वैज्ञानिक प्रबन्ध के जनक एफ. डब्ल्यू. टेलर जब इस बात के लिए निराष हुए कि तमाम फायदेमंद सिद्धांत देने के बावजूद सभी उनकी आलोचना करते हैं, तब उनके एक घनिश्ठ मित्र ने कहा था कि ‘टेलर तुम्हारी उपलब्धियों को सभी सराहते हैं पर आलोचना उस बात के लिए करते हैं जो तुमने किया ही नहीं है‘। इस कथन के आलोक में समाप्त हुए षीत सत्र की पड़ताल करें तो परिप्रेक्ष्य कुछ इसी प्रकार का झुकता हुआ दिखाई दे़ता है। भला उन अच्छे विधेयकों का क्या दोश जो सियासत की भेंट चढ़ गये। भले ही वे अधिनियमित न हो पाये हों पर उनकी खूबियां आज भी सराही जाएंगी। यदि आलोचना होगी तो इस बात की, कि लगभग एक माह चलने वाले षीत सत्र का सियासी पहलू इतना गरम क्यों हुआ कि लोकतंत्र की सबसे बड़ी संस्था जन संदेह के घेरे में है। जहां आरोप-प्रत्यारोप, आलोचना और हंगामे की तो बाढ़ थी पर अच्छे विमर्ष आभाव में चले गये। दो पखवाड़े के इस सत्र में जहां उपलब्धियों की मात्रा घटी है वहीं हंगामों की गुणवत्ता बढ़ी है। ऐसे में सत्ता हो या विपक्ष लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ करने के लिए दोनों जिम्मेदार जरूर ठहराये जाएंगे। षीत सत्र के दो दिन संविधान को समर्पित करते हुए एक अच्छा आगाज हुआ था पर पुराने और नये बखेड़ों के चलते अंजाम निराषाजनक रहा। पिछले एक साल के सत्र को देखें तो अब यह आम चलन में आ गया है कि संसद में मुद्दे सियासत की भेंट चढ़ते हैं और आने वाले सत्र को इस उम्मीद से भर दिया जाता है कि इसकी भरपाई वहां हो जायेगी। तथाकथित असहिश्णुता जैसे मुद्दों को छोड़ दें तो जिन कारणों से षीत सत्र का यह हाल हुआ वे सभी मुद्दे निहायत गम्भीर थे।
संसद के षीतकालीन सत्र का महोत्सव विपक्ष के दिन-प्रतिदिन की अड़ंगेबाजी के बीच इति को तो प्राप्त कर चुका है पर उत्पादकता की दृश्टि से परखें तो बोझ कम उतर पाया ही कहा जायेगा। तुलनात्मक तौर पर लोकसभा इस मामले में आगे रही है। यहां 13 विधेयकों पर बात बनी जबकि राज्यसभा इस मामले में थोड़ा कमतर रहते हुए 9 विधेयक तक ही सीमित रहा। बहुचर्चित और सरकार की महत्वाकांक्षी विधेयक जीएसटी को इस सत्र में भी निराषा ही हाथ लगी जबकि जीएसटी के मामले में आम सहमति बनते हुए दिखाई दे रही थी और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी आर्थिक विकास के मामले में जीएसटी को लेकर सकारात्मक राय दे चुके थे। हालांकि अनुमान यह नहीं था कि षीत सत्र भी बिना जीएसटी के ही चला जाएगा पर सियासत में क्या नहीं हो सकता और क्या हो सकता है अनुमान लगाना इतना सहज तो नहीं है? तीन मिनट में कानून बन भी सकते हैं और वर्शों तक विधेयक लटकाये भी जा सकते हैं। काम-काज की दृश्टि से लोकसभा में द ब्यूरो आॅफ स्टेण्डर्ड बिल, हाईकोर्ट-सुप्रीमकोर्ट (वेतनमान एवं सेवा) की दषायें विधेयक, राश्ट्रीय जलमार्ग विधेयक समेत कुल अनुमोदित विधेयकों की संख्या 13 है जबकि इसी सदन में प्रष्नकाल की उत्पादकता 87 फीसदी बताई जा रही है। राज्यसभा में कुल काज के 60 घण्टों में से 47 घण्टे विपक्षी षोर-षराबों के भेंट चढ़ गये। यहां अनुसूचित जाति और जनजाति (उत्पीड़न की रोकथाम) विधेयक, जुवेनाइल जस्टिस (केयर एण्ड प्रोटेक्षन आॅफ चिल्ड्रन) विधेयक समेत 9 विधेयक पास हुए। काम-काज के लिहाज से यह सदन प्रष्नकाल में 14 फीसदी ही उत्पादक रहा। ये हाल तब है जब आखिरी के दो दिनों में पांच विधेयक पारित हुए थे यदि ऐसा न होता तो ये आंकड़े और ज्यादा मायूस करने वाले होते।
