Wednesday, December 19, 2018

कर्जमाफ़ी स्पर्धा और अन्नदाता

यह बात वाजिब ही कही जायेगी कि कृशि प्रधान भारत में कई सैद्धान्तिक और व्यावहारिक कठिनाईयों से किसान ही नहीं सरकारें भी जूझ रही हैं अंतर केवल इतना है कि किसान कर्ज के कारण मर रहा है और सरकारें राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में फंसी हैं। बीते 70 सालों में किसान सरकारों के केन्द्र में रहे पर मतदाता के तौर पर उन्हें मनमाफिक न तो पैदावार की कीमत मिली और न ही समुचित जिन्दगी। खाली पेट वे खेत-खलिहानों से अन्न बटोरते रहे और दुनिया का पेट भरते रहे। दास्तां बहुत अजीब है इतनी की रास्ता सुझाई नहीं देता। यही कारण है कि किसानों की राह कभी समतल नहीं बन पायी। सियासत के तराजू पर किसान हमेषा तुलता रहा और कीमत मिलते के बजाय वह ठगा जाता रहा। मोदी सरकार किसानों को डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की बात कह रही है पर हकीकत में यह सही नहीं है। 2014 की तुलना में जो कीमत 2018 में दिया गया वह डेढ़ गुना हो सकता है पर 2017 की तुलना में मामूली बढ़त है। वाकई में यदि सरकार चिंतित है तो स्वामीनाथन रिपोर्ट लागू करके दिखाये जिसे लेकर वे षायद जानबूझकर अनभिज्ञ रहते हैं। हालांकि नई बात यह है कि बीते 17 दिसम्बर से मध्य प्रदेष, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस सरकार का उदय हुआ और सुखद समाचार यह है कि इस उदय का किसानों की भलाई से बड़ा सरोकार है। चुनावी वायदों के मुताबिक कांग्रेस की मध्य प्रदेष में सरकार बनते ही किसानों की कर्ज माफी की घोशणा कर दी। यही काम छत्तीसगढ़ ने षपथ के कुछ घण्टे के भीतर ही कर दिया। राहुल गांधी की यह ललकार है कि कर्जमाफी के मुद्दे पर वह लोकसभा चुनाव लड़ेंगे और जब तक किसानों का कर्जमाफी नहीं होता वे प्रधानमंत्री मोदी को चैन से सोने नहीं देंगे। 
कांग्रेस के इस कदम से किसानों की कर्जमाफी को लेकर भाजपा षासित राज्य पेषोपेष में फंस गये हैं। भले ही कर्ज माफी का दांव सियासी हो पर किसानों को राहत देने का मन इतर सरकारें भी बना रही हैं। बीजेपी षासित राज्यों ने भी कर्जमाफी का काम षुरू कर दिया है। गुजरात सरकार द्वारा 625 करोड़ रूपए का बकाया माफ करने का एलान किया जा चुका है। असम सरकार ने भी 600 करोड़ रूपए के कृशि कर्ज माफ करने को मंजूरी दे दी है। हालांकि यह असम में किसानों का 25 प्रतिषत की सीमा तक ही है। गौरतलब है कि असम में 8 लाख किसानों को यह लाभ होगा। किसानों को साधने की कांग्रेस की रणनीति से भाजपा अब स्वयं को बैकफुट पर समझ रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव में यदि यह सियासी लड़ाई कर्जमाफी के प्रतिस्पर्धा में फंसती है तो मजबूरन भाजपा को बड़ी जीत के लिए बड़ा दिल दिखाना होगा। हालांकि केन्द्र की ओर से एकमुष्त कर्जमाफी की सम्भावना कम ही दिखाई देती है। भाजपा की उड़ीसा इकाई ने प्रदेष के लोगों से वायदा किया कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में अगर वह सत्ता में आती है तो किसानों के कर्ज माफ कर दिये जायेंगे। भाजपा की उड़ीसा इकाई द्वारा किया गया यह वायदा तब और विष्वास में बदलना आसान होगा जब मौजूदा भाजपा षासित प्रदेष किसानों को कर्ज से मुक्ति दे देंगे। चुनावी साल में किसानों का ऋण माफी का दांव काफी सफल प्रतीत होता है। बड़ी-बड़ी बात करने वाली भाजपा सरकार अब छोटे और मझोले किसानों की ओर रूख जरूर करेगी। किसानों की नाराजगी दूर करने के लिए भाजपा राहत का पिटारा खोल सकती है क्योंकि बीते 11 दिसम्बर को पांच राज्यों के नतीजों ने भाजपा को षिखर से सिफर की ओर कर दिया है। साफ है कि भाजपा सरकार से मतदाता का मोह भंग हुआ है। आरएसएस ने भी चेताया है कि तीन राज्यों में करारी हार के बाद यह स्पश्ट है कि सरकार और भाजपा को किसानों की नाराजगी समझनी होगी। कहा तो यह भी गया कि इनकी अनदेखी आने वाले चुनाव पर भारी पड़ सकती है। 
एक ओर भाजपा को हराने के लिए महागठबंधन की जोर आजमाइष हो रही है तो दूसरी ओर कर्ज माफी में कांग्रेस आगे न निकल जाये इसे लेकर भी भाजपा का सियासी पेंच खतरे में है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि किसानों की उपजी समस्याओं को लेकर सरकारों ने कुछ खास संवेदनषीलता नहीं दिखाई। 70 साल बाद भी किसान न केवल कर्ज की समस्या से जूझ रहा है बल्कि आत्महत्या की दर को भी बढ़ा दिया है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को जो आंकड़ा कुछ समय पहले उपलब्ध कराया था उससे यह पता चलता है कि प्रतिवर्श 12 हजार किसान आत्महत्या कर रहे हैं। कर्ज में डूबे और खेती में हो रहे घाटे को किसान बर्दाष्त नहीं कर पा रहे हैं। मौजूदा सरकार 2013 से किसानों के आत्महत्या के आंकड़े जमा कर रही है। साल 2014 और 2015 में कृशि क्षेत्र से जुड़े 12 हजार से अधिक लोगों ने आत्महत्या की थी जबकि 2013 में आंकड़ा थोड़ा कम था। साल 1991 के उदारीकरण के बाद देष की तस्वीर बदली पर किसानों की तकदीर नहीं बदली। सबसे पहले 1992-93 के दौर में किसानों की आत्महत्या का सिलसिला महाराश्ट्र के विदर्भ से षुरू हुआ और आज भी सबसे ज्यादा आत्महत्या महाराश्ट्र के किसान ही कर रहे हैं। बीते 25 वर्शों में 3 लाख से अधिक किसान इस दुनिया को अलविदा कह चुके हैं। गौरतलब है कि किसानों की आत्महत्या के मामले में कर्नाटक दूसरे नम्बर पर है उसके बाद तेलंगाना और मध्य प्रदेष जैसे राज्य देखे जा सकते हैं। अब कर्जमाफी के चलते सम्भव है कि आत्महत्या के आंकड़े में गिरावट दर्ज होगी। दो टूक यह भी है कि देष में कहीं भी किसान बिना कर्ज के नहीं है और कोई भी राज्य किसान आत्महत्या विहीन नहीं है।
किसानों की ऋणमाफी समेत कई वायदे करके अस्तित्व के लिए संघर्श कर रही कांग्रेस ने जिस तरह वापसी की है उसे जीत का न केवल स्वाद मिला है बल्कि इस स्वाद को आगे भी बनाये रखने की फिराक में है। कांग्रेस यह समझ गयी है कि देष का मतदाता किसान और युवा है इनसे वायदे करो, सत्ता में आओ और झट से वायदा निभाओ। इसी तर्ज पर मध्य प्रदेष और छत्तीसगढ़ में किसानों की कर्जमाफी करके 2019 का सपना राहुल गांधी ने आंखों में उतार लिया है। कह सकते हैं कि यह दूर की कौड़ी है पर हालिया जीत की भी तो उम्मीद नहीं थी। राहुल गांधी मोदी सरकार पर किसानों को लेकर कहीं अधिक निषाना साधते रहे हैं। नोटबंदी को दुनिया का सबसे बड़ा स्कैम कहने से भी वे नहीं हिचकते और यह भी तोहमत देते हैं कि अपने मित्रों को पैसा बांटने का किया गया। उद्योग जगत के सरपरस्त का आरोप भी मोदी सरकार पर लगता रहा है। अम्बानी, अडानी के इर्द-गिर्द उन्हें माना जाता रहा। भले ही मोदी किसानों के लिए कुछ करने की भारी-भरकम बात कही हो पर कर्जमाफी में तो वे फिसड्डी ही रहे। इस मामले में राहुल गांधी उनसे बेहतर इसलिए प्रतीत हो रहे हैं क्योंकि वे किसानों के मुद्दे को उठा भी रहे हैं और जीत में बदलने का न केवल काम कर रहे हैं बल्कि उन्हें कर्ज से राहत भी दी साथ ही इसके लिए स्पर्धा भी विकसित करने का काम किया। फिलहाल तीन राज्यों में जीत के बाद कांग्रेस ने कर्जमाफी को हथियार बना लिया है। मामला चाहे जैसा हो अन्नदाता राहत में तो है पर इस राहत से भाजपा बेचैन है जो बरसों से सत्ता में है और कर्जमाफी के मामले में बड़ा हृदय दिखाने में चूक गये। देखा जाय तो बीजेपी षासित प्रदेष अब कर्जमाफी में कांग्रेस षासित प्रदेषों की देखा-देखी कर रहे हैं। साफ है कि उनका दृश्टिकोण किसानों को लेकर प्रतिस्पर्धा के कारण विकसित हुआ न कि वे स्वयं संवेदनषील थे। हालांकि उत्तर प्रदेष की योगी सरकार 36 हजार करोड़ की कर्जमाफी पहले कर चुकी है। स्थिति से तो यही लगता है कि किसानों की राह कुछ तो समतल होगी। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Tuesday, December 18, 2018

