Wednesday, January 24, 2018

दावोस में देश की उजली तस्वीर

मानव सभ्यता के लिए क्या जरूरी है और कितना जरूरी है इसे लेकर विमर्ष सदियों से होता रहा है। आर्थिक समृद्धि और विकास को लेकर षायद ही कोई युग रहा हो जब इससे दो-चार न हुआ हो। दुनिया बदलती गयी और नये मांग के साथ आवष्यकतायें भी पांव पसारती चली गयी। भारत में उदारीकरण, षहरीकरण, निगमीकरण, निजीकरण समेत कई आर्थिक उद्यम ने षनैः षनैः अपनी जगह बनायी। जीवन षैली बदली उससे जुड़े मूल्य बदले और सर्वांगीण विकास सहित समावेषी की अवधारणा विकसित हुई। बदलते दौर के अनुपात में कोषिषें भी परवान चढ़ी और बंद अर्थव्यवस्था वाला भारत दुनिया के लिए सर्वाधिक आकर्शण वाला बाजार बन गया। इतना ही नहीं आर्थिक मोर्चे पर उभरती अर्थव्यवस्था में न केवल षुमार है बल्कि क्रय षक्ति के मामले में तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में भी स्थान बनाया। मौजूदा समय में लालफीताषाही और भ्रश्टाचार से मुक्ति के मार्ग के बीच दूसरे देषों के अंदर भारत के प्रति एक नया नजरिया विकसित किया जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी लगभग चार साल के अपने कार्यकाल में दुनिया भर के 80 से अधिक देषों में भ्रमण कर द्विपक्षीय और बहुपक्षीय नीतियों पर काम कर कमोबेष भारत की साख को बल देने की लगातार कोषिष की। लिहाजा इस बात में अब कोई हिचक नहीं होती कि भारत में व्यापार व निवेष को लेकर पहले जैसे किसी में असमंजस हो। भारत निवेष के लिहाज से हर हाल में बेहतरी की ओर गया है। वैष्विक स्तर पर व्यापार और उससे जुड़ी आषायें भी उच्च स्तर पर हैं। हालिया परिप्रेक्ष्य यह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने दावोस के विष्व आर्थिक मंच के उद्घाटन भाशण में एक बार फिर भारत में निवेष के लिए दुनिया भर के देषों को न्यौता दिया है। उन्होंने अपने अनूठे अंदाज में कहा कि वेल्थ के साथ वेलनेस, हेल्थ के साथ होलनेस और प्रोस्प्रेरिटी के साथ पीस चाहिए तो भारत आइये। इसमें कोई दुविधा नहीं कि बीते दो-ढ़ाई दषकों से भारत की तस्वीर अलग रूप अख्तियार कर चुकी है। इसमें भी कोई षक नहीं कि मोदी ने इस तस्वीर को दुनिया के देषों के सामने उजले तरीके से पेष किया है उसी का एक नजारा दावोस में भी देखने को मिला।
प्रधानमंत्री मोदी का यह संदेष भी बड़ा कारगर है कि मानव सभ्यता के लिए तीन बड़े खतरे हैं, पहला जलवायु परिवर्तन का, दूसरा आतंकवाद और तीसरा आत्म केन्द्रित होना। सिलसिलेवार तरीके से देखा जाय तो जलवायु परिवर्तन और आतंकवाद को लेकर वैष्विक मंच हमेषा से सराबोर रहे हैं जबकि आत्मकेन्द्रित वाला मामला नया प्रतीत होता है। मोदी अपने कार्यकाल के षुरूआत से ही आतंकवाद के खात्मे को लेकर दुनिया के देषों को एकजुट करने की कोषिष करते रहे साथ ही पाकिस्तान को अलग-थलग करने के प्रयास में भी संलग्न रहे। गौरतलब है कि पाकिस्तान प्रायोजित आतंक से भारत दषकों से चोट सह रहा है। जबकि अमेरिका, यूरोप, एषिया समेत आॅस्ट्रेलिया जैसे देष भी आतंकी हमले के षिकार हो चुके हैं। एक अच्छी बात यह रही है कि आतंक से लड़ने का इरादा सभी ने जताया और समय के साथ आतंक कमजोर भी पड़ा है पर यही बात पाकिस्तान के मामले में नहीं कही जा सकती क्योंकि अभी भी भारत के भीतर जिन्दा आतंकी पकड़े जा रहे हैं और पाकिस्तान के अंदर आतंकवादी खुले आम घूम रहे हैं। हालांकि अमेरिका की घुड़की और आर्थिक प्रतिबंध के चलते पाकिस्तान की मुसीबतें बढ़ी है पर उसमें कोई बदलाव आयेगा कहना मुष्किल है। जलवायु परिवर्तन के मामले में 1972 से दुनिया एक मंचीय होती रही। 1992 के पृथ्वी सम्मलेन से लेकर 2009 के कोपेनहेगन की बैठक तक और 2015 में हुए पेरिस जलवायु सम्मेलन में चिंतायें उभरती रहीं पर इसे लेकर कारगर कदम उठे हैं अभी भी बात पूरे मन से नहीं कही जा सकती और इसका पुख्ता सबूत अमरिका का पेरिस जलवायु संधि से हटना देखा जा सकता है। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह इषारा करते हैं कि जिस प्रकार आक्सफेम की हालिया रिपोर्ट में यह बताया गया है कि 82 फीसदी सम्पदा एक फीसदी लोगों के पास है जबकि भारत में भी 73 फीसदी सम्पदा एक फीसदी लोगों के पास है। आंकड़े आत्म केन्द्रित और आर्थिक केन्द्रीकरण के परिचायक ही हैं जबकि वास्तुस्थिति ये है कि दुनिया विकेन्द्रीकरण और हितवाद के साथ परहितवाद से परिपूर्ण है। सवाल है कि ये तीसरे प्रकार की बीमारी जिसका जिक्र प्रधानमंत्री मोदी दावोस में कर रहे हैं उससे भारत को भी निजात पाना है। राश्ट्रपिता महात्मा गांधी के सर्वोदय के विरूद्ध भी इसे देखा जा सकता है। यह बात और भी हैरत में डालने वाली है जब यह पता चलता है कि दुनिया की आधी आबादी में साल 2017 में आर्थिक तौर पर रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं आया है। 
अनिष्चितता और तीव्र परिवर्तन के इस दौर में एक भरोसेमंद, टिकाऊ, पारदर्षी और प्रगतिषील भारत एक अच्छी खबर है। स्विटजरलैण्ड के दावोस में षक्तिषाली भारत की तस्वीर पेष करते हुए विष्व आर्थिक मंच से जो हुंकार मोदी ने भरी है उसके कई मायने हैं। यह सही है कि भारत का आर्थिक ढांचा निवेष की अवधारणा से सषक्त होगा। जिस तरह इण्डिया मतलब बिज़नेस के रूप में दुनिया को हम दिखाना चाहते हैं उसमें तभी बड़ी सफलता मिल सकती है जब कारोबारी दृश्टि से सुगमता को अव्वल कर पायेंगे। हालांकि अन्तर्राश्ट्रीय एजेंसी की हालिया रिपोर्ट यह जताती है कि भारत कारोबारी दृश्टि से 130वें से 100वें नम्बर पर है। साफ है कि निवेष के आकर्शण के यह काम आ सकता है। मेक इन इण्डिया भी निवेष का एक अच्छा जरिया है जिसका प्रचार-प्रसार वैष्विक फलक पर मोदी ने खूब किया पर आषातीत सफलता से अभी वह दूर है। हिन्दी में 50 मिनट के प्रभावी भाशण के दौरान मोदी ने कुछ भी नहीं छोड़ा उन्होंने इस दौरान कई खास बिन्दुओं को छुआ। उनका मानना है कि साल 2025 तक भारतीय अर्थव्यवस्था पांच लाख करोड़ डाॅलर की होगी। बुरे और अच्छे आतंकवाद में भेद को बेहद खतरनाक बताते हुए मोदी ने कहा कि निवेषकों के लिए रेड टेप खत्म कर रेड कारपेट बिछाया गया है। इतना ही नहीं भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ उन्होंने भारतीय दर्षन से भी दुनिया को अवगत कराया। खास यह भी रहा कि तकरीबन 20 वर्श बाद इस मंच से भारत का कोई प्रधानमंत्री वैष्विक समुदाय को सम्बोधित कर रहा था। जैसा कि सभी समझते और जानते हैं कि अनूठी कला के धनी मोदी वक्त को बेहतर अवसर में बदल देते हैं। फलस्वरूप उन्होंने पूरा लाभ उठाते हुए भारत को एक बेहतरीन निवेष स्थल के तौर पर मार्केटिंग करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी।
दावोस में प्रधानमंत्री मोदी का अंदाज परिपक्व और अनुभवी प्रबन्धक की तरह लगा। हर प्रकार के संदर्भों को जिस प्रकार वे उद्घाटित कर रहे थे उससे साफ था कि पुराने और नये मोदी का भी फर्क था। मोदी के अनुसार संरक्षणवाद, आतंकवाद की तरह ही खतरनाक है। इस मामले में पड़ोसी देष पाकिस्तान उनके रडार पर था। उन्होंने नये भारत के बाद नये विष्व का नारा दिया। यह सही है कि भारत दार्षनिकों और तमाम विचारों का देष है पर जिस सहयोग और समन्वय की आवष्यकता हम दुनिया से महसूस करते हैं क्या वो हमारे देष के भीतर है। चीजें बदल रही हैं, चुनौतियां बदल रही हैं और दुनिया का नजरिया बदल रहा है। जाहिर है हमें भी अंदर से बदलना होगा। जिस सहयोग की उम्मीद हम दुनिया से करते हैं और भारत में निवेष के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाते हैं क्या उसके लाभ का हिस्सा सभी में समान रूप से बंट सकता है। आॅक्सफेम की रिपोर्ट षक को गहरा देती है। अमीरी और गरीबी के बीच खाई बढ़ रही है और अन्नदाता जान दे रहे हैं। करोड़ों जिन्दगी के लिए जीवन मुहाल है इन सबके बीच भारत की तस्वीर उजली है तो कोई बुराई नहीं पर स्याह कोनों को भी बिना उजला किये पूरी तस्वीर षायद ही उजली कही जायेगी।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: ेनेीपसोपदही589/हउंपसण्बवउ

सबका साथ, सबका विकास कैसे!

