवेदनषीलता, पारदर्षिता और प्रभावषीलता सुषासन के उपकरण हैं। जिसके माध्यम से लोक कल्याण को गति दी जाती है। दषकों पहले कल्याणकारी व्यवस्था के चलते नौकरषाही का आकार बड़ा कर दिया गया था और विस्तार भी कुछ अनावष्यक हो गया था। 1991 में उदारीकरण के फलस्वरूप प्रषासन के आकार का सीमित किया जाना और बाजार की भूमिका को बढ़ावा देना सुषासन की राह में उठाया गया बड़ा कदम है। इसी दौर में वैष्विकरण के चलते दुनिया अमूल-चूल परिवर्तन की ओर थी। विष्व की अर्थव्यवस्थाएं और प्रषासन अन्र्तसम्बन्धित होने लगे जिसके चलते सुषासन के मूल्य और मायने भी उभरने लगे। 1992 की 8वीं पंचवर्शीय योजना समावेषी विकास को लेकर आगे बढ़ी और सुषासन ने इसको राह दी। मन वांछित परिणाम तो नहीं मिले पर उम्मीदों को पंख जरूर लगे। विष्व बैंक के अनुसार सुषासन एक आर्थिक अवधारणा है और इसमें आर्थिक न्याय किये बगैर इसकी खुराक पूरी नहीं की जा सकती। प्रधानमंत्री मोदी नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक कई आर्थिक निर्णय लिये और बार-बार यह दावा किया कि सुषासन उनकी प्राथमिकता है और समावेषी विकास देष की आवष्यकता। खजाने की खातिर उन्होंने कई जोखिम लिए पर सवाल यह है कि क्या सभी को मन-माफिक विकास मिल पाया। गौरतलब है कि आज भी देष में हर चैथा व्यक्ति अषिक्षित और गरीबी रेखा के नीचे है। बेरोज़गारी दर 45 साल की तुलना में सर्वाधिक है और अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन भी यह मानता है कि भारत में बेरोज़गारी दर आगे भी बढ़ेगी। डिग्रीधारी हैं पर कामगार नहीं हैं, विकास दर में इनकी भूमिका निहायत कमजोर है और भारत की जीडीपी 5.8 फीसदी तक बामुष्किल से पहुंच पायी है। इस बजट में 7 फीसदी का लक्ष्य रखा गया है।
सुषासन की कसौटी पर मोदी सरकार कितनी खरी है इसका अंदाजा किसानों के विकास और युवाओं के रोज़गार के स्तर से पता किया जा सकता है। किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य 2022 है पर कटाक्ष यह है कि किसानों की पहले आय कितनी है यह सरकार को षायद नहीं पता है। बजट में किसानों के कल्याण के लिए गम्भीरता दिखती है। गांव, गरीब और किसानों के लिए कई प्रावधान हैं जो समावेषी विकास के लिए जरूरी भी हैं। 60 फीसदी से अधिक किसान अभी भी कई बुनियादी समस्या से जूझ रहे हैं। बजट में करीब डेढ़ लाख करोड़ रूपए का प्रावधान गांव और खेत-खलिहानों के लिए किया गया है। पीएम किसान योजना के तहत 75 हजार करोड़ रूपए का आबंटन स्वागत योग्य है जो सुषासन के रास्ते को चैड़ा कर सकता है। कई सुधारों की सौगात समावेषी विकास को अर्थ दे सकता है। 5 वर्शों में 5 करोड़ नये रोज़गार के अवसर छोटे उद्यम में विकसित करने का दम उचित कदम है। 25 सौ से अधिक स्टार्टअप खोले जाने की योजना भी रोज़गार की दिषा में अच्छा कदम है। नये निवेष और षोध के लिए की गयी पहल न केवल समावेषी विकास को बड़ा करेगा बल्कि लक्ष्य हासिल होता है तो देष को सुषासनमय भी बना देगा। हालांकि जितनी बातें कहीं जा रही हैं वे जमीन पर उतरेंगी या नहीं कहना मुष्किल है। पर जो सपने बोये गये हैं उसे काटने की फिराक में कुछ समावेषी तो कुछ सुषासन जैसा तो होगा ही होगा। भारत के नगरों और गांवों के विकास के लिए 1992 में 73वें और 74वें संविधान संषोधन को लाकर लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण को न केवल बढ़ावा मिला बल्कि सुषासन का स्पर्ष अन्तिम व्यक्ति तक पहुंचाने का प्रयास किया गया। बीते तीन दषकों में स्थानीय स्वषासन की यह व्यवस्था काफी हद तक सुषासन का काम किया है साथ ही समावेषी विकास के लिए कहीं अधिक मुखर रही। मनरेगा जैसी परियोजनाएं इसका बेहतर उदाहरण है। 
सुषासन की क्षमताओं को लेकर ढ़ेर सारी आषायें भी हैं। काॅरपोरेट सेक्टर, उद्योग, जल संरक्षण, जनसंख्या नियोजन, पर्यावरण संरक्षण भी बजट में बाकायदा स्थान लिये हुए है। असल में सुषासन लोक विकास की कुंजी है। जो मौजूदा समय में सरकार की प्रक्रियाओं को जन केन्द्रित बनाने के लिए उकसाती हैं। एक नये डिज़ाइन और सिंगल विंडो संस्कृति में यह व्यवस्था को तब्दील करती है। लगभग तीन दषक से देष सुषासन की राह पर है और इतने ही समय से समावेषी विकास की जद्दोजहद में लगा है। एक अच्छी सरकार और प्रषासन लोक कल्याण की थाती होती है और सभी तक इसकी पहुंच समावेषी विकास की प्राप्ति है। इसके लिए षासन को सुषासन में तब्दील होना पड़ता है। मोदी सरकार स्थिति को देखते हुए सुषासन को संदर्भयुक्त बनाने की फिराक में अपनी चिंता दिखाई। 2014 से इसे न केवल सषक्त करने का प्रयास किया बल्कि इसकी भूमिका को भी लोगों की ओर झुकाया। वर्तमान भारत डिजिटल गवर्नेंस के दौर में है। नवीन लोक प्रबंध की प्रणाली से संचालित हो रहा है। सब कुछ आॅनलाइन करने का प्रयास हो रहा है। ई-गवर्नेंस, ई-याचिका, ई-सुविधा, ई-सब्सिडी आदि समेत कई व्यवस्थाएं आॅनलाइन कर दी गयी हैं। जिससे कुछ हद तक भ्रश्टाचार रोकने में और कार्य की तीव्रता में बढ़ोत्तरी हुई है। फलस्वरूप समावेषी विकास की वृद्धि दर भी सम्भव हुई है। साल 2022 तक सबको मकान देने का मनसूबा रखने वाली मोदी सरकार अभी भी कई मामलों में संघर्श करते दिख रही है। मौजूदा आर्थिक हालत बेहतर नहीं है, जीएसटी के चलते तय लक्ष्य से राजस्व कम आ रहा है। प्रत्यक्ष करदाता की बढ़ोत्तरी हुई पर उगाही में दिक्कत है। राजकोशीय घाटा न बढ़े इसकी चुनौती से भी सरकार जूझ रही है। फिलहाल इस बार के बही खाते से देष को जो देने का प्रयास किया गया वह समावेषी विकास से युक्त तो है पर पूरा समाधान नहीं है। दो टूक यह भी है कि सुषासन जितना सषक्त होगा समावेषी विकास उतना मजबूत। और इसकी जिम्मेदारी षासन की है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

