Monday, February 18, 2019

अब समय है 'इंडिया फ़र्स्ट' नीति का

पुलवामा से बड़ा हमला मुंबई में हुआ था, लेकिन जरूरी सबक सीखे बगैर भारत कुछ समय बाद ही पाकिस्तान के साथ बातचीत के लिए वार्ता की मेज पर दिखा था। पर  अब ऐसा कत्तई नहीं होगा। अब ऐसा लगता है कि नतीजे कुछ और होंगे। जिस प्रकार पाकिस्तान ने दुश्साहस कर हमारे 40 सैनिकों को षहीद किया है, उसे सही दण्ड देने का यही सही वक्त है। हो सकता है कि इसके कुछ दुश्परिणाम भी हों पर देष की आन-बान-षान के लिए कुछ कर गुजरना ही होगा। इस बार हमारी कार्यवाही कुछ इस प्रकार हो जिससे पाकिस्तान के आतंकियों का ही खात्मा न हो बल्कि पाकिस्तान की जनता भी कुछ महसूस करे और सरकार चला रहे अपने ही दो मुहें राजनीतिज्ञों को आईना भी दिखा सके। यह भी समझना उचित होगा कि पाकिस्तान के भीतर आतंकवाद और राजनीति की आपसी घालमेल है। जब तक इस पर करारा प्रहार नहीं होगा तब तक वहां की सियासत भी नहीं सुधरेगी। भारत आतंक से लहूलुहान होता रहा है और अपने दर्द को संयुक्त राश्ट्र के मंच समेत दुनियां के सामने बयां करता रहा है। दषकों से भारत को जो घाव पाकिस्तान से मिलता रहा है अब उसका हिसाब चुकाने की बारी आ गई है। जिसके लिए दुनियां को भी भारत के साथ होना चाहिए। पुलवामा आतंकी हमले के मद्देनजर अमेरिका के राश्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जाॅन बोल्टन ने अपने भारतीय समकक्ष अजीत डोभाल से कहा कि उनका देष भारत के आत्मरक्षा के अधिकार का सर्मथन करता है। गौरतलब है कि पुलवामा के आतंकी हमले ने भारत की वैचारिकता और भावनात्मकता कोे बड़ा घाव दिया है। इस घटना ने दुनियां की सोच को हतप्रभ करते हुए एक सुर भी देने का काम तो किया है पर राह में रोडे भी बहुत हैं हालांकि अब इसकी फिक्र षायद ही भारत करेगा।
संदर्भ निहित बात यह भी है कि दक्षिण एषिया, यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, रूस, इजराइल समेत अनेक देषों ने भारत के प्रति संवेदना जताई है। अमेरिका का यह कथन कि भारत दोशियों को सजा दे हम उसके साथ हैं जहां आतंक के विरूद्ध लड़ाई का सर्मथन दिखता है वहीं चीन का यह रूख कि पुलवामा समेत भारत में कई आतंकी हमले का अपराधी जैष-ए-मोहम्मद के सरगना अजर मसूद को अन्तर्राश्ट्रीय आतंकवादी घोशित करने का पक्षधर नहीं है से बडी निराषा भी होती है। प्रधानमंत्री मोदी सेना को पूरी तरह इस बात की छूट दे चुके हैं कि वह दोशियों को सजा देने का काम करें। पाकिस्तान को सर्वाधिक तरजीही राश्ट्र के दर्जे को भी भारत ने छीन लिया है। तमाम अन्तर्राश्ट्रीय दबावों को लेकर भी भारत की ओर से मोर्चा खोल दिया गया है। बावजूद इसके यह कहना कठिन है कि पाकिस्तान की सेहत पर इसे लेकर कोई खास असर पडे़गा। समय तो यही कहता है कि जब कूटनीतिक लड़ाई नाकाम हो जाए तो सीधी लड़ाई को मुखर कर देना चाहिए। ऐसा करने से षत्रु के होष भी ठिकाने पर आते हैं और कौन बेहतर मित्र है और कौन नहीं इसकी भी पड़ताल हो जाती है। फिलहाल भारत को प्रतिदिन की दर से पाकिस्तान को बर्बाद करने वाले मसौदे के एजेण्डे पर काम करना चाहिए। दो टूक यह है कि अब षान्ति नहीं समग्र रणनीति पर भारत को चैतरफा सोच विकसित करनी चाहिए। इस कड़ी में सिन्धु जल समझौता जो 1960 का है उसे रद्द करने के बारे में भी सोचना ही चाहिए। ऐसा करने से पाकिस्तान के 42 प्रतिषत कृशि खतरे में पडेगी और वहां की जनता को भी अहसास होगा कि आतंक और सरकार का गठजोड़ उसके लिए कितनी बड़ी मुसीबत है। जो चीन पाकिस्तान का सरपरस्त है उसे भी एहसास दिलाने की आवष्यकता है कि हर मौके पर उसके रूख को भारत तवज्जो नहीं देगा। चार बार चीन की यात्रा करने वाले मोदी और चैदह बार जिनपिंग से विभिन्न मंचों पर मुलाकात के बाद यदि अब पाकिस्तान पर दबाव बनाने में भारत, चीन के कारण मुष्किल में रहता है तो सोचना यह भी पड़ेगा कि दर्जन भर मुलाकातों का लाभ आखिर भारत को क्या मिला।
 संकोच नहीं करना है बल्कि डट कर मोदी को अपनी मन की बात करनी चाहिए वैसे ऐसा करते हुए भी दिखाई दे रहे हैं पर जमीन पर क्या उतरेगा यह बाद में पता चलेगा। अमेरिका जैसे देष ऐसी स्थिति में ‘अमेरिका फस्र्ट’ की नीति पर चलते हैं। भारत को भी अब ‘भारत फस्र्ट’ की नीति पर चलना चाहिए। अब निर्णायक कार्यवाही की प्रतीक्षा नहीं करनी है बल्कि षत्रु को फैसला सुनाना है। भारत को यह नहीं भूलना चाहिए कि अलकायदा के एक हमले ने अमेरिका को इतना विक्षिप्त किया कि दषक तक प्रयास करने के बाद भी थका नहीं। अन्ततः पाकिस्तान के एटबाबाद में ओसामा बिन लादेन को मार गिराया जिसका नामो-निषान का आज तक पता नहीं है। वही अमेरिका आज भारत के साथ है, रूस से हमारी नैसर्गिक मित्रता है, यूरोपीय देषों मुख्यतः फ्रांस, जर्मनी, इग्लैण्ड में भारत की धमक है। पी-5 अर्थात अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन के साथ भी पुलवामा मामले में भारत की पहल देखी जा सकती है। देखा जाय तो उत्तर से दक्षिण और पूरब से पष्चिम के तमाम देषों से भारत के अच्छे सम्बन्ध हैं। पड़ोसी देषों में चीन को छोड़ दिया जाय तो सभी सार्क व आसियान के देषों के साथ भारत की सद्भाव से भरे रिष्ते हैं जिसका मनोवैज्ञानिक लाभ पुलवामा बदला लेने में काम आ सकता है।
