Monday, August 31, 2015

सरकार के यू-टर्न के और भी मायने हैं

भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में आयी दिक्कतों के बाद इसमें सुधार के लिए राज्यों की ओर से ही अनुरोध किया गया यह बात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आकाषवाणी पर 11वीं बार ‘मन की बात‘ करते हुए कही। पिछले एक साल में वो औसतन एक महीने में एक बार रेडियो से देष के जन मानस के सामने कोई न कोई मुद्दा लाते रहे हैं। आठ महीने के भू-अधिग्रहण कानून की छटपटाहट इस बार के ‘मन की बात‘ में देखी जा सकती है जिस पर कई बार अध्यादेष लाने की मजबूरी निहित रही है। 31 अगस्त को समाप्त हो रही इसकी मियाद आगे नहीं बढ़ेगी इसकी भी घोशणा उन्होंने कर दी। बीते सत्र में जो फजीहत सरकार ने झेली उससे यह तो साफ था कि जीएसटी तथा भू-अधिग्रहण सहित कई ऐसे विधेयक हैं जो लम्बित ही रहेंगे। मुष्किल तो यह भी है कि सारे घटनाक्रम सरकार को निरंतर कमजोर बनाते चले गये और भारी-भरकम बहुमत वाली सरकार विरोधियों के सामने कुछ न कर सकी। अब आलम यह है कि जीएसटी जैसे बिल भी खटाई में पड़ गये हैं। इतना ही नहीं कहीं से भी सरकार को फिलहाल राहत की कोई वजह दिखाई नहीं दे रही है और न ही सरकार ऐसा कोई करिष्मा कर पा रही है जिससे कि विरोधी उनके सुर में सुर मिलाएं।
प्रधानमंत्री द्वारा भू-अधिग्रहण अध्यादेष वापस लेना एक चैकाने वाली घोशणा है। यह आषंकित किसानों को भरोसा दिलाने के रूप में उठाया गया कदम भी हो सकता है। कहा जाता है कि विकास का चिंतन कभी किसी एक माॅडल में फंस कर रह गया हो तो किसी दूसरे माॅडल में रूपांतरित करने को समय की समझ कहेंगे। चतुर षासक वही होता है जो जन सरोकार की ओर समय के साथ स्वयं को झुका लेता है। बीते रविवार को रेडियो पर ‘मन की बात‘ के कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने भूमि अधिग्रहण के उस विधेयक पर फिलहाल अध्यादेष न जारी करने के निर्णय को लेकर यह संदेष दे दिया है कि सरकार के प्रति किसानों की बिगड़ी सोच को दुरूस्त किया जाएगा। वर्श 2014 के 23 दिसम्बर को षीत सत्र की समाप्ति के बाद यह अध्यादेष लाया गया था। बजट सत्र तत्पष्चात् मानसून सत्र से गुजरता हुआ यह हंगामे की भेंट ही चढ़ता रहा और विरोधियों के विरोध करने वाली रणनीति के काम आता रहा। इस पर विरोधी एकमत न हुए और न ही सरकार की किसी भी मान मनव्वल का उन पर कोई असर हुआ। फिलहाल अभी भी एक टिकाऊ कानून की दरकार सरकार को रहेगी। हालांकि इसे बिहार चुनाव से जोड़कर भी देखा जा रहा है। पूरी ताकत लगाने के बावजूद भू-अधिग्रहण विधेयक को कानूनी रूप न दिला पाने से सरकार पीछे हटी है पर इसकी हकीकत कुछ और भी है। प्रधानमंत्री का यह आरोप कि विपक्ष ने किसानों को गुमराह करके तथा डराकर इस कानून की आवष्यकता और प्रासंगिकता पर ही सवाल उठाने का काम किया है।
परिप्रेक्ष्य यह है कि सरकार ने यू-टर्न क्यों लिया 17 राज्यों के लाखों किसान दिल्ली की सड़कों पर इसलिए विरोध के लिए उतरे थे कि भूमि अधिग्रहण कानून किसान विरोधी है। इसके अलावा भारत के प्रत्येक स्थानों पर इसके विरोध के स्वर फूटे थे साथ ही बजट सत्र से लेकर आगे की कई बैठकें और सत्र हंगामे की भेंट चढ़ते रहे और यह सब पिछले आठ महीनों से सरकार झेलती रही। विपक्ष से घिरी सरकार विधेयक में संषोधन करती रही। किसानों में यह संदेष देने का काम करती रही कि इसमें षोशण नहीं, भलाई छुपी है पर विरोधी हैं कि किसानों के मन में यह बात गहराई से पनपा दिया था कि मोदी का यह कानून फिलहाल मनमोहन के कानून से बेहतर नहीं है। सवाल है कि आठ महीने से अधिक पुराना भू-अधिग्रहण कानून जो अध्यादेष की बैसाखी पर टिका हुआ था आखिर इस तरह दरकिनार क्यों हो गया? सरकार के रवैये से साफ है कि समय की दरकार के अनुपात में अभी फिलहाल इससे तौबा कर ली जाए। इस घटना से विरोधी में जष्न का माहौल तो होगा पर वे जब दूसरे पहलू से वाकिफ होंगे तब उनके माथे पर भी बल पड़ेगा। प्रधानमंत्री मोदी यह कई बार साफ कर चुके हैं कि किसानों की जमीन बिना उनकी मर्जी के नहीं ली जाएगी। अब पीछे हटने से यह  भी इंगित होता है कि आने वाले समय में कानून किसानों के हित में कुछ अधिक प्रासंगिक हो सकता है। ऐसे में किसान विरोधी हुई छवि को सरकार काफी हद तक बदलने में सफल हो सकती है यदि ऐसा हुआ तो जाहिर है कि विरोधियों की खुषी देर तक नहीं टिक पाएगी और विरोध का एक बड़ा मुद्दा उनके हाथ से फिसल जाएगा।
    सोचा जाए तो आखिर देष का प्रधानमंत्री किसानों का अहित क्यों करेगा? विपक्ष भले ही यह कहे कि सरकार ने घुटने टेक दिए पर इसका दूसरा पहलू तो यह भी हो सकता है कि सरकार ने स्वयं को मजबूत करने के लिए इस कानून को कुछ समय के लिए विराम दिया हो। किसानों को आने वाले दिनों में क्या फायदा होगा इसका भी जिक्र यहां करना आवष्यक है। पहले राश्ट्रीय राजमार्ग, रेलवे, पुरातत्व, परमाणु उर्जा जैसे 13 केन्द्रीय अधिनियमों के जरिये अलग-अलग प्रावधानों के तहत भू-अधिग्रहण होते थे। इसमें मुआवजा, पुनर्वास जैसे सुविधाओं के भी तरह-तरह के प्रावधान थे। सभी को इस अधिनियम के दायरे में लाने के फैसले के बाद यह तय हो गया कि अब किसानों को किसी भी केन्द्रीय कानून के तहत होने वाले अधिग्रहण में समान मुआवजा मिलेगा। इसका अर्थ है कि भविश्य में कुछ सकारात्मक सुझावों का समावेषन करके सरकार किसान विरोधी होने का ठप्पा हटाने का पूरा मन बना चुकी है। प्रधानमंत्री से आष्वासन दिया है कि किसान भ्रमित न हों तथा भयभीत कतई न हों। असल में भय का सामना करने से पहले भय को महसूस करना अधिक भयक्रांत होता है यही खेल भूमि अधिग्रहण कानून के तहत देखा जा सकता है। गांव-देहात के किसानों को सरकार के विरोध में खड़ा करके विरोधियों ने अपना मन्तव्य पूरा कर लिया पर यक्ष प्रष्न यह है कि हकदारी के मामले में किसानों को क्या लाभ हुआ है इसका उत्तर सहज तो नहीं है पर यह सुनिष्चित तौर पर कहा जा सकता है कि बगैर कानून के भी काम नहीं चलेगा। मोदी सरकार का कोई उदारवादी चरित्र यदि है तो वह किसानों के काम आ सकता है पर कारोबारियों के समर्थन के जानी जाने वाली सरकार को अभी इस आरोप से भी मुक्त होना है। इन सबके बावजूद सवाल तो यह भी उठता है कि देष के विकास के लिए जमीन चाहिए, जमीन कहां से आएगी जाहिर है खेतिहर किसानों से मिलेगी पर क्या बिचैलियों से किसान को बचाया जा सकता है। सरकार एक संतुलित रवैया रखते हुए किसानों के हक में एक बेहतर कानून ला भी दे तो भी किसानों के भूमि अधिग्रहण की पूरी कीमत षायद ही सम्भव हो। कुल मिलाकर भूमि अधिग्रहण विधेयक सरकार के लिए एक मुसीबत ही सिद्ध हो रहा है जिसका पटाक्षेप तो नहीं हुआ है पर सरकार थोड़ी राहत जरूर महसूस करेगी। विरोधी जानते हैं कि राज्यसभा में मोदी का जादू नहीं चलता पर वो इससे भी अनभिज्ञ नहीं हैं कि जनता के बीच मोदी का जादू सिर चढ़ कर बोलता है। यह तय है कि सरकार किसान विरोधी छवि से उबरना चाहती है ऐसे में एक बेहतर कानून आने वाले दिनों में देखा जा सकेगा।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502

Tuesday, August 25, 2015

ताकि आरक्षण बेजा न जाए

  सामाजिक न्याय तथा आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए आरक्षण जैसे उपबन्ध को पहले भी लागू किया जाता रहा है। संविधान भी स्त्रियों, बच्चों, एससी और एसटी आदि के लिए विषेश उपबन्ध की बात करता है। हालांकि आरक्षण की कोई सुनिष्चित परिभाशा तो नहीं बनी है पर किसी वर्ग विषेश के लिए अवसर उपलब्ध कराना या निर्धारित मापदण्डों में छूट देने को आरक्षण की संज्ञा दी जा सकती है मगर प्रष्न है कि जब संविधान नागरिकों के बीच भेदभाव का निशेध करता है तो फिर आरक्षण की आवष्यकता और औचित्य क्या है? यहां स्पश्ट करना जरूरी हो जाता है कि मन्तव्य आरक्षण देने या न देने को लेकर नहीं है बल्कि इसके चलते जो आग भड़कती है असल चिंता उस पर है। गुजरात इसका ताजा उदाहरण है। यहां के पटेलों का इन दिनों इस बात के लिए आंदोलन हो रहा है कि उन्हें भी आरक्षण लाभ प्रदान करते हुए पिछड़ा वर्ग घोशित किया जाए। ऐसे में गुजरात फिलहाल पटेल आंदोलन की गिरफ्त में और सरकार बैकफुट पर है। एक बरस पहले गुजरात में मुख्यमंत्री के तौर पर वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी पदासीन हुआ करते थे। यह आंदोलन मोदी के विकास माॅडल को भी धता बताने का काम कर रहा है। गुजरात के राजनीतिक हालात से आरएसएस भी सोच में डूबा है। इस आंदोलन से समाज एक बार पुनः बंटने के कगार पर है। 22 साल का एक वाणिज्य स्नातक नवयुवक हार्दिक पटेल ने आंदोलन की अगुवाई करके गुजरात सरकार की नाक में दम कर दिया है।
पाटीदार अनामक आंदोलन गुजरात में सियासी उबाल ला दिया है। आरक्षण की मांग कर रहे पटेल पीछे हटने को तैयार नहीं है जबकि गुजरात सरकार इस मामले से पल्ला झाड़ चुकी है। कौन है ये पटेल समाज, गुजरात में उनकी क्या पृश्ठभूमि है, क्या उनकी मांगे जायज हैं, यदि उत्तर हां में है तो फिर सरकार की भूमिका कैसी होनी चाहिए? आरक्षण की मांग करने वालों के पास अपनी दलीलें होती हैं। कईयों का सवाल यह भी है कि काफी सम्पन्नता के बावजूद पटेल समुदाय को आरक्षण क्यों चाहिए? गुजरात की कुल आबादी 6 करोड़ 27 लाख है जिसमें पटेल समुदाय की तादाद 20 प्रतिषत है। ओबीसी का दर्जा प्राप्त करने के चलते अब तक ये 70 से अधिक रैली कर चुके हैं। 25 अगस्त को अहमदाबाद में इसी मामले से जुड़ी एक महारैली हुई जिसमें अनुमान 25 लाख लोगों की उपस्थिति का लगाया गया। इतनी बड़ी ताकत रखने वाला पटेल समाज क्या इस सवाल के घेरे में नहीं है कि सम्पन्न होने के बावजूद बैसाखी की मांग कर रहा है। भारतीय संविधान के खण्ड-3 में मौलिक अधिकारों की व्याख्या की गयी है। अनु. 14 समानता से सम्बन्धित है और अनु. 15 विभेद का प्रतिशेध करता है जबकि अनुच्छेद 16 सभी नागरिकों को लोक नियोजन की समता उपलब्ध कराता है। इसी का उपबन्ध 4 अन्य पिछड़े वर्ग के आरक्षण से सम्बन्धित है।
सरकारी नौकरियों में आरक्षण का आम प्रावधान अनुसूचित जाति के लिए 15 प्रतिषत, अनुसूचित जनजाति के 7.5 प्रतिषत जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी निर्धारित है। पिछड़े वर्ग का पता लगाने के लिए जाति को आधार माना जा सकता है पर सामाजिक तथा आर्थिक रूप से उन्नत व्यक्तियों को इसमें षामिल नहीं किया जा सकता है। मण्डल आयोग की सिफारिषों पर निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालयों ने कहा है कि आरक्षण का लाभ पिछड़े वर्गों में सम्पन्न लोगों को नहीं मिलना चाहिए। इसी को क्रीमी लेयर की संज्ञा दी गयी है। आरक्षण के पीछे संविधान निर्माताओं की मंषा सामाजिक व षैक्षिक समानता को लेकर रही है जबकि आज यह सियासत का बड़ा हथियार बन गया है। आरक्षण देने में भी सियासत और न देने में भी सियासत देखी जा सकती है। इन सबके बीच उनका क्या होगा जो असल में मुख्य धारा से कई कदम पीछे हैं और सही मायने में उन्हें आरक्षण चाहिए। राश्ट्र के समग्र विकास के लिए पिछड़े और षोशितों का विकास आवष्यक है परन्तु इस पर उचित पड़ताल की भी होनी चाहिए कि आज के दौर में कौन पिछड़ा है और कौन अगड़ा। वर्तमान में तो चुनौती यह भी है कि आरक्षण के बेजा प्रयोग को कैसे रोका जाए?
आरक्षण की आवष्यकता और प्रासंगिकता को उभारा जाए तो यह कमजोर वर्गों के उठान से सम्बन्धित है पर यदि कोई वर्ग पहले से ही मजबूत हो तो उसकी मांग पर सवालिया निषान उठना लाजमी है। मुद्दों का समर्थन करने वाले पटेल रैलियों में प्रदर्षन के लिए महंगी-महंगी कारों में आते हैं पर असल में आंदोलन तो उनके लिए होना चाहिए जो गांव में भूखे मर रहे हैं ताकि आरक्षण जरूरतमंद तक पहुंचे। सवाल है कि रसूकदार पटेल अब विपन्नता के दौर से क्यों गुजर रहे हैं? दरअसल बड़ी संख्या में पटेल किसान अपनी जमीन बेच चुके हैं और अब उन्हें रोजी-रोटी के लिए कर्ज लेना पड़ रहा है। आरक्षण के आंदोलन का अगुवा हार्दिक पटेल का कहना है कि जिस गुजरात माॅडल से भारत और दुनिया परिचित है वह सच नहीं है जैसे ही गांव में जाएंगे असलियत का पता चल जाएगा। यहां भी किसान आत्महत्या करता है और बच्चों के पढ़ने-लिखने के लिए सुविधाएं और पैसे नहीं है। सरकार कितना भी गुजरात की वाह-वाही कर ले पर यह आंदोलन उनके चरित्र से भी वाकिफ करा रहा है। यहां भी युवा बेजरोजगार हैं ऐसा नहीं है कि सभी पटेल सम्पन्न हैं। ऐसे में आरक्षण की मांग को जायज ठहराया जा सकता है पर उन सीमाओं का क्या होगा जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने तय किया है। हालात को देखते हुए कहा जा सकता है कि गुजरात सरकार और पटेल समुदाय में टकराव अभी और बढ़ेगा।
भगवान श्रीराम के वंषज कहलाने वाले पाटीदार समुदाय के लोग आंदोलन की राह पर तो चल पड़े हैं पर कोई चमत्कार होगा कहना मुष्किल है। इसमें कोई दो राय नहीं कि हार्दिक पटेल रातों-रात एक चमत्कारिक नेतृत्व की ओर बढ़ रहे हैं। कयास तो यह भी लगाया जा रहा है कि मौजूदा मुख्यमंत्री आनंदी पटेल को अस्थिर करने के लिए भी यह सब किया जा रहा है। बीजेपी का आरोप है कि कांग्रेस के बिना यह परवान चढ़ ही नहीं सकता। सरकार का दावा है कि मसले को षान्तिपूर्ण ढंग से सुलझा लिया जाएगा। मोदी की उत्तराधिकारी आनन्दी पटेल आन्दोलन के ऐसे चक्र में फंस गयी है जहां से निकलना काफी मुष्किल है। गौरतलब है कि सरकार पटेल आरक्षण की मांग ठुकरा चुकी है और स्पश्ट कर दिया है कि उच्चतम न्यायालय द्वारा एससी, एसटी और ओबीसी के लिए दिये गये दिषा-निर्देषों में कोई बदलाव नहीं करेगी। ऐसा देखा गया है कि जब भी आरक्षण की मांग हुई है तब-तब गाढ़े और गम्भीर किस्म के आंदोलन हुए है। तबाही और नुकसान भी व्यापक पैमाने पर किये गये हैं। 1990 के दौर में ओबीसी आरक्षण के लिए देष भर में ऐसा ही विकराल मंजर देखने को मिला था। उस दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने मण्डल आयोग की सिफारिषों के तहत 27 प्रतिषत ओबीसी को आरक्षण देने की घोशणा कर दी थी। देष में आरक्षण की आग इस कदर भड़की थी जिसमें जान और माल का व्यापक नुकसान हुआ था। गुजरात में पाटीदार आरक्षण की आग उसी का एक आंषिक रूप है समझदारी इसी में है कि बीच का रास्ता निकालकर एक बार फिर आग को बड़ी आग में बदलने से रोका जाए।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
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Saturday, August 22, 2015

