Thursday, December 31, 2015

डिजिटल इंडिया से क्रिटिकल इंडिया तक

यद्यपि यह संतोश की बात है कि वैष्विक पटल पर भारत की छवि इस एक वर्श में तुलनात्मक बढ़त के साथ कायम है। जहां सातवें वाइब्रेंट गुजरात में संयुक्त राश्ट्र संघ के महासचिव से लेकर दुनिया के उद्योगपति, राजनयिक और प्रमुखों का भारत में एक मंचीय होना वर्श की बेहतर षुरूआत थी वहीं गणतंत्र दिवस के अवसर पर पहली बार अमेरिकी राश्ट्रपति का मुख्य अतिथि होना भारत की वैदेषिक नीति की मजबूत साख ही थी। पड़ोसी देषों के अलावा चीन, रूस, आॅस्ट्रेलिया सहित दो दर्जन देषों और कई अन्तर्राश्ट्रीय मंच पर भारत की उपस्थिति षानदार रही है। इतना ही नहीं वर्श के अंत में मोदी की काबुल से लाहौर की लैण्डिंग और ग्यारह साल बाद पाकिस्तान की जमीन पर किसी भारतीय प्रधानमंत्री का होना और इस तरह होने से विष्व की मीडिया से लेकर राजनयिक तक आवाक रह गये। फिलहाल साल 2015 गुजर गया है तथा 2016 मुहाने पर खड़ा है। यदि इसे राजनीतिक दृश्टिकोण के अन्तर्गत परखा जाए तो उठा-पटक से भरा साल कहा जाएगा जिसका असर आगे भी रहेगा। देखा जाए तो डिजिटल से लेकर क्रिटिकल इण्डिया तक की पड़ताल में कई संदर्भ दृष्यमान होते हैं। संसदीय कार्यकलापों को लेकर यह वर्श बेहद निराष करने वाला रहा है। अपेक्षाओं से भरी मोदी सरकार से जनता को क्या-क्या मिला इस पर भी विमर्ष जरूरी है। अटल पेंषन योजना, प्रधानमंत्री जीवन ज्योति योजना, बेटी-बचाओ, बेटी पढ़ाओ, प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, स्मार्ट सिटी योजना के अलावा दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना सहित दर्जन भर कार्यक्रम इस एक वर्श में देष की आम जनता को मिले हैं पर इन्हीं सुखद परियोजनाओं के बीच देष के किसानों को बेमौसम बारिष का षिकार होना पड़ा। इतना ही नहीं बारिष के दिनों में सूखे के बवंडर से भी किसान बच नहीं पाये और कोषिषें इस कदर मायूस हुईं कि क्या उत्तर, क्या दक्षिण देष के कई इलाकों से किसानों की मौत की खबरें आईं। वैसे तो दषकों से विदर्भ और बुंदेलखण्ड किसानों की मौत के केन्द्र रहे हैं पर इस वर्श बारिष और सूखे के चलते ऐसे केन्द्रों का विकेन्द्रीकरण होते हुए भी देखा गया।
देष की तकदीर किस्तों में बदलती है मसलन पांच साल की सरकार पांच किस्तों में देष के ताने-बाने को फलक पर ला सकती है। मई, 2014 से निर्मित मोदी सरकार की एक छमाही की पड़ताल पहले की जा चुकी है। 2015 की वार्शिक पड़ताल कुछ उम्मीद तो कुछ नाउम्मीद के साथ छलक रही है। फरवरी में हुए दिल्ली विधानसभा के चुनाव का एक तरफा होना लोकतंत्र में नये सरोकार और नये इतिहास के साथ हैरत में डालने वाला था। कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी बजट सत्र के ठीक पहले बिन बताये 56 दिन के लिए गायब रहे यह भी वर्श की कौतूहल से भरी घटना थी पर जब वे अप्रैल में लौटकर आये तब उन्हें किसानों की फिक्र करते हुए देखा गया। इन्हीं दिनों किसान दिसम्बर 2014 में जारी भू-अधिग्रहण अध्यादेष को लेकर दिल्ली में मार्च भी कर रहे थे। अधिनियमित करने की कई कोषिषों के बाद अन्ततः सरकार ने इस अध्यादेष को आगे न बढ़ाने का फैसला लिया। रोचक यह भी रहा कि सरकार की कई महत्वाकांक्षी योजनाएं कानून का रूप न ले पाई। अप्रैल में आये नेपाल के भूकम्प में भारत ने राहत और बचाव के लिए जी-जान लगा दिया पर नेपाल के नये संविधान ने कूटनीतिक रिष्तों को काफी तल्ख कर दिया। असल में नेपाल के नये संविधान में मधेसियों को वो हक नहीं दिया गया जिसके वे अधिकारी थे जिसके चलते मधेसियों का आंदोलन हुआ और इसके लिए भी लानत-मलानत भारत पर उतारा गया। हालांकि इन्हीं दिनों नेपाल में नई सरकार ने भी अवतार लिया था जिसका झुकाव इन दिनों चीन की ओर है। अब हाल यह है कि नेपाल के मामले में भारत एक बड़ी कूटनीतिक कमाई काफी हद तक खोने के कगार पर है।
गुजरात के पाटीदार आरक्षण को लेकर हार्दिक पटेल का फलक पर आना भी एक विमर्षीय संदर्भ रहा है। उत्तर प्रदेष के दादरी में हुई घटना ने तो भारत को एक बड़े विमर्ष की ओर ही धकेल दिया। आष्चर्यजनक यह है कि विपक्ष ने इसे तूल देते हुए सरकार पर सारा दोश मढ़ दिया। हालात इस कदर बिगड़ गये कि साहित्य जगत से लेकर कई फिल्मकार तथा कलमकार असहिश्णुता का माहौल बताते हुए सरकार के विरोध में आ गये जिसके चलते उन्होंने अवार्ड वापसी का जोरदार अभियान चलाया पर साल का अन्त होते-होते न्यायपालिका द्वारा एक सकारात्मक राय रखने के चलते असहिश्णुता को करारा जवाब दिया गया। प्रधान न्यायाधीष ने कहा था कि असहिश्णुता जैसा कोई माहौल देष में नहीं है और न्यायपालिका के रहते किसी को डरने की जरूरत नहीं। सबके बावजूद इस वर्श का भाजपाई सकून यह है कि जम्मू-कष्मीर में पीडीपी के साथ ही सही पहली बार सरकार बनाने का भाजपा को मौका मिला पर साल खत्म होते-होते बिहार विधानसभा की हार ने भाजपा की उम्मीदों पर पानी भी फेर दिया। इतना ही नहीं प्रधानमंत्री मोदी के मुखर विरोधी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीष कुमार की महागठबंधन की बड़ी जीत ने भारतीय राजनीति के फलक पर नये समीकरण को प्रकट कर दिया। जिसका नतीजा यह हुआ कि नाउम्मीद हो चुकी राजनीतिक पार्टियां भी हुंकार भरने लगी। बरसों से बिहार में सुप्त पड़ी कांग्रेस की षारीरिक भाशा बदल गयी। केन्द्र में मोदी ‘सुषासन‘ के अगुवा तो बिहार में नीतीष ‘सुषासन बाबू‘ की संज्ञा में रहे साथ ही बिहार की जीत ने न केवल नीतीष के कद को बढ़ाया बल्कि लालू की राजनीतिक विरासत को भी उबार दिया।
इस वर्श को इस रूप में भी जाना जायेगा कि सभी सत्रों में मोदी सरकार विधायी मुसीबत से छुटकारा नहीं पाई। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि पिछले पन्द्रह सालों में कहीं अधिक उपजाऊ इस वर्श का बजट सत्र ही रहा है पर व्यापमं से लेकर धर्मांतरण से जुड़े मुद्दे भी यहां छाए रहे। संसद का मानसून सत्र भी निराष करने वालों में ही गिना जाएगा। इसे पूरी तरह राजनीति की भेंट चढ़ते हुए देखा जा सकता है। जीएसटी जैसे विधेयक जिसे बड़ी प्रमुखता दी जा रही है इस सत्र में ही क्या पूरे वर्श मुंहकी ही खाते रहे। रही बात षीत सत्र की तो खर्च हुए करोड़ों और मुनाफा कुछ खास नहीं रहा कुल जमा पूंजी बामुष्किल एक दर्जन विधेयक ही अधिनियमित हो पाये। लगभग महीने भर चलने वाले इस सत्र में दो दिन संविधान को समर्पित थे बाकी दिन हंगामा बरपता रहा। इसी बीच नेषनल हेराल्ड की बीमारी से भी संसद जकड़ा था दिसम्बर में चेन्नई की बाढ़ ने साल के अन्त को बुरी तरह से पानी-पानी कर दिया। तीन बरस पुराना निर्भया मामला भी इस बीच प्रकाष में रहा। हालांकि नये ‘जुवेनाइल एक्ट‘ के चलते इसका अन्त सही हुआ। षीत सत्र में भी असहिश्णुता का मुद्दा पूरे दमखम के साथ छाया रहा। इन सबके बावजूद इस वर्श की सुषासनिक परियोजना ‘डिजिटल इण्डिया‘ को महत्व की दृश्टि से जरूर देखा जायेगा। देष में जिस तरह स्टार्टअप की गिनती बढ़ रही है, निवेष बढ़ रहा है, ई-काॅमर्स में बढ़ोत्तरी हो रही है। उसे देखते हुए स्टार्टअप इण्डिया-स्टैण्डअप इण्डिया के चलते तस्वीर बदलने की उम्मीद है। सबके बावजूद नीति और क्रियान्वयन को मजबूत करने के लिए जो प्रयोग इस वर्श हुए हैं उससे भारत में सुषासन को लेकर बड़ी कूबत वाली आहट सुनाई देती है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

Tuesday, December 29, 2015

निर्जीव पड़े इतिहास से कांग्रेस की किरकिरी

कांग्रेस में नई जान फूंकने और जड़ता को दूर करने के प्रयासों के बीच बीते दिन उसी के मुखपत्र में छपे लेखों से पार्टी नई मुसीबत में घिरती दिखाई देती है। पार्टी के 131वें स्थापना दिवस पर तब षर्मिन्दगी का सामना करना पड़ा जब उसी के मुखपत्र ने निर्जीव पड़े इतिहास के कई पन्नों का खुलासा हुआ। कष्मीर सहित कई मामले पर प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की नीतियों की आलोचना और सोनिया गांधी के पिता को फांसीवादी सैनिक के रूप में मुखर करना कांग्रेस के लिए एक अनचाही समस्या पैदा कर दी जो ‘आ बैल मुझे मार‘ की अवधारणा से युक्त हैं। दो अज्ञात लेखकों के लेख में कष्मीर, चीन और तिब्बत सम्बंधी मसलों के लिए नेहरू पर आरोप मढ़े गये। सोनिया गांधी पर विवादास्पद टिप्पणी की गयी जिसके चलते जहां कांग्रेस जांच-पड़ताल और लानत-मलानत में फंसी है वहीं भाजपा समेत कईयों को बैठे-बिठाए चुटकी लेने का अवसर मिल गया। ऐसा कभी नहीं हुआ कि पार्टी का मुखपत्र इतना त्रुटि से भरा हो कि स्वयं जवाब देते न बन रहा हो। दरअसल 15 दिसम्बर को देष के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल की पुण्य तिथि पर उन्हें श्रृद्धांजलि देने के मकसद से पार्टी के ‘कांगे्रस दर्षन‘ के हिन्दी संस्करण में लेख प्रकाषित था जिसमें लेखक का नाम नहीं था पर जो लिखा गया था वह कांग्रेस के लिए किसी बवंडर से कम नहीं था जिसमें सीधे तौर पर नेहरू की नीतियों की आलोचना की गयी है। इतना ही नहीं दो लेखों में विधिवत नेहरू और पटेल के रिष्तों पर विस्तार से लिखा गया है जिसमें साफ है कि दोनों के बीच सम्बन्ध निहायत तल्ख थे। जाहिर है कि इस गलती के चलते इन दिनों विपक्षियों के निषाने पर भी है।
यदि नेहरू सरदार पटेल की सुनते तो आज कष्मीर, चीन, तिब्बत और नेपाल की समस्याएं नहीं होती। नेहरू को अन्तर्राश्ट्रीय मामलों में पटेल की बात सुननी चाहिए थी। क्या पटेल और नेहरू दो किनारों की भांति थे और दोनों के बीच तनावपूर्ण सम्बंध थे लेख यही दर्षाता है। नेहरू प्रधानमंत्री तो पटेल उप-प्रधानमंत्री के साथ गृहमंत्री थे। 565 रियासतों को एक सूत्र में पिरोने वाले पटेल की दूरदर्षिता कई मायनों में बेहतरीन होने के बावजूद नेहरू के साथ एकाकीपन से दूर थी। मामला इस हद तक खराब था कि कई बार इस्तीफा देने की भी धमकियां दी गयी साथ ही लेख में यह कहा जाना कि पटेल की दूरदर्षिता का उपयोग नेहरू ने नहीं किया जिसके कारण अन्तर्राश्ट्रीय समस्याएं मुखर हुईं। वैसे नेहरू अधिकतर गांधी प्रभाव में रहें हैं और गांधी को भी नेहरू उन्मुख कहा जाना अतार्किक नहीं है। जानकार तो यह भी कहते हैं कि नेहरू गांधी के चलते ही देष के पहले पीएम बने थे। नेहरू-पटेल दोनों को औपनिवेषिक सत्ता का भरपूर अनुभव था और वे व्यक्तिगत विवादों से ऊपर उठ कर राश्ट्रहित के लिए समर्पित थे बावजूद इसके सम्बंधों में कुछ तल्खी बची रही। मुखपत्र में यह भी लिखा गया है कि चीन के मामले में भारत को उन दिनों सतर्क होना चाहिए था। तिब्बत को लेकर चीन की नीति के खिलाफ नेहरू को आगाह करते हुए चीन को एक विष्वासघाती देष बताया गया था। देखा जाए तो पटेल की मृत्यु के लगभग चार साल बाद 1954 में भारत और चीन के बीच पंचचील समझौते हुए थे जिसके पांच समझौते में एक समझौता परस्पर आक्रमण न करने का भी था बावजूद इसके 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया। जानकार मानते हैं कि चीन से हार के चलते नेहरू मनोवैज्ञानिक रूप से टूट गये थे।
मुखपत्र की मानें तो पटेल ने कष्मीर मुद्दे को संयुक्त राश्ट्र संघ में उठाने का भी विरोध किया था। यहां भी दोनों के बीच विचारों में एकाकीपन नहीं दिखाई देता। स्वतंत्रता के प्रारम्भिक वर्शों में जहां व्यापक आर्थिक सहयोग के साथ भारत को अन्तर्राश्ट्रीय समझ की जरूरत थी वहीं दो स्वतंत्रता के महानायक की आपसी रंजिष किसी न किसी समस्या की ओर इषारा भी थी। असल में उन दिनों चीन से समस्या भी तिब्बत के चलते ही पनपी। चीन ने स्वायत्त क्षेत्र तिब्बत पर 1950 में आक्रमण किया तथा राजधानी ल्हासा को अपने कब्जे में ले लिया। चीन का इस क्षेत्र पर अधिग्रहण 1959 में पूरा हो गया जिसके फलस्वरूप दलाई लामा और एक लाख तिब्बती भारत में षरण लिए हुए हैं। भारत तिब्बत को एक स्वायत्त क्षेत्र मानता है, दूसरी ओर चीन भारत पर यह आरोप लगाया कि भारत अपनी भूमि पर चीनी विरोधी गतिविधियों को समर्थन दे रहा है। चीन का तिब्बत को कब्जे में लेने और दलाई लामा का भारत में प्रवास लेना चीनी आक्रमण की बड़ी वजह मानी जाती है। वर्तमान नेपाल के नये संविधान में मधेसियों को जिस तरह दरकिनार किया है उससे नेपाल दो भागों में बंटने के साथ भारत पर अनाप-षनाप आरोप भी मढ़ रहा है जिसके चलते सम्बंध अपेक्षा से कहीं अधिक पीछे छूट गया है जबकि कष्मीर का विवाद आज भी यथावत है। हालांकि ये सब उन दिनों की तात्कालिक परिस्थितियों की देन है। इसे आज के परिप्रेक्ष्य में किसी एक व्यक्ति विषेश को लेकर आरोपित नहीं किया जा सकता। जिस अंदाज में मुम्बई कांग्रेस के मुखपत्र के हालिया संस्करण में यह सब कहा गया उससे तो यही लगता है कि एक निर्जीव इतिहास को अनायास पुनः जिन्दा कर दिया गया जिसकी फिलहाल जरूरत नहीं थी। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के पिता मुसोलिनी के सेनानी थे और वे फांसिस्ट थे ऐसे खुलासे भी उसमें निहित हैं।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या पार्टी के अन्दर कोई छवि खराब करने वाला वर्ग काम कर रहा है। क्या संजय निरूपम को क्लीन चिट दिया जा सकता है? हालांकि क्षेत्रीय कांग्रेस समिति के प्रमुख और मुखपत्र के संपादक संजय निरूपम ने यह कहते हुए षुरूआत में विवाद से स्वयं को अलग कर लिया कि वह पत्रिका के दिन-प्रतिदिन के क्रियाकलापों में षामिल नहीं हैं पर बाद में उन्होंने अपनी गलती स्वीकार करते हुए कहा कि मैं लेख से सहमत नहीं हूं, लेख कहीं से मंगाया गया है और लेखक कौन है मैं नहीं जानता। लेखकों का नाम प्रकाषित न होना भी मामले में संदिग्धता प्रतीत होती है साथ ही लेख की छपने से पहले पूरी तरह छानबीन न होने के चलते भी दाल में कुछ काले होने का संकेत मिलता है। कांग्रेस चाहे तो इसे छोटी घटना मान कर दरकिनार कर सकती है पर जब बातें ‘पब्लिक डोमेन‘ में चली जाती हैं तो मामला इतना सहज नहीं रह जाता। ऐसे में क्या कांग्रेस को इस पर सफाई नहीं देना चाहिए। यह सही है कि राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी करीब छः वर्शों तक राजनीति से स्वयं को दरकिनार किये हुए थी पर जब उन्होंने पार्टी की प्राथमिक सदस्यता ली तो उसके मात्र 62 दिनों में कांग्रेस की अध्यक्ष बन गयी। मुखपत्र इस बात के भी खुलासे से नहीं हिचकिचाता कि विवाह के सोलह साल बाद उन्होंने नागरिकता ली थी। कांग्रेस दर्षन का यह मुखपत्र जिस गौरवगाथा को बयान कर रहा है उससे कांग्रेसी भी औचक्क रह गये होंगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि मुखपत्र में छपा उक्त तथ्य किसी त्रुटि का परिणाम तो है पर कथन इतिहास के मुताबिक सटीक प्रतीत होता है। हालांकि दोनों लेखों में लेखकों के नाम नहीं हैं पर इसकी पड़ताल तो जरूरी है। फिलहाल कांग्रेस इस पर न कभी बहस चाहेगी और न ही कभी इस तरह का दोबारा कुछ सुनना ही चाहेगी।
   



लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502


सुशासन की सुधरती सेहत

सुषासन में निहित ई-गवर्नेंस की ज़्यादातर पहल में बिज़नेस माॅडल, पब्लिक-प्राईवेट पार्टनरषिप, समुचित तकनीक और स्मार्ट सरकार के साथ इंटरफेस उद्यमिता इत्यादि का उपयोग किया जाता है लेकिन आगे बढ़ने या आरम्भिक सफलता को दोहरा पाने में यह काफी हद तक विफल भी रहा है। यदि ई-गवर्नेंस को सचमुच नागरिकों की सषक्तिकरण की दिषा में आगे बढ़ाना है तो जरूरी है कि मूल्य-संवर्धित सेवाओं की व्यवस्था पर और अधिक ध्यान दिया जाए मसलन स्वास्थ्य, षिक्षा सहित कई बुनियादी समस्याएं आदि। बीते 28 दिसम्बर को केन्द्र सरकार ने सुषासन के लिए जरूरी 23 सेवाओं की षुरूआत की। संचार मंत्री रविषंकर प्रसाद ने डिजिटल इण्डिया अभियान के अन्तर्गत इन्हें बढ़ाने का परिप्रेक्ष्य विकसित किया। इसमें अजमेर षरीफ और हर की पौड़ी को वाई-फाई सहित छोटे षहरों में बीपीओ सेवाएं सहित कई षामिल हैं। इन दिनों सुषासन दिवस का दौर भी चल रहा है 25 दिसम्बर को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की जयन्ती होती है। पिछले वर्श मोदी सरकार ने इस दिन को सुषासन दिवस के रूप में प्रतिश्ठित किया था। चूंकि भारतीय समाज कई समस्याओं का संग्रह है जिसमें गरीबी, भुखमरी, कुपोशण, बेरोजगारी, अषिक्षा, बीमारी, सामाजिक-आर्थिक असमानता आदि की भरमार है। ऐसे में इन बुराईयों का सामना करने के लिए बुनियादी प्रषासन के साथ सुषासन को प्रगाढ़ किया जाना जरूरी है। फिलहाल सुषासन को लेकर बड़े कदम तो उठाए जा रहे हैं पर स्वयं सुषासन की सेहत तब ठीक हो पायेगी जब इसे लोक प्रवर्धित बनाया जायेगा। हालांकि सूचना का अधिकार, नागरिक घोशणा पत्र, ई-गवर्नेंस, सिटीजन चार्टर, ई-याचिका, ई-सुविधा सहित कई संदर्भ इस परिप्रेक्ष्य को कहीं अधिक पुख्ता बनाने में कारगर हैं।
सरकार की प्रक्रियाएं नागरिकों पर केन्द्रित होते हुए एक नये डिजाइन और सिंगल विंडो संस्कृति में तब्दील हो रही है। सुषासन की क्षमता को लेकर ढेर सारी आषाएं हैं और यह सबको सकारात्मक दायरे में समेट लेने वाली संरचना प्रदान करती है। इसके अलावा सरकार के क्षेत्र को वृहद और व्यापक बनाने का यह एक जरिया भी है जिसके तहत विधि का षासन, जवाबदेही, पारदर्षिता, दक्षता एवं प्रभावषीलता, समानता एवं समावेषन के अलावा भागीदारी जैसे तत्वों का निहित होना देखा जा सकता है। द्वितीय विष्व युद्ध के पष्चात् विष्व में अनेक कल्याणकारी कार्यक्रम वैष्विक संस्थानों द्वारा चलाये गये ताकि तृतीय विष्व के देषों में विकास सुनिष्चित किया जा सके। इस हेतु विष्व बैंक एवं अन्य दानदाता एजेंसियों ने इन देषों को ऋण आमंत्रित किये पर नतीजों से पता चलता है कि तमाम कोषिषों के बावजूद विकास को सुनिष्चित नहीं किया जा सका। विष्व बैंक ने इस विफलता पर संवेदनषीलता दिखाते हुए अध्ययन किया और सुषासन की अवधारणा दी। फ्राॅम स्टेट टू मार्केट रिपोर्ट, 1989 में इसे परिभाशित किया। विष्व बैंक मानता है कि सुषासन एक ऐसी सेवा से सम्बन्धित है जो दक्ष है, एक ऐसी न्यायिक सेवा से सम्बन्धित है जो विष्वसनीय है और एक ऐसे प्रषासन से सम्बन्धित है जो जनता के प्रति जवाबदेय है। असल में लोकहित का अधिकतम संवर्द्धन कैसे किया जाए यह सुषासन की मूल चिंता है और इसकी अवधारणा को पड़ताल करें तो पता चलता है कि यह चिंता तभी पूरी होगी जब नीतियों और लोक संस्थाओं में जनता की अधिकतम भागीदारी होगी। विकेन्द्रीकरण सुषासन की एक प्रविधि रही है भारत के नगरों और गांवों के विकास के लिए वर्श 1992 में संविधान में हुए 73वें और 74वें संविधान संषोधन को इस दिषा में निहित कदम माना जाता है जबकि 1991 में उदारीकरण के चलते नई आर्थिक अवधारणा से सुषासन को प्रारम्भिकी मिलती हुई दिखाई देती है।
इसमें कोई षक नहीं है कि मोदी के सुषासन की अवधारणा डिजिटल इण्डिया से ही होकर गुजरती है। भारत सरकार की यह एक ऐसी पहल है जिसके माध्यम से सरकारी विभागों को देष की जनता से जोड़ना है ऐसा कार्यक्रम जिसके लिए सरकार ने 1,13,000 करोड़ का बजट रखा। ढ़ाई लाख पंचायतों समेत छः लाख से अधिक गावों को ब्राॅडबैंड से जोड़ने का लक्ष्य है। अब तक 55 हजार पंचायतें इससे जोड़ी भी जा चुकी हैं। इन पंचायतों को ब्राॅडबैंड से जोड़ने हेतु 70 हजार करोड़ रूपए का बजट देखा जा सकता है। इतना ही 1.7 लाख आईटी पेषेवर तैयार करने का लक्ष्य भी षामिल है। डिजिटल इण्डिया की वजह से ही केन्द्र सरकार ने इलैक्ट्राॅनिक स्किल डवलेपमेंट की योजना की षुरूआत की जो देष के लोगों को सीधे जोड़ने का रोड मैप है दूसरे अर्थों में यह इतिहास बदलने और देष की तस्वीर बदलने की जोर आजमाइष भी कही जाएगी। सषक्त समाज क्या होता है तथा ज्ञान की पूंजी और उसकी अर्थव्यवस्था क्या होती है इसे समझना हो तो डिजिटल इण्डिया में झांका जा सकता है जो स्वयं में सुषासन का पूरा ताना-बाना है। सुषासन को बेहतर बनाने के लिए बीते दिनों जिन सेवाओं की षुरूआत हुई है वे आधुनिक विधा से न केवल युक्त हैं बल्कि वर्तमान की  आवष्यकता भी है। 28 दिसम्बर के आयोजित कार्यक्रम में सरकारी सेवाओं के भुगतान के लिए ई-पोर्टल को लाॅन्च किया। डिजिटल लाॅकर के लिए बना मोबाइल एप भी पेष किया। नौ भारतीय भाशाओं में टैक्स टू स्पीच  सेवा षुरू करने की मंजूरी के अलावा उत्तर प्रदेष और मध्य प्रदेष के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में मोबाइल टाॅवरों को भी लाॅन्च किया गया जो क्रमषः 78 एवं 16 होंगे। संचार मंत्री ने बीएसएनएल के न्यू जनरेषन के नेटवर्क का भी षुभारम्भ किया इसके अलावा एसटीपीआई के आठ सेन्टर भी लाॅन्च किये गये जिसमें दो-दो उत्तर प्रदेष और बिहार में जबकि चार उड़ीसा में होंगे।
तकनीकी तौर पर सुषासन को सुसज्जित करने के संसाधन निर्मित हो रहे हैं पर उन मुद्दों पर भी ध्यान होना चाहिए जो समय के साथ विकास का रूप नहीं ले पाये हैं। अब यह मत मान्य है कि सुषासन कोई पष्चिमी अवधारणा न होकर एक वैष्विक अवधारणा है जो सही मायनों में लोकतंत्र के लिए कहीं अधिक मुनाफे का सौदा है। विष्व स्तर पर प्रषासनिक सुधार की लहर के बीच सुषासन भारत में बड़ी ताकत के रूप में जगह ले रहा है। सूचना का अधिकार, नागरिक घोशणा पत्र और ई-गवर्नेंस इत्यादि एक ऐसी विधा है जहां से सुषासन ने नई करवट ली पर भारत के बुनियादी विकास का आलम यह है कि रोटी, कपड़ा और मकान कईयों के लिए अभी भी दूर की कौड़ी है। दषकों पीछे जाया जाए तो एषिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कुछ देष पचास के दषक में औपनिवेषिक सत्ता से तो मुक्त हुए जिसमें भारत भी षुमार है पर वैज्ञानिक अध्ययन के नितांत आभाव के चलते विकास मन माफिक नहीं हो सका। विगत् ढ़ाई दषकों से विकास की यात्रा कहीं अधिक समुचित इसलिए रही क्योंकि सषक्त आर्थिक नीतियां और सषक्त लोकतंत्र के साथ विज्ञान एवं तकनीक पहुंच में आई बावजूद अभी भी भारत जैसे देषों में षोध और अनुसंधान आभाव लिए हुए है। प्रषासनिक सुधार आयोग की सिफारिषों के लागू होने के हालात पूरी तरह अनुकूल नहीं देखे गये। फिलहाल  21वीं सदी के इस दौर में मोदी सरकार की तकनीकी पहल ‘डिजिटल इण्डिया‘ और आर्थिक पहल ‘मेक इन इण्डिया‘ के अलावा ‘स्टार्टअप इण्डिया-स्टैण्डअप‘ इण्डिया सहित कई कार्यक्रमों ने देष में सुषासन होने का बड़ा एहसास तो पैदा किया ही है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

Monday, December 28, 2015

कितनी कारगर है सरकार की सुशासन पर चिंता

सुषासन के लिए यह आवष्यक है कि प्रषासन का तरीका परम्परागत न हो बल्कि ये नये ढांचों, पद्धतियों तथा कार्यक्रमों को अपनाने के लिए भी तैयार हो। सुषासन के कुछ निर्धारक तत्व हैं जो वस्तुतः सुषासन के साध्य भी हैं जिसमें नौकरषाही की जवाबदेयता, सूचना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सरकार और सिविल सोसायटी के मध्य सहयोग के साथ मानवाधिकारों का संरक्षण भी षामिल है। इसके अतिरिक्त इसमें सूचना का अधिकार, नागरिक घोशणापत्र सहित सूचना प्रौद्योगिकी आदि का समावेषन भी है। नागरिकों के सषक्तिकरण, नागरिक प्रषासन अन्र्तसम्बन्ध, पारदर्षिता, संवेदनषीलता व भ्रश्टाचार में कमी का संदर्भ भी इसमें निहित लक्षण है। सुषासन को लेकर विष्व बैंक की संकल्पना का निहित पक्ष यह है कि यह जन केन्द्रित, लोक कल्याणकारी, पारदर्षी व जवाबदेय षासन व्यवस्था है जिसमें लोकतांत्रिक मूल्य गुणात्मक माने जाते हैं। भारत विकासषील देष है जबकि सुषासन की अवधारणा विकासषील देषों की पारिस्थितिकी को बिना ध्यान में रखकर दी गयी है। ऐसे में इस पर यह आरोप रहता है कि यह विकसित देषों के हितों का संवर्द्धन करता है। प्रधानमंत्री मोदी सुषासन के मामले में अतिरिक्त चिंता जता रहे हैं जिसका निहित मापदण्डों में ‘मेक इन इण्डिया‘ से लेकर ‘डिजिटल इण्डिया‘ तक देखा जा सकता है। सुषासन के लिए महत्वपूर्ण कदम सरकार की प्रक्रियाओं को सरल बनाना भी है ताकि पूरी प्रणाली को पारदर्षी एवं तीव्र बनाया जा सके। सरकार जन षिकायतों के निपटान को जिम्मेदार प्रषासन का एक महत्वपूर्ण घटक मानती है। ऐसे में मन्त्रालयों को यह निर्देष दिया जाना कि षिकायतें प्राथमिकता पर हों सुषासन की सही राह कही जा सकती है।
दषकों पहले कल्याणकारी व्यवस्था के चलते नौकरषाही का आकार बड़ा कर दिया था और विस्तार भी कुछ अनावष्यक हो गया था। 1991 में उदारीकरण के फलस्वरूप प्रषासन के आकार का सीमित किया गया एवं बाजार की भूमिका को बढ़ा दिया गया। वैष्विकरण के चलते कई अमूल-चूल परिवर्तन भी हुए। विष्व की अर्थव्यवस्था एवं प्रषासन अन्र्तसम्बन्धित होने लगे जिसके चलते सार्वजनिक क्षेत्र एक नये माॅडल की ओर झुकने लगे। सुषासन के मूल्य और मायने 21वीं सदी के इस दौर में इसलिए भी अधिक प्रासंगिक हुए क्योंकि सुधारात्मक प्रयासों के तहत बाजार और निजी क्षेत्रों की भूमिका बढ़ी है। नागरिकों की मूल्य प्रत्याषा में भी इजाफा हुआ है। ऐसे में लोक सेवाओं को अधिक गुणवत्तापरक करना तुलनात्मक जरूरी हुआ। बाजारवाद के बढ़ने से सरकार की भूमिका न्यूनवाद की ओर भी गयी। लोक प्रषासन में सुधार करते हुए नव लोक प्रबन्ध की अवधारणा का परिप्रेक्ष्य लाया गया। इस सुधार प्रक्रिया को सबसे पहले ब्रिटेन में मार्गेट थैचर और अमेरिका में रोनाल्ड रीगन ने अपनाया था। फिलहाल वर्तमान मोदी का षासन एक अच्छा सुषासन कैसे दे इन दिनों चिंता का सबब है और इस बात का चिंतन भी है कि इसकी खुराक कहां से पूरी होगी। योजना आयोग के बदले नीति आयोग जैसे ‘थिंक टैंक‘ लाने के पीछे यही उद्देष्य था, कौषल विकास, मानव विकास, मजबूत विकास आदि की ओर रूख करना सुषासन की सरकारी चिंता ही है। भारत सरकार के मंत्रालय और विभागों को उनके कार्यक्षेत्रों और उनकी आंतरिक प्रक्रियाओं पर न केवल गौर करने बल्कि सरल और तर्कसंगत बनाने के लिए भी जो जोड़-जुगाड़ हो रहा है वह चिंता भी सुषासन से जोड़ी जा सकती है। वैसे तो नेहरू के काल से ही बहुलवादी चिंताओं से देष षुमार रहा है। गरीबी, अज्ञानता, बीमारी और असमानता को खत्म करने की वकालत भी की जाती रही है पर आज की तारीख में भी ये चिंताएं न केवल बनी हुई हैं बल्कि चुनौती बनी हुई हैं। ऐसे में सवाल यही होगा कि जब तक इनके खात्मे की अवधारणा नहीं आयेगी तब तक सुषासन पर की गयी चिंता बेमानी ही कहीं जायेगी। निहित संदर्भ यह भी रहेगा कि भारी पैमाने पर ग्रामीण समस्याएं अभी भी विद्यमान हैं जिसमें बुनियादी जीवन की जरूरतें हाषिये पर हैं। भले ही डिजिटल गवर्नेंस के चलते आंकड़े बेहतर हो गये हैं पर यहां जीवन की कसौटी अभी भी जरजर और दूभर किस्म की है जिसे लेकर चिंता लाजमी है।
बीते 2014 के 25 दिसम्बर को प्रधानमंत्री मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी के जन्मदिन को सुषासन दिवस के रूप में प्रतिश्ठित किया था कहा जाए तो इसी दिन सुषासन का वाजपेयीकरण हुआ। मोदी सरकार 28 दिसम्बर को डिजिटल गवर्नेंस परियोजना भी लांच करेगी। फिलहाल जिस प्रकार सुषासन को लेकर चिंतन चाहिए वैसा अभी नहीं दिखाई देता क्योंकि सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है और जब तक लोगों की बुनियादी आकांक्षाओं और आवष्यक विकास अधूरे रहेंगे तब तक इसे पूरा पड़ता हुआ नहीं माना जायेगा। ऐसे में ई-गवर्नेंस इसकी भरपाई है हालांकि विगत् कुछ वर्शों से ई-एजुकेषन, आॅनलाइन मेडिकल परामर्ष, ई-हैल्थ, ई-कोर्ट, ई-पुलिस, ई-जेल, ई-बैंकिंग और ई-बीमा के चलते सुषासन को सुसज्जित किये जाने का प्रयास चल रहा है पर देष में व्यापक पैमाने पर किसानों की आत्महत्या, जन-जीवन को लेकर सुचिता का आभाव, मानव विकास सूचकांक का पिछड़ापन, लिंगानुपात का गिरा होना तथा कई वैष्विक स्तर की चुनौतियों में मीलों पीछे रहना इसमें निहित दोश की तरह हैं। सुषासन का तात्पर्य इतना ही नहीं है कि कोई सरकार या सामाजिक संगठन किस प्रकार आपसी अभिक्रिया करते हैं बल्कि जन सुरक्षा, कानून का षासन, नागरिक समाज के लिए सहायता, पर्यावरण के संदर्भ में बेहतर सोच और अलिखित आचार संहिताएं भी इसे पुख्ता करती हैं। प्रधानमंत्री मोदी ‘मैन आॅफ एक्षन‘ की अवधारणा में सुसंगत हैं पर नौकरषाही का औपनिवेषिक धारणा से अभी पीछा नहीं छूटा है जो सुषासन के लिए बड़ा खतरा है। सुषासन मांगने की नहीं, देने की चीज है मगर देष में कानून और व्यवस्था हो या बुनियादी आवष्यकता, सड़क पर उतरने से ही पूरी होती है। लोकपाल अन्ना आंदोलन के चलते तो जुवेनाइल जस्टिस आम आदमी के आंदोलन के चलते सम्भव हुआ है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

क्या हमारे संदेश पाक तक पहुँच रहे हैं.

