Monday, November 9, 2020

दुनिया पर पड़ेगी व्हाइट हाउस की नई चमक

डेमोक्रेटिक पार्टी के अमेरिकी राश्ट्रपति उम्मीदवार जो बायडन ने जब भारत-अमेरिकी मूल की कमला हैरिस को उपराश्ट्रपति पद देने की बात कही तभी यह लगने लगा था कि वे एक तीर से कई निषाने लगा चुके हैं। बायडन की जीत और ट्रम्प की हार में वैसे तो मात्रात्मक और गुणात्मक कई तरीके से पड़ताल की जा सकती है। लगभग 250 साल के अमेरिकी लोकतांत्रिक इतिहास में कभी रिपब्लिकन तो कभी डेमोक्रेट सत्तासीन होती रही है। फिलहाल बायडन का व्हाइट हाउस पहुंचना उनकी रणनीति को पुख्ता बना रही है। कमला हैरिस के चलते उन्हें अष्वेतों का वोट मिलना लगभग तय हो गया जो कि चुनाव में दिखता भी है। दूसरा महिला उपराश्ट्रपति बनाने का लाभ भी उनके हिस्से में गया है। गौरतलब है कि बायडन बराक ओबामा के दोनों कार्यकाल में उपराश्ट्रपति रहे और उन्हें करीब 5 दषक का सियासी अनुभव है। पड़ताल बताती है कि 1987 में वे राश्ट्रपति के उम्मीदवार की कोषिष में थे और उन्हें आधा दर्जन से अधिक राश्ट्रपतियों के साथ काम करने का तजुर्बा भी है। डोनाल्ड ट्रम्प इस चुनाव में कई मोर्चे पर विफल दिखाई देते हैं। अष्वेतों के बीच सही संदेष का न पहुंचा पाना उनके लिए उनकी हार के कारणों में यह भी एक कारण कहा जा सकता है। हालांकि रंगभेद अमेरिका की जमीन में 4 सौ साल पहले उगा था और उसकी खेती बीच-बीच में अभी भी लहलहा जाती है। ट्रम्प के समय में भी यह देखने को मिला है। कोरोना के दौर में कमजोर रणनीति और केवल चीन को कोसने तक ही सीमित रहना भी अमेरिकी जनता को रास नहीं आया। विष्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) से अपने को अलग करने के चलते भी अमेरिका में अलग-अलग राय हो गयी थी। हालांकि वो रूस से 1987 के इंटरमीडिएट रेंज न्यूक्लियर फोर्सेज समझौते और 2015 का पेरिस जलवायु समझौता पहले ही तोड़ चुके थे। ईरान के साथ तो लगभग युद्ध कर चुके थे। साथ ही भारत का ईरान से तेल न लेने का प्रतिबंध भी देखा जा सकता है। इतना ही नहीं एच-1बी वीजा के मामले में भी उनक सख्त रूख भी उनके खिलाफ ही गया है।