भारतीय अर्थव्यवस्था में सतत् विकास, समावेषी विकास तथा पूंजवादी समेत समाजवादी धारणा का भरपूर मिश्रण देखा जा सकता है। बरसों से इस बात की कोषिष होती रही है कि विकास और समृद्धि को जन-जन तक पहुंचाया जाय पर तमाम अनुप्रयोगों के बावजूद इस काज में आंषिक सफलता ही मिलते दिखाई देती है। सच्चाई यह है कि पांचवीं पंचवर्शीय योजना (1974 - 79) से षुरू हुई गरीबी उन्मूलन की कवायद आधा रास्ता भी तय नहीं कर पायी है फलस्वरूप अभी भी हर चैथा व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे है और इतने ही अषिक्षित भी। आर्थिक विकास दर को लेकर चिंता हमेषा से रही लेकिन यही दर मौजूदा समय में पिछले चार साल के मुकाबले सबसे कमजोर स्थिति में है। अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश का हालिया अनुमान यह है कि 2019 में भारत विकास दर के मामले में 7.8 फीसद के आंकड़े को छू लेगा। यदि ऐसा होता है तो हम चीन को भी पीछे छोड़ देंगे। गौरतलब है कि वर्तमान में विकास दर 6.5 फीसद तक रहने का अनुमान है। फिलहाल इस सवाल पर भी गौर फरमाने की आवष्यकता है कि यदि देष में विकास दर आसमान छूता है तो बढ़े हुए हिस्से से सर्वाधिक लाभ में कौन होगा। अन्तर्राश्ट्रीय राइट्स समूह आॅक्सफेम की ओर से एक सर्वेक्षण तब आया है जब विष्व आर्थिक मंच की षिखर बैठक षुरू होने में चंद घण्टे ही बाकी थे। गौरतलब है कि इसमें षामिल होने के लिए इन दिनों प्रधानमंत्री मोदी स्विट्जरलैण्ड के दावोस में हैं। सर्वेक्षण यह बताता है कि भारत में कुल सम्पदा सृजन का 73 फीसद हिस्सा एक प्रतिषत अमीरों के पास है। यह सर्वेक्षण इस बात को समझने में कोई असमंजस नहीं होने देता कि अमीरी-गरीबी के बीच खाई पहले की तुलना में और चैड़ी हुई है। साल 2017 के दौरान भारत में 17 नये अरबपति बने ऐसे में अब इनकी संख्या 101 हो गयी है। कचोटने वाला एक सवाल यह भी है कि दुनिया में लगभग साढ़े सात अरब की जनसंख्या है जिसमें से ठीक आधे ऐसे लोग हैं जिनकी सम्पत्ति में रत्ती भर का भी इजाफा नहीं हुआ है। फिलहाल देष की तीन चैथाई सम्पदा पर चंद लोगों का एकाधिकार है उसे देखते हुए यह बात बेहिचक कहा जा सकता है कि सबका साथ, सबका विकास मात्र एक सपना बनकर रह गया है जिसे हकीकत में जमीन पर उतारना सम्भव होता फिलहाल दिखाई नहीं देता।
विष्व बैंक से लेकर मुढ़ीज़ रिपोर्ट तक तमाम अन्तर्राश्ट्रीय एजेंसियां यह बात कह चुकी हैं कि भारत आर्थिक तौर पर सुदृढ़ता की ओर जा रहा है जिसे लेकर संतोश जताया भी जा सकता है। बावजूद इसके जिस प्रकार आर्थिक विन्यास और विकास से जुड़े आंकड़े सामने आये हैं उससे चिंता होना भी लाज़मी है। ऐसे में भारत सरकार को चाहिए कि वह यह सुनिष्चित करे कि भारत की अर्थव्यवस्था सभी के लिए काम करती है न कि चंद लोगों के लिए। वैसे सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि वैष्विक स्तर पर भी असमानता देखी जा सकती है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल सृजित की गयी कुल सम्पदा का 82 प्रतिषत हिस्सा दुनिया के केवल एक फीसदी अमीरों की जेब में थी। असमानता के जो गगनचुम्बी फासले देखने को मिल रहे हैं उससे साफ है कि दुनिया के देष अपने निजी एजेण्डों से बाहर नहीं है। वैष्विक मंचों पर भले ही आर्थिक तौर पर एक-दूसरे को साधने की कोषिष कर रहे हों पर भीतर के हालात बेहतर नहीं है। आॅक्सफेम की रिपोर्ट में यह चेतावनी भी है कि आर्थिक तरक्की चंद हाथों तक केन्द्रित हो गया है। वैसे देखा जाय तो लोकतंत्र और विकेन्द्रीकरण विकास के बड़े आधार माने गये हैं। बावजूद इसके आर्थिक केन्द्रीकरण इस कदर पनपना वाकई नीतियों का सही अनुपालन न हो पाना ही कहा जायेगा। साल 2016 के नवम्बर में जब देष में नोटबंदी हुई तब यह बात फलक पर थी कि अमीरी और गरीबी के बीच की खाई पाटने के ये काम आयेगा पर रिपोर्ट देखकर यह सोच भी बेमानी सिद्ध हुई है। वैसे आक्सफेम के वार्शिक सर्वेक्षण को बहुत महत्व दिया जाता रहा। पिछले साल जब कुल सम्पत्ति का 58 फीसदी हिस्सा एक प्रतिषत अमीरों तक सीमित होने की जानकारी का खुलासा हुआ तब भी चिंता की लकीरें बड़ी हुई थी पर 2017 में इसमें 15 फीसदी का इजाफा और कुल सम्पत्ति का 73 फीसदी एक प्रतिषत अमीरों तक संकेन्द्रित होना किसी हादसे से कम नहीं कहा जा सकता। 
अनेक आंकड़ों, तथ्यों तथा एजेंसियों के बयानों से भी यह सोच काफी सार्थक दिषा में रही है कि भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया को चुनौती दे रही है। मौजूदा समय में भारत की ताकत का एहसास षायद दुनिया को भी है। इसमें कोई षक नहीं कि वैष्विक मंचों पर प्रधानमंत्री मोदी कहीं अधिक कूबत वाले जाने जाते रहे हैं। जिस प्रकार की आर्थिक नीतियों के विज़न से वे भरे हैं उसे लेकर भी कोई षक-सुबहा नहीं है पर असंतुलन का इस कदर होना ऐसा पूरी तरह मानने से रोकता है। गरीब को सषक्त बनाने और युवाओं को ताकतवर बनाने तथा महिलाओं को आर्थिक विकास की धारा से जोड़ने के मामले में मौजूदा सरकार कहीं अधिक सक्रिय है। बावजूद इसके स्थिति सुकून से भरी नहीं प्रतीत होती। तमाम कवायद के बावजूद भारत में अमीर-गरीब के बीच खाई बढ़ने का सिलसिला थम नहीं रहा हैे। समोवषी वृद्धि सूचकांक भी हमें निराष कर रहे है। यहां भी यह पता चलता है कि भारत उभरती अर्थव्यवस्थाओं में 62वें स्थान पर है जबकि इसी मामले में चीन 26वें और पाकिस्तान 47वें स्थान पर है। गौरतलब है कि विष्व आर्थिक मंच ने अपनी सालाना षिखर बैठक षुरू होने से पहले ऐसी सूचियां जारी करके दुनिया भर के देषों को आइना दिखाया है। भारत में समावेषी विकास को लेकर आठवीं पंचवर्शीय योजना (1992-1997) से ही प्रयास जारी है पर स्थिति पड़ोसी चीन और पाकिस्तान से भी खराब दिख रही है। नाॅर्वे दुनिया का सबसे समावेषी आधुनिक विकसित अर्थव्यवस्था बना हुआ है जबकि लिथुआनिया उभरती अर्थव्यवस्थाओं में षीर्श पर है। गौरतलब है कि ये आंकड़े रहन-सहन का स्तर, पर्यावरण की दृश्टि से टिकाऊपन और भविश्य की पीढ़ियों को और कर्ज के बोझ से संरक्षण आदि को लेकर जारी किये जाते हैं। 
भारत अरबपतियों की संख्या में तरक्की कर रहा है पर यही बात देष के किसानों, बेरोज़गार युवाओं आदि के लिए उलट है। भारत, रूस और ब्रिटेन को पीछे छोड़कर अमेरिका और चीन के बाद दुनिया का ऐसा देष है जहां सबसे ज्यादा अरबपति हैं। रोचक यह है कि ऐसी विकराल आर्थिक विशमता केवल भारत में ही है कि एक ओर अरबपतियों की सूची लम्बी हो रही है तो दूसरी ओर गरीबी, बीमारी और मुफलिसी से जान देने वालों की संख्या हजारों-लाखों की तादाद में निरन्तरता लिये हुए है। वैसे देखा जाय तो यह आर्थिक असमानता कोई अचानक पैदा नहीं हुई है बल्कि इसकी एक लम्बी प्रक्रिया है। आज दुनिया के ज्यादातर देष उदारवाद और बाजारवाद के रास्ते पर चल रहे हैं जिसके चलते कईयों ने आर्थिक समृद्धि हासिल की है भारत भी उसमें षुमार है। विष्व आर्थिक मंच की बैठक में षामिल होने वाले प्रधानमंत्री मोदी से आॅक्सफेम इण्डिया ने आग्रह किया कि भारत सरकार इस बात को सुनिष्चित करे कि देष की अर्थव्यवस्था सभी के लिए काम करती है। जिस तर्ज पर चीजें बनती और बिगड़ती हैं उसकी कोई एक वजह नहीं होती। भारत को एक जनतंत्र कहा जाता है और यहां कृशि, उद्योग और सेवा क्षेत्र सभी का आर्थिक विकास में बड़ी भूमिका निभाते हैं। यदि इसमें से किसी एक में भी षिथिलता आई तो पूरी अर्थव्यवस्था का परिप्रेक्ष्य हिचकोले खाने लगता है। दो टूक यह भी है कि सबका साथ, सबका विकास चंद के हाथों में संपदा जाने से नहीं बल्कि समावेषी होने से सम्भव है। 

 
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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Wednesday, January 17, 2018