जब बीते शुक्रवार की सुबह पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ षरीफ को प्रधानमंत्री मोदी 66वें जन्मदिन पर मुबारकबाद दे रहे थे तो यह मात्र एक औपचारिकता थी। इसी का निर्वहन करते हुए षरीफ ने भी षराफत के साथ मोदी को अपनी नातिन की षादी में आने और उसे आर्षीवाद देने का आग्रह कर दिया। ऐसा करते समय षरीफ को तनिक मात्र भी अंदेषा नहीं रहा होगा कि दुनिया के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देष का मुखिया अब उन्हें सरप्राइज करने वाला है। मोदी के मन में क्या था इसका अंदाजा लगाना भी सरल नहीं था पर षरीफ के आग्रह को जिस प्रकार ‘अप्रत्याषित डिप्लोमेसी‘ के सांचे में ढाल दिया गया उससे दुनिया हैरत में पड़ गयी। मोदी ने भी संदेष दे दिया कि आप की दावत कबूल है। अब काबुल से उड़ने वाले विमान की लैण्डिंग दिल्ली  से पहले लाहौर होना तय हो गया पर लाहौर की इसी लैण्डिंग के चलते भारत-पाक समेत दुनिया के लिए एक अप्रत्याषित घटना हो गयी। विदेष मंत्री सुशमा स्वराज ने मोदी की इस हैरत भरी लाहौर यात्रा को ‘स्टेट्समैन‘ की तरह उठाया गया कदम बताया और कहा कि पड़ोसियों के बीच ऐसे ही मधुर रिष्ते होने चाहिए जबकि अन्तर्राश्ट्रीय राजनयिक खासकर भारत और पाकिस्तान के रिष्तों की जानकारी रखने वाले भौचक्के रह गये होंगे। विरोधियों को आलोचना करने का मौका है तो समर्थकों के लिए यह कदम हौसला अफज़ाई का काम कर रहा है। इतना ही नहीं एकाएक की गयी पाक यात्रा से वहां की कूटनीति न केवल भौचक्क है बल्कि मोदी की दमदारी को भी हाथोंहाथ लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी। जाहिर है औचक्क लाहौर यात्रा के संदेष को भी लेकर पाकिस्तान बड़ी पड़ताल में लगा होगा पर भारत को भी तो यह सोचना है कि क्या उसका संदेष पाक पहुंच रहा है?
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के 2004 के पाकिस्तान यात्रा के बाद मोदी की इस ‘सरप्राइज टूर‘ को बड़ी गम्भीरता से भी लिया जा रहा है। वे लाहौर पहुंच कर षरीफ से गले मिले एक ही हैलीकाॅप्टर में बैठ षरीफ के निवास जट्टी उमरा रायविंड पैलेस पहुंचे और डेढ़ घण्टे की भरपूर मुलाकात में वह सब हुआ जो एक सघन दोस्ती के बीच होता है। षरीफ ने मेहमानबाजी की, मोदी ने उसका लुत्फ उठाया और कई गिले-षिकवे को धोते हुए वैष्विक पटल पर एक ऐसा संदेष गढ़ दिया कि मानो भारत और पाक के बीच जो बर्फीले सम्बंध थे साथ ही बरसों की दरारें थी उनको एक लम्हे में पानी-पानी करके भर दिया गया हो। संयुक्त राश्ट्र ने उम्मीद जताई है कि दोनों देष वार्ता को बरकरार रखेंगे और मजबूती देंगे जबकि अमेरिका ने वार्ता का स्वागत करते हुए कहा कि दोनों देषों के सम्बंध सुधरने से पूरे क्षेत्र को फायदा होगा। भारत-पाक के बीच सम्बंधों का उतार-चढ़ाव चूहे-बिल्ली के खेल जैसा रहा है। मोदी को प्रधानमंत्री बने 19 महीने हो चुके हैं। तब से अब तक दोनों देषों के बीच सम्बंधों का ग्राफ कभी साफ तो कभी धुंधला रहा है। सिरे से पड़ताल किया जाए तो मोदी ने षरीफ को 26 मई, 2014 को षपथ ग्रहण समारोह में बुलाया था। इसी दौर की बातचीत में भारत विदेष सचिव इस्लामाद भेजने को राजी हुआ था पर अगस्त में विदेष सचिव भेजे जाने से पहले ही पाकिस्तान के उच्चायुक्त ने दिल्ली में कष्मीरी अलगाववादियों से मुलाकात की। भारत को विदेष सचिव का दौरा रद्द करना पड़ा। इसे पाकिस्तान की बड़ी भूल के साथ गलत कूटनीति के अर्थ के तौर पर देखा गया।
नवम्बर, 2014 में मोदी-षरीफ की मुलाकात एक बार फिर तब हुई जब नेपाल में सार्क सम्मेलन हो रहा था। हालांकि यहां बात अभिवादन तक ही रही, आधिकारिक स्तर पर कोई बातचीत नहीं हुई। यहां से रिष्तों का ठहराव देखा जा सकता है। जुलाई, 2015 में रूस के उफा में प्रधानमंत्री मोदी और नवाज़ षरीफ की एक बार फिर मुलाकात हुई यहां आतंक को लेकर षरीफ ने मोदी से जो वादा किया उसे इस्लामाबाद पहुंचने पर पलटने के चलते रिष्ते यथावत के साथ और कसैलेपन का रूप ले लिया। देखा जाए तो सम्बंधों पर जमी बर्फ एक बार फिर पिघलते-पिघलते रह गयी थी मगर बीते 30 नवम्बर को पेरिस में हुए जलवायु सम्मेलन के दौरान दोनों नेताओं की दो मिनट की मुलाकात रिष्तों को नये आयाम देने के काम आये। इसी दो मिनट के चलते विदेष मंत्री सुशमा स्वराज का इस्लामाबाद दौरा हुआ, ‘समग्र बातचीत‘ को लेकर दोनों देष रजामंद हुए अब आलम यह है कि सुशमा स्वराज का इस्लामाबाद से वापसी किये बामुष्किल एक पखवाड़ा बीता था कि प्रधानमंत्री मोदी पाकिस्तान में इस तरह दाखिल हुए कि दुनिया देखती रह गयी। हालांकि पेरिस में हुई मुलाकात के बाद दोनों देषों के एनएसए थाइलैंड की राजधानी बैंकाॅक में मिले थे जिसमें द्विपक्षीय वार्ता के लिए रोडमेप तैयार कर लिया गया था और उसी के हिसाब से तारीखें भी तय कर ली गयी थी। भले ही लाहौर की यह औचक्क यात्रा लोगों के गले उतरना मुष्किल हो पर इसमें यह संकेत और संदेष भी है कि भारत कूटनीति और चालबाजी करने वालों के साथ भी असंवेदनषील व्यवहार नहीं करता है और हर हाल में रिष्तों में मजबूती ही चाहता है। लाहौर में की गयी लैण्डिंग मोदी का एक ऐसा मास्टर स्ट्रोक है कि विरोधी भी सकते में होंगे।
षायद दुनिया भी यह जानती है कि भारत सदैव सबका हित चाहता है उसके इस चाहत में पाकिस्तान भी षामिल है पर अब पाकिस्तान को समझना होगा कि भारत की इस पेषगी को वह किस रूप में लेता है। एक तरफ भारत जहां पाकिस्तान से वार्ता करने का पूरा इरादा बना चुका है, अनावष्यक समस्याओं से बाज आना चाहता है वहीं पाकिस्तान संघर्श विराम का उल्लंघन करना और भारतीय सीमा पर गोलीबारी करने से कभी नहीं हिचकिचाया। भारत ने 1948, 1965, 1971 और 1999 सहित चार बार पाकिस्तान को परास्त भी किया बावजूद इसके भारत पिछले तीन दषकों से आतंक को झेलते हुए काफी संयम से काम ले रहा है। वर्तमान भारत मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत की सरकार से युक्त है। कहा जाए तो भारत मोदी की अगुवाई में न केवल सक्रिय नेतृत्व की पूर्ति कर रहा है बल्कि वैष्विक पटल पर भी काफी साख बटोर चुका है। यह अच्छा मौका होगा कि पाकिस्तान आर-पार को भुलाकर व्यापार और व्यवस्था पर एक ऐसी कोषिष करे कि बरसों से जड़-जंग हो चुकी समस्याएं हल को प्राप्त कर सकें। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत ने पाकिस्तान के मामले में अपना सक्रिय और सकारात्मक रूख दिखा दिया है अब बारी पाकिस्तान की है कि भारत की इस पहल को प्रगाढ़ता में बदल दे। जाहिर है कि कई आतंकी संगठन को यह नागवार गुजरेगा। वे कभी नहीं चाहेंगे कि रिष्ते मधुर हों और समस्याओं पर छाए काले बादल छंटे पर विमर्ष यह कहता है कि कूटनीति के दायरे में रहते हुए दो पड़ोसी मुल्कों को सम्बंधों का एक ऐसा मजबूत धरातल निर्माण करना चाहिए जहां दोनों को राहत हो और आने वाली पीढ़ियों के लिए अच्छा वातावरण मिले। जिस बेसब्री से षरीफ ने मोदी का लाहौर में इंतजार किया था और लजीज भोजन परोसा था यदि उसी मन से वे भारत के मनोविज्ञान और उसके अंदर छुपे संदेष को परख ले तो दोनों नेता सम्बंधों को न केवल नया मुकाम दे सकते हैं बल्कि इतिहास की तारीख में भारत-पाक रिष्ता अजर-अमर हो सकता है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

Friday, December 25, 2015

रूस के साथ मेक इन इण्डिया

एक हद तक मास्को और दिल्ली का सम्बन्ध औपनिवेषिक सत्ता के दिनों से है। यह बात और है कि तब मास्को सोवियत संघ की राजधानी हुआ करती थी। नब्बे के दषक समाप्त होते-होते समाजवादी सोवियत संघ भरभरा कर 15 स्वतंत्र प्रभुत्व सम्पन्न देषों में बदल गया पर भारत के साथ उसका स्वाभाविक मित्र बने रहने की अवधारणा में कोई परिवर्तन नहीं आया। 24 दिसम्बर को प्रधानमंत्री मोदी इसी परिप्रेक्ष्य के साथ रूसी राश्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ द्विपक्षीय वार्ता की। यह सोलहवें भारत-रूस सम्मेलन का अवसर था जिसमें कई रक्षा और परमाणु समझौते समेत कुल 16 समझौतों पर हस्ताक्षर किये गये जिनमें 226 सैन्य हेलीकाॅप्टर का संयुक्त निर्माण और 12 परमाणु संयंत्र स्थापित करना षामिल है। बोरिस येल्सिन के उत्तराधिकारी व्लादिमीर पुतिन जब अक्टूबर, 2000 में वाजपेयी सरकार के समय भारत आये थे तब भी आपसी सहयोग के चलते सम्बन्धों को नया आयाम मिला था। अक्टूबर, 2002 को परमाणु, रक्षा व आर्थिक क्षेत्र में ऐतिहासिक सामरिक घोशणा पर दस्तखत करने के साथ ही अन्तर्राश्ट्रीय आतंकवाद व धार्मिक कट्टरता से निपटने में आपसी सहयोग जारी रखने की हुंकार भरी थी। देखा जाए तो तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी और उस समय भी राश्ट्रपति रहे पुतिन ने 21वीं सदी में दोतरफा सम्बंधों को गुणात्मक आधार दिया था। इसके बाद जब नवम्बर, 2003 में वाजपेयी ने रूस की यात्रा की तो दोनों देषों ने आर्थिक और तकनीकी क्षेत्र में भी काफी आगे निकल गये। नेहरू काल में भारत में रूसी भाशा के प्रषिक्षण के लिए महत्वाकांक्षी योजनाएं बनाई गयीं और 1960 के दषक के आरम्भ में एक रषियन इंस्टिट्यूट की स्थापना की गयी जो अब जेएनयू में भाशा केन्द्र का एक प्रमुख हिस्सा है। भारत में आज भी जो समाजवादी ढांचा दृष्यमान होता है उसमें भी रूस का ही अक्स षामिल है। पष्चिमी देषों का पूंजीवाद और सोवियत रूस का समाजवाद भारत की मिश्रित अर्थव्यवस्था के ये बड़े साक्ष्य आज भी संजो कर रखे गये हैं।
यह कहना अतिष्योक्ति न होगा कि आजादी के बाद से अब तक भारत की विदेष नीति की महत्वपूर्ण धुरी में मास्को से सकारात्मक सम्बन्ध का होना रहा है जिसकी वैष्विक स्तर पर आज भी आवष्यकता पड़ती रहती है। ध्यानतव्य है कि बीते गणतंत्र दिवस पर जब अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा मुख्य अतिथि के तौर पर भारत में थे और यूक्रेन के चलते रूस पर ओबामा की की गयी टिप्पणी पुतिन को बहुत अखरी थी। इसके अलावा भारत और अमेरिका के प्रगाढ़ होते सम्बन्ध से चीन सहित रूस भी थोड़ा सकते में था। पर बाद में पहले विदेष मंत्री का दौरा फिर मई में मोदी की चीन यात्रा सम्बन्धों में संतुलन का निर्माण किया। असल में रक्षा से जुड़े संसाधनों के मामले में रूस भारत के लिए एक तरफा बाजार हुआ करता था। बाद में अमेरिकी झुकाव के चलते रूस का थोड़ा खिन्न होना स्वाभाविक था पर भारत-रूस के समाजवादी और पुरातन सम्बन्ध इतने असरदार हैं कि नाराजगी, दुष्मनी में तो कतई तब्दील नहीं हो सकती। 58वें गणतंत्र दिवस पर व्लादिमीर पुतिन मुख्य अतिथि थे तब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हुआ करते थे। दो दिवसीय इस यात्रा में भी दोनों देषों ने नौ समझौते किये थे। भारत और रूस के सम्बन्धों की 60वीं वर्शगांठ पर मनमोहन सिंह पर रूसी राश्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ संयुक्त प्रेस बैठक में कहा कि हमारा सम्बंध सामरिक भागीदारीका है जो समय के तराजू पर खरा उतरा है। पुतिन ने इसमें आगे जोड़कर कहा कि हम लोगों ने प्रत्येक दिषा में अपने द्विपक्षीय आदान-प्रदान का अनुसरण कर अपने हितों की पुश्टि की है। इसमें संदेह नहीं कि भारत और रूस के आपसी सहयोग को यदि और ताकत दी जाये तो निष्चय ही यह एक बहुधु्रवीय विष्व व्यवस्था के निर्माण में मददगार होगा। हालांकि वैष्विक पटल पर इन दिनों भारत फलक पर है और विष्व भी भारत को सकारात्मक दृश्टि से देख रहा है।
भारत-रूस षिखर सम्मेलन में सम्बंधों को और बेहतर करने पर मोदी-पुतिन सहमत हैं। दोनों पक्षों में इस बात पर रजामंदी है कि आतंकवाद, रक्षा, सुरक्षा और उर्जा क्षेत्र में सहयोग के साथ कारोबार एवं निवेष को भी बढ़ाया जाए। दोनों देषों के बीच आवाजाही को लेकर भी प्रक्रिया आसान करने पर जोर दिया गया है। परमाणु क्षेत्र में दोनों पक्षों ने ‘मेक इन इण्डिया‘ के अन्तर्गत भारतीय कम्पनियों की सहभागिता साथ ही रूसी डिजाइन परमाणु रिएक्टर इकाईयों का भारत में निर्माण किये जाने को लेकर भी समझौता है। इतना ही नहीं अगले दस साल में द्विपक्षीय कारोबार को 30 अरब डाॅलर करने की प्रतिबद्धता भी व्यक्त की गयी। वर्तमान में कारोबार दस अरब डाॅलर तक ही है। प्रधानमंत्री मोदी रूस के साथ न केवल ‘मेक इन इण्डिया‘ को तवज्जो चाहते हैं बल्कि बरसों से निर्मित स्वभाविक सम्बंधों को भी एक नया आधार देना चाहते हैं जिसमें मानवीय हित से जुड़े सभी क्षेत्र षामिल हों जैसा कि मोदी रूस जाने से पहले कह चुके हैं। अक्सर रूस के बारे में भारत के सम्बंधों को लेकर जब विमर्ष होता है तो एक सकारात्मक बात यह जरूर निकलती है कि दोनों पक्षों के बीच कुछ बेहतर जरूर होगा। भारतीय परम्पराओं और सांस्कृतिक धरोहर को उकेरते हुए, फ्रेन्ड्स आॅफ इण्डिया कार्यक्रम में मोदी का सम्बोधन भी हुआ और अन्य देषों की भांति वहां पर भी मोदी का आकर्शण बरकरार रहा। विस्तृत बातचीत के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने आतंकी समूहों और इसके निषाने वाले देषों के बीच बिना किसी भेदभाव और अन्तर किये बिना एकजुट होकर पूरी दुनिया के आतंकवाद के खिलाफ लड़ने की जरूरत को न केवल रेखांकित किया बल्कि इससे निपटने को लेकर भी संवेदनषील दिखाई दिये। बुराई के स्रोत माने जाने वाले देषों में पाकिस्तान जैसे देष के लिए भी यह एक इषारा है।
रूसी राश्ट्रपति पुतिन के साथ मोदी की यह दूसरी षिखर वार्ता है। पिछले वर्श 15वें भारत-रूस षिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए पुतिन नई दिल्ली आये थे। हालांकि दोनों नेताओं के बीच अलग-अलग मंचों पर कई मुलाकातें हो चुकी हैं जिसमें विकासात्मक पक्षों को हवा दिया जाता रहा है। भारत और रूस के बीच उस तरह का सांस्कृतिक आदान-प्रदान कभी भी देखने को नहीं मिला जिस प्रकार चीन जैसे देषों के साथ रहा या अरब इस्लामी देषों के साथ रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने रूस के साथ हजारों वर्श के सम्बन्ध और संस्कृत का संदर्भ परिलक्षित कर इसकी भरपाई करने की कोषिष की है। विष्लेशणात्मक संदर्भ के अन्तर्गत व्यापार सम्बंधों के संदर्भ में अभी बहुत कुछ धरातल पर उतारना बाकी है। तीस अरब डाॅलर का कारोबार करने की मंषा निष्चित तौर पर ‘मेक इन इण्डिया‘ के लिहाज से फायदे का सौदा है पर यह तभी बेहतर होगा जब इसमें गति बढ़ाई जायेगी। बेषक दोनों देषों के बीच आर्थिक सम्बंध मजबूती की ओर हैं और परमाणु सहयोग के चलते कई काज आसान भी होंगे। देखा जाए तो वर्श 2008 में कुडनकुलम पर समझौते के तहत दो 1000 मेगावाॅट क्षमता के और दो 1200 मेगावौट क्षमता के रिएक्टर स्थापित किये जाने को लेकर सहयोग पहले भी रहे हैं। षांति, मित्रता एवं सहयोग की मिसाल भारत-रूस संधि 1971 में ही प्रतिस्थापित की गयी थी। ये बात और है कि क्रायोजनिक इंजन के मामले में रूस बरसों पहले भारत को अमेरिकी दबाव के चलते निराष किया था। फिलहाल नये दौर में पुराने सम्बंधों को द्विपक्षीय और समन्वित दृश्टिकोण से एक नया आयाम देने का प्रयास किया गया है जो भारत और रूस दोनों के लिए बिना ‘साइड इफैक्ट‘ के कहीं अधिक प्रभावी सिद्ध होगा।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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Thursday, December 24, 2015