साइबर जगत में गोते लगाता समाज

वर्तमान दुनिया दो सभ्यताओं के दौर से गुजर रही है एक आभासी है तो दूसरी भौतिक जिसमें सोषल मीडिया के बहुआयामी और प्रयोगधर्मी दृश्टिकोण षनैः षनैः प्रतिश्ठित होते जा रहे हैं। आज से एक दषक पहले यह चिन्ह्ति किया जाना कठिन था कि इसका प्रतिस्थापन कितने पैमाने पर हो सकेगा पर जिस भांति इसके प्रति चाहत विकसित हुई है इसे देखते हुए अब कोई षक-सुबहा नहीं रह जाता कि आने वाले वर्शों में ये सीमाओं के पार जाकर एक नये परिवर्तन के साथ दुनिया में वास करेगी। सामाजिक मीडिया के कई रूप हैं जैसे इंटरनेट, सामाजिक नेटवर्किंग साइट के अलावा वेबलाॅग, सामाजिक ब्लाॅग, माइक्रो ब्लाॅगिंग, विकीज़ सोषल नेटवर्क, फोटोग्राफ, चलचित्र आदि जो आधुनिक प्रौद्योगिकी एवं संचार के माध्यम से संचालित होते हैं। फेसबुक वर्तमान सामाजिक मीडिया का चर्चित चेहरा है जो दुनिया भर में लोकप्रियता लिए हुए है। इसके अलावा ट्विटर, विकीपीडिया, व्हाट्स एप जैसे अन्य मीडिया संसाधन उपलब्ध है जिसमें समाज के समावेषन के साथ समय भी खूब खपाया जा रहा है। यह मीडिया रोजमर्रा के क्रियाकलाप अभीश्टों को बताने के काम आ रहा है। नये दोस्त बनाये जा रहे हैं, पुराने खोजे जा रहे हैं, ये रिष्तों को भी गहरा करने के काम आ रहा है साथ ही इस प्रौद्योगिकी ने वैष्वीकरण को समेटने का काम किया है। फटाफट का सिद्धान्त आया है, जीवन के हर क्षण को ब्रेकिंग न्यूज की भांति अपलोड किया जा रहा है। इतना ही नहीं निजता भी आज सार्वजनिक हो रही है। कहा जाए तो आॅनलाइन मीडिया और सार्वजनिक होता समाज अब एक-दूसरे के पर्याय बनते जा रहे हैं।
सोषल मीडिया की वजह से ही लोगों में यह समझ आ गयी है कि उनकी आवाज़ में भी दम है। लोग भी इतने सक्षम हो गये हैं जितने पहले कभी नहीं थे अब वे सरकारों पर अपने विचारों का दबाव बना सकते हैं। राजनेता भी आॅनलाइन माध्यमों में छुपी सम्भावनों को समझने लगे हैं जो उनकी बात को जनता तक पहुंचाने की गति बढ़ाने वाले तंत्र के रूप में काम करते हैं। इस मीडिया ने राजनीति के क्षेत्र में खेल ही बदल कर रख दिया है। अमेरिका जैसे देषों में चुनाव अभियानों में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। ‘अबकी बार, मोदी सरकार‘ के नारे एक साल बाद भी लोग नहीं भूल पाये होंगे। यह नारा सोषल मीडिया के प्लेटफाॅर्म पर आग की तरह फैला था जिसकी आंच को विरोधी झेल नहीं पाये थे। जन सामान्य तक पहुंच होने के कारण लोगों तक विज्ञापन पहुंचाने में इसे सबसे अच्छा जरिया समझा जाता है। कुछ ही सालों में उद्योगों में इसी की वजह से क्रांति देखी जा रही है। सोषल मीडिया से प्रत्येक आयु और वर्ग के लोगों को लिप्त देखा जा सकता है। बीते कुछ सालों से ‘सेल्फी‘ का भी चलन हुआ है हालांकि यह कोई माध्यम तो नहीं है पर इसकी दीवानगी ने इसे ‘आॅक्सफोर्ड वर्ड आॅफ द इयर 2013‘ बना दिया। प्रधानमंत्री मोदी के दौर को सेल्फीमय कहा जाए तो गलत न होगा। वे जहां जाते हैं मिलने वालों के साथ सेल्फी जरूर लेते हैं। हाल ही में यूएई की यात्रा पर उन्होंने षेख जायद मस्जिद के बाहर सेल्फी ली। इन दिनों सेल्फी का जुनून दायरा लांघ रहा है। माॅल हो, बाजार हो, काॅलेज हो या पिकनिक स्पाॅट या फिर मन्दिर, मस्जिद या गुरूद्वारा हो यहां सेल्फी लेने की बात समझी जा सकती है पर अस्पतालों में, दाह संस्कार के स्थानों आदि पर सेल्फी लेने का चलन कितना जायज है? कहीं तो दायरा सीमित हो।
कुछ खास बात और करनी है। फेसबुक में लोग वही अपलोड करते हैं जो बेहतर होता है जैसे बड़ी और महंगी कारों के साथ फोटो अपलोड करना न कि साइकिल के साथ। फेसबुक पर ही एक कमेन्ट पढ़ने को मिला था कि लोग अपनी फोटो को इस कदर साफ करा देते हैं कि असल जिन्दगी में पहचाने ही नहीं जाते। वास्तव में जीवन भौतिक सभ्यताओं से इस कदर घिर गया है कि वास्तविक जीवन मानो गहराई में बैठ गया हो। पूर्व राश्ट्रपति डाॅ. कलाम ने कहा था कि ‘हम अपनी संस्कृति में होने वाले नित नये परिवर्तनों से निरन्तर चुनौतियों का सामना करते आ रहे हैं और इसी प्रक्रिया में मानवता का विकास होता है।‘ अब सवाल यह है कि क्या सोषल मीडिया के माध्यम से मानवता के विकास का ध्रुवीकरण किया जा सकता है यदि हां तो कितना? दिन के कई घण्टे खपाने के बाद जो सम्पर्क और जुड़ाव का दायरा विकसित हो रहा है उसमें कितनी रचनात्मकता है और कितना मुनाफा छुपा है? समाज को समझने के दो दृश्टिकोण होते हैं एक उत्थान से तो एक उसकी गिरावट से। कितने यूजर्स ऐसे हैं जो सोषल मीडिया के विकार पक्ष से वाकिफ हैं? भारत में साइबर अपराध की मात्रा बढ़ती जा रही है और इंटरनेट सहित सोषल मीडिया का प्रयोग दिन-प्रतिदिन उफान पर है। इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या भारत में वर्श 2018 तक 55 करोड़ तक पहुंच सकती है जिसमें 30 करोड़ से अधिक षहरी हैं, गांव में भी यह वृद्धि प्रखर अवस्था लिए हुए है। भारत युवाओं का देष है 54 फीसदी युवा 35 बरस से कम आयु का है जो सर्वाधिक सोषल मीडिया का प्रयोग करता है। यह मीडिया इन दिनों भावनाओं की सुनामी का भी सामना कर रहा है। रोचक यह भी है कि सोषल साइट पर सबसे अधिक लोकप्रिय सीईओ भारत के प्रधानमंत्री मोदी ही हैं।
सोषल मीडिया विषेशताओं से युक्त मानी जा सकती है जो अन्य पारम्परिक तथा सामाजिक तरीकों से कई प्रकार से एकदम अलग है मगर यह एक दुधारू तलवार की तरह भी है जो किसी भी मसले को आग की तरह फैलाने में भी मददगार है। ध्यानतव्य है कि बीते वर्श यह अफवाह फैली थी कि पूर्वोत्तर भारत के लोगों को षेश भारत में ही खतरा है जिसके चलते देष में काफी अफरा-तफरी का माहौल बन गया था। एक घटना मेरठ की है जिसमें एक किषोर ने ऐसी तस्वीर फेसबुक पर अपलोड कर दी जो बेहद आपत्तिजनक थी इसके एक घण्टे बाद ही लोग सड़कों पर उतर गये और मेरठ में दंगे के हालात बन गये। आये दिन यह भी षिकायत देखने को मिलती है कि सोषल मीडिया के माध्यम से लोगों की निजता पर प्रहार किया जा रहा है। भारत में सोषल मीडिया का जुनून लोगों के सिर चढ़ कर बोल रहा मन की भड़ास निकालने का यह एक मजबूत हथियार साबित हो रहा है पर अभिव्यक्ति की आजादी का दायरा तोड़ने वालों के लिए यह महंगा सौदा भी साबित हो सकता है। भले ही यह माध्यम कुछ मामलों में मारक और अचूक हो मगर इसकी प्रत्येक स्थिति को मुनासिब कहा जाना गैर वाजिब होगा। सोषल मीडिया को लेकर हर किसी का अपना नजरिया हो सकता है। सूचना क्रान्ति के इस दौर में साइबर नियन्त्रण के लिए केवल साइबर कानून है जिसे भारत की अवषिश्ट सूची में देखा जा सकता है। सवाल उठता है कि नवयुग चल पड़ा है या नवयुवक इन नये माध्यमों को मुनासिब तरीके से अपना लिया है या फिर यह समय की दरकार है पर यह भी सही है कि सोषल मीडिया वैचारिक विभिन्नता वाले लोगों के लिए खतरे का सबब होने लगा है। यदि यह सूचनाओं का अम्बार लगा सकता है तो अपराधों को भी बढ़ा सकता है। ऐसे में सरकार और समाज दोनों को इस बारे में अपनी सीमायें खुद तय करनी होगी क्योंकि साइबर जगत में गोते लगाते समाज को कानून के बजाय सदाचार से काबू करना कहीं अधिक व्यवहारिक होगा। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
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Friday, August 21, 2015