पुलवामा हमले की जिम्मेदारी लेने वाले आतंकी संगठन जैष-ए-मोहम्मद का पाकिस्तान मंे ठिकाना है और उसे वहां की सरकार द्वारा संरक्षण प्राप्त है। इतना ही नहीं पाकिस्तानी सेना से उसे मिला मनोबल ने भारत को गहरी चोट दे दी है। स्पश्ट है कि अब एक्षन की बारी भारत की है। गौरतलब है अमेरिका ने 2001 जैष को आतंकी संगठन घोशित किया था। जिस पाकिस्तान की सरपरस्ती में जैष बडा वृक्ष बना है उसे पाकिस्तान ने ही 2002 में गैर कानूनी घोशित किया था। इसके अलावा संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद ने जैष को अपनी 1267 आईएस और अलकायदा प्रतिबन्धित सूची में ढाला था पर नतीजे ढाक के तीन पात ही रहे। फिलहाल इन दिनों पाकिस्तान पर दबाव बढ़ा है पर बात इतने से बनेगी नहीं, जब तक भारत स्वयं इसका बदला नहीं लेगा। जब 2500 से अधिक सीआरपीएफ जवानों पर हमला हो तो सवाल यह भी है कि चूक किसकी है और इस चूक की कीमत कितनी बड़ी हो सकती थी। पुलवामा हमला सामरिक परिप्रेक्ष को भी चुनौती दे रहा है। पाकिस्तान क्या चाहता है तीन युद्ध में पटखनी खा चुका है साफ है सीधे लड़ाई करना नहीं चाहता। गौरतलब है जिया-उल-हक ने अफगानिस्तान में कठपुतली सरकार को जब बैठाया और भारत के विरूद्ध छद्म युद्ध छेड़ा तभी से देष चोट की दल-दल में फंस गया। ऐसा करने के पीछे बड़ी वजह यह थी कि पाकिस्तान जानता था कि यदि अफगानिस्तान कब्जे में होगा और भारत की प्रतिक्रिया के कारण यदि पाकिस्तानी सेना को पीछे हटना पड़ा तो उसे जगह मिल जाऐगी। हालांकि यह दौर षीतयुद्ध का था और सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया। यह भी कहीं न कहीं जिहादी आतंकवाद के उदय का एक कारण बना। देखा जाय तो 1989 में पाकिस्तान ने जिहादी आतंकवादियों को कष्मीर में संरक्षण देकर भारत के खिलाफ एक छुपी जंग षुरू कर दी जिसकी तीन दषक की यात्रा हो चुकी है और भारत लगातार आतंक की मार झेल रहा है, पुलवामा उसी की एक कड़ी है। आतंक से भारत कैसे मुक्त हो मानो देष के लिए रहस्य ही हो गया है। दुनियां कितना साथ देगी, इस पर भी दृश्टिकोण बहुत साफ नहीं है पर सकून इस बात का है बडे़ देष बड़ा दिल दिखा रहे हैं। बावजूद इसके यह लड़ाई भारत की है और दुनियां की सोच यदि इस लड़ाई में भारत  के साथ मेल खाती है तो जाहिर है पाकिस्तान को सबक सिखाना तुलनात्मक आसान हो जायेगा।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

भारत के कदम ठोस पर उठेंगे कब!

एक अच्छे राजनयिक के गुण क्या होते हैं? एक अज्ञात अंग्रेज लेखक ने अपनी पुस्तक डिप्लोमेसी में लिखा है सच्चाई, सटीकता, धैर्य, अच्छा मिजाज और वफादारी। मौजूदा समय में पुलवामा की घटना को देखते हुए भारत को पाकिस्तान के मामले में उक्त सभी षब्दों से आपत्ति होगी। बुद्धिमत्ता, ज्ञान, विवेक, गरिमा, विनम्रता, आकर्शण, मेहनत, साहस और चालबाजी को आप कैसे भूल सकते हैं। मैं इन्हें भूला नहीं हूं यह सब तो होने ही चाहिए। यह बात लिखने वाले लेखक हेराल्ड निक्सन हैं। चूंकि भारत पर इन दिनों गमों का पहाड़ टूटा है और इसका जिम्मेदार पहले की तरह पाकिस्तान ही है। ऐसे में उपरोक्त लिखित षब्दों के अर्थ व विष्लेशण में समय खर्च करने के बजाय भारत को इण्डिया फस्र्ट की नीति पर अब चल देना चाहिए। मुष्किल यह है कि जो पाकिस्तान बाहर से स्वयं को दुनिया के सामने पाक-साफ दिखाता है वह भीतर ही भीतर आतंकी कचरे से भरा पड़ा है। आतंकी हमलों ने हमारी कूटनीति को कभी सफल नहीं होने दिया और 70 साल की विफल दोस्ती के साथ पाकिस्तान के प्रति हम इसके उलट उदार भी बने रहे। पाकिस्तान का प्रधानमंत्री इमरान खान कहता है कि पाक सरकार और सेना दोनों भारत के साथ सभ्य रिष्ते चाहते हैं और इसके आगे यह कहा कि इरादे बड़े हों तो सभी मसले हल हो सकते हैं। अब इमरान खान को यह समझाना जरूरी है कि आतंक का पनाहगार पाकिस्तान, न तो इरादे में बड़ा है और न ही मसले को हल करना चाहता है बल्कि वह भारत पर आत्मघाती प्रहार करने का अवसर खोजता रहता है। ब्रिटेन ने भारत का विभाजन कर दिया और अपनी निजी महत्वाकांक्षा की पूर्ति कर ली। ऐसा पड़ोस विकसित किया जो उद्भव काल से घुसपैठ, युद्ध और बीते तीन दषकों से अपना आतंकी मलबा हमारे पर फेंक रहा है। देखा जाय तो जितनी पुरानी स्वतंत्रता है उतनी ही पुरानी पड़ोसी पाकिस्तान से अनचाहा संघर्श भी। भारत इन दिनों कराह रहा है और चीख भी रहा है यह समझना मुष्किल है कि इसे आवाज कहें, गुहार कहें, पुकार कहें या फिर फिजां में दर्द की गूंज कहें जो भी है हर आवाज़ पाकिस्तान से बदला चाहती हैं।
प्रधानमंत्री मोदी के मन में भी वही बात है जो जनता के मन में है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि हमारे कदम इतने ठोस होते हैं कि उठ ही नहीं पाते हैं पर सहने की मजबूरी हमेषा भारत की ही क्यों। देष के हर प्रधानमंत्री की सोच के हिसाब से नीति में कुछ बदलाव भी आते रहे हैं और तमाम गलतियों के बावजूद पाकिस्तान लीपापोती करके बचता रहा है। अन्तर्राश्ट्रीय नियमों की अनदेखी करना पाकिस्तान की आदत है। भारत में वारदातों को अंजाम देने के बाद मुकरना उसकी फितरत है। सबक सिखाने के नाम पर भारत जो भी प्रयोग करता है वह भी ढीठ पाकिस्तान के आगे कम ही पड़ता है। कभी-कभी लगता है कि पाकिस्तान का बनना ही एक कूटनीतिक गलती थी। यदि बन भी गया था तो भारत का उसके प्रति उदार बने रहना दूसरी गलती थी। इतना ही नहीं राजनयिक चूक का बार-बार होना षायद भारत की ओर से लगातार हो रही गलती ही है। ऐसा इस लिए कह रहा हूं क्योंकि 70 सालों में पाकिस्तान से कुछ भी हमें ऐसा नहीं मिला जिसे हम उपलब्धि कह पायें। हां इसके बदले में भारत हजारों की तादाद में सैनिकों और नागरिकों को खोया जरूर है। भारत निर्णायक और सख्त क्यों नहीं हो पा रहा है। भारत सभी बड़े युद्धों में पाकिस्तान को हराने के बावजूद पाकिस्तान के प्रति स्वैच्छिक रूप से उदार क्यों बना रहा। जबकि पाकिस्तान का दीर्घकालिक रणनीतिक उद्देष्य यह रहा है कि भारत दक्षिण-एषिया में सबसे प्रभावी ताकत के रूप में न उभर पाये। पाकिस्तान ने बहुत से मुस्लिम देषों, एषियाई और पष्चिमी षक्तियों का समर्थन हासिल कर लिया था ताकि भारत को सुरक्षात्मक रूख अपनाने में विवष कर सके। भारतीय धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और संवैधानिक संस्थानों पर पाकिस्तान ने बार-बार सवाल उठाया। यह उसका भारत में मतभेद पैदा करने का सोचा-समझा प्रयास था। जम्मू-कष्मीर, पंजाब और उत्तर-पूर्वी राज्यों में अलगाववादियों, आतंकवादियों और विध्वंसक षक्तियों का पाकिस्तान सहायता करता रहा और भारत इन्हीं से लड़ने में समय और संसाधन खर्च करता रहा। हांलाकि तस्वीर बदली है और दुनिया में वह एक आतंकी देष के तौर पर देखा जा रहा है। मगर सच्चाई यह है कि कीमत अभी भी भारत ही चुका रहा है। बीते 14 फरवरी को पुलवामा में जो हुआ वह इस बात को साबित करता है कि हमारे प्रयास कुछ भी हुए हों पाकिस्तान जस का तस है। 
