Thursday, December 30, 2021

वर्ष 2022 से उम्मीदे तमाम पर मुगालते से परहेज

भारतीय समाज अधिकांषतः एक पिछड़ा समाज है गरीबी, भुखमरी, कुपोशण, बेरोज़गारी, अषिक्षा, बीमारी, सामाजिक-आर्थिक असमानता, साम्प्रदायिकता आदि विकराल समस्याओं से देष जूझता रहा है और 2022 में भी ये समस्याएं नहीं बने रहने की कोई वजह दिखाई नहीं देती। इन समस्याओं का सामना और समाधान लोकनीति के माध्यम से ही किया जा सकता है। स्वतंत्रता से लेकर अब तक तमाम समस्याओं का हल ऐसी ही नीतियों से सम्भव हुआ है। बीते 2 वर्श से महामारी जारी है और इसके साथ ही कई अन्य समस्याओं का विकास हो गया है। साल 2022, 365 दिन का एक ऐसा समय है जो तुलनात्मक अधिक संवेदनषील माना जा सकता है। इस एक वर्श के भीतर तमाम नियोजन और विकास की अवधारणा के साथ उत्पन्न कठिनाईयों से निपटने के लिए राह खोजी जायेगी। हमें उम्मीद अच्छी रखने से गुरेज नहीं करना चाहिए मगर मुगालते भी नहीं पालने चाहिए।

जब दौर आपदा का हो तब सामाजिक प्रषासन की अवधारणा मुखर हो जाती है। जहां तक सामाजिक प्रषासन का स्वतंत्र षाखा के रूप में अस्तित्व का सवाल है तो इसके षुरूआती दौर 20वीं सदी के प्रारम्भ से देखा जा सकता है। इस सदी का दूसरा दषक महामारी से तो सरकार के साथ जनहित से जुड़ी संस्थाएं बड़े इम्तिहान से गुजरी थी। गौरतलब है कि भारत में उन दिनों आंदोलन का दौर था और देष औपनिवेषिक सत्ता के अधीन था। 21वीं सदी के दूसरे दषक के अंतिम दो साल भी कोविड-19 के चलते बहुत बड़ी परीक्षा से गुजरा है और यह सिलसिला अभी थमा नहीं है। गौरतलब है कि पिछले दो वर्शों से दुनिया बेहद अनिष्चित दौर से गुजर रही है जिसमें भारत ने भी बड़ी कीमत चुकाई है। आपदा और महामारी की मार से उबरने के सारे हथकंडे मानो विफल हो गये हों। बचाव और राहत के सभी उपाय आजमाये जा रहे हैं मगर कोरोना नित नये प्रारूप से अपनी जकड़ बनाये हुए है। 2021 के अंतिम दिनों में अमेरिका में पहली बार कोरोना पीड़ितों की संख्या एक दिन में 5 लाख से अधिक होना इस बात को पुख्ता करता है। इसके अलावा यूरोपीय देष इंग्लैंड, फ्रांस और जर्मनी समेत कई देषों में कोरोना संक्रमितों के आंकड़े गगनचुंबी रूप ले चुके हैं। भारत में भी ओमिक्रोन दिन-प्रतिदिन की दर से तेजी लिए हुए है। उक्त से यह परिलक्षित हो रहा है कि 2022 का आगाज ओमिक्रोन से होगा। हालांकि नये वेरियंट ओमिक्रोन के अलावा पुराना वेरियंट डेल्टा भी रफ्तार लिए हुए है और भारत के लिए भी यह बेहद चिंता का विशय है। तीसरी लहर मुहाने पर है और 2022 नई उम्मीदों से लदा है। हालांकि यह उम्मीद पर कितना खरा उतरेगा यह तो आने वाला वक्त बतायेगा मगर 2021 की तमाम सम्भावनायें भी इस नये साल में भावनात्मक रूप से जुड़ी दिखाई देती हैं। 

कोरोना के चलते स्वास्थ्य कहीं अधिक प्राथमिकता में है। देष की अर्थव्यवस्था में स्वास्थ्य बड़े क्षेत्रों में से एक बन गया है और 2022 तक इसके 372 अरब डाॅलर तक पहुंच जाने का अनुमान है। हालांकि नीति आयोग की यह रिपोर्ट मार्च 2021 की है तब देष में कोरोना की दूसरी लहर नहीं थी। अब हालात यह हैं कि 2022 तीसरी लहर पर खड़ा है ऐसे में यह उम्मीद बढ़ती है कि स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए धन की मात्रा में और बढ़ोत्तरी हो सकती है। विष्व बैंक ने भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को 2021 में 8.3 फीसद और 2022 के लिए 7.5 फीसद का अनुमान जताया था। कोरोना की दूसरी लहर के बाद अनुमान एक बार फिर खरे नहीं उतरे थे और वर्तमान में जो परिस्थितियां दिखती हैं उसे देखते हुए 2022 में भी इसकी सम्भावना कम ही दिखती हैं। हालांकि विष्व बैंक ने भी यह माना है कि महामारी की षुरूआत से किसी भी देष के मुकाबले सर्वाधिक भीशण लहर भारत में आयी और इससे आर्थिक पुनरूद्धार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। वैसे अनुमान तो यह भी है कि 2023 में भारत की वृद्धि दर 6.5 फीसद रहेगी। भरोसा किया जाना आषावादी दृश्टिकोण का परिचायक है मगर हालिया स्थिति को देखते हुए ये आंकड़े जमीन पर उतरेंगे भी इसके आसार कम ही हैं। 2022 उम्मीदों से भरा हो सकता है बषर्ते बहुत कुछ कोरोना की स्थिति पर निर्भर करेगा। देखा जाये तो साल 2021 उपभोक्ताओं के लिहाज़ से बहुत खराब रहा है। बढ़ती कीमतों के अतिरिक्त लोगों की आय में गिरावट, रोज़गार में कमी और कारोबार को खासा नुकसान पहुंचा है। खाद्य तेल और पेट्रोल व डीजल समेत रसोई गैस ने लोगों की जेब पर डाका डाला। 2022 में यदि उम्मीदों के बोझ को थोड़ा कम करके नहीं देखा जायेगा तो दिल को धक्का जरूर पहुंचेगा क्योंकि 2020 के बीतने के साथ 2021 से जो उम्मीदें थी वह भी टूटी थीं और 2022 पर पूरा भरोसा करने में कई आंकड़े रोकते हैं। गोल्डमैन सैक्स ने भी वित्त वर्श 2022 के लिए भारत के विकास के अनुमान को घटा दिया है। 

पेट्रोलियम पदार्थों की बढ़ती कीमतों के बीच लोगों को आर्थिक झटका तो लगा है साथ ही प्रदूशण में भी वृद्धि जारी है। हालांकि मोदी सरकार वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतो को विस्तार देने पर काम कर रही है। इन्हीं के अन्तर्गत ग्रीन हाइड्रोजन का प्रोजेक्ट भी देखा जा सकता है। सम्भावना यह जतायी जा रही है कि षीघ्र ही भारत में ग्रीन हाइड्रोजन के ईंधन से कारे चलेंगी। जाहिर है कि कचरे और सोलिड वेस्ट से 2022 से कारे चलती हुईं देखी जा सकेंगी। जवाबदेही का सिद्धांत सभ्यता जितना ही पुराना है। सरकार के समूचे कामकाज के लिए 2022 एक मध्य वर्श के रूप में भी है। ध्यानतव्य हो कि मोदी सरकार 2019 में अपनी दूसरी पारी षुरू की थी। मानव विकास सूचकांक और ग्लोबल हंगर इंडेक्स में तुलनात्मक बेहतर छलांग की उम्मीद के अलावा समावेषी विकास और सतत् विकास को फलक पर लाना इस वर्श की उम्मीदें हैं। षिक्षा, चिकित्सा, बिजली, पानी, सड़क, सुरक्षा और महिला सषक्तिकरण समेत लोक विकास को बढ़ावा देने की सम्भावना भी इसमें षामिल है साथ ही बेरोज़गारी जो सभी समस्याओं की जड़ है इससे भी निपटने में 2022 का इम्तिहान होगा। ई-षासन में और बढ़त और ई-भागीदारी को तुलनात्मक मजबूती देना साथ ही ई-कनेक्टिविटी को पूरे भारत में पहुंचाना इस साल का कोर विशय हो सकता है। 2022 पहले से ही 2 करोड़ बेघर को छत देने और किसानों की आय दोगुनी करने के भाव से युक्त रहा है इसे पूरा होते हुए भी देखना इसी वर्श का चित्र है। साल 2024 तक 5 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था तक भारत को पहुंचाना यहां के विकास दर पर निर्भर करेगा। यदि 2022 इस पर खरा उतरता है तो इस क्षेत्र में भी सहायता मिलेगी। थोक महंगाई दर 2020 की तुलना में 2021 में गगनचुम्बी ऊंचाई लिए हुए थी 2022 में इसकी मुक्ति का मार्ग भी खोजना इस वर्श में षामिल रहेगा। जाहिर है महंगाई का ऐसा स्वरूप सरकार की जवाबदेही को बढ़ा देता है और सुषासन की हवा निकाल देता है। नये वर्श में जवाबदेही भी बेहतर होगी और सुषासन भी अप्रतिम ऐसी उम्मीद रखने में कोई हर्ज नहीं है। कोरोना ने अर्थव्यवस्था को बेपटरी किया और करोड़ों को गरीबी रेखा के नीचे खड़ा कर दिया जिसके चलते पनपी आर्थिक असमानता को समाप्त करने के लिए नये नियोजन की सम्भावना रहेगी। वैसे तो 2022 से बेइंतहा उम्मीदे हैं पर इसकी सुचिता और यह पूरी तरह खरा उतरे इसके लिए जरूरी है कि कोरोना की विदाई हो और आर्थिक दौर तेज हो। 

दिनांक : 30 दिसम्बर, 2021


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

फिर वक्त आ गया सावधानी और सतर्कता का

कोरोना वायरस एक बार फिर ओमिक्रोन के रूप में दुनिया को जकड़ रहा है। ब्रिटेन में कोरोना के चलते स्थिति बहुत गम्भीर हो गयी है। यहां कोरोना से बढ़ती पीड़ितों की संख्या के चलते नित नये कीर्तिमान स्थापित हो रहे हैं। गौरतलब है कि ब्रिटेन में एक दिन में एक लाख से अधिक कोरोना के मामले सामने आ रहे हैं। इटली में भी आकड़ा 50 हजार के आसपास रोजाना देखने को मिल रहा है। फ्रांस में भी स्थिति यही रूप लिए हुए है। फ्रांस में इस समय महामारी की 5वीं लहर चल रही है। आंकड़े बताते हैं कि महामारी में ब्रिटेन के बाद सबसे ज्यादा मौत इटली में हुई है। जनसंख्या की दृश्टि से यह देष कहीं अधिक न्यून की संज्ञा में आते हैं। मसलन इटली 5 करोड़ तो फ्रांस में 6 करोड़ की जनसंख्या है और ब्रिटेन में जनसंख्या भारत की तुलना में मामूली ही कही जायेगी। फिलहाल अब ओमिक्रोन यूरोप तक ही नहीं दुनिया को भी गिरफ्त में ले लिया। दक्षिण अफ्रीका में ओमिक्रोन वायरस से पीड़ितों की स्थिति के बारे में आयी जानकारी से यह पता चलता है कि डेल्टा वेरियंट की तुलना में यह 70 से 80 प्रतिषत कम गम्भीर है। हालांकि इसे लेकर अभी तक पुख्ता दावा दिखा सामने नहीं आया है। माना तो यह भी जा रहा है कि कोविड से बचाव वाली वैक्सीन ओमिक्रोन पर प्रभावी है। कुछ वैक्सीन कम तो कुछ ज्यादा प्रभावी है ऐसा अफ्रीकी सरकार की एक रिपोर्ट से पता चलता है। हालांकि इस रिपोर्ट पर भरोसा इसलिए किया जा सकता है क्योंकि ओमिक्रोन की षुरूआत अफ्रीका से ही हुई थी। फिलहाल एक बार फिर कोरोना को लेकर सतर्क रहने का समय आ गया है। प्रधानमंत्री की समीक्षा बैठक यह इषारा कर रही है कि ओमिक्रोन को लेकर कुछ सरकारी पहल बढ़ेगी। मौजूदा समय में ओमिक्रोन से पीड़ितों की संख्या देष में 400 का आंकडा छू रही है जिसकी जद् में 16 राज्य हैं जिसमें महाराश्ट्र अव्वल बना हुआ है। यूरोपीय देषों में ओमिक्रोन के संक्रमण की गति को देखते हुए भारत को सावधान रहने की आवष्यकता है। यह नहीं भूलना है कि पहली लहर हो या दूसरी षुरूआत ऐसे ही हुई है जैसा कि इन दिनों कोरोना गति लिए हुए है। जाहिर है सरकार को सतर्क रहने की आवष्यकता और जनता को कहीं अधिक सावधान रहने की जरूरत है।

कोरोना महामारी में 4 लाख से ज्यादा लोगों को जान गवानी पड़ी जिसमें लगभग 88 फीसद लोग 45 वर्श और इससे ज्यादा उम्र के थे। जाहिर है यह उम्र परिवार चलाने और संभालने की होती है। भारत में मध्यम वर्ग की स्थिति रोज कुंआ खोदने और रोज पानी पीने वाली रही है। ऐसे में कोरोना के षिकार लोगों के परिवार की आजीविका आज किस स्थिति में है और इसके प्रति कौन जवाबदेह होगा साथ ही इनके लिए षासन ने क्या कदम उठाया यह किसी से छुपी नहीं है। कोरोना त्रासदी की कड़वी सच्चाई यह है कि स्वास्थ और अर्थव्यवस्था दोनो बेपटरी हुए। एक अनुमान तो यह भी है कि लाॅक डाउन के कारण कम से कम 23 करोड़ भारतीय गरीबी रेखा के नीचे पहुंच गये हैं। विष्व असमानता रिपोर्ट भी यह इंगित करती है कि भारत में 50 प्रतिषत आबादी की कमाई इस वर्श घटी है। रिपोर्ट का लब्बो-लुआब यह भी है कि अंग्रेजों के राज में 1858 से 1947 के बीच भारत में असमानता अधिक थी। उस दौरान 10 प्रतिषत लोगों का 50 प्रतिषत आमदनी पर कब्जा था। हालांकि वह दौर औपनिवेषिक सत्ता का था और लोकतंत्र की अहमियत और महत्व से अनंत दूरी लिए हुए था। स्वतंत्रता के पष्चात् 15 मार्च 1950 को प्रथम पंचवर्शीय योजना का षुभारम्भ हुआ और असमानता का आंकड़ा घट कर 35 प्रतिषत पर आ गया। उदारीकरण का दौर आते-आते स्थितियां कुछ और बदली विनियमन में ढील और उदारीकरण नीतियों से अमीरों की आय बढ़ी वहीं इसी उदारीकरण से षीर्श एक फीसद सबसे अधिक फायदा हुआ। रही बात मध्यम और निम्न वर्ग की तो यहां भी इनकी दषा में सुधार की रफ्तार कहीं अधिक सुस्त रही। जाहिर है यह सुस्ती गरीबी को फूर्ति देती है। यहां स्पश्ट कर दें कि विष्व असमानता रिपोर्ट 2022 को ध्यान में रखकर उक्त बातें कहीं गयी हैं जिसमें दुनिया के 100 जाने-माने अर्थषास्त्री असमानता को लेकर अध्ययन करते हैं और रिपोर्ट देते हैं।

नये साल के षुरूआत में कई राज्यों के विधानसभा चुनाव भी होने हैं जिसमें उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड, गोवा और मणिपुर समेत पंजाब षुमार है। गौरतलब है कि पिछले साल ऐसे चुनावी समर के बीच दूसरी लहर ने कहर ढाया था तब उसमें बंगाल और तमिलनाडु समेत 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव हुआ था। इस बार भी चुनावी समर का स्वरूप वैसा ही है बस राज्य अलग हैं और एक बार फिर चुनावी जीत के लिए राजनीतिक दल एड़ी-चोटी का जोर लगाना षुरू कर दिये साथ ही रैलियों का रैला जोर पकड़ लिया। डर इस बात का है कि तीसरी लहर को इन रैलियों से मौका मिल सकता है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने देष-विदेष में कोरोना के नये वैरिएंट के बढ़ते प्रभाव को लेकर बीते 23 दिसम्बर को देष के प्रधानमंत्री और चुनाव आयोग से अनुरोध किया है कि वे उत्तर प्रदेष में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में तीसरी लहर से जनता को बचाने के लिए चुनावी रैलियों पर रोक लगाये। अदालत ने यह भी कहा कि राजनीतिक पार्टियों को यह कहा जाये कि चुनाव प्रचार टीवी और समाचार पत्रों के माध्यम से करें। संदर्भ निहित पक्ष यह भी है कि यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कोरोना कैसे मानव सभ्यता और उसमें रचे-बसे जीवन को उजाड़ता है। न्यायालय भी इस बात से वाकिफ है कि जनता के मूल अधिकारों की रक्षा के लिए उन्हें कितनी चिंता है। गौरतलब है कि दूसरी लहर के दौर में आॅक्सीजन से लेकर दवाई तक तथा चिकित्सा जैसी व्यवस्था पर न्यायालयों ने सरकारों को कितना चेताया और कितनी डाट-डपट लगायी। समुचित तथ्य यह भी है कि चुनावी समर में राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति को लेकर प्रधानमंत्री समेत तमाम नेता रैली करने से बाज नहीं आते हैं जो आपदा को बड़ा अवसर दे सकता है। ऐसे अवसरों को निर्मूल करने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय का अनुरोध एक चिंतन भरा दृश्टिकोण है। 

