Thursday, July 30, 2015

एक अपराधी के किये की सजा

मेरी फांसी का राजनीतिकरण किया जा चुका है, मुझे पता है कि मैं मरने वाला हूं अब तो कोई चमत्कार ही मुझे बचा सकता है। यह बात याकूब मेमन ने बुधवार की सुबह अपने बैरक के पास तैनात एक होमगार्ड से कही थी। याकूब मेमन भी समझता था कि भारत की सियासत सजा देने या न देने के बीच उलझी हुई है और षायद उसके मन में यह भी रहा होगा कि फांसी वाला मामला इस आपा धापी में लटक सकता है। देखा जाए तो लम्बे अर्से से देष में फांसी देने को लेकर विमर्ष भी जारी है पर इस मामले में अभी किसी प्रकार की दुरूस्त राय नहीं बन पायी है। फिलहाल बाइस बरस के लम्बे इंतजार के पष्चात् नागपुर सेन्ट्रल जेल में मुम्बई बम धमाके के दोशी याकूब मेमन को सजा देने का काम पूरा हो चुका है। सर्वोच्च न्यायालय के तीन वरिश्ठतम् न्यायाधीषों की पीठ द्वारा क्यूरेटिव याचिका खारिज कर देने और महाराश्ट्र के राज्यपाल और फिर राश्ट्रपति द्वारा दया याचिका ठुकराने के बाद ही ऐसा सम्भव हो पाया है। हालांकि फांसी देने वाली सुबह से पहले वाली रात के 2: 30 बजे सुप्रीम कोर्ट बैठी थी पर फैसला टस से मस नहीं हुआ। कहा जाए तो वक्त भले ही लम्बा लगा हो पर न्याय पूरा हुआ है। देष की वाणिज्यिक राजधानी कही जाने वाली मुम्बई में हुए धमाके के चलते 250 से ज्यादा लोगों की जान चली गयी थी। यह इतना बड़ा अपराध था कि याकूब मेमन के सारे बचाव के रास्ते बन्द कर दिय और परिणाम यह हुआ कि उसे फांसी पर लटकना पड़ा।
गुनाह की कई परिभाशा हो सकती है पर याकूब मेमन जैसे गुनाहगार गुनाह की ऐसी परिभाशा रचते हैं कि समाज ही तबाह हो जाए। क्या है याकूब मेमन का गुनाह? इसे भी विस्तार से समझना ठीक होगा। मुम्बई में सिलसिलेवार बम धमाको के लिए भाई टाइगर मेमन की मदद करना तथा विस्फोटकों के लिए वाहन खरीदना साथ ही विस्फोटकों से भरे बैग ड्राइवर को देने जैसे काम याकूब ने ही किये थे। जन्मदिन के ही दिन फांसी पर लटकाये जाने वाले 54 वर्शीय याकूब को लेकर भारत की सियासत भी इन दिनों काफी गर्म है पर इस गहमागहमी के बीच यह नहीं भूलना चाहिए कि फैसला न्यायिक है और किये की सजा मिलनी ही चाहिए। तमाम कानूनी कलाबाजियां भी धमाके के इस दोशी को नहीं बचा सकी। सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बेंच ने साफ कर दिया था कि करनी की सजा भोगनी ही पड़ेगी। जाहिर है सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से देष ने राहत की सांस ली होगी परन्तु हैरत करने वाली बात यह है कि कुछ मुट्ठी भर लोग याकूब मेमन जैसे अपराधी की आड़ में अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हैं जिसे हर हाल में खतरनाक कहा जायेगा। दोश यह भी है कि इसे धर्म और सम्प्रदाय से जोड़ने की भी कोषिष की गई। याकूब मेमन जैसे अपराधी के लिए सहानुभूति की लहर पैदा करने का भी प्रयास किया गया। धर्म के नाम पर राजनीति की बड़ी दुकान चलाने वाले हैदराबाद के सांसद ओवैसी ने तो इस मामले में चीखना ही षुरू कर दिया। ओवैसी ने इसकी आड़ में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और पंजाब के मुख्यमंत्री रहे बेअन्त सिंह के हत्यारों को भी फांसी देने की वकालत कर डाली। उन्होंने यह भी नजीर रख दी कि जब उन्हें उम्र कैद तो याकूब को फांसी क्यों? सवाल है कि ओवैसी जैसे सियासतदान देष में नकारात्मक माहौल क्यों पैदा करते हैं? धर्मनिरपेक्षता का ढोल-नगाड़ा पीटने वाले ऐसे लोग सम्प्रदाय के नाम पर न्यायिक व्यवस्था को भी चुनौती देने से नहीं हिचकिचाते।
लोकतंत्र की बखिया उखेड़ने वाले ओवैसी जैसे और भी नेता हैं जिन्हें ऐसा लगता है कि याकूब मेमन के बहाने मुसलमानों के कुछ वोट को तो हथियाया ही जा सकता है पर वो भूल जाते हैं कि अपराधियों की वकालत करके प्रजातंत्र में वे बदनाम होते हैं। इतना ही नहीं लोकतंत्र भी ऐसे नेताओं को नहीं पचा पाता। दावा तो यह भी किया जाने लगा था कि मानो याकूब मेमन ने आत्मसमर्पण करके भारत पर कोई उपकार किया हो और उसे सजा के बजाय पुरस्कार मिलना चाहिए जबकि यह इल्म होना चाहिए कि ऐसे दुर्दान्त अपराधी किसी के लिए भी तबाही के मंजर हो सकते हैं। तबाही की मुकम्मल साजिष रचने वाले ऐसे लोगों के लिए बचाव करने का कोई विचार आना ही नहीं चाहिए। फिल्म स्टार सलमान खान ने भी मेमन के पक्ष में ट्वीट किया था। जब हो हल्ला हुआ तो माफी मांगते हुए ट्वीट वापिस ले लिया। सलमान खान जैसों का याकूब मेमन के पक्ष में उतरना यह साबित करता है कि ऐसे लोगों के मन भी साजिष और रंजिष से भरे हुए हैं। दूसरे षब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि घटिया लोकप्रियता के चक्कर में आ जाते हैं। मेमन जैसे अपराधी अपराध करते समय कभी लोगों का ख्याल नहीं करते और बाद में धर्म के नाम पर बचने का गलियारा खोजते हैं। कूबत से भरी देष की सर्वोच्च न्यायालय ऐसे लोगों के किये की सजा देने की हैसियत रखती है। देर से ही सही निर्णय सटीक हुआ है। न्यायप्रियता की दृश्टि से भी ऐसा करना जरूरी था। इससे लाखों-करोड़ों को भरोसा होगा कि अपराध का अन्त सम्भव है और अपराधियों के लिए भी यह सूचना है कि इतराने की जरूरत नहीं है सभ्य समाज में सजा से तुम भी नहीं बच पाओगे। फिलहाल अपराध की पटकथा में सजा वाला अध्याय पूरा हो चुका है।
हालांकि धमाकों के कई अन्य आरोपी अभी भी सजा से बाहर हैं जिसमें मुख्य रूप से दाऊद इब्राहिम षामिल हैं। मुम्बई बम धमाके की साजिष रचने में यह अव्वल नम्बर का आतंकवादी है। भारतीय कानून की जद् में इसका न आ पाना यह इंगित करता है कि अभी पूरा न्याय नहीं हो पाया है साथ ही यह संकेत भी स्पश्ट है कि ऐसे आतंकवादियों को षरण देने वाले कहीं अधिक अपराधप्रिय भी हैं। इस मामले में पाकिस्तान हमेषा से आगे रहा है। पाकिस्तान एक ऐसी जड़-जंग कील है जिसकी चुभन से भारत आहत होता रहा है। यह मुल्क आतंकियों की बसावट रखता है और भारत के लिए मुष्किलें पैदा करता है। याकूब मेमन को मिली सजा पाकिस्तान के लिए भी यह इषारा है कि भारत की न्याय व्यवस्था आतंक और अपराध के मामले में कहीं अधिक व्यापक और विस्तृत है। साथ ही इस दृश्टिकोण को भी परिमार्जित करती है कि सियासत कितनी भी परवान चढ़े अपराधी को उसके दोशों की सजा देने में कोई मुरव्वत नहीं की जायेगी। आतंक का खेल खेलने वालों में कई और ऐसे हैं जिनके निषाने पर भारत है। अमेरिकी मीडिया समूह ने बीते दिनों अपनी रिपोर्ट में यह दावा किया है कि आईएसआईएस भारत पर बड़ा हमला करने की फिराक में है। भारत आतंक से लड़ते-लड़ते काफी हद तक स्याह होता जा रहा है जबकि मुष्किले खड़ी करने वाले इससे बाज नहीं आ रहे हैं। इतना ही नहीं धर्म और सम्प्रदाय की राजनीति भी इन मामलों में उभर जाती है जो कहीं से उचित करार नहीं दी जा सकती। सभी को यह समझ लेना चाहिए कि आतंक का न कोई इमान है, न धर्म है और न ही समाज में इसका कोई स्थान। ऐसे में इसे हर हाल में हतोत्साहित ही किया जाना चाहिए।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502



Tuesday, July 28, 2015

डॉ. कलाम के रूप में एक संस्था का अवसान

अपनी पहली जीत के बाद आराम से मत बैठो क्योंकि यदि आप दूसरी बार विफल हुए तो लोग कहेंगे कि आपको पहली जीत किस्मत से मिली थी। पूर्व राश्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के ऐसे तमाम कथन न जाने कितनों के उत्साहवर्धन एवं लक्ष्य प्राप्ति में काम आये होंगे और आगे भी आते रहेंगे। दिमाग से वैज्ञानिक, मगर दिल से दार्षनिक और समाजषास्त्री डाॅ. कलाम की आंखों में विकसित भारत का सपना था। विज़न-2020 इस सपने का चष्मदीद गवाह है। खास यह भी है कि ऐसे सपने उन्होंने अकेले ही नहीं देखे बल्कि भारत की भावी पीढ़ी को भी दिखाये। समाज के सरोकार और उसमें पनपे मूल्य को कैसे वैज्ञानिक बनाया जाता है इसके मिश्रण को भी बाकायदा उन्होंने अनुप्रयोग किया। भारत के राश्ट्रपति जैसे ऊंचे पदों पर पहुंचने के बावजूद अन्तिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति की चिंता करने वाले डाॅ. कलाम भले ही आज हमारे बीच न हों पर उनकी जगाई हुई अलख की रोषनी में भारत विकसित होने के उस सपने की ओर आज भी अग्रसर है जिसे एक दषक पहले देखा गया था। एक विकसित देष क्या होता है, उसकी जरूरतें कैसी होती हैं और उसे कैसे रचाया-बसाया जाता है इसका पुख्ता सबूत डाॅ. कलाम ही हैं। जब-जब विकसित भारत की चर्चा होगी तब-तब इन्हें एक सकारात्मक बोध के तौर पर स्मरण किया जायेगा। सरल विचारधारा और सभी में सराबोर होने वाले जनता के राश्ट्रपति रहे कलाम को कभी नन्हें-मुन्हों की चमकती आंखों में आसमान से ऊंची उम्मीदें दिखाने तो कभी युवाओं में बड़े सपने घोलने के लिए जाना जाता रहेगा।
अगर आप सूर्य की तरह चमकना चाहते हैं तो सूर्य की तरह जलना भी होगा। कथन तो आम है पर इसका प्रयोग षायद ही मिसाइल मैन से बेहतर किसी और ने किया हो। षुरूआती दिनों के जीवन संघर्श से लेकर अन्तिम समय तक इसी अवधारणा से प्रभावित डाॅ. कलाम भारतीय धरा के लिए फिलहाल अब एक धरोहर हो गये हैं। पायलट बनना चाहते थे पर देष को मिसाइल की बुलन्दियों तक पहुंचाया। अन्तरिक्ष में भारत की छलांग के पीछे इन्हीं का योगदान अहम रहा है। कर्मयोगी, भविश्यदृश्टा और भारत रत्न डाॅ. कलाम के बारे में इतना कुछ कहने के लिए है कि कम षब्दों में समेटना पूरी तरह सम्भव नहीं है। एक सन्यासी या एक वैज्ञानिक, एक दार्षनिक या एक समाजषास्त्री कहीं-कहीं तो कवि कहने का भी इरादा बन जाता है। एक व्यक्ति में इतने नाम कैसे समाये होंगे यह भी आष्चर्यचकित करने वाला है। जोखिम और हिम्मत के मामले में भी डाॅ. कलाम जैसा षायद ही कोई दूजा हो। देष में तीन राश्ट्रपति ऐसे बने जिन्हें पद से पहले भारत रत्न मिला है उनमें एक डाॅ. कलाम हैं। बुद्ध मुस्कुराए यह वह दिन है जब भारत ने विज्ञान की गौरव गाथा लिखी थी ऐसा इन्हीं के कमाल से सम्भव हुआ। अनुषासनप्रिय, बच्चों और युवाओं में लोकप्रिय और एक प्रोफेसर के साथ पूर्व राश्ट्रपति के खोने से पूरा देष सदमे में है। सामाजिक कार्यकत्र्ता अन्ना हजारे ने कहा कि कलाम मेरे प्रेरणास्त्रोत रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी की माने तो उन्होंने एक मागदर्षक खो दिया। राश्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की दृश्टि में वे जीवन भर लोगों के राश्ट्रपति रहेंगे।
इन तमाम के बीच एक बड़ा सत्य यह भी है कि डाॅ. कलाम सब कुछ के बावजूद प्रोफेसर कहीं अधिक थे। पढ़ाना, लेक्चर देना उनकी आदतों में षुमार था। जब राश्ट्रपति पद से वर्श 2007 में उन्होंने अवकाष लिया तब वे 75 बरस के थे उसके बाद से लेकर वर्तमान तक उनका पूरा काम अनवरत् बिना थके समाज की भलाई, युवा विकास और विज्ञान के हित में ही रहा। अन्तिम सांस तक वे व्याख्यान से ही जुड़े रहे। देष की सियासत में उच्च पद धारक पदों से हटने के बाद या तो मुख्यधारा से कट जाते हैं या काट दिये जाते हैं पर कलाम जैसी षख्सियत पर यह लागू नहीं होता। बहुत ही गहरे इंसान थे, अग्नि पुरूश, मिसाइल मैन और न जाने क्या-क्या। राजनीतिक सरोकार के बावजूद भी उनका षिक्षकपन गायब न हो सका। प्रोटोकाॅल तोड़कर बच्चों से मिलना युवाओं के बीच षिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध बनाना उनकी खास अदा थी। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में पोखरण परीक्षण, भारत रत्न और राश्ट्रपति तक की यात्रा को विधिवत देखा जा सकता है। जब वर्श 2002 में डाॅ. कलाम को राश्ट्रपति बनाये जाने का मन्तव्य लाया गया तो ऐसा भी देखने को मिला कि लगभग सभी सियासी दल कलाम के मामले में एकमत थे। असल में डाॅ. कलाम एक ऐसे व्यक्ति थे जो सियासतदानों के बीच में कहीं अधिक लोकप्रिय थे। देखा जाए तो अनोखी हेयर स्टाइल वाले पूर्व राश्ट्रपति कभी रिटायर्ड ही नहीं हुए, राश्ट्रपति भवन के दरवाजे सब के लिए खोले। भारत के धुर दक्षिण के रामेष्वरम् में पैदा होने वाले और मुफलिसी के दिनों में समाचार पत्र विक्रेता के रूप में कार्य करने वाले कलाम को अपने राश्ट्रपति पद के दौरान कई चुनौतीपूर्ण निर्णयों का सामना भी करना पड़ा और आलोचना भी सहनी पड़ी जिसमें बिहार में राश्ट्रपति षासन लगाये जाने का निर्णय षामिल था। खुद को साबित करने के मामले में भी वे कभी पीछे नहीं रहे। कलाम ने ‘लाभ के पद सम्बन्धित विधेयक‘ को मंजूरी देने से इंकार कर यह साबित कर दिया था कि राश्ट्रपति रबर स्टाम्प नहीं वरन् संविधान का संरक्षक है। इस फैसले ने सियासतदानों के पसीने छुड़ा दिये थे। ध्यानतव्य हो सोनिया गांधी से लेकर जया बच्चन तथा अनिल अंबानी सहित कईयों को लोकसभा और राज्यसभा का पद छोड़ना पड़ा था। जब कलाम राश्ट्रपति से अवकाष प्राप्त कर चुके थे तब उन्होंने एक बार उद्गार व्यक्त किया था कि उनके राश्ट्रपति के पूरे कार्यकाल में सबसे कठिन निर्णय ‘लाभ के पद के विधेयक‘ को वापस करना ही था।
छात्रों का साथ उन्हें बहुत भाता था। अपनी अनोखी संवाद कुषलता के चलते सभी का मन मोह लेते थे। व्याख्यान के बाद अक्सर वह छात्रों को पत्र लिखने के लिए कहते थे और उनका जवाब भी देते थे। आष्चर्यचकित करने वाली बात यह भी है कि डाॅ. कलाम से जुड़े तमाम लोग विज्ञान के क्षेत्र में काम करते हुए विदेष की यात्रा की पर सादगी के प्रतीक रहे पूर्व राश्ट्रपति का उन दिनों पासपोर्ट तक नहीं बना था। मेहनत के बल पर ऊंचाई को नापने वाले षख्स बहुत देखे होंगे पर इनके जैसे कम ही होंगे। राश्ट्रपतियों में डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद तथा सर्वपल्ली राधाकृश्णन जैसे महत्वपूर्ण षख्सियत भी देष को मिली पर कलाम में जो समर्पण देष के उत्थान एवं विकास के लिए था वो अद्भुत ही कहा जायेगा। ऐसी तमाम अनोखी बातों के चलते वर्श 2012 में एक बार पुनः इन्हें राश्ट्रपति बनाने की सुगबुगाहट षुरू हुई थी जिसकी पहल ममता बनर्जी ने की थी। हालांकि कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं थी। चाहे 12वीं के बच्चों की विज्ञान प्रदर्षनी हो या फिर वैज्ञानिकों का विज्ञान कांग्रेस हो कभी काका कलाम बनकर तो कभी प्रोफेसर के तौर पर यहां भी इनकी मौजूदगी देखी जा सकती है। विज्ञान को प्रोत्साहन देना, इसका समाज के साथ ताना-बाना जोड़ देना और जीवन को विज्ञान की दिषा में चलायमान करने का श्रेय इन्हें ही जाता है। देष के 11वें राश्ट्रपति का षिलांग के आईआईएम में दिया जाने वाला अन्तिम व्याख्यान धरा की चिंता से ही जुड़ा था। आने वाली पीढ़ी और आने वाला इतिहास जब कभी कई व्यक्तियों के मिश्रण वाली षख्सियत को जानना चाहेगा तो इसमें कोई संदेह नहीं कि पहले अध्याय पर डाॅ. एपीजे अब्दुल कलाम लिखा हुआ मिलेगा।