सुशासन का असल पक्ष

स्वतंत्रता दिवस के दिन लाल किले से प्रधानमंत्री मोदी द्वारा सुषासन के लिए आईटी के व्यापक इस्तेमाल पर जोर दिया गया था। उन्होंने कहा था कि ई-गवर्नेंस आसान, प्रभावी और आर्थिक गवर्नेंस भी है और इससे सुषासन के लिए मार्ग प्रषस्त होता है। विष्व बैंक ने सुषासन की एक आर्थिक परिभाशा गढ़ी थी जिसका संदर्भ 1991 में उदारीकरण के दौर से ही देखा जा सकता है। सुषासन एक लोकतंत्र प्रवर्धित अवधारणा है जो षासन को अधिक खुला, पारदर्षी तथा उत्तरदायी बनाता है जिसमें आईटी सहित डिजिटल इण्डिया आदि का कहीं अधिक महत्व है। मानवाधिकार, सहभागी विकास और लोकतांत्रिकरण का महत्व सुषासन के सीमाओं में आते हैं। भारत में पिछले ढ़ाई दषक से इस दिषा में कई महत्वपूर्ण काज भी हुए हैं। इसी के फलस्वरूप सूचना का अधिकार, नागरिक घोशणा पत्र, ई-गवर्नेंस, सिटीजन चार्टर, ई-याचिका, ई-सुविधा सहित कई लोकहित से जुड़े संदर्भ देखे जा सकते हैं साथ ही इनके अनुप्रयोग को भी व्यवहार में उतरते हुए दृश्टिगत किया जा सकता है। भारत के परिप्रेक्ष्य में सुषासन क्या है और इसके समक्ष खड़ी केन्द्रीय चुनौती भी क्या है? इसे पड़ताल करके देखें तो सुषासन के असल पक्ष को बातौर उभारा जा सकता है। षैक्षणिक तौर पर सुषासन के अर्थ को न्याय, सषक्तिकरण, रोजगार एवं क्षमतापूर्वक सेवा-प्रदायन से जोड़ा जाता है। अपरिहार्य उद्देष्यों की पूर्ति इसकी मूल विषेशता है। सामाजिक अवसरों का विस्तार और समतामूलक समाज के साथ गरीबी उन्मूलन इसकी अनिवार्यता है। इससे सम्बन्धित आकांक्षाएं भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भी झांकी जा सकती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सुषासन की अवधारणा जीवन, स्वतंत्रता एवं खुषी प्राप्त करने के अधिकार से जुड़ी हुई है। वर्श 2014 के 25 दिसम्बर को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिवस को सुषासन दिवस के रूप में प्रतिश्ठित किया गया था। इसे बड़ा दिन और बड़े महत्व का दिन इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि यह ईसा मसीह से भी सम्बन्धित है। सफल और मजबूत मानवीय विकास को समझने के लिए सुषासन के निहित आयामों को जांचा-परखा जा सकता है। हालांकि सुषासन के मामले में आम तौर पर बहुत मानकयुक्त परिभाशा नहीं बनी है।
वास्तव में आज की षासन व्यवस्था स्वयं में कल्याणकारी राज्य के रूप में तभी अनुमोदित हो सकती है जब वह सुषासन को अंगीकृत करती हो। प्रधानमंत्री मोदी का डेढ़ वर्श का कार्यकाल सुषासन की अभिक्रियाओं से भरा हुआ तो दिखाई देता है पर क्या यह व्यावहारिक तौर पर भी खरा है? पिछले कुछ वर्शों से हमारी अर्थव्यवस्था संकट में है। विकास दर उतनी उम्दा नहीं मिली, जितनी होनी चाहिए। महंगाई पर पूरा नियंत्रण नहीं है साथ ही रूपया लगभग लगातार टूटता रहा है। राजकोशीय और बजटीय घाटा बढ़ता रहा है। गवर्नेंस का ग्लोबलाइजेषन तो किया जा रहा है परन्तु देष की नौकरषाही में व्याप्त ढांचागत कमियां और क्रियान्वयन में छुपी उदासीनता के अलावा निहित भ्रश्टाचार पर बहुत कुछ नहीं हो पाया है। बेषक देष की सत्ता पुराने डिजाइन से बाहर निकल गई हो पर दावे और वादे का परिपूर्ण होना अभी दूर की कौड़ी ही प्रतीत होती है। बीते बुधवार को चार सप्ताह तक चलने वाला षीत सत्र समाप्त हुआ। पिछले षीत सत्र से इस षीत सत्र तक की यात्रा को देखें तो मोदी सरकार मन मुताबिक बहुत बड़े काज करने में उतनी सफल नहीं कही जाएगी जितनी एक पूर्ण बहुमत की सरकार को होना चाहिए था। इसके पीछे एक प्रमुख कारण विपक्षियों का रचनात्मक सहयोग न मिल पाना भी षामिल है। मोदी भी सुषासन को सबसे बड़ा मुद्दा मानते हैं और इसे सभी समस्याओं के हल के रूप में देखते हैं बावजूद इसके सुषासन को तीव्रता देने वाले कई कृत्य जिसमें जीएसटी भी षामिल है जिसका मूर्त रूप लेना अभी बाकी है।
‘मेक इन इण्डिया‘, ‘डिजिटल इण्डिया‘ सहित ‘कौषल विकास‘ जैसी महत्वाकांक्षी परियोजनाओं से युक्त विषिश्टताओं को देखें तो सुषासन की गणना में सरकार आगे जाती हुई दिखाई देती है पर क्या बिना ‘स्किल डवलेप्मेंट‘ के कई काम पूरे होंगे संदेह है। हालांकि मोदी इस बात को मानते हैं कि युवाओं को हुनरमंद बना कर न केवल विकास को संभव किया जा सकता है बल्कि वैष्विक स्तर पर स्किल निर्यात को भी सम्भव बनाया जा सकता है। बिना स्किल डवलेप्मेंट के सुषासन का अंजाम तक पहुंचना तो मुष्किल है ही साथ ही स्किल डवलेप्मेंट करना भी इसलिए मुष्किल है क्योंकि भारत में ऐसी संस्थाओं की व्यापक कमी है। आंकड़े दर्षाते हैं कि चीन में पांच लाख, जर्मनी और आॅस्ट्रेलिया में एक-एक लाख कौषल विकास से जुड़ी संस्थाएं हैं किन्तु भारत में ऐसी संस्थाएं मात्र पन्द्रह हजार ही हैं जबकि भारत जनसंख्या के मामले में दूसरा सबसे बड़ा देष है। इतना ही नहीं चीन में तीन हजार से अधिक कौषलों के बारे में प्रषिक्षण दिया जाता है भारत यहां भी काफी सीमित है। चीन अपनी जीडीपी का 2.5 प्रतिषत व्यावसायिक षिक्षा पर खर्च करता है। भारत में यही खर्च जीडीपी का मात्र 0.1 फीसदी है। मोदी द्वारा योजना आयोग को समाप्त कर नीति आयोग जैसे थिंक टैंक को निर्मित करने के पीछे उद्देष्य विकास और सुषासन को प्रासंगिक बनाना ही रहा है। हाल के दषकों में विभिन्न देषों की प्रषासनिक नीतियों में महत्वपूर्ण परिवर्तन देखे जा सकते हैं। लोकतांत्रिक प्रषासनिक नीति एवं लोक प्रबंधन के विकल्प के बीच सम्पर्क बिन्दु भी परिलक्षित हुए हैं। ‘इनपुट लोकतांत्रिक माॅडल‘, ‘समूहवादी माॅडल‘ और ‘आउटपुट लोकतांत्रिक माॅडल‘ का भी परिप्रेक्ष्य कमोबेष उजागर हुए हैं। ‘ज्वाइंट अप-गवर्नमेंट‘ तथा ‘होल आॅफ गवर्नमेंट‘ को लेकर भी राय बदली है। केवल आर्थिक ही नहीं बल्कि अन्य सामाजिक और पर्यावरणीय नीतियों पर भी वैष्विक पहल मजबूत हुई है। जलवायु परिवर्तन को लेकर वैष्विक स्तर पर की जा रही चिंता इसकी एक बानगी है।
सुषासन के लिए एक महत्वपूर्ण कदम सरकार की प्रक्रियाओं को सरल बनाना भी है। ऐसा करने से पूरी प्रणाली को पारदर्षी और तीव्र बनाया जा सकेगा। यह तय माना जा रहा है कि सुषासन किसी भी देष की प्रगति की कुंजी है और यह तभी सम्भव है जब जवाबदेही को व्यापक स्थान मिले। डिजिटल गवर्नेंस को भारत में नवीन लोक प्रबन्धन के प्रभावषाली उपकरण के रूप में संचालित किया जा रहा है पर सुषासन के भाव में निहित लोक सषक्तीकरण को समुचित बनाना है तो प्रषासनिक सुधारों से लेकर सरकार में ‘आॅर्गेनाइजेषन एण्ड मैनेजमेंट‘ सहित कई बिन्दुओं पर और काम करने की जरूरत पड़ेगी ताकि दायित्वषीलता और व्यापक रूप से सामने आये। देखा जाए तो सुषासन के युग में प्रवेष हुए बहुत वक्त नहीं हुआ है पर राय रही है कि सुषासन एक प्राचीन अवधारणा है पर आधुनिक परिप्रेक्ष्य में इसका पोशण आषा के अनुरूप है जिसमें डिजिटल इण्डिया इसकी एक बड़ी खुराक हो सकता है। सुषासन के अन्तर्गत बहुत सी चीजें आती हैं जिसमें अच्छा बजट, सही प्रबन्धन, कानून का षासन आदि षामिल हैं पर पारदर्षिता का आभाव, लोगों की भागीदारी का आभाव और भ्रश्टाचार के अलावा सरकारी कार्यप्रक्रिया में जड़ता का होना अभी भी यह दुःषासन के लक्षण को समेटे हुए है। अन्ततः यह भी सही है कि जहां विकास के षुरूआती दौर में प्रौद्योगिकरण, औद्योगीकरण तथा आधुनिकीकरण के साथ पष्चिमीकरण का महत्व होता था वहीं इक्कीसवीं सदी के इस दौर में बाकायदा ‘सुषासन‘ को बारीकी से प्रासंगिक बनाया जा रहा है। भारत में वर्तमान सरकार इसके प्रति जो गहरापन दिखा रही है वह बेहतर इसलिए है क्योंकि इसमें ‘सर्वोदय‘ के पूरे लक्षण निहित हैं।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

शीत सत्र का मर्म और दर्शन

वैज्ञानिक प्रबन्ध के जनक एफ. डब्ल्यू. टेलर जब इस बात के लिए निराष हुए कि तमाम फायदेमंद सिद्धांत देने के बावजूद सभी उनकी आलोचना करते हैं, तब उनके एक घनिश्ठ मित्र ने कहा था कि ‘टेलर तुम्हारी उपलब्धियों को सभी सराहते हैं पर आलोचना उस बात के लिए करते हैं जो तुमने किया ही नहीं है‘। इस कथन के आलोक में समाप्त हुए षीत सत्र की पड़ताल करें तो परिप्रेक्ष्य कुछ इसी प्रकार का झुकता हुआ दिखाई दे़ता है। भला उन अच्छे विधेयकों का क्या दोश जो सियासत की भेंट चढ़ गये। भले ही वे अधिनियमित न हो पाये हों पर उनकी खूबियां आज भी सराही जाएंगी। यदि आलोचना होगी तो इस बात की, कि लगभग एक माह चलने वाले षीत सत्र का सियासी पहलू इतना गरम क्यों हुआ कि लोकतंत्र की सबसे बड़ी संस्था जन संदेह के घेरे में है। जहां आरोप-प्रत्यारोप, आलोचना और हंगामे की तो बाढ़ थी पर अच्छे विमर्ष आभाव में चले गये। दो पखवाड़े के इस सत्र में जहां उपलब्धियों की मात्रा घटी है वहीं हंगामों की गुणवत्ता बढ़ी है। ऐसे में सत्ता हो या विपक्ष लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ करने के लिए दोनों जिम्मेदार जरूर ठहराये जाएंगे। षीत सत्र के दो दिन संविधान को समर्पित करते हुए एक अच्छा आगाज हुआ था पर पुराने और नये बखेड़ों के चलते अंजाम निराषाजनक रहा। पिछले एक साल के सत्र को देखें तो अब यह आम चलन में आ गया है कि संसद में मुद्दे सियासत की भेंट चढ़ते हैं और आने वाले सत्र को इस उम्मीद से भर दिया जाता है कि इसकी भरपाई वहां हो जायेगी। तथाकथित असहिश्णुता जैसे मुद्दों को छोड़ दें तो जिन कारणों से षीत सत्र का यह हाल हुआ वे सभी मुद्दे निहायत गम्भीर थे।
संसद के षीतकालीन सत्र का महोत्सव विपक्ष के दिन-प्रतिदिन की अड़ंगेबाजी के बीच इति को तो प्राप्त कर चुका है पर उत्पादकता की दृश्टि से परखें तो बोझ कम उतर पाया ही कहा जायेगा। तुलनात्मक तौर पर लोकसभा इस मामले में आगे रही है। यहां 13 विधेयकों पर बात बनी जबकि राज्यसभा इस मामले में थोड़ा कमतर रहते हुए 9 विधेयक तक ही सीमित रहा। बहुचर्चित और सरकार की महत्वाकांक्षी विधेयक जीएसटी को इस सत्र में भी निराषा ही हाथ लगी जबकि जीएसटी के मामले में आम सहमति बनते हुए दिखाई दे रही थी और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी आर्थिक विकास के मामले में जीएसटी को लेकर सकारात्मक राय दे चुके थे। हालांकि अनुमान यह नहीं था कि षीत सत्र भी बिना जीएसटी के ही चला जाएगा पर सियासत में क्या नहीं हो सकता और क्या हो सकता है अनुमान लगाना इतना सहज तो नहीं है? तीन मिनट में कानून बन भी सकते  हैं और वर्शों तक विधेयक लटकाये भी जा सकते हैं। काम-काज की दृश्टि से लोकसभा में द ब्यूरो आॅफ स्टेण्डर्ड बिल, हाईकोर्ट-सुप्रीमकोर्ट (वेतनमान एवं सेवा) की दषायें विधेयक, राश्ट्रीय जलमार्ग विधेयक समेत कुल अनुमोदित विधेयकों की संख्या 13 है जबकि इसी सदन में प्रष्नकाल की उत्पादकता 87 फीसदी बताई जा रही है। राज्यसभा में कुल काज के 60 घण्टों में से 47 घण्टे विपक्षी षोर-षराबों के भेंट चढ़ गये। यहां अनुसूचित जाति और जनजाति (उत्पीड़न की रोकथाम) विधेयक, जुवेनाइल जस्टिस (केयर एण्ड प्रोटेक्षन आॅफ चिल्ड्रन) विधेयक समेत 9 विधेयक पास हुए। काम-काज के लिहाज से यह सदन प्रष्नकाल में 14 फीसदी ही उत्पादक रहा। ये हाल तब है जब आखिरी के दो दिनों में पांच विधेयक पारित हुए थे यदि ऐसा न होता तो ये आंकड़े और ज्यादा मायूस करने वाले होते।
यह सच है कि षीतकालीन सत्र उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा। इस अफसोस के साथ कि कांग्रेस ने काफी विघ्न डाला और रचनात्मक के बजाय नकारात्मक सियासत को पोशण दिया। कुछ महत्वपूर्ण बिल को छोड़ दिया जाए तो लोकतंत्र के इस बाजार में गहमागहमी तो रही पर यहां ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस‘ को पूरी तरह चरितार्थ होते देखा जा सकता है। यदि इसके पहले के मानसून सत्र से इसको जोड़ें तो मायूसी कम हो जाती है। सफल कहना सही नहीं है, पर विफल है यह भी षीत सत्र के लिए उचित षब्द नहीं है मगर विशयों पर विमर्ष को लेकर जो संकुचन दिखाई दिया उसके लिए लोकतंत्र के इन जनप्रतिनिधियों को क्लीन चिट तो नहीं दी जा सकती। राजनीतिक दलों में इस बात का भी होमवर्क नहीं था कि देष की समस्याएं किस तरह फलक पर आयें। चेन्नई में आई अचानक बाढ़ पर चर्चा हुई, कुछ हद तक सूखे पर भी रूखे मन से ही सही बात हुई पर किसान को क्या करना है और सरकार उनके लिए क्या करेगी इसकी जहमत नहीं उठाई गयी। निर्भया प्रकरण के चलते जुवेनाइल जस्टिस विधेयक पास हो गया। साफ है जनता हल्ला करे तो सदन चेतेगा। वर्श में तीन सत्र होते हैं षुरूआत में बजट सत्र है। आंकड़ें दर्षाते हैं कि विगत् पन्द्रह सालों में इस वर्श का बजट सत्र सबसे अच्छा सत्र था। लोकसभा अपने निर्धारित समय में 125 फीसदी और राज्यसभा ने 101 फीसदी काम किया। आंकड़ों में भले ही बजट सत्र को उम्दा कह रहे हों परन्तु उस पर से भी मायूसी के बादल कब छंटे थे यह तो दिखा ही नहीं? इसी बजट सत्र में 23 दिसम्बर, 2014 को जारी भू-अधिग्रहण विधेयक सिरे से नकार दिया गया था चार बार अध्यादेष जारी करने के बाद अब स्थिति यह है कि इस विधेयक की एक बरसी हो गयी पर उसका कोई नाम लेवा नहीं है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि संसद का यह षीत सत्र कई सवाल भी खड़े करके गया है। मानसून सत्र हो या षीत सत्र ऋतु बदली है पर आदत वही रही। विधेयक इसलिए रोके गये क्योंकि उस पर राजनीति की गयी और विमर्ष इसलिए नहीं हुए क्योंकि इच्छाषक्ति नहीं दिखाई गयी। आखिरी तीन दिन राज्यसभा में तीस मिनट के भीतर तीन विधेयक बगैर चर्चा के पारित हो गये। अक्सर देखा गया है कि लम्बे सत्र बोझिल कक्षा की तरह हो जाते हैं जिसमें विद्यार्थी न षिक्षक को पढ़ाने देते हैं और न ही अनुषासन पसंद होते हैं और यह गड़बड़ी तब अधिक हो जाती है जब प्रष्न निजी कारणों से किये जा रहे हों जबकि वे पाठ्यक्रम के हिस्से ही नहीं हैं। कमोबेष लोकसभा में स्पीकर और राज्यसभा में सभापति इस सत्र की बोझिल हंगामों से त्रस्त रहे हैं और बार-बार सदन रूकती रही पर इस बात की किसे फिक्र थी कि लोकसभा की एक घण्टे की कार्यवाही पर सरकारी खजाने से डेढ़ करोड़ और राज्यसभा में यही एक करोड़ दस लाख खर्च हो जाते हैं। जनता के टैक्स का पैसा इतनी बेरहमी से खर्च करना और नतीजे के तौर पर हाथ खाली रहना कहां का न्याय और कैसा लोकतंत्र है। सवाल है कि महीनों तक संसद को बंधक बनाने वाले विपक्ष को आखिर क्या मिला? नेषनल हेराल्ड को लेकर जो हंगामा सदन में काटा गया उसमें सदन का क्या दोश था? भारत के लोकतंत्र के इतिहास में कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि पूर्ण बहुमत की सरकार इतनी बेबसी झेलती हो और गैर मान्यता प्राप्त विपक्ष नाक में इतना दम किया हो। षीत सत्र का जो हुआ सो हुआ आगे की रणनीति और होमवर्क को लेकर सियासतदान बड़े सुधार को अंगीकृत नहीं करते तो यह उनकी छवि को लेकर तो एक खतरा होगा ही, लोकतंत्र की लिए भी एक घात होगा जिसे षायद आने वाले दिनों में कोई भी इसे बेहतरी के लिए तो नहीं जानेगा।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
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Monday, December 21, 2015

