Monday, November 28, 2016

आर्थिक विकास का चौथा मार्ग

जब कोई देष अपने को विकसित करना चाहता है तो उसके सामने मुख्य रूप से तीन समस्याएं होती हैं पहला यह कि वह किस वस्तु का उत्पादन करे और किसका न करे। दूसरे, विभिन्न प्रयोगों में संसाधनों का आबंटन कैसे करे, तीसरा यह कि उत्पादन की क्रिया किसके द्वारा सम्भव करे मसलन निजी क्षेत्र, सरकारी क्षेत्र या दोनों की सहभागिता से। इन तीनों समस्याओं से निजात पाने के लिए भी तीन रास्ते सुझाये गये हैं जिसमें बाजार व्यवस्था, नियोजन प्रणाली और मिश्रित आर्थिक प्रणाली षामिल हैं पर एक सच्चाई यह है कि किसी भी समस्या के किसी भी समाधान तक पहुंचने के लिए सबसे जरूरी पक्ष उसमें निहित आर्थिक रणनीति ही है जिसे मजबूती देने के लिए अब चैथा मार्ग भी खोजा जा रहा है जिसके निषाने पर दषकों से जमा काली कमाई है। जिस तर्ज पर व्यवस्था बदलने की कोषिष की जा रही है उससे संकेत मिलता है कि आने वाले दिनों में आर्थिक विकास का पथ वास्तव में चिकना हो सकता है। भले ही इसे लेकर कितनी भी कठिनाई क्यों न हो रही हो। षायद ही इस सच से कोई गुरेज करेगा कि उदारीकरण से अब तक भारत आर्थिक विकास के जिस चैमुंखी मार्ग से लक्ष्य तय करने की कोषिष में रहा है उससे मन माफिक सफलता नहीं मिल पाई है। वैष्विक परिदृष्य में उभरे आर्थिक प्रतिस्पर्धा के चलते यह चित्र और पुख्ता हो जाता है। हालांकि 25 वर्शों में भारत की आर्थिक नीति बेपटरी भी नहीं हुई है। पूर्व वित्त मंत्री मनमोहन सिंह से पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक और ढ़ाई बरस से सत्ता हांक रहे मोदी काल को देखें तो आर्थिक उपादेयता उत्तरोत्तर वृद्धि में रही है। विकासषील देषों की एक समस्या सांख्यिकी चेतना का षिकार होना भी रहा है जिस तर्ज पर आंकड़े परोसे जाते हैं असल में धरातल पर उतना उतरता नहीं है। गौरतलब है कि काली कमाई को व्यापक पैमाने पर जमा करने वालों ने देष की आर्थिकी को हाषिये पर धकेला है जिसके चलते दषकों से भारतीय अर्थव्यवस्था का स्वभाव और उसकी विषेशताओं में तीव्रता से संरचनात्मक परिवर्तन सम्भव नहीं हो पाया और अब नोटबंदी के माध्यम से उस चैथे मार्ग को खोजने की कोषिष की जा रही है जिससे देष का विकास सुगम हो सके।
एक हजार और पांच सौ के नोट को प्रचलन से बाहर करना व्यापक आर्थिक सुधार का एक नमूना कहा जायेगा पर इसके जोखिम भी अब परिलक्षित होने लगे हैं। जिस प्रकार विमुद्रीकरण के प्रयास किये गये और कैषलेस व्यवस्था को मजबूत करने की बात कही जा रही है उसे देखते हुए उम्मीदों के साथ आषंकायें भी बढ़ी हैं। बेषक इस कदम से जाली नोटों से छुटकारा मिलेगा, अपराध और आतंकवाद की फण्डिंग में भी मुष्किल आयेगी साथ ही टैक्स चोरी को रोकना भी आसान होगा और वर्शों से जमा काली कमाई भी नश्ट होगी। बावजूद इसके यह आषंका भी है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में विद्यमान स्वाभाविक असुविधा और आधारभूत संरचना की कमी से क्या ऐसे निर्णय बिना किसी समस्या के टिक पायेंगे। बैंक और वित्तीय मामले से जुड़ी तकनीक रोज बौनी सिद्ध हो रही हैं गौरतलब है कि दो लाख एटीएम के भरोसे हजारों करोड़ का लेनदेन निर्भर है। खास यह भी है कि सीमा से अधिक निगरानी भी इन दिनों बढ़ी हुई है जिसके अपने खतरे हैं। 50 के दषक में मिषिगन विष्वविद्यालय के षोध से भी यह भी निश्कर्श रहा है कि उत्पादन केन्द्रित होने से उत्पादन ही घटता है। इन दिनों खाताधारकों के खाता पर सरकार और इनकम टैक्स की नजर है बावजूद इसके जन-धन योजना के खातों में राषि 45 हजार करोड़ से बढ़कर राषि 72 हजार करोड़ की सीमा पार कर चुकी है और यह सिलसिला अभी भी जारी है जिसमें उत्तर प्रदेष अव्वल है तत्पष्चात् पष्चिम बंगाल समेत कई राज्यों को देखा जा सकता है।
यूरोपीय देषों में स्वीडन ऐसा देष है जहां कुल लेनदेन का 89 फीसदी कैषलेस होता है पर यह भी समझना होगा कि यहां की साक्षरता 100 फीसदी है और मानव विकास सूचकांक में इसका स्थान भी नार्वे जैसे देषों से बहुत पीछे नहीं है। इसके अलावा बढ़ते साइबर क्राइम और इंटरनेट बैंकिंग आदि से जुड़ी जालसाजी के खतरों के प्रति भी इनकी जागरूकता तुलनात्मक बेहतर है। यहां के बैंक और अन्य वित्तीय संस्थान ग्राहकों को लेकर काफी अधिक संजीदे भी हैं। इन देषों की तुलना भारत की स्थिति काफी पीछे है। सच्चाई यह है कि भारत में मात्र 74 फीसदी साक्षरता है और बैंकिंग और वित्तीय संचेतना के साथ नकद रहित लेनदेन को लेकर कोई खास जागरूकता भी नहीं है न ही इंटरनेट बैंकिंग से जुड़े किसी भी गड़बड़ी से निपटने के मामले में इन्हें दक्ष बनाया गया है। आंकड़े समर्थन करते हैं कि भारत में पांच लाख से अधिक साइबर कानून के जानकारों की आवष्यकता है। कैषलेस प्रणाली अपनाकर कुछ देष तरक्की और सहूलियत की राह में आगे बढ़ गये हैं और काफी हद तक नकद लेनदेन धीरे-धीरे खात्मे की ओर है जिसका सीधे असर काले धन पर पड़ रहा है। बेल्जियम, फ्रांस, कनाडा, ब्रिटेन आदि समेत कई देष इस दिषा में कहीं आगे हैं और ऐसे ही रास्ते से भारत को भी गुजरना है पर सच यह है कि रास्ता लम्बा है और फासले भी कम नहीं है। कहा जाय तो यह राह भारत की दृश्टि से इतनी आसान नहीं है। गौरतलब है कि 8 नवंबर से अब तक 20 दिन से अधिक वक्त हो चुका परन्तु कई क्षेत्रों में नये पांच सौ के नोट सरकार नहीं पहुंचा पायी है जबकि अभी भी कई एटीएम दो हजार के नोट उगलने से गुरेज कर रहे हैं। रोचक यह भी है कि भारतीय डेबिट कार्ड का इस्तेमाल केवल एटीएम से पैसे निकालने के लिए ही करते हैं। इसके विविध आयामों से लोग षायद वाकिफ भी नहीं हैं। इंटरनेट कनेक्टिविटी केवल 39 फीसदी भारतीय आबादी तक ही पहुंची है। ऐसे लोगों की संख्या काफी ज्यादा है जो एक से ज्यादा क्रेडिट और डेबिट कार्ड रखते हैं जबकि कई गुने ऐसे हैं जिन तक प्लास्टिक मनी अभी तक पहुंची ही नहीं है। ऐसे में क्या भारत में कैषलेस व्यवस्था को प्राप्त कर पाना सम्भव होगा। सवाल को कितना भी तोड़ा-मरोड़ा क्यों न जाये अभी दो बूंद के अलावा उत्तर से और कुछ नहीं निकलेगा जबकि मौजूदा सरकार बाल्टी भरने की फिराक में है। 
एक सच्चाई यह भी है कि कैषलेस अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ना फिलहाल वक्त की जरूरत बन गया है। तकनीक के बदौलत समय की बचत हो रही है। सरकारी योजनाओं का लाभ जनता तक सीधे पहुंच रहा है। भ्रश्टाचार में भी कटौती की सम्भावनायें कई गुना बढ़ गयी हैं। हवाला कारोबार पर लगाम भी पहले की तुलना में और कसाव लिये हुए है। विष्व के कुछ देषों की अर्थव्यवस्थायें नोटबंदी के चलते भले ही मुंहकी खाईं हों मसलन म्यांमार, सोवियत संघ आदि पर भारत के मामले में यह आर्थिक विकास का चिकना पथ साबित हो सकता है। मुख्यतः उदारीकरण के बाद से अर्थव्यवस्था और उससे जुड़े विकास का जो चित्र दिखना चाहिए उसमें षायद काले धन ने ग्रहण का काम किया है। इसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि ग्रामीण और दूर-दराज को समावेषित करने वाली भारतीय अर्थव्यवस्था को संतुलित करने की जिम्मेदारी भी अभी पूरी तरह निभ नहीं पायी है। प्रधानमंत्री मोदी प्रजातंत्र के जिस चरित्र को समझते हैं बेषक उसके लिए जान लड़ाना चाहते हैं पर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि इरादों से केवल उड़ान नहीं होती आखिरकार उन्हें धरातल को पुख्ता करना ही होगा। ग्रामीण और षहरी भारत में बंटी अर्थव्यवस्था को पगडण्डी पर लाने के लिए उन्होंने  काले धन पर घात करके अर्थव्यवस्था को विकसित करने का जो चैथा मार्ग खोजा है उसका प्रयोग भी बाकी के मार्गों पर टिका है ऐसे में सभी पर चहुंमुखी कोषिष करने की आवष्यकता पड़ेगी।