सुशील कुमार सिंह
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Saturday, July 25, 2015

घाटे में जाती लोकतंत्र की संस्था

मानसून सत्र का पहला हफ्ता हंगामे की भेंट चढ़ चुका है। विपक्ष के सख्त तेवर और सरकार के जवाबी हमले के बीच देष की लोकतांत्रिक संस्था घाटे की ओर अग्रसर है। लगातार संसद की कार्यवाही का बाधित होना इस बात का संकेत है कि पक्ष और विपक्ष दोनों में कोई झुकने को तैयार नहीं है। गतिरोध संसद के दोनों सदनों में इस कदर बरपा है कि अच्छे काम-काज की अवधारणा से मानो जनता के प्रतिनिधि बेफिक्र हों। संसद न चलने देने के विरोध को लेकर सत्ता पक्ष के भाजपाई सांसद कांग्रेस के खिलाफ धरना दे रहे हैं मांग है कि स्टिंग मामले को लेकर उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री को हटाया जाये। कांग्रेस का फोकस विदेष मंत्री सुशमा स्वराज के इस्तीफे पर है। सुशमा को कमजोर कड़ी मान कांग्रेस ने अपनी रणनीति भी बदल ली है। कांग्रेस को यह लगने लगा है कि इस्तीफे की तिकड़ी सही नहीं है। ऐसे में व्यवहारिक होगा कि सुशमा पर ध्यान केन्द्रित किया जाए। ध्यानतव्य हो कि राजस्थान के मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और मध्य प्रदेष के मुख्यमंत्री षिवराज चैहान से भी इस्तीफा मांगा जाता रहा है। कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी सुशमा स्वराज को ललित मोदी के मामले में अपराधी तक कह दिया है। इस पर भी हंगामा जारी है। विडम्बना यह है कि निजी सियासत में फंसे देष को  नेतृत्व देने वाले लोकतंत्र की वकालत तो करते हैं पर इसके मर्म को समझने में विफल हैं।
फिलहाल मानसून सत्र एक ऐसी झंझवात में फंस चुका है जिसमें हर हाल में जनता ही नुकसान में होगी। सरकार का पक्ष मामले को तूल देने के बजाय समाधान की ओर होना चाहिए जबकि विरोधियों की प्रकृति के अनुसार एक सीमा तक विरोध लाजमी है पर दुर्भाग्य यह है कि सरकार भी आरोप लगाने में ही सारी कूबत झोंके हुए है जबकि विरोधी तो हठ पर पहले से उतारू हैं। इतना ही नहीं दामन बचाने की होड़ में पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे की कमजोरी को उभारने में ही लगे हैं। संसद की कार्यवाही को लम्बे समय तक बाधित रखना कहीं से ठीक नहीं कहा जा सकता। सदन जनता के पैसों से चलता है, टैक्स देने वाले अपने प्रतिनिधियों से यह उम्मीद लगा कर बैठे होते हैं, कि लोकतंत्र की संस्था में जाकर वह उनके लिए कुछ बेहतर करेंगे। इतना ही नहीं जन भलाई के बड़े-बड़े दावे करने वाले नेता भी सियासत के जुमलेबाजी में वक्त जाया कर रहे हैं। मात्र 23 दिन का मानसून सत्र 30 विधेयकों से जकड़ा हुआ था पर एक हफ्ते का हाल देखकर तो अन्दाजा लगता है कि उम्मीद करना बेमानी है। करीब डेढ़ करोड़ रूपया संसद की एक घण्टे की कार्यवाही पर खर्च हो जाता है जबकि एक दिन में यह आठ से नौ करोड़ रूपए के बराबर होता है और बारीकी से देखा जाए तो ढाई लाख खपाने पर एक मिनट की संसद चलती है। हालात यह हैं कि वर्श भर चलने वाली चार बैठकों में विभाजित संसद का काफी कीमती वक्त हंगामे की भेंट चढ़ जाता है।
देखा जाए तो पिछले वर्श में औसत 73 दिनों का ही सदन चल पाया जबकि 1950 के दषक में लोकसभा की औसत बैठक 127 दिन और राज्यसभा की बैठक 93 दिन की हुई थी। सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि जब सदन को नीति और कानून अधिक मात्रा में चाहिए तो बैठकों की संख्या न्यून की ओर है। खास यह भी है कि पहली लोकसभा (1952-57) में 677 बैठकें हुई थी। पांचवी (1971-77) में 613 जबकि दसवीं लोकसभा (1991-96) में यह औसत 423 का था। पन्द्रहवीं लोकसभा (2009-2014) में 345 दिन ही सदन की बैठक हो पायी। वर्तमान में जिस प्रकार बैठकों को लेकर अड़चने आ रही हैं उससे प्रतीत होता है कि यह आंकड़ा कमोबेष कमजोर ही रहेगा। दरअसल राजनीति जिस कदर कुचक्र लिए हुए है उससे स्पश्ट है कि काम कम और हंगामा ज्यादा होगा। कांग्रेस को सियासत की जमीन चाहिए सत्ता पक्ष को भी अपनी धरातल बचानी है। इस वर्चस्व की लड़ाई में सदन में जो पटकथा लिखी जा रही है फिलहाल उसे कोई नोबेल तो नहीं मिलने वाला पर इतिहास के पन्नों में यह जरूर दर्ज होगा कि देष की चिंता करने वाले सियासतदानों ने सदन की गरिमा को काम-काज में प्रयोग करने के बजाए दाग धोने और दाग गढ़ने तक ही सीमित रखा। किसकी कमीज ज्यादा गन्दी है इस पर भी वक्त जाया किया जा रहा है।
संसद केवल आरोप-प्रत्यारोप लगाने का मंच नहीं है और न ही सरकार के निर्णयों पर मुहर लगाने के लिए है। संसद का काम विमर्ष और बहस के साथ देषीय भावनाओं को समझने की है उन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए है जिसके इंतजार में हर तबका रहता है। सरकारें चाहती हैं कि लोकतंत्र की संस्था पर उनका सिक्का चले जबकि इस बात की भी गुंजाइष रखनी चाहिए कि उन्हें सबका साथ मिले। प्रधानमंत्री मोदी का नारा भी ‘सबका साथ, सबका विकास‘ है। मोदी जब से प्रधानमंत्री बने हैं तब से संसदीय विमर्ष के गतिरोध में बढ़ोत्तरी हुई है। इसका बड़ा कारण सत्र आहूत होने से पहले संसद के बाहर सहमति के आभाव का होना है। सरकार की संवैधानिक बाध्यतायें हैं इसे देखते हुए सरकार का अधिकार भी है और दायित्व भी कि सब कुछ ठीक करने का इरादा रखे पर मानसून सत्र में पुराने रोड़े जिस प्रकार सामने आये हैं उसे देखते हुए बहस और विमर्ष की गुंजाइष तो बहुत है पर नीयत साफ नहीं है। राजनीति निर्लज्जता की होड़ नहीं है बल्कि देष की बिगड़ी हालत को पथ पर लाने के लिए है। फिलहाल वर्तमान राजनीति वाद-प्रतिवाद के मामले में तो सघन है पर संवाद के मामले में कहीं अधिक विरल है। इसे देखते हुए बहुत अच्छे की उम्मीद तो नहीं की जा सकती।
गौरतलब है कि पक्ष-विपक्ष दोनों सदन चलाना चाहते हैं पर हैरत की बात यह है कि चला कोई नहीं रहा है। राज्यसभा में नेता विपक्ष गुलाम नबी आजाद ने सदन नहीं चलने देने के लिए भाजपा को दोशी ठहराया है जबकि सत्ता पक्ष विरोधियों को इस मामले में कटघरे में खड़ा करता है सवाल है कि मानसून सत्र इस्तीफे के लिए लाया गया है या काम-काज के लिए। यह सत्र लोकतंत्र को मर्यादित करने के लिए लाया गया है या तमाषा बनाने के लिए साथ ही इसे देष की चिंता के लिए आहूत किया गया है या स्वयं की चिंता के लिए। जिस प्रकार सियासतदानों की पिलपिलाहट देखने को मिल रही है, तस्वीर साफ है कि मानसून सत्र इसी गतिरोध के साथ अन्तिम तारीख तक सूखा रहेगा। सोचनीय यह भी है कि गांधी प्रतिमा के समक्ष प्रार्थना करने वाले सत्य और सद्बुद्धि के मामले में इतने निर्मम क्यों? क्यों संसद को ठप करने पर अमादा हैं? एक-दूसरे को दबाव में लेने की राजनीति क्यों कर रहे हैं? पोल-पट्टी खोलने में ही सारी कसरत क्यों? घोटाले और घपले को लेकर सवाल खड़े किये जा रहे हैं पर समस्याओं के निस्तारण पर किसी का ध्यान क्यों नहीं? मानसून सत्र में समय क्योंकि बेहद कम बचा है ऐसे में सरकार को चाहिए कि बचे हुए कार्य दिवस पर संजीदगी दिखाते हुए गतिरोध दूर करने का कोई फाॅर्मूला निकाले और विपक्ष को भी इस बात का इल्म रहे कि जनता सब कुछ देख रही है। बावजूद इसके यदि यही रवैया बना रहा तो मानसून सत्र बिना किसी काम-काज के कोरा ही अन्त को प्राप्त कर लेगा।



सुशील कुमार सिंह
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Tuesday, July 21, 2015

इस सत्र में लोकतंत्र पराजित न होने पाये

ऐसा प्रतीत होता है कि 23 दिन चलने वाला मानसून सत्र कई आंधी और तूफान का सामना करेगा। इसकी बानगी सत्र के पहले दिन ही तब देखने को मिली जब ललित मोदी प्रकरण को लेकर सदन में हंगामा हुआ। सत्र के एक दिन पहले ही विपक्ष की एकता में दरार पड़ना इस बात का भी संकेत था कि सरकार के खिलाफ लामबद्ध होने में सभी विरोधी एकमत नहीं हैं। ललित मोदी और व्यापमं जैसे मुद्दे सरकार की मानसून सत्र में बड़ी कमजोरी है पर इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि लोकतंत्र की सबसे बड़ी संस्था में नीतियों के बजाय कुरीतियों को जन्म दिया जाए। इसका अंदाजा पहले से भी रहा है कि सरकार और विपक्ष के बीच ठनेगी जरूर। संसद के छोटे से मानसून सत्र में कई सारे काम होने हैं लेकिन जिस प्रकार की सियासत चल रही है उससे बहुत कुछ हासिल होगा उम्मीद करना बेमानी है। इसी सत्र में 30 से अधिक विधेयकों के लिए सरकार को विमर्ष भी करना है और समर्थन भी जुटाना है जबकि वक्त महज 23 दिन का है। इन्हीं विधेयकों में कई सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना की भांति हैं जिसमें जीएसटी और भूमि अधिग्रहण बिल षामिल है। 1 अप्रैल, 2016 से जीएसटी पूरे देष में लागू होने के लिए प्रस्तावित है जबकि भूमि अधिग्रहण कानून के आभाव में सरकार अध्यादेष के बाद अध्यादेष जारी करने की मजबूरी में फंसी है। माना तो यह भी जा रहा है कि सब कुछ अच्छा नहीं रहा तो सरकार भूमि अधिग्रहण बिल को संसद में रखेगी ही नहीं। ऐसे में एक बार पुनः अध्यादेष जारी करना पड़ेगा जो गिनती के हिसाब से चैथा कहलाएगा।
बहरहाल अगर संसद में गतिरोध दिखता है जिसकी आषंका सौ फीसदी है तो यह उसी प्रकार का रवैया कहा जाएगा जैसे कि बरसों पहले यूपीए सरकार के साथ भाजपा का था। कोलगेट, 2जी स्पेक्ट्रम और तत्कालीन रेल मंत्री पवन बंसल के मामले में कुछ ऐसा ही चित्र वर्शों पूर्व उभरा था जैसा कि आज व्यापमं, सुशमा स्वराज एवं वसुंधरा राजे के मामले में देखने को मिल रहा है। उस समय भाजपा विपक्ष में होने के नाते गतिरोध पैदा करने का काम करती थी अब भाजपा सत्ताधारी होने के नाते कांग्रेस का विरोध झेल रही है। बावजूद इसके मोदी सरकार विपक्षियों से सहयोग की उम्मीद करती है और ऐसा करना लाज़मी भी है जबकि विपक्ष अपने अड़ियल रवैये को अख्तियार किये हुए है। दरअसल लोकतंत्र में विचित्र बातों के लिए कोई स्थान नहीं होता है पर सियासत की सकरी गली में जब लोकतंत्र उलझा हुआ महसूस करे तो सत्ताधारी का धर्म है कि वह लोकतंत्र के लिए रक्षा कवच बने और विरोधी भी उसके न बने। सवाल यह भी उठता है कि साल भर में संसद में सत्र के नाम पर चार बैठकें होती हैं पर क्या इसे अकड़पन और अहम् के चलते लोकतंत्र के खिलाफ कर देना चाहिए? कांग्रेस मुख्य विरोधी की भूमिका में स्वयं को पाती है परन्तु लोकसभा में गैर मान्यता प्राप्त विपक्षी है तथा स्थान के मामले में भी दहाई में मात्र 44 का है जबकि विरोध चार सौ की भांति कर रही है। कांग्रेस की मजबूरी यह है कि बिना मोदी सरकार के विरोध के वह अपना सियासी सिक्का नहीं चला सकती पर क्या इसे लोकतंत्र के लिए पूरी तरह सही करार दिया जा सकता है?
सरकार के पास क्या विकल्प है जिन मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों पर उंगली उठाई जा रही है उनके मामले में सरकार या तो कोई फैसला ले अन्यथा विरोध झेलें। कांग्रेस का साफ कहना है कि जब तक आरोपों से घिरे भाजपाई नेता इस्तीफा नहीं देते संसद नहीं चलने देंगे। सरकार ललित मोदी प्रकरण के चलते, स्मृति इरानी के डिग्री विवाद और मध्य प्रदेष में व्यापमं घोटाले को लेकर घिरी हुई है। ऐसे में इस मानसून सत्र में विरोधी बिना जवाब-तलब के सरकार का पीछा नहीं छोड़ने वाले। प्रधानमंत्री मोदी विपक्ष से सहयोग मांग रहे हैं उनका मानना है कि किसी भी मुद्दे पर चर्चा की जा सकती है और संसद की कार्यवाही चलाना एक साझा जिम्मेदारी है। लोकतंत्र का मजनून भी यही कहता है कि विपक्षी भी लोकतंत्र की मर्यादा का उल्लंघन न होने दें और सरकार सत्ता की हेकड़ी में न रहकर लोकतंत्र की सीमाओं का ख्याल रखें। ऐसा करने से दोनों लांछन से बच सकते हैं। इतना ही नहीं इस प्रकार की विचारधारा से लोकतंत्र भी विजयी हो सकेगा। मानसून सत्र से पहले दो सर्वदलीय बैठकें हुई एक संसदीय कार्यमंत्री वैंकेया नायडू और दूसरी लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने बुलाई थी पर गतिरोध दूर नहीं हुआ। तथ्य यह भी है कि जब सरकार विरोधियों को जनहित के मामले में मान-मनव्वल कर रही है तो विपक्ष का इस तरह अड़े रहना कितना तर्कसंगत है? कहा जाए तो विरोधी सियासत से षायद ऊपर उठना ही नहीं चाहते।
सरकार के लिए कुछ राहत भरी बात यह है कि विपक्ष में कुछ इंच का दरार देखा जा रहा है। सभी विरोधी के विरोध वाले सुर एक जैसे नहीं हैं। ऐसे में मोदी सरकार का उत्साहित होना स्वाभाविक है पर जिस रूप में विपक्ष की तैयारी है उसे देखते हुए सरकार के लिए सब कुछ आसान नहीं होने वाला। सरकार की ओर से पहले ही यह कहा जा चुका है कि विवादित प्रकरण को लेकर कोई भी इस्तीफा नहीं देगा। वैंकेया नायडू ने सरकार की ओर से यह दर्षन दे दिया है कि जब किसी ने गैर कानूनी या अनैतिक कार्य किया ही नहीं तो इस्तीफे का सवाल क्यों? सरकार जितनी साफ गोही दिखा रही है असल में उतना है नहीं। मौके की नजाकत को देखते हुए सरकार गैर कांग्रेसी दलों पर भी नजर रखे हुए है। भूमि विधेयक के मामले में समाजवादी पार्टी का नरम पड़ना मोदी सरकार के लिए थोड़े अच्छे संकेत हैं पर इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि सपा का विरोध खत्म हो गया। विरोध के सुर ऊंचे हैं ऐसे में सवाल है कि आरोपों की मूसलाधार बारिष से सरकार अपने को कैसे बचायेगी? माना जा रहा है कि जिस प्रकार भाजपाई केन्द्रीय मंत्री और मुख्यमंत्री इन दिनों ललित मोदी और व्यापमं के चलते घिरे हैं उसे देखते हुए विरोधी सरकार को बख्षने के मूड में नहीं हैं।
कांग्रेस ने भाजपाई नेताओं के इस्तीफे जरूरी बताये हैं। गुलाम नबी आजाद सुचारू सत्र चलाने में सहयोग देने के लिए इस्तीफे की षर्त रखी है। सरकार ने भी कांग्रेस के अल्टीमेटम को स्वीकार न करने का इरादा जता दिया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुप हैं जबकि विपक्षी हंगामे पर उतारू हैं। विपक्ष के असहयोग वाले रवैये के बावजूद सरकार को अपनी जिम्मेदारी तो निभानी ही पड़ेगी चाहे अध्यादेष ही क्यों न लाना पड़े। परम्परा यह रही है कि रचनात्मक मुद्दों पर पक्ष-विपक्ष हमेषा सहमत होते रहे हैं। आगे के मानसून सत्र के 22 दिनों में यह भी पता चल जायेगा कि लोकतंत्र की सबसे बड़ी संस्था में सियासत की जीत हुई या फिर प्रजातंत्र विजित हुआ। परिस्थितियां सरकार के विरोध में है पर विपक्ष को भी सोचना होगा कि जनता के पैसे से चलने वाली भारी-भरकम संसद और उसमें होने वाले काज देष के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं और सरकार को भी कोई ऐसा रास्ता निकाल लेना चाहिए जिससे विपक्ष के हंगामे को कम किया जा सके। यदि ऐसा हुआ तो बजट और ग्रीश्म सत्र की तुलना में मानसून सत्र लोकतंत्र के लिए बेहतर सिद्ध होगा।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502