ज़मीनी विवाद में उलझी स्मार्ट सिटी

केन्द्र सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना स्मार्ट सिटी उत्तराखण्ड में जमीनी विवाद के चलते उलझ गयी है। हरीष रावत सरकार ने इसके लिए जो जमीन चिन्ह्ति की थी उसे लेकर भाजपा सहित कुछ संगठन विरोध कर रहे हैं। असल में दो हजार एकड़ में फैले चाय बागान में स्मार्ट सिटी बनाने से हरियाली और पर्यावरण को नुकसान का अंदेषा जताया गया है। विरोध तेज होने पर उत्तराखण्ड सरकार ने एफआरआई की मदद लेने का फैसला किया, जो बतायेंगे कि हरियाली बचाते हुए कैसे स्मार्ट सिटी बनायी जाए। मुख्यमंत्री ने विरोध के स्वर को देखते हुए अब चाय बागान वाली जमीन के अतिरिक्त अन्य सम्भावनाओं की तलाष षुरू कर दी है। देष में 98 स्मार्ट सिटी को विकसित करने की केन्द्र सरकार की योजना में उत्तराखण्ड भी षामिल है। सपनों के षहर बनाने की होड़ में सरकार ने देहरादून में स्मार्ट सिटी को लेकर मास्टर प्लान भी तैयार कर लिया है पर जमीनी विवाद के कारण मामला खटाई में जाता हुआ दिखाई दे रहा है।
देहरादून में स्मार्ट सिटी को लेकर जो ताना-बाना बुना गया था उस प्रस्तावित माॅडल में कई बातें बड़े नियोजित ढंग से पेष की गयी हैं। जीवन की गुणवत्ता, रोजगार, परिवहन, इंस्क्लूसिव हाउसिंग, स्मार्ट एजूकेषन, बेहतर इन्टरनेट सेवा, सिटीजन एप्स, पब्लिक स्पेस, वाइब्रेन्ट, ओपन स्पेस और सांस्कृतिक सभागार के अलावा हर समय पेयजल की सुविधा, वर्शा जल का संचयन, स्मार्ट गवर्नमेंट सर्विसेज, स्मार्ट ट्रांसपोर्ट हेल्थकेयर फैसिलिटी आदि का बाकायदा उल्लेख है। इसका मुख्य आकर्शण इसके बीच में बनने वाला 400 मीटर ऊँचा नाॅलेज टावर है जो अत्याधुनिक और काॅरपोरेट अंदाज में होगा जिसमें दुनिया के तमाम प्रतिश्ठित आईटी और एजूकेषन से जुड़ी कम्पनियों के दफ्तर होंगे। कृत्रिम नदी जिसमें बोट चलेगी और आॅटोमेटिक वेस्ट मैनेजमेंट की भी व्यवस्था है। स्मार्ट सिटी के अंदर कार के बजाय पोड्स और साइकिल चलाने की योजना षामिल है। इसी षहर के अंदर सड़क के ऊपर फ्लाइ ओवर की तर्ज पर रनवे होंगे जिस पर छोटे एयरक्राफ्ट उड़ान भर सकेंगे, दो हैलीपेड़ भी बनाये जायेंगे। इन सब के बावजूद योजना में वृक्षों और हरियाली को कम से कम नुकसान पहुंचाने की बात भी कही गयी है साथ ही कहा गया कि पेड़े-पौधे विकसित भी किये जायेंगे। बावजूद इसके कई राजनीतिक दलों और संगठनों सहित जन मानस को स्मार्ट सिटी की योजना चाय बागान में रास नहीं आ रही है।
स्मार्ट सिटी के निर्माण को लेकर अभी कुछ अहम फैसलें भी होने हैं जिसमें एक तो इक्विटी षेयर के लिए चीन की तोंगझी विष्वविद्यालय के साथ एमओयू किया जाना है। विष्वविद्यालय ने स्मार्ट सिटी में 74 फीसदी तक की इक्विटी षेयर करने की पेषकष की है जबकि राज्य सरकार 60 फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी देने की पक्ष में नहीं है। दूसरे लोन के सम्बन्ध में हुडको का अन्तिम फैसला आना अभी बाकी है। हालांकि आपसी सहमति सैद्धान्तिक तौर पर बनते हुए देखी जा सकती है। हुडको 2200 करोड़ रूपए का लोन देगा। इसके अलावा कुछ स्थानीय स्तर से सम्बन्धित निर्णय भी लिए जाने बाकी हैं। स्मार्ट सिटी के नोडल अधिकारी आर. मीनाक्षी सुन्दरम् का भी यह मानना है कि इन फैसलों के बाद ही चित्र साफ हो पायेगा। स्मार्ट सिटी के प्रोजेक्ट को केन्द्र सरकार में जमा करने की अन्तिम तारीख 15 दिसम्बर है उसके बाद ही तय होगा कि टाॅप 20 में देहरादून है या नहीं। फिलहाल खींचातानी में फंसी देहरादून स्मार्ट सिटी योजना पर सरकार का रूख विरोध के बाद थोड़ा ढीला पड़ता दिखाई दे रहा है। यहां तक कि मुख्यमंत्री हरीष रावत ने कह दिया कि यदि भूमि को 300 एकड़ तक भी किया जाना सम्भव न हो तो स्मार्ट सिटी का निर्णय 2017 में बनने वाली सरकार पर छोड़ दिया जाए।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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महाभियोग का निहित परिप्रेक्ष

दो चीजों ने देष को तबाह कर दिया है या इसे सही दिषा में बढ़ने नहीं दिया गया जिसमें पहला आरक्षण और दूसरा भ्रश्टाचार है। उक्त टिप्पणी गुजरात हाईकोर्ट के जस्टिस जे.बी. परदीवाला की तब आई  जब वे हार्दिक पटेल के खिलाफ एक दिसम्बर को विषेश आपराधिक आवेदन पर फैसला सुना रहे थे। जस्टिस परदीवाला ने यह भी कहा कि जब संविधान बनाया गया तो समझा गया था कि आरक्षण दस साल के लिए रहेगा पर दुर्भाग्यवष यह 65 वर्शों से जारी है। इसी टिप्पणी को कदाचार का उल्लंघन मानते हुए राज्यसभा के 58 सदस्यों ने सभापति को महाभियोग लगाने की याचिका दी है। हार्दिक पटेल पाटीदारों के आरक्षण को लेकर विगत् कुछ माह पूर्व गुजरात में व्यापक आंदोलन छेड़े हुए थे और उन पर राश्ट्रद्रोह का भी मुकदमा चल रहा है। दरअसल भारतीय संविधान में विधि के षासन की अवधारणा निहित है और न्यायपालिका का यह कत्र्तव्य है कि वह इसी के अनुरूप रक्षा और संविधान की सर्वोच्चता सुनिष्चित करे। स्वतंत्र न्यायपालिका व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करती है, विवादों को कानून के अनुसार हल करती है तथा यह भी सुनिष्चित करती है कि लोकतंत्र को किसी व्यक्ति या समूह की तानाषाही द्वारा प्रतिस्थापित न किया जाए। ऐसे में न्यायपालिका संविधान की संरक्षक है जो निरपेक्ष भाव से काज करती है पर गुजरात के जस्टिस की आरक्षण को लेकर की गयी टिप्पणी ऐसी भावनाओं से परे देखी जा रही है। इन्हीं के चलते महाभियोग लगाने को लेकर गहमागहमी है।
बीते 18 दिसम्बर को राज्यसभा के विपक्षी सदस्यों द्वारा महाभियोग को लेकर मामला तब उठाया गया जब षीत सत्र लगभग समाप्ति की ओर है। चार सप्ताह तक चलने वाले इस षीत सत्र में कुछ भी ऐसा होता हुआ नहीं दिखाई दिया जिससे यह कहा जाए कि देष दो-चार कदम आगे बढ़ा होगा पर असहिश्णुता, नेषनल हेराल्ड से जुड़े मामले सहित कईयों के साथ महाभियोग जैसी विधा भी इस सत्र के लिए ऐसे साक्ष्य हैं जिसे इस सत्र में काम न होने देने वाले सबूत कहे जा सकते हैं। संवैधानिक पदों पर आसीन लोगों पर जब महाभियोग जैसे आरोपों की सुगबुगाहट होती है तो विमर्ष भी बड़े हो जाते हैं। मध्य प्रदेष हाईकोर्ट में कार्यरत जस्टिस ए.के. गंगेले के खिलाफ भी महाभियोग की तैयारी चल रही है। इन पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया गया था पर तीन जजों की जांच समिति ने इन्हें क्लीन चिट दे दी थी मगर पीड़िता ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। देखा जाए तो एक ओर देष की षीर्श अदालत जहां उत्तर प्रदेष में लोकायुक्त को नियुक्त करने के चलते कहीं अधिक सक्रिय दिखाई दे रही है वहीं दूसरी ओर आरक्षण पर टिप्पणी के चलते गुजरात उच्च न्यायालय के एक जज सुर्खियों में हैं। महाभियोग के इतिहास की पड़ताल करें तो मई 1993 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीष वी. रामास्वामी पर सबसे पहले महाभियोग प्रस्ताव लाया गया मगर यह प्रस्ताव लोकसभा में गिर गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सत्ताधारी कांग्रेस ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया था।
सर्वोच्च और उच्च न्यायालय के न्यायाधीषों की नियुक्ति राश्ट्रपति के द्वारा की जाती है और इन्हें हटाने की प्रक्रिया महाभियोग ही होती है। कलकत्ता हाईकोर्ट के न्यायाधीष सौमित्र सेन देष के दूसरे ऐसे न्यायाधीष थे जिन्हें महाभियोग की कार्यवाही का सामना करना पड़ा। हालांकि उन्होंने बाद में इस्तीफा दे दिया था। सिक्किम हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीष पी.डी. दिनकरन के खिलाफ भी महाभियोग प्रस्ताव लाने की तैयारी थी पर सुनवाई के कुछ दिन पहले ही त्यागपत्र दे दिया था। राजस्थान हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के पद पर तैनात अरूण मदान पर भी यौनाचार और आर्थिक अनियमितताओं के आरोप लगे थे। षीर्श अदालत की तीन जजों की कमेटी ने मामले की जांच कराई थी उन्हें भी इस्तीफा देना पड़ा था। इसके अलावा दिल्ली हाईकोर्ट के जज षामित मुखर्जी पर डीडीए घोटाले में रिष्वत लेने का मामला जब सामने आया तब ये भी जांच के घेरे में आये। देखा जाए तो न्यायिक पदों पर कार्यरत कुछ न्यायाधीषों पर समय-समय पर अनियमितताओं का आरोप भी लगता रहा है। न्यायपालिका के मामले में यह स्वीकार्य तथ्य है कि निर्णय सर्वाधिक निरपेक्ष और प्रजातांत्रिक मूल्यों के अन्तर्गत ये कहीं अधिक सकारात्मक भी रहे हैं। संविधान के अनुच्छेद 124 से 147 के बीच सर्वोच्च न्यायालय जबकि अनुच्छेद 214 से 237 मे उच्च न्यायालय को देखा जा सकता है। भारत की न्यायिक प्रणाली एकीकरण से युक्त है जो संघीय ढांचे को भी कहीं अधिक मजबूती देती है। संविधान में निहित स्वतंत्र न्यायपालिका एक श्रेश्ठ संस्था के रूप में भी पहचान रखती है। नीति-निर्देषक तत्व में उल्लेखित अनुच्छेद 50 के अन्तर्गत न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग भी किया गया है।
संविधान के अनुसार उच्च न्यायालय के न्यायाधीषों व मुख्य न्यायाधीषों तथा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीषों व प्रधान न्यायाधीष को साबित कदाचार या असमर्थता के आधार पर संसद के प्रत्येक सदन द्वारा अपनी कुल सदस्य संख्या के बहुमत तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत द्वारा प्रस्ताव पारित किये जाने के बाद राश्ट्रपति के द्वारा इन्हें हटाया जा सकता है। न्यायाधीष जांच अधिनियम 1968 के अनुसार न्यायाधीष को हटाये जाने की प्रक्रिया का प्रारम्भ लोकसभा के 100 अथवा राज्यसभा के 50 सदस्यों द्वारा हस्ताक्षरित प्रस्ताव को लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति को देकर प्रारम्भ किया जा सकता है जैसा कि बीते दिनों जस्टिस परदीवाला के मामले में 58 सदस्यों ने राज्यसभा के सभापति को याचिका दी है।  ऐसे प्रस्ताव की जांच तीन सदस्यीय समिति करती है जिसमें न्यायाधीष सहित विधिवेत्ता होते हैं। जांच के बाद के प्रस्ताव पर संसद में मतदान कराया जा सकता है। खास यह भी है कि किसी न्यायाधीष को पद से हटाये जाने का समावेदन संसद के एक ही सत्र में प्रस्तावित और स्वीकृत होना चाहिए। महाभियोग प्रस्ताव तभी पारित होगा जब कम से कम 50 प्रतिषत सांसद उपस्थित होंगे और उसमें से दो-तिहाई प्रस्ताव के पक्ष में वोट देंगे। यदि राज्यसभा में प्रस्ताव पारित हो गया तो यह एक सप्ताह के भीतर लोकसभा में जाएगा। देखा जाए तो न्यायाधीषों को पदच्युक्त करने का अधिकार विधायिका के पास है।
निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि न्यायपालिका संविधान की सुरक्षा की गारंटी है। नागरिकों को प्राप्त मौलिक अधिकार को बनाये रखने में इसे असीम षक्ति प्राप्त है। अनुच्छेद 32 के तहत मौलिक अधिकार के उल्लंघन पर सीधे सर्वोच्च न्यायालय जबकि अनुच्छेद 226 के अनुसार उच्च न्यायालय जाया जा सकता है। बीते दिनों असहिश्णुता को लेकर षीर्श अदालत के प्रधान न्यायाधीष ने कहा था कि न्यायपालिका के होते हुए किसी को डरने की जरूरत नहीं। उक्त संदर्भ यह परिलक्षित करता है कि न्यायपालिका ही ऐसी ताकत है जिसमें एक निरपेक्ष भावना निहित है। यह भी देखा गया है कि पड़ोसी देष पाकिस्तान में न्यायिक निर्णय के मामले में जन विरोध भी हुए हैं जबकि भारत जैसे देष में न्यायपालिका तीसरे स्तम्भ के रूप में संवैधानिक नेतृत्व के लिए जानी जाती है। सरकार के विभिन्न अंगों के बीच षक्तियों के बंटवारे तथा अधिकारों के संतुलन के सिद्धान्त होने के बावजूद यदि किसी प्रकार का संवैधानिक अतिक्रमण संसद या सरकार करती है तो सर्वोच्च न्यायालय अनुच्छेद 13 में निहित न्यायिक पुर्नविलोकन के अन्तर्गत ऐसे कानूनों या विधानों को षून्य घोशित कर सकती है। तमाम खूबसूरत अच्छाईयों के बावजूद मानवीय त्रुटियों के चलते न्यायपालिका में प्रबुद्ध न्यायाधीष भी संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन कर देते हैं जिसके चलते उन्हें महाभियोग जैसी परिस्थितियों का सामना भी करना पड़ जाता है जैसा कि जस्टिस परदीवाला को घेरे में लेने का प्रयास किया जा रहा है। हालांकि अभी यह जांच का विशय है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

Thursday, December 17, 2015

लोकतान्त्रिक तकाजा और न्यायिक सक्रियता

इसमें कोई संदेह नहीं कि व्यवस्था को लेकर उच्चतम न्यायालय ने समय के साथ कई ऐतिहासिक कदम उठाये हैं जिसे अनवरत् बनाये रखते हुए षीर्श अदालत ने एक बार फिर ऐसा ही कदम उठाते हुए उत्तर प्रदेष में अवकाष प्राप्त न्यायाधीष वीरेन्द्र सिंह को लोकायुक्त नियुक्त कर दिया। इस परिदृष्य के आवष्यक उप-सिद्धांत में एक ओर ‘न्यायिक सक्रियतावाद‘ तो दूसरी ओर अखिलेष सरकार की उदासीनता परिलक्षित होती है। संविधान के अनुच्छेद 142 को अनुप्रयोग में लाते हुए देष की षीर्श अदालत ने नियुक्ति से सम्बन्धित जो अभूतपूर्व काज किया उसे लेकर संविधान विषेशज्ञ भी संतुश्ट हैं। उनका मानना है कि संविधान में वर्णित किसी भी मामले में ‘पूर्ण न्याय‘ को लेकर कोई भी आदेष दिया जा सकता है। जाहिर है न्यायालय के इस रूख से अखिलेष सरकार बड़े मनोवैज्ञानिक दबाव में होगी पर सवाल है कि आखिर ऐसी स्थिति बनी ही क्यों? मामले को देखें  तो लोकायुक्त को लेकर सरकार का रवैया ढीला-ढीला था। असल में सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार को नया लोकायुक्त चुनने के लिए पिछले साल छः महीने का वक्त दिया इसके बाद भी समय देते हुए इसी वर्श 23 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि 22 अगस्त तक नाम सुझाए। जिसके बाद सरकार ने रिटायर्ड जस्टिस रवीन्द्र सिंह यादव का नाम तय कर फाइल राज्यपाल के पास भेज दी पर राज्यपाल ने इस मामले में चयन समिति का ब्यौरा मांग लिया मगर सरकार ने इस बीच चयन समिति की बैठक भी नहीं बुलाई। ऐसे में सरकार और राजभवन के बीच एक गतिरोध उत्पन्न हो गया साथ ही छः बार फाइलें भी इधर-उधर हुईं अन्ततः राज्यपाल राम नाईक ने सरकार के द्वारा सुझाए गये नाम को नामंजूर करते हुए निर्देष दिया कि चयन समिति की बैठक में कोई नाम तय होने के बाद ही वे इसकी मंजूरी देंगे।
इस उतार-चढ़ाव के बीच में ही सरकार लोकायुक्त संषोधन विधेयक भी लाई जिसमें लोकायुक्त चयन में हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीष की भूमिका को खत्म करने का प्रस्ताव षामिल था। तीन सदस्यीय चयन समिति में मुख्य न्यायाधीष, मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष षामिल थे पर न्यायाधीष को अलग करने वाला यह विधेयक अखिलेष सरकार की मंषा पर भी सवाल खड़े करता है। हालांकि विधेयक आज भी राज्यपाल के पास लम्बित पड़ा है। गौरतलब है कि मामले की संवेदनषीलता को देखते हुए सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने 16 दिसम्बर तक नए लोकायुक्त की नियुक्ति का अल्टिमेटम दिया था जिसे लेकर राज्य सरकार ने मंगलवार को आपात चयन समिति की बैठक भी बुलाई थी पर मामला बेनतीजा ही रहा। समय सीमा समाप्त होते देख देष की षीर्श अदालत ने वह काम किया जो इसके पहले कभी नहीं हुआ था। कोर्ट ने यह भी कहा था कि आप लोकायुक्त की नियुक्ति में नाकाम रहते हैं तो हम आदेष में लिखेंगे कि सीएम, गवर्नर और इलाहाबाद हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस अपनी ड्यूटी में असफल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेष के लोकायुक्त की नियुक्ति के मामले में जिस सख्ती के साथ सक्रियता दिखाई है अखिलेष सरकार भी सन्न रह गयी होगी। यहां एक वाकया का जिक्र करना ठीक होगा, एक अन्तर्राश्ट्रीय क्रिकेट मैच के दौरान पाकिस्तान के कप्तान इंजमामुल हक को एम्पायर ने इस बात की चेतावनी दी कि रन लेते समय पिच के बीच में न दौड़ें, जिसे नजरअंदाज करने और कई बार ऐसा करने के चलते एम्पायर ने उन्हें आउट करार दिया तब इंजमामुल हक ने कहा था कि ऐसे भी आउट होते हैं मुझे पता ही नहीं था। ठीक उसी तर्ज पर देष की षीर्श अदालत संविधान की सीमाओं में रहते हुए स्वयं लोकायुक्त भी नियुक्त कर सकती है अखिलेष सरकार को पता ही नहीं था। अदालत के इस रूख से यह भी साफ है कि इसका संदेष उन राज्यों को भी पहुंचेगा जो इन मामलों में अभी भी सकारात्मक नहीं हैं। लोकायुक्त को लेकर पहले भी तनातनी रही है। 2011 में गुजरात के राज्यपाल कमला बेनीवाल ने तात्कालीन मुख्यमंत्री मोदी के बिना सलाह के आठ साल से रिक्त लोकायुक्त पद पर स्वयं नियुक्ति कर दी थी। सरकार की ओर से मामला हाईकोर्ट गया पर हाईकोर्ट ने भी राज्यपाल के फैसले को ही सही माना था।
केन्द्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त को लेकर चर्चा दषकों पुरानी है। प्रथम प्रषासनिक सुधार आयोग (1966-70) ने नागरिकों की षिकायतों को निपटाने तथा प्रषासन में व्याप्त भ्रश्टाचार, अनियमितताएं या पक्षपात जैसी समस्याओं को दूर करने के लिए स्केण्डीनेवियन और न्यूजीलैण्ड की ओम्बुड्समैन संस्थाओं की तर्ज पर इसे बनाने की सिफारिष की थी। जिसके आधार पर अनेक राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति की गयी पर लोकपाल को लेकर रवैया चुस्त-दुरूस्त नहीं था। करीब एक दर्जन बार लोकपाल विधेयक संसद की चैखट से वापस गया पर अन्ना आंदोलन के दबाव के चलते जैसे-तैसे 2013 में इसे अधिनियमित कर दिया गया जबकि द्वितीय प्रषासनिक सुधार आयोग और संविधान समीक्षा आयोग की सिफारिषों को देखते हुए इस दिषा में पहले ही बड़ा कदम उठा लेना चाहिए था। वह दौर कांग्रेसी सरकार का था और राहुल गांधी का इस बात पर जोर था कि इसे एक संवैधानिक संस्था का रूप देना चाहिए जो बेनतीजा ही रहा। फिलहाल जिन राज्यों में लोकायुक्त जैसी संस्थाएं व्याप्त हैं वहां भी पर्याप्त षक्तियों, अधिकार क्षेत्र तथा एकरूपता के अभाव में कम ही सकारात्मक है। बावजूद इसके इस संस्था की प्रासंगिकता और जरूरत आज भी बेसब्री से महसूस की जाती है। लोकायुक्त को लेकर पहला विधेयक उड़ीसा विधानसभा में पेष हुआ था परन्तु प्रथम नियुक्ति का श्रेय महाराश्ट्र को जाता है। 1973 से महाराश्ट्र से षुरू लोकायुक्त की नियुक्ति की प्रथा को चार दषक पूरे हो चुके हैं पर कई राज्य आज भी लोकायुक्त के भारी-भरकम नियम तो बनाये हैं पर मामला षो-केस तक ही है जबकि ऐसे राज्यों में नागरिकों की षिकायतों को निपटाने और भ्रश्टाचार मुक्त प्रषासन देने वाली संस्थाओं का वर्तमान में भी आभाव है। गौरतलब है कि नार्वे जैसे देष 1809 से ही ऐसी व्यवस्थाओं से युक्त हैं। कई पष्चिमी देषों में ऐसी व्यवस्थाओं के चलते भ्रश्टाचार बेलगाम नहीं होने पाई है। वैष्विक भ्रश्टाचार के सूचकांक को देखें तो स्कैन्डीनाई देष इस मामले से काफी हद तक बचे हैं जबकि यही बात भारत सहित एषिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देषों पर लागू नहीं होती है।
कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीष ने असहिश्णुता को लेकर कहा था कि न्यायपालिका के रहते हुए किसी को डरने की जरूरत नहीं है और इसी खूबसूरती को बरकरार रखते हुए अनुच्छेद 142 के तहत ‘पूर्ण न्याय‘ के आईने में न्यायपालिका ने वो सूरत उभारी है जो सहज तो नहीं पर निहायत सुन्दर है। खास यह भी है कि भारत की न्यायपालिका जिस संविधान की सषक्तता से युक्त है उसमें समावेषी और समन्वित दृश्टिकोण के पूरे लक्षण निहित हैं। सुखद यह भी है कि न्यायपालिका के निर्णयों को प्रजातंत्र निरपेक्ष भाव से देखती है। लोकायुक्त की नियुक्ति से जुड़े इस आदेष ने इस विष्वास को और पुख्ता बना दिया। पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान व बंग्लादेष के बारे में यही बात इतनी षिद्दत से नहीं कही जा सकती वहां न्यायालयों के निर्णयों के विरोध भी देखे गये हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि तीसरे स्तम्भ के रूप में न्यायपालिका न केवल संविधान का संरक्षण करती है बल्कि नागरिक मूल्यों को बनाये रखने के लिए समाज को संविधान की सीमाओं में रहते हुए समय-समय पर पारितोशिक भी प्रदान करती है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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बिगड़ रहा है सियासत का सिलेबस