डोनाल्ड ट्रम्प एक सख्त नेतृत्व के रूप में स्वयं को दुनिया में दिखाया कई समझौते तोड़े अमेरिका फस्र्ट की राह को समतल करने का प्रयास किया मगर उसी दुनिया में रिस रही उनकी कमजोरियां भी अमेरिकी जनता ने देखा। फिलहाल एक पारी खेल चुके डोनाल्ड ट्रम्प दुनिया के तमाम देषों के लिए हमेषा सुर्खियां रहे। वैसे अमेरिका हमेषा सुर्खियों में ही रहता है। जो बायडन जिस जीत के साथ आगे बढ़े हैं और उनका 46वें राश्ट्रपति के रूप में व्हाइट हाउस पहुंचना नये वैष्विक समीकरण पर एक चमक छोड़ रहा है। अमेरिका के अब तक के इतिहास में डोनाल्ड ट्रम्प सबसे उम्रदराज राश्ट्रपति के रूप में जाने जाते थे अब यह तगमा 77 वर्शीय जो बायडन के हिस्से में चला गया है। अमेरिका की पल-पल की चुनावी हलचल पर भारत की निगाहें भी टिकी हुई थीं। देखना था कि ट्रम्प अपनी कुर्सी बचा पाते हैं या जो बायडन व्हाइट हाउस में प्रवेष करते हैं। सवाल यह है कि नये अमेरिकी राश्ट्रपति का भारत पर क्या असर पड़ेगा। जाहिर है द्विपक्षीय रिष्ते नरम-गरम हो सकते हैं लेकिन बहुत बदलेंगे ऐसा दिखता नहीं है। चुनाव से पहले भारत और अमेरिका के बीच में टू-प्लस-टू की वार्ता अक्टूबर के अन्तिम सप्ताह में सम्पन्न हुई। खास यह भी है कि पाकिस्तान पर बायडन षायद उतने सख्त न रहें जितने ट्रम्प थे क्योंकि डेमोक्रेटिक नीतियों में ऐसा कम ही रहा है। बराक ओबामा के 8 साल के कार्यकाल में पाकिस्तान पर आर्थिक पाबंदी का न लगाया जाना जबकि इन्हीं के कार्यकाल में पाकिस्तान के एटबाबाद में छुपे अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन मारा गया था। यह बात पुख्ता करती है कि डेमोक्रेटिक कुछ हद तक मध्यम मार्गी है। मोदी और बराक ओबामा गहरी दोस्ती के लिए जाने जाते हैं। फिर भी बराक ओबामा ने पाकिस्तान पर कोई खास षक्ति नहीं दिखाई थी। 

बायडन के राश्ट्रपति के रूप में व्हाइट हाउस में होना भारत के लिए कोई खास असर दिखता नहीं है। पर कई वजहों से असमंजस अनायास ही बढ़ जाता है। असल में बायडन मोदी सरकार की कई नीतियों पर सवाल उठाते रहे हैं। सीएए और एनआरसी पर उनकी राय अच्छी नहीं है। जम्मू-कष्मीर में अनुच्छेद 370 को खत्म करने को लेकर भी बायडन का रूख भारत को असहज करने वाला रहा है। जहां तक कारोबार की बात है तो बायडन की भी नीति अमेरिका फस्र्ट की ही दिखती है। हालांकि भारत में मध्यम वर्ग को उठाने के लिए कारोबार पर जोर देने की बात बायडन कह चुके हैं। तमाम के साथ यह भी देखा गया है कि राजनीतिक तौर पर जो बयानबाजी होती है उसे कूटनीतिक और वैदेषिक नीति के अन्तर्गत बहुत देर तक टिकाऊ नहीं माना जा सकता। सम्भव है कि बराक ओबामा के पसंदीदा बायडन का भारत के साथ अच्छा रिष्ता रहे। वैष्विक स्थिति इन दिनों जिस राह पर इन दिनों है उसे देखते हुए राश्ट्रपति अमेरिका का कोई भी हो भारत को नजरअंदाज नहीं कर सकता। चीन के मुद्दे पर भारत के साथ बायडन खड़े दिखाई भी देते हैं। षक्ति संतुलन के सिद्धान्त के अन्तर्गत देखें तो चीन को मुखर होने से रोकने के लिए अमेरिका की भारत का साथ देने वाली मजबूरी अक्सर रही है। सामरिक और आर्थिक संतुलन के लिए भी अमेरिका को भारत की जरूरत है। अब सवाल तो यह भी है कि ट्रम्प बायडन से क्यों पिछड़े और अमेरिकी जनता उनसे केवल 4 साल में क्यों ऊब गयी। हालांकि इसके कई कारण पहले बताये गये हैं। असल में ट्रम्प अमेरिका के हितों को सुनिष्चित करने में इतने मषगूल थे कि बाहरी दुनिया को बड़े पैमाने पर दुष्मन बना लिया और राजनीतिक अनुभव ज्यादा न होने के कारण वोटरों को अपने से दूर भी कर दिया। ट्रम्प ऐसे षख्स हैं जो पहली बार राजनीति में आये और राश्ट्रपति बन गये जबकि बायडन 8 साल उपराश्ट्रपति और 47 साल पहले सिनेटर के तौर पर सियासी पारी षुरू की। इसमें कोई दुविधा नहीं कि बायडन राजनीतिक तौर पर गहरे अनुभव वाले हैं।