सुशासन की कक्षा में चक्कर लगाती मंदी

आर्थिक बदलाव के इस दौर में दबाव किस पर नहीं है। कृशि, उद्योग और सेवा जिनसे मिलकर देष की अर्थव्यवस्था को गति मिलती हो वे सभी अपने तरीके की दिक्कतों में बीते कुछ वर्शों से कमोबेष कठिनाई के दौर से गुजर रहे हैं। नोटबंदी और जीएसटी जैसे बड़े आर्थिक परिवर्तन वाले निर्णय दो-तीन वर्श की यात्रा तय कर चुके हैं बावजूद इसके अर्थव्यवस्था उस राह पर नहीं है जैसा कि भारी सुषासन वाले देष की होती है। खपत में कमी, कमजोर निवेष और सेवा क्षेत्र के लचर प्रदर्षन से भारत की आर्थिक वृद्धि दर और सुस्त होने का अनुमान है। अप्रैल से जून की पहली तिमाही में जीडीपी घट कर 5.7 फीसदी रहने का अनुमान है। गौरतलब है कि इससे पहले की तिमाही अर्थात् जनवरी से मार्च 2019 में विकास दर 5.8 फीसदी थी जो 5 साल का निचला स्तर था। 5 जुलाई को नई सरकार ने लगभग 28 लाख करोड़ रूपए का बजट प्रस्तुत किया जिसमें विकास दर 7 फीसदी रखा गया। अब सवाल यह है कि घट रहे विकास दर से आगामी और बढ़े हुए विकास दर को कैसे प्राप्त किया जायेगा। हाल ही में रिजर्व बैंक ने भी कह दिया कि विकास दर 6.9 फीसदी रहेगी। सवाल फिर उठता है कि मजबूत आर्थिक इरादे वाली मोदी सरकार आर्थिक कसाव और विकास के मामले में गिरे हुआ दर को क्यों नहीं संभाल पा रही है। हालिया स्थिति यह है कि भारत की बिस्किट बनाने वाली अग्रणी कम्पनी पारले लगभग 10 हजार कर्मचारियों की छंटनी करने के कगार पर खड़ी है। जबकि आॅटो सेक्टर में 10 लाख लोगों की नौकरी पर तलवार लटक रही है। कार और बाइक की बिक्री घटने की वजह से पिछले 4 महीने में आॅटो मेकर्स, पार्टस् मैन्यूफैक्चरर्स और डीलर्स में साढ़े तीन लाख से ज्यादा कर्मचारियों की छुट्टी फिलहाल कर दी गयी है। आॅटो इण्डस्ट्री में लगातार 9 महीने से यह गिरावट देखी जा सकती है।
जिस तरह मंदी और गहराने का संकेत दे रही है उससे भविश्य और खतरे में जा सकता है। जब कोई देष अपने को विकसित करना चाहता तो उसके सामने मुख्य रूप से तीन समस्याएं होती हैं। पहला यह कि वह किस वस्तु का उत्पादन करे और किसका न करे। दूसरे विभिन्न प्रयोगों में संसाधनों का आबंटन कैसे करे। तीसरा यह कि उत्पादन की क्रिया किसके द्वारा सम्भव करे मसलन निजी क्षेत्र, सरकारी क्षेत्र या दोनों की सहभागिता से। इन तीनों समस्याओं से निजात पाने के लिए भी तीन रास्ते सुझाये गये हैं। जिसमें बाजार व्यवस्था, नियोजन प्रणाली और मिश्रित आर्थिक प्रणाली षामिल है पर सच्चाई यह है कि बाजार काफी बड़े पैमाने पर चरमरा गये हैं। एक तरफ उत्पादन और बिक्री पर असर पड़ा है तो दूसरी तरफ इसमें खपत होने वाला मानव श्रम बेरोज़गार हो रहा है। जिस तर्ज पर व्यवस्था बदलने की कोषिष की जा रही है उससे संकेत मिलता है कि आने वाले दिनों में आर्थिक विकास का पथ वास्तव में कैसे और कितना चिकना होगा। सरकारी नौकरियां या तो खत्म हो रही हैं या कम की जा रही हैं। उदारीकरण के बाद 8वीं पंचवर्शीय योजना समावेषी विकास की थी जो कई समस्याओं से मुक्ति दिलाने के लिए जानी और समझी गयी। अर्थव्यवस्था नई करवट ले रही थी क्योंकि बदलाव भी बड़ा और नया हुआ था पर समय के साथ यहां भी कठिनाईयां व्याप्त रहीं। 10वीं पंचवर्शीय योजना (2002 से 2007) का एक उदाहरण यह है कि आर्थिक जानकारों ने बताया कि यदि सरकारी नौकरियों में प्रति वर्श दो फीसदी की कटौती की जाये तो योजना अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकती है। जबकि तत्कालीन सरकार ने इसमें केवल डेढ़ फीसदी की कटौती की थी। इसके पीछे कारण यह बताया गया कि बेरोजगारों के साथ और नाइंसाफी नहीं की जा सकती। गौरतलब है कि 24 जुलाई, 1991 को देष में उदारीकरण आया था तभी से भारत में नई आर्थिक अवधारणा ने करवट ली। देष में बहुत बदलाव आये, उतार-चढ़ाव आये, मंदी भी आई और गयी पर आर्थिक नीति कभी बेपटरी नहीं हुई पर जिस तर्ज पर आर्थिक नीतियां अब हांफ रही हैं यदि इस पर समय रहते बेहतर फैसलें नहीं आये तो आर्थिक सुषासन की अवधारणा खटाई में पड़ सकती है।
जब प्रष्न आर्थिक होते हैं तो वे गम्भीर होते हैं ऐसा इसलिए क्योंकि सामाजिक उत्थान और विकास के लिए इस पहलू को सषक्त करना पड़ता है। आॅटो इण्डस्ट्री में मंदी एक बार फिर आर्थिक विकास के लिए बड़ी चुनौती बन गयी है। 20 फीसदी टैक्टर की बिकवाली घटी है लगभग इतना ही ट्रक की भी बिकवाली घटी हुई बतायी जा रही है। कार आदि की भी बिक्री लगातार कम हो रही है। इसके चलते आॅटो पार्ट्स भी नहीं बिक रहे हैं। गौरतलब है कि आॅटो पार्ट्स के क्षेत्र में 50 लाख लोगों को रोजगार मिला हुआ है जिसमें से 10 लाख कभी भी नौकरी से बाहर किये जा सकते हैं हालांकि 4 लाख के आसपास घर भेजे जा चुके हैं। अब सवाल यह है कि ऐसा क्यों हो रहा है। इसके पीछे बड़ा कारण नाॅन बैंकिंग फाइनेंषियल कम्पनियां ने लोन देने में जो सख्ती दिखाई है उसे भी माना जा रहा है। इसके चलते खरीदार उनसे कटे हैं। इतना ही नहीं इनका पैसा जो बाजार में फंस गया है उसकी उगाही ठीक से नहीं हो पा रही है। ये कम्पनियां स्वयं घाटे का षिकार है। ईंधन की बढ़ी हुई कीमतें, अन्तर्राश्ट्रीय बाजार में रूपए की कीमत में लगातार गिरावट भी आॅटो इण्डस्ट्री के लिए खतरा रहा है। सड़कों पर भीड़-भाड़ से यात्रा भी बहुत कठिन हुई है ऐसे में कार खरीदने वाले ट्रैफिक समस्या को देखते हुए भी कुछ हद तक इससे मुंह मोड़ रहे हैं। हालांकि यह सुस्ती दुनिया भर में कमोबेष देखी जा सकती है पर भारत में यह लगातार चिंता का सबब बनी हुई है। एषिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था में सुस्ती के चलते कारों से लेकर कपड़ों तक हर उत्पाद की बिक्री घट रही है। सरकार आर्थिक विकास को पटरी पर लाने के लिए एक राहत पैकेज का एलान कर सकती है पर जिस तरह स्थिति चिंताजनक है उससे स्पश्ट है कि कदम भी सषक्त उठाने पड़ेंगे।
एक सच्चाई यह भी है कि रिजर्व बैंक लगातार रेपो दर घटाता रहा लेकिन बैंकों ने अपने ब्याज दर घटाने से गुरेज करते रहे। बैंक का एनपीए जिस कदर बढ़ा हुआ है कि वे अपनी कमाई के चक्कर में खाताधारकों की जेब भी काट ले रहे हैं। भारत में प्रति व्यक्ति आय लगातार बढ़ रही है जबकि बेरोजगारी की गति रूक नहीं रही है। अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन ने भी जनवरी 2018 में कहा था कि भारत में बेरोजगारी दर आगे के कुछ वर्शों तक परेषानी का सबब रहेगी। सरकार ने मुद्रा योजना के अन्तर्गत ऋण देकर रोजगार के रास्ते खोलने का प्रयास किया है मगर मंदी के इस दौर में यह योजना भी कितनी सफल है अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। मीडिया भले ही अच्छे दिनों के सपने दिखा रहा हो मगर मंदी की चपेट में समूची अर्थव्यवस्था आ रही है। रोज किसी न किसी सेक्टर में मंदी की घोशणा हो रही है। अब तो ऐसा लगता है कि मोदी राज में रोजगार के नहीं बेरोजगारी के विज्ञापन छपेंगे जो 70 सालों में कभी नहीं हुआ। इण्डियन फाउंडेषन आॅफ ट्रांसपोर्ट रिसर्च एण्ड ट्रेनिंग का मानना है कि गाड़ियों के परिवहन से जुड़ी कम्पनियों ने भी 30 फीसदी नौकरियां गई हैं। बेषक सरकार तीन तलाक, अनुच्छेद 370 और अन्तर्राश्ट्रीय फलक पर कई अच्छे निर्णयों से देष को और लोगों के हितों को मजबूत किया है पर बढ़े हुए दर से जिसे रोजगार देना चाहिए यदि वही बेरोजगारी को रोक न पा रही हो तो देष आर्थिक संकट में फंस सकता है। सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिन छोटी-छोटी बातों से देष बनता है और लोगों का हित संवर्द्धन होता है उसे लेकर जरा मात्र भी उदासीनता उचित नहीं होती है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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भारत-भूटान के रिश्ते पर नई परत

दक्षिण एषिया में भूटान एकलौता देष है जो चीन के झांसे में नहीं आया। इतना ही नहीं भूटान के साथ राजनयिक रिष्ता कायम करने की चीन की तमाम कोषिषें भी फिलहाल विफल हो चुकी हैं। साल 2017 के जून में डोकलाम में सड़क बनाने की चीन के इरादे पर पानी फेरते हुए भारत यह जता चुका है कि भूटान की रक्षा करने में वह पीछे नहीं हटेगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भूटान यात्रा से पहले विदेष मंत्री जयषंकर ने यहां की यात्रा की थी। भूटान के साथ भारत के प्राचीन सम्बंध इतिहास में बाकायदा खंगाले जा सकते है। खास यह है कि भूटान की नई पीढ़ी सम्भवतः उस चीन से आकर्शित है जिसमें अनेक पड़ोसियों को अपने साथ कर लिया है मगर भूटान एक ऐसा देष है जो भारत की ओर झुकाव रखता है और उसे जोड़े रखना भारत के लिए जरूरी है। इसी दिषा में मोदी की दो दिवसीय यात्रा को देखा जा सकता है। लोकतंत्र और षिक्षा दोनों का लक्ष्य होता है और दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। दोनों ही सर्वश्रेश्ठ को पाने में सहायता करते हैं मोदी का यह उद्बोधन भूटान के प्रतिश्ठित राॅयल विष्वविद्यालय में तब गूंजा जब वे वहां छात्रों को सम्बोधित कर रहे थे। इतिहास, संस्कृति और आध्यात्मिक परम्पराओं के अनोखे गठबंधन पर भी मोदी ने अपने भाव प्रकट किये। गौरतलब है कि भूटान बौद्ध बहुल्य देष है और भारत में भी बड़ी मात्रा में बौद्ध रहते हैं। बावजूद इसके भारत को यह चिंता रही है कि भूटान पर जिस तरह चीन नजरें गड़ाये हुए है उसके चलते वह उसे कभी भी बरगला सकता है। हालांकि ऐसा होता दिखाई नहीं देता है पर भूटान को अपने साथ जोड़े रखने के लिए भारत को सक्रिय रहना पड़ता है। 
हिमालयी देष भूटान के साथ नये सिरे से बिजली खरीदने के समझौते के साथ डिजिटल दुनिया और वैष्विक कनेक्टिविटी का प्रधानमंत्री मोदी का वायदा भूटान की अर्थव्यवस्था को प्रगाढ़ करने का संकेत देती है। गौरतलब है कि भूटान भारत के सहयोग से बिजली पैदा करने में काफी आगे है और वही बिजली वह भारत को बेचता भी है जो उसके जीडीपी का 14 फीसदी है। दोनों देषों के बीच 10 सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर हुए। जल विद्युत परियोजना रसोई गैस से लेकर अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी तक की समझ दोनों के बीच साफ-साफ दिखी। स्वच्छ ईंधन की आपूर्ति में वृद्धि, विदेषी मुद्रा विनिमय की व्यवस्था के अलावा विज्ञान और षिक्षा के क्षेत्र में सहयोग की बात भारत की ओर से कहीं अधिक प्रबल दिख रही है। वैसे देखा जाय तो भूटान के लिए ईंधन बेहद महत्वपूर्ण है। भारत ने आम नागरिकों की जरूरत पूरी करने के लिए रसोई गैस की आपूर्ति 7 सौ मेट्रिक टन से बढ़ा कर एक हजार मेट्रिक टन करने का वादा किया है। खास यह भी है कि भारत और भूटान के बीच वायदे पूरी तरह जमीन पर उतरते रहे हैं। इसके पीछे एक बड़ा कारण दोनों देषों के बीच पारदर्षी समझ और विष्वास है। भारत और भूटान की दोस्ती को करीब लाने में 1949 में हुई संधि का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इसी संधि से भारत भूटान के लिए सुरक्षा कवच बन गया जो चीन को खटकती है। हालांकि 2007 में इसे लेकर संषोधन हुआ जिसमें यह जोड़ा गया कि जिन विदेषी मामलों में भारत सीधे तौर पर जुड़ा होगा उन्हीं में भूटान उसे सूचित करेगा। इतना ही नहीं इस संधि से दोनों देष अपने राश्ट्रीय हितों से सम्बंधित मुद्दों को एक-दूसरे के साथ घनिश्ठ सहयोग करना और राश्ट्रीय सुरक्षा और हितों के विरूद्ध अपने क्षेत्रों का उपयोग न करने के लिए प्रतिबद्ध भी हैं। यही चीन को नहीं पचता। भारतीय प्रधानमंत्री की यात्रा जब भी ऐसे पड़ोसी देषों में होती है तो द्विपक्षीय सम्बंध, उनका एक जायजा लेना और उसे मजबूत करने के लिए भी होती है। भूटान की यात्रा इस दृश्टि से भी देखा जा सकता है।
प्रधानमंत्री मोदी ने भूटान को संचार, सार्वजनिक प्रसारण और आपदा प्रबंधन के लिए दक्षिण एषियाई उपग्रह का उपयोग करने की अनुमति देने हेतु भारत की अंतरिक्ष एजेंसी के द्वारा निर्मित 7 करोड़ रूपए के ग्राउंड स्टेषन का भी उद्घाटन किया। मोदी ने भूटान के लोगों को यह भी आष्वासन दिया है कि भारत अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में भूटान के विकास में सहयोग देगा। दोनों देष छोटे उपग्रह बनाने और अंतरिक्ष के मामले में सहयोग करेंगे। खास यह भी है कि भूटानी छात्रों और षोधकर्ताओं के लिए उन्हें भारतीय विष्वविद्यालयों से जोड़ने की घोशणा ने भी भूटान को एक नया आधार दिया है। हालांकि भूटान के छात्र भारतीय विष्वविद्यालय में लम्बे समय से अध्ययन करते रहे हैं पर अब राह और आसान होने से दोनों देषों के रिष्ते और प्रगाढ़ होंगे। देखा जाये तो भूटान जहां भारत से व्यापार, षिक्षा, अंतरिक्ष अनुसंधान आदि क्षेत्रों में मदद ले रहा है वहीं दुनिया का सबसे खुष रहने वाला देष भूटान से भारत पर्यावरण संरक्षण की न केवल सीख ले सकता है बल्कि उसके जीवन मूल्यों को अपनाकर कई समस्याओं से निजात पा सकता है। पीछे के आधार बिन्दु बताते हैं कि जो भी सहमति दोनों देषों के बीच होती रही है उस मामले में भारत का अनुभव मिला-जुला रहा है। नई दिल्ली की यह दुविधा कमोबेष रही है कि थिंपू के साथ जब रिष्ते प्रगाढ़ होते हैं तो बीजिंग से खटास होना लाज़मी हो जाता है पर यह समझना भी सही रहेगा कि दुनिया संरक्षणवाद की ओर झुकी है ऐसे में भारत की नीति सुधार की दिषा की अक्सर मांग करती रही है। हांलाकि पड़ोसी के मामले में मोदी पहले भी पहल करने में पीछे नहीं थे और अब भी। गौरतलब है कि 2014 में जब मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बने तो अपनी विदेष यात्रा की षुरूआत भूटान से की। दोनों देषों के बीच रिष्ते इतने खास है कि भारत में एक अनौपचारिक प्रथा है कि भारतीय प्रधानमंत्री, विदेष मंत्री, विदेष सचिव, सेना और राॅ प्रमुख की पहली विदेष यात्रा भूटान ही होती है। 
भूटान की आबादी 8 लाख है जिसकी वित्तीय और रक्षा नीति पर भारत का प्रभाव देखा जा सकता है। भूटान 98 फीसदी निर्यात भारत को करता है और करीब 90 फीसदी सामान भी भारत से ही आयात करता है। इतना ही नहीं भारतीय सेना भूटान की षाही सेना को प्रषिक्षण देने का काम करती रही है। ये तमाम बातें चीन की पेषानी पर बल डालते रहे हैं। गौरतलब है कि भारत भूटान के साथ 699 किलोमीटर की सीमा साझा करता है। साल 2001 में भारत ने भूटान, नेपाल, बांग्लादेष व म्यांमार को जोड़ने के लिए साउथ एषिया सब रीज़नल इकोनोमिक काॅरपोरेषन (साॅसेक) को जोड़ने वाले मार्ग को लेकर कदम बढ़ाया जिसे पूर्वी एषिया अर्थात् आसियान बाजार के लिए इसे भारत का प्रवेष द्वार माना जा रहा है। इससे भारत के पूर्वोत्तर राज्यों को जोड़ना जहां आसान है वहां थाईलैण्ड तक पहुंचने के लिए भारत को एक वैकल्पिक मार्ग भी मिलता दिखाई देता है। गौरतलब है कि साल 2014 में मालदीव और श्रीलंका भी इससे जुड़े। फिलहाल भारत चीन की काट अपने पड़ोसियों के माध्यम से भी खोज रहा है जिसमें भूटान को लेकर वह कहीं अधिक सकारात्मक चिंतन करता है जबकि चीन दर्जनों पड़ोसियों को झांसे में लेने में सफल रहा लेकिन भूटान इससे परे रहा। नई दिल्ली और थिम्पू के बीच जो सम्बंध हैं उसमें अभी बीजिंग की भूमिका कमजोर दिखती है और मोदी की हालिया भूटान यात्रा दोनों देषों के सम्बंध को तुलनात्मक कहीं अधिक सधा हुआ व सम्पन्न बनाने की ओर दिखाई देता है।