व्यवस्था एवम उपयोग का बड़ा साधन ई-गवर्नेंस

तकनीक किस सीमा तक षासन-प्रषासन की संरचना को तीव्रता देती है और किस सीमा तक संचालन को प्रभावित करती है। यदि इसे असीमित कहा जाय तो अतार्किक न होगा। प्रौद्योगिकी मानवीय पसंदों और विकल्पों द्वारा निर्धारित परिवर्तनों का अनुमान ही नहीं बल्कि परिणाम भी है। ई-गवर्नेंस एक ऐसा क्षेत्र है और एक ऐसा साधन भी जिसके चलते नौकरषाही तंत्र का समुचित प्रयोग करके व्याप्त व्यवस्था की कठिनाईयों को फिलहाल समाप्त किया जा सकता है और इस दिषा में कदम आगे बढ़ चुके हैं। नागरिकों को सरकारी सेवाओं की बेहतर आपूर्ति, प्रषासन में पारदर्षिता की वृद्धि साथ ही सुषासन प्रक्रिया में व्यापक नागरिक भागीदारी को मनमाफिक पाने हेतु ई-गवर्नेंस कहीं अधिक प्रासंगिक हो गया है। सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है भारत में उदारीकरण के बाद यह परिलक्षित हुआ जिसका सीधा आषय समावेषी विकास है जबकि भारत अभी इस मामले में मीलों पीछे है। इतना ही नहीं प्रषासनिक प्रक्रिया से लालफीताषाही और कागजी कार्यवाही में कटौती भी सुषासन की ही राह है जिसे ई-षासन से सम्भव किया जा सकता है। ई-गवर्नेंस, स्मार्ट सरकार के द्वन्द को भी समाप्त करने में भी यह मददगार है। सरकार के समस्त कार्यों में प्रौद्योगिकी का अनुप्रयोग ई-गवर्नेंस कहलाता है जबकि न्यूनतम सरकार अधिकतम षासन, प्रषासन में नैतिकता, जवाबदेहिता, उत्तरदायित्व की भावना व पारदर्षिता स्मार्ट सरकार के गुण हैं जिसकी पूर्ति ई-षासन के बगैर सम्भव नहीं है। भारत सरकार ने इलेक्ट्राॅनिक विभाग की स्थापना 1970 में की और 1977 में राश्ट्रीय सूचना केन्द्र की स्थापना के साथ ई-षासन की दिषा में कदम रख दिया था मगर इसका मुखर पक्ष 2006 में राश्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना के प्रकटीकरण से देखा जा सकता है। देखा जाय तो दक्षता, पारदर्षिता और जवाबदेहिता ई-षासन की सर्वाधिक प्रभावी उपकरण है। बरसों से सरकारें इस बात को लेकर चिंतित रही हैं कि प्रषासनिक प्रक्रियाओं को कैसे सरल किया जाय, कैसे अनावष्यक देरी को खत्म किया जाय, नीति निर्माण से लेकर नीति क्रियान्वयन तक कैसे पारदर्षिता लायी जाय इन सभी से निजात दिलाने में ई-गवर्नेंस से बेहतर कोई विकल्प नहीं।
डिजिटल इण्डिया की सफलता के लिये मजबूत डिजिटल आधारभूत संरचना भी तैयार करना जरूरी है। भारत में ढ़ाई लाख ग्राम पंचायतें हैं जिसमें 3 नवम्बर 2018 तक करीब एक लाख बीस हजार ग्राम पंचायतों को हाई स्पीड नेटवर्क से जोड़ दिया गया है। सम्भव है कि ग्रामीण सुषासन हेतु ऐसे नेटवर्क कहीं अधिक अपरिहार्य हैं। इससे गांव न केवल डिजिटलीकरण से युक्त होंगे बल्कि बुनियादी और समावेषी जरूरतों को भी पूरा कर पायेंगे। षैक्षणिक और षोध संस्थानों के बीच आदान-प्रदान अत्याधुनिक नेटवर्क के माध्यम से खूब किया जा रहा है। राश्ट्रीय ज्ञान नेटवर्क ने कई तरह के एप्लीकेषन तैयार कर देष भर में इसे बढ़ाने में मदद दी है। डिजिटल सेवाओं के अन्तर्गत जो ई-गवर्नेंस का एक बेहतरीन उपकरण है जिसका तेजी से देष में फैलाव हो रहा है। इसका अंदाजा इन्हीं बातों से लगाया जा सकता है कि एक करोड़ से अधिक छात्र-छात्रायें राश्ट्रीय छात्रवृत्ति हेतु ई-पोर्टल से जुड़ चुके हैं जिन्हें बीते 3 सालों में 5 हजार करोड़ से अधिक का भुगतान किया जा चुका है। जीवन प्रमाण के आधार पर देखें तो ई-अस्पताल और आॅनलाईन रजिस्ट्रेषन सेवा षुरू हो चुकी है। मरीज और डाॅक्टर सम्बंध कायम हो रहे हैं। देष के 318 अस्पताल में यह लागू है। इसी तरह मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना जिसके तहत 13 करोड़ कार्ड जारी हो चुके हैं, इलेक्ट्राॅनिक राश्ट्रीय कृशि बाजार जिसके अंतर्गत 93 लाख किसान जोड़े गये हैं जो देष के 16 राज्यों में 585 से भी ज्यादा बाजारों को इस नेटवर्क से सम्बंधित हैं। ई-वीजा के चलते भी 163 देषों के पर्यटकों को जोड़ने का काम जारी है। अब तक 41 लाख ई-वीजा जारी किये जा चुके हैं। ई-अदालत के चलते देष भर के विभिन्न अदालत में चल रहे मुकदमे पर निगरानी रखना आसान हुआ है जबकि न्यायिक डेटा ग्रिड के कारण लम्बित पड़े मुकदमे, निपटाये जा चुके मामले और हाई कोर्ट और जिला अदालतों में दायर मुकदमों के बारे में सूचना उपलब्ध होना आसान हुआ है। इसमें दीवानी और फौजदारी दोनों तरह के मामले षामिल हैं। इसके अलावा देष भर में आम लोगों को डिजिटली साक्षरता प्रदान करना, छोटे षहरों में बीपीओ को बढ़ावा देना साथ ही रोज़गार उद्यमिता और सषक्तीकरण के लिए डिजिटल इण्डिया एक बेहतरीन परिप्रेक्ष्य लिये हुए है जिसके चलत ई-गवर्नेंस को तेजी से मजबूती मिल रही है। 
वैसे ई-गवर्नेंस के उद्देष्य में जो मुख्य बातें हैं उनमें भ्रश्टाचार कम करना, अधिक से अधिक जन सामान्य के जीवन में सुधार करना, सरकार और जनता के बीच पारदर्षिता लाना, सुविधा में सुधार करना, जीडीपी में वृद्धि करना और सरकारी कार्य में गति बढ़ाना आदि है। वर्तमान में एक नई आवाज के रूप में ई-प्रषासन व ई-गवर्नेंस को देखा जा सकता है। इलेक्ट्राॅनिक के माध्यम से कार्य करना आसान हुआ है पर दुरूपयोग के कारण अपराध भी बढ़े हैं। साइबर अपराधों की गति और भौगोलिक सीमाओं में निरन्तर वृद्धि हो रही है। इसकी चूक ने जल, थल और आकाष सभी दिषाओं में अपराध का विस्तार किया है। वित्तीय धोखाधड़ी से लेकर बौद्धिक धोखाधड़ी समेत कई प्रकार के अपराध इसके साइड-इफैक्ट भी हैं। सभी जानते हैं कि ई-षासन के क्षेत्र में डाटा और सूचना दो चीजे हैं इसलिए इससे जुड़े अपराध भी इसी से सम्बंधित हैं। फेसबुक पर भी यह आरोप रहा है कि उसने डेटा का हेरफेर किया है। हमेषा यह चिंता रही है कि छोटी सी चूक डेटा और सूचना में सेंध लगा सकती है। ऐसे में डिजिटल इण्डिया के साथ सचेत इण्डिया का संदर्भ भी ई-व्यवस्था में निहित देखा जा सकता है फिलहाल ई-षासन से दक्षता का विकास हुआ है, प्रषासन की जवाबदेहिता बढ़ी है और जनता को लाभ भी पहुंचा है। यहां यह समझना जरूरी है कि ई-गवर्नेंस सब कुछ नहीं देगा बल्कि जो चाहिए उसमें पारदर्षिता और तीव्रता लायेगा। इसमें कोई षक नहीं ई-गवर्नेंस के कारण नौकरषाही का कठोर ढांचा नरम हुआ है और इन्हें कहीं अधिक लक्ष्योन्मुख बनाया है। षिक्षा, स्वास्थ्य व गरीबी इत्यादि विविध क्षेत्र हैं जो राश्ट्र को हमेषा चुनौती देते रहे हैं। इन्हें दूर करने और संसाधनों की प्रभावी उपयोगिता हेतु षासन व प्रषासन निरंतर प्रयासरत् रहा है। इसी प्रयास को ई-गवर्नेंस तेजी से लक्ष्योन्मुख करने में मददगार हुआ है। षासन-प्रषासन में प्रौद्योगिकी कितनी महत्वपूर्ण है इसका अंदाजा इसमें व्याप्त पारदर्षिता से आंका जा सकता है। 
विकास के नये आयाम के रूप में ई-गवर्नेंस को प्रतिश्ठित रूप में देखा जा सकता है। रफ्तार भले ही धीमी रही हो पर असर व्यापक है। भारत दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था है और डिजिटल तकनीक में यह और तेजी ले सकती है। सब कुछ स्मार्ट हो रहा है इस क्रान्ति ने आम आदमी को भी स्मार्ट बना रहा है। मोबाइल षासन का दौर है जो ई-षासन को और भी प्रासंगिक बना रहा है। डिजिटल बदलाव की जो लहर है वह सरकार के लिए भी राहत है क्योंकि कई कोषिषें नागरिक अब स्वयं करने लगे हैं। भारतीय वैष्विक अर्थव्यवस्था भी बदल रही है और सेवाओं का तौर-तरीका भी बदला है। अब कतार में खड़े होने के बजाय डिजिटीकरण से सम्भव हो गया है। भारत का षानदार आईटी उद्योग तेजी लिए हुए है इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि इस उद्योग ने देष का नक्षा बदल दिया है। राश्ट्रीय गवर्नेंस योजना जो 2006 से षुरू हुई बीते एक दषक में बड़ा विस्तार ले चुकी है। सरकार भी अधिकतम नहीं होना चाहती बल्कि अधिकतम गवर्नेंस करना चाहती है। ई-गवर्नेंस ने यहां भी काम आसान कर दिया है। हालांकि राजनीतिक तौर पर सरकार के भीतर कई मजबूरियां हैं पर उदारीकरण से लेकर सूचना के अधिकार तक तत्पष्चात् राश्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना और डिजिटीकरण ने सुषासन की राह को जिस कदर चैड़ा किया है उससे स्पश्ट है कि ई-गवर्नेंस व्यवस्था उपयोग का बहुत बड़ा उपकरण है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Tuesday, December 11, 2018

मोदी मैजिक के बीच राहुल की वापसी

बड़ी जीत का दावा करने वाली भाजपा 5 राज्यों के चुनाव में औंधे मुंह गिरी है। भाजपा बिन पानी मछली की तरह अगर तड़प रही है तो कांग्रेस जीत के सरोवर में गोते लगा रही है। ऐसा पहली बार है जब बीते साढ़े चार सालों में 5 राज्यों में भाजपा ने चुनाव लड़ा हो और परिणाम सिफर रहे हों। राजस्थान और मध्य प्रदेष में हुए क्रमषः 200 व 230 विधानसभा सीटों के बीच कांटे की टक्कर भाजपा और कांग्रेस के बीच रही पर सत्ता को लेकर जो बड़े पैमाने पर सीट जीतने का सपना था वो भाजपा का पूरा नहीं हुआ। हालांकि राजस्थान में एक उम्मीदवार की मृत्यु के कारण चुनाव 199 सीटों पर ही हुए थे। 90 विधानसभा वाले छत्तीसगढ़ में जिस कदर बीजेपी निस्तोनाबूत हुई उसकी उम्मीद न तो वहां के मुख्यमंत्री रमन सिंह को थी न तो प्रधानमंत्री मोदी को रही होगी और न ही राजनीतिक जानकार को यह संज्ञान रहा होगा। इतना ही नहीं 119 सीटों वाली तेलंगाना में जिस तरह का प्रदर्षन केसीआर की पार्टी टीआरएस ने की वह भी भारतीय राजनीति में बड़ा महत्व का है। जिसके प्रभाव से 2019 का लोकसभा चुनाव प्रभावित हुये बगैर षायद ही रह पाये। उत्तर पूर्व के राज्य मिजोरम में 40 सीटों के मुकाबले जिस तरह के नतीजे दिखे उसमें कांग्रेस का किला ढहा है और बीजेपी की उम्मीदों पर कुठाराघात हुआ है। हालांकि यहां बीजेपी को खोने के लिए कुछ नहीं था पर कांग्रेस ने एमएनएफ के हाथों अपनी सत्ता गंवा दी। चुनावी समर को षिद्दत से समझा जाय तो यह आभास होगा कि इस चुनाव में सबसे ज्यादा भाजपा ने खोया है और कांग्रेस ने छप्पर फाड़ कर पाया है। मोदी का चेहरा परोस कर चुनाव जीतने वाली भाजपा षायद यह मंथन जरूर करेगी कि यह हश्र क्यों हुआ। राजनीतिक पटल पर ऐसा बहुधा होता रहता है कि चमत्कार हर बार नहीं होते और ऐसा भी रहा है कि वोटर किसी के लिए स्थायी जायदाद नहीं होते। सरकार और सत्तासीन लोग जब जनहित को सुनिष्चित करने के बजाय सत्ता हथियाने के चाल-चरित्र पर चल पड़ते हैं तब षायद यही सबब होता है जैसा कि 11 दिसम्बर के चुनावी नतीजे में बीजेपी को देखना पड़ा है। 
क्या नरेन्द्र मोदी एक जिताऊ नेता हैं, चतुर राजनीतिज्ञ हैं और देष के मर्म को समझने वाले मर्मज्ञ षासक व प्रषासक हैं। इसमें कोई गुरेज नहीं कि सभी का जवाब हां में ही होगा मगर बीते 11 दिसम्बर को जो नतीजे सामने देखने को मिले क्या उसके बाद उनके मैजिक पर पूरा भरोसा किया जा सकता है। एक रोचक बात यह है कि आज से डेढ़ साल पहले 2017 में 11 मार्च को उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेष विधानसभा चुनाव के नतीजे आये थे जहां सत्तासीन कांग्रेस उत्तराखण्ड में 70 के मुकाबले 11 पर सिमट गयी थी और भाजपा 57 सीट हथियाई थी उत्तर प्रदेष की स्थिति तो और बेजोड़ थी। यहां 403 के मुकाबले 325 सीट हथियाने वाली बीजेपी इतिहास ही रच डाला था। लोकतंत्र के इतिहास में ऐसा कम अवसर रहा है जब इतनी बड़ी जीत किसी दल ने किसी दल के मुकाबले पायी हो। तब पूरा देष मोदी मैजिक मानता था और राहुल गांधी जिनकी बांछे मौजूदा चुनाव में कहीं अधिक खिली हुई हैं वो इन प्रदेषों में धूल फांक रहे थे। राजस्थान, मध्य प्रदेष और छत्तीसगढ़ के नतीजों से मामला उलट हो गया है। कह सकते हैं कि मोदी मौजिक के बीच रसातल में जा चुकी कांग्रेस की राहुल गांधी ने वापसी करा दी है। इतना ही नहीं यह परिणाम ऐसे अवसर पर आया है जब राहुल गांधी की कांग्रेस अध्यक्ष बनने की वार्शिकी भी है। ठीक आज ही के दिन उनके अध्यक्ष के पद पर ताजपोषी हुई थी। यह महज एक इत्तेफाक है। राजस्थान के मतदाताओं ने 2013 में जिस पायदान पर भाजपा को रखा था उससे इन 5 सालों में नाराज क्यों हुए और बीते 15 सालों से मध्य प्रदेष और छत्तीसगढ़ में सत्तासीन भाजपाई कमजोर कांग्रेस और उसके अगुवा के आगे हथियार क्यों डाल दिये। मुख्यतः छत्तीसगढ़ के मामले में यह बात बहुत संवेदनषील है। जिस तरह भाजपा के किले में कांग्रेस ने सेंध मारी है उससे भाजपा के पूरे राजनीतिक गणित को सिरे से छिन्न-भिन्न कर दिया है। मंथन करें या न करें पर भाजपा को सबक तो जरूर लेना चाहिए। 
बीते 7 दिसम्बर को एक्जिट पोल के नतीजे भी अपनी मिलीजुली राय पहले ही दे चुके थे। भाजपा के मध्य प्रदेष और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस से कड़ी चुनौती बता रहे थे तो राजस्थान में वसुंधरा की कुर्सी जा सकती है की बात भी थी। सच्चाई यह है कि कांग्रेस ने कड़ी टक्कर दी मगर छत्तीसगढ़ में ऐसा नहीं रहा। यहां कांग्रेस ने एकतरफा जीत हासिल की है। भाजपा को झटका और कांग्रेस को वापसी का जो अवसर मिला है इसे कई 2019 लोकसभा का सेमी फाइनल भी मान रहे हैं। इसमें भी राय बंटी हुई है इस बात से थोड़ा-मोड़ा सहमत हुआ हुआ जा सकता है कि विधानसभा और लोकसभा के चुनावी मुद्दे भिन्न होते हैं पर मोदी षासनकाल में जिस तरह भाजपा चुनाव जीती है उससे यह कहीं नहीं लगता कि उन्होंने राज्य और केंद्र के चुनाव में कोई बड़ा अंतर एजेण्डे को लेकर किया है। भाजपा इस आरोप से नहीं बच सकती कि प्रधानमंत्री समेत तमाम केन्द्रीय मंत्री, विभिन्न प्रदेषों के मुख्यमंत्री और अनगिनत नेताओं को मैदान में उतारकर जनता के बीच एक ऐसा वातावरण बनाने का काम करती रही है साथ ही रैलियों का अम्बार लगाकर जनता का मत अपनी ओर खींचने की कोषिष भाजपा करती रही है। यह भी सच है कि भाजपा चुनाव जीतने के तरीकों को जिस धुरी पर लेकर चलती थी उससे जनता ऊब रही थी। किसान, बेरोजगार और बीमार की चर्चा कम धर्म, जाति, क्षेत्र और नाना प्रकार के आभामण्डल का प्रभाव रैलियों में अधिक होता था। हालांकि भाजपाई इस बात को मानेंगे नहीं पर बुनियादी नीतियों से भाजपा जनता से इन दिनों कटती जा रही थी। कांग्रेस इन नीतियों पर चल रही थी या नहीं यह षोध का विशय है पर भाजपा के कर्मकाण्डी दृश्टिकोण को मसलन मन्दिर-मन्दिर को कांग्रेस ने अपनाकर कुछ वैसा ही फायदा लेने की कोषिष की जैसा भाजपा करती रही है।
मजे की बात यह है कि हिन्दू कर्मकाण्ड और मन्दिर-मन्दिर की अवधारणा अपनाने के बावजूद राहुल गांधी धर्मनिरपेक्ष रहे जबकि भाजपा पर साम्प्रदायिक होने का आरोप लगता रहता है। भाजपा के षीर्श विचारकों को यह समझ आ जानी चाहिए कि जनता की नब्ज उनके हाथों से खिसक रही है। कांग्रेस का यह पलटवार बहुत दूर तक और देर तक असर डालेगा और सर्वाधिक असर 2019 के लोकसभा चुनाव पर पड़ सकता है। कांग्रेस की इस मजबूती से तीन बातें हुई हैं पहला राहुल गांधी को अब कोई हल्का नेता समझने की गलती नहीं करेगा। दूसरा भाजपा की कांग्रेस विहीन भारत की नीति छिन्न-भिन्न हुई हैं। तीसरा यह कि कांग्रेस मनोवैज्ञानिक लाभ के साथ अब भाजपा से भविश्य में और कड़ाई से मुकाबला करेगी और महागठबंधन के रास्ते थोड़े सहज हो सकते हैं। मात्र एक बार का चुनाव कांग्रेस को ऐसी संजीवनी दे दी है जो उसकी पूरी जीवनी को बदल सकता है। कार्यकत्र्ताओं में जान फूंक सकता है और नषे में चूर भाजपाईयों को होष में लाने का काम कर सकता है। षब्द कड़े हैं परन्तु षुद्ध भी हैं और सटीक भी हैं। फिलहाल 11 दिसम्बर से षीतसत्र की षुरूआत हुई है जाहिर है 8 जनवरी तक चलेगा। इस हार-जीत का असर यहां भी पड़ना लाज़मी है। मनोवैज्ञानिक रूप से मजबूत और जीत के सुरूर में कांग्रेस की रणनीति भी बदलेगी और मोदी मैजिक को चुनौती भी देगी। दो टूक यह है कि मोदी मैजिक के लिए अब खतरे की घण्टी बज चुकी है और बिना दुविधा के राहुल की वापसी हो चुकी है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Wednesday, December 5, 2018