इस समय दिल्ली कोहरे और शीत  की चपेट के साथ सियासी धुंध में भी खूब फंसी है। एक तरफ संसद के शीत सत्र में नित नये विरोध वाले स्वर गूंज रहे हैं तो दूसरी तरफ केन्द्रीय बनाम दिल्ली की सत्ता में हो रही भिड़ंत के चलते सियासत की मर्यादा भी तार-तार हो रही है। बीते मंगलवार को दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल प्रधानमंत्री मोदी पर ताबड़तोड़ तीखे और कुछ हद तक बेतुके हमले किये जिसमें मोदी के लिए कायर और साइकोपैथ जैसे षब्दों का उपयोग किया गया जो सियासत में इसके पहले षायद ही देखा गया हो। माजरा यह है कि दिल्ली सरकार के प्रधान सचिव राजेन्द्र कुमार के दफ्तर पर सीबीआई ने छापा मारा। गौरतलब है कि सीबीआई केन्द्र सरकार की एक जांच एजेंसी है जाहिर है कि छापेमारी के चलते केजरीवाल का तल्ख होना लाज़मी है क्योंकि केजरीवाल और मोदी के बीच सियासती रंजिष काफी समय से जड़ लिये हुए है। ऐसे में उनका यह आरोप कि सीबीआई का छापा मोदी के इषारे पर है समझना कठिन नहीं है। दरअसल केजरीवाल के प्रधान सचिव राजेन्द्र कुमार के खिलाफ एंटी करप्षन ब्यूरो के पास 2012 से सात षिकायतें आईं हैं। इसी षाखा ने एक षिकायत वैट आयुक्त को भेजी और एक सीबीआई को। जिसे लेकर सीबीआई ने राजेन्द्र कुमार के दिल्ली और यूपी सहित 14 ठिकानों पर छापेमारी की। केजरीवाल का आरोप है कि प्रधान सचिव के बहाने उन्हें निषाना बनाया गया और छापा उनके दफ्तर पर मारा गया है। उनका यह भी आरोप है कि वित्त मंत्री अरूण जेटली के फंसने वाली फाइल को सीबीआई ढूंढने आई थी। दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री सिसोदिया की माने तो सीबीआई कैबिनेट के निर्णय सहित कई फाइलें ले गयी है। डीडीसीए की फाइलों को भी ले जाना चाहती थी। मामले को देखते हुए अब आलम यह है कि केन्द्र और दिल्ली सरकार एक बार फिर आमने-सामने हैं। इस बात के बिना फिक्र किये कि असलियत क्या है और इस पर क्या होना चाहिए।
देखा जाए तो राजेन्द्र कुमार को लेकर सीबीआई के पास आई षिकायत और उसके द्वारा की गयी कार्यवाही एक सहज प्रक्रिया है पर इसकी टाइमिंग को लेकर सवाल खड़े किये जा सकते हैं। यह बात सही है कि सीबीआई पर केन्द्र सरकार के अधीन होने का आरोप लगता रहा है। कांग्रेस के जमाने में तो सीबीआई को कांग्रेस ब्यूरो इंफोरमेषन तक की संज्ञा दी जाती थी। षीत सत्र के इस दौर में छापेमारी की यह प्रक्रिया भले ही केन्द्र सरकार के इषारे पर न हुई हो पर केजरीवाल सहित विपक्षी तो यही समझ रहे हैं। संसद में एक रोचक पहलू तब देखने को मिला जब आम आदमी पार्टी के भगवत मान का गला मोदी विरोध में नारे लगाते समय फंसा तो स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें पानी पिलाया। फिलहाल सियासत का रूख अख्तियार कर चुका यह मामला अभी लम्बा खिंच सकता है। अब इस मामले में कांग्रेस भी सरकार विरोधी बात कर रही है। हालांकि वह यह भी कह रही है कि इससे वह केजरीवाल का समर्थन नहीं कर रही है पर इसमें कोई दो राय नहीं कि नेषनल हेराल्ड के मामले में घिरी कांग्रेस इस छापेमारी के बहाने एक नई सियासत को हवा दे रही है जबकि सच्चाई यह है कि मामला वर्श 2012 का है तब दिल्ली की मुख्यमंत्री षीला दीक्षित थी और केन्द्र में भी कांग्रेस की सरकार थी। केजरीवाल का यही आरोप है कि षीला दीक्षित के भ्रश्टाचार के मामले में 2015 में केजरीवाल पर सीबीआई रेड क्यों? तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि मामले को जिस रूप में देखा जा रहा है सच्चाई इससे इतर हो सकती है पर सियासत में बड़बोलेपन के षिकार लोगों के लिए सही लकीर खोजना अक्सर मुष्किल ही रहा है और यदि इसे कोई खोज कर दे भी दे तो उस पर भी एक नई सियासत हो जाती है।
देखा जाए तो भ्रश्टाचार के विरोधी केजरीवाल ने भी कम गलतियां नहीं की हैं। राजेन्द्र कुमार को प्रधान सचिव के रूप में नियुक्त करना कहां की अक्लमंदी है जबकि उन पर आधा दर्जन से अधिक षिकायतें हैं। मई में एक व्हिसल ब्लोअर की षिकायत पर ट्रांसपेरेंसी इंटरनेषनल इण्डिया ने भी केजरीवाल को राजेन्द्र कुमार के मामले में चेताया था बावजूद इसके उन पर कोई असर नहीं हुआ जबकि उन पर भ्रश्टाचार सहित कई संगीन आरोपों की बात कही गयी थी। इसके अलावा केजरीवाल ने नियुक्ति करते समय उप-राज्यपाल की सलाह को भी अनदेखा किया है। सवाल है कि क्या केजरीवाल जिस आधार पर सियासत के रास्ते को अख्तियार किये थे उस पर वे स्वयं चल रहे हैं? सियासी अपरिपक्वता भी केजरीवाल में अभी भी किसी न किसी रूप में कायम है। आरोपों को उजागर करते समय षब्दों के चयन में ये बात देखी जा सकती है साथ ही राजनीतिक रंजिष को भी षीघ्रता से भुला पाने में उतने असरदार नहीं हैं। दिल्ली सरकार के प्रधान सचिव राजेन्द्र कुमार 1989 बैच के आईएएस आॅफिसर हैं और 2013 में केजरीवाल के 49 दिनों की सरकार में भी सचिव के पद पर रह चुके हैं, वर्तमान में वे सेवा विभाग के सचिव के अतिरिक्त दिल्ली के मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव भी हैं जबकि इसके पूर्व वे दिल्ली में षिक्षा निदेषक, वैट आयुक्त, आईटी, षहरी विकास परिवहन और उच्च षिक्षा के अलग-अलग समय में सचिव के पद पर रहे हैं।
इन दिनों के सियासी दौर में सफल षासक की अवधारणा को श्रेश्ठता से समझने की भी आवष्यकता है। समावेषी राजनीति हो या समावेषी विकास इस पर भी चिंतन और मंथन की जरूरत है। भारतीय संविधान संघीय ढांचे के जीवटता से युक्त है ऐसे में केन्द्र और राज्य के बीच यदि खाई बनती है तो सीधे तौर पर संघीय ढांचे का नुकसान है। प्रजातांत्रिक परिप्रेक्ष्य को देखें तो चिंतन यह दर्षाता है कि सत्ताओं के बीच इस प्रकार का दरार होना किसी दुर्घटना को अंजाम देने जैसा है पर सवाल है कि सत्ता की सुदृढ़ता और उसके अंदर की बनावट में यदि सियासत की मात्रा बेहिसाब इस्तेमाल की जायेगी तो हालात में सुधार कैसे होंगे। राश्ट्रपिता महात्मा गांधी का मत था कि बढ़ती हुई षक्ति ऊपर से तो जनता की भलाई करती हुई दिखाई देती है परन्तु असल में ऐसा होता नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री केजरीवाल पूर्ण बहुमत के सत्ताधारक हैं ऐसे में जनहित पर खर्च की गयी चिंता ही उनसे अपेक्षित है न कि केवल आरोप-प्रत्यारोप में पूरी कूबत लगाना। सत्ता वह है जो केवल सृजनात्मक एवं महत्वपूर्ण कार्यों में ही समय का खपत करती है। सफल सत्ता की अवधारणा में कौन, कैसा है उक्त के परिप्रेक्ष्य में स्वयं को परख सकता है। सत्ता के आगे पीछे एक विरोध का भी वातावरण होता है जो गैर जरूरी मुद्दों पर भी लाभ उठाने की फिराक में रहता है। छापेमारी के मामले को लेकर कई विरोधियों को मानो बड़ा अवसर मिल गया हो। तृणमूल कांग्रेस तो इसमें अघोशित आपात की स्थिति देख रही है जबकि जदयू को संघीय ढांचे में तोड़फोड़ दिखाई दे रहा है। सवाल है कि देष में कार्यप्रणाली क्या रही है और किसी समस्या के उपचार को लेकर निदान के क्या प्रारूप रहे हैं। बेषक मोदी बनाम केजरीवाल का दौर बदस्तूर जारी है पर इसका तात्पर्य यह कतई नहीं कि पदों की गरिमा और उससे बंधी सीमाएं ध्वस्त हों। बावजूद इसके केन्द्र सरकार को भी यह सोच लेना चाहिए कि संघीय षक्तियों का प्रयोग ऐसा करें जिससे कि राज्यों को अतिरिक्त कश्ट न हो और राज्यों को भी केन्द्र के हर काज में दखल और विरोध ही नहीं देखना चाहिए।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Tuesday, December 15, 2015

पाकिस्तान के मामले में भारतीय पहल का मतलब

अचानक भारत द्वारा पाकिस्तान को लेकर समग्र बातचीत के लिए तैयार होना, थोड़ा हैरत में डालता है पर वैष्विक कूटनीति के परिदृष्य में देखें तो सब कुछ जायज प्रतीत होता है। इसी प्रारूप में इन दिनों भारत-पाक के बीच कुछ ऐसा पकाने का प्रयास किया जा रहा है जिससे कि राश्ट्रीय हित के साथ अन्तर्राश्ट्रीय परिप्रेक्ष्य भी सुदृढ़ हो जाए। जिस भांति समग्र बातचीत को लेकर दोनों देष एक मन हुए हैं उससे उम्मीदें फिर कुलांचे मारने लगी हैं पर बीते एक वर्श से दोनों देषों के बीच पनपी तल्खी को देखा जाए तो यह सब कितना बेहतर होगा कहना कठिन है। क्या पूरे संदर्भित समायोजन के साथ सम्बन्ध वाली गाड़ी पटरी पर दौड़ पायेगी इस पर भी स्पश्ट राय दे पाना सम्भव नहीं है। जिस भांति पाकिस्तान भारत के मामले में उन्हीं गतिविधियों को बनाये रखने में मषगूल रहा है जिसे लेकर भारत को आपत्ति रही है जाहिर है ऐसे में सम्बन्ध की बेहतरी के लिए पाकिस्तान को अतिरिक्त जिम्मेदारी दिखानी ही होगी। देखा जाए तो वर्श 2014 के नवम्बर महीने में नेपाल की राजधानी काठमाण्डू की सार्क बैठक से ही कमोबेष प्रधानमंत्री मोदी और षरीफ के बीच दूरी बढ़ी। रूस के उफा में मुलाकात तो हुई पर षरीफ के आतंक पर की गयी वादा खिलाफी के चलते तनाव और बढ़ा। तत्पष्चात् सितम्बर में संयुक्त राश्ट्र सम्मेलन के दौरान भी दूरी कायम रही परन्तु दिसम्बर आते-आते पेरिस में कुछ क्षणों की मुलाकात ने सारी तल्खी को मानो समाप्त कर दिया। कयास तो लगाया जा रहा था कि इस मुलाकात के कुछ मतलब निकलेंगे पर नतीजे इतने सहज होंगे षायद ही किसी को अंदाजा रहा हो। जिस प्रकार बिना पाकिस्तान के किसी सबक के समग्र बातचीत का रास्ता भारत की ओर से खोल दिया गया उसे लेकर अचरज यह है कि ऐसा करने के पीछे भारत की कौन सी मजबूरी थी जबकि पाकिस्तान भारत को लेकर जस का तस बना हुआ है।
बीते दिनों विदेष मंत्री सुशमा स्वराज इस्लामाबाद दौरे पर थीं जहां उन्होंने कहा था कि दोनों देषों के बीच रिष्ते बेहतर करने के लिए आईं हूँ। मोदी सरकार के बनने के बाद यह किसी भी भारतीय मंत्री का पहला पाकिस्तानी दौरा है। यदि इस बात को छोड़ दिया जाए कि पाकिस्तान की कई गड़बड़ियों के बावजूद भारत ने सम्बन्ध की पहल क्यों की तो भी क्या इस बात की तसल्ली हो सकती है कि पाकिस्तान एक सकारात्मक भूमिका में रहेगा? नये साल में दोनों देषों के बीच होने वाली समग्र विपक्षी वार्ता में सम्भवतः हुर्रियत की कोई भूमिका नहीं होगी। यदि बीच में इसने खलल डाला तो इस पहल का मतलब बदल जायेगा। पेरिस में जलवायु परिवर्तन के सम्मेलन के दिनों में जब क्षण भर के लिए मोदी-षरीफ की मुलाकात हुई तभी से कयास लगाया जा रहा था कि रिष्तों पर जमी बर्फ पिघल सकती है पर इतनी बड़ी धारा लेगी यह नहीं सोचा गया था। असल में हर बार जब भारत-पाकिस्तान के प्रधानमंत्री किसी अन्तर्राश्ट्रीय बैठक में जाते हैं तो उम्मीदों का सागर उफान मारने लगता है पर उम्मीदों पर पानी तब फिरता है जब पाकिस्तान संवेदनषील मुद्दों पर असंवेदनषील बना रहता है। लाज़मी है कि दोनों देषों के बीच फिर तमाम चर्चाएं होंगी पर उनका मोल क्या होगा आने वाले दिनों में पता चलेगा। कष्मीर को लेकर पाकिस्तान का नजरिया अड़ियल रहता है। पाकिस्तान का यह दावा धार्मिक तथा आर्थिक कारणों से प्रेरित है। उसका तर्क है कि यहां मुसलमानों की अधिक संख्या होने के कारण यह स्वाभाविक रूप से पाकिस्तान है।
अभी तक जो भी बातें की गयी हैं वह विदेष मंत्री स्तर पर हैं जाहिर है इस्लामाबाद में अगले वर्श सार्क सम्मेलन होना है, प्रधानमंत्री मोदी इसमें षिरकत करेंगे। नतीजे कितने सार्थक होंगे यह आगे की बातचीत और काफी हद तक पाकिस्तान के रवैये पर निर्भर करेगा। सुशमा स्वराज का दावा है कि बात कष्मीर में आतंकवाद को लेकर होगी न कि जम्मू-कष्मीर पर यदि ऐसा होता है तो यह पाकिस्तान का भारत के प्रति बदला हुआ रूप ही कहा जायेगा। कहा तो यह भी जाता है कि 2007 में पाकिस्तानी तानाषाह मुषर्रफ की कमियों के चलते समस्या हल होते-होते रह गयी। साथ चलेंगे तभी बढ़ेंगे यह परिप्रेक्ष्य भारत के मामले में हमेषा से रहा है पर पाकिस्तान इस पर कितना अमल करेगा देखने वाली बात है। सच तो यह है कि भारत की प्रतिबद्धता हमेषा से कहीं अधिक सकारात्मक रही है। पड़ोसी मुल्कों के मामले में भारत का नजरिया कभी भी चोट या नुकसान पहुंचाने वाला नहीं रहा है बावजूद इसके पाकिस्तान जैसे देष भारत को हतोत्साहित करने के लिए विगत् 65 वर्शों से प्रयासरत् हैं जबकि पिछले तीन दषक से तो आतंकवाद के चलते भारत के नाक में दम कर रखा है।
बातचीत को ‘समग्र द्विपक्षी वार्ता‘ के षीर्शक से प्रतिश्ठित किया जा रहा है। इस वार्ता में पाकिस्तान की तरफ से कष्मीर और भारत की तरफ से मुम्बई हमले समेत आतंकवाद के कई मुद्दे जरूर उठेंगे। हार्ट आॅफ एषिया सम्मेलन के चलते इस्लामाबाद गईं सुशमा स्वराज के दृश्टिकोण यह दर्षाते हैं कि उन्होंने सकारात्मक बातचीत को लेकर पाकिस्तान को न केवल आष्वस्त किया है बल्कि भारत में भी उम्मीद जगायी है। यदि भारत-पाक असली मुद्दों पर समाधान के साथ आगे बढ़ते हैं तो यह द्विपक्षी वार्ता मील का पत्थर सिद्ध हो सकती है। प्रधानमंत्री मोदी की चाहतों में यह जरूर होगा कि वैष्विक पटल पर जो छवि भारत की उभरी है उसकी आड़ में पाकिस्तान को भी सहज किया जाए और विष्व के देषों में यह संदेष प्रसारित हो कि बरसों से द्विपक्षीय वार्ता की रट लगाने वाला भारत इस मामले में आखिरकार सफल हुआ। हालांकि अटल बिहारी वाजपाई सरकार के समय भी सम्भावनाएं बेहतर थीं पर मुषर्रफ जैसे तानाषाहों के रहते यह सम्भव नहीं था। फिलहाल दोनों देष के सम्बन्ध यदि किसी समाधान की ओर झुकते हैं तो यह दोनों के लिए ही बेहतर होगा पर इस सच से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि षिमला समझौते से लेकर अब तक के वार्ता और सन्धियों के मामले में पाकिस्तान पूरे विष्वास के लायक नहीं रहा है।



लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502


Monday, December 14, 2015

विकास की खबर से बेफिक्र होती संसद

चाहे नेषनल हेराल्ड को लेकर भाजपा नेताओं की भ्रश्टाचार के आरोपो पर कांग्रेस पर दबाव बनाने की रणनीति हो या फिर कांग्रेस की पीछे न हटने की हठ हो इससे साफ है कि बाकी का षीत सत्र भी कम गरम नहीं रहेगा। प्रधानमंत्री मोदी ने एक अखबार के कार्यक्रम में यह साफ किया है कि लोकतंत्र किसी की मर्जी और पसंद के अनुसार काम नहीं कर सकता, बात उचित है पर सवाल है कि इन दिनों की संसद तो अपनी भी मर्जी का काम नहीं कर रही। मोदी का यह भी कहना है कि लोकतंत्र के समक्ष दो बड़े खतरे हैं जिसमें से एक ‘मनतंत्र‘ दूसरा ‘धनतंत्र‘ है। जिस चिंता से मोदी देष को अवगत कराना चाहते हैं दरअसल उसकी तस्वीर संसद में इन दिनों रोज उभरती है। 27 दिन चलने वाले षीत सत्र का एक पखवाड़ा निकल गया है। संसद की कार्यवाही इस उम्मीद में प्रतीक्षारत् होती है कि षायद किसी दिन लोकतंत्र की इस संस्था से विकास की खबर आये पर सांसद विमर्ष और परिचर्चा ऐसे मुद्दों पर करने में लगे हैं मानों संसद बेफिक्र हो। जब कभी विकास की नई प्रगति होती है तो उसका सीधा असर जनजीवन पर पड़ता है पर जब यही प्रगति थम जाए तो इसके उलट परिणाम होते हैं। समावेषी राजनीति हो या सहभागी राजनीति पड़ताल बताती है कि दायित्व आभाव में सभी की अपनी-अपनी विफलताएं रहीं हैं। विकास का विशय जब भी मूल्यांकन की दीर्घा में आता है तो राजनीति से लेकर सरकार और प्रषासन का मोल पता चल जाता है। जब 1996 में मानव विकास रिपोर्ट में विकास के कारण अमीर तथा गरीब के मध्य बढ़ती खाई तथा उसके चलते मानव विकास की बिगड़ती हुई स्थिति के बारे में चिंता व्यक्त की गयी तो वैष्विक स्तर पर कई देषों के कान खड़े हुए थे पर सीख किसने ली ये वहां के विकास से आंका जा सकता है। भारत के मामले में यह बात इसलिए भी ज्यादा संवेदनषील है क्योंकि यहां मानव विकास का पैमाना न तो स्तरीय है और न ही निकट भविश्य में षीघ्र इसकी सम्भावना दिखाई देती है।
वर्श 1996 से 2015 तक के इस दो दषक में चाहे धारणीय विकास हो या समावेषी उसका आभाव आज भी बड़ी खाई के साथ बरकरार है। इससे जुड़े सवाल हमेषा से इस जवाब की फिराक में रहेंगे कि विकास के उन तत्वों को कितनी गम्भीरता दी गयी है जो जीवन के लिए अनिवार्य है। कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि देष की संसद देष के विकासात्मक नीति एवं कानून के मामले में बड़ी रेस लगाने का जो प्रदर्षन करती है वह पसीना बहाने के काम में तो आता है पर काज के पैमाने पर सही नहीं उतरती दिखाई देती। क्या यह आज के परिप्रेक्ष्य में उचित करार दिया जा सकता है। बीते 26 नवम्बर से संसद का बेषकीमती वक्त कई गैर संवेदनषील मुद्दों में खर्च कर दिया गया। दूसरे षब्दों में कहें तो गैर संसदीय मुद्दे भी संसद में छाये रहे मसलन नेषनल हेराल्ड का मुद्दा। ऐसा भी प्रतीत होता है कि पूर्ण समाज का आर्थिक विकास तो हो रहा है परन्तु इस आर्थिक उन्नति में रोजगार को देखें तो उपलब्धि सिकुड़ती जा रही है और अमीर-गरीब के बीच खाई बन रही है। टिकाऊ राजनीति के बड़े अर्थ होते हैं इसमें सत्ता का भरपूर और व्यापक पैमाने पर प्रयोग और प्रसार निहित होता है। लोगों की अपेक्षाओं पर कहीं अधिक खरे उतरने की गुंजाइष भी बरकरार रहती है। लोकतंत्र में जब किसी को पूर्ण बहुमत की सत्ता मिलती है तो यह धारणा स्थान घेरती ही है कि राजनीति हर हाल में टिकाऊ है पर ऐसे टिकाऊपन का क्या मतलब जिसमें लोकतंत्र की अपेक्षाएं अधूरापन लिये रहें। वर्तमान मोदी सरकार कुछ इसी प्रकार की मजबूत सत्ता वाली टिकाऊ सरकार है पर विरोध के चलते लोकतंत्र की उस संज्ञा को बेहतरी से परिभाशित न कर पाना सरकार के लिए षुभ संकेत नहीं हैं।
 धारणीय विकास की दृश्टि से यदि देष की पड़ताल करें तो सरकार के मजबूत होने से विकास की सम्भावनाएं प्रबल हो जाती हैं और काम के अनुपात में देखें तो ऐसा होते हुए दिखाई भी देता है पर नतीजे सार्थक हैं इसे षिद्दत से स्वीकार करने में आज भी कठिनाई क्यों है? आर्थिक उन्नति की इस प्रक्रिया में लोकतांत्रिक मूल्यों की महत्ता बरकरार रखने की जिम्मेदारी सरकार की है मगर विरोधियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकतंत्र में सूरत एक-दूसरे के आइने में देखी जाती है ऐसे में जिम्मेदारी से तो वे भी नहीं बच सकते। यदि आर्थिक उन्नति की प्रक्रिया में लोकतांत्रिक मूल्यों को महत्व नहीं दिया गया तो इसे आवाजविहीन विकास कहेंगे।संसद देष की गूंज है, संसद केवल षोर के लिए नहीं बनाया गया है, यहां से नीति से भरी सुरीली आवाज भी निकलनी चाहिए जिसका आभाव है जो देष की संस्कृति तथा सभ्यता के अनुरूप नहीं है। वर्श 2014 के षीत सत्र से लेकर वर्तमान षीत सत्र तक अड़चनें एक साल बीतने के बावजूद उसी भांति बरकरार है। राजनीतिक संदर्भ में देखें तो संसद का वर्तमान षीत सत्र षोर होते हुए भी आवाजविहीन है और तमाम मूल्यों और संस्कृतियों की दुहाई देने के बावजूद जड़विहीन प्रतीत होती है। इनके बीच फंसा लोकतंत्र हाषिये पर है। समझ लेना चाहिए कि यदि संसद इसी गतिरोध से अटी रहेगी तो कूबत के बावजूद धारणाीय विकास की अवधारणा से जनमानस कटा रहेगा।
देष में तीन बड़े सेक्टर हैं कृशि एवं पषुपालन, उद्योग और सेवा इस क्रम के विलोम की क्रमिकता में देष की जीडीपी अधिक से कम की ओर है। कृशि सकल घरेलू उत्पाद के मामले में सिमटती जा रही है जिसे लेकर नीतियां हैं, नियोजन भी हैं पर विकासविहीन सिद्ध हो रहे हैं। इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि विगत् मार्च-अप्रैल में देष में कई बार बेमौसम बारिष हुई। रबी की फसलें बर्बाद हो गयीं। किसानों ने इस त्रासदी के चलते आत्महत्या की। इतना ही नहीं खरीफ के समय भी मानसून की कमजोरी ने रही सही कसर पूरी कर दी। सूखे के चलते किसान तो झंझवात में ही फंस गया। आंकड़े भी बताते हैं कि पंजाब, उत्तर प्रदेष, बुंदेलखण्ड और महाराश्ट्र विदर्भ सहित कई राज्यों के हजारों किसानों ने आत्महत्या की। आंकड़ें इस बात का भी समर्थन करते हैं कि अबतक देष में तीन लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। किसानों का हितैशी होने का सभी सियासी दल प्रदर्षन करते हैं परन्तु जब देष के खेत-खलिहानों और किसानों के लिए कुछ करने का वक्त आया तो क्या सत्ता, क्या विपक्ष दोनों एक जैसे नजर आये। षीत सत्र में सूखे पर चर्चे को लेकर विपक्ष गायब रहा, विपक्षी बेंच पर महज कुछ ही सदस्य उपलब्ध थे। सरकार की ओर से भी इस पर कोई खास गम्भीरता भी नहीं दिखाई गयी साथ ही केन्द्र सरकार किसान आयोग बनाने से स्पश्ट इंकार कर दिया। कहा अभी इसे लेकर कोई योजना नहीं है। विकास प्रक्रिया में हम आज की आवष्यकता को ध्यान में रखकर क्या वह सब कर रहे हैं जो समय की मांग में निहित है। जाहिर है देष में किसान एक बड़ा वर्ग है और इसे नजरअंदाज करना यह साफ करता है कि भविश्यविहीन विकास की अवधारणा को उजागर किया जा रहा है जो अच्छे संकेत नहीं हैं। इसके अलावा जीएसटी सहित कई विधेयकों में रोड़ा बने विपक्ष का हठयोग भी खराब संकेत ही कहा जायेगा।





सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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Thursday, December 10, 2015

धुंध छंटने की प्रतीक्षा में विधेयक

संसद का षीतकालीन सत्र लगभग आधा रास्ता तय कर चुका है पर विधेयकों को लेकर कोहरा छंटने के बजाय कहीं अधिक गहराता जा रहा है। ऐसे में सत्ता पक्ष की बेचैनी और विपक्ष की बेरूखी स्पश्ट देखी जा सकती है। दरअसल संसद राश्ट्र की आवाज होती है और राश्ट्र के नागरिकों का दर्पण भी। यहां जब तक सामने के आईने में न निहारा जाए तब तक लोकतंत्र पूरा नहीं पड़ता। यही लोकतंत्र की विषेशता भी है। चूंकि बहुमत वाली मोदी सरकार की ऊपरी सदन में जरूरी संख्याबल नहीं है जिसके चलते विधेयक फलक पर आने के बजाय विपक्षी चक्रव्यूह में उलझे हैं। बीते 26 नवम्बर को षीतकालीन सत्र का आगाज हुआ जिसके षुरूआती दो दिन संविधान दिवस को समर्पित थे। वर्श 1949 की इसी तारीख को देष के संविधान के कुछ उपबन्ध लागू हुए थे जबकि 26 जनवरी, 1950 को पूरा संविधान धरातल पर आया था। यह महज संयोग है कि इसी 26 नवम्बर को मोदी सरकार के ठीक डेढ़ वर्श भी पूरे हुए। इन डेढ़ वर्शों के कार्यकाल में सरकार कई खट्टे-मीठे अनुभवों से गुजरी जिसमें सर्वाधिक दिक्कत का सामना विधेयकों को कानूनी रूप न दिला पाने का रहा है। सत्र के  षुरू में प्रधानमंत्री ने ‘आइडिया आॅफ इण्डिया‘ पर जोरदार भाशण तो दिया पर असल बात तब बनेगी जब लम्बित पड़े विधेयक कानूनी रूप अख्तियार करेंगे। 23 दिसम्बर तक चलने वाले इस 27 दिवसीय षीत सत्र में कई विधेयक सरकार अधिनियमित कराना चाहेगी पर सफलता दर क्या होगी ये आखिर में ही पता चलेगा।
नीति एवं कानून निर्माण सरकार की सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्रियाओं में से एक है। यह ऐसा माध्यम है जिसके सहारे जनहित को सुनिष्चित किया जाता है। सरकार के सामने कई आन्तरिक तथा बाह्य समस्याओं के साथ लोक कल्याणकारी दायित्वषीलता भी होती है। इसी को देखते हुए नीतियों की सख्त आवष्यकता पड़ती है। हालांकि संसद का जो माहौल इन दिनों है उसे देखते हुए उम्मीद पूरी होगी कहना मुष्किल है। इसके पूर्व 23 दिन के मानसून सत्र के 30 विधेयक अधिनियमित होने के मामले में सूखे ही रहे। सवाल है क्या जारी षीत सत्र में इन विधेयकों से कोहरा छंटेगा, यह विपक्ष पर निर्भर करेगा? फिलहाल दर्जनों विधेयक सदन में लम्बित हैं जिसमें फिलहाल जीएसटी सर्वाधिक संवेदनषील है। इसकी मुख्य वजह इसका आर्थिक विकास का धुरी होना है। इसकी गम्भीरता को देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी से सद्भावना बैठक भी की। हालांकि मनमोहन सिंह जीएसटी को आर्थिक विकास के धारा में मानते हैं और इसके सकारात्मक पहलू से सहमत हैं पर कांग्रेस की आनाकानी और राहुल गांधी के रवैये को देखते हुए मामला खटाई में ही है। इसी बीच विदेष राज्यमंत्री वी.के सिंह को लेकर कांग्रेस और बसपा का आक्रामक रूख रही सही कसर पूरी कर सकता है। रियल स्टेट विधेयक से लेकर भू-अधिग्रहण, बीमा और व्हिसल ब्लोअर सुरक्षा (संषोधन) सहित दर्जनों विधेयक कानून बनने की राह पर हैं पर राजनीतिक एका में कमी के चलते मामला अधर में है। बहरहाल देष की जनता जमीनी सुधार की प्रतीक्षा में है। सरकार से अच्छे दिन की दरकार रखती है पर असहिश्णुता, असंवेदनषीलता और कई अनचाही चर्चाओं के चलते संसद का बेषकीमती वक्त भी इसमें खपत हो रहा है। इसके पूर्व का मानसून सत्र भी ललित मोदी और व्यापमं घोटाले सहित तमाम विवादित बयानों के चलते गैर उत्पादक ही रहे जबकि बजट सत्र विधेयकों के मामले में आई-गई तक ही सीमित रहा। ऐसे में सरकार क्या विकल्प चुने चिंता लाजमी है। अध्यादेष भी बेहतर विकल्प नहीं सिद्ध हो सकते  क्योंकि इनकी भी सीमाएं हैं। राश्ट्रपति भी अध्यादेष की प्रथा को सही नहीं मानते।
सवाल तो सरकार के साथ विरोधियों पर भी उठेगा। लोकतांत्रिक कल्याणकारी राज्य के विकास में चाहे बहुमत वाली सरकार हो या सामने बैठा विपक्ष, इस विरोधाभास में न रहे कि प्रतिउत्तरदायिता केवल बहुमत वाले की है। एक लोकतांत्रिक सरकार में धारणा यह है कि वे जनता की सेवा के लिए है पर क्या विपक्ष में रहकर यही भावना केवल विरोध की रह जाती है? देखा गया है कि विरोध की राजनीति के चलते कई अच्छे काज प्रभावित हो जाते हैं। फिलहाल हम समाज के तीन प्राथमिक कारकों में जनहित, लोककल्याण और विकास के संतुलन को प्राथमिकता दें तो भी इसकी प्राप्ति काफी हद तक विधेयकों के अधिनियमित होने से ही सम्भव है पर यह कैसे होगा, मामला बहुत साफ नहीं है। मंगलवार को तो इस पर एक और कोहरे की परत तब चढ़ गयी जब सदन में मुख्यतः ऊपरी सदन में विरोधियों का काफी हंगामा बरपा वजह नेषनल हैराल्ड मामले में हाईकोर्ट दिल्ली के समक्ष सोनिया और राहुल गांधी की पेषगी को लेकर था। हालांकि अब यह तारीख 19 दिसम्बर कर दी गयी है। कांग्रेस का आरोप है कि जीएसटी पर दबाव बनाने के लिए सरकार ऐसा कर रही है। दरअसल नेषनल हेराल्ड अखबार प्रकाषित करने वाली संस्था की दो हजार करोड़ रूपए की सम्पत्ति पर अवैध कब्जे का आरोप सोनिया और राहुल गांधी पर है। इस मामले में याचिकाकत्र्ता भाजपा के सुब्रमण्यम स्वामी हैं जिसके चलते इसे राजनीतिक रंग दिया जा रहा है और इसके कारण सदन एक बार फिर अनचाही चर्चा की षिकार होने की ओर है। सवाल है ऐसे में विपक्षी समर्थन को जुटाना कैसे सम्भव होगा।
विदित है कि सत्ताधारी एनडीए के पास राज्यसभा में संख्याबल की कमी है। सरकार इसके पहले भी एड़ी-चोटी का जोर लगाकर देख लिया है पर बात नहीं बनी। क्षेत्रीय पार्टियों की पड़ताल करें तो सपा के 15, तृणमूल कांग्रेस के 12, बसपा के 10, बीजू जनता दल के 6 और षरद पंवार की पार्टी के 6 सदस्य और द्रमुक के 4 को जोड़ दिया जाए तो बात काफी हद तक बन सकती है पर क्या ये राजनीतिक दल सरकार के समर्थन में आयेंगे। यह सही है कि कांग्रेस सहित तमाम दल जीएसटी को लेकर सरकार का साथ देने से बहुत देर तक पीछे नहीं रह सकते हैं। अन्य विधेयकों में खामी ढूंढ़ने वाले विरोधी भी अच्छी तरह जानते हैं कि जीएसटी देष के आर्थिक हित में है। फिलहाल इस सप्ताह जीएसटी बिल को आगे बढ़ाने वाली प्रतिबद्धता के बीच नीति आयोग के अरविन्द पनगड़िया ने इसके पास होने का भरोसा जताया है। यह अनुमान अधिक त्रुटिपूर्वक नहीं होगा कि कांग्रेस जीएसटी की खामियों की वजह से नहीं बल्कि राजनीतिक कारणों से आनाकानी में फंसी है। यदि खामियां हैं तो सरकार इसे दूर करने को लेकर पहले से ही तैयार है। इस सत्र में सरकार की कोषिष है कि जीएसटी कानूनी रूप ले ताकि आने वाले वित्त वर्श अर्थात् 1 अप्रैल, 2016 से इसे लागू किया जा सके जैसा कि प्रधानमंत्री कह चुके हैं। इस बीच दर्जनों लम्बित पड़े विधेयकों का क्या होगा, उन पर कैसे राय षुमारी बनेगी, फिलहाल अभी कहना कठिन है पर यह तय है कि सरकार उसके लिए भी अवसर खोजेगी। निहित मापदण्डों में ऐसा कम ही रहा है कि पूर्ण बहुमत वाली सरकार गैर मान्यता प्राप्त विपक्ष के सामने इतनी बेबस रही हो कि एक बेहतर ‘थिंक टैंक‘ साबित होने के लिए इतने पापड़ बेलने पड़े हों। संदर्भ तो यह भी है कि कुछ विरोध, विरोध के लिए भी हो रहे हैं न कि कानून में गड़बड़ी के चलते।



