Friday, October 30, 2015

एकता के प्रतीक सरदार पटेल

इतिहास में रचे बसे स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी विभूतियों को याद करने में प्रधानमंत्री मोदी कोई कोताही नहीं बरतते हैं। सरदार पटेल की जयंती को एकता दिवस के रूप में प्रतिस्थापित करने का विचार पिछले वर्ष इसी सोच का परिणाम था। 31 अक्टूबर, 1875 को गुजरात के नाडियाड गांव में जन्में सरदार वल्लभ भाई पटेल ने आजादी की लड़ाई में न केवल सक्रिय भूमिका निभाई बल्कि वे किसानों के भी मसीहा थे। पटेल स्वतंत्र भारत के पहले गृह मंत्री और उपप्रधानमंत्री थे। भारत में फैली सैकड़ों रियासतों को एक सूत्र में पिरोने के लिए जाने जाते हैं। किसानों के हित में अंग्रेजों से लोहा लेने वाले वल्लभ भाई पटेल को जहां बरदौली की महिलाओं ने सरदार की उपाधि दी वहीं रियासतों के एकीकरण में निभाई गयी भूमिका के लिए उन्हें लौह पुरुष की संज्ञा दी गई। सरदार पटेल को भारत का विस्मार्क भी कहा जाता है।
भारतीय रियासतें छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटी थी। जिनकी संख्या 565 थी। स्वतंत्रता के समय ब्रिटिष षासन ने घोशणा की थी कि रजवाड़े या तो भारत में या पाकिस्तान में षामिल हो सकते हैं। चाहें तो स्वतंत्र अस्तित्व भी बनाये रख सकते हैं। भारतीय इतिहास का यह समय अतिरिक्त जटिलता एवं संवेदनषीलता लिए हुए था। रियासतें कहां जायंगी इसका निर्णय राजाओं को करना था, न कि प्रजा को। साथ ही अधिकांष रियासतें स्वतंत्र अस्तित्व चाहती थी। ऐसे में देषी रियासतों का भारत में विलय तथा अखण्ड भारत का निर्माण अपने-आप में एक बड़ी चुनौती थी। इन सब के बावजूद अखण्ड भारत की परिकल्पना को भी मुरझाने नहीं देना था। ऐसे में कठोर निर्णय लेने की आवष्यकता आन पड़ी। फलस्वरूप अन्तरिम सरकार के प्रधानमंत्री नेहरू ने सरदार पटेल की नेतृत्व प्रतिभा को देखते हुए उन्हें रियासत मंत्रालय का जिम्मा दिया। चट्टानी इरादों वाले सरदार पटेल 22 जून से 15 अगस्त 1947 के बीच अल्प समय में ही 562 रियासतों को भारत में विलय करके नेहरू के विष्वास पर पूरी तरह खरे उतरे। इस दौर में वल्लभ भाई पटेल ने वाकई में सरदार की भूमिका निभाई थी। जूनागढ़, हैदराबाद एवं जम्मू-कष्मीर अभी भी भारत विलय से अछूते थे। विलय के दौर में जहां एक ओर सामाजिक-सांस्कृतिक समस्यायें चुनौती दे रहीं थी वहीं दूसरी ओर धार्मिक कठिनाईयाँ भी थीं परन्तु इससे कहीं अधिक दृढ़ सरदार पटेल के इरादे थे।
जूनागढ़ में मुस्लिम नवाब और हिन्दू बाहुल्य प्रजा थी। नवाब पाकिस्तान में षामिल होना चाहता था। यहां स्थानीय जनता ने विरोध किया। अन्ततः फरवरी 1948 में जूनागढ़ का भारत में विलय हुआ। हैदराबाद एक बड़ी देषी रियासत थी। पाकिस्तान की सहायता से यहां का नवाब स्वतंत्र राश्ट्र बनाने की योजना में था। सितम्बर, 1948 में भारतीय सैन्य कार्यवाही के चलते हैदराबाद का विलय सम्भव हुआ। जहां तक सवाल जम्मू-कष्मीर का है यहां के षासक हिन्दू और प्रजा मुस्लिम थी। षुरूआती दिनों में षासक हरि सिंह स्वतंत्र अस्तित्व चाहते जरूर थे परन्तु जब अक्टूबर, 1947 में पाकिस्तानी सेना ने कबिलाइयों के भेश में कष्मीर पर आक्रमण किया तब हरि सिंह ने भारत से मदद की अपील की। सरदार पटेल ने कूटनीतिक कदम उठाते हुए पहले विलय पत्र पर हस्ताक्षर कराये तत्पष्चात् भारतीय सेना ने कष्मीर में हस्तक्षेप किया। ऐसे में अखण्ड भारत निर्माण के चलते इतिहास में सरदार पटेल एकता के प्रतीक माने गये।
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने लोकसभा के चुनावी अभियानों के दौरान सरदार पटेल को महत्व देते हुए अमेरिका के ‘स्टैचू आॅफ लिबर्टी‘ से भी ऊँची सरदार पटेल की मूर्ति ‘स्टैचू आॅफ यूनिटी‘ के रूप में निर्माण करने की बात कही थी। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा था कि मूर्ति निर्माण हेतु देष के किसानों से लोहा इकट्ठा किया जाएगा। दरअसल मोदी, सरदार पटेल द्वारा किए गए ऐतिहासिक कृत्यों को नए रूप में यादगार बनाना चाहते हैंे। इसमें कोई दो राय नहीं कि सरदार पटेल जमीनी नेता थे। किसानों के षोशण के प्रति अंग्रेजों से लोहा लेते थे। साथ ही उनकी छवि सख्त नेतृत्व के तौर पर पहचानी जाती थी। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी गुजरात के वल्लभ भाई पटेल को जो देष के सरदार है उन्हें सम्मान देना नहीं भूले और पिछले वर्श 31 अक्टूबर को सरदार पटेल की जयंती को एकता दिवस के रूप में मनाने की घोशणा की। इससे यह परिलक्षित होता है कि मोदी सरकार उन इतिहास पुरूशों को कहीं अधिक तवज्जो देने की कोषिष में है जिनके बगैर भारत की परिकल्पना संभव नहीं थी। इससे पहले वे सर्वपल्ली राधाकृश्णन जयन्ती को टीवी एवं रेडियो के माध्यम से षिक्षक दिवस को अतिरिक्त प्रभावषाली बना चुके हैं। 2 अक्टूबर गांधी जयन्ती के दिन को स्वच्छता अभियान कार्यक्रम के नाम कर चुके हैं। इसके अलावा 14 नवम्बर नेहरू जयन्ती जो बाल दिवस के रूप में प्रतिश्ठित है उसे भी नया रूप देने की भी कोषिष कर चुके हैं।
इतिहास में पटेल की भूमिका अत्यंत अद्वितीय है परन्तु इसके अनुपात में कांग्रेस सहित अन्य सरकारों ने उन्हें वह सम्मान नहीं दिया जो लौह पुरूश को मिलना चाहिए था। बड़ा सवाल यह है कि पिछले 65 वर्शों में पटेल को सम्मान के मामले में पीछे क्यों रखा गया जबकि समकालीन नेता नेहरू सम्मान को लेकर अतिरिक्त प्रभावषाली स्थान रखते हैं। 1992 में जब सरदार पटेल को भारत रत्न की उपाधि दी गयी तो ठीक उसी समय पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को भी यही सम्मान प्रदान किया गया था। यहां यह मुद्दा उठाना लाजमी है कि नेहरू के समकालीन पटेल को चार दषकों तक ‘भारत रत्न‘ देने से क्यों वंचित रखा गया? जबकि नेहरू सहित कई समकालीन महापुरूशों को यह सम्मान षुरूआती वर्शों में ही प्राप्त हो गया था। समय के साथ कई महापुरूश इतिहास में धुंधले पड़ गये। ऐसे में छूटे हुए महापुरूशों को मोदी ने महत्व देने का जो काज किया है वह वाकई सराहनीय है। सरदार पटेल इतिहास के छुपे हुए पन्नों की तस्वीर नहीं हैं, न ही कोई रहस्य हैं बल्कि भारत के एकीकरण के वे दूत हैं जहां पर वर्तमान भारत बसता है। इस सच को भी पूरे मन से मान लेना चाहिए कि ऐसे इतिहास पुरूशों को यदि सम्मान दे दिया जाय तो इससे देष का ही गौरव बढ़ता है। 31 अक्टूबर को पटेल जयन्ती के परिप्रेक्ष्य में प्रधानमंत्री का एकता के प्रतीक का यह दिवस भारत में असीम ताकत को जन्म दे सकता है। इतना ही नहीं ऐसे लोगों की गौरवगाथा से आने वाली पीढ़ियाँ भी अनभिज्ञ नहीं रह सकेंगी। देष के किसानों में भी ऐसी विभूतियों को लेकर एक अलग विमर्ष तैयार होगा साथ ही देष निर्माण को लेकर युवाओं में एक सकारात्मक अवधारणा का विकास भी संभव होगा। इन सभी के अलावा देष को इतिहास में समायी उन विभूतियों को समझने तथा जानने का अवसर मिलेगा जिससे समाज आज भी आंषिक रूप में वंचित है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502