दक्षिण एशिया में द्वंद के बीच शांति की पहल

अब परिस्थितियां बदल चुकी हैं और अनिवार्यताओं की परिभाषा अलग हो चुकी है इसलिए नीतियों में फेरबदल भी अनिवार्य हो चली है। दुनिया में चाहे उत्तर-उत्तर का संवाद हो या दक्षिण-दक्षिण का या फिर उत्तर-दक्षिण का ही संवाद क्यों न हो सभी देष अपने हिस्से के राजनीतिक और आर्थिक विकास हासिल करना चाहते हैं साथ ही द्वन्द्व के बजाय सहयोग की भी अपेक्षा रखते हैं। दुनिया कई समूहों में बंटी है पर संयुक्त राश्ट्र एक ऐसा संगठन है जहां सभी का नाम दर्ज है। वैष्विक मंचों पर विकसित एवं विकासषील देष के प्रतिनिधि अपने हितों को पोशित करने के उद्देष्य से चतुर और कुटिल चाल भी चलते रहते हैं। अमेरिका जैसे देष कूटनीतिक और आर्थिक तौर पर सबल होने के कारण न केवल दूसरे की मदद करते हैं बल्कि बढ़े हुए मात्रा में प्रभुत्व भी स्थापित करते हैं। दो टूक यह भी है चाहे अफगानिस्तान में षान्ति बहाली की बात हो या फिर दक्षिण एषिया में स्थिरता की बात हो अमेरिका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभाव छोड़ता रहता है। दक्षिण एषिया में भारत बड़ा और विकसित देष है मगर पड़ोसियों से परेषान है। मुख्यतः सीमा विवाद को लेकर चीन से तो आतंकवाद के मामले में पाकिस्तान से। भारतीय उपमहाद्वीप में षान्ति प्रयासों के लिए हमेषा से प्रयास होता रहा है। यही प्रयास इन दिनों प्रधानमंत्री मोदी कर रहे हैं। इनके प्रयासों की तारीफ करते हुए पेंटागन में अमेरिकी रक्षा मंत्री जिम मैटिस ने पाकिस्तान पर निषाना साधा है। उनका कहना है कि अफगानिस्तान में षान्ति स्थापित करने के लिए 40 साल का समय काफी था लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। ऐसे में अफगानिस्तान में लोगों की सुरक्षा, प्रतिबद्धता के लिए अमेरिका उन सभी का समर्थन करता है जिनकी कोषिषों की बदौलत षान्ति बहाली आसान हुई। इतना ही नहीं वह दक्षिण एषिया में षान्ति बनाये रखने के लिए मोदी, संयुक्त राश्ट्र अन्य लोगों के प्रयासों का समर्थन करने के लिए पास्तिान को कहा है। स्पश्ट है कि दक्षिण एषिया में षान्ति प्रयासों का समर्थन करने का फरमान अमेरिका ने पाकिस्तान को सुना दिया है। 
दक्षिण एषिया की नीति के संदर्भ में अमेरिका ने भारत को पहले ही इसी साल फरवरी में अहम साथी बता चुका है। उसी दौरान कहा था कि भारत-अमेरिका के सम्बंध बहुआयामी हैं और अनेक मोर्चे पर वांषिंगटन को नई दिल्ली से मदद मिली है। अफगानिस्तान में षान्ति और सुरक्षा के लिए भारत के प्रयासों की ट्रंप प्रषासन पहले भी सराहना कर चुका है। गौरतलब है अफगानिस्तान के विकास के लिए भारत ने बड़े पैमाने पर न केवल वहां निवेष किया है बल्कि सुरक्षा बलों को समय-समय पर भारतीय सैन्य विभाग ने प्रषिक्षण भी दिया है। इसके अलावा रक्षा के लिहाज़ से 2016 में भारत द्वारा अफगानिस्तान का 4 एमआई-35 विमान भी भेंट किया जा चुका है। इन सबको देखते हुए अमेरिका भारत को अपना भरोसेमंद साथी मानता है साथ ही दक्षिण एषिया में सम्पर्क बेहतर बनाने के लिए नई पहल महसूस करता है। जिस हेतु पाकिस्तान का इस दिषा में समर्थन चाहता है। एक प्रकार से पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान को यह अल्टीमेटम दी है कि अफगानिस्तान के साथ सहयोग करने पर ही अमेरिका की दृश्टि में उस पर भरोसा बढ़ेगा। गौरतलब है कि अमेरिकी राश्ट्रपति ट्रंप पाकिस्तान में आतंकी रवैये को देखते हुए कई सख्त कदम उठा चुके हैं जिसमें करोड़ों की फण्डिंग अमेरिका ने कई किस्तों में फिलहाल रोके हुए है जिसका नतीजा यह है कि पाकिस्तान आर्थिक तौर पर काफी टूट रहा है। अभी पिछले माह ही ट्रंप ने कहा था कि पाकिस्तान ने आतंक के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की है। साफ है कि यदि अफगानिस्तान में युद्ध खत्म करना है तो पाकिस्तान को तालिबान के साथ षान्ति वार्ता में अहम भूमिका निभानी होगी। ऐसी इच्छा अमेरिका रखता है पर दुःखद यह है कि आतंकी संगठनों के दबाव व आईएसआई तथा सेना के आगे इमरान खान षायद ही ऐसा कुछ कर पायेंगे। षान्ति बहाली में यदि अमेरिका के मुताबिक इमरान खान मोदी का साथ देते हैं तो इस्लामाबाद में उनके लिए विरोध पैदा हो सकता है और सत्ता चलाना कठिन भी होगा। यदि पाकिस्तान इस दिषा में पहल नहीं करता है तो अमेरिका की नजरों में वह केवल आतंकी देष बना रहेगा और आर्थिक तौर पर मदद की गुंजाइष खत्म रहेगी। उक्त से यह लग रहा है कि मौजूदा पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान कोई भी रास्ता अपनाये उन्हें कठिनाई से जूझना ही पड़ेगा।
पड़ताल बताती है कि दक्षिण एषिया के राश्ट्रों के बीच सहयोग और द्वन्द्व का असर मिलजुला हमेषा से रहा है। इन राश्ट्रों ने मिलकर सहयोग करने की दिषा में सार्क, बिमस्टेक, बीसीआईएम, बीबीआईएम, हिमतक्षेप समेत कई संगठन बनाये पर सभी उद्देष्य पर खरे उतरे हैं कहना कठिन है। दक्षिण एषिया का सबसे बड़ा संगठन सार्क में अफगानिस्तान समेत 8 देष आते हैं जो सामाजिक-आर्थिक सहयोग करने के लिए जाने जाते हैं मगर क्या ऐसा हो रहा। सहयोग तो छोड़िये पाकिस्तान जैसे देष अपनी बर्बरता से दक्षिण एषिया को अषान्ति के कगार पर धकेल दिया। गौरतलब है कि साल 2016 के सितम्बर में जब उरी में भारतीय सेना षिविर पर आत्मघाती हमले हुए जिसमें 17 भारतीय सैनिक षहीद और 19 घायल हुए थे। इस घटना के पीछे पाकिस्तान का हाथ था और उसी साल 16-17 नवम्बर को 19वां सार्क सम्मेलन इस्लामाबाद में होना था जाहिर है भारत के लिए उरी की घटना बहुत बड़ा झटका था यह न केवल भारत के प्रभुता पर प्रहार था बल्कि दक्षिण एषिया के लिए भी अषान्ति का प्रतीक था। ऐसे में भारत ने इस्लामाबाद सार्क बैठक का बहिश्कार किया तभी से यह अनिष्चित स्थिति में चला गया है। कटु सत्य यह है कि पाकिस्तान की गलतियां दक्षिण एषिया के सभी देषों को प्रभावित कर रही हैं। चीन व्यापार के मामले में भारत का सबसे बड़ा पड़ोसी है और सीमा विवाद के मामले में भी सबसे बड़ा पड़ोसी है। नेपाल, भूटान, बांग्लादेष, श्रीलंका, मालदीव और पाकिस्तान पर चीन का आर्थिक व कूटनीतिक प्रभुत्व निरंतर जारी रहता है। चीन के कारण भी दक्षिण एषिया में द्विपक्षीय सम्बंध न केवल प्रभावित होते हैं बल्कि संदेह भी आपस में गहरा हो जाता है। पाकिस्तान के मामले में चीन का रवैया दुनिया से छिपा नहीं है। भूटान और नेपाल के मामले में तो वह भारत से हमेषा प्रतिस्पर्धा करता रहता है। कुछ ऐसा ही रवैया अन्य पड़ोसियों के कारण भी देखा जा सकता है। 
सबके बावजूद क्या पाकिस्तान से षान्ति बहाली की अमेरिका की उम्मीद पूरी होगी। क्या इमरान खान अफगानिस्तान में षान्ति बहाली में कोई ठोस कदम उठा सकते हैं। क्या अपने देष के भीतर व्याप्त आतंकी संगठनों को खत्म करके अमेरिका से रिष्ता सुधार सकते हैं या फिर सीमा पर गोलाबारी रूकवा कर षान्ति प्रक्रिया के लिए भारत के साथ गोलमेज सम्मेलन कर सकते हैं। इमरान भी कह चुके हैं कि युद्ध से कुछ नहीं हासिल होगा और भारत के गृह मंत्री राजनाथ सिंह भी कह रहे हैं कि उनके देष का आतंक खत्म करने में वो मदद कर सकते हैं। यह समझना बहुत मुष्किल है कि जिस देष की आर्थिक हालत इतनी खराब हो, विकास पटरी से उतर चुका हो और चीन की आर्थिक गुलामी झेल रहा हो उसे षान्ति बहाली का रास्ता बेहतर क्यों नहीं लग रहा है। इमरान भी भली-भांति जानते हैं कि अफगानिस्तान में षान्ति बहाली भारत के लिए बेहतर रास्ता बन जायेगा और मध्य एषियाई देषों से भारत का बाजार और व्यापार इससे न केवल बढ़ेगा बल्कि नषे की आने वाली खेप भी रूक जायेगी। ऐसे में भारत अमन-चैन की ओर अधिक होगा जो पाक के गले नहीं उतर सकता। मगर अमेरिका से दुष्मनी और उसकी डांट, धौंस साथ ही आतंकियों, वहां की सेना और आईएसआई के इषारे पर नाचना षायद उनको पसंद रहेगा। अमेरिका ने पाकिस्तान के लिए जो बोला वह सौ फीसदी सही है और यह पाकिस्तान के लिए अवसर भी है कि अपने अंक बढ़ाते हुए दक्षिण एषिया में षान्ति स्थापित करने में आगे आये।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Monday, December 3, 2018