सुशील कुमार सिंह
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नेशनल हेराल्ड पर सियासत गरम

नेशनल हेराल्ड के ताजा प्रकरण ने शीत सत्र की सियासत को कहीं अधिक गरम कर दिया है। अदालत का झगड़ा संसद में इस कदर बरपा है कि यह सत्र भी उद्देश्य से विमुख होता दिखाई दे रहा है। कांग्रेस का एक बड़ा तबका इस मुद्दे पर संसद में हंगामा करने की वकालत कर रहा है तो वहीं रणनीति को लेकर शीर्ष नेताओं की बैठकें भी जारी है। इन दिनों दशकों  पुराना समाचार पत्र नेशनल हेराल्ड चर्चे में है। इसके फलक पर आने से एक बार फिर इससे जुड़ी यादें पुर्नजीवित हो चली हैं। अंग्रेजी काल का यह समाचार पत्र आजादी के दिनों में भी कई गौरवगाथा के लिए जाना जाता रहा है। जब समाचार पत्र के स्टाल पर पत्र-पत्रिकाओं की पड़ताल होती थी तो उन दिनों के तमाम अंग्रेजी समाचार पत्रों में नेषनल हेराल्ड बड़ी षिद्दत से नजरों में समाता था। इसकी एक और मुख्य वजह नब्बे के दषक में उत्तर प्रदेष की दसवीं और बारहवीं की बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम का इसमें प्रकाषित होना था। न जाने कितने विद्यार्थी उस दिन इसे पाने की होड़ में रहते थे और यह लाखों के फेल-पास होने का गवाह भी होता था। इसकी स्थापना 8 सितम्बर, 1938 को लखनऊ में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने की थी। भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के उन दिनों में अंग्रेजों के विरूद्ध आवाज उठाने के लिए समाचार पत्र बहुत बड़े जरिया होते थे। नेषनल हेराल्ड भी इसी प्रकार के भावों से युक्त समाचार पत्र था। खराब आर्थिक हालत के चलते प्रकाषन के 7 दषक बाद वर्श 2008 में यह नजरों से ओझल हो गया। इन दिनों यह एक बार फिर सुर्खियों में है जिसमें सोनिया और राहुल सहित 6 लोगों पर धोखाधड़ी का आरोप है।
आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाने वाला नेषनल हेराल्ड आजादी के बाद भी मुखपत्र बना रहा जिसका हिन्दी षाब्दिक अर्थ भारत का अग्रदूत है जबकि नेहरू ही इसके पहले सम्पादक थे। बन्द होने के दौर में अखबार का मालिकाना हक एसोसिएट जर्नल्स के पास था। इसी कम्पनी ने कांग्रेस पार्टी से बिना ब्याज के 90 करोड़ का कर्ज लिया था फिर भी यह अखबार षुरू नहीं हुआ। कांग्रेस ने कर्ज देने का मकसद कम्पनी के कर्मचारियों को बेरोजगार होने से बचाना बताया था। अप्रैल 2012 में यंग इण्डिया ने एसोसिएट जर्नल्स का मालिकाना हासिल कर लिया। खास यह है कि इस कम्पनी में 38 फीसदी षेयर सोनिया गांधी के और इतना ही राहुल गांधी के भी है। बाकी षेयर कम्पनी के डायरेक्टर सैम पित्रोदा एवं सुमन देव सहित मोतीलाल बोरा, आॅस्कर फर्नाडीज़ जैसे कांग्रेसी नेताओं के पास है। इसके अलावा यंग इण्डिया ने नेषनल हेराल्ड की 1600 करोड़ की परिसम्पत्ति को महज 50 लाख में हासिल किया। यहीं से मामला संदेह के घेरे में आया। सुब्रमण्यम स्वामी जो बीजेपी के नेता हैं जिनका आरोप है गांधी परिवार हेराल्ड की सम्पत्तियों को अवैध ढंग से प्रयोग में ला रही है। यहां बताना जरूरी है कि दिल्ली का हेराल्ड हाऊस और अन्य सम्पत्तियां भी इसमें षामिल हैं। इसी के चलते स्वामी 2012 में कोर्ट गये। 26 जून, 2014 को लम्बी कानूनी प्रक्रिया के बाद दिल्ली के पटियाला हाऊस ने सभी षेयर धारकों को कोर्ट में पेष होने को लेकर समन जारी किया तब से मामला लम्बित पड़ा रहा पर षीत सत्र के इस गहमागहमी के दिनों में दिल्ली हाईकोर्ट ने इन सभी के खिलाफ ट्रायल कोर्ट द्वारा जारी समन को सही ठहराते हुए याचिका खारिज कर दी जिसके चलते बीते 8 दिसम्बर को सोनिया और राहुल को अदालत में हाजिर होना था पर अब यह तारीख 19 दिसम्बर कर दी गयी है। मतलब साफ है कि नेषनल हेराल्ड के इस अखबारी मामले में आरोपों से घिरे इन कांग्रेसी नेताओं को अदालत से कुछ दिनों की मोहलत मिली है पर इस घटनाक्रम के चलते सियासत में जो तूफान खड़ा हुआ है उसके षांत होने के आसार फिलहाल नजर नहीं आ रहे।
इस मामले को लेकर कांग्रेस नेतृत्व जो प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है उस पर थोड़ी हैरत होती है वह इसलिए कि हाईकोर्ट द्वारा अपील खारिज होने के बाद ऐसा तो होना ही था पर आरोप है कि मोदी सरकार बदला लेने के लिए यह सब कर रही है और डाॅ. सुब्रमण्यम सरकार के इषारे पर यह सब कर रहे हैं जो बेतुकी बात ही कही जायेगी। देखा जाए तो यह मामला मोदी सरकार के बनने से पहले का है, उस दौरान केन्द्र में कांग्रेस की ही सरकार थी और सुब्रमण्यम स्वामी भाजपा में भी नहीं थे। ऐसे में कांग्रेस की यह बदला लेने वाली दलील एक राजनीतिक वक्तव्य मात्र ही प्रतीत होता है। बीते 26 नवम्बर से षीत सत्र जारी है। 27 दिवसीय यह षीत सत्र 23 दिसम्बर को समापन लेगा जिसका आधा वक्त बीत चुका है। कांग्रेस के लिए भी यह पेषोपेष है कि जीएसटी को लेकर वह क्या कदम उठाए जबकि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी कह चुके हैं कि जीएसटी देष के आर्थिक हित में है। जिस प्रकार बयानबाजी की जा रही है जाहिर है कि अदालत की यह लड़ाई राजनीतिक अखाड़े में सियासत का रूख अख्तियार कर चुकी है। जिसका सबसे बड़ा नुकसान षीत सत्र को उठाना पड़ेगा। इसी सत्र में जीएसटी समेत कई विधेयकों के पारित होने की उम्मीद थी पर अब यह मुमकिन प्रतीत नहीं होता। जिस प्रकार बीते कुछ सत्रों से सियासत बिगड़ी है और देष के जरूरी काज प्रभावित हुए हैं उसे देखते हुए अंदाजा लगाना सहज है कि पूर्ण बहुमत वाली मोदी सरकार के दुःख के दिन फिलहाल समाप्त होने वाले नहीं है और इनसे उम्मीद लगाने वाली जनता भी बहुत कुछ परिवर्तन होते हुए देखेगी यह बात भी संदेह से परे नहीं है।
इस सच से भी इंकार नहीं किया जा सकता जहां एक ओर देष कई संवेदनषील परिस्थितियों से जूझ रहा है वहीं जनता के प्रतिनिधि आपसी रंज पैदा करके नई समस्याओं को मौका देने में लगे हैं जबकि जनता बेहतरी की फिराक में बार-बार ना उम्मीद हो रही है ऐसे में यह कह पाना निहायत कठिन है कि आने वाला समय और बचा हुआ षीत सत्र कितने काम का है। कांग्रेस देष की सर्वाधिक पुरानी पार्टी है। 65 बरस के लोकतान्त्रिक इतिहास में इसका तीन-चैथाई समय सत्ता में बीता है जाहिर है विपक्ष का अनुभव कांग्रेस के पास कुछ ही बरसों का है उसमें भी पूर्ण बहुमत के खिलाफ तो मात्र डेढ़ वर्श का ही है। कांग्रेस भी इस तर्क में जरूर फंसी होगी कि यदि अदालत के फैसले को लेकर संसद की कार्यवाही को अधर में डाला गया और जीएसटी जैसे बिल कानून का रूप नहीं ले पाता है तो जनता में यह संदेष प्रसारित हो सकता है कि निजी कारणों से कांग्रेस ने देष का अहित किया है। जाहिर है सत्ता पक्ष को इसे भुनाने का एक मौका मिलेगा पर यही कांग्रेस यदि इसके उलट इन मुष्किलों के बीच जीएसटी पर साथ देती है तो उसे डर है कि कहीं यह उसके ऊपर बढ़ा हुआ दबाव न मान लिया जाए। ऐसे में कांग्रेस का क्या निर्णय होगा यह तो आने वाले दिनों में ही पता चलेगा। फिलहाल सरकार की भी अपनी दलीलें हैं और सरकार चाहेगी कि कुछ भी हो जीएसटी जैसा बिल हाथ तो आये पर स्थिति को देखते हुए काज इतना आसान भी नहीं है। जाहिर है कांग्रेस ऐसा कुछ नहीं करना चाहेगी जिससे कि सरकार को सहूलियत मिलती हो और उसकी स्वयं की समस्या में बढ़ोतरी होती हो।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

Monday, December 7, 2015

असहिष्णुता पर पूर्ण विराम का वक्त!

विगत् कुछ महीनों से देश  में असहिष्णुता को लेकर एक व्यापक बहस छिड़ी हैं जिसके पटाक्षेप के आसार इन दिनों तेजी से प्रकट होने लगे हैं। संचेतना से युक्त समाज में असंवेदनशीलता  कितनी प्रखर हो सकती है इसकी भी पड़ताल लाज़मी है। देखा जाए तो असहिष्णुता को लेकर चिंतन और विमर्श करने वाले दो खेमे में बंटे थे जो मानते थे कि देश में असहिष्णुता की बयार बह रही है वे इसके विरोध में जो बन पड़ा किये मसलन साहित्यकारों एवं लेखकों ने पुरस्कार वापस किये, फिल्मकारों ने इससे जुड़े बयानबाजी की साथ ही कांग्रेस जैसे सियासतदानों ने इसकी शिकायत राश्ट्रपति से भी की। गौरतलब है कि जब भी समाज में कोई नया नकारात्मक षब्द अविश्कार लेता है तो उसकी कोई बड़ी वजह तो होती है पर सूझबूझ यह भी कहती है कि परख के मामले में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। दरअसल संवेदनषील मुद्दों के उभरने से समाज का संवेदनषील होना स्वाभाविक है पर यह कितना असरदार है इसकी भी जांच-परख होनी चाहिए। हालांकि जो यह मानते हैं कि असहिश्णुता जैसी कोई चीज देष में नहीं है अब उनमें सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीष भी षामिल हैं। यहां कहना सही है कि असहनषीलता को लेकर जितनी बातें की गयीं सच्चाई में वो पूरी तरह सारगर्भित थी यह बात संदेह से परे नहीं है। यही कारण है कि इसे लेकर समाज न केवल दो खेमे में बंटा बल्कि सरकार के माथे पर भी बहुत बल नहीं पड़े जबकि प्रधान न्यायाधीष के वक्तव्य के चलते यह मामला और साफ हो जाता है।
नवनियुक्त उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीष टीएस ठाकुर ने भी कह दिया कि देष में असहिश्णुता नहीं है। उन्होंने कहा कि इस देष में कई धर्मों के लोग रहते हैं दूसरे धर्मों के लोग यहां आये फले-फूले यह हमारी विरासत है बाकी सब साधारण की बात है। बीते रविवार को आये इस बयान से यह तय माना जा रहा है कि तथाकथित असहिश्णुता को लेकर अब राय जरूर बदलेगी। देष की अदालत के मुखिया ने जनता को न केवल सुरक्षा का भरोसा दिलाया बल्कि असहिश्णुता को एक सियासी मुद्दे के तौर पर देखा। उनका मानना है कि असहिश्णुता पर बहस के राजनीतिक आयाम हो सकते हैं परन्तु जब तक कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट है किसी को भी घबराने की जरूरत नहीं है। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि वे ऐसी संस्था का नेतृत्व कर रहे हैं जो कानून का षासन सुनिष्चित करता है जब तक कानून है न्यायपालिका स्वतंत्र है तब तक सभी के अधिकारों की सुरक्षा करने में सक्षम है। उक्त कथन के प्रकाष में अब बातें धुंधली नहीं रहेंगी। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रधान न्यायाधीष का वक्तव्य सही वक्त पर आया है। इन दिनों 27 दिवसीय षीतकालीन सत्र जारी है। 26 नवम्बर से षुरू होने वाले इस षीत सत्र में भी असहिश्णुता से लेकर पंथनिरपेक्षता तक की चर्चा जोरों पर है। सत्र के षुरूआत के दो दिन संविधान के लिए समर्पित थे। इस दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने इस प्रकार के विवाद का पटाक्षेप करते हुए एक सकारात्मक विचार रखा था पर विरोध पक्ष का ऐसे मामलों में पूरा संतोश षायद अभी दूर की कौड़ी है जिसकी गूंज संसद में थमी नहीं है। जाहिर है कि प्रधान न्यायाधीष टीएस ठाकुर के असहिश्णुता को खारिज करने वाला बयान संसद के अलावा देष के अमन चैन में बड़ा काम आयेगा।
धार्मिक सहिश्णुता और सर्वधर्म समभाव जैसी अवधारणाएं भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही रची-बसी है। अषोक के बारहवें दीर्घ षिलालेख का यह भाव है कि अपने सम्प्रदाय का आदर करते हुए अन्य सम्प्रदाय के प्रति आदर भाव रखें। आज की दुनिया विकास की होड़ में है। सब कुछ समुचित ही होगा कहना असंगत प्रतीत होता है। इक्का-दुक्का घटनाएं भी इस भाग-दौड़ में न हों बहुत अच्छी बात है पर इसे रोक पाना षायद बूते से बाहर है। दादरी में बीफ विवाद से उठा मामला असहिश्णुता की एक प्रवाह पैदा करेगी ऐसी सोच षायद ही किसी की रही हो। बिना नाम लिए प्रधान न्यायाधीष का यह कहना समुचित प्रतीत होता है कि एक घटना के कारण देष को असहिश्णु नहीं कहा जा सकता। उनका मानना है कि भारत विषाल देष है जहां तमाम समुदाय सदियों से रहते आये हैं कभी-कभी टकराव भी होता है। ऐसे टकराव को असहिश्णुता नहीं कहा जा सकता। दो टूक यह भी समझना जरूरी है कि देष का संविधान ऐसी तमाम समस्याओं के हल करने का उपाय और उपचार है। अनुच्छेद 124 से 147 सर्वोच्च न्यायालय के कार्य एवं भूमिका का वर्णन करता है वहीं अनुच्छेद 214 से 237 के बीच यही बात उच्च न्यायालय के लिए है। अनुच्छेद 50 के अन्तर्गत कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथककरण किया गया जो एक स्वतंत्र इकाई है जिसे अनुच्छेद 13 के तहत न्यायिक पुर्नविलोकन का अधिकार प्राप्त है। यदि सरकार या संसद किसी प्रकार का कानून, अधिनियम, अध्यादेष, आदेष, नियम व विनियम संविधान के नियमों का विरोध करते हैं तो देष की यह सर्वोच्च न्यायिक संस्था ऐसों के लिए दीवार का काम करती है। उक्त का भाव यह है कि जिस बात को लेकर समाज का एक वर्ग असुरक्षित और सहमा है उसे निर्भीक होकर स्वतंत्र जीवनधारा में षामिल होना चाहिए क्योंकि सुरक्षा और उपचार के लिए संविधान है जैसा कि प्रधान न्यायाधीष ने कहा है कि मैं अपील करता हूं कि आपस में एक-दूसरे के लिए प्रेम रखें। असल में जब भी समाज का तुश्टीकरण होता है तो उन बातों का भी महत्व बढ़ जाता है जो धरातल पर ठीक से पनपी भी नहीं होती। कई बयान इस प्रकार के भी आ चुके हैं कि विष्व की तुलना में भारत कहीं अधिक सहिश्णु और गुजर-बसर में बेहतर है। जाहिर है कि वैष्विक हालात जिस प्रकार रंग-भेद, धर्म-भेद और विकास-भेद के चलते कई लोगों को कोपभाजन का षिकार होना पड़ रहा है ऐसे कोई हालात फिलहाल भारत में नजर नहीं आते। सियासत की आड़ में तथाकथित असहिश्णुता को रंगरूप देने वाले इस बात को क्यों भूल जाते हैं कि हालात बिगड़े तो संभालने की जिम्मेदारी भी उनकी है।
कई लेखकों, विचारकों, फिल्मकारों और सियासतदानों ने देष में असहिश्णुता को लेकर अपने तरीके से चिंताएं जाहिर कीं। बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों जैसों के खेमों ने जो विरोध किया वह देष के सुधार के काम आया होगा। ऐसे चिंतनयुक्त विरोध का सम्मान भी किया जाना चाहिए पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि इनकी आड़ में वे भी असहिश्णुता का ढिंढोरा पीटे जो देष को तोड़ने के अलावा कोई काज नहीं करते। जाहिर है कुछ कट्टरपंथी जो अलगाववादी विचारधारा के हैं सरकार के कारनामों से असंतुश्ट हो सकते हैं इसलिए असहिश्णुता को हवा देंगे। जिन्हें यह मंजूर नहीं कि मोदी प्रधानमंत्री रहें वे भी ऐसा करेंगे। जो कष्मीर में पाकिस्तान के नारे लगाते हैं, आतंकी कसाब और अफजल गुरू जैसों को फांसी देने पर धरना-प्रदर्षन करते हैं ये भी असहिश्णुता के बहाने अपनी रोटियां सेकेंगे। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह कहता है कि असहिश्णुता के राजनीतिक मायने हो सकते हैं जैसा कि प्रधान न्यायाधीष ने भी कहा है। अलग-अलग प्रतिक्रियाएं भी हो सकती हैं पर इस सत्य से अनभिज्ञ नहीं हुआ जा सकता कि संविधान और स्वतंत्र न्यायपालिका के रहते किसी वजह से यदि असहिश्णुता पनप भी गयी तो यह देर तक टिक नहीं पायेगी। ऐसे में देष की षीर्श अदालत के मुखिया के बयान के बाद अब यह सुनिष्चित माना जाना चाहिए कि तथाकथित असहिश्णुता पर पूर्ण विराम लग चुका है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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