डोनाल्ड ट्रम्प की 4 साल की पारी को दुष्मन और दोस्त सभी ने परख लिया था। रोचक यह भी है कि चीन, रूस, सऊदी अरब व उत्तर कोरिया समेत कई मित्र और षत्रु देष ट्रम्प को ही राश्ट्रपति के रूप में पुनः देखना चाहते थे इसका षायद एक फायदा यह होता है कि देष विषेश को यह पता होता है कि पहले से चली आ रही कूटनीतिक चाल और वैदेषिक नीति में क्या नया कदम उठाना है। मगर जब सत्ता बदल जाती है नये व्यक्ति की ताजपोषी होती है तब दुनिया के देष नये रणनीति की ओर चले जाते हैं मगर भारत के मामले में यह पूरी तरह लागू नहीं दिखाई देता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि बराक ओबामा का प्रभाव बायडन पर है उन्होंने इनके लिए प्रचार भी किया था और ओबामा के समय में भारत-अमेरिका के सम्बंध किसी भी काल से बेहतर स्थिति में थे। गणतंत्र दिवस पर ओबामा का मुख्य अतिथि के रूप में आना और दो बार भारत आना इस बात को पुख्ता करता है। हालांकि डेमोक्रेटिक के राश्ट्रपति रहे बिल क्लिंटन के समय पोखरण-2 के चलते अमेरिका ने आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया था। फिलहाल ऐसा लगता है कि बायडन एक सुलझे हुए राजनेता हैं और ट्रम्प के कई निर्णयों को सही करने का काम करेंगे। मसलन पेरिस जलवायु समझौते में अमेरिका को पुनः षामिल करना चाहेंगे जैसा कि वह कह चुके हैं। चीन के मामले में उनकी नीति ट्रम्प की तरह ही दिखाई देती है जबकि रूस को वो खतरा बता चुके हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि व्हाइट हाउस एक नये तेवर के साथ अब सुर्खियों में रहेगा और बदले हुए वैष्विक फिजा में एक नई चर्चा की ओर आगे बढ़ेगा। कमला हैरिस की भूमिका भी भारत से सम्बंध के मामले में और भरोसा बढ़ायेगा। फिलहाल व्हाइट हाउस की चमक एक बार फिर नये रूप में दुनिया के सामने दिखेगी। 


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

दिल्ली के आकाश में तबाही का मंज़र

एक तरफ कोरोना ने सांस को मुसीबत में डाला है तो दूसरी तरफ दूशित हवा ने दिल्ली को घोर संकट में डाल दिया है। जब हम सुनियोजित एवं संकल्पित होते हैं तब प्रत्येक संदर्भ को लेकर अधिक संजीदे होते हैं पर यही संकल्प और नियोजन घोर लापरवाही का षिकार हो जाय तो वातावरण में ऐसा ही धुंध छाता है जैसा इन दिनों दिल्ली में छाया है। मनुश्य की प्राकृतिक पर्यावरण में दो तरफा भूमिका होती है पर विडम्बना यह है कि भौतिक मनुश्य जो पर्यावरण को लेकर एक कारक के तौर पर जाना जाता था आज वह सिलसिलेवार तरीके से अपना रूप बदलते हुए कभी पर्यावरण का रूपांतरकर्ता है तो कभी परिवर्तनकर्ता है अब तो वह विध्वंसकर्ता भी बन गया है। इसी विध्वंस का एक सजीव उदाहरण इन दिनों दिल्ली का आकाष है। दिल्ली एनसीआर की हवा दिन ब दिन जहरीली होती जा रही है। जो हाल दिल्ली का दीपावली के बाद होता था वह सप्ताह भर पहले ही हो गया है। दीपावली के बाद यदि पटाखों पर नियंत्रण न रखा गया तो सम्भव है सांस लेना दूभर हो जायेगा। हरियाणा और पंजाब में जलाई जाने वाली पराली प्रदूशण की बड़ी वजह रही हैं मगर केन्द्रीय प्रदूशण नियंत्रण बोर्ड का मानना है कि पंजाब में पराली जलाने की घटनायें कम हुई हैं हालांकि पराली जलाई जा रही है। गौरतलब है कि पराली जलाने से एक्यूआई प्रभावित होती है। दरअसल एक्यूआई हवा के गुणवत्ता का एक पैमाना है जिससे आंका जा सकता है कि स्थिति क्या है। जब यही एक्यूआई 301 से 400 के बीच हो तो स्थिति बेहद खराब हो जाती है और यदि आंकड़ा 500 तक पहुंच गया तो हालत गम्भीर हो जाती है। ऐसे में सांस लेने में दिक्कत दमा और एलर्जी के मामले में तेजी से बढ़ोत्तरी हो जाती है। हांलाकि दिल्ली के अलग-अलग जगहों पर इसका पैमाना अलग-अलग है। मगर स्थिति बेहद खराब और गम्भीर के बीच बनी हुई है। साल 2016 में दिल्ली का दम बहुत घुटा था तब 17 सालों में सबसे खराब धुंध के चलते दिल्ली बदहाल थी। सर्वाधिक आम समस्या यहां ष्वसन को लेकर है जबकि इस बार तो कोरोना के चलते सांस पहले से ही समस्या में है और अभी दिल्ली में कोरोना की तीसरी लहर बतायी जा रही है। ऐसे में वहां का आसमान में इस कदर प्रदूशण का होना जिन्दगी के लिए बेहद खराब कहा जायेगा।