अपेक्षाओं पर कितना खरा जी-20 सम्मेलन

जी-20 देषों की 13वीं षिखर वार्ता बीते 1 दिसम्बर को समाप्त हुई है। दो दिन तक चलने वाला यह सम्मेलन बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली के आह्वान के साथ जहां समाप्त हुआ वहीं ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए वैकल्पिक ऊर्जा को बढ़ावा देने की उम्मीद भी जगा गया। उम्मीद तो यह भी जगाई गयी है कि अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध खत्म करने की पहल होगी और एषिया प्रषान्त क्षेत्र में स्थिरता के लिए काम किया जायेगा। डिजिटल आतंकवाद से मिलकर लड़ने के लिए सभी देष फिलहाल राजी हैं साथ ही वित्तीय क्षेत्र के प्रयासों के सुधार को आगे भी जारी रखने की मंजूरी इस मंच के सभी देषों ने दे दी है। इरादों की सूची बड़ी है जिसमें मनी लाॅन्ड्रिंग से लेकर आतंक को रोकने तक की बातें जी-20 के मंच से हुई। अक्सर यह रहा है कि जब सम्मेलन समाप्त होता है तो कुछ सवाल सुलगते रहते हैं और कुछ बिना उत्तर के ही बने रहते हैं। रूस के साथ अमेरिका के तनाव जग जाहिर हैं और अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के व्यापार और जलवायु को लेकर आक्रमक रूप से भी सभी परिचित हैं। खास यह भी है कि यूक्रेन विवाद जी-20 के मंच से कभी गायब नहीं होता। गौरतलब है साल 2014 के आॅस्ट्रेलिया के ब्रिसबेन में हुई जी-20 की बैठक में रूसी राश्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन यूक्रेन के मुद्दे का सामना करने से पहले नींद का बहाना करके बिना बताये माॅस्को वापस चले गये थे। यूक्रेन विवाद, चीन के साथ व्यापार विवाद और सऊदी अरब के साथ व्याप्त तनाव के बीच दुनिया भर के नेताओं के साथ ट्रंप और व्लादिमीर पुतिन ने भी इस सम्मेलन में षिरकत किया। देखा जाय 2008 से अमेरिका में षुरू जी-20 की प्रथम बैठक से अब तक यह वैष्विक तनाव की छाया से षायद ही कभी मुक्त रहा हो। 
फिलहाल नये समीकरण नई उम्मीद के साथ नई अवधारणा को समेटे अर्जेंटीना की ब्यूनस आयर्स में  सम्पन्न हुई जी-20 देषों का सम्मेलन भारत के लिहाज से काफी सधा हुआ प्रतीत होता है। प्रधानमंत्री मोदी विकासषील देषों के अधिकारों की आवाज मंच से उठाते देखे गये और द्विपक्षीय और त्रिपक्षीय बैठकों ने भी काफी कुछ उम्मीदें बढ़ाने का यहां काम किया। अमेरिका के साथ मिल रहे ट्रेड वार के बीच चीन ने कहा कि वह भारत से ज्यादा आयात के लिए तैयार है। गौरतलब है कि भारत और चीन के बीच 100 अरब डाॅलर के व्यापार का एमओयू हस्ताक्षरित है जबकि वित्त वर्श 2017-18 में भारत और चीन के बीच व्यापार घाटा 63 अरब डाॅलर था। भारत इस दौरान करीब 76 अरब डाॅलर मूल्य का आयात किया जबकि निर्यात केवल 13 अरब डाॅलर से थोड़ा ज्यादा रहा। इसके पहले 2016-17 में भी यह घाटा 51 अरब डाॅलर से अधिक था। मोदी और चीनी राश्ट्रपति जिनपिंग के बीच जी-20 षिखर बैठक षुरू होने के पहले द्विपक्षीय वार्ता हुई जिसमें जिनपिंग ने भारत से सोयाबीन और सरसों व अन्य तिलहन उत्पादों का आयात बढ़ाने पर रजामंदी दिखाई। हालांकि यह मुद्दा नया नहीं है इसके पहले मोदी बीते अप्रैल के बुहान, चीन दौरे के दौरान तिलहन उत्पाद के आयात को लेकर बात हुई थी। दो टूक यह भी है कि चीन अमेरिका के साथ व्यापारिक युद्ध के चलते कहीं अधिक परेषान है जिसके कारण सोयाबीन समेत तिलहन उत्पादों पर भारी ड्यूटी लगा दी है इसी को संतुलित करने के लिए भारत से इसे लेकर इच्छा जतायी है। 
मोदी ने जी-20 के मंच से नौ सूत्री एजेण्डा पेष किया जिसमें भगोड़े आर्थिक अपराधों से निपटने, उनकी पहचान प्रत्यार्पण और उनकी सम्पत्तियों को जब्त करने के लिए सदस्य देषों से सक्रिय सहयोग मांगा। आतंकवाद और कट्टरवाद को भी बड़ी चुनौती बताते हुए इसे षान्ति और सुरक्षा के साथ ही आर्थिक विकास के लिए भी एक चुनौती बताया। मोदी ने जो आह्वान किया उसका नतीजा बेहतर सरोकार के चलते सफलता के साथ पाया जा सकता है। हालांकि काले धन के मामले में भी 2014 के ब्रिसबेन बैठक में जी-20 के सभी देषों ने एकजुटता दिखाई थी पर नतीजे उम्मीदों की भरपाई नहीं कर पाये। जब भी भारत का विष्व के साथ आर्थिक सम्बन्धों की विवेचना होती है तो जी-20 का मंच और प्रासंगिक होकर उभरता है और भारत की बात बीते कुछ वर्शों से असरदार रही भी है पर नतीजे उसके पक्ष में आये हैं कहना कठिन है। आतंकवाद मुक्त व्यापार और डाटा संरक्षण से लेकर अन्य बातें जो भारत ने उठाई वह सभी के लिए महत्वपूर्ण हैं। अमेरिकी राश्ट्रपति और जिनपिंग के बीच जो बातें हुई उसके भी कुछ सकारात्मक पक्ष हैं। उसी का परिणाम है कि अमेरिका अगले तीन महीने तक चीनी उत्पादों पर अतिरिक्त आयात षुल्क नहीं लगायेगा। यहां द्विपक्षीय बातचीत को सफल माना जा सकता है जिसके असर में पूरी दुनिया है। भारत, रूस और चीन की त्रिपक्षीय बैठक कहीं अधिक महत्वपूर्ण है इसके पीछे कारण एक तो ऐसा 12 साल बाद ऐसा हुआ है दूसरे आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन जैसे के प्रति प्रतिबद्धता जताई गयी। हालांकि पाकिस्तान के अजहर मसूद से लेकर लखवी तक संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् में वीटो करके बचाना चीन की फितरत रही है। भारत, अमेरिका और जापान का गठजोड़ जिसे जय की संज्ञा दी जा रही है बेहद महत्वपूर्ण कहा जाना चाहिए। यह दक्षिण चीन सागर में षान्ति स्थापित करने या फिर चीन के एकाधिकार को समाप्त करने का एक अच्छा गठजोड़ है। मोदी जी-20 के मंच से भारत की एहमियत को बढ़ाने में सफल कहे जा सकते हैं। बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली, वैष्विक तरक्की और समृद्धि के लिए यह बैठक जानी और समझी जायेगी। आपसी सहयोग पर विचार-विमर्ष के लिए जो बन पड़ता वह भारत की ओर से किया गया है बाकी काम सदस्य देषों का है। 
दुनिया ने फिर देखा कि जी-20 के मंच से पेरिस जलवायु समझौते के मामले में कैसे डोनाल्ड ट्रंप एक बार फिर अपने को अलग कर लिया। गौरतलब है कि हैम्बर्ग, जर्मनी में हुए जुलाई 2017 के जी-20 के 12वें षिखर सम्मेलन की समाप्ति तक पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते को लेकर अमेरिका टस से मस नहीं हुआ था पर बिना किसी टकराव के अमेरिका के लिए दरवाजा फिर भी खुला रहा वह अर्जेंटीना में भी यह दरवाजा खुला ही रह गया। सवाल यह है कि पृथ्वी बचाने की जिम्मेदारी से यदि अमेरिका जैसे देष भागेंगे तो आखिर संकल्पों का क्या होगा। बड़ा सच तो यह है कि लगभग दो साल से अमेरिका के राश्ट्रपति रहने वाले डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका फस्र्ट की नीति अपना रहे हैं और अपने निजी एजेण्डे पर काम कर रहे हैं। अमेरिका द्वारा ईरान-अमेरिका परमाणु संधि का तोड़ा जाना, ट्रांस पेसिफिक समझौते से हटना और इसी वर्श अक्टूबर में 1987 से चला आ रहा रूस से हुआ समझौता षस्त्र नियंत्रण संधि (आईएनएफ) से अलग होना इसका पुख्ता सबूत है। सबके बावजूद खास यह भी है कि भारत 2022 में जी-20 षिखर सम्मेलन की मेजबानी करेगा और यह दौर स्वतंत्रता की 75वीं वर्शगांठ का होगा। हालांकि इस सम्मेलन की मेज़बानी पहले इटली को करनी थी। इटली से भारत को मिली इस मेजबानी पर मोदी ने इटली का षुक्रिया अदा किया और जी-20 के सभी देषों को भारत आने का न्यौता दिया। गौरतलब है कि भारत दुनिया में सबसे तेज उभरती अर्थव्यवस्था है और जी-20 प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं का एक समूह है। दो टूक यह भी है कि इस समूह में अन्तर्राश्ट्रीय वित्तीय संरचना को सषक्त और आर्थिक विकास को धारणीय बनाने में मदद पहुंचायी है। मंदी के दौर में गुजर रही अर्थव्यव्स्थाओं के लिए भी कमोबेष ऊर्जा देने का भी काफी हद तक काम किया है। यह ऐसा देष है जहां दुनिया के मजबूत देष इकट्ठे होते हैं जो सुलगते सवालों पर अंजाम देने की कोषिष करते हैं पर कुछ सवाल या तो उत्तर की फिराक में अगले सम्मेलन का इंतजार करते हैं या फिर सुलगते रह जाते हैं। 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल:sushilksingh589@gmail.com

Friday, November 30, 2018

पूरा सच नहीं बोलता है पाकिस्तान

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने एक बार फिर दोहराया है कि वे भारत के साथ षान्ति बहाल करना चाहते है और प्रधानमंत्री मोदी से बात करने के लिए तैयार भी है। साथ ही यह भी कहा कि कष्मीर मसले का फौजी हल मुमकिन नहीं है पर कुछ असम्भव भी नहीं है। सफाई देते हुए इमरान ने आतंकी दाऊद और हाफिज सईद को विरासत में मिला बताया और जिसके लिए वे जिम्मेदार भी नहीं हैं। गौरतलब है कि बीते 28 नवम्बर को पाकिस्तान में स्थित करतारपुर में गुरूद्वारा दरबार साहिब को भारत के गुरदासपुर जिले में स्थित डेरा बाबा नानक गुरूद्वारा से जोड़ने वाली बहुप्रतीक्षित गलियारे की आधारषिला रखी। उक्त बातें पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने इसी दौरान कही। सिक्ख तीर्थ यात्रियों के लिए करतारपुर साहिब गुरूद्वारा जाने के लिए करतारपुर कोरिडोर को खोलने को लेकर पाकिस्तान का यह कदम बहुत अच्छा माना जा सकता है पर सावधानियों को दरकिनार नहीं किया जा सकता। हालांकि इसे खोलने की मांग तीन दषक पुरानी है। भारत ने 1988 में इसे लेकर पहली बार प्रस्ताव रखा था जिस पर बीते 22 नवम्बर को प्रधानमंत्री की अगुवाई में कैबिनेट की बैठक हुई जहां करतारपुर कोरिडोर के निर्माण को मंजूरी दी गयी। उपराश्ट्रपति वैंकेया नायडू व पंजाब के मुख्यमंत्री ने संयुक्त रूप से इसकी आधारषिला रखी थी। कार्यक्रम में भारत के केन्द्रीय मंत्री हरसिमरन कौर और पंजाब राज्य के मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू मौजूद थे। वैसे जब भी पाकिस्तान के किसी कार्यक्रम में सिद्धू की मौजूदगी होती है तो विवाद उनके साथ चल पड़ता है। इमरान के षपथ समारोह में अकेले भारतीय रहे सिद्धू उस समय तब विवाद में आ गये जब वहां के सेना प्रमुख बाजवा से गले मिलने के चित्र सामने आये और अब आतंकी के साथ फोटो खिंचवाने का उन पर आरोप है। 
करतारपुर कोरिडोर की आधारषिला रखने के इस ऐतिहासिक क्षण पर भारत को अमन-षान्ति का पाठ पढ़ाने वाले इमरान ने कष्मीर का जिक्र भी छेड़ा जो यह दर्षाता है कि वे या तो आधा सच बोलते हैं या फिर पूरा सच बोल ही नहीं सकते। इस कोरिडोर के पीछे उनकी स्पश्ट मंषा को भी समझा जाना जरूरी है। गौरतलब है कि इमरान की पहल पर षान्ति प्रक्रिया यदि भारत स्थापित करना भी चाहे तो आतंकी और वहां की सेना भारत के लिए मुसीबत बन सकती है क्योंकि ऐसा दषकों से देखा जा रहा है कि जब-जब ऐसा हुआ भारत के भीतर आतंकी हमले हुए हैं। खास यह भी है कि पाकिस्तान और भारत के बीच मधुर सम्बंध हों यह वहां की आईएसआई, सेना औेर आतंकी संगठन कतई नहीं चाहते और इमरान इस बात से षायद ही अनभिज्ञ हों। जबकि उनकी सरकार को पूर्व तानाषाह मुर्षरफ, पाकिस्तानी सेना और कुछ हद तक आतंकियों का भी समर्थन है। प्रधानमंत्री मोदी ने करतारपुर कोरिडोर की तुलना बर्लिन की दीवार के टूटने से की। पाकिस्तान ने कोरिडोर किस आधार पर खोला है इस बात की भी बारीकी से पड़ताल जरूरी है। संकेत यह है कि गलियारा बनाने का इरादा पाकिस्तानी सरकार का नहीं बल्कि सेना प्रमुख जनरल बाजवा ने दिया था। कार्यक्रम में पाकिस्तानी सेना प्रमुख की उपस्थिति इस बात को और पुख्ता करती है। कोरिडोर खोलने के पीछे जो इरादा जताया जा रहा है उसके पीछे सब कुछ नेक है ऐसा नहीं है। गौरतलब है आॅपरेषन आॅल आउट के तहत कष्मीर घाटी में सैकड़ों की तादाद में आतंकी मौत के घाट उतारे जा चुके हैं। सेना की चैकसी और जम्मू-कष्मीर पुलिस की सक्रियता ने पाक प्रायोजित आतंकियों को अब कोई अवसर नहीं दे रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि सिक्खों के प्रति सहानुभूति की आड़ में खालिस्तान के पक्षधर को उकसाकर पंजाब में अषान्ति का माहौल पैदा करने का इरादा पाकिस्तान का हो। कोरिडोर खुलने से खालिस्तान समर्थक समूहों के अलावा अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर सिक्ख समुदाय का भरोसा पाकिस्तान जीत सकता है। इसी के माध्यम से भारतीय सिक्ख युवाओं का भी भरोसा जीतने का काम पाक कर सकता है और समय और परिस्थिति को देख कर उन्हें उकसाकर भारत विरोधी गतिविधियों में प्रयोग कर सकता है। गुरूद्वारे के बहाने ऐसे युवाओं को उन्हें खालिस्तान का पाठ पढ़ाना आसान हो जायेगा जो पंजाब और भारत दोनों के लिए एक नई चुनौती हो सकता है। गौरतलब है कि कुछ समय पहले जब भारतीय तीर्थयात्री पाकिस्तान के गुरूद्वारे में गये थे तब इस्लामाबाद स्थित भारतीय वाणिज्य दूतावास के सदस्यों को गुरूद्वारे में प्रवेष करने से रोका गया था और रोकने का यह काम सुरक्षाकर्मियों का नहीं बल्कि खालिस्तान समर्थक गोपाल सिंह चावला और उनके सहयोगियों का था।
समझने वाली बात यह भी है कि अस्सी और नब्बे के दषक में खालिस्तानी आतंकियों के खात्मे के बाद पंजाब भारी विकास की ओर जा चुका है। ऐसा भी नहीं है कि पंजाब में खालिस्तान समर्थक बिल्कुल नहीं है बस इषारे की आवष्यकता है। कनाडा के प्रधानमंत्री का जब भारत में दौरा हुआ था तब उन्हें षायद इसलिए अधिक तवज्जो नहीं दिया गया क्योंकि उन्होंने कनाडा में खालिस्तान समर्थकों के सुर में कुछ सुर मिला दिया था। दो टूक यह है कि कोरिडोर स्वागत योग्य है पर इसकी आड़ में खालिस्तानी आंदोलन को पुनर्जीवित करने वालों को यदि मौका मिलता है तो समस्या बड़ी हो जायेगी। अमेरिका के खालिस्तान समर्थक जिसे आंदोलन सिक्ख फाॅर जस्टिस के नाम से जाना जाता है उन्होंने एक सर्कुलर जारी किया है जिसमें स्पश्ट है कि गुरूनानक देव जी के 550वीं जयन्ती के उपलक्ष्य में पाकिस्तान में करतारपुर साहिब सम्मेलन का 2019 में आयोजन किया जायेगा। इसी सम्मेलन में इसकी भी योजना है कि मतदाता पंजीकरण भी किया जायेगा साथ ही जनमत संग्रह पर भी जानकारी उपलब्ध करायी जायेगी। उक्त से स्पश्ट है कि कोरिडोर के पीछे सब कुछ सकारात्मक नहीं है बल्कि कष्मीर से घटते आतंक को देखते हुए पाकिस्तान पंजाब में आतंक को पुनर्जीवित करने के लिए कहीं बेताब न हो इसे लेकर चिंता बढ़ जाती है। करतारपुर साहिब सबसे पवित्र स्थलों में से एक है इसे पहला गुरूद्वारा भी माना जाता है। गुरूनानक ने जीवन के आखरी 18 साल यहीं बिताये थे और 1539 में यही आखरी सांस ली थी। भारत की सीमा से 3 किमी. भीतर रावी नदी के किनारे बसे इस गुरूद्वारे के भारत के सिक्ख श्रृद्धालु दूरबीन से दर्षन करते हैं। जब यह कोरिडोर संचालित हो जायेगा तब श्रृद्धालुओं की आवाजाही सुगम होगी और इसके लिए वीजा की भी आवष्यकता नहीं पड़ेगी। खास यह भी है कि इस कोरिडोर के लिए भारत सरकार फंड देगी। इमरान खान ने करतारपुर कोरिडोर की आधारिषला रखते हुए पूरी दुनिया के सामने स्वयं को युद्ध विरोधी नेता के रूप में पेष करने की कोषिष किया और कहा कि दोनों देषों के पास एटमी हथियार हैं इसलिए युद्ध की बात करना बेवकूफी है और दोस्ती एक मात्र विकल्प है। आदर्ष से भरी पाकिस्तान की ये बातें किसी के मन को छू सकती हैं पर इतिहास खंगाल के देखा जाय तो अविष्वास गहरा जाता है। 1972 के षिमला समझौते को आज भी पाकिस्तान रौंदने से बाज नहीं आता। 19 फरवरी 1999 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के समय दिल्ली से लाहौर तक बस चली थी। दोनों देषों के बीच ट्रेन भी चली पर सम्बंध न सड़क पर दौड़ पाये और न ही पटरी पर। तानाषाह परवेज मुषर्रफ के समय तो आगरा षिखर वार्ता खराब सम्बंधों को और पुख्ता करता है। सार्क में षामिल जमा 8 देषों में पाकिस्तान ऐसा है जिससे भारत की दुष्मनी है। पठानकोट हमले के बाद साल 2016 का इस्लामाबाद सार्क बैठक इसकी भेंट चढ़ चुका है और 2020 में इस्लामाबाद में होने वाली सार्क बैठक को लेकर पाकिस्तान के उस इरादे को भी विदेष मंत्री सुशमा स्वराज ने खारिज कर दिया जिसमें वह मोदी को आमंत्रित कर रहा है। स्वयं प्रधानमंत्री मोदी अपने समकक्ष नवाज षरीफ के साथ षपथ ग्रहण समारोह से लेकर 2 साल तक सम्बंधों के लिए प्रयासरत् रहे पर नतीजे ढाक के तीन पात ही रहे।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Monday, November 19, 2018

