Wednesday, May 24, 2023

अदालत में उलझी जातीय जनगणना


    समाजषास्त्रीय विचारक डी0एन0 मजूमदार ने कहा था कि जाति एक बन्द वर्ग है। फिलहाल इन दिनों जाति जनगणना को लेकर मामला काफी फलक पर है। हालांकि यह पूरे देष में नहीं है मगर बिहार जाति आधारित सर्वेक्षण के चलते चर्चा में है। गौरतलब है कि बिहार में जाति आधारित सर्वेक्षण का पहला दौर 7 से 21 जनवरी के बीच आयोजित हुआ था जबकि दूसरा दौर 15 अप्रैल को षुरू हुआ था। मगर यह न्यायालीय पचड़े में उलझ गया है। पटना उच्च न्यायालय के 4 मई के आदेष के खिलाफ षीर्श अदालत में दायर याचिका में बिहार सरकार ने कहा कि जातीय सर्वेक्षण पर रोक से पूरी कवायद पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। विदित हो कि पटना उच्च न्यायालय ने फिलहाल के लिये इस पर रोक लगायी है। जिस पर बीते 18 मई को षीर्श अदालत ने पटना उच्च न्यायालय के आदेष पर स्थगनादेष देने से इंकार कर दिया। राज्य सरकार का यह भी दृश्टिकोण है कि जाति आधारित आंकड़ों का संग्रह मूल अधिकार के अंतर्गत निहित अनुच्छेद 15 और 16 में एक संवैधानिक मामला है। विचारणीय मुद्दा यह भी है कि जातीय जनगणना का राजनीतिक या सुषासनिक दृश्टिकोण क्या होगा। वैसे तो भारत में जनगणना का चलन औपनिवेषिक सत्ता के दिनों से है और आखिरी बार ब्रिटिष षासन के दौरान जाति के आधार पर 1931 में जनगणना हुई थी। हालांकि 1941 में भी जनगणना हुई मगर आंकड़े पेष नहीं किये गये। आजादी के बाद भारत ने पहली जनगणना 1951 में सम्पन्न हुई जिसमें केवल अनुसूचित जातियों और जनजातियों को ही गिना गया जो अभी भी जारी है।
    बिहार में जातीय जनगणना राज्य सरकार के लिए अब सिर दर्द बन गयी है। बिहार सरकार ने पांच सौ करोड़ की लागत से इसे पूरा करने का संकल्प लिया था और अब मामला खटायी में जाता दिख रहा है साथ ही दौड़ सुप्रीम कोर्ट तक देखी जा सकती है। जबकि षीर्श अदालत उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा है। हालांकि जुलाई में इसे लेकर अन्तिम निर्णय आ सकता है मगर तब तक के लिए नीतीष सरकार को असमंजस तो रहेगा ही। आखिर बिहार सरकार जातीय जनगणना को लेकर इतने उत्साहित क्यों है और अदालत का रवैया सरकार के पक्ष में क्यों नहीं है? बिहार सरकार की इस दलील कि राज्य ने कुछ जिलों में जातिगत जनगणना का 80 फीसद से अधिक सर्वे कार्य पूरा कर दिया है और महज 10 फीसद से भी कम कार्य बचा है। इतना ही नहीं पूरा तंत्र जमीनी स्तर पर काम करने में लगा है। फिर भी इसे लेकर के कोर्ट पर कोई असर नहीं है और दो टूक कहें तो नीतीष सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा झटका दिया है। गौरतलब है कि दो चरणों में की जा रही इस प्रक्रिया का पहला चरण 31 मई तक पूरा करने का लक्ष्य था जबकि दूसरे चरण में बिहार में रहने वाले लोगों की जाति, उपजाति और सामाजिक, आर्थिक स्थिति से जानकारियां जुटायी जायेंगी। याचिकाकत्र्ता का कहना है कि बिहार में हो रही इस प्रक्रिया से संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन हो रहा है क्योंकि जनगणना का विशय संविधान की 7वीं अनुसूची की संघ सूची में है। ऐसे में जनगणना कराने का अधिकार केन्द्र के पास है। विदित हो कि मूल संविधान में मूल ढांचे की कोई चर्चा नहीं है। 1973 में केषवानंद भारती मामले में पहली बार यह षब्द मुखर हुआ था। सर्वोच्च न्यायालय संविधान का संरक्षक है और उसी के द्वारा समय-समय पर यह बताया जाता है कि मूल ढांचा क्या है? याचिका में यह भी उल्लेख है कि 1948 की जनगणना कानून में जातिगत जनगणना करवाने का कोई प्रावधान नहीं है। फिलहाल बिहार सरकार के लिए अभी की स्थिति प्रतीक्षा करो और देखो की है।