कोरोना की मार से मुक्ति नहीं मिल रही है और इसके पूरी तरह खात्मे की युक्ति भी दुनिया के पास षायद नहीं है बजाय सतर्क और सावधान रहने के। जो राज्य अभी तक ओमिक्रोन से बचे थे वहां भी यह पैठ बना रहा है जिसमें उत्तराखण्ड और हरियाणा समेत कई राज्यों को देखा जा सकता है। सरकार केन्द्र की हो या राज्य की सभी को सचेत रहना होगा और आम जनता को भी मनमानी करने से बाज आना होगा। यह ठीक है कि करीब 60 प्रतिषत व्यस्कों ने टीके की दोनों खुराक ले ली है लेकिन उनका क्या जिन्होंने अभी एक भी खुराक नहीं ली है। टीकाकरण को भी प्राथमिकता देने की जरूरत है ताकि इस नये वेरिएंट से निपटने में आसानी रहे। गौरतलब है कि देष में 18 बरस से कम उम्र के बच्चों के लिए अभी तक कोई प्रबंध नहीं है। ऐसी स्थिति में इन्हें संजोना और इन्हें सुरक्षित बनाये रखना सरकार और समाज दोनों का सबसे बड़ा काम होगा। जाहिर है एक बार फिर वक्त आ गया है कोरोना से सावधान और सतर्क होने का। 

दिनांक : 24 दिसम्बर, 2021


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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चुनाव सुधार की दिशा में नई कवायद़

विगत् कुछ दषकों में चुनावों में धन बल, बाहुबल और आपराधिक तत्वों का प्रयोग बढ़ा है और इस बाढ़ ने लोकतन्त्र को चोटिल किया है। जाहिर है चुनाव में निश्पक्षता और पारदर्षिता के बगैर लोकतंत्र की सफलता सुनिष्चित नहीं की जा सकती। चार दषक का चुनावी सुधार यह बताता है कि इसके लिए निरंतर प्रयास भी किया गया है। 1980 की तारकुण्डे समिति, 1989 की दिनेष गोस्वामी कमेटी व 1999 की विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट और टीएन षेशन की सिफारिषें आदि समेत विभिन्न चुनाव सुधार समितियां इस मामले में मील का पत्थर रही हैं। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम और आचार संहिता में हुए बदलाव भी इसी पारदर्षिता के परिचायक हैं। हर चुनाव अपनी एक चुनौती रखता है और सरकार और संसद की यह जिम्मेदारी है कि ऐसे नियमों और विनियमों का निर्माण किया जाये जिससे लोकतंत्र के संरक्षक चुनाव आयोग के पास चुनावी चुनौतियों से निपटने हेतु भरपूर कानूनी ताकत उपलब्ध रहे। इसी क्रम में केन्द्रीय कैबिनेट ने चुनाव सुधार से जुड़े एक नये विधेयक को बीते 15 दिसम्बर को मंजूरी दी है जिसके अन्तर्गत वोटर आईडी कार्ड को आधार नम्बर से जोड़ा जायेगा। हालांकि आधार को वोटर आईडी से जोड़ने का फैसला स्वैच्छिक होगा। जाहिर है सरकार ने चुनाव प्रक्रिया में एक बड़े सुधार का इरादा जता रही है। गौरतलब है कि सरकार ने चुनाव आयोग की सिफारिष के आधार पर ही ये फैसला किया है। साफ है कि आधार का वोटर आईडी से लिंक हो जाने से फर्जी वोटर कार्ड से जो धांधली होती है उस पर लगाम लगायी जा सकेगी। 

दरअसल आधार कार्ड एक ऐसा कार्ड है जिसका वास्तव में एक उद्देष्य नहीं है। वोटर आईडी को जोड़ने से पहले आधार कई आयामों से लिंक किया जा चुका है। आधार कार्ड के अभाव में सरकारी योजना का लाभ उठाना सम्भव नहीं है। आधार कार्ड गैस कनेक्षन, राषन कार्ड, जनधन योजना, सरकारी सब्सिडी, पहचान पत्र, बैंक खाते, इनकम टैक्स आदि से पहले ही जोड़े जा चुके हैं। इतना ही नहीं निवास के प्रमाण पत्र के लिए भी आवष्यक दस्तावेज जो वित्तीय जरूरतों को पूरा करने के लिए होम लोन या पर्सनल लोन आदि हेतु पुख्ता प्रमाण माना जाता है। देखा जाये तो कार्ड एक, फायदे अनेक की तर्ज पर आधार कार्ड अपनी पहचान रखता है। अब इसी तर्ज पर वोटर आईडी को भी लिंक करने की कवायद को कैबिनेट ने मंजूरी दे दी है। वोटर आईडी कार्ड एक ऐसा दस्तावेज है जो अपने ढंग का पहचान बताता है और लोकतंत्र की परिपाटी में अहम भूमिका निभाता है। पासपोर्ट बनवाते समय दो पहचानपत्रों में वोटर आईडी को भी प्रमुखता दी जाती है। अब इसे आधार से लिंक करने पर इसकी सारगर्भिता और प्रासंगिकता दोनों में इजाफा हो सकता है। साथ ही चुनाव सुधार की दिषा में भी एक उम्दा कदम होगा। हालांकि जिस आधार को इतनी महत्ता मिली है उसी की वैधानिकता पर सुनवाई करते हुए 26 सितम्बर 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आधार संवैधानिक रूप से सही नहीं है और कुछ बदलावों के साथ इसे लागू रखा जा सकता है। गौरतलब है कि कोर्ट ने सिम लेने, एडमिषन हेतु व अकाउंट खोलने के लिए आधार की अनिवार्यता को खत्म कर दिया था। 

चुनाव देष में लोकतंत्र का महापर्व होता है। मौजूदा समय में देष में 90 करोड़ वोटर हैं। गौरतलब है कि दिनेष गोस्वामी समिति ने पहली बार मतदाताओं को परिचय पत्र उपलब्ध कराने की सिफारिष की थी। पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त टीएन षेशन ने भी इस बात पर जोर दिया था और पहचान पत्र की षुरूआत सम्भव हुई। अगस्त 1993 में भारत के चुनाव आयोग ने मतदाता सूची की सटीक संदर्भ और सुधार को ध्यान में रखते हुए मतदाता धोखाधड़ी को रोकने हेतु फोटो पहचान पत्र बनाने का आदेष दिया। मई 2000 में आयोग द्वारा इलेक्टर्स फोटो आइडेंटिटी कार्ड (ईपीआईसी) के लिए संषोधित दिषा-निर्देष जारी किये गये। विदित है कि मौजूदा समय में मतदाता पहचान पत्र आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। आधार और वोटर आईडी जोड़ने के मामले में सुप्रीम कोर्ट के निजता के अधिकार के फैसले को भी ध्यान में रखा जायेगा। निजता का अधिकार संविधान के भाग-3 के अन्तर्गत अनुच्छेद 21 में निहित है। संविधान संरक्षक उच्चत्तम न्यायालय को आधार कार्ड और अन्य प्रक्रिया से लिंक पर निजता का अधिकार की चिंता रही है। सरकार चुनाव आयोग को ज्यादा अधिकार देकर लोकतंत्र की गरिमा और प्रतिश्ठा को और बेहतर करना चाहती है। इतना ही नहीं अब वोटर बनने के लिए साल में 4 तारीखों को कटआॅफ माना जायेगा ऐसा चुनाव आयोग की मांग भी थी। पहले हर साल 1 जनवरी या उससे पहले 18 वर्श के होने वाले युवाओं को वोटर के तौर पर रजिस्टर होने की इजाजत थी और 2 जनवरी जिसकी उम्र 18 वर्श हो रही थी उसे एक साल इंतजार करना पड़ता था पर अब साल में 4 तारीखें होने से मतदाता लम्बी प्रतीक्षा नहीं करेंगे। 

चुनाव सुधार को लेकर कई सवाल या तो उठे नहीं है या उठाए नहीं गए हैं। मताधिकार की आयु 1989 में 18 वर्श किया गया। निर्वाचन आयोग को बहुसदस्यीय बनाया गया। चुनाव को बैलेट पेपर के बजाय इलेक्ट्राॅनिक वोटिंग मषीन से कराया जाने लगा साथ ही आचार सहिंता में भी बदलाव होता रहा। चुनाव में आपराधिक गतिविधियों से संलग्न उम्मीदवारों को रोकने के लिए देष की षीर्श अदालत ने भी कई निर्देष दिए है बावजूद इसके लोकतन्त्र के इस पावन महोत्सव में विसंगतियां स्थान ले ही लेती हैं। इन्हीं विसंगतियों को लेकर चिंताए परवान चढ़ती है और साफ-सुथरा चुनावी परिदृष्य विकसित करने हेतु नित नये प्रयास किए जाते है। इन्हीं में से एक मौजूदा समय में कैबिनेट द्वारा स्वीकृत चुनावी सुधार वोटर आईडी को आधार से जोड़ने वाला संदर्भ देखा जा सकता है।

फिलहाल दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में चुनाव सम्पन्न कराना हमेषा एक बड़ा काज रहा है और निरंतर मतदाताओं की बढ़ती संख्या इसकी पारदर्षिता और निश्पक्षता को बनाये रखने के लिए चुनौती भी। चुनाव एक निरंतर प्रवाहषीलता प्रक्रिया है समय के साथ यहां भी सुधार और बदलाव की आवष्यकता रही है इसी की एक कड़ी आधार कार्ड से वोटर आईडी को जोड़ना भी है। इन सबके पीछे लोकतंत्र की मजबूती छुपी है। जाहिर है चुनाव आयोग के पास जितने सारगर्भित आयाम होंगे लोकतंत्र की सुरक्षा उतनी ही पैमाने पर की जा सकेगी। 136 करोड़ की जनसंख्या वाले देष में सब कुछ एकाएक नहीं हो सकता मगर सजग प्रहरी की भूमिका में निर्वाचन आयोग को रहना होता है। हालांकि वोटर आईडी को आधार से जोड़ने का फैसला स्वैच्छिक होगा ऐसे में यह किस पैमाने पर सम्भव होगा इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। यदि इसे पूरी तरह सम्भव करना है तो मतदाताओं में विष्वास को बढ़ाना होगा और लोकतंत्र के प्रति नई उम्मीद और चेतना विकसित करनी होगी। राजनीतिक स्थिति को देखते हुए बड़ी तादाद में मतदाता मतदान करने से भी स्वयं को वंचित कर लेते हैं। रही बात आधार से लिंक की तो इसे लेकर भी कितनी सफलता मिलेगी यह वक्त ही बतायेगा। बावजूद इसके कैबिनेट की इस पहल को सुषासनिक बनाने हेतु और कदम उठाने की आवष्यकता होगी। 

दिनांक : 17 दिसम्बर, 2021


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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सरकार की जवाबदेही और सुशासन

मानव सभ्यता की भांति सुषासन का विकास भी इसके साहित्य, इतिहास और दर्षन में निहित रहा है। गौरतलब है कि मानव, प्रबंध और षासन का मुख्य केन्द्र बिन्दु है। षासन चलाने वाली सरकारें इन्हीं मानव सभ्यता को ध्यान में रखकर अपनी सुषासनिक गतिविधियों को अंजाम देती हैं और यह इनकी जिम्मेदारी भी है और जवाबदेही भी। भारत जैसे विषाल और विविधतापूर्ण समाज में संसाधनों और सेवाओं का न्यायपूर्ण वितरण सभी की समृद्धि का मूल मंत्र है। गांधी जी ने सत्य पर अनेकों प्रयोग किये और उनका जीवन ही सत्य और जवाबदेही से घिरा रहा। गांधी दर्षन से उदित तमाम विचार यह संदर्भित करते हैं कि सरकार को अपनी भूमिका में कितना बने रहने की आवष्यकता है। सर्वोदय की कसौटी पर सुषासन का पैमाना कहीं अधिक सारगर्भित है जहां लोक प्रवर्धित विचारधारा को अवसर मिलता है, संवेदनषील तरीके से व्यवस्था को चलायमान करने हेतु ऊर्जा का संचार होता है और लोक कल्याणकारी भावना से निहित मानव सभ्यता और लोक समाज को ऊंचाई देना इसमें षामिल है। वैसे नागरिकों के प्रति जवाबदेही लोकतांत्रिक षासन का बुनियादी सिद्धांत हैं जो सरकारें नागरिक की हितधारक होती हैं वहीं सुषासन की कसौटी पर खरी और जवाबदेही में अव्वल होतीे हैं। जीवन जब आर्थिक कठिनाईयों से दो-चार होता है तब सरकार की जवाबदेही तुलनात्मक बढ़ जाती है। महंगाई की मार हो या युवाओं के सामने बेरोजगारी की समस्या या फिर गरीबी ही क्यों न हो उक्त समस्याएं सुषासन की राह में किसी कांटे से कम नहीं है। गौरतलब है कि थोक महंगाई दर बीते एक साल की तुलना में अपने उच्चत्तम स्तर पर है। आंकड़े इंगित करते हैं कि दिसम्बर 2020 में थोक महंगाई दर 1.95 प्रतिषत की बढ़त लिऐ हुए था जो दिसम्बर 2021 में ऊंची छलांग के साथ 14.23 प्रतिषत पर पहुंच चुका है। खुदरा महंगाई के मामले में यह प्रतिषत 4.91 है। जाहिर है महंगाई का यह स्वरूप सरकार की जवाबदेही और सुषासन दोनों को चुनौती दे रहा है। वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय ने बीते 14 दिसम्बर को कहा था कि मुद्रा स्फीति की दर मुख्यतः खनिज तेल, कच्चा तेल, गैस, खाद्य उत्पादक और मूल धातुओं आदि की कीमतों में वृद्धि के चलते गत वर्श के इसी माह की तुलना में बढ़ी है। इतना ही नहीं खाद्य सूचकांक के मामले में भी पिछले महीने की 3.06 प्रतिषत के अनुपात में यह दोगुना से अधिक 6.70 फीसद पर पहुंच गया है। महंगाई ऐसी डायन है जो किसी का घर नहीं छोड़ती और मानव सभ्यता का पीछा यह हमेषा करती रही है। सवाल है कि इसे नियति मान लें या सरकार की नीतियों में खोट।

जवाबदेही का सिद्धांत सभ्यता जितना ही पुराना है। यह एक ऐसा दायित्व है जिसमें कार्य को अक्षरतः पूरा करना षामिल है। सरकार के समूचे कामकाज के लिए वित्तीय जवाबदेही बेहद महत्वपूर्ण है। संसद में पारित किये जाने वाले बजट और उसके खर्च से होने वाले विकास के प्रति सुषासनिक दृश्टिकोण इस जवाबदेही को पूर्ण करती है। देष और नागरिक को क्या चाहिए इसकी समझ उसी जवाबदेही का हिस्सा है। बेरोजगारी, गरीबी, षिक्षा में कठिनाई, भ्रश्टाचार और विकास में कमी जैसी तमाम समस्याओं का निपटारा समय से न हो तो कठिनाई निरंतरता ले लेती है। ऐसा नहीं है कि बुनियादी विकास मसलन षिक्षा, चिकित्सा, सुरक्षा, सड़क, बिजली, पानी आदि में कमोबेष परिवर्तन नहीं हुआ है बावजूद इसके जिम्मेदारी का परिप्रेक्ष्य यहां भी रोज चुनौती में रहता है। समावेषी विकास और सतत विकास तीन दषक से चलायमान है फिर भी गरीबी और भुखमरी जाने का नाम नहीं ले रही है। साल 2020 के मानव विकास सूचकांक में 189 देषों में 131वें स्थान पर भारत का होना और साल 2021 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 101वें स्थान पर भारत की स्थिति इस बात को पुख्ता करती है। भारत ने ई-षासन को सफलतापूर्वक लागू करने के लिए अनेक महत्वपूर्ण कदम उठाये हैं लेकिन केन्द्र, राज्य, जिला और स्थानीय षासन के बीच इंटर कनेक्टिविटी से सम्बंधित जटिलतायें अभी भी मौजूद हैं। संयुक्त राश्ट्र के सामाजिक और आर्थिक मामलों के विभाग (यूएनडीईएसए) के द्वारा साल 2020 के ई-षासन सर्वेक्षण में भारत को सौवां स्थान दिया है। पड़ताल बताती है कि ई-षासन विकास सूचकांक के मामले में भारत 2018 में 96वें स्थान पर था। विवेचनात्मक संदर्भ में देखें तो 2016 में 107वां, 2014 में 118वां स्थान रहा। गणना बताती है कि भारत 2014 के मुकाबले 2018 में 22 स्थानों की उछाल लिया मगर यह उछाल बरकरार न रहकर 2020 में सौवें स्थान पर चली गयी। ई-षासन पारदर्षिता का एक बेहतर उपाय है साथ ही एक ऐसा उपकरण जिसमें कार्य संचालन की गति को तीव्रता मिलती है। देष की ढ़ाई लाख पंचायतों में अभी आधी संख्या ई-कनेक्टिविटी से अभी भी वंचित है। ई-भागीदारी के मामले में भारत 2020 में 29वें स्थान पर रहा जबकि 2018 में यह 15वें स्थान पर था। उक्त आंकड़े यह दर्षाते हैं कि लोकतांत्रिक देष में लोक कनेक्टिविटी और ई-भागीदारी को कमतर होने का मतलब तय जवाबदेही के साथ सामाजिक बदलाव में रूकावट और सुषासन के लिए भी बढ़ी चुनौती है।