बेहतर बजट की आस में सभी

साल 2018-19 का आम बजट आगामी 1 फरवरी को पेष किया जायेगा। गौरतलब है कि फरवरी के अन्तिम दिवस को बजट पेष किये जाने की प्रथा पिछले साल से समाप्त कर दी गयी। इतना ही नहीं 1924 से अलग से परोसे जाने वाले रेल बजट को भी समाप्त कर एक बजट बना दिया गया। जाहिर है कि नये तरीके से देष के आय-व्यय के विवरण की यह दूसरी पेषगी होगी। इस बार सतत् विकास, सबका विकास और समावेषी विकास समेत सबका साथ लेने की भी कोषिष भी इसमें दिखाई देती है। तमाम अर्थषास्त्रियों ने आगामी बजट के मामले में व्यापक सुझाव दिये हैं और यह उम्मीद की गयी है कि कृशि व ग्रामीण विकास, रोजगार, स्वास्थ व षिक्षा, विनिर्माण व निर्यात, षहरी विकास और आधारभूत संरचना जैसे विविध विशयों की बेहतरी हेतु बजट में बहुत कुछ देखने को मिलेगा। बजट से पहले वित्त मंत्री भी कह रहे हैं कि कृशि क्षेत्र प्राथमिकता में रहेगा। देष के आर्थिक विकास को तब तक तर्कसंगत और समानता वाला नहीं कहा जा सकता जब तक कि किसानों को इसका लाभ स्पश्ट रूप से न दिखने लगे। वैसे इस बात में पूरी सच्चाई है कि वित्त मंत्री चाहे अरूण जेटली रहे हो या इनके पूर्ववर्ती सभी ने बयानों में किसानों की खूब चिंता की और बेहतर विकास किया पर जमीनी हकीकत यह है कि अन्नदाता छटपटाते रहे। गौरतलब है कि साल 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की बात सरकार कह चुकी है। जाहिर है यह सिलसिला प्रतिवर्श की दर से करते रहना होगा जो हो रहा है या नहीं बजट में झांक कर समझा जा सकेगा। केन्द्रीय सांख्यिकी कार्यालय के साझा आंकड़े बताते हैं कि वित्त वर्श 2017-18 में देष की जीडीपी की वृद्धि दर चार साल के निचले स्तर यानी 6.5 फीसद तक रहने का अनुमान है। यह मौजूदा सरकार के कार्यकाल की सबसे निचली वृद्धि दर भी है। इसी के ऊपर चढ़ कर आगे की रणनीतियां निर्मित की जायेंगी। विकास दर यदि कमजोर है तो मजबूत योजना कैसे सम्भव होगी यह चुनौती तो है। 
मोदी सरकार बजट में मध्यम वर्गों को राहत दे सकती है संकेत है कि इनकम टैक्स का दायरा बढ़ेगा। मौजूदा ढ़ाई लाख पर छूट को तीन लाख किया जा सकता है लेकिन जीवन मूल्य जिस ऊँचाई तक पहुंच गया है उसे देखते हुए अपेक्षा इससे अधिक की है। अर्थषास्त्री और भारतीय जनता पार्टी के सांसद सुब्रमण्यम स्वामी तो इनकम टैक्स से देष को मुक्त करने की बात कह चुके हैं। हालांकि इसकी सम्भावना न के बराबर है। मुद्रा स्फीति का जो हाल है उससे महंगाई का ताना-बाना भी लोगों के पकड़ के बाहर है। सवाल छूट का नहीं सवाल समावेषी विकास का है। रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ और सुरक्षा समेत जितने भी बुनियादी मुद्दे हैं उनका हल कितना होगा इसे अभी कहना कठिन है पर सरकार यह दावा जरूर कर सकती है कि बजट में सभी को ध्यान में रखा गया है। बजट 1 फरवरी को पेष किया जायेगा। गौरतलब है कि नवम्बर 2016 से सरकार राश्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून का क्रियान्वयन कर रही है इसके तहत 80 करोड़ से अधिक लोगों को खाद्यान्न की आपूर्ति भारी सब्सिडी वाली दरों पर 1 से 3 रूपये किलो में की जाती है। इस बार उम्मीद है कि दस फीसदी इसमें वृद्धि की जायेगी परन्तु आगामी वर्श में सब्सिडी लेने वालों की मात्रा यदि बढ़ जाती है तो मामला जस का तस रहेगा। दो टूक यह भी है कि सरकार राजकोशीय घाटे को पाटना चाहती है ताकि बजटीय घाटा को कम किया जा सके पर जिस प्रकार जीएसटी और नोटबंदी का असर दिख रहा है उससे यही लगता है कि इस मामले में अभी सफलता नहीं मिलेगी। नोटबंदी का पूरा असर पिछले बजट में नहीं देखने को मिला और न ही उस दौरान जीएसटी का कोई संदर्भ निहित था। जाहिर है कि इस बार जीएसटी और नोटबंदी दोनों के प्रभाव आगामी बजट पर होंगे।
वर्श 2017 आर्थिक तौर पर काफी अड़चन भरा रहा है। साफ है कि अभी आर्थिक पथ चिकना नहीं बन पाया है। ऐसे में आगामी बजट सभी की उम्मीदों पर खरा उतरेगा यह देखने पर ही पता चलेगा। जिस प्रकार जीएसटी संग्रह दर तेजी से गिर रहा है जो संग्रह जुलाई में 95 हजार करोड़ था वह दिसम्बर आते-आते 80 हजार करोड़ के आस-पास हो गया। सम्भव है कि इसका असर भी आगामी बजट का आधार बनेगा। हालांकि बजट किसी एक वजह से तैयार नहीं होते पर सभी कारण बजट पर बिना असर डाले रहते नहीं है। विनिर्माण क्षेत्र को पुर्नजीवित करने की कोषिष बजट में हो सकती है ताकि गिरती जीडीपी से राहत मिले जो कि नोटबंदी के चलते काफी दयनीय स्थिति में जा चुके हैं। इतना ही नहीं कई मामलों में सरकार आर्थिक ढिलाई बरत सकती है ताकि लोग स्वरोजगार की ओर आकर्शित हों और देष बेरोजगारी से राहत पाये। मसलन स्टार्टअप एण्ड स्टैण्डअप जैसे कई कार्यक्रमों को बड़े पैमाने पर बढ़ावा दिया जा सकता है। सभी जानते हैं मध्यम वर्ग में सबसे ज्यादा वेतनभोगी तबगा आता है। बड़ी राहत देने को लेकर सरकार इस पर इसलिए सक्रिय हो सकती है क्योंकि वर्श 2018-19 आगामी लोकसभा चुनाव के लिए भी बड़े मायने रखता है। साथ ही बजट से सरकारी तबका भी खुष रहे ऐसी कोषिष भी वित्त मंत्री जरूर करेंगे।
वित्त मंत्री अरूण जेटली के लिए बजट इसलिए भी आसान नहीं होगा क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर बीते वर्श कई प्रयोग किये गये हैं और आगामी वर्श पर इसके प्रभाव को रोक पाना पूरी तरह आसान नहीं है। वैसे भी अर्थव्यवस्था थोड़े उथल-पुथल की ओर तो है। कारोबारी माहौल में सुधार की उम्मीद की जा सकती है। विकास में रूकावट बनने वाले आर्थिक नियमों को ढीला किया जा सकता है। वैष्विक अर्थव्यवस्था को देखते हुए भी बजट को तुलनात्मक सघन बनाये जाने की उम्मीद है। अभी हाल ही में सरकार ने फैसला लिया है कि रिटेल में एफडीआई सौ फीसदी रहेगा। जाहिर है खुदरा व्यापारियों को एफडीआई से राहत दी गयी है। तेल के मामले में भी सरकार का प्रदर्षन बहुत अच्छा नहीं है। गैस पर मिलने वाली सब्सिडी भी धीरे-धीरे सरकार समाप्त कर रही है। 31 मार्च, 2018 तक इसे पूरी तरह समाप्त करने की पूरी उम्मीद है। जिस तरह सरकार आर्थिक नीतियों को सुदृढ़ करने की कोषिष कर रही है उससे साफ है कि कुछ की षिकायत बरकरार रहेगी। कृशि निर्यात नीति को बिना मजबूत किये किसानों की हालत सुधरेगी इस पर सवाल बना रहेगा और यह तभी सम्भव है जब उत्पादन बढ़ेगा और उत्पादन भी तभी हो सकेगा जब किसानों को सभी सुविधायें मुहैया करायी जायेंगी जिसका बीते सात दषकों से आभाव बरकरार रहा है। खास यह भी है कि छुपी बेरोजगारी भी खेती-बाड़ी में खूब है और मौसमी बेरोजगारी भी। इससे निपट पाना भी सरकार के लिए क्या आगामी बजट में कुछ उपाय होंगे। 65 फीसदी युवा देष में रहते हैं प्रति वर्श दो करोड़ की दर से रोजगार देने का अब तक का दावा खोखला ही सिद्ध हुआ है। सम्भव है कि बजट से उम्मीद जगे पर पूरी कितनी होगी कहना कठिन है। यद्यपि सरकार इन दिनों आर्थिक सुधार को लेकर जोखिम वाले कदम उठा रही है पर मूलभूत मुद्दों पर बहुत कुछ हुआ है षायद ही लोग सहमत होंगे। बड़े उद्योगों को भी बजट से प्रभावित करना रहेगा। गौरतलब है कि 30 फीसदी कर को 25 फीसदी करने का फैसला सरकार दो साल पहले ही ले चुकी है। फिलहाल आगामी 1 फरवरी को पेष होने वाले बजट पर सभी की दृश्टि रहेगी। दो टूक यह भी है कि जिसकी समाज में जितनी आर्थिक भूमिका है उतनी राहत तो चाहेगा पर समझना तो यह भी है कि देष लोक कल्याणकारी है ऐसे में सभी के जीवन को बजट छू कर गुजरे तो ही अच्छा कहा जायेगा। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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दुनिया ने देखे दो इतिहास