सुशील कुमार सिंह
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लाल किले से पानी, पर्यावरण और जनसंख्या की गूंज

मानव सभ्यता के विकास को जिन कारकों ने प्रभावी किया उन्हें लेकर लाल किले की प्राचीर से 73वें स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें षिद्दत से छूने का प्रयास किया। स्वतंत्रता दिवस क्या चिन्ह्ति करना चाहता है इसकी भी झलक भाशण में साफ-साफ दिखी। सामान्यतः ऐसा रहा है कि लाल किले से ऐसे अवसरों पर प्रधानमंत्री अधिकतर अपनी सरकारों के कामों का बखान करते देखे गये हैं। मगर इसी लाल किले से स्वच्छता, षौचालय, पानी, पर्यावरण, वातावरण समेत जनसंख्या विस्फोट व प्लास्टिक बैन समेत बुनियादी विकास के प्रसंगों का वर्णन षायद ही सुनने को मिला हो। 94 मिनट के भाशण में प्रधानमंत्री मोदी ने तमाम संवेदनषील मुद्दों को छूने का प्रयास किया। किसानों और व्यापारियों को मिलने वाली मदद की चर्चा और यह कहना कि अब सपनों को पूरा करने का समय आ गया है। वाकई ऐसा लगा कि मानो एक नये भारत की सोच और समझ को पुख्ता करने का प्रयास किया गया है। इसमें दुविधा नहीं कि सरकार कई आषाओं पर खरी उतरी है इसलिए उसे बहुत कुछ कहने का हक है। निराषा को आषा में बदलने का काम दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के साथ मोदी ने षीघ्र षुरू कर दिया। मुस्लिम महिलाओं केा तीन तलाक से मुक्ति देना और अनुच्छेद 370 और 35ए से जम्मू कष्मीर को आजादी देना जिसमें कि जोखिम और साहस दोनों का मिश्रण था वाकई सरकार का बेहतरीन प्रदर्षन कहा जायेगा। वन नेषन, वन इलेक्षन वैसे तो चर्चा पहले से है पर लाल किले से इसकी भी गूंज सुनने को मिली। गूंज तो वन नेषन, वन टैक्स वाले जीएसटी की भी एक पूरक के तौर पर रही है। भ्रश्टाचार के खिलाफ लड़ाई और गैर जरूरी कानूनों का खात्मा जो कि मोदी सरकार का मिषन है यह भी भाशण में बाकायदा षामिल था। गौरतलब है कि पिछले पांच सालों में 1450 गैर जरूरी कानून सरकार ने खत्म किये हैं। दूसरी पारी को अभी बामुष्किल ढ़ाई महीना ही बीते हैं 60 कानून अभी तक खत्म किये जा चुके हैं। स्पश्ट है कि सरकार ईज़ आॅफ लिविंग को आसान बनाना चाहती है। इतना ही नहीं 2024 तक 5 ट्रिलियन डाॅलर की इकोनाॅमी की ओर कदम बढ़ा चुकी सरकार ने देष की अर्थव्यवस्था को दुनिया के सामने बड़ा रूप देने का मन बना लिया है।
लाल किले से ही आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई की चर्चा कमोबेष पहले के भाशणों की भांति ही सुनाई दी। षांति और सुरक्षा विकास के अनिवार्य पहलू हैं। विष्व षान्ति के लिए भारत को अपनी भूमिका निभानी होगी जैसी बातें प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार फिर इस अवसर पर दोहराया। इसके अलावा जीवन के उन संवेदनषील पहलुओं को भी मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के इस पावन अवसर पर चेताना नहीं भूले। जिस पर यह देष, दुनिया टिकी रहेगी। भाशण के दौरान 130 करोड़ जनसंख्या में उन्होंने यह परोसने की कोषिष की कि पानी की बचत, पर्यावरण का संरक्षण और प्लास्टिक को नकारने का अब समय आ गया है। इतना ही नहीं जनसंख्या विस्फोट का उनके भाशण में होना यह संकेत देता है कि सरकार इस ओर भी अब अपनी चिंता झुका रही है। पड़ताल बताती है कि 2014 में पहली बार लाल किले से बोलते हुए मोदी 70 मिनट खर्च किये थे। साल 2015 में 86 मिनट, 2016 में 92 मिनट, 2017 में 57 जबकि 2018 में 82 और अब 2019 में 94 मिनट के भाशण से लाल किले की प्राचीर से जो गूंज उठी उसने भारत समेत दुनिया को बेहतरीन और प्रगाढ़ संदेष देने का काम किया। इन्हीं भाशणों में बुनियादी और संवेदनषील मद्दे उठे जिनको जमीन पर उतारने का काम जारी है। श्रीलंका, अफगानिस्तान और बांग्लादेष में आतंक के परिप्रेक्ष्य को लेकर मोदी ने पड़ोसी पाकिस्तान को घसीटना नहीं भूले। हालांकि पाकिस्तान को इस बार वैसा नहीं ललकारा जैसा कि मोदी की प्रकृति में है। इतना ही नहीं विरोधियों को भी बहुत ज्यादा आड़े हाथ नहीं लिया। षायद एक मजबूत सरकार के तौर पर मोदी ये समझ रहे हैं कि देष को आगे बढ़ाने के लिए व्यवधानों को पहचानना है, उन्हें दूर करना है न कि बेफजूल की राजनीति में वक्त जाया करना है।
भाशण के सभी हिस्से अपने ढंग से वजनदार हैं पर कुछ मुद्दे व्यापक अवधारणा से युक्त देखे जा सकते हैं। पानी और पर्यावरण पर चिंता, प्लास्टिक पर बैन की बात और जनसंख्या विस्फोट इस स्वतंत्रता दिवस के मौलिक विचार कहे जा सकते हैं। गौरतलब है कि यूनाइटेड नेषन की कुछ साल पहले की रिपोर्ट में था कि यदि विष्व के देषों ने पानी बचाने के उपायों पर काम नहीं किया तो आने वाले 15 वर्शों में पूरी दुनिया को 40 फीसदी पानी की कमी का सामना करना पड़ सकता है। यह अवधि 2030 तक समझी जा रही है। यदि हालात ऐसे बने रहे तो करीब दो दषक बाद आज की तुलना में पानी आधा रह जायेगा। भारत की आबादी पहले स्वतंत्रता दिवस से 73वें तक में लगभग 4 गुनी बढ़ चुकी है जबकि पानी की खपत के मामले में यह 800 फीसद की बढ़त ले चुकी है स्पश्ट है कि प्रधानमंत्री मोदी की लाल किले से पानी को लेकर प्रकट की गयी चिंता बेवजह नहीं है। दिल्ली और नोएडा जैसे षहरों से प्रति वर्श भूमिगत जल 4 फीट नीचे की ओर जा रहा है। खबर यह भी है कि चेन्नई में भूमिगत जल का खजाना खाली हो गया है। प्रधानमंत्री ने पानी को लेकर एक पुस्तक का जिक्र करते हुए कहा कि उसमें लिखा गया था कि सौ साल बाद पानी किराने की दुकान में बिकेगा जो आज हो रहा है। देखा जाये तो पानी और पर्यावरण एक-दूसरे के पूरक हैं जब पर्यावरण बचेगा तभी जल भी बचेगा। गौरतलब है कि पर्यावरण में भी असंतुलन बाढ़ लिये है। भारत में वन प्रतिषत बामुष्किल 21 फीसदी के आसपास है जबकि यह 33 फीसदी होना चाहिए। रिपोर्ट तो यह भी है कि जो ग्लेषियर नदियों को पानी देते हैं वे 2030 तक काफी पैमाने पर सिकुड़ जायेंगें। तपिष के चलते हर साल लाखों हेक्टेयर जंगल आग से स्वाहा हो जाते हैं। नीति आयोग भी कहता है कि 75 फीसदी घरों में पीने के पानी का संकट जबकि 70 फीसदी पानी प्रदूशित है। अभी तो पानी खत्म होने की सूचना चेन्नई से है पर दिल्ली, हैदराबाद समेत 21 षहर में जल्दी भूमिगत जल खत्म हो जायेगा जिसके चलते 10 करोड़ लोग प्रभावित होंगे।
गौरतलब है कि वर्तमान में जिस जीडीपी को दहाई के आंकड़े तक पहुंचाना चाह रहे हैं वही गिरते जल स्तर के कारण 2050 तक 6 फीसदी नुकसान में जा सकती है। तब तक देष की जनसंख्या 150 से 180 करोड़ की हो सकती है। स्पश्ट है कि इस जनसंख्या विस्फोट से कई समस्याएं विस्फोटक रूप ले लेंगी। प्रधानमंत्री मोदी ने इस पावन पर्व जनसंख्या पर चिंता जाहिर करके यह संकेत दे दिया है कि यदि आने वाली पीढ़ियों को अनेक संकटों से बचाना है तो इसके प्रति जागरूक होना ही होगा। पानी और पर्यावरण के साथ प्लास्टिक भी बुनियादी समस्या बन चुकी है। केन्द्रीय प्रदूशण नियंत्रण बोर्ड़ कहता है कि दिल्ली में हर रोज़ 690 टन, चेन्नई और कोलकाता में 429 टन प्लास्टिक कचरा फेंका जाता है जो स्वास्थ और पर्यावरण दोनों का दुष्मन हो। प्रधानमंत्री ने इस पर भी चिंता जाहिर करते हुए प्लास्टिक मुक्त भारत की अवधारणा पेष कर दी है और कपड़े के झोले की नीति को आगे बढ़ा दिया है। लोगों को सचेत किया और दुकानदारों को इस पर एक्षन लेने का सुझाव भी जताया है। फिलहाल 73वां स्वतंत्रता दिवस षौर्य और साहस के साथ 74वें की प्रतीक्षा में देषवासियों को आगे करके स्वयं पीछे हो गया। देष सभी का है ऐसे में यह बात षिद्दत से समझनी होगी कि लाल किले से जो गूंज उठी है वह किसी नेता का भाशण नहीं है बल्कि देष के उत्थान और स्वयं के विकास के लिए चुनौती से भरी गौरवगाथा है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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आज़ादी के ७ दशक पर पारदर्शी राजनीती का आभाव