बिहार के आर्थिक पैकेज का निहितार्थ

बिहार के चुनावी सरगर्मी के बीच मोदी सरकार के भारी-भरकम आर्थिक पैकेज का भले ही राजनीतिक मतलब निकाला जाए पर यह सच है कि बीते कई महीनों से बिहार को एक बड़े आर्थिक पैकेज की दरकार थी। देर से ही सही अरसे से किया जा रहा आर्थिक इंतजार अब पूरा हुआ। यकीनन भाजपा बिहार के लोगों को
1.65 लाख करोड़ की राषि को ध्यान में रखते हुए यह समझाने की कोषिष करेगी कि इसके पीछे उसका मन्तव्य सियासती न होकर बिहार की असल चिंता है पर विरोधी इस बात को कतई नहीं मानेंगे। सवाल यह जरूर उठेगा कि चुनावी मौके पर दिया जाने वाला यह धन केवल वोटरों में साख बढ़ाने की भाजपा की कोषिष तो नहीं है। एक तरफ आर्थिक पैकेज को चुनावी रिष्वतखोरी बताई जा रही है तो दूसरी तरफ यह भी कहा जा रहा है कि मांग विषेश राज्य के दर्जे की थी न कि आर्थिक पैकेज की। वैसे बिहार की सियासत काफी पैनापन लिए होती है मगर इन दिनों विरोधी खेमा भाजपा को षिकस्त देने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाने के लिए गुटबाजी किए हुए है। जदयू, राजद और कांग्रेस के महागठबंधन की मुष्किल यह है कि इस आर्थिक घोशणा का सीधे-सीधे विरोध करने का खतरा नहीं उठा सकते। फिलहाल पैकेज की घोशणा के साथ ही मोदी ने सूबे का भाग्य बदलने की कवायद षुरू कर दी है।
केन्द्र द्वारा दिये जाने वाले ऐसे आर्थिक पैकेज राज्यों के लिए हमेषा ताकत बढ़ाने का काम करते रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि बिहार की जनता को इसका लाभ मिलेगा। एक दषक पहले बिहार और उत्तर प्रदेष सहित कुछ प्रांत को मिलाकर बीमारू राज्य की संज्ञा दी गयी थी। ये ऐसे राज्य थे जहां पर षिक्षा, स्वास्थ्य एवं रोजगार जैसे तमाम कारक कमोबेष निराषा से भरे थे। चिन्ह्ति राज्यों को समय-समय पर केन्द्र सरकार द्वारा राषि आबंटित की जाती थी ताकि ये अपने विकास की मुख्यधारा में आ सके। केन्द्र-राज्य सम्बन्धों का विस्तृत वर्णन विधायी, कार्यकारी एवं वित्तीय के तौर पर संविधान में भी देखा जा सकता है। वित्तीय मामलों में राज्यों की यह दरकार रही है कि केन्द्र हर मौके पर उनका साथ दे पर विडम्बना यह है कि कई राज्य केन्द्र की उपेक्षा का षिकार तब होते हैं जब केन्द्र और राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारे होती हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीष कुमार प्रधानमंत्री मोदी के धुर विरोधी हैं। जब भाजपा ने इन्हें प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोशित किया था तब एनडीए से सबसे पहले नीतीष कुमार ही हटे थे।
फिलहाल बिहार को एक बड़ी सौगात मिल गयी है। ऐसी ही सौगात वाजपाई सरकार के समय 2003 में और मनमोहन के समय में भी मिली थी। पैकेज का राजनीतिक मतलब यदि होता भी है तो भी सकून इस बात का होना चाहिए कि यह राज्य के विकास में यह सहायक का काम करेगा क्योंकि बिहार में चुनावी माहौल कायम हो रहा है ऐसे में आरोप-प्रत्यारोप का होना कोई हैरत वाली बात नहीं है। नीतीष कुमार ने पैकेज पर नाखुषी जताई है और ऐसा करने वाली मजबूरी भी उनकी समझी जा सकती है। लालू प्रसाद और राहुल गांधी ने भी बिहार के आर्थिक पैकेज को लेकर आपत्ति जता दी है। धुर विरोधियों से इससे अधिक की अपेक्षा नहीं की जा सकती। अब सवाल है कि पैकेज तो दिया जा चुका है तो फिर ऐसे में बिहार को इसका भरपूर लाभ उठाना चाहिए, आधारभूत ढांचे के विकास के साथ सुषासन की बयार बहानी चाहिए। यहां उद्योगों की बहुतायत में आवष्यकता है उद्योग स्थापित करके पलायन को भी रोका जा सकता है, रोजगार के अवसर को भी बढ़ाया जा सकता है साथ ही कमजोर आर्थिक आधार से मुक्त होते हुए बिहार बेहतर होने की ओर भी जा सकता है।
बिहार के आर्थिक पैकेज की घोशणा के साथ ही उड़ीसा ने भी मांग तेज कर दी है। सभी राज्यों को समय-समय पर उचित आर्थिक मदद की जरूरत होती है पर किसका समय कब आयेगा यह तो केन्द्र सरकार ही निर्धारित करेगी। फिलहाल आर्थिक पैकेज के पीछे का मन्तव्य चाहे जो हो पर इसका एक सकारात्मक भाव यह है कि इससे तरक्की और उत्थान का कद बढ़ेगा। यदि विषेश पैकेज के प्रावधानों में खामी को देखा जाए तो सिर्फ यह है कि समय ठीक नहीं है लेकिन यह कहां तक ठीक है कि आधारहीन आरोप आर्थिक मुनाफे के बावजूद भी लगाया जाए। नीतीष कुमार को भी यह समझ लेना चाहिए कि भले ही चुनाव और इस आर्थिक पैकेज का कोई सम्बन्ध बनता हो पर उनकी चिंताओं को मोदी ने कम किया है। तल्खी सियासत की रखी जा सकती है परन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि जनता को इसमें पीसा जाए। सबकी अपनी-अपनी जिम्मेदारी है और इसे पूरा किया भी जाना चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि जिस इरादे और वादे के साथ धन का लेन-देन हुआ है उसका पूरा लाभ जनता तक पहुंचे। हमेषा यह खतरा बना रहता है कि दिल्ली एवं राज्य की राजधानियों से निर्गत होने वाला धन विकास तक पहुंचते-पहुंचते भारी मात्रा में लोप का षिकार हो जाता है। इस पैकेज को सब्जबाग न समझते हुए, चुनावी सियासत का जुमला न समझते हुए विकास की धारा से जोड़ा जाए तो राजनीति को और चमकदार बनाया जा सकता है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502


Wednesday, August 19, 2015

किस राह पर सरकारी स्कूलों की शिक्षा !

आज ऐसे विद्वानों की कमी नहीं है जो विष्वास करते हैं कि षिक्षण संस्थानों को निजी कम्पनियों की तरह काम करना चाहिए, उनका मानना है कि उन्हें मुनाफा कमाने दीजिए बषर्ते वह बेहतर सेवा करते हों और नियमों एवं कानूनों का उल्लंघन न करते हों पर विद्वान का एक खेमा इस बात से भी चिन्तित है कि देष के सरकारी स्कूलों की षिक्षा पटरी से उतरी हुई है जिसका छोटे-मोटे मरम्मत से ठीक होना सम्भव नहीं है। भारत को भूमण्डलीय परिदृष्य का एक लघु रूप कहा जा सकता है जहां विकास और पिछड़ापन, सामन्ती और पूंजीवादी ढांचा, मिश्रित राजनीतिक संस्कृति जैसी परस्पर विरोधी क्रियाएं एक साथ असुविधाजनक एकता के साथ मौजूद हैं। 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था के चौड़ीकरण  ने भारत में एक नए आर्थिक विमर्ष को जन्म दिया जिसके केन्द्र में निजीकरण रहा जिसकी चपेट में षिक्षा व्यवस्था भी देखी जा सकती है परिणास्वरूप सरकारी स्कूलों से समृद्ध और समाज के अभिजात्य वर्ग का पलायन हो गया और पूरे दमखम के साथ निजी स्कूल षिक्षा के पर्याय बन गये। हालात इस कदर बिगड़ गये कि सरकारी स्कूल मात्र फर्ज अदायगी तक ही सीमित होने लगे। इस ढांचा को बचाने के लिए सरकार ने नित नये नियोजन के माध्यम से अधकचरा प्रयास जारी रखा मगर प्राथमिक स्कूल इस तबाही से नहीं बच पाए। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सरकारी स्कूलों की दुर्दषा को देखते हुए बीते दिन यह फरमान सुनाया कि सरकारी खजाने से वेतन या सुविधा ले रहे लोगों के बच्चे जब तक अनिवार्य रूप से प्राथमिक षिक्षा के लिए सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे तब तक उनकी दषा में सुधार नहीं होगा।
प्राथमिक षिक्षा भी आर्थिक वर्गीकरण की षिकार है। अंग्रेजी माध्यम के कान्वेंट स्कूल जहां सषक्त आर्थिकी के पर्याय हैं वहीं प्राइवेट स्कूलों की गिनती इसके बाद आती है तत्पष्चात् आखिर में बेसिक षिक्षा परिशद् से संचालित स्कूल आतें हैं जबकि यहां षुल्क एवं पुस्तकों के अलावा दोपहर का भोजन भी मुफ्त दिया जाता है। प्राथमिक षिक्षा ही किसी व्यक्ति के जीवन में नींव का काम करती है। दुःख इस बात का है कि तमाम परिवर्तन से तो देष उन्नति और समृद्धि की ओर बढ़ रहा है पर यह मामला निरन्तर हाषिये पर जा रहा है। षिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 जो 1 अप्रैल, 2010 से प्रभावी है जिसके पांच वर्श बीतने के बावजूद भी कुछ खास अन्तर नहीं आया। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि नेताओं और नौकरषाहों के बच्चे इन स्कूलों में पढ़े, ऐसा न करने वालों के साथ दण्डात्मक कार्यवाही का प्रावधान हो। जिनके बच्चे कान्वेंट स्कूल में पढ़ें, वहां की फीस के बराबर रकम उनके वेतन से काटी जाए साथ ही वेतन वृद्धि और पदोन्नति पर भी रोक लगाने की व्यवस्था हो। इस व्यवस्था को उच्च न्यायालय ने अगले षिक्षा सत्र से लागू करने को कहा है। साफ है कि न्यायपालिका सरकारी स्कूलों की दुर्दषा पर काफी तल्ख है पर सवाल है कि जो आर्थिक रूप से समृद्ध है वो भला ऐसे स्कूलों में अपने बच्चों की षिक्षा क्यों दिलाएंगे जहां कमियों का अम्बार लगा है मगर उच्च न्यायालय का मन्तव्य भी समझना होगा। न्यायालय चाहता है कि यदि रसूकदार के बच्चे यहां षिक्षा ग्रहण करेंगे तो इन स्कूलों को दुर्दषा से बाहर निकाला जा सकेगा।
इसमें दो राय नहीं कि सरकारी स्कूल भारी कमी से गुजर रहे हैं। यूनिसेफ की रिपोर्ट बताती है कि देष के 30 फीसदी से अधिक विद्यालयों में पेयजल की व्यवस्था नहीं है, 40 से 60 फीसदी विद्यालयों में खेल के मैदान नहीं हैं। अब भी हजारों स्कूल टेंट और पेड़ों के नीचे चल रहे हैं जो बच्चे पढ़ने आते हैं वे घर से बोरी, टाट पट्टी आदि का इंतजाम करके आते हैं। आंकड़े यह भी दर्षाते हैं कि एक-तिहाई स्कूलों में लड़कियों के लिए षौचालय ही नहीं है। ग्रामीण वातावरण में तो अभिभावक लड़कियों को स्कूल जाने से ही मना कर देते हैं ऐसे में पढ़ाई बीच में रूक जाती है। स्कूल में साफ-सफाई भी न के बराबर है। कहा जाए तो यह गन्दगी और बीमारी के भरमार हैं। इसके अलावा षिक्षकों की भारी कमी से स्कूल गुजर रहे हैं। जो षिक्षक तैनात हैं वो भी अध्यापन में रूचि लेने से कतराते हैं। उत्तर प्रदेष सहित कई प्रदेषों में ऐसी गिरावट जारी है। हालात यह हैं कि प्राथमिक षिक्षा के ढांचे में गुणवत्ता नाम की कोई चीज नहीं है। मध्याह्न भोजन इसलिए चलाया गया कि गरीब बच्चों को एक वक्त का पोशणयुक्त भोजन मिलेगा जिससे षारीरिक, मानसिक वृद्धि हो सकेगी पर हकीकत में हो कुछ और रहा है। जिस प्रकार सरकारी स्कूलों की षिक्षा उपरोक्त कमियों के चलते मुष्किल में फंसी हुई है इससे सहज अंदाजा लगता है कि सुधार इतना आसान नहीं है।
प्राथमिक विद्यालयों की षिक्षा व्यवस्था बद् से बद्तर होने के पीछे किसी एक को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता इसमें काफी हद तक समाज भी जिम्मेदार है। किसी को भी अंग्रेजी षिक्षा व्यवस्था से आपत्ति नहीं होनी चाहिए पर अफसोस इस बात का है कि सरकारी स्कूलों की षिक्षा निरंतर गिरावट लिए हुए है। हैरत करने वाली बात यह जरूर है कि चंद वर्शों में विलायत की षिक्षा व्यवस्था भारत की देसीपन को पछाड़ कर आगे निकल गयी और स्वतंत्रता के 68 वर्श बीत जाने के बाद भी सरकारी षिक्षा और संस्था का सुगठित बने रहना पूरी तरह सम्भव न हो सका। ऐसे में सवाल है कि सरकारी स्कूलों की दषा को सुधार कर एक समानांतर षिक्षा व्यवस्था कैसे स्थापित की जाए? गांव-गांव तेजी से फैलती अंग्रेजी और मिषनरी षिक्षा सरकारी प्राथमिक षिक्षा के लिए चुनौती मानी जाए या कमजोरी। यूनेस्को की रपट भी कहती है कि दुनिया में सबसे व्यस्क निरक्षर भारत में है। जब 54 फीसदी आबादी 35 वर्श से कम आयु की होगी तो ऐसा होना कोई आष्चर्य नहीं है पर निरक्षरता से निपटने के लिए भी प्राथमिक षिक्षा पर ही ध्यान देना होगा।
सरकार भी उन्हीं बिन्दुओं पर अधिक ध्यान देती है जहां से उसे वोट प्राप्ति की उम्मीद होती है। बच्चे वोटर नहीं होते ऐसे में नौनिहालों के प्रति गैर संवेदनषील होना कोई ताज्जुब की बात नहीं है। सरकारी इंजीनियरिंग एवं मेडिकल काॅलेजों में सभी प्रवेष चाहते हैं, हर प्रकार की सरकारी नौकरी सभी को भाती है पर जब बात प्राइमरी स्कूल में बच्चों की षिक्षा दिलाने की होती है तो यहीं पर ‘कान्वेंट कल्चर‘ मुखर हो जाता है। इसमें कोई दो राय नहीं इलाहाबाद हाई कोर्ट का निर्देष सरकारी स्कूलों की दषा सुधारने में महत्वपूर्ण सिद्ध होगा। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि देष में उच्चस्थ पदों पर बैठे लोग एक जमाने में इन्हीं सरकारी स्कूलों की षिक्षा से अपने भविश्य में उजाला लाये थे। देखा जाए तो  देष में 5वीं तक के छात्रों की संख्या में प्रतिवर्श लाखों की गिरावट दर्ज हो रही है, जिस तादाद में बच्चे घट रहे हैं सवाल खड़ा करता है कि आखिर सरकारी स्कूल किस राह पर हैं? फिलहाल मौजूदा स्थिति में देष के सरकारी स्कूल की षिक्षा व्यवस्था विकृत्त है बावजूद इसके यदि इसे सुधारने में समाज और सरकार कामयाब होती है तो यह नौनिहालों के लिए ही नहीं वरन् स्वयं के लिए भी किया गया अनूठा काज होगा।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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Tuesday, August 18, 2015

