Monday, July 27, 2020

बाढ़ को लेकर इंतज़ार नहीं इतज़ाम हो

नदी का जल उफान के समय जब जल वाहिकाओं को तोड़ता हुआ मानव बस्ती और आस-पास की जमीन को चपेट में ले लेता है तो यही बाढ़ की स्थिति होती है। हालांकि यह अचानक नहीं आती है। दक्षिण-पष्चिम मानसून का भारत में इन दिनों व्यापक स्तर पर विस्तार होता है जिसके चलते पूरे साल की 80 फीसद बारिष होती है। भारी बारिष और लचर सरकारी नीतियां मसलन बांध और तंटबंधों के निर्माण में कमी या उनकी कमजोरी के चलते उनके टूटने से हर साल विस्तृत क्षेत्र में जलमग्नता देखने को मिलती है। बाढ़ भारतीय संविधान में निहित राज्य सूची का विशय है। कटाव नियंत्रण सहित बाढ़ प्रबंधन का विशय राज्यों के क्षेत्राधिकार में आता है मगर केन्द्र सरकार राज्यों को तकनीकी मार्गदर्षन और वित्तीय सहायता प्रदान करती है। इन्हीं महीनों में जब पानी बेकाबू होता है और जान-माल का व्यापक नुकसान करता है तब देष की सियासत भी गरम हो जाती है जैसा कि इन दिनों देखा जा सकता है। बाढ़ पूरे देष को व्यापक आर्थिक नुकसान में ही नहीं बल्कि मानव संसाधन को भी पानी-पानी कर देता है। खेती, स्कूल, काॅलेज, रोज़गार, काम-धंधे सहित सभी पर यह भारी पड़ता है। इंटरनेषनल डिस्प्लेसमेंट माॅनिटरिंग सेंटर की रिपोर्ट से पता चलता है कि हर साल औसतन 20 लाख लोग बाढ़ की वजह से बेघर हो जाते हैं और चक्रवाती तूफानों के चलते ढ़ाई लाख लोगों को विस्थापित करना पड़ता है। 
वैसे तो देष का आधा हिस्सा कमोबेष बाढ़ की चपेट में आ जाता है मगर बिहार और असम में भयावह रूप लिए बाढ़ ने लाखों लोगों को अपनी चपेट में इन दिनों लिए हुए है। कोरोना संकट के इस दौर में मुष्किलें दोगुनी हो गयी हैं। केन्द्रीय जल आयोग का भी मानना है कि बिहार में बाढ़ की हालत चिन्ताजनक है। गौरतलब है कि बाढ़ के बीच यहां सियासत भी गरम है क्योंकि इसी साल यहां विधानसभा का चुनाव होना है। यहां 40 बाढ़ पूर्वानुमान केन्द्र में से 20 के दायरे में नदियां खतरे के निषान से ऊपर बह रही हैं। 9 से 10 जिले बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हैं। बिहार में बारिष औसतन डेढ़ गुना ज्यादा बतायी जा रही है। हालांकि बिहार के बाढ़ के कारणों में गंडक और कोसी जैसी नदियां कहीं अधिक प्रभाव डालती हैं। कोसी ऐसी नदी है जिसे बिहार का षोक कहा जाता है और यह ऐसी अभिषाप से युक्त नदी है जो रास्ता बदलती है। ऐसे में यह सुनिष्चित करना मुष्किल होता है कि अगले साल यह नदी किधर रूख करेगी। मौजूदा समय में बिहार में 6 लाख से अधिक आबादी बाढ़ की चपेट में है और इनमें से कुछ को ही सुरक्षित निकालकर राहत षिविरों में पहुंचाया गया। चिंता असम में बाढ़ की स्थिति को लेकर भी है। असम में 30 बाढ़ पूर्वानुमान केन्द्रों में से 13 में नदिया खतरे के निषान से ऊपर बह रही हैं। जबकि 16 से 17 जिले इसकी चपेट में है। केन्द्रीय जल आयोग असम में भी बाढ़ की स्थिति को काफी गम्भीर बता रहा है। यहां 19 फीसद अधिक बारिष की बात कही जा रही है। असम में बाढ़ की स्थिति से निपटने के लिए केन्द्र सरकार 346 करोड़ रूपए प्रारम्भिक राषि के तौर पर जारी करने की बात कही है। पूर्वोत्तर के इस राज्य में बाढ़ से 56 लाख से अधिक लोग प्रभावित हैं। यहां बताते चलें कि असम में कोविड-19 से मरने वालों की संख्या 77 से अधिक है और संक्रमित 30 हजार के आंकड़े से ऊपर है। इतना ही नहीं यहां के कांजीरंगा राश्ट्रीय उद्यान में अब तक 10 गैंडे समेत 110 जानवरों की मौत की अधिकारिक घोशणा हुई है और कुछ जानवर लापता भी हुए हैं। कह सकते हैं कि असम दोहरी नहीं तिहरी मार झेल रहा है। 
असम या यूपी, बिहार में बाढ़ तकरीबन हर साल आती है। 1980 में राश्ट्रीय बाढ़ आयोग ने अनुमान लगाया था कि 21वीं सदी के षुरूआती दषक तक 4 करोड़ हेक्टेयर भूमि बाढ़ की चपेट में होगी। इसे देखते हुए बड़ी संख्या में बहुउद्देषीय बांध और 35 हजार किलोमीटर तटबंध बनाये गये। मगर बाढ़ से मुक्ति तो छोड़िये अनुमान से एक हजार हेक्टेयर अधिक भूमि बाढ़ से प्रभावित होने लगी। वैसे देखा जाय तो बाढ़ की फसलें भी सरकारें ही बोती हैं और वही काटती हैं। केन्द्रीय जल आयोग ने एक डेटा जारी करते हुए बताया था कि देष के 123 बांधों या जल संग्रहण क्षेत्रों में पिछले दस सालों के औसत का 165 फीसद पानी संग्रहित है और यह अब तुलनात्मक और बढ़ गया है। इसका तात्पर्य यह कि बांधों में पर्याप्त रूप से पानी का भण्डारण था ये 123 वे बांध हैं जिसका प्रबंधन व संरक्षण केन्द्रीय जल आयोग करता है और जबकि इन बांधों में देष की कुल भण्डारण क्षमता का 66 फीसद पानी जमा होता है। जाहिर है उस समय जरूरत होने पर भी इन बांधों से पानी नहीं छोड़ा गया और बरसात होते ही बांध कहीं अधिक उफान पर आ जाते हैं। ऐसे में गेट खोल देने का नतीजा पहले से उफान ले रही नदी में बहाव को तेज कर देना और पानी को गांव और षहर में घुसाना और जान-माल को हाषिये पर धकेलना है। समझने वाली बात यह है कि जब ओड़ीषा में आने वाले अम्फान और आलिया जैसे तूफानों से रक्षा की सफल कोषिष हो सकती है तो नदी तट पर रहने वालों की सुरक्षा के इंतजाम क्यों नहीं जबकि पहले से पता है कि यहां बाढ़ आती ही है। साफ है कि बाढ़ का इंतजार किया जा रहा है जबकि इंतजाम से अछूते हैं। इतना ही नहीं यह भी स्पश्ट है कि बाढ़ नियंत्रण के सरकारी दो उपाय अर्थात् बांध और तटबंध ऐसी बाढ़ के आगे फेल भी होते देखे जा रहे हैं। सरकार मनरेगा के अन्तर्गत तालाब और पोखर खुदवाती है जबकि प्राचीन काल में यही बाढ़ नियंत्रण के उपाय हो जाते थे और 21वीं सदी की 2006 से चली आ रही सबसे अधिक रोजगार देने वाली योजनाओं में एक मनरेगा के पोखर दूर की कौड़ी बने हुए हैं। इससे यह भी संकेत मिलता है कि जिस पैमाने पर तालाब और पोखर की खुदाई की बात कही जाती है वह षायद कागजों में ही हुई है। वाॅटर हारवेस्टिंग भी तेजी से प्रसार किया जा रहा है मगर इसकी भी कमी दिखती है। पानी जमीन के भीतर के बजाय सड़कों और नालियों में बहाया जा रहा है और तत्पष्चात् नालों से होते हुए नदी की प्रवाहषीलता बढ़ाये हुए है जो बाढ़ के कारणों में षुमार है। 
भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक (कैग) ने 21 जुलाई 2017 को बाढ़ नियंत्रक और बाढ पूर्वानुमान पर अपनी रिपोर्ट सौंपी थी जिसमें कई बातों के साथ 17 राज्यों और केन्द्रषासित प्रदेषों के बांधों सहित बाढ़ प्रबंधन की परियोजनाओं और नदी प्रबंधन की गतिविधियों को षामिल किया गया था। इसके अंतर्गत साल 2007-08 से 2015-16 निहित है। उक्त से यह स्पश्ट होता है कि कोषिषों जारी रहीं पर बाढ़ बरकरार रही। वैसे देखा जाय तो मानवीय त्रुटियों के अलावा बाढ़ का भीशण स्वरूप कुछ प्राकृतिक रूप लिए हुए है। कोसी नदी नेपाल में हिमालय से निकलती है यह बिहार में भीम नगर के रास्ते भारत में आती है जो बाकायदा यहां तबाही मचाती है। गौरतलब है कि साल 1954 में भारत ने नेपाल के साथ समझौता करके इस पर बांध बनाया था। हांलाकि बांध नेपाल की सीमा में था परन्तु रख-रखाव भारत के जिम्मे था। नदी के तेज बहाव के चलते यह बांध कई बार टूट चुका है। पहली बार यह 1963 में टूटा था। इसके बाद 1968 में पांच जगह से टूट गया। 1991 और 2008 में भी यह टूटा। फिलहाल बांध पर जगह-जगह दरारें हैं। समझा जा सकता है कि बाढ़ में इसका क्या योगदान है। गंडक नदी भी नेपाल के रास्ते बिहार में दाखिल होती है। इसे नेपाल में सालीग्राम और मैदान में नारायणी कहते हैं। नाम अच्छा है लेकिन काम बाढ़ का है। यही पटना में आकर गंगा में मिलती है। बरसात में उफान पर होती है और इसके आस-पास इसके इलाके बाढ़ की चपेट में होते हैं। इसी नदी के बढ़े जल स्तर के दबाव के कारण चम्पारण तटबंध टूट गया। लगभग 30 फीट चैढ़ाई में बांध के टूटने से तबाही आ गयी। एक तरफ नेपाल की नदियां दूसरी तरफ झारखण्ड के ऊंचाई के कारण पानी के प्रवाह का बिहार की ओर होना, तीसरे उत्तर प्रदेष का ढ़लान भी कुछ इस प्रकार कि बिहार पानी-पानी हो जाता है। जहां तक सवाल पूर्वोत्तर के असम का है ब्रह्मपुत्र यहां की तबाही का प्रमुख कारण है। 
सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि बाढ़ निपटने के लिए क्या किया जाय। तकनीकी विकास के साथ मौसम विज्ञान के विषेशज्ञों को मानसून की सटीक भविश्यवाणी करनी चाहिए। जबकि अभी यह भविशयवाणी 50-60 फीसद ही सही ठहरती है। बाढ़ प्रभावित इलाकों में चेतावनी केन्द्र की बात बरसों से लटकी हुई है। सीएजी की रिपोर्ट से यह पता चलता है कि अब तक 15 राज्यों में कोई प्रगति नहीं हुई है और जहां ये केन्द्र बने वहां की मषीने भी खराब हैं। ऐसे में असम और बिहार समेत निगरानी केन्द्र सभी बाढ़ इलाकों में नूतन तकनीक के साथ स्थापित होने चाहिए। बाढ़ नियंत्रण का कोई विधायी उल्लेख भी देखने को नहीं मिला। यह संविधान की सातवीं अनुसूची की किसी भी सूची में नहीं है जबकि जल निकासी और तटबंध से जुड़ी समस्या की जानकारी राज्य सूची में मिलती है। फिलहाल सरकार जो सही समझे करे पर बाढ़ नियंत्रण पर काबू पाये। वैसे भारत में दक्षिण-पष्चिम मानसून खेती-बाड़ी के लिए एक षुभ अवसर होता है वहीं कई क्षेत्रों में ये तबाही लाकर अषुभ बन जाती है। बादल फटना, गाद का संचय होना, मानव निर्मित अवरोध का उत्पन्न होना और वनों की कटाई जैसे तमाम कारण बाढ़ के लिए जिम्मेदार हैं। असम घाटी में आयी में बाढ़ ब्रह्मपुत्र नदी द्वारा लाया गया गाद खूब जिम्मेदार होता है। गौरतलब है कि चीन, भारत, भूटान और बांग्लादेष में फैले एक बड़े बेसिन क्षेत्र के साथ ब्रह्मपुत्र नदी अपने साथ भारी मात्रा में जल और गाद का मिश्रण लेकर आती है जिससे असम में कटाव की घटनाओं में वृद्धि होती है और लाखों पानी-पानी हो जाते हैं। फिलहाल असम, पष्चिम बंगाल, पूर्वी उत्तर प्रदेष और ओड़िषा, आन्ध्र प्रदेष, तमिलनाडु और गुजरात तटीय क्षेत्र सहित पंजाब, राजस्थान एवं हरियाणा में भी बाढ़ के चलते कृशि भूमि तथा मानव बस्तियों के डूबने से अर्थव्यवस्था भी डूब रही है। सरकार की हालिया रिपोर्ट यह कहती है कि साल 1953 से 2017 के बीच बारिष और बाढ़ के चलते 3 लाख 65 हजार करोड़ रूपए का नुकसान हुआ है जबकि एक लाख से अधिक लोगों की जान गयी है।
भारी बारिष और बाढ़ की वजह से तबाही होती भी है साथ ही भीशण गर्मी और सूखे भी तबाही के प्रतीक हैं। गरमी के चलते उत्पादन स्तर में लगातार गिरावट आ रहा है। अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन की हालिया रिपोर्ट बताती है कि 2030 तक प्रचण्ड गर्मी के कारण भारत में करीब साढ़े तीन करोड़ नौकरियां खत्म हो जायेंगी जो पूरी दुनिया की तुलना में लगभग आधी हैं। बारिष न हो तो सूखे का डर और हो तो बाढ़ का डर आम जनता करे तो क्या करे। साफ है आगे कुंआ तो पीछे खाई है। अतीत की घटनाओं से सीखना चाहिए। जहां अधिक असर है सरकारों को असरदार काम करना चाहिए। देष में रावी यमुना, गंडक, सतलज, घग्गर, कोसी, तीस्ता, ब्रह्मपुत्रा सहित दामोदर, गोदावरी और साबरमती व अन्य के साथ इनकी सहायक नदियों में पानी किनारों को छोड़ कर दूर तक फैलते हैं। उत्तर प्रदेष में ऐसे क्षेत्र 7 लाख हेक्टेयर से अधिक बिहार में 4 लाख हेक्टेयर से अधिक, पंजाब में 4 लाख हेक्टेयर से थोड़ा कम और असम में 3 लाख हेक्टेयर से अधिक जमीन पर बाढ़ का कब्जा हो जाता है। इसके अलावा भी कई प्रान्त हैं जो इसी प्रकार कम-ज्यादा बाढ़ की चपेट के आंकड़े से युक्त है। जम्मू-कष्मीर की घाटी हो या केरल बाढ़ का स्वाद सभी जानते हैं और इसके कसैलेपन को भी। सरकारें बाढ़ के दिनों में वित्तीय सहायता के साथ एड़ी-चोटी का खूब जोर लगाती हैं मगर यह हर साल की कहानी रहती है। आधा भारत दक्षिण-पष्चिम मानसून के दिनों में पानी-पानी रहता है बस अन्तर यह है कि बिहार और असम और कुछ हद तक पूर्वी उत्तर प्रदेष में यही पानी उनकी नाक की ऊपर से बहता है। 