सुशील कुमार सिंह



Wednesday, November 23, 2016

सत्ता बनाम विपक्ष और जनता

नोटबंदी आखिरी कदम नहीं है इस वक्तव्य के साथ प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी के फैसले के विरूद्ध अभियान चलाने वालों को एक और झटका दिया है। लोकतंत्र में हमेषा से सत्ताधारकों की एक खूबी साहसिक निर्णय लेने वाली भी रही है पर ऐसा साहस जो जोखिम से भरा हो और जिसे लेकर विपक्ष भी खूब बेचैन हो जाये ऐसा पहले देखने को नहीं मिला है। बीते 8 नवम्बर को नोटबंदी को लेकर प्रधानमंत्री मोदी द्वारा एक साहसिक पहल की गयी और तभी से वे जनता से संवाद स्थापित करने को लेकर और संवेदनषील भी हो गये हैं। नोटबंदी के निर्णय के तुरंत बाद मोदी तीन दिवसीय यात्रा पर जापान गये और जब उनकी भारत में वापसी हुई तब इस बात का उन्हें भी अंदाजा हो चुका था कि नोटबंदी के फैसले से देष की जनता क्या और कैसा महसूस कर रही है। गोवा में दिये गये भाशण से कई बातें स्पश्ट हो गयी थी साथ ही भावनाओं पर काबू रखते हुए उन्होंने जनता से 50 दिन देने की अपील भी दोहराई थी। उत्तर प्रदेष के गाजीपुर के सम्बोधन में भी कुछ इसी प्रकार जन लगाव मोदी के भाशण में झलका। नोटबंदी के प्रकरण को एक पखवाड़ा बीत चुका है। बैंकों और एटीएम के सामने कतारों में संख्या तुलनात्मक कम हुई है परन्तु समस्याएं कई रूपों में अभी भी विद्यमान है। नोटबंदी को लेकर 23 नवम्बर को जंतर-मंतर पर पष्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ने धरना दिया जिसमें षरद यादव सहित कुछ विपक्षी चेहरे भी दिखे जबकि इसके पहले संसद से राश्ट्रपति भवन का मार्च भी ममता बनर्जी के नेतृत्व में हो चुका है। कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, बसपा समेत आप नोटबंदी के मामले में मोदी सरकार को निरंतर घेरने में लगे हैं। देखा जाय तो नोटबंदी के चलते जनता कुछ हद तक परेषानी में तो है बावजूद इसके निर्णय आज भी सराहे जा रहे हैं। काली कमाई वालों के लिए यह निर्णय किसी विपदा से कम नहीं है। सर्वे भी बताते हैं कि अगर विपक्ष के दबाव में आकर मोदी सरकार यह फैसला वापस लेती है तो मोदी समर्थकों को इससे गहरा झटका लगेगा। जाहिर है अब इंच भर भी पीछे हटना मुष्किल भरा काज होगा।
प्रधानमंत्री मोदी विपक्ष के विरोध के बीच नये आयामों के साथ आगे बढ़ रहे हैं। दरअसल मोदी जानते हैं कि 15 फीसदी को छोड़कर बाकी भारत उनके साथ है। ऐसा सर्वे भी बता रहे हैं। हालांकि विपक्ष की लानत-मलानत से भी सरकार कम नहीं जूझ रही है। इन सबके बीच मोदी ने जनता से भी दस सवाल पूछे हैं। ऐसा कभी नहीं देखा गया कि अपने निर्णयों के प्रति भारी-भरकम सरकारों ने इतनी तत्परता दिखाई हो और जनता की इच्छा जानने की कोषिष की हो। जिन 10 सवालों को लेकर जनता की राय मांगी गयी है उसमें कुछ हां, ना में तो कुछ का लिखित रूप में जवाब दिया जा सकता है। सवालों की फेहरिस्त में पहला सवाल ऐसा है जिससे जनता में हमेषा उबाल रहा है। सवालों की सूची यहां से षुरू होती है क्या आप मानते हैं कि भारत में काला धन है, क्या आप सोचते हैं कि काले धन और भ्रश्टाचार से लड़ना और खत्म करना जरूरी है, काले धन से निपटने के लिए सरकार के इस कदम को आप कैसे देखते हैं और भ्रश्टाचार को लेकर सरकार के अब तक के प्रयासों पर आपकी क्या राय है। इसी प्रकार सवाल सूचीबद्ध होते हुए 10 सवाल तक पहुंचते हैं आखिर में यह पूछा गया है कि क्या आपके पास कोई सुझाव है जो आप प्रधानमंत्री से साझा करना चाहते हैं। इस अन्तिम सवाल के माध्यम से यह भी कोषिष की गयी है कि देष के किसी भी नागरिक के पास यदि कोई बेहतरीन उपाय है तो उससे वह उसे प्रधानमंत्री से साझा कर सकता है। उपरोक्त से यह भी स्पश्ट होता है कि सरकार अपने निर्णयों को लेकर जनता को यह संदेष भी देना चाहती है कि यह उनके हित में लिया गया एक बड़ा फैसला है और जनता किसी प्रकार का असमंजस न पाले। 22 नवम्बर का प्रधानमंत्री का सम्बोधन इसका पुख्ता प्रमाण है। 
फिलहाल तमाम दृश्टिकोण इस ओर भी इषारा कर रहे हैं कि नोटबंदी के निर्णय के चलते यदि समस्याओं को समय रहते हल नहीं किया गया तो यह आने वाले चुनाव के लिए जोखिम भरा कदम भी हो सकता है। हालांकि 22 नवम्बर को ही उपचुनाव के नतीजे घोशित हुए हैं। जिसमें नोटबंदी का असर सकारात्मक ही देखने को मिलता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार जनहित को लेकर संजीदा है पर होमवर्क को लेकर थोड़ी कमजोर भी है। मोदी जानते हैं कि नोटबंदी का मसला आगामी विधानसभा चुनाव के लिए जोखिम भरा भी हो सकता है और वे इसे भी जानते हैं कि इसमें 85 फीसदी नागरिकों की भलाई छुपी है और वे उनके साथ हैं। ऐसे में उनके मनोबल को फिलहाल कोई खतरा दिखाई नहीं देता है और जिस अंदाज में वो जनता को समझा-बुझा रहे हैं और संवाद स्थापित कर रहे हैं उससे भी स्पश्ट है कि जनता का प्रधानमंत्री जनता के बीच संवाद के माध्यम से दूध का दूध, पानी का पानी करना चाहता है। वैष्विक परिदृष्य में देखें तो नोटबंदी के निर्णय पहले भी कई देषों में हुए हैं। घाना से लेकर सोवियत संघ तक पहले ऐसा हो चुका है और इसे लेकर कई खट्टे-मीठे अनुभव भी देखे जा सकते हैं। टैक्स चोरी और भ्रश्टाचार रोकने के उद्देष्य से घाना में 1982 में 50 सेडी के नोटों को बन्द कर दिया गया था। 1984 में नाइजीरिया तथा वर्श 1987 में पड़ोसी म्यांमार भी नोटबंदी पर कदम उठा चुका है। जब म्यांमार द्वारा 80 फीसदी मुद्रा को अमान्य किया गया तब इस कदम से गुस्सा और विरोध के साथ लोग सड़कों पर उतरे थे जैसा कि बीते कुछ दिन पहले कुछ राजनीतिक पार्टियां सड़क पर विरोध प्रदर्षन कर रही थी। खास यह भी है कि भारत में पांच सौ और हजार के नोट बंद होने से 86 फीसदी मुद्रा अमान्य घोशित हुई है जो किसी भी नोटबंदी करने वाले देष की तुलना में सर्वाधिक प्रतीत होती है। वर्श 1991 में सोवियत संघ के राश्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव भी अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए 50 और 100 रूबल को वापस ले लिया था हालांकि वे इस कदम से महंगाई पर काबू नहीं रख पाये और लोगों का विष्वास भी उनके प्रति घटा। अन्ततः सोवियत संघ के विखण्डन में भी इसे एक वजह के तौर पर देखा जाता है।
वर्श 1991 की 24 जुलाई को भारत में आर्थिक उदारीकरण की लकीर खींची गयी थी। 25 वर्श के इस उदारीकरण के बाद जिस मोड़ पर भारत आज खड़ा है कईयों का मानना है कि वहां से इसे दस कदम और आगे होना चाहिए था परन्तु काला धन और भ्रश्टाचार के चलते ऐसा सम्भव नहीं हो पाया। इसी से निपटने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी का फरमान सुनाया है। जिसे लेकर मौजूदा समय में अफरा-तफरी का माहौल बना हुआ है। कई इसे आर्थिक आपात तो कई इस निर्णय से कुछ नहीं होगा जैसी बातें भी कह रहे हैं। विष्व बैंक के पूर्व चीफ इकोनोमिस्ट और यूपीए सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार का कहना है कि भारत में जीएसटी अर्थव्यवस्था के लिए ठीक था परन्तु नोटों को रद्द किया जाना ठीक नहीं है। भारत की अर्थव्यवस्था काफी जटिल है और इसके फायदे के मुकाबले व्यापक नुकसान उठाना पड़ेगा परन्तु कई अर्थषास्त्री यह मानते हैं कि बेहतर अर्थव्यवस्था के लिए और फैली अव्यवस्था को ठीक करने के लिए ऐसे निर्णय की आवष्यकता थी। दो टूक यह भी है कि भले ही इसके तात्कालिक प्रभाव परेषानी में डालने वाले हों पर दीर्घकाल में यह अर्थव्यवस्था को बड़ी ऊँचाई दे सकता है जहां से सब कुछ व्यवस्थित होना आसान होगा। बावजूद इसके सरकार इसके साइड इफैक्ट पर भी नजरे गड़ाई होगी। 