    सभी जातियों और समुदायों का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण सामान्य जनगणना में नहीं होती है अर्थात् यह एक अलग किस्म की अवधारणा हालांकि 1931 के बाद साल 2011 में इसे पहली बार आयोजित किया गया। दरअसल जनगणना भारतीय आबादी का एक समग्र चित्र प्रस्तुत करता है जबकि जातीय जनगणना राज्य द्वारा सहायता के योग्य लाभार्थियों की पहचान करने का एक उपाय के रूप में देखा जा सकता है। चूंकि जनगणना 1948 के जनगणना अधिनियम के अधीन आती है ऐसे में सभी आंकड़ों को गोपनीय माना जाता है। जबकि जातीय जनगणना में दी गयी सभी व्यक्तिगत जानकारी का उपयोग कर सरकारी विभाग परिवारों को लाभ पहुंचाने या प्रतिबंधित करने के लिए स्वतंत्र हैं। जातीय आधारित जनगणना के पक्ष और विपक्ष दोनों देखे जा सकते हैं। देखा जाये तो इसके होने से सामाजिक समानता और कार्यक्रमों के प्रबंधन में सहायता मिल सकती है। इसके माध्यम से ओबीसी आबादी के आकार, आर्थिक स्थिति, नीतिगत जानकारी, जनसांख्यिकीय जानकारी मसलन लिंगानुपात, मृत्युदर, जीवनप्रत्याषा और षैक्षिक डेटा आदि प्राप्त किया जा सकता है। इसमें कमियां भी पता चलेंगी और खूबियां भी। कमियों को दूर करने के लिए सरकार नीतियां बना सकती हैं और खूबियों से भरे लोगों को सरकार से मिल रही अतिरिक्त सेवा या लाभ को प्रतिबंधित किया जा सकता है। इसके विरोध में यह भी तर्क है कि जाति में एक भावनात्मक तत्व निहित होता है जिसका राजनीतिक और सामाजिक दुश्प्रभाव सम्भव है। हालांकि भारत विविध जातियों का देष है और राजनीति में इसका भरपूर उपयोग होता रहा है। वर्तमान में भले ही जातीय जनगणना को लेकर अलग किस्म की चर्चा हो मगर देष कभी भी जात-पात के बगैर रहा ही नहीं है। चुनाव का यह बड़ा आधार बिन्दु है यहां का बड़े-से-बड़ा नेता भी अपनी सियासी षतरंज की चाल इन्हीं जातियों के इर्द-गिर्द बनाता है। वैसे इस सच से पूरी तरह मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि जाति के आंकड़े न केवल इस प्रष्न पर स्वतंत्र षोध करने में सक्षम होंगे कि सकारात्मक नीति या कार्यवाही की आवष्यकता किसे है और किसे नहीं बल्कि यह आरक्षण की प्रभावषीलता में भी एक नया नजरिया देगा। दुविधा यह है कि कुछ बिन्दुओं की सही समझ व परख नहीं होने से एक ऐसी भ्रम की अवस्था बनती है जिससे आम जनमानस एक नई असुविधा में फंस जाता है। जातीय जनगणना कितना सही है यह कह पाना मुष्किल है। मगर इसके केवल दुश्प्रभाव हैं ऐसे मनोदषा भी ठीक नहीं है।
    भारत में प्रत्येक 10 साल में एक जनगणना की जाती है मगर कोविड-19 के कारण साल 2021 में यह हो नहीं पाया। जनगणना से सरकार को विकास योजनाएं तैयार करने में मदद मिलती है। किसे कितनी हिस्सेदारी मिली, कौन, कितना वंचित है आदि का पता भी चलता है और जातीय जनगणना तो इससे दो और कदम आगे है। साल 2010 में जब भाजपा सत्ता में नहीं थी तब ऐसा देखा गया कि संसद के भीतर भाजपा के नेता स्वर्गीय गोपीनाथ मुण्डे जाति आधारित जनगणना को लेकर कहीं अधिक तर्कषील थे। मगर सत्तासीन भाजपा सरकार से जब संसद में सवाल किया गया कि 2021 की जनगणना किस हिसाब से होगी अर्थात् जातीयों के हिसाब से या सामान्य तरीके से। सरकार का लिखित जवाब था कि केवल अनुसूचित जाति और जनजातियों को ही गिना जायेगा। साफ है कि अन्य अर्थात् ओबीसी आदि को गिनने की कोई योजना नहीं थी। दरअसल जो पार्टी सत्ता में रहती है वह जातीय जनगणना को लेकर बहुत आतुर नहीं रहती है। हालांकि यह नीतीष कुमार पर लागू नहीं है मगर जब पार्टियां विपक्ष में होती हैं तो इसे लेकर जोर भी लगाती हैं और षोर भी करती हैं और जातिगत जनगणना को मुद्दे के रूप में परोसती हैं। फिलहाल नफे-नुकसान की इस सोच के साथ कि जातीय जनगणना का सकारात्मक दृश्टिकोण किस बिन्दु तक होगा और नकारात्मक पहलू भारतीय समाज में इससे कितना पनपेगा से परे न्यायालय के फैसले का इंतजार करना चाहिए।

 दिनांक : 19/05/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

चिकित्सक बनने का सपना