यह सच है कि षीतकालीन सत्र उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा। इस अफसोस के साथ कि कांग्रेस ने काफी विघ्न डाला और रचनात्मक के बजाय नकारात्मक सियासत को पोशण दिया। कुछ महत्वपूर्ण बिल को छोड़ दिया जाए तो लोकतंत्र के इस बाजार में गहमागहमी तो रही पर यहां ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस‘ को पूरी तरह चरितार्थ होते देखा जा सकता है। यदि इसके पहले के मानसून सत्र से इसको जोड़ें तो मायूसी कम हो जाती है। सफल कहना सही नहीं है, पर विफल है यह भी षीत सत्र के लिए उचित षब्द नहीं है मगर विशयों पर विमर्ष को लेकर जो संकुचन दिखाई दिया उसके लिए लोकतंत्र के इन जनप्रतिनिधियों को क्लीन चिट तो नहीं दी जा सकती। राजनीतिक दलों में इस बात का भी होमवर्क नहीं था कि देष की समस्याएं किस तरह फलक पर आयें। चेन्नई में आई अचानक बाढ़ पर चर्चा हुई, कुछ हद तक सूखे पर भी रूखे मन से ही सही बात हुई पर किसान को क्या करना है और सरकार उनके लिए क्या करेगी इसकी जहमत नहीं उठाई गयी। निर्भया प्रकरण के चलते जुवेनाइल जस्टिस विधेयक पास हो गया। साफ है जनता हल्ला करे तो सदन चेतेगा। वर्श में तीन सत्र होते हैं षुरूआत में बजट सत्र है। आंकड़ें दर्षाते हैं कि विगत् पन्द्रह सालों में इस वर्श का बजट सत्र सबसे अच्छा सत्र था। लोकसभा अपने निर्धारित समय में 125 फीसदी और राज्यसभा ने 101 फीसदी काम किया। आंकड़ों में भले ही बजट सत्र को उम्दा कह रहे हों परन्तु उस पर से भी मायूसी के बादल कब छंटे थे यह तो दिखा ही नहीं? इसी बजट सत्र में 23 दिसम्बर, 2014 को जारी भू-अधिग्रहण विधेयक सिरे से नकार दिया गया था चार बार अध्यादेष जारी करने के बाद अब स्थिति यह है कि इस विधेयक की एक बरसी हो गयी पर उसका कोई नाम लेवा नहीं है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि संसद का यह षीत सत्र कई सवाल भी खड़े करके गया है। मानसून सत्र हो या षीत सत्र ऋतु बदली है पर आदत वही रही। विधेयक इसलिए रोके गये क्योंकि उस पर राजनीति की गयी और विमर्ष इसलिए नहीं हुए क्योंकि इच्छाषक्ति नहीं दिखाई गयी। आखिरी तीन दिन राज्यसभा में तीस मिनट के भीतर तीन विधेयक बगैर चर्चा के पारित हो गये। अक्सर देखा गया है कि लम्बे सत्र बोझिल कक्षा की तरह हो जाते हैं जिसमें विद्यार्थी न षिक्षक को पढ़ाने देते हैं और न ही अनुषासन पसंद होते हैं और यह गड़बड़ी तब अधिक हो जाती है जब प्रष्न निजी कारणों से किये जा रहे हों जबकि वे पाठ्यक्रम के हिस्से ही नहीं हैं। कमोबेष लोकसभा में स्पीकर और राज्यसभा में सभापति इस सत्र की बोझिल हंगामों से त्रस्त रहे हैं और बार-बार सदन रूकती रही पर इस बात की किसे फिक्र थी कि लोकसभा की एक घण्टे की कार्यवाही पर सरकारी खजाने से डेढ़ करोड़ और राज्यसभा में यही एक करोड़ दस लाख खर्च हो जाते हैं। जनता के टैक्स का पैसा इतनी बेरहमी से खर्च करना और नतीजे के तौर