सुशील कुमार सिंह

Tuesday, November 22, 2016

सोशल इंजीनियरिंग के साधक

आगामी कुछ महीनों में देष के सबसे बड़े प्रदेष उत्तर प्रदेष समेत उत्तराखण्ड एवं पंजाब जैसे प्रांतों में विधान सभा का चुनाव होना है और राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने को लेकर अभियान भी छेड़ दिया है।  गौरतलब है कि उत्तर प्रदेष में पूर्ण बहुमत के साथ समाजवादी पार्टी जब 2012 में बसपा से सत्ता हथियाई थी तब भी भाजपाई अपने पक्ष में सत्ता परिवर्तन के कसीदें गढ़ रहे थे। जबकि उन दिनों मायावती से सत्ता फिसल कर भारी भरकम बहुमत के साथ अखिलेष यादव के हाथों में आ गई थी। इस बार भी भाजपा प्रधानमंत्री मोदी और अमित षाह के बूते यूपी में करिष्में के इंजतार में है पर सच्चाई यह है कि यूपी की सियासत से भाजपा दषकों से दूर खड़ी है और इसी मामले में कांग्रेस तीन दषक पीछे चल रही है। गौरतलब है कि तीन बार दिल्ली की मुख्यमंत्री रही षीला दीक्षित को यूपी में चेहरा पेष कर महीनों पहले कांग्रेस बड़ी चाल चलने की कोषिष की पर सियासी हल्कों में षीला दीक्षित को हल्के तरीके से ही लिया गया। देखा जाए तो यूपी के सियासी क्षितिज से कांगे्रस बीते तीन दषकों से ओझल हो गई है जबकि भाजपा सत्ता की चाह में कड़े अभ्यास में जुटी रही लेकिन इस चासनी का स्वाद बसपा और सपा के बीच बनी रही। हलांकि इस बार मायावती का भी उतना व्यापक रसूक दिखायी नहीं दे रहा है। बीते 2014 के लोकसभा के चुनाव में बसपा का खाता न खुल पाना भी इसके सियासी समीकरण को काफी हद तक छिन्न-भिन्न किया है। इसके अलावा ऐसे दलों की एक समस्या यह भी है कि इनके पास दूसरी-तीसरी पंक्ति के नेतृत्व का घोर अभाव है। हलांकि यह बात कांग्रेस पर भी लागू होती है। यहां भी सोनिया और राहुल गांधी के अलावा दूसरी पंक्ति की कतार नहीं दिखायी देती। 
सियासी जमात और उससे उगे विचार से चुनाव जीते है । हलांकि कि इतना ही प्र्याप्त नहीं होता है कम से कम उत्तर प्रदेष के मामले में यह बात पूरी तरह पुख्ता है। यहां सियासत जाति और धर्म की ध्रुवीकरण से ओत-प्रोत है। बेषक सियासी मैदान मारने के लिए सभी एड़ी चोटी का जोर लगाते है और नैतिकता की धरातल पर अपने -अपने हिस्से की सभी कसीदें गढ़ते है पर सच्चाई यह है कि साफ राजनीति से सभी अछूते है। उत्तर प्रदेष से पृथक उत्तराखण्ड में भी सियासी बयार इन दिनों परवान चढ़ी हुई है। भाजपा के अध्यक्ष अमित षाह देहरादून, हरिद्वार और अब अल्मोड़ा से सत्ता परिवर्तन की चाह में जान फूंकने की कोषिष में लगे है। उत्तराखण्ड भारतीय जनता पार्टी के लिए ऐसा सिरदर्द है कि हर सूरत में यहां का सिहांसन चाहिए। अदालती लड़ाई हार चुकी केंद्र सरकार उत्तराखण्ड में अपना वाजूद बनाने के लिए काफी कुछ दांव पर लगायेगी षायद यहीं वजह है कि अमित षाह समेत कई केंद्रीय नेता की चहल कदमी और मंचीय भाशण यहां की फिजा में खूब गूंज रहे है। जिस परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण के साथ सियासत मजबूरी लिये रहती है उसका भी नजारा यहां देखा जा सकता है। कहे तो बिना उत्तराखण्ड में चेहरा पेष किए बिना भाजपा जिस रूप में आगे बढ़़ रही है और  कांगे्रस के जिस चेहरे से उसका मुकाबला है उसका वाजूद इस पहाड़ी राज्य में इतना असहज नहीं है कि जनता सिरे से नकारा दे। अदालती लड़ाई से पुनः सत्ता वापस पाने वाले हरीष रावत एक लोकप्रिय चेहरे के रूप में अपनी पैठ बनाने में कम कामयाब नहीं है । खास बात यह भी है कि उत्तराखण्ड की सियासत विकास के मुद्दे से प्रभावी रही है। हलांकि हरिद्वार और उधमसिंह नगर के कुछ मैदानी इलाके सोषल इंजीनियरिंग के चलते मैनेज किये जाते रहे है। 
भाजपा को उत्तर प्रदेष भी जीतना है जाहिर है असीमित पसीने वहां भी बहाने है। बीते 14 नवम्बर को प्रधानमंत्री मोदी गाजीपुर के आरटीआई मैदान से पूर्वांचल वासियों को अपनी सियासी जद में लाने की कोषिष कर चुके है। गौरतलब है कि पूर्वांचल की राजनीति साधने के फिराक में वर्श 2014 के लोकसभा चुनाव में बनारस को केंद्र में रखा था । इस बार विधानसभा चुनाव में केंद्र गाजीपुर परिलक्षित होता दिखाई दे रहा है। हलांकि कई इसे असफल रैली करार भी दे रहे है। फिलहाल राजनीति का यह लब्बो लुआब रहा है कि एक दूसरे के समीकरण को बिगाड़ने के लिए आरोप प्रत्यारोप लगते रहे है । फिलहाल 23 नवम्बर को गाजीपुर में ही सपा मुखिया मुलायम सिंह की रैली से  भाजपा को मुलायम सिंह की जमीनी हकीकत का अंदाजा हो गया होगा कि पूर्वांचल की सियासत में उनकी सोषल इंजीनियरिंग कितनी व्यपाक है। वैसे भाजपा पूर्वांचल फतह करने के लिए काफी जोर लगा रही है। कौमी एकता दल का सपा में विलय भी पूर्वांचल की सियासत लिए समाजवादियों को मजबूती का आधार दे सकता है पर यह तभी सफल माना जायेगा जब सपा मजबूती से चुनाव में बनी रहेगी। कहा तो यह भी जा रहा है कि भाजपा का मंसूबा सपा के गढ़ में सेंध लगाने का है। फिलहाल सियासी पैंतरे में कौन अव्वल है इसका लेखा-जोखा आगामी दिनों में हो जाएगा। बेषक सियासत का उतार-चढ़ाव किसी भी दल के हिस्से में चाहे जिस रूप में फैले पर लाख टके का सवाल यह बना रहेगा कि मतदाताओं के लिए कौन बेहतर षुभचिंतक है। समाजवादी की सत्ता  चला रहे अखिलेष यादव भी परिवारिक लड़ाई में फंस चुके है। इन पर भी परिवारवाद का आरोप लगता रहा है । रोचक यह भी है कि 2014 के लोकसभा के चुनाव में भाजपा अपने सहयोगी सहित 80 के मुकाबले 73 सीटें जीती थी जबकि दो सीटों पर गांधी परिवार यानि सोनिया और राहुल की जीत हुई थी जबकि बची पांच सीटों पर सपा के मुलायम परिवार के सदस्यों ने जीती थी। केन्द्र के सियासी क्षितिज पर जो आरोप सोनिया गांधी पर परिवारवाद का लगता रहा है कुछ ऐसा ही मुलायम सिंह यादव पर लगाया जाता है। 
खास यह भी है कि भाजपा से टक्कर लेने वाली सपा पारिवारिक झगड़े से लगभग उबर सी गई है। मुलायम, षिवपाल तथा अखिलेष अब एक मंच पर दिखायी देते है। जबकि राम गोपाल यादव की पार्टी में वापसी हो चुकी है।  जिस तर्ज पर पार्टी में एकजुटता का प्रयास सभी कर रहे है उससे भी यह संकेत मिलता है कि सियासी मैदान मारने को लेकर किसी में कोई अनबन नहीं है। समाजवादी पार्टी भी जानती है कि पूर्ण बहुमत से युक्त मायावती से जब 2012 में वे अपनी राजनीतिक ताकत के चलते सत्ता छीन कर स्वयं की मजबूत पूर्ण बहुमत वाली सरकार बना सकते है तो कोई दूसरा ऐसा क्यों नहीं कर सकता । दषकों से सत्ता से दूर भाजपा की सीधी लड़ाई फिलहाल सपा से ही दिखाई देती है। ऐसे में पारिवारिक लड़ाई से ऊपर उठकर सियासी जंग जीतने के लिए एकजुटता दिखानी होगी। हलांकि कि यहा बसपा को दरकिनार नहीं किया जा सकता क्योंकि उत्तर प्रदेष की सोषल इंजीनियरिंग का मिजाज यह रहा है कि जाति और उपजाति वोट के बहुत काम आये है। पिछड़ा दलित एवं मुस्लिम वोटों पर सभी सियासी दलों की नजर रही है और औसतन यह झुकाव जिस ओर अनुपात से अधिक हुआ है सत्ता की चासनी का स्वाद उसी दल ने लिया है। फिलहाल भाजपा की ओर से स्वयं मोदी एवं अमित षाह वोट प्रतिषत बढ़ाने के लिए सोषल इंजीनियरिंग के साधक सिद्ध हो सकते है जबकि सपा की ओर से यहीं काम मुलायम सिंह यादव समेत उनके कुछ चाहीते कर सकते है। बसपा के लिए भी इस बार का चुनाव आसान नहीं होने वाला । रही बात कांगे्रस की तो उसका वजूद यूपी में आज भी फीका है सबके बावजूद अभी पार्टियों का गठबंधन और महागठबंधन का होना बाकी है। यदि ऐसा हुआ तो भविश्य में सियासी तेवर बदल सकते है। 




सुशील कुमार सिंह


Wednesday, November 16, 2016

इस शीत सत्र का मर्म और दर्शन

वैज्ञानिक प्रबंध के जनक एफ. डब्ल्यू. टेलर जब इस बात के लिए निराष हुए कि तमाम फायदेमंद सिद्धांत देने के बावजूद सभी उनकी आलोचना करते हैं तब उनके एक घनिश्ठ मित्र ने कहा था कि टेलर तुम्हारी उपलब्धियों को सभी सराहते हैं और आलोचना उस बात के लिए करते हैं जो तुमने किया ही नहीं है। ठीक इसी तर्ज पर इन दिनों मोदी सरकार को घेरने की कोषिष की जा रही है। जब से नोटबंदी वाला निर्णय आया है तब से कई विरोधी दलों का सुर सरकार के विरोध में और सरकार का रूख जनमानस के मान-मनव्वल की ओर कहीं अधिक झुक गया है। गोवा से लेकर गाजीपुर तक प्रधानमंत्री का सम्बोधन इस बात को पुख्ता करते हैं। गौरतलब है कि भले ही नोटबंदी के निर्णय को लेकर देष में अफरा-तफरी का माहौल हो पर अधिकतर का यह मानना है कि सरकार के इस निर्णय में दम है और काली कमाई वालों पर करारा आघात परन्तु नोटों की अदला-बदली के चलते जो दिक्कतें बढ़ी है उससे न केवल विरोधियों को सरकार घेरने का अवसर मिला है बल्कि जनता की भी दिनचर्या इन दिनों बैंकों और एटीएम के इर्द-गिर्द खप रही है। अभी यह मामला जमा एक हफ्ता बीता था कि संसद का षीतकालीन सत्र भी 16 नवम्बर से षुरू हो गया। हालांकि यह पहले से निर्धारित एक प्रक्रिया है पर इसमें कोई षक नहीं कि गरम माहौल में आहूत षीत सत्र को काफी झमेले झेलने पड़ेंगे। फिलहाल नोटबंदी का मामला सत्र के कोर में रहेगा और इसकी बानगी पहले दिन के तल्ख तेवरों से साफ झलकती है। जिस तर्ज पर विरोधियों ने संसद से लेकर राश्ट्रपति भवन तक मार्च किया और अपने इरादे जता दिये हैं साथ ही संसद में पहले ही दिन दिख रहे तेवरों से भी साफ है कि सरकार को भी डिफेन्सिव मोड के बजाय अफेन्सिव मोड में उतरना पड़ सकता है।
मोदी षासनकाल के आलोक में यदि इस षीत सत्र को परखें तो यह तीसरा होगा। इसके पहले वर्श 2014 के षीत सत्र को कामकाजी दृश्टि से काफी बेहतर करार दिया गया था। हालांकि इसमें भी कम अड़ंगेबाजी नहीं रही। पूर्ण बहुमत से युक्त मोदी सरकार की एक परेषानी हमेषा से रही है कि उसका राज्यसभा में संख्या बल का कम होना। षीत सत्र के मर्म और दर्षन को उजागर किया जाय तो 2015 का षीत सत्र उत्पादकता की दृश्टि से बोझ कम ही उतार पाने में सफल हुआ था। जहां लोकसभा में 13 विधेयकों पर बात बनी थी वहीं राज्यसभा कमतर रहते हुए 9 विधेयक तक ही सीमित रहा। बहुचर्चित और सरकार की महत्वाकांक्षी विधेयक जीएसटी को इस सत्र से भी निराषा मिली थी। हालांकि अब यह अधिनियमित हो चुका है। एक सच्चाई यह भी है कि असहिश्णुता के आरोप और पुरस्कार वापसी की होड़ के चलते पिछला षीत सत्र जिस तापमान पर पहुंच गया था उससे भी यह साफ होता है कि स्पश्ट बहुमत के बावजूद लोकतंत्र में विरोध के लिए व्यापक रिक्तता हमेषा कायम रहती है। कहा जाय तो साल 2015 का षीत सत्र उम्मीदों पर उतना खरा नहीं उतरा था इस अफसोस के साथ कि कांग्रेस ने काफी विघ्न डाला और रचनात्मक के बजाय नकारात्मक सियासत को पोशित किया था इसी समय नेषनल हेराल्ड का मामला भी उठा था। रही सही कसर इसके चलते पूरी हो गयी थी। सवाल है कि जब देष में समस्याएं आती हैं तो संसद में सवाल खड़े किये जाते हैं पर इसका जवाब कहां मिलेगा कि जब संसद में ही कई सवाल खड़े हो जायें। 
मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने पांच सौ और हजार रूपए के नोट बंद किये जाने को लेकर काम रोको प्रस्ताव लाने का नोटिस इस षीत सत्र में पहले ही दे चुकी है। राज्यसभा में पार्टी के उपनेता आनंद षर्मा ने नियम 267 के तहत ऐसा किया। सत्र के पहले दिन राज्यसभा में बोलते हुए उन्होंने नोटबंदी के मसले को लेकर सरकार की काफी लानत-मलानत की है और कहा है कि इससे छोटे-मोटे व्यापारियों सहित कईयों में लेनेदेन की दिक्कतें बढ़ी हैं। उन्होंने दो हजार रूपए के जारी नये नोट पर चुटकी लेते हुए इसे चूरन वाला नोट भी कहा। विपक्ष के हमले को सरकार भी समझ और बूझ रही है पर सरकार यह भी जानती है कि हो न हो उसे जनता का समर्थन मिल रहा है ऐसे में विपक्ष के दबाव में कदम वापिस खींचना सही संदेष नहीं जायेगा। गौरतलब है कि आगामी चार से पांच महीने के अंदर उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड एवं पंजाब समेत कुछ राज्यों में चुनाव होने हैं। यदि निर्धारित पचास दिन के अंदर नोटों की किल्लत से लोगों को मुक्ति दिला दी तो सरकार की जय-जयकार तो होगी ही साथ ही सियासी मैदान भी मारा जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी ने देष की जनता से नोटबंदी से सम्बंधित अड़चनों को दूर करने को लेकर पचास दिन का वक्त मांगा है। हो सकता है कि पचास दिन में जनता की समस्याओं को सरकार हल भी कर दे पर इसमें कोई दो राय नहीं कि काली कमाई दबा कर रखने वाले लोगों के लिए यह नासूर लम्बा चलेगा। कई सियासी दल नोटंबदी के विरोध कर के भी जनता की ही भलाई की बात कर रहे हैं जिसमें कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, बहुजन पार्टी समेत कई दल षामिल हैं। फिलहाल इसमें भी कोई दो राय नहीं कि संसद में सरकार को घेरने की कोषिष भी खूब की जायेगी सरकार भी यह जानती है पर सरकार लोकतांत्रिक सीमाओं का ख्याल करते हुए विपक्ष को कैसी घुट्टी पिलायगी अभी इस पर कुछ स्पश्ट नहीं है। काला धन के खिलाफ यदि नोटबंदी है तो आम जनता इसमें क्यों पिस रही है यह सवाल भी संसद में सरकार से पूछा जायेगा। उन असुविधाओं का हिसाब कौन देगा और उन समस्याओं का जिम्मेदार कौन है जिसका गुनाह जनता ने किया ही नहीं और सड़क पर सजा भोग रही है। जाहिर है विपक्ष ऐसे तंज भरे प्रष्नों से सरकार को आहत करना चाहेगी। देखने वाली बात यह होगी कि नोटबंदी जैसे बड़े निर्णय लेने वाली मोदी सरकार विपक्ष को कैसे संतुश्ट कर पाती है। 
मोदी कार्यकाल के तीन षीत सत्रों में मसलन वर्श 2014, 2015 काफी गरम रहे हैं और अब 2016 इसी तापमान से जूझने वाला है। सत्र के वर्श बदले हैं पर आदत वही रही है विधेयक रोक जायेंगे क्योंकि उस पर राजनीति होगी। विमर्ष होंगे भले ही नतीजे न मिलें। इच्छा षक्ति भी दिखाई जायेगी भले ही उसके प्रति चाहत न हो। अन्तिम अवसरों तक यह प्रयास रहेगा कि विरोधी सरकार को हाषिये पर धकेल कर नोटबंदी के मामले पर सौदेबाजी करवा लें और सरकार की यह कोषिष रहेगी कि उसे इंच भर पीछे न हटना पड़े। निजी प्रष्न भी दागे जायेंगे जो संसदीय पाठ्यक्रम के हिस्से षायद नहीं होंगे। कमोबेष लोकसभा में स्पीकर और राज्यसभा में सभापति होने वाले ऐसे बोझिल हंगामों से त्रस्त रहेंगे जिसके चलते बार-बार सदन भी रूकती रहेगी पर इस बात की किसे फिक्र होगी कि लोकसभा की एक घण्टे की कार्यवाही पर सरकारी खजाने से डेढ़ करोड़ और राज्यसभा में यही एक करोड़ दस लाख खर्च हो जाते हैं। यह आंकड़ा पिछले साल के आधार पर है। काली कमाई वाले जो सोचना वो सोचें पर जनता के टैक्स के पैसे से चलने वाली सदन का तो लिहाज़ माननीयों को रखना ही होगा। दो टूक यह भी है कि हर सत्र में कुछ ऐसे मुद्दे पनप जाते हैं जिसके चलते संसद को बंधक बना लिया जाता है। इस बार नोटबंदी का मामला कुछ इसी प्रकार का है। क्या इस बार भी कुछ ऐसा ही होने वाला है। बेषक देष के प्रतिनिधियों को जनता की भलाई के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है पर ख्याल रहे कि विरोध सियासी मैदान पर न हो कर जनहित के पिच पर हो। 