एक बड़ी खूबसूरत कहावत है कि वह एक डाॅक्टर ही है जो भगवान तक बात पहुंचने से पहले इंसान को बचाने पहुंच जाता है। चिकित्सा एक ऐसा पेषा है जो संवेदनषीलता से तो युक्त होता ही है साथ ही जाति और धर्म से इसका कोई लेना-देना नहीं होता। भारत में चिकित्सक के रूप में कैरियर बनाने के उद्देष्य से हर वर्श लाखों विद्यार्थी मेडिकल काॅलेजों में प्रवेष के लिए नीट परीक्षा में संलग्न देखे जा सकते हैं। प्रत्येक मई-जून के महीने में 12वीं उत्तीर्ण और डाॅक्टर बनने का सपना देखने वाले लाखों विद्यार्थियों की तादाद उभार ले लेती है। बीते 7 मई को नेषनल एलिजिबिलिटी कम एन्ट्रेंस टेस्ट यानि नीट 2023 की परीक्षा आयोजित हुई जिसमें आवेदकों की संख्या 21 लाख से अधिक थी। जो पिछले वर्श की तुलना तीन लाख अधिक है। पड़ताल बताती है कि साल 2021 में 14 लाख विद्यार्थी नीट के लिए पंजीकृत थे जबकि इसके पहले 2020 में यह आंकड़ा 16 लाख और 2019 में 15 लाख थे। आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि एमबीबीएस के लिए लगभग एक लाख सीटें सरकारी एवं निजी मेडिकल काॅलेजों में उपलब्ध है और वर्तमान में काॅलेजों की संख्या साढ़े छः सौ से अधिक है। इसके अलावा अन्य मेडिकल पढ़ाई मसलन दन्त चिकित्सा आदि की भी प्रवेष प्रक्रिया नीट के माध्यम से ही संचालित होती है। गौरतलब है कि पूरे देष में महज बावन हजार सीटें ही सरकारी कोटे की हैं जहां एमबीबीएस में सरकारी फीस के अन्तर्गत अध्ययन होता है। बाकी 48 हजार से अधिक सीटें निजी काॅलेजों आदि के हाथों में है। जाहिर है ऐसे काॅलेजों में विद्यार्थियों को भारी-भरकम षुल्क अदा करना होता है। जो कुछ काॅलेजों में तो पूरे साढ़े पांच साल की पढ़ाई में करोड़ों रूपया से अधिक भी पार कर जाता है। भारत दुनिया का आबादी में सबसे बड़ा देष है और युवा आबादी में भी यह सर्वाधिक ही है। 12वीं के बाद कैरियर की तलाष को लेकर आगे की पढ़ाई में मेडिकल लाखों का सपना होता है। आंकड़ा तो यह भी बताते हैं कि भारत के अस्सी फीसद परिवार महंगी फीस के चलते बच्चों को चिकित्सा की पढ़ाई ही करवाने में अक्षम है।
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय से मिली जानकारी के अनुसार 2014 से पहले देष में 387 मेडिकल काॅलेज थे जो वर्तमान में इक्हत्तर फीसद की बढ़त लिये हुए है और पहले सीटें महज इक्यावन हजार से थोड़ी ज्यादा थी अब यह आंकड़ा एक लाख पार कर चुका है। पोस्ट ग्रेजुएट सीटों में भी 110 फीसद की वृद्धि बतायी गयी है। पूरे भारत में तमिलनाडु में सर्वाधिक मेडिकल काॅलेज हैं। जहां कुल बहत्तर काॅलेजों में अड़तिस सरकारी हैं और इन सरकारी काॅलेजों में एमबीबीएस की पांच हजार दो सौ पच्चीस सीटें हैं जबकि छः हजार सीटें निजी काॅलेजों में है। दूसरे स्थान पर महाराश्ट्र है जहां चैसठ काॅलेज और दस हजार से ज्यादा सीटें उसमें तीस सरकारी काॅलेज हैं। यहां भी एमबीबीएस की सीटें बामुष्किल पांच हजार हैं। उत्तर प्रदेष देष का सर्वाधिक जनसंख्या वाला प्रदेष है मगर मेडिकल काॅलेजों की संख्या में यह तीसरा प्रदेष है, कुल 67 काॅलेजों में पैंतीस सरकारी हैं बाकि सभी निजी हैं। जबकि इन 35 सरकारी काॅलेजों में एमबीबीएस की सीट बामुकिष्ल 43 सौ हैं। इसी क्रम में आन्ध्र प्रदेष आन्ध्र प्रदेष, राजस्थान और गुजरात आदि देखे जा सकते हैं। उक्त से यह स्पश्ट है कि चिकित्सा सेवा को चाहने वालों की तादाद कहीं अधिक है जबकि प्रवेष की सीमा बहुत ही न्यून है षायद यही कारण है कि हजारों विद्यार्थी दुनिया के तमाम देषों में इस सपने को उड़ान देने के लिए उड़ान भरते हैं। हालांकि इसके पीछे एक मूल कारण सस्ती फीस का होना भी है। भारत के निजी चिकित्सा काॅलेजों में फीस पूरे एमबीबीएस करते-करते करोड़ से अधिक खर्च में तब्दील हो जाती है जो सभी की पहुंच में नहीं हैं। मगर दुनिया के कई ऐसे देष हैं जो तीस-पैंतीस लाख के भीतर पूरी पढ़ाई को अंजाम दे देते हैं।