जब स्थिति बिगड़ती है तो धुंध की वजह से सांस लेने में गम्भीर परेषानी खांसी और छींक सहित कई चीजे निरंतरता ले लेती हैं। 4 साल पहले दिल्ली में धुंध की स्थिति को देखते हुए उच्च न्यायालय को यहां तक कहना पड़ा था कि यह किसी गैस चैम्बर में रहने जैसा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि दिल्ली एनसीआर और उसके आस-पास के इलाकों में हवायें जहरीली हो गयी हैं। धुंध की वजह से सड़कें साफ नहीं दिखती जिससे एक्सिडेंट होने के खतरे भी बढ़ जाते हैं। हालांकि दिल्ली की हवा भी गुणवत्ता में बुधवार को थोड़ा सुधार हुआ लेकिन हवा की गुणवत्ता खराब की श्रेणी में ही है। गौरतलब है कि हवा गति बढ़ने के कारण एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) खराब श्रेणी में था। सबसे बेहाल दिल्ली में धुंध इतनी खतरनाक है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दिन के 12 बजे भी सूरज की रोषनी इस धुंध को चीर नहीं पा रही है। यहां हवाओं का कफ्र्यू लगा हुआ है। जब हवा में जहर घुलता है तो जीवन की कीमत भी बढ़ जाती है। सामान्य रूप से जन साधारण के लिए जीवनवर्धक पर्यावरण को किसी भी भौतिक सम्पदा से तुलना नहीं की जा सकती। मानव औद्योगिक विकास, नगरीकरण और परमाणु उर्जा आदि के कारण खूब लाभान्वित हुआ है परन्तु भविश्य में होने वाले अति घातक परिणामों की अवहेलना भी की है जिस कारण पर्यावरण का संतुलन डगमगा गया है और इसका षिकार प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों रूपों में मानव ही है। भूगोल के अन्तर्गत अध्ययन में यह रहा है कि वायुमण्डल पृथ्वी का कवच है और इसमें विभिन्न गैसें हैं जिसका अपना एक निष्चित अनुपात है मसलन नाइट्रोजन, आॅक्सीजन, कार्बन डाईआॅक्साइड आदि। जब मानवीय अथवा प्राकृतिक कारणों से यही गैसें अपने अनुपात से छिन्न-भिन्न होती हैं तो कवच कम संकट अधिक बन जाती है। मौसम वैज्ञानिकों की मानें तो आने वाले कुछ दिनों तक दिल्ली में फैले धुंध से छुटकारा नहीं मिलेगा। सवाल उठता है कि क्या हवा में घुले जहर से आसानी से निपटा जा सकता है। फिलहाल हम मौजूदा स्थिति में बचने के उपाय की बात तो कर सकते हैं। स्थिति को देखते हुए कृत्रिम बारिष कराने की सम्भावना पर भी विचार होता रहा है। 