पर हाथ खाली रहना कहां का न्याय और कैसा लोकतंत्र है। सवाल है कि महीनों तक संसद को बंधक बनाने वाले विपक्ष को आखिर क्या मिला? नेषनल हेराल्ड को लेकर जो हंगामा सदन में काटा गया उसमें सदन का क्या दोश था? भारत के लोकतंत्र के इतिहास में कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि पूर्ण बहुमत की सरकार इतनी बेबसी झेलती हो और गैर मान्यता प्राप्त विपक्ष नाक में इतना दम किया हो। षीत सत्र का जो हुआ सो हुआ आगे की रणनीति और होमवर्क को लेकर सियासतदान बड़े सुधार को अंगीकृत नहीं करते तो यह उनकी छवि को लेकर तो एक खतरा होगा ही, लोकतंत्र की लिए भी एक घात होगा जिसे षायद आने वाले दिनों में कोई भी इसे बेहतरी के लिए तो नहीं जानेगा।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
संसद के षीतकालीन सत्र का महोत्सव विपक्ष के दिन-प्रतिदिन की अड़ंगेबाजी के बीच इति को तो प्राप्त कर चुका है पर उत्पादकता की दृश्टि से परखें तो बोझ कम उतर पाया ही कहा जायेगा। तुलनात्मक तौर पर लोकसभा इस मामले में आगे रही है। यहां 13 विधेयकों पर बात बनी जबकि राज्यसभा इस मामले में थोड़ा कमतर रहते हुए 9 विधेयक तक ही सीमित रहा। बहुचर्चित और सरकार की महत्वाकांक्षी विधेयक जीएसटी को इस सत्र में भी निराषा ही हाथ लगी जबकि जीएसटी के मामले में आम सहमति बनते हुए दिखाई दे रही थी और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी आर्थिक विकास के मामले में जीएसटी को लेकर सकारात्मक राय दे चुके थे। हालांकि अनुमान यह नहीं था कि षीत सत्र भी बिना जीएसटी के ही चला जाएगा पर सियासत में क्या नहीं हो सकता और क्या हो सकता है अनुमान लगाना इतना सहज तो नहीं है? तीन मिनट में कानून बन भी सकते हैं और वर्शों तक विधेयक लटकाये भी जा सकते हैं। काम-काज की दृश्टि से लोकसभा में द ब्यूरो आॅफ स्टेण्डर्ड बिल, हाईकोर्ट-सुप्रीमकोर्ट (वेतनमान एवं सेवा) की दषायें विधेयक, राश्ट्रीय जलमार्ग विधेयक समेत कुल अनुमोदित विधेयकों की संख्या 13 है जबकि इसी सदन में प्रष्नकाल की उत्पादकता 87 फीसदी बताई जा रही है। राज्यसभा में कुल काज के 60 घण्टों में से 47 घण्टे विपक्षी षोर-षराबों के भेंट चढ़ गये। यहां अनुसूचित जाति और जनजाति (उत्पीड़न की रोकथाम) विधेयक, जुवेनाइल जस्टिस (केयर एण्ड प्रोटेक्षन आॅफ चिल्ड्रन) विधेयक समेत 9 विधेयक पास हुए। काम-काज के लिहाज से यह सदन प्रष्नकाल में 14 फीसदी ही उत्पादक रहा। ये हाल तब है जब आखिरी के दो दिनों में पांच विधेयक पारित हुए थे यदि ऐसा न होता तो ये आंकड़े और ज्यादा मायूस करने वाले होते।
यह सच है कि षीतकालीन सत्र उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा। इस अफसोस के साथ कि कांग्रेस ने काफी विघ्न डाला और रचनात्मक के बजाय नकारात्मक सियासत को पोशण दिया। कुछ महत्वपूर्ण बिल को छोड़ दिया जाए तो लोकतंत्र के इस बाजार में गहमागहमी तो रही पर यहां ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस‘ को पूरी तरह चरितार्थ होते देखा जा सकता है। यदि इसके पहले के मानसून सत्र से इसको जोड़ें तो मायूसी कम हो जाती है। सफल कहना सही नहीं है, पर विफल है यह भी षीत सत्र के लिए उचित