जनसंवाद की ज़रूरत

भारतीय प्रजातंत्र के पिछले तीन दशकों के इतिहास में पहली बार पूर्ण बहुमत और सम्पूर्ण शक्ति के साथ केन्द्र की सरकार चल रही है। देश इतने ही समय से नई-नई नीतियों और कार्यक्रमों का रसपान भी कर रहा है। जिस तर्ज पर सरकार की कार्यप्रणाली है वह असंतोषजनक तो नहीं पर मूल्य निरपेक्ष भी है पूरी तरह कहना मुश्किल है। 3 अक्टूबर, 2014 से प्रधानमंत्री मोदी ‘मन की बात‘ कर रहे हैं जिसे लेकर कभी-कभार विरोधियों को भी असुविधा हो जाती है। दरअसल ‘मन की बात‘ कार्यक्रम मोदी खोज का परिणाम है जो धीरे-धीरे व्यापक पैमाने पर प्रसार ले चुका है। अलग-अलग मुद्दे पर यह लोकप्रियता भी बटोर चुका है पर खटकने वाली बात यह है कि रेडियो के माध्यम से सम्बोधन करने वाले प्रधानमंत्री प्रत्यक्ष तौर पर मीडिया और जनता के सामने अभी तक षायद ही आये हों और न ही खुली प्रेस वार्ता कर मीडियाकर्मियों को सवाल पूछने का अवसर दिया हो। हालांकि अमेरिकी राश्ट्रपति ओबामा के साथ बीते जनवरी में संयुक्त रूप से प्रेस के सामने थे। परिप्रेक्ष्य यह भी है कि मोदी जमीनी नेता वाली चाहत रखते हैं साथ ही जन सरोकार और जन संवाद के मामले में भी उम्दा बने रहना चाहते हैं। इसके अलावा नई पद्धति में विष्वास करने वाले मोदी जन अपेक्षाओं पर खरा उतरना चाहते हैं। ये तमाम पहलू मोदी को कहीं अधिक प्रजातांत्रिक बनाने हेतु कारगर तो हैं पर थोड़े अमूल-चूल परिवर्तन की जरूरत भी है। ऐसे में मन के साथ जन की बात का भी परस्पर होना अधिक तर्कसंगत होगा जिसमें एक तो अपने मन की बात कहने की, दूसरे जन की बात सुनने की। अब सवाल उठता है कि जन सरोकार को मजबूती से जकड़ने वाले मोदी जन संवाद करने में आतुरता क्यों नहीं दिखाते? यदि दो तरफा संवाद की अवधारणा का विकास होता है तो यह देष में नई परम्परा भी होगी और जनता का प्रधानमंत्री जन नायक की भूमिका में भी होगा जिसमें मीडिया की कारगर भूमिका हो सकती है।
असल में मीडिया सरकार का नहीं वरन् जनता का प्रहरी है जिसकी जिम्मेदारी सरकार और जनता के बीच संवाद स्थापित करना है, सरकार जो करती है या जो नहीं करती है उसे सामने लाना है। इतना ही नहीं रचनात्मक कोताही बरतने की स्थिति में विपक्षियों को भी कत्र्तव्य निर्वहन का एहसास कराना है। मीडिया के मारक हथियार जनहित में उठाए गये सार्थक प्रष्न होते हैं। इसके लिए प्रेस कांफ्रेंस सहित कई अवसरों को देखा जा सकता है। प्रजातंत्र में चुनी गयी सरकार का कत्र्तव्य है कि जनता के हितों को सुनिष्चित करने के लिए न केवल संतुलित कदम उठाए बल्कि समय-समय पर काम का हिसाब भी दे। ‘मन की बात‘ में कई सकारात्मक पक्ष देखे जा सकते हैं बावजूद इसके जनता से सीधे संवाद का आभाव काफी हद तक बना रहता है। हालांकि वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से प्रधानमंत्री ने एक-दो अवसर पर दो तरफा संवाद भी स्थापित किये हैं और पत्रों के माध्यम से भी सवाल-जवाब लिए-दिए गये हैं। ‘मन की बात‘ का प्रसारण जब पहली बार हुआ तो यह अंदाजा लगाना कठिन था कि इसके कितने सकारात्मक नतीजे होंगे। इसके चलते न केवल रेडियो की प्रासंगिकता बढ़ी बल्कि देष को एक नया विमर्ष भी देखने को मिला। पहली बार के प्रसारण में कोई निर्धारित विशय तो नहीं था पर जिस भांति देष के लोगों में सुनने की उत्सुकता थी उसे लेकर कहना सहज है कि एक नई परम्परा की प्रारम्भिकी हो चुकी थी। दूसरी बार इसका प्रसारण 2 नवम्बर, 2014 को हुआ था जिसमें काला धन, स्वच्छता अभियान आदि विशय इसके केन्द्र बिन्दु थे। बीते गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि रहे अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा के साथ 27 जनवरी को चैथी बार मोदी ने ‘मन की बात‘ के अन्तर्गत जनता के पत्रों का रेडियो के माध्यम से उत्तर दिया। कभी युवाओं, कभी परीक्षा में छात्रों का उत्साहवर्धन करते हुए तो कभी बेटी बचाओ जैसे सामाजिक सरोकारों वाले मुद्दे पर यह प्रसारण नियमित रूप लिये हुए है। अब तक तेरह बार के साथ यह सिलसिला प्रति माह की दर से निरन्तरता लिए हुए है।
किसी भी प्रधानमंत्री का इस प्रकार का सम्बोधन देष में पहले कभी नहीं हुआ था पर रोचक तथ्य यह है कि ऐसे सम्बोधन अब तक कितने असरदार सिद्ध हुए हैं? देष के दूरस्थ क्षेत्रों में रहने वाले नागरिकों को प्रधानमंत्री ने अपनी बात पहुंचा कर उन्हें उत्प्रेरित करने का काम तो किया ही साथ ही जो सरकार और सत्ता से कटे हैं, जो वन और बियावान में हैं और जो आज भी आधुनिक तकनीक से अछूते हैं उन तक भी पहुंच बनाई है। बीते 25 अक्टूबर को उनकी ‘मन की बात‘ का तेरहवां संस्करण था जिसमें उन्होंने छोटी नौकरियों से साक्षात्कार समाप्त करने सहित कई बातें की गई थी। ऊंचे मंचों के उम्दा प्रवक्ता प्रधानमंत्री मोदी व्यक्तिगत तौर पर न तो कोई प्रेस कांफ्रेंस और न ही अबतक सीधे जनता से जुड़ने का कोई कार्यक्रम ही बना पाये हैं। हालांकि वे अलग-अलग समूहों में पत्रकारों से जरूर मिले हैं। केन्द्र सरकार के एक साल के पूरे होने के मौके पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने इस प्रकार के आयोजन का प्रस्ताव दिया था। वित्त मंत्री अरूण जेटली बजट के बाद सीधे लोगों से जुड़ चुके हैं और सवाल-जवाब भी हुए हैं। जिस प्रकार कुछ पष्चिमी देषों में चुनाव सहित अन्य अवसरों पर खुली बहस होती है उसी तर्ज पर भारत में भी सरकार की ओर से किये गये कार्यों पर बहस हो तो प्रजातंत्र कहीं और अधिक षक्तिषाली हो सकता है जिसमें कभी-कभार प्रधानमंत्री भी षामिल हों। यदि प्रधानमंत्री को ध्यान में रखकर निर्धारित रूपरेखा के तहत समय और प्रष्न की सीमा के अन्तर्गत ‘टाॅक षो‘ आयोजित किया जाए तो सरकार की कार्यप्रणाली को न केवल बल मिलेगा बल्कि जन विष्वास भी बढ़ेगा साथ ही सरकार अपनी उपलब्धियों और खामियों को सीधे जनता से जोड़कर उनकी संवेदनषीलता, प्रभावषीलता और सहानुभूति को भी प्राप्त कर सकती है। मोदी जिस विचार और कद के हैं उसे देखते हुए ऐसी उम्मीद करना बेमानी नहीं है।
मीडिया जनमत को प्रभावित करता है नीतियों के पक्ष या विपक्ष में जनमत के निर्माण में प्रभावषाली भूमिका निभाता है। न केवल स्वतंत्र राय देता है बल्कि जरूरी नीति के लिए सुझाव भी देता है। इतना ही नहीं विभिन्न पक्षों का वस्तुनिश्ठ विष्लेशण करके जनपक्षधर नीति के लिए दबाव बनाने का काम भी करता है। मीडिया जहां सरकार की गलत नीतियों की खिंचाई करता है वहीं जनता की आवाज बन कर उनके दुख-दर्द को भी सरकार से साझा करता है। वर्तमान में यह एक ऐसा मंच है जो स्वयं षक्तिषाली होते हुए दूसरों की दुबर्लताओं की चिंता करता है। विवेचना, विष्लेशण व विषदीकरण में मीडिया उस पथिक की भांति है जो लक्ष्य की प्राप्ति में अनवरत् रहता है। सरकार, मीडिया और समाज एक ही चिंता से जकड़े हुए तीन अलग-अलग रूप हैं। जनता की सरकार की सदैव यह भावना रही है कि जनहित को सुनिष्चित करने में कूबत झोंकी जाए। प्रधानमंत्री मोदी के मन की बात इस सोच से परे नहीं है पर यह एक कड़वी सच्चाई है कि ‘जन की बात‘ पूरी तरह उन तक नहीं पहुंच रही है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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Wednesday, October 28, 2015