सुशील कुमार सिंह


Monday, November 14, 2016

देश के बाहर और भीतर

बीते 8 नवम्बर को सांय 8 बजे जब प्रधानमंत्री मोदी ने इस बात की घोशणा की, कि पांच सौ और हजार के नोट प्रचलन में नहीं रहेंगे तो इस बात को लेकर षायद ही किसी को संदेह रहा हो कि सप्ताह भर भी नहीं बीतेगा कि अपने ही पैसों के लिए जनता को भारी-भरकम समस्या से गुजरना पड़ेगा। देष के भीतर इन दिनों हालात रूपए बदलवाने या खाते से रूपए निकालने को लेकर जो अफरा-तफरी मची है उसे देखते हुए संकेत यह भी मिलता है कि भले ही सरकार का फैसला सौ टका सही हो पर इस मामले में किये गये होमवर्क अधूरे प्रतीत होते हैं। कहा जाय तो इन दिनों देष के भीतर के हालात बेकाबू हो रहे हैं। हालांकि जापान की तीन दिवसीय यात्रा समाप्त करने के बाद गोवा पहुंचे मोदी ने अपने सम्बोधन के दौरान यह कहा कि सिर्फ पचास दिन मेरी मदद करें, फिर चाहे जो सजा दें। भावुक मोदी यह भी बोले कि मैं जानता हूं कि मैंने किन लोगों से लड़ाई मोल ली है साथ ही रूंधे गले से यह भी कह डाला कि मैं कुर्सी के लिए पैदा नहीं हुआ, घर और परिवार देष के लिए सब कुछ छोड़ दिया। मोदी की राजनीतिक परिदृष्य को देखते हुए उक्त बातों को कहीं से नाजायज़ नहीं ठहराया जा सकता और जिस तर्ज पर नोटों को प्रचलन से बाहर करने का भी मंतव्य था उस नीयत पर भी सवाल नहीं उठाया जा सकता बावजूद इसके जनता से जुड़े सवाल का जवाब मिलना अभी बाकी है। लम्बी-लम्बी कतारों में बैंक और एटीएम में खड़े लोगों की छटपटाहट अब धीरे-धीरे दिखने लगी है, बेषक मोदी के इस नीति से देष का काला धन नेस्तोनाबूत होगा परन्तु देष में जो इन दिनों आर्थिक अफरा-तफरी है उस पर भी तेजी लानी होगी साथ ही नागरिकों को भी भारी-भरकम धैर्य दिखाना होगा।
इस सच से षायद ही किसी को गुरेज हो कि बीते ढ़ाई वर्शों के कार्यकाल में 60 से अधिक देषों की यात्रा करने वाले मोदी ने भारत को बड़ा कूटनीतिक फलक भी दिया है। विकसित और विकासषील देषों समेत कईयों के साथ मोदी के मित्रवत रिष्ते भी काफी उपजाऊ सिद्ध हुए हैं। पाक अधिकृत कष्मीर में हुए 28-29 सितम्बर की रात सेना द्वारा की गयी सर्जिकल स्ट्राइक से यह पुख्ता हुआ कि भारत की कूटनीति वैष्विक फलक पर कितनी मजबूत है। पड़ोसी बांग्लादेष समेत विष्व के कई देषों ने भारत के इस कदम को उसकी जरूरत बता कर परोक्ष और प्रत्यक्ष साथ दिया। उड़ी हमले के तुरंत बाद संयुक्त राश्ट्र संघ में भाशण के दौरान जिस प्रकार पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ षरीफ अकेले पड़ गये और आज भी जिस अकेलेपन से जूझ रहे हैं ये मोदी की नीतियों का ही नतीजा कहा जा सकता है। गौरतलब है कि 24 सितम्बर को केरल के कोंझीकोड़ से मोदी ने भारत समेत पाकिस्तानी आवाम को भी सम्बोधन में षामिल करते हुए दर्जनों स्पर्धा से जुड़े मुद्दों पर पाकिस्तान को चुनौती दी थी और पाकिस्तान को अकेला कर देने की बात भी दोहराई थी और ऐसा करने में व्यापक पैमाने पर सफलता भी मिली है। हालांकि सर्जिकल स्ट्राइक के बाद सीमा पर न तो गोलाबारी रूकी है और न ही ताबूत में बंद सैनिकों की देष के भीतर आना रूका है साथ ही सीमावर्ती गांवों के बाषिन्दों को कई मुष्किलों के अलावा जान-माल की सुरक्षा भी खतरे में है। फिलहाल देष के भीतर रूपयों को लेकर बढ़ती समस्याओं के बीच पीएम मोदी की तीन दिवसीय जापान यात्रा सफलता के साथ पूरी हो गयी है। हालांकि रास्ते में वे थाइलैंड की राजधानी बैंकाॅक में भी दिवंगत नरेष भूमिबोल अदुल्यदेज को श्रृद्धांजलि अर्पित करने के लिए थोड़ी देर रूके थे। 
एक रोचक प्रसंग यह भी है कि जिस दिन ब्लैक मनी को लेकर मोदी मास्टर स्ट्रोक लगा रहे थे उसी दौरान अमेरिकी राश्ट्रपति के चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप भी मील का पत्थर गाड़ रहे थे। फिलहाल इन दिनों दोनों देषों में एक समानता यह भी है कि एक तरफ भारत का जनमानस रूपयों की तलाष में घर से बाहर है तो दूसरी तरफ अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की जीत के बाद अमेरिकी सड़क पर विरोध जता रहे हैं। इसी बीच यह भी खबर है कि संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् में सुधार और उसके बाद भारत की स्थायी सदस्यता की दावेदारी का ब्रिटेन और फ्रांस समेत संयुक्त राश्ट्र के कई सदस्य देषों ने समर्थन दिया है। हालांकि स्थाई सदस्यता को लेकर भारत की दावेदारी बरसों पुरानी है और मोदी षासनकाल के इन ढ़ाई वर्शों में इसको और बल मिला है। सबके बावजूद ताजा और अनुकूल परिप्रेक्ष्य यह है कि बीते दिनों जब मोदी जापान में थे तब दोनों देषों के बीच असैन्य परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर हुए जो आने वाले समय के लिए हितपूर्ति के काम आयेंगे। इस बात को भी समझ लेना चाहिए कि जिस विस्तार के साथ देष के समसमायिक विन्यास बढ़े हैं और जिस तर्ज पर भारत को विकास कार्यों को पूरा करने के लिए धन की जरूरत है उसे देखते हुए मोदी को अपनी वित्तीय नीति भी पुख्ता करनी थी। ऐसे में देष के भीतर जमा काले धन पर घात करना स्वाभाविक था पर बरसों से इस बात पर भी जोर आज़माइष रही है कि कैसे विदेषी बैंकों में जमा धन की वापसी की जाय। आॅस्ट्रेलिया के जी-20 षिखर सम्मेलन में भी मोदी के काले धन के मुद्दे को लेकर सभी देषों की राय एक थी पर देषों के स्थानीय नियम और कानूनों को देखते हुए अड़चनें अधिक थीं। ऐसे में विदेष से कालाधन लाना मोदी सरकार के लिए भी इतना सरल काज नहीं रह गया था। जिस तर्ज पर सरकार नीतियों और कानूनों में लगातार सुधार कर रही है उसके लिए भी पुख्ता धन की आवष्यकता बनी हुई है। पांच सौ और हजार के नोट को चलन से बाहर करके देष के भीतर जमा काले धन को नश्ट कर सरकार अपनी जरूरतों के साथ आगे बढ़ सकती है। यदि इसमें पूरी तरह सफलता मिलती है जैसा कि सम्भावना है तो देष की जीडीपी में एकाएक उछाल भी आ सकता है और भीतर की बुनियादी समस्याओं से निजात पाया जा सकता है। एक कहावत है कि किसी भी देष की मजबूती उसकी भीतरी संरचना से जुड़ी होती है न कि बाहरी आडम्बर मात्र से। 
आने वाले कुछ ही महीनों में सम्भवतः फरवरी, मार्च उत्तर-प्रदेष, उत्तराखण्ड और पंजाब समेत पांच राज्यों का चुनाव होना है। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उत्तराखण्ड में परिवर्तन यात्रा पर निकल चुकी है जिसका षंखनाद राश्ट्रीय अध्यक्ष अमित षाह ने बीते 13 नवम्बर को देहरादून से फूंका और कहा कि अटल के उत्तराखण्ड को मोदी संवारेंगे। गौरतलब है कि मार्च में उत्तराखण्ड राश्ट्रपति षासन से जूझ चुका है और षीर्श अदालत के फैसले के बाद हरीष रावत सरकार की बीते 10 मई को बहाली हो गयी थी। जिसके चलते यहां के मुख्य विपक्षी भाजपा की राजनीतिक प्रतिश्ठा भी दांव पर लगी हुई है और यह तब अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है जब अरूणाचल का दांव भी इनका फेल हो चुका है। फिलहाल देष के अंदर और बाहर भिन्न-भिन्न प्रकार की समस्याएं तैरती हुईं मिल जायेंगी जिसमें इन दिनों नोट बंदी पर मची हाय-तौबा भीतर की बड़ी समस्या बन चुकी है। अरविंद केजरीवाल, ममता बैनर्जी और मायावती समेत कई इस फैसले पर मोदी सरकार की लानत-मलानत कर रहे हैं जबकि पेरषानी के बीच फंसे नागरिकों में भी राय बंटी हुई है। फिलहाल परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण इस ओर भी इषारा कर रहे हैं कि सरकार का यह निर्णय यदि निर्धारित समय के अंदर अफरा-तफरी से बचाने में कारगर नहीं हो पाया तो आने वाली सियासत का रूख भी इसके चलते बदल सकता है।


