विगत् कुछ महीनों से देश में असहिष्णुता को लेकर एक व्यापक बहस छिड़ी हैं जिसके पटाक्षेप के आसार इन दिनों तेजी से प्रकट होने लगे हैं। संचेतना से युक्त समाज में असंवेदनशीलता कितनी प्रखर हो सकती है इसकी भी पड़ताल लाज़मी है। देखा जाए तो असहिष्णुता को लेकर चिंतन और विमर्श करने वाले दो खेमे में बंटे थे जो मानते थे कि देश में असहिष्णुता की बयार बह रही है वे इसके विरोध में जो बन पड़ा किये मसलन साहित्यकारों एवं लेखकों ने पुरस्कार वापस किये, फिल्मकारों ने इससे जुड़े बयानबाजी की साथ ही कांग्रेस जैसे सियासतदानों ने इसकी शिकायत राश्ट्रपति से भी की। गौरतलब है कि जब भी समाज में कोई नया नकारात्मक षब्द अविश्कार लेता है तो उसकी कोई बड़ी वजह तो होती है पर सूझबूझ यह भी कहती है कि परख के मामले में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। दरअसल संवेदनषील मुद्दों के उभरने से समाज का संवेदनषील होना स्वाभाविक है पर यह कितना असरदार है इसकी भी जांच-परख होनी चाहिए। हालांकि जो यह मानते हैं कि असहिश्णुता जैसी कोई चीज देष में नहीं है अब उनमें सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीष भी षामिल हैं। यहां कहना सही है कि असहनषीलता को लेकर जितनी बातें की गयीं सच्चाई में वो पूरी तरह सारगर्भित थी यह बात संदेह से परे नहीं है। यही कारण है कि इसे लेकर समाज न केवल दो खेमे में बंटा बल्कि सरकार के माथे पर भी बहुत बल नहीं पड़े जबकि प्रधान न्यायाधीष के वक्तव्य के चलते यह मामला और साफ हो जाता है।
नवनियुक्त उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीष टीएस ठाकुर ने भी कह दिया कि देष में असहिश्णुता नहीं है। उन्होंने कहा कि इस देष में कई धर्मों के लोग रहते हैं दूसरे धर्मों के लोग यहां आये फले-फूले यह हमारी विरासत है बाकी सब साधारण की बात है। बीते रविवार को आये इस बयान से यह तय माना जा रहा है कि तथाकथित असहिश्णुता को लेकर अब राय जरूर बदलेगी। देष की अदालत के मुखिया ने जनता को न केवल सुरक्षा का भरोसा दिलाया बल्कि असहिश्णुता को एक सियासी मुद्दे के तौर पर देखा। उनका मानना है कि असहिश्णुता पर बहस के राजनीतिक आयाम हो सकते हैं परन्तु जब तक कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट है किसी को भी घबराने की जरूरत नहीं है। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि वे ऐसी संस्था का नेतृत्व कर रहे हैं जो कानून का षासन सुनिष्चित करता है जब तक कानून है न्यायपालिका स्वतंत्र है तब तक सभी के अधिकारों की सुरक्षा करने में सक्षम है। उक्त कथन के प्रकाष में अब बातें धुंधली नहीं रहेंगी। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रधान न्यायाधीष का वक्तव्य सही वक्त पर आया है। इन दिनों 27 दिवसीय षीतकालीन सत्र जारी है। 26 नवम्बर से षुरू होने वाले इस षीत सत्र में भी असहिश्णुता से लेकर पंथनिरपेक्षता तक की चर्चा जोरों पर है। सत्र के षुरूआत के दो दिन संविधान के लिए समर्पित थे। इस दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने इस प्रकार के विवाद का पटाक्षेप करते हुए एक सकारात्मक विचार रखा था पर विरोध पक्ष का ऐसे मामलों में पूरा संतोश षायद अभी दूर की कौड़ी है जिसकी गूंज संसद में थमी नहीं है। जाहिर है कि प्रधान न्यायाधीष टीएस ठाकुर के असहिश्णुता को खारिज करने वाला बयान संसद के अलावा देष के अमन चैन में बड़ा काम आयेगा।