Monday, July 20, 2015

सत्र नया, पर रोग पुराना

वास्तव में सुषासन का मतलब है, आपसी वार्तालाप एवं पारस्परिक विचार विमर्ष के गुणों से विभूशित लोकतंत्र का होना, पर सियासत में जिस प्रकार सत्ता और विपक्ष की पिछले कुछ महीनों से आपसी ठन-मन है उसे देखते हुए प्रतीत होता है कि इस मानसून सत्र में मेल-मिलाप वाली बारिष का आभाव रहेगा। मंगलवार से षुरू होने वाले इस सत्र में महाभारत होने के भी पूरे आसार हैं। ऐसा नहीं है कि वार एकतरफा होगा, जवाबी हमले की तैयारी में सरकार ने भी कमर कस ली है। इस बार के सत्र में कुछ नये मुद्दे मुखर होंगे तथा कुछ पुराने रोगों के निस्तारण का भी प्रयास किया जायेगा। जब दिसम्बर 2014 में मोदी सरकार ने भू-अधिग्रहण अध्यादेष की उद्घोशणा की थी तो षायद ही उन्होंने सोचा होगा कि यह विधेयक कानून की षक्ल लेने में इतनी कसरत करवा देगा। सत्र-दर-सत्र बीतते जा रहे हैं और सरकार इस विधेयक के मामले में लगातार कमजोर पड़ती जा रही है। फिलहाल अभी भी विपक्ष के साथ सहमति नहीं बन पायी है ऐसे में यह भी हो सकता है कि सरकार इस सत्र में भूमि विधेयक को पेष ही न करे। यदि ऐसा हुआ तो सरकार की चैथी बार अध्यादेष जारी करने वाली मजबूरी भी देखी जा सकेगी। सरकार की अपनी चिंता है और विपक्ष का अपना अडंगा, इन दोनों के बीच भू-अधिग्रहण बिल ठोकरें खा रहा है। स्थिति यह है कि विपक्ष सरकार की तमाम कोषिषों के बावजूद साथ देने के लिए तैयार नहीं है और सरकार अच्छे काम-काज का हवाला दे रही है। इन दिनों मोदी सरकार की मुष्किल यह भी है कि उनके कई केन्द्रीय मंत्री और मुख्यमंत्री आरोपित किये गये हैं। जिसमें विदेष मंत्री सुशमा स्वराज, मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति इरानी तथा मध्य प्रदेष के मुख्यमंत्री षिवराज चैहान और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया षामिल है। स्थिति को देखते हुए बीते रविवार गुलाम नबी आजाद ने मानसून सत्र चलने देने के लिए एक बार फिर इन्हें हटाने की षर्त रख दी है।
पिछले एक-दो महीनों में जिस प्रकार सरकार अपने मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को लेकर जलालत झेल रही है उसे देखते हुए यह लगता है कि मानसून सत्र आसान नहीं होने वाला। व्यापमं और ललित मोदी दो ऐसे मुद्दे हैं जिसका जवाब विपक्ष सरकार से जरूर चाहेगा पर जवाब क्या होगा? इसका पता आने वाले दिनों में ही चलेगा। जहां व्यापमं के चलते षिवराज सिंह चैहान घिरे हैं वहीं ललित मोदी से सम्बन्ध की वजह से सुशमा स्वराज और वसुंधरा राजे हाषिये पर हैं जबकि स्मृति इरानी ने योग्यता में हेर-फेर करके सरकार के लिए मुष्किलें खड़ी की है। देखा जाए तो मोदी ने इस प्रकार के किसी भी मामले में कोई सफाई भी नहीं दी है यह जरूर उद्घाटित हुआ है कि कोई भी इस्तीफा नहीं देगा। मोदी सरकार विगत् कुछ महीनों से लोकप्रियता के मामले में भी ढलान की ओर झुकी हुई मानी जा रही है। एक वर्श दो माह की इस सरकार को बहुत कारगर और उम्दा होने का तमगा भी नहीं दिया जा रहा है। सुषासन की दुहाई देने वाले मोदी अभी परिभाशा तक ही पहुंचे हैं जबकि पूरी व्याख्या के लिए षायद कार्यकाल तक का इंतजार करना पड़ेगा। मोदी सरकार मोटी चमड़ी वाली है विपक्ष के ऐसे आरोप यह दर्षाते हैं कि रूख नरम नहीं होगा। मुख्य विपक्षी कांग्रेस की यह रणनीति हो सकती है कि भाजपा में आरोपित किये गये नेताओं पर बाहर करने की जिद पर अड़ा जाए ताकि सरकार को काबू में किया जा सके मगर जिस प्रकार सरकार भी नेताओं के बचाव में उतर चुकी है उससे स्पश्ट है कि विपक्ष की यह रणनीति काम-काज को प्रभावित तो कर सकती है पर भाजपा के आरोपित नेताओं को हटवाने में कामयाब होगी। इस पर संदेह है।
सरकार की मुष्किल यह भी है कि जहां एक ओर पुराने रोगों से छुटकारा नहीं मिल रहा है वहीं भितर घात और नये दाग के चलते अड़चने बढ़ती जा रही हैं। कई अहम बिल लम्बित पड़े हैं पड़ताल से पता चलता है कि राज्यसभा में जीएसटी, व्हिसल ब्लोवर संरक्षण, भ्रश्टाचार रोकथाम, किषोर न्याय संषोधन विधेयक जबकि लोकसभा में एससी-एसटी संषोधन विधेयक, दिल्ली हाईकोर्ट संषोधन बिल और विद्युत संषोधन विधेयक अटके हैं। बीते दिनों आधा दर्जन से अधिक केन्द्रीय मंत्रियों की बैठक और आक्रामक रूख अख्तियार करने का निर्णय यह दर्षाता हे कि सरकार को भी संसद के मानसून सत्र में विपक्ष के तेवर का अंदाजा है। सरकार भी जानती है कि व्यापमं और ललित मोदी दो ऐसे मुद्दे विपक्ष के हाथ में हैं जिससे मानसून सत्र का कबाड़ा हो सकता है। मुख्य विपक्षी कांग्रेस इस मुद्दे के सहारे जनता के बीच अपनी जमीन को चैकस करने की चाह में होगी। इतना ही नहीं जमीन खो चुकी कांग्रेस जमीन वाले बिल के मामले में भी तेवर कड़े ही रखेगी। कांग्रेस जानती है कि भू-अधिग्रहण बिल के चलते एनडीए सरकार जन आक्रोष और संदेह में फंसी हैं ऐसे में इसके विरोध वाले हथियार से लाभ को बरकरार रखा जा सकता है। लोकतंत्र और जनता की सरकार से हमेषा यह अपेक्षा रही है कि षीषे के कमरे में सब कुछ करें, पर सियासत का मजनून यह होता है कि बंदोबस्त और चैकसी के बावजूद चूक हो ही जाती है। मोदी सरकार भी ऐसी कई चूक से प्रभावित है पर उसे नहीं स्वीकार करने वाली मजबूरी भी उनमें देखी जा सकती है। जिस प्रकार ललित मोदी और व्यापमं का मामला उठा है यह साफ-सुथरी मोदी सरकार के लिए दाग वाले मिथक से कम नहीं है। सरकार की दुविधा यह भी है कि सत्र-दर-सत्र जिस प्रकार विपक्ष कमजोर होने के बावजूद हावी होता है उसके लिए कौन सी काट लायी जाए। लोकसभा में बहुमत वाली मोदी सरकार राज्यसभा की कमजोर गणित से परेषान है, वर्श 2017 तक कमोबेष स्थिति यही रहेगी। यही कारण है कि विपक्ष को साथ लेने की फिराक में सरकार मान मनव्वल में लगी रहती है पर विपक्ष है कि सरकार को कटघरे में खड़ा करने की फिराक में रहता है।
मानसून सत्र मोदी सरकार की सालाना परीक्षा के बाद द्वि-मासिक टेस्ट भी होगा। सरकार भी समझ रही होगी कि अटके बिलों को तो छोड़िये व्यापमं जैसे मुद्दे भी इस बार व्यापक हो जायेंगे। सरकार को यह भी सलाह दी जा सकती है कि यदि उसे इस सत्र में कामकाजी रवैया रखना है तो व्याप्त खामी को सिर झुकाकर मान लें। आगामी सितम्बर में बिहार विधानसभा का चुनाव होना है जिसमें कुछ ही दिन षेश हैं और जिस प्रकार मोदी सरकार की लोकतंत्र में पकड़ बनी है उसे देखते हुए अंदाजा लगाना आसान है कि बिहार की सत्ता को बेदखल कर स्वयं काबिज होने की जद्दोजहद में भी होंगे। दाग अच्छे होते होंगे पर लोकतंत्र में यह खपते नहीं हैं। दाग के साथ बिहार की जनता भी पूरा विष्वास करेगी कहना मुष्किल है। भाजपा जिस तरह एक दलीय सत्ता का स्वाद चख रही है हसरत तो यह भी होगी कि सत्ता से भरी थाली में बिहार को भी परोसा हुआ देखे। फिलहाल केन्द्रीय राजनीति में ताजा हालात यह है कि विपक्ष त्यागपत्र पर अड़ा है और सरकार काम-काज का हवाला दे रही है। लोकतंत्र चाहता है कि अड़चनें कम हो और जन भालाई अधिक हो जबकि मानसून सत्र इस फिराक में होगा कि वह जनता के दुःखों को धोने के काम में आये।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Friday, July 17, 2015