एपेक को मिला ट्रेड वॉर का दण्ड

पिछले कई महीनों से अमेरिका और चीन के बीच ट्रेड वाॅर जारी है जिसका साइड इफेक्ट बीते 18 नवम्बर को एपेक सम्मेलन में देखने को मिला। इतना ही नहीं जुबानी जंग के चलते एषिया-प्रषान्त आर्थिक सहयोग संगठन यानी एपेक सम्मेलन इस तनातनी के बीच असफल भी हो गया। गौरतलब है कि पाॅपुआ न्यू गिनी में चल रहे एपेक के सम्मेलन में 21 देषों के नेता भी मतभेद को दूर करने में सफल नहीं रहे बल्कि इन दोनों देषों के चलते आपसी तनातनी भी इनके बीच में भी देखी जा सकती है। इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अमेरिका और चीन के चलते सम्मेलन में प्रस्तावित औपचारिक घोशणा भी नहीं हो पायी और खबर तो यह भी है कि चीन के अधिकारियों ने बीते 17 नवम्बर को पापुआ न्यू गिनी के विदेष मंत्री के कार्यालय में घुसने का प्रयास किया इसके बाद पुलिस बल को भी बुलाया गया। उक्त घटना ने इस बात को और पुख्ता कर दिया कि निजी हितों के चलते वैष्विक संगठन अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। खास यह भी है कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि क्षेत्रीय बैठक में चीन के अधिकारी हंगामा न किये हों। इससे पहले इसी साल के सितम्बर में एक सम्मेलन के दौरान चीन से माफी मांगने को कहा गया था उस समय चीन के अधिकारी इस बात पर बैठक छोड़ कर चले गये थे कि मेजबान ने उनके दूत को अपनी बारी से पहले बोलने की इजाजत नहीं दी। एपेक के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि सदस्य देषों के नेता व्यापार नीति पर गहरे मतभेद के कारण औपचारिक लिखित घोशणा पर भी सहमत नहीं हो पाये और आयोजक पापुआ न्यू गिनी के प्रधानमंत्री को सम्मेलन असफल करार देना पड़ा। आयोजक प्रधानमंत्री ने तो यह भी कहा कि आप जानते हैं दो बड़े दिग्गज कमरे में हैं मैं क्या कर सकता हूं? 
अन्तर्राश्ट्रीय संगठनों पर अमेरिकी दबाव व प्रभुत्व को नकारा नहीं जा सकता पर चीन से उपजी समस्या के चलते यहां उसकी हेकड़ी भी नजरअंदाज नहीं की जा सकती। पहली बार पापुआ न्यू गिनी में हुए इस वार्शिक सम्मेलन में मामला ढाक-के-तीन पात रहा। तो क्या चीन को एपेक की सदस्यता से बाहर कर देना चाहिए। जो अपने स्वार्थ और अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए कहीं भी अनाप-षनाप के लिए उतारू हो जाता है। हालांकि ताली एक हाथ से नहीं बजती यहां अमेरिका को पूरी तरह क्लीन चिट नहीं दिया जा सकता। वैसे चीन एक बुरी आदत से भी जूझ रहा है वह यह कि पड़ोसी देषों को न चुकाये जा सकने वाले कर्ज भी खूब थोप रहा है। एपेक के इतिहास को देखें तो यह एषिया-पेसिफिक इकोनाॅमिक कारपोरेषन मुख्य व्यापार में विष्व की कुछ सबसे षक्तिषाली अर्थव्यवस्थाओं को संयुक्त करता है। आॅस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री बाॅबहाॅक की पहल पर 1989 में इसका गठन हुआ था जिसमें आॅस्ट्रेलिया, पापुआ न्यू गिनी, पेरू, फिलिपीन्स, रूस, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, ताइवान, चीन, अमेरिका तथा वियतनाम सहित 21 देष हैं। इसका मूल उद्देष्य अमेरिका को दक्षिण पूर्व एषियाई देषों विषेशकर एसोसिएषन आॅफ साउथ ईस्ट एषियन नेषन (आसियान) देषों से जोड़ना था। गौरतलब है आसियान 1967 में गठित दक्षिण पूर्व एषियाई देषों का संगठन हैं जिसमें 10 सदस्य हैं। वैष्विक परिप्रेक्ष्य में चीजें बहुत बदलती हुई दिखती हैं पर वे कितनी प्रासंगिक है यह विचार का विशय है। आसियान देषों से जोड़ने के फिराक में गठित एपेक अपने निजी महत्वाकांक्षा के चलते कठिन दौर से गुजर रहा है। दक्षिण एषिया का सार्क, यूरोप का यूरोपीय संघ तथा अमेरिका, कनाडा और मैक्सिको को मिलाकर बने नाफ्टा के अलावा कई ऐसे क्षेत्रीय संगठन मिल जायेंगे जो आज अपने उद्देष्यों को लेकर कुछ हद तक संघर्श कर रहे हैं। एपेक से बिगड़ी बात कहां जाकर ठहरेगी इसे अभी कह पाना कठिन है पर ऐसी बातों का वैष्विक पटल पर बड़े नुकसान होते हैं। आपसी एकजुटता के लिए बने देष जब बिखरते हैं तो कई दूसरे देषों पर भी प्रभाव छोड़ते हैं। अमेरिका और चीन ने जहां एक-दूसरे पर सीधा निषाना साधा है वहीं अन्य देष इससे बंटे दिखते हैं जो कहीं से उचित नहीं कहा जा सकता। 
खास यह भी है कि आज एपेक विष्व के सर्वाधिक आर्थिक षाक्तिषाली देषों में से एक है और षायद हाल की घटना को देखते हुए कमजोर भी। इस संगठन का हिस्सा फिलहाल भारत नहीं है मगर रूस समेत कई देष जिसमें अमेरिका की भी यह कोषिष है कि भारत इसका सदस्य बने। इसके संगठन की स्थापना के लक्ष्यों में अमेरिका जैसे देष सफल तो हुए पर उत्पन्न मतभेद को रोक पाने में असफल भी हुए। हालांकि एकमात्र घटना से एपेक को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि यह आसियान व नाफ्टा के बीच सम्पर्क सूत्र का काम कर रहा है। भारत का एपेक का सदस्य बनना भारत एवं एपेक दोनों के हित में है। एपेक के अधिकांष सदस्यों के साथ भारत के सम्बंध मजबूत हैं हालांकि चीन के बारे में ऐसा कहना पूरी तरह तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता। भारत आसियान के साथ षिखर बैठक 2002 से ‘आसियान$1‘ प्रारूप के तहत काम कर रहा है। साथ में औरों के साथ मजबूत सम्बंध कायम किये हुए हैं। साल 2007 में जापानी प्रधानमंत्री षिंजो एबे के चतुश्कोण नीति भारत, जापान, आॅस्ट्रेलिया और अमेरिका इसके पुख्ता प्रमाण हैं। इसी को देखते हुए 2010 में ही लगा था कि यदि कोई नया सदस्य एपेक में आयेगा तो भारत पहले नम्बर पर होगा पर यह अभी तक ऐसा नहीं हुआ है। गौरतलब है कि पापुआ न्यू गिनी में जो हुआ वह आगे के सम्मेलनों के लिए एक मंथन का विशय होगा।
वैष्विक फलक पर चीन स्वयं को एक ध्रुव के रूप में उभारने की फिराक में है जबकि अमेरिका इससे अनभिज्ञ नहीं है। अमेरिका और चीन के बीच रंजिष केवल ट्रेड वाॅर ही नहीं है बल्कि दक्षिण-चीन सागर में चीन के प्रभुत्व को लेकर अमेरिका से चल रही अनबन भी है। गौरतलब है कि भारत का 40 फीसदी व्यापार दक्षिण-चीन सागर से होकर गुजरता है और इस सागर में चीन की प्रभुत्व से भारत भी काफी हद तक चिंतित रहता है। भारत, जापान और अमेरिका मिलकर दक्षिण-चीन सागन में पहले युद्धाभ्यास कर चुके हैं जिसका मलाल आज भी चीन को रहता है। फिलहाल भारत एपेक में षामिल होकर एक ओर इस संगठन से सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करेगा तो दूसरी ओर एपेक के माध्यम से उत्तर-दक्षिण संवाद को बढ़ावा देकर न्याय एवं समानता पर आधारित नई अन्तर्राश्ट्रीय व्यवस्था की स्थापना कर पायेगा। वैसे भी भारत पूरब की ओर देखों नीति पर तेजी से अमल कर रहा है जो 1990 से लगातार जारी है। फिलहाल बेनतीजा रही एपेक की इस बैठक ने कई सवालों को अपने पीछे छोड़ दिया है। षक्तिषाली देष के तौर पर जब कई एक साथ होते हैं तो संरक्षणवाद से लेकर व्यक्तिवाद की स्थिति भी व्याप्त हो सकती है। हालांकि चेक बुक कूटनीति की राह पर भी कई हैं। कई छुपे एजेण्डे के तहत ऐसे मंचों पर काम करते हैं। अमेरिका पर भी यह आरोप है कि वह लगातार संकीर्ण होता जा रहा है और ऐसे संगठनों पर ऐसे विचारों का दृश्प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ेगा ही। ऐसे में बड़ा सवाल यह रहेगा कि आगे जब भी बड़े उद्देष्यों से जुड़े अन्तर्राश्ट्रीय सम्मेलन हों तो देष निजी महत्वाकांक्षा के बजाय बड़े मन के साथ व्यवहार करें पर षायद यह आदर्ष रूप न ले पाये। फिलहाल यूएस और चीन के बीच तनातनी से पापुआ न्यू गिनी में जो हुआ वह सभी के लिए सबक है और सही सोच के साथ आगे बढ़ने का अवसर भी। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Tuesday, November 13, 2018