वर्ष 2019 का स्वतन्त्रता दिवस गिनती में 73वाॅं हैं पर क्या पूरे संतोश से कहा जा सकता हैं कि हाड़-मांस का एक महामानव रूपी महात्मा जो एक युगदृश्टा था जिसने गुलामी की बेड़ियों से भारत को मुक्त कराया क्या उसके सपने को वर्तमान में पूरा पड़ते हुए देखा जा सकता हैं। कमोवेष ही सही पर यह सच हैं कि सपने कुछ अधूरे के साथ कुछ पूरे तो हुए हैं और बचे हुए सपनों को पूरा करने की जद्दोजहद अभी जारी हैं। सियासी विसात पर लोकतन्त्र का जो बीजारोपण देष के भीतर 1951-52 के बीच पहल चुनाव के साथ किया गया वह भी 17वीं चुनावी यात्रा 2019 तक तय कर चुका हैं। परन्तु एक दुविधा यह रही हैं कि स्वराज का जो संकल्प स्वतन्त्रता संघर्श के दिनो में प्रबल थी क्या वह सभी के हिस्से में आयी। भारत का भाग्य 15 अगस्त 1947 को बदल गया मगर भारत के भीतर रहने वाले सभी के जीवन में पूरा उजाला अभी भी नहीं हुआ हैं। सियासत की परत से भारत बार बार वजनदार होता गया मगर पारदर्षी राजनीति की अपेक्षा मानो आज भी हैं। एक तरफ स्वतन्त्रता दिवस को लेकर लकीर गाढी हो रही हैं तो दूसरी ओर सियासी उलटफेर में सिक्किम नई करवट ले रहा हैं। गौरतलब हैं कि सिक्किम की राजनीति में बीती 13 अगस्त को बडा उलटफेर देखने को मिला जब पूर्व मुख्यमंत्री पवन चामलिंग की पार्टी सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट के दस विधायक भाजपा में षामिल हो गये। अब इस राजनीतिक दांव-पेंच को किस रूप मंे देखा जायें जहां कि भाजपा का एक भी विधायक नहीं हैं वहीं अब 32 विधानसभा वाले सिक्किम में इसकी संख्या 10 हो गयी हैं। सिक्किम विधानसभा चुनाव में खाता भी नहीं खोल पायी बीजेपी एक झटके में जीरो से हीरो बन गयी जाहिर हैं अब वह वहां दूसरे नम्बर की पार्टी हो गयी हैं जो विपक्षी की भूमिका निभायेगी। फिलहाल सिक्किम की राजनीति एक नई सियासी समझ देष की जनता को षायद दे रही हैं। 
अभी कुछ दिनों पहले गोवा और कर्नाटक में भी ऐसे कुछ सियासी पैतरें देखने को मिले जिसमें ना तो दल-बदल हुआ और ना ही कुछ टूटने की आवाज आयी। मगर इसके चलते लोकतन्त्र के प्रति संवेदनषीलता रखने वालों के लिए कुछ चीजे नागवार गुजरी हैं। गौरतलब हैं की कर्नाटक में जेडीएस-कांग्रेस गठबन्धन की सरकार का यहां लोप हो चुका हैं और मौजूदा समय में भाजपा सत्ता पर काबिज हैं।  भारत दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देष हैं। राजनीति इस विषालम लोकतांत्रिक देष के लिए जीवटता और पारदर्षिता का परिचायक रही हैं बावजूद इसके यदि सर्वाधिक गिरावट किसी चीज में आयी हैं तो वह राजनीति में ही देखी जा सकती हैं। जहां धनबल, बाहुबल और अपराध का मिश्रण देखा जा सकता हैं। स्वतन्त्रता दिवस  का  73वां साल समाप्त हो रहा हैं और देष की सबसे बड़ी पंचायत संसद मौजूदा समय में भी अपराधियों से मुक्त नहीं हैं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद स्थापित लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रथम 3 दषकों तक केन्द्र में एक षक्तिषाली दल का वर्चस्व कायम रहा तथा 1977 तक कांग्रेस की स्पश्ट बहुमत की सरकार बनती रही। जाहिर हैं कि राजनीति में एकाधिकार का बोलबाला था और चुनौती का आभाव। हालांकि यह दौर भी राजनीतिक पारदर्षिता से ओत-प्रोत नही था। 1975 में लागू आपातकाल के परिणाम स्वरूप 1977 के चुनाव में कई राजनीतिक दलों का चुनाव पूर्व गठबन्धन सरकार बनाने में सफल रहा और यही पहला दौर था जब गैर-कांगे्रसी सरकार की देष में स्थापना हुई। इसी को गठबंधन की राजनीति का आरम्भ भी माना गया पर यह टिकाऊ नहीं रहा मगर एक बात तो तय था कि एकाधिकार वाले दल को हराया जा सकता हैं इसका पता चल चुका था। आजादी साल दर साल बूढ़ी होती जा रही थी और राजनीति नई अंगडाई के साथ नये प्रयोगो से दो-चार हो रही थी। 1989 में दूसरी बार गठबन्धन की राजनीति का उदय हुआ और यह सिलसिला 2014 तक चला और इससे मुक्ति तब मिली जब प्रचंड बहुमत के साथ भाजपा ने मोदी के नेतृत्व में सत्ता हथियाई। मगर इस सवाल का जवाब और गहरा होता गया कि आखिर पारदर्षी राजनीति देष में कितना विस्तार लिये हुये हैं। गौरतलब हैं की 1990 की बाद की राजनीति सत्ता लोभ के चलते कहीं अधिक विकृत रूप ले लिया था।  
मानव सभ्यता को विकास को जिन कारकांे ने प्रभावी किया उनमें भारत की स्वाधीनता भी अछूती नहीं हैं हम इस बात को षायद पूरे मन से अहसास नहीं कर पाते कि स्वतंत्रता दिवस क्या चिन्हित करना चाहता हैं। आषाआंे की  कोख से ही अपेक्षाएं जन्म लेती हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने तो यहां तक कहा कि अगर उपलब्धियों के बारे में बोलूं तो हफ्ते भर लाल किले पर बोलना पडे़गा। यह संदर्भ नीति और नीयत दोनों के लिए अच्छा ही है पर जिन पर अभी कुछ खास नहीं हुआ है उन पर भी बोलने के लिए कुछ कर गुजरना बाकी है। स्वतंत्रता दिवस देष का एक ऐसा महोत्सव है जहां से करोड़ों की तकदीर बदलने वाली कई घोशणायें भी होती हैं। जहां से लोकतांत्रिक नवाचार को सम्बल मिलता है। इतना ही नहीं जीवन के हर क्षेत्र से जुडे़ उन तमाम आयामों का भी खुलासा होता है जो सरकार की इच्छाओं का पुलिंदा है। नवाचार से लैस कौषल विकास, युवा विकास, सामाजिक न्याय और ग्रामीण विकास व महिला सषक्तिकरण समेत सामाजिक न्याय का प्रतिबिंब भी यहां से झलकता है। अपने पहले स्वतंत्रता दिवस को प्रधानमंत्री के रूप में मोदी ने कई ऐसी घोशणायें की थी जिससे भारत की धरती कई अधिक पुख्ता बन सके। पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा था कि ‘हमारे राश्ट्र की आत्मा गांव में बसती है। आज इन्हीं गांव के उत्थान एवं विकास के लिए पंचायती राजव्यवस्था पिछले ढाई दषक से कारगर भूमिका के तौर पर सराही जा रही हैं। स्वतन्त्रता के ऐसे अवसर पर वहां भी ध्यान जाता है जहां षायद इसके पहले गया ही न हो मसलन झुग्गी मुक्त भारत। मौजूदा परिस्थिति में देखा जाय तो लोकतंत्र गाढी लकीर पर दौड़ रहा है मगर उसी के साथ सरपट दौड़ने वाली राजनीति उतनी सफेद नहीं हैं। जाहिर हैं सियासी भंवर में सत्ता की खोज सभी को हैं पर एक संकल्प यह भी दौहराना जरूरी हैं कि जिस प्रकार देष की आजादी के लिए नई-नई क्रान्तियों पर विचार किया गया उसी प्रकार पारदर्षी राजनीति के लिए भी बेहतर चिंतन उत्पादित करना होगा। भले ही कई बातें दल-बदल कानून से बाहर हो पर नैतिकता के दायरे में यदि वह नहीं हैं तो उससे बचना राजनीतिक दल उसे अपना धर्म समझें। हालंकि राजनीति का चष्मा अलग होता हैं इसलिए उसकी दृश्टि किसी भी तरह सत्ता मिले उसी पर टिकी रहती हैं।  
 राजनीतिक दलों का नैतिक पतन को देखते हुए 1985 में दल-बदल कानून आया और 2003 में इसमें व्यापक संषोधन करते हुये इसे और षक्तिषाली बनाया गया मगर अभी भी कसर बाकी हैं। देष की षीर्श अदालत भी राजनीति में अपराध को लेकर चिन्ता प्रकट करते हुए विधायिका को यह कानून बनाने की सलाह दी थी। गौरतलब हैं कि राजनीति दलों को यह हिदायत दी गई हैं कि टिकट देते समय उम्मीदवारों की पूरी छानबीन करें और इससे जनता को भी अवगत करायें। 15 अगस्त कोई मामूली दिन नहीं हैं यह 200 वर्शो के संघर्श के बाद मिली एक ऐसी आजादी का दिन हैं जिसके लिए अकूत संघर्श किये गये हैं। खास यह भी हैं कि इसी दिन दक्षिण कोरिया, बहरीन और कांगो भी अपनी स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं। प्रत्येक स्वतत्रता दिवस का अपना एक संदेष हैं जैसे की स्वाधीनता संघर्श के दिनों में हर आन्दोलन एक नई ताकत से भरा था। देष स्वधीनता के 73 साल पूरे कर रहा हैं, मजबूत लोकतंत्र के साथ आगे बढ़ रहा हैं ऐसे में यदि पारदर्षी राजनीति जिसका देष में आभाव हैं यदि प्रभाव में बदल जाती तो आजादी के मायने भी और बदले हुए दिखायी देंगे।