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Thursday, July 23, 2020

सुरक्षा परिषद में भारत को स्थाई सदस्यता कब!

संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् में स्थायी सदस्यता को लेकर भारत बरसों से प्रयासरत् रहा है। अमेरिका और रूस समेत दुनिया के तमाम देष स्थायी सदस्यता को लेकर भारत पक्षधर भी हैं मगर यह अभी मुमकिन नहीं हो पाया है। फिलहाल भारत 8वीं बार इसी परिशद् में अस्थायी सदस्य के लिए फिर चुन लिया गया जो साल 2021-2022 के लिए है। पड़ताल बताती है कि इसके पहले सात बार अस्थायी सदस्य के रूप में सिलसिलेवार तरीके से 1950-51, 1967-68, और 1972-73 से लेकर 1977-78 समेत 1984-1985, 1991-1992 व 2011-2012 में भी सुरक्षा परिशद् में अस्थायी सदस्य रहा है। जहां तक सवाल स्थायी सदस्यता का है इस पर मामला खटाई में बना हुआ है। विदित हो कि आगामी नवम्बर में अमेरिका में राश्ट्रपति का चुनाव होना है। जाहिर है रिपब्लिकन के डोनाल्ड ट्रम्प व अमेरिका के वर्तमान राश्ट्रपति एक बार फिर मैदान में हैं। हाऊडी मोदी के चलते भारतीय अमेरिकियों के वोट के मामले में ट्रम्प पिछले साल कोषिष कर चुके हैं। इतना ही नहीं मुख्य विपक्षी डेमोक्रेट पार्टी के राश्ट्रपति पद के सम्भावित उम्मीदवार बिडेन भी कुछ ऐसा इरादा जता रहे हैं जिससे कि भारत का रूख अपनी ओर आकर्शित करके सियासी फायदा उठाना चाहते हैं। वैसे भारतीय मूल के अमेरिकी रिपब्लिकन के बजाय डेमोक्रेट की ओर अधिक झुकाव रखते हैं। फिलहाल भारत में अमेरिकी राजदूत रह चुके  रिचर्ड वर्मा के हवाले से यह पता चला है कि यदि बिडेन राश्ट्रपति बनते हैं तो संयुक्त राश्ट्र जैसी अन्तर्राश्ट्रीय संस्थाओं को नया रूप देने में मदद करेंगे ताकि भारत को सुरक्षा परिशद में स्थायी सीट मिल सके। गौरतलब है कि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और रूस समेत चीन इसके पांच स्थायी सदस्य हैं ओर केवल चीन ही ऐसा देष है जो सुरक्षा परिशद में भारत के स्थायी सदस्य बनाने का विरोध करता है। 
सुरक्षा परिशद में स्थायी सदस्यता के मामले में भारत दुनिया भर से समर्थन रखता है सिवाय एक चीन के। ऐसे में परिवर्तन का समय अब आ चुका है। आखिर परिवर्तन की आवष्यकता क्यों है यह भी समझना ठीक रहेगा। असल में सुरक्षा परिशद की स्थापना 1945 की भू-राजनीतिक और द्वितीय विष्वयुद्ध से उपजी स्थिति को देखकर की गयी थी। 75 वर्शों में पृश्ठभूमि अब अलग हो चुकी है। देखा जाय तो षीतयुद्ध की समाप्ति के साथ ही इसमें बड़े सुधार की गुंजाइष थी जो नहीं किया गया। 5 स्थायी सदस्यों में यूरोप का प्रतिनिधित्व सबसे ज्यादा है जबकि आबादी के लिहाज़ से बामुष्किल वह 5 फीसद स्थान घेरता है। अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका का कोई सदस्य इसमें स्थायी नहीं है जबकि संयुक्त राश्ट्र का 50 प्रतिषत कार्य इन्हीं से सम्बन्धित है। ढंाचे में सुधार इसलिए भी होना चाहिए क्योंकि इसमें अमेरिकी वर्चस्व भी दिखता है। भारत की सदस्यता के मामले में दावेदारी बहुत मजबूत दिखाई देती है। जनसंख्या की दृश्टि से दूसरा सबसे बड़ा देष, हालांकि कोरोना के चलते इन दिनों अर्थव्यवस्था पटरी से उतरी है बावजूद इसके प्रगतिषील अर्थव्यवस्था और जीडीपी की दृश्टि से भी प्रमुखता लिए हुए देष है। ऐसे में दावेदारी कहीं अधिक मजबूत है। इतना ही नहीं भारत को विष्व व्यापार संगठन, ब्रिक्स और जी-20 जैसे आर्थिक संगठनों में प्रभावषाली माना जाता है। भारत की विदेष नीति तुलनात्मक प्रखर हुई है और विष्व षान्ति को बढ़ावा देने वाली है साथ ही संयुक्त राश्ट्र की सेना में सबसे ज्यादा सैनिक भेजने वाले देष के नाते भी दावेदारी सर्वाधिक प्रबल है। हालांकि भारत के अलावा कई और देष की स्थायी सदस्यता के लिए नपे-तुले अंदाज में दावेदारी रखने में पीछे नहीं है। जी-4 समूह के चार सदस्य भारत, जर्मनी, ब्राजील और जापान जो एक-दूसरे के लिए स्थायी सदस्यता का समर्थन करते हैं ये सभी इसके हकदार समझे जाते हैं। एल-69 समूह जिसमें भारत, एषिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कई 42 विकासषील देषों के एक समूह की अगुवाई कर रहा है। इस समूह ने भी सुरक्षा परिशद् में सुधार की मांग की है। अफ्रीकी समूह में 54 देष हैं जो सुधारों की वकालत करते हैं। इनकी मांग यह है कि अफ्रीका के कम-से-कम दो राश्ट्रों को वीटो की षक्ति के साथ स्थायी सदस्यता दी जाये। उक्त से यह लगता है कि भारत को स्थायी सदस्यता न मिल पाने के पीछे मेहनत में कोई कमी नहीं है बल्कि चुनौतियां कहीं अधिक बढ़ी हैं। बावजूद इसके यदि भारत को इसमें षीघ्रता के साथ स्थायी सदस्यता मिलती है तो चीन जैसे देषों के वीटो के दुरूपयोग पर न केवल अंकुष लगेगा बल्कि व्याप्त असंतुलन को भी पाटा जा सकेगा। 
सवाल यह है कि भारत को स्थायी सदस्यता की आवष्यकता क्यों है और यह मिल क्यों नहीं रही है और इसके मार्ग में क्या बाधाएं हैं। माना जाता है कि जिस स्थायी सदस्यता को लेकर भारत इतना एड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है वही सदस्यता 1950 के दौर में बड़ी आसानी से सुलभ थी। आवष्यकता की दृश्टि से देखें तो भारत का इसका सदस्य इसलिए होना चाहिए क्योंकि सुरक्षा परिशद प्रमुख निर्णय लेने वाली संस्था है। प्रतिबंध लगाने या अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय के फैसले को लागू करने के लिए इस परिशद के समर्थन की जरूरत पड़ती है। ऐसे में भारत की चीन और पाकिस्तान से निरंतर दुष्मनी के चलते इसका स्थायी सदस्य होना चाहिए। चीन द्वारा पाकिस्तान के आतंकवादियों पर बार-बार वीटो करना इस बात को पुख्ता करता है। साथ ही कुलभूशण जाधव का मामला भी इसका उदाहरण हो सकता है। स्थायी सीट मिलने से भारत को वैष्विक पटल पर अधिक मजबूती से अपनी बात कहने का ताकत मिलेगा। स्थायी सदस्यता से वीटो पावर मिलेगा जो चीन की काट होगी। इसके अलावा बाह्य सुरक्षा खतरों और भारत के खिलाफ सुनियोजित आतंकवाद जैसी गतिविधियों को रोकने में मदद भी मिलेगी। भारत को स्थायी सदस्यता न मिलने के पीछे सुरक्षा परिशद की बनावट और मूलतः चीन का रोड़ा समेत वैष्विक स्थितियां हैं। वैसे चीन न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (एनएसजी) के मामले में भी भारत के लिए रूकावट बनता रहा है। गौरतलब है सुरक्षा परिशद में 5 स्थायी और 10 अस्थायी सदस्य होते हैं। अस्थायी सदस्य देषों को चुनने का उद्देष्य सुरक्षा परिशद में क्षेत्रीय संतुलन कायम करना होता है। जबकि स्थायी सदस्य षक्ति संतुलन के प्रतीत हैं और इनके पास वीटो की ताकत है। इसी ताकत के चलते चीन दषकों से भारत के खिलाफ वीटो का दुरूपयोग कर रहा है। 
अमेरिका में राश्ट्रपति का चुनाव प्रति चार वर्श में होता रहता है जबकि संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद में स्थायी सदस्यता का मामला दषकों पुराना है। यदि अमेरिका जैसे देषों को यह चिंता है तो सुरक्षा परिशद में में बड़े सुधार को सामने लाकर भारत को उसमें जगह देना चाहिए। अभी हाल ही में रूसी विदेष मंत्री ने भी यह कहा है कि स्थायी सदस्यता के लिए भारत मजबूत नाॅमिनी है। वैसे देखा जाय तो दुनिया के कई देष किसी भी महाद्वीप के हों भारत के साथ खड़े हैं मगर नतीजे वहीं के वहीं हैं। डोनाल्ड ट्रम्प कई मामलों में भारत के साथ सकारात्मक हैं और डेमोक्रेट के राश्ट्रपति के सम्भावित उम्मीदवार बिडेन भी स्थायी सदस्यता के मामले में भारत के चहेते दिखते हैं। यह अच्छी बात है कि अमेरिका के दो मूल राजनीतिक दल से भारत का सम्बंध और संवाद बेहतर है मगर उक्त आकर्शण कहीं चुनावी न हो। ऐसे में भारत को कूटनीतिक तरीके से ही समाधान की ओर जाना चाहिए। राश्ट्रपति कोई भी बने रणनीतिक समाधान पर भारत की दृश्टि होनी चाहिए। जाहिर है अमेरिका में चुनाव उसका आन्तरिक मामला है। ध्यानतव्य हो कि 2016 में डोनाल्ड ट्रम्प ने चुनावी प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री मोदी की अक्सर तारीफ करते थे और नतीजे उनके पक्ष में आये। कहीं ऐसा तो नहीं कि डेमोक्रेट के बिडेन सुरक्षा परिशद में भारत को स्थायी सदस्य के रूप में लाने का इरादा चुनावी फायदे में बदलने का हो। फिलहाल इरादा कुछ भी हो भारत को परिणाम से मतलब रखना चाहिए जो बाद में ही पता चलेगा पर सबके बावजूद यह सवाल उठता रहेगा कि आखिर संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद में भारत को स्थायी सदस्यता कब मिलेगी।



डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
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चाबहार पर किसकी कीमत चुकाया भारत