पूर्वी देश हो या पष्चिमी भारत समय के साथ विभिन्न देषों से सम्बंधों को प्रगाढ़ करता रहा है। इसी क्रम में भारत-इजराइल सम्बंध भी इन दिनों गाढ़े होते देखे जा सकते हैं। गौरतलब है कि बीते 14 जनवरी को मकर संक्रान्ति के दिन इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने भारत की 6 दिवसीय यात्रा षुरू की जो कई उम्मीदों की भरपाई करने से युक्त दिखाई देती है। खास यह भी है कि जिस तर्ज पर प्रधानमंत्री मोदी के इजराइल दौरे के दौरान उनके समकक्ष नेतन्याहू ने उनका स्वागत किया था उसी अंदाज को अपनाते हुए प्रधानमंत्री मोदी प्रोटोकाॅल तोड़ते हुए उन्हें गले लगाया। हालांकि प्रोटोकाॅल तोड़ने की प्रथा मोदी लगातार निभा रहे हैं और दूसरे देषों के षीर्शस्थ पद धारकों का स्वागत इसी अंदाज में बीते साढ़े तीन वर्शों से कर रहे हैं। वैसे इतिहास की रचना करना मोदी की फितरत में है और इसी का हिस्सा वर्श 2017 के जुलाई में इजराइल दौरा भी था क्योंकि बीते 70 सालों में मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने इजराइल का दौरा किया। भारत और इजराइल जिस तरीके से करीब आये हैं उससे न केवल हमारी सैन्य ताकत और कूटनीतिक षक्ति में इजाफा होगा बल्कि भारत की पष्चिम की ओर देखो नीति भी तुलनात्मक और पुख्ता होगी। गौरतलब है बेंजामिन नेतन्याहू के पूर्ववर्ती ऐरेल षेरोन  इससे पहले 2003 में भारत आ चुके हैं। 
भारत और इजराइल अपने रिष्ते को दोस्ती में बदलते हुए पूरी दुनिया की दृश्टि अपनी ओर आकर्शित करायी है। इजराइल के साथ बढ़े रिष्ते पाकिस्तान पर न केवल अंकुष लगाने बल्कि चीन के साथ कूटनीतिक संतुलन प्राप्त करने में मदद कर सकते हैं। साइबर सुरक्षा, रक्षा और निवेष व स्टार्टअप समेत पेट्रोलियम, मेडिकल और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी को लेकर जो समझौते हुए हैं उससे भी भारत की फिलहाल ताकत बढ़ना लाज़मी है। इजराइल क्षेत्रफल और जनसंख्या दोनों की दृश्टि से निहायत छोटा है। मात्र 84 लाख की जनसंख्या रखने वाला इजराइल तकनीकी दृश्टि से कहीं आगे है जिसकी दरकार भारत को है। कृशि क्षेत्र हो या उद्योग या फिर सौर ऊर्जा ही क्यों न हो काफी कुछ तकनीक इजराइल से प्राप्त किया जा सकता है। बेंजामिन नेतन्याहू का यह कहना कि मजबूत राश्ट्र के लिए सैन्य ताकत जरूरी है। साफ है कि मात्र सम्पदा से काम नहीं चलता बल्कि उसको ताकत बना लेने से दुनिया आपको स्वीकार करती है। भारत युवाओं का देष है पर यहां बेरोजगारी बेलगाम है। तकनीक और बेहतर विकास के चलते इससे निपटने में मदद मिल सकती है। युवा देष की सम्पदा है परन्तु इनका सही उपयोग व खपत उचित तकनीक व स्किल से ही सम्भव है। कृशि पैदावार के मामले में भी तकनीक का उपयोग कर न केवल फसल उत्पादन की समय सीमा को कम किया जा सकता है बल्कि उचित रख-रखाव से इन्हें सड़ने से रोका भी जा सकता है। देष में किसानों के हालात अच्छे नहीं हैं। इजराइल बीज से लेकर अधिक पैदावार के मामले में फायदेमंद हो सकता है। उदाहरण तो यह भी हैं कि गुजरात के कुछ किसानों ने इजराइली तकनीक अपनाकर खेती-बाड़ी से 50 लाख तक का मुनाफा कमाया है। वैसे भी 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुना करने की बात सरकार कह चुकी है।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारत और इजराइल दोनों देष उपनिवेषवाद के परवर्ती युग की उपज है। भारत 1947 में जबकि इजराइल 1949 में अपना स्वतंत्र अस्तित्व प्राप्त कर सके। खास यह भी है कि अनेक समस्याओं के बावजूद भी दोनों जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति समर्पित रहे। भारत वर्श 1950 में इजराइल को स्वतंत्र देष की मान्यता दी परन्तु उसके साथ राजनयिक सम्बंध कायम नहीं किये। इसके पीछे प्रमुख कारण भारत द्वारा फिलीस्तीनियों को दिया जाने वाला समर्थन था। चूंकि भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन का संस्थापक सदस्य है इसलिए वह विकासषील देषों में किसी भी उपनिवेषवादी कृत्यों का विरोध करता है और फिलीस्तीनियों को समर्थन देने के पीछे उसकी यही प्रतिबद्धता भी रही है। इसमें कोई षक नहीं कि इज़राइल के साथ इन दिनों भारत की प्रगाढ़ होती दोस्ती फिलीस्तीन को खटक रही होगी। जब प्रधानमंत्री मोदी बीते वर्श जुलाई में इजराइल में थे तब भी यह सवाल उठे थे कि फिलीस्तीन का भी दौरा क्यों नहीं। इसी दौरान देष में डोकलाम विवाद को लेकर चीन से भी तनातनी जोर पकड़े हुए थी। इज़राइल का दौरा समाप्त कर मोदी को 7-8 जुलाई को जर्मनी में होने वाले जी-20 में भी जाना था और गये भी जहां चीनी राश्ट्रपति जिनपिंग से मुलाकात हुई जिनसे मुलाकात की सम्भावना न के बराबर थी। मोदी का इजराइल दौरा चीन और पाकिस्तान दोनों को बहुत खटका था। हालांकि डोकलाम समस्या समय के साथ कूटनीतिक तरीके से हल प्राप्त कर लिया पर पष्चिम के देषों में इजराइल से प्रगाढ़ होती दोस्ती और पूरब में नैसर्गिक मित्र बनते जापान को लेकर चीन की छटपटा अभी भी कम नहीं हुई होगी। दो टूक यह भी है कि इजराइल और अमेरिका का सम्बंध कहीं अधिक सकारात्मक है ऐसे में इज़राइल से भारत की मित्रता कईयों को खटकना सम्भव है बावजूद इसके भारत की मूल चिंताओं में एक यह भी है कि रूस जैसे नैसर्गिक मित्र से फासले न बढ़ने पाये क्योंकि जब-जब हम अमेरिका के अधिक करीब आये हैं तब-तब इसकी गुंजाइष बनी है क्योंकि अमेरिका और रूस एक-दूसरे के अक्सर खिलाफ रहे हैं। हालांकि इन दिनों दोनों के बीच तल्खी पहले जैसी नहीं दिखती।
वैसे देखा जाय तो इजराइल भी भारत से दोस्ती करके कहीं न कहीं कूटनीतिक संतुलन व्याप्त कर दुनिया में अलग-थलग नहीं है को लेकर अपनी साख बनाने में फिलहाल कामयाब हुआ है। गौरतलब है इज़राइल 13 ऐसे मुस्लिम देषों से घिरा है जो उसके कट्टर दुष्मन हैं और बरसों से इनसे लोहा लेते-लेते तकनीकी रूप से न केवल यह दक्ष हुआ बल्कि सभी सात युद्धों में सफल भी रहा पर भारत से प्रगाढ़ होती दोस्ती दुनिया में उसकी तरीके से ताकत बढ़ा दी है। देखा जाय तो इज़राइल की तकनीक इतनी दक्ष है कि आतंकी भी इसकी तरफ देखना पसंद नहीं करते। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह इषारा करते हैं कि भारत और इजराइल की दोस्ती विष्व राजनीति को काफी प्रभावित कर सकती है। इजराइल का चीन के साथ भी बेहतर रिष्ता है। दोनों के बीच द्विपक्षीय कारोबार भी होता है लेकिन चीन का दखल जिस तरीके से बेवजह इन दिनों बढ़ा हुआ है उसे देखते हुए षायद भविश्य में वैसी बात दोनों के बीच न रहे। प्रधानमंत्री मोदी को क्रान्तिकारी नेता बताने वाले इजराइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने दिल्ली में न केवल कई समझौतों पर हस्ताक्षर किये बल्कि आगरा के ताजमहल का दीदार और प्रधानमंत्री मोदी के गृह राज्य गुजरात का दौरा कर अहमदाबाद एयरपोर्ट से साबरमती आश्रम तक 8 किलोमीटर लम्बा रोड षो किया। पूरे रास्ते में लगभग 50 झाकियां भारत दर्षन का प्रतीक बनी हुई थी। आश्रम पहुंचकर गांधी दर्षन के साथ बेंजामिन नेतन्याहू ने चरखा चलाया ठीक वैसे ही जैसे इसके पहले चीनी राश्ट्रपति जिनपिंग और जापान के प्रधानमंत्री षिंजो अबे चला चुके थे। भारत और इजराइल के औपचारिक रिष्तों की 25 वर्श की पड़ताल यह बताती है कि यह प्रगाढ़ता उनकी राजनयिक परिपक्वता का प्रमाण है। दिलचस्प यह भी है कि भारत में फिलीस्तीन के सवाल पर बहुत नहीं बदला है पिछले दिनों जब अमेरिका द्वारा येरूषलम को राजधानी की मान्यता देने का मसला संयुक्त राश्ट्र में उठा तो भारत ने इसके खिलाफ वोट दिया। जाहिर है इजराइल थोड़ा निराष हुआ होगा पर यह भारत की परिपक्व कूटनीति ही कही जायेगी। भारत इस समय अपनी जरूरत के लिए हथियारों का सबसे ज्यादा आयात इजराइल से ही कर रहा है। इस मामले में इजराइल ने न कभी अमेरिका जैसी आनाकानी की और न ही यूरोपियन देषों जैसे नखरे दिखाये। इतना ही नहीं उसने कड़ी राजनीतिक या राजनयिक षर्तें भी भारत के सामने कभी नहीं रखी। जाहिर है तकनीक, उद्योग और कृशि समेत सुरक्षा के मामले में इजराइल से सब कुछ बेहतर होने के चलते प्रगाढ़ता का परवान चढ़ना लाज़मी है। 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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Wednesday, January 10, 2018