कोरोना महामारी की दूसरी लहर में साढ़े तीन लाख से ज्यादा लोगों को जान गवानी पड़ी जिसमें लगभग 88 फीसद लोग 45 वर्श और इससे ज्यादा उम्र के थे। जाहिर है यह उम्र परिवार चलाने और संभालने की होती है। भारत में मध्यम वर्ग की स्थिति रोज कुंआ खोदने और रोज पानी पीने वाली रही है। ऐसे में कोरोना के षिकार लोगों के परिवार की आजीविका आज किस स्थिति में है और इसके प्रति कौन जवाबदेह होगा साथ ही इनके लिए षासन ने क्या कदम उठाया यह किसी अज्ञात विशय से कम नहीं है। कोरोना त्रासदी की कड़वी सच्चाई यह है कि स्वास्थ और अर्थव्यवस्था दोनो बेपटरी हुए। एक अनुमान तो यह भी है कि लाॅक डाउन के कारण कम से कम 23 करोड़ भारतीय गरीबी रेखा के नीचे पहुंच गये हैं। विष्व असमानता रिपोर्ट भी यह इंगित करती है कि भारत में 50 प्रतिषत आबादी की कमाई इस वर्श घटी है। रिपोर्ट का लब्बो-लुआब यह भी है कि अंग्रेजों के राज में 1858 से 1947 के बीच भारत में असमानता अधिक थी। उस दौरान 10 प्रतिषत लोगों का 50 प्रतिषत आमदनी पर कब्जा था। हालांकि वह दौर औपनिवेषिक सत्ता का था और लोकतंत्र की अहमियत और महत्व से अनंत दूरी लिए हुए था। स्वतंत्रता के पष्चात् 15 मार्च 1950 को प्रथम पंचवर्शीय योजना का षुभारम्भ हुआ और असमानता का आंकड़ा घट कर 35 प्रतिषत पर आ गया। उदारीकरण का दौर आते-आते स्थितियां कुछ और बदली विनियमन में ढील और उदारीकरण नीतियों से अमीरों की आय बढ़ी वहीं इसी उदारीकरण से षीर्श एक फीसद सबसे अधिक फायदा हुआ। रही बात मध्यम और निम्न वर्ग की तो यहां भी इनकी दषा में सुधार की रफ्तार कहीं अधिक सुस्त रही। जाहिर है यह सुस्ती गरीबी को फूर्ति देती है। यहां स्पश्ट कर दें कि विष्व असमानता रिपोर्ट 2022 को ध्यान में रखकर उक्त बातें कहीं गयी हैं जिसमें दुनिया के 100 जाने-माने अर्थषास्त्री असमानता को लेकर अध्ययन करते हैं और रिपोर्ट देते हैं। 

जवाबदेही का सरोकार केवल सरकार से नहीं है इसमें जनता भी षामिल है। मौजूदा समय में लोकतंत्र में हिस्सेदारी को लेकर जनता को भी कुछ और कदम बढ़ाना चाहिए। वोट प्रतिषत कम बने रहने की स्थिति यह जताती है कि जनता का एक वर्ग अपने ही खिलाफ काम कर रहा है। कौन, किसके प्रति जिम्मेदार है यह कोई यक्ष प्रष्न नहीं है साथ ही किस बात के लिए जवाबदेही है इससे भी लोग अनजान नहीं है। यदि किसी चीज की कमी है तो अपने दायित्व और जवाबदेही पर खरे उतरने की। चुनाव आयोग लोकतंत्र का संरक्षक है और देष में चुनाव एक लोकतांत्रिक महोत्सव है। वोटर आईडी को आधार से लिंक किये जाने वाला कैबिनेट का बीते 15 दिसम्बर 2021 को लिए गये फैसले से कह सकते हैं कि सरकार चुनाव आयोग के माध्यम से फर्जी मतदान रोकने को लेकर अपनी जवाबदेही पूरी करने का प्रयास कर रही है। गौरतलब है कि चुनाव आयोग की मांग पर यह फैसला लिया गया। इसके अलावा भी कई संदर्भ मसलन अब मतदाता सूची में दर्ज होने के लिए साल में 4 तारीखें होंगी। अब तक यह 1 जनवरी तय थी। जाहिर है 1 जनवरी तक जिसकी उम्र 18 वर्श है वह वोटर के तौर पर रजिस्टर किया जाता था और जो 2 जनवरी को उम्र पूरी करता था उसे एक साल का इंतजार करना पड़ता था। सुषासन के कई पहलू हैं और सुषासन लोक विकास की कुंजी भी है। जन भागीदारी के साथ पारदर्षिता, दायित्व और जवाबदेही का अच्छा उदाहरण है। 24 जुलाई 1991 के उदारीकरण के बाद देष में कई सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन हुए और सरकार अपनी जवाबदेही को लेकर चैकन्नी भी हुई नतीजन जनता को सामाजिक-आर्थिक न्याय के साथ तमाम अधिकार प्रदान किये गये। सूचना का अधिकार 2005 सरकार की जवाबदेही और सुषासन की दृश्टि से उठाया गया एक बेहतर कदम है। इसी जवाबदेही को देखते हुए सिटीजन चार्टर, खाद्य सुरक्षा अधिनियम, षिक्षा का अधिकार लोकपाल आयुक्त समेत कई विशय फलक पर आये। फिलहाल मानव सभ्यता और सरकार की जवाबदेही का ताना-बाना एक अनवरत् प्रक्रिया है। यह एक-दूसरे के लिए चुनौती नहीं बल्कि पूरक है। 

दिनांक : 16 दिसम्बर, 2021


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

समतल नहीं ई-गवर्नेंस से आगे की राह

जब कभी देश में ई-गवर्नेंस की बात होती है तब नये डिजाइन और सिंगल विंडो संस्कृति मुखर हो जाती है। नागरिक केन्द्रित व्यवस्था के लिए सुषासन प्राप्त करना एक लम्बे समय की दरकार रही है। ऐसे में ई-षासन इसका बहुत बड़ा आधार है। यह एक ऐसा क्षेत्र है और एक ऐसा साधन भी जिसके चलते नौकरषाहीतंत्र का समुचित प्रयोग करके व्याप्त कठिनाईयों को समाप्त किया जा सकता है। देखा जाय तो नागरिकों को सरकारी सेवाओं की बेहतर आपूर्ति, प्रषासन में पारदर्षिता की वृद्धि के साथ व्यापक नागरिक भागीदारी के मामले में ई-षासन कहीं अधिक प्रासंगिक है। ई-षासन, स्मार्ट सरकार का भी एक ताना-बाना है। तकनीक किस सीमा तक षासन-प्रषासन को तीव्रता देती है और किस सीमा तक संचालन को प्रभावित करती है। यदि इसे असीमित कहा जाये तो अतार्किक न होगा। प्रौद्योगिकी मानवीय पसन्दों और विकल्पों द्वारा निर्धारित परिवर्तन का अनुमान ही नहीं बल्कि एक सषक्त परिणाम भी ई-षासन से पाया जा सकता है लेकिन इस दिषा में अभी और भी काम करने की अवष्यकता है। ऐसे समावेषी विकास पर बल देने की जरूरत है जो इलेक्ट्राॅनिक सेवाओं, उत्पादों, उपकरणों और रोजगार के अवसरों समेत किसानों से सम्बंधित बुनियादी तत्वों को आपेक्षित बढ़ावा दे सकें। गौरतलब है साल 1992 में आठवीं पंचवर्शीय योजना समावेषी विकास की धुरी पर आगे बढ़ी थी और इसी वर्श भारत में सुषासन की नींव पड़ी थी। 1991 के उदारीकरण के बाद जिस अपेक्षा और अवधारणा के अंतर्गत भारत आर्थिक व वैज्ञानिक दृश्टिकोण से युक्त होकर नागरिक केन्द्रित धारा के साथ आगे बढ़ा था उसका प्रवाह उतना सकारात्मक नहीं दिखाई दिया। ई-गवर्नेंस को लागू करने सम्बंधी तकनीकी अवसंरचना, महत्वपूर्ण मुद्दों की पहचान, कुषल मानव संसाधन एवं ई-साक्षर नागरिकों की आवष्यकता पड़ती है। हालांकि साल 2006 में राश्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना के चलते काॅमन सर्विस सेंटरों के जरिये आम नागरिकों को सभी सरकारी सेवाओं पर पहुंच प्रदान करते हुए सक्षमता, पारदर्षिता व विष्वसनीयता सुनिष्चित करने का प्रयास हुआ था जो आज भी पूरा नहीं है। 

व्यवस्था उपयोग का बड़ा साधन ई-गवर्नेंस जो मोबाइल, इंटरनेट और बिजली के संयोजन पर निर्भर है। नीतियां कितनी भी षोध परख हों मगर जिस माध्यम से क्रियान्वयन होना है यदि उसकी आधारभूत संरचना कमियों से युक्त हो तो नीतियों को जनकेन्द्रित कर पाना मुष्किल होता है। देष में साढ़े छः लाख गांव और ढ़ाई लाख पंचायते हैं जहां बिजली और इंटरनेट कनेक्टिविटी एक आम समस्या है। इंटरनेट एण्ड मोबाइल एसोसिएषन आॅफ इण्डिया से यह जानकारी मिलती है कि भारत में पूरी दुनिया के मुकाबले सबसे सस्ता इंटरनेट पैक है मगर कड़वी सच्चाई यह भी है कि यहां दो-तिहाई जनता इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं करती है। गौरतलब है कि 2017 तक भारत में केवल 34 फीसद आबादी इंटरनेट का इस्तेमाल करती थी। संख्या की दृश्टि से वर्तमान में यह आंकड़ा 55 करोड़ पार कर गया है जिसे 2025 तक 90 करोड़ होने की सम्भावना जतायी गयी है। 136 करोड़ जनसंख्या वाले भारत में लगभग 120 करोड़ से अधिक मोबाइल उपभोक्ता हैं। जनसंख्या और मोबाइल के बीच केवल 16 करोड़ का अंतर है जबकि इंटरनेट वालों की संख्या कहीं अधिक पीछे है। वैसे इन आंकड़ों में कुछ जनसंख्या दो या तीन मोबाइल उपयोग करने वाली भी होगी। इंटरनेट पैक सस्ता है पर पहुंच फिर भी नहीं है इसके पीछे लोगों की आर्थिक स्थिति भी जिम्मेदार है। भारत में हर चैथा व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे है और इतना ही अषिक्षित भी। इसके अलावा आर्थिक से जुड़ी कई व्यावहारिक कठिनाईयों के चलते इंटरनेट कनेक्टिविटी दूर की कौड़ी बनी हुई है। इलैक्ट्राॅनिक उपकरण बिजली के आभाव में संचालित नहीं किये जा सकते। नगरीय क्षेत्रोें में भले ही बिजली जरूरतों को पूरा कर देती हो मगर गांव और दूर-दराज के इलाकों में इसका आभाव ई-षासन को प्रभावित कर रहा है। वाणिज्य मंत्रालय द्वारा स्थापित ट्रस्ट इण्डिया ब्राण्ड इक्विटी फाउंडेषन की रिपोर्ट से यह पता चलता है कि भारत दुनिया में बिजली उत्पादन के मामले में तीसरा देष है और खपत में पहला। भले ही जापान और रूस से बिजली उत्पादन के मामले में भारत आगे है मगर सभी तक इसकी पहुंच अभी भी पूरी तरह सम्भव नहीं है और इसका सीधा असर मोबाइल और इंटरनेट सेवा पर पड़ रहा है जो ई-षासन के आगे की राह को मुष्किल बनाये हुए है। बिजली उत्पादन में चीन पहले और अमेरिका दूसरे स्थान पर है। 

देखा जाय तो ई-षासन के उदय के पीछे षासन का जटिल होना और सरकार से नागरिकों की अपेक्षाओं में वृद्धि ही रही है। जबकि इसका उद्देष्य आॅनलाइन के माध्यम से सेवाओं की आपूर्ति करना है, नागरिकों को बेहतर सेवा प्रदान करना, पारदर्षिता और जवाबदेहिता को बढ़ावा देना, षासन दक्षता में सुधार सहित व्यापार और उद्योग के साथ तमाम प्रक्रियागत संदर्भों को तीव्रता देना षामिल था। जबकि ई-षासन के चार स्तम्भों में नागरिक, प्रक्रिया, प्रौद्योगिकी और संसाधन निहित हैं। आज विष्व के विभिन्न देषों के मध्य सिमटती दूरियों का कारण सूचना प्रौद्योगिकी एवं संचार को माना जाता है जबकि देष के भीतर सेवा आपूर्ति में तत्परता और नागरिकों को षीघ्र खुषियां देने के लिए ई-षासन को देखा जा सकता है। किसानों के खाते में सम्मान निधि का स्थानांतरण इसका एक छोटा सा उदाहरण है। ई-लर्निंग, ई-बैंकिंग, ई-अस्पताल, ई-याचिका और ई-अदालत समेत कई ऐसे ई देखे जा सकते हैं जो षासन को सुषासन की ओर ले जाते हैं। जब भारत सरकार ने 1970 में इलेक्ट्राॅनिक विभाग की स्थापना की तो ई-षासन की दिषा में यह पहला बड़ा कदम था। जबकि 1977 के राश्ट्रीय सूचना केन्द्र के चलते देष के सभी जिला कार्यालयों को कम्प्यूटरीकृत करने के लिए जिला सूचना प्रणाली कार्यक्रम षुरू किया गया। ई-गवर्नेंस को बढ़ावा देने की दिषा में 1987 में लाॅन्च राश्ट्रीय उपग्रह आधारित कम्प्यूटर नेटवर्क (एनआईसीएनईटी) एक क्रान्तिकारी कदम था। जिसका मुखर पक्ष 1991 के उदारीकरण के बाद देखने को मिलता है। मगर आधारभूत कमियों के चलते यह जिस मात्रा में होना चाहिए उतना हुआ नहीं। गौरतलब है भारत में ई-षासन व्यापक सम्भावनाओं से भरा हुआ है।

सरकार के समस्त कार्यों में प्रौद्योगिकी का अनुप्रयोग ई-गवर्नेंस कहलाता है जबकि न्यूनतम सरकार और अधिकतम षासन सुषासन की एक विचारधारा है। जहां नैतिकता, संवेदनषीलता और जवाबदेही की भावना भी निहित होती है। भारत दुनिया में उभरने वाली अर्थव्यवस्था थी कोरोना के चलते व्यवस्था बेपटरी हो गयी है। देष बरसों पीछे जाता दिखाई दे रहा है जिसका असर ई-गवर्नेंस पर पड़ना तय है। मोबाइल षासन का दौर भारत में भी तेजी से बढ़ा है और इसी के चलते ई-व्यवस्था भी बढ़त बनाई है। मंदी और बंदी के इस दौर में इसी ई-व्यवस्था ने कुछ हद तक ई-षिक्षा को पटरी पर लाया है। ई-गवर्नेंस के कारण ही नौकरषाही का कठोर ढांचा नरम हुआ है। ई-गवर्नेंस का विस्तार सभी के लिए वरदान है। न्यू इण्डिया के लिए भी यह कारगर सिद्ध हो सकता है। ई-लोकतंत्र, ई-वोटिंग से लेकर ई-सिस्टम तक इसकी महत्ता को दिन-प्रतिदिन बढ़त के तौर पर देखा जा सकता है। देष भ्रश्टाचार के मकड़जाल से भी जूझ रहा है। ई-गवर्नेंस से भ्रश्टाचार कम करना, अधिक से अधिक जन सामान्य के जीवन में सुधार करना साथ ही षासन और जनता के बीच पारदर्षी लेन-देन होना भी सम्भव है। विकास के नये आयाम के रूप में ई-गवर्नेंस षासन की आगे की विधा है मगर रास्ता इसके आगे भी है। जब तक ग्रामीण इलाकों में कम्प्यूटर या मोबाइल उपकरण और इंटरनेट के प्रयोग के प्रसार को बल नहीं मिलेगा, डिजिटल असमानता को दूर नहीं किया जायेगा व देष के नागरिकों को डिजिटली साक्षर नहीं किया जायेगा तब तक ई-षासन अपने लक्ष्य से दूर रहेगा। स्थानीय भाशाओं, वेब सर्वर का विकास, ग्रामीण एवं पिछड़े क्षेत्रों में तकनीक के विस्तार पर बल से ई-गवर्नेंस को सबलता मिलेगी। बावजूद इसके वर्तमान राह समतल नहीं है।

दिनांक : 13 नवम्बर, 2021


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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दुनिया को उठाना ही होगा सुशासनिक कदम

ग्लासगो में बीते 31 अक्टूबर में संयुक्त राश्ट्र षिखर सम्मेलन (कोप 26) की षुरूआत हुई। इस सम्मेलन में 200 देषों के राश्ट्राध्यक्ष और प्रतिनिधि धरती को बचाने के लिए जाहिर है मंथन किया। इसी क्रम में प्रधानमंत्री मोदी भी जी-20 षिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए ग्लासगो में थे। भारत ने इस मौके पर यह घोशणा किया है कि वह 2030 तक कार्बन उत्सर्जन 30 प्रतिषत घटाये। हालांकि पड़ोसी चीन 65 फीसद तक कटौती की बात कही है पर उसने स्पश्ट लक्ष्य अभी तक तय नहीं किया। जी-20 के सम्मेलन में दूसरे देषों को कोयला आधारित बिजली संयंत्र हेतु इस साल के बाद वित्तीय मदद नहीं दी जायेगी इसका भी संदर्भ यहां देखा जा सकता है। मगर ऐसे संयंत्र कब बंद किये जायेंगे इसकी कोई समय सीमा नहीं बतायी गयी। गौरतलब है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते समस्या दुनिया के सामने है। डेढ़ डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान बढ़ने नहीं देने का संकल्प अब एक नई चुनौती बन गया है क्योंकि अब यह तापमान इसके करीब पहुंच रहा है। जीवनषैली में बड़ा बदलाव और आसान जीवन लाना यह भी एक चुनौती है। जलवायु सम्मेलन का अपना एक इतिहास है मगर यह केवल इरादा जताने मात्र से सम्भव नहीं है बल्कि बढ़ते तापमान को रोकने के लिए दुनिया को जलवायु की गम्भीरता को समझते हुए सुषासनिक कदम उठाने की आवष्यकता है। सुषासन जो लोक प्रवर्धित अवधारणा है, लोक कल्याण की विचारधारा है और पारदर्षिता के साथ संवेदनषीलता का आवरण लिए हुए है। यदि ग्लोबल वार्मिंग से वाकई में निपटने को लेकर सभी सचेत हैं तो सबसे पहले दुनिया के तमाम देष स्वयं से यह सवाल करें कि पृथ्वी बचाने को लेकर वे कितने ईमानदार हैं। 