पाकिस्तान की सीना जोरी यह है कि मुम्बई, पठानकोट और उरी की तर्ज पर ही पुलवामा का भी सबूत मांग रहा है जबकि भारत के सबूतों का उसकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता है। सबूत उसके लिए एक टाईम पास प्रक्रिया है। भारत को उलझाने की मात्र एक स्थिति है। सच्चाई से वह वाकिफ है पर आईना देखना नहीं चाहता। भारत में अभी प्रचण्ड जनादेष वाली सरकार है ऐसे में निर्णायक कदम उठाने में सभी नागरिक आषान्वित हैं। कभी-कभी लगता है कि सरकार कदम तो उठाना चाहती है पर सुरक्षात्मक भी अधिक रहना चाहती है। भारत में आतंकवाद का इस कदर ताण्डव वाकई देष को आक्रोष में डाल दिया है। देष के सभी दल एक साथ सरकार के साथ खड़े हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि भारत के पास कुछ ऐसी रणनीति तो होगी जिसे मास्टर स्ट्रोक कह सकते हैं। जिस मिजाज के प्रधानमंत्री मोदी हैं उसे देखते हुए लगता है कि चुनाव के इस वर्श में पाकिस्तान को कड़ा सबक सिखायेंगे। कहा तो यह भी जाता है कि भारत सिन्धु जल सन्धि क्यों नहीं तोड़ लेता। सीआरपीएफ के 40 से अधिक जवानों के षहीद होने से सरकार भी बहुत दबाव में है। क्या भारत अपनी आंतरिक और बाहरी सुरक्षा को लेकर मुस्तैद है यदि ऐसा है तो पुलवामा की घटना ही क्यों घटी। हो न हो चूक हो रही है। मोस्ट फेवर्ड नेषन का दर्जा पाकिस्तान से छीना जा चुका है और उसके आयातित वस्तुओं पर 200 फीसदी षुल्क बढ़ा दिया गया है। भारत 25 देषों के प्रतिनिधियों से मुलाकात कर चुका है। पी-5 देषों को भी हमले में पाकिस्तान की भूमिका की जानकारी दे चुका है। इसके अलावा 15 अन्य देषों को नापाक हरकत की जानकारी भारत की ओर से परोसी जा चुकी है और 40 देष भी पाकिस्तान की इस हरकत की निंदा कर चुके हैं। इतना ही नहीं अमेरिका के राश्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और भारतीय सुरक्षा सलाहकार की आपसी बातचीत हो चुकी है। कष्मीर में मजे की जिन्दगी जी रहे अलगाववादी हुर्रियत नेताओं की सुरक्षा भी वापस ले ली गयी है जो इन्हें 1996 से मिली हुई थी। उक्त सभी मामले भारत के वो कदम हैं जो षायद स्वाभाविक थे। असल कदम तो वे उठाने हैं जिससे पाकिस्तान रसातल में चला जाय। सीमा पर सीज़ फायर का उल्लंघन जारी है और षहीदों होने के सिलसिले थमे नहीं है। पुलवामा हमले के बाद केन्द्र सरकार ने सैन्य और कूटनीतिक स्तर पर आतंकियों और उनके आका पाकिस्तान की घेराबंदी तेज कर दी है। वैष्विक मंच पर उसे एक बार फिर अलग-थलग करने की मुहिम भारत छेड़ चुका है। बीते 17 फरवरी को म्यूनिक सम्मेलन में भी पाक के खिलाफ भारत को समर्थन मिला है। ईरान भी भारत के साथ मिलकर पाक को सबक सिखाने की बात कह रहा है। सवाल वही रहेगा कि ये भारत के वो कदम हैं जो आमतौर पर किसी भी आतंकी घटना के बाद कमोबेष उठते रहे हैं। प्रतीक्षा तो उस कदम की है जिससे पाकिस्तान के टुकड़े हों, उसके हौंसले पस्त हों, पीओके समेत पूरे पाकिस्तान से आतंकियों का सफाया हो और पाक के भीतर भारत को लेकर खौफ हो।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Thursday, February 14, 2019

न्याय की बात जोहता हिन्दू अल्पसंख्यक

2011 की जनगणना के आंकड़े यह दर्षाते हैं कि पूर्वोत्तर के मिजोरम, नागालैण्ड, मेघालय, अरूणाचल प्रदेष और मणिपुर, तथा उत्तर भारत के जम्मू-कष्मीर और पंजाब सहित दक्षिण का केन्द्र षासित प्रदेष लक्ष्यद्वीप हिन्दू अल्पसंख्यकों में आते हैं। बीते 11 फरवरी को एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने राश्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग से इससे जुड़े मामले पर निर्णय लेने की बात कही। षीर्श अदालत ने कहा कि वह पांच समुदाय को अल्पसंख्यक घोशित करने की 1993 की अधिसूचना रद्द करने, अल्पसंख्यकों की परिभाशा व पहचान तय करने साथ ही जिन आठ राज्यों में हिन्दू की संख्या बहुत कम है वहां हिन्दुओं को अल्पसंख्यक घोशित करने वाले मांग को ध्यान में रखते हुए तीन महीने में आयोग निर्णय ले। गौरतलब है कि भारत में मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, सिक्ख और पारसी अल्पसंख्यक घोशित किये गये हैं। परिप्रेक्ष्य व दृश्टिकोण यह है कि भाजपा के एक नेता और वकील अष्वनी कुमार की याचिका पर प्रधान न्यायाधीष रंजन गोगोई और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने उक्त मामले में आदेष दिये। दरअसल इस मामले में षीर्श अदालत के 10 नवम्बर, 2017 के आदेष के अनुसार राश्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को ज्ञापन दिया गया था पर उस पर आयोग ने कोई जवाब नहीं दिया। ऐसे में एक नई याचिका दाखिल की गई जिसे लेकर उक्त बातें कही गयी। राज्यवार अल्पसंख्यकों की पहचान करने की मांग वाली याचिका पर अदालत ने ही उस समय अल्पसंख्यक आयोग को ज्ञापन देने को कहा था। 11 फरवरी को बहस सुनने के पष्चात् सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि याचिका पर अभी आदेष देने के बजाय फिलहाल आयोग को उस पर लम्बित ज्ञापन का निर्णय लेना चाहिए। जिस हेतु सुप्रीम कोर्ट ने आयोग को तीन महीने की मोहलत दी है साथ ही याचिकाकत्र्ता को यह भी कहा कि आयोग का फैसला आने के बाद ही कानून में निहित उपाय को वे अपना सकते हैं। गौरतलब है कि राश्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की धारा 2(सी) को रद्द करने की मांग की गयी है कि इसके पीछे वजह यह है कि यह धारा मनमानेपन को बढ़ावा देती है और अतार्किक भी कही जा रही है। गौरतलब है कि इसी धारा के चलते केन्द्र को किसी भी समुदाय को अल्पसंख्यक घोशित करने का असीमित अधिकार मिला हुआ है। 