बहुत ज़रूरी है नई राह का खुलना

यह एक बड़ा सच है कि पिछले कई वर्शों से नदियों पर कोई ध्यान नहीं जा रहा है यदि जा भी रहा है तो सिर्फ इसलिए कि नदी प्रदूशित हो रही है पर उसे रोक पाना भी सम्भव नहीं हो पा रहा है। जबकि इन्हीं नदियों के माध्यम से सदियों से परिवहन होता रहा, पीने का जल लिया जाता रहा, षहरों की बसावट इनके किनारे होती रही और सभ्यताओं की मुखर इतिहास की ये गवाह रही हैं पर अब यह हांफ रही हैं। गंगा हो या यमुना या अन्य सहायक नदियां सभी का हाल आमतौर पर बेहाल ही है। सदियों पुराने जल मार्गों के इतिहास को समेटे इन नदियों में समय-समय पर नई राह खोजी जाती रही है। इसी तर्ज पर वाराणसी-हल्दिया के बीच एक बार फिर यह प्रयास हुआ। प्रधानमंत्री मोदी ने वाराणसी में गंगा तट पर बने देष के पहले मल्टी माॅडल टर्मिनल अर्थात् बंदरगाह को बीते सोमवार देष को समर्पित किया जो वाराणसी से हल्दिया के बीच ऐसा पहला राश्ट्रीय जलमार्ग है जिसमें माल वाहक जहाजों का आवागमन होगा। गौरतलब है कि इस मौके पर कोलकाता से वाराणसी पहुंचे जहाज की अगवानी भी मोदी ने की। उत्साह से भरे प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि केन्द्र सरकार देष में 100 से ज्यादा राश्ट्रीय जलमार्गों पर काम कर रही हैं जिसमें वाराणसी-हल्दिया जलमार्ग भी षुमार है। गौरतलब है कि इस जलमार्ग के प्रकाष में आने से बिहार, झारखण्ड और पष्चिम बंगाल के बड़े हिस्से को बड़ा फायदा मिल सकता है। इससे मोदी का न्यू इण्डिया और न्यू विजन भी समझा जा सकता है। खास यह भी है कि पष्चिम बंगाल के हल्दिया से खाद्य सामग्री लाद कर जो जलयान वाराणसी पहुंचा वह उम्मदों का एक पिटारा भी था। नदियां हमेषा से जीवनदायनी रही हैं और यातायात का प्रमुख साधन भी रही है। बस दौर के साथ इनके साथ नाइंसाफी हुई है। यदि वाकई में नदियों की वेदना को समझा जाय तो सबसे पहले इन्हें प्रदूशण मुक्त करना होगा फिर इनसे लाभ के अम्बार को इकट्ठा करना और आसान हो जायेगा।
फिलहाल 2400 करोड़ परियोजन की यह सौगात देष को मिल गयी है और आने वाले भविश्य में इससे होने वाले कई लाभ देखने को मिलेंगे। समझने वाली बात यह भी है कि आंतरिक जल परिवहन के मामले में भारत का आंकड़ा कुल परिवहन का आधा फीसदी भी नहीं है जबकि चीन में 8 प्रतिषत परिवहन नदियों के माध्यम से होता है। यही आंकड़ा अमेरिका पर भी लागू होता है। नीदरलैण्ड जैसे देषों में यह 42 फीसदी है। खास यह भी है कि भारत का उत्तर का हिमालयी क्षेत्र से निकलने वाली नदियां हों या प्रायद्वीपीय क्षेत्र की नदियां हो परिवहन के मामले में बहुत बेहतर राय नहीं बन पायी है जबकि जल मार्गों का सदियों पुराना इतिहास भारत में ही रहा है। 305 ई.पू. में भारत आये यूनानी राजदूत मैगस्थनीज़ ने गंगा की बड़ी षिद्दत से चर्चा की है और 17 अन्य सहायक नदियों को अपनी पुस्तक इण्डिका में लिखा है। इतना ही नहीं सिन्धु एवं इसकी 13 उपनदियों से जल यात्रा की जा सकती थी इसका चित्रण भी इतिहास में मिलता है। नवीं षताब्दी के षिलालेखों से पता चलता है कि तत्कालीन राजा के पास उन दिनों नौकाओं के बेड़े हुआ करते थे। इतिहास के जैसे-जैसे आगे बढ़ने का सिलसिला आता गया जलमार्गों को लेकर अभिरूचि भी कम-ज्यादा होती रही मगर 15वीं और 16वीं सदी में जल परिवहन चरम पर था। मुगल षासनकाल में ऐसे मार्गों का सर्वाधिक इस्तेमाल किया जाता था। इतिहास के पन्ने इस बात के गवाह हैं कि नदियां जलमार्गों के मामले में सुगम, सुलभ और कहीं अधिक सुरक्षित मार्ग सिद्ध हुई हैं साथ ही बिना किसी खास निवेष के इसमें रास्ता ढ़ूंढ़ना भी आसान रहा है और मंजिल तक पहुंचना भी सुगम रहा है। 
परिवहन के लिए सड़क मार्गों और वायु मार्गों के विकास की होड़ में कहीं न कहीं भारत में जलमार्गों को नजरअंदाज किया गया था। षायद नदियों के प्रदूशित होने की वजह में एक यह भी है। निहित परिप्रेक्ष्य यह है कि यदि नदियों में जलमार्गों को लेकर मात्रात्मक बढ़ोत्तरी की गयी होती तो आबाध रूप से उसकी प्रवाहषीलता और बढ़ रहे प्रदूशण को लेकर चिंता कहीं अधिक होती। इससे नदियों का जल न केवल साफ होता बल्कि अधिक भी होता। इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि जल मार्ग में 1 किमी की यात्रा में मात्र 50 पैसे का खर्च आ रहा है जो अन्य किसी भी मार्ग से यात्रा करने में सबसे सस्ता है। करीब 5 करोड़ टन सालाना ढ़ुलाई इन जलमार्गों से की जा सकती है जो सस्ते दामों में यहां से वहां पहुंचायी जा सकती है। भारत में जल परिवहन का फैलाव अभी कहीं अधिक करने की आवष्यकता है। 20 हजार किमी से थोड़े ही अधिक क्षेत्रों में इनका विस्तार देखा जा सकता है। राश्ट्रीय जलमार्ग एक्ट-2016 में इसी स्थिति को देखते हुए 106 नये जलमार्ग का प्रस्ताव देखने को मिलता है। फिलहाल तीन जलमार्ग यात्री और मालवाहक जहाजों की परिवहन के लिए खुल चुके हैं। समय के साथ औरों की सम्भावना बनी रहेगी। इन जलमार्गों पर सुचारू रूप से परिवहन हो सके इसके लिए फिर वही बात कि नदियों की सूरत बदलनी पड़ेगी और इस पर बार-बार ध्यान देना होगा। इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि नदियां समय के साथ उथली होती जा रही हैं, जल संचय निरंतर घटता जा रहा है और प्रदूशण की प्रलय से मरती जा रही हैं। गर्मियों में ये नदी नहीं बल्कि पानी की लकीरें मात्र बन कर रह जाती हैं जिसका खामयाजा सभी को उठाना पड़ता है। गौरतलब है कि हिमालय से निकलने वाली गंगा जिसकी कुल लम्बाई 2510 किमी है बंगाल की खाड़ी पहुंचते-पहुंचते स्वयं मृतप्राय हो जाती है। प्रवाह के मामले में हांफने लगती है। ऐसे 1400 किमी लम्बी यमुना समेत कई भारतीय नदियों का हाल है।
राश्ट्रीय जल मार्ग का आगाज एक अच्छा संकेत है कुछ नयापन का भी है और कुछ नये विजन का भी। अगर ठीक ढंग से इसे विकसित किया गया और आने वाले जलमार्गों को निर्मित कर सुचारू कर लिया गया तो देष की सूरत भी बदल सकती है। वैसे भारत में कुल करीब 15 हजार किमी. तक नौवाहन हो सकता है। माल ढ़ुलाई से लेकर आवागमन को भी सुखद बनाया जा सकता है। ब्रह्यपुत्र नदी में भी ऐसी ही बड़ी सम्भावना दिखती है। यदि परिवहन के मामले में नदी जलमार्गों को मजबूती से इस्तेमाल में ला लिया गया तो सड़कों से दबाव घट सकता है। जाम के झंझटों से भी कुछ मुक्ति मिल सकती है और देष प्रदूशण के मार से भी कुछ हद तक बच सकता है। लेकिन यह सब इतना आसान नहीं है। यह तभी सम्भव है जब नदियां जीवित रहेंगी। नदियां बाढ़ में प्रलयकारी बनती हैं और गर्मी में सूखे की चपेट में होती है तो फिर जल परिवहन का क्या होगा सम्भव है कि इन दोनों पक्षों पर भी गौर करना होगा। इतना अधिकतम दोहन कैसे हो इसके लिए नियमित तौर पर गाद की न केवल सफाई हो बल्कि छोटे-बड़े षहरों के कारोबार से पनपे मलबे को इनमें जाने से रोका जाय। अविरल नदी परिवहन के लिए कभी विरल नहीं होगी बल्कि पानी के मामले में सघन रहेगी। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सड़क और परिवहन देष की संरचना है यह जितना अधिक विस्तार लेंगे सुगमता और सरलता सभी के हिस्से में आयेगी। नदियों के मामले में यह इसलिए और अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें भारी निवेष की आवष्यकता के बजाय बड़ी सोच की आवष्यकता है। सम्भव है जो पहल बीते 12 नवम्बर को वाराणसी में देखने को मिला है वह आने वाले दिनों में दोहराया जायेगा साथ ही परिवहन के मामले में नदियों की प्रमुखता को बढ़ावा मिलेगा।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

समुचित नहीं शोध पर विश्वविद्यालयी सोच !

भारत में बरसों से उच्च षिक्षा, षोध और इनोवेषन को लेकर चिंता जतायी जाती रही है पर गुणवत्ता के मामले में अभी भी यह नाकाफी बना हुआ है। वास्तविकता यह है कि तमाम विष्वविद्यालय षोध के मसले में न केवल खाना पूर्ति करने में लगे हैं बल्कि इसके प्रति वे काफी बेरूखी भी दिखा रहे हैं। षायद इसी को ध्यान में रखते हुए यूजीसी ने षोध को लेकर नित नये नियम निर्मित करती रही पर नतीजे मन माफिक नहीं मिल रहे हैं। हालांकि यूजीसी जैसी संस्था पर भी कई सवाल उठते रहे हैं। फिलहाल षोध और इनोवेषन को बढ़ावा देने में जुटी सरकार की मुहिम में विष्वविद्यालय की बेरूखी सामने आयी है। इस बात का अंदाजा लगाना आसान है कि देष भर में सभी प्रारूपों के 800 से ज्यादा विष्वविद्यालय हैं जबकि केवल 100 विष्वविद्यालयों ने ही इनोवेषन काउंसिल गठित करने के सरकार की पहल को आगे बढ़ाने का मन बनाया है। गौरतलब है कि उच्च षिक्षण संस्थानों में सरकार द्वारा इनोवेषन काउंसिल गठित करने की पहल की गयी है। विष्वविद्यालयों की बेरूखी से विष्वविद्यालय अनुदान आयोग इन दिनों ना खुष है। जब भी षोध पर सोच जाती है तब उच्च षिक्षा को लेकर दो प्रष्न मानस पटल पर उभरते हैं प्रथम यह कि क्या विष्व परिदृष्य में तेजी से बदलते घटनाक्रम के बीच उच्चतर षिक्षा, षोध और ज्ञान के विभिन्न संस्थान स्थिति के अनुसार बदल रहे हैं। दूसरा क्या अर्थव्यवस्था, दक्षता और प्रतिस्पर्धा के प्रभाव में षिक्षा के हाइटेक होने का कोई बड़ा लाभ मिल रहा है। यदि हां तो सवाल यह भी है कि क्या परम्परागत मूल्यों और उद्देष्यों का संतुलन इसमें बरकरार है। तमाम ऐसे और कयास हैं जो उच्च षिक्षा को लेकर उभारे जा सकते हैं। विभिन्न विष्वविद्यालयों में षुरू में ज्ञान के सृजन का हस्तांतरण भूमण्डलीय सीख और भूमण्डलीय हिस्सेदारी के आधार पर हुआ था। षनैः षनैः बाजारवाद के चलते षिक्षा मात्रात्मक बढ़ी पर गुणवत्ता के मामले में फिसड्डी होती चली गयी।
वर्तमान में तो इसे बाजारवाद और व्यक्तिवाद के संदर्भ में परखा और जांचा जा रहा है। तमाम ऐसे कारकों के चलते उच्च षिक्षा सवालों में घिरती चली गयी। यूजीसी द्वारा जारी विष्वविद्यालयों की सूची में 319 निजी विष्वविद्यालय पूरे देष में फिलहाल विद्यमान हैं जो आधारभूत संरचना के निर्माण में ही पूरी ताकत झोंके हुए हैं। यहां की षिक्षा व्यवस्था अत्यंत चिंताजनक है जबकि फीस उगाही में ये अव्वल है। भारत में उच्च षिक्षा की स्थिति चिंताजनक क्यों हुई ऐसा इसलिए कि इस क्षेत्र में उन मानकों को कहीं अधिक ढीला छोड़ दिया गया जिसे लेकर एक निष्चित नियोजन होना चाहिए था। विष्वविद्यालय के कई प्रारूप हैं जहां से उच्च षिक्षा को संचालित किया जाता है। सेन्ट्रल एवं स्टेट यूनिवर्सिटी के अतिरिक्त प्राईवेट तथा डीम्ड यूनिवर्सिटी के प्रारूप फिलहाल देखे जा सकते हैं। पड़ताल बताती है कि अन्तिम दोनों विष्वविद्यालयों में मानकों की खूब धज्जियां उड़ाई जाती हैं। 3 नवम्बर 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय में डीम्ड विष्वविद्यालयों के दूरस्थ षिक्षा पाठ्यक्रमों को लेकर चाबुक चलाया था। सुप्रीम कोर्ट ने यहां से संचालित होने वाले ऐसे कार्यक्रमों पर रोक लगा दी। गौरतलब है कि उड़ीसा हाईकोर्ट के इस फैसले को कि पत्राचार के जरिये तकनीकी षिक्षा सही है। जिसे खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने स्पश्ट कर दिया है कि किसी भी प्रकार की तकनीकी षिक्षा दूरस्थ पाठ्यक्रम के माध्यम से उपलब्ध नहीं करायी जा सकती। देष की षीर्श अदालत के इस फैसले से मेडिकल, इंजीनियरिंग और फार्मेसी समेत कई अन्य पाठ्यक्रम जो तकनीकी पाठ्यक्रम की श्रेणी में आते हैं इसे लेकर विष्वविद्यालय मनमानी नहीं कर पायेंगे। इतना ही नहीं इस फैसले से पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के उस निर्णय को भी समर्थन मिला था जिसमें कम्प्यूटर विज्ञान पत्राचार के माध्यम से ली गयी डिग्री को नियमित तरीके से हासिल डिग्री की तरह मानने से इंकार कर दिया गया था। हर पढ़ा-लिखा तबका यह जानता है कि दूरस्थ षिक्षा के माध्यम से डिग्री कितनी सहज तरीके से घर बैठे उपलब्ध हो जाती है। हालांकि इग्नू जैसे विष्वविद्यालय इसके अपवाद हैं। कचोटने वाला संदर्भ यह भी है कि उच्च षिक्षा के नाम पर जिस कदर चैतरफा अव्यवस्था फैली हुई है वह षिक्षा व्यवस्था को ही मुंह चिढ़ा रहा है। बीते डेढ़ दषक में दूरस्थ षिक्षा को लेकर गली-मौहल्लों में व्यापक दुकान खुलने का सिलसिला जारी हुआ। तमाम कोषिषों के बावजूद कमोबेष यह प्रथा आज भी काफी हद तक कायम है।
उक्त के परिप्रेक्ष्य में यह सुनिष्चित है कि उच्च षिक्षा को लेकर हमारी षिक्षण संस्थाओं ने व्यवसाय अधिक किया जबकि नैतिक धर्म का पालन करने में कोताही बरती है। जब देष की आईआईटी और आईआईएम निहायत खास होने के बावजूद दुनिया भर के विष्वविद्यालयों एवं षैक्षणिक संस्थाओं की रैंकिंग में ये सभी 200 के भीतर नहीं आ पाते हैं तो जरा सोचिए कि मनमानी करने वाली संस्थाओं का क्या हाल होगा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय के माध्यम से यह जता दिया कि उसे षिक्षा को लेकर कितनी चिंता है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला इस लिहाज़ से भी अहम है कि दूरस्थ षिक्षा के माध्यम से विद्यार्थी व्यावहारिक ज्ञान से या तो विमुख होता है या तो बहुत कम होता है। खास यह भी है कि तकनीकी षिक्षा के लिए आॅल इण्डिया काउंसिल आॅफ टेक्निकल एजुकेषन (एआईसीटीई) को मानक तय करने के लिए 1987 में बनाया गया था जिसकी खूब अवहेलना हुई है और समय के साथ विष्वविद्यालय अनुदान आयोग भी नकेल कसने में कम ही कामयाब रहा है। अब एक बार फिर षोध पर यूजीसी की बड़ी चिंता सामने देखने को मिल रही है। जब देष में मौजूदा समय में 47 केन्द्रीय विष्वविद्यालय 385 राज्य विष्वविद्यालय, 319 निजी विष्वविद्यालय, 131 डीम्ड यूनिवर्सिटी मौजूद हैं जो कहीं न कहीं बड़ी संख्या कही जा सकती है तब भी उच्च षिक्षा मुख्यतः षोध का हाल बेहाल क्यों है। यूजीसी ने विष्वविद्यालयों को साफ कह दिया है कि 20 नवम्बर तक काउंसिल गठित करें। इस सम्बंध में विष्वविद्यालय को पत्र भी लिखा जा चुका है। गौरतलब है कि 1 अक्टूबर से षुरू की गई सरकार की इस मुहिम में अब तक देष के करीब 800 उच्च षिक्षण संस्थान ही जुड़े हैं जिसमें ज्यादातर इंजीनियरिंग मैनेजमेंट और दूसरे उच्च षिक्षण संस्थान है। सवाल उठता है कि विष्वविद्यालय उद्योग की तरह क्यों चलाये जा रहे हैं जबकि भारत विकास की धारा और विचारधारा के ये निर्माण केन्द्र हैं। बाजारवाद के इस युग मे सबका मोल है पर यह समझना होगा कि षिक्षा अनमोन है बावजूद इसके बोली इसी क्षेत्र में ज्यादा लगायी जाती है।
षोध की कमी के कारण ही देष का विकासात्मक विन्यास भी गड़बड़ाता है। भारत में उच्च षिक्षा ग्रहण करने वाले अभ्यर्थी षोध के प्रति उतना झुकाव नहीं रखते जितना पष्चिमी देषों में है। भारत की उच्च षिक्षा व्यवस्था उदारीकरण के बाद जिस मात्रा में बढ़ी उसी औसत में गुणवत्ता विकसित नहीं हो पायी और षोध के मामले में ये और निराष करता है। अक्सर अन्तर्राश्ट्रीय और वैष्वीकरण उच्च षिक्षा के संदर्भ में समानांतर सिद्धान्त माने जाते हैं पर देषों की स्थिति के अनुसार देखें तो व्यावहारिक तौर पर ये विफल दिखाई देते हैं। भारत में विगत् दो दषकों से इसमें काफी नरमी बरती जा रही है और इसकी गिरावट की मुख्य वजह भी यही है। दुनिया में चीन के बाद सर्वाधिक जनसंख्या भारत की है जबकि युवाओं के मामले में संसार की सबसे बड़ी आबादी वाला देष भारत ही है। जिस गति से षिक्षा लेने वालों की संख्या यहां बढ़ी षिक्षण संस्थायें उसी गति से तालमेल नहीं बिठा पायीं। इतना ही नहीं कुछ क्षेत्रों में बिना किसी नीति के कमाने की फिराक में बेतरजीब तरीके से षिक्षण संस्थाओं की बाढ़ भी आयी। अब यूजीसी और सरकार बदलाव के साथ कुछ कर पाने में कितना सफल होगी यह बाद में देखा जाने वाला विशय रहेगा।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Wednesday, October 31, 2018