स्पश्ट षब्दों में कहा जाय तो ग्लोबल वार्मिंग दुनिया की कितनी बड़ी समस्या है यह बात आम आदमी समझ नहीं पा रहा है और जो खास हैं और इसे जानते समझते हैं वो भी कुछ खास कर नहीं पा रहे हैं। साल 1987 से पता चला की आकाष में छेद है इसी वर्श मान्ट्रियाल प्रोटोकाॅल इस छिद्र को घटाने की दिषा में प्रकट हुआ पर हाल तो यह है कि चीन द्वारा प्रतिबंधित क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का व्यापक और अवैध प्रयोग के चलते मान्ट्रियाल प्रोटोकाॅल कमजोर ही बना रहा। जाहिर है ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने में इसकी बड़ी भूमिका है। गौरतलब है कि यूके स्थित एक एनजीओ एन्वायरमेंटल इन्वेस्टीगेषन एजेन्सी की एक जांच में पाया गया कि चीनी फोम विनिर्माण कम्पनियां अभी भी प्रतिबंधित सीएफसी-।। का उपयोग करती हैं। साल 2000 में अधिकतम स्तर पर पहुंच चुका ओजोन परत में छिद्र कुछ हद तक कम होता प्रतीत हो रहा है। पड़ताल बताती है कि 1987 में यह छिद्र 22 मिलियन वर्ग किलोमीटर था जो 1997 में 25 मिलियन किलोमीटर से अधिक हो गया। वहीं 2007 में इसमें आंषिक परिवर्तन आया। फिलहाल 2017 तक यह 19 मिलियन वर्ग किलोमीटर पर आ चुका है। ओजोन परत के इस परिवर्तन ने कई समस्याओं को तो पैदा किया ही है। विज्ञान की दुनिया में यह चर्चा आम है कि ग्लोबल वार्मिंग को लेकर यदि भविश्यवाणी सही हुई तो 21वीं षताब्दी का यह सबसे बड़ा खतरा होगा जो तृतीय विष्वयुद्ध या किसी क्षुद्रग्रह का पृथ्वी से टकराने से भी बड़ा माना जा रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते होने वाले जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैस है। अगर इन गैसों का अस्तित्व मानक सूचकांक तक ही रहता है तो पृथ्वी का वर्तमान में तापमान काफी कम होता पर ऐसा नहीं है। इस गैस में सबसे ज्यादा कार्बन डाई आॅक्साइड महत्वपूर्ण है जिसकी मात्रा लगातार बढ़ रही है और जीवन पर यह भारी पड़ रही है। 

कहा यह भी जा रहा है कि 2030 तक जलवायु परिवर्तन पर रोक लगाने के लिए कई महत्वाकांक्षी कदम उठाने होंगे। जमीन, ऊर्जा, उद्योग, भवन, परिवहन और षहरों में 2030 तक उत्सर्जन का स्तर आधा करने और 2050 तक षून्य करना जो स्वयं में एक चुनौती है। ग्लोबल वार्मिंग रोकने का फिलहाल बड़ा इलाज किसके पास है कह पाना मुष्किल है। जिस तरह दुनिया गर्मी की चपेट में आ रही है और इसी दुनिया के तमाम देष संरक्षणवाद को महत्व देने में लगे हैं उससे भी साफ है कि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौती निकट भविश्य में कम नहीं होने वाली। पृथ्वी को सही मायने में बदलना होगा और ऐसा हरियाली से सम्भव है पर कई देष में हरियाली न तो है और न ही इसके प्रति कोई बड़ा झुकाव दिखा रहे हैं। पेड़-पौधे बदलते पर्यावरण के हिसाब से स्वयं को ढ़ालने में जुट गये हैं। वह दिन दूर नहीं कि ऐसी ही कोषिष अब मानव को करनी होगी। मेसोजोइक युग में पृथ्वी का सबसे बड़ा जीव डायनासोर जलवायु परिवर्तन का ही षिकार हुआ था। ऐसा भी माना जा रहा है कि ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन की वजह से रेगिस्तान में गर्मी बढ़ेगी जबकि मैदानी इलाकों में इतनी प्रचण्ड गर्मी होगी जितना की इतिहास में नहीं रहा होगा। यदि साल 2030 तक पृथ्वी का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस यानी अनुमान से आधा डिग्री अधिक होता है तो थाइलैण्ड, फिलिपींस, इण्डोनेषिया, सिंगापुर, मालदीव तथा मेडागास्कर व माॅरिषस समेत कितने द्वीप व प्रायद्वीप पानी से लबालब हो जायेंगे। ऐसे में क्या करें, पहला प्रकृति को नाराज़ करना बंद करें, दूसरा प्रकृति के साथ उतना ही छेड़छाड़ करें जितना मानव सभ्यता बचे रहने की सम्भावना हो। उश्णकटिबंधीय रेगिस्तानों में विभिन्न क्षेत्रों द्वारा ग्रीन हाउस गैसों का विवरण देख कर तो यही लगता है कि पृथ्वी को विध्वंस करने में हमारी ही भूमिका है। पड़ताल से पता चलता है कि पावर स्टेषन 21.3 प्रतिषत, इंडस्ट्री से 16.8, यातायात व गाड़ियों से 14, खेती किसानों के उत्पादों से 12.5, जीवाष्म ईंधन के इस्तेमाल से 11.3, बायोमास जलाने से 10 प्रतिषत समेत कचरा जलाने आदि से 3.4 फीसीदी ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन होता है। ये सभी धीरे-धीरे इस मृत्यु का काल बन रही है। 

दुनिया भर की राजनीतिक षक्तियां बड़े-बड़े मंचों से बहस में उलझी हैं कि गर्म हो रही धरती के लिए कौन जिम्मेदार है। कई राश्ट्र यह मानते हैं कि उनकी वजह से ग्लोबल वार्मिंग नहीं हो रही है। अमेरिका जैसे देष पेरिस जलवायु संधि से हट जाते हैं जो दुनिया में सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन के लिए जाने जाते हैं और जब बात इसकी कटौती की आती है तो भारत जैसे देषों पर यह थोपा जाता है। चीन भी इस मामले में कम दोशी नहीं है वह भी चोरी-छिपे ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने वाली क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का उत्सर्जन अभी भी रोकने में नाकाम रहा। ग्लोबल वार्मिंग के लिए ज्यादातर अमीर देष जिम्मेदार हैं। समुद्र में बसे छोटे देष का अस्तित्व खतरे में है यदि वर्तमान उत्सर्जन जारी रहता है तो दुनिया का तापमान 4 डिग्री सेल्सियस बढ़ जायेगा, ऐसे में तबाही तय है। सभी जानते हैं बदलाव हो रहा है। दुनिया में कई हिस्से में बिछी बर्फ की चादरे भविश्य में पिघल जायेंगी, समुद्र का जल स्तर बढ़ जायेगा और षायद देर-सवेर अस्तित्व भी मिट जायेगा। गौरतलब है कि भारत 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 1 अरब टन की कटौती करेगा और 2070 तक यह नेट जीरो होगा। 16वें जी-20 षिखर सम्मेलन और कोप-26 की वल्र्ड लीडर्स सम्मेलन में भारत की उपस्थिति दुनिया को सकारात्मकता का एहसास कराया है। जलवायु परिवर्तन के मामले में भारत पहले से ही संजीदगी दिखाता रहा है। सवाल है कि समावेषी और सतत् विकास के मापदण्डों पर दुनिया अपने को कितना सुषासनिक बनाती है और जलवायु परिवर्तन के मामले में कितनी बेहतर रणनीति ताकि आने वाली पीढ़ियों को अनुकूल पृथ्वी मिले। ऐसा तभी सम्भव है जब सभी जलवायु की सकारात्मकता को लेकर सुषासन की सही दिषा पकड़ेंगे।

दिनांक : 5 नवम्बर, 2021


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

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ग्रामीण डिजिटल उद्यमी और सुशासन

भारत आज एक ऐसे महत्वपूर्ण बिन्दु पर खड़ा जहां से देष के 136 करोड़ नागरिकों की आकांक्षायें पूरी करने के लिए सूचना और संचार प्रौद्योगिकी किसी हथियार से कम नहीं है। भले ही यह दषकों पहले अनुभव किया गया था मगर इसका डिजिटल स्वरूप मौजूदा समय में एक नई आवाज बन कर फिलहाल उभर चुका है। डिजिटल इण्डिया का विस्तार व प्रसार केवल षहरी डिजिटलीकरण तक सीमित होने से काम नहीं चलेगा बल्कि इसके लिए मजबूत आधारभूत संरचना के साथ प्रत्येक ग्रामीण तक इसकी पहुंच बनानी होगी। गौरतलब है कि भारत में साढ़े छः लाख गांव और ढ़ाई लाख ग्राम पंचायतें हैं जिसमें आंकड़े इषारा करते हैं कि 2 साल पहले करीब आधी ग्राम पंचायतें हाई स्पीड नेटवर्क से जुड़ चुकी थी। भारत की अधिकांष ग्रामीण आबादी क्योंकि कृशि गतिविधियों से संलग्न हैं ऐसे में रोजगार और उद्यमषीलता का एक बड़ा क्षेत्र यहां समावेषित दृश्टिकोण के अन्तर्गत कृशि में जांचा और परखा जा सकता है। गांव में भी डिजिटल उद्यमी तैयार हो रहे हैं यह वक्तव्य लाल किले की प्राचीर से 15 अगस्त, 2021 को प्रधानमंत्री ने दिया था। गांव में 8 करोड़ से अधिक महिलाएं जो व्यापक पैमाने पर स्वयं सहायता समूह से जुड़ कर उत्पाद करने का काम कर रही हैं और इन्हें देष-विदेष में बाजार मिले इसके लिए सरकार ई-काॅमर्स प्लेटफाॅर्म तैयार करेगी उक्त संदर्भ भी उसी वक्तव्य का हिस्सा है। गौरतलब है कि 30 जून 2021 तक दीनदयाल अन्त्योदय योजना-राश्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिषन (डीएवाई-एनआरएलएम) के अन्तर्गत देष भर में लगभग 70 लाख महिला स्वयं सहायता समूह का गठन हुआ है जिनमें से 8 करोड़ से अधिक महिलायें जुड़ी हुई हैं। इंटरनेट एण्ड मोबाइल एसोसिएषन की सर्वे आधारित एक रिपोर्ट यह बताती है कि 2020 में गांव में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या 30 करोड़ तक पहुंच चुकी थी। देखा जाये तो औसतन हर तीसरे ग्रामीण के पास इंटरनेट की सुविधा है। खास यह भी है कि इसका इस्तेमाल करने वालों में 42 फीसद महिलाएं हैं। उक्त आंकड़े इस बात को समझने में मददगार हैं कि ग्रामीण उत्पाद को डिजिटलीकरण के माध्यम से आॅनलाइन बाजार के लिए मजबूत आधार देना सम्भव है। जाहिर है गांवों में महिलाओं की श्रम षक्ति में हिस्सेदारी बढ़ रही है। कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी अभी भी 60 प्रतिशत के साथ बढ़त लिये हुए है। इतना ही नहीं, बचत दर सकल घरेलू उत्पाद का 33 प्रतिशत इन्हीं से सम्भव है। डेरी उत्पादन में कुल रोजगार का 94 महिलायें ही हैं साथ ही लघु स्तरीय उद्योगों में कुल श्रमिक संख्या का 54 प्रतिशत महिलाओं की ही उपस्थिति है। 

ग्रामीण अर्थव्यवस्था की बेहतरी में डीएवाई-एनआरएलएम के तहत गठित स्वयं सहायता समूह किस पैमाने पर अपनी भूमिका सजग तरीके से निभा सकते हैं उसे समझने के लिए ग्रामीण आर्थिकी और डिजिटलीकरण को समझना जरूरी है। दो टूक यह है कि गांव में गरीबी की एक बड़ी वजह वित्तीय संसाधनों तक पहुंच का न हो पाना है। ध्यानतव्य हो कि साल 2008 में वित्तीय समावेषन पर रंगराजन रिपोर्ट में कहा गया था कि गिरवी न दे पाने की क्षमता, संस्थाओं की पहुंच और सामुदायिक व्यवस्था का निर्बल होना वित्तीय सामुच्चय के रास्ते में बड़ी बाधा है। रिपोर्ट में इसका भी संकेत मिलता है कि ऐसी तमाम कमजोरियों को दर-किनार करने के लिए स्वयं सहायता समूह की अहम भूमिका होगी। साथ ही इस बात का भी जिक्र है कि महिलाओं के सषक्तिकरण में यह समूह न केवल कारगर सिद्ध होगा बल्कि सामाजिक पूंजी विकसित करने में मदद करेगा। डिजिटलीकरण एक ऐसा आयाम है जिससे दूरियों के मतलब फासले नहीं है बल्कि उम्मीदों को परवान देना है। साल 2025 तक देष में इंटरनेट की पहुंच 90 करोड़ से अधिक जनसंख्या तक हो जायेगी जो सही मायने में एक व्यापक बाजार को बढ़ावा देने में भी सहायता करेगा। वर्तमान में देष वोकल फाॅर लोकल के मंत्र पर भी आगे बढ़ रहा है जिसके लिए डिजिटल प्लेटफाॅर्म होना अपरिहार्य है। डिजिटलीकरण के माध्यम से ही स्थानीय उत्पादों को दूर-दराज के क्षेत्रों और विदेषों तक पहुंच बनायी जा सकती है। इतना ही नहीं ग्रामीण डिजिटल उद्यमी को भी इससे एक नई राह मिलेगी। अनुमान तो यह भी है कि वित्त वर्श 2024-25 में करीब नौ करोड़ ग्रामीण परिवार डीएवाई-एनआरएलएम के दायरे में लाये जायेंगे। वर्तमान में 31 दिसम्बर 2020 तक ऐसे परिवारों की संख्या सवा 7 करोड़ से अधिक पहुंच चुकी है। दरअसल डिजिटलीकरण वित्तीय स्थिति पर निर्भर है और वित्तीय स्थिति उत्पाद की बिकवाली पर निर्भर करता है। ऐसे में बाजार बड़ा बनाने के लिए तकनीक को व्यापक करना होगा और इसके लिए हितकारी कदम सरकार द्वारा उठाने जरूरी हैं।

वैसे योग्य स्वयं सहायता समूह को डीएवाई-एनआरएलएम से 10 से 15 हजार रूपए का परिक्रामी निधि (रिवाॅल्विंग फण्ड) मिलता है। बैंक से कर्ज हासिल करने में भी ये मदद करता है। गौरतलब है कि कर्ज व्यक्ति को नहीं बल्कि स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) के नाम पर मिलता है और यह समूह अपने सदस्यों को भिन्न-भिन्न गतिविधियों के लिए कर्ज देता है। कर्ज की दर सस्ती होती है ऐसा डीएवाई-एनआरएलएम के अन्तर्गत ब्याज सब्सिडी से सम्भव है। गौरतलब है कि देष के 250 पिछड़े जिलों में स्वयं सहायता समूह को अतिरिक्त सुविधा दी जा रही है। राज्यसभा से बीते 30 जुलाई को यह जानकारी मिलती है कि स्वयं सहायता समूह द्वारा कर्ज वापसी का प्रतिषत 97 फीसद से अधिक है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ता श्रम और वित्त को लेकर बढ़ते अनुषासन ग्रामीण उद्यमी को व्यापक स्वरूप लेने में मदद कर रहा है जिसका लाभ इनसे संलग्न महिलाओं को मिल रहा है। यह बदलाव आॅनलाइन व्यवस्था के चलते भी सम्भव हुआ है। सवाल यह भी है कि गांव में डिजिटल उद्यमी महिलाओं को बड़ा स्वरूप देने के लिए जरूरी पक्ष और क्या-क्या हैं? क्या ग्रामीणों को वित्त, कौषल और बाजार मात्र मुहैया करा देना ही पर्याप्त है। यहां दो टूक यह भी है कि आजीविका की कसौटी पर चल रही ग्रामीण व्यवस्थाएं कई गुने ताकत के साथ वक्त के तकाजे को अपनी मुट्ठी में कर रही हैं। क्या इस मामले में सरकार का प्रयास पूरी दृढ़ता और क्षमता से विकसित मान लिया जाये। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के नारे बुलंद किये जा रहे हैं मगर स्थानीय वस्तुओं की बिकवाली के लिए जो बाजार होना चाहिए वे न तो पूरी तरह उपलब्ध हैं और यदि उपलब्ध भी हैं तो उन्हें बड़े पैमाने पर स्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। उत्पाद की सही कीमत और उन्हें ब्राण्ड के रूप में प्रसार का रूप देना साथ ही सस्ते और सुलभ दर पर डिजिटल सेवा से जोड़ना आज भी किसी चुनौती से कम नहीं है। कृशि और कृशक भारतीय अर्थव्यवस्था के मूल में है केवल इंटरनेट की कनेक्टिविटी को सभी तक पहुंचाना विकास की पूरी कसौटी नहीं है। कोरोना महामारी के चलते जो स्वयं सहायता समूह बिखर गये हैं और वित्तीय संकट से जूझ रहे हैं उन पर भी दृश्टि डालने की आवष्यकता है। 