साल 2016 में प्रधानमंत्री मोदी की ईरान यात्रा के दौरान दोनों देषों के बीच चाबहार समझौते पर हस्ताक्षर किये गये थे। तब उन दिनों रणनीतिक और कूटनीतिक दृश्टि से इसे बहुत बड़ी सफलता के रूप में देखा गया था। मगर चीन से समझौता करके ईरान ने इस परियोजना से भारत को बाहर कर दोहरा झटका दिया है। पहला संकेत यह दिया कि भारत के साथ उसका द्विपक्षीय सम्बंध फिलहाल खटाई में हैं। दूसरा भारत की दुखती रग चीन की सेंधमारी कराकर चाबहार से बाहर का रास्ता दिखाना। उक्त से तो यह लगता है कि दुनिया के समीकरण बदल रहे हैं और उसी का यह नतीजा है। गौरतलब है कि ईरान और चीन की अमेरिका के प्रति नाराज़गी कोई नई बात नहीं है और अमेरिका से भारत की प्रगाढ़ता काफी समय से बरकरार है। अमेरिकी दबाव में मई 2019 से भारत ईरान से तेल खरीदना भी बंद कर दिया था। यह भारत-ईरान द्विपक्षीय सम्बंधों में तनाव का एक कारण कहा जा सकता है। चाबहार रेल परियोजना से भारत को कई फायदे थे अब यही परेषानी की वजह बन जायेंगे। जिसमें पहली परेषानी अफगानिस्तान के रास्ते मध्य एषियाई देषों तक कारोबार करने की भारत की रणनीति गड़बड़ा जायेगी। दूसरा इस क्षेत्र में चीन की कम्पनियों की बड़ी भागीदारी हो जायेगी। गौरतलब है कि चीन भारत को लेकर कहीं अधिक नकारात्मक रवैया रखता है और जिस तर्ज पर इन दिनों ईरान और चीन का अमेरिका से छत्तीस का आंकड़ा है और अमेरिका का भारत की ओर झुकाव है उसे देखते हुए ईरान और चीन के बीच के इस गठजोड़ को अवसरवाद से युक्त माना जायेगा। फिलहाल भारत इस मामले में बैकफुट पर तो चला गया है। साल 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा चाबहार को विकसित करने को लेकर सहमति बनी थी बरसों तक खटाई में रहने वाले इस समझौते को मोदी ने 2016 में ईरान दौरे के दौरान संजीदा बनाने की सकारात्मक कूटनीति की। जिस पर अब ड्रैगन का पंजा पड़ गया है।
ईरान ने चाबहार रेल प्रोजेक्ट से भारत को अलग कर दिया है। इसकी वजह भारत से फण्ड मिलने में देरी कहा जा रहा है। गौरतलब है कि भारत की ओर से इण्डियन रेलवेज़ कन्सट्रक्षन लिमिटेड (इरकाॅन) को इस रेल निर्माण में षामिल होना था। जो अब हाथ से निकल चुका है। भारत के लिये यह मध्य एषिया, रूस और यहां तक की यूरोप तक पहुंचने का एक प्रयास था। चाबहार बंदरगाह को रेल नेटवर्क से भी जोड़ने का प्रस्ताव था और इसमें भारत भी मदद करने वाला था साथ ही इसकी क्षमता भी बढ़ाने की बात थी। इतना ही नहीं चाबहार समझौता पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट का जवाब भी माना जा रहा था। जिसके बीच की दूरी 70 किलोमीटर है। अब यह आषंका जोर पकड़ लिया है कि चीन के साथ नज़दीकी बढ़ाने के चलते ईरान चाबहार बंदरगाह को चीन को लीज़ पर दे सकता है। हालांकि ईरानी मीडिया में इस बात को खण्डन किया है। दुविधा यह भी है कि ईरान पर अमेरिका ने जिस प्रकार प्रतिबंध लगाये और जिस तरह उसके दबाव में भारत ने भी कदम उठाये वह अब यह उसी की चुकाई गयी कीमत लगती है। वाजिब तर्क यह भी है कि ईरान की अर्थव्यवस्था को अमेरिका ने पूरी तरह जकड़ दिया है और भारत भी मई 2019 से तेल की खरीदारी बंद किया हुआ था। बल्कि ईरान की तुलना में महंगे और प्रीमियम के साथ दूसरे देषों से तेल खरीद रहा है। कह सकते हैं कि जिस प्रकार पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका के हटने के बाद भारत ने किसी प्रभाव में अपने कदम पीछे नहीं खींचे और रूस से एस-400 की खरीदारी समझौते के बाद समेत कई मामलों में अमेरिकी दबाव के आगे भारत नहीं झुका तो फिर ईरान के मामले में यह कदम क्यों उठाया। ईरान की अपेक्षाओं में षायद भारत उतना मददगार देष नहीं रहा। ऐसे में वह चाबहार को उसके लिए कैसे सुरक्षित रखे। षायद यही बड़ा कारण था कि चीन के झांसे में वह आ गया। चीन उसके साथ लम्बा समझौता कर रहा है उसे पैसे दे रहा है। ऐसे में उसने अपनी रणनीति बदल दी। 
चीन और ईरान के बीच जो समझौते हुए हैं उसका असर भारत समेत दुनिया पर भी पड़ेगा। चीन ईरान के तेल और गैस उद्योग में 280 अरब डाॅलर का निवेष करेगा। उत्पादन और परिवहन के आधारभूत ढांचे के विकास हेतु 120 बिलियन डाॅलर का निवेष भी रहेगा, 2जी तकनीक के लिए आधारभूत संरचना देना इसके अलावा बैंकिंग, टेलीकम्यूनिकेषन, बंदरगाह, रेलवे और दर्जनों अन्य ईरानी परियोजनाओं में बड़े पैमाने पर वह अपनी भागीदारी बढ़ायेगा साथ ही साझा सैन्य अभ्यास और षोध की भी बात है। इतना ही नहीं दोनों देष मिलकर हथियारों का निर्माण करेंगे, खूफीया जानकारी के साझा करेंगे। इन सबके बदले ईरान चीन को 25 वर्श तक नियमित रूप से बहुत सस्ते दर पर कच्चा तेल और गैस मुहैया करायेगा। गौरतलब है यह समझौता ऐसे समय में हो रहा है जब दुनिया कोविड-19 की महामारी में जूझ रही है और जिसका पिता चीन ही है। चीन ने दुनिया समेत भारत को कोरोना में झोंका और अब भारत के लिए सीमा विवाद से लेकर ईरान में हुए समझौते तक पीछे छोड़ने में लगा है। कह सकते हैं कि भारत को अमेरिकी प्रगाढ़ता की भारी कीमत चुकानी पड़ी है। चीन और ईरान का सहयोगी होना इसलिए भी स्वाभाविक लगता है क्योंकि यह दोनों देष अमेरिका और पष्चिमी देषों के प्रभुत्व से नाखुष रहे हैं। चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है जबकि ईरान पष्चिमी एषिया की सबसे बड़ी ताकत है। ये दोनों इसलिए भी साथ आये ताकि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला अमेरिका की धौंस और दबाव को निस्तोनाबूत किया जा सके। ईरान के पास प्राकृतिक गैसों का भण्डार है और रूस के बाद यह सबसे बड़ा नेचुरल गैस रिज़र्व है। इसके बाद सऊदी अरब का नम्बर आता है। यहां भी चीन ईरान से हाथ मिलाकर सऊदी अरब के एकाधिकार को चुनौती देना चाहता है। यहां बता दें कि ईरान से तेल न लेने के बाद भारत की निर्भरता सऊदी अरब पर अधिक बढ़ गयी है। चीन यहां भी संतुलन साधने का कोई अवसर नहीं छोड़ा है और ईरान को उसके विकल्प के तौर पर पेष करने की फिराक में है। 
चाबहार बंदरगाह पर ड्रैगन की नजर कई कारण लिये हुए है। वन बेल्ट, वन रोड की महत्वाकांक्षी परियोजना को भी चीन इसके चलते और प्रबल बनाने का भी मनसूबा रखता है। पाकिस्तान जो उसका आर्थिक गुलाम है उसके ग्वादर पोर्ट से चाबहार को रणनीति के रूप में इस्तेमाल करने का मन भी रखता है। मध्य एषिया एवं खाड़ी देषों के अलावा कई क्षेत्रों मसलन अफ्रीका और यूरोप की दौड़ पक्की करने की भी फिराक में है। गौरतलब है कि चीन अफ्रीका के कई देषों में खेती के लिए लीज़ पर जमीन लिया है। उसके लिए भी बाजार और आवागमन का कुछ विचार रखा ही होगा। दक्षिण चीन सागर से हिन्द महासागर तक और दुनिया की जमीन नापने की फिराक में चीन की विस्तारवादी नीति हमेषा रही है। मगर यह इसलिए कश्टकारी है क्योंकि चाबहार को लेकर भारत चार साल पहले संधि का रूप दे चुका था और कदम भी बढ़ा चुका था। हो न हो यह भारत के लिए दोहरा आघात है। वैसे भारत षान्ति और सद्भावना का देष है उसकी भी कीमत उसे चुकानी पड़ रही है।
चाबहार के इतिहास में जायें तो पता चलता है कि इस बंदरगाह का विकास पहली बार 1973 में ईरान के अंतिम षाह ने प्रस्तावित किया था। हालांकि 1979 की ईरानी क्रान्ति से इसके विकास में देरी आयी। यहां स्पश्ट कर दें कि अमेरिका और ईरान के बीच इसी साल से तनातनी भी षुरू हुई। पोर्ट का पहला चरण 1983 में ईरान-इराक युद्ध के समय षुरू हो गया था। असल में ईरान ने फारस की खाड़ी में बंदरगाहों पर निर्भरता को कम करने के लिए पाकिस्तानी सीमा की तरफ और पूर्व में समुद्री व्यापार को स्थानांतरिक करना षुरू कर दिया था। ऐसा इराकी वायुसेना के हमले के चलते सुरक्षा के तौर पर किया गया था। बंदरगाह को लेकर पहली बार भारत और ईरान 2003 विकसित करने की योजना बनायी तब देष के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे। लेकिन ईरान के खिलाफ प्रतिबंधों के चलते यह काम आगे नहीं बढ़ा। लम्बे समय तक खटाई में रहने के बाद मई 2016 में प्रधानमंत्री मोदी की ईरान यात्रा हुई उसी दौरान द्विपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर हुए तभी से यह भारत के लिए एक उज्जवल भविश्य का रूप ले लिया। जिसका दीया फिलहाल चीन बझाते हुए दिख रहा है। समझौते के दो महीने बाद से भारत ने पोर्ट कन्टेनर पटरियों को विकसित करने और इरकाॅन इंटरनेषनल द्वारा रेल पटरियों की षिपिंग षुरू की जिसके लिए 150 मिलियन अमेरिकी डाॅलर का खर्च था। इतना ही नहीं क्रमिक तौर पर भारत इस दिषा में आगे बढ़ रहा था। भारत ने अफगानिस्तान को गेहूं की पहली खेप अक्टूबर 2017 में इसी पोर्ट के माध्यम से भेजा था और एक साल बाद बंदरगाह के संचालन को भारत ने संभाला। स्थिति इतनी खराब नहीं थी जितनी तेजी से ईरान ने चीन से गठजोड़ करके भारत को दरकिनार करने का प्रयास किया है। गौरतलब है कि चाबहार बंदरगाह मध्य एषिया का प्रवेष द्वार है और वर्तमान में रूस और यूरोप के साथ व्यापार करने के हब के रूप में देखा जा सकता है। ईरान के कुल समुद्री व्यापार के 85 फीसदी हिस्से में यही आता है।
फिलहाल भारत ईरान के पुराने सम्बंध में नया मोड़ आ गया है। इतिहास में झांके तो पता चलता है कि दोनों के बीच सदियों पुराना नाता है। मगर मौजूदा स्थिति को देखें तो यहां ईरान की मौका परस्ती है। निकट भविश्य में भारत, ईरान इस कदम को लेकर प्रतिसंतुलन का सिद्धांत कैसे गढ़ेगा कहना कठिन है। आर्थिक और सामरिक हित को ध्यान में रखते हुए कुछ कदम तो भारत को उठाने चाहिए। पष्चिम एषिया के अन्य देष जैसे ईराक, सऊदी अरब, इज़राइल एवं कुछ अन्य के साथ सम्बंध प्रगाढ़ता की ओर भारत तेजी से जा सकता है। फिलहाल अगले 25 वर्शों में चीन ने ईरान को 400 अरब डाॅलर का लाॅलीपोप देकर अपनी दखल तो बढ़ा लिया है। यहां सवाल चाबहार पर चीन की दखल का ही नहीं है बल्कि भारत के उन सपनों का भी है जिसे उसने खुली आंखों से देखा था। इस पोर्ट के भरोसे मध्य एषिया में पहुंच और पाकिस्तान को प्रतिसंतुलित करने का जो विचार था वह भी कमजोर हुआ है। भारतीय उत्पादों को रेल मार्ग से यूरोप तक बहुत कम समय में पहुंचाने का जो सपना था उसको भी धक्का पहुंचा है। गौरतलब है कि यह रेल प्रोजेक्ट चाबहार पोर्ट से जाहेदान के बीच है और भारत की तैयारी इससे आगे तुर्कमेनिस्तान के बाॅर्डर सराख तक पहुंचने की थी जो अब सम्भव नहीं है। वैसे भारत और ईरान के बीच मौर्य तथा गुप्त षासकों के काल से ही ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक सम्बंध रहे हैं। स्वतंत्रता के षुरूआती दिनों में दोनों देषों के बीच 15 मार्च 1950 को षान्ति और मैत्री संधि पर हस्ताक्षर हुए। हालांकि षीत युद्ध के दौरान अच्छे सम्बंध नहीं थे तब ईरान का अमेरिकी गुट में षामिल होने के चलते ऐसा हुआ और अब भारत की ओर अमेरिका का झुकाव के कारण ऐसा होता दिखाई दे रहा है। साफ है कि सम्बंध और रणनीति चाहे द्विपक्षीय हों या बहुपक्षीय एक जैसे कभी नहीं रहते। फिलहाल भारत का पड़ोसी दुष्मन चीन भारत के पुराने और सकारात्मक सम्बंधों वाले देष ईरान से संधि कर ली है। अब भारत चाबहार रेल प्रोजेक्ट से बाहर होता दिख रहा है। वैसे समझौते रास्तों में अड़चन तो पैदा कर सकते हैं पर मंजिल से अलग नहीं कर सकते। इसी तर्ज पर भारत को आगे कदम बढ़ाना चाहिए।



डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

लॉक व अनलॉक की प्रयोगशाला बनता देश

जब 24 मार्च की षाम प्रधानमंत्री मोदी ने सम्पूर्ण देष में लाॅकडाउन होने की मुनादी की तब पूरे देष में कोरोना के बामुष्किल 5 सौ मामले थे। यह उम्मीद की गयी थी कि भारत का यह कदम दुनिया के लिए नजीर बनेगा और कोरोना औंधे मुंह गिरेगा। मगर जुलाई के पहले पखवाड़े तक तस्वीर बिल्कुल बदली है। प्रतिदिन 25 हजार एवं इससे अधिक कोरोना पीड़ितों की संख्या का बढ़ना और सैकड़ों की तादाद में मरने का आंकड़ा यह सवाल खड़ा कर दिया है कि आखिर लाॅकडाउन से क्या उम्मीद थी और क्या नतीजे हैं। इतना ही नहीं कोरोना जब देष में भीशण तरीके से अपना नेटवर्क फैला रहा था तब उसी दौरान सरकार जून की षुरूआत से ही अनलाॅक का मनसूबा पाल रही थी नतीजन देष लाॅकडाउन से उबर कर अनलाॅक में चला गया और यहीं से कोरोना के प्रवाह के साथ हो चला। पहले चिंता थी कोरोना से हर एक को बचाना बाद में यही चिंता इस चिंतन में बदल गयी कि भले ही भारत में कोरोना बड़े तादाद में बढ़ रहा हो पर मौत का आंकड़ा तुलनात्मक बहुत कम है। लाॅकडाउन के लाभ को अभी तक समझा नहीं जा सका है मगर नुकसान सभी का पसीना निकाल रहा है। कारोबार बंद है कुछ को छोड़कर साथ ही हाॅस्पिटल कोरोना मरीजों से पटे हैं। अमिताभ बच्चन से लेकर अनुपम खेर और कई जानी-मानी हस्तियों के घरों तक इसकी दस्तक हो चुकी है। महाराश्ट्र में तो मानो राजभवन ही क्वारंटीन है और मुम्बई इस मकड़जाल से मुक्त ही नहीं हो पा रही है वहां लाॅकडाउन जैसी स्थिति बरकरार है। कोरोना के मामले में उत्तर प्रदेष सहित बिहार आंकड़े के लिहाज़ से समतल राह पर तो दिखते हैं मगर अनलाॅक के चलते हुई लापरवाही ने यहां भी भीशण तबाही का राह बना दिया। लिहाजा उत्तर प्रदेष की सरकार ने प्रत्येक षनिवार और रविवार को पूर्ण लाॅकडाउन का प्रयोग षुरू किया जबकि बिहार 16 से 31 जुलाई तक लाॅकडाउन तक लाॅकडाउन में चला गया। इतना ही नहीं देष के कई क्षेत्रों में कमोबेष इसी तरीके के प्रयोग करते देखे जा सकते हैं। 
भारत में कोरोना वायरस का संक्रमण कब उतार पर होगा अंदाजा लगाना सरकार के बूते की भी बात नहीं है। कोरोना मामले में हर नये दिन नये रिकाॅर्ड बनना और इसका विकराल रूप सरकारी तंत्र का भी होष पख्ता कर दिया है इसी के चलते कई राज्यों में मिनी लाॅकडाउन लागू किये जा रहे हैं। उत्तर प्रदेष में षनिवार और रविवार का लाॅकडाउन के पहले 10 से 13 जुलाई तीन दिनी मिनी लाॅकडाउन किया जा चुका है। पंजाब में थोड़ी-मोड़ी जो छूट चल रही थी बढ़े हुए आंकड़े ने उसे फिर वहीं खड़ा कर दिया। गौरतलब है पंजाब ऐसा राज्य है जहां लाॅकडाउन के नियमों में और भी सख्ती कर दी गयी है यहां पैदल गैदरिंग को भी पूरी तरह रोक लगा दी गयी है। मास्क दफ्तरों में पहनना भी जरूरी है यहां आंकड़ा 8 हजार पार कर रहा है। झारखण्ड में भी कोरोना रूक नहीं रहा है। हालांकि यहां सम्पूर्ण लाॅकडाउन नहीं है मगर कुछ जिलों में लाॅकडाउन जैसी पाबंदियां हैं। महाराश्ट्र के पुणे में 23 जुलाई तक लाॅकडाउन किया गया है आगे क्या होगा, पता नहीं। तकनीकी कारोबार के लिए जाना जाने वाला बंगलुरू 14 से 22 जुलाई तक षहर और ग्रामीण सभी जगहों पर पूरी तरह लाॅकडाउन कर दिया गया। ऐसी ही स्थितियां गुवाहाटी, नागालैंड और षिलांग में भी कमोबेष देखी जा सकती है। एक प्रकार से ये छोटे-छोटे स्तर के लाॅकडाउन यह इषारा कर रहे हैं कि या तो जब देष लाॅकडाउन में था तब यहां उदासीनता बरती गयी या फिर लोगों ने कोरोना को हल्के में लिया। मिषन बिगिन अगेन अर्थात् लाॅकडाउन अगेन ये महाराश्ट्र का तो मानो ष्लोगन ही बन गया है। गौरतलब है कि महाराश्ट्र देष का सबसे कोरोना पीड़ित राज्य है और मुम्बई सबसे बड़ा षहर। ऐसे में नाप-तौल कर भी देखा जाय तो कोरोना का पलड़ा किसी भी लाॅकडाउन को लांघने में संकोच नहीं कर रहा है। 
भारत में जब लाॅकडाउन की घोशणा हुई तो यह चार चरणों से गुजरता हुआ कुल 69 दिन का था। भारत में कोरोना पीड़ितों की संख्या 9 लाख के आंकड़ों के आसपास है। चीन के वुहान की यह महामारी चीन में 76 दिन के लाॅकडाउन में उसे 84 हजार पीड़ित और 34 सौ की मौत के बदले मुक्ति दे दी परन्तु भारत समेत दुनिया के कई देष इस उधार की बीमारी की कीमत सूद समेत अभी भी चुका रहे हैं। भारत में मरने वालों का आंकड़ा 22 हजार से पार हो गया है जबकि अमेरिका इसी मामले में डेढ़ लाख के आसपास है। कोरोना कब खत्म होगा किसी के पास ठोस जवाब नहीं है। इटली 84 दिनों तक लाॅकडाउन में रहा। जहां 32 हजार लोग मरे और ढ़ाई लाख के आसपास संक्रमित हुए। सिंगापुर जैसे देष कोरोना बचने के लिए जाने जाते हैं पर इस समय वे भी तबाही में फंसे है। ब्रिटेन 71 दिन के लाॅकडाउन में रहा मगर 35 हजार लोगों की मौत यहां भी हुई और ढ़ाई लाख लोग प्रभावित हुए। स्पेन भी ब्रिटेन के बराबर ही लाॅकडाउन में रहा और यहां का डेटा मरने और प्रभावित दोनों के मामले में ब्रिटेन से थोड़ा कम है। सवाल खड़ा हो या लेटा पर उत्तर इस चाहत में है कि किस कीमत पर कोरोना से मुक्ति मिलेगी। भारत गांवों का देष है जो मजदूर या कामगार षहरों को छोड़कर गांव गये वहां उनके सामने अब दो समस्याएं हैं एक रोज़गार की दूसरे उन्हीं के द्वारा पहुंचे कोरोना की। हालांकि भारत में इसके चलते मृत्यु दर कम है और जनसंख्या के लिहाज़ से पीड़ितों की संख्या भी कम है मगर उस भय का क्या करेंगे जो 130 करोड़ लोगों में है। फिलहाल कोरोना से उपजी समस्या के चलते काम-धंधे, रोजी-रोज़गार और यहां तक की मन और विचार अवसाद की ओर चले गये हैं। 
कोरोना वायरस महामारी को रोकने के लिए दुनिया ने लाॅकडाउन का सहारा लिया और जब तक लाॅकडाउन चलता रहा यह उम्मीद रही कि इस पर विजय पायी जा सकेगी हालांकि इस दौर में भी संक्रमण विकराल रूप लिए हुए था। लाॅकडाउन में ढ़ील के बाद तो स्थिति कई गुने में परिवर्तित हो गयी हालांकि विषेशज्ञ लाॅकडाउन हटाने के बारे में अपने ढंग की चेतावनी भी दी थी। डब्ल्यूएचओ ने भी लाॅकडाउन खोलने का तरीका बताया था पर इस बीमारी ने किसी भी नियम को सफल नहीं होने दिया। अस्पताल, बैंक, किरानों की दुकान और अन्य वस्तुओं को छोड़कर सभी की अर्थव्यवस्था अभी भी हाषिये पर है। हालांकि हिम्मत करके कई अन्य क्षेत्रों में कदम उठाये जा चुके हैं मगर यह प्रयोग कितना सफल है अभी कहना कठिन है। महीनों पहले लाॅकडाउन के कई फायदे लोग गिनाते थे अब केवल नुकसान बताते हैं। देष में कोरोना इतने मजबूत लाॅकडाउन के बीच क्यों बढ़ गया इसके दो कारण हैं पहला लोगों की आर्थिक स्थिति ने बाहर निकलने के लिए मजबूर किया, दूसरा सरकार द्वारा किया गया अनलाॅक। फिलहाल षिक्षा चैपट है, परीक्षाएं खतरे में हैं मजदूरों के बाद अब मध्यम वर्ग की आर्थिक दषा टूट रही है और देष भी आर्थिक दृश्टि से अभी खड़ा नहीं हुआ है ऐसे में कई दुविधाओं से सरकार भी भरी है। क्या करें, क्या न करें असमंजस उसमें भी है। सरकार भी यह प्रयोग कर रही है कि कोरोना कैसे कम हो। यही कारण है कि आंषिक और मिनी लाॅकडाउन करके इसका रास्ता खोज रही है पर यह पुख्ता है दावे से वह भी नहीं कह सकती है।



डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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कोरोना युद्ध के बीच जीवन संघर्ष