सुशासन तो बोधगम्य पर भूमिका अधूरी

जब प्रत्येक क्षेत्र में परिवर्तन का परीक्षण किया जायेगा तब कहीं जाकर सरकार चलाने की षैली का पता चल पायेगा। एक साल से अधिक की अवधि वाली मोदी सरकार को लेकर विभिन्न राय और विमर्ष आते रहे हैं पर इस एक साल के भीतर झांका जाये तो गरीबों को क्या फायदा हुआ, किसानों के लिए सरकार कितनी हितैशी रही, रोजगार के क्षेत्र में कितना दम और ताकत लगा और निवेष को लेकर योजनायें कितनी आषक्त लिये हुए हैं? इसका भी अन्दाजा लगाना मुमकिन है। सरकार ने कई नई योजनाएं पेष की हैं। स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक सुखद आष्चर्य यह है कि देष को एक ऐसा नेतृत्व मिला है जिसमें उम्मीद अधिक है भले ही धरातल पर उतना न दिखता हो। युवाओं को प्रोत्साहित करने और भारत को बदलने की मुहिम से पिरोयी मोदी सरकार के लिए सुषासन सब कुछ बदलने की ताकत है। भारतीय राजनीति ने वर्श 1989 के दौरान गठबन्धन युग में प्रवेष किया था। उस समय यह मन्तव्य भी विकसित होने लगा था कि राश्ट्रीय उद्देष्य राश्ट्रीय राजनीति से गायब हो सकते हैं। कोई निष्चित लक्ष्य सम्भव नहीं है। ऐसा ही कुछ देष के सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य में भी दृश्टिगोचर होने लगा था। राश्ट्रीय और अन्तर्राश्ट्रीय दोनों मामलों में केन्द्रीय नेतृत्व अक्षम एवं कम पारदर्षी माना जाने लगा है। उलझन तो यह भी थी कि दुनिया भारत के व्यवहार को लेकर नये विमर्ष की ओर न चली जाए। अन्तर्राश्ट्रीय सम्मेलनों में भी भारतीय नेतृत्व काफी हद तक हाषिये पर जाता हुआ दिख रहा था।
किसे पता था कि वर्श 2014 में भारतीय लोकतंत्र गठबंधन की गांठ को खोलते हुए अदम्य साहस के साथ एक ऐसे जनादेष की ओर झुकेगा जहां से सारे समीकरण जनमत को नमस्कार करेंगे और इस जनादेष का नेतृत्व मोदी करेंगे। इसी वर्श 26 मई को मोदी प्रधानमंत्री के तौर पर देष को नेतृत्व देने लगे। कई उद्घोशणाओं, नियोजनों और कार्यक्रमों के बूते देष नई राह की ओर चल पड़ा। वर्श 1991 में नई आर्थिक नीति की घोशणा हुई थी जिसे उदारीकरण की अवधारणा में कसकर देखा जाता है। यह एक ऐसी आर्थिक घटना थी जो देष के इतिहास को चमकदार बनाने के लिए जानी जाती है। तीन दषक बीतने के बाद वर्तमान में भी उदारीकरण के धरातल पर सुषासन की जमीन का तैयार होना इसकी मजबूती का प्रमाण है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सुषासन के बड़े हिमायती हैं। इस बात की बहस भी हो सकती है कि सुषासन की धरातल फिलहाल भारत में कितनी बेहतर हुई है? सरकार की सफलता और विफलता को लेकर नये विचारों का सृजन सम्भव किया जा सकता है। जायजा तो इस बात का भी लिया जा सकता है कि स्किल इण्डिया, डिजिटल इण्डिया और गुड-गवर्नेंस के मामले में मोदी सरकार कितनी जायज सिद्ध हुई है। सरकार का पहला वर्श हलचलों से भरा रहा है। मोदी भी इस एक वर्श में देष और विदेष में अपना दायरा विस्तारित करने में संलग्न रहे। अब तक जो मुद्दे अछूते थे उन्हें छूने की कोषिष भी की गयी पर यह पड़ताल का विशय है कि क्रियान्वयन और उसका प्रभाव कहां तक पहुंचा है।
प्रधानमंत्री के षपथग्रहण समारोह के दिन से ही विदेषी मेहमानों का देष में आगमन षुरू हो गया था। विकसित और विकासषील देषों के साथ पड़ोसी मुल्कों से मोदी के कूटनीतिक सम्बन्ध षुरूआती दिनों में ही संकेत देने लगे थे। विदेष दौरों में भूटान को पहले चुन कर छोटे पड़ोसी देष की प्रासंगिकता को स्पश्टता दे दी। जानकार भी मानते हैं कि मोदी ने षासन का नया अन्दाज विकसित किया है। आम लोगों से सीधे संवाद स्थापित करना, लीक से हटकर तरीका अपनाना, जड़ जंग हो चुके रेडियो से देष की जनता से जुड़ना मोदी की नायाब और लकीर से हटकर काम करने की विधा ही है। सरकार की चिंता का एक महत्वपूर्ण विशय भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति भी है। धीरे-धीरे देष में निवेष का माहौल बना। पिछली तिमाही में जीडीपी भी 9 फीसदी तक पहुंच गयी जो इस बात का संकेत था कि निकट भविश्य में विकास के मामले में भारत चीन को पीछे छोड़ सकता है। इतना ही नहीं देष का विदेषी मुद्रा भण्डार 350 अरब डाॅलर तक पहुंच गया। सब कुछ इतना आसान नहीं था। एक विचारक के नाते यह विमर्ष भी मेरे सम्मुख आता रहा है कि देष मे सुषासन की धरातल कितनी मजबूत व परिपक्व है पर हो सकता है कि इसके संतोशजनक जवाब अभी न बन पाये हों मगर जो धारा देष में चल रही है उसे देखते हुए भविश्य के लिए बेहतर जवाब की उम्मीद की जा सकती है।
सुषासन देष के विकास की वह अवधारणा है जहां लोकतंत्र अप्रतिम हो जाए। सरकारें जनता के उन मांगों के अनुरूप अपने को ढाल लें जहां से विकास का सर्वांगीण रूख अख्तियार होता हो जिस हेतु मजबूत बुनियादी ढांचे की जरूरत है। आने वाले सालों में भारत का विकास इस बात पर भी निर्भर करेगा कि सुषासन की धरातल कितनी मजबूत हुई है। प्रधानमंत्री की कई योजनाओं में षामिल एक योजना ‘जन-धन‘ जिसे बड़ी कामयाबी के रूप में देखा जा रहा है। गरीबों को बैंक का खातेदार बना देना फिलहाल बड़ी उपलब्धि है पर इस सच से भी अंजान नहीं रहना चाहिए कि जनधन से अभी जनता को बल प्राप्त नहीं हुआ है। देष को स्वच्छ बनाने की मुहिम भी चली है। इस मामले में बात जरूर बनती दिख रही है। सार्थक पहल यह भी है कि प्रधानमंत्री ने सरकारी अमले में कमी कर दी है बेहतर प्रषासन देने की कोषिष में ‘लेस गवर्नमेन्ट और मोर गवर्नेंस‘ का नारा दिया है जिसका मतलब साफ है सरकारी कामकाज को इस कदर आसान बनाना कि पहुंच में आखिरी व्यक्ति भी आ जाए। योजनाओं को लागू करने में पारदर्षिता की कमी न हो साथ ही पिलपिलाती नौकरषाही को कहीं अधिक जिम्मेदार बनाना। हाल ही में तीन सामाजिक योजनाओं की घोशणा की गयी जिससे सरकार की मनोदषा को आंका जा सकता है। यह सामाजिक योजनाएं भी सुषासन के मार्ग को अबाध बनाने का प्रयास ही है।
प्रगति के दो मार्ग होते हैं एक वह जिसमें व्यापक निश्कर्श छुपे होते हैं दूसरे वे जिसमें सामाजिक जीवन का सहचर्य होता है। जानकार मानते हैं कि मोदी ने जिस तरह से केन्द्र सरकार को चलाया है इससे उनके समर्थक और आलोचक दोनों ही चैंक गये हैं। आलोचकों की उलझन यह है कि प्रधानमंत्री ने पिछली योजनाओं को किस मनोदषा के साथ समाप्त किया उन्हीं की दूसरी उलझन यह भी है कि घोशित नई योजनाएं किस आवेष का हिस्सा हैं। फलन बिन्दु पर जाया जाए तो प्रधानमंत्री मोदी की एक साल की उपलब्धि का बहीखाता कमजोर ही रहा है। मोदी प्रचण्ड बहुमत के प्रधानमंत्री हैं पहला साल सरकार को रचाने-बसाने में निकल गया दूसरे साल के भी दो महीने निकलने वाले हैं। असमंजस यदि है तो इस बात का कि सब कुछ के बावजूद क्या सुषासन की धरातल परिपक्व हुई? विगत् वर्शों में देखा जाए तो भारत की राजनीति में सुषासन एक चैप्टर से अधिक कुछ नहीं था पर इन दिनों मोदी ने इसे एक पुस्तक का रूप देने की कोषिष में लगे हैं पर इस विमर्ष को भी कमतर नहीं आंका जाना चाहिए कि भारत के जिस मंच पर सुषासन बोधगम्य हो रहा है अभी उसकी भूमिका अधूरी है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Wednesday, July 15, 2015

गैर अनुशासित रवैये से जकड़ा पाकिस्तान

कष्मीर मुद्दा षामिल किये बगैर भारत से बातचीत की कोई प्रक्रिया षुरू नहीं होगी। इस बयानबाजी से एक ओर जहां पाकिस्तान अपनी संकुचित सोच को दर्षाता है वहीं दूसरी ओर यह जताता है कि भारत की कोई भी कवायद उसके लिए मायने नहीं रखती। कष्मीर को जबरदस्ती मुद्दा बनाने की कोषिष पाकिस्तान के सत्ताधारियों के लिए अन्दरूनी मजबूरी भले हो पर इससे यह सच्चाई तो नहीं बदलने वाली कि जम्मू-कष्मीर भारत का अभिन्न अंग है। बीते 10 जुलाई को रूस के उफा में ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री मोदी और षरीफ के बीच इस बात की सहमति बनी थी कि मुम्बई बम कांड के आतंकी की आवाज को साझा किया जायेगा। रूस में उठाया गया पाकिस्तान का यह कदम मात्र 48 घण्टे के अंदर पाकिस्तान में पल्टी मार गया। नवाज षरीफ के सलाहकार सरताज अजीज ने रूख साफ किया कि कष्मीर के बिना कोई भी काज सम्भव नहीं है। इसमें अचरज की कोई बात नहीं है कि पाकिस्तान ने यह गैर वाजिब काम क्यों किया? दरअसल पाकिस्तान के अन्दर एक ऐसी उथल-पुथल है जिसकी वजह से वहां के निर्णयकत्र्ता यदि आतंकवाद के विरूद्ध कुछ करें  या कष्मीर के बगैर भारत से डायलोग करते हैं तो उनका पाकिस्तान में जीना मुहाल हो सकता है। इसी डर से पाकिस्तान के आका बेहतर सोच से परे रहते हैं साथ ही जितना अधिक जहर भारत के विरूद्ध उगल सकते हैं उतने ही वे सुरक्षित रहेंगे। षरीफ के सलाहकार सरताज अजीज आतंकवादियों के तो अजीज हैं पर अमन-चैन को लेकर उन्हें कोई चिंता नहीं सताती। इसी परिपाटी का निर्वहन करते हुए। मोदी-षरीफ की उफा में हुई मुलाकात और हुये वादों का पाकिस्तान के लिए कोई मायने नहीं।
आतंकवाद के सभी रूपों की आलोचना करते तो सभी हैं पर कुछ अप्रत्यक्ष तौर पर इसके हिमायती भी सिद्ध हुए हैं। चीन ने मुम्बई बम काण्ड के मास्टर माइंड जकीउर रहमन लखवी को संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् से बा-इज्जत बरी कराने में जो अगुवाई की उसे सारी दुनिया ने देखा। एक ओर चीन आतंकवाद को सिरे से खारिज करता है, उसकी आलोचना करता है वहीं दूसरी ओर आतंकियों के लिए सुरक्षा कवच बनने का काम करता है। भारत 2008 के मुम्बई हमले के आरोपियों को कठघरे तक ले जाने के लिए पाकिस्तान को पर्याप्त सूचना और सबूत पहले ही सौंप चुका है बावजूद इसके पाकिस्तान सरकार ने कोर्ट में लखवी के खिलाफ पर्याप्त सबूत पेष नहीं किये जिसके चलते उसे कोर्ट से जमानत मिल गयी और 166 लोगों का हत्यारा आज षहरी जिन्दगी जी रहा है। जब भारत की यह षिकायत संयुक्त राश्ट्र पहुंची तो उस पर कार्यवाही होने से पहले ही चीन ढाल बन कर पाकिस्तान से गाढ़ी दोस्ती का परिचय दे दिया। चीन के एक थिंक टैंक ने आतंकवाद, विषेश तौर पर कट्टरपंथी इस्लाम की ओर से उत्पन्न खतरे से मुकाबला करने के लिए भारत और चीन को संयुक्त प्रयास करने की बात कही है। भारत के षंघाई सहयोग संगठन का सदस्य बनने से यह सम्भव भी हो सकता है पर हैरत से भरी बात यह है कि जो चीन लखवी के मामले में अपना चरित्र आतंक के प्रति नरम कर लिया है उससे इस प्रकार की अपेक्षा रखना कितना विष्वसनीय होगा?
रूस के उफा में आयोजित षिखर सम्मेलन में भारत और पाकिस्तान को षंघाई सहयोग संगठन में षामिल कर लिया गया था। छः सदस्यीय इस संगठन में चीन काफी प्रभावषाली माना जाता है। भारत और पाकिस्तान का इस समूह में होना यह दर्षाता है कि अन्तर्राश्ट्रीय मंचों पर तो पाकिस्तान वह सब कुछ करना चाहता है जो उसके लाभ के लिए है जबकि  उसकी दोहरी नीति यह है कि वह अपने देष के अन्दर आतंकवाद को जीवित रखना चाहता है। सवाल है कि अन्तर्राश्ट्रीय संगठन क्या लफबाजी के लिए बनाये जाते हैं? क्या ऐसे संगठनों की चिंता आतंकवाद की समाप्ति के लिए नहीं होने चाहिए? दो-तीन दिन के सम्मेलनों में दावे सभी करते हैं पर जब अपने वतन वापस आते हैं तब जहर उगलने का काम करते हैं। पाकिस्तान और चीन दोनों को इस मामले से बरी नहीं किया जा सकता। एक बात और इतिहास को पड़ताल कर देखा जाये तो साफ-साफ यह भी दिखाई देता है कि भारत को परेषान करने में बीजिंग वाया इस्लामाबाद का सहारा लेता है जबकि इस्लामाबाद भारत के लिए कांटों से भरी सोच तो रखता ही है। पाकिस्तान एक ऐसे लोकतंत्र को हांकता है जिसमें कल्याणकारी समाज नहीं बल्कि आतंकी समाज का निर्माण हो रहा है। अचरज भरी बात यह भी है कि दुनिया जानती है कि पाकिस्तान आतंकियों का षरणगाह है बावजूद इसके उस पर अमेरिका और चीन की नियामतें बरसती रहती हैं। चीन चाहता है कि पाकिस्तान पर उसका दखल इस कदर हो कि अमेरिका की आवष्यकता ही न पड़े ताकि दबाव और प्रभाव के चलते पाकिस्तान को भारत के खिलाफ बेहतरी के साथ इस्तेमाल किया जा सके।
पाकिस्तान की कथनी और करनी में हमेषा से फर्क रहा है। पाकिस्तान कष्मीर के मामले में जिस प्रकार अड़ियल रवैया अपनाये हुए है उससे तो उसकी संकुचित सोच का पता चलता है। पाकिस्तान भारत के साथ कई अन्तर्राश्ट्रीय मंच साझा करता है। द्विपक्षीय वार्ता भी होती रहती है। पिछले 14 माह की मोदी सरकार और षरीफ से हुई कई मुलाकात के बावजूद विकास वहीं खड़ा है जबकि पाकिस्तान में आतंकवाद की फसलें कहीं अधिक लहलहा रही है। प्रतीत तो यह भी होता है कि भारत आतंकवाद के मामले में एक बार फिर अकेला पड़ गया है। सवाल है कि जिस आतंकवाद से विष्व भर के देष त्रासदी झेल रहे हैं उसकी लड़ाई केवल भारत की कैसे हो सकती है? क्या पाकिस्तान के आतंकी सुरक्षा वाले रवैये से भारत को भी सख्त रूख अख्तियार नहीं कर लेना चाहिए? क्या बातचीत को जारी रखना सही होगा। क्या वैष्विक स्तर पर पाकिस्तान के खिलाफ जोरदार आवाज नहीं उठानी चाहिए? भारत को यह भी जताने में कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए कि उसके नरम होने का मतलब पाकिस्तान का गैर अनुषासित होना बर्दाष्त नहीं किया जायेगा।



लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502


Monday, July 13, 2015

शरीफ की शराफत केवल अंतर्राष्ट्रीय मंच तक

पिछले साल मई की 26 तारीख को जब मोदी की प्रधानमंत्री के तौर पर ताजपोषी हो रही थी तो इसमें षामिल कई पड़ोसी देषों में पाकिस्तान भी न्यौत दिया गया था और वहां के प्रधानमंत्री नवाज षरीफ ने इसमें षिरकत भी की थी। यह मोदी-षरीफ की पहली मुलाकात थी, तब से अब तक 14 महीनों के दरमियान कई अवसर आये जब दोनों की मुलाकातें हुई पर पड़ताल यह बताती है कि महीनों खपाने के बाद भी पाकिस्तान सम्बंधों के मामले में वहीं खड़ा है। असल में पाकिस्तान एक ऐसा लोकतंत्र रखता है जिसमें प्रजातांत्रिक मूल्य तो हैं पर इससे जुड़े षासकों की नीयत भारत को लेकर कहीं अधिक गिरावट से युक्त है साथ ही मिजाज दुष्मनी से भरा हुआ है। भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के बाद से ही सम्बन्ध कमोबेष इसी प्रकार के रहे हैं।  लोकतंत्र की हत्या करने वाले कई षासकों का भी समय-समय पर उदय देखा जा सकता है। इनकी हुकूमत भी भारत के मामले में भरपूर दुष्मनी लिये हुए थी। जब पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार ही इस कदर हो जो कि भारत के प्रति आग के अलावा कुछ न उगलती हो तो तानाषाहों से भला क्या उम्मीद की जा सकती थी? दर्जनों बार भारत-पाकिस्तान द्विपक्षीय वार्ता हुई, कई मसले पाकिस्तान संयुक्त राश्ट्र संघ तक ले गया, सार्क के मंच पर भी बैर-भाव चलता रहा। वाजपेयी -मुषर्रफ के समय का काठमाण्डू सार्क सम्मेलन से लेकर मोदी-षरीफ तक  कमोबेष यही दौर बना रहा। ताजा हालात यह है कि उफा में ब्रिक्स के प्लेटफाॅर्म पर कूटनीति से भरी मुलाकात तो हुई पर नवाज षरीफ के लिए बेअसर ही कही जायेगी। इस बात को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि चीन ने जिस प्रकार आर्थिक और सुरक्षा निवेष करके पाकिस्तान का मन बढ़ा दिया है और जिस कदर घनिश्ठता को गगनचुम्बी बनाने का प्रयास किया है इसका साफ असर भारत-चीन सम्बन्धों पर देखा जा सकता है।
मुम्बई हमले का मास्टर माइंड जकिउर रहमान लखवी के मामले में ताजा घटनाक्रम यह है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री षरीफ की षराफत एक बार फिर बेनकाब हुई है। षरीफ ने ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान रूस के उफा में मोदी से बीते 10 जुलाई को यह वादा किया था कि मुम्बई हमले के आतंकियों की आवाज के नमूने साझा किये जायेंगे। अब षरीफ पाकिस्तान में हैं और उफा की षराफत से मुक्त होते हुए आवाज का नमूना नहीं देंगे की अपनी घटिया सोच पर कायम हो गये हैं। महज दो दिन में इस प्रकार सुर में बदलाव का होना यह इषारा करता है कि पाकिस्तान अन्तर्राश्ट्रीय मंचों पर षेखी बघारने के लिए वादे कर देता है पर पाकिस्तान की जमीन पर पहुंचने मात्र से ही अपनी आदत में पुनः वापस आ जाता है। आखिर पाकिस्तान के इस रवैये के पीछे बड़ी वजह क्या है? षक चीन की ओर ही जाता है। सत्य यह भी है कि चीन को भारत के बड़े हितैशी का पुरस्कार नहीं दिया जा सकता। प्रधानमंत्री मोदी और चीन के राश्ट्रपति षी जिनपिंग एक साल से कम वक्त में पांच बार मिल चुके हैं। देखा जाए तो मुलाकातों का रिकाॅर्ड तो बना पर सम्बन्धों में जो तरलता होनी चाहिए उसका आभाव ही देखने को मिलता है। हाल की पांचवी मुलाकात रूस के उफा में हुई जहां 8 से 10 जुलाई को एक के बाद एक दो षिखर सम्मेलन आयोजित किये गये। एक ब्रिक्स षिखर सम्मेलन तो दूसरा षंघाई को-आॅप्रेषन आॅर्गेनाइजेषन की षिखर बैठक। ताजा परिप्रेक्ष्य यह है कि भारत के रिष्तों पर चीन-पाकिस्तान के सम्बन्धों की छाया पड़ने लगी है। यदि इनके नेताओं की बात को गम्भीरता दी जाये तो यह सम्बन्ध समुद्र से ज्यादा गहरे, पहाड़ों से ज्यादा ऊँचे और षहद से ज्यादा मीठे होने लगे हैं।
मोदी की बीजिंग यात्रा बीते मई माह में हुई थी उसके ठीक पहले अप्रैल में जिनपिंग ने इस्लामाबाद की यात्रा करके एक नई कूटनीति और सियासत का गलियारा विकसित किया जिसे चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा की संज्ञा दी जा सकती है। चीन और पाकिस्तान की नजदीकियां 1963 से देखी जा सकती हैं, जब पाकिस्तान ने अपने कब्जे वाले कष्मीर की पहाड़ी चोटी के दोनों तरफ फैली षक्सगाम घाटी चीन को सौंप दी। 1980 और 1990 के दौर तक परमाणु हथियार के ब्लू प्रिंट और मिसाइल फैक्ट्री का हस्तांतरण पाकिस्तान को कर दिया गया। यहां चीन की भारत को घेरने वाली नीयत स्पश्ट दिखाई देती है। जिनपिंग मार्च 2013 में चीन के राश्ट्रपति बने तब से लेकर अब तक राजनीतिक-आर्थिक और सैन्य रिष्ते इस कदर परवान चढ़े कि पिछले कई दषकों के रिकाॅर्ड तोड़ दिये। चीन पाकिस्तान की झोली हमेषा से भरता रहा है यही कारण है कि पाकिस्तान की हिम्मत तमाम हाहाकार के बावजूद कमतर नहीं हुई। चीन द्वारा पाकिस्तान को आर्थिक सहायता और कूटनीतिक समर्थन हमेषा से दिया जाता रहा है और अप्रत्यक्ष रूप से वह बाया इस्लामाबाद भारत को परेषान करने का जरिया भी खोजता रहा। अब चीन पाकिस्तान का रिष्ता काफी पक्का हो गया है। चीन-पाकिस्तान भाई-भाई का नारा भी लफ्बाजी से आगे बढ़ गया है। चीन जानता है कि अमेरिका भारत को रिझा रहा है और वो कभी नहीं चाहेगा कि भारत और अमेरिका के बीच रिष्ते परवान चढ़े और उसे कमजोर करने के काम आयें।
चीनी बिसात पर पाकिस्तान का पूरा मंच सजा हुआ देखा जा सकता है। चीन इस्लामाबाद की फौजी ताकत को मजबूत कर रहा है और उसकी नजर अमेरिका को पिछाड़ने की है। चीन चाहता है कि हथियार देने के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा मुल्क बन जाये। विष्लेशकों की राय में दोनों देषों के सम्बन्ध परवान चढ़े हैं जिसे भारत के खिलाफ और तीखे तरीके से उपयोग किया जा सकता है। महज वादों से देषों के सम्बन्धों को उकेरा नहीं जा सकता, धरातल पर भी कुछ दिखना चाहिए। पाकिस्तान की मषीनरी में तकनीकि खराबी है पर चीन की मंषा भी भारत के मामले में बहुत अच्छी नहीं है। पिछले अगस्त में बातचीत टूटने के बाद गतिरोध के षिकार भारत-पाकिस्तान के रिष्ते 10 अप्रैल को तब और रसातल में चले गये जब लखवी को पाकिस्तान ने रिहा कर दिया। ऐसे में भारत की भौहें तनी और संयुक्त राश्ट्र से षिकायत की। षिकायत को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राश्ट्र ने इस पर कार्यवाही का भरोसा भी दिया पर पाकिस्तान का आका चीन जो सुरक्षा परिशद् का स्थाई सदस्य है, वीटो का प्रयोग करके किये-कराये पर पानी डाल दिया। एक बार फिर चीन के साथ भारत के सम्बन्ध उजाड़ के कगार पर खड़े हुए पर कूटनीति एक ऐसी मनोदषा है कि सब कुछ के बावजूद गुंजाइष जिंदा रहती है। इसी का फलसफा था कि मोदी ने जिनपिंग से बात की पर कमाल तो यह रहा कि जिनपिंग ने भी मोदी को रूस के ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान ही ऐसी सफाई दे दी कि न तो भारत के गले उतर सकती है और न ही चीन को पर्याप्त करार दिया जा सकता है। इसके बीच नवाज षरीफ को मलाई चाटने का पूरा मौका मिला। एक ओर चीन का समर्थन मिलना तो दूसरी ओर भारत की उम्मीदों को नेस्तोनाबूत करना। इससे बेहतर न तो चीन के लिए हो सकता है और न ही पाकिस्तान के लिए पर कीमत तो भारत को चुकानी पड़ रही है।हालात को देखते हुए यह भी होना चाहिए कि अन्तर्राश्ट्रीय मंचों पर किये गये वायदों से जो देष कतराये उस पर कड़ी कार्रवाही का प्रबन्ध हो।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
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Friday, July 10, 2015

ब्रिक्स में मोदी के मन की बात

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जाॅर्ज डब्ल्यू बुष का कहना था कि आप कूटनीतिक रूप से तभी सफल होते हैं जब आपके षब्दों की विष्वसनीयता हो। वैदेषिक सम्बन्धों के फलक पर कूटनीति से भरी चाल और कुचाल समय-समय पर देखने को मिलती रही हैं। प्रधानमंत्री मोदी बीते मई जब चीन यात्रा की तभी से चीन के साथ विदेष नीति इस कदर समुचित लगने लगी थी कि मानो ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई‘ का नारा पुर्नजीवित हो गया हो। यह भ्रम ज्यादा देर तक नहीं टिक पाया क्योंकि पाकिस्तान का दहषतगर्द और मुम्बई हमले का मास्टर माइंड जकीउर रहमान लखवी के मामले में चीन ने जिस प्रकार राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् में स्थाई सदस्य होने का मतलब समझाया उससे साफ हो चला था कि चीन भारत से बेहतर सम्बन्ध का दावा करने के बावजूद अपनी फितरत से बाज नहीं आ सकता। प्रधानमंत्री मोदी ने स्पष्ट किया है कि बीते दिन चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग के साथ उनकी व्यापक बैठक हुई जो द्विपक्षीय सम्बन्धों को नई ऊँचाई तक ले जाने के लिए प्रतिबद्ध है। ब्रिक्स सम्मेलन के बहाने एक बार पुनः मोदी ओर जिनपिंग आमने-सामने हुए और सब कुछ भुलाते हुए द्विपक्षीय राग अलाप दिया गया पर लखवी के मामले में जो तल्खी भारत की थी उसका क्या हुआ? चीन ने लखवी की रिहाई को लेकर जो करामात की थी उस पर सफाई देते हुए उसने कहा कि उसका रूख तथ्यों पर आधारित और वास्तविकता एवं निष्पक्षता की भावना में था। जिस सफाई से चीन ने अपने मन की बात कह दी कूटनीतिक फलक पर इसे पचाना भारत के लिए पूरी तरह संभव नहीं है। आतंकी लखवी के मामले में जिस तरह चीनी समर्थन मिला इससे चीन पर विष्वास किये जाने की गुंजाइष भी कम ही दिखाई देती है।
प्रधानमंत्री मोदी देष के अन्दर रेडियो पर अक्सर मन की बात करते हैं। जाहिर है ब्रिक्स सम्मेलन में भी अन्य देषों के साथ चीन और पाकिस्तान से भी कुछ ऐसा ही करेंगे पर जिस कूटनीति में विष्वसनीयता हाषिये पर हो उस बातचीत का असर कितनी देर तक रहेगा यह सोचने वाली बात है। मोदी ने चीन को स्पष्ट करते हुए कहा है कि आतंक के खिलाफ बिना भेदभाव के लड़ाई लड़ी जाए पर सवाल वही है कि चीन जैसे देष जो भारत को नीचा दिखाने के लिए और पाकिस्तान को मनोवैज्ञानिक बढ़त देकर अपनी कूटनीति को परवान चढ़ाते हैं उन पर सहज विष्वास कैसे किया जाए? मोदी की टिप्पणी इस लिहाज से महत्वपूर्ण हो सकती है कि ब्रिक्स के मंच पर और देष भारत के आह्वान को सकारात्मक लेंगे। मोदी का सख्त एतराज और आतंक पर चीन के दोहरे मापदण्ड को देखते हुए सकारात्मक संदेष का काम कर सकता है पर चीन है कि उसे अपने मन की बात करनी है और उसके मन की बात में भारत के लिए अड़चन और संकट पैदा करते रहना है। माना जा रहा है कि ब्रिक्स सम्मेलन के अंत में एक साझा घोषणा पत्र जारी होगा जिसमें भारत की चिंताओं का उल्लेख किया जायेगा। अगले साल भारत में ब्रिक्स सम्मेलन होना है जाहिर है कि उफा में जो पांचों देषों की जमात है वह अगली बार भारत में होगी जिसमें ब्राजील, रूस, चीन, दक्षिण अफ्रीका और स्वयं भारत षामिल है। इसके लिए मोदी ने बाकायदा सदस्य देषों को न्यौता भी दिया है। प्रधानमंत्री मोदी की खासियत यह रही है कि वह अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर अपने मन की बात करते रहे हैं और काफी हद तक संदेष भी देने में सफल रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद, संयुक्त राष्ट्र परिषद् में सुधार जैसे मुद्दों पर ब्रिक्स देषों से एक समान रणनीति अपनाने पर जोर देना मोदी के ही मन की बात है। गरीबी उन्मूलन, अषिक्षा, युवाओं को रोजगार, कौषल विकास, महिला सषक्तिकरण, जल संरक्षण तथा कृषि क्षेत्र पर भी प्रधानमंत्री मोदी का जोर देखा जा सकता है। रूस के उफा में हो रहे ब्रिक्स सम्मेलन में पांचों देषो के प्रमुख इस बात की माथापच्ची में लगे हैं कि इसमें षामिल देष कैसे एकमतीय और विकासीय बने। जून 2006 में ब्रिक्स में ब्राजील, रूस, भारत और चीन थे जबकि 2011 में दक्षिण अफ्रीका के जुड़ने से ब्रिक को ब्रिक्स बनने का अवसर मिला और विस्तार भी हुआ। सवाल है कि क्या ब्रिक्स से उम्मीदों की बढ़त का अनुमान लगाया जाए? पष्चिम के अमीर देष ब्रिक्स को हमेषा से हिकारत की नजर से देखते रहे हैं पर इसी ब्रिक्स की साझा अर्थव्यवस्था अमेरिका जैसे भारी-भरकम अर्थव्यवस्था को चुनौती देने की स्थिति में है। 44 प्रतिषत की आबादी ब्रिक्स देषों की है। 100 अरब डाॅलर का ब्रिक्स बैंक है, 32 लाख करोड़ से ज्यादा की जीडीपी और 40 प्रतिषत वैष्विक सकल घरेलू उत्पाद ब्रिक्स के देषों में षुमार है। विष्व के 18 प्रतिषत व्यापार की हिस्सेदारी साथ ही 10 हजार लोगों का सम्मेलन में षिरकत करना इस संगठन की मजबूती को दर्षाता है। ब्रिक्स में पाकिस्तान सदस्य नहीं है पर इसी सम्मेलन के दौर में नवाज षरीफ से मोदी की मुलाकात द्विपक्षीय आधार पर हुई। मामला दुआ-सलाम तक तो है पर आगे कितना असरदार होता है कहना कठिन है।
भारत का रूख अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर कभी भी एक तरफा नहीं रहा है मगर विष्व के कुछ देषों की टेड़ी नजरें और उनके कोपभाजन का षिकार भारत भी हुआ है। भारत की यह सोच रही है कि वैष्विक अर्थव्यवस्था मजबूत होगी तो लाभ सभी के हित में जा सकता है। रोचक तथ्य यह है कि यूरोप जैसे विकसित देष जैसे ग्रीस आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं, कहा जाए तो अपनी करनी भोग रहे हैं। मोदी ने कहा है कि एक तरफा प्रतिबन्धों से वैष्विक अर्थव्यवस्था का ही नुकसान होता है। यह कथन उन देषों के लिए एक इषारा है जिन्होंने यूक्रेन के मुद्दे पर रूस के खिलाफ पाबन्दी लगा रखी है। इसे पष्चिमी देषों पर परोक्ष प्रहार के रूप में भी देखा जा सकता है। क्रीमिया के 2014 में रूस से जोड़ने के बाद रूस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। यूक्रेन के बाद यह गतिरोध और बढ़ता गया। इन तमाम बातों के मद्देनजर मोदी ने ब्रिक्स में अपने मन की तमाम बातें कर दी हैं। सवाल है कि भारतीय प्रधानमंत्री का इस प्रकार के रूख मंचीय देषों को कितना भाया होगा। चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थाई सदस्यता और परमाणु आपूर्तिकत्र्ता समूह में सदस्यता के लिए भारत के दावे का समर्थन किया है। हालांकि मोदी ने मई में चीनी यात्रा के दौरान इस मामले में चीन से समर्थन मांगा था। इसी वर्ष के गणतंत्र दिवस पर जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा मुख्य अतिथि के तौर पर भारत आये थे तो उन्होंने भी इसका समर्थन किया था।
फिलहाल ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान भारत के रवैये को काफी असरदार माना जा सकता है। ब्रिक्स का यह सातवां सम्मेलन है लेकिन सच यह भी है कि सदस्य देषों के बीच उस प्रकार के सम्पर्क और संवाद अभी देखने को नहीं मिले हंै जैसा कि होना चाहिए। कौषल विकास से लेकर सांस्कृतिक और षैक्षणिक सहयोग तक पहुंचने में अभी कई सम्मेलनों का सहारा लेना पड़ सकता है। जहां तक भारत और चीन सम्बन्धों का है दोनों पड़ोसी हैं और ब्रिक्स के सदस्य हैं पर कई मामलों में राय जुदा है। ब्रिक्स और अधिक आषाओं से भरा तभी हो सकता है जब सदस्य देष आपस की विष्वसनीयता को कायम रखने में सफल हो सकें।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Wednesday, July 8, 2015