धार्मिक सहिश्णुता और सर्वधर्म समभाव जैसी अवधारणाएं भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही रची-बसी है। अषोक के बारहवें दीर्घ षिलालेख का यह भाव है कि अपने सम्प्रदाय का आदर करते हुए अन्य सम्प्रदाय के प्रति आदर भाव रखें। आज की दुनिया विकास की होड़ में है। सब कुछ समुचित ही होगा कहना असंगत प्रतीत होता है। इक्का-दुक्का घटनाएं भी इस भाग-दौड़ में न हों बहुत अच्छी बात है पर इसे रोक पाना षायद बूते से बाहर है। दादरी में बीफ विवाद से उठा मामला असहिश्णुता की एक प्रवाह पैदा करेगी ऐसी सोच षायद ही किसी की रही हो। बिना नाम लिए प्रधान न्यायाधीष का यह कहना समुचित प्रतीत होता है कि एक घटना के कारण देष को असहिश्णु नहीं कहा जा सकता। उनका मानना है कि भारत विषाल देष है जहां तमाम समुदाय सदियों से रहते आये हैं कभी-कभी टकराव भी होता है। ऐसे टकराव को असहिश्णुता नहीं कहा जा सकता। दो टूक यह भी समझना जरूरी है कि देष का संविधान ऐसी तमाम समस्याओं के हल करने का उपाय और उपचार है। अनुच्छेद 124 से 147 सर्वोच्च न्यायालय के कार्य एवं भूमिका का वर्णन करता है वहीं अनुच्छेद 214 से 237 के बीच यही बात उच्च न्यायालय के लिए है। अनुच्छेद 50 के अन्तर्गत कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथककरण किया गया जो एक स्वतंत्र इकाई है जिसे अनुच्छेद 13 के तहत न्यायिक पुर्नविलोकन का अधिकार प्राप्त है। यदि सरकार या संसद किसी प्रकार का कानून, अधिनियम, अध्यादेष, आदेष, नियम व विनियम संविधान के नियमों का विरोध करते हैं तो देष की यह सर्वोच्च न्यायिक संस्था ऐसों के लिए दीवार का काम करती है। उक्त का भाव यह है कि जिस बात को लेकर समाज का एक वर्ग असुरक्षित और सहमा है उसे निर्भीक होकर स्वतंत्र जीवनधारा में षामिल होना चाहिए क्योंकि सुरक्षा और उपचार के लिए संविधान है जैसा कि प्रधान न्यायाधीष ने कहा है कि मैं अपील करता हूं कि आपस में एक-दूसरे के लिए प्रेम रखें। असल में जब भी समाज का तुश्टीकरण होता है तो उन बातों का भी महत्व बढ़ जाता है जो धरातल पर ठीक से पनपी भी नहीं होती। कई बयान इस प्रकार के भी आ चुके हैं कि विष्व की तुलना में भारत कहीं अधिक सहिश्णु और गुजर-बसर में बेहतर है। जाहिर है कि वैष्विक हालात जिस प्रकार रंग-भेद, धर्म-भेद और विकास-भेद के चलते कई लोगों को कोपभाजन का षिकार होना पड़ रहा है ऐसे कोई हालात फिलहाल भारत में नजर नहीं आते। सियासत की आड़ में तथाकथित असहिश्णुता को रंगरूप देने वाले इस बात को क्यों भूल जाते हैं कि हालात बिगड़े तो संभालने की जिम्मेदारी भी उनकी है।
कई लेखकों, विचारकों, फिल्मकारों और सियासतदानों ने देष में असहिश्णुता को लेकर अपने तरीके से चिंताएं जाहिर कीं। बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों जैसों के खेमों ने जो विरोध किया वह देष के सुधार के काम आया होगा। ऐसे चिंतनयुक्त विरोध का सम्मान भी किया जाना चाहिए पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि इनकी आड़ में वे भी असहिश्णुता का ढिंढोरा पीटे जो देष को तोड़ने के अलावा कोई काज नहीं करते। जाहिर है कुछ कट्टरपंथी जो अलगाववादी विचारधारा के हैं सरकार के कारनामों से असंतुश्ट हो सकते हैं इसलिए असहिश्णुता को हवा देंगे। जिन्हें यह मंजूर नहीं कि मोदी प्रधानमंत्री रहें वे भी ऐसा करेंगे। जो कष्मीर में पाकिस्तान के नारे लगाते हैं, आतंकी कसाब और अफजल गुरू जैसों को फांसी देने पर धरना-प्रदर्षन करते हैं ये भी असहिश्णुता के बहाने अपनी रोटियां सेकेंगे। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह कहता है कि असहिश्णुता के राजनीतिक मायने हो सकते हैं जैसा कि प्रधान न्यायाधीष ने भी कहा है। अलग-अलग प्रतिक्रियाएं भी हो सकती हैं पर इस सत्य से अनभिज्ञ नहीं हुआ जा सकता कि संविधान और स्वतंत्र न्यायपालिका के रहते किसी वजह से यदि असहिश्णुता पनप भी गयी तो यह देर तक टिक नहीं पायेगी। ऐसे में देष की षीर्श अदालत के मुखिया के बयान के बाद अब यह सुनिष्चित माना जाना चाहिए कि तथाकथित असहिश्णुता पर पूर्ण विराम लग चुका है।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
नवनियुक्त उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीष टीएस ठाकुर ने भी कह दिया कि देष में असहिश्णुता नहीं है। उन्होंने कहा कि इस देष में कई धर्मों के लोग रहते हैं दूसरे धर्मों के लोग यहां आये फले-फूले यह हमारी विरासत है बाकी सब साधारण की बात है। बीते रविवार को आये इस बयान से यह तय माना जा रहा है कि तथाकथित असहिश्णुता को लेकर अब राय जरूर बदलेगी। देष की अदालत के मुखिया ने जनता को न केवल सुरक्षा का भरोसा दिलाया बल्कि असहिश्णुता को एक सियासी मुद्दे के तौर पर देखा। उनका मानना है कि असहिश्णुता पर बहस के राजनीतिक आयाम हो सकते हैं परन्तु जब तक कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट है किसी को भी घबराने की जरूरत नहीं है। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि वे ऐसी संस्था का नेतृत्व कर रहे हैं जो कानून का षासन सुनिष्चित करता है जब तक कानून है न्यायपालिका स्वतंत्र है तब तक सभी के अधिकारों की सुरक्षा करने में सक्षम है। उक्त कथन के प्रकाष में अब बातें धुंधली नहीं रहेंगी। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रधान न्यायाधीष का वक्तव्य सही वक्त पर आया है। इन दिनों 27 दिवसीय षीतकालीन सत्र जारी है। 26 नवम्बर से षुरू होने वाले इस षीत सत्र में भी असहिश्णुता से लेकर पंथनिरपेक्षता तक की चर्चा जोरों पर है। सत्र के षुरूआत के दो दिन संविधान के लिए समर्पित थे। इस दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने इस प्रकार के विवाद का पटाक्षेप करते हुए एक सकारात्मक विचार रखा था पर विरोध पक्ष का ऐसे मामलों में पूरा संतोश षायद अभी दूर की कौड़ी है जिसकी गूंज संसद में थमी नहीं है। जाहिर है कि प्रधान न्यायाधीष टीएस ठाकुर के असहिश्णुता को खारिज करने वाला बयान संसद के अलावा देष के अमन चैन में बड़ा काम आयेगा।
धार्मिक सहिश्णुता और सर्वधर्म समभाव जैसी अवधारणाएं भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही रची-बसी है। अषोक के बारहवें दीर्घ षिलालेख का यह भाव है कि अपने सम्प्रदाय का आदर करते हुए अन्य सम्प्रदाय के प्रति आदर भाव रखें। आज की दुनिया विकास की होड़ में है। सब कुछ समुचित ही होगा कहना असंगत प्रतीत होता है। इक्का-दुक्का घटनाएं भी इस भाग-दौड़ में न हों बहुत अच्छी बात है पर इसे रोक पाना षायद बूते से बाहर है। दादरी में बीफ विवाद से उठा मामला असहिश्णुता की एक प्रवाह पैदा करेगी ऐसी सोच षायद ही किसी की रही हो। बिना नाम लिए प्रधान न्यायाधीष का यह कहना समुचित प्रतीत होता है कि एक घटना के कारण देष को असहिश्णु नहीं कहा जा सकता। उनका मानना है कि भारत विषाल देष