निहित संदर्भ यह भी है कि अल्पसंख्यक षब्द को परिभाशित करना कितना सरल और कितना जटिल है। संवैधानिक प्रावधानों के अन्तर्गत भावों का अध्ययन करने से पहले इस षब्द को परिभाशित करना कहीं अधिक आवष्यक है। गौरतलब है कि संविधान में अल्पसंख्यक षब्द का कई स्थानों पर प्रयोग है परन्तु इसे लेकर कोई स्पश्ट परिभाशा नहीं दिखाई देती। सामान्यतः अल्पसंख्यक उसे माना गया है जिसकी अपनी विषेश भाशा, लिपि या धर्म है और जिसकी संख्या अन्यों की तुलना में कम है। पड़ताल बताती है कि केरल षिक्षा विधेयक 1957 में अल्पसंख्यक षब्द पर उठे विवाद को लेकर निपटारा करते समय उच्चत्तम न्यायालय ने अल्पसंख्यक षब्द की व्याख्या कुछ इस तरह की थी जिसमें धर्म, भाशा और लिपि के आधार पर वर्गीकृत ऐसा समूह आता है जिसकी जनसंख्या राज्य की जनसंख्या के 50 फीसदी से कम है। देखा जाए तो इसाई, सिक्ख तथा मुस्लिम वर्ग को धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग के रूप में मान्यता प्रदान की गयी है। बौद्ध और जैन को लेकर भी इसी प्रकार की मान्यता की मांग उठती रही मगर संविधान में बौद्ध और जैन को हिन्दु धर्म की एक षाखा के रूप में देखा जाता रहा है। इसी के चलते इस धर्म विषेश को अल्पसंख्यक वर्ग घोशित नहीं किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 25 के अंतर्गत स्पश्टीकरण 2 का संदर्भ लेना यहां उचित होगा जिसमें यह निहित है कि हिन्दुओं के प्रति निर्देष का यह अर्थ लगाया जायेगा कि इसके अंतर्गत सिक्ख, जैन और बौद्ध धर्म के मानने वाले व्यक्तियों के प्रति निर्देष है तथा हिन्दुओं की धार्मिक संस्थाओं के प्रति निर्देष का अर्थ तदनुसार लगाया जायेगा। अल्पसंख्यक को लेकर भारतीय संविधान मौन तो नहीं है पर मुखर भी नहीं है। संविधान में अल्पसंख्यकों के संरक्षण हेतु अनेक प्रावधान किये गये हैं हालांकि संविधान की प्रस्तावना पंथनिरपेक्ष को सुनिष्चित करता है। संविधान की ना कोई जाति है न धर्म और न ही भाशा, बल्कि यह भारतीयता की एक ऐसी जमावट है जिसमें गंगा-जमुनी संस्कृति समेत कई प्राचीन मान्यताएं इसकी फलक पर हैं। 
भारतीय इतिहास की पड़ताल यह बताती है कि हिन्दूकाल, मुस्लिम काल और ईसाई काल का यहां दौर रहा है। भारत की जमीन न केवल कई इतिहास की जमावट लिए हुए है बल्कि जाति और धर्म के संघर्श से यहां कि सभ्यता और संस्कृति युक्त रही है। इन संघर्शों के चलते सभ्यता और संस्कृति में ही बदलाव नहीं आया बल्कि भारत का भूगोल भी समय के साथ नई रेखा ग्रहण कर लिया। गौरतलब है कि 565 रियासतों को जोड़कर आधुनिक भारत का निर्माण हुआ जो अब नये भारत की डगर पर है। बावजूद इसके कई बुनियादी समस्याओं से पुराना भारत जकड़ा रहा। उसी में एक षायद अल्पसंख्यक का हित है। भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और भाशायी विविधता जहां इसे मजबूती प्रदान करता हैं वहीं इनके बीच बढ़ी स्पर्धा ने देष को कमजोर भी किया है। इस विविधता को बनाये रखने और अल्पसंख्यक वर्गों में सुरक्षा की भावना का विकास करने को लेकर सरकार और संविधान दोनों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है बावजूद इसके षिकायतें बरकरार बनी रही। संविधान निर्माताओं ने समानता और न्याय पर आधारित लोकतंत्रात्मक गणराज्य की कल्पना की थी और उसमें सभी का स्थान था। संविधान जब लागू हुआ तब देष की जनसंख्या 36 करोड़ थी। अब 134 करोड़ से अधिक है। सवाल दो हैं पहला यह कि जिन 8 राज्यों में हिन्दू अल्पसंख्यक हुए हैं क्या उनके अधिकार एवं उनसे जुड़ी सुरक्षा को वहां कोई खतरा है। दूसरा यह कि जिन प्रदेषों में हिन्दू बहुसंख्यक हैं क्या वहां के अल्पसंख्यक ऐसे ही खतरे महसूस कर रहे हैं। देखा जाय तो संविधान सामान्य और विषिश्ट रक्षोपाय से युक्त है। जहां अल्पसंख्यकों के हितों को विषिश्टता दिया ही गया है देष के सभी नागरिकों को समान और समुच्च अधिकार से युक्त किया गया है।
पड़ताल से यह भी स्पश्ट है कि अरूणाचल प्रदेष में ईसाई, हिन्दुओं की तुलना में एक फीसदी से थोड़े अधिक हैं जबकि मणिपुर में हिन्दु और ईसाई की जनसंख्या और भी कम अंतर के साथ है। हालांकि मिजोरम और नागालैण्ड ईसाईयों की संख्या क्रमषः 87 और 88 फीसदी से अधिक है। जम्मू-कष्मीर मुस्लिम बाहुल्य है जबकि पंजाब सिक्ख बाहुल्य माना जाता है। राश्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम के अध्याय 1 की धारा 2 में अल्पसंख्यक आयोग को परिभाशित किया गया है जबकि अध्याय 2 के धारा 3 में इसके गठन की पूरी प्रक्रिया दी गयी है। अल्पसंख्यक आयोग को आगामी तीन माह में षीर्श अदालत के दिषा-निर्देष का अनुपालन करते हुए 8 राज्यों के हिन्दू अल्पसंख्यकों को लेकर निर्णय लेना है। विविधताओं का देष भारत असुविधाओं से न घिरे इसको ध्यान में रखते हुए कई संवैधानिक कदम समय-समय पर उठाये गये हैं। सवाल है कि यदि हिन्दुओं को उपर्युक्त राज्यों में यदि अल्पसंख्यक का दर्जा मिल जाता है तो क्या उन्हें संविधान के भाग 3 के अनुच्छेद 29 और 30 के वे सभी अधिकार प्राप्त हो जायेंगे जो अन्य अल्पसंख्यकों को प्राप्त हैं। इसके अलावा सामान्य रक्षोपाय जिसका उल्लेख अनुच्छेद 15 से 16 के बीच है साथ ही विषिश्ट रक्षोपाय जो पूरे संविधान में बिखरा हुआ है उन सभी के हकदार वे होंगे। हालांकि संविधान भारत का है न कि राज्यों का और अधिकार भारत के नागरिकों को मिला है। जाहिर है वे सभी राज्य के निवासी हैं। भाशायी अल्पसंख्यकों के लिए भी संविधान में विषेश प्रावधान हैं जिसे अनुच्छेद 350(क) और 350(ख) के अंतर्गत देखा जा सकता है। फिलहाल हिन्दु बाहुल्य हिन्दुस्तान के जिन राज्यों में इनकी संख्या में गिरावट है और अन्य धर्म की तुलना में अल्पसंख्यक हैं उसे देखते हुए षीर्श अदालत के मद्देनजर राहत भरा कदम आगे देखने को मिलेगा। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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कई अर्थो मे खास रही सोलहवीं लोकसभा

