Tuesday, March 29, 2016

अनुच्छेद 356 को लेकर नया मोड़

अनुच्छेद 356 संविधान के निर्माण काल से ही चर्चे में रहा है। उत्तराखण्ड की सियासत में इन दिनों यह बाकायदा एक नये मोड़ के साथ षुमार है। संविधान सभा में बहस के दौरान डाॅ. अम्बेडकर ने कहा था कि सम्भव है कि अनुच्छेद 356 का प्रयोग न किया जाय, सिवाय अन्तिम विकल्प के रूप में। इस कथन के आलोक में यह झलक दिखाई देती है कि संविधान के निर्माण के उन दिनों में भी अनुच्छेद 356 के प्रयोग एवं दुरूपयोग को लेकर संविधानविदों में संषय था। ऐसे कई उदाहरण विद्यमान है जब संघ की सरकारों ने राश्ट्रपति षासन के सहारे अपनी सियासत को दिषा देने की भी कोषिष की है। ऐसे में जो अनुच्छेद 356 राज्यों में संवैधानिक विफलता के चलते उपचार के तौर पर निर्मित किया गया था वही दुरूपयोग के चलते स्वयं एक समस्या बन गया। देखा जाए तो 26 जनवरी, 1950 से संविधान लागू होने से लेकर उत्तराखण्ड समेत अब तक प्रांतों में सवा सौ से अधिक बार राश्ट्रपति षासन लगाया जा चुका है। जाहिर है कि 66 वर्शों में सर्वाधिक बड़ा षासनकाल कांग्रेस का रहा है। ऐसे में अनुच्छेद 356 का प्रयोग और दुरूपयोग में इन्हीं की सर्वाधिक हिस्सेदारी भी है। मणिपुर इस मामले में सर्वाधिक दस बार षिकार हुआ है। उत्तर प्रदेष में यह व्यवस्था नौ बार जबकि पंजाब एवं बिहार में आठ-आठ बार राश्ट्रपति षासन लगाया जा चुका है। हालांकि जम्मू-कष्मीर इस मामले में सात बार के लिए जाना जाता है परन्तु सबसे अधिक वर्श तक अनुच्छेद 356 यहीं लागू रहा। प्रधानमंत्री मोदी भी राश्ट्रपति षासन के मामले में अछूते नहीं कहे जायेंगे परन्तु इनके लगभग दो वर्श के कार्यकाल में जम्मू-कष्मीर, महाराश्ट्र, अरूणाचल प्रदेष और उत्तराखण्ड समेत चार राज्यों में मात्र पांच बार राश्ट्रपति षासन का प्रयोग किया जा चुका है। हालांकि इस मामले में अरूणाचल और उत्तराखण्ड को सियासी स्वार्थ के तौर पर देखा जा रहा है जबकि अन्यों के मामले में यह दुरूपयोग के बजाय प्रयोग ही था। अटल बिहारी वाजपेयी के 1999-2004 के पांच वर्श के कार्यकाल में मात्र चार बार राश्ट्रपति षासन का उल्लेख मिलता है जो अनुच्छेद 356 के मामले में अम्बेडकर के कथन को चरितार्थ करता है।
राश्ट्रपति षासन की उद्घोशणा उन्हीं परिस्थितियों में सम्भव है जब राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल हो गया हो। अनुच्छेद 356 के अनुसार यदि राश्ट्रपति को किसी राज्य के राज्यपाल से प्रतिवेदन मिलने पर या अन्यथा यह समाधान हो जाए कि राज्य में ऐसी परिस्थितियां विद्यमान हैं जिससे राज्य का षासन संविधान के उपबन्धों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता, तभी यह सम्भव है। हालांकि अनुच्छेद 356 में राश्ट्रपति षासन षब्द का कोई उल्लेख नहीं मिलता बल्कि राज्यों में संवैधानिक तंत्र की विफलता के चलते उक्त लक्षण उत्पन्न माना जाता है। देखा जाए तो राश्ट्रपति षासन कभी भी अपने आप में एक समाधान के तौर पर न होकर बल्कि राज्य के बिगड़े हालात पर मन मारकर उठाया गया कदम रहा है जिसे छः माह से तीन वर्श तक की अवधि के लिए जाना जाता है। इसी अवधि के भीतर चुनाव कराकर राज्य का षासन जनता के प्रतिनिधियों को सौंपना होता है। 44वें संविधान संषोधन अधिनियम 1978 द्वारा जोड़े गये अनुच्छेद 356(5) के अनुसार राश्ट्रपति षासन की उद्घोशणा को एक वर्श की अवधि से अधिक बनाये रखने सम्बन्धी संकल्प संसद के किसी सदन द्वारा तभी पारित किया जायेगा जब देष में आपात उद्घोशित हो तथा चुनाव आयोग यह प्रमाणित कर दे कि सम्बन्धित राज्य की विधानसभा में चुनाव कराने में कठिनाईयों के चलते आपात उद्घोशणा को प्रवृत रखना आवष्यक है। जम्मू-कष्मीर में ऐसी परिस्थितियां भी रही हैं। देखा जाए तो आपात एक दिन से लेकर कई सालों तक प्रांतों में लागू किये जाते रहे हैं।
इस उपबन्ध का प्रथम दुरूपयोग 1959 में केरल में तब माना गया जब वहां की साम्यवादी सरकार को विधानसभा में बहुमत के बावजूद बर्खास्त कर दिया गया। हालांकि इसका पहला प्रयोग जून 1951 में पंजाब राज्य में किया गया ऐसा वैकल्पिक सरकार के गठन की देरी के चलते किया गया था। जैसा कि इन दिनों जम्मू-कष्मीर में देखा जा सकता है। राश्ट्रपति षासन के दुरूपयोग को रोकने को लेकर सरकारिया आयोग ने कई महत्वपूर्ण सिफारिषें की थी जिसमें एक जगह यह भी कहा गया है कि विधानसभा भंग करने के बजाय निलंबित किया जाना चाहिए। अरूणाचल और उत्तराखण्ड के मामले में यही स्थिति प्रत्यक्ष होती है। देखा जाए तो मोदी सरकार ने राश्ट्रपति षासन को लेकर अब तक जो भी कदम उठाये हैं वह दुरूपयोग की दिषा में कम संवैधानिक परिस्थिति में अधिक आते हैं। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि गैर कांग्रेसी सरकारों ने अनुच्छेद 356 का प्रयोग करने से पहले दस बार जरूर सोचती हैं। बानगी के तौर पर वाजपेयी सरकार के पांच साल के कार्यकाल को उदाहरण बनाया जा सकता है। राश्ट्रपति षासन को लेकर न्यायिक हस्तक्षेप भी बाकायदा देखे जा सकते हैं। राजस्थान बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने 356 के प्रयोग को संवैधानिक ठहराया पर न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद के अधीन संघ की षक्ति असीमित नहीं है। न्यायालय इसकी जांच कर सकता है कि अनुच्छेद विषेश का प्रयोग दुर्भावना से प्रेरित तो नहीं है। अनुच्छेद 356 के मामले में सरकारिया आयोग और एस.आर. बोम्मई वाद के अन्तर्गत निहित गाइड लाइन को अपनाकर अनुच्छेद विषेश को दुरूपयोग होने से काफी हद तक रोक लगाई जा सकती है।
अनुच्छेद 356 को लेकर ताजा घटनाक्रम यह है कि उत्तराखण्ड में लगे राश्ट्रपति षासन को लेकर बीते सोमवार से न्यायालय की एकल पीठ में सुनवाई चल रही थी। इसी के मद्देनजर न्यायालय ने केन्द्र सरकार से 29 मार्च तक जवाब भी मांगा था साथ ही राश्ट्रपति षासन की सिफारिष सम्बन्धित पत्रावली भी तलब की और 29 मार्च को इस मामले पर फैसला सुनाते हुए उच्च न्यायालय ने कहा कि 31 मार्च तक हरीष रावत बहुमत साबित करें। खास यह भी है कि कांग्रेस के नौ बागी विधायक समेत भाजपा का एक बागी विधायक भी इसमें षामिल होंगे परन्तु इनके वोट अलग रखे जायेंगे। उच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि 1 अप्रैल को सदन की कार्यवाही से न्यायालय को अवगत करायें। गौरतलब है कि न्यायालय की ओर से एक ओब्जर्वर नियुक्त होगा। न्यायालय के इस निर्णय से कांग्रेस जहां राहत महसूस कर रही होगी वहीं राज्य में एक बार फिर जोड़-तोड़ की राजनीति भी परवान चढ़ेगी। न्यायालय के फैसले के मद्देनजर सवाल उठता है कि क्या अनुच्छेद 356 लागू करने के मामले में षीघ्रता दिखाई गयी है। जाहिर है जब 28 मार्च को बहुमत सिद्ध करने का समय राज्यपाल द्वारा दिया गया था तो ऐसी कौन सी परिस्थिति थी जिसके चलते एक दिन पहले राश्ट्रपति षासन लगाया गया था। तेजी से बदल रहे उत्तराखण्ड के घटनाक्रम पर राजनीतिक पण्डितों के माथे पर तो बल आया ही है साथ ही स्थानीय सियासत से लेकर केन्द्र की सियासत भी गरम हो चली है। फिलहाल अनुच्छेद 356 के प्रयोग और दुरूपयोग को लेकर बहस आगे भी देखने को मिलती रहेगी पर इस सच्चाई से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि अनुच्छेद 356 को लेकर सरकारें पहले की तुलना में अधिक गम्भीर हुई है। यद्यपि सत्ता के अपने मापदण्ड और रसूक होते हैं तथापि इसके चाहने वाले की नैतिकता भी उतनी ही सटीक है यह सवाल हमेषा से असमंजस में रहा है। महत्वाकांक्षा से भरे राजनीति में कोषिष तो यही होनी चाहिए कि संविधान को लेष मात्र भी ठेंस न पहुंचे परन्तु यदि ऊँच-नीच हो जाए तो चिंता से इसलिए मुक्त रहें कि देष में एक निरपेक्ष न्यायपालिका है जो समय आने पर दूध का दूध और पानी का पानी कर सकती है।

सुशील कुमार सिंह

Wednesday, March 23, 2016

सफ़र एक घंटे का फासला 88 वर्ष

बीते 20 मार्च को जब अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा सपरिवार क्यूबा पहुंचे तो दोनों देषों के बीच यह तारीख इतिहास हो गयी। फ्लोरिडा से महज एक घण्टे की विमान यात्रा को तय करने में 88 वर्श का वक्त लगा। अमेरिकी राश्ट्रपति ओबामा ने भी कहा कि वर्श 1928 में क्यूबा आने वाले पिछले अमेरिकी राश्ट्रपति केल्विन कूलीज़ को ट्रेन और पानी के जहाज़ के जरिये तीन दिन का वक्त यहां पहुंचने में लगा था। देखा जाए तो किसी भी देष की विदेष नीति का मुख्य आधार उस देष को वैष्विक स्तर पर न सिर्फ अपनी उपस्थिति दर्ज कराना बल्कि अपनी नीतियों के माध्यम से अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी बनाये रखना होता है। भूमण्डलीय नीतियों की कई अनिवार्यताएं भी होती हैं और इन्हीं के बीच कई ऐसी मुष्किलें भी खड़ी हो जाती हैं जिससे दो देष बहुत समीप होते हुए भी दो छोर का रूप भी ले लेते हैं। अमेरिका और क्यूबा भी पिछले 88 वर्शों से इसी भांति रहे हैं। इन वर्जनाओं को समाप्त करते हुए ओबामा ने क्यूबा में लैण्डिंग करके वैष्विक जगत में एक बेहतर कूटनीति का परिचय दिया है। वैसे ओबामा कार्यकाल का यह अन्तिम वर्श चल रहा है। राश्ट्रपति की लगभग दो पारी खेल चुके ओबामा वैष्विक जगत में अपने कद और भार को जिस अनुपात में सफलता पाई है उसे देखते हुए क्यूबा की यात्रा अप्रत्याषित प्रतीत नहीं होती परन्तु इतना लम्बा वक्त क्यों लगा इसकी तह में जरूर जाना चाहिए। सरसरी तौर पर वर्श 1959 में क्यूबा में अमेरिका समर्थित सरकार के तख्ता पलट और साम्यवादी सरकार स्थापित होने के पष्चात् दोनों देषों के बीच रिष्ते खराब हुए थे। अब जब 88 साल बाद अमेरिका के जहन में क्यूबा का ख्याल आया है तो इसके पीछे भी कई सम्भावित कारण निहित होंगे।
इतिहास के पन्नों में ओबामा का नाम क्यूबा यात्रा के लिए जरूर दर्ज होगा और ओबामा द्वारा नये सिरे से की जा रही कोषिष को भी सराहा जायेगा। इतना ही नहीं ओबामा की यह यात्रा क्यूबा के लिए फायदे का सौदा भी सिद्ध होगा। दोनों देषों के सम्बन्ध बनने, अमेरिकी और क्यूबयाई नागरिकों को पर्यटन, व्यापार और सूचनाओं के माध्यम से जोड़ने आदि सहित कई लाभ से वंचित क्यूबा के लिए रास्ते खुलेंगे। दरअसल क्यूबा के साथ व्यापारिक सम्बंधों पर रोक के चलते अमेरिकी पर्यटकों को क्यूबा जाने की इजाजत नहीं है। अमेरिका के राश्ट्रपति बराक ओबामा की यात्रा से इस कैरिबियाई द्वीप में अमेरिका निवेष को भी प्रोत्साहन मिलेगा। इस द्वीप को 12 आर्थिक क्षेत्रों में निवेष की जरूरत है जिसमें अक्षय ऊर्जा, तेल की खोज और पर्यटन भी षामिल है। इसी दौरान यह भी देखा गया है कि क्यूबा की बीस कम्पनियों ने अमेरिका से आयात में रूचि दिखाई है। क्यूबा के पहले उपराश्ट्रपति मिगुएल डायज़ कनेल पिछले वर्श मार्च में भारत के दो दिनी दौरे पर थे लेकिन यह खबरों की सुर्खियों में उतना नहीं आया जितना अन्य देष रहते हैं जबकि देखा जाए तो क्यूबा भारत के घनिश्ठ दोस्तों में से एक माना जाता है। 17 दिसम्बर, 2014 का दिन क्यूबा और अमेरिका के लिए एक ऐतिहासिक दिन भी था लेकिन भारत में इसकी कोई सुगबुगाहट देखने को मिली न ही इन खबरों पर चर्चा हुई। दरअसल इसी दिन अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा ने क्यूबा से सम्बन्ध जोड़ने का एलान किया था जिसके नतीजे के तौर पर ओबामा की क्यूबा यात्रा को देखा जा सकता है।
व्हाइट हाऊस और क्यूबा की राजधानी हवाना के बीच सम्बंधों से उत्साहित क्यूबा के राश्ट्रपति राउल कास्त्रो ने कहा था कि राश्ट्रपति ओबामा का फैसला हमारी जनता की इज्जत और सम्मान के काबिल है। उन्होंने ओबामा की ऐसी प्रतिक्रिया के लिए षुक्रिया अदा किया। असल में क्यूबा उन गिने-चुने देषों में है जिसने 50 साल से अधिक समय गुजारने के बावजूद अमेरिका के आगे सिर नहीं झुकाया। बीते 57 साल में दोनों देषों के राश्ट्र प्रमुखों की यह पहली द्विपक्षीय बैठक थी। इस दौरान ओबामा ने क्यूबा में आर्थिक और राजनीतिक सुधार का मसला उठाया तो कास्त्रो ने क्यूबा पर लगे अमेरिकी प्रतिबन्धों को हटाने की मांग उठाई। 1959 में क्रान्ति लाकर फिदेल कास्त्रो ने जब सत्ता संभाली तो अमेरिका ने क्यूबा की वामपंथी सियासत और समाजवादी क्रान्ति के चलते राजनयिक सम्बंध तोड़ लिये थे। इसी दौरान कास्त्रो ने सोवियत यूनियन से घनिश्ठ सम्बंध बना लिए साथ ही 1962 में सोवियत यूनियन को अपने देष में परमाणु मिसाइल लगाने की इजाजत भी दे दी जिससे अमेरिका और सोवियत यूनियन के बीच परमाणु मिसाइल के जंग का खतरा पैदा हो गया। अमेरिका ने फिदेल कास्त्रो पर मानवाधिकार के उल्लंघन सहित कई आरोप लगाते हुए प्रतिबन्ध लगा दिये जो आज तक जारी हैं। ओबामा के क्यूबा के इस यात्रा से उस पर लगे प्रतिबंध के ढीले होने के आसार भी जीवित होते हुए दिखाई दे रहे हैं। सवाल है कि क्या क्यूबा बदल गया है या फिर अमेरिका ने अपनी नीति में परिवर्तन कर लिया है। असल में सोवियन यूनियन का 1991 में बिखरने के साथ ही षीत युद्ध भी समाप्त हो गया और देखा जाए तो हाल ही के वर्शों में इस्लामिक चरमपंथियों के उभरने के बाद यह भी लगने लगा कि इस बदलती दुनिया में कोई स्थायी दुष्मन नहीं है। ऐसे में अमेरिका की प्राथमिकताओं का बदलना भी स्वाभाविक था।
अमेरिकी इतिहास में ओबामा क्यूबा की यात्रा करने वाले दूसरे राश्ट्रपति कहे जायेंगे। हालांकि वहां की रिपब्लिकन पार्टी ने इसकी आलोचना की है और कहा कि कास्त्रो परिवार के सत्ता में रहने तक दौरा नहीं होना चाहिए था। अमेरिकी कूटनीति में अचानक क्यूबा को लेकर आई हुई लचक को लेकर वैष्विक जगत में भी राय अलग-अलग देखने को मिल रही है। इसमें कोई दो राय नहीं कि क्यूबा पर 50 साल से लगे अमेरिकी प्रतिबंध से क्यूबा में लोकतंत्र बहाल करने वाली अमेरिकी मंषा पूरी नहीं हुई है। ऐसे में अमेरिका को भी यह लगता है कि प्रतिबंध या कूटनीतिक नाता तोड़ने वाली नीति गैर वाजिब सिद्ध हो रही है। इसे देखते हुए और बदलती दुनिया को समझते हुए ओबामा को यह सब करना उचित लगा होगा। सियासत और कूटनीति में यह भी नियम अपनाये जाते हैं कि पुरानी व्यवस्थाओं में फंस कर नये दौर की हत्या नहीं करनी चाहिए लेकिन दोनों देषों के बीच जिस प्रकार की लम्बी जुदाई रही है उसे देखते हुए सम्बंध कितने प्रगाढ़ होंगे और पटरी पर कितने तेज दौड़ेंगे अभी कहना कठिन है। हालांकि दोनों देष के नेताओं ने सम्बंध को प्रमुखता देते हुए जोष-खरोष दिखाया है। सम्भव है कि आने वाले दिनों में अमेरिका के आर्थिक दबाव के चलते क्यूबा में बड़ा बदलाव आये और यह बदलाव लोकतंत्र बहाली के काम आये। जाहिर है अमेरिका किसी भी देष के लिए तभी बेहतर करता है जब उस देष से उसे कुछ उम्मीद हो। बराक ओबामा को जिस तेज-तर्रार राश्ट्रपति के रूप में विष्व जानता है उसे देखते हुए अंदाजा लगाना सही होगा कि क्यूबा को देने के बदले पाने की भी कई अपेक्षाएं होंगी। यदि उसमें लोकतंत्र की बहाली निहित है तो यह ओबामा का लचर रूख विष्व के हित में है। फिलहाल 88 बरस बाद किसी अमेरिकी का क्यूबा में होना और 57 बरस बाद क्यूबा पर से अमेरिकी प्रतिबंध हटने के आसार के चलते क्यूबा भी अमेरिका के प्रति न केवल संवेदनषील होगा बल्कि भारत के साथ उसके सम्बंध और भी प्रगाढ़ हो सकते हैं।