हमारी प्रतिभा, उनके देश में

तेजी से बदलते विश्व परिदृष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए आज भारतीय हो या विदेषी समाज प्रतिभा की आवष्यकता सभी को है। भूमण्डलीय अर्थव्यवस्था में हो रहे अनवरत् परिवर्तनों के चलते न केवल दक्ष श्रम षक्ति जुटाई जा रही है बल्कि ज्ञान की अर्थव्यवस्था को संजोते हुए सभी देष हालत बदलने की कवायद में लगे हुए है। सभी को समृद्धि और आर्थिक विकास चाहिए जबकि प्रतिभाओं को अवसर। दुनिया में जहां भी ऐसे अवसर उपलब्ध रहे हैं स्वाभाविक तौर पर युवाओं का रूख उधर हुआ है। बदलाव के प्रतिनिधि के रूप में भूमिका तलाषते हुए कईयों ने घर छोड़ा तो कईयों ने षहर और कुछ ने तो देष भी छोड़ा है। आमतौर पर जब प्रतिभायें दूसरे देषों की ओर पथगमन करती हैं तो इसे पलायन में रचे-बसे षब्द से अभिभूत कर दिया जाता है पर जब यही दुनिया में भारत का डंका बजाते हैं तो सम्मान भी व्यापक पैमाने पर उमड़ जाता है। पष्चिमी देषों में भारतीयों का पलायन जिस तर्ज पर हुआ है वैसा षायद किसी और दिषा या देष में देखने को नहीं मिलता मुख्यतः अमेरिका और यूरोप में। साथ ही जिस प्रकार उन्होंने अपनी प्रतिभा को व्यवस्थित और स्थापित किया है वह भी प्रषंसनीय है। इससे न केवल देष विषेश को लाभ मिला है बल्कि विदेष में भारतीयों की अहमियत भी बढ़ी है। हमारी प्रतिभा और उनके देष के षीर्शक के अन्तर्गत पूरा तानाबाना अमेरिका में रह रहे भारतीयों से सम्बन्धित है जिस पर वापसी की लटक रही तलवार से हद तक राहत मिल गयी है। गौरतलब है कि अमेरिका में साढ़े सात लाख एच1बी वीजा धारक हैं जो अमेरिकी राश्ट्रपति के निषाने पर थे। फिलहाल इसे लेकर बदले जाने वाले नियम पर अभी राहत दे दी गयी है। जाहिर है उनकी वापसी का कयास पर विराम लग गया है।
अमेरिका में भले ही राश्ट्रपति ट्रंप प्रवासियों के खिलाफ हों पर वहां के सांसद और उद्योग जगत के लोग इसके पक्ष में  नहीं हैं। गौरतलब है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था और वहां के समाज में भारतीयों का योगदान किसी अमेरिकी से कम न होकर अधिक ही आंका गया है। अमेरिका 30 करोड़ की जनसंख्या वाला देष है जिसमें एक फीसदी अर्थात् 30 लाख भारतीय हैं। भले ही वहां की आबादी में यह मात्रा कम हो परन्तु इनके प्रतिभा का लोहा पूरे अमेरिका पर प्रभावी है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि हाइटेक कम्पनियों के 8 प्रतिषत संस्थापक भारतीय है। सिलिकाॅन वैली जो यहां का आईटी हब है यहां की एक तिहाई स्टार्टअप कम्पनियों का सरोकार भारतीयों से ही है। गौरतलब है कम्प्यूटर और आईटी क्रान्ति ने बड़ी तादाद में भारतीयों को अमेरिका पहुंचा दिया। अमेरिकी भारतीयों की आय 88 हजार डाॅलर प्रतिवर्श है जबकि अमेरिका की औसत आय 50 हजार डाॅलर से थोड़ा कम है। यह बात काफी प्रखर रही है कि भारतीय षिक्षा प्रणाली तुलनात्मक उतना बेहतर नहीं है पर यहीं से षिक्षा-दिक्षा प्राप्त भारतीय जब अमेरिका पहुंचते हैं तब पता चलता है कि हमारी षिक्षा व्यवस्था इतनी कमजोर नहीं जितनी आंकी जाती है। विज्ञान और गणित के मामले में अमेरिका से भारत बेहतर है। बराक ओबामा जब राश्ट्रपति थे तब उन्होंने गणित में कमजोर हो रहे अमेरिकियों पर चिंता जाहिर करते हुए इस पर जोर देने की बात कही थी। आंकड़े बताते हैं कि 28 फीसदी भारतीय अमेरिका में इंजीनियरिंग क्षेत्र में काम कर रहे हैं जबकि अमेरिकी इंजीनियरों की संख्या मात्र 5 फीसदी है। इतना ही नहीं अमेरिका में रहने वाले लगभग 69.3 प्रतिषत भारतीय प्रबंधन, विज्ञान, व्यापार और कला क्षेत्र से जुड़े हैं। खास यह भी है कि अमेरिका में रहने वाले 51 फीसदी भारतीय हिन्दू हैं जबकि 10 फीसदी मुस्लिम और 18 फीसदी ईसाई हैं। यहां सिक्खों की संख्या 5 फीसदी है। उक्त से यह भी परिलक्षित होता है कि भारतीय संस्कृति और संस्कार की गंगा-जमुनी तहजीब का प्रवाह अमेरिका की जमीन पर भी बाकायदा पसरा हुआ है।
ज्ञान के उत्पादन और प्रसारण में प्रमुख बात यह रही है कि षिक्षा और षोध के प्रति तत्परता बढ़े। ऐसा लगता है कि अनुभववादी दृश्टिकोण और आधारभूत संरचना के संयोजन के चलते अमेरिका दुनिया का अव्वल देष बना है। षैक्षिक पूंजीवाद के पर्दापण के साथ ही विकासषील और विकसित देष एक-दूसरे से आदान-प्रदान को बढ़ावा दिया। अमेरिका में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों ने अमेरिका के अंदर काफी हद तक यह विचार भरा है कि वे किसी से कम नहीं साथ ही भारत को भी यह संदेष दिया है कि आधारभूत ढांचा और रोजगार की व्यापक सम्भावना देष में पैदा हो तो भारत के अंदर ही अमेरिका का विकास हो सकता है। साल 2017 की एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका आने वाले छात्रों के मामले में भारत का स्थान दूसरा है। गौरतलब है कि अमेरिका में पढ़ने वाले कुल विदेषी छात्रों में भारतीयों की संख्या 17 फीसदी से अधिक है और इसमें 36 फीसदी इंजीनियरिंग से है। सवाल षिक्षा और रोजगार तक ही नहीं है और न ही सिर्फ प्रतिभा तक सीमित है बल्कि निहित संदर्भों में देखें तो अमेरिका जैसे औद्योगिक देष के अंदर संस्कार की रोपाई भी इनके माध्यम से तुलनात्मक बेहतर है। यहां 63 प्रतिषत भारतीय बच्चे अपने माता-पिता के साथ रहते हैं और 92 फीसदी परिवार टूटे नहीं है जबकि औद्योगिक देषों मुख्यतः अमेरिका में भी तलाक दर और सिंगल पेरेंट कल्चर बढ़त बनाये हुए है। जाहिर है विदेषी धरती पर भी देषी संस्कार को अपनाने में भारतीय पीछे नहीं है। यह एक पारिवारिक और सामाजिक प्रतिबद्धता का द्योतक भी है। बावजूद इसके अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप प्रवासी विरोधी नीति को लेकर कड़ा रूख दिखा चुके हैं। भले ही प्रवासी भारतीयों प्रति ट्रंप का रूख विरोधी हो पर अमेरिकी संसद और उद्योगपतियों का एक बड़ा वर्ग इससे सरोकार नहीं रखता। 
अमेरिका में रहने वाले ज्यादातर भारतीयों को स्थायी निवास का अधिकार अर्थात् ग्रीन कार्ड मिल चुका है। केवल साढ़े सात लाख भारतीय ही एच1 वीजा पर रह रहे हैं। जाहिर है यदि प्रवासियों पर कोई गाज गिरती है जिसकी सम्भावना कम है तो साढ़े सात लाख दायरे में आ सकते हैं। वैसे इन्हें राहत देते हुए ट्रंप प्रषासन ने कहा है कि एच1बी वीजा नियमों में फिलहाल परिवर्तन नहीं कर रहा है। गौरतलब है इसके तहत ग्रीन कार्ड के लिए आवेदन करने वाले विदेषी कर्मचारियों के एच1बी वीजा की अवधि नहीं बढ़ाने का प्रस्ताव था और यदि यह मूर्त रूप ले लेता तो अमेरिका से इनकी वापसी तय थी। माना तो यह भी जा रहा है कि भारतीयों का वहां के प्रषासन में जो धमक है उसके चलते ट्रंप को पीछे हटना पड़ा है। संयुक्त राश्ट्र में अमेरिका की दूत निक्की हैली और गवर्नर रह चुके बाॅबी जिंदल समेत सांसद कमला हैरिस और अन्य भारतीय मूल के लोगों का वहां काफी अच्छा प्रभाव है। हालांकि किसी भी प्रकार के दबाव से इंकार किया जा रहा है लेकिन एक तथ्य यह भी है कि जब से ट्रंप ने इस मामले में अपना कड़ा रूख दिखाया तबसे इसका भारी विरोध हो रहा था। अमेरिका जानता है कि भारत की प्रतिभा के बगैर उसकी अर्थव्यवस्था हांफ जायेगी और यहां के चिकित्सालय, विद्यालय व औद्योगिक संस्थान भी षिथिल पड़ जायेंगे। आंकड़े यह तस्तीक करते हैं कि अमेरिका के प्रत्येक उत्पादन एवं सेवा इकाई भारतीयों का प्रभाव और दबाव में है और ऐसा प्रतिभा के चलते अमेरिका की विकास दर और व्यवस्था अव्वल बनी हुई है। गूगल से लेकर फेसबुक तक उनकी उपस्थिति है। साथ ही माना जा रहा है कि साल 2030 तक अमेरिका में रहने वाले भारतीयों की संख्या दोगुनी हो जायेगी। अमेरिकी वाणिज्य विभाग की रिपोर्ट भी बताती है कि पिछले साल करीब 12 लाख भारतीय पर्यटक अमेरिका की सैर करने गये थे। जाहिर है प्रतिभा और पर्यटन दोनों के आकर्शण में अमेरिका अव्वल है। 

सुशील कुमार सिंह
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मुंह चिढ़ाती शिक्षा व्यवस्था

सच तो यह है कि सूचना, संचार और तकनीकी में क्रान्ति ने उच्चत्तर षिक्षा के स्वरूप को ही बदल दिया है। इसमें ताज्जुब नहीं कि बदलाव के चलते षिक्षा की कीमत भी बदल गयी जिसका असर अब साफ-साफ दिख रहा है। ज्ञान संचालित अर्थव्यवस्था और सीखने के समाज में उच्चत्तर षिक्षा अति महत्वपूर्ण है पर प्रष्न यह है कि सिर्फ डिग्री के लिए या फिर ज्ञानवर्धन के लिए भी। कुछ झकझोरने वाले तथ्य सामने आये हैं जो इस बात को पुख्ता करते हैं कि इस तरह के बदलाव के लिए न तो मन तैयार था और न ही देष। देष में उच्चतर षिक्षा ग्रहण करने वालों की तादाद दिनों दिन बढ़ रही है लेकिन परम्परागत पाठ्यक्रम आज भी बदलती और चमकती पीढ़ी पर हावी है जो कहीं से गलत नहीं है पर स्नातक से आगे की षिक्षा जिस कदर दीन-हीन होती जा रही है वह चिंता की लकीर को बढ़ा सकती है। एक ताजे सर्वेक्षण कला में स्नातक अर्थात् बीए को लेकर सवाल खड़े करने वाला है। रोज़गार के हिसाब से इससे जुड़े पाठ्यक्रम की एहमियत तेजी से गिरी है इस पर सभी सहमत होंगे। बावजूद इसके आज भी इस स्ट्रीम में छात्रों की संख्या दूसरों की तुलना में सर्वाधिक मिल जायेगी। उच्च षिक्षा में आये सरकार के ताजे आंकड़े इस बात को तस्तीक करते हैं कि युवाओं को समाज में स्नातक की हैसियत हासिल करनी होती है जबकि पढ़ाई को लेकर असंवेदनषीलता बढ़ी है। सर्वेक्षण के मुताबिक 1 करोड़ 7 लाख छात्रों ने पिछले साल बीए में प्रवेष लिया। उच्च ष्क्षिा की रिपार्ट को देखें तो कुल साढ़े तीन करोड़ छात्र-छात्राओं ने वर्श 2016-17 के सत्र में नामांकन कराया जिसमें 80 फीसदी स्नातक से सम्बंधित हैं और इसमें भी 38 फीसदी कला स्नातक से जुड़े विद्यार्थी हैं। जाहिर है परम्परागत डिग्री की परम्परा अभी भी काफी मात्रा में आकर्शण लिये हुए है पर यह सिक्के का एक पहलू है। दूसरा परिप्रेक्ष्य यह है कि इस डिग्री का महत्व केवल समाज में दर्जा हासिल करने मात्र से है जबकि काॅलेज एवं विष्वविद्यालयों में उपस्थिति एवं पढ़ाई चिंतनीय मानी जा रही है।
भारत एक समावेषी विकास वाला देष है यहां बुनियादी समस्याओं का अम्बार लगा हुआ है। ऊपर से एक षहरी तो दूसरा ग्रामीण भारत भी यहां दो मानचित्र बना रहा है। दोनों के विकास और षिक्षा के हाल दो रूप लिये हुए है। षहरों में षिक्षा के बड़े-बड़े संस्थान तो गांवों में डिग्रियों में तो समानता पर वातावरण में जमीन-आसमान का अंतर है। देष में उच्च षिक्षा का आलम यह है कि लगभग तीन करोड़ छात्र स्नातक में प्रवेष लेते हैं जिसमें बामुष्किल 40 लाख के आसपास ही परास्नातक में नामांकन कराते हैं। आंकड़े साफ-साफ बता रहे हैं कि कुल संख्या के 11 फीसदी ही पोस्ट ग्रेजुएषन में दाखिला लेते हैं। पीएचडी को लेकर स्थिति और भी नाजुक है। कुल पोस्ट ग्रेजुएट छात्र का 0.4 फीसदी ही छात्र पीएचडी में प्रवेष लेते हैं। आंकड़े इस बात की तस्तीक कर रहे हैं कि मानव विकास संसाधन के मामले में षिक्षा, दीक्षा और डिग्री जिसे रामबाण करार दिया जाता है काफी मुष्किल दौर से गुजर रही है। उक्त से तो यही प्रतीत होता है कि देष के युवाओं को षिक्षा से पहले रोजगार चाहिए। यदि ऐसा नहीं हुआ तो षिक्षा के बाद तो हर हाल में चाहिए। ताज्जुब इस बात की है कि अधूरी षिक्षा में ऐषो आराम से भरी पूरी नौकरी खोजी जाती है। जबकि ऋग्वेद में भी इस बात का उल्लेख है कि 25 वर्श तक की उम्र षिक्षा के लिए है। हालांकि बदले दौर के मुताबिक एक सीमा के बाद युवाओं को दोशी नहीं ठहराया जा सकता। देष में षिक्षा के पूरे संदर्भों को टटोलें तो पता चलता है कि 19 करोड़ छात्र प्राथमिक षिखा यानी पहली से आठवीं तक जबकि 6 करोड़ विद्यार्थी 9वी से 12वीं तक की षिक्षा में संलग्न हैं और यहीं से घटते क्रम में कारवां आगे बढ़ता हुआ स्नातक से लेकर पीएचडी तक पहुंचता है। 
षिक्षा में पिछड़ रहे या कम हो रहे या फिर ज्ञानवर्धन का पूरा परिप्रेक्ष्य न होने की चिंता भारत में है। जबकि संविधान में षिक्षा से सम्बंधित संदर्भ भी हैं। हालांकि संविधान इस मामले में बहुत स्पश्ट नहीं है सिवाय इसके कि अनुच्छेद 21ए में षिक्षा का अधिकार है और नीति निर्देषक तत्व के अन्तर्गत अनुच्छेद 45 में सरकार का यह कत्र्तव्य है कि निःषुल्क षिक्षा की व्यवस्था करे। इसी क्रम में मौलिक कत्र्तव्य के अधीन अनुच्छेद 51क में 11वें और अन्तिम कत्र्तव्य के अधीन अभिभावक को अनिवार्य रूप से बच्चों की षिक्षा का निर्देष संदर्भित किया गया। एक सुकून भरी बात यह भी है कि देष में बारहवीं तक की षिक्षा को अनिवार्य किये जाने की बात कही जा रही है सम्भव है कि कुछ धरातल पर उतरेगा तो साईड इफैक्ट भी दिखेगा। दुनिया भर के पढ़े-लिखे और पेषेवर लोगों की जमात में भारत का षैक्षणिक वातावरण तुलनात्मक बहुत बेहतर नहीं माना जाता। बहुतायत में देष के स्कूल, काॅलेज और विष्वविद्यालयों में षिक्षा की आधारभूत संरचना कमजोर है। षिक्षकों की व्यापक कमी है और पेषेवर पाठ्यक्रमों पर अधिक जोर है। आंकड़ों से पता चलता है कि लगभग 18 फीसदी विज्ञान स्नातक जबकि 15 फीसदी के आसपास इंजीनियरिंग करने वाले छात्र देष में है। लगभग इतने ही 14.1 फीसदी के साथ वाणिज्य से जुड़े छात्रों को देखा जा सकता है परन्तु उच्चतर षिक्षा के क्षेत्र में सभी स्ट्रीम से औसतन व्यापक गिरावट देखी जा सकती है। एक अच्छी बात यह कही जाती है कि पष्चिमी देष इसलिए आगे है क्योंकि उनका षिक्षा और षोध बेहतर है फलस्वरूप तकनीक बेहतर है अन्ततः पूरा जीवन ही बेहतर है। इसी तर्ज पर भारत में षिक्षा और षोध इसलिए कमजोर है क्योंकि पढ़ाई डिग्री के लिए है न कि ज्ञानवर्धन के लिए और रही सही कसर यहां के आधारभूत ढांचे की खामियां और कैम्पस में असुविधाएं पूरी कर देती हैं। अब इस बात पर गौर किया जाय कि देष में मात्र 2.6 फीसदी कालेजों में ही पीएचडी कराने की सुविधा है जबकि 37 फीसदी काॅलेज ही पोस्ट ग्रेजुएट की पढ़ाई करवाते हैं इनमें कई मानकों पर खरे नहीं उतरते हैं। 
वैसे पढ़े-लिखे और पेषेवर लोगों की जमात में अमेरिकी वर्चस्व भी घट रहा है कोरिया और चीन जैसे देष इस जमात में अपना हिस्सा बढ़ा रहे हैं। जर्मनी की हिस्सेदारी भी इस मामले में घटी है। उभरते देष में उच्च षिक्षा के साथ औद्योगिक और वैज्ञानिक उभार भी खूब हो रहा है। उभरती अर्थव्यवस्थाओं में जिस रफ्तार से उच्च षिक्षा पाने वालों की तादाद बढ़ रही है उसके मुकाबले में अमेरिकी छात्रों की संख्या कम है। ओईसीडी की रिपोर्ट कहती है कि 34 उभरती और विकसित अर्थव्यवस्थाओं वाले देषों में यह पता चला है कि अमेरिकी छात्र दक्षिण कोरिया, फिनलैण्ड और चीन के छात्रों से पीछे हैं। स्थिति को देखते हुए अमेरिका षिक्षा व्यवस्था में सुधार की दिषा में एक बार फिर तेजी से कदम बढ़ा दिया है। लाख टके का सवाल यह है कि चीन यदि आगे है तो भारत का पीछे रहना इसलिए सही नहीं क्योंकि 65 फीसदी युवाओं वाले देष में एजूकेषन और स्किल से यदि सरोकार नहीं होगा तो न केवल षैक्षणिक पिछड़ापन देष में व्याप्त होगा बल्कि आर्थिक चुनौती भी बढ़ जायेगी। भारत की बदहाल षिक्षा व्यवस्था किसी से छुपी नहीं है पर इसी देष से जब प्रतिभा पलायन करती है तो रोषनी दूसरे देषों में हो जाती है। डाॅक्टर्स, इंजीनियर्स और वैज्ञानिक अमेरिका समेत कई देषों में इसे पुख्ता कर चुके हैं। फिलहाल तमाम परिप्रेक्ष्य को देखते हुए कहना लाज़मी है कि भारत की मुंह चिढ़ाती षिक्षा व्यवस्था को व्यावसायीकरण तथा रोजगारपरक् समेत ज्ञानपरक् बनाने की चुनौती सामने है।