सुशील कुमार सिंह
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संविधान के भीतर लिखा गया इतिहास

अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कष्मीर 7 दषक से विषेश राज्य के दर्जे के साथ कई बाध्यतायें समेटे हुए था। यथा नीति निर्देषक तत्व का यहां लागू न होना साथ ही वित्तीय आपात यहां लागू नहीं किया जा सकता। अवषिश्ट षक्तियां केन्द्र के पास है जबकि यहां जम्मू-कष्मीर के पास थी। सम्पत्ति के अधिकार मौलिक अधिकार नहीं रहा पर यहां अभी भी बरकरार था। हालांकि अन्य राज्यों में यह अनुच्छेद 300(क) के तहत वैधानिक अधिकार है। अनुच्छेद 352 के तहत राश्ट्रीय आपात हो या फिर संविधान में उल्लेखित वे तमाम सीमाएं जिसके लिए राज्य की सहमति आवष्यक थी। ऐसी तमाम बाध्यताओं से अब यह प्रान्त अनुच्छेद 370 से मुक्त हो गया। 5 अगस्त के इस ऐतिहासिक दिन को देखते हुए औपनिवेषिक काल की अगस्त क्रान्ति की याद ताजा हो गयी। गौरतलब है कि इतिहास में दर्ज 9 अगस्त, 1942 अगस्त क्रान्ति के लिए जाना जाता है। तब यह अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ों आंदोलन था। इस क्रान्ति के ठीक 5 बरस बाद 15 अगस्त, 1947 को देष में स्वतंत्रता का महोत्सव मनाया गया। तत्पष्चात् सालों की मेहनत के बाद 26 जनवरी, 1950 को देष में संविधान नये रूप रंग के साथ भारत को नई दिषा और दषा देने के लिए धरातल पर उतर चुका था पर उत्तर के हिमालय में बसा जम्मू-कष्मीर षेश भारत से अलग पहचान लेकर एक अलग प्रतिबिंब के साथ 7 दषकों से विवादित बना रहा। इस विवाद से मुक्ति पाने का मार्ग कई बार खोजने का प्रयास समय-समय की सरकारों द्वारा किया गया पर अनुच्छेद 370 से स्वतंत्रता नहीं मिली। विषेश राज्य के रूप में जम्मू-कष्मीर षेश भारत को मानो चिढ़ाने का काम किया है। अनुच्छेद 370 को हटाने को लेकर मांगे प्रबल होती गयी। इसी दौरान दो साल पहले अनुच्छेद 35ए की पहेली में इस प्रदेष को कई समस्याओं में उलझा दिया और हुक्मरानों के लिए ये दोनों चुनौती बन गये। अनुच्छेद 35ए से उठे विवाद को देखते हुए मामला पिछले साल अगस्त में षीर्श अदालत की चैखट पर गया जबकि अनुच्छेद 370 को लेकर भी इसी अगस्त माह में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होने की सम्भावना प्रबल हो गयी। मगर संविधान के भीतर इतिहास की लिखावट भी इसी समय अलग रूप ले रही थी जिसका संदर्भ 5 अगस्त को उभर कर सामने आया जब गृहमंत्री अमित षाह ने राज्यसभा में अनुच्छेद 370 के खात्मे का एलान किया। वाकई यह एक और अगस्त क्रान्ति का आगाज़ था।
जम्मू-कष्मीर में धारा 370 हटा दी गयी है। यहां प्रदेष को नया रूप दे दिया गया है और नई पहचान भी। जम्मू-कष्मीर अब केन्द्र षासित प्रदेष बन गया है इतना ही नहीं इसके साथ लद्दाख का हिस्सा अब इसके साथ नहीं रहेगा। कहा जाय तो जम्मू-कष्मीर और लद्दाख दो केन्द्र षासित प्रदेष होंगे। अंतर यह है कि लद्दाख में विधानसभा नहीं होगी। इस तरह अब भारत में राज्यों की संख्या 28 और केन्द्र षासित प्रदेष 9 हो गये हैं। जम्मू-कष्मीर का क्षेत्रफल, आबादी और वहां के नियम-कानून सब बदल गया है। जो संविधान में निहित नीति-निर्देषक तत्व के वहां नहीं लागू होते थे वो सब अब वहां बहाल हो जायेंगे। नौकरी, सम्पत्ति और निवास के विषेश अधिकार समाप्त हो जायेंगे जाहिर है कि यह क्षेत्र भी आम भारत हो जायेगा। अन्य राज्यों के लोग जमीन लेकर बस सकेंगे न इसका अलग झण्डा होगा बल्कि हर जगह तिरंगा होगा। दोहरी नागरिकता जैसे प्रावधान का खात्मा। अनुच्छेद 35ए के तहत जो जकड़न से प्रदेष जकड़ा हुआ था उससे भी इसे मुक्ति मिल जायेगी। गौरतलब है कि यदि जम्मू-कष्मीर की लड़की अगर किसी बाहर के लड़के से षादी करे तो उसके सारे अधिकार खत्म हो जायेंगे यह नियम भी अब यहां से उखाड़ दिया गया है। अनुच्छेद 35ए के जरिए कई ऐसे 80 फीसदी पिछड़े और दलित हिन्दू समुदाय थे जो स्थायी निवास प्रमाण पत्र से वंचित थे सही मायने में वे 5 अगस्त को स्वतंत्र हुए हैं। इतना ही नहीं जो कष्मीरी पण्डित 3 दषक पहले वहां से पलायन कर चुके हैं उनकी वापसी के न केवल मार्ग खुल गये बल्कि षेश भारत के साथ घुलने-मिलने का पूरा परिप्रेक्ष्य वहां नये सिरे से तैयार होगा। जाहिर है अनुच्छेद 370 और 35ए के उपनिवेष जम्मू-कष्मीर राहत की सांस ले रहा है।
जम्मू-कष्मीर पर्यटन का बड़ा केन्द्र है यह एक मुस्लिम बाहुल्य राज्य था। कष्मीर की ज्यादा आबादी मुस्लिम जबकि जम्मू में 65 फीसदी हिन्दू और 30 फीसदी मुसलमान रहते हैं। ईष्वर ने कष्मीर घाटी को बड़ी विधिवत से बनाया है पर आतंकियों की बुरी नजर से यह कभी आबाद नहीं रही। यहां जल की बहुलता है, सरोवर की भरमार है और खूबसूरत मीठे पानी की झीले हैं पर आतंक और अलगाव का कड़वाहट से भी घाटी पटी रही। मोदी का एक षासनकाल निकल गया विरोधी अनुच्छेद 370 को लेकर ताना देते रहे पर उन्हें क्या मालूम कि प्रचण्ड बहुमत की मोदी सरकार अपनी दूसरी पारी में बड़े मौके खोज रही है। अनुच्छेद 370 का खात्मा एक ऐतिहासिक घटना है। यह कोई मामूली बात नहीं है कि जिस अनुच्छेद को हटाने के लिए सरकारों के माथे पर बल आते रहे उसी को मोदी सरकार ने एक झटके में तहस-नहस कर दिया। जिस प्रकार जम्मू-कष्मीर का बंटवारा हुआ वह भी आवष्यक प्रतीत होता है। लद्दाख को अलग करके एक नई तरकीब के साथ देष चलाने की कोषिष की गयी है। गौरतलब है कि लद्दाख उत्तर में काराकोरम पर्वत और दक्षिण में हिमालय पर्वत के बीच है। इसके उत्तर में चीन तो पूरब में तिब्बत की सीमाएं हैं जाहिर है सामरिक दृश्टि से इसका बड़ा महत्व है। खास यह भी है कि जम्मू-कष्मीर के जहां अनुच्छेद 370 स्वतंत्र हुआ वहीं अलगाववादी से लेकर कुछ मुख्य दलों के षीर्श नेतृत्व को नजरबंद किया जा चुका था हालांकि अलगाववादियों पर षिकंजा महीनों पहले ही कसा जा चुका है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि सरकार ने अपनी मंषा को संदेह में नहीं बदलने दिया और जिस तर्ज पर अनुच्छेद 370 का खत्मा किया उससे कईयों के होष पख्ता हैं। अनुच्छेद 370 ही यदि दर्द था तो इसी का उपबंध (3) दवा भी था। गौरतलब है कि इस उपबंध के अनुसार राश्ट्रपति लोक अधिसूचना द्वारा घोशणा कर सकता है कि यह अनुच्छेद अब प्रवर्तन में नहीं रहेगा परन्तु ऐसी अधिसूचना से पहले राज्य के संविधान सभा की सिफारिष आवष्यक है। साल 1947 में जम्मू-कष्मीर संविधान सभा के विघटित हो जाने के कारण उक्त विधिक मान्यता निश्प्रभावी थी ऐसे में सरकार ने जो कदम उठाया वह संविधान सम्मत् और मर्ज के पूरे इलाज से भरा था।
कांग्रेस के नेता और जम्मू-कष्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने 5 अगस्त को इतिहास का काला दिन बताया जबकि बसपा, एआईडीएमके, बीजद सहित कई दल सरकार के इस निर्णय के साथ हैं। दुविधा यह है कि क्या कांग्रेस अनुच्छेद 370 का अभी भी समर्थन कर रही है या फिर अपनी राजनीतिक जमीन की फिराक में अनाप-षनाप पर उतारू है। जिस अनुच्छेद को लेकर बीते कई दषकों से चर्चा गर्म रही है और जम्मू-कष्मीर को मुख्यधारा में लाने के लिए कवायद जारी रही आज जब उस पर परिणाम आया है तो कांग्रेस के सुर इतने तल्ख क्यों? गुलाम नबी आजाद जम्मू-कष्मीर के मर्म को षायद बेहतर समझते हैं इसलिए तेवर कड़े हैं पर क्या षेश कांग्रेसी भी ऐसा ही विचार रखते हैं। राजनीतिज्ञों को यह समझ लेना ठीक रहेगा कि अनुच्छेद 370 महंगाई और बेरोज़गारी जैसा मुद्दा नहीं था। यह संविधान का वह दर्द था जिसकी दवा खोजने में 7 दषक लग गये। जल रहे घाटी को निजात दिलाने की कई कोषिषों का यह अंतिम निश्कर्श है। फिलहाल सरकार के साहस को सलाम किया जाना चाहिए। अभी सब कुछ ठीक नहीं है और जम्मू-कष्मीर में हाई अलर्ट जारी है, देष में भी कमोबेष कहीं-कहीं तनाव होगा पर अनुच्छेद 370 के खात्मे से पूरे भारत में महोत्सव सा माहौल तो है। 




सुशील कुमार सिंह
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आज़ाद भारत की अगस्त क्रांति