भारत-यूएई सम्बन्ध का इतिहास और आगाज़

आर्थिक सम्बन्धों को नई ऊँचाई पर ले जाने के लिए संयुक्त अरब अमीरात भारत में साढ़े चार लाख करोड़ रूपए निवेष करने पर सहमत हुआ जो भारत की दृश्टि से एक बड़ा निवेष है। दोनों देषों का द्विपक्षीय व्यापार पांच वर्शों में 60 प्रतिषत बढ़ाने पर राजी होना भी एक अच्छा संकेत था। प्रधानमंत्री मोदी ने गदगद होते हुए कह दिया कि भारत में एक हजार अरब डाॅलर के निवेष की क्षमता है। कहा जाए तो ‘मेक इन इण्डिया‘ यूएई में भी सर चढ़ कर बोला। भारत ने निवेष और व्यापार के मामले में जितनी पूरब की ओर देखने की कोषिष की उतनी ही चाहत लिए उसने पष्चिम की ओर भी ताकने का प्रयास किया। देखा जाए तो खाड़ी देषों के साथ तो सम्बन्ध रोजगार और व्यापार के मामले में प्राचीन काल से रहे हैं। ऐसे में यूएई के रूप में एक बड़ा निवेषक मिलना सम्बन्धों को और मजबूती देगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ऐसी कुछ सम्भावनाओं से ओत-प्रोत बीते रविवार को यूएई गये भी थे। इसके अलावा आतंकवाद के मामले में दोनों देष एक सुर हुए। साथ ही संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् की स्थाई सदस्यता हेतु यूएई का समर्थन भी भारत के लिए सोने पर सुहागा रहा। यह सर्वविदित है कि ‘पूर्व की ओर देखो‘ की नीति व्यापार एवं आर्थिक सम्बन्धों में मजबूती के कारण ही काफी हद तक सफल हुई है। इसी फलसफे को ध्यान में रखते हुए पीएम का एजेण्डा ‘पष्चिम की ओर देखो‘ का भी है ताकि व्यवसायिक रिष्तों को सुधारा जा सके और यूएई के साथ द्विपक्षीय नीतियों को आगे बढ़ाया जा सके। इन दिनों आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट की वजह से पनपे संकट को लेकर भी दोनों देषों के बीच मुलाकात की दरकार थी।
भारत से मसाले और कपड़े अमीरात क्षेत्र को और अमीरात क्षेत्र से भारत को मोती और खजूर प्राचीन काल से ही भेजे जाते रहे हैं और अब ‘मेक इन इण्डिया‘ के माध्यम से नये उत्पाद यूएई के बाजार में भी उपलब्ध किये जा सकेंगे। पष्चिमी तट विषेश रूप से मालावार तट में भारत के प्रमुख व्यापारिक अड्डे षारजाह एवं दुबई जो अरब सागर को जोड़ने के साथ आर्थिक और वाणिज्यिक सम्बन्धों के काम आते रहे हैं उनकी प्रासंगिकता भी बढ़ सकती है। सम्बन्धों के इतिहास को टटोलें तो मार्च 2007 में दुबई के षासक षेख मोहम्मद ने भारत की यात्रा की जबकि 2008 भारत तथा संयुक्त अरब अमीरात के मध्य मैत्रीपूर्ण द्विपक्षीय सम्बंधों को कहीं अधिक मजबूत बनाने का वर्श था। तत्कालीन विदेष मंत्री प्रणब मुखर्जी ने इसी वर्श अरब की यात्रा की थी। इसके पूर्व अप्रैल माह में यूएई के विदेष मंत्री की भी भारत यात्रा हुई थी। तभी से दोनों देषों के बीच एक नए अध्याय की षुरूआत हुई थी। इतिहास के पन्नों में दोनों देषों के सम्बन्धों को उकेर कर देखा जाए तो पिछले तीन-चार दषकों में काफी सकारात्मक कूटनीति देखने को मिलती है। 1994 में नषीली दवाओं और तस्करी की रोकथाम से जुड़ा समझौता, 1989 में नागरिक उड्यन समझौता जबकि इसके पूर्व 1975 में सांस्कृतिक सहित कई समझौते देखने को मिलते हैं मोदी जिस भी देष की यात्रा करते हैं वहां के धार्मिक और सांस्कृतिक पहलुओं में षामिल होना नहीं भूलते। इसी तर्ज पर वे अबू धाबी की षेख जायद मस्जिद भी गये जो धार्मिक सहिश्णुता की दृश्टि से एक अच्छा संकेत भी है। वहां उन्होंने मस्जिद के सामने सेल्फी ली। सेल्फी का प्रकरण भी मोदी चलन के चलते अधिक चर्चे में माना जा सकता है। बहरहाल किसी मस्जिद में प्रधानमंत्री मोदी पहली बार गये।
धार्मिक सम्बन्धों का एक गुणात्मक परिप्रेक्ष्य तब और अधिक मजबूती से सामने आया जब यूएई ने भारतीय समुदाय को मन्दिर निर्माण के लिए राजधानी में जमीन आबंटित करने का निर्णय लिया। दुबई में दो मन्दिर हैं एक भगवान षिव का और एक कृश्ण का मगर अबू धाबी में कोई मन्दिर नहीं था जो अब सम्भव हो सकेगा। इतना ही नहीं मन्दिर की यह कूटनीति दोनों देषों के बीच और अधिक ऊर्जा का संचार करेगी। यूएई में आबादी के लिहाज़ से 30 फीसदी भारतीय हैं ऐसे में धार्मिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य के नजरिये से देखा जाए तो यूएई में एक छोटे हिन्दुस्तान की बसावट है। मोदी ने यूएई को मिनी इण्डिया बताते हुए उसे दिल के बेहद करीब बताया। प्रधानमंत्री ने खाड़ी देषों में हिंसा और अस्थिरता पर भी दुःख प्रकट किया। भारत जिस षान्तिप्रियता का द्योतक बनना चाहता है उसमें हिंसा, आतंक, तस्करी एवं कुरीतियों का कोई स्थान नहीं है परन्तु अफसोस की बात यह है कि खाड़़ी देष इन झंझवातों में फंसे हैं। ऐसे में कुछ देषों को छोड़ दिया जाए तो ‘पष्चिम की ओर देखो‘ रणनीति पूरी सफल होगी अभी कहना जल्दबाजी होगी। जिस प्रकार यूएई से भारत का सम्बन्ध रहा है उसे देखते हुए संधियों और समझौतों का विष्वास न किये जाने का कोई गैर वाजिब पक्ष नहीं दिखाई देता साथ ही आतंकवाद के मामले में यूएई ने भारत के साथ जो विष्वास जताया है वह भी काबिल-ए-तारीफ है। यूएई जैसे देषों पर कई पष्चिमी देषों की भी नजर रही है। सम्बन्ध को लेकर बहुत खींचातानी तो सम्भव नहीं है पर इतना जरूर है कि एक सकारात्मक निवेष भारत के लिए व्यापारिक दृश्टि से कहीं अधिक लाभदायक सिद्ध होगा और ‘मेक इन इण्डिया‘ को भी वैष्विक ऊँचाई मिलेगी। जब देषों के बीच सम्बन्धों की चाषनी गाढ़ी होती है तो विकास की गाड़ी भी कहीं अधिक गति लेती है। वैदेषिक मामलों में पिछले एक बरस से भारत का स्वरूप काफी उठान से परिपूर्ण है और जिस ताकत से अन्य देषों में भारत को लेकर एक सकारात्मक भूमि तैयार हुई है वह भी भविश्य के लिए समृद्ध कारक सिद्ध हो सकती है।
अरब देषों में यूएई एक महत्वपूर्ण वाणिज्यिक एवं आर्थिक हब है। सिंगापुर एवं हांगकांग के बाद पुर्ननिर्यातक केन्द्र भी है। भारत भी विष्व की तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था है ऐसे में दोनों के बीच व्यापारिक साझेदारी अपरिहार्य है। अमेरिका के बाद यूएई भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है ऐसे में भारतीय उत्पाद के लिए एक बड़ा और बेहतर बाजार हो सकता है। जिस प्रकार आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी सहयोग के लिए जनवरी 1975 में भारत-यूएई संयुक्त आयोग की स्थापना की गयी थी उससे साफ था कि प्रगति की रेखा लम्बी होनी ही चाहिए। मोदी से पहले 1981 में पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी भी यूएई गयी थी। 34 साल के अन्तराल के बाद मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं जो यूएई का दौरा कर रहे हैं। इन तमाम से यह दृश्टिगोचर होता है कि पष्चिम की ओर देखो का नजरिया भारत में हमेषा से रहा है। यूएई में 26 लाख भारतीय हैं इनमें बड़ी संख्या बिहार के मुसलमानों की है। तेल संसाधनों से भरपूर यूएई के दौरे से भारत काफी उम्मीद रख सकता है। इसमें कोई षक नहीं कि बीते दिनों यूएई भी मोदीमय हुआ है। दुबई के क्रिकेट स्टेडियम में एक बार फिर वहां बसे भारतीयों को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने देष के साथ-साथ अपनी ताकत की भी जोर आजमाइष की। प्रधानमंत्री मोदी की एक खासियत यह भी है कि भारतीय समुदाय को विदेष की धरती पर सम्बोधित करना नहीं भूलते। अमेरिका और आॅस्ट्रेलिया की भांति ही यूएई में भी इसी प्रकार के सम्बोधन से विदेष में हिन्दुस्तान की झलक दिखाने का काम भी मोदी ने किया।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Monday, August 17, 2015

यूएई पहुंचा मेक इन इण्डिया

इजराइल, फिलिस्तीन सहित खाड़ी के देषों में लगातार परिवर्तन हो रहा है जिसका असर पष्चिम एषिया पर गहरे तरीके से पड़ा है। भारत इन परिवर्तनों के मद्देनजर अपनी नीतियों में आये दिन बदलाव करता रहा है। भारत का दृश्टिकोण कभी एकांगी न था जितनी षिद्दत से उसने पूरब की ओर देखने की कोषिष की उतनी ही चाहत लिए वह पष्चिम की ओर भी ताकने का प्रयास किया। खाड़ी देष तेल निर्यात के मामले में वैष्विक भण्डार है जबकि आयात के मामले में भारत की निर्भरता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। वर्श 2020 तक खाड़ी क्षेत्र द्वारा कच्चे तेल पर वैष्विक आवष्यकताओं का 54 से 67 फीसदी आपूर्ति सम्भव मानी जा रही है। इसके अलावा कई ऐसे कारक विद्यमान हैं जिसके चलते पष्चिम के देषों के साथ भारत नए सिरे से एक बेहतर सम्बन्ध की आवष्यकता महसूस कर रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ऐसी कुछ सम्भावनाओं से ओत-प्रोत बीते रविवार को यूएई की दो दिवसीय यात्रा पर पहुंचे। उम्मीद की जा रही है कि व्यापार और आतंकवाद का मुकाबला जैसे क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने के उपायों का दोनों देषों के बीच एक सकारात्मक चर्चा होगी। साथ ही यह भी प्रयास रहेगा कि यूएई का ध्यान ‘मेक इन इण्डिया‘ के माध्यम से भारत में निवेष के लिए खींचा जाए। यह सर्वविदित है कि ‘पूर्व की ओर देखो‘ की नीति व्यापार एवं आर्थिक सम्बन्धों में मजबूती के कारण ही काफी हद तक सफल हुई है। इसी फलसफे को ध्यान में रखते हुए पीएम का एजेण्डा ‘पष्चिम की ओर देखो‘ का भी है ताकि व्यवसायिक रिष्तों को सुधारा जा सके और यूएई के साथ द्विपक्षीय नीतियों को आगे बढ़ाया जा सके। इन दिनों आतंकी संगठन इस्मालिक स्टेट की वजह से पनपे संकट को लेकर भी दोनों देषों में बातचीत की दरकार है।
भारत और यूएई के बीच सामाजिक और व्यापारिक सम्बन्ध प्राचीन काल से रहे हैं। सामान्यतः यह मैत्रीपूर्ण अवस्था अभी भी कायम है। भारत से मसाले और कपड़े अमीरात क्षेत्र को और अमीरात क्षेत्र से भारत को मोती और खजूर भेजे जाते रहे हैं। पष्चिमी तट विषेश रूप से मालावार तट में भारत के प्रमुख व्यापारिक अड्डे षारजाह एवं दुबई जो अरब सागर को जोड़ने के साथ आर्थिक और वाणिज्यिक सम्बन्धों के काम आते रहे हैं। दोनों देषों के बीच होने वाली अनेक उच्चस्तरीय यात्राएं इनके बेहतर सम्बन्धों के प्रमाण है। मार्च 2007 में उप-राश्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा दुबई के षासक षेख मोहम्मद ने भारत की यात्रा की। 2008 भारत तथा संयुक्त अरब अमीरात के मध्य मैत्रीपूर्ण द्विपक्षीय सम्बंधों को कहीं अधिक मजबूत बनाने का वर्श था। तत्कालीन विदेष मंत्री प्रणव मुखर्जी ने इसी वर्श अरब की यात्रा की थी। इसके पूर्व अप्रैल माह में यूएई के विदेष मंत्री की भी भारत यात्रा हुई थी। तभी से दोनों देषों के बीच एक नए अध्याय की षुरूआत हुई थी। इतिहास के पन्नों में दोनों देषों के सम्बन्धों को उकेर कर देखा जाए तो पिछले तीन-चार दषकों में काफी सकारात्मक कूटनीति देखने को मिलती है। 1994 में नषीली दवाओं और तस्करी की रोकथाम से जुड़ा समझौता, 1989 में नागरिक उड्यन समझौता जबकि इसके पूर्व 1975 में सांस्कृतिक सहित कई समझौते देखने को मिलते हैं मोदी जिस भी देष की यात्रा करते हैं वहां के धार्मिक और सांस्कृतिक पहलुओं में षामिल होना नहीं भूलते। इसी तर्ज पर वे अबू धाबी की षेख जायद ग्रांड मस्जिद भी गये। वहां उन्होंने मस्जिद के सामने सेल्फी ली। सेल्फी का प्रकरण भी मोदी चलन के चलते अधिक चर्चे में माना जा सकता है। बहरहाल किसी मस्जिद में प्रधानमंत्री मोदी पहली बार गये हैं।
धार्मिक सम्बन्धों का एक गुणात्मक परिप्रेक्ष्य तब और अधिक मजबूती से सामने आया जब यूएई ने भारतीय समुदाय को मन्दिर निर्माण के लिए राजधानी में जमीन आबंटित करने का निर्णय लिया। दुबई में दो मन्दिर हैं एक भगवान षिव का और एक कृश्ण का मगर अबू धाबी में कोई मन्दिर नहीं था जो अब सम्भव हो सकेगा। इतना ही नहीं मन्दिर की यह कूटनीति दोनों देषों के बीच और अधिक ऊर्जा का संचार करेगी। यूएई में आबादी के लिहाज़ से 30 फीसदी भारतीय हैं ऐसे में धार्मिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य के नजरिये से देखा जाए तो यूएई में एक छोटे हिन्दुस्तान की बसावट है। हालांकि भारतीय जनसमुदाय को यहां अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है जिसमें उनका षोशण भी षामिल है। वित्तीय समस्याएं, एकांकीपन, षराब का सेवन करना तथा वैवाहिक आदि समस्याओं के चलते भारतीयों की आत्महत्या दर विगत् कुछ वर्श पहले बढ़ी थी। भारत में विभिन्न अपराधों में वांछित अनेक असामाजिक तत्व यूएई में सुरक्षित अभ्यारण्य पाते हैं जैसे दुबई आदि। फिलहाल मोदी ने यूएई को मिनी इण्डिया बताते हुए उसे दिल के बेहद करीब बताया। प्रधानमंत्री ने खाड़ी देषों में हिंसा और अस्थिरता पर भी दुःख प्रकट किया। भारत जिस षान्तिप्रियता का द्योतक बनना चाहता है उसमें हिंसा, आतंक, तस्करी एवं कुरीतियों का कोई स्थान नहीं है परन्तु अफसोस की बात यह है कि खाड़़ी देष इन झंझवातों में फंसे हैं। ऐसे में कुछ देषों को छोड़ दिया जाए तो पष्चिम की ओर देखो रणनीति पूरी सफल होगी कहना कठिन है। जिस प्रकार यूएई से भारत का सम्बन्ध रहा है उसे देखते हुए संधियों और समझौतों का विष्वास न किये जाने का कोई गैर वाजिब पक्ष नहीं दिखाई देता। परन्तु आतंकवाद को लेकर जो अपेक्षाएं भारत रखता है उस पर अभी कईयों को खरा उतरना बाकी है। ऐसे में आर्थिक और वाणिज्यिक दृश्टि से सम्बन्धों की षालीनता को तो समझना आसान है पर हिंसा और आतंक के मामले में निष्चित होना थोड़ा मुष्किल है। यूएई जैसे देषों पर कई पष्चिमी देषों की भी नजर रही है। सम्बन्ध को लेकर बहुत खींचातानी तो सम्भव नहीं है पर इतना जरूर है कि एक सकारात्मक निवेष को भारत में इसके माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है ‘मेक इन इण्डिया‘ को प्रभावषाली ढंग से पेष किया जा सकता है साथ ही सुरक्षा सहयोग पर भी वार्ता सम्भव है।
अरब देषों में यूएई एक महत्वपूर्ण वाणिज्यिक एवं आर्थिक हब है। सिंगापुर एवं हांगकांग के बाद पुर्ननिर्यातक केन्द्र भी है। भारत भी विष्व की तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था है ऐसे में दोनों के बीच व्यापारिक साझेदारी अपरिहार्य है। अमेरिका के बाद यूएई भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है ऐसे में भारतीय उत्पाद के लिए एक बड़ा और बेहतर बाजार हो सकता है। जिस प्रकार आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी सहयोग के लिए जनवरी 1975 में भारत-यूएई संयुक्त आयोग की स्थापना की गयी थी उससे साफ था कि प्रगति की रेखा लम्बी होनी ही चाहिए। मोदी से पहले 1981 में पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी भी यूएई गयी थी। 34 साल के अन्तराल के बाद मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं जो यूएई का दौरा कर रहे हैं। इन तमाम से यह दृश्टिगोचर होता है कि पष्चिम की ओर देखो का नजरिया भारत में हमेषा से रहा है। यूएई में 26 लाख भारतीय हैं इनमें बड़ी संख्या बिहार के मुसलमानों की है। तेल संसाधनों से भरपूर यूएई के दौरे से भारत काफी उम्मीदे रखता है। इसमें कोई षक नहीं कि इन दिनों यूएई भी मोदीमय हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी की एक खासियत यह भी है कि भारतीय समुदाय को विदेष की धरती पर सम्बोधित करना नहीं भूलते।  अमेरिका और आॅस्ट्रेलिया की भांति ही यूएई में भी इसी प्रकार के सम्बोधन से विदेष में हिन्दुस्तान की झलक दिखाने का काम भी मोदी करेंगे।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502