सुशील कुमार सिंह
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टैक्स के दाएरे में भी हो चुनावी चंदा

सरकारों की यह मूल चिंता रही है कि व्यवस्था पारदर्षी और लोककल्याणकारी हो पर राजनीति को स्वच्छ किये बिना यह सम्भव होता दिखाई नहीं देता। षायद इसी परिप्रेक्ष्य को मजबूती देने की फिराक में इन दिनों सरकार चुनावी चंदे पर चोट करते हुए पारदर्षिता की बात कर रही है। गौरतलब है कि राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी बाण्ड के माध्यम से चुनावी चंदा लिये जाने को लेकर सरकार पहल कर चुकी है। पर्दे के पीछे चली आ रही फण्डिंग की मौजूदा व्यवस्था को बदलने का फैसला वित्त मंत्री अरूण जेटली साल के षुरू में ही जता चुके हैं। उनका मानना है कि देष में राजनीतिक चंदे में पारदर्षिता लाने की दिषा में यह एक बड़ा सुधार है। नोटबंदी से काले धन पर कड़ा प्रहार करने के बाद राजनीतिक चंदे में पारदर्षिता लाने के लिए चुनावी बाण्ड की पहल इसी दिषा में एक कदम माना जा सकता है। हालांकि काले धन का आंकलन से जुड़ा आंकड़ा नोटबंदी के बाद क्या रहा अभी खुलासा नहीं हो पाया है और चुनावी चंदे में बाण्ड प्रथा के चलते काले धन पर कितना लगाम लगेगा इस पर कुछ कहना जल्दबाजी होगा। 8 नवम्बर 2016 को जब पांच सौ और एक हजार के नोट बंद करने का एलान हुआ था तब यह चिंता भी स्वाभाविक रूप से उभरी थी कि बीस हजार रूपये तक के जिस चंदे को वर्तमान कानून के अनुसार नकद दिया जा सकता है जिसमें दानकर्ता का नाम नहीं बताना पड़ता उसे भी सार्वजनिक किया जाय। साथ ही नकद चंदे की बीस हजार की राषि को घटाकर दो हजार किये जाने की बात भी थी जिसे लेकर अब मूर्त रूप देने का कानूनी प्रयास किया जा रहा है। चुनावी बाण्ड एक, दस हजार एवं एक लाख व दस लाख समेत एक करोड़ रूपये के होंगे जिसे स्टेट बैंक आॅफ इण्डिया की चुनिंदा षाखाओं में खरीदा जा सकेगा। कोई भी नागरिक या देष में रजिस्टर्ड कम्पनी इस बाण्ड के जरिये प्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 29ए के तहत पंजीकृत दल को दान दे सकेगा। बषर्ते पिछले लोकसभा या विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दल कम से कम एक फीसदी मत हासिल किया हो। इसके अलावा बाण्ड की खरीदारी के कुछ नियम भी हैं। चुनावी बाण्ड जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर में 10 दिन की अवधि के दौरान खरीद के लिए उपलब्ध रहेंगे। लोकसभा चुनाव वाले साल में ये 30 अतिरिक्त दिन भी उपलब्ध रहेंगे। 
 चूंकि चुनावी बाण्ड का निर्णय पारदर्षिता और स्वच्छ राजनीति से जुड़ा है ऐसे में इसमें कोई कमी नहीं रहनी चाहिए। यदि सरकार का यह इरादा जमीन पर उतरता है तो अच्छी बात होगी परन्तु दो हजार के नकदी के मामले में काला बाजारी कुछ मात्रा में जारी रहेगी। किसी भी राजनीतिक दल के चंदे का बड़ा हिस्सा अज्ञात स्रोतों से ही आता रहा है। चुनाव आयुक्त की भी सिफारिष थी कि सरकार कानून में बदलाव लाये ताकि दो हजार रूपए से कम का ही अज्ञात चंदा कोई दे सके। आषंका यह रही है और सच भी है कि एक ही व्यक्ति से भारी-भरकम राषि नकद ले ली जाती है और बीस हजार के हिसाब से गलत-सही नामों में वितरित कर हजारों दानकर्ता में बांट कर इसे सही ठहरा दिया जाता है। दो हजार की स्थिति में इसकी सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता पर इसमें कठिनाई अधिक है। संगठन एसोसिएषन आॅफ डेमोक्रेटिक रिफाॅर्म (एडीआर) के आंकड़े कहते हैं कि राजनीतिक दलों की कुल आय का 80 फीसदी से अधिक अज्ञात स्रोतों से आता है। जिसका जिक्र राजनीतिक दल अपने आयकर रिटर्न में करते हैं लेकिन स्रोत को छुपा लिया जाता है। ऐसे में देष में सत्ता को पोसने वाले राजनीतिक दल पर आय की वैधता पर प्रष्न खड़ा होना लाज़मी है। बात यहीं तक नहीं है वर्श 2005 में देष में सूचना का अधिकार कानून आया जिसके बाद एडीआर ने विभिन्न राजनीतिक दलों के आयकर रिटर्न का ब्यौरा मांगा लेकिन ब्यौरा देने से यह कह कर मना कर दिया गया कि यह आरटीआई के दायरे में नहीं आता। झकझोरने वाला एक प्रष्न यह भी है कि आयकर अधिनियम 1961 में एक संषोधन द्वारा धारा 13ए जोड़कर अप्रैल 1979 से ही राजनीतिक दलों को चुनावी चंदे पर आयकर से छूट मिली हुई है। दलों को बही खाता रखना होता है, खातों का आॅडिट भी कराना होता है, रियायत के बावजूद कानून के उल्लंघन में ये दल अव्वल भी हैं। कई रिटर्न दाखिल नहीं करते मगर छूट का पूरा फायदा उठाते हैं। 
स्थिति को देखते हुए एक एनजीओ की जनहित याचिका पर 1996 में उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में हस्तक्षेप किया। न्यायालय ने स्पश्ट रूप से कहा जो राजनीतिक दल रिटर्न नहीं दाखिल किये हैं उन्हें छूट नहीं मिलेगी अर्थात् उन्हें कर भरना पड़ेगा। बावजूद इसके राजनीतिक दल रिटर्न भरने के मामले में ढीला रवैया अपनाती हैं। अप्रैल 2008 में निर्वाचन आयोग ने तो यहां तक कह दिया कि राश्ट्रीय दल सार्वजनिक संगठन हैं जिन्हें आरटीआई के तहत प्रष्न का उत्तर देना ही होगा। इससे पार्टियां बौखला गयी। मनमोहन सिंह की सरकार उस दौरान निर्वाचन आयोग के आदेष को रद्द करने के लिए अध्यादेष पर भी विचार करने लगी थी पर इसी बीच मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया और आज भी लम्बित है। सवाल है करोड़ों में चंदा इकट्ठा करने वाली राजनीतिक पार्टियां बिना आयकर दिये काला और सफेद धन से क्यों लिप्त है जबकि देष का आम जनमानस इन्हीं को वोट देता है और अपनी आय की एक-एक पाई का न केवल हिसाब देता है बल्कि उचित आयकर भी चुकाता है। क्या केवल राजनीतिक दलों की फण्डिंग पारदर्षी होने मात्र से पूरी पारदर्षिता सम्भव है। यदि नियम संगत उक्त चंदे पर आयकर का प्रावधान किया जाय तो इससे न केवल संचित निधि में धन की आपूर्ति होगी बल्कि समावेषी और बुनियादी विकास से जूझ रहे देष को आर्थिक राहत भी मिलेगी।
न्यू इण्डिया बनाने वाली मोदी सरकार जब पारदर्षिता को स्तर प्रदान कर ही रही है तो क्यों न आयकर अधिनियम 1961 के अनुच्छेद 13ए जिसे 1978 में जोड़कर राजनीतिक पार्टियों को आयकर से मुक्ति दी गयी थी उसे समाप्त कर दलों को टैक्स के दायरे में लायें। यदि प्रधानमंत्री यह पहल करते हैं तो जाहिर है उनका कद तुलनात्मक और बढ़ेगा ही। पिछले साल प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि ‘हमारे पास धन कहां से आ रहा है’, इस टिप्पणी से साफ है कि धन के स्रोत समझने की चिंता उन्हें भी थी। उन्होंने इस बात का भी समर्थन किया था कि 20 हजार रूपये तक के जिस चंदे को वर्तमान कानून के साथ नकद दिया जा सकता है जिसमें दानकत्र्ता का नाम नहीं बताना पड़ता उसे भी सार्वजनिक किया जाय। हालांकि उन्होंने इसके लिए बात पार्टी पर डाल दी थी। वैसे सत्ताधारी भाजपा समेत उसके घटक दल यदि पारदर्षिता को लेकर स्वयं और बड़ा मन दिखायें तो दल का प्रभाव और गौरव भी बड़ा हो सकता है। चुनाव में बेहिसाब धन लुटाना हैसियत के हिसाब से सभी दल करते हैं। आंकड़े तो यह भी कहते हैं कि बीस हजार रूपये का बेनामी चंदा कुछ वर्शों में पांच हजार करोड़ की बड़ी राषि में बदल जाता है और इससे कोई दल अछूता नहीं है। देष में पारदर्षिता की संस्कृति पनप रही है पर इस पेड़ को बड़ा करने में केवल सरकार का ही जिम्मा नहीं है। जो राजनीतिक दल अपने मिषन और एजेण्डे में देष की भलाई समेटे हुए हैं उन सभी की जिम्मेदारी है कि चुनावी चंदे को पारदर्षी बनाने की दिषा में स्वयं पहल करें और सरकार को चाहिए कि चंदे पर टैक्स का प्रावधान करे ताकि बात एक तरफा न रहे। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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समावेशी भारत में जीएसटी