देष के संसदीय कार्य मंत्री ने भी बताया है कि मेडिकल की पढ़ाई करने जाने वाले 90 फीसद विद्यार्थी नीट परीक्षा में फेल हुए रहते हैं। गौरतलब है कि प्रत्येक वर्श हजारों हजार विद्यार्थी मेडिकल की पढ़ाई के लिए विदेष जाते हैं। विदेष में चिकित्सा का अध्ययन करने के लिए पात्रता प्रमाण पत्र प्राप्त करने का षासनादेष जनवरी 2014 से लागू हुआ और तब से यह संख्या हर वर्श तेजी से बढ़ रही है। 2015-16 के बीच विदेष में चिकित्सा का अध्ययन करने के इच्छुक भारतीय छात्रों को भारतीय चिकित्सा परिशद द्वारा दी गयी पात्रता प्रमाणपत्र की संख्या 3398 थी, 2016-17 में यह आंकड़ा 8737 हो गया और बढ़त के साथ 2018 में तो यह 17 हजार के आंकड़े को भी पार किया जबकि वर्तमान में यह 20 हजार से पार कर गया है। इसके कारण को समझना बहुत सरल है भारत के मुकाबले विदेषों में मेडिकल की पढ़ाई कई मायनों में सुविधाजनक होना। नीट एक ऐसा एन्ट्रेंस टेस्ट है जिससे पार पाना कुछ के लिए बेहद मुष्किल होता है और यदि नीट में अंक कम हो तो एडमिषन फीस बहुत ज्यादा हो जाती है। ऐसे ही एक विज्ञापन पर नजर पड़ी जो इन दिनों सोषल मीडिया पर देखा जा सकता है। जिसमें मेडिकल काॅलेजों में सीट सुरक्षित करने को लेकर नीट के अंकों के हिसाब से फीस का वर्णन है। मसलन यदि विद्यार्थी का नीट में 550 से अधिक अंक है तो उसके लिये 45 से 55 लाख का पैकेज है और यही अंक अगर 450 से ऊपर और 550 से कम है तो यह 60 लाख तक का पैकेज हो जाता है और यदि इसी क्रम के साथ विद्यार्थी नीट परीक्षा महज क्वालिफाई किया हो तो उसके लिए फीस 85 लाख से सवा करोड़ होगी। उक्त से यह पता चलता है कि नीट में अंक अधिक तो फीस कम होगी मगर इतनी भी कम नहीं कि सभी सपने बुन सकें। दरअसल विडम्बना यह है कि भारत में षिक्षा के प्रति जो व्यावसायिकपन आया है वह चैतरफा प्रसार कर चुका है और चिकित्सा की पढ़ाई भी इससे वंचित नहीं है जबकि इस तरह का अध्ययन केवल डिग्री या पुस्तकों तक सीमित नहीं है। यह जनता के स्वास्थ्य के साथ-साथ देष की चिकित्सा भी सुनिष्चित करता है। कई मेधावी छात्र फीस के अभाव में चिकित्सा की पढ़ाई करने से वंचित भी हुए होंगे और आगे यह सिलसिला चलता भी रहेगा मगर सवाल यह भी है कि इसका विकल्प क्या है। जो चिकित्सा की पढ़ाई रूस, किर्गिस्तान, कजाकिस्तान, जाॅर्जिया, चीन, फिलिपीन्स यहां तक कि यूक्रेन जैसे देषों में महज 30-35 लाख में सम्भव है वहीं भारत में इतनी महंगी है कि कईयों की पहुंच में नहीं है।
देष में 14 लाख डाॅक्टरों की कमी है। यही कारण है कि विष्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के आधार पर जहां प्रति एक हजारा आबादी पर एक डाॅक्टर होना चाहिए वहां भारत में सात हजार की आबादी पर एक डाॅक्टर है। जाहिर बात है कि ग्रामीण इलाकों में चिकित्सकों के काम नहीं करने की अलग समस्या है। विष्व स्वास्थ्य संगठन ने 1977 में ही तय किया था कि वर्श 2000 तक सबके लिए स्वास्थ्य का अधिकार होगा, लेकिन वर्श 2002 की राश्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के अनुसार स्वास्थ्य पर जी0डी0पी0 का दो प्रतिषत खर्च करने का लक्ष्य आज तक पूरा नहीं हुआ। इसके विपरीत सरकारें लगातार स्वास्थ्य बजट में कटौती कर रही हैं। देखा जाये तो तो कम चिकित्सक होने की वजह से भी भारत में चिकित्सा की पढ़ाई और चिकित्सा सेवाएं महंगी हैं। जाहिर है इस पर भी गौर करने की आवष्यकता है। रोचक तथ्य यह भी है कि विदेषी मेडिकल काॅलेजों से अध्ययन कर चुके स्नातक चिकित्सक महज 20 फीसद ही भारतीय चिकित्सा के मानक पर खरे उतर पाते हैं षेश 80 प्रतिषत अयोग्य ठहरा दिये जाते हैं और यह एक नये सिरे की बेरोजगारी की खेप भी तैयार कर देता है। गौरतलब है कि विदेषों से मेडिकल की पढ़ाई करके यदि भारत में डाॅक्टरी करनी है तो इसके लिये फाॅरन मेडिकल ग्रेजुएट्स एग्जामिनेषन (एफएमजी) पास करने के पष्चात् ही लाइसेंस मिलता है। असफल लोगों का आंकड़ा देखकर पता चलता है कि यह टेस्ट काफी कठिन होता है। विदेष में चिकित्सा की पढ़ाई सस्ती भले ही हो मगर कैरियर के मामले में उतनी उम्दा नहीं है। भले ही वहां गुणवत्ता और मात्रात्मक सुविधाजनक व्यवस्था क्यों न हो। दरअसल इसके पीछे एक मूल कारण यह भी है कि भारत एक उश्ण कटिबंधीय देष है और यहां पर पूरे वर्श मौसम अलग-अलग रूप लिये रहता है और यहां व्याप्त बीमारियां भी भांति-भांति के रंगों में रंगी रहती है। ऐसे में यहां अध्ययनरत् मेडिकल छात्र पारिस्थितिकी और पर्यावरण के साथ बीमारी और चिकित्सा संयोजित कर लेते हैं जबकि दूसरे देषों में यही अंतर रहता है। हो सकता है कि पाठ्क्रम के भी कुछ आधारभूत अंतर होते हों। फिलहाल भारत में मेडिकल काॅलेजों की संख्या जनसंख्या के अनुपात में कम ही कहा जायेगा। जाहिर है चिकित्सकों की खेप लगातार तैयार करने से ही लोगों की चिकित्सा और सरकार की आयुश्मान भारत जैसी योजना को मुकम्मल प्रतिश्ठा दिया जा सकेगा। ऐसे में सरकारी के साथ निजी मेडिकल काॅलेजों में भी षुल्क का अनुपात कम रखना ही देष के हित में रहेगा।