गौरतलब है कि इतिहास में दर्ज 9 अगस्त, 1942 अगस्त क्रान्ति के लिए जाना जाता है। तब यह अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ों आंदोलन था। इस क्रान्ति के ठीक 5 बरस बाद 15 अगस्त, 1947 को देष में स्वतंत्रता का महोत्सव मनाया गया। तत्पष्चात् सालों की मेहनत के बाद 26 जनवरी, 1950 को देष में संविधान नये रूप रंग के साथ भारत को नई दिषा और दषा देने के लिए धरातल पर उतर चुका था पर उत्तर के हिमालय में बसा जम्मू-कष्मीर षेश भारत से अलग पहचान लेकर एक अलग प्रतिबिंब के साथ 7 दषकों से विवादित बना रहा। इस विवाद से मुक्ति पाने का मार्ग कई बार खोजने का प्रयास समय-समय की सरकारों द्वारा किया गया पर अनुच्छेद 370 से स्वतंत्रता नहीं मिली। विषेश राज्य के रूप में जम्मू-कष्मीर षेश भारत को मानो चिढ़ाने का काम किया है। अनुच्छेद 370 को हटाने को लेकर मांगे प्रबल होती गयी। इसी दौरान दो साल पहले अनुच्छेद 35ए की पहेली में इस प्रदेष को कई समस्याओं में उलझा दिया और हुक्मरानों के लिए ये दोनों चुनौती बन गये। अनुच्छेद 35ए से उठे विवाद को देखते हुए मामला पिछले साल अगस्त में षीर्श अदालत की चैखट पर गया जबकि अनुच्छेद 370 को लेकर भी इसी अगस्त माह में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होने की सम्भावना प्रबल हो गयी। मगर संविधान के भीतर इतिहास की लिखावट भी इसी समय अलग रूप ले रही थी जिसका संदर्भ 5 अगस्त को उभर कर सामने आया जब गृहमंत्री अमित षाह ने राज्यसभा में अनुच्छेद 370 के खात्मे का एलान किया। वाकई यह एक और अगस्त क्रान्ति का आगाज़ था।
जम्मू-कष्मीर में धारा 370 हटा दी गयी है। यहां प्रदेष को नया रूप दे दिया गया है और नई पहचान भी। जम्मू-कष्मीर अब केन्द्र षासित प्रदेष बन गया है इतना ही नहीं इसके साथ लद्दाख का हिस्सा अब इसके साथ नहीं रहेगा। कहा जाय तो जम्मू-कष्मीर और लद्दाख दो केन्द्र षासित प्रदेष होंगे। अंतर यह है कि लद्दाख में विधानसभा नहीं होगी। इस तरह अब भारत में राज्यों की संख्या 28 और केन्द्र षासित प्रदेष 9 हो गये हैं। जम्मू-कष्मीर का क्षेत्रफल, आबादी और वहां के नियम-कानून सब बदल गया है। जो संविधान में निहित नीति-निर्देषक तत्व के वहां नहीं लागू होते थे वो सब अब वहां बहाल हो जायेंगे। नौकरी, सम्पत्ति और निवास के विषेश अधिकार समाप्त हो जायेंगे जाहिर है कि यह क्षेत्र भी आम भारत हो जायेगा। अन्य राज्यों के लोग जमीन लेकर बस सकेंगे न इसका अलग झण्डा होगा बल्कि हर जगह तिरंगा होगा। दोहरी नागरिकता जैसे प्रावधान का खात्मा। अनुच्छेद 35ए के तहत जो जकड़न से प्रदेष जकड़ा हुआ था उससे भी इसे मुक्ति मिल जायेगी। गौरतलब है कि यदि जम्मू-कष्मीर की लड़की अगर किसी बाहर के लड़के से षादी करे तो उसके सारे अधिकार खत्म हो जायेंगे यह नियम भी अब यहां से उखाड़ दिया गया है। अनुच्छेद 35ए के जरिए कई ऐसे 80 फीसदी पिछड़े और दलित हिन्दू समुदाय थे जो स्थायी निवास प्रमाण पत्र से वंचित थे सही मायने में वे 5 अगस्त को स्वतंत्र हुए हैं। इतना ही नहीं जो कष्मीरी पण्डित 3 दषक पहले वहां से पलायन कर चुके हैं उनकी वापसी के न केवल मार्ग खुल गये बल्कि षेश भारत के साथ घुलने-मिलने का पूरा परिप्रेक्ष्य वहां नये सिरे से तैयार होगा। जाहिर है अनुच्छेद 370 और 35ए के उपनिवेष जम्मू-कष्मीर राहत की सांस ले रहा है।
जम्मू-कष्मीर पर्यटन का बड़ा केन्द्र है यह एक मुस्लिम बाहुल्य राज्य था। कष्मीर की ज्यादा आबादी मुस्लिम जबकि जम्मू में 65 फीसदी हिन्दू और 30 फीसदी मुसलमान रहते हैं। ईष्वर ने कष्मीर घाटी को बड़ी विधिवत से बनाया है पर आतंकियों की बुरी नजर से यह कभी आबाद नहीं रही। यहां जल की बहुलता है, सरोवर की भरमार है और खूबसूरत मीठे पानी की झीले हैं पर आतंक और अलगाव का कड़वाहट से भी घाटी पटी रही। मोदी का एक षासनकाल निकल गया विरोधी अनुच्छेद 370 को लेकर ताना देते रहे पर उन्हें क्या मालूम कि प्रचण्ड बहुमत की मोदी सरकार अपनी दूसरी पारी में बड़े मौके खोज रही है। अनुच्छेद 370 का खात्मा एक ऐतिहासिक घटना है। यह कोई मामूली बात नहीं है कि जिस अनुच्छेद को हटाने के लिए सरकारों के माथे पर बल आते रहे उसी को मोदी सरकार ने एक झटके में तहस-नहस कर दिया। जिस प्रकार जम्मू-कष्मीर का बंटवारा हुआ वह भी आवष्यक प्रतीत होता है। लद्दाख को अलग करके एक नई तरकीब के साथ देष चलाने की कोषिष की गयी है। गौरतलब है कि लद्दाख उत्तर में काराकोरम पर्वत और दक्षिण में हिमालय पर्वत के बीच है। इसके उत्तर में चीन तो पूरब में तिब्बत की सीमाएं हैं जाहिर है सामरिक दृश्टि से इसका बड़ा महत्व है। खास यह भी है कि जम्मू-कष्मीर के जहां अनुच्छेद 370 स्वतंत्र हुआ वहीं अलगाववादी से लेकर कुछ मुख्य दलों के षीर्श नेतृत्व को नजरबंद किया जा चुका था हालांकि अलगाववादियों पर षिकंजा महीनों पहले ही कसा जा चुका है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि सरकार ने अपनी मंषा को संदेह में नहीं बदलने दिया और जिस तर्ज पर अनुच्छेद 370 का खत्मा किया उससे कईयों के होष पख्ता हैं। अनुच्छेद 370 ही यदि दर्द था तो इसी का उपबंध (3) दवा भी था। गौरतलब है कि इस उपबंध के अनुसार राश्ट्रपति लोक अधिसूचना द्वारा घोशणा कर सकता है कि यह अनुच्छेद अब प्रवर्तन में नहीं रहेगा परन्तु ऐसी अधिसूचना से पहले राज्य के संविधान सभा की सिफारिष आवष्यक है। साल 1947 में जम्मू-कष्मीर संविधान सभा के विघटित हो जाने के कारण उक्त विधिक मान्यता निश्प्रभावी थी ऐसे में सरकार ने जो कदम उठाया वह संविधान सम्मत् और मर्ज के पूरे इलाज से भरा था।
कांग्रेस के नेता और जम्मू-कष्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने 5 अगस्त को इतिहास का काला दिन बताया जबकि बसपा, एआईडीएमके, बीजद सहित कई दल सरकार के इस निर्णय के साथ हैं। दुविधा यह है कि क्या कांग्रेस अनुच्छेद 370 का अभी भी समर्थन कर रही है या फिर अपनी राजनीतिक जमीन की फिराक में अनाप-षनाप पर उतारू है। जिस अनुच्छेद को लेकर बीते कई दषकों से चर्चा गर्म रही है और जम्मू-कष्मीर को मुख्यधारा में लाने के लिए कवायद जारी रही आज जब उस पर परिणाम आया है तो कांग्रेस के सुर इतने तल्ख क्यों? गुलाम नबी आजाद जम्मू-कष्मीर के मर्म को षायद बेहतर समझते हैं इसलिए तेवर कड़े हैं पर क्या षेश कांग्रेसी भी ऐसा ही विचार रखते हैं। राजनीतिज्ञों को यह समझ लेना ठीक रहेगा कि अनुच्छेद 370 महंगाई और बेरोज़गारी जैसा मुद्दा नहीं था। यह संविधान का वह दर्द था जिसकी दवा खोजने में 7 दषक लग गये। जल रहे घाटी को निजात दिलाने की कई कोषिषों का यह अंतिम निश्कर्श है। फिलहाल सरकार के साहस को सलाम किया जाना चाहिए। अभी सब कुछ ठीक नहीं है और जम्मू-कष्मीर में हाई अलर्ट जारी है, देष में भी कमोबेष कहीं-कहीं तनाव होगा पर अनुच्छेद 370 के खात्मे से पूरे भारत में महोत्सव सा माहौल तो है। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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Wednesday, October 9, 2019

प्राथमिकताएं बदलने वाला अमेरिका

अमेरिका की यह फितरत रही है कि वह बाकियों के साथ रिष्ते अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर तय करता है और खत्म भी। अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान के साथ बीते सोमवार को व्हाइट हाउस में मुलाकात के दौरान कष्मीर पर मध्यस्थता वाली बात किसी के गले नहीं उतर रही। ट्रंप के अलावा सभी अमेरिकी और भारत समेत दुनिया के कई देष जो कष्मीर मामले को अच्छी तरह जानते हैं वे केवल इसे भारत-पाक के बीच का द्विपक्षीय मुद्दा मानते हैं। ऐसे में अमेरिकी राश्ट्रपति जो कह रहे हैं वो किसे खुष करना चाहते हैं। असल में कष्मीर पर निषाना लगाकर ट्रंप अपनी सियासी रोटी सेंकने की फिराक में है। गौरतलब है कि अगले साल नवम्बर में अमेरिकी राश्ट्रपति का चुनाव होना है और ट्रंप वोट हथियाने के चलते अपने निजी एजेण्डे कि वे षान्ति के बड़े पैरोकार हैं को लेकर चतुराई भरा कदम उठा रहे हैं। जो ट्रंप पाकिस्तान को दक्षिण एषिया में षान्ति बहाली के लिए खतरा बता रहे थे आतंकियों का सरगना बता रहे थे, आतंकियों के नाम पर अरबों रूपया गटकने वाला समझ रहे थे और यहां तक कहा कि पाकिस्तान ने बरसों से अमेरिका को बेवकूफ बनाया और आतंकियों का कारोबार करता रहा। अब उसी पाकिस्तान को अपने प्राथमिकता के आधार पर नया रंग दे रहे हैं। 
अफगानिस्तान में 14 हजार अमेरिकी सेना वर्तमान में मौजूद है जिन पर सालाना खर्च 36 अरब डाॅलर होता है। ट्रंप अमेरिकी सेना को अफगानिस्तान से निकालना चाहते हैं और यह उनके चुनावी एजेण्डे में भी था। और ऐसा पाकिस्तान की मदद से ही सम्भव है। ऐसे में पाकिस्तान की तरफ उनकी नरमी बदली परिस्थिति का कारण भी है। सभी जानते हैं कि पाकिस्तान इन दिनों अत्यंत खराब अर्थव्यवस्था से जूझ रहा है और उस पर यह आरोप है कि वह दुनिया भर में कटोरा लेकर घूम रहा है। पाक विदेष मंत्री ने अमेरिकी दौरे में ही कहा है कि वे यहां कटोरा लेकर भीख मांगने नहीं आये हैं। इमरान खान यह भी कबूल कर चुके हैं कि अमेरिका के भीतर 30 - 40 आतंकी नेटवर्क और 30 से 40 हजार आतंकी हैं। बावजूद इसके अमेरिका कोई कठोर कदम उठायेगा स्थिति फिलहाल दिखती नहीं है। कुछ दिनों पहले अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश कुछ षर्तों के साथ पाकिस्तान को 6 अरब डाॅलर कर्ज देने के लिए तैयार हुआ। सम्भव है कि यह बिना अमेरिका की सहमति के नहीं हुआ होगा। अमेरिका तो अपने निजी हितों को साधने की फिराक में पाकिस्तान के साथ सैन्य सहयोग  बढ़ाने पर भी विचार कर सकता है। चीन के साथ उसका ट्रेड वाॅर अभी थमा नहीं है और भारत द्वारा बढ़ाई गयी ड्यूटी साथ रूस से एस-400 की खरीदारी भी उसके गले नहीं उतर रही। यहां भी कूटनीतिक संतुलन के चलते पाक के साथ अच्छा रवैया रखने का उसके पास बड़ी वजह है। 
20 जनवरी 2017 से ट्रंप अमेरिका के राश्ट्रपति हैं और उनकी झूठ वाली छवि पूरी दुनिया में विख्यात है पर भारत को तो इन सबसे चैकन्ना रहना ही होगा। मुख्यतः कष्मीर मुद्दे पर ट्रंप के ऊल-जलूल बयान से तो बिल्कुल किनारा करने की जरूरत है। माना जा रहा है कि इस सितम्बर में प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा हो सकती है। इसके अलावा भारत-अमेरिका के बीच टू प्लस टू की वार्ता भी आयोजित होने की सम्भावना है जाहिर है बयान का इस पर असर होगा। फिलहाल सवाल है कि क्या ट्रंप का बदला रूख इमरान के पक्ष में है। यदि अफगानिस्तान से सेना बाहर निकालने की यह ट्रंप की रणनीति है तो इसका खुलासा तभी होगा जब तालिबान के साथ षान्ति वार्ता सफल होगी। यदि ऐसा नहीं हुआ तो अमेरिका इस प्राथमिकता से बाहर निकल कर अपने नये निजी हित की खोज में आगे बढ़ेगा। स्पश्ट है कि पाक के प्रति उसका पहले गरम और अब नरम रूख उसकी अवसरवादिता है और अमेरिका फस्र्ट की पाॅलिसी भी है। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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उच्च शिक्षा में निजी पहल