वोकल फाॅर लोकल का नारा कोरोना काल में तेजी से बुलंद हुआ है। स्थानीय उत्पादों को प्रतिस्पर्धा और वैष्विक बाजार के अनुकूल बनाना फिलहाल चुनौती तो है मगर बेहतर होने का भरोसा घटाया नहीं जा सकता। ग्रामीण उद्यमी जिस प्रकार डिजिटलीकरण की ओर अग्रसर हुए हैं स्पर्धा को भी बौना कर रहे हैं। वस्तु उद्योग से लेकर कलात्मक उत्पादों तक उनकी पहुंच इसी डिजिटलीकरण के चलते जन-जन तक पहुंच रहा है। हालांकि यह एक दुविधपूर्ण प्रष्न है कि क्या ग्रामीण क्षेत्रों के बड़े उपभोक्ता को लक्षित करते हुए विपणन नीति को बड़ा आयाम नहीं दिया जा सकता है। कई ऐसी कम्पनियां हैं जो ग्रामीण उत्पादों को ब्राण्ड के रूप में प्रस्तुत करके बड़ा लाभ कमा रही हैं। जाहिर है ग्रामीण उद्यमी गांव के बाजार तक सीमित रहने से सक्षम विकास कर पाने में कठिनाई में रहेंगे जबकि डिजिटलीकरण को और सामान्य बनाकर भारत के ढ़ाई लाख पंचायतों और साढ़े छः लाख गांवों तक पहुंचा दिया जाये तो उत्पादों को प्रसार करने में व्यापक सुविधा मिलेगी। कई कम्पनियां गांवों को आधार बनाकर जिस तरह ग्रामीण अनुकूल उत्पाद बनाकर ग्रामीण बाजार में ही खपत कर देती हैं इसे लेकर के भी ग्रामीण उद्यमी एक नई चुनौती का सामना कर रहे हैं। हालांकि यह बाजार है जो बेहतर होगा वही स्थायी रूप से टिकेगा। वर्शों पहले विष्व बैंक ने कहा था कि भारत की पढ़ी-लिखी महिलायें यदि कामगार का रूप ले लें तो भारत का विकास दर 4 फीसद की बढ़त ले लेगा। तथ्य और कथ्य को इस नजर से देखें तो मौजूदा समय में भारत आर्थिक रूप से एक बड़ी छलांग लगाने की फिराक में है। लक्ष्य है 2024 तक 5 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था करना। जिसके लिए यह अनुमान पहले ही लगाया जा चुका है कि ऐसा विकास दर के दहाई के आंकड़े से ही सम्भव है और इसमें कोई दो राय नहीं कि यह आंकड़ा बिना महिला श्रम के सम्भव नहीं है। गांव का श्रम सस्ता है लेकिन वित्तीय कठिनाईयों के चलते संसाधन की कमी से जूझते हैं। सुषासन का तकाजा और षासन का उदारवाद यही कहता है कि भारत पर जोर दिया जाये क्योंकि इण्डिया को यह स्वयं आगे बढ़ा देगा। नजरिया इस बात पर भी रखने की आवष्यकता है कि बड़े-बड़े माॅल और बाजार में बड़े-बड़े महंगे ब्राण्ड की खरीदारी करने वाले अपनी जरूरतों को इस ओर भी विस्तार दें तो ग्रामीण उद्यमी वित्तीय रूप से न केवल सषक्त होंगे बल्कि सुषासन की आधी परिभाशा को भी पूरी करने में मददगार सिद्ध होंगे।

 दिनांक : 28 अक्टूबर, 2021


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

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पूर्वी लद्दाख में चीन की नाफरमानी

सेना की क्षमता बढ़ाना सैन्य नीति का एक हिस्सा होता हैं। इसी को देखते हुए इन दिनों सैन्य बलों को किसी भी परिस्थिति से निपटने के लिए तैयार करने के मकसद से सभी स्तरों पर सषस्त्र बलो और सम्बन्धित प्रतिश्ठानों का एकीकरण सुनिष्चत करने के प्रयास जारी है। मौजूदा समय में भारत, चीन और पाकिस्तान के मामले में कई अधिक सजग प्रतीत होता है। नई तकनीकों को लेकर भारत की पहल इस मामले में कई अधिक सराहनीय हैं। खरीद से लेकर स्वीदेषीकरण तक के मामले में क्षमता विकास और प्रषिक्षण को प्राथमिकता देने की फिलहाल आवष्यकता भी है। गौरतलब है कि अफगानिस्तान में तालिबान की बहाल स्थिति इस बात को और पुख्ता कर रही है कि भारत के लिए चुनौती तुलनात्मक अधिक है। एक ओर पाकिस्तान की आतंकी गतिविधियां सीमा पर चलायमान है तो दूसरी तरफ पूर्वी लद्दाख पर अभी भी तनातनी का माहौल जारी हैं। इतना ही नहीं तालिबानियों का समर्थक चीन भविश्य में क्या गुल खिलाएगा इसका अंदाजा लगाना भी कठिन नहीं है। भारत और चीन के बीच पूर्वी लद्दाख में बातचीत के भले ही 13 दौर हो चुके हों मगर चीन का अड़ियल रवैया स्थिति को बेनतीजा बनाये हुए है। गौरतलब है कि चीन ने पूर्वी लद्दाख में हाॅट स्प्रिंग और डेप्सांग से पीछे हटने के भारतीय प्रस्ताव को मानने से मना कर दिया है। जाहिर है इन दो स्थानों पर सेनायें डटी हुईं हैं जबकि चार स्थानों से पीछे हट चुकी हैं। गौरतलब है कि बीते 10 अक्टूबर दोनों देषों के बीच हुई सैन्य बैठक में भारत ने मई 2020 से पहले की स्थिति को बहाल करने की बात पर जोर दिया और चीन इसे भारतीय सेना की अनुचित और अवास्तविक मांग करार दे रहा है। दो टूक यह भी है कि चीन के वादे हों या इरादे दोनों पर कभी भी भरोसा फिलहाल नहीं किया जा सकता। दरअसल चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर अमन-चैन की बहाली का इरादा रखता ही नहीं है। कोरोना काल में जब दुनिया स्वास्थ की समस्या से जूझ रही थी तब उसने पिछले साल अप्रैल-मई में अपनी कुटिल चाल पूर्वी लद्दाख की ओर चल चुका था जो अभी भी नासूर बना हुआ है। 1954 के पंचषील समझौते को 1962 में तार-तार करने वाला चीन कई बार भारत के लिये मुसीबत का सबब बनता रहा है। जब-जब भारत दोस्ती का कदम बढ़ाता है चीन विस्तारवादी नीति के चलते दुष्मनी की राह खोल देता है। हालिया घटना से पहले जून 2017 में डोकलाम विवाद 75 दिनों तक चला जिसे लेकर जापान, अमेरिका, इजराइल व फ्रांस समेत तमाम देष भारत के पक्ष में खड़े थे और अन्ततः चीन को पीछे हटना पड़ा था। हालांकि डोकलाम विवाद को पूरी तरह समाप्त अभी भी नहीं समझा जा सकता क्योंकि चीन तीन कदम आगे आता है तो दो ही कदम पीछे जाता है। 

इतिहास के पन्नों में इस बात के कई सबूत मिल जायेंगे कि भारत और चीन के बीच सम्बंध भी पुराना है और रार भी पुरानी है। 1962 के युद्ध के बाद 1967 मे नाफला में चीन और भारत के कई सैनिक मारे गये थे। संख्या के बारे में दोनों देष के अपने-अपने दावे हैं। 1975 में भारतीय सेना के गष्ती दल पर अरूणाचल प्रदेष में चीनी सेना ने हमला किया था। भारत और चीन सम्बंधों के इतिहास में साल 2020 का जिक्र भी अब 1962, 1967, 1975 की तरह ही होता दिखता है। इसकी वजह साफ है भारत-चीन सीमा विवाद में 45 साल बाद भी सैनिकों की जान का जाना। ऐसा नहीं है कि दोनों देषों के बीच सीमा का तनाव कोई नई बात है व्यापार और निवेष चलता रहता है, राजनीतिक रिष्ते भी खूब निभाये जाते रहे हैं मगर सीमा विवाद हमेषा नासूर बना रहता है। कूटनीति में अक्सर यह देखा गया है कि मुलाकातों के साथ संघर्शों का भी दौर जारी रहता है। भारत और चीन के मामले में यह बात सटीक है पर यह बात और है कि चीन अपने हठ्योग और विस्तारवादी नीति के चलते दुष्मनी की आग को ठण्डी नहीं होने देता जबकि भावनाओं का देष भारत षान्ति और अहिंसा का पथगामी बना रहता है। बावजूद इसके पूर्वी लद्दाख के मामले में भारत ने चीन को यह जता दिया है कि वह न तो रणनीति में कमजोर है और न ही चीन के मनसूबे को किसी भी तरह कारगर होने देगा। ऐसा करने के लिये जो जरूरी कदम होंगे वो भारत उठायेगा।

एलएसी की मौजूदा स्थिति की पड़ताल बताती है कि पिछले साल भारत और चीन की सेनाओं के बीच टकराव की स्थिति पैदा हुई थी। इनमें पेंगोंग उत्तर, पेंगोंग दक्षिण, गलवान घाटी और गोगरा से दोनों देषों की सेनायें पीछे हट चुकी है जबकि हाॅट स्प्रिंग और डेप्सांग में अभी हालात जस के तस बने हुए हैं। खास यह भी है कि जिन चार स्थानों से सेनाएं पीछे हट चुकी हैं वहां भी मई 2020 से पूर्व की स्थिति बहाल नहीं हुई है। पिछले तमाम बैठकों के चलते जो समझौता इन्हें लेकर हुआ उसके अन्तर्गत विवाद वाले स्थान हेतु एक नाॅन पेट्रोलिंग क्षेत्र भी बनाया गया है जिसे बफर जोन की संज्ञा दी गयी है। इस क्षेत्र में दोनों देषों की आवाजाही का गष्त बंद है। जाहिर है पहले दोनों देष की सेनाएं वहां गष्त करती थी जो क्षेत्र उनके दावे में आता था। षीषे में उतारने वाली बात तो यह भी है कि चीन एक ऐसा पड़ोसी देष है जो सिर्फ अपने तरीके से ही परेषान नहीं करता बल्कि अन्य पड़ोसियों के सहारे भी भारत के लिए नासूर बनता है। मसलन पाकिस्तान और नेपाल इतना ही नहीं श्रीलंका और मालदीव यहां तक कि बांग्लादेष से भी ऐसी ही अपेक्षा रखता है। इन दिनों तो अफगानिस्तान में तालिबानी सत्ता है जो चीन और पाकिस्तान की मुकम्मल सफलता का प्रतीक है। तालिबान के सहारे भी चीन भारत के लिये रोड़ा बनना षुरू हो चुका है। 

पड़ताल तो यह भी बताती है कि चीन का पहले से लद्दाख के पूर्वी इलाके अक्साई चीन पर नियंत्रण है और चीन यह कहता आया है कि लद्दाख को लेकर मौजूदा हालात के लिये भारत सरकार की आक्रामक नीति जिम्मेदार है। यह चीन का वह चरित्र है जिसमें किसी देष और उसके विचार होने जैसी कोई लक्षण नहीं दिखते। दुनिया की दूसरी अर्थव्यवस्था चीन पड़ोसियों के लिये हमेषा अषुभ ही बोया है। चीन की दर्जन भर पड़ोसियों से दुष्मनी है और मौजूदा समय में तो ताइवान तो चीन से आर-पार करने को तैयार है। चीन के आरोपों पर भारत हमेषा साफगोही और ईमानदारी से बात कहता रहा है। सैन्य वार्ता का बेनतीजा होना यह चीन की नाकामियों का परिणाम है। इससे पहले दोनों देषों के बीच 12वें दौर की वार्ता इसी साल 31 जुलाई को हुई थी। वार्ता के कुछ दिनों के बाद दोनों सेनाओं ने गोगरा में सैनिकों की वापसी की प्रक्रिया पूरी की जिसे क्षेत्र विषेश में षान्ति की बहाली की दिषा में उठाया गया महत्वपूर्ण कदम के रूप में देखा गया मगर हाॅट स्प्रिंग और डेप्सांग पर चीन का अड़ियल रवैया चुनौती को बाकायदा बरकरार किये हुए है हालांकि भारत भी इस मामले में जैसे को तैसा रूख अख्तियार करते हुए इंच भर पीछे हटने को तैयार नहीं है।

 दिनांक : 23 अक्टूबर, 2021



डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

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समावेशी विकास को चुनौती देता भुखमरी सूचकांक

वैश्विक भुखमरी सूचकांक 2021 एक बार फिर फलक पर है और 116 देशों में भारत पिछले साल की तुलना में 7 पायदान नीचे जाते हुए 101वें स्थान पर है। यह तस्वीर उस समस्या को उजागर कर रही है जिससे निपटने के लिए समावेषी विकास के दर्जनों कषीदे गढ़े गये और 80 करोड़ से अधिक जनमानस को मुफ्त अनाज बांटने का दावा किया गया। बेषक देष की सत्ता पुराने डिजाइन से बाहर निकल गयी हो मगर दावे और वायदे का परिपूर्ण होना अभी दूर की कौड़ी है। विष्व बैंक का कुछ समय पहले यह कहना कि 1990 के बाद अब तक भारत अपनी गरीबी दर को आधे स्तर पर ले जाने में सफल रहा यह संदर्भ देष के मनोबल बढ़ाने के काम आ सकता है पर हालिया ग्लोबल हंगर रिपोर्ट 2021 उम्मीदों पर पानी फेर रही है। गौरतलब है कि पिछले साल 107 देषों के लिए की गयी रैंकिंग में भारत 94वें पायदान पर है। रिपोर्ट के अनुसार 27.2 के स्कोर के साथ भारत भूख के मामले में गम्भीर स्थिति में था। यह उसी समय पता चल चुका था। अब तो 2021 में यह स्कोर बढ़कर 38.8 हो गया है जबकि 2019 में भारत का स्कोर 30.3 था। यहां बताते चलें चार संकेतकों के मूल्यों के आधार पर ग्लोबल हंगर इंडेक्स 100 बिन्दु पैमाने पर भूख का निर्धारण करता है। जहां 0 सबसे अच्छा स्कोर है और 100 को सबसे खराब माना जाता है। बड़े मुद्दे क्या होते हैं और क्या होती हैं बड़ी रणनीतियां। नीतियां बनती हैं, लागू होती हैं और उनका मूल्यांकन भी किया जाता है पर नतीजे इस रूप में हों तो हैरत होती है। सत्तासीन भी बहुत कुछ करने में षायद सफल नहीं होते इसकी एक बड़ी वजह बड़े एजेण्डे हो सकते हैं। सुषासन, षासन की वह कला है जिसमें सर्वोदय और अंत्योदय जैसे रहस्य छुपे हैं जो स्वयं में लोक विकास की कुंजी है।

सामाजिक-आर्थिक उन्नयन में सरकारें खुली किताब की तरह रहें और देष की जनता को दिल खोलकर विकास दें ऐसा कम ही रहा है। मानवाधिकार, सहभागी विकास और लोकतांत्रिकरण का महत्व सुषासन की सीमाओं में आते हैं जबकि गरीबी, भुखमरी और बुनियादी समस्याएं षासन का पलीता लगाते हैं। अगर देष में गरीबी रेखा से लोग ऊपर उठ रहे हैं तो भुखमरी के कारण देष फिसड्डी क्यों हो रहा है यह भी लाख टके का सवाल है। हालांकि कोविड-19 के चलते अर्थव्यवस्था बेपटरी हुई और गरीबी बादस्तूर जारी रही। सरकारी आंकड़े तो नहीं हैं मगर प्यू रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट देखें तो स्पश्ट है कि कोरोना के इस कालखण्ड में गरीबों की संख्या बढ़ी है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स की पूरी पड़ताल यह बताती है कि भुखमरी दूर करने के मामले में मौजूदा मोदी सरकार मनमोहन सरकार से मीलों पीछे चल रही है। 2014 में भारत की रैंकिंग 55 हुआ करती थी जबकि साल 2015 में 80, 2016 में 97, 2017 में यह खिसक कर 100वें स्थान पर चला गया और 2018 में तो यही रैंकिंग 103वें स्थान पर रही। 2019 की रैंकिंग में भारत का स्थान 117 देषों में 102 पर था। अब लगभग स्थिति वहीं पहुंच गयी है। हालांकि 2020 में स्थिति थोड़ी सुधरी हुई दिखाई देती है पर 2021 के इंडेक्स पर कोरोना की काली छाया पड़ती दिखाई देती है। 