दो दषक पहले सिविल सेवा मुख्य परीक्षा के निबंध प्रष्न पत्र में एक सवाल यह भी था कि “सत्य जिया जाता है, सत्य सिखाया नहीं जाता।” जाहिर है जीवन के सबक न तो प्रयोगषाला में और न ही किसी विष्वविद्यालय में उपलब्ध है। दूसरे षब्दों में कहा जाय तो किसी वृक्ष को यह बताने की जरूरत नहीं कि उसे क्या फल देना है। दो टूक यह भी है कि आज के जीवन में आभासी और वास्तविक के बीच भी युद्ध छिड़ा है और इसी में कोरोना की एंट्री ने एक खतरनाक मोड़ पर सभ्यता को खड़ा कर दिया है। प्रषासनिक चिंतक डाॅनहम ने कहा है कि यदि हमारी सभ्यता नश्ट होती है तो ऐसा प्रषासन के कारण होगा मगर यह किसी ने नहीं बताया कि यदि षासन-प्रषासन के बूते से बाहर कोरोना जैसी समस्याएं विस्तार लें ले तो सभ्यता बचाने के लिए जनता को कितना तैयार रहना चाहिए और यदि ऐसा नहीं होता है तो आखिरकार जिम्मेदार कौन होगा। इस समय भारत कोरोना की चपेट में आर्थिक, सामाजिक, मानसिक, षिक्षा, स्वास्थ सहित तमाम मामलों में पटरी से उतर चुका है। हालांकि सरकार अपने संसाधनों की सीमा में सब कुछ पहले जैसा करने की फिराक में है पर मुसीबत के आगे नियोजन और क्रियान्वयन उस गति को प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं। देखा जाय तो कोरोना युद्ध के बीच जीवन एक नये संघर्श से जूझ रहा है जिसमें न केवल जीवन मूल्य को चुनौती मिल रही है बल्कि अस्तित्व भी खतरे में है और अब पुरानी चुनौती बढ़ी बेरोज़गारी के अलावा अवसाद और आत्महत्या का पर्दापण भी तेजी से हो रहा है। दार्षनिक लहज़े में कहें तो वर्तमान दौर जीवन संघर्श का एक ऐसा आयाम लेकर आया है जिसमें सभी जीवन जीने की नई कला अपनाने की फिराक में लगे हैं। 
संयुक्त राश्ट्र की एक एजेन्सी के अनुसार कोरोना वायरस की महामारी के कारण दुनिया भर में ढ़ाई करोड़ नौकरियां खत्म हो सकती हैं। मगर सन्दर्भ यह भी है कि अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर समन्वित नीतिगत कार्यवाहियों के जरिये वैष्विक बेरोज़गारी पर कोरोना के प्रभाव को कम करने में मदद मिल सकती है। इन दिनों दुनिया कोविड-19 के अलावा बेरोज़गारी, अवसाद और आत्महत्या की चुनौती का भी सामना कर रही है। जिस तरह तेजी से कोरोना ने दुनिया समेत भारत को अपनी जकड़ में लिया वह सभी समस्याओं को एक साथ उत्पन्न कर दिया। जीवन बचाने की फिराक में देष बंदी की गयी परन्तु इसका भी साइड इफेक्ट देखने को मिला। गौरतलब है देष व्यापी लाॅकडाउन के दौरान मानसिक अवसाद भी तेजी से बढ़ने लगे और कमोबेष अब तो आत्महत्या की खबरे भी आने लगी हैं। इस वायरस के डर के चलते लोग अवसाद और घबराहट का अभी भी षिकार हो रहे हैं। अपनी परिवार की सेहत की चिंता को लेकर व स्वयं को संक्रमित होने की डर से कुछ ने अपनी नींद भी उड़ा ली है। ऐसा नहीं है कि यह समस्या भारत में ही है। इसका उदाहरण पूरी दुनिया हो गयी है। एषियन जर्नल और सायकाइट्री में छपी एक रिसर्च के अनुसार 40 फीसदी भारतीय इस महामारी के बारे में सोचते हैं तो उनका दिमाग अस्थिर हो जाता है जबकि अमेरिका में केजर फैमिली फाउंडेषन के जरिये ये पता चलता है कि 45 फीसदी अमेरिकी लोगों ने यह माना है कि उनकी मानसिक स्थिति को नुकसान हुआ है। ब्रिटेन में यूनिवर्सिटी आॅफ षेफील्ड और अल्सटर यूनिवर्सिटी की स्टडी के मुताबिक लाॅकडाउन के बाद 38 फीसदी लोग डिप्रेषन यानि अवसाद में चले गये। यह कुछ भारी-भरकम और मजबूत आर्थिक संरचना वाले देषों के बारे में है। जबकि दुनिया के बाकी देष जहां-जहां कोरोना ने करामात किया है वहां भी ऐसी स्थितियों से वे मुक्त नहीं हैं। 
जैसे रोज़गार सभी समस्याओं का हल है वैसे ही बेरोज़गारी केवल समस्या नहीं बल्कि यह कई समस्याओं की जड़ है। इसके अंदर जा कर देखें तो अवसाद और घबराहट जैसी बीमारियां भरी हुई हैं। 12 फीसदी भारतीयों को भी कोरोना के डर से नींद नहीं आती है जो अपने आप में कई अवसाद को जन्म दे सकता है। एक महीना पहले जब दुनिया कोरोना महामारी के बड़ी तबाही से गुजर रही थी हालांकि अभी भी यह तबाही का मीटर बढ़ता जा रहा है तब संयुक्त राश्ट्र महासचिव एंटेनियो गुटरस पूरी दुनिया को मानसिक स्वास्थ को लेकर आगाह कर रहे थे। उन्होंने सभी देषों की सरकारों, नागरिक समूहों और स्वास्थ अधिकारियों से मानसिक स्वास्थ से भरे मसलों पर गम्भीरता से ध्यान देने की अपील की। कोविड-19 के कारण जो समस्याएं आर्थिक के अलावा संरचनात्मक एवं प्रत्यक्ष सेहत से जुड़ी हैं उसको समझना षायद मुष्किल नहीं है मगर जो अवसाद और मानसिक समस्या की बढ़ती तादाद है वह प्रत्यक्ष कुछ और, अप्रत्यक्ष कुछ और हो सकती है। वल्र्ड हेल्थ आॅरगेनाइजेषन (डब्ल्यूएचओ) की एक रिपोर्ट को देखें तो 7 फीसद से अधिक भारतीयों को किसी न किसी तरह का मानसिक रोग है और इनमें से 70 फीसदी का इलाज मिल पाता है। इसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि 2020 में भारत की 20 प्रतिषत जनसंख्या का मानसिक स्वास्थ ठीक नहीं रहेगा। जाहिर है महज 4 हजार विषेशज्ञों के लिहाज से यह संख्या बहुत ज्यादा है। अमेरिका में कोरोना वायरस से हुई मौत का बाकियों पर बहुत आघात पहुंचा है। केजर फैमिली फाउंडेषन के सर्वे यह बता ही चुके हैं कि यहां 50 फीसद लोग मान गये हैं कि उनके दिमागी संतुलन को कोरोना खराब कर रहा है। ब्रिटेन ने भी इन दिनों डिप्रेषन की मात्रा तेजी से बढ़ रही है। चैकाने वाली बात यह है कि ब्रिटेन में लाॅकडाउन की घोशणा से एक दिन पहले अवसाद के मामले 16 फीसद और घबराहट के 17 फीसद ही थे। अब तो यह दोगुने से भी अधिक है। 
कोरोना संकट के बीच अब भारत में बेरोज़गारी मुखर हो रही है। देष में बेरोज़गारी बढ़ी है, काम-धंधे बुरी तरह चैपट हुए हैं। केवल असंगठित नहीं बल्कि संगठित क्षेत्र में भी ऐसे खतरे देखे जा सकते हैं। सेंटर फाॅर माॅनिटरिंग इण्डियन इकोनाॅमी की रिपोर्ट में साफ है कि अप्रैल में मासिक बेरोज़गारी दर करीब 24 प्रतिषत दर्ज की गयी जो मार्च में 8 प्रतिषत से नीचे थे। इसमें कोई दुविधा नहीं कि लाॅकडाउन में लोगों के हाथों से रोज़गार फिसलते रहे। मुम्बई स्थित थिंक टैंक ने कहा है कि बेरोज़गारी की दर षहरी क्षेत्रों में सबसे अधिक 29 फीसदी से अधिक रही जबकि कोविड-19 के कारण अधिक प्रभावित इलाकों में रेड जोन अधिक रहा। ग्रामीण क्षेत्रों में भी बेरोज़गारी 27 फीसदी पहुंचने की बात कही गयी है। ये आंकड़े थोड़े पुराने हैं हालात जिस तरीके से अभी भी बने हुए हैं इस प्रतिषत का पिरामिड बड़ा हो रहा है। वैसे राज्यवार अप्रैल माह में ही देखें तो पुदुचेरी में बेरोज़गारी 75 फीसदी के पार चली गयी जबकि तमिलनाडु में 50 फीसद, बिहरी और झारखण्ड में 47, हरियाणा में 43 और कर्नाटक में 30 जबकि उत्तर प्रदेष में यह आंकड़ा 21 फीसदी से अधिक है और कमोबेष यही स्थिति महाराश्ट्र की भी है। पहाड़ी राज्यों में बेरोज़गारी दर मैदान की तुलना में उतनी बढ़त नहीं ली मगर परेषानी मानो बराबर की बनी हुई है। आंकड़ों की राह पर थोड़ी देर सफर करें तो पता चलता है कि लोग कोरोना से ग्रस्त होते गये और देष दुनिया तबाह होती गयी। भारत में बेरोज़गारी की दर मई में अप्रैल जैसी ही रही। जाहिर है अब यह आंकड़ा बढ़ा होगा। लाॅकडाउन में ढ़ील दिये जाने या अनलाॅक के बावजूद रोज़गार को लेकर कोई खास परिवर्तन नहीं दिखा। बेरोज़गारी के मामले में यह अब तक का सबसे चरम है। चेहरे मुरझाये हैं और होठों पर एक आभासी मुस्कान जो वास्तव में वास्तविक नहीं है।  


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

सीमा सड़क को लेकर कहाँ खड़ा है भारत

लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन के साथ बढ़ते तनाव के बीच भारत ने सीमा पर सड़कों के निर्माण में तेजी लाने का फैसला लिया है। सामरिक दृश्टि से यह सवाल वाजिब है कि भारत चीन के मुकाबले सीमा-सड़क के मामले में कहां खड़ा है। सीमा पर सड़क के मकड़जाल को लेकर जो काम चीन ने किया है उससे भारत अभी मीलों पीछे है। मगर ढ़ाई साल की तत्परता से अब यह बात पूरी तरह नहीं कही जा सकती। दरअसल सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) ने सीमा पर 2018 में सड़क निर्माण का कार्य षुरू किया था इस प्रोजेक्ट के तहत 5 साल में लगभग 3323 किमी लम्बी 272 सड़कों का निर्माण करना था मगर ढ़ाई साल में ही 2304 किमी सड़कों का निर्माण कार्य पूरा कर लिया गया। जिनमें से 61 सड़कें ऐसी हैं जो रणनीतिक दृश्टि से बड़ी अहम हैं। यही वजह है कि भारत के इस मामले में मजबूत होती स्थिति को देखते हुए चीन को कड़ी चुनौती का डर सताने लगा। और आरोप मढ़ दिया कि भारतीय सेना लद्दाख के पास चीन की सीमा स्थित बाइजिंग और लुजिन दुआन सेक्षन में अवैध रूप में प्रवेष किया है तथा अवैध निर्माण में लगी है। जबकि सड़क का निर्माण भारत द्वारा गलवान नदी के किनारे अपनी सीमा में किया जा रहा है। दारबुक-ष्योक-दौलत बेग ओल्डी सड़क को लेकर चीन को हमेषा दिक्कत रही है। मौजूदा विवाद भी गलवान नदी और पैंगोंग सो झील के आसपास के चार इलाकों में निर्माण को लेकर देखा जा सकता है। इसी विवाद के चलते हुई झड़प में भारत के 20 सैनिक षहीद हुए जबकि चीन के 40 से अधिक सैनिक मारे गये। गलवान क्षेत्र में मौजूदा समय में भी भारत और चीन की सेना तैनात है और तनाव बन हुआ है। देखा जाय तो दोनों देषों के बीच 3488 किमी लम्बी सीमा पर कई ऐसे बिन्दु हैं जिस पर चीन विवाद खड़ा करता रहता है। साल 1962 में दोनों देष दो अलग-अलग मोर्चों पर युद्ध लड़ चुके हैं। 1993 से 2014 के बीच आधा दर्जन से अधिक समझौते हो चुके हैं बावजूद इसके समस्या तनिक मात्र भी हल नहीं हुई है। दरअसल चीन की कम्यूनिस्ट सरकार भारत को सुपर पावर बनने से रोकना चाहती है और इसके लिए उसके पास सीमा विवाद के अलावा और कोई विकल्प नहीं है।
बीते 17 जून को गृह मंत्रालय की बैठक में बीआरओ, आईटीबीपी, आर्मी, सीपीडब्ल्यूडी और गृह मंत्रालय के अधिकारी भी मौजूद थे जिसमें सड़क निर्माण के मामले में तेजी लाने का फैसला हुआ था। गौरतलब है कि केन्द्र सरकार जून 2017 में डोकलाम में पैदा हुई स्थिति को देखते हुए यह पहल पहले कर चुकी है। 44 सड़कों का निर्माण एक अहम फैसला उन दिनों था इसके अलावा पाकिस्तान से सटे पंजाब और राजस्थान के करीब 2100 किलोमीटर की मुख्य एवं सम्पर्क सड़कों का निर्माण भी षामिल था। केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग (सीपीडब्ल्यूडी) के जनवरी 2019 में जारी वार्शिक रिपोर्ट 2018-19 में भी स्पश्ट था कि भारत-चीन सीमा पर ये सड़कें निर्मित की जायेंगी ताकि संघर्श की स्थिति में सेना को तुरंत जुटाने में आसानी हो। गौरतलब है भारत एवं चीन के बीच साढ़े तीन हजार किलोमीटर की वास्तविक नियंत्रण रेखा जम्मू-कष्मीर अब केन्द्रषासित लद्दाख से लेकर अरूणाचल प्रदेष तक विस्तृत है। तीन साल पहले डोकलाम में चीन के सड़क बनाने का कार्य षुरू कराने के बाद भारत और चीन के सैनिकों के बीच गतिरोध पैदा हुआ था जो 73 दिनों तक चला। गतिरोध इतना बढ़ गया था कि चीन ने युद्ध तक कि धमकी दी पर भारत इसका कूटनीतिक हल निकालने में सफल रहा परन्तु समाधान पूरी तरह अभी भी नहीं हुआ है। 
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद बरसों से चला आ रहा है। दोनों देष वास्तविक सीमा रेखा पर बुनियादी ढांचे के निर्माण और एक-दूसरे की परियोजना को संदेह की दृश्टि से देखते रहे हैं। सड़कों, पुलों, रेल लिंक, हवाई अड्डा आदि को लेकर दोनों ने ताकत झोंकी है। चीन भारत से सटे तिब्बत क्षेत्र में कई एयरबेस ही नहीं बल्कि 5 हजार किलोमीटर रेल नेटवर्क और 50 हजार से अधिक लम्बी सड़कों का निर्माण कर चुका है। फिलहाल चीन की तुलना में भारत काफी पीछे है। इतना ही नहीं भारत के साथ सटी सीमा पर चीन के 15 हवाई अड्डे हैं जबकि 27 छोटी हवाई पट्टी का भी निर्माण वह कर चुका है। तिब्बत के गोंकर हवाई अड्डा किसी भी मौसम में वह उपयोग करता है। जहां लड़ाकू विमानों की तैनाती की गयी है। तिब्बत और यूनान प्रान्त ने वृहद् मात्रा पर सड़क और रेल नेटवर्क का सीधा तात्पर्य है कि चीनी सेना केवल 48 घण्टे में भारत-चीन सीमा पर आसानी से पहुंच सकती है। हालांकि भारत भी लद्दाख से जुड़ी चीनी सीमा पर विमान उतरने की व्यवस्था, पुल निर्माण और मजबूत सड़क बनाने का काम कर रहा है। जिसके चलते अब भारतीय सेना 8 घण्टे के भीरत सीमा पर पहुंच सकती है। जाहिर है कि चीन को भारत की यही सकारात्मकता पच नहीं रही है। गौरतलब है कि भारत डेढ़ साल पहले केवल 981 किमी. सड़क निर्माण करने में कामयाबी पायी है। इसे एक धीमी प्रगति की संज्ञा दिया जाना वाजिब होगा। यही वजह है कि भारत-चीन सीमा सड़क परियोजना जिसकी मूल समय सीमा 2012 थी उसे बढ़ा कर 2022 की गयी है। चीन की सीमा व्यापक पैमाने पर भारत को छूती है और अरूणाचल प्रदेष पर चीन की कुदृश्टि है अब यही कुदृश्टि लद्दाख पर भी है। दो बरस पहले सड़कों की स्थिति को देखें तो चीन की सीमा को छूने वाली सड़कें 27 सड़कें अरूणाचल प्रदेष में, 5 सड़कें हिमाचल में जबकि जम्मू-कष्मीर में 12 सड़कें और 14 सड़कें उत्तराखण्ड समेत 3 सिक्किम में हैं। हालांकि नेपाल में भी सड़क निर्माण को लेकर कालापानी और लिपुलेख में नेपाल ने एक नई मुसीबत खड़ी कर रखी है। यहां 80 किमी के भारतीय क्षेत्र को नेपाल अपनी सीमा में षामिल करने पर आमादा है।
गौरतलब है भारत और चीन के बीच आवागमन सदियों पुराना है। दूसरी षताब्दी में चीन ने भारत, फारस (वर्तमान ईरान) और रोमन साम्राज्य को जोड़ने के लिए सिल्क मार्ग बनाया था। उस दौर में रेषम समेत कई चीजों का इस मार्ग से व्यापार होता था। अब वन बेल्ट वन रोड़ इसी तर्ज पर बनाया जा रहा है जो दो हिस्सों में निर्मित होगा। पहला जमीन पर बनने वाला सिल्क मार्ग, दूसरा समुद्र से गुजरना वाला मेरीटाइमन सिल्क रोड़ षामिल है। सिल्क रोड़ इकोनोमिक बेल्ट एषिया, अफ्रीका और यूरोप को जोड़ेगा। इसके माध्यम से बीजिंग को तुर्की से जोड़ने का भी प्रस्ताव है और रूस-ईरान-ईराक को भी यह कवर करेगा। इतना ही नहीं वन बेल्ट, वन रोड़ के तहत चीन आधारभूत संरचना परिवहन और ऊर्जा में निवेष कर रहा है। इसके तहत पाकिस्तान में गैस पाइपलाइन, हंगरी में एक हाईवे और थाईलैण्ड में हाइस्पीड एक लिंक रोड़ भी बनाया जा रहा है। तथ्य यहीं समाप्त नहीं होते चीन से पोलैण्ड तक 9800 किमी रेल लाइन भी बिछाने का प्रस्ताव है। चीन का सड़क और रेल नेटवर्क भारत के लिए खतरा साबित हो रहा है जहां वन बेल्ट, वन रोड जहां वाणिज्यिक दृश्टि से भारत के लिए समस्या पैदा करेगा वहीं पीओके से इसका गुजरना भारत की सम्प्रभुता का भी उल्लंघन है। इस योजना का 60 देषों तक सीधी पहुंच होना और इनके जरिये भारत को घेरने की कोषिष चिंता का विशय है। जाहिर है सड़क निर्माण में तेजी लाना, सीमा पर रेल लाइन व हवाई पट्टी समेत कई परियोजनाओं को विस्तारित करना भारत के लिए अनिवार्य हो गया है। भारत की सुरक्षा सीमा के मामले में कई गुने बढ़ाने की जरूरत भी बढ़ते दिखाई दे रही है। इसके लिए बड़े धन की आवष्यकता होगी। भारत जैसे विकासषील देष की जीडीपी भले ही चीन की तुलना में 4 गुना कम है मगर अनिवार्य खर्च तो करना ही पड़ेगा। 

डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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जनता को क्यों नहीं मिलता सस्ता तेल

दो टूक यह कि क्रूड आॅयल का दाम चाहे आसमान पर हो या जीमन पर जनता को सस्ता तेल नहीं मिल पाता है। मौजूदा समय में यह लगभग 42 डाॅलर प्रति बैरल चल रहा है और पेट्रोल और डीज़ल दोनों की कीमत 80 रूपए लीटर के पार है। जून महीने में तेल में आई यह वृद्धि रोजाना के हिसाब से बढ़ोत्तरी लिये हुए है। वैसे इसे लाॅकडाउन से पहले 14 मार्च से बढ़त के रूप में तब देखा जा सकता है जब 3 रूपए प्रति लीटर सक्साइज़ ड्यूटी बढ़ा दी गयी हो। पेट्रोल की तुलना में कहीं अधिक सस्ता डीज़ल दिल्ली में तो सात दषक के इतिहास में पहली बार है जब वह आगे निकल गया। मुम्बई, कोलकाता सहित कई महानगरों में कीमत इससे भी अधिक है। सवाल है कैसे तय होते हैं तेल के दाम जिसके कारण जनता ठगी महसूस करती है। यहां बता दें कि जून 2017 से जिस डीजल और पेट्रोल का दाम तय करने का जिम्मा सरकार ने आॅयल कम्पनियों को दे दिया। अब कम्पनियां किसी भी स्थिति में घाटे में नहीं रहती और सरकार मुनाफा लेने से नहीं चूकती जिसके चलते जनता को सस्ता तेल मिल ही नहीं पाता है। जबकि मिट्टी का तेल और रसोई गैस नियंत्रण अभी भी सरकार का है। पड़ताल करके देखें तो तेल की कीमतें विदेषी मुद्रा दरों और अन्तर्राश्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों के आधार पर बदलती रहती हैं। इन्हीं मानकों के आधार पर तेल कम्पनियां प्रति दिन तेल के दाम तय करती रहती हैं। जिसमें रिफायनरी, तेल कम्पनियों के मुनाफे, पेट्रोल पंप का कमीषन, केन्द्र का एक्साइज ड्यूटी और राज्य  का वैट साथ ही कस्टम और रोड़ सेस भी जुड़ा रहता है। 
कोरोना के समय में जब तेल अपने न्यूनतम स्तर पर पहुंचा तो सरकार ने पेट्रोल पर 10 रूपए और डीजल पर 13 रूपए एक्साइज़ ड्यूटी लगाकर इसके सस्ते होने की गुंजाइष को 5 मई में खत्म कर दिया। जबकि मार्च में एक बार पहले ही यह महंगा हो चुका था। गौरतलब है कि मोदी षासनकाल में कच्चे तेल की कीमत 28 डाॅलर प्रति बैरल तक भी गिर चुकी है और कोरोना काल में यह 18 डाॅलर प्रति बैरल तक आ चुका था। तब देष को तेल की इतनी आवष्यकता नहीं थी क्योंकि सभी लाॅकडाउन में थे। ऐसे में खपत गिरा जिससे न केवल आॅयल कम्पनियों व उत्पादन करने वाले देषों को घाटा हुआ बल्कि सरकार का खजाना भी कमजोर हुआ। मई में बढ़ाई गयी एक्साइज़ ड्यूटी का लक्ष्य एक लाख 60 हजार करोड़ रूपए कोश में जमा करने का है। जाहिर है जिस प्रकार तेल की कीमत में वृद्धि जारी है और सरकार अपने मुनाफे की चिन्ता कर रही है उससे तेल की बेलगाम कीमत जनता को चोटिल करेगी। चीन और अमेरिका के बाद भारत कच्चे तेल का सबसे बड़ा आयातक देष है। कोरोना काल में भारत में तेल की खपत में 30 से 35 फीसदी की कमी आयी। अपनी आवष्यकता का करीब 86 फीसदी तेल भारत आयात करता है जो अधिकतम खाड़ी देषों से आता है इसम समय सऊदी अरब पहले नम्बर पर है। जिन देषों में तेल की खपत घटी उनकी अर्थव्यवस्था इसके चलते भी चरमराने लगी और तेल उत्पादन ईकाइयों के लिए भी खतरा होने लगा। 80 लाख भारतीय ऐसे हैं जिनकी नौकरियां तेल की अर्थव्यवस्था पर टिकी हैं। 
खास यह भी है कि भारत के पास तेल भण्डारण की क्षमता अधिक नहीं है जैसा कि अमेरिका और चीन के पास है। चीन ने एक तरफ दुनिया को कोरोना में डाला और दूसरी तरफ सस्ते कच्चे तेल का भण्डारण किया। भारत में रोजाना 46 लाख प्रति बैरल तेल की खपत है। अगर तेल सस्ता भी हो जाय तो उसे रखने की जगह नहीं है। भारत ने हाल ही में 5 मिलियन टन स्ट्रैटेजिक रिज़र्व बनाया है। जबकि यही 4 गुना होना चाहिए। चीन के पास तो 90 मिलियन टन स्ट्रैटेजिक रिज़र्व की क्षमता है इसकी तुलना में तो भारत 14 गुना पीछे है। कच्चे तेल का दाम घटते ही चीन ने अपना रिज़र्व मजबूत कर लिया। ऐसे में उसके यहां दो साल तक तेल के दाम नहीं बढ़ सकते और भारत की स्थिति यह है कि लाॅकडाउन में तेल जमा नहीं कर पाया और अनलाॅक में कीमत बढ़ने से रोक नहीं पा रहा है। वैसे भी चैतरफा अर्थव्यवस्था की मार झेल रही सरकार तेल से कमाई का कोई अवसर छोड़ना नहीं चाहती है। तेल के दाम कुछ भी रहे हों भारत में तेल पर लगने वाले टैक्स हमेषा ऊपर ही रहे हैं। जाहिर है तेल से होने वाली कमाई भारत को राजकोशीय घाटा कम करने में मदद करती है मगर यहां सरकार को भी सोचना होगा कि अर्थव्यवस्था की मार उन्हीं पर नहीं है बल्कि 130 करोड़ की जनता पर भी पड़ी है। 
ऐसे में मनमोहन सिंह की याद आना स्वाभाविक है। मई 2014 में मोदी सरकार के प्रतिश्ठित होने से पहले 109 डाॅलर प्रति बैरल कच्चा तेल था तब पेट्रोल की कीमत 71 से 72 के बीच हुआ करता था। इतना ही नहीं मनमोहन के षासनकाल में ही कच्चे तेल की कीमत 145 डाॅलर प्रति बैरल रही है मगर कीमत 80 के पार नहीं गयी जबकि मोदी सरकार में 42 डाॅलर प्रति बैरल में ही पेट्रोल तो छोड़िए डीजल को भी 80 पार करा दिया। अमेरिका, इंग्लैण्ड, जर्मनी, फ्रांस सहित कई देषों की तुलना में भारत में तेल पर सबसे ज्यादा टैक्स हैं। भारत के बाद टैक्स जर्मनी में है जबकि अमेरिका में तो भारत से 3 गुना कम टैक्स है। समझने वाली बात यह भी है कि तेल की कीमत के चलते रसोई महंगी हो जाती है। बाजार की वस्तुएं आसमान छूने लगती हैं, परिवहन सुविधाएं बेकाबू होने लगती हैं और जीवन की भरपाई पेट कटौती में चली जाती है। ऐसे में सवाल है कि जनता से वोट लेकर भारी-भरकम सरकार चलाने वाले उसी की जेब काटने पर क्यों उतारू रहती हैं जबकि उनकी जिम्मा लोक कल्याण देना है। मोदी सरकार के बारे में यह कहना लाज़मी है कि पिछले 6 सालों में सबसे ज्यादा एक्साइज़ ड्यूटी बढ़ाने वाली सरकार और एक बार में सबसे ज्यादा एक्साइज़ ड्यूटी लगाने वाली सरकार बन गयी है जो सरकार और जनता दोनों की सेहत के लिए ठीक नहीं है।


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
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बड़ा पर पूरा विकल्प नहीं ई-शिक्षा