सुशील कुमार सिंह

उत्तराखंड का सियासी क्षितिज

उत्तराखण्ड की सियासत में मौजूदा विवाद पहले जैसा ही है परन्तु जोर-आज़माईष दुगुनी या चैगुनी कही जा सकती है। भाजपा और कांग्रेस के बागी विधायक अलग-अलग छोर पर होते हुए एक सुर अलाप रहे हैं और अब मामला राश्ट्रपति तक भी पहुंच गया है। दोनों दलों के नेताओं ने राश्ट्रपति से मुलाकात कर अपना-अपना पक्ष रखा है। भाजपा की दलील है कि इसे संवैधानिक संकट करार देते हुए हरीष रावत सरकार को बर्खास्त किया जाए। वहीं कांग्रेस के केन्द्रीय नेताओं ने भी उत्तराखण्ड की स्थिति राश्ट्रपति के सामने रखी। दरअसल राज्यपाल के निर्देषानुसार हरीष रावत को बहुमत सिद्ध करने के लिए 28 मार्च तक का वक्त मिला हुआ है जबकि भाजपा को राज्यपाल का यह कदम रास आते हुए नहीं दिखाई दे रहा है। ऐसे में भाजपा के निषाने पर अप्रत्यक्ष ही सही राज्यपाल इसलिए प्रतीत होते हैं क्योंकि गुहार राश्ट्रपति तक पहुंच गयी है। बीते दिन राश्ट्रपति को उत्तराखण्ड के संवैधानिक हालात से परिचय कराया गया। ज्ञापन सौंपते हुए भाजपा के प्रदेष अध्यक्ष अजय भट्ट ने यहां के संवैधानिक प्रक्रिया को ध्वस्त बताया। भाजपा की छटपटाहट यह है कि बागी कांग्रेसियों के साथ सुर मिलाने के बावजूद हरीष सरकार को वह अभी तक स्थिर नहीं कर पाई जबकि यह आरोप भी लग गया कि अमित षाह और मोदी गैर भाजपाई सरकारों को देखना ही नहीं चाहते। अलबत्ता मामला एक छोटे से राज्य उत्तराखण्ड का है परन्तु इसका बवंडर जिस प्रकार भारतीय राजनीति के क्षितिज पर धूल उड़ा रहा है उसे देखते हुए इसकी गम्भीरता को कम करके नहीं आंका जा सकता।
भाजपा नेताओं ने हरीष सरकार को अपदस्थ करने की मांग की जबकि कांग्रेस का असंवैधानिक तरीके से सरकार को अस्थिर करने का इन पर आरोप है। इन्हीं आरोप-प्रत्यारोप के बीच प्रदेष के सियासी घटनाक्रम से जुड़ी राज्यपाल की रिपोर्ट भी गृहमंत्रालय को मिल चुकी है। बागी विधायक भी अपने मंसूबे में अभी तक कामयाब नहीं हुए हैं बल्कि अपनी सदस्यता को लेकर भी वे डरे और सहमे हैं। भाजपा और कांग्रेस के दावे-प्रतिदावे के चलते उत्तराखण्ड का सियासी संकट उलझ चुका है। विधानसभा अध्यक्ष को फिलहाल हटाने का कोई रास्ता न सूझता हुआ देखकर भी भाजपा की बेचैनी बढ़ी हुई है। इसके अलावा राश्ट्रपति षासन के आधार भी मौजूदा परिस्थिति में कमजोर दिखाई दे रहे हैं। केन्द्र कोई भी निर्णय लेने से पहले कई बार इसलिए सोचेगी क्योंकि ऐसे आरोपों में उसकी कोई रूचि नहीं होगी जिसमें उत्तराखण्ड की लोकतांत्रिक सरकार को उखाड़ने का आरोप उनके ऊपर आ जाये। प्रदेष में ध्रुवों में बंटी राजनीति का क्या करवट होगा इसका कयास लगाना अभी थोड़ा कठिन है परन्तु जिस प्रकार प्रतिदिन घटनाक्रम परिवर्तित हो रहा है उसे देखते हुए यह प्रतीत होता है कि हल संविधान के रास्ते ही खोजने की कोषिष की जायेगी। राश्ट्रपति षासन को लेकर केन्द्र कोई जल्दबाजी में नहीं है क्योंकि इसे हमेषा से कांग्रेस और भाजपा अन्तिम विकल्प के रूप में मानते रहे हैं। हालांकि अनुच्छेद 356 का सर्वाधिक बेजा इस्तेमाल कांग्रेस ने ही किया है और सबसे अधिक भुगता भाजपा ने है। 1992 में बाबरी मस्जिद के ढहने के चलते भाजपा की चार राज्यों की लोकतांत्रिक सरकारें एक सिरे से उखाड़ कर अनुच्छेद 356 के हवाले कर दी गयी थी। बीते गणतंत्र दिवस के दिन अरूणाचल प्रदेष भी अनुच्छेद 356 का षिकार हुआ था जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी तल्ख टिप्पणी करते हुए सियासतदानों को संविधान का पाठ पढ़ाया था। जम्मू-कष्मीर भी नरम और गरम की परिस्थिति में है। पिछले जनवरी से यहां भी सरकार न बनने के चलते राश्ट्रपति षासन अनवरत् बना हुआ है।
देष की एक विडम्बना यह रही है कि छोटे राज्य कुछ अधिक अनौपचारिकता के चलते कभी मजबूत सियासत को अख्तियार नहीं कर पाये। उत्तराखण्ड अपने निर्माण काल से लेकर अब तक स्थायी सत्ता के मामले में कमजोर ही कहा जायेगा। पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी से लेकर हरीष रावत तक के डेढ़ दषक के कार्यकाल में भाजपा और कांग्रेस ने पांच वर्श के कार्यकाल के दौरान मुख्यमंत्रियों को बदलने का चलन कायम रखा। इन सभी में नारायण दत्त तिवारी का कार्यकाल अपवाद माना जा सकता है। एक सच्चाई यह भी है कि लगभग बड़े राज्यों के विधानसभा चुनाव हो चुके हैं और कुछ आगामी अप्रैल मई में होने वाले हैं तो कुछ अगले साल की षुरूआत में होंगे। भाजपा की मुष्किल यह भी है कि लोकसभा में पूर्ण बहुमत की सरकार होने के बावजूद राजसभा में संख्या बल की कमी के कारण महत्वाकांक्षी कार्यों को अंजाम तक नहीं पहुंचा पा रही है। ऐसे में उसे उम्मीद थी कि बिहार में चुनाव जीत कर राजसभा में सदस्यों की कुछ भरपाई कर लेगी। यहां मंसूबे पूरे नहीं हुए। जाहिर है आगे होने वाले चुनाव के माध्यम से वह विधानसभा में एड़ी-चोटी का जोर जरूर लगायेगी ताकि 2017 के विधानसभा चुनाव तक राजसभा में सदस्यों की कमी से उसे मुक्ति मिल सके। उत्तराखण्ड भी इसी प्रकार की सियासत से इन दिनों जकड़ा हुआ है। हालांकि कांग्रेस और भाजपा के विधानसभा सीटों में बहुत अन्तर नहीं है परन्तु सत्ताधारी न होने की टीस उसे आज भी है।
ताजा सियासी घटनाक्रम में वैसे तो पूरे उत्तराखण्ड समेत भारत में सियासी हलचल मची हुई है जिसका असर देहरादून से लेकर दिल्ली तक बादस्तूर देखा जा सकता है। हरीष रावत कह रहे हैं कि मुझसे कहते तो मैं कुर्सी छोड़ देता जबकि उन्हीं के कैबिनेट मंत्री और विधायक बगावत पर उतारू हैं परन्तु उनकी षारीरिक भाशा और विरोध इससे पहले उनको नहीं दिखाई दिया। रही बात भाजपा की तो भाजपा मुख्य विरोधी होने के कारण हरीष सरकार को निस्तोनाबूत करना चाहेगी। इस झमेले के बीच में स्पीकर की भूमिका भी संदिग्ध मानी जा रही है। कहा जा रहा है कि स्पीकर ने संवैधानिक रीति-नीति का उल्लंघन किया है। हालांकि उन्हें भी हटाने का नोटिस दिया जा चुका है। संविधान में यह वर्णित है कि स्पीकर को अपदस्थ करने के लिए 14 दिन पहले सूचना देनी होती है। इस लिहाज से अभी वक्त है जबकि बागी विधायकों को लेकर स्पीकर 26 मार्च तक जवाब देने का समय दिया है। दल-बदल कानून की दसवीं अनुसूची में लिखित चार मुख्य बिन्दुओं में एक बिन्दु यह भी है कि अपने राजनीतिक दल के निर्देष के विरूद्ध सदस्य सदन में मतदान करता है या मतदान से अलग रहता है और उस दल द्वारा 15 दिनों के भीतर उन्हें माफ नहीं किया गया तो वह सदस्य सदस्यता खो सकता है। इस स्थिति में 71 के मुकाबले विधानसभा में केवल 62 सदस्य बचेंगे। ऐसे में हरीष सरकार निर्धारित 28 मार्च को विष्वास मत पाते हुए दिखाई देती है और किसी सूरत में मामला कठिन है परन्तु यदि बागी नौ विधायक पुनः वापसी करें तो भी सरकार बच सकती है। कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत बर्खास्त किये जा चुके हैं जो बागियों में सर्वाधिक चर्चित हैं।  इनका चरित्र यह है कि ये भाजपा, बसपा होते हुए कांग्रेस में आये हैं। ऐसे में इनका भाजपा प्रेम समझा जा सकता है परन्तु बाकी इक्का-दुक्का को छोड़कर हरीष रावत को उम्मीद है कि वापसी कर सकते हैं। अन्ततः ऐसे मामलों में यह भी देखा गया है कि राजनीतिक उठापटक के बीच संविधान की भी भरपूर व्याख्या हो जाती है। सभी सियासी दल अपनी रोटी सेकने के चक्कर में जोड़-जुगाड़ के साथ एड़ी-चोटी का जोर भी लगाते हैं। उत्तराखण्ड में इन दिनों यही चल रहा है पर नतीजे किस ओर झुकेंगे यह 28 मार्च को ही पता चलेगा।



सुशील कुमार सिंह

Tuesday, March 22, 2016

जल बंटवारे को लेकर राज्य आमने-सामने

    सतलज-यमुना लिंक नहर पर छिड़े विवाद में एक नया मोड़ तब आया जब पंजाब विधानसभा ने इसके खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया। इस प्रस्ताव के चलते पंजाब में नहर के लिए अधिग्रहीत की गई किसानों के जमीन वापसी का मार्ग सुगम हो जाता है और माना जा रहा है कि करीब 69 स्थानों पर किसानों का कब्जा भी हो गया है। पंजाब विधानसभा ने सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित करके हरियाणा की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। इसके चलते पंजाब की नदियों से हरियाणा को पानी देने के लिए बनाई जा रही लिंक नहर का निर्माण सम्भव नहीं हो सकेगा। पंजाब के इस फैसले से पानी से जूझ रहे हरियाणा को तो समस्या होगी ही दिल्ली भी इस जद में आ सकती है क्योंकि हरियाणा पानी के आभाव में दिल्ली में पानी सप्लाई को प्रभावित कर सकता है। ऐसे में लिंक नहर के निर्माण रूकने से दोनों प्रदेषों के बीच रिष्तों में भी दरार पड़ सकती है साथ ही पानी को लेकर कम-से-कम गर्मी के महीनों में पेयजल से लेकर सिंचाई तक के लिए हाहाकार भी मचा रहेगा। हांलाकि स्थिति को देखते हुए हरियाणा सरकार ने षीर्श अदालत से गुहार लगाई थी जिसे लेकर कोर्ट ने यथास्थिति बनाये रखने के लिए कहा था। बावजूद इसके प्रस्ताव पारित करके पंजाब सरकार ने यह जता दिया है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलें फिलहाल उसके इरादों को नहीं डिगा सकते। इतना ही नहीं पंजाब सरकार ने इस नहर को लेकर हरियाणा सरकार से मिली सारी रकम को वापस करने का फैसला किया जिसके चलते 1,91 करोड़ 75 लाख रूपए का चेक हरियाणा सरकार को भेज दिया। देखा जाए तो पंजाब सरकार ने बिल पास करने के चलते 4 हजार एकड़ जमीन वापस करने का फैसला लेकर सतलज-यमुना लिंक नहर को खटाई में डाल दिया है।
यह कहा जाना कि ‘जल ही जीवन है‘ षायद ही इसे लेकर सभी गम्भीर हो। पानी को लेकर कभी दो पड़ोसी आपस में लड़ते हैं तो कभी दो राज्य और कभी-कभी तो इसे लेकर दुनिया भी आमने-सामने हो जाती है। कई मामलों में प्रखर होने के बावजूद भारत में जब बूंद-बूंद पानी के लिए बड़े-बड़े सियासत और संघर्श होते हैं तो ऐसी उम्मीदों को झटका लगना स्वाभाविक है। पानी पर भी सियासत की कहानी बहुत पुरानी है। भारत में जल बंटवारे को लेकर राज्य सरकारों के बीच अक्सर लड़ाई छिड़ी रहती है जिसका इतिहास 1969 के गोदावरी नदी के जल बंटवारे से देखा जा सकता है। कृश्णा, नर्मदा, रावी और व्यास नदी समेत देष में आधा दर्जन से अधिक नदियों के जल बंटवारे से जुड़े झगड़े क्रमिक रूप से इस फहरिस्त में षामिल हैं। ताजा प्रकरण में अब सतलज-यमुना लिंक इसमें षुमार हो गई है। हालांकि इस मामले में दस साल से राजनीति हो रही है। इस नहर के जरिये हरियाणा को अपने हिस्से का 3.83 मिलियन एकड़ फुट पानी मिलना था। सुप्रीम कोर्ट ने 2004 में फैसला दिया था कि एक साल के भीतर पंजाब सरकार इसका निर्माण करवाये। अगर ऐसा करने में पंजाब सरकार पीछे हटती है तो केन्द्र अपने खर्च पर नहर बनवाये। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के समय हरियाणा के मुख्यमंत्री ओम प्रकाष चोटाला थे। बताया जाता है कि उन दिनों लड्डू बांट कर खुषियां मनाई गयी थी। 2005 के चुनाव में हरियाणा में कांग्रेस की वापसी हुई परन्तु इन्हीं दिनो पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह की सरकार ने विधानसभा में प्रस्ताव पारित करते हुए पहले के सारे जल समझौतों को रद्द कर दिया था जिसके चलते सतलज-यमुना लिंक नहर का मामला लटक गया। आखिरकार हरियाणा सरकार कुछ होता न देखकर मामला राश्ट्रपति की चैखट पर ले गयी जिसे लेकर राश्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी और सुप्रीम कोर्ट से राय अभी तक नहीं मिली है।
ऐसा देखा गया है कि राज्यों की जल से जुड़ी समस्याएं बुनियादी तौर पर अक्सर उभरती रही हैं और विवाद भी दषकों तक चलते रहते हैं। कावेरी जल विवाद सहित कई उदाहरण देष में लम्बे समय तक रहे हैं। कहा तो यह भी जाता है कि नदियों का कोई एक क्षेत्र नहीं होता लेकिन जिन इलाकों से यह गुजरती हैं वहां की सरकारें इसके पानी के दोहन के मामले में सर्वाधिकार रखना चाहती हैं। पंजाब पांच नदियों का स्थान है इसी से पंजाब नामकरण भी हुआ है। हरित क्रान्ति का प्रणेता और गंगा-यमुना के दोयाब में बसा यह प्रांत अन्न उत्पादन और खुषहाली के लिए जाना जाता है परन्तु नदियों में घट रहे पानी और पनप रही समस्याओं मे हरे-भरे प्रदेषों को भी उलझन में डाल दिया है। पंजाब में अगले साल चुनाव होने हैं और सरकार कोई ऐसा जोखिम नहीं लेना चाहेगी जिससे कि उसके वोट पर असर पड़े। बेमौसम बारिष और फसल में लगे रोगों के चलते पंजाब के किसान भी आत्महत्या के व्यापक षिकार हुए हैं। जाहिर इस चुनावी वर्श में मुख्यमंत्री प्रकाष सिंह बादल अपने हितों को साधने की फिराक में हरियाणा को मायूस करने से गुरेज नहीं करेंगे। सतलज, व्यास और रावी नदी के सहारे ये अपनी चुनावी नैया पार लगाना जरूर चाहेंगे जबकि वास्तविकता यह है कि हरियाणा की प्यास बिना पंजाब के नदियों के सहारे बुझ नहीं सकती। ऐसा न होने की स्थिति में हरियाणा का हरित प्रदेष होने का रसूक भी कमजोर पड़ जायेगा।
पानी की किल्लत दुनिया भर में है और दुनिया के लोग भी नदी जल बंटवारे को लेकर आमने-सामने देखे जा सकते हैं। पानी के क्षेत्र में काम करने वाली सलाहकारी फर्म ईए वाटर के एक अध्ययन के अनुसार 2025 तक भारत पानी की कमी से जूझने वाले देषों में षुमार होगा। सच्चाई यह भी है कि जमीन से पानी निकालने वाले देषों में भारत पहले नम्बर पर है। इसकी एक खामी यह है कि इससे जल स्तर तेजी से नीचे गिर रहा है। नोएडा जैसे स्थानों पर प्रतिवर्श की दर से तीन से चार फिट के स्तर से नीचे जा रहा है। दुनिया के जल संकट वाले षहरों में दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई के अलावा बंगलौर और हैदराबाद समेत कईयों को सूचीबद्ध किया जा सकता है। देष में अभी भी तीन लाख के आस-पास गांव ऐसे हैं जहां पीने के पानी की सप्लाई नहीं है। भारत के कुल 29 राज्यों में पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेष, राजस्थान, तेलंगाना समेत नौ राज्य गम्भीर जल संकट से जूझ रहे हैं। पंजाब भी भली-भांति जानता है कि उसकी जीवन रेखा पानी ही है इसके आभाव में वह जल संकट वाले प्रदेषों में अव्वल नहीं होना चाहता। गम्भीर समस्या यह भी है कि पानी का उत्पादन सरकारे नहीं करती हैं बल्कि इसके रख-रखाव का बेहतरी से जरूर कर सकती हैं। विडम्बना यह है कि देष में जल को लेकर हाहाकार तो रहता है परन्तु इसके मोल को लेकर कोई भी संवेदनषील षायद ही हो। जिस बेतरजीब तरीके से पानी को अपव्यय किया जाता है उसे देखते हुए आने वाले दिन और भी संकटग्रस्त हो सकते हैं। विषेशज्ञ भी मानते हैं कि तीसरा विष्व युद्ध जल संसाधनों पर कब्जा करने के लिए ही होगा। फिलहाल पंजाब-हरियाणा के बीच उपजे नये जल विवाद का कोई सकारात्मक हल तो खोजना ही होगा। टकराव के बजाय सहमति का कोई मार्ग दोनों के हितों में रख कर किया जाना देषहित में ही होगा।