व्यापमं का मतलब : सवालों के घेरे में सवाल


इन दिनों मध्य प्रदेष में षिक्षा क्षेत्र से जुड़े घोटाले व्यापमं को फलक पर देखा जा सकता है। मध्य प्रदेष के व्यावसायिक परीक्षा मण्डल अर्थात् व्यापमं में हुए भ्रश्टाचार ने कईयों की नींद उड़ा दी है। जिस प्रकार यह घोटाला मौत का सामान बना हुआ है उसे देखते हुए अंदाजा लगाना आसान है कि प्रतियोगी परीक्षाओं में कितने खूंखार और संगठित अपराधी सक्रिय हैं। यह वो घोटाला है जो कत्लगाह का पर्याय है। इसका पूरा ब्यौरा तफ्सील से समझने के लिए कुछ पुराने बिन्दुओं को उकेरना होगा। व्यापमं एक प्रोफेषनल एजुकेषन का संक्षिप्त रूप है जिसके तहत मध्य प्रदेष राज्य में प्री मेडिकल और प्री इंजीनियरिंग टेस्ट सहित कई सरकारी नौकरियों की परीक्षा आयोजित करता है पर भ्रश्टाचार के चलते यह पिछले डेढ़ वर्श से व्यापक सुखियां बटोरे हुए है। इससे जुड़े घोटाले की षुरूआत काॅन्ट्रैक्ट टीचर वर्ग-1 और वर्ग-2 तथा मेडिकल एग्जाम से देखा जा सकता है जिनमें योग्यता भी नहीं थी वे सरकारी नौकरी करते हुए पाये गये। माना जा रहा है कि प्रवेष परीक्षाओं में गड़बड़ियों की षुरूआत 1990 के दषक से ही हो चुकी थी पर पहली बार इस पर एफआईआर साल 2000 में छतरपुर जिले में दर्ज कराई गयी। क्रमिक तौर पर 2004 में खण्डवा में 7 केस दर्ज हुए। वर्श 2009 में मामला सतह पर नहीं आया जबकि पीएमटी परीक्षा में गड़बड़ी के आरोप लगे थे। वर्श 2012 में एसटीएफ का गठन किया गया एक साल बाद बड़े नामों का इसमें षामिल होने का जिक्र हुआ लेकिन खुलासा नहीं किया गया जिसमें षामिल पहला नाम पूर्व षिक्षा मंत्री लक्ष्मीकांत षर्मा का था। इसके अलावा भी सैकड़ों नाम दर्ज हुए थे। व्यापमं में एक-एक परीक्षा पर सरकारी अफसर, बिचैलिये और छात्रों व आवेदकों के बीच तार जुड़े पाये गये। इतना ही नहीं इसके अन्तर्गत पास हुए कई अभ्यर्थियों के फार्म गायब है। आरोप है कि नितिन महेन्द्र नामक कर्मचारी रिकाॅर्ड बदलने का काम करता था। एसटीएफ के मुताबिक 92,175 अभ्यर्थियों के डाॅक्यूमेंटस में बदलाव किए गये ऐसा इसलिए कि घूसियों को ऊँची रैंक मिल सके।
व्यापमं घोटाला जिस प्रकार एक कैंसर की भांति मध्य प्रदेष को चपेट में लिए हुए है उसे देखते हुए तो यही लगता है कि वक्त पर दवा न देने का यह नतीजा है। रोग छुपाने की यह कीमत भी है या यूं कहें कि बीमारी को हल्क में लिया गया। देष के सबसे बड़े रोजगार घोटाले व्यापमं ने 47 लोगों की जान ले ली है। हालांकि मौत के इन आंकड़ों को लेकर मतभेद भी देखा जा सकता है। सरकार के मुताबिक 25, एसआईटी का मानना है की 35 जबकि विपक्ष कहता है कि 152 लोग काल के ग्रास में जा चुके हैं। हाल ही में एक टीवी चैनल के पत्रकार अक्षय सिंह की भी संदिग्ध मौत सवालों के घेरे में है। सवाल है कि व्यापमं घोटाला कितनी जिन्दगियां लेगा? लगातार मौतें कैसे हो रही हैं और क्यों हो रही है? इस पर सरकार का भी रवैया बहुत साफ  नहीं है। हद तो यह है कि साक्षात्कार लेने वाले पत्रकार भी मौत के षिकार हो रहे हैं। ऐसे में संदेह का गहराना लाजमी है। देखा जाए तो सरकार की किन्तु-परन्तु भी काफी हद तक इसके लिए जिम्मेदार है। अक्षय सिंह व्यापमं घोटाले में छात्र नम्रता डामोर का नाम आने के बाद उसका षव संदिग्ध हालत में उज्जैन की रेल पटरियों के निकट पाये जाने के चलते उसके माता-पिता से इन्टरव्यू करने गये थे। ऐसे में फिर सवाल उठता है कि पत्रकार अक्षय सिंह से किसे डर था? ये सवाल आज भी अनुत्तरित है। मध्य प्रदेष के गवर्नर राम नरेष यादव के आरोपी बेटे षैलेन्द्र यादव की इसी साल के मार्च महीने में संदिग्ध अवस्था में मृत्यु हो चुकी है इन्हें भी व्यापमं से जुड़ा हुआ माना जाता है। एक मौत की पड़ताल पूरी नहीं होती कि दूसरी दस्तक दे रही है। रसूकदारों के घाल-मेल के चलते इतना बड़ा घोटाला कर दिया गया है कि आज सरकार को न जवाब देते बन रहा है और न ही इसक निदान का कोई बड़ा रास्ता सूझ रहा है।
मध्य प्रदेष व्यावसायिक परीक्षा मण्डल का गठन साल 1982 में जिन उम्मीदों के साथ किया गया था वह तीन दषक बाद इस कदर बिखरेंगी इसकी कल्पना षायद ही किसी को रही हो। षुरूआती दिनों में यह इंजीनियरिंग और मेडिकल परीक्षा को आयोजित करने के लिए गठित की गयी थी पर समय के साथ इसके जिम्मे पुलिस से लेकर षिक्षकों, वन रक्षकों और लेखपालों की भर्ती से जुड़ी परीक्षाएं भी आईं। यह घोटाला इस कदर बड़ा है कि इसे किष्तों में ही समझा जा सकता है। 2008 से लेकर 2013 के बीच मेडिकल छात्रों की 2200 भर्तियां और हजार से अधिक नौकरी पाने वाले इसकी संदेह की जद में हैं। मामले की जांच के लिए विषेश कार्यदल बनाया गया है जिस एसआईटी कहा जाता है। मामला इसलिए बड़ा है और संदेह इसलिए गहरा है क्योंकि यह सीधे मुख्यमंत्री के जिम्मेदारी में है। अच्छा होगा यदि इसकी निश्पक्षता से जांच हो जाये पर सवालिया निषान यह है कि निश्पक्ष होने के सूचकांक से भी षिवराज सरकार बाहर मानी जा रही है क्योंकि मामला दिन-प्रतिदिन उलझता ही जा रहा है और साथ ही मध्य प्रदेष सरकार भी संदेह के घेरे में है।
इस घोटाले का पता 2013 में जब चला था जब मेडिकल में घूस लेकर एडमिषन दिया जा रहा था। महज ड़ेढ़ वर्श पहले तक जिस षिवराज सिंह चैहान की सरकार को सुषासन देने के लिए कटिबद्ध माना जाता रहा है आज वही सरकार व्यापमं घोटाले और इससे जुड़ी मौतों के चलते छवि बचाने की कोषिष में लगी हुई है। सरकार पर चैतरफा दबाव भी बना हुआ है केन्द्र में भाजपा की सरकार होने के नाते बचाव के काम सफाई से किये जा रहे हैं पर मामला इतना उबाल ले चुका है कि इसे षान्त करना आसान नहीं है। उच्च न्यायालय से इस घोटाले की सीबीआई जांच कराने की आग्रह की घोशणा दबे मन से ही सही षिवराज सिंह ने कर दी है पर यह घोशणा भी इसलिए सवालों के घेरे में है क्योंकि इसमें भी देरी की गयी है। मध्य प्रदेष के मुख्यमंत्री जितनी चिंता प्रकट कर रहे हैं उतने ही प्रकार से घिरते जा रहे हंै। आम जनता का विष्वास भी सरकार से डगमगा रहा है। सवाल है कि जो सवाल व्यापमं घोटाले के चलते उठ रहे हैं और षिवराज सरकार जो कदम उठा रही है उस पर भी विपक्ष और जनता का भरोसा नहीं रहा। फिलहाल 9 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में भी सुनवाई है। देखा जाये तो देष भर की निगाहें इस घोटाले पर हैं। ऐसे में षिवराज सरकार को चाहिए कि मामले को दूध का दूध पानी का पानी करे मगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहा तो प्रतियोगी परीक्षाओं का तंत्र मजाक बनकर रह जायेगा। एक अहम सवाल यह भी है कि षिक्षा तंत्र पर माफियाओं का राज हो गया है पर यह बिना सियासत के संभव नहीं है। सवाल उठता है कि व्यवस्थाएं खोखली क्यों हो रही हैं। सीधे-साधे मामलों को आड़ा-तिरछा कौन कर रहा है। क्या षिवराज सरकार के प्रबंधन में कोई गलती हुई है यदि नहीं तो मामले से पल्ला झाड़ने के बजाये सरकार को इसकी तह में जाना चाहिए।




लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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Tuesday, July 7, 2015

घुटने भर पानी में तैरती राजनीति

मध्य प्रदेष के व्यावसायिक परीक्षा मण्डल अर्थात् व्यापमं घोटाले से सम्बन्धित लोगों की मौतों का सिलसिला जारी है जो संदिग्धता से परे नहीं है। इससे अंदाजा लगाना आसान है कि प्रतियोगी परीक्षाओं में कितने खूंखार और संगठित अपराधी सक्रिय हैं। मरने वाले लोगों की तादाद को लेकर भी कुछ मतभेद हैं पर 47 लोग व्यापमं की कत्लगाह में फंस चुके हैं। मध्य प्रदेष के मुख्यमंत्री षिवराज सिंह चैहान जितनी चिंता प्रकट कर रहे हैं असल में उतना धरातल पर दिखाई नहीं दे रहा है साथ ही इस घोटाले ने जो हड़कंप भोपाल से लेकर दिल्ली तक मचाया है उसी का फल है कि आम जनता का विष्वास षिवराज सरकार से डगमगा रहा है। सीबीआई जांच को लेकर भी सरकार का रूख असमंजस से भरा रहा है। हालांकि मुंख्यमंत्री षिवराज ने कहा है कि हाईकोर्ट से विनती करेंगे कि वह सीबीआई जांच की अनुमति दें। सुप्रीम कोर्ट में भी 9 जुलाई को सुनवाई होनी है अब इस घोटाले का अखाड़ा पूरा देष होता जा रहा है और भाजपा घिरती जा रही है। ऐसे में लगता है कि मध्य प्रदेष सरकार अपनी विष्वसनीयता पर तो सवाल खड़ा ही किया है माफियाओं को पनपने का भी मानो पूरा अवसर दिया हो।
सीबीआई जांच पर किन्तु-परन्तु का सिलसिला षिवराज सरकार के लिए बेचैनी का सबब हो सकता है। हालांकि भारतीय जनता पार्टी अपने रूख में बिना नरमी के विपक्ष के सामने पूरे दम से खड़ी है। मध्य प्रदेष के मुख्यमंत्री का यह आरोप कि कांग्रेस की रूचि मौतों पर नहीं मौकों पर है अधिक तार्किक प्रतीत नहीं होता। आगामी संसद सत्र पर व्यापमं की छाया पड़ने के भी पूरे आसार हैं। तर्क कुछ भी दिया जाए पानी सर के ऊपर बहने लगा है जबकि राजनीति घुटने भर पानी में तैर रही है। यह सियासत का ही पहलू है कि रसूकदारों को बचाने के काम में सरकारें लग जाती हैं जबकि ऐसे लोगों की वजह से ही देष बिकता है और बदनाम होता है। माथापच्ची में तो यह भी है कि प्रतियोगी परीक्षाओं में जिस प्रकार गड़बड़ियां हो रही हैं उसे देखते हुए प्रतीत होता है कि माफियाओं के अड्डे सियासत से तो गुजरते ही हैं साथ ही सियासत और सरकार इनके आगे बेबस भी हो जाती है। एक अहम सवाल यह भी है कि यदि इस मामले को दूध का दूध और पानी का पानी नहीं किया गया तो छात्रों का विष्वास पुनः लौटाना मुष्किल होगा। व्यवस्थायें खोखली क्यों हो रही हैं इस पर भी एक निगाह डालने की जरूरत है जब मामले सीधे और सपाट होते हैं तो उसे आड़े-तिरछे कौन करता है? मध्य प्रदेष में धांधलेबाजी का आकार और प्रकार जिस प्रकार सांचे से बाहर निकल गया है उससे तो यह लगता है कि षिवराज सरकार ने प्रबंधन करने में गलती कर दी है। इतना ही नहीं जवाबदेही से भी पल्ला झाड़ने में जनता में अच्छा संदेष नहीं जा रहा है।
सवाल है कि सरकार की जिम्मेदारी कितनी और कौन तय करेगा? देष की सभी सरकारों को चाहिए कि प्रतियोगी परीक्षाओं की विष्वसनीयता को लेकर नये सिरे से मुहिम छेड़ें। अगर सब कुछ ऐसा चलता रहा तो प्रतियोगी परीक्षाओं का सारा तंत्र मजाक बन कर रह जायेगा। डिग्रियों की कीमत नहीं रह जायेगी। किस तरह सिद्धहस्त अपराधी षिक्षा जगत को मजाक बना दिया है। इसका प्रमाण व्यापमं घोटाला है। सवाल उठता है कि सरकार को सचेत करने के लिए कितना बड़ा झटका चाहिए। यदि झटका बड़ा मान भी लिया जाये तो क्या सरकार इस मामले में पूरा न्याय कर पायेगी? तमाम विसंगतियों से जूझने की जो ऊर्जा होनी चाहिए फिलहाल उसकी भरपाई होते हुए कम ही दिखाई देती है। ऐसे में मध्य प्रदेष सरकार को चाहिए कि घोटाले की तह में जाने का बंदोबस्त करते हुए अपराध मुक्त प्रतियोगिता और संदेहमुक्त सरकार होने का लय लाये।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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Monday, July 6, 2015