Friday, August 14, 2015

नवाचार को समर्पित स्वतंत्रता दिवस

मैं ऐसे भारत के लिए कोषिष करूँगा, जिसमें गरीब लोग भी यह महसूस करेंगे कि वह उनका देष है, जिसके निर्माण में उनकी आवाज का महत्व हैे, जिसमें उच्च और निम्न वर्गों का भेद नहीं होगा और जिसमें विविध सम्प्रदायों में पूरा मेलजोल होगा। ऐसे भारत में अस्पृष्यता या षराब और दूसरी नषीली चीजों के अभिषाप के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। उसमें स्त्रियों को वही अधिकार होंगे, जो पुरूशों को होंगे। षेश सारी दुनिया के साथ हमारा सम्बन्ध षान्ति का होगा। यह एक सपनों का भारत है जिसके स्वप्नदर्षी राश्ट्रपिता महात्मा गांधी थे। सैकड़ों बरसों की गुलामी और इतने ही बरसों के आंदोलनों को इस सपने को देखने के लिए खपाया गया तब कहीं जाकर 15 अगस्त, 1947 को भारत की धरती पर आजादी का सूरज चमका था। वर्श 2015 का स्वतंत्रता दिवस गिनती में 68वां होगा पर क्या पूरे संतोश से कहा जा सकता है कि हाड़-मांस का एक महामानव रूपी महात्मा जो एक युगदृश्टा था जिसने गुलामी की बेड़ियों से भारत को मुक्त कराया क्या उसके सपने को वर्तमान में पूरा पड़ते हुए देखा जा सकता है? कमोबेष ही सही पर सच यह है कि सपना पूरा करने की जद्दोजहद रही है। असल में भारत में राश्ट्रवाद का उदय भारतीयों के अंग्रेजी साम्राज्य के प्रति असंतोश एवं उनमें व्याप्त तर्कपूर्ण बौद्धिकता के उद्भव का परिणाम था जो 19वीं सदी की महत्वपूर्ण घटना थी। इन्हीं दिनों भारतीय स्वतंत्रता का बीजारोपण हुआ और इसी का फल स्वाधीन भारत है। यहीं से लोकतान्त्रिक सिद्धान्त की प्रथम आधारभूत मान्यता, आत्मनिर्णय या स्वषासन की मुहिम षुरू हुई। भारत ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संसदीय षासन प्रणाली को अपनाया और समाजवादी आयाम से अभिभूत देष लोकतांत्रिक समाजवाद की ओर बढ़ चला।
राजनीतिक अधिकार प्रदान करने की षुरूआत भी आजादी का बिगुल ही था। सामाजिक-आर्थिक अधिकारों की प्राप्ति पर बाकायदा बल देने का काम भी स्वाधीनता के बाद ही षुरू हुआ। योजना आयोग जैसे संगठन जिसका विकल्प आज का नीति आयोग है का प्रारम्भ। इसके अलावा राश्ट्रीय विकास परिशद्, सामुदायिक विकास कार्यक्रम तत्पष्चात् पंचायती राज व्यवस्था की षुरूआत ये स्वाधीनता के बाद के ऐसे पंचाट थे जिसकी ताकत का इस्तेमाल करके भारत में वो उर्जा भरी गयी जिसके सपने गांधी की आंखों में तैरते थे। यही दौर था जब जमींदारी उन्मूलन जैसे विशय महत्वपूर्ण हो गये और समाजवादी लोकतंत्र ने देष में ढांचागत रूप ले लिया। हालांकि 1980 का दौर आते-आते भारत यह दृढ़ समाजवादी लोकतंत्र समस्याओं से भी घिर गया था। भारतीय संविधान के रूप में देष को एक कसा हुआ ऐसा विधानषास्त्र प्राप्त हुआ जिसके बूते देष के उन सपनों को पूरा किया जा रहा है जिसकी चकमक गांधी की आंखों में थी। बीसवीं सदी के अंत तक यह उजागर हो चुका था कि स्वतंत्रता दिवस के आधारभूत मान्यताओं का परिकल्पित स्वरूप बदलाव की मांग कर रहा है। फलस्वरूप 1991 में उदारीकरण और वैष्वीकरण की नीतियों ने लोकतंत्र के स्वरूप में एक नये घटक को षुमार किया। यहीं से पूंजीवादी लोकतंत्र का प्रभाव बढ़ने लगा जिसके तीन दषक पूरे होने वाले हंै। भारतीय लोकतंत्र में आज गुणात्मक परिवर्तन हो रहा है षिक्षा और सूचना जैसे अधिकारों ने स्वतंत्र भारत के मायने को और बुलंदी दे दी।
मानव सभ्यता के विकास को जिन कारकों ने प्रभावित किया है उनसे भारत की स्वाधीनता भी अछूती नहीं है। हम इस बात का षायद पूरे मन से एहसास नहीं कर पाते कि स्वतंत्रता दिवस क्या चिन्ह्ति करना चाहता है पर इसमें लोकतांत्रिक नवाचार, नवाचार से लैस कौषल विकास, युवा विकास, सामाजिक न्याय तथा ग्रामीण विकास के साथ महिला सषक्तिकरण का प्रतिबिम्ब झलकता है। पिछले स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री मोदी ने कई ऐसी योजनाओं की उद्घोशणा की थी जिससे भारत की धरती कहीं अधिक पुख्ता बन सके। प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा था कि ‘हमारे राश्ट्र की आत्मा गांव में बसती है।‘ आज इन्हीं गांव के उत्थान एवं विकास के लिए पंचायती राज व्यवस्था पिछले दो दषक से कारगर भूमिका के तौर पर सराही जा रही है। झुग्गी मुक्त भारत, भारतीय षहरों में ग्रामीण समावेष, साफ गंगा एवं स्वच्छ भारत तथा धार्मिक सहिश्णुता के साथ भारत निर्माण के विजन-2020 जैसे तमाम अभियान स्वाधीनता के मायने को बल दे रहे हैं। देष में नियोजन के 65 वर्श बीत चुके हैं। कुछ कच्ची-पक्की पगडण्डी से गुजरते हुए डिजिटल डेमोक्रेसी और नवाचार की ओर झुकाव भी बढ़ा है, विज्ञान और तकनीक के चलते भारत सुविधा प्रदायक बनता जा रहा है। भाशा की आर्थिकी और स्कूली षिक्षा का सच अब यह संकेत देने लगे हैं कि ज्ञान का समन्दर और गहरा होता जा रहा है।
आजादी को देखने, समझने और महसूस करने के सबके अपने-अपने तरीके हैं पर इस सच से षायद ही किसी को गुरेज हो कि आज हमारे पास आजादी के इतने विकल्प मौजूद हैं जो अब से कुछ वर्श पहले तक नहीं थे। आजादी के लगभग सात दषक के बाद आज न केवल दुनिया के सबसे युवा देषों में भारत षुमार है बल्कि 54 फीसदी से ज्यादा आबादी 35 साल से कम उम्र की है। इसी के वर्चस्व को देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी दुनिया भर में इनके भरोसे भारत को सर्वाधिक समृद्धषाली मानते हैं। ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां युवाओं का परचम न लहरा रहा हो। दरअसल ज्ञान हमेषा दूसरों पर नियंत्रण का ताकतवर हथियार रहा है। जिसके पास ज्ञान रहा सत्ता हमेषा उसी के पास रही। देष के युवाओं को कौषल विकास देकर भारत इस ताकत को महसूस कर सकता है। वैष्विक रिपोर्ट भी यह कहती है कि 2025 में दुनिया भर के 50 फीसदी से ज्यादा सीईओ भारतीय ही होंगे। कौषल सरीखे देष में महिलाओं की भूमिका को न सराहे तो अनुचित होगा। जिस भांति पिछले दो दषकों में महिला उत्थान एवं विकास हुआ है उससे भी गांधी के उन सपनों को पर लगे हैं जो गुलामी के दिनों में उनके चिंतन का केन्द्र था। स्वाधीनता दिवस अनायास ही नहीं प्रकट हुआ, जिन्दगी के जर्रे-जर्रे से गुलामी की ताकत को ध्वस्त करने की उर्जा इकट्ठी की गयी, हजारों-लाखों को षहीद होना पड़ा। न जाने कितने प्रकार की सजाएं और यातनाएं सहनी पड़ी तब कहीं जाकर एक 15 अगस्त का निर्माण हुआ जिसके 68 बरस कई उम्मीदों के साथ बीते और आगे भी ऐसी ही उम्मीदों से यह पटा रहेगा।
सब कुछ के बावजूद कठोर सवाल है कि 68 सालों की आजादी हो गयी पर अब भी हर हिन्दुस्तानी के लिए घर नहीं है। जरूरतमन्द के लिए काम नहीं है। आज भी ऊँच-नीच और गरीबी-अमीरी में चैड़ी खाई है। सच है कि कई समस्याएं अभी हल नहीं हो पाईं हैं पर जिस चरित्र के साथ भारत के निर्माण में उर्जा खपाई गयी है उसके भाव का भी तो सम्मान करना जरूरी है। प्रधानमंत्री मोदी को राश्ट्रपिता के आदर्षों में रंग भरते हुए कई बार देखा जा सकता है ऐसा नहीं है कि पहले के षासकों में स्वाधीनता के अर्थ गहरे नहीं थे वाजिब पक्ष यह है कि स्वाधीनता इस बात का पुख्ता सबूत है कि इससे जुड़ी सोच बड़ी गहरी थी और समझ चिंतन से परिपूर्ण। ऐसे में मिली इस कीमती विरासत को सभी ने अपने तरीके से संभालने की कोषिष की। अब प्रधानमंत्री के तौर पर बारी मोदी की है जो आगे के कई स्वतंत्रता दिवस तक ऐसी ही जिम्मेदारी का निर्वहन करेंगे। दो टूक कहा जाए तो पूर्ण बहुमत की मोदी सरकार अब से आगे की स्वाधीनता दिवस को लेकर देष को बेइन्तिहा उम्मीदे हैं।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
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Wednesday, August 12, 2015