गरीबी सामाजिक अभिषाप है तो समोवषी विकास गरीबी से मुक्ति का उपाय। जिसे लेकर 90 के दषक से प्रयास जारी है। वैसे गरीबी उन्मूलन की अवधारणा पांचवीं पंचवर्शीय योजना से चलायमान है बावजूद इसके मौजूदा भारत में हर चैथा व्यक्ति इसमें सूचीबद्ध है। समावेषी विकास में जनसंख्या के सभी तबकों के लिए बुनियादी सुविधायें मसलन रोज़गार, षिक्षा, स्वास्थ, भोजन, पेयजल, आवास, कौषल विकास और गरिमामय जीवन आदि से सुसज्जित की बात रही है पर वक्त के साथ जिस अनुपात में समस्याएं बढ़ी हैं हल वैसा प्रतीत नहीं होता। वर्श 1989 की लकड़ावाला समिति की रिपोर्ट को देखें तब गरीबी 36.1 फीसदी हुआ करती थी। हालांकि विष्व बैंक की दृश्टि से यह 48 फीसदी थी। बाद में इसका अनुपात 26.1 फीसदी हुआ पर बीते कुछ वर्शों से इसे 21 फीसदी से थोड़े अधिक माना जा रहा है। जब साल 1992 में 8वीं पंचवर्शीय योजना समावेषी विकास से ओतप्रोत भारत में कदमताल करना प्रारम्भ किया था तब यह उम्मीद जगी थी कि आने वाले समय में बहुत कुछ बदलेगा। कम से कम रोज़गार और गरीबी के मामले में स्थिति बड़े सुधार की ओर होगी पर आंकड़े संतोशजनक नहीं कहे जा सकते। उदारीकरण का दौर भी इसी के समनांतर था जो भारत में उस दौर का सबसे बड़ा आर्थिक परिवर्तन था। जाहिर है इससे आगे की दषा और दिषा बढ़त के साथ तय होनी थी और ऐसा हुआ भी। देष में निजीकरण, षहरीकरण, पष्चिमीकरण और निगमीकरण की बाढ़ आयी। उद्योगों में भी बढ़ोत्तरी हुई साथ ही सेवा क्षेत्र भी चैड़ा हुआ परन्तु इसी दौर में ग्रामीण भारत और कृशि जो भारत का प्राथमिक क्षेत्र है उसकी बदहाली बादस्तूर जारी रही। गौरतलब है कि एक तरफ समावेषी विकास और उदारीकरण की दौड़ थी तो दूसरी तरफ महाराश्ट्र में पटसन की खेती करने वाले विदर्भ के किसान आर्थिक तंगी के चलते जीवन से तौबा कर रहे थे। भारत में यह बड़ी विडम्बना है कि बड़े विकास के दावों के बीच छोटे किसान भूख और बदहाली से दुनिया छोड़ने पर मजबूर हुए हैं और यह सिलसिला अभी भी थमा नहीं है। आंकड़े भी इस बात का समर्थन करते हैं कि पूरे भारत में आत्महत्या करने वाले अन्नदाताओं की संख्या तीन लाख से ऊपर जा चुकी है।
समय के साथ समावेषी विकास की धारा और विचारधारा भी परिमार्जित हुई है। सुगम्य भारत अभियान, अल्पसंख्यकों के हितों की चिंता, महिला सषक्तिकरण तथा उन्नत कौषल एवं प्रषिक्षण विकास से सुसज्जित होने के लिए कई सामाजिक-आर्थिक कृत्य वर्तमान सरकार द्वारा किये जा रहे हैं। पुराने भारत को न्यू इण्डिया में तब्दील किया जा रहा है और षहरों को स्मार्ट भी बनाया जा रहा है। उद्योग जगत को कर में काफी राहत भी दी गयी है। कर और बैंकिंग सैक्टर को सुधारा जा रहा है। इसी सुधार का बड़ा प्रारूप 1 जुलाई, 2017 से लागू जीएसटी अर्थात् गुड्स एवं सर्विसेज़ टैक्स है। समावेषी विकास की मांग और जरूरी आय के बीच इसके पहले 8 नवम्बर, 2016 को हजार और पांच सौ के पुराने नोट को बंद कर काले धन पर घात करने की कवायद भी की जा चुकी है। देखा जाय तो भारत की दो तस्वीरें हैं एक षहरी तो दूसरी ग्रामीण जिसे लेकर प्रधानमंत्री मोदी अपनी संजीदगी दिखा रहे हैं और आधारभूत ढांचा सुधारने की फिराक में बड़ा आर्थिक जोखिम ले रहे हैं। 1991 को जब उदारीकरण पर तत्कालीन सरकार ने कदम उठाया था तब भी इसे बड़ा जोखिम करार दिया गया था और अब भी इसे यही कहा जा रहा है। सरकारें भी सत्ता की चाह में देष की उन्नति और विकास के मार्ग बदलती रही हैं। कभी इनके निर्णय जनजीवन में ठण्डक पहुंचाते हैं तो कभी इन्हीं से आंच आने लगती है। जीएसटी अर्थात् गुड्स एवं सर्विसेज टैक्स को लेकर अभी भी उहापोह का दौर रहता है इस सवाल के साथ कि समावेषी विकास में क्या यह मददगार होगा। वर्श 2017 नोटबंदी और जीएसटी के प्रभावषीलता के बीच उथल-पुथल में रहा। जब से जीएसटी लागू है संचित निधि में अप्रत्यक्ष कर की बाढ़ आयी है परन्तु करदाताओं में बेचैनी भी बढ़ी है। हालांकि इस पर सफाई आती रही है कि आने वाले दिनों में सब ठीक हो जायेगा पर ठीक तभी कहा जायेगा जब समावेषी विकास में जीएसटी पूरक सिद्ध होगा। 
जीएसटी में षामिल केन्द्र सरकार के कर जहां केन्द्रीय उत्पाद षुल्क, अतिरिक्त उत्पाद षुल्क एवं सीमा कर तथा सेवा कर हैं वहीं राज्य में वैट, बिक्री कर, मनोरंजन कर, चुंगी कर, प्रवेष षुल्क तथा सट्टे बाजी पर कर समेत इसकी संख्या आधा दर्जन से अधिक थी। जीएसटी को लागू हुए छः महीने से अधिक वक्त बीत चुका है। बावजूद इसके दर्जनों संषोधन के साथ अभी भी इसे लेकर संषय बरकरार है। प्रतिमाह की दर से जब कर जमा करने की प्रथा अगस्त में षुरू हुई तो जुलाई माह की जीएसटी की राषि खजाने में 95 हजार करोड़ थी। अगस्त माह में यह राषि 91 हजार करोड़ के आसपास रही। लगातार गिरावट के साथ दिसम्बर में यह 80 हजार करोड़ पर सिमट गयी। हालांकि बीते 10 नवम्बर को जीएसटी काउंसिल ने गोवा में हुए बैठक के दौरान 28 फीसदी वाले कर में कुछ संषोधन किया था और डेढ़ करोड़ की राषि तक वालों के लिए रिटर्न त्रिमासिक कर दिया था। मुद्दा यह है कि देष में बड़े आर्थिक परिवर्तन की आवष्यकता क्यों पड़ती है। लाख टके का सवाल यह भी है कि इन आर्थिक परिवर्तनों के चलते चुनौतियों से निपटने में क्या मन माफिक मदद मिली है। उदारीकरण के बाद गरीबी की स्थिति को देखते हुए कह सकते हैं कि सामाजिक-आर्थिक असंतुलन पूरी तरह व्याप्त है। ऐसे में दूसरा सवाल यह है कि क्या जीएसटी के चलते इस असंतुलन से राहत मिलेगी। रोटी, कपड़ा और मकान की जद्दोजहद में अभी भी देष का हर चैथा व्यक्ति फंसा है और तमाम कोषिषों के बावजूद भूख से मौत रूक नहीं रही है। साथ ही हर चैथा नागरिक अषिक्षित है जबकि 65 फीसदी युवा जिसकी संख्या 75 करोड़ से अधिक है बेरोजगारी की कतार में खड़ा है जो समावेषी विकास के उलट है। यदि आर्थिक परिवर्तन समावेषी विकास के परिचायक हैं तो उदारीकरण के बाद समस्याएं अब तक समाप्त हो जानी चाहिए थी। बुनियादी समस्याओं का इस कदर फलक पर होना इस बात का संकेत है कि आर्थिक परिवर्तन मसलन उदारीकरण या जीएसटी जैसे परिप्रेक्ष्य और इससे पनपी नीतियां खामी की षिकार हो जाती हैं जो अमीरों को और अमीर बना देती हैं, षायद गरीबों को और गरीब। यह सिलसिला तभी थमेगा जब स्मार्ट सिटी के समानांतर स्मार्ट गांव होंगे। उद्योग के समकक्ष कृशि की हैसियत होगी और नकद वेतन लेने वाले सेवा क्षेत्र के लोगों के बराबर पूस की रात में हाड़-मांस गलाने वाली सर्दी में गेहूं के खेतों की सिंचाई करने वाले किसानों के मूल्य को समझा जायेगा। यदि इन सबका परिप्रेक्ष्य अभी भी यथावत बना रहता है तो जीएसटी से बेषक देष का विकास होगा और संचित निधि में इस अप्रत्यक्ष कर के चलते धन बढ़ेगा पर समावेषी विकास के अधूरे सपनों को पंख लगेंगे इस पर संदेह गहरायी के साथ बना रहेगा। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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पाकिस्तान, तुम कब सुधरोगे