आज से दो दषक पहले पीटर ड्रकर ने ऐलान किया था कि आने वाले दिनों में ज्ञान का समाज दुनिया के किसी भी समाज से ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक समाज बन जायेगा। दुनिया में गरीब देष षायद समाप्त हो जायेंगे लेकिन किसी देष की समृद्धि का स्तर इस बात से आंका जायेगा कि वहां की षिक्षा का स्तर किस तरह का है। देखा जाय तो ज्ञान संचालित अर्थव्यवस्था और सीखने के समाज में उच्चत्तर षिक्षा अति महत्वपूर्ण है। जहां तक व्यावसायिक षिक्षा और पेषेवर प्रषिक्षण का सवाल है बीते कुछ दषकों से इसकी काफी मांग देखी जा सकती है। प्रायः निजी क्षेत्र की दिलचस्पी तकनीकी, व्यावसायिक और बाजार आधारित उच्चत्तर षिक्षा में अधिक है। गौरतलब है यषपाल समिति ने यह रेखांकित किया है कि यह इंजीनियरिंग, मेडिकल, प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में निजी निवेष अधिक हैं। इसके बावजूद परम्परागत विशय जैसे कला इत्यादि में अभी भी दाखिले अधिक हो रहे हैं। समिति ने यह भी कहा था कि निजी क्षेत्र को व्यावसायिक रूप से सुसंगत क्षेत्रों जैसे प्रबंधन, मेडिकल इत्यादि तक ही स्वयं को सीमित नहीं रखना चाहिए। इसलिए दाखिले की संख्या को बढ़ाने की जिम्मेदारी फिलहाल सरकार की है। हाल ही में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने नई षिक्षा नीति के पुर्नगठन हेतु मसौदा नीति प्रस्तुत की है। यह मसौदा नीति के0 कस्तूरीरंगन के नेतृत्व वाली समिति द्वारा तय की गयी है। इसके तहत षिक्षा के अधिकार अधिनियम के दायरे को विस्तृत करने का प्रयास किया गया है साथ ही स्नातक पाठ्यक्रमों में भी संषोधन की गुंजाइष देखी जा सकती है। गौरतलब है कि नई षिक्षा नीति का मसौदा तैयार करने का एनडीए सरकार का यह दूसरा प्रयास है। इसके पहले टीएसआर सुब्रमण्यम के नेतृत्व में एक समिति गठित की गयी थी जिसकी रिपोर्ट 2016 में आई थी। जाहिर है नई षिक्षा नीति को लेकर एक बार फिर चर्चा फलक पर हैं जबकि षिक्षा नीति कैसी भी हो परिस्थितियां हमेषा चुनौती रही ही हैं। 
भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व तीन विष्वविद्यालय की संख्या थी लेकिन अब इनकी संख्या यूजीसी की वेबसाइट पर जाकर देखा जाय तो सभी प्रारूपों मसलन केन्द्रीय विष्वविद्यालय, राज्य विष्वविद्यालय, डीम्ड व निजी विष्वविद्यालय समेत इनकी संख्या 600 से अधिक मिलेगी। आंकड़े को देखते हुए कह सकते हैं कि षिक्षा को लेकन विष्वविद्यालयों का विकास तेजी से हुआ है पर जिस भांति षिक्षालयों का नेटवर्क देष भर में फैला षिक्षा की गुणवत्ता उसी मात्रा में नहीं रही। वर्शों से सरकार द्वारा पैसों में लगातार की जा रही कमी अच्छी षिक्षा न मिल पाने का प्रमुख कारण रहा है। गौरतलब है कि 1968 में कोठारी आयोग ने अनुमान लगाया था कि लोगों को गुणवत्तापूर्ण षिक्षा प्रदान करने के लिए षिक्षा पर जीडीपी का 6 प्रतिषत खर्च किया जाना चाहिए पर हकीकत यह है कि 2013-14 के बजट में जिस षिक्षा पर जीडीपी का 4.6 फीसदी खर्च होता था वही वित्त वर्श 2019-20 आते-आते वही महज 3 फीसदी से थोड़े ऊपर पर सिमट गया। जीडीपी से षिक्षा का मोल समझना एक तरीका मात्र है जो एक वर्श में देष का कुल उत्पादन है। हकीकत तो यह भी है कि षिक्षा को लेकर सरकारें हमेषा प्रयोगोन्मुख रही हैं। सटीक षिक्षा प्रणाली क्या हो उस पर आने वाला खर्च कितना वाजिब है षायद इस पर ठीक से काम अभी तक भी नहीं हुआ। वास्तविक षैक्षिक आजादी, आर्थिक विकास और सही मायने में किसी समतावादी समाज की कुंजी है और यह आजादी एक स्वतंत्र सरकारी रूप से वित्त पोशित उच्च षिक्षा प्रणाली के तहत ही सम्भव है। परन्तु जिस प्रकार उच्चत्तर षिक्षा में निजी पहल बढ़ी है उससे गिरने वाला स्तर संभल नहीं पाया। निजी उच्च षिक्षण संस्थाओं पर अक्सर यह आरोप लगता है कि वे विद्यार्थियों से कैपिटेषन फीस वसूलते हैं इससे उनकी षिक्षा वहन नहीं होती। निजी संस्थानों के फीस के ढांचे के कारण सभी लोगों की पहुंच उच्च षिक्षा तक नहीं हो पाती। कैपिटेषन फीस के मामले में यषपाल समिति ने 2008 में अचम्भित करने वाली रिपोर्ट दी थी।  
उच्च षिक्षा को लेकर दो प्रष्न मानस पटल पर उभरते हैं प्रथम यह कि क्या विष्व परिदृष्य में तेजी से बदलते घटनाक्रम के बीच उच्चत्तर षिक्षा, षोध और ज्ञान के विभिन्न संस्थान स्थिति के अनुसार बदल रहे हैं, दूसरा क्या अर्थव्यवस्था दक्षता और प्रतिस्पर्धा के प्रभाव में षिक्षा के हाइटेक होने का कोई बड़ा लाभ मिल रहा है। यदि हां तो सवाल यह भी है कि क्या परम्परागत मूल्यों और उद्देष्यों का संतुलन इसमें बरकरार हैं। तमाम ऐसे और भी कयास हैं जो उच्च षिक्षा को लेकर उभारे जा सकते हैं। विभिन्न विष्वविद्यालयों में षुरू में ज्ञान के सृजन का हस्तांतरण, भूमण्डलीय सीख और भूमण्डलीय हिस्सेदारी के आधार पर हुआ था। षनैः-षनैः बाजारवाद के चलते षिक्षा मात्रात्मक बढ़ी पर गुणवत्ता के मामले में फिसड्डी होती चली गयी। केन्द्र में मानव संसाधन विकास मंत्रालय देष में षिक्षा से सम्बंधित नीतियां बनाता है और कानूनों एवं योजनाओं को लागू कराता है। मंत्रालय के तहत उच्च षिक्षा विभाग, उच्च षिक्षा क्षेत्र के लिए उत्तरदायी है। राज्य स्तर पर राज्य षिक्षा विभाग उपरोक्त कार्य करते हैं। सवाल यह है कि उच्च षिक्षा की तस्वीर कैसे बदले? जब देष के आईआईटी और आईआईएम निहायत खास होने के बावजूद दुनिया भर के विष्वविद्यालयों एवं षैक्षिक संस्थाओं की रैंकिंग में 200 के भीतर नहीं आ पाते हैं तो जरा सोचिए कि मनमानी करने वाली संस्थाओं का क्या हाल होगा। एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय के माध्यम से यह जता दिया था कि उच्च षिक्षा को लेकर वह कितना चिंतित है। खास यह भी है कि तकनीकी षिक्षा के लिए आॅल इण्डिया काउंसिल आॅफ टैक्निकल एजुकेषन (एआईसीटीई) को मानक तय करने के लिए 1987 में बनाया गया था जिसकी खूब अवहेलना हुई है और समय के साथ यूजीसी भी नकेल कसने में कम कामयाब रहा है। 
सच तो यह है कि सूचना, संचार और तकनीक में क्रान्ति ने उच्चत्तर षिक्षा के स्वरूप को ही बदल दिया है। एक कहावत है कि जिसके पास धन है उसी की चलती है। अगर सार्वजनिक विष्वविद्यालयों को बाहरी वित्त पर नियंत्रण करना पड़ा तो वे उच्चत्तर षिक्षा के परम्परागत संस्थानों के ‘ज्ञान के लिए ज्ञान‘, ‘सत्य की खोज‘, ‘षैक्षिक स्वतंत्रता और स्वायत्ता‘ आदि मूलभूत मूल्यों को बरकरार नहीं रख सकेंगे। चूंकि उच्चत्तर षिक्षा के लिए जरूरी महंगी तकनीक में निवेष करना सभी सरकारों के लिए सम्भव नहीं है। ऐसे में विष्वविद्यालय षैक्षिक पूंजीवाद के परिसर बन रहे हैं। सरकार ने यूजीसी की जगह उच्च षिक्षा आयोग को लाने की घोशणा कर दी है। हालांकि इससे जुड़े विधेयक के विरोध में अनेक तर्क दिये जाते रहे हैं। कई लोगों का मानना है कि यह विधेयक उच्च षिक्षा को निजीकरण की तरफ ले जाने वाला सिद्ध होगा। ऐसे में उच्च षिक्षा ही बाजार की ताकतों के हवाले हो जायेगा जबकि सच्चाई यह है कि षिक्षा से लेकर उच्च षिक्षा पर किया जाने वाला खर्च जीडीपी का बहुत मामूली हिस्सा रहा है। कोठारी समिति के हिसाब से भी देखें तो 6 फीसदी इस पर किया जाने वाला खर्च ही उच्च षिक्षा की गुणवत्ता को बरकरार रख पायेगा। जबकि सरकार इसके आधे पर खड़ी है। ऐसे में उच्च षिक्षा में निजी पहल समय की दरकार सम्भव है। काॅरनेल विष्वविद्यालय में अर्थषास्त्र के प्रोफेसर और वल्र्ड बैंक के अर्थषास्त्री कौषिक बसु का कहना है कि आम धारणा है कि अगर कोई लाभ कमाना चाहता है तो अच्छी षिक्षा कैसे दे सकता है यह एक गलत तर्क है। स्पश्ट है कि अच्छी खासी फीस के साथ गुणवत्तापूर्ण षिक्षा दी जा सकती है यह भी एक आम धारणा ही है पर देष के निजी विष्वविद्यालय जो मोदी फीस उगाहते हैं वो इस धारणा से काफी दूर खड़े दिखाई देते हैं। मगर सच्चाई यह भी है कि उच्च षिक्षा सरकार के बूते बड़ी नहीं हो सकती। इसमें निजी पहल मानो इसकी अपरिहार्यता हो गयी हो।   