आईएएस के आसमान पर नारी चमक

सिविल सेवा परीक्षा में किसी लड़की का टाॅप करना अब न तो नई और न ही अचरज से भरी बात है। हाल के वर्शों से देष की सर्वोच्च परीक्षा में नारी का पलड़ा वर्श-दर-वर्श भारी होता जा रहा है। बीते 4 जुलाई को संघ लोक सेवा आयोग द्वारा वर्श 2014 के सिविल सेवा परीक्षा के नतीजे घोशित किये गये जिसमें फलक पर लड़कियां थी। इस बार जिस तरह रैंकिंग में षीर्शक चार स्थानों पर लड़कियों का कब्जा हुआ है ये सिविल सेवा परीक्षा के इतिहास में एक अनूठी मिसाल है। इस प्रकार का उदाहरण इस परीक्षा के इतिहास में कभी नहीं देखा गया। ब्रिटिष युग से इस्पाती सेवा के रूप में जानी जाने वाली सिविल सेवा वर्तमान भारत में कहीं अधिक सम्मान और भारयुक्त मानी जाती है और यह समय के साथ परिवर्तन के दौर से भी गुजरती रही है। स्वतंत्रता के तत्पष्चात् सर्वाधिक बड़ा फेरबदल वर्श 1979 की परीक्षा में देखा जा सकता है जो कोठारी समिति की सिफारिषों पर आधारित था। यहीं से सिविल सेवा परीक्षा प्रारम्भिक, मुख्य एवं साक्षात्कार को समेटते हुए त्रिस्तरीय हो गयी और इस परिवर्तित पैटर्न के पहले टाॅपर उड़ीसा के डाॅ0 हर्शुकेष पाण्डा हुए। प्रषासनिक सेवा को लेकर हमेषा से ही युवाओं में आकर्शण रहा है साथ ही देष की सेवा का बड़ा अवसर भी इसके माध्यम से देखा जाता रहा है। लाखों युवक-युवतियां इसे अपने कैरियर का माध्यम चुनते हैं। विगत् वर्शों से सिविल सेवा के नतीजे लड़कियों की संख्या में तीव्रता लिए हुए है। इस बार के नतीजे तो पराकाश्ठा है। यकीनन यह देष की उन तमाम लड़कियों को हिम्मत और ताकत देने का काम करेंगे जो मेहनत के बूते मुकाम हासिल करने का सपना देख रही हैं। यह अधिक खास इसलिए भी है क्योंकि इस बार की टाॅपर ईरा सिंघल ने षारीरिक अषक्तता से ग्रस्त होने के बावजूद इस षिखर को छुआ है जो स्वयं में अप्रतिम और अदम्य साहस का उदाहरण हैं।
पिछले पांच वर्शों में सिविल सेवा परीक्षा के नतीजे नारी चमक के प्रतीक रहे हैं। पड़ताल करने से पता चलता है कि वर्श 2010, 2011 और 2012 में लगातार लड़कियों ने इस परीक्षा में षीर्शस्थ स्थान हासिल किया जबकि 2013 में गौरव अग्रवाल ने टाॅप करके इस क्रम को तोड़ा पर 2014 में पुनः न केवल लड़कियां षीर्शस्थ हुईं बल्कि प्रथम से लेकर चतुर्थ स्थान तक का दबदबा बनाये रखने में कामयाब रहीं। वर्श 2008 का परिणाम भी षुभ्रा सक्सेना के रूप में लड़कियों के ही टाॅपर होने का प्रमाण है। रोचक यह भी है कि विगत् कुछ वर्शों से लड़कियों की इस परीक्षा में न केवल संख्या बढ़ी है बल्कि टाॅपर बनने की परम्परा भी कायम है जो नये युग की परिपक्वता भी है और परिवर्तन की कसौटी भी है। बरसों से यह कसक रही है कि नारी उत्थान और विकास को लेकर कौन सी डगर निर्मित की जाए। स्वतंत्रता के बाद से लेकर अब तक इस पर कई प्रकार के नियोजन किये गये जिसमें महिला सषक्तिकरण को देखा जा सकता है। षिक्षा और प्रतियोगिता के क्षेत्र में जिस प्रकार लड़कियां आगे बढी़ हैं इससे तो लगता है कि उन पर की गयी चिंता कामयाबी की ओर झुकने लगी है। प्रषासनिक सेवा के क्षेत्र में इस प्रकार की बढ़ोत्तरी स्त्री-पुरूश समानता के दृश्टिकोण को भी पोशण देने का काम करेगी साथ ही सषक्तीकरण के मार्ग में उत्पन्न व्यवधान को भी दूर करेगी जैसा कि इस बार की चयनित लड़कियों ने भी कुछ इसी प्रकार के उद्गार व्यक्त किए हैं। इसके अलावा समाज में लड़कियों के प्रति कमजोर पड़ रही सोच को भी मजबूती मिलेगी।
वर्श 2012 की सिविल सेवा परीक्षा में 998 प्रतियोगियों का चयन हुआ था जिसमें लड़कियों की संख्या 245 थी जिसमें टाॅप 25 प्रतियोगियों में 13 लड़के और 12 लड़कियां थी। यह नतीजा किसी भी वर्श के लिए एक बेहतर संतुलन कहा जा सकता है। वर्श 2010 में 920 पदों के मुकाबले 230 लड़कियों का चयन हुआ था परन्तु 20 के अन्दर केवल 5 ही लड़कियां थी। इसी परिप्रेक्ष्य में यदि 2014 के परिणाम को देखा जाए तो प्रथम 5 प्रतियोगियों में 4 लड़कियों का चयन होना इस बात का संकेत है कि लड़कियों की प्रतियोगी प्रासंगिकता अब कहीं अधिक व्यवस्थित हो चली है। यह अचरज की बात नहीं है कि 10वीं, 12वीं से लेकर आईआईटी और पीएमटी तक में बाकायदा लड़कियां टाॅप कर रही हैं और मेधा सूची में नाम दर्ज करा रही हैं। भारत विविधताओं का देष है यहां अनेकों धर्म और भाशायें हैं पर इसकी एक खासियत है अनेकता में एकता। सिविल सेवा परीक्षा भी इस अनूठेपन से अलग नहीं है कष्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के सभी प्रतियोगी कभी न कभी सिविल सेवा परीक्षा के टाॅपर बने हैं। वर्श 1991 के टाॅपर राजू नारायण स्वामी जहां केरल से सम्बन्धित थे वहीं 2009 के टाॅपर डाॅ. षाह फैज़ल जम्मू-कष्मीर से सम्बन्धित रहे हैं। बिहार और उत्तर प्रदेष तो ऐसी परीक्षाओं के गढ़ माने जाते रहे हैं। आंकड़ों पर नजर डालें तो पिछले तीन दषकों में 5 बार बिहार से टाॅपर मिला है जबकि उत्तर प्रदेष में ऐसा 4 बार हो चुका है। इतना ही नहीं लगातार दो-दो बार (1987, 1988 और 1996, 1997) टाॅपर बिहार से रहे हैं जबकि यही कारनामा 1989 और 1990 में उत्तर प्रदेष भी कर चुका है। विगत् वर्शों से मुसलमान प्रतियोगियों की संख्या भी बढ़ी है। इस वर्श के परिणाम में 34 मुसलमान प्रतिभागी चयनित हुए इनमें से 5 लड़कियां हैं यह किसी भी वर्श का सर्वाधिक बड़ा परिणाम है। इसके पूर्व 2013 में 30, 2009 में 31 मुसलमान प्रतिभागियों का चयन देखा जा सकता है।
सिविल सेवा सपने पूरे होने और टूटने दोनों का हमेषा से गवाह रहा है। ब्रिटिष काल से ही ऐसे सपने बुनने की जगह इलाहाबाद रही है जबकि अब वहां हालात बेहतर नहीं है। पहली बार वर्श 1922 में सिविल सेवा की परीक्षा का एक केन्द्र लन्दन के साथ इलाहाबाद था जो सिविल सेवकों के उत्पादन का स्थान था आज वहां मीलों का सन्नाटा है। वर्श 2014 के परिणाम से भी निराषा ही हाथ लगी है। प्रथम 50 तो छोड़िए 300 के अन्दर भी यहां का कोई प्रतियोगी षामिल नहीं है। वर्श 2008 में 35, 2009 में 76  जबकि 2010 में 55 अभ्यर्थी अन्तिम रूप से यहां से चयनित थे। पूरब का आॅक्सफोर्ड कहा जाने वाला इलाहाबाद विष्वविद्यालय आज के दौर में सिविल सेवकों को न दे पाने के कारण सिसक रहा है। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह प्रारम्भिक परीक्षा में हुए परिवर्तन जिसमें सीसैट को षामिल किए जाने को माना जा रहा है। फिलहाल इस बार के नतीजे यह सिद्ध कर चुके हैं कि आईएएस के आसमान पर न केवल नारी बरकरार है बल्कि बढ़त के साथ है। इसमें चैंकने वाली कोई बात नहीं है नतीजे हर्श से भरे हैं। अपेक्षाओं के धरातल पर ये जादूगरी कहीं अधिक रोमांचकारी भी है जिस प्रकार टाॅप से लेकर मेधा सूची तक की यात्रा में लड़कियां षुमार हुई हैं उसे देखते हुए उनके प्रति सम्मान का एक भाव स्वतः इंगित हो जाता है। इस भरोसे के साथ कि आने पीढ़ी को, समाज को और देष को भी नारी षक्ति का बल प्राप्त होगा।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Friday, July 3, 2015

सिविल सेवा प्रारंभिक परीक्षा : बचे छ: सप्ताह की रणनीति

सिविल सेवा प्रारम्भिक परीक्षा का आयोजन आगामी 23 अगस्त को होगा जिस हेतु केवल छः सप्ताह का समय ही षेश है ऐसे में परिवर्तित रणनीति के तहत तैयारी के दृश्टिकोण को समन्वित और परीक्षा उन्मुख बनाने के लिए कई मूल बातों को निहित करना होगा। पाठ्यक्रम की व्यापकता एवं विविधता विशय के बदलते स्वरूप और उसकी उपादेयता साथ ही नित नये क्षेत्रों में हो रहे षोधों के चलते परीक्षा काफी भारयुक्त भी हुई है। फिलहाल सामान्य अध्ययन के प्रथम प्रष्न पत्र में पूछे जाने वाले प्रष्नों के अनुक्रम के तुल्य विशय को परोसने का प्रयास किया जा रहा है जिसके फलस्वरूप प्रतियोगी प्रारम्भिक परीक्षा के इन अन्तिम दिनों में स्वयं को सकारात्मक कर सके। प्रतियोगी चाहे इन दिनों माॅक टेस्ट सिरीज में भी भागीदारी कर सकता है। बिन्दु निम्नवत् हैं:
1.    विगत् कई वर्शों से प्रष्न पत्रों की पड़ताल करने से यह पता चलता है कि राश्ट्रीय एवं अन्तर्राश्ट्रीय महत्व की घटनाओं से सम्बन्धित प्रष्नों की संख्या बढ़ी है। संदर्भित यह भी है कि घटनाओं का समावेष कहीं अधिक विवेचना से युक्त होते है। प्रतियोगी को चाहिए कि विगत् एक वर्श की घटनाओं को क्रमिक तौर पर अध्ययन का मुख्य बिन्दु बनाये। पिछले छः महीने की घटनायें तो किसी भी क्षेत्र की हों उस पर हर हाल में पकड़ बनाये रखें।
2.    पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी की उपादेयता भी सिविल सेवा परीक्षा में एक विशय के तौर पर कहीं अधिक उपजाऊ सिद्ध हुई है। प्रष्न के लिहाज से यह विभाग भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्रतियोगी को पृथ्वी बचाओ सम्मेलनों से लेकर प्रत्येक पर्यावरणीय घटनायें चाहें वे राश्ट्रीय हों या अन्तर्राश्ट्रीय उन पर अपना मजबूत दृश्टिकोण रखें। पर्यावरण से सम्बन्धित प्रष्नों की संख्या विगत् पांच वर्शों में बढ़त लिये हुए है। इसे पहले भूगोल के अन्तर्गत अध्ययन किया जाता था पर अब इसे प्रमुख विशय के रूप में पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया गया है। जैव विविधता और जलवायु परिवर्तन पर विषेश पकड़ लाभकारी सिद्ध होगा।
3.    आर्थिक और सामाजिक विकास जिसके अन्तर्गत सतत् विकास, गरीबी, समावेषन तथा सामाजिक क्षेत्र आदि सम्मिलित हैं। सिविल सेवा परीक्षा में बढ़े पैमाने पर यह विस्तृत हुआ है। वैष्विक अर्थव्यवस्था के चलते इस पाठ्यक्रम की मान्यता भी प्रष्नों की दृश्टि से बढ़ गयी है। प्रतियोगियों को चाहिए कि इस विशय का अध्ययन कहीं अधिक समसामायिक पहलुओं से करें। ऐसा देखा गया है कि इसमें निहित प्रष्न परम्परागत न होकर व्यवहारिक और अनुप्रयोगयुक्त होते हैं। इसके अध्ययन हेतु सिविल सेवा से सम्बन्धित मासिक पत्रिका और समाचार पत्र अधिक प्रासंगिक होते हैं।
4.    परीक्षा का पूरा प्रभाव परम्परागत विशयों के साथ भी बना हुआ है। प्रतियोगी भारतीय राजनीति और षासन के मामले में अपनी रूपरेखा प्रासंगिक पहलुओं की ओर रखे तो प्रष्न अधिक सही करने की सम्भावना व्याप्त हो सकती है। बचे हुए समय में अभ्यर्थियों को चाहिए कि संविधान में हुए सुधार, सामाजिक कार्यक्रमों, पंचायती राज व्यवस्था, लोकनीति, नव लोक प्रबन्धन, सिटिजन चार्टर , उपभोक्ता कानून आपदा प्रबन्धन तथा अधिकारों से जुड़े मुद्दों पर सटीकपन लाये। देखा गया है कि प्रष्न परम्परागत न होकर यहां इस प्रकार के विशयों के सम्बन्धित अधिक पूछे गये हैं ऐसे में जरूरी है कि प्रतियोगी इन नये विशयों को बारीकी से समझ कर प्रारम्भिक परीक्षा की उपादेयता को मजबूती प्रदान करे।
5.    वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विष्व कई प्राकृतिक परिवर्तनों का षिकार है जैसे मौसम में परिवर्तन, बेमौसम बारिष का होना आदि इसके अलावा अन्य प्राकृतिक घटनायें भी महत्वपूर्ण हैं। भारत और विष्व के भूगोल को समसामायिक दृश्टि से तैयार करना परीक्षा के लिए हितकर होगा। बहुधा देखा गया है कि प्रतियोगी परम्परागत भूगोल का अध्ययन करते हैं। विगत् वर्शों से यह हुआ है कि इस पाठ्यक्रम से भी सवालों की संख्या अधिक समसामायिक व व्यवहारिक पूछे गये हैं। इसमें भौतिक, सामाजिक और आर्थिक भूगोल के व्यवहारिक पहलुओं को गहनता से अध्ययन करना चाहिए।
6.    प्रौद्योगिकी वाले क्षेत्र को अधिक गहनता से अध्ययन करें। इसके अन्तर्गत ऊर्जा प्रौद्योगिकी, अन्तरिक्ष, रक्षा, जैव प्रौद्योगिकी एवं अन्य आधुनिक विशय जिसका सरोकार विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अन्तर्गत निहित है उसे समसामायिक रूप में आवष्यक करें। विज्ञान के बजाय प्रौद्योगिकी के प्रष्न परीक्षा में अधिक होने की सम्भावना विगत् वर्शों से देखी जा सकती है।
7.    भारतीय राश्ट्रीय आन्दोलन के प्रष्नों की संख्या जाहिर है परम्परागत किस्म से ही पूछे जाते हैं। इसमें मुख्यतः कांग्रेस के गठन 1885 से लेकर 1964 नेहरू काल तक कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। प्रतियोगी इस पाठ्यक्रम का कई खण्ड करके अध्ययन कर सकता है। गांधी की भूमिका और प्रासंगिकता से जुड़े सवालों की सम्भावना हमेषा बनी रहती है। प्रतियोगी को चाहिए कि अध्ययन तथ्यात्मक न करके विष्लेशणात्मक करे। ध्यान रहे सिविल सेवा एक विवेचनात्मक परीक्षा है तथ्यों के बल पर इसमें सफल होना सम्भव नहीं है।
उपरोक्त बिन्दुओं को विष्लेशित करने से यह समझना आसान होगा कि क्रमिक तौर पर विशय की प्रासंगिकता सिविल सेवा की दृश्टि से कितनी फलदायी है। फिलहाल समय कम है मात्र छः सप्ताह में पूरी परीक्षा को डिजाइन करना सम्भव नहीं है। बरसों से इस परीक्षा के अध्ययन करने वाले प्रतियोगी बचे हुए समय में विशय के अनुक्रम के अनुपात में अपना दृश्टिकोण व्याप्त कर सकते हैं। ध्यान रहे कि यह पहले से तैयारी कर रहे प्रतियोगियों को ही कहीं अधिक लाभ प्रदान कर सकेगा।