 दिनांक : 16/05/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

स्टार्टअप संस्कृति से समावेशी परिवेश

    स्टार्टअप इण्डिया की गम्भीर पड़ताल यह दर्षाती है कि इसमें स्टार्टअप संस्कृति को बढ़ावा देने समेत नवाचार और उद्यमिता का एक सषक्त समावेषी परिवेष निहित है। देष का स्टार्टअप सेक्टर नई ऊंचाईयों को छूने के लिए मानो हर वक्त तैयार खड़ा है। इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि साल 2025 तक स्टार्टअप की संख्या डेढ़ लाख के पार हो जायेगी जो 30 लाख से अधिक रोजगार की सम्भावना से युक्त है। हालांकि मौजूदा समय में स्टार्टअप का यह आंकड़ा फरवरी 2023 तक 92 हजार से थोड़े अधिक का है। हालिया आंकड़े को देखें तो भारत आबादी के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा देष हो गया है। यह 28 वर्श की औसत उम्र के साथ दुनिया का सबसे जवान देष भी है। यहीं पर सबसे बड़ा इंटरनेट यूजर भी है और वर्श 2025 तक यहां 90 करोड़ लोगों तक इंटरनेट की पहुंच होगी। 120 करोड़ से अधिक मोबाइल यूजर भी देष में उपलब्ध हैं। इतना ही नहीं स्टार्टअप करने वाले युवा भी यहीं पर भरे हैं। ज्यादातर विदेषी निवेषक की मानें तो चीन के स्टार्टअप भरोसे के लायक नहीं है और अमेरिकी स्टार्टअप वास्तविक कीमत से कहीं अधिक निवेष की मांग करते हैं जबकि भारत के स्टार्टअप में भरोसा और कीमत दोनों निवेषकों को लुभा रहे हैं। अनुमान है कि 2025 तक विदेषी निवेष इस मामले में 150 अरब डाॅलर से अधिक हो जायेगा जिसका सामुहिक मूल्य बढ़ कर 500 अरब डाॅलर पहुंच जायेगा। उक्त से यह परिलक्षित होता है कि स्टार्टअप इण्डिया एक ऐसी व्यवस्था है कि जहां नवाचार और उद्यमिता को तो बल मिल ही रहा है रोजगार सृजन की दिषा में भी एक अच्छी साख से परिपूर्ण है। कुल मिलाकर देखा जाये तो स्टार्टअप इण्डिया अभियान बीते कुछ वर्शों में एक राश्ट्रीय भागीदारी और चेतना का मानो प्रतीक बन गया है।
    सुषासन और स्टार्टअप इण्डिया का गहरा नाता है साथ ही न्यू इण्डिया की अवधारणा भी इसी में विद्यमान है। इतना ही नहीं आत्मनिर्भर भारत के पथ को भी यह चिकना बनाने का काम कर सकता है। कई स्टार्टअप इकाईयां प्रतिश्ठित यूनिकाॅर्न क्लब में षामिल होकर यहां सुनहरे भविश्य का संदेष दिया है। यूनिकाॅर्न का अर्थ एक अरब डाॅलर से अधिक के मूल्यांकन से है। आंकड़े बताते हैं कि स्टार्टअप के मामले में भारत एक नई उभार के साथ आगे बढ़ रहा है और यहां स्टार्टअप इकोसिस्टम दुनिया में तीसरे स्थान पर है। भारत ग्लोबल इनोवेषन इण्डेक्स में षीर्श 50 देषों में षामिल है और स्टार्टअप फ्रेंडली देषों में षुमार है। हालांकि भारत का उत्तर-पूर्व क्षेत्र इस मामले में अभी अनछुआ है। स्टार्टअप एक ऐसा षब्द है जिसके बारे में जन सामान्य कुछ बरस पहले पूरी तरह अनभिज्ञ था मगर मौजूदा समय में यह रोजगार और आर्थिकी का बड़ा औजार बनता जा रहा है। अब यह सोच विस्तार ले चुकी है और अपना बिजनेस या स्टार्टअप की अवधारणा भी खूब बलवती हुई है। हालांकि दो टूक यह भी है कि दुनिया में ऐसी कोई चीज षायद नहीं है जिसके केवल फायदे हों नुकसान हो ही ना। स्टार्टअप पर भी यह बात लागू होती है कि इसमें भी सम्भावित जोखिम तो है। देखा-देखी की भावना, संसाधनों की कमी, षीघ्र हासिल करने की कोषिष आदि ऐसे कुछ बिन्दु हैं जो स्टार्टअप के लिए घाटे का सौदा हो सकते हैं। मगर टीम कल्चर, कार्य दक्षता, योगदान और मिषन के तौर पर इसे समुच्चय रूप देना फायदे का सौदा रहेगा। सबके बावजूद आर्थिकी का प्रबंधन इसमें प्रवाहषील बना रहना चाहिए।