सुशील कुमार सिंह


Monday, March 21, 2016

सियासी भंवर में उत्तराखण्ड

बीते 18 मार्च को उत्तराखण्ड की विधानसभा में हरीष रावत सरकार की सियासी जमीन उस समय दरक गई जब विनियोग विधेयक पर मत विभाजन की मांग हुई। हालांकि स्पीकर ने इसे ध्वनिमत से पारित करार देते हुए आगामी 28 मार्च तक के लिए सदन को स्थगित कर दिया। पहाड़ी राज्य उत्तराखण्ड की बिगड़े राजनीतिक हालात को देखें तो सियासत का जो त्रिकोण यहां पर निर्मित हुआ ऐसा देष में कम ही देखने को मिलता है। पिछले 15 सालों के इतिहास में कांग्रेस के ही नारायण दत्त तिवारी सरकार को छोड़ दिया जाए तो कोई भी व्यक्ति पांच वर्श तक यहां की सत्ता हांकने में कामयाब नहीं हो पाया है। यहां के मौजूदा बजट सत्र में बीते दिन उठा बड़ा सियासी बवंडर से संकेत मिलता है कि हरीष रावत की दो वर्श पुरानी सरकार फिलहाल बाकी के कार्यकाल को लेकर संदेह से घिर गयी है। इनके पहले सत्ता हांकने वाले कांग्रेस के ही पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा एवं मौजूदा सरकार के कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत समेत नौ विधायकों ने अपनी ही सरकार के विरूद्ध मोर्चा खोल दिया। विजय बहुगुणा और हरीष रावत के कार्यकाल के दौरान मंत्री रहे हरक सिंह रावत ने सरकार पर संगीन आरोप लगाते हुए बगावत का बिगुल फूंका। मामला इस कदर तमतमा गया था कि विधानसभा थोड़ी देर के लिए रणक्षेत्र में भी तब्दील हुई। भाजपा इस बगावत में बराबर की साझेदार बनी रही तमाम गहमागहमी के बीच उत्तराखण्ड की विधानसभा में वह सब कुछ हुआ जिसकी कल्पना मुख्यमंत्री हरीष रावत ने सपने में भी नहीं की होगी। अब अगले कदम का इंतजार था। ऐसे में उसी दिन देर षाम भाजपा और कांग्रेस से बागी नौ विधायक समेत 35 विधायकों ने राज्यपाल से गुहार लगाई कि हरीष सरकार अल्पमत में है और उसे बर्खास्त किया जाए। सियासी भंवर में फंसे हरीष रावत को स्पीकर के चलते तात्कालिक राहत तो मिल गई थी परन्तु राजभवन से निर्णय आना अभी बाकी था। देखते ही देखते उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून भारतीय राजनीति के क्षितिज पर आ गयी जबकि 14 मार्च को घोड़े की टांग टूटने के चलते यह वैष्विक फलक पर पहले से ही थी।
फिलहाल हरीष रावत सरकार को राजभवन के निर्देषानुसार 28 मार्च तक बहुमत सिद्ध करना है जबकि बागी विधायकों के मामले में सरकार काफी सख्त हुई है। हरक सिंह रावत को मंत्रिपरिशद् से बर्खास्त कर दिया गया, उनके दफ्तर को सील किया गया और महाधिवक्ता को भी पद से हटा दिया गया। सरकार के पक्ष वाले विधायक कार्बेट नेषनल पार्क, नैनीताल में षरण लिये हुए हैं जबकि भाजपा समेत बागी विधायक गुड़गांव के किसी होटल में हाई कमान के संकेतों का इंतजार कर रहे हैं और राश्ट्रपति से उनकी मुलाकात सम्भव है। इसके अलावा विधानसभा अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष दोनों को हटाये जाने के लिए भी विरोधी लामबंध हैं क्योंकि आरोप है कि स्पीकर ने पारदर्षिता के साथ कृत्यों का निर्वहन नहीं किया। बागी विधायकों पर दल-बदल कानून की भी तलवार लटकती दिखाई दे रही है जिसे लेकर इनसे 26 मार्च तक स्पश्टीकरण भी मांगा गया है। कहा तो यह भी जा रहा है कि राज्यपाल स्पीकर को हटाने के मामले में हस्तक्षेप करें जबकि संवैधानिक तौर पर इन्हें हटाने से पहले 14 दिन पूर्व सूचना देनी होती है। सूचना की तारीख के अन्तर्गत स्पीकर पर 2 अप्रैल तक कोई कार्यवाही होते नहीं दिखाई देती जबकि बागी विधायकों पर कार्यवाही से लेकर बहुमत सिद्ध होने तक की सभी तारीखें इसी बीच हैं। ऐसे में बागियों का डर समझा जा सकता है। सबके बावजूद सियासत कितनी भी उबाल क्यों न ले ले आखिरकार रास्ता संविधान से हो कर ही जायेगा जिसका पहला कदम उठाते हुए राज्यपाल ने हरीष सरकार को बहुमत सिद्ध करने का वक्त दे दिया है। कयास यह भी लगाये जा रहे हैं कि क्या मौजूदा सरकार के पास संख्या बल उतनी है जितनी सरकार के लिए चाहिए।
उत्तराखण्ड विधानसभा की दलीय स्थिति को देखा जाए तो कांग्रेस के पास 36 जो बहुमत के लिए पर्याप्त थे उनमें से 9 बागी हो चुके हैं। भाजपा के 28 में से मसूरी के विधायक गणेष जोषी घोड़े की टांग तोड़ने के आरोप के चलते जेल में हैं और एक अन्य विधायक भीमलाल आर्य सरकार प्रेम दिखाने के कारण निलंबित है। मौजूदा स्थिति में भाजपा के पास संख्या 26 मात्र की है। इसके अलावा यूकेडी, बसपा व निर्दलीय समेत 6 और एक मनोनीत एंग्लो इंडियन विधायक मिलाकर अन्यों की संख्या 7 होती है। हरीष रावत सरकार के पास कांग्रेस के नौ विधायक घटाने के बाद संख्या 27 की होती है जबकि अन्य को लेने पर यह 34 हो जाती है परन्तु सरकार बनाने के लिए 36 के आंकड़े से दो कम है। यदि यही भाजपा के साथ देखा जाए तो सब कुछ यथावत हो और बागियों का सहयोग मिले तो यह आंकड़ा 35 का होता है परन्तु बागियों पर दल-बदल की तलवार लटकने के चलते यह रास्ता निहायत कठिन है। जहां तक संभव है हरीष रावत बहुमत सिद्ध करने के लिए अपनी सारी कूबत झोंकना चाहेंगे परन्तु भाजपा भी चाहेगी कि सरकार इसमें नाकाम रहे भले ही वह सरकार बनाने में सफल न हो पाये। देखा जाए तो आने वाले 10 माह में उत्तराखण्ड में विधानसभा चुनाव होने हैं ऐसे में भाजपा सरकार बनाने वाले कदम में षायद ही रूचि दिखाये पर गिराने वाले में उसकी पूरी रूचि बनी रहेगी। भाजपा का हाईकमान भी इस आरोप से बचना चाहेंगे कि एक चल रही सरकार की हत्या करने में उनका हाथ है। जैसा कि हरीष रावत भी कह चुके हैं कि मोदी जी लोकतंत्र की हत्या की होली मत खेलिये। भले ही भाजपा को मौजूदा स्थिति में बागियों का समर्थन मिल रहा हो पर भाजपा कमजोर राजनीति करने की पक्षधर नहीं होगी और यदि ऐसा होता भी है तो यह भाजपा के लिए भी एक बवंडर ही होगा क्योंकि बागियों का समायोजन करने की चुनौती इनके सामने जरूर खड़ी होगी।
देहरादून से दिल्ली तक उत्तराखण्ड के सियासी भूचाल ने खलबली मचा दी है। राहुल गांधी भी भाजपा पर लानत-मलानत उतार रहे हैं। कहा जाए तो इन दिनों प्रदेष अस्थिरता से गुजर रहा है। प्रदेष को राजनीतिक संकट से उबारने में एड़ी-चोटी का जोर तो लगाना ही पड़ेगा साथ ही हरीष सरकार के पास विकल्प भी बहुत सीमित हैं। एक विकल्प यह है कि भाजपा के असंतुश्ट विधायकों को अपने पक्ष में करके हरीष रावत पलटवार करते हुए बहुमत सिद्ध कर दें, दूसरा यह कि बागी में से पांच की वापसी के आसार हैं उसे देखते हुए स्थिति सहज हो सकती है। तीसरा और अन्तिम विकल्प यह भी हो सकता है जो काफी हद तक जोखिम से भरा है कि दसवीं अनुसूची में वर्णित दल-बदल कानून के तहत इस वक्तव्य का सहारा लेकर बागियों की सदस्यता स्पीकर रद्द कर दे जिसमें कहा गया है कि अपने राजनीतिक दल के निर्देष के विरूद्ध सदस्य सदन में मतदान करता है या मतदान से अलग रहता है और उस दल द्वारा 15 दिनों के भीतर उसे माफ नहीं किया गया तो वह सदस्यता खो सकता है। सदस्यता खोने की स्थिति में हरीष रावत को 71 के मुकाबले 62 विधायकों के बीच बहुमत सिद्ध करना होगा और यह सम्भव है क्योंकि मौजूदा स्थिति में तो सरकार के पास इतना बहुमत है। फिलहाल सियासत किस करवट बैठेगा यह आने वाले निर्धारित तिथि को ही पता चल पायेगा।

सुशील कुमार सिंह


Thursday, March 17, 2016

एथिक्स कमेटी की रडार पर राहुल और माल्या

नीति निर्माण जितना सधा हो, उतनी ही स्वच्छ नीति निर्माता की छवि हो तो बात कहीं अधिक बेहतरी के साथ बन सकती है पर यह आदर्ष वाक्य व्यावहारिक तौर पर कहीं पीछे छूटता दिखाई दे रहा है। बजट सत्र के इस दौर में जहां एक ओर देष की जनता को लेकर कुछ अच्छा करने की फिराक में एड़ी-चोटी का जोर लगाया जा रहा है तो वहीं राज्यसभा सदस्य विजय माल्या का देष छोड़कर भागना और लोकसभा के सदस्य और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के ब्रिटिष नागरिकता को लेकर जवाब तलब का सुर्खियों में होना कई सवाल खड़े करता है। बीते 14 मार्च को लोकसभा की एथिक्स कमेटी ने इसी बाबत राहुल गांधी को एक नोटिस भेजा है जिसमें पूछा गया कि क्या उनके पास ब्रिटिष सिटीजनषिप है? जिस पर त्वरित प्रतिक्रिया देते हुए राहुल गांधी ने भी कह दिया कि हम इससे निपट लेंगे। हालांकि अभी इसे लेकर चित्र पूरी तरह साफ नहीं है पर यदि इसमें जरा मात्र भी सच्चाई है तो यह देष का दुर्भाग्य कहा जायेगा। इस मामले को पूरी तरह समझने के लिए थोड़े पीछे चलने की आवष्यकता है। दरअसल भाजपा नेता डाॅ. सुब्रमण्यम स्वामी ने राहुल गांधी पर ब्रिटिष नागरिक होने का आरोप बीते कुछ माह पहले मढ़ा था। उनके मुताबिक राहुल ने ‘ब्लैकाॅप्स‘ लिमिटेड कम्पनी खोलने के लिए 2003 और 2006 के दौरान स्वयं को ब्रिटेन का नागरिक बताया था जिसके वे निदेषक और सचिव भी थे। साथ ही अपनी जन्मतिथि का भी सही ब्यौरा दिया और कहा था कि वे ब्रिटेन के नागरिक हैं। इसी के चलते डाॅ. स्वामी ने नवम्बर, 2015 में प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर निवेदन किया था कि राहुल गांधी की ओर से जो ब्यौरा ब्रिटेन की कम्पनी को दिया गया है उस सच्चाई का पता लगाया जाए और तथ्य सही पाये जाते हैं तो उनकी भारतीय नागरिकता के साथ संसद की सदस्यता भी खत्म की जाए। इसी साल के जनवरी माह में बीजेपी सांसद महेष गिरी ने स्पीकर सुमित्रा महाजन को भी चिट्ठी लिखी। मामले की गम्भीरता को देखते हुए स्पीकर ने इसे एथिक्स कमेटी को सौंपना सही समझा। इसी कमेटी के अध्यक्ष भाजपा के भीश्म पितामह कहे जाने वाले लालकृश्ण आडवाणी हैं। जाहिर है आडवाणी एक सुलझे हुए वरिश्ठतम् लोकसभा सदस्यों में से एक हैं। ऐसे में जांच को लेकर भरोसा जैसी चीज़ बेषक अधिक रहेगी।
  हालांकि लोकसभा की 11 सदस्यीय एथिक्स कमेटी द्वारा जारी नोटिस को लेकर कांग्रेस बदले की कार्यवाही बता रही है। उसका आरोप है कि उनके पास कोई मुद्दा नहीं है। ऐसे में विरोधी नेताओं को गलत आरोपों से घेरने की कोषिष कर रहे हैं। नोटिस का जवाब देने के लिए राहुल गांधी को 14 दिन का समय दिया गया है। जाहिर है जो सच डाॅ. सुब्रमण्यम जानते हैं और जिस आरोप से राहुल गांधी घिरे हैं उससे निजात पाने के लिए उन्हें कड़ी मषक्कत करनी पड़ेगी। अच्छा होगा कि आरोप निराधार सिद्ध हों ताकि देष की संसदीय गरिमा आहत होने से बचे, पर एक छोटी सी कहावत यह भी है कि बिना आग के धुंआ नहीं उठता है। यदि राहुल गांधी पर लगे आरोप खारिज नहीं होते हैं तो यह किसी अनहोनी से कम नहीं होगा। इसी दौरान एक और प्रकरण देखा जा सकत है। बीते 2 मार्च से राज्यसभा सदस्य और व्यावसायी विजय माल्या के देष छोड़ने के चलते बजट सत्र भी काफी गर्माहट लिए हुए है। देष की न्याय व्यवस्था का सामना करने के बजाय भगोड़ापन दिखाकर माल्या ने संसद को भी षर्मसार किया है जिसे लेकर कांग्रेस ने मोदी सरकार की लानत-मलानत की है। बीते 10 मार्च को इस मामले पर जमकर हंगामा हुआ। अब इस मुद्दे को संसद की एथिक्स कमेटी को सौंपा गया है। दरअसल यह कमेटी संसद में सदस्यों के आचरण और व्यवहार पर निगाह रखती है। यहां बता दें कि विभिन्न बैंकों से नौ हजार करोड़ रूपए से अधिक ऋण लेने के चलते विजय माल्या न्यायिक कार्रवाई का सामना करने से पहले ही देष से भागना ज्यादा उचित समझा। कांग्रेस का आरोप है कि देष छोड़कर जाने में सरकार ने माल्या की मदद की है जबकि वित्त मंत्री अरूण जेटली ने कांग्रेस के इस आरोप को निराधार बताते हुए कहा कि बोफोर्स तोप से सम्बन्धित दलाल कवात्रोची और विजय माल्या के देष छोड़ने में बहुत अन्तर है।
विगत् कुछ वर्शों से जनप्रतिनिधियों को लेकर आचरण और नैतिकता में काफी गिरावट देखी जा सकती है। लगातार प्रतिनिधियों की आपराधिक छवि को देखते हुए देष की षीर्श अदालत ने अपने एक अहम् फैसले में 10 जुलाई, 2013 को जनप्रतिनिधि अधिनियम की धारा 8(4) को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 में प्रदत्त समानता के अधिकार पर खरी नहीं उतरती है। इस फैसले पर क्या सत्ता, क्या विपक्ष दोनों में खलबली मची थी। दरअसल देष की संसद में बैठे जनप्रतिनिधियों को लेकर देष के अन्दर कई प्रकार का संषय देखा जा सकता है जो इनके आचरण से सम्बन्धित है। आंकड़े यह भी बताते हैं कि 14वीं लोकसभा में 55 सांसदों पर संगीन आरोप थे जबकि 15वीं लोकसभा में ये संख्या बढ़कर 72 हो गयी थी। नेषनल इलेक्षन वाॅच द्वारा जारी रिपोर्ट में ऐसे ही आरोप विधायकों पर भी हैं जिनकी संख्या 30 फीसद बताई गयी है। जनप्रतिनिधियों का आचरण जिस प्रकार संदेह उत्पन्न करने वाला होता जा रहा है वह काफी चिन्ताजनक है। इसे दुरूस्त करने के लिए आचार संहिता को और मजबूत करने की आवष्यकता पड़ सकती है। भारतीय संविधान में अनुच्छेद 51(क) के तहत 11 प्रकार के मौलिक कत्र्तव्य नागरिकों के लिए दिये गये हैं जो उनके आचरण के नियम ही हैं जबकि सरकारी सेवा में भी आचार संहिता का अनुपालन होते हुए देखा जा सकता है। संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 के बीच निर्वाचन आयोग का संदर्भ निहित है। चुनावों में पारदर्षिता और निश्पक्षता को बनाये रखने के लिए राजनीतिक दलों की सहमति से चुनाव आयोग द्वारा एक आचार संहिता का निर्माण किया गया जो चुनाव की अधिसूचना जारी करने की तिथि से प्रभावी होते हैं। यद्यपि इनके पालन की कोई विधिक बाध्यता नहीं है। ऐसे में यह नैतिक दायित्व तक ही सीमित रहता है जिसका उल्लंघन हमेषा होता रहता है।
हमेषा यह अपेक्षा रही है कि देष की सर्वोच्च सदन में बैठे सांसद नैतिक रूप से बेहतर उदाहरण पेष करें। बावजूद इसके विजय माल्या जैसे नीति निर्माता देष को छोड़ना वाजिब समझते हैं। भारत में चुने हुए प्रतिनिधियों को वापस बुलाने को लेकर जनता को कोई अधिकार नहीं है जबकि स्विट्जरलैण्ड की जनता को ऐसा अधिकार है। संविधान में अनुच्छेद 5 से 11 के बीच नागरिकता की बात विस्तार से दी गयी है जिसमें अनुच्छेद 9 में साफ है कि विदेषी नागरिकता ग्रहण करने पर देष की नागरिकता का लोप हो जायेगा। यदि राहुल गांधी पर आरोप सही पाये जाते हैं तो ऐसा होना लाज़मी है जबकि विजय माल्या के मामले में एथिक्स कमेटी की प्रतिक्रिया आना अभी बाकी है। यूरोप और अमेरिका समेत दुनिया के सभी लोकतांत्रिक देषों में षायद सदन की गरिमा और सदस्यों के लिए आचार संहिता हो और यह हैरत की बात नहीं है पर असल बात तो इसके सही अनुपालन का है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है। यहां उदाहरण भी बड़े होने चाहिए परन्तु देष को सुषासनिक नीति देने वाले नीयत और नैतिकता के मामले में स्वयं खरे नहीं हैं।