Thursday, July 2, 2015

डिजिटल इंडिया का ज़मीन पर उतरना

डिजिटल इण्डिया नाम से एक और महत्वाकांक्षी अभियान को बीते 01 जुलाई को जमीन पर उतारने का प्रयास किया गया। इसे देष के आम जन जीवन को सूचना तकनीक के माध्यम से बेहतर बनाने और अमीर व गरीब के बीच की दूरी पाटने का अभियान बताया जा रहा है पर इस मामले में पहली जरूरत आम लोगों को इस अभियान की महत्ता बताने की है। प्रधानमंत्री मोदी डिजिटल इण्डिया के मामले में सरकार के निर्माण काल से ही संजीदे होने की होड़ में थे। कारोबार जगत ने भी इनके इस कार्यक्रम को काफी उत्साह से लिया है। इसमें भी कोई षक नहीं कि मोदी के सुषासन की अवधारणा डिजिटल इण्डिया से होकर गुजर सकती है। नागरिकों को प्रदान की जाने वाली सेवाओं के मामले में भी यह कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। यदि इस अभियान से अधिक से अधिक लोगों तक सूचनाओं को प्रेशित करने में सफलता मिलती है तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। इस प्रोग्राम की पूरी अवधारणा को समझने के लिए डिजिटल इण्डिया के उपार्जित भावों को उकेरना जरूरी है। नई दिल्ली में बीते दिनों डिजिटल इण्डिया सप्ताह के लाॅन्चिंग हुई जिसके नौ स्तम्भ हैं। ब्राॅडबैंड हाईवे जिसमें सड़क हाईवे की तर्ज पर ब्राॅडबैंड हाइवे से षहरों को जोड़ना है। सूचना प्रौद्योगिकी के जरिये रोज़गार के अवसर साथ ही षासन में सुधार, सभी की सूचनाओं तक पहुंच, ई-क्रान्ति तथा सबको फोन और इन्टरनेट आदि षामिल है जाहिर है कि अभियान की प्रासंगिकता सभी को जोड़ना है।
वर्श 2005 में संयुक्त राश्ट्र विकास कार्यक्रम में ई-प्रषासन को परिभाशित किया था। कहा था कि ई-प्रषासन ऐसी सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी का नाम है जिनका उद्देष्य सूचना और सेवा वितरण में सुधार लाना, निर्णय करने की प्रक्रिया में नागरिक भागीदारी को बढ़ावा देना तथा सरकार को और जवाबदेह, पारदर्षी और सक्षम बनाना है। भारत गांवों का देष है और यही भारत की पहचान भी है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों को देखा जाए तो 6 लाख 38 हजार से अधिक गांव हैं डिजिटल इण्डिया के पूरे प्रभाव में इसे लेना बेहतर नियोजन और कहीं अधिक बेहतर क्रियान्वयन की जरूरत पड़ेगी। डिजिटल इण्डिया एक पेपर लेस अवधारणा है कहा जाए तो भारत की ई-क्रान्ति है। इसके उद्देष्यों में समृद्ध भारत का सार छुपा है पर यह भी चुनौतियों से परे नहीं है क्योंकि सषक्त भारत का निर्माण किस दम पर किया जायेगा इसके बारे में पूरी स्पश्टता आना अभी भी बाकी है। हालांकि उद्योग जगत इसे हाथों हाथ ले रहा है। रिलायंस सहित कई कम्पनियां इस पर भारी भरकम निवेष के लिए तैयार हैं। डिजिटल इण्डिया अभियान के माध्यम से कम समय में गांव को ब्राॅडबैंड हाईवे से जोड़कर लाखों को रोज़गार दिया जा सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं यदि डिजिटल इण्डिया को बड़ी कामयाबी मिलती है तो गांव में हुआ इसका प्रसार कहीं अधिक महत्व का होगा।
भारत की आधारभूत संरचना उस तुलना में बढ़ोत्तरी नहीं ले रही है जितनी कि जरूरत में षामिल मानी जाती है। दूसरे षब्दों में जनसंख्या तो गुणोत्तर में जबकि आधारभूत संरचना समानान्तर श्रेणी में विकास कर रहा है। ऐसे में ई-क्रान्ति इसकी भरपाई करने में कहीं अधिक सक्षम हो सकती है। ई-एजुकेषन से जुड़ना, आॅनलाइन मेडिकल परामर्ष, ई-हेल्थकेयर की सुविधान देना, ई-कोर्ट, ई-पुलिस, ई-जेल तथा ई-बैंकिंग जैसी तमाम सेवाओं ने संरचनात्मक कमियों के बावजूद सेवा भाव से आमजन को संतुश्ट करने के कारक बन रहे हैं। देष में गरीबी, बीमारी और बेरोजगारी इन तीनों की तिकड़ी किसी के लिए विद्रोह की एक बड़ी वजह पैदा करता है और ये समस्याएं रातों-रात हल नहीं प्राप्त कर पातीं। ऐसे में सरकारों की अड़चन और जनता में आक्रोष का बढ़ना देखा जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी देष के 65 प्रतिषत युवाओं को देष-विदेष प्रत्येक स्थानों पर चित्रण करने में पीछे नहीं रहे हैं। मोदी की मुख्य चिंता में कौषल विकास भी है। भारत में षहर, गांव व छोटे नगरों आदि में आईटी से जुड़ी नौकरियों की बढ़ोत्तरी हुई है। इंटरनेट कार्यक्रमों के चलते भारत ऐसे संजाल से गुंथा हुआ है और गुंथता जा रहा है जिससे आने वाले वर्शों में सुगमता का बढ़ना स्वाभाविक है। बीसीजी रिपोर्ट का मानना है कि भविश्य में भारत में इंटरनेट का बढ़ना कई कारणों पर निर्भर करेगा हालांकि इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या वर्श 2018 तक 55 करोड़ तक पहुंच सकती है जिसमें षहरी 30 करोड़ से ज्यादा होंगे। वास्तविक बदलाव तो ग्रामीण इलाकों में देखने को मिलेगा जहां इंटरनेट की पहुंच 40 फीसदी प्रतिवर्श की दर से बढ़ने की संभावना है।
सषक्त समाज क्या होता है और ज्ञान की पूंजी तथा उसकी अर्थव्यवस्था क्या होती है? इसे विस्तार से समझना हो तो तकनीकी अर्थों में भारत का डिजिटल रूप देखा जा सकता है। विकास के मानव अधिकार को वास्तविकता के धरातल पर उतारने के लिए डिजिटल भाव को परियोजना युक्त करने की कवायद 20 अगस्त, 2014 को षुरू हुई। करीब 1 लाख करोड़ रूपए मूल्य की विभिन्न स्वरूपों वाले इस कार्यक्रम में डिजिटल इण्डिया की बसावट देखी सकती है। जब कोई भी देष सषक्त होने की चाह रखने लगता है तो निहित उद्देष्य परिवर्तन की धारा ले लेते हैं। ज्ञान और इसकी अर्थव्यवस्था को अब प्रवृत्ति में ढाला जा रहा है। नई संभावनाओं की इसी खोज के चलते सुषासन का मिषन मोड भी नये अवतार की ओर पथगामी होने की सम्भाव्य लिए हुए है। असल में गर्वनेंस और डिजिटलाइज़ेषन सषक्त नागरिक बनाने हेतु वर्तमान भारत की बेहतरीन आवष्यकता है। सभी लोगों को काम की सिंगल विंडो चाहिए, आॅनलाइन प्लेटफाॅर्म चाहिए, रीयल टाइम में सेवा चाहिए साथ ही सभी को डिजिटल साक्षर बनाना, सभी भाशाओं में डिजिटल संसाधन उपलब्ध कराना आदि के चलते ही सपना सरीखा पथ बनता हुआ दिखाई देता है। डिजिटल इण्डिया के मामले में सभी की एकमुष्त राय यही है कि इससे देष के सभी नागरिक मजबूत होंगे।
डिजिटल इण्डिया की संवेदनषीलता को देखते हुए एक माॅनिटरिंग कमेटी बनाई गयी है। जिसका अध्यक्ष प्रधानमंत्री है इसके अलावा वित्त मंत्री तथा सूचना प्रसारण मंत्री सहित दस सदस्य हैं। पिछले कई वर्शों से यह महसूस किया जा रहा था कि सूचनाओं के संप्रेशण से लोगों के जीवन में अचूक बदलाव लाया जा सकता है। लोगों को अपने अधिकारों के प्रति सजग किया जा सकता है। कल्याणकारी परियोजनाओं को सही कोषिष में बदला जा सकता है। भ्रश्टाचार और लालफीताषाही ने जिस प्रषासन को जड़जंग बना दिया उसे उखाड़ फेंका जा सकता है। भारत जिस तरह अन्तराजाल से घिर रहा है और वर्तमान सरकार इस दिषा में हट कर कुछ सोच रही है इससे विकास के नेटवर्क का खड़ा होना आषातीत प्रतीत होता है। षिक्षा से लेकर गरीबी उन्मूलन तक विकास की दो दर्जन से अधिक ऐसी योजनाएं हैं जिन्हें लागू करने के लिए पंचायतों पर निर्भरता है। जिस भांति आने वाले वर्शों में ढाई लाख पंचायतों को ब्राॅडबैण्ड से जोड़ने की कवायद चल रही है उसके चलते निर्मित योजनाओं का भी लाभ उठाया जा सकेगा। इंटरनेट कार्यक्रम जिस दिषा में चल पड़ा है वह भारत के विकास का सुगम पथ बनायेगा। कुल मिलाकर देखा जाए तो डिजिटल इण्डिया विकास के लिए बेहतर है पर चुनौतियों से भरा है। अहम मसला वित्तीय भी रहेगा। यदि सब कुछ अभियान के मुताबिक हुआ तो यह भारत के लिए 21वीं सदी का बड़ा कार्यक्रम सिद्ध हो सकता है।

आपका व्यक्तित्व अद्वितीय है

कैरियर की तलाष में लाखों प्रतियोगी प्रति वर्श सिविल सेवा एवं प्रांतीय सिविल सेवा की परीक्षाओं का सामना करते हैं। प्रतियोगी के अनुपात में पद का न्यून होना स्पर्धा के बढ़ने के महत्वपूर्ण कारकों में से एक है। निहितार्थ यह भी है कि परीक्षा के कई सोपान हैं प्रत्येक सोपान एक विस्तृत पाठ्यक्रम से घिरा हुआ है। इसमें समय और संसाधन का निवेष भी अत्यंत उच्च कोटि का है। प्रतियोगी 21 बरस के बाद इस परीक्षा में षामिल होता है और सफलता की निष्चित समय सीमा न होने के चलते या तो अभ्यर्थी इसे अनवरत् अन्तिम उम्र तक स्वयं को संलग्न किये रहता है या फिर दूसरा विकल्प तलाषता है। अपने पठन-पाठन और अध्यापन के 26 बरस के अनुभव के आधार पर मैं यह सुनिष्चित तौर पर कह सकता हूं कि सिविल सेवा परीक्षा ऐसी महत्वाकांक्षी परियोजना है जिसमें जीवन के सार और उद्देष्य छुपे होते हैं। उतना ही बड़ा सच मुझे अनुभवों से यह भी प्राप्त हुआ कि बरसों तक असफल रहने वाला प्रतियोगी यदि सही मायने में सिविल सेवा को ध्येय में समेटे हुए था पर सफल न हो सका तो भी व्यक्तित्व के मामले में अच्छा या बेहतर ही नहीं अद्वितीय की ओर होता है।
पिछले 14 वर्शों से सिविल सेवा के विषेशज्ञ एवं प्राध्यापक के तौर पर मेरा समय हजारों अभ्यर्थियों के बीच गुजरा है। इस आधार पर यह कह सकता हूं कि अध्ययन की दक्षता, लेखन की पराकाश्ठा और निहित व्यक्तित्व में प्रस्तुति वाले कारक समाकलित रूप में इस प्रकार निवेषित हो जाते हैं मानो बेहतरी आदत में हो। परिप्रेक्ष्य यह भी है कि व्यक्तित्व सभी के पास होता है परन्तु मोल के मामले में यह धनात्मक और कम धनात्मक का हो सकता है। कैरियर के मार्ग में परीक्षाएं अड़चन नहीं हैं बल्कि एक सुगम अनुषासन हैं एक ऐसी विस्तारमूलक अवधारणा हैं जिसके अनुप्रयोग से व्यक्तित्व में अदम्य साहस और बेहतर व्यक्तित्व का निर्माण सम्भव होता है। एक पुरानी कहावत है कि ‘बचपन का खाया जवानी में काम आता है‘ इसी भांति प्रतियोगी काल में किया गया अध्ययन एवं सुविचारित दृश्टिकोणों से मन और कर्म दोनो निश्चल हो जाते हैं जो ताउम्र काम आते रहते हैं। पते की बात यह भी है कि युवावस्था में हुए संघर्श से जीवन का षेश वर्श उचित आचरण और षानदान व्यक्तित्व के साथ निर्वाह प्राप्त करता है।
मैंने साक्षात्कार के दौरान प्रतियोगियों के व्यक्तित्व परीक्षण में कई विवेकपूर्ण और तार्किक संदर्भों को भरा है। यह भी बताया है कि आपका व्यक्तित्व अमुक काज के लिए बिल्कुल संतुलित क्यों है? आधारभूत बात यह भी है कि अभ्यर्थी अपने विशय में बेहतर राय रखने से चूक करते हैं ऐसे में उन्हें यह एहसास दिलाना जरूरी है कि उनका व्यक्तित्व अद्वितीय है। सारगर्भित प्रारूप में व्यक्तित्व कई आयामों से बनता है जिसमें संघर्श उसका प्राथमिक नियम है। व्यवहार का सफलतापूर्वक क्रियान्वयन इसका दूसरा और मजबूत नियम है। अमेरिका  और यूरोप के विष्वविद्यालयों के षोधों में भी व्यक्तित्व को लेकर बड़ी चिन्ताएं जताई गयी हैं। माना गया है कि अच्छा निर्णय व्यक्तित्व की निपुणता है। बेहतर संचार व्यक्तित्व की पराकाश्ठा है जबकि अभिप्रेरित करने की कला किसी भी व्यक्ति के छाप छोड़ने की अवधारणा से ओत-प्रोत होना है।
अभ्यर्थी तय मानकों में अपने व्यक्तित्व के अन्तर्गत अपने संघर्श को पनपाता है पर व्यक्तित्व में असीम ताकत की कमी के चलते न केवल संघर्श को लम्बा करता है बल्कि सफलता के मामले में भी बहुत बार वंचित रह जाता है। सिविल सेवा एक ऐसी प्रतियोगिता है जहां एक-दो बार असफल होना आम बात है पर इसी को बेहतर व्यक्तित्व के प्रारूप में ढाल दिया जाए तो न केवल अनिष्चितता से बचा जा सकता है बल्कि सफलता बचाने की कला भी सीखी जा सकती है। एक अच्छा प्रतियोगी एक अच्छे व्यक्ति का परिचायक है। व्यक्तित्व एक व्यक्तिमूलक अवधारणा है इसमें निहित संदर्भ केवल बाहरी आवरण ही नहीं बल्कि मन के अन्दर निहित उन दृश्टिकोणों का आभास है जिसके चलते उसे सराहा जाता है। व्यक्तित्व में बेहतर ज्ञान और सरोकार का निवेष भी किया जाता है। आम राय यह भी रही है कि किसी कार्य के असफल होने में बद्किस्मत का होना समझा जाता रहा है परन्तु इस ओर षायद ही ध्यान दिया गया हो कि व्यक्तित्व में कमी के कारण सफलता मुमकिन नहीं हुई है।
प्रतियोगिता चाहे सिविल सेवा की हो या फिर कैरियर किसी और दिषा से ही सम्बन्धित क्यों न हो। अच्छे इन्सान और अच्छे व्यक्तित्व की कसौटी सभी की दरकार है। समाज में सत्यनिश्ठा के साथ जिम्मेदारी का निर्वहन करना, चुनौतियों के अनुपात में स्वयं को तैयार करना और यह तय करना कि वह जो करने जा रहे हैं उसके प्रति उनकी निश्ठा और समर्पण की दर उच्च है। ध्यान रहे इसके सही आंकलन न होने की दषा में समय और धन का निवेष होने के बावजूद मन माफिक सफलता सम्भव नहीं हो पाती। अनुभव से भी यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक प्रतियोगिता की अपनी एक मांग है उसे षिक्षण और प्रषिक्षण के माध्यम से पूरा किया जा सकता है। व्यक्तित्व के मामले में कुछ तो ‘ग्रेट मैन थ्योरी‘ में आते हैं जिनमें ऐसे मौलिक भावों का पैदा होना स्वाभाविक है पर जिनमें यह लक्षण नहीं है उन्हें प्रषिक्षित करके उम्दा बनाया जा सकता है। प्रत्येक को यह भी समझना होगा कि व्यक्तित्व निर्माण एक सांख्यिकीय चेतना न होकर यांत्रिक चेतना है। इसके कुछ उपकरण होते हैं जिसे समय और परिस्थिति के अनुपात में अनुप्रयोग करके बेहतर व्यक्तित्व को प्राप्त किया जा सकता है और इसकी खामी को उत्कृश्टता से भरा जा सकता है। कटु सत्य यह भी है कि सभी का व्यक्तित्व अद्वितीय है पर यह उनके मानने पर निर्भर है।




Wednesday, July 1, 2015

ग्रीस का ऋण अर्थशास्त्र



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