स्थानीय मुद्दे से भटका बिहार चुनाव

    दरअसल बिहार चुनाव ऐसे वातावरण के लिए जाना और समझा जाने लगा है कि मानो देष की तस्वीर यहीं से बदलेगी। राय तो यह भी आ रही है कि प्र्रधानमंत्री मोदी सहित बिहार के कई स्थानीय नेता का काफी कुछ इस चुनाव में दांव पर लगा है। बहरहाल जो सियासत बिहार की जमीन पर पसरी है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि सभी राजनीतिक दल कड़ी परीक्षा से गुजर रहे हैं। यूं तो सभी विकास के मुद्दे को लेकर जनता के सामने जा रहे हैं परन्तु सच्चाई इससे भिन्न हैं। अब तक यह भी किसी से नहीं छिपा है कि बिहार में जातीय समीकरण सबसे अहम् है। आंकड़े दर्षाते हैं कि 15 फीसदी सवर्ण, 16 फीसदी मुसलमान और 6 फीसद दलित तथा 10 प्रतिषत महादलित मतदाता के अलावा बचे हुए 53 प्रतिषत में अन्य पिछड़ा वर्ग से लेकर यहां की जनजाति षामिल है जो बिहार विधानसभा के चुनाव की धारा को मोड़ने का मादा रखती है। यह एक कड़वी सच्चाई है कि अब तक हुए बिहार चुनाव में जातिगत आंकड़े हमेषा हावी रहे हैं। ऐसी कोई वजह नहीं दिखाई देती जिससे कहा जाए कि यह चुनाव भी जातिगत प्रभाव से चुनाव परे है। सच्चाई तो यह भी है कि यादव और मुस्लिम ध्रुवीकरण यहां सिर चढ़कर बोलता है। ऐसे ही ध्रुवीकरण के चलते लालू प्रसाद समेत कई कद्दावर नेता बने साथ ही देष की राजनीति में भी इनकी तूती बोली।
    मुद्दे की बात यह है कि बिहार में वह सब कुछ हो रहा है जो पहले षायद किसी चुनाव में न हुआ हो। उत्तर प्रदेष का साम्प्रदायिक मुद्दा बिहार में भुनाने का प्रयास किया गया, हिन्दुत्व और बीफ खाने और न खाने को लेकर आज भी चुनावी रैलियों में जोर कम नहीं पड़ा है। इन दिनों महंगाई भी चुनावी रंगत लिए हुए है दाल के भाव आसमान छू रहे हैं और जिम्मेदार लोगों के माथे पर इसकी षिकन तक नहीं है। मानो कि दाल का मत हेरफेर में कोई योगदान ही न हो। बाहरहाल दाल की सियासत भी यहां पर जोर मारे हुए है। विकास का मुद्दा तो कब का भटक चुका है। बिहार के दस साल मुख्यमंत्री रहे नीतीष कुमार सुषासन वाले इरादों में स्वयं को षुमार करते हैं पर उनकी सियासत भी इस कदर स्याह हो गयी कि विकास उनके पहचान में नहीं आ रहा है और न ही जमीनी तौर पर कोई अन्य नेता इस पर बड़ी सियासत कर रहा है पर बद्जुबानी जरूर हो रही है। हालांकि भाजपा गाहे-बगाहे कह देती है कि मेरा मुद्दा तो विकास ही है। इन दिनों पिछड़े वर्गों के आरक्षण को लेकर भी तरह-तरह के प्रपंच हो रहे हैं। अफवाह है कि सरकार आरक्षण को समाप्त कर देगी। मत का नुकसान न हो इसे ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने जोरदार षब्दों में यह खण्डन कर दिया कि यह कोरी बकवास है और ऐसा कभी हो ही नहीं सकता। देखा जाए तो बिहार में कम-से-कम इस बार आरक्षण पर तो चुनाव नहीं हो रहा है फिर आरक्षण मुद्दा कैसे हो सकता है। रोचक तथ्य यह है कि पहले आरक्षण देने के चलते और अब इसे बनाये रखने पर भी मत निर्भर है।
    स्थानीय मुद्दे का नाम कोई भी नेता नहीं ले रहा है। राश्ट्रीय मुद्दे के सहारे यहां भी चुनावी बैतरणी पार करने का प्रयास किया जा रहा है। अगर कुछ बड़ा इजाफा हुआ है तो यह कि इस बार बिहार चुनाव बद्जुबानी से भी पटा है। ताजा घटनाक्रम में लालू प्रसाद की बेटी मीसा ने प्रधानमंत्री मोदी को सड़क का गुण्डा करार दिया। इस प्रकरण से दो तथ्य उभरते हैं एक तो कि ऐसी नौबत आई ही क्यों, दूसरे क्या पद की गरिमा इतनी गिर गयी है कि इससे परहेज नहीं किया जा सकता। चुनावी जंग है, सब चलेगा, कुछ को पचेगा, कुछ को नहीं पचेगा। जिसे मानक आचरण की चिंता है वे ऐसे कथनों से कोई वास्ता नहीं रखना चाहेंगे पर सवाल है कि देष को रास्ते पर लाने का जिम्मा लेने वाले स्वयं इतने भटके हुए क्यों हैं? तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि क्या मुद्दों की राजनीति खत्म हो चुकी है? बीते दिन पाकिस्तान से गीता की वापसी हुई जिसकी चर्चा इन दिनों सुर्खियों में है। इस चुनाव में पप्पू यादव जैसे स्थानीय नेता ने इसे भी मुद्दा बनाकर जनमत के बीच अपनी ओछी सोच का परिचय दिया है। बिहार विधानसभा चुनाव जिस मार्ग पर सरपट लिए हुए है वह थोड़ा हैरत में डालने वाला है पर उन्हें क्या फर्क पड़ता है यदि इससे जनता का वोट हथिया लिया जाए तो।
    भाजपा को भी सुषासन चाहिए, नीतीष को भी सुषासन चाहिए और लालू प्रसाद को भी चाहिए। ऐसे में सवाल है कि जब सबको सुषासन ही चाहिए तो फिर ओछी सियासत क्यों हो रही है, स्थानीय मुद्दे गौड़ क्यों हो रहे हैं? बिहार में बेरोजगारी है जिसके चलते अधिक पलायन है। गरीबी भी इसकी एक बड़ी वजह है। आधारभूत ढांचे के मामले में भी प्रदेष अगड़ों में नहीं आता, बिहार में कोई मजबूत विकास माॅडल भी नहीं दिखाई देता। षिक्षा, स्वास्थ्य और काफी हद तक कानून और व्यवस्था भी पटरी पर नहीं है। ऐसे में इन्हें हाषिये पर डाल कर अन्य मुद्दों के साथ चलना क्या बिहार के साथ अन्याय नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी गुजरात में मुख्यमंत्री के तौर पर गुजरात माॅडल के चलते देष के चुनाव में असीम उपलब्धि हासिल की थी। ऐसे में क्या उन्हें बिहार के लिए विकास माॅडल को तवज्जो नहीं देना चाहिए पर वे भी असहज भाशा पर उतारू हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि बीते फरवरी में दिल्ली विधानसभा की हार के पीछे बद्जुबानी भी एक कारण रहा है। कहीं उसकी पुनरावृत्ति बिहार में भी न हो। ऐसे में मुद्दों की राजनीति हमेषा सार्थक होती है। कम-से-कम विधानसभा चुनाव में तो यह कहीं अधिक जरूरी है क्योंकि ऐसे चुनावी महोत्सव स्थानीय दुःख-दर्द को समझने और उन्हें दूर करने के साथ जनमानस के अन्दर विष्वास पैदा करके ही विजित होने का इतिहास रहा है।


लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Sunday, October 25, 2015

अत्याचार मुक्त समाज की प्रतीक्षा आज भी

किसी भी आलेख में यह भरसक कोशिश की गयी होती है कि उसमें निहित वास्तविकता लेश मात्र भी विश्लेषित हुए बिना न रह सके पर कभी-कभार भावना प्रधान होने के चलते इसमें गाढ़ापन नहीं आ पाता। जिस तर्ज पर हरियाणा के सुनपेड़ गांव में दो मासूमों को जिंदा जलाने वाली घटना सामने आई है वह मर्म, दर्शन और दृष्टिकोण को भी विचलित करती है। समाचार पत्रों और टीवी चैनलों में इस बात पर अधिक जोर देखा गया कि दो दलित बच्चे जला कर मार दिये गये। सवाल उठता है कि घटना की विशदीकरण बच्चों के तौर पर किया जाए या दलित बच्चों के तौर पर। निःसन्देह यह एक खौफनाक मंजर था जो दिलो-दिमाग को झकझोरने वाला है। वर्ग और जाति में बंटा भारत उत्तर वैदिक काल से ही इसी रूप में समझा और जाना जाता रहा है। हिन्दू काल, मुस्लिम काल और अन्ततः इसाई काल भी आया पर वहषीपन के समापन का कोई युग परिलक्षित नहीं होता है। हालांकि प्राचीन काल से लेकर अबतक षिक्षा, संस्कृति और सदाचार में व्यापक फैलाव और विस्तार हुआ है बावजूद इसके मानव भेद का खेल बादस्तूर जारी क्यों है यह बात समझ से परे है। ‘बच्चे मन के सच्चे पर बड़े क्यों नहीं अच्छे‘ आखिर उन बच्चों की मौत का जिम्मेदार कौन है जिन्हें न तो वैमनस्य की समझ है न ही जाति और वर्ग के बंटवारे का इल्म। जाहिर है ऐसी घटनाएं यह संकेत करती हैं कि सामाजिक दिषा और दषा की मरम्मत अभी भी अधूरी है। हजारों वर्शों तक अस्पृष्य समझी जाने वाली उन तमाम जातियों के लिए ‘दलित‘ षब्द का उपयोग होता रहा है। अर्थ और अवधारणा में जाया जाय तो इसका षाब्दिक अर्थ दलन किया हुआ है। इसके तहत वह व्यक्ति आता है जिसका षोशण-उत्पीड़न हुआ है। रामचन्द्र वर्मा ने अपने षब्दकोश में दलित का अर्थ कुचला हुआ भी बताया है जो आज के पढ़े-लिखे और विकसित समाज में अपचनीय है।
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 341 के अन्तर्गत इन्हें अनुसूचित जाति के तौर पर सूचीबद्ध किया गया है। संविधान की पड़ताल करें तो पता चलता है कि इसमें असमानता को दरकिनार कर मानवता और समानता का मापदण्ड निहित किया गया है। भारतीय समाज में वाल्मीकि या भंगी को सबसे नीची जाति समझा जाता रहा है और इन्हें मानव मल की सफाई हेतु जाना जाता रहा है आज भी इस कृत्य से इन्हें पूरी तरह मुक्ति नहीं मिली है। हालांकि घर-घर षौचालय बनाने वाली सरकारी योजना इनको इस काज से मुक्त करने का रास्ता निर्मित करती दिख रही है। इतिहास पर दृश्टि डालें तो भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन में दलितों की पहुंच और नेतृत्व बेमिसाल रहा है। भारत में दलित आंदोलन की षुरूआत ज्योतिबा फुले के नेतृत्व में हुई जो जाति के माली थे जिन्हें उच्च जाति के समान अधिकार प्राप्त नहीं थे जिन्होंने तथाकथित नीची जाति के लोगों की हमेषा पैरवी की। इनके द्वारा उठाया गया दलित षिक्षा का कदम उस जमाने का बड़ा नेक काज था। दरअसल समाज में भेद का खेल निरन्तर प्रवाहषील रहा है। स्वतंत्रता के बाद इस षुभ इच्छा के साथ संविधान में अनुच्छेद 17 के तहत अस्पृष्यता का अंत किया गया था कि इससे सामाजिक समरसता और समानता का भाव विकसित होगा पर 65 वर्श के बाद भी इस मामले में पूरा संतोश तो नहीं दिखता। देखा जाए तो भारतीय समाज संयुक्त परिवार और जजमानी प्रथा का एक संकुल था। षनैः षनैः इरावती कर्वे की संयुक्त परिवार की परिभाशा खो गयी और तमाम समाजषास्त्रियों के अध्ययन से जजमानी प्रथा तीतर-बीतर हो गयी। जजमानी प्रथा में जातिगत भेद तो था पर ऊँच-नीच को लेकर हिंसक संघर्श का आभाव था। ब्राह्यण, क्षत्रिय, वैष्य और षुद्र अलग होते हुए भी इसलिए जुड़ाव रखते थे क्योंकि वे एक-दूसरे पर निर्भर थे। इसी खसियत के चलते मानवता और मानवीय मापदण्ड भेदभाव के बावजूद उथल-पुथल से काफी हद तक अनभिज्ञ थे।
यहां बाबा साहेब अम्बेडकर का जिक्र किये बिना बात अधूरी रहेगी। स्वतंत्रता के आंदोलन के दिनों से लेकर संविधान निर्माण तक इनकी भूमिका सराहना से ऊपर रही है। संविधान के प्रारूप सभा के अध्यक्ष और संविधान निर्माता के तौर पर पहचान रखने वाले कानूनविद् अम्बेडकर दलित समाज के अत्यंत सम्माननीय नेता थे और हैं भी। इन्होंने बौद्ध धर्म के जरिये एक सामाजिक और राजनीतिक क्रान्ति लाने की पहल की थी जिसकी जरूरत आज भी महसूस की जाती है। पड़ताल बताती है कि दलित उत्पीड़न का मामला देष भर में बरसों से पांव पसारे हुए है। षायद ही कोई राज्य इससे अछूता हो। क्या सत्ता, क्या विपक्ष यह होड़ रहती है कि घटनास्थल पर जल्द उपस्थिति दर्ज हो भले ही रोकथाम के मामले में कदम अधकचरा ही हो। मुख्य विरोधी कांग्रेस दलितों की उत्थान को लेकर हाल फिलहाल में काफी चिंतित दिखाई देती है। सुनपेड़ की घटना पर राहुल गांधी का अंदाज उत्तेजना से भरा था जाहिर है ऐसा करना गलत भी नहीं था पर वे यह भूल गये कि उनके दस साल के कार्यकाल में भी दलित उत्पीड़न की घटनाएं कम नहीं थी। यूपीए-1 के समय वर्श 2004 में देष भर में घटित दलित अत्याचारों की संख्या 27 हजार थी जो 2008 में 34 हजार तक पहुंच गयी। नेषनल क्राइम रिकाॅर्ड्स ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि वर्श 2014 में यूपीए-2 की समाप्ति होते-होते कुल दलित उत्पीड़न 47 हजार को पार कर चुका था। तस्वीर यह बताती है कि उत्पीड़न को लेकर कठोर कदम पहले भी नहीं उठाये गये हैं। घटना यह दर्षाती है कि सरकारों ने इसे रोकने के बजाय सियासत और विष्लेशण पर ही कूबत झोंकी है। इसका यह तात्पर्य नहीं कि मोदी सरकार के काल में हो रही दलित घटनाओं की आलोचना न की जाए।
जब घटना घटित हो जाती है तो राजनीति भी तेज हो जाती है। दर्जनों नेता फरीदाबाद के गांव का चक्कर लगा चुके है पर क्या उस पिता को न्याय मिल पाएगा जिसके दो मासूम आग के हवाले कर दिए गये। इतना ही नहीं बयान में भी लापरवाही बरती जा रही है। कोई भी सरकार कितना भी दावा कर ले घटनाओं को रोकने के लिए किये जा रहे प्रयास नाकाफी ही सिद्ध हो रहे हैं। भारत का समाज पुरातन में सामंती किस्म का था सवाल है कि यह घटनाएं क्या उस काल को पुर्नस्थापित नहीं कर रही हैं। सत्ता की सवारी करने वाले इस पर जरूर ध्यान दें कि सामाजिक समरसता देष की प्राथमिकता है इसके आभाव में टूटन की सम्भावना बन सकती है। सोनिया गांधी ने दलित अत्याचारों को लेकर प्रधानमंत्री मोदी को चिट्ठी लिखी थी कि मानसून सत्र में ऐसे अपराधों के लिए विधेयक लाया जाए। देखा जाए तो देष में कानून तो हैं पर खामी क्रियान्वयन में है। ध्यान रहे कि सामाजिक वर्गीकरण का दौर कुछ भी रहा हो पर वर्तमान दौर सामाजिक समानता का है यदि इससे परे रहने की कोषिष की जाएगी तो पहले देष ही नुकसान में जाएगा और फिर तो मानव सभ्यता टिकेगी ही नहीं। यह एक कड़वी सच्चाई है कि दलित अत्याचार सम्बन्धी कानून को कभी ठीक से लागू ही नहीं किया गया। जिस भांति अत्याचार के मामले निरन्तरता लिए हुए हैं उसे देखते हुए अब किसी ठोस नतीजे पर पहुंचना जरूरी है। जहां राज्यों को कानून व्यवस्था के मामले में सिरे से कमर कसने की जरूरत है वहीं राजनीतिज्ञों को ऊल-जलूल की राजनीति से बाज आने की भी आवष्यकता है।


लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502



Thursday, October 22, 2015

असहिष्णुता की चिकित्सा तो संविधान में है

    धार्मिक सहिश्णुता और सर्वधर्म समभाव जैसी अवधारणाएं भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही रची-बसी हैं। अषोक के बारहवें दीर्घ षिलालेख का यह भाव है कि अपने सम्प्रदाय का आदर करते हुए अन्य सम्प्रदाय के प्रति भी आदर भाव रखें। आज पूरा विष्व जहां आगे बढ़ने की होड़ में है, वहीं धार्मिक स्वावलंबन को हाषिए पर धकेलने का काम भी व्यापक पैमाने पर होना चिंता का विशय है। सभ्य समाज एक सुगम जीवन धारा का समावेषन ले चुका है बावजूद इसके धर्म संरक्षण को लेकर एषिया सहित भारत में आज भी काट-मार मची हुई है। सवाल है कि ऐसी स्थिति में सहिश्णुता की प्रासंगिकता कैसे सुनिष्चित हो पाएगी जब उसके परे जाकर असहिश्णुता का खेल खेला जाता रहेगा। सनातम धर्म की एक प्रचलित सूक्ति है ‘हिंसायाम् दूरते, यस्य सः सनातनः‘ इसका मतलब है कि मन से, वचन से और कर्म से जो हिंसा से दूर है वही सनातन है। फिर सवाल उठता है कि इसके परिपालन में कुछ अलग-थलग क्यों है? कई ऐसे हैं जो मन, वचन और कर्म से हिंसा और उन्माद में सारी ताकत झोंके हुए है जिसके चलते देष इन दिनों असहिश्णुता वाली घटनाओं से गुजर रहा है। गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने बीते दिन फरीदाबाद और पंजाब की ताजा घटनाओं की ओर इषारा करते हुए कहा कि ऐसी घटनाएं चिंताजनक हैं। मौजूदा स्थिति में देष जहां गरीबी, बेरोजगारी सहित कई अन्य बुनियादी समस्याओं से जूझ रहा है वहीं कुछ वर्गों द्वारा धार्मिक उन्माद, हिंसा, अलगाव और बिखराव की स्थिति पैदा कर रचनात्मक क्रियाओं को हाषिए पर धकेलने का काम भी किया जा रहा है।
    कुछ कट्टरपंथी जो अलगाववादी विचारधारा के हैं सरकार के कारनामों से असंतुश्ट हो सकते हैं। किसी के बरगलाने पर धार्मिक उन्माद फैला सकते हैं। पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे भी लगा सकते हैं। कसाब और अफजल गुरू जैसों को फांसी देने पर धरना प्रदर्षन भी कर सकते हैं पर देष सर्वोपरी है इस बात को वे क्यों भूल जाते हैं? जिस देष में धर्मनिरपेक्षता सबसे ऊपर हो और संविधान भी अलगाव और उन्माद की इजाजत न देता हो उन्हें देष का नागरिक होते हुए ऐसे कृत्यों के लिए कितना बर्दाष्त किया जा सकता है? देष में दो प्रकार की समस्याएं अक्सर उभरती हैं एक वे जो देष के आन्तरिक मामलों से जुड़ी होती है, दूसरा सीमा पार से उक्साई गयी समस्याएं। क्या कथित धार्मिक अपमान का मामला देष भर में चारों तरफ से बढ़ नहीं रहा है? गौ हत्या और उसका कारोबार करने वाले कुछ लोग धर्म विषेश को चुनौती नहीं दे रहे हैं? आखिर इसके जिम्मेदार कौन हैं? कुछ कट्टरवादी, तो कुछ उन्मादी तो कुछ सियासी पार्टियां भी इसमें घी का काम कर रही हैं। कईयों की राय है कि भारत में वैचारिक उथल-पुथल का दौर चल रहा है। बीजेपी पर आरोप है कि वह अधिक हिन्दुवादी दिखाने की कोषिष में लगी हुई है। यदि बीजेपी जैसी राजनीतिक पार्टियों पर धार्मिक होने का आरोप लगता है तो अलग धर्म से लिप्त पार्टियां क्या अपने धर्मों की पक्षधर नहीं है? ओवैसी जैसों की पार्टी हिन्दुओं के विरूद्ध मानो जंग ही छेड़े रहती है। पंजाब का अकाली दल सिक्खों को जोड़ कर चलना चाहती है। देखा जाए तो उत्तर से दक्षिण और पूरब से पष्चिम पूरा भारत इसी प्रकार के बंटवारे से सराबोर है। इसके अलावा जातिगत बिखराव भी यहां व्याप्त है। अगड़ा, पिछडा़, दलित और क्षेत्रीय आधार भी बाकायदा स्थान घेरे हुए है।
    हम सवाल धर्मनिरपेक्षता और सहिश्णुता का कर रहे हैं पर यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि इसे प्राप्त करने के लिए न तो धर्म, न ही जाति और न ही राजनीति इसकी सटीक दवा है बल्कि इसकी खूबसूरत चिकित्सा भारतीय संविधान में छिपी है। स्वतंत्र भारत के संविधान में धर्मनिरपेक्षता को महत्व और स्थान दिया गया है। 42वें संविधान संषोधन 1976 द्वारा संविधान की प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष षब्द जोड़कर इस परिप्रेक्ष्य में स्थिति को और स्पश्ट करने का प्रयास किया गया। इसके अतिरिक्त तमाम संवैधानिक प्रावधानों में धार्मिक सहिश्णुता की भावना बिखरी हुई है। अटकलों से बाहर निकलकर देखें तो धर्मनिरपेक्षता की विवेचना बहुत सटीक और सरल है। राज्य सभी भेदभावों से ऊपर उठकर सभी नागरिकों का उनके धार्मिक विष्वासों तथा व्यवहारों की ओर ध्यान दिये बिना कल्याण सुनिष्चित करने का प्रयास करता है जो धर्मों, सम्प्रदायों और जातियों को लाभ देने के मामले में तटस्थ और निश्पक्ष है। संविधान की इस परिपाटी को आज के उन्माद में एक चिकित्सा के तौर पर इसलिए अनुप्रयोग करने की आवष्यकता है क्योंकि दिगभ्रमित विचारधारा वालों के लिए संविधान एक दिषा भी है। धर्मनिरपेक्षता एक विवाद का विशय भी हो सकता है पर उन्माद का विशय कैसे? सहिश्णुता को लेकर राय बंटी हुई हो सकती है पर इसका गलत अर्थ निकाल कर देष को दोराहे पर खड़ा कर देना कहां की समझ है?
    ‘हिन्दी हैं हम, वतन हैं, हिन्दुस्तान हमारा‘ यह किसी धर्म, सम्प्रदाय और जाति से परे है। भारत जैसी मजबूत संस्कृति रखने वाले देष का हृदय इसलिए फटा जा रहा है क्योंकि इसके क्षत-विक्षत करने वालों की संख्या इकाई में नहीं बल्कि अब दहाई में बदलती जा रही है। देष की आत्मा को व्यथित न होने दें, रोग लग गया है तो चिकित्सा की सही पद्धति तलाषी जाए। विचारों में मतभेद सम्भव है पर बिखराव और टकराव और अन्ततः अलगाव सहमति का विशय नहीं हो सकता। विष्व बन्धुत्व का पाठ पढ़ाने वाला देष साम्प्रदायिक दंगों में उलझ कर क्या अपनी ही कद-काठी को बौना नहीं कर रहा है? अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा भी कुछ माह पूर्व आरोपित कर चुके हैं कि भारत में असहिश्णुता बढ़ी है और गांधी होते तो दुखी होते। सवाल है कि यदि साम्प्रदायिक दंगे होते रहेंगे, धार्मिक उन्माद बढ़ते रहेंगे तो इससे न केवल गंगा-जमुनी संस्कृति वाले देष पर बाहरी उंगली उठाएंगे बल्कि संविधान का भी अपमान बढ़ता जायेगा। ऐसे में जरूरी है कि बेहिसाब स्वतंत्रता वाले इस देष में संविधान प्रदत्त पंथनिरपेक्षता को एक बार पुनः बारीकी से समझ कर व्यवहारों में षुमार किया जाए।


लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
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Wednesday, October 21, 2015

बुनियादी अर्थशास्त्र पर उठते सवाल

विकास के नाम पर आर्थिक परिभाषाएं आंकड़ों में भले ही कितनी लुभाने वाली क्यों न हों पर इन दिनों की महंगाई ने बुनियादी अर्थशास्त्र पर कई सवाल खड़े कर दिये हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अच्छे दिन का परिभाषित पक्ष इस भीषण महंगाई से होकर गुजरेगा इसकी कल्पना शायद ही किसी ने की होगी। आखिर किस दृष्टिकोण के अन्तर्गत अच्छे दिन को परखने की कूबत जुटाई जाए। अगर प्रशासन की सक्रियता समाज के उन वर्गों के काम नहीं आ रही है जो आज की महंगाई से बिलबिला उठे हैं तो शासन और सत्ता का क्या अर्थ निकाला जाए। कारोबारियों को पकड़ने में सफलता मिल सकती है। जिन आढ़तियों ने गोदामों में अनाजों को दबा रखा है उन पर नकेल कसी जा सकती है। हजारों टन दाल गोदामों में जमा होना और मूल्य में निरन्तर इजाफा होना इस बात का संकेत है कि सरकार ने समय रहते अव्यवस्था को नहीं रोका है और जब महंगाई के चलते हाहाकार मचा तब सरकार ने तेजी दिखाई। सवाल है कि जो नीति नियोजक और क्रियान्वयनकत्र्ता इन्हीं कार्यों के लिए पदासीन किए गये हैं वे इतने बेपरवाह क्यों हैं? पैसे वालों की सेहत पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ेगा लेकिन गरीबों का क्या होगा। गरीबों की मौत के सामान के रूप में महंगाई को भी माना जाता रहा है। वर्तमान बाजारी हालत को देखें तो खाद्यान्न सामग्री के भाव आसमान छू रहे हैं। अरहर की दाल 200 रू. में एक किलो को पार कर चुकी है। इसके अलावा अन्य सामग्री मसलन उड़द 160 रू., राजमा 150 रू., छोले 140 रू., सरसों का तेल 110 रू. सहित कईयों के दाम खतरे के निषान से ऊपर हैं। उम्मीद कर सकते हैं कि अच्छे दिन इन बुरे दिनों के बाद आयेंगे पर यह साबित करने का काम तो सरकार का है।
निम्न आर्थिक वर्ग वाला आधा पेट खाकर रात गुजार रहा है। आम आदमी यह सोचने के लिए मजबूर है कि क्या खाए और क्या न खाए जबकि आर्थिक रूप से सुसज्जित इनसे परे है। सोच को इस दिषा में भी मोड़ कर देखा जाए कि खाद्यान्नों के दाम बढ़ने से क्या किसान मुनाफे में है। सरल गणित का सिद्धान्त कहता है कि यदि कृशि उत्पाद की कीमत बढ़ती है तो इससे किसान का हित सधेगा पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की दृश्टि से देखें तो तय कीमतों पर या उसके आसपास के मूल्य पर किसान अमूमन वस्तुएं बेच देता है। मूल्य से ऊपर उसे रकम तभी मिलेगी जब कारोबारियों द्वारा खरीदारी की जाती है पर कारोबारी चतुराई का अनुसरण करते हुए माल को बाजार के नब्ज के अनुपात में कम-ज्यादा उतारते हैं। ज्यादातर मामलों में गोदामों में माल जमा रहता है और अच्छे मौके का इंतजार किया जाता है। एक ओर जहां कारोबारी किसानों के कृशि उत्पाद से बेहिसाब मुनाफा कमाते हैं वहीं उपज देने वाले किसानों की हालत जस की तस बनी रहती है। इस लिहाज से देखें तो महंगाई जमाखोरी का तो परिणाम है ही साथ ही किसानों का इसमें कोई हित षामिल दिखाई नहीं देता। थोक मूल्य सूचकांक के वृद्धि के ताजा आंकड़ों ने सरकार की बेचैनी बढ़ाई है। इसके अलावा एलनीनो के प्रभाव ने मानसून को कम करके उत्पादन दर को भी कमजोर किया है। इसके पूर्व बेमौसम बारिष के चलते रबी की फसलें पहले ही चैपट हो चुकी थी। अर्थषास्त्र की अवधारणा में कृशि एवं पषुपालन, उद्योग एवं सेवा क्षेत्र इन तीनों की गणना में जीडीपी में कृशि का योगदान न्यूनतम है।
हमें महंगाई और चुनाव के सम्बन्ध का भी आंकलन कर लेना चाहिए। चुनाव भी महंगाई के अर्थषास्त्र से अछूते नहीं रहे हैं देष में कई चुनाव ऐसे हुए जिसमें हार जीत का फैसला महंगाई पर निर्भर था। 1977 की हार के बाद कांग्रेस की 1980 में हुई वापसी में प्याज की अहम् भूमिका थी। 1998 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा ने इसलिए सत्ता खो दी क्योंकि प्याज का दाम बेकाबू हो चुका था और सत्ता स्वादन कांग्रेस के हिस्से आया। इसी प्याज ने दिल्ली की षीला दीक्षित सरकार को भी बेदखली का रास्ता दिखाया। दरअसल महंगाई एक ऐसा मुद्दा है जिससे समाज का सभी तबका प्रभावित होता है। महंगाई क्यों बढ़ती है यदि बढ़ती है तो बेलगाम क्यों होती है? किस मानक तक इसे बर्दाष्त किया जा सकता है? इन तमाम बिन्दुओं पर एक आर्थिक विमर्ष होना चाहिए और एक ऐसी ठोस रणनीति तैयार होनी चाहिए जिससे महंगाई जैसी डायन से समाज को बचाया जा सके। केन्द्र में भाजपाकृत मोदी सरकार के माथे पर बल बेलगाम बढ़ी इन दिनों की महंगाई ला सकती है। इन दिनों बिहार विधानसभा का चुनाव चल रहा है आगे भी उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड जैसे प्रदेषों का चुनाव होना है। जिस प्रकार महंगाई सत्ता परिवर्तन में काम करती रही है उसे देखते हुए मोदी सरकार को भी यह समझ लेना चाहिए कि यह महंगाई आने वाले दिनों में उनके लिए भी महंगा सौदा सिद्ध हो सकता है।
1991 में जब नई आर्थिक नीति आई थी तब एक आस जगी थी कि बुनियादी अर्थषास्त्र सुधरेगा पर अमीर-गरीब के बीच की बढ़ी खाई को देखते हुए इसे नाकाफी कहा जा सकता है। अर्थव्यवस्था का आम सिद्धान्त यह भी रहा है कि यदि गरीबों की भलाई करनी है तो आर्थिक विकास दर ऊँचा रखो जबकि सच यह है कि वर्तमान भारत की आर्थिक दर आठ फीसदी के बावजूद गरीबों की हालत में बड़ा सुधार नहीं है। असल में मानव विकास सूचकांक के साथ भूख, स्वास्थ, रोजगार और गरीबी का सूचकांक भी बेहतर होना चाहिए। भारयुक्त सवाल यह भी है कि महंगाई से जूझने वाले क्या मोदी सरकार को आम आदमी की सरकार कह सकते हैं। गरीब तो छोड़िए मध्यम वर्ग का भी निवाला काबू से बाहर है। महंगाई की कसौटी पर मोदी सरकार की रणनीति सटीक है कहना जल्दबाजी होगा। महंगाई की चक्की में पिसने वाले गरीब न तो विकास दर समझते हैं और न ही अर्थव्यवस्था के उलटफेर। अच्छा होगा कि मोदी सरकार उन वचनों को याद करे और महंगाई वाले दिन के बदले अच्छे दिन लाये जिसका उन्होंने वायदा किया था।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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Tuesday, October 20, 2015