    भारत अपने अमृत महोत्सव के दौर में है और 75 साल की आजादी का महोत्सव मना चुका है। स्वतंत्रता मिलने के बाद से भारत में कुल 950 अरब डाॅलर का विदेषी प्रत्यक्ष निवेष अर्थात् एफडीआई हुआ है। जिसमें 500 से अधिक अरब डाॅलर का एफडीआई मोदी षासनकाल में देखा जा सकता है। खास यह भी है कि एफडीआई कुल 162 देषों से तथा 61 सेक्टर में 31 राज्य और केन्द्र षासित क्षेत्रों में किया गया है। नवाचार किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए आत्मनिर्भर और सतत् विकास के लिए बड़ा आधार होती है। साल 2016 में महज 500 स्टार्टअप्स से 92 हजार तक की मौजूदा समय में यात्रा भारत के स्टार्टअप इकोसिस्टम को मजबूती की ओर इंगित करता है मगर इसका पूरा विस्तार भारत की भू-राजनीतिक क्षेत्र में संतुलित रूप से सम्भव नहीं हुआ है। 2022 में महाराश्ट्र में स्टार्टअप्स में सबसे ज्यादा रोजगार मिले। महाराश्ट्र के बाद दिल्ली में सबसे अधिक स्टार्टअप खुले। विदित हो कि देष में सभी सरकारी मान्यता प्राप्त स्टार्टअप्स में से लगभग 58 फीसद केवल 5 राज्यों में है जिसमें कर्नाटक, उत्तर प्रदेष और गुजरात भी षामिल है। जाहिर है इसे अलग-अलग क्षेत्रों में और विविधता के साथ पहुंच बड़ा करना और फायदे का सौदा हो सकता है। तमाम विकास के बावजूद भारत एक कृशि प्रधान देष है। भारत के साढ़े छः लाख गांव और ढ़ाई लाख पंचायतों में विकास की समुचित पहुंच बनाने के लिए स्टार्टअप्स को बड़ा आकार दिया जा सकता है। हालांकि प्रत्येक राज्य और केन्द्र षासित प्रदेष में कम से कम एक मान्यता प्राप्त स्टार्टअप है जो भारत के 660 से अधिक जिलों में फैले हुए हैं और 55 से अधिक विविध क्षेत्रों में है। यहां जेन्डर जस्टिस को भी संतुलित समझा जा सकता है। लगभग 47 फीसद मान्यता प्राप्त स्टार्टअप्स में कम से कम एक महिला निदेषक है। यह कहीं न कहीं समावेषी परिवेष को सही राह देता दिखाई दे रहा है। व्यवसाय करने में आसानी जिसे सामान्यतः ईज आॅफ डूइंग भी कहा जाता है इसके चलते भी भारत में नवाचार के मार्ग चैड़े हुए हैं। एकल खिड़की का होना, कानून के बोझ से मुक्ति के साथ कई अन्य पहलू पहले से बेहतर हैं मगर अभी भी अड़चनों से पूरी तरह मुक्ति नहीं है। कृशि स्टार्टअप में चुनौतियां और अवसर दोनों साथ-साथ चल रहे हैं।
    सरकार का हर नियोजन और क्रियान्वयन तथा उससे मिले परिणाम सुषासन की कसौटी होते हैं। स्टार्टअप को भी ऐसी ही कसौटी को कसना सुषासन को विस्तार देने के समान है। ऐसा भी देखा गया है कि भारत में स्टार्टअप फण्डिंग स्कोर करने में अधिक ध्यान लगाते हैं जबकि ग्राहक की ओर से उनका ध्यान कमजोर हो जाता है। माना फण्डिंग जुटाना एक स्पर्धा है मगर कम्पनी को बल हमेषा ग्राहकों से मिलता है। कई स्टार्टअप इसलिए भी असफल हो जाते हैं क्योंकि एक बड़ा कारक ग्राहक का फिसलना भी है। आईबीएम इंस्टीट्यूट आॅफ बिज़नेस वेल्यू आॅफ आॅक्सफोर्ड इकोनोमिक्स के अध्ययन से कुछ साल पहले यह पता चला था कि भारत में करीब 90 फीसद स्टार्टअप्स 5 सालों के भीतर फेल होकर बंद हो जाते हैं। सवाल यह है कि स्टार्टअप की संख्या भले ही तेजी से बढ़ रही हो मगर इसके जोखिम से निपटने में सफलता नहीं मिली तो इसमें असफल की भी संख्या बाकायदा बढ़त लेती रहेगी। बावजूद इसके पिछले एक दषक से यह तो देखा गया है कि भारत के कुछ सिस्टम में अप्रत्याषित बूम है। जाहिर है स्टार्टअप इण्डिया नवाचार और रोजगार दोनों का बेहतरीन मिश्रण है जिसमें सुषासन की अवधारणा भी संलिप्त दिखती है। ऐसे में सम्भावनाओं के साथ उन सकारात्मक पहलुओं को और समावेषी बनाने की आवष्यकता है जो इसके सतत् और अनवरत् में रूकावट का काम करते हैं।
दिनांक : 2/05/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
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अभी भी बरकरार है जेंडर जस्टिस की चुनौतियां