सुशील कुमार सिंह


Wednesday, March 16, 2016

पड़ोस में लोकतंत्र बहाली का ऐतिहासिक दिन

सैन्य शासन के पांच दशक बाद बीते मंगलवार को म्यांमार इतिहास के उस मोड़ पर आ खड़ा हुआ जहां से न केवल लोकतंत्र बहाल होता है बल्कि दशकों की लोकतांत्रिक लड़ाई को भी लक्ष्य मिलता है। म्यांमार के सांसदों ने नोबेल पुरस्कार विजेता आंग सान सू के करीबी और विष्वस्त मित्र तिन क्याॅ को देश का पहला असैन्य राष्ट्रपति चुन लिया। इसी के साथ नवम्बर, 2015 से जारी गतिरोध भी समाप्त हो गया। यहां के 652 में से 360 सांसदों का मत तिन क्याॅ को मिला है। दरअसल म्यांमार में बीते 8 नवम्बर को हुए लोकतांत्रिक चुनाव के बाद द्विसदनीय विधानमण्डल ने एक समिति का गठन किया था जिसकी एक रिपोर्ट सोमवार को जारी की गयी जिसमें षीर्श पदों के लिए उतरे तीन उम्मीदवारों की उपयुक्तता से सम्बन्धित थी। इसी में एक नाम तिन क्याॅ का भी था। देखा जाए तो सू की पार्टी नेषनल लीग फाॅर डेमोक्रेसी ने नवम्बर में हुए चुनाव में भारी जीत हासिल की थी। उनकी पार्टी को दोनों सदनों में बड़े पैमाने पर बहुमत भी मिला था बावजूद इसके म्यांमार में सेना ने अपनी मजबूत पकड़ बनाये रखी। 1962 में देष की सत्ता को अपने हाथ में लेने वाली इसी सेना ने म्यांमार के संविधान में एक ऐसा प्रावधान कर दिया था कि आंग सान सू की बड़ी जीत हासिल करने के बावजूद राश्ट्रपति बनने से ही वंचित हो गयीं। प्रावधान के अनुसार जिनके करीबी परिजन विदेषी नागरिक हों वे राश्ट्रपति नहीं बन सकते थे। गौरतलब है कि आंग सान सू के बेटों के पास विदेषी नागरिकता है। यही इनकी राह में बड़े रोड़े का काम किया। हालांकि तिन क्याॅ का राश्ट्रपति चुना जाना सू की ही जीत मानी जा रही है। ऐसा भी माना जा रहा है कि परदे के पीछे से इस पद की जिम्मेदारी संभालने का रास्ता भी इनके लिए साफ हो गया है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने म्यांमार के राश्ट्रपति निर्वाचित होने पर तिन क्याॅ को बधाई और षुभकामनाएं दीं। उन्होंने भरोसा दिलाया कि भारत-म्यांमार सम्बंधों को प्रगाढ़ बनाने के लिए मिलकर काम करेंगे। उल्लेखनीय है कि म्यांमार पहले भारत का ही भाग था। भारत षासन अधिनियम, 1935 के द्वारा ही इसे भारत से पृथक कर दिया गया। ब्रिटिष षासन से म्यांमार को 4 जनवरी, 1948 को स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी। आज भी भारत और म्यांमार के बीच पारस्परिक सम्बंध संस्कृति और परम्पराओं में निहित हैं। 1951 में द्विपक्षीय सम्बंधों के क्षेत्र को व्यापक एवं गहन बनाने के उद्देष्य से एक मैत्री सन्धि पर हस्ताक्षर किया गया। भारत ने म्यांमार के साथ काफी सकारात्मक रवैया रखता रहा परन्तु 1962 में यह सैनिक षासन के अधीन चला गया। आंग सान सू यहां लोकतंत्र की बहाली के लिए दषकों से आंदोलन चला रही थीं। सू को उनके प्रयासों के चलते षान्ति का नोबेल पुरस्कार भी दिया जा चुका है। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि पूरे जीवन को लोकतंत्र की बहाली के लिए खपाने वाली सू अब म्यांमार में बदली परिस्थिति के चलते सकून का सांस ले रही होंगी और इस उम्मीद में भी होगी कि पड़ोसी भारत से रिष्ते तुलनात्मक कहीं अधिक मजबूत होंगे। म्यांमार ने सैन्य षासन के चंगुल से निकलकर जो ऐतिहासिक कदम उठाया उसे लेकर प्रत्येक लोकतांत्रिक देष जरूर बेहतर महसूस कर रहे होंगे।
भारत की लगभग 1600 किमी लम्बी सीमा म्यांमार के साथ सटती है। भारत को इस सीमा पर अलगाववादियों की हिंसक गतिविधियों का भी सामना करना पड़ता है। इतना ही नहीं गैर कानूनी नषीले पदार्थों का अफगानिस्तान के बाद म्यांमार दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। भारत के सीमावर्ती क्षेत्र भी इससे प्रभावित हुए हैं। नषीले पदार्थों के अवैध व्यापार, विद्रोही गतिविधियां एवं तस्करी की बुराई से निपटने के लिए दोनों देषों के बीच 1993 में एक संधि भी हुई थी। लोकतंत्र की बहाली के लिए जारी आंदोलन के दौर में भारत काफी हद तक तटस्थ की भूमिका में रहा और उसका मानना था कि लोकतंत्र समर्थक षक्तियों को अलोकतांत्रिक ढंग से नहीं कुचला जाना चाहिए। देखा जाए तो भारत-म्यांमार व्यापार सम्बंध 1970 में व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर के बाद प्रगाढ़ होते गये। आज भारत, म्यांमार के लिए सबसे बड़ा निर्यातक बाजार है परन्तु चीन से चुनौती मिलती रही है। भारत के उत्तर-पूर्व में उग्रवाद की समस्याओं को भी हल करने को लेकर प्रधानमंत्री मोदी के प्रयासों में अब और मजबूती आ सकती है। म्यांमार के साथ भारत का सम्बंध अब अधिक लोकतांत्रिक होने के चलते नागालैण्ड में नागा लोगों और पष्चिमी म्यांमार के नागाओं के बीच सम्बंधों के बढ़ने से भारत के लिए अच्छा रहेगा। नवम्बर 2015 के म्यांमार के चुनाव से ही यह सूरत दिखने लगी थी कि म्यांमार में लोकतंत्र बहाल होने से भारत को एक सधे हुए पड़ोसी मिलने के पूरे आसार हैं। प्रधानमंत्री मोदी वैष्विक फलक पर लगभग 2 वर्शों में जिस प्रकार अपनी पहुंच बनाई है उसे देखते हुए म्यांमार के साथ गुणात्मक सम्बंध की सम्भावना पहले की तुलना में बढ़ जाती है। नवम्बर, 2014 में प्रधानमंत्री मोदी ने म्यांमार, आॅस्ट्रेलिया समेत फिजी के 10 दिवसीय दौरों में तीन दिन म्यांमार में बिताये थे। यह दौरा आसियान और ईस्ट एषिया समिट में भाग लेने से सम्बन्धित था। इसी दौरान सू से भी मुलाकात हुई थी।
पड़ोसी और भारतीय होने के नाते लोकतंत्र की अगुवाई करने वाली आंग सान सू की जितनी सराहना की जाए कम है। सू हमेषा भारत को अपना दूसरा घर कहती रही हैं। 5 दषकों से जो देष सैन्य षासन से उबरने की कोषिष में हो वहां पर लोकतांत्रिक हवाओं का क्या मतलब होता है आज म्यांमार से पूछा जाए तो इसका वाजिब उत्तर जरूर मिलेगा। जाहिर है लोकतंत्र की आष्यकता और अनिवार्यता से कौन परे रहना चाहता है पर इतने लम्बे संघर्श के बाद यदि यह उपहार मिले तो अनमोल ही कहा जायेगा। बावजूद इसके लाख टके का सवाल यह भी रहेगा कि 69 साल की सू क्या म्यांमार का कायाकल्प कर पायेंगी। अभी कुछ भी कह पाना सम्भव नहीं है पर इस सच्चाई से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि म्यांमार की जनता लोकतांत्रिक रूप से बनी इस व्यवस्था से ढेरों उम्मीद लगाई होगी। सू को भारत में कई साल तक रहने का अनुभव है। उनकी मां भारत में राजदूत रहीं हैं। दिल्ली के श्रीराम लेडी काॅलेज से पढ़ाई करने वाली आंग सान सू षिमला के इंस्टीट्यूट आॅफ एडवांस स्टडी में बाकायदा फेलो भी रही हैं। जाहिर है कि उनके अन्दर भारतीय संस्कृति और लोकतांत्रिक मूल्यों का वास है। ऐसे में म्यांमार को एक अच्छी दिषा देने की पूरी कूबत उनमें देखी जा सकती है। हालांकि राश्ट्रपति सू नहीं हैं बल्कि उनके मित्र तिन क्याॅ हैं पर लोकतांत्रिक मर्यादाओं के चलन के चलते म्यांमार में सू की तूती जरूर बोलेगी। पाकिस्तान और चीन के चलते भारत पड़ोस में कहीं अधिक संवेदनषील और चिंतित रहता है वहीं नेपाल, भूटान, म्यांमार समेत अन्यों के साथ भारत का अतिरिक्त प्रेम उसके आषावादी होने का ही प्रमाण है। अब तक म्यांमार लोकतंत्र के आभाव में उतना मजबूत नहीं था जितना कि इसकी बहाली के बाद आने वाले दिनों में होगा। फिलहाल म्यांमार के लिए मंगलवार का दिन मंगलकारी सिद्ध हुआ है और इसमें भी कोई दो राय नहीं कि इस लोकतंत्र की बहाली के चलते म्यांमार भी विकास की पटरी पर तुलनात्मक बेहतर सिद्ध होगा और भारत के साथ प्रभावषाली सम्बंधों के इतिहास को देखते हुए प्रगाढ़ता बढ़ेगी यहां भी कोई षक-सुबहा नहीं है।

सुशील कुमार सिंह

Monday, March 14, 2016

बजट सत्र के पटल पर फिर जीएसटी

मोदी सरकार द्वारा ‘गुड्स एण्ड सर्विसेज़ टैक्स‘ (जीएसटी) को लेकर एक बड़ा कदम 2014 के षीत सत्र से ही देखा जा सकता है। केन्द्र सरकार द्वारा तत्कालीन षीत सत्र में जीएसटी विधेयक को लोकसभा में पेष भी कर दिया गया था परन्तु सत्र पर सत्र बीतते गये और मामला जस का तस बना रहा जबकि 1 अप्रैल, 2016 से इसे लागू करने की बात प्रधानमंत्री मोदी बहुत पहले कह चुके हैं। यह विधेयक जितना सुर्खियां बटोर चुका है षायद ही कोई विधेयक इतनी चर्चे में रहा हो। अर्थविज्ञान को समझने वाले तमाम विचारकों के लिए भी यह रोचक तथ्य है कि जीएसटी को लेकर स्थिति अब तक स्पश्ट क्यों नहीं हो पाई? वित्त मंत्री अरूण जेटली को उम्मीद है कि जीएसटी इस चालू बजट सत्र के 20 अप्रैल से षुरू होने वाले दूसरे भाग में पारित हो जायेगा। इसी में उन्होंने दीवाला विधेयक भी पास होने की उम्मीद जताई है। पड़ताल बताती है कि जीएसटी पर पहला विचार 2006-07 के बजट में तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम द्वारा रखा गया था। इस लिहाज़ से यूपीए सरकार के माध्यम से यह दृश्टिकोण पनपा था जिसे 1 अप्रैल, 2010 में लागू किये जाने का प्रस्ताव भी था परन्तु लोकसभा के कार्यकाल समाप्ति के चलते विधेयक निरस्त हो गया। ऐसे में नये विधेयक की कवायद पुनः विकसित होना स्वाभाविक था जिसे लेकर केन्द्र और राज्य के बीच वर्शों पूर्व सहमति भी बनी थी हालांकि राज्य सहमति की राह पर पूरी तरह चलते हुए नहीं दिखायी दे रहे हैं।
असल में जीएसटी एक एकीकृत कर व्यवस्था है जो केन्द्र, राज्य एवं स्थानीय निकायों के अन्तर्गत भिन्न-भिन्न न होकर समाकलित होगी। भारतीय संविधान के अन्तर्गत कर लगाने एवं वसूलने का प्रावधान इसमें देखा जा सकता है। संविधान में केन्द्र-राज्यों के बीच तीन सम्बन्धों की चर्चा है जिसमें एक वित्तीय सम्बन्ध है। राज्यों की यह षिकायत रही है कि वित्तीय आवंटन के मामले में केन्द्र हमेषा निराष करता रहा है। केन्द्र स्तर पर जहां केन्द्रीय एक्साईज़ ड्यूटी, सेवा कर, अतिरिक्त कस्टम ड्यूटी आदि षामिल हैं वहीं राज्य द्वारा वैट, मनोरंजन एवं बिक्री कर सहित दर्जनों अप्रत्यक्ष कर लगाये एवं वसूले जाते हैं परन्तु कर व्यवस्था में दरों को लेकर एकरूपता का आभाव है। दरअसल जीएसटी अप्रत्यक्ष करों की एक ऐसी विधा है जिसके माध्यम से केन्द्र और राज्यों के बीच बंटे करों में एक एकीकृत मानक विकसित किये जायेगें जिसके अनेक फायदे हैं। ‘नेषनल काउंसिल आॅफ अप्लाइड इकनाॅमिक रिसर्च‘ के मुताबित इसके लागू होने के पष्चात् जीडीपी में 0.9 से 1.7 तक इजाफा किया जा सकता है। यदि ऐसा सम्भव है तो यह भारत की वर्तमान जीडीपी के मुकाबले 15 से 25 प्रतिषत की विकास दर को बढ़ाने में कामयाब होगा। मोदी सरकार जीएसटी से देष की आर्थिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने के आत्मविष्वास से भी भरी है पर कांग्रेस जैसे मुख्य विरोधियों के चलते यह मूर्त रूप नहीं ले पा रही है जबकि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जीएसटी के पक्ष में अपना मन्तव्य दे चुके हैं।
देष के आर्थिक एवं वित्तीय सुधार की दिषा में कर ढांचे में किये जा रहे परिवर्तन का यह व्यापक फेर-बदल आर्थिक क्षेत्र के सभी विभागों पर असर डालेगा। जीएसटी एक बड़े मुनाफे वाली आर्थिक विचारधारा एवं भविश्य के सपने से युक्त है पिछले नौ वर्शों से यह सुधार की कवायद के चलते सुर्खियों में रहा है परन्तु राज्यों में इसे लेकर मतभेद बना रहा। फलस्वरूप इसके लाभ से देष की अर्थव्यवस्था अब तक वंचित रही। जबकि जीएसटी लागू होने से जहां एक ओर टैक्स प्रणाली में समानता आएगी वहीं टैक्स से संबंधित विवाद भी कमोबेष कम होंगे। इसके अलावा बहुत सारे टैक्स कानूनों या प्राधिकृत इकाईयों की भी आवष्यकता नहीं पड़ेगी। सर्विस टैक्स, सेल्स टैक्स, एक्साईज़ ड्यूटी इत्यादि सहित तमाम टैक्सों से मुक्ति मिलेगी। टैक्स चोरी पर भी अंकुष लगेगा साथ ही संचित निधि में राषि की बढ़ोत्तरी भी होगी। बड़ा लाभ यह है कि जीएसटी लागू होने से पूरे देष में एक दर पर टैक्स लगेगा। ऐसा अनुमान है कि इसमें लगने वाली अधिकतम टैक्स दर 16 फीसदी हो सकती है। लगातार पांच सत्रों से जीएसटी को लेकर विरोधियों के चलते सरकार नाउम्मीद होती रही है। 2014 के षीत सत्र में ही लगा था कि यह विधेयक कानूनी रूप ले लेगा परन्तु 2015 का सत्र भी बीत गया और मामला ढाक के तीन पात ही रहा। चालू बजट सत्र में उम्मीद है कि जीएसटी कानूनी रूप में आ जायेगा परन्तु ऐसा होने के बाद ही कुछ कहना सही होगा।
दरअसल जीएसटी लागू होने से देष की टैक्स व्यवस्था में यह सबसे बड़ा सुधार भी होगा परन्तु विष्लेशणात्मक पहलू यह भी है कि तमाम फायदों के बावजूद क्या यह टैक्स व्यवस्था पूरी तरह चिंतामुक्त होगी? बड़ा सवाल यह है कि ‘टैक्स स्लैब‘ क्या होगा? इससे होने वाले नुकसान की भरपाई कौन करेगा? केन्द्र और राज्य के बीच टैक्स बंटवारे को लेकर क्या विवाद खत्म हो जायेंगे? हालांकि केन्द्र सरकार ने यह कहा है कि इसके आने के बाद राज्यों को जीएसटी पर होने वाले घाटे पर पांच साल तक क्षतिपूर्ति मिलेगी। षुरूआती तीन साल पर षत् प्रतिषत, चैथे साल 75 प्रतिषत और पांचवें साल 50 फीसदी क्षतिपूर्ति का प्रावधान किया गया है। जीएसटी काउंसिल में राज्यों के दो-तिहाई जबकि केन्द्र के एक-तिहाई सदस्य होंगे। वित्त मंत्री अरूण जेटली ने कहा है कि कुछ राज्यों को ऐन्ट्री टैक्स, परचेज़ टैक्स तथा कुछ अन्य तरह के करों से जो घाटे होंगे उसकी भरपाई के लिए दो वर्शों के लिए 1 फीसदी के अतिरिक्त कर का प्रावधान किया गया है। बहरहाल आर्थिक सुधार की दिषा में महत्वपूर्ण समझे जाने वाले इस विधेयक पर सरकार ने सहमति बनाने के उद्देष्य से राज्यों के साथ हुये समझौते में पैट्रोलियम पदार्थों को तीन साल तक जीएसटी के दायरे से बाहर रखने का फैसला किया है।
दरअसल केन्द्र सरकार यह चाहती है कि टैक्स के मामले में राज्यों में व्याप्त मतभेद को भी खत्म किया जाय जिसके चलते कुछ आर्थिक प्रलोभन का भी इंतजाम देखा जा सकता है। जबकि सच यह है कि राज्यों को मनमर्जी से टैक्स वसूलने की छूट खत्म होने का भी डर है। टैक्स बढ़ाने या घटाने में कौन फैसला लेगा इसको लेकर भी राज्य संदेह में है। उस भांति मुआवज़ा नहीं मिला जैसा कहा जा रहा है तब क्या होगा? असल में यह दो सरकारों के बीच में की जाने वाली टैक्स संविदा है जबकि टैक्स चुकाने का काम तो आखिरकार जनता के ही जिम्मे होगा। राजकोशीय घाटे एवं बजटीय घाटों के चलते सरकारें विकास के मामले में अक्सर आलोचना झेलती रही हैं। जीएसटी के कारण राजकोशीय घाटों को काफी हद तक पाटा जा सकता है और संचित निधि को नकदी से भरा जा सकता है जिसके फलस्वरूप सरकार जनविकास के बड़े वादों को पूरा करने में अपना दम भर सकेगी परन्तु यह समझना अभी बाकी है कि जीएसटी केवल फायदे का ही विशय है या इसका कोई ‘अतिरिक्त असर‘ भी है। बहरहाल आर्थिक दिषा के सुधार में महत्वपूर्ण समझे जा रहे इस विधेयक को फलक पर लाने की आवष्यकता है। अब तक की स्थिति को देखें तो वास्तव में यह मोदी सरकार के लिए एक सिरदर्दी भी बना हुआ है पर इससे न केवल केन्द्र और राज्य के बीच के वित्तीय अनबन में व्यापक सकारात्मक बदलाव आयेगा बल्कि विकास के मामलों में भी यह कारगर सिद्ध होगा। जीएसटी की एक खासियत यह है कि यह भारतीय संघीय ढांचे को कहीं अधिक मजबूती प्रदान करने की क्षमता से भी युक्त है।