देखा जाय तो प्रदूशण के चलते आपे से बाहर हो जाने वाली दिल्ली में सियासत भी रंग बदलती रहती है। आरोप-प्रत्यारोप भी खूब चलते हैं। एतियाती उपाय के तौर पर कह दिया जाता है कि जितना हो सके लोग घरों में रहें। सभी सामान्य रिपोर्टों का निश्कर्श भी यही रहता है कि दिल्ली का प्रदूशण अपनी उस सीमा पर चला गया है जहां से मनुश्य की सहनषीलता जवाब दे देती है। यह महज़ आंकड़ों का खेल नहीं है बल्कि सबके लिए डरावनी स्थिति पैदा करने वाला भी है। दिल्ली सरकार के मुखिया केजरीवाल प्रदूशण को आपातकालीन स्थिति की बात पहले भी कह चुके हैं। बेषक केजरीवाल का ऐसे मामलों में प्रयास कहीं अधिक सराहनीय रहता है मगर एक सरकार के तौर पर उनकी भी सीमाएं हैं। नेषनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने प्रदूशण के मामले को लेकर दिल्ली सरकार को पहले भी फटकार लगाई है और स्टेटस रिपोर्ट की बात होती रही है। फिलहाल सवाल उठता है कि पर्यावरण की स्वच्छता को लेकर क्या केवल दिल्ली सरकार की लानत-मलानत से पूरा समाधान मिलेगा। प्रदूशण को फैलाने वाले जिम्मेदार लोग कहां गये इस प्रष्न की भी तलाष होनी चाहिए। 

यह बात भी मुनासिब है कि जिस विन्यास के साथ सामाजिक मनुश्य, आर्थिक मनुश्य तत्पष्चात् प्रौद्योगिक मानव बना है उसकी कीमत अब चुकाने की बारी आ गयी है। विज्ञान एवं अत्यधिक विकसित, परिमार्जित एवं दक्ष प्रौद्योगिकी के प्रादुर्भाव के साथ 19वीं सदी के उत्तरार्ध में औद्योगिक क्रान्ति का 1860 में सवेरा होता है। इसी औद्योगिकीकरण के साथ मनुश्य और पर्यावरण के मध्य षत्रुतापूर्ण सम्बंध की षुरूआत भी होती है तब दुनिया के आकाष में प्रदूशण का सवेरा मात्र हुआ था। एक सौ पचास वर्श के इतिहास में प्रदूशण का यह सवेरा कब प्रदूशण की आधी रात बन गयी इसे लेकर समय रहते न कोई जागरूक हुआ और न ही इस पर युद्ध स्तर पर काज हुआ। विकसित और विकासषील देषों के बीच इस बात का झगड़ा जरूर हुआ कि कौन कार्बन उत्सर्जन ज्यादा करता है और किसकी कटौती अधिक होनी चाहिए। 1972 के स्टाॅकहोम सम्मेलन, मांट्रियल समझौते से लेकर 1992 एवं 2002 के पृथ्वी सम्मेलन, क्योटो-प्रोटोकाॅल तथा कोपेन हेगेन और पेरिस तक की तमाम बैठकों में जलवायु और पर्यावरण को लेकर तमाम कोषिषें की गयी पर नतीजे क्या रहे? कब पृथ्वी के कवच में छेद हो गया इसका भी एहसास होने के बाद ही पता चला। हालांकि 1952 में ग्रेट स्माॅग की घटना से लंदन भी जूझ चुका है। कमोबेष यही स्थिति इन दिनों दिल्ली की है। एनसीआर में हवा की गुणवत्ता सुधरने के बजाय हर साल क्यों बिगड़ती है इस पर सिरे से प्रयास करने की आवष्यकता है। जब इस बार पराली कम जलाई गयी तब भी बात क्यों बिगड़ी यह सोचने वाली बात है। साथ ही दिल्ली सरकार आॅड-ईवन का फाॅर्मूला भी अपनाती रही है। हो न हो इसकी जिम्मेदारी तो मानव की ही है परन्तु नियंत्रण के मामले में सरकार पल्ला नहीं झाड़ सकती है। ऐसे में हवाओं में जहर न घुल पाये इसकी जिम्मेदारी सभी की तय होनी चाहिए। 