सुशील कुमार सिंह


Friday, November 11, 2016

व्हाइट हाउस में ट्रम्प का गृह प्रवेश

अमेरिकी राश्ट्रपति के चुनावी नतीजे ने उन्हें जरूर निराष किया होगा जो व्हाइट हाऊस में किसी महिला का प्रवेष चाहते रहे होंगे। करोड़ों की संख्या में अमेरिकी नागरिकों ने देष की प्रथम महिला राश्ट्रपति या व्हाइट हाऊस के लिए एक कारोबारी को चुनने हेतु बीते 8 नवम्बर को मतदान किया था और 9 नवम्बर को दोपहर तक आये नतीजे से स्पश्ट हो गया कि व्हाइट हाऊस अब ट्रंप के हवाले है। चुनाव जीतने के बाद राश्ट्रपति बने डोनाल्ड ट्रंप ने साफ किया कि अब दुष्मनी नहीं। औपचारिकता निभाते हुए हिलेरी क्लिंटन ने भी ट्रंप को जीत की बधाई दी। जीत की घोशणा के बाद ट्रंप ने दुष्मनों को भी दोस्त बनाने की बात कही और मिल-जुलकर काम करेंगे इसका भी आह्वान किया। जो ट्रंप तीखे चुनाव प्रचार के लिए जाने जाते थे आज उनके सुर काफी बदले हुए थे। षायद वे भी राश्ट्रपति होने का तात्पर्य समझ रहे थे। ट्रंप के लिए यह चुनाव जीतना इतिहास बनने जैसा ही है पर अमेरिका के 240 वर्श के लोकतांत्रिक इतिहास में किसी महिला ने कभी किसी को इस तरह टक्कर भी नहीं दी होगी। नतीजों से साफ है कि चुनावी रणनीति में हिलेरी भले ही पीछे रह गयी हो पर जिस प्रकार आखिरी क्षण तक चुनौती दोनों प्रतिद्वन्दियों में विद्यमान थी उसे देखते हुए साफ था कि टक्कर कांटे की थी। एक-एक वोट के लिए दोनों उम्मीदवार अमेरिकी जनता के समक्ष जोरदार बहस करते हुए देखे गये। यह भी स्पश्ट है कि इस बार के अमेरिकी राश्ट्रपति चुनाव पर दुनिया भर की नजरें टिकीं थी। फिलहाल नतीजे से कौन निराष हुआ, कौन उल्लास से भर गया यह भी पड़ताल का विशय हो सकता है। 
डेमोक्रेटिक पार्टी की हिलेरी क्लिंटन और रिपब्लिकन से उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप को लेकर वैष्विक फलक पर बीते कई महीनों से चर्चा-परिचर्चा का बाजार भी गर्म रहा। आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी चुनावी प्रचार के दिनों में खूब चला। 70 वर्शीय ट्रंप अमेरिका के पहले ऐसे राश्ट्रपति होंगे जो अब तक के राश्ट्रपतियों में सर्वाधिक उम्रदराज हैें। इसके पहले रोनाल्ड रीगन बुजुर्ग राश्ट्रपति के लिए जाने जाते थे। गौरतलब है कि जीत के लिए 270 का आंकड़ा छूना इतना आसान नहीं था पर इस जादुई आंकड़े को न केवल उन्होंने छुआ बल्कि इसे पार करते हुए हिलेरी क्लिंटन को कहीं पीछे छोड़ दिया। देखा जाय तो डोनाल्ड ट्रंप की चुनाव के आखिरी दिनों में विदेष नीति भी मोदीमय हो गयी थी तब उन्होंने कहा था कि यदि मैं राश्ट्रपति बना तो मोदी की नीतियों को लागू करूंगा। अब देखने वाली बात यह होगी कि यह एक चुनावी जुमला था या ट्रंप इसके प्रति वाकई में संवेदनषील थे। वैसे ट्रंप की विदेष नीति में भारत अहम होगा यह अंदाजा भी लगाया जा रहा है। पाकिस्तान को लेकर भारत का साथ भी ट्रंप दे सकते हैं क्योंकि ट्रंप ने सम्भवतः पाकिस्तान को दुनिया का सबसे खतरनाक देष की संज्ञा दी थी। ट्रंप ने यह भी संकेत दिये हैं कि परमाणु षक्ति सम्पन्न पाकिस्तान को काबू में रखने के लिए वे भारत के साथ काम कर सकते हैं। इसके साथ ही यह भी कयास रहा है कि अमेरिकी नतीजे से उत्पादन की मुष्किलें बढ़ेंगी। भारत के उत्पादन क्षेत्र के लिए षीघ्र कोई सुखद खबर आयेगी इसकी कम ही सम्भावना है। 
ट्रंप के 45वें राश्ट्रपति चुने जाने के बाद यह भी तय हो गया कि अभी भी अमेरिका में उच्च पदों पर महिलाओं को पहुंचाने के लिए इंतजार करना होगा। आठ साल अमेरिका में राश्ट्रपति रहे बिल क्लिंटन की पत्नी और मौजूदा राश्ट्रपति बराक ओबामा के पहले कार्यकाल में विदेष मंत्री रहीं हिलेरी क्लिंटन की ताबड़तोड़ प्रचार षैली को देखते हुए यह कहीं से नहीं लग रहा था कि नतीजे उनके पक्ष में नहीं होंगे पर सच्चाई यह है कि मजबूत नेतृत्व देने की बात कहने वाली हिलेरी चुनाव हार गयी हैं। ओबामा ने देष का नेतृत्व करने को लेकर ट्रंप को जहां अयोग्य करार दिया था वहीं हिलेरी क्लिंटन को अपने से भी योग्य बताया था पर अब इन बातों का क्या। गौरतलब है कि अमेरिका के इतिहास में एक और इतिहास इस चुनावी नतीजे के बाद जुड़ गया है। हमारे पास एक मजबूत आर्थिक योजना है, मिलकर अमेरिका का पुर्ननिर्माण करेंगे। अमेरिका के सभी नागरिकों का एक होने का समय है आदि तमाम बातें ट्रंप ने नतीजे अपने पक्ष में आने के बाद कही। बेषक डोनाल्ड ट्रंप दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क अमेरिका के राश्ट्रपति बन चुके हैं पर दुनिया में फैले आतंकवाद समेत कई घातक समस्याओं से कैसे निपटेंगे इस पर अभी उनका कोई रोडमैप सामने नहीं आया है। हालांकि उन्होंने आतंकवाद के मामले में जो रूख दिखाया है यदि उस पर कायम रहते हैं तो आतंकियों को कुचलना काफी हद तक आसान होगा। 
खास यह भी है कि डोनाल्ड ट्रंप यह मानते हैं कि अमेरिका विष्व इतिहास में नौकरियों की सबसे बड़ी चोरी से जूझ रहा है। भारत, चीन, मैक्सिको और सिंगापुर में अमेरिकी कम्पनियां नौकरियां ले जा रही हैं। उन्होंने यह भी कहा चीन के विष्व व्यापार संगठन में प्रवेष से अमेरिका 70 हजार फैक्ट्रियां गंवा चुका है। उनका यह वक्तव्य कि सबसे बड़ी नौकरी चोरी की वजह भारत और चीन हैं खलने वाली है। उक्त से यह संकेत मिलता है कि ट्रंप कुछ मामलों में चीन और भारत में कोई फर्क नहीं देखना चाहते जबकि मोदी नीतियों के चहेते होने की बात करते हैं। हालांकि यह चुनाव से पहले का वक्तव्य है। नतीजे पक्ष में आने से सुर को देखते हुए यह भी समझा जा सकता है कि अब जो भी बोलेंगे वे जिम्मेदारी से भरा होगा। विष्व के कई देष जिसमें रूस और कुछ हद तक भारत का खेमा भी ट्रंप को जीतते हुए देखना चाहता था। भारत की नाजुक समस्या यह है कि उसे पाकिस्तान और चीन दोनों को संतुलित करना होता है और अमेरिका से आंख से आंख मिलाकर संवाद करने की चाहत रखता है। ट्रंप को लेकर कट्टर होने की बात भी कही जाती रही है जबकि सच्चाई यह है कि बदलते वैष्विक अर्थव्यवस्था और उससे जुड़े सम्बंधों को देखते हुए कट्टरता गौण होनी चाहिए। संदर्भ और परिप्रेक्ष्य तो यह भी है  कि चाहे नतीजे में ट्रंप होते या हिलेरी पर भारत को तो अपना भाग्य बदलने के लिए स्वयं एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता। यदि ट्रंप के होते आतंकवाद पर काबू पा लिया जाता है और पाकिस्तान को जिस नजरों से ट्रंप देखते हैं यदि उसमें हेरफेर नहीं होता है तो भारत न केवल चीन के साथ संतुलन बिठाने में कामयाब होगा बल्कि कोरोबारी डोनाल्ड ट्रंप से राश्ट्रपति बने ट्रंप के साथ लम्बे रिष्तों की तुरपाई भी करना आसान होगा।