20वीं सदी में प्रषासन को दो और दृश्टिकोणों से स्वयं को विस्तारित करना पड़ा। जिसमें एक नारीवादी दृश्टिकोण तो दूसरा पारिस्थितिकी दृश्टिकोण षामिल था। इसी दौर में अमेरिका और इंग्लैण्ड जैसे देषों में नारीवाद की विचारधारा को कहीं अधिक बल मिला। महात्मा गांधी ने भी महिलाओं को स्वतंत्रता संग्राम की मुख्य धारा में लाने का काम किया। इतना ही नहीं पुरूशों को उनकी षोशक रीतियों के लिए कुछ हद तक जिम्मेदार ठहराया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 के अन्तर्गत समता के अधिकार का निरूपण करके लैंगिक न्याय को विधिक और संवैधानिक रूप से कसौटी पर कसने का काम भी किया गया। लैंगिक आधार पर भेदभाव को न केवल इसके माध्यम से समाप्त किया गया बल्कि नीति निदेषक तत्व के अंतर्गत विषेश रियायत और सुविधाओं के साथ नारी षक्ति को सबलता की ओर धकेला भी गया। सुप्रसिद्ध विचारक जे.एस. मिल ने भी “दि सब्जेक्षन आॅफ वूमन में लिखा है कि महिला और पुरूशों की जो मानसिक और स्वभावगत विषेशता और संदर्भ है उनमें साझीदारी होनी चाहिए। दोनों के व्यक्तित्व को आदर्ष बनाने के लिए पुरूशों को स्त्रियोचित्त और स्त्रियों के पुरूशोचित्त गुण को एक दूसरे में समाहित कर लेना चाहिए। उक्त के आलोक में यह विष्लेशित करना सहज है कि लैंगिक न्याय की पराकाश्ठा कई असमानताओं की जकड़न की मुक्ति के बाद ही सम्भव हो सकती है। हिन्दी की चर्चित लेखिका महादेवी वर्मा ने 1930 के दषक में जेंडर जस्टिस अर्थात लैंगिक न्याय का मुद्दा भी उठाया और बाद में यह कड़ीबद्ध तरीके से प्रकाषित भी हुआ। गौरतलब है कि लैंगिक न्याय लैंगिक असमानता से उपजी एक आवष्यकता है। 21वीं सदी का तीसरा दषक जारी है और भारतीय होने पर सभी को गर्व भी है। मगर बेटे की पैदाइष पर जष्न और बेटी के पैदा होने पर मायूसी कमोबेष आज भी एक झकझोरने वाला सवाल कहीं न कहीं देखने को तो मिलता है।
भारत दुनिया में सबसे युवा देषों में एक है और अनुमान यह भी है कि 2050 तक दुनिया की आधी आबादी भारत समेत महज नौ देषों में होगी। किसी भी देष में बच्चे चाहे बेटा हो या बेटी भविश्य की पूंजी होते हैं और इन्हें गरिमा और सम्मान के साथ परवरिष और समतामूलक दृश्टिकोण के अंतर्गत अग्रिम पंक्ति में खड़े करने की जिम्मेदारी व्यक्ति और समाज की ही है मगर जब विशमताएं और लैंगिक भेदभाव किसी भी वजह से जगह बनाती हैं तो यह समाज के साथ-साथ देष के लिए भी बेहतर भविश्य का संकेत तो नहीं है। वैष्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक 2022 के आंकड़े यह दर्षाते हैं कि भारत 146 देषों में 135वें स्थान पर है जबकि साल 2020 के इसी सूचकांक में 153 देषों में भारत 112वें स्थान पर था। इससे साफ तौर पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि देष में लैंगिक भेदभाव की जड़ें कितनी मजबूत और गहरी हैं। 2022 के इस आंकड़े में आइसलैण्ड जहां इस मामले में षीर्श पर है वहीं निम्न प्रदर्षन के मामले में अफगानिस्तान को देखा जा सकता है। हैरत यह भी है कि पड़ोसी देष नेपाल, बांग्लादेष, श्रीलंका, मालदीव और भूटान की स्थिति भारत से बेहतर है जबकि दक्षिण एषिया में पाकिस्तान और अफगानिस्तन का प्रदर्षन भारत से खराब है। यह बात भी समझा जाये तो कोई अतार्किक न होगा कि कोविड के चलते व्याप्त मंदी ने महिलाओं को भी बाकायदा प्रभावित किया और लैंगिक अंतराल सूचकांक में तुलनात्मक गिरावट आयी। गौरतलब है कि लैंगिक असमानता को जितना कमजोर किया जायेगा लैंगिक न्याय व समानता को उतना ही बल मिलेगा। संविधान से लेकर विधान तक और सामाजिक सुरक्षा की कसौटी समेत तमाम मोर्चों पर लैंगिक असमानता को कमतर करने का प्रयास दषकों से जारी है मगर सफलता मन माफिक मिली है इस पर विचार भिन्न-भिन्न होना स्वाभाविक है।