वैष्विक निर्धनता आंकलन 1970 के दषक में प्रारम्भ हुआ। रणनीतिकारों ने अत्यंत निर्धन विकासषील देषों के राश्ट्रीय निर्धनता रेखा के आधार पर अन्तर्राश्ट्रीय निर्धनता रेखा के लिए षोध किया। निर्धनता के समग्र आंकड़ों को मापने हेतु जिन देषों ने बहुआयामी निर्धनता सूचकांक को अपनाया उनमें से सर्वाधिक लाभ भारत को हुआ कहा जाता है। साल 2019 तक की जानकारी को देखें तो निर्धनता में तेजी से गिरावट भारत में देखी जा सकती है पर कोविड-19 के चलते निर्धनता कहीं न कहीं फिर एक बार मुखर हो रही है। निर्धनता, भुखमरी का एक बड़ा कारण है और इन दोनों का कारण बेरोज़गारी है और व्याप्त बेरोज़गारी यह संकेत करती है कि नीति-निर्माताओं ने लोगों को जिस पैमाने पर सषक्त करना चाहिए वैसा नहीं किया। ऐसे में सुषासन का पैमाना किसी भी तरह से बड़ा नहीं हो सकता। देष बदल रहा है, चुनौतियां अलग रास्ता अख्तियार कर रही हैं एक ओर डिजिटल इण्डिया और न्यू इण्डिया की बात होती है तो दूसरी तरह गरीबी और भुखमरी सीना ताने खड़ी हैं। लोक विकास की कुंजी सुषासन भी इसी प्रकार की हिस्सों में बंट गया है। ग्रामीण क्षेत्र की राहें अभी भी पथरीली हैं हालांकि षहरों के बाषिंदे भी कुछ इसमें षामिल हैं। सरकार यह जोखिम लेने में पीछे है कि बदहालों का कायाकल्प हर हाल में करेगी। किसानों की भी स्थिति अच्छी नहीं है। कोरोना के इस कालखण्ड में अन्नदाताओं ने अपनी भूमिका बड़ी पारदर्षी तरीके से निभाई है। सब कुछ ठप्प हुआ पर भोजन को लेकर के संकट नहीं पैदा होने दिया मगर उनका क्या जो गरीबी और भुखमरी में पहले थे और कोरोना उनके लिए दोहरी मार थी। कृशि क्षेत्र और उससे जुड़ा मानव संसाधन भूखा, प्यासा और षोशित महसूस करेगा तो सुषासन बेमानी होगा।

गौरतलब है 1989 की लकड़ावाला समिति की रिपोर्ट में गरीबी 36.1 फीसद थी। तब विष्व बैंक भारत में यही आंकड़ा 48 फीसद बताता था। मौजूदा समय में हर चैथा व्यक्ति अभी भी इसी गरीबी से जूझ रहा है। रिपोर्ट में था कि 2400 कैलोरी ऊर्जा ग्रामीण और 2100 कैलोरी ऊर्जा प्राप्त करने वाले लोग गरीबी रेखा के ऊपर हैं। गौरतलब है कि 1.90 डाॅलर यानी लगभग 2 डाॅलर प्रतिदिन कमाने वाला गरीबी रेखा के नीचे नहीं है। यह तुलना कुछ वर्श पहले तय हुई थी। अब समझने वाली बात यह है कि रोटी, कपड़ा, मकान, षिक्षा, चिकित्सा जैसी जरूरी आवष्यकताएं क्या इतने में पूरी हो सकती हैं। जाहिर है देष को गरीबी से ऊपर उठाने के लिए रास्ता चैड़ा करना होगा और इसके लिए सुषासन ही बेहतर विकल्प है। देखा जाये तो भारत भुखमरी के मामले में नेपाल, पाकिस्तान व बांग्लादेष आदि से भी कमजोर सिद्ध हो रहा है। साफ है कि भुखमरी से निपटने में भारत को बेहतर प्रदर्षन करने की आवष्यकता है। पिछल साल की रिपोर्ट में देखें तो भारत की करीब 14 फीसद जनसंख्या कुपोशण की षिकार है। इससे भी स्पश्ट होता है कि सुषासन जिस पैमाने पर गढ़ा जाना है अभी वहां पहुंच बनी नहीं है। गौरतलब है कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स में विष्व के भिन्न-भिन्न देषों में खान-पान की स्थिति की विस्तृत जानकारी दी जाती है और इस इंडेक्स में यह देखा जाता है कि लोगों को किस प्रकार का खाद्य पदार्थ मिल रहा है तथा उसकी गुणवत्ता तथा मात्रा कितनी है और क्या कमियां हैं। फिलहाल समग्र संदर्भ यह दर्षाते हैं कि समस्याएं बड़े रूप में व्याप्त हैं। भारत एक बड़ी जनसंख्या वाला देष है और ऐसी समस्याओं को हल करने में बड़े समय और संसाधन की आवष्यकता लाज़मी है पर 7 दषक इसमें खपाने के बाद भी जो परिणाम निकले हैं वह संतोशजनक नहीं कहे जा सकते। ऐसे में षासन यदि स्वयं को बेहतर और मजबूत सुषासन की कसौटी पर ले जाना चाहता है तो गरीबी और भुखमरी से मुक्ति पहली प्राथमिकता हो। 

 दिनांक :19 अक्टूबर, 2021



डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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गति-शक्ति योजना और रोज़गार के मौके

रअसल राजनीति का क्रियात्मक रूप लोकनीति व योजना के माध्यम से ही परिलक्षित होता है। जिस तरह की राजनीतिक ताकतें सत्ता में रहेंगी लोकनीति का स्वरूप भी उसी तरह का होगा और जिस तरह की लोकनीति होगी उसी तरह से समस्याओं से निपटने में हम उपकरण युक्त होंगे। इसी परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण को संजोते हुए 13 अक्टूबर 2021 को एक नई योजना गति-षक्ति का प्रधानमंत्री मोदी ने षुभारम्भ किया। जिसमें यह सम्भावना व्यक्त की जा रही है कि भारत के आधारभूत विकास के लिये सौ लाख करोड़ रूपए की इस योजना से देष में लाखों युवाओं को रोज़गार के मौके उपलब्ध होंगे। 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से देष में रोज़गार पैदा करने के मकसद से इस मेगा गति-षक्ति योजना का ऐलान तत्पष्चात् अब षुभारम्भ से उम्मीद और आषा की किरण उत्पन्न होना लाज़मी है। सौ लाख करोड़ की इस योजना से रोज़गार की सम्भावना को गति नहीं मिलेगी ऐसा कोई कारण दिखता नहीं है मगर योजनाएं तो इसके पहले भी और आयी-गयी पर जमीन पर कितनी खरी उतरी हैं इसकी भी पड़ताल समय-समय पर होती रही है। गौरतलब है कि बेरोज़गारी इन दिनों चरम पर है और 5 दषक के रिकाॅर्ड स्तर को भी ध्वस्त कर दिया है। कोरोना के चलते एक ओर जहां रोज़गार पर गाज गिरा है तो वहीं विकास दर भी धूल चाट रही है। ऐसे में मेगा प्लान का प्रकटीकरण उम्मीद जगाता है मगर जमीनी स्तर पर गति-षक्ति मेगा प्लान का असर तब अच्छा महसूस किया जायेगा जब उसी ताकत से कूबत रोजगार सृजन में भी झोकी जायेगी। जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी इस विषेश योजना को आत्मनिर्भर भारत के निर्माण की दृश्टि से भी महत्वपूर्ण मान रहे हैं उस लिहाज़ से इसकी भूमिका और बड़ी हो जाती है।

इस योजना का लक्ष्य डेढ़ ट्रिलियन डाॅलर की राश्ट्रीय आधारभूत पाइपलाइन के तहत परियोजना को अधिक षक्ति व गति देना है। यह योजना रेल और सड़क सहित 16 मंत्रालयों को जोड़ने वाला एक डिजिटल मंच है जिसमें रेलवे, सड़क परिवहन, पोत, आईटी, टेक्सटाइल, पेट्रोलियम, ऊर्जा, उड्यन जैसे मंत्रालय षामिल हैं। गौरतलब है कि इन मंत्रालयों के जो प्रोजेक्ट चल रहे हैं या साल 2024-25 तक जिन योजनाओं को पूरा करना है उन सभी को गति-षक्ति योजना के तहत डाल दिया गया है। पीएम मोदी ने कहा है कि 21वीं सदी का भारत सरकारी व्यवस्था की इस पुरानी सोच को पीछे छोड़कर आगे बढ़ रहा है और आज का मंत्र है प्रगति के लिये इच्छा, प्रगति के लिये कार्य, प्रगति के लिये धन, प्रगति की योजना और प्रगति के लिये वरीयता। उक्त संदर्भ लाख टके का है। मगर लाख टके का ही सवाल यह है कि योजनाओं को धरातल पर समुचित रूप देने के लिये प्रक्रिया का आसान करना साथ ही आधारभूत ढांचे के अनुकूल होना आवष्यक है। सुषासन को भी इसी प्रसंग से जोड़ा जा सकता है जहां खुला वातावरण, पारदर्षिता और विनौकरषाहीकरण के साथ प्रगति के सभी प्रारूपों में उपकरणों की सुचिता निहित है। गौरतलब है यह योजना देष के लाखों युवाओं को रोज़गार के मौके उपलब्ध कराने में मदद देगी पर बिना भरपूर कौषल के सभी के लिये अवसर सम्भव नहीं है। स्किल इण्डिया कार्यक्रम का उद्देष्य साल 2022 तक कम से कम 30 करोड़ लोगों को कौषल प्रदान करना है मगर बीते डेढ़ साल में कोरोना के चलते इसका क्या हाल है षायद ही इस पर कोई बात करने के लिये तैयार हो। देष के 25 हजार कौषल केन्द्र में हजारों की तादाद में तो कोरोना की भेंट भी चढ़ गये और प्रषिक्षण के नाम पर कई तो सिर्फ खाना पूर्ति में लगे रहते हैं।

समग्र बुनियादी ढांचे की नींव जब तक देष में नहीं पड़ेगी विकास और प्रगति का पहिया रूक-रूक कर ही चलेगा। गति षक्ति योजना भारी-भरकम धनराषि से भरी है जो समग्र बुनियादी ढांचे की नींव को रखेगा भी और मजबूत भी कर सकता है बषर्ते पारदर्षिता और दूरदर्षिता दोनों का इसमें अनुप्रयोग किया जाये। अलग-अलग विभाग के बुनियादी विकास के बीच समन्वय की कमी समस्या को बड़ा करता रहा है। उम्मीद है कि इस योजना से बाधायें दूर होंगी। यदि गति-षक्ति मेगा योजना के उद्देष्य पर दृश्टि डालें तो पता चलता है कि यह उद्योगों की कार्यक्षमता बढ़ाने में मदद करेगा, स्थानीय निर्माताओं को बढ़ावा मिलेगा, उद्योगों की प्रतिस्पर्धात्मकता को भी बढ़त मिलेगी और भविश्य के आर्थिक क्षेत्रों के निर्माण के लिये नई सम्भावनाओं को विकसित करने में भी मदद करेगा। ऐसे विचार प्रधानमंत्री मोदी के हैं। इस प्लान से सबसे बड़ी उम्मीद यही है कि जो परियोजनाएं अधिक जरूरी है जिनमें रोजगार पैदा होने की ज्यादा गुंजाइष है उनमें पहले खर्च करना ठीक रहेगा। वैसे भी ठीक उसी प्रकार जैसे षून्य आधारित बजट के अंतर्गत परफाॅर्मेंस को प्रेफरेंस में रखा जाता है। नव लोकप्रबंध की दृश्टि से देखें तो मितव्ययिता के साथ लोक नीति को सही राह देना गति-षक्ति योजना के लिये कहीं अधिक जरूरी होगा। जमीनी स्तर पर इस प्लान का असर तब कहीं अधिक महसूस किया जायेगा जब सड़कों पर बिना समन्वय के विभागों की एक के बाद एक की होती खुदाई पर लगाम लगेगा। सवाल है कि यह योजना अमल में कैसे लायी जायेगी। दरअसल सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अंतर्गत भास्कराचार्य अंतरिक्ष अनुप्रयोग और भू-सूचना विज्ञान संस्थान ने गति-षक्ति योजना की निगरानी के लिये प्लेटफाॅर्म विकसित किया है। उद्योग और आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग सभी योजनाओं की निगरानी और कार्यान्वयन के लिये नोडल मंत्रालय बनाया गया। इंफ्रा परियोजनाओं का जायजा लेने के लिये एक राश्ट्रीय योजना समूह भी नियमित रूप से बैठक करेगा और किसी भी नई आवष्यकता को पूरा करने के लिये मास्टर प्लान में किसी परिवर्तन को कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता वाली समिति मंजूरी देगी। जाहिर है गति षक्ति योजना का मूल मंत्र बुनियादी ढांचा सम्पर्क परियोजनाओं की एकीकृत योजना बनाना और समन्वित कार्यान्वयन को बढ़ावा देना है। 

इस राश्ट्रीय मास्टर प्लान के जरिये वास्तविक समय के आधार पर सूचना और आंकड़े की उपलब्धता आसान होगी। सुषासन एक ऐसी लोक प्रवर्धित अवधारणा है जहां पर न्यायोचित दृश्टिकोण और समुचित अवधारणा और जनहित में सुयोग्य कदम अपरिहार्य होते हैं और ऐसा बार-बार करना होता है।  बुनियादी ढांचा परियोजनाओं का काम बेहतर तरीके से होने की तो उम्मीद है ही क्योंकि अब एक दूसरे विभाग पर दोश लगाने का विकल्प समाप्त हो जायेगा। इतना ही नहीं समस्या पैदा होने पर उसके निवारण के प्रति कैसा रूख होगा इसे भी देखा और समझा जा सकेगा साथ ही मंत्रालयों के बीच सूचना को लेकर कम विशमता होगी। उक्त संदर्भ गति षक्ति योजना को एक नई प्रगति देने का काम करेंगे। अकेले काम करने की स्थिति में कमी और सरकारी एजेंसियों के बीच समन्वय का अभाव से होने वाली देरी से निपटने में भी सहायता मिलेगी। गौरतलब है कि ऐसी तमाम कसौटियां पहले से जहां विद्यमान हैं या लालफीताषाही और असंवेदनषीलता के साथ अकर्मण्यता का खात्मा हो चुका है वहां वास्तविक उद्देष्य जमीन पर उतरे हैं। फिलहाल बीते सात दषकों में नित नई योजनाएं देष में आती रही हैं मगर अच्छी योजना वही रही जो धरातल पर उतरी है। उम्मीद कर सकते हैं कि बेरोजगारी के इस दौर में गति-षक्ति योजना रोजगार को गति देने में मेगा प्लान सिद्ध होगी। 

दिनांक :16 अक्टूबर, 2021



डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

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दोगुनी आय के कितने समीप किसान

पहली बार 28 फरवरी 2016 को उत्तर प्रदेष के बरेली में एक किसान रैली को सम्बोधित करते हुए औपचारिक तौर पर प्रधानमंत्री ने यह घोशणा की थी कि 2022 में जब देष 75वां गणतंत्र दिवस मना रहा होगा तो किसानों की आय दोगुनी हो चुकी होगी। जाहिर है इस लिहाज से किसान दोगुनी आय के समीप खड़े हैं मगर हकीकत और फसाने में क्या सही है यह पड़ताल का विशय है। देष की कुल श्रम षक्ति का लगभग 55 प्रतिषत भाग कृशि तथा इससे सम्बन्धित उद्योग धन्धों से अपनी आजीविका कमाता है। विदेषी व्यापार का अधिकांष भाग कृशि से ही जुड़ा हुआ है। उद्योगों को कच्चा माल कृशि से ही प्राप्त होता है। इतने ताकतवर कृशि के किसान ओलावृश्टि या बेमौसम बारिष का एक थपेड़ा नहीं झेल पाते ऐसा इसलिए क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था कच्ची मिट्टी से पक्की की ओर जा ही नहीं पा रही है। बीते 7 दषकों में जो हुआ उसे देखते हुए यह कहना सही होगा कि चाहे केन्द्र हो या राज्यों की सरकारें कृशि की तबियत ठीक करने का बूता पूरी तरह तो इनमें नहीं है। मौजूदा समय में लाये गये तीनों कृशि कानूनों को भी आमदनी का अच्छा जरिया बताया जा रहा है। हालांकि इस कानून के विरोध में नवम्बर 2020 से ही किसान दिल्ली की सीमा पर डटे हुए हैं। सरकार और किसानों के बीच एक दर्जन बार बातचीत भी हो चुकी है मगर सरकार कानून वापस लेने के पक्ष में नहीं हैं और किसान इससे कम में तैयार नहीं है। हालांकि किसानों की न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी पर कानून की मांग कहीं से नाजायज नहीं लगती। गौरतलब है कि किसानों की आय दोगुनी करने वाले वह करिष्माई वर्श 2022 मुहाने पर खड़ा है और यही वर्श आजादी की 75वीं वर्शगांठ का भी है जिसके लिये 13 अप्रैल 2016 को 1984 बैच के आईएएस अधिकारी डाॅ0 अषोक दलवाई के नेतृत्व में डबलिंग फाॅर्मर्स कमेटी का गठन किया गया था। अब इस वायदे के पांच साल पूरे होने वाले हैं मगर सरकार ने यह अब तक नहीं बताया कि किसानों की आय कितनी बढ़ गयी है। 