सुशील कुमार सिंह


पानी की सियासत में सत्ताएं

पंजाब सरकार को झटका देते हुए जब देष की षीर्श अदालत ने बीते 10 नवम्बर को यह निर्णय सुनाया कि सतलुज के पानी पर हरियाणा का भी हक है तो एक बार लगा कि अरसे से विवाद का मुद्दा रही सतलुज-यमुना लिंक (एसवाईएल) नहर पर अब मामला हल हो चुका है पर जिस तेवर के साथ पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाष सिंह बादल ने हरियाणा को एक भी बूंद पानी नहीं देने की बात कहीं और राश्ट्रपति के पास  अपील करने की मंषा जाहिर की  उससे साफ है कि षीर्श अदालत के निर्णय के बावजूद अभी सियासी टकराव दोनों राज्यों के बीच बना रहेगा। अदालत के फैसले के बाद पंजाब की सियासत में भी भूचाल आ गया है। कांग्रेस नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया जबकि पार्टी के विधायकांे ने भी सामूहिक रूप से विधानसभा की सदस्यता से अपना त्याग पत्र दे चुके है। इस्तीफे के इस झड़ी को पंजाब के उप-मुख्यमंत्री नाटक करार दे रहे है। फिलहाल निर्णय के चलते बदले ताजे हालात से अब सुप्रीम कोर्ट के 2002 और 2004 का आदेष भी प्रभावी हो गया हैं। जिसमें के्रंद्र सरकार को नहर का कब्जा लेकर लिंक निर्माण पूरा करना है। जस्टिस दवे की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय सवैंधानिक पीठ ने कहा कि पंजाब एसवाईएल के जल बंटवारे के बारे में हरियाणा, दिल्ली समेत अन्य के साथ हुए समझौते को एक तरफा रद्द करने का फैसला नहीं कर सकता। हलांकि एसवाईएल से संबंधित समझौते में पंजाब-हरियाणा के साथ दिल्ली, राजस्थान, और जम्मू-कष्मीर भी षामिल है परंतु पंजाब और हरियाणा के लिए यह कहीं अधिक भावनात्मक और उससे कहीं अधिक राजनीतिक मुद्दा रहा है। 
इसी वर्श बीते मार्च में नहर पर छिड़े विवाद मे एक नया मोड़ तब आया था जब पंजाब विधानसभा ने इसके खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया। इस प्रस्ताव के चलते ही पंजाब में नहर के लिए अधिग्रहीत की गई किसानों की जमीन की वापसी सुगम हो गई थी। सैकड़ांे स्थानों पर किसान पुनः जमीन पर काबिज भी हो गए थे। इस घटना ने हरियाणा की उम्मीदों पर पानी फेर दिया था। प्रसंग यह भी है कि पंजाब हरियाणा को पानी न देने के फैसले पर अड़ा रहता है तो दिल्ली में भी सप्लाई प्रभावित होगी साथ ही दोनों प्रदेषों के बीच रिष्तों में भी दरार पड़ेगी। उस दौरान कोर्ट ने भी हरियाणा की अपील पर यथास्थिति बनाये रखने की बात कहीं थी। इतना ही नहीं नहर को लेकर हरियाणा सरकार से मिली सारी रकम को भी पंजाब सरकार ने वापस कर दिया था। पंजाब और हरियाणा के बीच पानी लाने के लिए 214 किमी. लंबी सतलुज-यमुना लिंक नहर बनाने को लेकर 1981 में समझौता हुआ था। हरियाणा ने अपने हिस्से के 92 किमी. की नहर वर्शाें पहले ही पूरा कर चुका है परंतु पंजाब ने षेश 122 किमी. का निर्माण अभी तक पूरा नहीं किया है ऐसा न करने के पीछे उसकी पानी न देने वाली इच्छा ही रही है। फिलहाल पानी को लेकर जिस प्रकार सियासत फलक पर है उसे देखते हुए साफ है कि विवाद न केवल लम्बा खिचेंगा बल्कि इस पर सियासी रोटियां भी आने वाले चुनाव में सेंकी जाएगी। पंजाब से सत्तारूढ़, अकाली-भाजपा गठबंधन और उससे पहले सत्ता में रही कांग्रेस दोनों षीर्श अदालत के फैसले से असहज महसूस कर रहे है। फिलहाल पंजाब में पानी की सियासत को लेकर दोनों मुख्य पार्टियां सियासी दाव चल चुकी है। दषकों से खटाई में फंसी एसवाईएल को लेकर मामला पहले भी काफी भड़क चुका है और अभी भी यह उसी क्रम में है। 
यह कहा जाता है कि जल ही जीवन है बावजूद इसके षायद ही इसे लेकर सभी गंभीर हो। पानी को लेकर कभी दो पड़ोसी आपस में लड़तें है तो कभी दो राज्य और कभी -कभी इसे लेकर दुनिया भी आमने-सामने हो जाती है। पानी पर सियासत की कहानी बहुत पुरानी है। भारत में जल बंटवारे को लेकर राज्य सरकारों के बीच पहले भी जंग रही है। जिसका इतिहास 1969 के गोदावरी के जल बंटवारे से  देखा जा सकता है। कृश्णा, नर्मदा, रावी और व्यास नदी समेत देष में आधे दर्जन से अधिक नदी जल बंटवारे से जुड़े झगड़े क्रमिक रूप से सूचीबद्ध है। ताजा प्रकरण में अब सतलुज-यमुना लिंक भी एक बार फिर षुमार हो गई है हलांकि इस मामले में दषकों से राजनीति हो रही है। इस नहर के जरिये हरियाणा को 3.83 मिलियन एकड़ फुट पानी मिलना था। सु्रप्रीम कोर्ट ने 2004 में फैसला दिया था कि एक साल के भीतर पंजाब सरकार इसका निर्माण करवाये। यदि ऐसा करने में पंजाब सरकार पीछे हटती है तो केन्द्र अपने खर्चे पर नहर बनवाये । उस दौरान ओमप्रकाष चैटाला हरियाणा के मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने लड्डू बांट कर खुषियां मनाई थी। 2005 के चुनाव में हरियाणा मे कांग्रेस की वापसी हुई और अमरिंदर सिंह  सरकार ने विधानसभा में प्रस्ताव पारित करते हुए पहले के सारे जल समझौतों को रद्द किया जिसके चलते नहर का मामला एक बार फिर लटक गया। तब हरियाणा सरकार राश्ट्रपति के चैखट पर गई जिसे लेकर राश्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी थी । अब एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर पंजाब सरकार राश्ट्रपति के दरवाजे पर जाने की बात कह रही है। देखा जाए तो भारत के कुल 29 राज्यों में पंजाब, हरियाणा, उतरप्रदेष, तेलंगाना समेत नौ राज्य गंभीर जल संकट से जुझ रहे है पंजाब यह भली भांति जनता है कि उनकी जीवन रेखा पानी ही है। इसके अभाव में वह जल संकट वाले राज्यों में वह अव्वल नहीं होना चाहता। विडंबना तो यह भी है कि पानी के लिए हाहाकार के बावजूद इसके प्रति संवेदनषीलता की लोगों में कम ही रही है। विषेशज्ञ तो यह भी मानते है कि तीसरा विष्व युद्ध जल संसाधनों पर कब्जे से जुड़ा होगा। 
वैसे तो पानी की किल्लत दुनिया भर में है । पानी के क्षेत्र में काम करने वाली सलाहकारी फर्म ईए वाटर के अध्ययन के अनुसार 2025 तक भारत पानी की कमी से जुझने वाले देषों मेें षुमार होगा। गौरतलब है कि जमीन से पानी निकालने के मामले में भी भारत दुनिया के देषों में अव्वल नंबर पर आता है।  ऐसा देखा गया है कि राज्यों की जल से जुड़ी समस्याएं बुनियादी तौर पर अक्सर उभरती रही हैं और विवाद दषकों तक चलते रहे है। कावेरी जल विवाद इसका पुख्ता उदाहरण है।  नदियों का कोई एक क्षेत्र नहीं होता लेकिन जिन इलाकों से यह गुजरती है वहां की सरकारें इसके पानी के दोहन के मामले में सर्वाधिकार रखना चाहती है। पंजाब पांच नदियों का स्थान है इसी के चलते पंजाब नामकरण भी हुआ है। हरित क्रांति की प्रेरणा और गंगा-यमुना के दोयाब में बसा यह प्रांत नदियों मंे घटते पानी के चलते उसकी कीमत समझने की कोषिष कर रहा है। पंजाब चुनाव के मुहाने पर है ओर सरकार कोई ऐसा जोखिम नहीं लेना चाहेगी कि जिससे कि उसके वोट पर असर पड़े। बेमौसम बारिष और फसल में रोगों के चलते बीते दो वर्शों से पंजाब के किसानों मंे भी आत्महत्या बढ़ी है। जाहिर है कि चुनावी वर्श में मुख्यमंत्री प्रकाष सिंह बादल अपने हितों को साधने की फिराक में  वह सब कुछ करेेंगे जो मतदाताओं को आकर्शित करने के लिए जरूरी होगा । फिर चाहे षीर्श अदालत के निर्णयों के विरूद्ध ही क्यों न लामबद्ध होना पड़े। विपक्ष में एड़िया रगड़ रही कांग्रेस भी इस अवसर को भुनाने की फिराक में है तभी तो अदालत के फैसले के बाद अमरिंदर सिंह ने इस्तीफे का कार्ड खेला है। परिप्रक्ष्य यह भी है कि सतलुज-यमुना लिंक नहर को लेकर सत्ताओं के बीच संघर्श बादस्तूर  छिड़ा है। सियासत का पानी और पानी की सियासत में राजनीति कितनी गाढ़ी होगी यह भी देखना रोचक होगा। 



सुशील कुमार सिंह



ब्लैक मनी पर मास्टर स्ट्रोक

एक हजार और पांच सौ के नोट की बंदिषों वाले प्रधानमंत्री मोदी के इस निर्णय को देखते हुए एक प्रबंध विज्ञान के चिंतक पीटर ड्रकर की याद अनायास ही ताजा हो जाती है। पीटर ड्रकर ने ‘द इफेक्टिव एक्जीक्यूटिव‘ नामक पुस्तक में कहा है कि प्रषासक दो प्रकार के होते हैं एक वे जो सदैव अनावष्यक, विस्तृत एवं उत्तेजक क्रियाओं में व्यस्त होते हैं, दूसरे वे जो सृजनात्मक और महत्वपूर्ण कार्यों में ही समय लगाते हैं। दूसरा वक्तव्य मोदी के लिए बिल्कुल समुचित है। प्रधानमंत्री के एकाएक नोटों को बंद करने का निर्णय जिस तर्ज पर हुआ है उसे देखते हुए कई ब्लैक मनी पर सर्जिकल स्ट्राइक की संज्ञा दे रहे हैं तो कई इसे मास्टर स्ट्रोक बता रहे हैं। हालांकि इस साहसिक कदम के पीछे लम्बे समय की रणनीति रही है पर देखने वाली बात यह थी कि एक हजार और पांच सौ के नोटों को चलन से बाहर करने के निर्णय को लेकर किसी को कानों-कान खबर नहीं हुई। खबर तब हुई जब देष के नाम संदेष में प्रधानमंत्री मोदी स्वयं इस मुद्दे के साथ प्रकट हुए। नोटों को प्रचलन से बाहर करना और अकस्मात ऐसा निर्णय होना आम जन-जीवन में मानो अफरा-तफरी हो गयी हो। इस निर्णय को लेकर देष भर की राय भी बंटी हुई दिखाई देती है। सबके बावजूद निर्णय की काफी सराहना भी की जा रही है। हालांकि अस्पताल में इलाज जैसी जरूरतों के लिए निर्णय के तीन दिन तक बादस्तूर नोट वैसे ही प्रचलन में रहेंगे। इसके अलावा भी कुछ स्थानों को चिन्ह्ति किया गया है जहां पर यह बरकरार है। प्रचलन से बाहर हो चुके नोटों को आगामी 30 दिसम्बर तक बदला जा सकता है। इसके अलावा कुछ औपचारिकताओं के साथ इसे परिवर्तित करने की अवधि 31 मार्च, 2017 भी निर्धारित की गयी है।
गौरतलब है कि मोदी हैरत में डालने वाले कुछ निर्णय पहले भी ले चुके हैं मसलन 25 दिसम्बर, 2015 को एकाएक लाहौर की यात्रा करके उन्होंने वैष्विक फलक पर हलचल पैदा कर दी थी जबकि बीते 28-29 सितम्बर की रात पाक अधिकृत कष्मीर में की गयी सर्जिकल स्ट्राइक भी एक साहसिक निर्णय के तौर पर परखा गया। हालांकि यह साहस देष की सेना का था पर निर्णय के सूत्रधार तो राजनीतिक कार्यपालिका ही कही जाती है। नोटों के प्रचलन से बाहर करने को लेकर मोदी को यह भी लगता है कि इस निर्णय से आम जनता कुछ असहज हो सकती है तभी तो उन्होंने अपील करते हुए कहा कि लोगों को कुछ परेषानियां पेष आयेंगी लेकिन मेरा आग्रह है कि देषहित में वे कठिनाईयों को नजरअंदाज करेंगे। खास यह भी है कि राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने सरकार के इस साहसिक कदम की भूरी-भूरी प्रषंसा की है। कई कयासों के बीच यह भी स्पश्ट है कि प्रधानमंत्री मोदी ने इस मास्टर स्ट्रोक के चलते एक तीर से कई निषाने भी साधे हैं। काले धन के रूप में जिन लोगों ने हजार और पांच सौ रूपए की नकदी जमा कर रखी हैं उनके लिए अब यह केवल कागज के टुकड़े रहेंगे। आगामी कुछ महीनों में उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं चुनाव के दौरान इस्तेमाल होने वाले बेनामी नकदी पर भी लगाम लगाई जा सकेगी। इसके अलावा भुगतान के पारम्परिक और वैधानिक तरीकों को भी बल मिलेगा इससे भी काले धन रखने वाले प्रचलन से बाहर हो जायेंगे। गौरतलब है कि पाक से आयातित नकली नोटों का गोरख धंधा बीते कई वर्शों से भारत में चल रहा है। इसे भी एक झटके में नेस्तोनाबूत करने का काम कर दिया गया है। ऐसा भी रहा है कि आतंकियों के पास ऐसे धन का खूब संचय है जिसकी चमक में वे दूसरों की जिन्दगी में अंधेरा कर रहे हैं। उनको भी इस निर्णय के चलते वित्तीय झटका मिल चुका है। 
सबका साथ, सबका विकास और सुषासन के साथ समृद्ध देष की अवधारणा को विकसित करने की चाह रखने वाले मोदी वैष्विक फलक पर भी बीते ढ़ाई वर्शों में भारत को बुलंद करने का काम किया है। आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन के मसले को लेकर उन्होंने प्रत्येक अन्तर्राश्ट्रीय मंचों पर जोर लगाकर अपने अंदाज में बात कही है। काली कमाई को लेकर और उसकी विदेषों में जमाखोरी को लेकर भी जी-20 की बैठक में भी सहमति बनवाने में सफलता प्राप्त की है पर वैष्विक स्तर पर जो प्रयास काले धन को लेकर हुआ उसकी जमीनी हकीकत पूरी तरह समुचित नहीं रही। अब बारी देष के अन्दर बेहतर होमवर्क के साथ मजबूत निर्णय की थी जो बीते 8 नवम्बर को लिया जा चुका है। साफ है कि इस निर्णय से एक बार फिर भारतीय अर्थव्यवस्था की दषा और दिषा भी नया रास्ता अख्तियार करेगी। जब देष के विकास की धारणा और उसमें छिपे लोक कल्याण को लेकर चिंता बड़ी हो जाती है तो षासकों को ऐसे निर्णयों से गुजरना ही पड़ता है। प्रधानमंत्री मोदी का 8 नवम्बर की देर षाम आये निर्णय ने उसके अगले दिन जिस तर्ज पर कौतूहल लिए रहा उसमें ट्रंप की अमेरिकी राश्ट्रपति के तौर पर जीत भी फीकी रही पर एक सच्चाई यह है कि भारत के प्रधानमंत्री मोदी और नवनिर्वाचित अमेरिका के राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक साथ मास्टर स्ट्रोक मारा है। कहा जाय तो यहां भी इतिहास बना है और वहां भी इतिहास लिखा गया है। 
गौरतलब है कि बड़े नोटों को चलन से बाहर करने की बात बीते कुछ वर्श पूर्व बाबा रामदेव ने भी कही थी। बाबा रामदेव कालेधन के मामले में अभियान भी छेड़ चुके हैं। एनडीए के 2014 के चुनावी एजेण्डे में भी काला धन षामिल रहा है बेषक देष के बाहर के काले धन को लेकर इस निर्णय से चित्र न साफ होता हो पर देष के अंदर इसका व्यापक असर होता दिखाई दे रहा है। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी कहा है कि प्रधानमंत्री के इस फैसले से आतंकवाद और भ्रश्टाचार के खिलाफ लड़ाई मजबूत होगी। इस बात में सच्चाई है पर यह लड़ाई इतने मात्र से सम्भव होगी कहना कठिन है जिस तर्ज पर आतंकवाद का विस्तार हुआ है उसे देखते हुए यह केवल इसे रणनीति का एक हिस्सा मात्र ही कहा जा सकता है। बड़े नोटों के प्रचलन से बाहर करने से दूरमागी असर होंगे। रियल स्टेट, सर्राफा बाजार सहित कई स्थानों पर काम काज में पारदर्षिता आयेगी। आतंकियों की तो कमर टूटेगी ही नकली नोटों का कारोबार भी थमेगा। सरकारें बरसों से वित्तीय घाटा झेल रही हैं इस कदम से उनके राजस्व में भी बढ़ोत्तरी होगी। इन सबके अतिरिक्त संचित निधि में वृद्धि होने से देष के बुनियादी विकास को बल मिलेगा। षिक्षा, स्वास्थ एवं रोजगार समेत गरीबी को मिटाने में यह मददगार सिद्ध होगा। देखा जाय तो स्वतंत्रता के बाद काले धन व भ्रश्टाचार के खिलाफ सरकार का यह सबसे बड़ा कदम है। हालांकि साल 1975 में इन्दिरा गांधी के षासनकाल में भी बड़े नोटों को चलन से बाहर किया गया था वह दौर आज से काफी भिन्न था। सरकार का फैसला नकदी को लेकर लोगों के लिए कठिनाई जरूर पैदा कर रहा है पर चैक, ड्राफ्ट, क्रेडिट व डेबिट कार्ड से भुगतान सुविधा ज्यों की त्यों बनी हुई है आॅनलाइन लेन-देन की कोई पाबंदी नहीं है। परिप्रेक्ष और दृश्टिकोण यह इषारा करते हैं कि आर्थिकी की इस बदली रोषनी में रास्ते और समतल होंगे और उस बेहतरी की ओर भारत बढ़ सकेगा जिसकी कल्पना सपनों की उड़ान में थी न कि हकीकत में। एक सच्चाई यह भी है कि नतीजे चाहे नरम-गरम ही क्यों न हों पर सरकार का साहस क्या होता है यहां यह भी उजागर होता दिखाई देता है। 