विरोध की संस्कृति में गैर मर्यादित न हो लोकतंत्र

    वैसे तो लोकतंत्र में सभी को समान और समुचित अधिकार के साथ विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है मगर लोकतंत्र की अपनी सीमा और मर्यादा है। इसके उल्लंघन की स्थिति में विरोध ही अपना असर खो देता है। विरोध और दबाव की राजनीति लोकतंत्र के ही दो असरदार आयाम हैं परन्तु यदि इनकी दिषा और दषा पर काबू न रखा जाए तो यही लोकतंत्र गैरमर्यादित भी हो सकता है। असल में इन दिनों देष में षिवसेना और हिन्दू सेना इसी प्रकार के विरोध पर उतारू हैं पर यह मर्यादा के अन्दर है या बाहर इस पर विमर्ष होना जरूरी है। विरोध की मुख्य वजहों में कुछ आन्तरिक मसलें हैं तो कुछ पाकिस्तान से सम्बन्धित हैं। बीते दिन षिवसेना का विरोध षषांक मनोहर की मेज तक पहुंचा। वजह थी भारत-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट बहाली को लेकर बैठक करना। विरोध के चलते न केवल बैठक रद्द की गयी बल्कि पाकिस्तान के क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष षहरयार के विरूद्ध नारे भी लगाये गये। ‘षहरयार वापस जाओ‘ के खूब नारे लगे यह घटना भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के उन दिनों को ताजा कर देती है जब 1928 में भारतीयों द्वारा ‘साइमन वापस जाओ‘ के नारे लगाये जा रहे थे। फिलहाल भविश्य में दोनों देषों के बीच क्रिकेट सीरीज़ नहीं होगी ऐसा वातावरण तो बन गया है। असल में सभी के विरोध के अपने तरीके हैं प्रजातंत्र में विरोध की कोई संविदा नहीं है पर असहमति की स्थिति में क्या कदम उठेंगे इसकी सीमा भी तय नहीं है। ऐसे में यह संगठन या व्यक्ति पर निर्भर करता है कि विरोध कितने ऊँचे स्वर में करेगा। हालांकि षिवसेना का पाकिस्तान के मामले में अड़ियल रवैया हमेषा से रहा है बरसों पहले मुम्बई के वानखेड़े स्टेडियम को इन्हीं षिवसैनिकों ने रातों रात पिच खोद दिया था क्योंकि यहां पर भारत-पाकिस्तान का मैच होना था। ऐसी और भी तमाम घटनाओं का उल्लेख किया जा सकता है।
वर्तमान में जिस भांति विरोध की संस्कृति उत्तर से दक्षिण में धमाल मचाये हुए है उसे देखते हुए यह समझना आसान है। एक षिवसैनिकों का विरोध जो पाकिस्तान के प्रति सकारात्मक कदम के चलते हो रहा है जबकि दूसरा हिन्दू सेना का विरोध जिसके इर्द-गिर्द गाय और गौमांस है। हिन्दू सेना देष में गौवंष की रक्षा-सेवा और अविरल गंगा, निर्मल गंगा और गीता को राश्ट्रीय ग्रन्थ घोशित करने की मांग के साथ बरसों से कार्य करती रही है। इन संगठनों की प्रकृति ऐसे मामलों में तनिक मात्र भी पीछे हटने के लिए नहीं जानी जाती है। लिहाजा इनका विरोध और दबाव इनका स्वाभाविक काज बन जाता है। जाहिर है इन दिनों पाकिस्तान से भारत सरकार भी खार खाए हुए है और प्रधानमंत्री मोदी भी पाकिस्तान से बातचीत बंद किए हुए है। सितम्बर में संयुक्त राश्ट्र संघ में भी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री से हाय-हैलो से आगे बात नहीं बढ़ी। दरअसल पाकिस्तान अपनी आदतों से न तो ऊपर उठना चाहता है और न ही सीमा पर हमारी चिंता करता है। ऐसे में सरकारी स्तर पर बातचीत का अमल में न होना समझा जा सकता है। इसके अलावा गाय और गौमांस का मामला भी इन दिनों देष को आन्तरिक झंझवातों में उलझा दिया है। कोई बीफ पार्टी दे रहा है तो कोई गौमांस को लेकर अनाप-षनाप बयान दे रहा है। समझने वाली बात यह है कि गाय और गौमांस पर राजनीति हिन्दू संगठनों को नागवार गुजरती है। जो सियासतदान इन मामले में कहीं अधिक कट्टर हैं उनके बयानों से भी मामला तपिष में है। बावजूद इसके सुधींद्र कुलकर्णी और बीसीसीआई जैसों ने पाकिस्तान को लेकर सकारात्मक होने की कोषिष की तो अब्दुल राषिद जैसे जम्मू कष्मीर के निर्दलीय विधायक लोगों को गौमांस का स्वाद चखा रहे हैं। ये तमाम कारण षिवसेना एवं हिन्दू सेना के विरोध के लिए पर्याप्त थे। यदि इनके जैसे संगठनों का आधारभूत प्रसंग न समझा जाए तो पूरी बात स्पश्ट करना सम्भव नहीं होगा। असल में ऐसे मसलों पर इन संगठनों का विरोध होना लाजमी है क्योंकि ये इनकी आधारभूत संरचना में ही षामिल है। बावजूद इसके यदि इसे तफ़सील से समझे बगैर किसी नतीजे पर पहुंचा गया तो ऐसे संगठनों के प्रति पूरा न्याय भी सम्भव नहीं होगा।
    सुधींद्र कुलकर्णी ने पाकिस्तान के पूर्व विदेष मंत्री अहमद कसूरी की पुस्तक ‘नीदर ए हाॅक, नाॅर ए डव‘ के विमोचन के लिए एक समारोह आयोजित किया। यह कार्यक्रम षिवसैनिकों के लिए तिलमिलाने वाला था लिहाजा कुलकर्णी के चेहरे को गाढ़ी स्याही से पोत दिया गया। हालांकि कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के साथ समारोह सम्पन्न हुआ और कुलकर्णी कालिख ने पुते चेहरे के साथ किताब विमोचन करने में फतह हासिल कर ली। असल में समस्या यह है कि लोकतंत्र प्रत्येक के लिए भिन्न रूप ले लेता है। ऐसे में विरोध करने वाली नीति कहीं न कहीं लोकतंत्र का उपहास उड़ा देती है पर इस बात पर भी ध्यान देना जरूरी था कि देष का माहौल पाकिस्तान को लेकर समुचित था या नहीं। हालात के मद्देनजर देखा जाए तो माहौल अनुकूल नहीं था पर इसका यह तात्पर्य नहीं कि विरोध में मर्यादा का ध्यान ही न रखा जाए। भाजपा के वरिश्ठ नेता लाल कृश्ण आडवाणी ने भी इस घटना की निन्दा की थी। सुधींद्र कुलकर्णी को आडवाणी के नजदीकियों में गिना जाता है। रही बात हिन्दू सेना के कार्यकत्र्ताओं की तो इन्होंने भी जम्मू-कष्मीर के निर्दलीय विधायक राषिद पर कालिमा बिखेर दी। प्रेस वार्ता के दौरान घटी इस घटना में एक बार पुनः राषिद को यह चेता दिया कि बीफ पार्टी उनके लिए कितनी बड़ी मुसीबत थी। यहां भी नारे लगे गौमाता का अपमान नहीं सहेंगे। देखा जाए तो कुछ ने ज्यादती भी की है। विधायक को देष के हालात को ध्यान में रखते हुए बीफ पार्टी वाला कदम नहीं उठाना चाहिए था। कुछ मुस्लिम संगठनों का भी मानना है कि जिस कार्य से हिन्दू धर्म को ठेंस पहुंचती है उसे किया ही क्यों जाए? कुछ मुस्लिम वर्ग की भी गाय और गौमांस को लेकर सकारात्मक राय देखी जा सकती है।
    सवाल तो यह भी है कि जब देष में पाकिस्तान को लेकर अच्छी राय नहीं है तो क्रिकेट बहाल करने की क्या जरूरत है? यदि ऐसा होता है तो एक लिहाज से भारत पाकिस्तान की ही मदद कर देगा जबकि भारत पाकिस्तान के द्वारा की जाने वाली सीमा पर गोलाबारी और वहां से भेजे गये आतंकियों से प्रताड़ना झेल रहा है। पाकिस्तान के पूर्व राश्ट्रपति मुषर्रफ भी कई बार टेलीविजन पर भारत को चुनौती देने की घटिया हरकत कर चुके हैं। नवाज षरीफ रूस के उफा में भारत से किये गये वायदे से इस्लामाबाद में पलट गये। पाकिस्तान जम्मू-कष्मीर के मामले में संयुक्त राश्ट्र संघ में जाने से तनिक मात्र भी नहीं हिचकिचाता। हद तो तब हो गयी जब इस बार उसने झूठी षिकायत की कि भारत ही उससे बातचीत नहीं करना चाहता। इसके अलावा भारत की सीमा में पकड़े गये आतंकवादियों को अपना नागरिक मानने से भी इंकार करता है। लाख टके का सवाल यह है कि आतंक की पाठषाला चलाने वाले झूठे पाकिस्तान और देष में फैली असहिश्णुता से क्या भारत कराह नहीं रहा है ऐसे में व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए तथाकथित विरोध और दबाव अहिंसा के दायरे में हो तो इसे लोकतंत्र के साथ किया गया संवाद ही कहेंगे पर इसके गैरमर्यादित होने की स्थिति में लोकतंत्र को ही हाषिये पर फेंकने की कवायद हो जाएगी।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502


