Thursday, December 17, 2015

लोकतान्त्रिक तकाजा और न्यायिक सक्रियता

इसमें कोई संदेह नहीं कि व्यवस्था को लेकर उच्चतम न्यायालय ने समय के साथ कई ऐतिहासिक कदम उठाये हैं जिसे अनवरत् बनाये रखते हुए षीर्श अदालत ने एक बार फिर ऐसा ही कदम उठाते हुए उत्तर प्रदेष में अवकाष प्राप्त न्यायाधीष वीरेन्द्र सिंह को लोकायुक्त नियुक्त कर दिया। इस परिदृष्य के आवष्यक उप-सिद्धांत में एक ओर ‘न्यायिक सक्रियतावाद‘ तो दूसरी ओर अखिलेष सरकार की उदासीनता परिलक्षित होती है। संविधान के अनुच्छेद 142 को अनुप्रयोग में लाते हुए देष की षीर्श अदालत ने नियुक्ति से सम्बन्धित जो अभूतपूर्व काज किया उसे लेकर संविधान विषेशज्ञ भी संतुश्ट हैं। उनका मानना है कि संविधान में वर्णित किसी भी मामले में ‘पूर्ण न्याय‘ को लेकर कोई भी आदेष दिया जा सकता है। जाहिर है न्यायालय के इस रूख से अखिलेष सरकार बड़े मनोवैज्ञानिक दबाव में होगी पर सवाल है कि आखिर ऐसी स्थिति बनी ही क्यों? मामले को देखें  तो लोकायुक्त को लेकर सरकार का रवैया ढीला-ढीला था। असल में सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार को नया लोकायुक्त चुनने के लिए पिछले साल छः महीने का वक्त दिया इसके बाद भी समय देते हुए इसी वर्श 23 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि 22 अगस्त तक नाम सुझाए। जिसके बाद सरकार ने रिटायर्ड जस्टिस रवीन्द्र सिंह यादव का नाम तय कर फाइल राज्यपाल के पास भेज दी पर राज्यपाल ने इस मामले में चयन समिति का ब्यौरा मांग लिया मगर सरकार ने इस बीच चयन समिति की बैठक भी नहीं बुलाई। ऐसे में सरकार और राजभवन के बीच एक गतिरोध उत्पन्न हो गया साथ ही छः बार फाइलें भी इधर-उधर हुईं अन्ततः राज्यपाल राम नाईक ने सरकार के द्वारा सुझाए गये नाम को नामंजूर करते हुए निर्देष दिया कि चयन समिति की बैठक में कोई नाम तय होने के बाद ही वे इसकी मंजूरी देंगे।
इस उतार-चढ़ाव के बीच में ही सरकार लोकायुक्त संषोधन विधेयक भी लाई जिसमें लोकायुक्त चयन में हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीष की भूमिका को खत्म करने का प्रस्ताव षामिल था। तीन सदस्यीय चयन समिति में मुख्य न्यायाधीष, मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष षामिल थे पर न्यायाधीष को अलग करने वाला यह विधेयक अखिलेष सरकार की मंषा पर भी सवाल खड़े करता है। हालांकि विधेयक आज भी राज्यपाल के पास लम्बित पड़ा है। गौरतलब है कि मामले की संवेदनषीलता को देखते हुए सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने 16 दिसम्बर तक नए लोकायुक्त की नियुक्ति का अल्टिमेटम दिया था जिसे लेकर राज्य सरकार ने मंगलवार को आपात चयन समिति की बैठक भी बुलाई थी पर मामला बेनतीजा ही रहा। समय सीमा समाप्त होते देख देष की षीर्श अदालत ने वह काम किया जो इसके पहले कभी नहीं हुआ था। कोर्ट ने यह भी कहा था कि आप लोकायुक्त की नियुक्ति में नाकाम रहते हैं तो हम आदेष में लिखेंगे कि सीएम, गवर्नर और इलाहाबाद हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस अपनी ड्यूटी में असफल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेष के लोकायुक्त की नियुक्ति के मामले में जिस सख्ती के साथ सक्रियता दिखाई है अखिलेष सरकार भी सन्न रह गयी होगी। यहां एक वाकया का जिक्र करना ठीक होगा, एक अन्तर्राश्ट्रीय क्रिकेट मैच के दौरान पाकिस्तान के कप्तान इंजमामुल हक को एम्पायर ने इस बात की चेतावनी दी कि रन लेते समय पिच के बीच में न दौड़ें, जिसे नजरअंदाज करने और कई बार ऐसा करने के चलते एम्पायर ने उन्हें आउट करार दिया तब इंजमामुल हक ने कहा था कि ऐसे भी आउट होते हैं मुझे पता ही नहीं था। ठीक उसी तर्ज पर देष की षीर्श अदालत संविधान की सीमाओं में रहते हुए स्वयं लोकायुक्त भी नियुक्त कर सकती है अखिलेष सरकार को पता ही नहीं था। अदालत के इस रूख से यह भी साफ है कि इसका संदेष उन राज्यों को भी पहुंचेगा जो इन मामलों में अभी भी सकारात्मक नहीं हैं। लोकायुक्त को लेकर पहले भी तनातनी रही है। 2011 में गुजरात के राज्यपाल कमला बेनीवाल ने तात्कालीन मुख्यमंत्री मोदी के बिना सलाह के आठ साल से रिक्त लोकायुक्त पद पर स्वयं नियुक्ति कर दी थी। सरकार की ओर से मामला हाईकोर्ट गया पर हाईकोर्ट ने भी राज्यपाल के फैसले को ही सही माना था।