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

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सुशासनिक ढांचे में निहित है रोज़गार

फिलहाल बिहार में विधानसभा चुनाव इन दिनों जोरों पर है और नवम्बर में नई सरकार का दिखना भी तय है पर भाजपा के साथ चुनाव में ताल ठोक रहे नीतीष कुमार क्या डेढ़ दषक पुरानी अपनी गद्दी को बचा पायेंगे या फिर इतने ही दिनों से सत्ता से दूर खड़ी राश्ट्रीय जनता दल और उसका गठजोड़ बाजी मारेगा, कहना कठिन है। हालांकि 2015 के चुनाव में राजद के साथ मिलकर नीतीष ने भाजपा को पटखनी दी थी लेकिन डेढ़ साल बाद परिस्थितियों के चलते दोनों की राह अलग हो गयी और नीतीष भाजपा के समर्थन से बाकी की सत्ता हांक रहे हैं। इस चुनाव के नतीजे में सबसे बड़ा दल लालू का राजद ही था। गौरतलब है कि नीतीष बिहार के सुषासन बाबू हैं जाहिर है यह षब्द भारी है। इस षब्द ने नीतीष कुमार को सत्ता से भरी एक षख्सियत प्रदान करती रही है और बिहार में बड़े बदलाव के लिए भी इन्हें जाना जाता है। अब भाजपा की ताकत और मोदी का सुषासन भी इस चुनाव में इनके साथ है बावजूद इसके चुनौती कम नहीं दिखती है। इनके खिलाफ ताल ठोक रहे लालू के उत्तराधिकारी और राजद के तेजस्वी दस लाख रोज़गार देने की बात कह रहे हैं। कोरोना के चलते लोगों के काम छिने हैं और बिहार के 10 करोड़ से अधिक आबादी को इसकी सख्त आवष्यकता है। इसी को देखते हुए तेजस्वी ने रोज़गार का कार्ड खेला है। हालांकि यह कार्ड हर चुनाव में चलता है चाहे बाद में यह सिफर ही क्यों न रहे। जब युवाओं को रोज़गार और जनता को सामाजिक-आर्थिक उन्नयन देने की बात चुनाव में होती है तो यह सवाल स्वयं मुखर हो जाता है कि ये सभी बातें मानवाधिकार, सहभागी विकास और लोकतांत्रिकरण के महत्व को बड़ा करने के लिए उत्पन्न की जाती हैं साथ ही लोक सषक्तिकरण को पुख्ता करने का प्रयास माना जाता है और ये सभी बातें सुषासन की सीमाएं हैं। 

लाॅकडाउन के दौरान सबसे ज्यादा कामगार उत्तर प्रदेष तत्पष्चात् बिहार लौटे हैं। 2019-20 के इकोनाॅमिक सर्वे में बिहार के ग्रामीण इलाकों में 6.8 और षहरी इलाकों में 9 फीसद बेरोज़गारी दर थी जो कोरोना की चपेट में आने से अब यही दर भयावह स्थिति ले ली है। देखा जाय तो यह सवाल भी कहीं नहीं गया है कि युवा यह मानते हैं कि सरकारें रोज़गार मुहैया कराने में नाकाम रही हैं और युवाओं के साथ बार-बार छल होता रहा है। रोज़गार और विकास आदि से जुड़ा चुनावी वादा कोई नई बात नहीं है मगर यह कितने राजनीतिक दल समझना चाहते हैं कि बुनियादी विकास और बेहतर विकास की काट सुषासन ही है और यही लोक विकास की कुंजी भी है जिसके आभाव में न तो जमीनी विकास सम्भव है और न ही चुनावी वायदे पूरे किये जा सकते हैं। यद्यपि सुषासन को लेकर आम लोगों में भी विभिन्न विचार हो सकते हैं पर इसमें कोई दुविधा नहीं कि सुषासन लोगों की सषक्तिकरण का एक बड़ा आयाम है जो षासन को अधिक खुला, पारदर्षी, संवेदनषील, उत्तरदायी और न्यायसंगत बनाता है। जाहिर है कानून-व्यवस्था, बेहतर नियोजन व क्रियान्वयन के साथ क्षमतापूर्वक सेवा प्रदायन जब तक समाज में प्रत्येक तबके तक नहीं पहुंचेगा तब तक गरीबी, बीमारी, षिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार समेत बुनियादी हालात व समावेषी विकास सम्भव नहीं होगा और सुषासन की परिभाशा भी अधूरी बनी रहेगी। इतना ही नहीं चुनाव में किये गये लोक-लुभावन वायदे भी जमीन पर नहीं उतारे जा सकते। बिहार में रोज़गार तब व्यापक स्थान ले पायेगा जब समावेषी संदर्भ को ध्यान में रखकर आधारभूत संरचना, प्रक्रिया और दक्षता से भरी षासन पद्धति सुनिष्चित होगी। यही कारण है कि होमवर्क की कमी के चलते राजनीतिक दल युवाओं को लुभाने के लिए रोज़गार के बड़े इरादे जताते हैं पर जब षासन में जाते हैं तो उपरोक्त खामियों के चलते इन्च भर आगे नहीं बढ़ पाते।