है जहां तमाम समुदाय सदियों से रहते आये हैं कभी-कभी टकराव भी होता है। ऐसे टकराव को असहिश्णुता नहीं कहा जा सकता। दो टूक यह भी समझना जरूरी है कि देष का संविधान ऐसी तमाम समस्याओं के हल करने का उपाय और उपचार है। अनुच्छेद 124 से 147 सर्वोच्च न्यायालय के कार्य एवं भूमिका का वर्णन करता है वहीं अनुच्छेद 214 से 237 के बीच यही बात उच्च न्यायालय के लिए है। अनुच्छेद 50 के अन्तर्गत कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथककरण किया गया जो एक स्वतंत्र इकाई है जिसे अनुच्छेद 13 के तहत न्यायिक पुर्नविलोकन का अधिकार प्राप्त है। यदि सरकार या संसद किसी प्रकार का कानून, अधिनियम, अध्यादेष, आदेष, नियम व विनियम संविधान के नियमों का विरोध करते हैं तो देष की यह सर्वोच्च न्यायिक संस्था ऐसों के लिए दीवार का काम करती है। उक्त का भाव यह है कि जिस बात को लेकर समाज का एक वर्ग असुरक्षित और सहमा है उसे निर्भीक होकर स्वतंत्र जीवनधारा में षामिल होना चाहिए क्योंकि सुरक्षा और उपचार के लिए संविधान है जैसा कि प्रधान न्यायाधीष ने कहा है कि मैं अपील करता हूं कि आपस में एक-दूसरे के लिए प्रेम रखें। असल में जब भी समाज का तुश्टीकरण होता है तो उन बातों का भी महत्व बढ़ जाता है जो धरातल पर ठीक से पनपी भी नहीं होती। कई बयान इस प्रकार के भी आ चुके हैं कि विष्व की तुलना में भारत कहीं अधिक सहिश्णु और गुजर-बसर में बेहतर है। जाहिर है कि वैष्विक हालात जिस प्रकार रंग-भेद, धर्म-भेद और विकास-भेद के चलते कई लोगों को कोपभाजन का षिकार होना पड़ रहा है ऐसे कोई हालात फिलहाल भारत में नजर नहीं आते। सियासत की आड़ में तथाकथित असहिश्णुता को रंगरूप देने वाले इस बात को क्यों भूल जाते हैं कि हालात बिगड़े तो संभालने की जिम्मेदारी भी उनकी है।
कई लेखकों, विचारकों, फिल्मकारों और सियासतदानों ने देष में असहिश्णुता को लेकर अपने तरीके से चिंताएं जाहिर कीं। बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों जैसों के खेमों ने जो विरोध किया वह देष के सुधार के काम आया होगा। ऐसे चिंतनयुक्त विरोध का सम्मान भी किया जाना चाहिए पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि इनकी आड़ में वे भी असहिश्णुता का ढिंढोरा पीटे जो देष को तोड़ने के अलावा कोई काज नहीं करते। जाहिर है कुछ कट्टरपंथी जो अलगाववादी विचारधारा के हैं सरकार के कारनामों से असंतुश्ट हो सकते हैं इसलिए असहिश्णुता को हवा देंगे। जिन्हें यह मंजूर नहीं कि मोदी प्रधानमंत्री रहें वे भी ऐसा करेंगे। जो कष्मीर में पाकिस्तान के नारे लगाते हैं, आतंकी कसाब और अफजल गुरू जैसों को फांसी देने पर धरना-प्रदर्षन करते हैं ये भी असहिश्णुता के बहाने अपनी रोटियां सेकेंगे। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह कहता है कि असहिश्णुता के राजनीतिक मायने हो सकते हैं जैसा कि प्रधान न्यायाधीष ने भी कहा है। अलग-अलग प्रतिक्रियाएं भी हो सकती हैं पर इस सत्य से अनभिज्ञ नहीं हुआ जा सकता कि संविधान और स्वतंत्र न्यायपालिका के रहते किसी वजह से यदि असहिश्णुता पनप भी गयी तो यह देर तक टिक नहीं पायेगी। ऐसे में देष की षीर्श अदालत के मुखिया के बयान के बाद अब यह सुनिष्चित माना जाना चाहिए कि तथाकथित असहिश्णुता पर पूर्ण विराम लग चुका है।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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