सुशील कुमार सिंह

पश्चिम बंगाल का सियासी धरातल

बीते 4 मार्च को पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव को लेकर अधिसूचना जारी कर दी गयी। जिन पांच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं उनमें तमिलनाडु, केरल, असम, पष्चिम बंगाल और केन्द्रषासित पुदुचेरी षामिल है। गौरतलब है कि इनमें से किसी भी राज्य में भाजपा की सरकार नहीं है। साफ है कि इस चुनाव में भाजपा बिना को खोने के लिए कुछ नहीं है। बड़ी परीक्षा तो सत्तारूढ़ दलों का होना है परन्तु भाजपा मोदी के जादू के भरोसे एड़ी-चोटी का जोर लगाने से पीछे नहीं रहेगी। पष्चिम बंगाल के मामले में तो यह बात सर्वाधिक पैमाने पर लागू होती है। हालांकि यही बात असम, तमिलनाडु जैसे राज्यों के लिए भी कही जा सकती है। विगत् पांच वर्शों से ममता बनर्जी के क्रियाकलापों के साथ सियासी रूख को देखते हुए यह लगता है कि पष्चिम बंगाल में एक बार फिर बिहार की तरह भीतरी बनाम बाहरी का नारा भी बुलंद हो सकता है। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि इस बार भी विकास के मुद्दे छाये रहेंगे। दरअसल विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो पूर्व निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के उद्देष्य से प्रेरित तथा अभिमुख होती है। विकास का वास्तविक अर्थ जहां यथास्थिति में परिवर्तन है वहीं प्रक्रिया अनिवार्य रूप से सामाजिक षक्ति को प्रभावित करती है। इस बात की पुश्टि पष्चिमी बंगाल के हुगली जिले में बसे एक छोटे से कृशि प्रधान क्षेत्र सिंगूर से समझी जा सकती है।
पष्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के सत्ता प्राप्ति के पीछे के परिप्रेक्ष्य को उजागर किया जाए तो सिंगूर को समझना कहीं अधिक जरूरी हो जाता है। इससे उस दौर के राज्य की वास्तु स्थिति से भी अवगत हुआ जा सकता है। दरअसल वर्श 2006 में टाटा मोटर्स ने सीपीआई से हुए एक समझौते के तहत 997 एकड़ जमीन नई ‘नैनो कार‘ की फैक्ट्री स्थापित करने के लिए भूमि अधिग्रहण अधिनियम के अन्तर्गत हासिल कर ली थी। इस समझौते के साथ टाटा मोटर्स ने यह वादा किया था कि इस परियोजना के द्वारा करीब 70 विक्रेताओं का इस षहर में आगमन होगा और इस प्रक्रिया में लगभग एक हजार करोड़ का निवेष भी होगा जो कि षहरी विकास के लिए मददगार होगा। इसके अतिरिक्त विस्थापित किसानों को वित्तीय सहायता के साथ फैक्ट्री में नौकरी देने का वायदा भी किया गया था। असल में नैनो कार के माध्यम से पष्चिम बंगाल में विकास की नई परिभाशा गढ़ने की कोषिष की जा रही थी इसी बीच समझौते का वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की अध्यक्षता में तृणमूल कांग्रेस तथा किसानों व अन्यों द्वारा जमकर विरोध किया गया। तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्या ने उसके बाद जो किया वह आने वाले चुनाव के लिए पासा पलटने वाला था। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्या के धारा 144 को कोलकाता उच्च न्यायालय ने षक्ति का दुरूपयोग मानते हुए न केवल गलत बताया बल्कि ममता बैनर्जी के लिए जनता के बीच नई पैठ बनाने का एक अवसर भी दिया। फैक्ट्री निर्माण का कार्य 21 जनवरी, 2007 को षुरू हुआ परन्तु जन विरोध और ममता बनर्जी के उपवास के साथ अड़िग रवैये के चलते टाटा मोटर्स को 3 अक्टूबर, 2008 में काम रोकते हुए सिंगूर से गुजरात का रास्ता अख्तियार करना पड़ा। तब प्रधानमंत्री मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे।
सिंगूर की यह घटना ममता बनर्जी के लिए लोकतंत्र की नई परिभाशा की बाट जोह रहा था। 2011 के विधानसभा चुनाव में वामपंथी हार और तृणमूल कांग्रेस का सत्ता में आना सिंगूर विरोध को सही साबित करता है। भले ही तृणमूल कांग्रेस की सिंगूर घटना ने जीत आसान कर दी थी परन्तु जन साधारण की अपेक्षाओं की हार तो आज भी कायम माना जा रहा है। देखा जाए तो पिछली बार भाजपा को करीब सत्रह (16.8) फीसदी वोट मिले हैं जबकि 34 साल सत्ता में रहने वाले वामदल को महज 23 फीसदी ही वोट मिल पाये थे। भाजपा अध्यक्ष अमित षाह ने जनसभा में जब यह घोशणा की कि पार्टी की राज्य इकाई 2019 की लड़ाई की तैयारी करें तो ऐसा लगने लगा था कि मानो भाजपा पष्चिम बंगाल की सियासी नब्ज़ पकड़ ली हो। हालांकि भाजपा इस छलावे में न रहे कि पष्चिम बंगाल की राह उसके लिए आसान होने वाली है। यह सही है कि मोदी और ममता बनर्जी में काफी बड़ी सियासी रंजिष है। जहां षारदा घोटाले में तृणमूल कांग्रेस के कई सांसद जेल यात्रा के साथ-साथ पार्टी की छवि धूमिल करने में भी पीछे नहीं रहे हैं वहीं भाजपा के संगठन की हालत यह है कि स्थानीय निकाय चुनाव में ज्यादातर सीटों पर उसके चुनाव ऐजेंट भी नहीं थे। पूरे प्रदेष में 70 हजार से ज्यादा मतदान केन्द्र हैं। सवाल यह भी है कि कार्यकत्र्ता कहां से आयेंगे। कमियों की भरपाई के लिए पार्टी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पर सारा जोर लगा सकती है।
ममता बनर्जी के दुर्भाग्य से और भाजपा के भाग्य से 2016 की षुरूआत से ही मालदा में साम्प्रदायिक घटना हो गयी। हिंसा, लूटपाट और आगजनी की घटनाएं हुईं। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसे बीएसएफ और स्थानीय लोगों के बीच का मामला बता कर बात बिगड़ने से रोकने की भरसक कोषिष की। असल में ममता बनर्जी की चिंता 27.1 फीसदी मुस्लिम आबादी का मत भी है। यह आंकड़ा 2011 की जनगणना के आधार पर है। अब तो यह 30 फीसदी के आसपास है। पष्चिम बंगाल कुछ मामलों में देष के अन्य राज्यों से काफी भिन्न है। यहां के हिन्दू और मुसलमानों में सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर वैसा अन्तर नहीं है जैसा षेश भारत में मिलता है। ऐसे में भाजपा के ध्रुवीकरण की राजनीति कितनी सफल होगी अभी से कह पाना मुष्किल है। केन्द्र में प्रधानमंत्री मोदी सत्ता को जिस विकास की नई गाथा के साथ गतिमान बनाये हुए हैं उसका असर पष्चिम बंगाल के चुनाव पर भी भुनाना चाहेंगे। वे चाहेंगे कि अपने करिष्मे से वामपंथियों से पष्चिम बंगाल की सत्ता हथियाने वाली ममता बनर्जी को मात दें। ध्यान्तव्य है कि लोकसभा चुनाव के दौरान यहां मोदी के नाम पर ही वोट मिले थे।
विकास की अवधारणा का परिप्रेक्ष्य और संदर्भ यह भी संकेत करते हैं कि ममता बनर्जी ने बीते 5 वर्शों में इक्का-दुक्का घटनाओं को छोड़कर अपने को सषक्त सत्ताधारक महिला और बेदाग छवि बनाने में कामयाब रहीं हैं। वैसे तो आगामी चुनाव को लेकर भविश्यवाणी करना सम्भव नहीं है पर ममता बनर्जी के पष्चिम बंगाल में अब तक के प्रयासों को देखते हुए आगामी सत्ता को लेकर बड़ा खतरा तो नहीं दिखाई देता है। यदि यह बात सही निकलती है तो दूसरे नम्बर का दल कौन होगा इसको लेकर कई दावेदार हैं जिसमें वामदल, भाजपा समेत कांग्रेस भी षामिल होना चाहेगी पर अनुमान यह भी है कि आगामी विधानसभा चुनाव में यदि वामदल और कांग्रेस का गठबंधन होता है तो भाजपा नुकसान में हो सकती है। राजनीतिक तरंगे कभी भी एक जैसी नहीं होती समय और परिस्थिति के अनुपात में ऊपर-नीचे हो जाती हैं। मोदी करिष्मा बीते बिहार विधानसभा चुनाव में नहीं चला था जिस प्रकार बिहार में महागठबंधन का महाविकास हुआ उसे देखते हुए यह भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिहार के रास्ते बंगाल की सत्ता खोज में ममता बनर्जी पीछे नहीं रहेंगी क्योंकि यह तय माना जा रहा था कि यदि बिहार में भाजपा को पटखनी मिलती है तो असर बंगाल पर भी होगा। नीतीष कुमार के बिहार के मुख्यमंत्री के चैथी बार षपथ लेने के दौरान ममता बनर्जी का उपस्थित रहना विधानसभा चुनाव की रणनीति के रूप में देखा जा सकता है।