वैसे अमेरिकीराष्ट्रपति  डोनाल्ड ट्रंप पाकिस्तान को बीते कई महीनों से इस बात के लिए आगाह कर रहे थे कि उसके देष के भीतर पनपे आतंकी नेटवर्क को वो जड़ से उखाड़े। इसे लेकर कई बार धमकियां भी दी गयी पर पाकिस्तान बेअसर बना रहा पर अब षायद ऐसा नहीं होगा क्योंकि अब उसकी रीढ़ पर प्रहार किया गया है। गौरतलब है कि नये वर्श के पहले दिन ट्रंप ने पाकिस्तान को जोरदार झटका देते हुए उसे आतंक के खात्मे को लेकर दी जाने वाली राषि पर रोक लगाने की बात कही है। पाकिस्तान को ट्रंप धोखेबाज और झूठा बताने के बाद इस्लामाबाद को सैन्य सहायता राषि नहीं जारी करने का फैसला लिया। व्हाईट हाउस के इस फैसले से इस्लामाबाद की समस्या बढ़ना लाज़मी है और इस बात की भी सफाई पर जोर कि उस पर लगे आरोप अनुचित हैं। पाकिस्तान ने प्रतिक्रिया में कहा है कि आतंकववाद के खिलाफ अमेरिका के अभियान में हर तरह से मदद के बदले हमें तानों और अविष्वास के अलावा कुछ नहीं मिला। आगे उसने कहा कि हमने उन्हें अपनी जमीन और सैन्य अड्डे दिये, खूफिया सहयोग दिया और ऐसा करने से ही वह अलकायदा को नेस्तोनाबूत कर सका पर हमें कुछ नहीं मिला। पाकिस्तान का यह सोचना कि अमेरिका से अधिक कीमत उसने चुकाई है तो उसे यह भी समझना चाहिए कि आतंकियों की पाठषालाओं को किसने खाद-पानी दिया। किसने ओसामा बिन लादेन जैसे खुंखार आतंकवादी को षरण दिया। गौरतलब है कि अमेरिका में वर्श 2001 का आतंकी हमले का मास्टरमाइंड और अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन बरसों तक पाकिस्तान के एटवाबाद में छुपा रहा। जिसे तत्कालीन राश्ट्रपति बराक ओबामा के खूफिया और सुनियोजित प्रयासों के चलते पाकिस्तान में घुस कर खात्मा किया गया था।
जिस तर्ज पर अमेरिका में आतंकी नेटवर्क विस्तार लिये हुए है अब वह दुनिया से छिपा नहीं है। पाक अधिकृत कष्मीर में तो आतंक के स्कूल और विष्वविद्यालय चलते ही हैं साथ ही पाकिस्तान में लष्कर-ए-तैयबा से लेकर जमात-उद-दावा और हक्कानी जैसे आतंकी संगठन यहां की हरियाली बने हुए है। हाफिज सईद से लेकर अजहर मसूद और लखवी जैसे आतंकवादी कभी पाकिस्तान की आंखों में चुभे ही नहीं और भारत इनकी आंखों में रोजाना चुभता रहा। भारत पर जिस प्रकार पाकिस्तान के आतंकवादियों ने लगातार हमले किये उससे भी पाकिस्तान का चेहरा बेनकाब हुआ है। भले ही पाकिस्तान इस मुगालते में रहा हो कि आतंक को पालते-पोसते भी रहेंगे और दुनिया को भी धोखे में रखे रहेंगे पर अब उसकी कलई खुल चुकी है। डोनाल्ड ट्रंप ने जिस तरह पाकिस्तान को आईना दिखाया है उससे भी यह संकेत मिलता है कि बीते कुछ वर्शों से भारत सरकार की उन कोषिषों को बल मिला है जो उसे अलग-थलग करने के लिए किया जा रहा था। प्रधानमंत्री मोदी अपने षपथ ग्रहण करने के दिन से लेकर डेढ़ वर्श तक पाकिस्तान से अच्छे सम्बंध की पहल की। जोखिम लेते हुए नवाज़ षरीफ से मिलने बिना किसी योजना के 25 दिसम्बर, 2015 को लाहौर गये परन्तु बामुष्किल एक हफ्ता नहीं बीता था कि साल 2016 की षुरूआत में पठानकोट पर आतंकी हमले ने उन सारे कयासों पर पानी फेर दिया जिसे बेहतर बनाने की फिराक में भारत लगा था। तब से लेकर अब तक भले ही अन्तर्राश्ट्रीय मंचों पर पाक से आंख और हाथ मिले हों पर दिल नहीं मिले हैं। दो टूक यह भी है कि आतंक को समाप्त करने के मामले में पाकिस्तान ने कभी इरादा ही नहीं दिखाया बल्कि उलटे आतंकियों की पीठ ही थपथपाई है। बुरहान वानी जैसे दहषतगर्दों की मौत पर भी उसने अपने देष पाकिस्तान में काला दिवस मनाया। तमाम सबूत देने के बावजूद भारत की सीमा के भीतर जिन्दा पकड़े गये आतंकियों को अपना नागरिक मानने से कई बार इंकार किया। आतंक फैलाता रहा, आतंकियों के भरोसे सीमा पर भारतीय सेना को क्षति पहुंचाता रहा और अपने किये करतूतों से मुकरता भी रहा जबकि प्रधानमंत्री मोदी षायद ही कोई अन्तर्राश्ट्रीय मंच हो जहां पाक प्रायोजित आतंक की चर्चा न की हो।
नतीजन एक न एक दिन पाकिस्तान को यह दिन देखना ही था। यह कहावत बिल्कुल दुरूस्त है कि देर है अंधेर नहीं। डोनाल्ड ट्रंप की जो आर्थिक चोट उसे मिली है वो उसके होष उड़ा सकते हैं पर अमेरिका के सख्त रूख के बीच चीन ने पाकिस्तान का साथ दिया है हालांकि यह भारत के लिए हैरत की बात नहीं है क्योंकि संयुक्त राश्ट्र की राश्ट्रीय सुरक्षा परिशद् में पाकिस्तानी आतंकवादी लखवी और अजहर मसूद के मामले में चीन को वीटो करते देखा गया है। व्हाईट हाउस के निर्णय के बाद इस्लामाबाद के बचाव में उतरा बीजिंग ने कहा है कि दुनिया को उसके बलिदान को स्वीकार करना चाहिए। पाकिस्तान दक्षिण एषिया में षान्ति व स्थिरता की दिषा में हर सम्भव प्रयास कर रहा है। फिलहाल चीन के इस रूख के पीछे भारत को बैकफुट पर लेने वाली उसकी सोची-समझी चाल है साथ ही भारत-अमेरिका के बीच प्रगाढ़ हुए सम्बंधों की तिलमिलाहट भी। चीन अच्छी तरह जानता है कि भारत पाकिस्तान के आतंकवाद से बरसों से पीड़ित है बावजूद इसके उसकी वकालत कर रहा है। गौरतलब है चीन की उपस्थिति में जी-20 से लेकर ब्रिक्स समेत अनेक अन्तर्राश्ट्रीय मंचों पर आतंक की पीड़ा से भारत दुनिया को अवगत कराता रहा परन्तु चीन को पाकिस्तान का बलिदान याद आ रहा है। ऐसे में यह कहना लाज़मी है कि चीन तुम कब सुधरोगे।
बीते कुछ महीनों से पाकिस्तान में पनपे आतंक को लेकर ट्रंप धमकी दे रहे हैं। यहां तक भी कह चुके हैं कि यदि वह आतंक को समाप्त नहीं करता है तो वह स्वयं इस कार्य को करेंगे। बावजूद इसके पाकिस्तान पर इसका कोई असर हुआ नहीं। डोनाल्ड ट्रंप ने साफ षब्दों में कहा कि पिछले 15 सालों से पाकिस्तान अमेरिका को बेवकूफ बनाकर 33 अरब डाॅलर की सहायता प्राप्त कर चुका है और इसके बदले में सिर्फ झूठ और धोखे के अलावा कुछ नहीं दिया। इसमें कोई दुविधा नहीं कि पाकिस्तान आतंकियों का सुरक्षित पनाह मुहैया कराता है। ट्रंप का यह कहना कि जिसे हम अफगानिस्तान में तलाष रहे हैं वो पाकिस्तान में है। साफ है अलकायदा  प्रमुख ओसामा बिन लादेन को षरण देने को लेकर पाक पर यह तीखी टिप्पणी है। अमेरिका के पूर्ववर्ती राश्ट्रपतियों को भी ट्रंप ने निषाने पर लिया। षायद इसके पीछे बड़ी वजह पाकिस्तान की करतूतों पर बरती गयी ढ़िलाई है। सुनिष्चित मापदण्डों में देखा जाय तो आर्थिक मदद रोकने से पाकिस्तान कई समस्याओं से जूझ सकता है। रही बात आतंकियों पर लगाम की तो उसके यह प्रयास सफल होंगे कहना मुष्किल है। ऐसा इसलिए क्योंकि वहां की सेना और आईएसआई की छत्रछाया आतंकियों पर रहती है। पाकिस्तान में लोकतंत्र भी सेना द्वारा हड़पा जाता रहा है। ऐसे में चुनी हुई सरकारें भी कभी कभी बिना रीढ़ के दिखाई देती हैं। चीन पाकिस्तान का अवसरवादी मित्र है जबकि भारत के लिए न वह मित्र और न ही दुष्मन की संज्ञा में है। यदि पाकिस्तान को दी जाने वाली अमेरिकी राषि वाकई में रोक दी जाती है जैसा कि 1620 करोड़ की सैन्य मदद तुरन्त रोकने की सूचना है और ट्रंप के रूख से लगता भी है कि वे अपनी कथनी पर कायम रहेंगे तो ऐसी स्थिति में चीन पाकिस्तान के बलिदान की दुहाई देकर लालीपाॅप देने की कोषिष कर सकता है। यदि ऐसा होता है तो क्या दुनिया इस बात को मान पायेगी कि चीन आतंक की लड़ाई औरों के साथ है। फिलहाल अमेरिका की तरफ से जो एक्षन हुआ है अभी उस पर बहुत सारे रिएक्षन देखने बाकी है जिसका प्रतिबिंब आने वाले दिनों में ही उभरेगा साथ ही ट्रंप के इस भारी कथन का भी परीक्षण आने वाले दिनों में ही होगा।


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