बजट सत्र के सम्पन्न होने के साथ मई 2014 में गठित 16वीं लोकसभा में सत्रों का सिलसिला खत्म हो गया हालांकि इसका कार्यकाल मई तक बना रहेगा। 1 फरवरी को बजट पेष करने की षुरूआत साथ ही आम बजट और रेल बजट का एकीकरण का गवाह 16वीं लोकसभा ही कहा जायेगा। ध्यानतव्य हो कि औपनिवेषिक काल में पहली बार एक्वर्थ कमेटी की सिफारिष पर रेल बजट को अलग से पेष करने की परम्परा 1924 में षुरू हुई थी। तब से यही परम्परा जारी थी पर मोदी षासनकाल में इसे सामान्य बजट में षामिल कर दिया गया। सबसे बड़ी खासियत यह भी रही कि पूरे पांच साल के कार्यकाल में सरकार राज्यसभा के मामले में अल्पमत में भी रही। इसी कारण तीन तलाक और नागरिकता संषोधन विधेयक सरकार पारित नहीं करवा पाई जो आगामी जून में इतिहास बनकर रह जायेगा। फिलहाल लोकसभा की कुल 327 और राज्यसभा की 325 बैठकें इस पांच साल के दौरान हुईं। कुल 219 विधेयक पेष किये गये जिसमें से 203 पारित हुए। जीएसटी को क्रांतिकारी आर्थिक कानून की दृश्टि से देखा और जाना गया। दिवालिया कानून, और आर्थिक भगोड़े के खिलाफ कानून भी पारित किये गये। लोकसभा को उत्पादकता की दृश्टि से देखा जाय तो यह 83 फीसदी है जो 2009 से 2014 के बीच 15वीं लोकसभा की तुलना में 20 फीसदी अधिक है। हालांकि 2004 से 2009 14वीं लोकसभा से तुलना किया जाय तो उससे 16वीं लोकसभा की उपादकता दर 4 फीसदी कम है। 16वीं लोकसभा का एक अच्छा संदर्भ यह भी है कि इसमें 44 महिला सांसद चुन कर आयी थी जो अब तक की सर्वाधिक संख्या है। इनकी उपस्थिति तथा संसद में भागीदारी साथ ही सवाल पूछने आदि के मामले में भी भूमिका अग्रणी देखी जा सकती है। 
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि 1984 के बाद 2014 में ठीक तीन दषक बाद एक पूर्ण बहुमत की सरकार भारत में बनी। उम्मीद की गयी थी कि जो कृत्य गठबंधन की सरकारों में कई बाधाओं के कारण पूरा नहीं हो पाये थे उनके पूरक का काम मोदी की यह सोलहवीं लोकसभा वाली बहुमत की सरकार करेगी। लोकतंत्र का अद्भुत परिप्रेक्ष्य यह भी रहा है कि कमजोर सरकार हो तो खींचातानी में वक्त गंवा देती है और मजबूत हो तो मनमानी के प्रभाव से मुक्त नहीं रहती है। महात्मा गांधी ने कहा था कि मजबूत सरकारें जो करते हुए दिखाई देती हैं असल में वो करती नहीं है। मोदी सरकार पर यह तोहमत लगता रहा है कि उन्होंने मजबूत सरकार का मनमाने ढंग से उपयोग किया है। ऐसे में सवाल है कि 16वीं लोकसभा ने अपने पूरे 14 सत्रों में क्या हासिल किया और यह मोदी सरकार के लिए कितना खास रहा। प्रधानमंत्री मोदी ने 16वीं लोकसभा में अपने आखिरी भाशण में कहा कि कांग्रेस के गोत्र के बगैर तीन दषकों से यह पहली बहुमत की सरकार है। अपनी उपलब्धियों का जिक्र किया। विरोधियों पर तंज कसा और मुलायम सिंह यादव का अभिवादन स्वीकार किया। गौरतलब है कि समाजवादी के मुलायम मोदी को पुनः प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि कुछ महत्वपूर्ण कानून बने और कई ऐतिहासिक फैसले लिए गये। नोटबंदी एवं जीएसटी आर्थिक परिवर्तन की दिषा में उठाये गये बड़े कदम थे। हालांकि इसे लेकर कई आर्थिक कठिनाईयों को भी देष ने देखा। सुगम पथ क्या है इसकी पड़ताल पूरी नहीं हुई है और जनता को सरकार से क्या मिला। इसका भी रिपोर्ट कार्ड अभी अधूरा है। हालांकि सरकार अपनी ओर से खास मान रही है पर यह तभी पूर्णांक को प्राप्त कर पायेगा जब 17वीं लोकसभा में इनकी वापसी होगी। 
इस लोकसभा का विषेश महत्व इसलिए भी कहा जायेगा क्योंकि यहां मान्यता प्राप्त विपक्ष का आभाव था। गौरतलब है कि कांग्रेस 44 सीट पर सिमट गयी थी जो विरोधियों में सबसे बड़ा दल था। विपक्ष की मान्यता हेतु 55 सदस्य होने अनिवार्य हैं। सत्ता पक्ष और कांग्रेस के बीच सम्बंधों में तल्खी पूरे दौर तक बनी रही बल्कि स्तर भी तुलनात्मक काफी गिरा हुआ था। राज्यसभा में भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जायेगी। यहां भी सदन के भीतर स्तर काफी नीचे था। खास यह रहा कि लोकसभा में पूर्ण बहुमत की सरकार और राज्यसभा में 16वीं लोकसभा के पूरे कार्यकाल के दौरान अल्पमत की स्थिति बनी रही। सत्तासीन और विपक्ष के बीच जिस तरह से तरकष पूरे 5 साल छोड़े गये वह लोकतंत्र के लिए षुभ नहीं है। जीएसटी, तीन तलाक और राफेल मुद्दे को लेकर दोनों सदनों में सबसे ज्यादा हंगामा हुआ। राफेल मुद्दे पर तो हंगामा इस कदर बरपा कि राश्ट्रपति के अभिभाशण प्रस्ताव और वित्त विधेयक जैसे महत्वपूर्ण संदर्भ बिना बहस के ही पारित करने पड़े। यह चिंता लाज़मी है कि सदन की गरिमा बनाने वाले कहां से आयेंगे। सम्भव है कि लोकतंत्र में जनता के प्रतिनिधि ही फिर चुनकर आयेंगे। क्या उनसे फिर यह उम्मीद की जाये कि 17वीं लोकसभा में बहुत कुछ सकारात्मक होगा? इन सबसे जनता को यही संदेष गया है कि संसद में बहस का स्तर गिरता जा रहा है। सूझबूझ भरा संदर्भ यह भी है कि उच्च सदन को वरिश्ठ और बुद्धजीवियों का सदन माना जाता है वहां भी अफरातफरी 5 साल बरकरार रही। कहा जाय तो राज्यसभा में लोकसभा से अधिक हंगामा हुआ। 16वीं लोकसभा का कामकाज खत्म होने के मौके पर पक्ष-विपक्ष गले-षिकवे दूर करते हुए दिखे। सवाल है कि क्या सदन से जो अपेक्षित था वह पांच वर्शों में पूरा हुआ है सम्भव है इसका जवाब न में ही होगा पर मोदी सरकार अपने रिपोर्ट कार्ड बड़ा और व्यापक मानेगी। 