सुशील कुमार सिंह

Sunday, March 13, 2016

अलगाववाद का नया नायक

जेएनयू प्रकरण को लेकर एक महीने से अधिक वक्त बीत चुका है परन्तु हालात जस के तस दिखाई दे रहे हैं। 2 मार्च से छः महीने की अन्तरिम जमानत पर रिहा जेएनयू छात्रसंघ का अध्यक्ष कन्हैया जेल से छूटते ही अपनी पुरानी रौ में आ गया। कांग्रेस समेत आम आदमी पार्टी और वामपंथ का दुलारा यह नया-नवेला नेता भारत में अलगाववाद के नये नायक के रूप में उभरने के फिराक में है। भाजपा, आरएसएस, एबीवीपी सहित प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ जमकर आग उगल रहा है। मोदी विरोध की लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां कन्हैया नामक इस फंसाद को काफी तवज्जो दे भी रही हैं। राहुल गांधी 11 फरवरी को ही अपने समर्थन की रस्म अदायगी कर चुके हैं। कन्हैया जेएनयू प्रकरण से जुड़े आरोपियों उमर खालिद और अनिर्बान भट्टाचार्या के समर्थन में भी खुल कर आ गया है। राजनीतिक दल जिस प्रकार कन्हैया के भरोसे अपनी सियासत में चमक डालने की कोषिष कर रहे हैं उसे देखते हुए यह भी लग रहा है कि मानो कि वह उनकी पार्टी ज्वाइन करके मोदी विरोध को हवा देने वाला है। गम्भीरता से सोचिए कि जेएनयू में जो हो रहा है उससे देष की अखण्डता को कितनी चोट पहुंच रही होगी। ये भी सोचिए कि पठन-पाठन के संस्थान जेएनयू का ये हाल होना किसी अनहोनी का संकेत तो नहीं। कमोबेष इस घटना से अलगाववाद का परिदृष्य भी दिखाई दे रहा है जो वाकई में माथे पर बल लाने वाला है। संसद भी इस दौरान बजट सत्र के एक पखवाड़े से अधिक वक्त बिता चुकी है वहां भी हो-हंगामा और कई अनचाहे प्रष्न बार-बार मुखर होकर संवेदनषीलता का हनन कर रहे हैं। लगता है कि मोदी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार से कई डरे हैं और यह डर देष की भलाई के लिए नहीं बल्कि वे डिगे नहीं इसके लिए है।
जिस कदर कन्हैया को एक नायक के रूप में परिभाशित किया जा रहा है यकीनन यह चैकाने वाली बात है और जिस तरह कई बुद्धिजीवी समेत मीडिया और कुछ नेता इसके प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन में हैं इससे तो यही लगता है कि वे अंधे और बहरे भी हो गये हैं। देखा जाए तो अदालत की उस नसीहत को भी कन्हैया दरकिनार कर चुका है जिसे जमानत के दौरान दिया गया था। कन्हैया को हीरो बनाने वाले ही यह भूल गये हैं कि देष को तोड़ने वाली ताकतें भले ही नकारात्मक माहौल बनाने में तेजी से रेस लगा लें पर बाद में देष की वास्तविक ताकत के आगे उन्हें मुंहकी खानी ही पड़ती है। इस पर भी विचार करेंगे तो ठीक होगा कि 9 फरवरी के नारेबाजी का मामला अभी न्यायालय में है और उल-जलूल पर उतर आया कन्हैया इस मामले में भी बेफिक्र है। कन्हैया का कहना है कि वह सुरक्षाबलों का सम्मान करता है लेकिन उसने जब कष्मीर का जिक्र किया तो सेना पर आरोप लगाते हुए यह भी कह डाला कि वहां सेना बलात्कार करती है। आपस में मतभेद हो सकते हैं लेकिन देष और संविधान को बचाने में हमारे कोई मतभेद नहीं हैं। नपा तुला बोलने के तमाम दावों के बीच कन्हैया की जुबान ऐसा जहर उगल ही देती है जिससे कि बवाल को अवसर मिल जाता है। हम आजाद हिन्दुस्तान में समस्याओं से आजादी के लिए संघर्श कर रहे हैं। भला इनसे कोई पूछें कि समस्याओं के निदान के लिए सरकारों से भरोसा उठ गया है क्या? यदि नहीं तो आप कौन सी आजादी के लिए संघर्श कर रहे हैं। अगर कन्हैया की दृश्टि में अलगाववाद आजादी के लिए संघर्श है तो उसी संविधान की राश्ट्रीय एकता और अखण्डता क्या है? जिस प्रकार कन्हैया जैसे लोग सियासत के मोहरे बने हुए हैं इसे लेकर असहज होना स्वाभाविक है। सेना पर लगाये गये आरोप से सेना मनोबल कितना गिरेगा पता नहीं, पर कन्हैया के दुस्साहस और मिजाज से तो यही लगता है कि अलगाववाद का नया नायक देष को मिलने वाला है। कष्मीर की आजादी और देष के टुकड़े-टुकड़े करने वाले नारे अषुभ संकेत तो हैं ही साथ ही यह और भी अषुभ संकेत है कि इसकी आड़ में राजनीतिक लाभ भी कई लेने की फिराक में है। केजरीवाल जैसे नेता कहीं से परिपक्व तो नहीं कहे जायेंगे और वामपंथ की आड़ में कन्हैया के साथ अपना सुर मिलाकर इन्होंने इसे और पुख्ता कर दिया है। फिलहाल जिस प्रकार जेएनयू प्रकरण को राजनीतिक संरक्षण मिल रहा है उससे तो यही लगता है कि कहीं यह मोदी विरोध के लिए तैयार किया गया एक सियासी एजेण्डा न हो।
अगर इतिहास में जायें तो 20वीं सदी के पहले दषक में कुछ ऐसा ही माहौल था। उस दौरान लाॅर्ड कर्जन की अगुवाई में अंग्रेजों ने देष बंग-भंग के जरिये अलगाववाद के जिस पौधे की रोपाई की थी उसके उगते ही 1906 में आगा खां के नेतृत्व में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई थी बाद में यही लीग पाकिस्तान हठ से पीछे नहीं हटी। महज 41 साल बाद धर्म के आधार पर आखिरकार भारत का बंटवारा हुआ। इस ऐतिहासिक परिघटना का जिक्र करने का आषय यह है कि वर्तमान में घटना की संवेदनषीलता को और मजबूती से समझा जाए। हमें घटनाओं को हल्के में लेने की पुरानी आदत से बाज आना चाहिए। ऐसी घटनाओं के पीछे की मंषा को टटोलना चाहिए साथ ही समय रहते निपटने के सारे उपाए भी खोजने चाहिए। इतिहास में इस बात की भी सीख होती है कि उस गलती को दोबारा नहीं होने देंगे। जिस कष्मीर की आजादी के नारे जेएनयू में लगाये गये उस पर नारे लगाने वालों की बपौती कैसे? रियासतों का विलय सहमति के सिद्धान्तों पर हुआ है। कष्मीर के मामले में एक नीतिगत फैसले के तहत कष्मीर के तत्कालीन राजा हरि सिंह और भारतीय प्रधानमंत्री नेहरू के बीच की साझा समझौता था। इसमें किसी की अकड़ का कोई मतलब नहीं है। वामपंथ को यदि देष की इतनी ही चिंता है तो भारतीय संविधान की प्रस्तावना की इज्जत करना सीखें और कन्हैया जैसों को अलगाववाद के लिए हथियार बनाने से बाज आयें।
वर्श 1956 में राज्य पुर्नगठन अधिनियम के तहत राज्यों का गठन भाशा के आधार पर हुआ था और यह सिलसिला बादस्तूर 1987 तक कायम रहा तब तक भारत में 25 राज्य बन चुके थे। वर्श 2000 में विकास के नाम पर राज्यों का पुनर्गठन होने लगा। छत्तीसगढ़, झारखण्ड और उत्तराखण्ड समेत तेलंगाना भाशा के आधार पर नहीं बने हैं बल्कि ये विकास में पीछे छूटने के चलते बने हैं। आज भी भारत भाशाओं में बंटा है परन्तु रोजगार और रोटी के मामले में न पूरब, न पष्चिम, न उत्तर, न दक्षिण अगर है तो एक अखण्ड भारत है और जिसका जहां जीवन रच-बस सकता है वहां उसकी बसावट है। भाशा से क्षेत्रवाद से या अन्य किसी भी प्रकार के सामाजिक संस्कृति के भेदभाव से ये तमाम चीजें ऊपर हैं। राजनीति के छलावे के चलते देष दिक्कत में अक्सर आया है। जिन पर देष बचाने की जिम्मेदारी है वही देष के साथ घालमेल की सियासत करके अलगाववादियों को हीरो बनाने का काम कर रहे हैं जो कहीं से वाजिब नहीं है। कभी-कभी तो यह प्रतीत होता है कि सियासत का भी संविधान होना चाहिए और इनके अनुपालन न होने की स्थिति में इनका राजनीति निकाला भी होना चाहिए। भारतीय संविधान की गरिमा और गौरव को अगर सच्चे मन से बखान करना है तो तोड़ने वाली आवाज का मुंह बन्द करना ही होगा।



सुशील कुमार सिंह


Tuesday, March 8, 2016

सवालों के घेरे में दंगे की रिपोर्ट

लगभग ढ़ाई वर्श पहले पूरे देष में दंगे के चलते चर्चा और आलोचना बटोर चुका मुज़फ्फरनगर इन दिनों एक बार फिर सुर्खियों में है और अब की बार यह घमासान दंगे से जुड़ी रिपोर्ट को लेकर मची हुई है। इसी दंगे के चलते उत्तर प्रदेष की अखिलेष सरकार ने 9 सितम्बर, 2013 को जस्टिस सहाय जांच आयोग की नियुक्ति की थी और रिपोर्ट सौंपने के लिए दो माह का वक्त दिया था समस्या की संवेदनषीलता को देखते हुए वक्त बेमानी हो गये और कुल सात बार इस आयोग की कार्यावधि में बढ़ोत्तरी की गयी। अन्ततः जांच आयोग की रिपोर्ट 6 मार्च को विधानसभा में पेष की गयी जिसके चलते मुजफ्फरनगर दंगे का सच सामने आया। विधानसभा में पेष रिपोर्ट के मुताबिक दंगा भड़काने के लिए स्थानीय खुफिया का फेल होना माना गया जो विरोधियों के गले नहीं उतर रहा है क्योंकि रिपोर्ट से अखिलेष सरकार को क्लीन चिट मिलते हुए दिखाई दे रहा है। ध्यान्तव्य है कि 27 अगस्त, 2013 को इसी जिले के कवाल गांव में हिन्दू-मुस्लिम हिंसा के चलते दंगे की जो षुरूआत हुई थी वह इस क्षेत्र विषेश के लिए किसी तबाही से कम नहीं था। भड़क चुके इस दंगे की आग में 60 से अधिक लोगों की जान गयी और 40 हजार बेघर होकर षरणार्थी का जीवन जीने के लिए मजबूर हुए। इस घटना को लेकर 567 मुकदमे भी दर्ज हुए थे। दंगा क्यों हुआ, किसने किया और इसे लेकर किसकी जवाबदेही बनती है इन तमाम बातों को लेकर जस्टिस विश्णु सहाय की रिपोर्ट इन दिनों सबके सामने है पर इस रिपोर्ट को अर्द्धसत्यों का घालमेल भी कहा जा रहा है। भाजपा ने यूपी विधानसभा में बीते रविवार को पेष हुए मुज़फ्फरनगर दंगे की रिपोर्ट पर सवालिया निषान खड़े करते हुए इसे नाकाफी माना साथ ही सीबीआई से जांच कराने की मांग भी की है। इसे एक पक्षीय और अधूरी रिपोर्ट करार देते हुए यह भी कहा जा रहा है कि असली आरोपी और दंगों के कारणों तथा उकसाने वालों पर यह रिपोर्ट पूरा प्रकाष नहीं डालती है। फिलहाल रिपोर्ट को लेकर लगाये जा रहे आरोप एक सियासी संदर्भ के तौर पर भी हो सकते है परन्तु गौर करने वाली बात यह है कि आयोग की रिपोर्ट में कई लोगों को उत्तरदायी मानने के बावजूद कार्यवाही की सिफारिष करने में परहेज दिखाई देता है जो किसी-न-किसी रूप में विरोधियों को घेरने का मौका देता है।
न्यायिक जांच आयोग की रिपोर्ट की पड़ताल से पता चलता है कि मुज़फ्फरनगर में बद्-से-बद्तर हालात के लिए सरकार, षासन और सोषल मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया तक की भूमिका को सवालों के घेरे में रखा गया है उन्हें जिम्मेदार और जवाबदेह बताया गया है परन्तु कार्रवाई को लेकर मामला बहुत सहज नहीं दिखाई देता है। आयोग की रिपोर्ट से तो यही लगता है कि कार्रवाई के नाम पर गुस्सा एक सीनियर आईपीएस और एक इंस्पेक्टर तक सिमट गया है। तत्कालीन एसपी सुभाश चन्द्र दूबे को दंगे को काबू में न कर पाने के चलते नाकाम करार दिया गया जबकि आयोग की नजर में इंस्पेक्टर इसलिए दोशी है क्योंकि उन्होंने नगला मंडौर की महापंचायत में जमा होने वाली भीड़ का सही आंकलन नहीं कर पाया जिसकी चूक के चलते ये सब हुआ। आयोग ने साफ कहा है कि गलत आंकलन की वजह से ही प्रषासन पर्याप्त इंतजाम नहीं कर पाया जिसके चलते दंगा भड़का। सबके बावजूद गम्भीर सवाल यह है कि दंगा भड़कने के बाद क्या सरकार का एक्षन प्लान तत्कालिक परिस्थितियों में उस स्तर पर मुखर था जिस स्तर पर दंगा भड़का था। अखिलेष सरकार इस मामले में ठोस कदम उठाने से इसलिए भी बचती रही क्योंकि उसे न्यायिक जांच आयोग की रिपोर्ट का इंतजार था। अक्सर ऐसा देखा गया है कि किसी भी बड़ी घटना के घटने के बाद जांच आयोग की रस्म अदायगी की जाती है और ऐसे में रिपोर्ट आने में काफी समय लगता है जिसकी आड़ में सरकारें अपने एक्षन प्लान को ठण्डे बस्ते में डाल देती है और जब रिपोर्ट आ जाती है तो भी सरकार में गर्माहट का आभाव बना रहता है। फिलहाल उत्तर प्रदेष के मुख्यमंत्री अखिलेष यादव सहाय रिपोर्ट के चलते काफी सकून महसूस कर रहे होंगे।
उत्तर प्रदेष में एक साल के भीतर विधानसभा के चुनाव होने हैं। यदि यह कहा जाए कि चुनावी वर्श के सियासी भंवर में उत्तर प्रदेष की अखिलेष सरकार को एक षासक के तौर पर बड़ी बारीक परीक्षा से गुजर रही है तो गलत न होगा। ऐसे में सब कुछ समुचित करने और सभी के सवालों के सही जवाब देने की जिम्मेदारी से वे नहीं बच सकते। थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाए कि विपक्षी भी सहाय रिपोर्ट की आड़ में राजनीति कर रहे हैं और रिपोर्ट सच्चाई से निहायत ओत-प्रोत है। बावजूद इसके इस बात को कैसे दरकिनार किया जा सकता है कि मुज़फ्फरनगर में जो आग लगी थी वह तो सच थी जिन्होंने अपनी जिन्दगी गंवाई, जिनका घरबार छूटा उनके साथ तो अन्याय हुआ है। अक्सर आरोप-प्रत्यारोप की सियासत में समस्याओं का दम निकल जाता है। रसूखदारों को बचाने की पतली गली बना ली जाती है परन्तु उनका क्या जो पिछले ढ़ाई साल से उस सजा को भोग रहे हैं जिसके लिए वे जिम्मेदार ही नहीं थे। सुषासन और षासन का दावा करने वाली सरकारें ऐसे मामलों में क्यों हांफ जाती हैं, ये बात समझ से परे है। दांवों और इरादों के मामले में इनकी नीयत पतझड़ की तरह क्यों हो जाती है? मुज़फ्फरनगर और षामली में हुए दंगों और आस-पास के जिलों में भड़के साम्प्रदायिक तनाव के मामले में जस्टिस सहाय ने भी कहा है कि ये मेरे जीवन का सबसे मुष्किल जजमेंट है। उत्तर प्रदेष के राज्यपाल ने चार बिन्दुओं पर जांच सौंपी थी जो बहुत संवेदनषील था। उन्होंने यह भी कहा कि जब मैं रिपोर्ट लिखने में व्यस्त था तो मेरे विवेक में यह बात हमेषा रही है कि उक्त बिन्दुओं पर पूरी ईमानदारी के साथ रिपोर्ट तैयार हो।
सभी की अपनी-अपनी सफाई है बावजूद इसके सब कुछ साफ नहीं दिखाई दे रहा है। जस्टिस सहाय आयोग की सच्चाई पर भी सवाल उठ रहे हैं। 775 पन्नों की रिपोर्ट में 377 लोग और 101 सरकारी गवाहों के बयान दर्ज हैं। रिपोर्ट के चैथे भाग में जस्टिस सहाय मुज़फ्फरनगर जैसे दंगों की भविश्य में पुनरावृत्ति रोकने के लिए विस्तार से सुझाव भी दिये हैं। पूरी षिद्दत से देखा जाए तो आयोग ने अखिलेष सरकार के नेताओं को तो क्लीन चिट दे दी है पर कुछ अधिकारियों को दोशी पाया है। रिपोर्ट में तत्कालीन जिलाधिकारी की भूमिका को भी संदिग्ध माना गया है साथ ही इसमें यह भी है कि भड़काऊ भाशणों के लिए सीधे तौर पर कोई नेता जिम्मेदार नहीं है बल्कि स्थानीय पंचायत और पुलिस इस दंगे के जिम्मेदार बताये गये। इसी प्रकार की तमाम बातों के चलते विरोधियों को रिपोर्ट रास नहीं आ रही है। पूर्व मुख्यमंत्री मायावती का आरोप है कि इतने बड़े और सुनियोजित दंगे में राज्य सरकार को एक प्रकार से क्लीन चिट दे देना व्यवस्था से भरोसा उठाने वाला कदम है। फिलहाल ढ़ाई साल पुराने घटना पर आई रिपोर्ट की सूरत कुछ भी हो परन्तु इस सच से षासन-प्रषासन मुंह नहीं फेर सकता कि इंसाफ होना अभी बाकी है। भले ही तेजी से दौड़ती मीडिया के इस युग में मुज़फ्फरनगर जैसी घटनाओं से जुड़ी सूचना कितनी भी रफ्तार से आगे बढ़ जाये पर अन्तिम कार्रवाई तो षासन-प्रषासन के जिम्मे ही है जो षायद रेस लगाने के इच्छुक नहीं रहते।