Sunday, October 18, 2015

अनुच्छेद ३७० पर नई बहस


 भारतीय संविधान में निहित अनुच्छेद 370 ऐसा प्रावधान है जो जम्मू-कश्मीर को अन्य राज्यों से भिन्नता प्रदान करता है जिस पर बरसों से बहस और विमर्ष की खपत हुई है। जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय का अनुच्छेद 370 के मामले में यह कहा जाना कि इसे न तो संशोधित  किया जा सकता है, न हटाया जा सकता है और न ही रद्द किया जा सकता है। इससे न केवल अनुच्छेद 370 के मामले में न्यायालय की राय का पता चलता है बल्कि उन लोगों के लिए भी एक संकेत है जो बरसों से इसे हटाने के पक्षधर रहे हैं पर सवाल है कि क्या न्यायालय के इस कदम से इस धारा को लेकर छिड़ी बहस विराम लेगी या फिर विमर्श और गहरे होंगे। जम्मू-कश्मीर भारतीय संघ का वैसे ही अभिन्न अंग है जैसे कि अन्य राज्य। यहां के प्रत्येक निवासी भारत के नागरिक हैं और वे भी वैसे ही अधिकार रखते हैं जैसे कि भारतीय नागरिकों को हैं। कुछ का मानना है कि जम्मू-कश्मीर के साथ भारत का सम्बंध अनुच्छेद 370 ही निर्धारित करता है पर यह पूरा सच नहीं है। जिस प्रकार अन्य राज्यों के साथ भारत का सम्बन्ध है उसी भांति जम्मू-कश्मीर से भी सम्बन्ध है। यहां यह समझना जरूरी है कि भारतीय संविधान में जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा प्राप्त है और यह संविधान की पहली अनुसूची में पन्द्रहवां राज्य है। हालांकि संविधान के भाग 6 में अनुच्छेद 152 के तहत राज्य में जम्मू-कश्मीर शामिल नहीं है। इसका तात्पर्य है कि राज्यों के संविधान में वर्णित उपबन्ध जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं होंगे। यहां के लिए संविधान के अनुच्छेद 370 के अधीन कुछ विशेष उपबन्ध किये गये हैं जो कि ऐतिहासिक कारणों के चलते हैं।
 असल में अनुच्छेद 370 के संवैधानिक परिप्रेक्ष्य और न्यायिक दृष्टिकोण का मतलब जब तक ठीक से न समझा जाए इसकी संवेदनशीलता को उभारना कठिन है। जब जम्मू-कश्मीर अधिमिलन पत्र पर हस्ताक्षर की राह पर आ गया तब भारत सरकार ने यह घोषणा की थी कि राज्य के लोगों को अपने संविधान का निर्माण करने और उसका स्वरूप तय करने की छूट दी जाएगी तत्पश्चात तत्कालीन महाराजा हरि सिंह ने अखिल जम्मू-कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस के शेख अब्दुल्ला को पहला प्रधानमंत्री नियुक्त किया और संविधान निर्मात्री सभा के गठन की घोषणा भी की गयी जिसमें प्रति 40 हजार की जनसंख्या पर कुल 75 प्रतिनिधि निर्वाचित हुए। राज्य के लिए पृथक संविधान सभा के गठन को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 में मान्यता दी गयी। यहां के संविधान के निर्माण और भारत के साथ सम्बन्धों के निर्धारण हेतु राज्य की जनता द्वारा प्रभुत्वसम्पन्न संविधान का निर्वाचन किया गया और संविधान सभा ने राज्य के संविधान को नवम्बर, 1956 को स्वीकार किया और 26 जनवरी, 1957 को यह लागू हो गया जबकि इसके एक दिन पूर्व संविधान सभा विघटित कर दी गयी थी। अनुच्छेद 370 में जम्मू-कश्मीर राज्य के लिए विशेष अस्थाई उपबन्ध किये गये जिसे समाप्त करने की मांग भी दशकों से होती रही है। हालांकि इसे हटाने का उपबन्ध भी अनुच्छेद 370(3) में निहित किया गया है। इसके अनुसार राष्ट्रपति लोक अधिसूचना द्वारा घोषणा कर सकते हैं कि यह अनुच्छेद प्रवर्तन में नहीं रहेगा परन्तु इसके पूर्व राज्य की संविधान सभा की सिफारिश आवश्यक है परन्तु यह सभा 25 जनवरी, 1957 से ही भंग है। जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान सभा ने भंग किये जाने से पहले ऐसी कोई अनुसंशा नहीं की थी। परिणामस्वरूप यह अनुच्छेद अस्थाई उपबन्ध वाले शीर्षक के तहत उल्लेखित होने के बावजूद एक स्थाई प्रावधान हैं। इतना ही नहीं अदालत ने तो यह भी कहा कि अनुच्छेद 368 जो कि संविधान संशोधन से सम्बन्धित है वह भी इस मामले में अमल में नहीं लाया जा सकता। सवाल है कि संवैधानिक और न्यायिक व्याख्या में अनुच्छेद 370 की असल पहचान अब क्या है? क्या संविधान के शब्दों में अस्थाई उपबन्ध या फिर न्यायालय के नजरिए से स्थाई उपबन्ध।
 विवेचित पक्ष यह भी है कि 1957 से राज्य की संविधान सभा जब विघटित है तो सिफारिश करने वाली विधिक बाध्यता कैसे प्रभावी रह सकती है। दूसरी दृष्टि से अब इसे निष्प्रभावी माना जा सकता है। ऐसे में राष्ट्रपति मात्र लोक अधिसूचना द्वारा ही अनु0 370 को समाप्त कर सकते हैं परन्तु न्यायालय के ताजा कथन से यह स्पष्ट है कि अब मामला न्यायिक परिधि में आ चुका है। सवाल तो यह भी है कि इस अनुच्छेद को उस दौर में आखिर जोड़ने की जरूरत ही क्यों पड़ी? दरअसल गोपालास्वामी आयंगर ने जब इस अनुच्छेद को प्रस्तुत किया तो केवल हसरत मोहानी ने इसकी आवश्यकता पर सवाल उठाया था। तब आयंगर ने कहा था कि जम्मू-कश्मीर में युद्ध जैसी स्थिति है, कुछ पर आक्रमणकारियों का कब्जा है साथ ही संयुक्त रष्ट्र संघ में हम उलझे हैं फैसला आना बाकी है। ऐसे में अस्थाई प्रावधान किया जा रहा है। किसी ने इस पर चर्चा करने की जरूरत तक नहीं समझी क्योंकि सभी की सोच थी कि यह स्थाई प्रावधान नहीं है और इसको समाप्त करने की प्रक्रिया भी उसी अनुच्छेद में जोड़ दी गयी। समय की मजबूरी और सरल अंदाज में निर्मित अनुच्छेद 370 को हटाना इतना कठोर काज होगा यह षायद किसी ने नहीं सोचा। अब हाल यह है कि अनुच्छेद 370 समाप्त करने का विचार मात्र ही बड़ी समस्या को न्योता देने जैसा है तो इसे जब समाप्त किया जायेगा तब क्या स्थिति बनेगी कहना निहायत कठिन है।
 दशकों पुराने यदि किसी अनुच्छेद का आज की तारीख में मूल्यांकन किया जाना हो तो दो बातें जरूरी हैं पहला संविधानविदों ने अनुच्छेद विशेष को क्यों जोड़ा, दूसरा क्या उसके होने से उद्देश्य सफल हुए। भारत राज्यों का संघ है इसे कायम रखने के लिए कुछ कांटों भरे रास्तों से गुजरना पड़ सकता है। प्रश्न है कि क्या अनु0 370 संघीय ढांचे को मजबूती प्रदान करता है? जम्मू-कश्मीर को क्यों अन्य राज्यों से भिन्न रखा जाए? क्यों न पहली अनुसूची में शामिल इस पन्द्रहवें राज्य को भारतीय संविधान के भाग 6 के अनुच्छेद 152 के तहत गणना की जाए। जैसा कि इसके पीछे कुछ व्यावहारिक दिक्कतें थीं इसलिए इसे इस हाल में रखा गया। यहां साफ कर दें कि न्यायालय के मन्तव्य पर मेरा कोई सवाल नहीं है और न ही इस पर कोई पछतावा है पर सियासत के गलियारे में इसको लेकर जो उफान आता रहा है उसे देखते हुए यह बात यहीं खत्म होती नहीं दिखाई देती। प्रधानमंत्री मोदी 370 पर बहस का आह्वान कर चुके हैं। इस पर छिड़ी जंग आर-पार हो चुकी है। इसके पूर्व अटल बिहारी वाजपाई के कार्यकाल में भी इस पर चर्चा का बाजार गर्म था। हालांकि हुआ कुछ नहीं। पीएमओ में राज्य मंत्री जितेन्द्र सिंह ने असहमत लोगों को मनाने की बात कह चुके हैं। उमर अब्दुल्ला का कहना है कि बिना संविधान सभा को आहूत किये अनुच्छेद नहीं हटा सकते। राश्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसे हटाने की पक्षधर है पर जो सियासतदान जम्मू-कश्मीर को अपनी पैतृक सम्पत्ति समझते हैं वे तो हल्ला करेंगे ही। राज्य के स्थानीय नेता से लेकर केन्द्र के विरोधी तक की टिप्पणी इस मामले में तल्ख रही है। सवाल तो यह भी है कि क्या अनु0 370 राज्य का विकास है या रोड़ा? देखा जाए तो इस अनुच्छेद के मामले में अधिकतर की राय न हटाने वाली है पर क्या यह सोचने वाली बात नहीं कि एक अस्थाई कानून बिना किसी विशेष कोशिश के पत्थर की लकीर बन गया है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक, रिसर्च फाउंडेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू कॉलोनी,
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Wednesday, October 14, 2015

समान नागरिक संहिता आखिर कब !