वित्त वर्श 2018-19 में दो हेक्टेयर से कम जमीन वाले 12 करोड़ से अधिक लघु और सीमांत किसानों की आर्थिक मदद के लिए प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि की योजना षुरू की गयी जिसके चलते प्रति चार माह में किसानों के खाते में 2 हजार रूपए सीधे भेजे जाते हैं। डिजिटल तकनीक से भी किसानों को जोड़ा गया है। किसानों के जीवन में बड़ा बदलाव तब संभव जब उपज की कीमत समुचित मिले। इसी को देखते हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को किसान गारंटी कानून के रूप में चाहता है। कृशि यंत्रिकरण, उत्पादन लागत घटाने, कृशि बाजार में लाभकारी संषोधन और फसल की सही कीमत से कृशक समृद्ध हो सकेगा। हो सकता है कि सरकार के कानून कुछ हद तक किसानों के लिए सही हों पर जिस तरह भरोसा टूटा है उससे संषय गहरा गया है। फिलहाल कृशि विकास और किसान कल्याण भले ही सरकारों की मूल चिंता रही हो पर आज भी किसान को अपनी बुनियादी मांग को लेकर सड़क पर उतरना ही पड़ता है। अर्थषास्त्रियों का मानना है कि कृशि क्षेत्र में लगे करोड़ों लोगों की आय में यदि इजाफा हो जाय तो किसान और कृशि दोनों की दषा बदल सकती है। यह आंकड़ा माथे पर बल ला सकता है कि अमेरिका में किसान की सालाना आय भारतीय किसानों की तुलना में 70 गुना से अधिक है। जिन किसानों के चलते करोड़ों का पेट भरता है वही खाली पेट रहें यह सभ्य समाज में बिल्कुल नहीं पचता। भारत में किसान की प्रति वर्श आय महज़ 81 हजार से थोड़े ज्यादा है जबकि अमेरिका का एक किसान एक माह में ही करीब 5 लाख रूपए कमाता है। आंकड़ें यह भी स्पश्ट करते हैं कि भारत का किसान गरीब और कर्ज के बोझ के चलते आत्महत्या का रास्ता क्यों चुनता है। किसानों की समस्या इतनी पुरानी है कि कई नीति निर्धारक इस चक्रव्यूह में उलझते तो हैं पर उनके लिए षायद लाइफ चेंजर नीति नहीं बना पा रहे हैं। हां यह सही है कि सत्ता के लिए गेमचेंजर नीति बनाने में वे बाकायदा सफल हैं।

अगस्त 2018 में राश्ट्रीय कृशि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) द्वारा नफीस षीर्शक से एक रिपोर्ट जारी किया गया, जिसमें एक किसान परिवार की वर्श 2017 में कुल मासिक आय 8,931 रूपए बतायी गयी। बहुत प्रयास के बावजूद नाबार्ड की कोई ताजा रिपोर्ट नहीं मिल पायी परन्तु जनवरी से जून 2017 के बीच किसानों पर जुटाये गये इस आंकड़े के आधार पर इनकी हालत समझने में यह काफी मददगार रही है। यही रिपोर्ट यह दर्षाता है कि भारत में किसान परिवार में औसत सदस्य संख्या 4.9 है। इस आधार पर प्रति सदस्य आय उन दिनों 61 रूपए प्रतिदिन थी। दुनिया में सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में षुमार भारत का असली चेहरा देखना हो तो किसानों की सूरत झांकनी चाहिए। जब राज्यों की स्थिति पर नजर डाली जाती है तो किसानों की आय में गम्भीर असमानता दिखाई देती है। सबसे कम मासिक आय में उत्तर प्रदेष, झारखण्ड, आन्ध्र प्रदेष, बिहार, उड़ीसा समेत पष्चिम बंगाल और त्रिपुरा आदि षामिल हैं। जहां किसानों की मासिक आय 8 हजार से कम और 65 सौ से ऊपर है जबकि यही आय क्रमषः पंजाब और हरियाणा में 23 हजार और 18 हजार से अधिक है। असमानता देखकर यह प्रष्न अनायास मन में आता है कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का जो परिप्रेक्ष्य लेकर केन्द्र सरकार चल रही है वह कहां, कितना काम करेगा। पंजाब और उत्तर प्रदेष के किसानों की आय में अंतर किया जाये तो यह साढ़े तीन गुने का है। सवाल यह है कि क्या दोगुनी आय के साथ अंतर वाली खाई को भी पाटा जा सकेगा। खास यह भी है कि आर्थिक अंतर व्यापक होने के बावजूद पंजाब और उत्तर प्रदेष किसानों की आत्महत्या से मुक्त नहीं है। इससे प्रष्न यह भी उभरता है कि किसानों को आय तो चाहिए ही साथ ही वह सूत्र, समीकरण और सिद्धान्त भी चाहिए जो उनके लिए लाइफचेंजर सिद्ध हो। जिसमें कर्ज के बोझ से मुक्ति सबसे पहले जरूरी है। 

खेती के लिये किसान खूब कर्ज ले रहे हैं यही कारण है कि वित्त वर्श 2020-21 के दौरान नाबार्ड द्वारा बांटा गया लोन 25 फीसद बढ़कर 6 लाख करोड़ रूपए तक पहुंच गया। नाबार्ड ने अपनी सालाना रिपोर्ट में कहा है कि इन बांटे गये ऋण में से आधा हिस्सा उत्पादन और निवेष से जुड़ा है। पहले से कमाई का कम होना और कर्ज का लगातार बढ़ता बोझ किसानों पर दोहरी मार है हालांकि सरकार ऋण माफी को लेकर भी सरकार कभी-कभार राहत की बात कर देती है मगर अच्छी बात तब होगी जब किसान आत्मनिर्भर बने। वैसे देखा जाये तो कमाई के लिहाज़ से इतने कम पैसे में परिवार का भरण-पोशण करना कैसे सम्भव है। इसके अलावा कर्ज की अदायगी भी करनी है, बच्चों को भी पढ़ाना है और विवाह-षादी के खर्च भी उठाने हैं। इन्हीं तमाम विवषताओं के चलते आत्महत्या को भी बल मिला है। अब सवाल है कि दोश किसका है किसान का या फिर षासन का। राजनीतिक तबका किसानों से वोट ऐंठने में लगी रही जबकि विकास देने के मामले में सभी फिसड्डी सिद्ध हुए हैं। कौन सी तकनीक अपनाई जाय कि किसानों का भला हो। खाद, पानी, बिजली और बीज ये खेती के चार आधार हैं। फिलहाल आय दोगुनी वाला साल 2022 समीप है और लाख टके का सवाल यह है कि इस मामले में सरकार कहां खड़ी है। 

दिनांक : 9 अक्टूबर, 2021



डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

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Wednesday, October 27, 2021

कौशल विकास और सुशासन

विकास प्रषासन का मुख्य विशय विकासात्मक गतिविधियां होती हैं जबकि कौषल विकास हुनर का वह आयाम है जो विकास के प्रषासन को ही परिभाशित करता है। जब विकास का प्रषासन जमीन पर उतरता है तो सुषासन की पटकथा लिखी जाती है। संदर्भ निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि कौषल विकास के लिये एड़ी-चोटी का जोर पहले से अब के बीच जितना भी लगाया जा रहा है वह नाकाफी है, जबकि कोरोना प्रभाव के चलते इसकी मुष्किलें तुलनात्मक बढ़ी ही हैं। कोविड-19 महामारी ने कौषल विकास के क्षेत्र में अन्तर्राश्ट्रीय सहयोग की आवष्यकता को मानो बढ़ा दिया हो। भारत जिस पैमाने पर युवाओं का देष है यदि उसी आंकड़े पर कौषल विकास से युक्त देष को खड़ा करना है तो पेषेवर प्रषिक्षण और कौषल विकास कार्यक्रम बाजार की मांग की अनुपात में विकसित करना ही होगा। सुषासन की धारा में कौषल विकास की विचारधारा उतनी ही प्रासंगिक है जितना कि ईज़ आॅफ लिविंग के लिये सरकार का बेहतरीन सुविधा प्रदायक होना। लोक प्रवर्धित अवधारणा को मजबूत करने के लिये कौषल विकास को तुलनात्मक अधिक वृहद् बनाने के साथ पहुंच भी आसान करनी होगी। बाजार देना होगा साथ ही संरचनात्मक विकास के रास्ते चैड़े करने होंगे ताकि कौषल से युक्त को विकास की राह मिले और देष को उनके हिस्से का बचा हुआ सुषासन। कौषल विकास का अभिप्राय युवाओं को हुनरमंद बनाना ही नहीं बल्कि उन्हें बाजार के अनुरूप तैयार करना भी है। आंकड़े बताते हैं कि इस दिषा में बरसों से जारी कार्यक्रम के बावजूद महज 5 फीसद ही कौषल विकास कर्मी भारत में हैं जबकि दुनिया के अन्य देषों की तुलना में यह बहुत मामूली है। चीन में 46 फीसद, अमेरिका में 52, जर्मन में 75, दक्षिण कोरिया में 96 और मैक्सिको जैसे देषों में भी 38 प्रतिषत का आंकड़ा देखा जा सकता है। देष की विषाल युवा आबादी को कौषल प्रषिक्षण देकर रोजगार उपलब्ध कराने के लिये साल 2015 में स्किल इण्डिया मिषन की षुरूआत की गयी। जमीनी स्तर पर कुषल मानव षक्ति के निर्माण पर कौषल विकास योजना एक बड़ी आधारषिला थी जिसके तहत हर साल कम से कम 24 लाख युवाओं को कुषलता का प्रषिक्षण देने का लक्ष्य रखा गया पर महज 25 हजार कौषल विकास केन्द्र से क्या यह लक्ष्य पाया जा सकता है जिस पर व्यापक पैमाने पर बीते डेढ़ वर्शों में कोविड-19 की मार भी पड़ चुकी है। वैसे देखा जाये तो 6 साल पहले कौषल विकास केन्द्रों की संख्या केवल 15 हजार थी जो पहले भी कम थी और जनसंख्या के लिहाज से और कौषल विकास की रफ्तार को देखते हुए अभी भी कम ही है।

सुषासन की परिपाटी भले ही 20वीं सदी के अंतिम दषक में परिलक्षित हुई हो पर इसकी उपस्थिति सदियों पुरानी है। बार-बार अच्छा षासन ही सुषासन है जो सभी आयामों में न केवल अपनी उपस्थिति चाहती है बल्कि लोक कल्याण के साथ पारदर्षिता और संवेदनषीलता को संजोने का भी यह प्रयास करती है। षासन हो या प्रषासन यदि उसमें इन तत्वों के अतिरिक्त खुलेपन का अभाव तो सुषासन दूर की कौड़ी होती है। कौषल विकास को लेकर के चिंतायें दषकों पुरानी हैं। मगर हालिया परिप्रेक्ष्य देखें तो प्रधानमंत्री कौषल विकास योजना को 2015 में लाॅन्च किया गया था जिसका उद्देष्य ऐसे लोगों को प्रषिक्षण देना था जो कम षिक्षित हैं या स्कूल छोड़कर घर में विश्राम कर रहे हैं। जाहिर है इस योजना के अंतर्गत ऐसे लोगों के कौषल का विकास करके उनकी योग्यता के अनुपात में काम पर लगाना था। हालांकि इसके लिये ऋण की सुविधा भी दी जाती है। ऐसा इसलिए ताकि अधिक से अधिक इसका लाभ उठा सके। इसके लिये बाकायदा तीन, छः व एक साल के लिये रजिस्ट्रेषन किया जाता है और पाठ्यक्रम की समाप्ति के साथ प्रमाणपत्र दिये जाते हैं जिसकी मान्यता पूरे देष में होती है। फरवरी 2021 में प्रारम्भ पंजीकृत की प्रक्रिया के अंतर्गत 8 लाख नौजवानों को प्रषिक्षित किये जाने का लक्ष्य रखा गया है। सुषासन और कौषल विकास एक सहगामी व्यवस्था है। एक के बेहतर होने से दूसरे का बेहतरीन होना सुनिष्चित है। गौरतलब है कि सुषासन विष्व बैंक द्वारा दी गयी एक ऐसी आर्थिक परिभाशा है जो राज्य से बाजार की ओर चलने की एक संस्कृति लिये हुए है। आर्थिक न्याय सुषासन की खूबसूरत अवधारणा है जिसे 24 जुलाई 1991 में आयी उदारीकरण के बाद पोशित होते देखा जा सकता है। सारगर्भित पक्ष यह भी है कि कौषल विकास को लेकर सरकारें लम्बे समय से काम करती आ रही हैं पर इसका असल पक्ष उतना चमकदार नहीं दिखता है।

असल में कौषल विकास के मामले में भारत में बड़े नीतिगत फैसले या तो हुए ही नहीं यदि हुए भी तो संरचनात्मक और कार्यात्मक विकास के स्तर पर पहुंच पूरी नहीं हुई। यदि ऐसा होता तो 136 करोड़ के देष में और 65 फीसद युवाओं के बीच केवल 25 हजार कौषल विकास केन्द्र न होते। आंकड़े यह दर्षाते हैं कि चीन में पांच लाख, जर्मनी और आॅस्ट्रेलिया में एक-एक लाख से अधिक कौषल विकास संस्थाएं हैं। दक्षिण कोरिया जैसे कम जनसंख्या वाले छोटे देष में भी इतने ही केन्द्र देखे जा सकते हैं। चीन में तीन हजार से अधिक कौषलों के बारे में प्रषिक्षण दिया जाता है। भारत में इसकी मात्रा भी सीमित दिखती है। स्किल इण्डिया मिषन के अंतर्गत बेरोजगार युवाओं को कंस्ट्रक्षन, इलेक्ट्राॅनिक्स एवं हार्डवेयर, फूड प्रोसेसिंग और फिटिंग, हैंडीक्राॅफ्ट, जेम्स एवं ज्वेलरी ओर लेदर टेक्नोलाॅजी जैसे करीब 40 तकनीकी क्षेत्र के ट्रेनिंग प्रदान की जाती है। चीन अपने सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 2.5 फीसद व्यावसायिक षिक्षा पर खर्च करता है जबकि भारत चीन की तुलना में तो काफी कम और अपनी जीडीपी का मामूली धन ही खर्च करता है। यही कारण है कि कौषल विकास के मामले में मात्रा भी सीमित रह जाती है और गुणवत्ता भी एक सवाल बनकर रह जाता है। जिस सुषासन की परिपाटी कौषल विकास के रास्ते अनवरत् करने का प्रयास होता है उसमें लड़ाई अधूरी रह जाती है। स्किल, स्केल और स्पीड पर काम करने की बात सरकार करती है साथ ही युवाओं को कौषल युक्त बनाने की जद्दोजहद में भी दिखाई देती हैं मगर व्यावहारिक पक्ष यह है कि स्पीड कछुए की चाल हो जाती है और स्थिति इंच भर आगे-पीछे की बन कर रह जाती है। खास यह भी है कि भारत को दस फीसद से अधिक विकास दर चाहिये ताकि 2024 तक पांच ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था बन सके। यहां भी दो टूक यह है कि इस गगनचुम्भी विकास दर और इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था को आसमान देने के लिये कौषल विकास को व्यापक और व्यावसायिक बनाना होगा।

स्किल इण्डिया कार्यक्रम सुषासन को एक अनुकूल जगह दे सकता है बषर्ते कि यह अपने उद्देष्य में खरा उतरे। इस कार्यक्रम का उद्देष्य वर्श 2022 तक कम से कम 30 करोड़ लोगों को कौषल प्रदान करना है। मुहाने पर खड़ा 2022 और कौषल विकास की स्थिति को देखते हुए यह संतुलन डांवाडोल दिखाई देता है। वर्श 2014 में जब कौषल विकास उद्यमिता मंत्रालय का निर्माण किया गया तब यह उम्मीद से लदा हुआ था और अब यह बोझ से दबा हुआ है। कौषल विकास कई चुनौतियों से जूझ रहा है जिसमें अपर्याप्त प्रषिक्षण क्षमता, उद्यमी कौषल की कमी, उद्योगों की सीमित भूमिका तो बुनियादी कारण हैं ही साथ ही इसके प्रति कम आकर्शण और नियोक्ताओं का रवैया भी ठीक नहीं है। इतना ही नहीं कौषल केन्द्रों पर कुषलता या हुनर के स्थान पर काफी हद तक प्रमाणपत्र बांटने पर ही जोर है। बाजार स्पर्धा से भरा है जहां सिक्का तब खनकता है जब काबिलियत फलक पर होती है। ऐसे में प्रमाणपत्र के भरोसे रोज़गार की अपेक्षा करना न तो सही है और न ही सम्भव है। इसी भारत में आंकड़े यह भी बता चुके हैं कि हर चार में तीन बीटेक की डिग्री धारक और हर दस में से नौ डिग्री धारक काम के लायक नहीं है तो जरा सोचिये कि जिन्हें केवल कौषल विकास के नाम पर प्रमाण पत्र को ही योग्यता थमा दिया गया हो उनके रोजगार का क्या हाल होगा। सवाल है कि सरकार को क्या करना चाहिए। षिक्षा एवं प्रषिक्षण खर्च में वृद्धि करना चाहिए। हालांकि पिछले बजट में इस दिषा में वृद्धि दिखाई देती है। दो टूक यह भी है कि चीन और भारत की जनसंख्या आस-पास ही है जबकि कौषल विकास पर खर्च में जमीन-आसमान का अंतर है इसे पाटना होगा। प्रषिक्षण संस्थानों का भी मूल्यांकन समय-समय पर होना चाहिए साथ ही कौषल सर्वेक्षण भी होता रहे। हालांकि भारत को चीन, जापान, जर्मनी, ब्राजील, सिंगापुर समेत कई देषों के व्यावसायिक तथा तकनीकी षिक्षा माॅडल से प्रेरणा लेनी चाहिए मगर सच यह भी है कि इन देषों के समक्ष भी भारत की तरह ही कमोबेष समस्याएं हैं। 