सुशील कुमार सिंह

Monday, March 7, 2016

आधी दुनिया की शैक्षणिक स्थिति

8 मार्च को महिला दिवस के उपलक्ष्य में
षिक्षा या षोध तब तक पूर्ण नहीं हो सकता जब तक सामुदायिक सेवा और सामुदायिक जिम्मेदारी से निहित षिक्षा न हो। ठीक उसी भांति षैक्षणिक दुनिया तब तक पूरी नहीं कही जा सकती जब तक स्त्री षिक्षा की भूमिका पुरूश की भांति सुदृढ़ नहीं हो जाती। आज यह सिद्ध हो चुका है कि अर्जित ज्ञान का लाभ कहीं अधिक मूल्य युक्त है। ऐसे में समाज के दोनों हिस्से यदि इसमें बराबरी की षिरकत करते हैं तो लाभ भी चैगुना हो सकता है। देखा जाए तो 19वीं सदी की कोषिषों ने नारी षिक्षा को उत्साहवर्धक बनाया। इस सदी के अन्त तक देष में कुल 12 काॅलेज, 467 स्कूल और 5,628 प्राइमरी स्कूल लड़कियों के लिए थे जबकि छात्राओं की संख्या साढ़े चार लाख के आस-पास थी। औपनिवेषिक काल के उन दिनों में जब बाल विवाह और सती प्रथा जैसी बुराईयां व्याप्त थीं और समाज भी रूढ़िवादी परम्पराओं से जकड़ा था बावजूद इसके राजाराम मोहन राय तथा ईष्वरचन्द्र विद्यासागर जैसे इतिहास पुरूशों ने नारी उत्थान को लेकर समाज और षिक्षा दोनों हिस्सों में काम किया। नतीजे के तौर पर नारियां उच्च षिक्षा की ओर न केवल अग्रसर हुईं बल्कि देष में षैक्षणिक लिंगभेद व असमानता को भी राहत मिली। हालांकि मुस्लिम छात्राओं का आभाव उन दिनों बाखूबी बरकरार था। वैष्विक स्तर पर 19वीं सदी के उस दौर में इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा जर्मनी में लड़कियों के लिए अनेक काॅलेज खुल चुके थे और कोषिष की जा रही थी कि नारी षिक्षा भी समस्त षाखाओं में दी जाए।
बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में यह आधार बिन्दु तय हो चुका था कि पूर्ववत षैक्षणिक व्यवस्थाओं के चलते यह सदी नारी षिक्षा के क्षेत्र में अतिरिक्त वजनदार सिद्ध होगी। सामाजिक जीवन के लिए यदि रोटी, कपड़ा, मकान के बाद चैथी चीज उपयोगी है तो वह षिक्षा ही हो सकती थी। सदी के दूसरे दषक में स्त्री उच्च षिक्षा के क्षेत्र में लेडी हाॅर्डिंग काॅलेज से लेकर विष्वविद्यालय की स्थापना इस दिषा में उठाया गया बेहतरीन कदम था। आजादी के दिन आते-आते प्राइमरी कक्षाओं से लेकर विष्वविद्यालय आदि में अध्ययन करने वाली छात्राओं की संख्या 42 लाख के आस-पास हो गयी और इतना ही नहीं इनमें तकनीकी और व्यावसायिक षिक्षा का भी मार्ग प्रषस्त हुआ। इस दौर तक संगीत और नृत्य की विषेश प्रगति भी हो चुकी थी। 1948-49 के विष्वविद्यालय षिक्षा आयोग ने नारी षिक्षा के सम्बंध में कहा था कि ‘नारी विचार तथा कार्यक्षेत्र में समानता प्रदर्षित कर चुकी है, अब उसे नारी आदर्षों के अनुकूल पृथक रूप से षिक्षा पर विचार करना चाहिए। स्वतंत्रता के दस बरस के बाद छात्राओं की संख्या कुल 88 लाख के आस-पास हो गयी और इनका प्रभाव प्रत्येक क्षेत्रों में दिखने लगा। वर्तमान में स्त्री षिक्षा सरकार, समाज और संविधान की कोषिषों के चलते कहीं अधिक उत्थान की ओर है। नब्बे के दषक के बाद उदारीकरण के चलते षिक्षा में भी जो अमूल-चूल परिवर्तन हुआ उसमें एक बड़ा हिस्सा नारी क्षेत्र को भी जाता है। वास्तुस्थिति यह भी है कि पुरूश-स्त्री समरूप षिक्षा के अन्तर्गत कई आयामों का जहां रास्ता खुला है वहीं इस डर को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि आपसी प्रतिस्पर्धा भी बढ़ी है।
आज आर्थिक उदारवाद, ज्ञान के प्रसार और तकनीकी विकास के साथ संचार माध्यमों के चलते अर्थ और लक्ष्य दोनों बदल गये हैं। इसी के अनुपात में षिक्षा और दक्षता का विकास भी बदलाव ले रहा है। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि तकनीकी विकास ने परम्परागत षिक्षा को पछाड़ दिया है और इस सच से भी किसी को गुरेज नहीं होगा कि परम्परागत षिक्षा में स्त्रियों की भूमिका अधिक रही है, अब विकट स्थिति यह है कि नारी से भरी आधी दुनिया मुख्यतः भारत को षैक्षणिक मुख्य धारा में पूरी कूबत के साथ कैसे जोड़ा जाए। बदलती हुई स्थितियां यह आगाह कर रही हैं कि पुराने ढर्रे अर्थहीन और अप्रासंगिक हो रहे हैं और इसका सबसे ज्यादा चोट स्त्री षिक्षा पर होगा। यद्यपि विज्ञान के उत्थान और बढ़ोत्तरी के चलते कई चमत्कारी उन्नति भी हुई है। आंकड़े बताते हैं कि 1947 से 1980 के बीच उच्च षिक्षा में स्त्रियों की संख्या 18 गुना बढ़ी है और अब तो इसमें और तेजी है। कुछ खलने वाली बात यह भी है कि अन्तर्राश्ट्रीय स्तर की जो षिक्षा व्यवस्था है उससे देष पीछे है। विष्वविद्यालय जिस सरोकार के साथ षिक्षा व्यवस्था को अनवरत् बनाये हुए हैं उससे तो कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि संचित सूचना और ज्ञान मात्र को ही यह भविश्य की पीढ़ियों में हस्तांतरित करने में लगे हैं। इससे पूरा काम तो नहीं होगा। कैरियर के विकास में स्त्रियों की छलांग बहुआयामी हुई है पर इसके साथ पति, बच्चों, परिवार के साथ ताल-मेल बिठाना भी चुनौती रही है। काफी हद तक उनकी सुरक्षा को लेकर भी चिन्ता लाज़मी है। बावजूद इसके आज पुत्री षिक्षा को लेकर पिता काफी सकारात्मक महसूस कर रहे हैं।
2011 की जनगणना के अनुसार 65 फीसदी से अधिक महिलाएं षिक्षित हैं पर सषक्तिकरण को लेकर संषय अभी बरकरार है इसके पीछे एक बड़ी वजह नारी षिक्षा ही है परन्तु जिस भांति नारी षिक्षा और रोजगार को लेकर बहुआयामी दृश्टिकोण का विकास हो रहा है अंदाजा है कि भविश्य में ऐसे संदेह से भारत परे होगा। सषक्तिकरण की प्रक्रिया में षिक्षा की भूमिका के साथ साध्य और साधन की मौजूदगी भी जरूरी है साथ ही सामाजिक-आर्थिक विकास को भी नहीं भूला जा सकता है। समाज के विकास में स्त्री भूमिका को आज कहीं से कमतर नहीं आंका जाता मगर यह आज भी पूरी तरह कई किन्तु-परन्तु से परे भी नहीं है। 2011 की जनगणना में निहित धार्मिक आंकड़ों का खुलासा मोदी सरकार द्वारा हाल ही में किया गया था जिसे देखने से पता चलता है कि लिंगानुपात की स्थिति बेहद चिंताजनक है। सर्वाधिक गौर करने वाली बात यह है कि सिक्ख, हिन्दू और मुस्लिम समुदाय को इस स्तर पर बेहद सचेत होने की आवष्यकता है इसमें भी स्थिति सबसे खराब सिक्खों की है जहां 47.44 फीसद महिलाएं हैं जबकि हिन्दू महिलाओं की संख्या 48.42 वहीं मुस्लिम महिलाएं 48.75 फीसदी हैं। केवल इसाई महिलाओं में स्थिति ठीक-ठाक और पक्ष में कही जा सकती है। देखा जाए तो स्त्रियों से जुड़ी दो समस्याओं में एक उनकी पैदाइष के साथ सुरक्षा का है, दूसरे षिक्षा के साथ कैरियर और सषक्तिकरण का है पर रोचक यह है कि यह दोनों तभी पूरा हो सकता है जब पुरूश मानसिकता कहीं अधिक उदार के साथ उन्हें आगे बढ़ाने की है। हालांकि वर्तमान में अब ऐसे आरोपों को खारिज होते हुए भी देखा जा सकता है क्योंकि स्त्री सुरक्षा और षिक्षा को लेकर सामाजिक जागरूकता तुलनात्मक कई गुना बढ़ चुकी है।
मानव विकास सूचकांक को तैयार करने की षुरूआत 1990 से किया जा रहा है। ठीक पांच वर्श बाद 1995 में जेंडर सम्बन्धी सूचकांक का भी उद्भव देखा जा सकता है। जीवन प्रत्याषा, आय और स्कूली नामांकन तथा व्यस्क साक्षरता के आधार पर पुरूशों से तुलना किया जाए तो आंकड़े इस बात का समर्थन करते हैं कि नारियों की स्थिति को लेकर अभी भी बहुत काम करना बाकी है। विकास की राजनीति कितनी भी परवान क्यों न चढ़ जाए पर स्त्री षिक्षा और सुरक्षा आज भी महकमों के लिए यक्ष प्रष्न बने हुए हैं। स्वतंत्र भारत से लेकर अब तक लिंगानुपात काफी हदतक निराषाजनक ही रहा है। हालांकि साक्षरता के मामले में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। वर्तमान मोदी सरकार ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ‘ से लेकर कई ऐसे कार्यक्रमों को विकसित करने का प्रयास किया है जिससे कि इस दिषा में और बढ़त मिल सके फिर भी कई असरदार कार्यक्रमों और परियोजनाओं को नवीकरण के साथ लाने की जगह आगे भी बनी रहेगी साथ ही उनका क्रियान्वयन भी समुचित हो जिससे कि षैक्षणिक दुनिया में नारी को और चैड़ा रास्ता मिल सके। 

 

सुशील कुमार सिंह

गर्मी के बीच चुनावी सरगर्मी

अप्रैल में जब सूरज कर्क रेखा के और समीप होगा तो लगभग पूरा भारत भरपूर गर्मी की चपेट में होगा। इस बार की गर्मी इसलिए भी उफान पर होगी क्योंकि इसमें सियासी गर्मी भी घुली रहेगी। देष के चार राज्यों असम, केरल, तमिलनाडु और पष्चिम बंगाल तथा केन्द्र षासित पुदुचेरी में विधानसभा चुनाव की अधिसूचना बीते 4 मार्च को निर्वाचन आयोग द्वारा जारी कर दिया गया। इसी दिन से आचार संहिता भी लागू हो गयी। लगभग डेढ़ महीने चलने वाले मतदान में कई पार्टियों की सियासत अब दांव पर लग गयी है। 4 अप्रैल से 16 मई के बीच अलग-अलग चरणों में जहां मतदान सम्पन्न होगा वहीं मतगणना 19 मई को होगी जबकि 21 मई तक चुनावी प्रक्रिया पूरी कर ली जायेगी। तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी जहां दक्षिण भारत में कांग्रेस समेत स्थानीय दलों के लिए गढ़ बचाने की चुनौती होगी वहीं भाजपा को अच्छे प्रदर्षन का दबाव जरूर होगा जबकि पष्चिम बंगाल में तो तत्कालीन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से तो कहीं अधिक प्रधानमंत्री मोदी की सियासत पर लोगों की दृश्टि रहेगी। इसके अलावा असम में भी भाजपा अपने जोष में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहेगी। फिलहाल 126 सीटों वाली असम विधानसभा में कांग्रेस की सरकार है। लगभग दो साल की मोदी सरकार और इतने ही समय का कांग्रेस विरोध कितना फलित हुआ है असम के नतीजे इसे पुख्ता करेंगे।
गौरतलब है कि जिन राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं इनमें किसी में भी भाजपा की सरकार नहीं है। असम को छोड़ दिया जाए तो बाकी किसी भी राज्य में भाजपा सियासी तौर पर भी बड़ी पार्टी के रूप में पहचान नहीं बना पाई है। असम से बीजेपी ने लोकसभा चुनाव में 7 सीटें जीती थीं। असम गण परिशद् के साथ किया गया गठबंधन यहां कांग्रेस को कड़ी टक्कर देने के काम आ सकता है। दक्षिण भारत की पार्टियों में केरल विधानसभा पर दृश्टि डाली जाये तो सत्तारूढ़ कांग्रेस सहित सभी पार्टियों ने चुनावी रण में उतरने के लिए कमर कस ली होगी। मोदी के कद को देखते हुए भारतीय जनता पार्टी यहां की विधानसभा में अपना खाता जरूर खोलना चाहेगी। 140 विधानसभा सीट रखने वाले केरल में ढ़ाई करोड़ से अधिक मतदाता हैं परन्तु यहां मुख्य लड़ाई कांग्रेस और यहां के स्थानीय विरोधियों के बीच अधिक दिखाई दे रहा है। हालांकि भाजपा सेंध लगाना जरूर चाहेगी। तमिलनाडु मे 234 विधानसभा सीटें हैं यहां पर चर्चित जे. जयललिता मुख्यमंत्री का काम कर रही हैं। जयललिता के अन्नाद्रमुक और करूणानिधि के डीएमके के बीच ही अक्सर टक्कर रहती है। करीब छः करोड़ मतदाता की दृश्टि में इस बार मोदी का जादू भी गौर में आया होगा। जाहिर है भाजपा यहां भी एड़ी-चोटी का जोर लगाकर अपनी व्यापक उपस्थिति दर्ज कराने में कोई चूक नहीं करेगी। बीते 2 फरवरी को प्रधानमंत्री मोदी ने कोयम्बटूर में एक रैली की थी जो काफी हद तक चुनावी बिगुल फूंके जाने का ही संकेत था। तमिलनाडु की सियासत में जिस प्रकार का बीते कुछ सालों में बदलाव आया है और भाजपा जिस प्रकार अपने कद में बढ़ोत्तरी की है उसे देखते हुए एक तरफा जीत का अनुमान लगाना सही नहीं होगा। तमिलनाडु से सटा केन्द्रषासित पुदुचेरी में चुनावी सरगर्मी इतने उफान पर नहीं होगी। 30 विधानसभा सदस्यों वाले पुदुचेरी में एन. आर. कांग्रेस की सत्ता है और मात्र 10 लाख के आसपास मतदाता हैं इसका भारत की सियासत पर बहुत बड़ा रसूख नहीं है पर इसे कम भी नहीं आंका जा सकता है।
पांचों राज्यों के विधानसभा चुनावों में अगर कोई राज्य अधिक सुर्खियों में है तो वह पष्चिम बंगाल है। यहां की सियासत इन दिनों फलक पर भी है। इस बार के चुनाव में बात केवल ममता बनर्जी एवं उनकी पांच साल की सरकार तक की ही नहीं होगी बल्कि वामपंथ और कांग्रेस के साथ भाजपा भी पष्चिम बंगाल की सियासत में पूरी गरमी छोड़ने के लिए आतुर है। पष्चिम बंगाल में ममता बनर्जी से पहले 34 सालों तक वामपंथियों की सरकार रही। वामपंथी केरल से उजड़ने के बाद पष्चिम बंगाल में ही लम्बे समय तक का आषियाना बना पाये थे पर वो भी पांच साल पहले छिन गया था इतना ही नहीं 2004 के लोकसभा चुनाव में 53 सदस्यों वाले सीपीआई, सीपीआई(एम) 2015 में 19 और 2014 के लोकसभा चुनाव में तो इनके दस सदस्य मात्र ही संसद की दहलीज पर पहुंच पाये। इसके अलावा पष्चिम बंगाल का विधानसभा पांच साल पहले ही इनके हाथों से निकल चुका है। इसके पीछे भी एक बड़ी रोचक घटना है। जब वर्श 2006 में टाटा मोटर्स और वामपंथ की सरकार चला रहे बुद्धदेव ने नैनो कार के माध्यम से पष्चिम बंगाल में विकास की नई परिभाशा गढ़ने की कोषिष कर रहे थे उसी दौरान तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी इनके ताबूत में आखरी कील ठोंक रही थीं। ममता बनर्जी का सिंगूर में लगने वाले टाटा मोटर्स की नैनो की फैक्ट्री का विरोध किया जाना तब सही साबित हुआ जब 2011 के विधानसभा चुनाव में वामपंथी हार और तृणमूल कांग्रेस सत्ता पर काबिज हुई। आखिरकार नैनो को मोदी की षरण में गुजरात जाना पड़ा था तब प्रधानमंत्री मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। सिंगूर से नैनो के पलायन के साथ मानो पष्चिम बंगाल आने वाले चुनाव के लिए एक नये लोकतंत्र की बाट जोह रहा था।
आगामी विधानसभा चुनाव में चुनाव आयोग ने कुछ नई बातें भी की हैं। दिव्यांग मतदाताओं की सुविधा के लिए मतदान केन्द्रों पर रैम्प बनाये जायेंगे। महिला मतदाताओं के लिए अलग बूथ बनाये जाने की भी बात कहीं है जहां महिला कर्मचारियों की तैनाती होगी। इतना ही नहीं ईवीएम मषीनों पर प्रत्याषियों के फोटो लगे होंगे और पहली बार नोटा का चिन्ह् भी होगा। चुनाव की संवेदनषीलता को देखते हुए अर्धसैनिक बलों के 80 हजार जवान भी तैनात किये जायेंगे। इन पांच राज्यों के चुनाव निपटने के बाद आने वाले कुछ ही महीनों में उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड समेत कई अन्य राज्यों के चुनाव भी होने हैं। इन सभी को देखते हुए राजनीतिक दल न केवल सियासी कमर कस रहे होंगे बल्कि सत्ता गुणा-भाग में भी अपने को झोंक चुके होंगे। देखा जाए तो विकास की अवधारणा के परिप्रेक्ष्य और संदर्भ यह भी संकेत करते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी अपने अब तक के कार्यकाल में पूरे भारत को एक सूत्र में पिरोने की तत्परता दिखाई है। इस आधार पर भाजपा को चुनावी राज्यों में उम्मीद रखने से कोई गुरेज नहीं करना चाहिए पर यह बात भी उतनी ही सही है कि राज्य विषेश के मुख्यमंत्रियों ने बीते 2 वर्शों में राज्यों के विकास के लिए मोदी से स्पर्धा करते हुए अपनी कूबत को भी बढ़ाने की कोषिष की है जिसमें ममता बनर्जी का नाम पहली पंक्ति में आता है। यह सही है कि राज्य विधानसभा को लेकर भाजपा का कद बिहार हार से घटा है परन्तु सियासत पर घटना घटने से पहले पूरे नतीजे पर पहुंचना पूरी तरह वाजिब भी नहीं होता। राजनीतिक तरंगे कभी भी एक जैसी नहीं रही हैं। समय और परिस्थितियों के अनुपात में ऊपर-नीचे होती रही हैं। बेषक मोदी के करिष्मे को बिहार ने ठेस पहुंचाई हो परन्तु यह भी समझने की जरूरत है कि प्रत्येक चुनाव की अपनी रणनीति होती है। भाजपा अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग कूबत और रणनीति का सहारा ले सकती है। एक सच यह भी है कि इन प्रान्तों में भाजपा को खोने के लिए कुछ नहीं है और पाने के लिए पूरी सत्ता है परन्तु सत्तारूढ़ दलों को अपने किलों को बचाने की बड़ी चुनौती तो है ही।