सुशील कुमार सिंह


Tuesday, November 8, 2016

दिल्ली के आकाश में तबाही का मंज़र

जब हम सुनियोजित एवं संकल्पित होते हैं तब प्रत्येक संदर्भ को लेकर अधिक संजीदे होते हैं पर यही संकल्प और नियोजन घोर लापरवाही का षिकार हो जाय तो वातावरण में ऐसा ही धुंध छाता है जैसा इन दिनों दिल्ली में छाया है। मनुश्य की प्राकृतिक पर्यावरण में दो तरफा भूमिका होती है पर विडम्बना यह है कि भौतिक मनुश्य जो पर्यावरण को लेकर एक कारक के तौर पर जाना जाता था आज वह सिलसिलेवार तरीके से अपना रूप बदलते हुए कभी पर्यावरण का रूपांतरकर्ता है तो कभी परिवर्तनकर्ता है अब तो वह विध्वंसकर्ता भी बन गया है। इसी विध्वंस का एक सजीव उदाहरण इन दिनों दिल्ली का आकाष है। राजधानी में दीपावली के बाद प्रदूशण का स्तर बढ़ने के चलते जीवन के मोल में भारी गिरावट इन दिनों देखी जा सकती है। सांस लेने में दिक्कत दमा और एलर्जी के मामले में तेजी से हो रही बढ़ोत्तरी इसका पुख्ता उदाहरण है। चिकित्सकों की राय है कि ऐसे मामलों की संख्या 60 फीसदी तक हो गयी है। बीते 17 सालों में सबसे खराब धुंध के चलते दिल्ली इन दिनों घुट रही है। सर्वाधिक आम समस्या यहां ष्वसन को लेकर है। इस बार धुंध की वजह से सांस लेने में गम्भीर परेषानी खांसी और छींक सहित कई चीजे निरंतरता लिए हुए है। स्थिति को देखते हुए उच्च न्यायालय को यहां तक कहना पड़ा कि यह किसी गैस चैम्बर में रहने जैसा है। प्रदूशण की स्थिति को देखते हुए निगम के करीब 17 सौ स्कूल बीते 5 नवम्बर को बंद कर दिये गये। स्कूल खुलने के दौरान अध्यापकों और छात्रों को कक्षा के बाहर न जाने और प्रार्थना मैदान के बजाय कक्षा में ही कराने के निर्देष भी दिये गये।
इसमें कोई दो राय नहीं कि दिल्ली एनसीआर और उसके आस-पास के इलाकों में हवायें जहरीली हो गयी हैं। अब इस जहरीली धुंध ने नोएडा, गाजियाबाद, गुरूग्राम, आगरा और लखनऊ को भी अपनी चपेट में ले लिया है। सबसे बेहाल दिल्ली में धुंध इतनी खतरनाक है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दिन के 12 बजे भी सूरज की रोषनी इस धुंध को चीर नहीं पा रही है। यहां हवाओं का कफ्र्यू लगा हुआ है और दुकानों पर मास्क खरीदने वालों की भीड़। जब हवा में जहर घुलता है तो जीवन की कीमत भी बढ़ जाती है। सामान्य रूप से जन साधारण के लिए जीवनवर्धक पर्यावरण को किसी भी भौतिक सम्पदा से तुलना नहीं की जा सकती। मानव औद्योगिक विकास, नगरीकरण और परमाणु उर्जा आदि के कारण खूब लाभान्वित हुआ है परन्तु भविश्य में होने वाले अति घातक परिणामों की अवहेलना भी की है जिस कारण पर्यावरण का संतुलन डगमगा गया है और इसका षिकार प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों रूपों में मानव ही है। भूगोल के अन्तर्गत अध्ययन में यह रहा है कि वायुमण्डल पृथ्वी का कवच है और इसमें विभिन्न गैसें हैं जिसका अपना एक निष्चित अनुपात है मसलन नाइट्रोजन, आॅक्सीजन, कार्बन डाईआॅक्साइड आदि। जब मानवीय अथवा प्राकृतिक कारणों से यही गैसें अपने अनुपात से छिन्न-भिन्न होती हैं तो कवच कम संकट अधिक बन जाती है। मौसम वैज्ञानिकों की मानें तो आने वाले कुछ दिनों तक दिल्ली में फैले धुंध से छुटकारा नहीं मिलेगा। सवाल उठता है कि क्या हवा में घुले जहर से आसानी से निपटा जा सकता है। फिलहाल हम मौजूदा स्थिति में बचने के उपाय की बात तो कर सकते हैं। स्थिति को देखते हुए कृत्रिम बारिष कराने की सम्भावना पर भी विचार किया जा रहा है। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री की माने तो राश्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूशण के खास स्तर के लिए दिल्ली सरकार जिम्मेदार है क्योंकि 80 प्रतिषत से अधिक प्रदूशण दिल्ली के कचरे को जलाने से हुआ है। 
अब प्रदूशण के चलते आपे से बाहर हो गयी दिल्ली को लेकर सियासत भी रंगदारी दिखा रही है। एतियाती उपाय के तौर पर कह दिया गया है कि जितना हो सके लोग घरों में रहें। सभी सामान्य रिपोर्टों का निश्कर्श यही है कि दिल्ली का प्रदूशण अपनी उस सीमा पर चला गया है जहां से मनुश्य की सहनषीलता जवाब दे देती है। यह महज़ आंकड़ों का खेल नहीं है बल्कि सबके लिए डरावनी स्थिति पैदा करने वाला भी है। दिल्ली सरकार के मुखिया केजरीवाल प्रदूशण को आपातकालीन स्थिति मानते हुए जो कुछ कर रहे हैं उसका कितना असर होगा यह देखने वाली बात है। दरअसल केजरीवाल ने 5 दिनों तक किसी प्रकार के निर्माण या तोड़-फोड़ की कार्यवाही पर रोक लगाने की बात कही है। अस्पतालों एवं मोबाइलों के टावरों को छोड़ सभी जनरेटर सेट चलाने पर दस दिन की बंदिष है। यहां तक की बदरपुर प्लांट से इतने ही दिनों तक राख भी नहीं उठाई जायेगी। बेषक केजरीवाल के इस प्रयास के चलते कुछ हद तक प्रदूशण के स्तर में तो कमी आयेगी पर जिस बुलंदी पर दिल्ली के आकाष में प्रदूशण तैर रहा है उसे देखते हुए इतने प्रयास नाकाफी लगते हैं। कृत्रिम बारिष का उपाय भी पूरी तरह कारगर है इस पर भी अभी बातें कुछ अस्पश्ट सी हैं। नेषनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने प्रदूशण के मामले को लेकर दिल्ली सरकार को फटकार लगाई है और कहा है कि उसे स्टेटस रिपोर्ट दे। ट्रिब्यूनल की तल्खी इस कदर है कि उसने केजरीवाल को यहां तक कहा कि आप सिर्फ मीटिंग करने में व्यस्त हैं जबकि प्रदूशण रोकने में कोई ठोस कदम नहीं उठा रहे हैं। फिर सवाल उठता है कि पर्यावरण की स्वच्छता को लेकर क्या केवल दिल्ली सरकार की लानत-मलानत से पूरा समाधान मिलेगा। प्रदूशण को फैलाने वाले जिम्मेदार लोग कहां गये इस प्रष्न की भी तलाष होनी चाहिए। 
रोषनी का त्यौहार दीपावली में फूटे पटाके और उससे फैले प्रदूशण के चलते आंखों के आगे अंधेरा छा जायेगा इसकी कल्पना षायद ही किसी को रही हो। यह बात भी मुनासिब है कि जिस विन्यास के साथ सामाजिक मनुश्य, आर्थिक मनुश्य तत्पष्चात् प्रौद्योगिक मानव बना है उसकी कीमत अब चुकाने की बारी आ गयी है। विज्ञान एवं अत्यधिक विकसित, परिमार्जित एवं दक्ष प्रौद्योगिकी के प्रादुर्भाव के साथ 19वीं सदी के उत्तरार्ध में औद्योगिक क्रान्ति का 1860 में सवेरा होता है। इसी औद्योगिकीकरण के साथ मनुश्य और पर्यावरण के मध्य षत्रुतापूर्ण सम्बंध की षुरूआत भी होती है तब दुनिया के आकाष में प्रदूशण का सवेरा मात्र हुआ था। एक सौ पचास वर्श के इतिहास में प्रदूशण का यह सवेरा कब प्रदूशण की आधी रात बन गयी इसे लेकर समय रहते न कोई जागरूक हुआ और न ही इस पर युद्ध स्तर पर काज हुआ। विकसित और विकासषील देषों के बीच इस बात का झगड़ा जरूर हुआ कि कौन कार्बन उत्सर्जन ज्यादा करता है और किसकी कटौती अधिक होनी चाहिए। 1972 के स्टाॅकहोम सम्मेलन, मांट्रियल समझौते से लेकर 1992 एवं 2002 के पृथ्वी सम्मेलन, क्योटो-प्रोटोकाॅल तथा कोपेन हेगेन और पेरिस तक की तमाम बैठकों में जलवायु और पर्यावरण को लेकर तमाम कोषिषें की गयी पर नतीजे क्या रहे? कब पृथ्वी के कवच में छेद हो गया इसका भी एहसास होने के बाद ही पता चला। हालांकि 1952 में ग्रेट स्माॅग की घटना से लंदन भी जूझ चुका है। कमोबेष यही स्थिति इन दिनों दिल्ली की है। उस दौरान करीब 4 हजार लोग मौत के षिकार हुए थे। कहा तो यह भी जा रहा है कि यदि धुंध का फैलाव दिल्ली में ऐसा ही बना रहा तो अनहोनी को यहां भी रोकना मुष्किल होगा। सीएसई की रिपोर्ट भी यह कहती है कि राजधानी में हर साल करीब 10 से 30 हजार मौंतो के लिए वायु प्रदूशण जिम्मेदार है इस साल तो यह पिछले 17 साल का रिकाॅर्ड तोड़ चुका है। ऐसे में इस सवाल के साथ चिंता होना लाज़मी है कि आखिर इससे निजात कैसे मिलेगी और इसकी जिम्मेदारी सबकी है यह कब तय होगा?