अगली लोकसभा की चुनावी लड़ाई एक बार फिर मैदान में है। आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी बुलंदी पर है। 16वीं लोकसभा में बहुमत से भरी मोदी सरकार को 17वीं लोकसभा में धूल चटाने के लिए विपक्षी लामबंध हो रहे हैं। उत्तर प्रदेष के सियासी अखाड़े में जहां सपा-बसपा और आरएलडी गठबंधन के साथ मोदी से मुकाबला करने का इरादा जता चुका हैं वही कांग्रेस में प्रियंका गांधी की एंट्री सियासत को एक नया रूक दे दिया है। राजनीति रोजाना की दर से परिवर्तन ले रही है और 17वीं लोकसभा को जीतने का मन्सूबा सभी के मन में कुलांछे मार रहा है। एक तरफ मोदी तो दूसरी तरफ मोदी विरोधी हैं। मोदी के 5 साल के कार्यकाल में किये गये कृत्यों को जनता के विरूद्ध मानते हुए विरोधी लोकतंत्र को जहां हथियाने की फिराक में है वहीं मोदी इसे अव्वल दर्जे का रिपोर्ट कार्ड मानते हैं। 16वीं लोकसभा कई महत्वपूर्ण विधाओं से युक्त कही जायेगी। इसकी एक नकारात्मक खासियत यह भी रही है कि सरकार बहुमत में होने के बावजूद गैर मान्यता प्राप्त विपक्ष से कहीं अधिक परेषान रही है। क्या यह उम्मीद लगायी जानी चाहिए कि लोकतंत्र में चैकन्ना लोगों को ही रहना है। सियासी पैतरें में जिस तरह की तस्वीरें उभरती हैं उससे तो यही लगता है कि राजनीतिज्ञ अपनी महत्वाकांक्षा को लेकर कहीं अधिक प्रभावित रहते हैं। किसान, गरीब और बेरोजगार को इस सरकार ने क्या दिया। इसकी पड़ताल सब अपने ढंग से कर रहे हैं। सवर्णों को दस फीसदी आरक्षण इसी लोकसभा की देन है। इतना ही नहीं किसानों के प्रतिमाह सम्मान राषि को भी सरकार ने देकर अंतिम समय में कुछ और अंक बढ़ाने का प्रयास किया है। बावजूद इसके यह बात समझने वाली रहेगी कि पांच साल की सरकारें सब कुछ अंतिम साल में ही क्यों करती हैं। महंगाई की मार से पूरा पांच साल कमोबेष अटा रहा इससे इंकार करना मुष्किल है। हालांकि सरकार सब कुछ सही करने की बात कह कर जनता से राहत मांगती रही। नोटबंदी के बाद यह चित्र तेजी से उभरा था। फिलहाल 16वीं लोकसभ अंत की ओर है और 17वीं का आगाज होने वाला है क्या खोया, क्या पाया की पड़ताल आगे भी होगी, इस उम्मीद में कि भविश्य में सरकार चाहे मजबूर आये या मजबूत जनता की भलाई में चूक न हो। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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Wednesday, February 6, 2019

भारतीयता की जमावट है संघात्मक ढांचा

समाकलित दृश्टिकोण के अंतर्गत क्या यह सोच समुचित है कि पष्चिम बंगाल में उपजे विवाद ने संविधान में निहित संघात्मक ढांचा और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को चुनौती दी है। उक्त के आलोक में कई तार्किक पक्ष उभरने लाज़मी हैं और कई सवालों की षायद पुर्नवापसी भी सम्भव है। आखिर जब सब कुछ भारतीय संविधान में स्पश्ट है तो सरकारों के आपसी मतभेद में वही चोटिल क्यों हो रहा है? भारतीय संविधान में संघात्मक प्रणाली की व्यवस्था की गयी है। गौरतलब है कि केन्द्र षब्द का प्रयोग संविधान में न करके संघ षब्द का संदर्भ निहित है। केन्द्र किसी परिधि के मध्य का बिन्दु दर्षाता है जबकि संघ पूर्ण परिधि का द्योतक है। इसी के चलते भारत की सरकार को संघीय सरकार कहा गया और केन्द्र-राज्य के बजाय संघ-राज्य सम्बंध  का वर्णन यहां मिलता है। संविधान के अनुच्छेद 1 में स्पश्ट है कि भारत राज्यों का संघ है परंतु सच्चाई यह है कि भारतीय संघ की स्थापना राज्यों की आपसी सहमति या करार का परिणाम नहीं, बल्कि संविधान सभा की घोशणा है जिसे भारत के लोगों की षक्ति प्राप्त है। सषक्तता से भरी बात यह भी है कि राज्यों को संघ से अलग होने का अधिकार कत्तई नहीं है। जबकि भाग 11 और 12 के अनुच्छेद 245 से 300 के बीच विधायी, कार्यकारी और वित्तीय सम्बंधों का विस्तृत निरूपण दोनों के बीच देखा जा सकता है। संघीय राज्य में षक्तियों का बंटवारा केन्द्र तथा राज्य इकाईयों के बीच पूरे मन और पूर्ण विधा से किया गया है। बावजूद इसके केन्द्र और राज्य की सरकारें अपने राजनीतिक और क्षेत्रीय हितों को ध्यान में रखकर दो-चार होती रहती हैं। पष्चिम बंगाल में जो विवाद बीते दिनों बढ़ा वह राजनीतिक अधिक प्रतीत होता है। माना यदि किसी प्रकार के नियम पालन में यहां त्रुटि थी भी तो संयम की कहीं अधिक आवष्यकता क्या नहीं थी। 
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। षायद यही कारण है कि राजनीतिक समानता के महत्व यहां दरकिनार है। न्यूनतावादी और विस्तृत दृश्टिकोणों के बीच राजनीतिक दल एक-दूसरे की काट खोजते रहते हैं। नागरिक केवल एकमत का अधिकार रखता है जिसका अधिकार उसे संविधान और संसदीय अधिनियम देते है और ऐसा उसे प्रति 5 वर्श में एक बार संघीय सरकार हेतु तो एक बार जिस राज्य में निवासी है वहां की सरकार की स्थापना में योगदान देता है। लोकतंत्र का यही आधार है कि सरकारें लोक प्रवर्धित अवधारणा को विकसित करें और जन सषक्तता को महत्व दें जबकि संघात्मक ढांचा यह दर्षाता है कि संविधान की मूल भावना का अनादर कोई न करे और संविधान में जो कुछ जिसके लिए भी कहा गया है उसका अनुपालन करें। संविधान संघात्मक भी है और एकात्मक भी कुछ तो इसे अर्द्धसंघात्मक भी कहते हैं। ऐसा यहां कि परिस्थिति और बनावट के कारण है। टकराहट न हो इसी को लेकर संविधान कई उपायों से युक्त है। बावजूद इसके बड़ी और छोटी सरकारें जब लड़ बैठें तब लोकतंत्र और संघात्मक ढांचे का क्या होगा यहां लाख टके का सवाल खड़ा हो जाता है। गौरतलब है भी है कि एक संघीय सरकार राज्य सरकारों को समय और परिस्थिति के अनुपात में पोशण भी करती है और संरक्षण भी देती है पर ऐसे की सम्भावना तभी अधिक दिखती है जब दोनों स्थानों पर एक दल की सरकार हो। भारत की विडम्बना यह है कि यहां विविधता से भरा लोकतंत्र है जहां क्षेत्रीयता और राश्ट्रीयता साथ-साथ चलते रहते हैं। षायद यही संघर्श का बड़ा कारण भी है। जब सत्ता पोशित हो जाती है तो यहां संघीय सरकार का मुख्य लाभ यह भी रहा है कि यह छोटे राज्यों को बड़े तथा षक्तिषाली राज्यों के साथ एकजुट होने और उनसे फायदा उठाने के योग्य बनाता है। राजनीतिक विचारक हैमिल्टन का कथन है कि संघीय राज्य राज्यों का एक संगठन है। जाहिर है संघ और राज्य की अवधारणा संविधान की एक अनुपम छवि को दर्षाता है और भारत एक संगठनात्मक तौर पर विषाल भी बनता है पर जब सरकारें नाक की लड़ाई में फंस जायें तो सरकारों पर से न केवल भरोसा टूटता है बल्कि लोकतंत्र भी अविष्वास के दायरे में चला जाता है। पष्चिम बंगाल सरकार और केन्द्र सरकार के बीच सम्बंध इस कदर बिगड़े हैं कि वे एक-दूसरे से दूर छिटकने लगे हैं तो सवाल खड़े हो जाते हैं कि क्या इससे संघात्मक ढांचा और संविधान दोनों खतरे में नहीं जा रहे हैं। 