सुशील कुमार सिंह

Thursday, March 3, 2016

राष्ट्रपति पद के समीप हिलेरी क्लिंटन

अमेरिका में राश्ट्रपति चुनाव के लिए उम्मीदवारी की दौड़ में षामिल रिपब्लिकन के डोनाल्ड ट्रंप और डेमोक्रेट की हिलेरी क्लिंटन के बीच कड़ी टक्कर बनते दिख रही है। दोनों प्राइमरी चुनाव में जीत दर्ज करते हुए सात राज्यों में विजयी रहे। इस बार का अमेरिकी राश्ट्रपति का चुनाव काफी रोचक कहा जायेगा क्योंकि ऐसा पहली बार हो रहा जब कोई महिला इस मुकाबले में है। हालांकि 2008 के चुनाव में भी डेमोक्रेटिक पार्टी की हिलेरी क्लिंटन की चर्चा जोरों पर थी पर उम्मीदवारी बराक ओबामा को मिली। उसके बाद वे राश्ट्रपति भी बने और अपना दूसरा कार्यकाल समाप्त करने के कगार पर हैं। अमेरिका में लोकतंत्र की पड़ताल की जाए तो वर्श 1788-89 में अमेरिकी लोकतंत्र मील का पत्थर तब सिद्ध हुआ जब जाॅर्ज वांषिंगटन पहले चुने हुए राश्ट्रपति बने। तब से लेकर बराक ओबामा तक 44 लोग इस पद के धारक बने, पर एक भी महिला इस षीर्शस्थ पद तक नहीं पहुंच सकी। देष चाहे अध्यक्षीय प्रणाली के हों या संसदीय 50 से अधिक ऐसे देष हैं जहां सरकार की मुखिया महिलाएं रही हैं और वर्तमान में भी कई देषों में यही स्थिति है। भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका तथा बांग्लादेष चार ऐसे पड़ोसी एषियाई देष हैं जहां महिलाएं षीर्श सत्ता को हासिल कर चुकी हैं। विष्व में सर्वप्रथम महिला सरकार के मामले में श्रीलंका का नाम आता है जबकि भारत में आजादी के दो दषक के अन्दर ही महिला प्रधानमंत्री बनी तत्पष्चात् राश्ट्रपति, स्पीकर आदि उच्चस्थ पद भी महिलाओं के हिस्से आये। आॅस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, जर्मनी, कनाडा और इंग्लैण्ड सहित तमाम देषों ने महिलाओं को षीर्शस्थ पदों तक पहुंचने का अवसर दिया है पर अमेरिका इस अवसर से अभी भी परे है। सवाल है कि लोकतंत्र की पराकाश्ठा से निपुण अमेरिका ने महिलाओं को षीर्शस्थ तक पहुंचाने में इतना विलम्ब क्यों किया जबकि यह राय आम है कि नेतृत्व के मामले में महिलाएं भी पुरूशों से तनिक मात्र भी कमतर नहीं हैं।
इस वर्श अमेरिका में एक बार फिर राश्ट्रपति का चुनाव होने जा रहा है। सब कुछ अनुकूल रहा तो 227 वर्श के लोकतंत्र को खर्च करने के बाद हिलेरी क्लिंटन के रूप में व्हाइट हाऊस को एक महिला राश्ट्रपति मिल सकता है। ओबामा के पहले कार्यकाल के दौरान हिलेरी क्लिंटन विदेष मंत्रालय का कार्यभार भी संभाल चुकी हैं। कहा जा रहा है कि हिलेरी षानदार राश्ट्रपति साबित होंगी। देष की पहली महिला राश्ट्रपति बनने की प्रबल दावेदार हिलेरी क्लिंटन का सामना आठ साल से सत्ता से विमुख रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रम्प से होगा। वैष्विक स्तर पर ऐसा रहा है कि महिलाओं की षीर्शस्थ पदों पर पहुंचने के मार्ग काफी दुरूह रहे हैं साथ ही लोकतंत्र के बड़े-बड़े कसीदे गढ़ने वाले भी इस मामले में चूक कर चुके हैं। अमेरिका एक विकसित देष है जिसकी ताकत विष्व भर में प्रबल मानी जाती है साथ ही तमाम बेहतरी के बावजूद महिला षासक देने में चूकता रहा है। आने वाला चुनाव इस चूक से मुक्ति देने का काम कर सकता है। हिलेरी क्लिंटन पूर्व राश्ट्रपति बिल क्लिंटन की पत्नी हैं इन्हें प्रथम अमेरिकी महिला होने का गौरव आठ वर्श तक मिल चुका है। व्हाइट हाऊस का इन्हें अनुभव भी है। ऐसे में यदि हिलेरी अमेरिका की राश्ट्रपति बनती हैं तो एक ओर अमेरिकी लोकतंत्र में महिला राश्ट्रपति का गौरव बढ़ेगा तो दूसरी ओर बिल क्लिंटन के साथ प्राप्त अनुभव से अमेरिका को तो फायदा होगा ही साथ ही कई देषों के साथ बेहतर सम्बंध की गुंजाइष भी रहेगी जिसमें भारत षीर्शस्थ देषों में षुमार होगा।
वर्श 1783 में औपनिवेषिक सत्ता से मुक्त होने वाले अमेरिका का संविधान 1789 में जब तैयार हुआ तो वयस्क मताधिकारों में महिलायें नहीं गिनी जाती थीं। अमेरिका में 21 वर्श से ऊपर की महिलाओं को मत देने की अनुमति अमेरिकी संविधान के 19वें संषोधन (1920) के द्वारा ही मिल पायी। इंग्लैण्ड में भी महिलाओं को मताधिकार से 1918 तक वंचित रखा गया था। फ्रांस की महिलाओं ने पहली बार 1945 में वोट देने का अधिकार मिला। हालांकि फिनलैंड 1906, नार्वे 1913 और डेनमार्क 1915 में महिलाओं को मताधिकार दिया था। फिर भी सवाल है कि पुरातन लोकतंत्र के बावजूद खुला मिजाज रखने वाले अमेरिका जैसे देष महिलाओं के मताधिकार के मामले में इतने संकुचित क्यों रहे? जबकि भारतीय संविधान अपने लागू होने की तारीख से ही भारत में ऐसे अधिकार थे। जाहिर है जब महिलायें मताधिकार से ही वंचित रहेंगी तो हुकुमरान कैसे बनेंगी? इतिहास के पन्नों को उलट-पलट कर देखा जाए तो महिलाओं का लोकतंत्र के पर्दे पर पर्दापण को सौ बरस भी नहीं हुए हैं। इससे यह भी पता चलता है कि वैष्विक स्तर पर किसी भी देष का लोकतंत्र कितना भी पुराना और सषक्त क्यों न हो, पर वह सैकड़ों वर्शों तक पुरूश लोकतंत्र की ही गिरफ्त में था। फिलहाल लगभग सौ वर्शों से अमेरिका के लोकतंत्र में महिलाओं को मतदाता के रूप में प्रतिश्ठित कर दिया गया। गत् कई वर्शों से अमरिका जैसे प्रबल लोकतांत्रिक देषों में भी यह देखने में आ रहा है कि मतदान के प्रति आतुरता घटी है। पड़ताल करने से यह भी पता चलता है कि 1960 में 63 फीसदी मतदाताओं ने राश्ट्रपति चुनाव में मतदान किया जबकि 1972 से लेकर 1988 तक मत प्रतिषत 55 से घटकर 50 फीसद हो गया। वर्श 1996 में तो मतदान 49 फीसदी पर पहुंच गया। विगत् 55 सालों में देखा जाए तो 63 फीसदी मतदान जो 1960 के चुनाव में हुआ था वह सर्वाधिक है। भले ही अमेरिका सर्वाधिक पुराना लोकतंत्र हो और जागरूकता के लिए जाना जाता हो बावजूद इसके लोकतंत्र के प्रति अमेरिकियों का झुकाव उत्साह से परे ही प्रतीत होता है।
लोकतंत्र को बनाने में काफी कूबत खर्च करनी पड़ती है साथ ही इसे संवारने में लम्बा वक्त देना पड़ता है तब कहीं जाकर बेजोड़ प्रजातंत्र की अवधारणा मूर्त रूप लेती है। सबल पक्ष यह है कि वर्तमान विष्व लोकतंत्र का बढ़िया संरक्षण कत्र्ता है जहां सभी के लिए समान अवसर उपलब्ध हैं। नवीन लोक प्रबंध और प्रगति के मामले में अब लोकतंत्र अनहोनी का षिकार नहीं हो सकता। विष्व के लगभग सभी लोकतांत्रिक देषों में अब स्त्री-पुरूश दोनों का प्रजातंत्र कायम है। ऐसे में लोकतंत्र भी पहले से कहीं अधिक मजबूत हुआ है। विमर्ष यह भी है कि 21वीं सदी में अमेरिका महिला राश्ट्रपति देकर इस प्रजातंत्र को और षक्तिषाली बना सकता है साथ ही इस आरोप को भी खारिज कर सकता है कि वहां कोई महिला मुखिया नहीं है। उन्नीसवीं सदी के अन्त में महिलाओं को मतदान का अधिकार प्रदान करने में आॅस्ट्रेलिया ने विष्व का नेतृत्व किया था जबकि बीसवीं सदी के मध्य में प्रथम प्रधानमंत्री देकर श्रीलंका ने लोकतंत्र की नई परिभाशा गढ़ी थी। इतिहास के पड़ताल से पता चलता है कि आॅस्ट्रिया, जर्मनी, स्विट्जरलैण्ड आदि देषों की महिलाएं बीसवीं सदी के दूसरे दषक में मार्च, विरोध और आंदोलन के जरिये अपना लोकतांत्रिक हक मांग रहीं थी। इन्हीं दिनों वर्श 1914 से अन्तर्राश्ट्रीय महिला दिवस मनाने की अवधारणा भी जन्मी जिसे प्रतिवर्श विष्व भर में 8 मार्च को मनाया जाता है। फिनलैण्ड ऐसा देष है जिसकी संसद में पहली बार 1907 में महिला प्रतिनिधि आयी। इसी तर्ज पर नार्वे ने भी महिलाओं को आगे बढ़ाने का काम किया। हाल फिलहाल में भूटान में भी महिलाओं को पूरी तरह वोट देने का अधिकार वर्श 2008 में दे दिया गया। देर से ही सही कमोबेष विष्व के सभी कोनों में लोकतांत्रिक परिपाटी के निर्वहन में अब महिलायें भी साथ हैं। फिलहाल अमेरिका में यदि मुखिया महिला चुनी जाती है तो विष्व का यह पुराना लोकतंत्र कहीं अधिक सषक्त लोकतंत्र के रूप में भी परिभाशित हो जायेगा।




सुशील कुमार सिंह


Tuesday, March 1, 2016

बजट से बही गांव में सुशासन की बयार

मैं किसानों के प्रति आभारी हूं कि वे हमारे देष के खाद्य सुरक्षा की रीढ़ हैं। हमें खाद्य सुरक्षा से आगे सोचना होगा और किसानों को आय सुरक्षा देनी होगी। कृशि और कृशि कल्याण के लिए हमारा कुल आबंटन 35,984 करोड़ रूपए है। इस प्रकार का वक्तव्य बीते 29 फरवरी को वित्तमंत्री अरूण जेटली ने बजट भाशण के दौरान दिया था। इस बार के बजट को कृशि, उद्योग और सेवा क्षेत्र की दृश्टि से विवेचना की जाए तो कोई दो राय नहीं कि इसका झुकाव खेती-किसानी और कृशि उन्मुख है। बजट किसान और ग्रामीण विकास पर केन्द्रित है जिसके तहत कई योजनाओं की घोशणा देखी जा सकती है। सचमुच में यदि योजनाएं अपने साकार रूप को प्राप्त कर लेती हैं तो इसमें कोई षक नहीं कि गांव के साथ किसानों की माली हालत में बड़ा सुधार होगा। बजट आने से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि 125 करोड़ देषवासी इस बजट के माध्यम से उनकी परीक्षा ले रहे होंगे। बजट पड़ताल को देखने के पष्चात् पता चलता है कि इस बजट में मोदी सरकार भारी अंकों के साथ उत्तीर्ण होती दिखाई दे रही है। बीते तीन साल से लगातार देष सूखे का षिकार रहा है, पिछला वर्श तो बेमौसम बारिष के चलते पानी-पानी भी हो गया था और किसान दो तरफा बर्बादी के षिकार हुए। इसे देखते हुए इस बार सरकार को कुछ बेहतर सोचने का दबाव भी था। बजट के पिटारे से गांवों के लिए जो बयार बही है उससे मोदी सरकार के सुषासन की महत्वाकांक्षी सोच को भी बल मिलता है। इस बजट से सरकार ने एक तीर से दो निषाने लगाये हैं पहला, गांव की खुषहाली की चिंता सरकार को है इसका चित्र दिखाया दूसरे, सरकार ने बीते एक वर्श से बनी किसान विरोधी छवि को भी बदलने में बड़ी कामयाबी पाई है।
बजट गांव की तस्वीर बदलेगी इस पर भरोसा न करने का कोई स्पश्ट कारण नहीं दिखाई देता। ग्रामीण ढांचे को सुधारने पर बल दिया गया है। कृशि एवं सिंचाई के लिए भी बड़े फण्ड का ऐलान इसमें षामिल है। किसानों की आमदनी 2022 तक दोगुना करने का इरादा काफी रोचकता से परिपूर्ण है। 5 लाख एकड़ खेती से जैविक खेती को बढ़ावा देना। दालों के उत्पादन के लिए 5 सौ करोड़ रूपए की अतिरिक्त व्यवस्था, फसल बीमा के लिए 55 सौ करोड़ रूपए का प्रावधान किया जाना। कृशि क्षेत्र में धन का आभाव खत्म करने के लिए 0.5 प्रतिषत का सरचार्ज लगाना जबकि विदेषी निवेष के जरिये खाद्य प्रसंस्करण उत्पादों के लिए बाजार सुनिष्चित करने की बात भी षामिल है। मण्डी कानून में बदलाव कर राश्ट्रीय बाजार प्लेटफाॅर्म की षुरूआत भी षुभ मानी जा सकती है। प्रधानमंत्री मोदी को किसान रैलियों या अन्य चुनावी रैलियों में कई बार किसानों की चिंता करते हुए देखा गया है। इस बजट में ग्रामीण किसानों को क्या मिला के बजाय, क्या नहीं मिला पर जोर दिया जाए तो इसकी जांच बहुत बारीकी से करनी पड़ेगी। मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना जो किसानों को उर्वरक का उचित उपयोग करने में सहायक होगा। 89 सिंचाई परियोजनाओं को फास्ट ट्रैक किया जाना जिनसे अगले पांच वर्श के दौरान करीब 90 हजार करोड़ रूपए की तो आवष्यकता होगी इनमें से 23 परियोजनाओं को 31 मार्च, 2017 के पहले पूरा किये जाने का लक्ष्य रखना। एफसीआई अनाज की आॅनलाइन खरीदारी करेगा। उक्त योजनाओं के माध्यम से जिस प्रकार गांव की तस्वीर बदलने की कवायद की गई है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि इस बजट में मोदी इफेक्ट भी है और इम्पैक्ट भी है।
गांव की सड़कें अब हिचकोले नहीं लेंगी बल्कि इनसे मुक्त होंगी। प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना का क्रियान्वयन जिस तरह किया जा रहा है वैसा पहले नहीं था। 27 हजार करोड़ इस योजना के तहत खर्च किया जाना साथ ही 65 हजार नई बस्तियों को सड़कों से जोड़ना, गांवों के लिए एक सुनहरा उपहार है। 2019 तक करीब सवा दो लाख किलो मीटर तक सड़क निर्माण का लक्ष्य इसमें देखा जा सकता है। बातें कहने के लिए, बड़ी-बड़ी आलोचना करने के लिए भी इस बजट में मसाला है पर इसकी फिक्र किये बगैर ग्रामीण विकास और किसानों के उद्धार को देखते हुए इस बजट को बिना नफे-नुकसान को ध्यान में रखे सकारात्मक कहने का मजबूत इरादा है। खुले में षौच मुक्त होने वाले गांव को इनाम देने के लिए केन्द्रीय प्रायोजित स्कीम के लिए प्राथमिक आधार पर आबंटन। बजट में उर्वरक सब्सिडी को सीधे किसान तक पहुंचाने के लिए डीबीटी नेटवर्क इस्तेमाल की भी बात कही गयी है। लगभग दो वर्श पुरानी मोदी सरकार ने सूखा ग्रस्त क्षेत्र के लिए दीन दयाल अन्त्योदय योजना को भी तवज्जो दिया है। ग्रामीण आधारभूत संरचना पर जोर देने के लिए सरकार बेषुमार योजनाओं की घोशणा की है। वित्तमंत्री अरूण जेटली के बजट ने इस बात को भी साबित किया है कि गांवों की समृद्धि के बगैर बहुत आगे तक चलना मुष्किल है। दूसरे षब्दों में देष के विकास का रास्ता गांवों से होकर जाता है। मई 2018 तक देष के सभी गांवों तक बिजली पहुंचाने का लक्ष्य है। ग्रामीण इलाकों में डिजिटल साक्षरता को षुरू करने की योजना, एससी, एसटी और महिलाओं को तोहफा, सामाजिक क्षेत्र के लिए आबंटन को बढ़ाया जाना। एक तिहाई आबादी को स्वास्थ्य सम्बन्धी सुरक्षा प्रदान किया जाना भी काफी सषक्त बजट का परिप्रेक्ष्य दर्षाता है।
इसमें कोई षक नहीं कि इस बजट के माध्यम से अरूण जेटली ने गांव की तस्वीर बदलने और सुषासन की नई परिभाशा गढ़ने की कोषिष कर दी है। सवाल अब सिर्फ इसके सही क्रियान्वयन का है। कई खास बातें बजट में और भी हैं जिनका पूरी तरह जिक्र किया जाना सम्भव नहीं है पर इस बात को समझना जरूरी है कि नीतियां कितनी भी सषक्त क्यों न हों, योजनाएं कितनी भी मारक क्यों न रहीं हों जिनके लिए और जितने हिस्सों में इनको आगे बढ़ाना है यदि ये सुचारू नहीं हो पाती हैं तो नतीजे और मूल्यांकन किसी के लिए भी पचाना मुष्किल होगा। जिस मुस्तैदी के साथ बजट में गांव विकास को लेकर एक मोटी लकीर खींचने की कोषिष की गई उसी समर्पण के साथ इसे जरूरतमंदों तक पहुंचाना इसकी कसौटी होगी। गरीब महिलाओं को एलपीजी कनेक्षन से लेकर अनेक कई सहूलियत इस ओर इषारा करते हैं कि सरकार का होमवर्क कहीं से अधूरा तो नहीं है पर पूरा किया जाना अभी चुनौती है। ‘मेक इन इण्डिया‘, ‘डिजिटल इण्डिया‘, ‘स्टार्टअप एण्ड स्टैण्डअप इण्डिया‘ से लेकर ‘कौषल विकास‘ तक का बिगुल गांव में भी फूंका जा सकता है बषर्ते आधारभूत संरचना से निपट लिया जाए तो। मोदी सरकार को इस बात के लिए भी सराहना की जा सकती है कि इस बजट के चलते उन्होंने काॅरपोरेट सरकार की संज्ञा से भी अपने को मुक्त कर लिया है। इस बजट की कसौटी इस बात से भी आंक सकते हैं कि अरूण जेटली ने बजट भाशण के दौरान स्वामी विवेकानंद के इस कथन का भी जिक्र किया था जब तक भारत की जनता एक बार फिर से षिक्षित नहीं हो जाती, उसे पर्याप्त भोजन नहीं मिलता और उनकी अच्छी देखभाल नहीं की जाती तब तक उनके लिए राजनीति के कोई मायने नहीं। उक्त कथन से यह भी परिलक्षित कर दिया गया कि सरकार संवेदनषीलता को न केवल समझती है बल्कि उनके लिए कोई भी जोखिम ले सकती है जो हाषिये पर हैं। व्यापक पैमाने पर बजट में गांव को तरजीब दिया जाना इसका पुख्ता सबूत है।


सुशील कुमार सिंह