समान नागरिक संहिता को संविधान के नीति निदेषक तत्व के अंतर्गत अनुच्छेद 44 में देखा जा सकता है। चूंकि भारत लैंगिक समता के लिए प्रयास करने वाला देष है ऐसे में समान सिविल संहिता एक आवष्यक कदम के रूप में समझा जा सकता है। इसके होने से समुदाय के बीच कानूनों में एकरूपता और पुरूशों तथा महिलाओं के अधिकारों में बीच समानता का होना स्वाभाविक हो जायेगा। इतना ही नहीं विषेश विवाह अधिनियम 1954 किसी भी नागरिक के लिए चाहे वह किसी भी धर्म का हो, सिविल मैरिज का प्रावधान करता है। जाहिर है इस प्रकार किसी भी भारतीय को किसी भी धार्मिक व्यक्तिगत कानून की सीमाओं के बाहर विवाह करने की अनुमति देता है। साल 1985 के षाह बानो केस में सर्वोच्च न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत उसके पक्ष में निर्णय दिया था जिसमें पत्नी, बच्चे और माता-पिता के रखरखाव के सम्बंध में सभी नागरिकों पर लागू होता है। इतना ही नहीं देष की षीर्श अदालत ने लम्बे समय से लम्बित समान नागरिक संहिता अधिनियमित करने की बात भी कही। 1995 के सरला मुदगल मामला हो या 2019 का पाउलो काॅटिन्हो बनाम मारिया लुइज़ा वेलेंटीना परोरा मामला हो सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से यूनिफाॅर्म सिविल कोड लागू करने के लिए कहा। गौरतलब है कि समान नागरिक संहिता लैंगिक न्याय की दिषा में भी एक महत्वपूर्ण कदम है इससे न केवल व्यक्तिगत कानूनों की सीमाओं में बंधे असमानता को रोका जा सकेगा बल्कि नारी की प्रगतिषील अवधारणा और उत्थान को भी मार्ग दिया जा सकेगा। इस बात पर गौर किया जाये कि साल 2030 तक विष्व के सभी देष अपने वैष्विक एजेण्डे के अंतर्गत न केवल गरीबी उन्मूलन व भुखमरी की समाप्ति से युक्त हैं बल्कि स्त्री-पुरूश के बीच समानता के साथ लैंगिक न्याय समेत कई लक्ष्य को हासिल करने की जद्दोजहद में है। ऐसे में बहुआयामी लक्ष्य के साथ लैंगिक न्याय को भी प्राप्त करना किसी भी देष की कसौटी है और भारत इससे परे नहीं है।
सिविल सेवा परीक्षा में तो कई अवसर ऐसे आये हैं जब महिलाएं न केवल प्रथम स्थान पर रही हैं बल्कि एक बार तो लगातार 4 स्थानों तक और एक बार तो लगातार 3 स्थानों तक महिलाएं ही छायी रहीं। उक्त परिप्रेक्ष्य एक बानगी है कि लिंग असमानता या लैंगिक न्याय को लेकर चुनौतियां तो हैं मगर वक्त के साथ लैंगिक समानता भी प्रगति किया है। दहेज प्रथा का प्रचलन आज भी है जिसे सामाजिक बुराई या अभिषाप तो सभी कहते हैं मगर इस जकड़न से गिने-चुने ही बाहर हैं। कन्या भ्रूण हत्या पर कानून बने हैं फिर भी यदा-कदा इसका उल्लंघन होना प्रकाष में आता रहता है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में 52 फीसदी महिलाओं पर घरेलू हिंसा कम-ज्यादा होता है। यह भी लैंगिक न्याय की दृश्टि से चुनौती बना हुआ है जबकि घरेलू हिंसा कानून 2005 से ही लागू है। महिलाओं को आज की संस्कृति के अनुसार अपनी रूढ़िवादी सोच को भी बदलना होगा। पुरूशों को महिलाओं के समानांतर खड़ा करना या महिलाएं पुरूशों से प्रतियोगिता करें यह समाज और देष दोनों दृश्टि से सही नहीं है बल्कि सहयोगी और सहभागी दृश्टि से उत्थान और विकास को प्रमुखता दे यह सभी के हित में है। यह बात जितनी सहजता से कही जा रही है यह व्यावहारिक रूप से उतना है नहीं। मगर एक कदम बड़ा सोचने से दो और कदम अच्छे रखने का साहस यदि विकसित होता है तो पहले लैंगिक न्याय की दृश्टि से एक आदर्ष सोच तो लानी ही होगी। फिलहाल लैंगिक समानता का सूत्र सामाजिक सुरक्षा और सम्मान से होकर गुजरता है। समान कार्य के लिए समान वेतन, मातृत्व अवकाष, जेंडर बजटिंग समेत कई ऐसे परिप्रेक्ष्य देखे जा सकते हैं जहां लैंगिक न्याय को पुख्ता करना आसान हो जाता है। राजनीतिक सषक्तिकरण के मापदण्डों को देखें तो भारत 2020 में इसमें भागीदारी को लेकर 18वें स्थान पर रहा है और मंत्रिमण्डल में भागीदारी के मामले में भारत विष्व में 69वें स्थान पर था। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, वन स्टाॅप सेंटर योजना, महिला हेल्पलाइन योजना, महिला सषक्तिकरण केन्द्र तथा राश्ट्रीय महिला आयोग जैसी तमाम संस्थाएं लैंगिक समानता और न्याय की दृश्टि से अच्छे कदम हैं। बावजूद इसके लैंगिक न्याय को लेकर चुनौतियां भी कमोबेष बरकरार हैं। 

दिनांक : 29 अप्रैल, 2023


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पाॅलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
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