संविधान में संघ और राज्यों के बीच कार्यों का विस्तृत बंटवारा है। डाॅ. अम्बेडकर ने कहा है कि भारतीय संविधान संघात्मक है क्योंकि यह दोहरे षासनतंत्र की स्थापना करता है जिसमें एक संघीय है तो दूसरा परिधि में राज्य सरकारें हैं। उक्त के परिप्रेक्ष्य में देखें तो संविधान संघात्मक और एकात्मक दोनों लक्षणों से युक्त और भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल है। संघात्मक होते हुए भी संघ के पक्ष में झुका हुआ है और आपातकालीन परिस्थितियों में तो यह एकात्मक का रूप भी धारण कर लेता है। अब सवाल है कि पष्चिम बंगाल में सीबीआई के राज्य में प्रवेष को लेकर जो घमासान हुआ वह कितना वाजिब है। क्या सीबीआई जो केन्द्रीय सरकार की एक जांच एजेन्सी है उसे सम्बन्धित राज्य से जांच हेतु पहले अनुमति लेना आवष्यक है? संघात्मक अवधारणा के अन्तर्गत यह तार्किक दिखाई देता है कि जांच एक सामान्य प्रक्रिया है। ऐसे में राज्य सरकार की किसी अधिकारी से मामले विषेश में पूछताछ को लेकर अनुमति लेनी चाहिए। यदि यहां संघ इस अनुपालन से बाहर है तो संघात्मक व्यवस्था के साथ अनुकूलन की समस्या हो सकती है लेकिन एक पक्ष यह भी है कि यदि कोई राज्य केन्द्र सरकार की एजेन्सी विषेश को इन्वेस्टिगेषन करने से ही रोक लगा दी हो तो भी यह क्या उसी संघात्मक ढांचे के विरूद्ध नहीं है। गौरतलब है कि आन्ध्र प्रदेष और पष्चिम बंगाल की सरकारों ने सीबीआई की इन्वेस्टिगेषन पर पहले से रोक लगायी हुई है। ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि संघ की परिधि में भ्रमण कर रहे राज्यों में केन्द्रीय एजेन्सियों से इतना खौफ क्यों है? दूसरा यह कि किस षक्ति के अंतर्गत राज्य केन्द्रीय एजेन्सियों को राज्य में घुसने से रोक लगा रहे हैं। समझना तो यह भी है कि क्या राज्यों को यह अधिकार है कि केन्द्र सरकार के किसी अभिकरण को ही अपने राज्य में आने से रोक सकें जबकि षक्तिषाली केन्द्रीय सरकार का पोशण संविधान में दिखाई देता है। भारत में संघ राज्य के बीच 7वीं अनुसूची के अंतर्गत कार्यों का बाकायदा बंटवारा है न कि राज्यों का कोई अलग से संविधान है। एकल संविधान, एकल नागरिकता, एकीकृत न्याय व्यवस्था, संविधान संषोधन की षक्ति समेत आपातकालीन षक्तियां व कई उपबंध एकात्मक लक्षण को दर्षाते हैं साथ ही षक्तियों का विभाजन भले ही संघ सूची, राज्य सूची एवं समवर्ती सूची के रूप में हों पर जब परिस्थिति सामान्य न हो तो अवषिश्ट षक्तियों समेत सभी पर संघ का अधिकार अधिरोपित हो जाता है। जाहिर है संविधान में संघ को कहीं अधिक षक्तिषाली बनाया है ऐसा परिस्थितियों के चलते हुआ। ऐसे में एक प्रष्न यह उठता है कि संघ बनाम राज्य की अवधारणा फिर क्यों विकसित हो जाती है। फिलहाल षारदा चिट फण्ड से जुड़े मामले में पूछताछ हेतु सीबीआई जिस अधिकारी से पूछताछ करना चाहती थी उसका निपटारा सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से हो गया। गौरतलब है यह मामला 2013 का है और सुप्रीम कोर्ट ने असम, ओडिषा समेत पष्चिम बंगाल पुलिस को 2014 में इस मामले में सहयोग की बाबत बात कही थी। ऐसे में जब मामला बिगड़ गया तो सुप्रीम कोर्ट की षरण में सीबीआई को जाना पड़ा। अन्ततः षीर्श अदालत के रास्ते सभी को राहत मिली। बावजूद इसके दो टूक यह है कि भारतीय संविधान संघात्मक व्यवस्था का एक ऐसा लक्षण है जिसमें भारतीयता की जमावट है जो भेदभाव व तकरार की नहीं समन्वय और सहयोग की आवष्यकता महसूस करता है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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Monday, February 4, 2019

संकट बंगाल मे सियासत देश में

पश्चिम बंगाल में उपजा विवाद किस समस्या का परिचायक है इस पर भिन्न-भिन्न राय देखी जा सकती है कोई इसे लोकतंत्र विरोधी तो कुछ संघीय ढांचे पर हमला बता रहे हैं। गृहमंत्री राजनाथ सिंह इसे संविधान विरूद्ध मान रहे हैं जबकि जबकि विपक्षी षरद पंवार संघीय ढांचे पर हमला बता रहे हैं। गौरतलब है केन्द्र की एजेन्सी सीबीआई सुप्रीम कोर्ट के निर्देष पर कोलकाता के पुलिस कमिषनर से षारदा चिट फण्ड घोटाला मामले में पूछताछ करने गयी थी। जहां उसे ऐसा करने से न केवल रोका गया और आरोप यह है कि कोलकाता पुलिस ने उसके पांच अधिकारियों को गिरफ्तार किया साथ ही कोलकाता स्थित सीबीआई आॅफिस भी कब्जे में ले लिया ताकि चिट फण्ड से जुड़े सबूत नश्ट किये जा सकें जिसके चलते बंगाल में बवाल मच गया। पष्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसे सियासी रूख के अन्तर्गत केन्द्र सरकार पर आरोप मढ़े और धरने पर बैठ गयी और सड़क से ही सरकारी कामकाज भी चल रहा है। दरअसल ममता बनर्जी को लगता है कि यह सब मोदी के इषारे पर हो रहा है। गौरतलब है कि सीबीआई पर आरोप लगता रहा है कि वह केन्द्र सरकार का ऐसा तोता है जो उसी के इषारे पर कार्य को अंजाम देता है। इसमें भी कोई दुविधा नहीं कि सरकारों ने विरोधियों का पसीना निकालने के लिए सीबीआई का बेजा इस्तेमाल किया है। मोदी सरकार इससे परे नहीं है। ममता बनर्जी का कहना है कि किसी कमिष्नर के घर बिना किसी वारंट के बगैर कैसे आ सकते हैं? मेरे अधिकारी को बचाना मेरा काम है जबकि सीबीआई का कहना है कि यह जांच सुप्रीम कोर्ट के आदेष पर की जा रही है ऐसे में उन्हें किसी वारंट या आॅर्डर की जरूरत नहीं है। यदि सब कुछ नियम संगत है और यह अदालती प्रक्रिया है तो सीबीआई का कथन मजबूत दिखाई देता है परन्तु राजनीतिक फसाद से सीबीआई कैसे वंचित रह सकती है उसी की एक और बानगी पष्चिमी बंगाल है। हालांकि हालात को देखते हुए 4 फरवरी को षीर्श अदालत का दरवाजा सीबीआई ने खटखटाया जहां यह कहते हुए 5 फरवरी की तारीख दे दी गयी कि याचिका में कहा गया ऐसा कोई सबूत नहीं जो यह साबित करे कि कोलकाता पुलिस मामले में सबूत नश्ट कर रही है। अदालत ने जोर दिया कि सबूत लाकर दीजिए सुप्रीम कोर्ट कड़े कदम उठाएगा।