षब्द नहीं है मगर विशयों पर विमर्ष को लेकर जो संकुचन दिखाई दिया उसके लिए लोकतंत्र के इन जनप्रतिनिधियों को क्लीन चिट तो नहीं दी जा सकती। राजनीतिक दलों में इस बात का भी होमवर्क नहीं था कि देष की समस्याएं किस तरह फलक पर आयें। चेन्नई में आई अचानक बाढ़ पर चर्चा हुई, कुछ हद तक सूखे पर भी रूखे मन से ही सही बात हुई पर किसान को क्या करना है और सरकार उनके लिए क्या करेगी इसकी जहमत नहीं उठाई गयी। निर्भया प्रकरण के चलते जुवेनाइल जस्टिस विधेयक पास हो गया। साफ है जनता हल्ला करे तो सदन चेतेगा। वर्श में तीन सत्र होते हैं षुरूआत में बजट सत्र है। आंकड़ें दर्षाते हैं कि विगत् पन्द्रह सालों में इस वर्श का बजट सत्र सबसे अच्छा सत्र था। लोकसभा अपने निर्धारित समय में 125 फीसदी और राज्यसभा ने 101 फीसदी काम किया। आंकड़ों में भले ही बजट सत्र को उम्दा कह रहे हों परन्तु उस पर से भी मायूसी के बादल कब छंटे थे यह तो दिखा ही नहीं? इसी बजट सत्र में 23 दिसम्बर, 2014 को जारी भू-अधिग्रहण विधेयक सिरे से नकार दिया गया था चार बार अध्यादेष जारी करने के बाद अब स्थिति यह है कि इस विधेयक की एक बरसी हो गयी पर उसका कोई नाम लेवा नहीं है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि संसद का यह षीत सत्र कई सवाल भी खड़े करके गया है। मानसून सत्र हो या षीत सत्र ऋतु बदली है पर आदत वही रही। विधेयक इसलिए रोके गये क्योंकि उस पर राजनीति की गयी और विमर्ष इसलिए नहीं हुए क्योंकि इच्छाषक्ति नहीं दिखाई गयी। आखिरी तीन दिन राज्यसभा में तीस मिनट के भीतर तीन विधेयक बगैर चर्चा के पारित हो गये। अक्सर देखा गया है कि लम्बे सत्र बोझिल कक्षा की तरह हो जाते हैं जिसमें विद्यार्थी न षिक्षक को पढ़ाने देते हैं और न ही अनुषासन पसंद होते हैं और यह गड़बड़ी तब अधिक हो जाती है जब प्रष्न निजी कारणों से किये जा रहे हों जबकि वे पाठ्यक्रम के हिस्से ही नहीं हैं। कमोबेष लोकसभा में स्पीकर और राज्यसभा में सभापति इस सत्र की बोझिल हंगामों से त्रस्त रहे हैं और बार-बार सदन रूकती रही पर इस बात की किसे फिक्र थी कि लोकसभा की एक घण्टे की कार्यवाही पर सरकारी खजाने से डेढ़ करोड़ और राज्यसभा में यही एक करोड़ दस लाख खर्च हो जाते हैं। जनता के टैक्स का पैसा इतनी बेरहमी से खर्च करना और नतीजे के तौर पर हाथ खाली रहना कहां का न्याय और कैसा लोकतंत्र है। सवाल है कि महीनों तक संसद को बंधक बनाने वाले विपक्ष को आखिर क्या मिला? नेषनल हेराल्ड को लेकर जो हंगामा सदन में काटा गया उसमें सदन का क्या दोश था? भारत के लोकतंत्र के इतिहास में कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि पूर्ण बहुमत की सरकार इतनी बेबसी झेलती हो और गैर मान्यता प्राप्त विपक्ष नाक में इतना दम किया हो। षीत सत्र का जो हुआ सो हुआ आगे की रणनीति और होमवर्क को लेकर सियासतदान बड़े सुधार को अंगीकृत नहीं करते तो यह उनकी छवि को लेकर तो एक खतरा होगा ही, लोकतंत्र की लिए भी एक घात होगा जिसे षायद आने वाले दिनों में कोई भी इसे बेहतरी के लिए तो नहीं जानेगा।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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