कोरोना वायरस का प्रभाव हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों पर न पड़े ऐसा कोई कारण नहीं दिखाई देता और न ही षिक्षा व्यवस्था के पहले जैसे होने की स्थिति दिखती है। बहुत से लोग जब पीछे मुड़कर देखेंगे तो पायेंगे कि उनके जीवन की कई चीजें बदल गयी हैं। बावजूद इसके यह गारंटी से कह पाना मुष्किल है कि वास्तविक जीवन से वे अनभिज्ञ नहीं रहेंगे। फिलहाल दुनिया की यह महामारी भारत के लिए भी लम्बे समय की चुनौती बन गयी है साथ ही भारतीय जीवन, समाज, और अर्थव्यवस्था सहित षिक्षा के क्षेत्र को बड़े बदलाव की ओर धकेल दिया है। गौरतलब है कि 1991 के उदारवादी अर्थव्यवस्था ने भारतीय जीवन में जो गुणात्मक परिवर्तन किया और जिस प्रकार तकनीक का बोलबाला हुआ जिसके फलस्वरूप षिक्षा में तकनीकी समावेष के साथ क्लासरूम टीचिंग कायम रही। 2020 में कोरोना ने सब कुछ तितर-बितर कर दिया। इसका प्रभाव चैतरफा है मगर षिक्षा के मूल चरित्र को तो मानो इसने बदल कर रख दिया हो। गौरतलब है कि भारत में 1970 में इलेक्ट्राॅनिक विभाग और 1977 में भारतीय सूचना केन्द्र स्थापित हुआ और 90 के दषक में कम्प्यूटर क्रान्ति आयी और 21वीं सदी की षुरूआत तक तकनीक का बोलबाला हो गया और वर्तमान तो डिजिटलीकरण का दौर है। ई-बाजार, ई-सुविधा, ई-सेवा, ई-समस्या सहित अब इन दिनों ई-षिक्षा पूरी तरह फैल गयी है। 
गौरतलब है कि भारत समेत दुनिया के अनेक देष और जाने-माने षिक्षण संस्थायें, क्लासरूम टीचिंग से डिजिटल षिक्षा की ओर तेजी से कदम बढ़ा चुकी हैं। षिक्षा का यह नया वर्चुअल बदलाव कितना बेहतरी की ओर जायेगा अभी मात्र अंदाजा ही लगाया जा सकता है। कोविड-19 का प्रभाव षिक्षा पर खराब पड़ा है। कोविड-19 पेनडेमिक: षाॅक्स टू एजूकेषन एण्ड पाॅलिसी रिसपोन्सेस षीर्शक वाली एक रिपोर्ट से पता चलता है कि महामारी से पहले करीब 26 करोड़ बच्चे प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल से बाहर थे। स्थिति अब और बदत्तर होने की बात कही जा रही है। यूनेस्को की माने तो 14 अप्रैल 2020 तक कोरोना के कारण डेढ़ अरब से अधिक छात्र-छात्राओं की षिक्षा प्रभावित हो चुकी हैे। रूस, आॅस्ट्रेलिया, कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन, इटली, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन तथा ग्रीनलैण्ड सहित तमाम देषों के साथ भारत भी लाॅकडाउन के दौर में रहा है जो अभी भी अनलाॅक के साथ पूरी तरह खुला नहीं है। भारत की जनसंख्या दुनिया में दूसरे नम्बर पर है। ऐसे में 136 करोड़ की जनसंख्या रखने वाला भारत कोरोना प्रभाव के चलते षिक्षा की दुष्वारियों को झेल रहा है। लाॅकडाउन के चलते यहां 32 करोड़ छात्रों का पठन-पाठन प्रभावित हुआ। यूनेस्को के आंकड़े बताते हैं कि चीन में 28 करोड़, ईरान में लगभग 2 करोड़ और इटली में करीब एक करोड़ छात्र पर ऐसा ही प्रभाव पड़ा है। इसके अलावा अन्य देष भी कमोबेष जनसंख्या के अनुपात में प्रभावित हैं। मसलन 5 करोड़ की जनसंख्या वाला स्पेन में एक करोड़ छात्र इसकी चपेट में है।
षिक्षा की चुनौतियों से निपटने के लिए स्कूल, काॅलेज और विष्वविद्यालयों ने डिजिटल का रास्ता चुना यहां तक कि आॅनलाइन एग्ज़ाम को भी विकल्प के तौर पर देखा जाने लगा। यूजीसी ने ई-षिक्षा को लेकर विष्वविद्यालयों को गाइडलाइन भी जारी की। हालांकि ई-लर्निंग को स्कूली षिक्षा पर भी तेजी से थोपा जाना लगे। प्राथमिक षिक्षा लेने वाले बच्चों से लेकर विष्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों के लिए मोबाइल और लैपटाॅप के माध्यम से कक्षाएं आयोजित की जाने लगी। जिसे लेकर षैक्षणिक स्तर पर कितना फायदा हुआ इसका कोई हिसाब नहीं है मगर मुख्यतः स्कूली विद्यार्थियों को लेकर स्वास्थ की समस्या प्रकाष में आने लगी। सिर दर्द, आंखों में थकावट, चिड़़चिड़ापन और पढ़ाई से कन्नी काटना और किसी अनजाने डर और भय से नौनिहाल षिक्षा से ही मानो मुंह मोड़ने लगे। सवाल यह है कि क्या क्लासरूम षिक्षा का विकल्प डिजिटल षिक्षा प्रत्येेक के लिए मुनासिब है। दषकों पहले देष में दूरस्थ षिक्षा का प्रचलन था जो वर्तमान में भी है जिसमें षिक्षक तथा षिक्षा लेने वाले को एक समय विषेश पर मौजूद होने की आवष्यकता नहीं होती थी। यह प्रणाली अध्यापन तथा षिक्षण के तौर-तरीके तथा समय निर्धारण के साथ-साथ गुणवत्ता सम्बंधी अपेक्षाओं से समझौता किये बिना प्रवेष मापदण्डों में भी उदार है। भारत की मुक्त तथा दूरस्थ षिक्षा प्रणाली इस मामले में बहुत फलित हुई। इतिहास में देखें तो यूजीसी ने 1956-1960 की अपनी रिपोर्ट में सांयकालीन महाविद्यालय पत्राचार कार्यक्रम आदि षुरू करने का सुझाव दिया था और इसकी षुरूआत 1962 में दिल्ली विष्वविद्यालय में हुई। 90 के दषक आते-आते इससे जुड़ी आधा दर्जन से अधिक विष्वविद्यालय देखे जा सकते हैं मगर जब इग्नू 1985 में अवतरित हुआ तो देष और दुनिया में मील का पत्थर गाढ़ा। आज देष में सर्वाधिक छात्रों की संख्या इसी विष्वविद्यालय में है। स्टडी मटीरियल समय-समय पर कक्षाओं का आयोजन और गुणवत्ता से भरी पढ़ाई इसकी पहचान रही है। भारत में दूरस्थ षिक्षा के कई लाभ देखे जा सकते हैं जो न केवल यहां के युवाओं को अवसर दिया बल्कि मनौवैज्ञानिक अनुषासन का भी लाभ मिला। गांधी जी का मानना था कि एक व्यक्ति को प्रारम्भिक स्तर पर सभी प्रकार की षिक्षा मिलनी चाहिए उसमें किसानी से लेकर लकड़ी तक काम करने तक सभी प्रकार का अनुभव होना चाहिए। यह कहीं न कहीं आत्मनिर्भर भारत का दर्षन है। गांधी जी सदैव कहते रहे कि भारत के गांव के अपनी बुनियादी आवष्यकता के लिए आत्मनिर्भर होना चाहिए। गांव को एक गणराज्य के रूप में विकसित करने पर भी जोर देते थे। कोरोना के कारण जहां एक ओर कल-कारखाने पूरी तरह से बंद हो गये हैं वहीं षिक्षण संस्थानों पर भी महीनों से ताला लटका हुआ है। जिस तरह षहरी जीवन से गांव की ओर है लोगों ने रूख किया है उससे तो यही लगता है कि 1922 की गांधी की ग्राम स्वराज की अवधारणा 2022 तक जरूर पूरी हो जायेगी। बुनियादी षिक्षा और आॅनलाइन षिक्षा का षायद यही फर्क है कि एक को ग्रहण करते समय लिबास धूल में सन जाते हैं पर मन बौद्धिक हो जाता है और दूसरी षिक्षा को साफ लिबास में ग्रहण करने के बावजूद बौद्धिकता किताबी ही रह जाती है।
फिलहाल कोरोना के इस दौर में डिजिटल षिक्षा क्या पत्राचार की षिक्षा के अनुपात में हित पोशित कर सकती है। यहां ई-लर्निंग और डिस्टेंस एजूकेषन की तुलना स्वाभाविक है। डिस्टेंस एजूकेषन पुस्तकीय अध्ययन है जबकि ई-लर्निंग इंटरनेट और मोबाइल, कम्प्यूटर या लैपटाॅप आदि से युक्त विधा है। भारत एक विकासषील देष है यहां साइबरी जाल अभी न पूरी तरह है और न सबकी पहुंच में है। ग्रामीण इलाके में यह निहायत खराब अवस्था में है ऐसे में ई-लर्निंग बड़े और मझोले षहरों तक ही सीमित षिक्षा और कुछ हद तक इंटरनेट युक्त गांव तक ही पहुंच हो सकती है जबकि पत्राचार षिक्षा किसी तकनीक की मोहताज नहीं है और इससे न ही किसी प्रकार की स्वास्थ समस्या हो सकती है। गौरतलब है कि वर्श 2025 तक भारत में इंटरनेट उपयोगकत्र्ताओं की संख्या 90 करोड़ पहुंचने की उम्मीद है और इस क्षेत्र में 2016 से अब तक 8 गुना बाजार भी बढ़ चुका है। बावजूद इसके स्कूली षिक्षा और दूरस्थ षिक्षा का सम्पूर्ण विकल्प षायद ही ई-षिक्षा हो पाये। वैसे अमेरिका देषों में डेढ़ दषक पहले ही उच्च षिक्षा में ई का प्रवेष तेजी से हुआ और 2014 तक कई गुने की बढ़त ले लिया। कोरोना की चपेट में अमेरिका की षिक्षण संस्थाएं साल भर के लिए बंद कर दी गयी हैं ऐसे में यहां की ई-षिक्षा यहां के विकसित साइबरी जाल के चलते अधिक विस्तारवादी हो सकती है। फिलहाल विष्वविद्यालयी या प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में भले ही ई-लर्निंग एक मजबूत वातावरण दे रहा हो मगर जो षरीर बाल्यावस्था में है उसे रेडियोधर्मिता से भी जकड़ रहा है। मसलन ई-षिक्षा सबके लिए विकल्प उस पैमाने पर नहीं है जैसे अन्य पद्धतियां हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि कोरोना के चलते ई-षिक्षा एक महत्वपूर्ण विकल्प है मगर इसके लाभ-हानि के साथ व्याप्त चुनौती को नजरअंदाज करना उचित न होगा।



डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

सभ्यता बचाने हेतु आवश्यक है नवाचार व शोध

कोरोना जकड़ में फंसे दुनिया समेत भारत का षोध और सुषासन दोनों हाषिये पर हैं। इस महामारी का न इलाज है और न ही कोई दवा बन पा रही है। अमेरिका से लेकर यूरोप तक के देष इस मामले में फिसड्डी सिद्ध हुए हैं। जाहिर है अब समय षोध पर अधिक बल देने का है ताकि दुनिया को बचाने के लिए दूरियां नहीं दवा का निर्माण हो सके। बड़ा सच यह है कि विकास और षोध का गहरा सम्बंध है। जाहिर है षोध है तो विकास सम्भव है। गौरतलब है कि ज्ञान को विकास के संदर्भ में प्रासंगिक बनाना मौजूदा समय में कहीं अधिक जरूरी हो गया है। कोरोना महामारी को देखते हुए तो यही लगता है कि सभ्यता बचाने के लिए षोध प्राथमिकता में होना चाहिए। भारत में कई संदर्भों में षोध का माहौल तेजी से उभरता हुआ दिख रहा है। भौतिक और अंतरिक्ष विज्ञान में षोध दुनिया में चमकदार हुआ है मगर अमेरिका, चीन, ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देषों से भारत को अभी चुनौती मिल रही है। हालांकि साल 2013 में वैज्ञानिक षोध के मामले में भारत 9वें स्थान पर था तब यह तय किया गया था कि 2020 तक लक्ष्य 5वें स्थान का रहेगा जिसे तय समय से एक वर्श पहले ही हासिल कर लिया गया। अब सरकार ने 2030 तक इस क्षेत्र में तीसरे स्थान पर पहुंचने का लक्ष्य सुनिष्चित किया है। विज्ञान से जुड़े षोध में भारत ने दुनिया के कई बड़े देषों मसलन जापान, फ्रांस, इटली, कनाडा और आॅस्ट्रेलिया जैसे देषों को पीछे छोड़ा मगर बरसों से उच्च षिक्षा में षोध और नवाचार को लेकर चिंता रही है। वास्तविकता यह है कि तमाम विष्वविद्यालय षोध के मामले में न केवल खानापूर्ति करने में लगे हैं बल्कि इसके प्रति काफी बेरूखी भी दिखा रहे हैं। इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि देष भर में सभी प्रारूपों में विष्वविद्यालयों की संख्या 800 से अधिक है मगर सैकड़ों विष्वविद्यालयों ने इनोवेषन काउंसिल गठित करने के सरकार की पहल को आगे बढ़ाने में साथ अभी भी नहीं दिया है।
रिसर्च एण्ड डवलेपमेंट (आरएण्डडी) पर सबसे ज्यादा धन अमेरिका खर्च करता है उसके बाद चीन दूसरे नम्बर पर है जबकि तीसरे पर जापान और चैथे पर जर्मनी आता है। यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि जिस देष ने षोध पर जितना ज्यादा धन खर्च किया वह विकास के मामले में उतने ही बड़े पायदान पर होता है। भारत में संसाधनों के साथ जागरूकता की कमी प्रत्यक्ष देखी जा सकती है। विदेष की तुलना में यहां षोध व अनुसंधान कम किये जाते हैं। हालांकि बीते कुछ वर्शों से स्थिति बदली है और षोध पर सरकारी निवेष की दर भी बढ़ी है पर अनुकूल नहीं। पिछले दो दषक के आंकड़े यह इषारा करते हैं कि षोध के मामले में भारत जीडीपी का 0.6 फीसद से 0.7 फीसद खर्च करता है जबकि इस मामले में अमेरिका 2.8 प्रतिषत और चीन 2.1 प्रतिषत पर है। इतना ही नहीं छोटा सा देष दक्षिण कोरिया अपनी कुल जीडीपी का 4.2 फीसद निवेष करता है। ऐसे ही आंकड़े इज़राइल में भी देखे जा सकते हैं। उक्त से यह अंदाजा लगा सकते हैं कि भारत में षोध कितना बड़ा मुद्दा है। भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान में षोध और अनुसंधान को प्रमुख दी तो नतीजे स्पश्ट दिखाई दे रहे हैं जबकि षिक्षा, चिकित्सा व अन्य बुनियादी विकास यही पिछड़ापन नित नई समस्या पैदा किये हुए है। बड़ी खूबसूरत कहावत है कि जिस देष में फौजियों पर षोध होगा उसकी फौजी ताकत बढ़ी रहेगी। जाहिर है जहां षोध कम होगा वहां विकास की गंगा कम बहेगी। दौर बदलाव का है ऐसे में हर क्षेत्र नवाचार और नये ज्ञान के साथ पुख्ता नहीं होगा तो समस्याएं बनी रहेंगी। इस बात को इस उदाहरण से समझना आसान है कि दुनिया में कोरोना माहमारी बन चुकी है और अभी तक न तो इसके लिए अनुकूल दवा और टीका की खोज हो पायी है और न ही इसे फैलने से रोक पाया जा रहा है। जाहिर है समस्या बड़ी है पर इसी अनुपात में षोध और अनुसंधान बड़ा होता तो इसका दायरा इतना विकराल रूप न लेता। भारत में षोध कार्य को बढ़ावा देने के लिए कई जतन किये जा रहे हैं लेकिन आज भी देष में हो रहे षोध की न केवल मात्रा बल्कि गुणवत्ता भी संतोशजनक नहीं है। हालांकि कोरोना के चलते दुनिया के सभी देष मसलन अमेरिका और यूरोपीय देषों की स्वास्थ व्यवस्था की जिस तरह पोल खुली वह उनके षोध पर भी प्रष्न चिन्ह् खड़ा करता है और जिस तरह कोरोना की चपेट से सांसे उखड़ी हैं वह सुषासन पर भी सवालिया निषान लगाता है।
गौरतलब है कि आज से 50 साल पहले देष में लगभग 50 प्रतिषत वैज्ञानिक अनुसंधान विष्वविद्यालयों में होते थे जो धीरे-धीरे कम होते चले गये। इसके पीछे एक बड़ी वजह धन की उपलब्धता की कमी भी बताई जाती है। समय के साथ युवा वर्ग की दिलचस्पी षोध में कम व अन्य क्षेत्रों में अधिक हो गयी है। सर्वे यह भी बताते हैं कि महिलाओं के एक हिस्से का षिक्षा ग्रहण करने का एक मात्र उद्देष्य डिग्री हासिल करना है ऐसा ही लक्ष्य कुछ युवा वर्गों में भी देखा जा सकता है। इसके अलावा समाज की बेड़ियां भी षोध कार्यों तक पहुंचने में रूकावट बनती रही हैं। सीएसआईआर का एक सर्वे से पता चलता है कि एक साल में 3 हजार से अधिक षोधपत्र तैयार होते हैं मगर इनमें कोई नया आईडिया या विचार नहीं होता। विष्वविद्यालय तथा निजी व सरकारी क्षेत्र की षोध संस्थाओं में सकल खर्च भी कम होता चला गया जिससे षोध की मात्रा और गुणवत्ता दोनों खतरे में पड़ गयी। कई निजी विष्वविद्यालय ऐसे मिल जायेंगे जहां बड़े तादाद में युवा रिसर्च तो कर रहे हैं मगर इसकी मूल वजह डिग्री हासिल करना है। अमेरिका के ओहियो स्टेट, मिषिगन व प्रिंसटन जैसे दर्जनों विष्वविद्यालय के षोध अमेरिकी विकास की दिषा और दषा आज भी तय करते हैं जबकि भारत में मामूली संस्थाओं को छोड़कर अन्यों की स्थिति इस तरह नहीं कही जा सकती। हकीकत यह है कि जीडीपी का एक फीसद भी षोध पर खर्च नहीं किया जा रहा है। वैज्ञानिक तो इसे 2 फीसद तक बढ़ाने की मांग बरसों से कर रहे हैं। इसमें संदेह नहीं कि उभरते परिदृष्य और प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था में षोध से ही समाधान सम्भव होगा और विकास की तुरपाई हो पायेगी। हालांकि सरकार इस मामले में सक्रिय दिखाई देती है। विदेषों में एक्सपोजर और प्रषिक्षण प्राप्त करने के उद्देष्य से विद्यार्थियों के लिए ओवरसीज़ विजिटिंग इलेक्ट्रेाल फेलोषिप प्रोग्राम चलाया जा रहा है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता, डिजिटल अर्थव्यवस्था, स्वास्थ प्रौद्योगिकी, साइबर सुरक्षा और स्वच्छ विकास को बढ़ावा देने हेतु इण्डिया-यूके साइंस एण्ड इनोवेषन पाॅलिसी डायलाॅग के जरिये षोध को आपसी बढ़ावा मिल रहा है। इसके अलावा दर्जनों प्रकार के संदर्भ वैष्विक स्तर पर षोध से जोड़े जा रहे हैं।
सवाल उठता है कि विष्वविद्यालय उद्योग की तरह क्यों चलाये जा रहे हैं जबकि भारत विकास की धारा और विचारधारा के ये निर्माण केन्द्र हैं। बाजारवाद के इस युग में सबका मोल है पर यह समझना होगा कि षिक्षा अनमोल है बावजूद इसके बोली इसी क्षेत्र में ज्यादा लगायी जाती है। षोध की कमी के कारण ही देष का विकासात्मक विन्यास भी गड़बड़ाता है। भारत में उच्च षिक्षा ग्रहण करने वाले अभ्यर्थी षोध के प्रति उतना झुकाव नहीं रखते जितना पष्चिमी देषों में है। भारत की उच्च षिक्षा व्यवस्था उदारीकरण के बाद जिस मात्रा में बढ़ी उसी औसत में गुणवत्ता विकसित नहीं हो पायी और षोध के मामले में ये और निराष करता है। अक्सर अन्तर्राश्ट्रीय और वैष्वीकरण उच्च षिक्षा के संदर्भ में समानांतर सिद्धान्त माने जाते हैं पर देषों की स्थिति के अनुसार देखें तो व्यावहारिक तौर पर ये विफल दिखाई देते हैं। भारत में विगत् दो दषकों से इसमें काफी नरमी बरती जा रही है और इसकी गिरावट की मुख्य वजह भी यही है। दुनिया में चीन के बाद सर्वाधिक जनसंख्या भारत की है जबकि युवाओं के मामले में संसार की सबसे बड़ी आबादी वाला देष भारत ही है। जिस गति से षिक्षा लेने वालों की संख्या यहां बढ़ी षिक्षण संस्थायें उसी गति से तालमेल नहीं बिठा पायीं।

डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
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कोरोना के बीच बढ़ता विदेशी मुद्रा भण्डार

इन दिनों देष अभूतपूर्व आर्थिक चुनौती का सामना कर रहा है। सभी प्रकार के काम पटरी से उतरे हैं और अर्थव्यवस्था की गाड़ी डगमगा गयी है। मगर एक सुखद पहलू यह है कि कोरोना की बड़ी मार के बाद भी भारत का विदेषी मुद्रा भण्डार बढ़ रहा है। देष में चैतरफा निराषाजनक स्थिति है और मानो उदासीनता के वातावरण से सभी जकड़े हुए हों। बावजूद इसके विदेषी मुद्रा भण्डार बढ़कर 50 हजार करोड़ के लगभग पहुंच जाना एक सुखद आष्चर्य ही कहा जायेगा। गौरतलब है कि मई में विदेषी मुद्रा भण्डार में 1,240 करोड़ डाॅलर का उछाल आया और माह के अन्त तक यह लगभग 50 हजार करोड़ डाॅलर के पास पहुंच गया। रूपए में इसे लगभग 37 लाख करोड़ रूपए से अधिक कह सकते हैं। सभी में यह दुविधा पनप सकती है कि जब देष की माली हालत सबसे बड़े आर्थिक गिरावट में है उद्योग धन्धे तथा सेवा क्षेत्र समेत छोटी-बड़ी इकाईयां कोरोना की चपेट में है तो ऐसे में भारत का विदेषी मुद्रा भण्डारण क्यों और कैसे बढ़ रहा है। जाहिर है इसका कोई आर्थिक कारण तो होगा। वैसे यह भी बताते चलें कि विदेषी मुद्रा भण्डारण की बढ़त में भारत ही नहीं बल्कि कोरोना का जन्मदाता चीन भी इस मामले में सुखद स्थिति में है। गौरतलब है कि मई में चीन के विदेषी मुद्रा भण्डार के जारी आंकड़े से पता चलता है कि माह के अन्त तक यहां विदेषी मुद्रा भण्डार 31 खरब अमेरिकी डाॅलर तक पहुंच गया है जो अप्रैल की तुलना में 0.3 फीसदी की बढ़त लिये हुए है। हालांकि इन दिनों चीन कोरोना से राहत में है और भारत कोरोना के बीच उलझा हुआ है। ऐसे में भले ही चीन बढ़त हो पर भारत में मिल रही बढ़त उसकी बेहतरी की सूचक है। 
यह समझना युक्तियुक्त होगा कि विदेषी मुद्रा भण्डार बढ़ने का भारतीय अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव होगा। इसके बढ़ने से सरकार ही नहीं आरबीआई भी देष के बाह्य और आंतरिक आर्थिक मुद्दे के मामले में कहीं अधिक प्रबंधकीय कुषलता को हासिल करने में सक्षम हो जाती है। जाहिर है विदेषी मुद्रा भण्डार वर्तमान आर्थिक चोट में राहत का काम करेगी। संदर्भ यह भी है कि वर्तमान में विदेषी मुद्रा भण्डार आगामी एक वर्श के आयात बिल के लिए षुभ संकेत दे रहा है। साथ ही इसकी बढ़त से यह भी इषारा मिलता है कि डाॅलर की तुलना में रूपया मजबूत होगा और भुगतान संतुलन के मामले में सकारात्मकता आयेगी। भारत की जीडीपी भारत के विकास का जरिया है और यहां की कुल जीडीपी में 15 प्रतिषत विदेषी मुद्रा भण्डार है। इस मामले में यदि संतुलन बरकरार रहता है तो 15 फीसदी वाला हिस्सा मजबूत रहेगा लेकिन बाकी का 85 फीसदी के लिए सरकार को एड़ी-चोटी का जोर तो लगाना ही होगा। विदेषी मुद्रा भण्डार की बढ़त सभी समस्याओं का हल नहीं है लेकिन बढ़त ले चुकी समस्याओं का आनुपातिक हल जरूर है। अर्थव्यवस्था में सुस्ती के बावजूद विदेषी मुद्रा भण्डारण का बढ़ने का प्रमुख कारण भारतीय षेयरों में विदेषी निवेष साथ ही प्रत्यक्ष विदेषी निवेष माना जा रहा है। गौरतलब है कि विदेषी निवेषकों द्वारा अप्रैल और मई माह में कई भारतीय कम्पनियों में रकम लगायी गयी जो इसकी बढ़त का एक बड़ा कारण है साथ ही भारतीय कम्पनियों पर इस कदम से विष्वास भी बढ़ता दिखाई देता है। वर्तमान में विदेषी मुद्रा भण्डार बढ़कर के करीब 500 अरब डाॅलर के रिकाॅर्ड स्तर पर पहुंच गया है जो धूल चाट रही अर्थव्यवस्था के लिए उम्मीद की बड़ी किरण है। 
विष्व में सर्वाधिक विदेषी मुद्रा भण्डार वाले देषों की सूची में भारत 5वें स्थान पर है और इसी सूची में चीन पहले स्थान पर। कोरोना संकट से उपजी समस्या के चलते कई यूरोपीय और अमेरिकन कम्पनियां चीन से विस्थापित होने का मन बना चुकी हैं और प्राथमिकता में भारत को भी देखा जा सकता है। ऐसे में भारत की स्थिति तुलनात्मक सुदृढ़ होनी चाहिए। अमेरिका 19 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था के साथ पहले तो चीन 13 ट्रिलियन के साथ दूसरे नम्बर पर है। भारत लगभग 3 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था रखता है जो 2024 तक 5 ट्रिलियन डाॅलर के मसौदे पर आगे बढ़ रहा था मगर बीते एक तिमाही में सारे प्रयासों पर पानी फिर गया है। हालांकि कोरोना महामारी से पहले भी भारत की अर्थव्यवस्था लम्बे समय से सुस्ती और मन्दी की षिकार चल रही थी और बेरोजगारी की दर 45 साल के रिकाॅर्ड स्तर पर पहुंच चुकी है और अब तो यह बद से बदत्तर हो गयी है। मूडीज़ की रिपोर्ट ने भी भारत की आर्थिक वृद्धि अनुमान को घटाकर 0.2 फीसद कर दिया है। इतना ही नहीं विकास दर को मौजूदा स्थिति के अन्तर्गत ऋणात्मक होने से भी इंकार नहीं किया जा सकता। हालांकि मूडीज़ की रिपोर्ट भी यह भी कहती है कि 2021 में भारत की वृद्धि दर 6.2 फीसद होगी। यह तो आने वाला समय बतायेगा पर आरबीआई का संदर्भ भी विकास दर के मामले में कहीं अधिक गिरावट से युक्त देखा जा सकता है। 
कोरोना का मीटर इन दिनों भारत में तेजी लिए हुए है और लाॅकडाउन को लगभग समाप्त कर अनलाॅक को सिलसिलेवार तरीके से आगे बढ़ाया जा रहा है। सम्भव है कि सरकार यह जानती है कि देष में अनलाॅक के चलते कोरोना से पीड़ितों की तादाद बढ़ेगी पर अर्थव्यवस्था बचाने के लिए यह जोखिम वह ले चुकी है। गौरतलब है कि दिल्ली सरकार जुलाई तक दिल्ली के भीतर साढ़े पांच लाख कोरोना पीड़ितों की तादाद बता रही है। ऐसे में देष की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है। फिलहाल विदेषी मुद्रा भण्डार उखड़ती अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा मरहम है। स्पश्ट है कि विदेषी मुद्रा भण्डार सोने और अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश के विषेश आहरण अधिकार अर्थात् एसडीआर समेत विदेषी मुद्रा परिसम्पत्तियों हेतु भारत द्वारा संचित व आरबीआई द्वारा नियंत्रित की जाने वाली बाहरी सम्पत्ति है। गौरतलब है कि देष के विदेषी मुद्रा भण्डार में अधिकांष हिस्सेदारी विदेषी मुद्रा सम्पत्तियों की ही है। जब संकट का समय आता है और उधार लेने की क्षमता घटने लगती है तो विदेषी मुद्रा आर्थिक तरलता को बनाये रखने में मददगार होती है। ऐसे में भुगतान संतुलन से लेकर कई आर्थिक संतुलन डगमगाने से पहले संभल जाते हैं। फिलहाल विदेषी मुद्रा भण्डार की बढ़त के बीच भारत का बचा हुआ विकास दर यदि षीघ्र पटरी पर नहीं आता है तो बढ़त ले चुकी आर्थिक चुनौतियों देष में नाउम्मीदी का वातावरण बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगी।



डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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