समान नागरिक संहिता एक ऐसा कानून जो देश के समस्त नागरिकों पर लागू होता है और किसी भी धर्म या जाति के सभी निजी कानूनों से ऊपर होता है। इसकी आवश्यकता पर संविधान सभा में प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया था और उन दिनों इस पर काफी बहस भी हुई थी साथ ही संविधान सभा भी इसके पक्ष में थी बावजूद इसके सरकारें आती-जाती रहीं, चर्चा और विमर्श होते रहें पर रवैया गैर संवेदनशील बना रहा। उच्चतम न्यायालय ने एक बार फिर समान नागरिक संहिता के बनाये जाने पर जोर दिया है। सरकार से पूछा है कि वे इस दिशा में आगे क्यों नहीं बढ़ रहे हैं। यह ताजा टिप्पणी उच्चतम न्यायालय से तब सुनने को मिली जब इसाई समुदाय के दम्पत्तियों को आपसी सहमति से तलाक लेने हेतु अन्य समुदायों के मुकाबले एक वर्ष अधिक प्रतीक्षा करने वाले प्रावधान को चुनौती दी गयी। सरकार को अपना पक्ष रखने के लिए तीन महीने का और समय दिया गया पर इस बात का संदेह है कि सरकार समान नागरिक संहिता के मामले में अपनी प्रतिबद्धता दिखा पायेगी। भारतीय संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 44 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ‘राज्य’ भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा। संविधानविदों द्वारा न केवल इसकी आवश्यकता महसूस की गयी बल्कि विभिन्न संगठनों द्वारा इसकी मांग भी की गयी थी। भारत विविधताओं से परिपूर्ण देश है यहां अनेक जातियां, धार्मिक सम्प्रदाय, संस्कृतियां और विभिन्न भाषाई समुदाय की बसावट है। संविधान इनमें कोई भेद नहीं करता है। सभी को एक समान अधिकार प्राप्त हैं। ऐसे में एक समान कानून की अवधारणा भी अधिक प्रासंगिक प्रतीत होती है।
समान नागरिक संहिता का शुरूआत में ही मुख्यतः दो आधारों पर विरोध किया गया था। पहला यह कि इससे संविधान के अनुच्छेद 25 द्वारा प्रत्याभूत धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन होगा, दूसरे यह संहिता अल्पसंख्यकों के प्रति अत्याचार के समान होगा क्योंकि अल्पसंख्यकों को उस कानून के दायरे में आना होगा जो बहुसंख्यकों के लिए बना होगा किन्तु जो इसके पक्षधर हैं वे इसे कोरी बकवास मानते हैं। आशंकाओं को निराधार बताते हुए साफ किया गया कि धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के उल्लंघन का समान नागरिक संहिता से कोई लेना-देना नहीं है। संविधान सभा में यह भी तर्क दिया गया था कि भारत में अभी भी अधिकतर धार्मिक संगठन वे हैं जो हिन्दू धर्म से परिवर्तित हुए हैं ऐसे में अल्पसंख्यक के बावजूद परम्पराओं में ज्यादा भेद नहीं है। जाहिर है सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू किया ही जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष कई वाद इस मामले में दायर किये जा चुके हैं और इसके पक्ष में एक नहीं अनेकों बार निर्णय दिया जा चुका है। सरला मुद्गल बनाम भारत संघ, जॉर्डन डींगडेह बनाम एमएस चोपड़ा के वाद में न्यायालय ने कहा था कि विवाह विधि में पूर्ण सुधार कर एकरूपता लाने तथा अनुच्छेद 44 के अन्तर्गत समान नागरिक संहिता के निर्माण की आवश्यकता अधिक गम्भीर हो गयी है। भारत में अधिकतर निजी कानून धर्म के आधार पर तय किये गये हैं। हिन्दू, सिक्ख, जैन और बौद्ध हिन्दू विधि के अन्तर्गत आते हैं जबकि मुस्लिम और इसाई के लिए अलग कानून की व्यवस्था है। मुस्लिम कानून शरियत पर आधारित है। अलग-अलग धर्मों के लिए भिन्न-भिन्न कानून होना समान नागरिक संहिता के मूल भावना के विरूद्ध है ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय का चिंतित होना लाजमी है।
दरअसल समान नागरिक संहिता को लेकर उच्चतम न्यायालय अपना रूख साफ कर चुका है पर सरकार के स्तर पर इसमें सियासत का घाल-मेल अधिक शामिल रहा है। यह परस्पर विरोधी विचारधाराओं की टकराहट को समाप्त करके राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने में सहायक सिद्ध हो सकती है पर यह संहिता धरातल पर उतरेगी ऐसी आशा रखना मृगमारीचिका की भांति है। शाह बानो से लेकर न जाने कितने मुस्लिम और इसाई सहित कई मामले न्यायालय की चैखट पर आये पर समान नागरिक संहिता दूर की कौड़ी बनी रही। तीस बरस पहले इस विधेयक पर चर्चा के दौरान इन्द्रजीत गुप्ता ने कहा कि इसे कदापि पारित नहीं करना चाहिए क्योंकि यह मूल अधिकारों से सम्बन्धित अनुच्छेद 14 एवं 15(1) का उल्लंघन करता है। 8 मई, 1986 को राज्यसभा में चर्चा के दौरान साम्यवादी दीपेन घोष ने कहा कि यह विधेयक मुस्लिम महिलाओं को भेड़ियों का ग्रास बना देगा। जनता पार्टी के एक सांसद ने तो कहा कि यह संविधान की मूल भावना का ही हनन करता है। कम्यूनिस्ट के गुरदास दासगुप्ता ने इसे देश विरोधी बताया था जबकि सर्वोच्च न्यायालय इसे लागू कराने के लिए बार-बार निर्देश देता रहा है। सर्वोच्च न्यायालय समान नागरिक संहिता के संदर्भ पर अब तक तीन बार अपने विचार दे चुका है। सबसे पहले 23 अप्रैल, 1985 में मोहम्मद अहमद बनाम शाह बानो बेगम मुकदमे में निर्णय देते हुए कहा कि यह अत्यंत खेद की बात है कि संविधान का अनुच्छेद 44 अभी तक लागू नहीं किया गया। तब से तीन दशक बीत जाने के बावजूद अभी भी यह मामला केवल गाहे-बगाहे चर्चा और विमर्श तक ही रह जाता है। दरअसल समान नागरिक संहिता को कोई भी कुरेद कर जोखिम नहीं लेना चाहता पर इससे जो सामाजिक ताना-बाना बिगड़ रहा है उसका क्या होगा इस पर भी बहुत बेहतर राय नहीं देखने को मिली है। सवाल है कि क्या समान सिविल संहिता राष्ट्र की आवश्यकता है, क्या यह कभी मूर्त रूप ले पायेगी, हालात को देखते हुए मामला खटाई में ही जाता दिखाई देता है। जानकारों की राय में समान सिविल संहिता भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र में एक शक्ति काम कर सकती है। भारत विजातीय देश है ऐसे में इसे अनेकता में एकता को सुदृढ़ करने के काम में भी लिया जा सकता है। विश्व के अधिकतर आधुनिक देशों में इसकी व्यवस्था देखी जा सकती है।
व्यवहारिक दृष्टि से देखें तो समान नागरिक संहिता भविष्य में एक सामाजिक उत्थान करने वाला उपकरण साबित हो सकता है। हिन्दू, मुस्लिम, जैन, इसाई, पारसी इत्यादि समुदायों के लिए अलग-अलग वैयक्तिक विधियों को समाप्त कर एक समान विधि को लागू करने से जहां एकरूपता आयेगी वहीं समुदाय और समाज भी एक सूत्र में बंधा दिखेगा जो स्वयं में एकता और अखण्डता की मिसाल होगी। संविधान सभा का बहुमत भी इसके साथ था पर बढ़ते समय के साथ इसके प्रति उदासीनता भी बढ़ती गयी और आज भी इसका क्रियात्मक पक्ष सामने नहीं आया। कई बार संसद में इसको लेकर बहस और चर्चा का बाजार गर्म रहा। उच्चतम न्यायालय के निर्देश भी इसके पक्ष में आते रहे पर मामला ढाक के तीन पात ही रहा। संविधान लागू होने के बाद हिन्दू कोड बिल तो आया परन्तु अन्य समुदायों से सम्बन्धित पर्सनल लॉ में कहीं भी कोई कोशिश नहीं की गयी। भले ही भाजपा समान नागरिक संहिता की बात करती रही हो पर सच तो यह है कि राजनीतिक दल इस मामले में साथ तो नहीं देने वाले। स्थिति को देखते हुए नहीं लगता कि मामला अभी भी आगे बढ़ेगा। फिलहाल अब सभी समुदायों को धार्मिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता का मान रखते हुए सर्वमान्य समान नागरिक संहिता का मन बना लेना चाहिए। इससे न केवल देश एकरूपता के सूत्र में बंधेगा बल्कि सामाजिक समस्याओं का समाधान भी आसानी से किया जा सकेगा।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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