भारत और जापान दोनों संतुलन की खोज में

किसी भी देश की विदेश नीति का मुख्य आधार उस देश को वैष्विक स्तर पर न केवल उपस्थिति दर्ज कराना बल्कि अपनी नीतियों के माध्यम से नई ऊँचाई हासिल करना भी होता है। अक्टूबर के आखिर में प्रधानमंत्री मोदी की जापान यात्रा को सरसरी तौर पर देखा जाय तो सम्बंधों को नई ऊँचाई और संतुलनवादी सिद्धांत में बढ़त मिली है। जापानी प्रधानमंत्री षिंजो एबे से मोदी की यह बारहवीं मुलाकात थी जिसमें दोस्ती और भरोसा दोनों का समावेष था। हाल के वर्शों में दोनों देषों के बीच सम्बंधों के लिहाज से गुणात्मक बदलाव फिलहाल देखने को मिल रहा है। गौरतलब है कि जापान के प्रधानमंत्री एबे की पिछले साल सितम्बर यात्रा वैसे तो बुलट ट्रेन के चलते कहीं अधिक सुर्खियों में रही मगर गुजरात के गांधीनगर में मोदी के साथ द्विपक्षीय बैठक में जो कुछ हुआ था उससे यह स्पश्ट था कि रणनीति और सुरक्षा सम्बंधी मापदण्डों पर भारत और जापान कहीं अधिक स्पीड से आगे बढ़ना चाहते हैं। इसी समय षिंजो एबे ने जय जापान, जय इण्डिया का नारा दिया था। भारत के साथ जापान के बढ़ते रिष्तों को लेकर फिलहाल चीन भी हरकत में है। जापान के सहयोग से भारत चीन से लगी सीमा पर आधारभूत ढांचे का विकास कर रहा है और इसी इलाके पर चीन अपना दावा करता है। भारत और जापान की द्विपक्षीय वार्ता के दौरान पीएम मोदी और जापान के पीएम षिंजो एबे के बीच हाईस्पीड ट्रेन और नेवी काॅरपोरेष समेत कई समझौते हुए इस दौरान दोनों देषों के रक्षा मंत्रियों और विदेष मंत्रियों के बीच टू प्लस टू वार्ता को लेकर भी सहमति बनी। इतना ही नहीं दोनों डिजिटल पार्टनर्स से साइबर स्पेस, स्वास्थ, रक्षा, समुद्र से अंतरिक्ष में सहयोग बढ़ाने को लेकर सहमत हुए। खास यह भी है कि जापान के निवेषकों ने ढ़ाई मिलियन डाॅलर निवेष करने का भी एलान किया। बीते कुछ वर्शों से नैसर्गिक मित्रता की ओर बढ़ रहे भारत और जापान आपस में पहले भी दोस्ती के अच्छे संकेत दे चुके हैं। गौरतलब है कि अहमदाबाद से मुम्बई के बीच बुलेट ट्रेन की परियोजना के कुल खर्च 110 हजार करोड़ के निवेष में 88 हजार करोड़ निवेष जापान द्वारा किया जाना तय है साथ ही तकनीक की उपलब्धता भी वह करा रहा है। 
भारत का उत्कृश्ट नेता बताते हुए एबे ने मोदी को सबसे भरोसेमंद दोस्त कहा है। भारत और जापान के सम्बंध दुनिया को बहुत कुछ दे सकने की क्षमता रखता है। सुरक्षा, निवेष, सूचना प्रौद्योगिकी समेत कृशि, पर्यावरण और पर्यटन जैसे क्षेत्र में सहयोग बढ़ेगा। वैसे मोदी और एबे के चलते दोनों देषों के सम्बंध कहीं अधिक बेहतर तो हुए हैं। हालांकि इसके पीछे विष्व की बदलती परिस्थिति भी जिम्मेदार है। बरसों से जापान उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम को लेकर परेषानी महसूस कर रहा था और यह परेषानी तब और बढ़ जाती है जब चीन उत्तर कोरिया के समर्थन में खड़ा दिखता है। हालांकि दक्षिण कोरिया भी जापान की तरह ही मुसीबत महसूस कर रहा है। इतना ही नहीं उत्तर कोरिया के चलते अमेरिका भी काफी जिल्लते झेली। फिलहाल उत्तर कोरियाई तानाषाह किम जोंग और अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के बीच सिंगापुर में द्विपक्षीय वार्ता के चलते परेषानी घटी है। उत्तर और दक्षिण कोरिया के आपसी मुलाकात से ही समस्याएं कम होते दिख रही हैं। डोकलाम पर बीते वर्श चीन का मजबूती से काबिज होने वाला विचार तब थोड़ा दबाव में गया था जब जापान ने भारत का समर्थन किया। हालांकि अमेरिका समेत कई देष चीन के इस रूख के खिलाफ थे। इसमें कोई दुविधा नहीं कि भारत और जापान दोनों एक-दूसरे को समय-समय पर मनोवैज्ञानिक लाभ देते रहे हैं। इतिहास को खंगाला जाय तो दोनों देष सदियों से सम्बंध से अभिभूत रहे हैं। छठी षताब्दी में बौद्ध धर्म के उदय तथा जापान में इसके प्रचार-प्रसार के समय से ही यह मधुरता देखी जा सकती है। भारत और जापान के बीच अप्रैल 1952 से राजनयिक सम्बंधों की स्थापना हुई जो अब नैसर्गिक मित्रता की ओर बढ़ते दिख रही है। अनेक संयुक्त उपक्रमों की स्थापना सम्बंधों की गहराई का एहसास करा रहे हैं। दोनों देष 21वीं सदी में वैष्विक साझेदारी की स्थापना करने हेतु आपसी समझ पहले ही दिखा चुके हैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का भी इस दिषा में प्रयास सराहनीय रहा है। साल 2005 में तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और जापानी प्रधानमंत्री ने एक संयुक्त वक्तव्य जारी किया जिसका षीर्शक नये एषियाई युग में जापान-भारत साझेदारी था। गौरतलब है कि दिसम्बर 2006 में मनमोहन सिंह और यही षिंजो एबे ने सामरिक उन्मुखता को ध्यान में रखते हुए कई मसौदों को आगे बढ़ाया था। 
विष्व नई करवट ले रहा है और अमेरिका जैसे देष समझौतों और मसौदों से बाहर निकलते हुए अपनी ताकत को एकजुट करने की कोषिष में लगे हुए हैं। भारत-ईरान परमाणु समझौता, एषिया पेसिफिक पार्टनरषिप और पेरिस जलवायु समझौता समेत रूस से षीत युद्ध के दौरान 1987 में हुए आईएनएफ समझौते से हटकर अमेरिका ने इसका पुख्ता सबूत दिया है। अमेरिका रूस और चीन को सबक सिखाना चाहता है। चीन तमाम समझौतों के बावजूद सीमा विवाद के मामले में भारत को हमेषा आंख दिखाता रहता है। इतना ही नहीं पाकिस्तान को मनोवैज्ञानिक और आर्थिक ताकत देकर अपनी भड़ास भी यदा-कदा निकालता रहता है। न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप के 48 देषों में चीन भी षामिल है। जिसके चलते भारत की एंट्री कठिन हुई है क्योंकि बिना चीन की रजामंदी के भारत का प्रवेष सम्भव नहीं है। संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् में पाक आतंकियों को अंतरराश्ट्रीय आतंकी घोशित कराने को लेकर भारत के प्रयासों को वह कुंद करता रहा है। पिछले साल जून में उपजे डोकलाम विवाद से यह भी स्पश्ट हो गया था कि मोदी और चीनी राश्ट्रपति जिनपिंग कितनी बार एक-दूसरे के देष आये-गये हों पर स्वार्थ के मामले में चीन ही अव्वल रहेगा। खास यह भी है कि भारत और चीनियों की दुष्मनी की तुलना में चीनियों और जापानियों की दुष्मनी कहीं आगे है। जापानी मीडिया भी मानता है कि एबे मोदी से करीबी बढ़ाकर जापान बड़ी ताकतों के बीच जापान संतुलनवादी नीति से आगे बढ़ना चाहता है। इतिहास गवाह है कि भारत और जापान की साझेदारी का कोई विकल्प नहीं है। धुंधली तस्वीर यह भी है कि ट्रम्प ने जापान से दूरी बनायी है इसलिए जापान भारत और कुछ हद तक चीन से करीबी बढ़ाना चाहता है। कुछ दिन पहले एबे चीन के दौरे पर गये थे यह किसी भी जापानी प्रधानमंत्री का 7 साल बाद हुआ दौरा था। हालांकि जापान और भारत दोनों के रिष्ते चीन से करवाहट भरे है लेकिन दोनों इससे षत्रुता नहीं चाहते। जाहिर है कहीं न कहीं चीन से भी हित जुड़ता है। गौरतलब है कि चीन की महत्वाकांक्षी योजना वन बेल्ट, वन रोड़ का विरोध भारत और जापान कर चुके हैं। भारत का चीन के साथ सीमा विवाद है जबकि जापान का उससे समुद्री विवाद है। जापान अमेरिका और भारत दक्षिण चीन सागर में युद्धाभ्यास करके चीन को पहले उथल-पुथल में ला चुके हैं। सवाल यह है कि जिससे दुष्मनी है उसी से दोस्ती भी करनी है। परस्पर हित न टकरायें इसे लेकर सभी अपनी-अपनी चिंता में फंसे हैं पर एक बात तय है कि भारत जापान के जरिये चीन को चुनौती देने में बेहतर महसूस कर सकता है। मोदी अब तक 3 बार जापान जा चुके हैं जबकि षिंजो एबे भी 3 बार भारत आ चुके हैं। 2005 से दोनों देष के प्रमुख लगभग हर वर्श एक-दूसरे से मिल रहे हैं। यह अभी के वैष्विक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर बात कही जा रही है यदि आगे कुछ बदलाव होता है तो भी भारत और जापान एक-दूसरे पर भरोसा कर सकते हैं और फायदा ले सकते हैं अन्ततः मोदी का जापान दौरा भारत को न केवल आर्थिक बल्कि मनोवैज्ञानिक फायदा भी दे रहा है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Monday, October 29, 2018