विपक्षी टूटन पर दांव सफल होगा

सदन में 40 लोग मिलकर 440 से अधिक सदस्यों का हक नहीं मार सकते पूरे देष में इससे गलत संदेष जा रहा है यह लोकतंत्र नहीं बल्कि उसकी हत्या है। यह कथन व्यथित लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन का है जो पिछले तीन सप्ताह से संसद के न चलने और विरोधियों द्वारा सदन को बन्धक बनाये जाने के चलते परेषान हैं। हालांकि इन दिनों सियासत का टर्निंग प्वाइंट भी देखने को मिल रहा है। समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव की बदली भूमिका को लेकर प्रधानमंत्री मोदी अब सराह रहे हैं दरअसल ऐसा मुलायम सिंह के संसद चलने देने की मांग को लेकर सम्भव हुआ। इसका एक अर्थ यह भी है कि 44 सदस्यों वाली कांग्रेस के साथ अब मुलायम सिंह यादव नहीं है। समाजवादी पार्टी चाहती है कि सरकार को सदन में बोलने की इजाजत दी जाए। यह एक प्रकार से कांग्रेस को अल्टीमेटम भी है कि आगे विरोध हुआ तो विरोधी की एकजुटता खण्डित हो जाएगी। बावजूद इसके कांग्रेस का विरोध उसी सियासी तल्खी के साथ अभी भी जला-भुना है। देखा जाए तो अब विरोधी खेमा आपसी टूटन पर पहुंच चुका है इसकी बानगी देखने को तब मिली जब मुलायम की बोलने की बारी आयी तो कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी षेम-षेम के नारे लगाने लगीं। यह विडम्बना ही है कि जिस सोनिया और मुलायम के बीच विरोध की गुफ्तगु होती थी आज उसी में एक विपक्षी तो एक पक्षकार बन गया है, साफ है कि विपक्षी टूटन की कगार पर हैं।
संसद चलने के लिए राहुल गांधी की षर्त कमोबेष पहले जैसी ही है। पष्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी मोदी सरकार के खिलाफ आक्रामक सोनिया की तारीफ भी इसलिए कर रही हैं क्योंकि मोदी के प्रधानमंत्री बनने में ममता खलल के चलते केन्द्र सरकार का तिरस्कार इन पर भी हावी रहा है। सोनिया ने भी ममता को मायूस न करते हुए कह दिया कि यह सब तो आप ही से सीखा है। इन दिनों यह भी देखने को मिल रहा है कि मानो सियासत का केन्द्र कुछ महिलाओं तक सीमित है। जहां विरोध में सोनिया हैं वहीं विरोध झेलने में सुशमा स्वराज और इन दोनों के बीच महिला स्पीकर सुमित्रा महाजन हैं। लोकसभा में सदन की कार्यवाही जिस कदर बिगड़ी है इसका मुख्य कारण ‘मिस पार्लिमेन्टरी मेनेजमेन्ट‘ रहा है। ललितगेट और व्यापमं घोटाले पर हंगामा जस का तस बना हुआ है। मर्यादाहीन होती संसद और बिना कार्यवाही के नाष के कगार पर खड़ा मानसून सत्र बड़ी तबाही झेल रहा है। वरिश्ठ नेता लाल कृश्ण आडवाणी का धैर्य भी अब जवाब दे रहा है, वे संसदीय कार्यमंत्री से हाथ जोड़ कर सदन से चलता बने। असल में सदन में इरादा और मर्यादा जब दोनों तबाह होने लगें तो सदन में सर्वाधिक समय बिताने वाले नेता हतप्रभ रह जाते हैं आडवाणी ऐसे ही किस्म के नेता हैं।
हैरानी की बात नहीं कि मोदी सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद हुए चार सत्रों में सबसे खराब सत्र मानसून सत्र ही होगा। दुनिया के दूसरे बड़े लोकतंत्र भी हैं जहां सत्र इस तरह से बेहाल नहीं किये जाते और न ही उनकी बैठकें औसतन भारत की तुलना में इतनी मायूस करने वाली होती हैं। अमेरिकी सीनेट में एक वर्श में औसतन 180 दिन, ब्रिटेन के हाउस आॅफ काॅमन्स में 130 दिन और फ्रांस की नेषनल एसेम्बली में 149 बैठकें होती हैं जबकि भारत में यह आंकड़ा मात्र 80 का है। आंकड़े यह दर्षाते हैं कि लोकतंत्र के मामले में अकूत ताकत रखने वाला भारत उन्हीं के बारे में निहायत संकीर्ण सोच रखता है। देष की प्रगति और विकास संसद भवन से होकर गुजरता है पर हैरत की बात यह है कि संसद भवन सत्ता और विपक्ष के अखाड़े में तब्दील है। आने वाले षनिवार को स्वतंत्रता की 68वीं वर्शगांठ मनाई जाएगी पर दुनिया में हमारे राजनीतिज्ञ इन दिनों गांधीगिरी के बजाय एक ऐसा चेहरा प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे विष्व भर में भारत की छवि धूमिल हो रही है। क्या सांसदों को अपने अन्दर झांकने की जरूरत नहीं है यदि झांकेगे तो पाएंगे कि जिस दिन उन्होंने कोई काम नहीं किया है उस दिन देष को उसी गति से पीछे धकेला है जिस गति से जुबानी जंग लड़ रहे हैं। यदि कांग्रेस की मांग इतनी ही वजनदार थी तो उसका अब तक का प्रयास निरर्थक क्यों गया?
विपक्षी टूटन से अब कांग्रेस हाषिये पर जा सकती है पर क्या इसका फायदा सत्ता पक्ष को होगा संदेह है। यदि वामपंथी सहित कुछ को छोड़ दिया जाए तो कांग्रेस के साथ कम से कम इस मामले में बाकी सहमत नहीं होंगे कि अभी भी सदन न चले। सरकार नियम 193 के तहत बहस कराना चाहती है इस बहस के बाद वोटिंग का कोई प्रावधान नहीं होता इसके तहत होने वाले बहस को लेकर भी विरोधी एकमत नहीं है। स्पीकर ने झल्लाकर लोकसभा टीवी से यह अनुरोध कर दिया कि वह देष को दिखायें कि उनके सांसद कैसे बर्ताव कर रहे हैं। हालात को देखते हुए जीएसटी बिल भी अब संकट में जाता हुआ दिखाई दे रहा है। भूमि अधिग्रहण विधेयक की तो यहां कोई गिनती ही नहीं है। मानसून सत्र में 30 विधेयक चर्चे में आ सकते थे पर स्थिति यह है कि जीएसटी पर बना बनाया खेल भी बिगड़ सकता है। राज्यसभा में चर्चे के लिए इस पर सहमति नहीं हो पायी। वित्तमंत्री का मानना है कि विधेयक प्रवर समिति के पास था इसलिए इसे पहले से पेष माना जाए। कहा जाए तो हर दांव आजमाने के बाद सदन की हालत नहीं सुधरी। राज्यसभा में फिलहाल 244 सदस्य हैं कांग्रेस के 68, वाम के 10 यदि ये खिलाफ जाते हैं या वाकआउट करते हैं तो सरकार को 166 जरूरी वोट मिल जाएंगे और महीनों से अटके विधेयक कानून में बदल जाएंगे। फिलहाल बीते तीन सप्ताह से संसद की पिच पर चलने वाला खेल का परिणाम अनिर्णीत की ओर जा रहा है। यदि अब भी विरोधी विरोध करना नहीं छोड़ते और सरकार स्थिति को संभालने में कामयाब न हो सकी तो यह भविश्य के लिए अच्छे संकेत तो नहीं कहे जाएंगे।



लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
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Monday, August 10, 2015

केन्द्र द्वारा राज्यों की आलोचना का मतलब

चाहे सरकार केन्द्र की हो या राज्य की, लोकतंत्र की एक प्रमुख मान्यता उसकी स्वतंत्रता है जो अधिकार से परस्पर सम्बन्धित है इसके आभाव में तो लोकतंत्र की कल्पना भी सम्भव नहीं है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 1 सुनिष्चित करता है कि भारत राज्यों का संघ है। संविधान में ही दोनों के कृत्यों का बाकायदा बंटवारा भी देखा जा सकता है। संघ और राज्य के बीच विधायी, कार्यकारी और वित्तीय मसलों को लेकर सम्बंधों की व्याख्या एवं विष्लेशण भी संलग्न है। लोकतंत्र का यह मतलब कभी नहीं था कि संघ और राज्यों के बीच एक ऐसी अड़चन पैदा हो जिससे कि संघीय मान्यता और महत्ता दोनों कठिनाई का सामना करें। विगत् कुछ महीनों से भारत की राजनीति में दो चीजों का आभाव परिलक्षित होने लगा है। प्रथम यह कि केन्द्र की सत्ता का राज्यों की सत्ता में सहभागी लोकतंत्र का आंषिक आभाव, दूसरे गैर भाजपाई राज्यों के मुख्यमंत्रियों के प्रति प्रधानमंत्री मोदी द्वारा तीखा दृश्टिकोण रखना। जिन राज्यों में भाजपा पोशित सरकार है वहां इस प्रकार का कोई मलाल नहीं देखा जा रहा पर इसके उलट उत्तर प्रदेष, बिहार, पष्चिम बंगाल सहित कुछ अन्य प्रांत प्रधानमंत्री मोदी के सीधे निषाने पर रहते हैं। दिल्ली में केजरीवाल सरकार का केन्द्र के साथ नाता 36 के आंकड़े को पार करता हुआ 72 तक पहुंच गया है। जाहिर है कि जिस बहुमत के साथ केजरीवाल ने 70 के मुकाबले 67 विधायकों के बीच अपनी ताजपोषी की उससे संघ सरकार का तिलमिलाना स्वाभाविक था पर केन्द्र को यह नहीं भूलना चाहिए कि वह राज्यों के लिए पथ प्रदर्षक की भूमिका भी निभा सकता है।
उत्तर प्रदेष में अखिलेष यादव की सरकार है जो देष के सबसे बड़े सूबे को पूर्ण बहुमत के साथ चला रहे हैं। केन्द्र की तीखी नजर इन पर आये दिन रहती है। षिकायत यह भी रहती है कि केन्द्र की मोदी सरकार यूपी के साथ दोहरा बर्ताव कर रही है। आरोप को गैर वाजिब इसलिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि सियासत का स्याह पक्ष यहां भी आये दिन उभरता रहता है। असल में सकारात्मक भूमिका में राजनीतिज्ञ तभी आते हैं जब उनके झण्डे और एजण्डे के साथ राज्य होते हैं। अखिलेष यादव समाजवादी पार्टी के हैं और भाजपा की नजर अगले चुनाव में इनके सफाये पर है। ऐसे में सियासती भेद के चलते यह रंज तो देखने को मिलता रहेगा पर समझने वाला तथ्य यह है कि संविधान क्या कहता है? संविधान की विवेचना और विष्लेशण दोनों यह जताते हैं कि सामान्य परिस्थितियों में केन्द्र और राज्य दो सत्ताधारक हैं पर असामान्य परिस्थितियों में संघीय ताकत में राज्यों का समावेषन हो जाता है। मोदी सरकार के निषाने पर पष्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तब से हैं जब से केन्द्र में इनकी सरकार आयी है। इन दोनों सरकारों के बीच आरोप-प्रत्यारोप खूब चल रहे हैं। नीति आयोग की बैठक में ममता बनर्जी की अनुपस्थिति इसी मलाल का कारण रहा है। बीते रविवार को बिहार के गया में मोदी की रैली थी। बिहार की नीतीष सरकार को आड़े हाथ लेते हुए उन्होंने बहुत कुछ सुना दिया। उन्होंने कहा कि भाजपा सत्ता में आई तो पांच साल के अन्दर बिहार से बीमारू का ठप्पा हट जाएगा और जंगलराज-2 के बजाय विकास के लिए भाजपा की सरकार बनायें। ऐसे में बिहार के मुखिया नीतीष कुमार का तिलमिलाना लाज़मी था। पलटवार करते हुए कहा कि पीएम तथ्य दुरूस्त कर लें। दरअसल सियासत में हमेषा से तथ्यों के साथ खिलवाड़ तो हुआ है और यह खिलवाड़ विरोधी को कमतर दिखाने के लिए ही होता है।
बिहार में अगले दो-तीन महीनों के अन्दर विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। इसी के मद्देनजर प्रधानमंत्री मोदी सियासत साधने के लिए बिहार गये थे। किसी भी राज्य की कारगुजारी को आंकने के लिए नीति-निर्देषक तत्व (अनुच्छेद 36 से 51) में वर्णित उन भावों का आंकलन करना मुनासिब रहता है जहां से सामाजिक समरसता, न्याय और लोक कल्याण का परिलक्षण होता है साथ ही आर्थिक लोकतंत्र भी मुखर होता है। षिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और गरीबी जैसे सामाजिक सूचकांकों के आधार पर बिहार की विकास दर को आंका जाए तो हालत इतनी खराब नहीं मिलेगी जितनी की मोदी जी कह गये। मुख्यमंत्री नीतीष कुमार ने पलटवार तो किया पर सच्चाई यह भी है कि कुछ तो बिहार में विकास कम है, कुछ सियासत और गैर भाजपाई होने के नाते नीतीष कुमार को यह सब सहना पड़ेगा। सवाल है कि क्या केन्द्र सरकार का काम राज्यों की आलोचना मात्र तक ही सीमित है? क्या संघ में सत्तारूढ़ दल विरोधी पार्टियों वाली राज्य सरकारों पर अनाप-षनाप आरोप लगाकर संघीय ढांचे को कमजोर नहीं कर रहा है? संविधान में एक बार फिर झांकने की आवष्यकता है। संघ की आत्मा यह है कि राज्य को तनहा न छोड़ा जाए पर सियासत के अखाड़े में संवैधानिक आदर्ष भी थोड़े लड़खड़ा जाते हैं। केन्द्रवादी लोकतंत्र भी तो देष की पूरी भलाई नहीं है। जहां सहभागी लोकतंत्र ताकत और सम्बल का प्रतीक है वहां केन्द्र और राज्य दोनों की ही षक्ति से देष बनेगा। भारत स्वतंत्रता प्राप्ति के समय परम्परागत लोकतंत्र को अपनाए हुए था और काफी कुछ अभिजनवादी भी था। धीरे-धीरे यह सहभागी की ओर बढ़ा पर अफसोस यह है कि लोकतंत्र पुनः मार्ग से हटते हुए अभिजनवाद की ओर झुकता प्रतीत हो रहा है। प्रधानमंत्री मोदी मुखर विचारधारा के हैं विपक्षियों को कोसने में तनिक मात्र भी नहीं हिचकिचाते पर उन्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि कभी-कभी प्रजा इसके उलट परिणाम देती है जैसा कि दिल्ली विधानसभा के चुनाव में हो चुका है। फिलहाल देष को मजबूत बनाने के लिए संघीय ढांचे को एक बार पुनः दृढ़ करने की आवष्यकता है न कि सियासत की आड़ में मात्र आलोचना करना।
वर्श 1991 के उदारीकरण और वैष्वीकरण के दौर में भारत में पूंजीवादी लोकतंत्र षुरू हुआ था। सामाजिक न्याय और प्रगति में से प्रगति पर अधिक बल दिया गया। आज उसी की देन है कि विनिवेष, प्रत्यक्ष पूंजी निवेष को बढ़ावा दिया जा रहा है। आर्थिक क्षेत्र में सरकार की भूमिका न्यून हो रही है। आज भारत में पूंजीवादी लोकतंत्र, प्रतिस्पर्धात्मक लोकतंत्र और समाजवादी लोकतंत्र हावी है पर यह कहां का न्याय है कि सत्ता चाह में व्यक्तिगत लोकतंत्र को बढ़ावा दिया जाए। सामाजिक न्याय के लक्ष्य को न तो छोड़ा जा सकता है और न ही कमजोर किया जा सकता है। यह कहना भी मुनासिब होगा कि लोकतंत्र एक गुणात्मक छवि को तो अपना रहा है मगर संघ-राज्य सम्बन्धों में इसकी गुणवत्ता फीकी है मुख्यतः जहां दोनों एक दल नहीं है। देखा जाए तो मध्य प्रदेष और राजस्थान के मुख्यमंत्री इन दिनों आरोप के घेरे में हैं पर भाजपाई होने के नाते केन्द्र के साथ सहभागी लोकतंत्र को लेकर इन्हें कोई अड़चन नहीं है। अधिकार लोकतंत्र की अपरिहार्य षर्त है और संविधान ने इन षर्तों को बाकायदा पूरा किया है पर सियासती तर्क के चलते सामाजिक न्याय वाला संदर्भ अभी भी अधूरा है। भारत विविधताओं का देष है, संविधान की 8वीं अनुसूची में उल्लिखित 22 भाशाएं इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। कष्मीर से कन्याकुमारी तक के राज्य हों या सौराश्ट्र से अरूणाचल की बात हो सभी संघ के चमकते हिस्से हैं यदि कोई धुंधला पड़ता है तो उसे लेकर केन्द्र सरकार केवल आलोचक की भूमिका में न हो, उन्हें उत्थान और विकास के पथ की ओर धकेलने का भी काम करे।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502



Thursday, August 6, 2015

आखिर रेल, हादसों से कब मुक्त होगी!