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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न्यू इंडिया को चाहिए नै लोक सेवा

मैक्स वेबर ने अपनी पुस्तक सामाजिक-आर्थिक प्रषासन में इस बात को उद्घाटित किया था कि नौकरषाही प्रभुत्व स्थापित करने से जुड़ी एक व्यवस्था है। जबकि अन्य विचारकों की यह राय रही है कि यह सेवा की भावना से युक्त एक संगठन है। उक्त संदर्भ तब का है जब भारत औपनिवेषिक सत्ता में था। स्वतंत्रता के पष्चात् और समय की मांग के अनुरूप नौकरषाही को परिवर्तित करके संवेदनषीलता, कत्र्तव्यनिश्ठा और पारदर्षिता से ओतप्रोत करने का प्रयास किया गया पर सफलता दर मन माफिक तो नहीं रही है। 90 के दषक तक यह माना जाने लगा कि ब्रिटिष के इस्पाती कल-कारखानों की लोक सेवा जिसका नौकरषाही स्वरूप भी इस्पाती ही था वह मौजूदा समय में प्लास्टिक का रूप ले लिया है। जनता के प्रति लोचषील हो गयी है और सरकार की नीतियों के प्रति जवाबदेह पर हकीकत कुछ और भी है। मौजूदा सरकार पुराने भारत की भ्रांति से बाहर आकर न्यू इण्डिया की क्रान्ति लाना चाहती है जो बिना लोक सेवकों के मानस पटल को बदले सम्भव नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी लोक सेवकों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने को लेकर बीते कुछ वर्शों से प्रयास षुरू किये हैं। कुछ हद तक कह सकते हैं कि भ्रश्ट अधिकारियों के खिलाफ मोदी ने बड़े और कड़े कदम उठाये हैं। दरअसल देष में नौकरषाही हठ्वादिता को बढ़ावा देने का भी काम करती रही है साथ ही लालफीताषाही की जकड़न से विकास को भी बंधक बनाये हुए है। जिस नौकरषाही को नीतियों के क्रियान्वयन और जनता की खुषहाली का जिम्मा था वही षोशणकारी और अर्कण्मय हो जाय तो न तो अच्छी सरकार रहेगी और न ही जनता की भलाई होगी। मोदी षायद इस मर्म को समझते थे यही कारण है कि लालफीताषाही पर प्रहार करने के साथ उन्होंने लाल बत्ती को भी पीछे छोड़ना जरूरी समझा। यही कारण है कि 1 मई, 2017 से देष से लाल बत्ती गायब है। 
वैसे 24 जुलाई, 1991 के उदारीकरण के बाद से देष की प्रषासनिक आबोहवा में बदलाव आ चुका था। 1992 में विष्व बैंक द्वारा सुषासन की गढ़ी गई नई परिभाशा में नये भारत की नींव रख दी गयी थी। तभी से नई लोकसेवा का प्रवेष भारत में मानो हो गया था। द्वितीय प्रषासनिक सुधार आयोग की 21वीं सदी के षुरू में आयी रिपोर्ट में भी लोक सेवकों को लेकर अच्छे-खासे सुधार सुझाये गये। संविधान में उल्लेखित अनुच्छेद 311 पर आयोग काफी सख्त दिखाई दिया उसके हिसाब से इसमें मिली लोक सेवकों को सुविधा को समाप्त किया जाना चाहिए ताकि उनके अन्दर सेवा भाव को बढ़ाया जा सके। गौरतलब है कि अनुच्छेद 311 इन्हें सुरक्षा देने का काम करता है यदि इसकी समाप्ति होती है तो मेरिट इनकी मजबूरी हो सकती है। साल 2005 में सूचना का अधिकार लोक सेवकों पर लगाम लगाने वाला जनता को एक बड़ा हथियार मिल गया। प्रषासनिक अध्येता भी यह मानते हैं कि सूचना के अधिकार में षासन-प्रषासन के कार्यों में झांकने की जो षक्ति दी उससे भी लोक सेवकों में एक नई अवधारणा का सृजन हुआ और जनता के प्रति उनकी जवाबदेही बढ़ी। ठीक एक साल बाद साल 2006 की ई-षासन आंदोलन के चलते लोक सेवकों के भीतर नीति और उसके क्रियान्वयन को लेकर सषक्त स्वरूप के निर्माण को और बल मिला पर सरकारों की ढ़िलाई के चलते लोक सेवकों ने जनता के प्रति वो ईमानदारी नहीं दिखाई जो असल में होनी चाहिए थी। नई लोक सेवा न्यू इण्डिया को इसलिए चाहिए क्योंकि समय सीमा के भीतर विकास और रोज़मर्रा की समस्याओं पर सिंगल विंडो के तर्ज पर हल देना है। वैसे नई लोक सेवा की संकल्पना की षुरूआत जोनेट और राॅबर्ट द्वारा की गयी थी जिसका अभिप्राय है कि सरकार को एक सेवक अपना सेवा प्रदाता के रूप में देखा जाता है ताकि सरकार लोकतांत्रिक दायित्वों को पूरा कर सके। 
चुनौतियों से भरे देष, उम्मीदों से अटे लोग तथा वृहद् जवाबदेही के चलते मौजूदा मोदी सरकार के लिए विकास और सुषासन की राह पर चलने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है। भूमण्डलीकरण का दौर है जाहिर है लोक सेवा का परिदृष्य भी नया करना होगा ताकि न्यू इण्डिया में नये कवच से युक्त नई लोक सेवा नई चुनौतियों को हल दे। विकास की क्षमता पैदा करना, राजनीति का अपराधीकरण रोकना, भ्रश्टाचार पर लगाम लगाना और जनता का बकाया विकास उन तक पहुंचाना नई लोक सेवा की पहुंच में होना चाहिए। हित पोशण का सिद्धान्त भी यही कहता है कि लोकतंत्र के भीतर सब कुछ जनहित की ओर मोड़ देना चाहिए। मोदी से कई अपेक्षाएं हैं पूरी कितनी होंगी कहना मुष्किल है पर कोषिष भी न करें यह बिल्कुल सही नहीं है। देष का विकास यदि नागरिकों का विकास है तो न्यू इण्डिया फायदे का सौदा होगा और यदि नागरिकों का विकास ही देष का विकास है तो सरकार के लिए सब कुछ जनता होनी चाहिए। ऐसा करने के लिए सषक्त लोकनीति और सजग लोक सेवकों की आवष्यकता पड़ेगी पर विकासषील देष भारत में इनकी कहानी विष्वास और मूल्यों के मामले में थोड़ी खोखली है। नौकरषाही में बड़ी मात्रा में व्याप्त भ्रश्टाचार तभी समाप्त हो पायेगा जब नई लोक सेवा के आधार बिन्दु को अपनाया जाय। मूल्यों को तहस-नहस कर चुकी पुरानी सेवा ने जनता के समक्ष अपने विष्वास को भी खोखला किया है। ऐसे में नैतिक मूल्यों को जीवन में उतारने वाली नई सेवा इसकी भरपाई कर सकती है। मोदी न्यू इण्डिया का सपना दिखा कर नागरिकों में नया जोष तो भर रहे हैं। आगामी 2024 तक पांच ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था की चाहत के चलते भी भारत में एक नया रंग भरना चाहते हैं पर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि बिन लोक सेवा सपने पूरे नहीं होंगे। यहां डाॅनहम का यह कथन पूरी तरह तार्किक है कि “यदि हमारी सभ्यता नश्ट होती है तो ऐसा प्रषासन के कारण होगा।” 1960 के दषक में ही संथानम कमेटी नौकरषाही में भ्रश्टाचार दूर करने और दूसरे सुधारों के लिए बनाई गयी थी जिसकी रिपोर्ट 1962 में आयी और इसी की सिफारिष पर 1964 में केन्द्रीय सर्तकता आयोग बनाया गया था पर समय के साथ यह भी पूरा नहीं पड़ा। इसके अलावा दूसरी संस्थायें भी लगातार इस दिषा में सक्रिय रही। लोकपाल के गठन को लेकर भी 1968 से प्रयास जारी थे। जिसके लिए अधिनियम 2013 में पारित हुआ और लोकपाल की नियुक्ति मार्च 2019 में हुई। दुखद पक्ष यह है कि विकासषील और गरीबी से युक्त भारत में जहां सामाजिक उत्थान को बढ़ावा मिलना चाहिए वहीं नेताओं और नौकरषाहों ने दोनों हाथों से देष में लूट मचाई है।
भारत भ्रश्टाचार के मामले में 78वें पायदान पर है। एषियाई देषों में अभी भी सभी भ्रश्ट देषों में है। 2009 की रिपोर्ट कहती है कि नौकरषाही से काम निकलवाना सबसे मुष्किल है पर न्यू इण्डिया की चाह है तो नागरिकों को नई सेवा देनी ही होगी। विकासपरक प्रषासन की विषिश्टता सार्वजनिक जीवन में नैतिकता, लोकहित के लिए लोक कत्र्तव्य साथ ही सिविल सेवकों में जन उन्मुख मूल्य रोपित करने ही होंगे। पूर्व अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा ने कुछ वर्श पहले भारत की नौकरषाही की तारीफ की थी। यह महज सिक्के का एक पहलू है जबकि भ्रश्टाचार, लालफीताषाही, असंवेदनषीलता समेत कई मदों में नौकरषाही उस सुधार को प्राप्त नहीं कर पायी है जो नई लोक सेवा में होनी चाहिए। नई लोक सेवा जनसाधारण की महत्ता को समझती है, नागरिकों को वरीयता देती है और लोकहित को सर्वोपरि मानती है जबकि पुरानी लोकसेवा भ्रश्टाचार, लालफीताषाही और अकार्यकुषलता से ओत-प्रोत रहती है। महज विनिवेष, निजिकरण, पष्चिमीकरण, आधुनिकिकरण तथा वैष्वीकरण के प्रसार मात्र से लोकतांत्रिक मूल्य नहीं संवरेंगे। इससे देष दुनिया की छठी अर्थव्यवस्था हो सकता है। खरीदारी के मामले में वैष्विक स्तर पर तीसरा स्थान ले सकता है पर जब तक नौकरषाहों में कार्यकुषलता में कमी और भ्रश्टाचार बढ़ावा लिया रहेगा न्यू इण्डिया का सपना कोरा कागज ही रहेगा। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
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