स्टिक एंड कैरेट थ्योरी की राह पर जीएसटी

इंग्लैण्ड के दार्षनिक जेरेमी बेंथम ने अभिप्रेरणा के अन्तर्गत स्टिक एण्ड कैरेट थ्योरी को प्रतिबिम्बित किया जिसका एक अर्थ सख्त तरीका तो दूसरा पुचकारना है। इसी सिद्धांत का डगलस मैकग्रेगर ने आगे चलकर एक्स और वाई के रूप में प्रयोग किया। अब इसी तर्ज पर मोदी सरकार जीएसटी कर संग्रह बढ़ाने का मन बना रही है। हालांकि इसके लिए उन्होंने चार श्रेणियां बनाई हैं जिसमें सख्त तरीका से लेकर नरम रूख तक षामिल है। जीएसटी को लेकर समय-समय पर सरकार रणनीति बदलती रही पर ऐसा अभी तक नहीं हुआ कि खजाना भरने में वह खरा उतरा हो। गौरतलब है कि जब से गुड्स एण्ड सर्विसेज़ टैक्स (जीएसटी) आया है तब से जीएसटी परिशद् की 30 बैठकें हई हैं जिसमें 918 फैसले किये गये। यह इस बात की तस्तीक है कि यह कानून इतने सपाट रास्ते पर नहीं है जितना षायद सरकार समझती थी। जीएसटी परिशद् की बैठेकों में नई कर व्यवस्था से जुड़े कानूनी, नियम और कर दरों सम्बन्धित कई निर्णय समय-समय पर लिये जाते रहे और ऐसा करने के पीछे बड़ी वजह सरकारी खजाना भरने की ही रही है। ध्यानतव्य हो कि जीएसटी के तहत राज्यों को 5 साल तक मुआवजे देने की गारण्टी, राजकोशीय जैसे घाटों के बढ़ने के चलते सरकार की चिंता इन दिनों बढ़ी है। इतना ही नहीं राजनीतिक लाभ और चुनावी सोच के चलते कई ऐसे कदम भी सरकार ने उठाए हैं जिससे उन्हें पीछे भी हटना पड़ा। जीएसटी परिशद् ने 300 से ज्यादा बड़े उत्पादों पर बीते महीनों में कर भी घटाया है इससे भी कर संग्रह घटा है लिहाजा टैक्स वसूली बढ़ाने के नये तरीके खोजे जा रहे हैं। लगभग दो माह के आस-पास इस बात को भी हो चुके हैं कि 20 लाख रूपए से कम के व्यवसायी जीएसटी की अनिवार्यता और उसके कर से बाहर होंगे। जाहिर है टैक्स वसूली का स्तर अभी और गिरेगा। मजे की बात यह है कि जीएसटी काउंसिल ने इसका निर्णय ले लिया है जबकि राज्य सरकारों के पास इसकी औपचारिक सूचना नहीं है जिसके कारण जो उद्यमी जीएसटी की इस व्यवस्था में राहत पा सकते हैं वे अभी भी मजबूरन इसमें बने हुए हैं जबकि सरकारें अखबारों में यह विज्ञापन छाप कर कि लोगों को राहत दी गयी की वाहवही लूट रही हैं। 
जीएसटी को लागू हुए सवा साल हो गये हैं पर संषोधनों का सिलसिला रूका नहीं है। प्रति माह कर जमा करने की प्रथा जब अगस्त 2017 में षुरू हुई तो जुलाई माह की जीएसटी की राषि खजाने में 95 हजार करोड़ थी। सिलसिलेवार तरीके से देखें तो अगस्त में यह राषि 91 हजार करोड़ के आसपास रही लगातार गिरावट के साथ दिसम्बर आते-आते यह 80 हजार करोड़ पर सिमट गई। हालांकि इसी दौरान 10 नवम्बर 2017 को जीएसटी काउंसिल की गोवा में हुए बैठक के दौरान 28 फीसदी वाले कर में कुछ संषोधन किया था और डेढ़ करोड़ की राषि वालों के लिए रिटर्न त्रिमासिक किया था। गुजरात चुनाव को देखते हुए लेट फीस को भी वापस करने का काम भी इस दौरान हुआ था। सरकार का आंकलन था कि एक साल में जीएसटी से 13 लाख करोड़ रूपए खजाने में आयेगा जो हर माह एक लाख करोड़ से अधिक होता है पर अब तक के आंकलन में यह 90 से 92 हजार करोड़ रूपए के औसत पर जाकर ठहरता है। हालांकि अप्रैल 2018 में जीएसटी का कलेक्षन एक लाख करोड़ से अधिक बताया जाता है। गौरतलब है कि 52 हजार करोड़ रूपए से अधिक का मुआवजा राज्यों को जीएसटी के तहत देना पड़ता है जाहिर है सरकार लगातार घाटे का सामना कर रही है जिससे राजकोशीय घाटा भी बढ़ने का खतरा मंडरा रहा है। वर्तमान में यह घाटा 3.3 फीसदी तक है। जिस तरह फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य को डेढ़ गुना और किसानों की आय को दोगुना किये जाने की कसम सरकार ने खाई और निभाने की कोषिष कर रही हैं उसे लेकर भी कर वसूली बढ़ाने की रणनीति में बदलाव लाना उसकी मजबूरी है। मौजूदा स्थिति में रणनीति बहुत सफल नहीं दिखाई दे रही फलस्वरूप राजकोशीय घाटा बढ़ने का  डर सरकार में है यदि ऐसा हुआ तो बजटीय घाटा बढ़ना लाज़मी है। ऐसे में बोझ आखिरकार करदाताओं पर ही पड़ना है जिसे लेकर सरकार सख्त तरीका अख्तियार कर सकती है। मगर 2019 के लोकसभा के चुनाव को देखते हुए करदाताओं को निराष और नाराज करने से भी सरकार बाज आयेगी। 
टैक्स की वसूली बढ़ाने के मामले में सरकार आये दिन नये रास्ते खोजती है। अब सरकार ने इसकी चार श्रेणियां बनाने की बात कह रही है जिसमें उदासीन (डिसइंगेज्ड), अवरोधी (रिसिस्टर्स), उद्यमी (ट्रायर्स) और समर्थक (सपोर्टर्स) की संज्ञा दी जा रही है। वे जो कानून की अवहेलना कर जानबूझकर टैक्स नहीं चुकाते उन्हें उदासीन की श्रेणी में रखने की कवायद है जो कर व्यवस्था को दमनकारी मानते हैं लेकिन उन्हें कर चुकाने के लिए मनाया जा सकता है उन्हें अवरोधी की श्रेणी में रखा जायेगा तथा उन करदाताओं को जो कर चुकाना चाहते हैं पर कई कारणों से टैक्स नहीं चुका पाते उन्हें उद्यमी की श्रेणी में रखते हुए किस्तों मे कर चुकाने जैसे सहूलियते मुहैया करायी जायेंगी। अन्ततः ऐसे करदाता जो कानून का पूरी तरह पालन करते हुए समय पर कर चुकाते हैं और कर व्यवस्था से संतुश्ट भी हैं उनके प्रति सरकार नरमी बरतेगी और उनके सुझावों को भी प्राथमिकता देगी इन्हें सपोटर्स अर्थात् समर्थक की संज्ञा दी गयी है। कर चोरों से निपटने के लिए विषेश प्रकेाश्ठ व्यव्सथा की बात भी की जा रही है। गौरतलब है कि केन्द्र सरकार ने जीएसटी इंटेलिजेंस डायरेक्टरेट जनरल नाम का विषेश प्रकोश्ठ भी गठित किया है जो जीएसटी कानून के तहत कर चोरी के मामले की जांच करने के अलावा छोपमारी और जब्ती की कार्यवाही करेगा। सरकार के इस प्रकार के निर्धारण से यह स्पश्ट है कि खजाने में आने वाले धन संग्रह हर हाल में होना है। इसके लिए कठोर कदम भी उठाने पड़े तो उठाये जायेंगे। गोरतलब है कि करदाताओं के टैक्स चुकाने के रूख के आधार पर उनके साथ अलग-अलग तरीका अपनाये जाने वाली भारत सरकार की यह नई नीति विदेषों में पुरानी है। ब्रिटेन, आॅस्ट्रेलिया और मैक्सिको जैसे देषों में ऐसे ही तरीके अपनाये जाते हैं और इससे कर वसूली बढ़ाने में कामयाबी भी मिली है। 
इसमें काई दुविधा नहीं कि 70 साल के इतिहास में जीएसटी कर की एक नई व्यवस्था ही नहीं एक नई अर्थव्यवस्था है। दुनिया के सैकड़ों देष अब तक जीएसटी को अपना चुके हैं। इस सूची में सवा साल से भारत भी षामिल हैं। आंकड़े यह भी बता रहे हैं कि बहुतायत की स्थिति षुरूआती दिनों में सुखद नहीं रही। यही बात भारत के लिए भी कहना सही होगा। एषिया के 19 देष इसी प्रकार के कर के प्रावधान में हैं जबकि यूरोप में 53 देष इसमें सूचीबद्ध हैं जबकि अफ्रीका में 44 और दक्षिण अमेरिका में 11 देषों में जीएसटी लागू है। भारत में लागू जीएसटी के 4 स्लैब है और 5 से लेकर 28 फीसदी तक कर अधिरोपिण है। हालांकि कर लागू करने के षुरूआत में 32 फीसदी का स्लैब भी था जिसे 28 फीसदी तक सीमित कर दिया गया। अन्य देषों में कर के एक ही स्लैब हैं जबकि भारत में इसके चार स्लैब देखे जा सकते हैं। हालांकि यहां के आर्थिक वातावरण में भी भिन्नता है पर सरकार को यह भी गम्भीरता से समझना चाहिए कि यहां बहुतायत में किसान जो बेकार हैं, युवा हैं जो बेरोजगार हैं जिससे गैर उत्पादकों की संख्या अधिक हो जाती है पर जिम्मेदारी सभी की सरकार को लेनी होती है। कर चुकाने वाले दस फीसदी भी नहीं हैं ऐसे में कड़े कानून औपनिवेषिक सत्ता की याद दिलाते हैं ऐसे में स्टिक एण्ड कैरेट थ्योरी में कैरेट का प्रयोग अधिक हो तो अच्छा रहेगा।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Wednesday, October 24, 2018

पुरानी है "अमेरिका फ़र्स्ट" की पॉलिसी

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल को अभी दो साल नहीं हुए हैं जबकि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन चैथी बार इस पद के लिए इसी वर्श फिर चुने गये। डोनाल्ड ट्रम्प ने जनवरी 2017 में जब व्ह्ाइट हाउस में प्रवेष किया था तब उन्होंने यह विष्वास जगाया था कि रूस के साथ भी उनका रवैया उदार रहेगा। तब उन दिनों कईयों को यह बात गले नहीं उतरी थी क्योंकि सभी अमेरिका और रूस के बीच दषकों के षीत युद्ध को अच्छी तरह जानते और पहचानते थे। फिलहाल अब उसका साइड इफेक्ट भी दिखने लगा है। ईरान-अमेरिका परमाणु संधि, ट्रांस पेसिफिक पार्टनरषिप और पेरिस जलवायु समझौता जैसे से पहले ही डील तोड़ चुके इस मामले के माहिर अमेरिका ने एक और कदम उठाते हुए रूस के साथ षीत युद्ध के समय हुए 1987 के षस्त्र नियंत्रण संधि (आईएनएफ) से भी कदम पीछे खींच लिया है। स्पश्ट है अमेरिका अपनी पुरानी नीति ‘अमेरिका फस्र्ट‘ का कड़ाई से पालन कर रहा है। षीत युद्ध में तत्कालीन अमेरिकी राश्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और सोवियत संघ के मिखाइल गोर्बाचोव के बीच आईएनएफ सन्धि हुई थी जिससे अमेरिका पीछे हट रहा है। डोनाल्ड ट्रम्प ने खुल्लमखुल्ला चेतावनी दी है कि जब तक रूस और चीन को होष नहीं आ जाता तब तक अमेरिका भी परमाणु हथियारों को बढ़ाता रहेगा। पड़ताल बताती है कि पहली बार 2008 में अमेरिका ने रूस पर इस संधि के उल्लंघन का आरोप लगाया था तब रूस ने एसएससी-8 मिसाइल का परीक्षण किया था। साल 2014 और 2017 में भी एसएस-24 और आरएस-26 जैसी मिसाइलों के परीक्षण के लिए अमेरिका की ओर से रूस पर इस संधि के उल्लंघन का आरोप लगाया गया था जिसके जवाब में रूस ने अमेरिका को पोलैंड और रोमानिया में मध्यम रेंज की मिसाइल टाॅमहाॅक के बेस बनाने का आरोप लगाया। फिलहाल इन आरोप-प्रत्यारोप के बीच अमेरिका बीते 20 अक्टूबर को इस संधि से स्वयं को अलग कर लिया है। गौरतलब है कि साल 2002 में भी एक रक्षा संधि से वह अलग हुआ था।
देखा जाय तो अमेरिका दुनिया के बदलते आयाम को समझते हुए एक बार फिर ‘अमेरिका फस्र्ट‘ की पाॅलिसी पर काम कर रहा है। दो टूक यह भी है कि दुनिया में बदलते षक्ति समीकरण और उभरती आर्थिक ताकतों के बीच वह कमजोर नहीं पड़ना चाहता। यही कारण है कि जो सन्धियां या समझौते उसे आगे बढ़ने में रोक रहे हैं उसे वो कुचलना चाहता है। हालांकि वह उसकी आंतरिक कूटनीति है मगर अमेरिका दुनिया में कुछ करे और बाकी देष प्रभावित न हो ऐसा षायद ही हुआ हो। गौरतलब है कि व्यापार और सियासी कटुता के बीच इन दिनों अमेरिका और चीन के रिष्ते भी सबसे खराब दौर में है जबकि रूस से लगातार खराब हो रहे रिष्ते इस मोड़ पर आकर खड़े हो गये हैं कि दोनों के बीच की सन्धि ध्वस्त हो गयी। वाजिब सवाल यह रहेगा कि अमेरिका ने जो चेतावनी इन्हें चेताने के लिए दिया है क्या उसका असर पूरी दुनिया पर नहीं होगा। हथियारों की होड़ में अमेरिका जाने की बात कह रहा है। गौरतलब है कि अमेरिका दुनिया में एकाधिकार के लिए जाना जाता रहा है। द्वितीय विष्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ का एक ध्रुव के रूप में उभरने से दुनिया दो ध्रुवीय हो गयी। समय के साथ आर्थिक विकास में बढ़ोत्तरी के चलते कई देष न केवल कई मामलों में साधन-सम्पन्न हुए बल्कि परमाणु सम्पन्न भी होते चले गये जिसमें भारत, चीन, जापान इंग्लैण्ड व फ्रांस समेत कई षामिल हैं। हालांकि इसकी फहरिस्त में ईरान, पाकिस्तान व उत्तर कोरिया जैसे देष भी देखे जा सकते हैं। स्पश्ट है ज्यों-ज्यों सम्पन्नता बढ़ी देषों के बीच हथियारों की होड़ भी बढ़ी। सभी जानते हैं कि अमेरिका और रूस हथियारों की बिक्री में सबसे आगे हैं और इनका दबदबा भी बाकायदा बरकरार है लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि दुनिया पर एकाधिकार रखने और धौंस जमाने वाला अमेरिका को अब कई देष चुनौती भी दे रहे हैं। षायद इसमें से एक वजह ये भी है कि अमेरिका अपनी पुरानी व्यवस्था को पाने के लिए संधि और समझौतों को ठोकर मार रहा है साथ ही सबक सिखाने की बात भी कह रहा है।
अब तक अमेरिका द्वारा तोड़ी गयी सभी सन्धियां खासा महत्व रखती हैं। रोचक यह भी है कि तमाम समझौतों की ट्रम्प ने पहले की सरकारों और राश्ट्रपतियों को सीधे तौर पर दोशी ठहराया। मात्र दो साल के कार्यकाल के भीतर ताबड़तोड़ समझौतों को तोड़ना, उनसे पीछे हटना कहीं न कहीं ट्रम्प की छवि को कुछ और ही दर्षा रहा है। द्विपक्षीय समझौते के तहत 1987 में यह सन्धि अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगियों की सुरक्षा सुनिष्चित करती है। इसमें यह निहित है कि दोनों देष सतह से दागी जाने वाली 500 से 5500 किलोमीटर रेंज वाली मिसाइलों का निर्माण या परीक्षण नहीं कर सकते मगर कुछ साल पहले रूस ने नोवाटर मिसाइल लाॅन्च की थी जिसे लेकर अमेरिका खफा है कि उसने प्रतिबंधित रेंज की मिसाइल लाॅन्च की है। हालंाकि रूस ने इसका खण्डन किया पर बात नहीं बनी। अमेरिका रूस की एसएस-20 की यूरोप में तैनाती से भी नाराज़ है। अमेरिका को डर है कि इस मिसाइल के जरिये नाटो देषों पर वह तत्काल परमाणु हमला कर सकता है। संधि लागू होने के बाद 1991 तक करीब 27 सौ मिसाइलों को नश्ट किया चुका था। खास यह भी है कि दोनों देष एक-दूसरे के मिसाइलों के परीक्षण और तैनाती पर नजर रखने की अनुमति भी देते हैं। गौरतलब है कि इस संधि से रूस और अमेरिका षायद दोनों घुटन महसूस कर रहे थे। साल 2007 में रूसी राश्ट्रपति पुतिन ने कहा था कि इस संधि से उसके हितों को कोई फायदा नहीं हो रहा है। वैसे रूस के उपविदेष मंत्री ने संधि से हटने को खतरनाक माना है। माना तो यह भी जा रहा है कि अमेरिका पष्चिमी प्रषान्त में चीन की बढ़ती मौजूदगी को देखते हुए इस सन्धि से बाहर निकलने का विचार कर रहा था जिसका मौका उसे मिल गया है। ट्रम्प ने कहा है कि जब तक रूस और चीन एक नये समझौते पर सहमत नहीं होते तब तक हम समझौते को खत्म कर रहे हैं और फिर हथियार विकसित करने जा रहे हैं। 
वैसे 2014 में तत्कालीन राश्ट्रपति बराक ओबामा के समय एक क्रूज मिसाइल के परीक्षण के बाद आईएनएफ संधि का उल्लंघन हुआ था तब ओबामा ने यूरोपीय नेताओं के दबाव में इस संधि केा नहीं तोड़ने का फैसला किया था। यूरोप का मानना है कि इस संधि के खत्म होने से परमाणु हथियारों की होड़ षुरू हो जायेगी। आईएनएफ समझौते के चलते रूस और अमेरिका मिसाइल परीक्षण के मामले में बंधे थे जबकि चीन इंटरमीडिएट रेंज की परमाणु मिसाइल बनाने और उसकी तैनती को लेकर स्वतंत्र है। ट्रंप को लगता है कि आईएनएफ संधि उसका हाथ बांधे हुए है जबकि चीन वह सारा काम कर रहा है जो अमेरिका संधि के कारण नहीं कर पा रहा है। अमेरिका का संधि से हटने के पीछे रूस एक कारण है पर उससे बड़ा कारण चीन है। चीन की बढ़ती परमाणु और आर्थिक षक्ति अमेरिका को रास नहीं आ रहा। दो टूक यह भी है कि भारत के लिए भी चीन की यह ताकत कहीं न कहीं घातक है क्योंकि प्रत्यक्ष एवं परोक्ष उसकी ताकत का फायदा न केवल पाकिस्तान को मिलेगा बल्कि उसका बेजा इस्तेमाल चीन तमाम पड़ोसी समेत भारत पर कर सकता है। अमेरिका और उत्तर कोरिया के बीच भले ही बातचीत हो गयी हो पर अभी भरोसा बढ़ा नहीं है। चीन, उत्तर कोरिया का सबसे बड़ा षुभ चिंतक है इसे देखते हुए भी अमेरिका को काफी कुछ समझना, सोचना पड़ रहा है। ऐसे में अमेरिका की चिंता लाज़मी प्रतीत होती है पर यदि वह दुनिया पर प्रभुत्व जमाने की फिराक में यह सब कर रहा है तो उसे भी सही करार नहीं दिया जा सकता। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com