मध्य प्रदेष के हरदा में हुई रेल दुर्घटना ने पुनः एक बार यह उजागर किया है कि रेल सुरक्षा व्यवस्था पटरी पर तो नहीं है। यह सवाल भी खड़ा कर दिया है कि देष की परिवहन व्यवस्था में भारी-भरकम भूमिका निभाने वाली रेल का हाल खराब है। घटना यह भी बताती है कि रेलवे के ट्रैक पर जरूरत से ज्यादा भरोसा न किया जाए। पुरानी हो गयी पटरियों के निरीक्षण के लिए रेलवे के पास न तो कोई पर्याप्त तंत्र है और न ही उपलब्ध तंत्र खामियों को दूर करने में निपुण है। हादसे में मारे गये यात्रियों के परिजनों को रेल मंत्रालय और मध्य प्रदेष की सरकार की तरफ से दो-दो लाख रूपए मुआवजा देने का एलान कर दिया गया है पर मरने और घायल होने वाले कितने हैं इसका अभी तक कोई सही लेखा-जोखा नहीं है। जीवन अनमोल है इसे मुआवजे से आंकना सही नहीं है पर मुआवजा इसलिए कि उनके आश्रितों का जीवन पटरी पर आ सके। इस सच से षायद ही सरकार या रेलवे महकमा जुदा हो कि रेल की पटरी ही ठीक कर देने मात्र से हादसों में व्यापक कमी लायी जा सकती है। अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि रेल हादसों के मामले में काफी हद तक उदासीनता रही है ऐसे मामलों में बहस भी न के बराबर ही होती है मगर जब हादसा हो जाता है तभी चर्चा और परिचर्चा भी जोर पकड़ती है।
हरदा में जो घटना हुई उसकी मूल वजह ट्रैक के नीचे की मिट्टी का बाढ़ के चलते बहना है फलस्वरूप ट्रैक धंस गया। मतलब साफ है मौसम के हिसाब से तैयारी का अधूरा होना। असल में ट्रेन की पटरियों की जांच का उपबन्ध रेलवे में है मौसम पूर्व इसकी जांच अनिवार्य रूप से की भी जाती है बावजूद इसके कार्य सही तरीके से निभाया गया इस पर संदेह है। देष में न जाने कितने पुल, पुलिया, रेलवे पुल आदि हैं जिस पर से रेल गुजरती है पर इसके निरीक्षण को लेकर षायद ही कोई ठोस उपाय हो। रेलवे में काम करने वाले कर्मचारी किसी भी संगठन से सर्वाधिक हैं। कार्मिकों के बोझ से रेल दबा है पर सुरक्षा की दृश्टि से इसकी हालत खस्ता है। वर्श 1947 में जब देष आजाद हुआ तो करीब सौ साल पुरानी रेल अंग्रेजों ने भारतीयों को सौंप दी तब कर्मचारी 10 लाख होते थे। पिछले सात दषकों में रेलवे का इतना विस्तार हुआ कि कर्मचारियों की संख्या 68 लाख हो गयी। ट्रेनों की तादाद बढ़ी, सफर करने वाले लोगों की संख्या बढ़ी पर इस बात पर ध्यान कम ही गया कि सुरक्षा को भी औसतन बढ़ा लेना चाहिए। आज की तारीख में 12 हजार से अधिक ट्रेनें पटरियों पर दौड़ती हैं। दो करोड़ से अधिक लोग इसमें सफर करते हैं। इतनी बड़ी तादाद में ट्रेन और यात्री का जिम्मा उठाने वाले गैर संवेदनषील कैसे हो सकते हैं? हमेषा से यह रोना रहा है कि ट्रेन की यात्रा सुरक्षित नहीं है पर इसके बगैर परिवहन का काम चल भी तो नहीं सकता।
एक ओर रेलवे के ट्रैक का पुराना होना, दूसरी ओर बाढ़, भूकंप और प्राकृतिक घटनाओं के चलते रेल पथ का बीमार अवस्था में होना। देष में सुषासन और आर्थिक नियोजन के क्षेत्र में तरह-तरह के विकास हो रहे हैं जिसमें सरकारी और निजी सभी प्रकार के संगठन सहयोग दे रहे हैं। परिवहन के कुछ ऐसे क्षेत्र जैसे सड़क परिवहन, हवाई परिवहन आदि में निजी स्वीकार्यता बाकायदा बढ़ी है षायद सुरक्षा भी, पर रेलवे अभी इनसे अछूता है। षहरों में रेल की पटरियों के दोनों तरफ आये दिन खुदाई होती रहती है। बड़े-बड़े माॅल और भवन बन रहे हैं ट्रैक इनसे भी कमजोर हो रहे हैं। रेल का सही संचालन और यात्रियों की समुचित सुरक्षा के मामले में रेल महकमे को पेषेवर होना ही पड़ेगा। छोटी-छोटी गलतियों के चलते मौत का दरिया बहाना कहां तक उचित है? मध्य प्रदेष के हरदा में होने वाली घटना मन को कचोटने वाली है और व्यवस्था को भी आइना दिखाती है। रेल दुर्घटना का आये दिन होना मानो एक आदत हो गयी हो। बीते महीने बंगलुरू-अर्नाकुलम इंटरसिटी एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हो गयी आंकड़े के हिसाब से 9 मारे गये और 20 घायल हो गये। हैरत से भरी बात यह है कि यह दुर्घटना मात्र एक पत्थर की वजह से हुई जबकि रेलवे ट्रैक की पेट्रोलिंग करने के दावे के मामले में रेल महकमा अपने को अव्वल मानता है यदि सही पेट्रोलिंग होती तो हादसा न होता। साफ है कि छोटी लापरवाही रेल व्यवस्था के लिए बड़ी तबाही बन रही है।
हरदा में हुई रेल दुर्घटना से मरने वालों की लाष 5 किलोमीटर तक बरामद की गयी। रेल के डिब्बों का नदी में गिर जाने से मरने वालों का अनुमान लगाना मुष्किल है। घटना यह जताती है कि पुराने रेलवे पुल अब रेल का भार नहीं उठा पा रहे हैं। जर्जर पुलों की रिपोर्ट पर केन्द्र सरकार मौन है। ए.के. गोयल की अध्यक्षता वाली ब्रिज एण्ड स्ट्रैक्चर कमेटी ने 2011 में अपनी रिपोर्ट में जर्जर पुल पर चिंता जताई थी योजनाबद्ध तरीके से पुलों को ठीक करने की सिफारिष भी की थी जिस पर 50 हजार करोड़ रूपए का अनुमान था। केन्द्र सरकार ने यह धन आज तक रेलवे को नहीं दिया। इसके अलावा रेलवे विषेशज्ञ समिति सैम पित्रोदा ने इसी वर्श रेलवे पुल एवं 19 हजार किलोमीटर पटरियों को दुरूस्त करने की सिफारिष की थी और समिति ने माना था कि कमजोर पुल और पटरियों पर रेल दौड़ाना खतरनाक है। देखा जाए तो जब रेल बेपटरी होती है तो तबाही भी अधिक होती है। 50 प्रतिषत से अधिक हादसे बेपटरी के कारण होते हैं। इसके अलावा क्राॅसिंग पर दुर्घटना होना भी है। चैंकाने वाला आंकड़ा यह भी है कि सर्वाधिक हादसे उन ट्रेनों के हुए जिनके ड्राइवर सर्वाधिक अनुभवी और योग्य थे आखिर ऐसा क्यों हुआ इसकी भी छानबीन की आवष्यकता है।
विषेशज्ञों की माने तो अंग्रेजों के समय बनाये गये पुल के डिजाइन व तकनीक पुरानी हो चुकी है। ब्रिटिष काल के दौर में ट्रेनों में 8 से 12 डिब्बे होते थे जबकि अब दो दर्जन से अधिक डिब्बे होते हैं इसके अलावा मालगाड़ी का भार सवारी गाड़ी के दुगुने से भी अधिक होता है। ऐसे में सवाल उठना लाज़मी है कि क्या पुराने पुल भार और रफ्तार को सहने लायक हैं। रेलवे को प्राकृतिक आपदा मान कर पलड़ा झाड़ना भी मुनासिब नहीं है हकीकत यह है कि विभाग की लापरवाही के चलते हादसे हो रहे हैं। हरदा घटना के मामले में रेलवे विषेशज्ञ तो यह भी कहते हैं कि रेलवे पुल से बारिष के पानी की निकासी ठीक से नहीं हो पा रही थी जिसके चलते पटरी के नीचे की मिट्टी बह गयी और रेलवे को इसकी भनक तक नहीं लगी। यह पुल अंग्रेजों के जमाने का बना हुआ है। किसी यात्री ने यह नहीं सोचा होगा कि मुम्बई-वाराणसी कामायनी एक्सप्रेस जब रात को ठीक 11: 30 बजे मध्य प्रदेष के हरदा से गुजरेगी तो उसकी कोच में सीने तक पानी भर जाएगा और उसका सफर अन्तिम साबित होगा। इस दौरान ट्रेन में किस प्रकार की अफरा-तफरी रही होगी इसका अंदाजा लगाना भी निहायत कठिन है। फिलहाल मध्य प्रदेष का जिला हरदा ट्रेन दुर्घटना की सूची में षामिल हो गया। यक्ष प्रष्न तो यही रहेगा दुर्घटना चाहे मानवीय कारकों से हो या तकनीकी खामियों से आखिर रेल, हादसों से कब मुक्त होगी?




सुशील कुमार सिंह
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Wednesday, August 5, 2015