सवाल कई हैं पहला यह कि क्या षीर्श अदालत के फैसले को कोई राज्य सरकार लागू करने में बाधा बन सकती है। दूसरा क्या किसी अधिकारी को बचाने के लिए प्रदेष सरकार को पूरे प्रदेष में हंगामा खड़ा करा देना उचित है? तीसरा प्रष्न यह कि क्या लोकतंत्र ऐसे समस्याओं के कारण अविष्वास का षिकार नहीं होगा साथ ही क्या संघीय ढांचा जो संविधान की मूल आत्मा है उस पर सवाल खड़े नहीं होते। जहां तक षोधात्मक दृश्टि जाती है उससे यही स्पश्ट है कि इसके पहले कभी देष में ऐसी परिस्थिति नहीं बनी कि किसी एजेंसी को षीर्श अदालत के फैसले लागू करने में राज्य सरकार ने रोका हो। माना केन्द्र और राज्य की सरकारों के बीच अनबन है पर इसका तात्पर्य यह कहां से तार्किक है कि सरकारों के झगड़ों में षीर्श अदालत के फैसले को दरकिनार कर दिया जाय और अपनी-अपनी सियासत गरमाई जाए। गौरतलब है कि षारदा चिट फण्ड घोटाला पष्चिम बंगाल का एक बड़ा आर्थिक घोटाला है। साल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने भी सीबीआई को जांच का आदेष दिया था साथ ही पष्चिम बंगाल, ओडिषा और असम पुलिस को आदेष दिया था कि सीबीआई के साथ जांच में सहयोग करंे पर पष्चिम बंगाल में तो पूरा मामला ही उलटा दिखाई देता है यहां सहयोग के बजाय सीबीआई के सदस्यों को ही गिरफ्तार कर लिया गया। दरअसल ममता ने सीबीआई की एंट्री पर पष्चिम बंगाल में बैन लगा रखा है इसलिए वह प्रदेष में बिना इजाजत के कार्यवाही नहीं कर सकती। यदि यह बात पूरी तरह वास्तविक है तो यह भी समझने की आवष्यकता है कि क्या कोई प्रदेष केन्द्र सरकार की किसी एजेन्सी को प्रदेष निकाला कर सकती है। यदि ऐसा है तो क्या यह परिसंघीय ढांचे को चोटिल नहीं करता है।
संदर्भ यह भी है कि भारतीय संविधान संघात्मक लक्षण का एक ऐसा संग्रह है जिसमें भारतीयता की पूरी जमावट है। सरकार भले ही कहीं भी किसी की हो परिसंघ यह इजाजत नहीं देता कि वहां भेदभाव किया जाए और राजनीति की फिराक में व्यवस्था को तार-तार किया जाए। भारतीय संविधान एकात्मक भी है और संघात्मक भी हालांकि इसका यह लक्षण भी विवाद का विशय रहा है। कुछ चिंतक इसे संघीय कम, एकात्मक अधिक मानते हैं तो कुछ अर्द्ध संघात्मक की संज्ञा देते हैं। केन्द्र में संघीय सरकार और परिधि में राज्य सरकारें हैं। जाहिर है किसी भी प्रकार का असंतुलन व्याप्त हुआ तो घाटा संविधान का ही होगा। परिलक्षित मापदण्ड यह भी है कि संविधान संघ के पक्ष में झुका है और आपातकालीन स्थिति में यह एकात्मक हो जाता है और ऐसा राश्ट्रीय एकता और अखण्डता के लिए उचित भी है। संघ और राज्य के बीच में संविधान के भाग 11 और 12 में क्रमषः विधायी, प्रषासनिक व वित्तीय सम्बंध निहित हैं जबकि भाग 18 के अनुच्छेद 356 में यह स्पश्ट है कि यदि प्रदेष में संवैधानिक तंत्र विफल होता है तो राश्ट्रपति षासन लगाया जा सकता है। सवाल दो हैं पहला यह कि क्या पष्चिम बंगाल में उपजी समस्या संवैधानिक मापदण्डों को खतरा पहुंचा रही है। बहुधा देखा गया है कि कानून व्यवस्था बिगड़ने के चलते जब संविधान को आंच आयी तो अनुच्छेद 356 का प्रयोग किया गया है। हालांकि ऐसे मसलों पर केन्द्र को मषविरा देने का काम राज्यपाल का होता है। दूसरे किस्म की समस्या में बंगाल का बवाल स्पश्ट करता है कि इसकी कताई बुनाई राज्य बनाम केन्द्र सरकार से युक्त है पर यह एक सियासी परिप्रेक्ष्य है। ममता बनर्जी बीते 5 वर्शों से मोदी सरकार से परेषानी झेलती रही। अब चुनावी वर्श में गदर तो मचनी ही थी। अमित षाह की बंगाल में रैली को लेकर भी बवाल थमा नहीं था कि उत्तर प्रदेष के मुख्यमंत्री योगी की हैलीकाॅप्टर की लैंडिंग बंगाल में न होने से भी ममता निषाने पर हैं। इतना ही नहीं हाल ही में उन्होंने विपक्षियों का जो समारोह किया उससे भी सरकार में खुन्नस होना लाज़मी है। अवसर कोई भी हो ममता और मोदी में ठनती ही रही है। यही कारण है कि सीबीआई के जांच वाले प्रकरण के चलते ममता बनर्जी ने एक सियासी बखेड़े के तहत सड़क से संसद तक एक हंगामा खड़ा कर दिया है। इस दौरान बजट सत्र चल रहा है और बंगाल में मचे बवाल के चलते राज्यसभा और लोकसभा की कार्यवाही भी स्थगित करनी पड़ी थी। एक ओर मामला न्यायालय पहुंच चुका है तो दूसरी ओर विपक्षी इस पर लामबंद्ध हो रहे हैं। सरसरी तौर पर यह भी पता है कि न्यायालय बिना ठोस सबूत के सीबीआई को राहत देने वाली नहीं है।
फिलहाल राजनीतिक लड़ाई का संवैधानिक समाधान क्या है इसका फैसला संविधान संरक्षक को ही करना है। भले ही राज्य बनाम केन्द्र का हवाला देकर इसे कोई रंग दिया जा रहा हो पर सीबीआई के साथ जो हुआ वह लोकतांत्रिक तौर पर ही नहीं देष की विधि व्यवस्था के अनुरूप नहीं कहा जायेगा। राज्य सरकार को यहां सीबीआई के साथ जांच में मदद करनी चाहिए थी। फिलहाल 2019 के लोकसभा चुनाव मुहाने पर है और सभी को अपनी सियासत की चिंता है चाहे इस दांवपेंच के बीच संविधान घाटे में क्यों न रहे दो टूक यह भी है कि बड़ी और छोटी सरकार की लड़ाई में संवैधानिक ताना-बाना बिगड़ रहा है सवाल यह है कि यदि पष्चिम बंगाल में उठा बवंडर संवैधानिक संकट है तो इसका जिम्मेदार कौन है?


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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