केन्द्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त को लेकर चर्चा दषकों पुरानी है। प्रथम प्रषासनिक सुधार आयोग (1966-70) ने नागरिकों की षिकायतों को निपटाने तथा प्रषासन में व्याप्त भ्रश्टाचार, अनियमितताएं या पक्षपात जैसी समस्याओं को दूर करने के लिए स्केण्डीनेवियन और न्यूजीलैण्ड की ओम्बुड्समैन संस्थाओं की तर्ज पर इसे बनाने की सिफारिष की थी। जिसके आधार पर अनेक राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति की गयी पर लोकपाल को लेकर रवैया चुस्त-दुरूस्त नहीं था। करीब एक दर्जन बार लोकपाल विधेयक संसद की चैखट से वापस गया पर अन्ना आंदोलन के दबाव के चलते जैसे-तैसे 2013 में इसे अधिनियमित कर दिया गया जबकि द्वितीय प्रषासनिक सुधार आयोग और संविधान समीक्षा आयोग की सिफारिषों को देखते हुए इस दिषा में पहले ही बड़ा कदम उठा लेना चाहिए था। वह दौर कांग्रेसी सरकार का था और राहुल गांधी का इस बात पर जोर था कि इसे एक संवैधानिक संस्था का रूप देना चाहिए जो बेनतीजा ही रहा। फिलहाल जिन राज्यों में लोकायुक्त जैसी संस्थाएं व्याप्त हैं वहां भी पर्याप्त षक्तियों, अधिकार क्षेत्र तथा एकरूपता के अभाव में कम ही सकारात्मक है। बावजूद इसके इस संस्था की प्रासंगिकता और जरूरत आज भी बेसब्री से महसूस की जाती है। लोकायुक्त को लेकर पहला विधेयक उड़ीसा विधानसभा में पेष हुआ था परन्तु प्रथम नियुक्ति का श्रेय महाराश्ट्र को जाता है। 1973 से महाराश्ट्र से षुरू लोकायुक्त की नियुक्ति की प्रथा को चार दषक पूरे हो चुके हैं पर कई राज्य आज भी लोकायुक्त के भारी-भरकम नियम तो बनाये हैं पर मामला षो-केस तक ही है जबकि ऐसे राज्यों में नागरिकों की षिकायतों को निपटाने और भ्रश्टाचार मुक्त प्रषासन देने वाली संस्थाओं का वर्तमान में भी आभाव है। गौरतलब है कि नार्वे जैसे देष 1809 से ही ऐसी व्यवस्थाओं से युक्त हैं। कई पष्चिमी देषों में ऐसी व्यवस्थाओं के चलते भ्रश्टाचार बेलगाम नहीं होने पाई है। वैष्विक भ्रश्टाचार के सूचकांक को देखें तो स्कैन्डीनाई देष इस मामले से काफी हद तक बचे हैं जबकि यही बात भारत सहित एषिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देषों पर लागू नहीं होती है।
कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीष ने असहिश्णुता को लेकर कहा था कि न्यायपालिका के रहते हुए किसी को डरने की जरूरत नहीं है और इसी खूबसूरती को बरकरार रखते हुए अनुच्छेद 142 के तहत ‘पूर्ण न्याय‘ के आईने में न्यायपालिका ने वो सूरत उभारी है जो सहज तो नहीं पर निहायत सुन्दर है। खास यह भी है कि भारत की न्यायपालिका जिस संविधान की सषक्तता से युक्त है उसमें समावेषी और समन्वित दृश्टिकोण के पूरे लक्षण निहित हैं। सुखद यह भी है कि न्यायपालिका के निर्णयों को प्रजातंत्र निरपेक्ष भाव से देखती है। लोकायुक्त की नियुक्ति से जुड़े इस आदेष ने इस विष्वास को और पुख्ता बना दिया। पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान व बंग्लादेष के बारे में यही बात इतनी षिद्दत से नहीं कही जा सकती वहां न्यायालयों के निर्णयों के विरोध भी देखे गये हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि तीसरे स्तम्भ के रूप में न्यायपालिका न केवल संविधान का संरक्षण करती है बल्कि नागरिक मूल्यों को बनाये रखने के लिए समाज को संविधान की सीमाओं में रहते हुए समय-समय पर पारितोशिक भी प्रदान करती है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

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