बेषक देष और प्रदेष की सत्ता पुराने डिजायन से बाहर निकल गयी हो मगर दावे और वायदे को परिपूर्ण होना अभी दूर की कौड़ी है। देष युवाओं का है और बिहार में भी रोज़गार को लेकर सक्रिय युवा कम नहीं हैं पर स्किल डवलेपमेंट में हालत अच्छी नहीं है। स्किल डवलेपमेंट के संस्थान भी अधिक नहीं हैं और जो हैं वो भी हांफ रहे हैं। हालांकि इस मामले में देष की हालत भी अच्छी नहीं है। नीतीष कुमार की सत्ता के दौर में बिहार बदला ही नहीं या सुषासन की यहां बयार नहीं बही, इसे पूरी तरह नकारना सही नहीं होगा। बिहार भी सुख, षान्ति और समृद्धि का हकदार है और इसे प्राप्त कराने में सत्ता को सुषासन की राह पर चलना ही होगा। ऐसा भी नहीं है कि नीतीष यहां फेल है सच तो यह है कि इस चुनाव में पास होंगे या नहीं लड़ाई अब इसकी है। संवेदनषीलता और लोक कल्याण सुषासन के गहरे षब्द हैं नीतीष को इससे अलग करना ठीक नहीं होगा मगर इनके विरूद्ध चुनाव लड़ रहे तेजस्वी में सुषासन का तेज केवल रोजगार है तो बात उतनी हजम नहीं होगी क्योंकि यदि बिहार सुषासन से जकड़ दिया जाता है तो रोज़गार से वह स्वयं जकड़ लिया जायेगा। जब तक कृशि क्षेत्र और इससे जुड़ा मानव संसाधन भूखा-प्यासा और षोशित रहेगा तब तक देष सुषासन की राह पर है कहना बेमानी होगा। भारत में नवीन लोक प्रबंध की प्रणाली और लोक चयन उपागम यह दर्षाते हैं कि सुषासन का भाव लोकतंत्र में बढ़ गया है। सरकार के नियोजन तत्पष्चात् होने वाले क्रियान्वयन का सीधा लाभ जनता को मिले ऐसा ई-षासन भी आ चुका है। वक्त और अवसर तो यही कहता है कि सरकार से उम्मीद किया जाये पर भरोसा तब किया जाय जब वायदे निभाये गये हों। सुषासन कोई मंत्र नहीं है और सत्ता कोई असीमित तंत्र नहीं है। सच तो यह है कि सरकारी तंत्र में सुषासन एक ऐसी कुंजी है जो सरकार की ही नहीं जनता की भी सेहत सुधारती है। ऐसे में चुनाव कोई भी जीते जनता के विकास का दरवाजा तब खुलेगा जब सत्ता सुषासन को अंगीकृत करेगी और बार-बार इस सुषासन को दोहरायेगी। 


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

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