संसद भवन में भी हो सुशासन


वह प्रक्रिया जो राजनीतिक व्यवस्था को लोकतांत्रिक स्वरूप देती है उसे लोकतांत्रिकरण कहा जाता है। अरस्तू के अनुसार लोकतंत्र जनता द्वारा षासित व्यवस्था है पर क्या वर्तमान भारतीय लोकतंत्र इसी के इर्द-गिर्द है, कहने में थोड़ा संकोच हो रहा है। दरअसल भारत के लोकतंत्र के मामले में इन दिनों नये उप-विचारों का इस कदर उद्विकास हुआ कि प्रजातंत्र हाषिये पर और कमजोरतंत्र फलक पर है। बीते 21 जुलाई से मानसून सत्र जारी है। 23 दिनों तक चलने वाला यह सत्र रंजिषों से पटा है। कहा जाए तो यह राजनीतिक आजमाइष का मंच बना हुआ है, कूबत और कद की लड़ाई में मानसून सत्र पानी-पानी हो रहा है और राजनेता चुल्लू भर पानी की राजनीति में फंसे हैं। एक ओर व्यापमं से लेकर ललितगेट तक के मामले में जहां सत्ता पक्ष की बखिया उधेड़ी जा रही है वहीं सत्र की मानसूनी तरावट ने कांग्रेस जैसे कमजोर विपक्ष को मानो कोमा से बाहर आने का रास्ता बना दिया हो। प्रतिदिन संसद में नये कारनामे हो रहे हैं। विपक्षी संसद में उसी तरह जिद पर अड़े रहना चाहते हैं जैसे बरसों पहले यूपीए-2 के दौरान भाजपाई डटे थे हालांकि अतीत में झांके तो सत्ता और विपक्ष के बीच तनातनी तो देखने को मिलेगा मगर ऐसी अड़चने कभी नहीं रहीं। कहा जाता है कि एक रचनात्मक विपक्ष से भविश्य की सत्ता का निर्माण होता है पर यहां यह कहा जाना गैर वाजिब न होगा कि वर्तमान विपक्ष अपनी जमीन बनाने के चक्कर में संसद के जमीर के साथ खिलवाड़ कर रही है।
सड़क की सियासत विरोधियों को बहुत रास आती है। इन दिनों आहत संसद चिंघाड़ मार रही है पर उसकी आवाज को सभी ने अनसुना किया हुआ है। बीते दिनों जब स्पीकर सुमित्रा महाजन ने कांग्रेस के 25 सांसदों को 5 दिन के लिए निलंबित किया तो यह सोच रही होगी कि इस कार्यवाही से कांग्रेस में कुछ सुधार तो आयेगा पर इसके उलट झगड़ा सड़क तक पहुंच गया। यहां कमजोर संसदीय प्रबंधन के लिए संसदीय कार्य मंत्रालय भी जिम्मेदार है। भूमि अधिग्रहण अध्यादेष के मामले में सरकार की नरमी भी विपक्षियों को रास नहीं आई। दरअसल कांग्रेस इसलिए न मानने पर पूरा जोर दे रही है क्योंकि उसे अपने हित की चिंता अधिक है। मई 2014 में बनी मोदी सरकार से लेकर राज्यों के विधानसभा के चुनावों में जिस करारी षिकस्त का सामना कांग्रेस ने किया उससे कांग्रेस का मानो दम ही निकल गया था। सुप्ता अवस्था की कांग्रेस व्यापमं और ललितगेट के बहाने अब इस कदर ताण्डव पर उतरी है कि पूर्ण बहुमत वाली मोदी सरकार भी बेचारगी के दौर से गुजर रही है। कितनी बार मान-मनव्वल की गई, सर्वदलीय बैठकें हुई, आरोप-प्रत्यारोप से ऊपर उठने के तमाम परामर्ष आये पर विरोधी पसीजे नहीं। जिसका फलसफा यह है कि जो संसद देष की जनता के लिए अच्छे दिन लाने की कवायद में जुड़ी रहती थी आज स्वयं बुरे दौर से गुजर रही है।
कहा तो यह भी जाता है कि जब मुष्किलें बढ़ जाएं तो समझदारी को आगे कर देना चाहिए पर नई मुष्किल यह है कि समझदार होने के लिए कोई तैयार ही नहीं है। संसदीय मंत्रालय जिस कदर मामले को संभाल नहीं पा रहा है सवाल उठना लाजमी है। केन्द्रीय मंत्री महेष षर्मा ने बीते दिनों कहा था कि ‘काम नहीं तो वेतन नहीं‘ कांग्रेस ने इस पर भी पलटवार करते हुए कह डाला हम तो काम कर रहे हैं मगर झकझोरने वाला सवाल यह है कि कौन सा काम कर रहे हैं जाहिर है संसद की मुसीबत बड़ा रहे हैं, सड़क पर सियासत कर रहे हैं और पीठासीन अधिकारियों की मलानत कर रहे हैं। दुःखद यह भी है कि सब कुछ आषाओं के विपरीत हो रहा है। वर्श 1984 के 415 सीटों वाली कांग्रेस 2014 में मात्र 44 पर सिमट गयी। यहां यह कहावत भी सटीक है कि रस्सी जल गयी पर ऐंठन नहीं गयी। सत्ता पक्ष पूर्ण बहुमत में है पर निपुणता की जो कमी है उसकी आलोचना तो होनी ही चाहिए। मानसून सत्र के 23 दिन में कोई भी दिन बहस के लिए सुरक्षित न कर पाने में सरकार भी विफल रही है। सवाल तो मोदी सरकार पर भी उठता है इनके आला अफसर क्या कर रहे हैं बेतरजीब तरीके से स्थिति इस कदर क्यों बिगड़ी इस पर भी सरकार को गौर करना चाहिए। हालांकि संसद के काम-काज में बाधा नई बात नहीं है लेकिन कमजोर विपक्ष का बड़ा हंगामा तो पहले कभी न था और जो भाशा का बिगड़ैलपन आया है वह भी कभी नहीं था। 23 दिन के मानसून सत्र में 30 विधेयक को मायूसी से उबारा जाना था पर ऐसा हो न सका।
अब नजारा यह है कि जो विपक्षी संसद में दहाई में होते थे अब वे इकाई में उपस्थित हैं वो भी षोर-षराबे के साथ। स्पीकर ने निलम्बित करके इन्हें सीख देने की कोषिष की थी पर कार्यवाही भी बेजा गयी। हालांकि निलंबन से जुड़ा मामला कोई नई घटना नहीं है इसके पहले वर्श 2012 से लेकर 2013 के बीच तेलंगाना के मसले पर चार बार निलंबन की कार्यवाही हो चुकी है। निलंबन संसद की गरिमा को प्रतिश्ठित करने का ही एक उपाय है जिसका उल्लेख नियम 374-ए में बाकायदा वर्णित है जिसका प्रयोग पहली बार कांग्रेस के कार्यकाल में ही स्पीकर मीरा कुमार द्वारा किया गया था। अब हाल यह है कि खार खाए विपक्षी सदन का वाॅकआउट करने पर तुले हैं और धरना दे रहे हैं। राहुल गांधी कहते हैं कि हमें बाहर फेंक दो हम नहीं डरेंगे। संसद परिसर में ही सोनिया की अगुवाई में सरकार के खिलाफ खूब नारे बाजी हो रही है। अब मामला गंधहीन और स्वादहीन दोनों हो गया है ऐसे में सुलह के आसार नहीं दिखाई देते। अड़चन वाली बात यह भी है कि सरकार के पास भी ठोस रणनीति का आभाव है जबकि बिना विपक्ष के कानून बनाने में सरकार दो कदम भी आगे नहीं बढ़ सकती। मामले को देखते हुए यह भी अनुमान है कि स्पीकर महोदया निलंबन को समय से पहले वापस ले सकती हैं। अच्छा होगा यदि इसके सकारात्मक परिणाम देखने को मिले।
प्रधानमंत्री मोदी हमेषा कहते रहे हैं कि अच्छे दिन आने वाले हैं देखा जाए तो संसद के ही बुरे दिन आ गये हैं। ऐसे में संसद भवन भी सुषासन की प्रतीक्षा में है। भारतीय राजनीति के सामने सुषासन की दिषा में चुनौतियों की भरमार है। गरीबी, निरक्षरता, नक्सलवाद, आतंकवाद सहित दर्जनों समस्याएं मुंह बाये खड़ी हैं बावजूद इसके पक्ष और विपक्ष का ध्यान इससे विमुख है। वास्तव में यह सरकार और विपक्ष के लिए यक्ष प्रष्न बन चुका है कि सामाजिक-आर्थिक नियोजन की कमजोर दषा के लिए उत्तरदायी कौन है? स्वतंत्रता के काल से जमीन पर खड़े लोगों के बैठने का इंतजाम कौन करेगा? लड़ाई सियासत की है तो सरे आम मत कीजिए, लोकतंत्र को कश्ट होगा और जग हंसायी भी होगी साथ ही जनता में अविष्वास पनपेगा। संसद निजीपन की षिकार नहीं होनी चाहिए, जाहिर है कि कांग्रेस के मात्र 44 सदस्य देष की गारंटी नहीं हो सकते पर यह तो स्पश्ट है कि मोदी सरकार की 300 से अधिक सदस्य देष की तस्वीर जरूर बदल सकते हैं। फिलहाल जरूरत पक्ष-विपक्ष दोनों की है देष को सीख देने वाले सियासतदान भटकाव से बचते हुए उन कृत्यों को अंगीकृत करें जहां से देष की भलाई की दरिया बहती हो।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Monday, August 3, 2015

बैकफुट पर लोकतंत्र

इस बार के मानसून सत्र में अब तक जो हाल रहा है वह बेहद निराषाजनक और हताषा से भरा है। सत्र को दो सप्ताह बीत चुके हैं परन्तु गतिरोध थमने का नाम नहीं ले रहा है। 65 वर्शों के लोकतंत्र में षायद ही कभी ऐसा रहा हो कि मान्यता प्राप्त विपक्ष न होने के बावजूद भी सरकार के नाक में दम हुआ हो। वैसे तो सभी विरोधी इकाई और दहाई तक सीमित है पर दहाड़ने के मामले में सैकड़ों का सुर रखते हैं। चैतरफा यह मांग उठने लगी है कि अड़चनों को दूर कर सत्र को कारगर बनायें मगर अभी तक इसका कोई फर्क देखने को नहीं मिला है। सोमवार को गतिरोध दूर करने के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाई गयी पर उसके ठीक एक दिन पहले रविवार को जो घमासान हुआ उससे सहज अंदाजा लगाया जा सकता था कि यह बैठक एक नाउम्मीदी से भरी एक कोषिष मात्र ही सिद्ध होगी। अब तो स्थिति खतरे के निषान से ऊपर उठ चुकी है। कांग्रेस और वामदल इस्तीफे वाले मामले पर अड़े हैं। सुशमा, षिवराज और वसुंधरा के इस्तीफे पर समझौता न करने वाली कांग्रेस ने हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री और उनके सांसद पुत्र अनुराग पर निषाना साध कर भ्रश्टाचार के मोर्चे पर सियासी जंग को और तेज कर दिया है। इससे यह स्पश्ट होता है कि लोकतंत्र को बैकफुट पर ले जाने की और बड़ी तैयारी हो रही है। फिलहाल जिस प्रकार देष की कार्यविधि संसदीय झगड़ों में उलझ कर रह गयी है उससे साफ है कि सरकार और विपक्ष दोनों से बड़ी भलाई की उम्मीद करना बेमानी है।
लोकतंत्र का इस प्रकार बैकफुट पर जाना देष को पीछे धकेलने जैसा है। संसद को हल्ले और हंगामे का केन्द्र बिन्दु बनाने वाले सीमायें लांघ रहे हैं। पीठासीन अधिकारियों की जम कर अवमानना की जा रही है और प्ले कार्ड लहराये जा रहे हैं। एक ओर गुरदासपुर में आतंकी हमला हो रहा है तो दूसरी ओर संसद में हंगामा काटा जा रहा है। देखा जाए तो निर्दोशों की गयी जान भी इन्हें एकजुट न कर पायी। बीते दिनों गृहमंत्री आतंकी हमले को लेकर संसद में बयान दे रहे थे और इसी दौरान नरेन्द्र मोदी हाय-हाय के नारे लग रहे थे। विडम्बना यह है कि आतंक के मामले में राजनीति न करने की दुहाई देने वाले राजनीतिज्ञ अपने ही वचनों को भूल गये हैं। घटनाक्रम ने लोकतंत्र को भी स्तब्ध कर दिया है और देष की जनता अपने नुमाइन्दों की करतब देख कर पानी-पानी हो रही है। यह दृष्य भारत तक ही सीमित नहीं है जो मोदी विष्व के चारों कोनों में भारत की ताकत का लोहा मनवाने का बूता रखते हैं अब उनका हश्र दुनिया भी देख रही है और ऐसा नजारा दिखाने वाले लोकतंत्र के पैरोकार ही हैं। सवाल उठता है कि राश्ट्र और नागरिक की सुरक्षा को लेकर किसे चिंता है? संसद इन दिनों लफ्बाजी का अखाड़ा बन गयी है, षोरगुल में डूबी रहती है। देष के मामले में दिलचस्पी नहीं लेती है। देष के हालात सुधारने का मानो अब संसद पैमाना ही न हो। विपक्षी सत्ता पक्ष को नीचा दिखाने के फेर में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं। ठप संसद के चलते राश्ट्रीय हित चकनाचूर हो रहे हैं।
संसद के इस तरह बाधित होने से कई तुनक मिजाजी से भरे सवाल उठ रहे हैं। बीते दिनों केन्द्रीय मंत्री महेष षर्मा ने सुझाव दे डाला ‘काम नहीं तो वेतन नहीं‘ पर कांग्रेस का पलटवार हुआ। इस पर भी कांग्रेस की नजर तीखी ही रही। जयराम रमेष ने तो कह दिया कि हम काम कर रहे हैं। पूछा जाए कि कौन-सा काम कर रहे हैं? जवाब साफ है हंगामा मचा रहे हैं। सांसद कड़ी मेहनत के साथ काम कर रहे हैं इसका उत्तर भी साफ है सारी कूबत लोकतंत्र को बैकफुट पर ले जाने की हो रही है। सरकार एक ही भाशा जो पिछले कई दिनों से बोल रही है कि विपक्ष आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति से बचे। संसदीय कार्यमंत्री वैंकेया नायडु ने इसे फिर दोहरा दिया पर इनसे भी पूछा जाए कि आरोपियों को बचाने में आप ने भी तो कोई कमी नहीं छोड़ी। सरकार की जिम्मेदारी सत्र की मरम्मत करके उसे पटरी पर लाना है पर तोड़फोड़ में तो सरकार भी षामिल है। नये आरोपों से घिरी भाजपा सरकार कांग्रेस के पुराने आरोपों को उखाड़ कर सुरक्षा कवच तलाष रही है। सच्चाई यह भी है कि सरकार के पास भी विपक्ष के प्रष्नों का उचित जवाब नहीं है न ही पक्ष यह मन्तव्य रखता है कि विपक्ष के सवाल वाजिब हैं। ऐसे में कौन कमतर हो और क्यों? आसानी से समझा जा सकता है। आखिर संसद में फैले अनबन को कब तक झेला जाएगा? देष कब तक हंगामे वाले तमाषे को देखता रहेगा?
मोदी से पहले मनमोहन सरकार के दूसरे कार्यकाल में व्यापमं की तरह ही कई व्यापक घोटाले हुए थे। तब भाजपा ने विपक्षी के तौर पर कांग्रेस के नाक में दम कर दिया था। औसतन सत्र कमोबेष हंगामे से परिपूर्ण थे परन्तु जिस प्रकार के हंगामे से मानसून सत्र गुजर रहा है ऐसा विरोध तो नहीं था। मोदी सरकार की मुष्किल यह है कि विपक्ष में फूट के बावजूद कांग्रेस के बिना वह राज्यसभा में जीएसटी पारित नहीं करा सकती। सर्वदलीय बैठक भी रस्म अदायगी ही साबित हुई। ऐसे में मोदी सरकार के सम्मुख समस्या यह खड़ी हो रही है कि जनता के वायदों का क्या जवाब देंगे? मौजूदा सत्र में ऐसे कई कानूनों का निर्माण होना है जिसमें देष के भविश्य का गहरापन छुपा हुआ है। आर्थिक मामलों में यदि सही निपटारा नहीं हुआ तो अर्थव्यवस्था पर इसका बुरा असर पड़ेगा जिसके चलते सरकार को भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। सरकार ने घर और जीवन देने का जो वादा जनता से किया है उसका क्या होगा? देष की जनता सांसदों को वाद-प्रतिवाद के लिए नहीं बल्कि संवाद के लिए विधायिका में भेजती है। मगर गम्भीर चिंता यह है कि संवाद के स्थान पर विवाद सर चढ़ कर बोल रहा है। वैसे तो ऐसा कम ही रहा है कि विरोध के सुर इतने लम्बे खिंचे हों पर इसकी रोकथाम के लिए क्या विधान हो इसे लेकर संविधान भी कारगर होता प्रतीत नहीं होता। लोकसभा के स्पीकर और राज्यसभा के सभापति का दायित्व है कि सत्र को चलायें पर जब चलने वाले ही ठप करने पर अमादा हों तो कैसे सम्भव होगा?
बीते सोमवार को संसद एक बार फिर चली पर ब्रेक और हो-हंगामे के साथ। राहुल और सोनिया की विरोध वाली राजनीति की लगाम में जरा भी ढीलापन नहीं आया। मनसूबा तो यह भी है कि हर हाल में सरकार को इस सत्र में इस्तीफे वाले भंवर जाल में फंसा कर रखो। विदेष मंत्री सुशमा स्वराज बार-बार चीख रही हैं कि उन्होंने ललित मोदी की मदद नहीं की है। विपक्षी हैं कि अनसुना किये बैठे हैं। ललितगेट और व्यापमं दो ऐसे मुद्दे हैं जो साल भर में एक बार आने वाले मानसून सत्र की काल के ग्रास बन गये हैं। 23 दिवसीय यह सत्र जिस त्रासदी से गुजर रहा है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि देष की समस्याओं का समाधान खोजने वाली संसद आज स्वयं में एक समस्या बन कर रह गयी है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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