सुशील कुमार सिंह


Wednesday, November 2, 2016

एलओसी पर कीमत चुकाते जवान और जनता

यही कोई दो दषक से अधिक पुरानी बात होगी जब कष्मीर आन्तरिक कलह से जूझ रहा था तब एक बार एक राश्ट्रीय समाचार पत्र में यह पढ़ने को मिला कि एक पत्रकार ने खेत में काम कर रही एक कष्मीरी युवती से यह पूछा कि इन गोली एवं बम के धमाकों के बीच आपको डर नहीं लगता तब उस युवती का हतप्रभ करने वाला जवाब था कि यह बात और है कि आप की सुबह संगीत से और मेरी धमाको से होती है। जब भी एलओसी पाकिस्तान के नापाक इरादों की जद् में आती है तब वहां के बाषिन्दों को कीमत चुकानी पड़ती है। पाकिस्तानी गोलाबारी में बीते 1 नवम्बर को आठ नागरिकों की मौत हो गयी, लगभग 22 घायल हो गये। हालांकि जवाबी कार्यवाही में भारतीय सेना और बीएसएफ ने पाकिस्तान की 14 चैकियां ध्वस्त कर दीं। सीमा पर जारी सीज़फायर का उल्लंघन और धड़ाधड़ पाक की ओर से चलती गोलियां वहां के आम लोगों के लिए मौत का सबब बन रही है। एक ओर सीमा पर सैनिक षहीद हो रहे हैं तो दूसरी तरफ आम लोगों की मौत का आंकड़ा भी बढ़ रहा है। जम्मू-कष्मीर में पाक सीमा पर गांव और बस्तियों में रहने वाले लोग इन दिनों बम और गोलियों के बीच रहने के लिए मजबूर हैं। कुछ तो एलओसी के इतने नज़दीक हैं कि हर वक्त मौत के मुहाने पर हैं। सुदूर उत्तर के इस क्षेत्र में देखा जाय तो बारिष कम, बम ज्यादा बरसते हैं। जिस तर्ज पर आम नागरिक हताहत हो रहे हैं और जिस प्रकार सर्जिकल स्ट्राइक के बाद पाकिस्तान ने भारत की ओर आतंकियों समेत सेना का रूख मोड़ लिया है उससे साफ है कि सर्जिकल स्ट्राइक भले ही हमारी पीठ थपथपाने के काम आ रही हो पर पाक ने षायद इससे कोई सबक नहीं लिया। अक्सर यह रहा है कि सेना आम नागरिकों को निषाना नहीं बनाती है पर पाकिस्तानी सेना को ऐसी नैतिकता से भला क्या लेना-देना। उसे तो हर हाल में अपनी सनक पूरी करनी है।
नियंत्रण रेखा के निकट दो किलोमीटर के दायरे में गांवों को खाली कराने की प्रक्रिया षुरू है। सीमा के आस-पास के आबादी क्षेत्रों की सुरक्षा भी बढ़ाई गयी। पाक सैनिकों द्वारा बौखलाहट में जो कुछ किया जा रहा है यदि उसके बदले भारत ने पूरी ताकत से पलटवार किया तो यह पाकिस्तान के लिए किसी तबाही से कम भी नहीं होगा। 1948 से लेकर 1999 के कारगिल युद्ध तक चार युद्धों में हर बार पाकिस्तान परास्त होता रहा है बावजूद इसके भारत से दो-दो हाथ करने पर आमादा है। इन दिनों जम्मू-कष्मीर दो समस्याओं से जूझ रहा है एक अलगाववादियों के चलते बीते चार महीने से घाटी की स्थिति बेकाबू है, दूसरे उरी घटना के बाद हुए सर्जिकल स्ट्राइक तत्पष्चात् पाक द्वारा एलओसी पर अपनी पूरी ताकत झोंकना। सीमा पार से भारी गोलाबारी के चलते केन्द्र सरकार ने एलओसी और आईबी के पास सभी चार सौ के लगभग सरकारी निजी स्कूलों को बन्द करने का आदेष दिया है और ऐसा तब तक चलता रहेगा जब तक स्थिति सामान्य नहीं होती जबकि घाटी के अंदर तो 8 जुलाई को आतंकी बुरहान वानी की मौत के बाद से ही मामला आपे से बाहर है और यहां भी इतने ही दिनों से सैकड़ों स्कूल बंद हैं और लाखों बच्चे घर में बिना पढ़ाई-लिखाई के समय काटने के लिए विवष हैं। सीमा पर चल रही तनातनी के चलते कई समस्याएं पनपी हैं। लोगों को षरण लेने के लिए अपना घर-बार छोड़ना पड़ रहा है। हजारों लोग आरएसपुरा सेक्टर के बना सिंह स्टेडियम में षरण लिए हुए हैं और गोलाबारी की स्थिति को देखते हुए यहां संख्या निरंतर बढ़ रही है। कुछ तो बंकरों में रिहायष बनाये हुए हैं। इसके अतिरिक्त जारी फायरिंग से सैकड़ों पषु अब तक मारे जा चुके हैं जबकि दो सौ से ज्यादा घायल बताये जा रहे हैं। सीमा से सटे किसानों का एक दुःख उनकी फसल भी है। इस दौरान फसल पूरी तरह तैयार खड़ी है पर उसकी कटाई गोलाबारी के बीच करना मुमकिन नहीं है। 
भारत ने पाक की ओर से जारी गोलाबारी को देखते हुए विरोध भी दर्ज कराया है पर सवाल है कि क्या मात्र विरोध दर्ज कराने से समाधान होगा फिलहाल यह तो कतई नहीं होने वाला। जिस सनक में पाकिस्तान इन दिनों है और जिस कूटनीति के तहत भारत ने अपनी कोषिषों से उसे अलग-थलग किया है उससे साफ है कि कमजोर और निहायत विक्षिप्त पाकिस्तान से अपेक्षा रखने का कोई मतलब नहीं है। दिल्ली स्थित पाक उच्चायोग में भी पाकिस्तानी जासूस पकड़ा जा चुका है। अभी भी यहां 16 जासूस मौजूद हैं और यह बात पाक राजनयिक महमूद अख्तर के कबूलनामे से साफ हुई है। गौरतलब है कि 26 अक्टूबर को महमूद भारतीय सेना की तैनाती सम्बंधी दस्तावेज से कई आपत्तिजनक सामग्री के साथ हिरासत में लिया गया था। पाक के गुनाहों पर चीन पर्दा डालने के काम में बादस्तूर अभी भी लगा हुआ है। वल्र्ड बलूच वूमेन्स फोरम की अध्यक्ष नायला का कहना है कि अगर चीन पाकिस्तान का साथ छोड़ दे तो बलूचिस्तान तुरन्त आजाद हो जायेगा। चीन चीनी चारा डाल कर पाकिस्तान को अपनी मुट्ठी में करने की भरसक कोषिष में लगा हुआ है। एक बात यह भी स्पश्ट है कि भारत से आन्तरिक बैर और बाह्य संतुलन बिठाने के लिए चीन हमेषा पाकिस्तान को चारा डालता रहेगा और पाकिस्तान सदियों तक भारत के दुष्मन बने रहने के लिए चीन के झांसे में आता रहेगा जबकि पाकिस्तान और चीन दोनों को यह समझ लेना चाहिए कि भारत से बेहतर उदारवाद से भरा पड़ोसी षायद उन्हें कभी नसीब हो जो अपने हितों के साथ सर्वहित एवं विष्व कल्याण से पोशित है।
फिलहाल देखा जाय तो सीमा पर जंग जारी है और जिस तर्ज पर जारी है उसका अंत स्पश्ट नहीं दिखाई देता। षहीद होने वाले सैनिकों की संख्या 90 के आस-पास पहुंच चुकी है। 63 से अधिक बार सीज़फायर का उल्लंघन हो चुका है। आतंकी अभी भी एलओसी पार करने की फिराक में रहते हैं जबकि भारतीय सेना सुरक्षात्मक उपाय के साथ उन्हें नश्ट करने या पीछे धकेलने की कोषिष में लगी हुई है। पेंटागन ने भी चेतावनी दी है कि पाक में पनाह ले रहे आतंकी न केवल पाकिस्तान के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए खतरा हैं। दृश्टिकोण और परिप्रेक्ष्य दोनों इस ओर इषारा करते हैं कि पाकिस्तान अपनी हरकतों से भारत को उकसा रहा है और सीधे-सीधे यह संकेत दे रहा है कि वह युद्ध नीति पर चल रहा है। अब सोचना भारत को है। चर्चा तो यह भी है कि ताबूत में सैनिकों की सीमा से इस तरह वापसी सही नहीं है। पाकिस्तान की ऐसे करतूतों का मुंह तोड़ जवाब दिया जाय। हालांकि भारतीय सेना और बीएसएफ सहित सभी इसी काम में लगे हैं पर क्या इसे सीधी लड़ाई कही जा सकती है षायद नहीं। भारत बचाव में अपने सैनिक और नागरिक दोनों खो रहा है जबकि पाकिस्तान खोकर भी पीछे नहीं हट रहा है। पाकिस्तान की जनता क्या चाहती है यह उससे बेहतर कोई और नहीं जानता। भुखमरी और गरीबी के साथ बेरोजगारी से जूझने वाली पाकिस्तानी जनता के प्रधानमंत्री नवाज़ षरीफ अपने ही देष की कब्र खोदने में लगे हैं और भारत के सब्र को वे नज़रअंदाज कर रहे हैं। ऐसे में भारत का रूख भी स्पश्ट होना चाहिए। हालांकि भारत सर्जिकल स्ट्राइक और कूटनीति के माध्यम से पाकिस्तान में बिलबिलाहट पैदा कर दी है साथ ही पीओके को आधे से अधिक आतंकियों को छोड़ने के लिए विवष कर दिया है पर सर्जरी अभी अधूरी है। सबके बावजूद भारत सरकार का होमवर्क अच्छा कहा जा सकता है पर देष को तो नतीजे चाहिए।



सुशील कुमार सिंह