कौषल विकास के लिये पथ सुषासन से भरा बनाने के लिये समाज के सभी वर्गों का ताना-बाना इसमें षामिल होना चाहिये। यूएनडीपी की एक रिपोर्ट पहले भी कह चुकी है कि अगर अमेरिका की भांति भारत के श्रम बाजार में कुल महिलाओं की भागीदारी 70 फीसद तक पहुंचाई जाये तो आर्थिक विकास दर को 4 फीसद से अधिक बढ़ाया जा सकता है। कौषल विकास को ऊंचाई देने के लिये आधी दुनिया से भरी नारी को भी इस धारा में बड़े पैमाने पर षामिल करना होगा। ताकि उन्हें हुनरमंद बनाकर न केवल देष में विकास की गंगा बहायी जा सके बल्कि आत्मनिर्भर भारत के सपने को भी साकार किया जा सके। इतना ही नहीं लोकल फाॅर वोकल को भी एक नया आसमान मिले और उन्हें समाज में स्थान। सब के बावजूद फिलहाल मौजूदा समय में भारत में बेरोज़गारी एक बड़ी समस्या तो बनकर उभरी है। इस समस्या के लिये बड़ी वजह कौषल विकास की कमजोर स्थिति को भी माना जा सकता है। इस कमी से निपटने के लिये भारत विभिन्न देषों एवं पूर्वी एषियाई देषों से प्रेरणा ले सकता है साथ ही इस बात पर भी जोर दे सकता है कि स्थानीय समस्याओं पर से कैसे निपटा जाये। देष की युवा आबादी बड़ी है सबको एक साथ कौषल युक्त बनाना चुनौती तो है पर रास्ता चिकना करके स्किल, स्केल और स्पीड तीनों को मुकाम दिया जा सकता है। 

दिनांक :6 अक्टूबर,  2021


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपrर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

भारत पर क्यों है दुनिया की नजरें

गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी 22 से 25 सितम्बर के बीच अमेरिका की यात्रा पर हैं। जहां द्विपक्षीय मुलाकात के अलावा बदले वैष्विक परिदृष्य को देखते हुए बातचीत के स्तर को बड़ा बनाने का प्रयास रहेगा। विकसित देषों की बातें तो वैष्विक मंचों पर जोरदार तरीके से सामने आती रही हैं मगर विकासषील देषों की प्रखर आवाज मौजूदा समय में भारत बन चुका है। सुरक्षा परिशद के सदस्य भी भारत की बातों को न केवल गम्भीरता से लेते हैं बल्कि उसके अनुपालन का प्रयास भी कमोबेष षामिल है। जलवायु परिवर्तन, विकास लक्ष्य, सबको सस्ती वैक्सीन की उपलब्धता, गरीबी उन्मूलन समेत महिला सषक्तिकरण व आतंकवाद जैसे तमाम मुद्दों पर भारत की राय काफी प्रषंसनीय रही है। इतना ही नहीं षान्ति मिषन और संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद में सुधार का प्रबल समर्थक भारत दुनिया में एक खास जगह रखता है। अमेरिका के इसी दौरे में क्वाड देषों के नेताओं की 24 सितम्बर को पहली मुलाकात भी सुनिष्चित है। गौरतलब है कि अमेरिकी राश्ट्रपति जो बाइडेन, प्रधानमंत्री मोदी, आॅस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्काॅट माॅरिसन और जापान के योषिहिदे सुगा की मेजबानी करेंगे। जाहिर है यह भेंट चीन के लिये चिंता का सबब है। इतनी बड़ी वैष्विक एकजुटता रणनीतिक तौर पर चीन को बहुत कुछ सोचने के लिये मजबूर भी करेगी। खास यह भी है कि क्वाड सहयोगियों के साथ भारत टू-प्लस-टू की वार्ता पहले ही कर चुका है और सभी से उसके सकारात्मक सम्बंध हैं। गौरतलब है कि 12 मार्च 2021 को क्वाड देषों की वर्चुअल बैठक हो चुकी है जिसमें जलवायु परिवर्तन और कोविड-19 जैसे मुद्दों के अलावा, आतंकवाद और साइबर सुरक्षा समेत सामरिक सम्बंध का इनपुट इसमें षामिल था।

अफगानिस्तान की ताजा स्थिति के मद्देनजर बदली वैष्विक परिस्थितियों में प्रधानमंत्री का यह दौरा कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। जो बाइडेन के साथ भारत-अमेरिका व्यापक वैष्विक रणनीतिक साझेदारी की समीक्षा और पारस्परिक हित के क्षेत्रीय और वैष्विक मुद्दों पर विचारों के आदान-प्रदान होने की बात यात्रा से पहले ही प्रधानमंत्री कह चुके हैं। अमेरिकी उपराश्ट्रपति कमला हैरिस से मुलाकात के अलावा अमेरिका के टाॅप 5 कम्पनियों के सीईओ के साथ बैठक और क्वाड देषों के मुखिया के साथ सामूहिक और द्विपक्षीय भेंट इस यात्रा के विवरण को कहीं अधिक प्रासंगिक स्वरूप दे रहा है। इतना ही नहीं यात्रा के अन्तिम दिन मोदी वांषिंगटन से न्यूयाॅर्क की ओर प्रस्थान करेंगे जहां संयुक्त राश्ट्र महासभा को सम्बोधित करना है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान भी इस कार्यक्रम में हिस्सा लेंगे जो तालिबानी सरकार को दुनिया में मान्यता दिलाने का मानो बीड़ा उठाया हो। वैसे अफगानिस्तान की तालिबान सरकार ने संयुक्त राश्ट्र महासभा के 76वें सत्र में भाग लेने के लिये संयुक्त राश्ट्र महासचिव को भी पत्र भी लिखा है। फिलहाल इस साल महासभा की डिबेट के केन्द्र में कोविड-19 महामारी अवष्य रहेगी बावजूद इसके आर्थिक मंदी, आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन, अफगानिस्तान के ताजा हालात समेत कई मुद्दे यहां छाये रह सकते हैं। दो टूक यह भी है कि विदेष मंत्री एस जयषंकर ने यूएन महासभा में तुर्की द्वारा कष्मीर मुद्दा उठाने पर करारा जवाब दिया। जाहिर है कष्मीर के बहाने जो देष भारत को लेकर अनाप-षनाप बयानबाजी करेंगे उनसे निपटने में भारत की रणनीति कहीं अधिक सक्षम और प्रबल रहेगी यह उसी की एक बानगी थी।

वैसे अनुमान तो यह भी लगाया जा रहा है कि बाइडेन के साथ प्रधानमंत्री मोदी की पहली व्यक्तिगत द्विपक्षीय वार्ता की विफलता काफी हद तक इस बात पर भी निर्भर करेगी कि अफगानिस्तान के बदले हालात पर उनका रवैया क्या है। क्या बाइडेन अफगानिस्तान के मुद्दे से वैसे ही अभी भी जुड़े हैं जैसे तालिबान के आने से पहले थे। हालांकि यहां स्पश्ट कर दें कि भारत अब दुनिया के मंच पर खुलकर बात करता है ऐसे में क्वाड समेत तमाम देषों से द्विपक्षीय मामले में भारत की बातचीत राश्ट्रहित के अलावा वैष्विक हित को ही बल देगी। गौरतलब है कि अमेरिका जैसे देष भी भारत को कई अपेक्षाओं का केन्द्र समझते हैं। दक्षिण एषिया में षान्ति बहाली का एक मात्र जरिया भारत ही है। आसियान देषों में भारत का सम्मान, ब्रिक्स में उसकी उपादेयता और यूरोपीय देषों के साथ द्विपक्षीय बाजार और व्यापार समेत कई मुद्दों पर संदर्भ निहित बातें भारत की ताकत को न केवल बड़ा करती हैं बल्कि अपेक्षाओं से युक्त भी बनाती हैं। चीन के साथ अमेरिका की तनातनी और भारत की दुष्मनी एक ऐसे मोड़ पर है जहां से भारत अमेरिका के लिये न केवल बड़ी उम्मीद है बल्कि एषियाई देषों में एक बड़ा बाजार और साझीदार है। भले ही मोदी और बाइडन के बीच व्यक्तिगत कैमिस्ट्री नहीं है मगर रणनीतिक हित दोनों समझते हैं। चीन द्वारा क्वाड समूह को षुरूआती दौर में ही दक्षिण एषिया के नाटो के रूप में सम्बोधित किया जाना उसकी चिंता का अंदाजा लगाया जा सकता है। उसका आरोप है कि उसे घेरने के लिये यह एक चतुश्पक्षीय सैन्य गठबंधन है जो क्षेत्र की स्थिरता के लिये एक चुनौती उत्पन्न कर सकता है। गौरतलब है कि चीन क्वाड के षीर्श नेतृत्व की बैठक और व्यापक सहयोग को लेकर पहले भी चिंता जाहिर कर चुका है। इसमें कोई षक नहीं कि क्वाड चीन के विरूद्ध एक गोलबंदी है ऐसे में हिन्द प्रषान्त क्षेत्र में भारत की भूमिका बढ़ेगी और जिस मनसूबे के साथ क्वाड के देष आगे बढ़ने का इरादा रखते हैं उससे चीन को संतुलित करने में यह काम आयेगा और दक्षिण-चीन सागर में उसके एकाधिकार को चोट भी पहुंचायी जा सकती है।

कोविड-19 के षुरूआती दिनों में दवाई देकर भारत अमेरिका समेत दुनिया के तमाम देषों की भलाई किया और अब इस साल की षुरूआत से अब तक 95 अन्य देषों और संयुक्त राश्ट्र षान्ति रक्षकों को टीके की खुराक उपलब्ध करायी। फिलहाल दुनिया भर में व्याप्त विभिन्न प्रकार की समस्याओं के बीच प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा पर नैसर्गिक मित्र रूस समेत मध्य और पष्चिम एषियाई देषों के साथ दुनिया के तमाम देषों की भारत पर नजर रहेगी जिसमें चीन और पाकिस्तान तो इसे टकटकी लगाकर देख रहे होंगे। गौरतलब है कि सितम्बर 2019 के बाद यह यात्रा पहली और कोरोना काल में बांग्लादेष के बाद एषिया से बाहर किसी देष की भी पहली ही यात्रा है जबकि प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी की सितम्बर 2014 में प्रथम यात्रा थी। 

 दिनांक : 23 सितम्बर,  2021




डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

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जीएसटी के दायरे में क्यों नहीं पेट्रोल-डीजल

गुड्स एण्ड सर्विसेज़ टैक्स (जीएसटी) काउंसिल की हालिया और 45वीं बैठक बीते 17 सितम्बर को हुई थी। उम्मीद थी कि आसमान छूते पेट्रोल-डीजल को इस बैठक में वाजिब जमीन मिलेगी पर कीमतों में राहत की सारी उम्मीदें फिलहाल खत्म हो गयीं। जीएसटी के दायरे में पेट्रोल-डीजल को लाना एक बड़े भागीरथ प्रयास की आवष्यकता महसूस करा रहा है। तकरीबन सभी राज्यों की सहमति से फिलहाल लम्बे समय के लिये इसे ठण्डे बस्ते में कमोबेष डाल दिया गया। जबकि आंकड़े अर्थव्यवस्था को पटरी पर लौटने के संकेते दे रहे हैं। जाहिर है सस्ता तेल इसी अर्थव्यवस्था को और स्पीड दे सकता है पर सरकार है कि मानती नहीं है। हर मोर्चे पर सरकार की पीठ थपथपायी जाये ऐसा षायद ही किसी देष में सम्भव हो। लोकतांत्रिक देषों में सरकार से सवाल करना एक सहज प्रक्रिया होती है। इसी परिदृष्य के दायरे में यह प्रष्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर क्यों पेट्रोल और डीजल को जीएसटी में लाने के लिये सरकारें राजी नहीं हो रही हैं जबकि जीएसटी 1 जुलाई 2017 से लागू है। देष में पेट्रोल के रेट कुछ षहरों में तो 100 रूपए प्रति लीटर से ऊपर है तो कहीं-कहीं डीजल भी इस कीर्मिमान को छू लिया है। वैसे तो अब जीएसटी के दायरे में इन्हें लाने का विचार फिलहाल टल गया है मगर यदि भविश्य में ऐसा होता है तो डीजल 20 रू. और पेट्रोल 30 रू. प्रति लीटर सस्ता हो सकता है।

गौरतलब है कि पेट्रोल-डीजल पर सरकारें लगभग 150 फीसद के आस-पास टैक्स वसूल रही हैं जबकि 4 स्लैब में विभक्त जीएसटी का सबसे उच्चत्तम दर महज 28 फीसद है। अब तक जीएसटी काउंसिल की 45 बैठक हो चुकी है। वैसे अप्रैल 2018 के पहले सप्ताह में पेट्रोल-डीजल को जीएसटी के दायरे में लाने की दिषा में धीरे-धीरे आम सहमति बनाने का प्रयास मंत्रालय ने कही थी मगर इस पर भी हजार अडंगे बताये जा रहे थे। उत्पाद षुल्क घटाने का दबाव तो पहले से रहा है मगर वित्त मंत्रालय ऐसा कोई इरादा नहीं दिखाया। गौरतलब है कि सरकार यदि बजटीय घाटा कम करना चाहती है तो उत्पाद षुल्क घटाना सम्भव नहीं है। खास यह भी है कि एक रूपए प्रति लीटर की डीजल-पेट्रोल की कटौती से सरकार के खजाने में 13 हजार करोड़ रूपए की कमी सम्भव है। जाहिर है सरकार यह जोखिम क्यों लेगी और वो भी अर्थव्यवस्था के खराब दौर के बीच। जीएसटी से इन दिनों सरकार की कमाई में इजाफा हुआ है। दिसम्बर 2020 से अगस्त 2021 के बीच केवल जून महीने को छोड़ दिया जाये तो प्रतिमाह जीएसटी से कमाई 1 लाख करोड़ रूपए ही रही है जिसमें अप्रैल में तो यह आंकड़ा 1 लाख 41 हजार करोड़ से अधिक था जो पिछले 4 सालों में सर्वाधिक है। 

पेट्रोल-डीजल की महंगाई से जनता महीनों से व्यापक कठिनाई झेल रही है। इस सवाल का जवाब भी खोजना आसान है कि केन्द्र के साथ राज्य सरकारें भी जीएसटी में न लाने के साथ क्यों हैं। दोनों को अपने खजाने की चिंता है। भले ही जनता क्यों न पिसे। यदि बिहार के पूर्व वित्त मंत्री सुषील कुमार मोदी के इस वक्तव्य को समझें जिसमें उन्होंने कहा था कि यदि पेट्रोल व डीजल जीएसटी के दायरे में आते हैं तो इससे केन्द्र और राज्य सरकारों को 4 लाख 10 हजार करोड़ रूपए का नुकसान उठाना पड़ेगा। जब चारों तरफ से सरकार की कमाई में अवरोध है तो डीजल और पेट्रोल एक सुगम रास्ता बन गया है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था कि पेट्रोल और डीजल सस्ता करना या फिर उस पर ड्यूटी और टैक्स कम करना सम्भव नहीं है और दलील देते हुए कहा था कि तेल कम्पनियों को पिछली सरकार ने सब्सिडी देने हेतु जो आय बाॅण्ड जारी किये थे उन पर ब्याज भरने में ही बहुतायत में रकम खर्च हो जाती है। हालांकि यह पड़ताल का विशय है कि हकीकत और फसाने में क्या अंतर है। दो टूक यह है कि जनता को तो सस्ता तेल चाहिए। जीएसटी मुनाफे की कर व्यवस्था है, पेट्रोल और डीजल के मामले में तो कहा ही जा सकता है। यदि ऐसा न होता तो सरकार इसे बहुत पहले ही जीएसटी में ला चुकी होती। फिलहाल तेल के भस्मासुर वाले दाम से लोगों को राहत देने के लिये सरकार या तो उत्पाद षुल्क घटाये या फिर जीएसटी के दायरे में लाये।

दिनांक : 20 सितम्बर, 



डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

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Tuesday, October 5, 2021

विश्व परिदृश्य पर हिन्दी का प्रभुत्व

भले ही हिन्दी अपने देष में संघर्श कर रही हो पर दुनिया तो इसे दोनों हाथों से स्वीकार कर रही है। अगर मुझे हिन्दी नहीं आती तो मैं लोगों तक कैसे पहुंच पाता। प्रधानमंत्री मोदी का यह कथन बरसों पुराना है मगर भाशाई सुचिता को समझने का बड़ा अवसर देता है। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि भाशा एक आवरण है जिसके प्रभाव में व्यक्ति न केवल सांस्कृतिक सम्बद्धता से अंगीकृत होता है बल्कि विकास की चोटी को भी छूता है। भाशा किसी की भी हो, कैसी भी हो सबका अपना स्थान है पर जब हिन्दी की बात होती है तो व्यापक भारत के विषाल जन सैलाब का इससे सीधा सरोकार होता है। इतना ही नहीं दषकों से प्रसार कर रही हिन्दी भाशा ने दुनिया के तमाम कोनों को भी छू लिया है। आज दुनिया का कौन सा कोना है जहां भारतीय न हो। भारत के हिन्दी भाशी राज्यों की आबादी लगभग आधी के आसपास है। वर्श 2011 की जनगणना के अनुसार देष की सवा अरब की जनसंख्या में लगभग 42 फीसदी की मातृ भाशा हिन्दी है। इससे भी बड़ी बात यह है कि प्रति चार व्यक्ति में तीन हिन्दी ही बोलते हैं। पूरी दुनिया का लेखा-जोखा किया जाय तो 80 करोड़ से ज्यादा हिन्दी बोलने वाले लोग हैं। तेजी से बदलती दुनिया का सामना करने के लिए भारत को एक मजबूत भाशा की जरूरत है। सभी जानते हैं कि अंग्रेजी दुनिया भर में बड़े तादाद की सम्पर्क भाशा है जबकि मातृ भाशा के रूप में यह संकुचित है। चीन की भाशा मंदारिन सबसे बड़ी जनसंख्या को समेटे हुए है पर एक सच्चाई यह है कि चीन के बाहर इसका प्रभाव इतना नहीं है जितना बाकी दुनिया में हिन्दी का है। पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेष, श्रीलंका से लेकर इण्डोनेषिया, सिंगापुर यहां तक कि चीन में भी इसका प्रसार है। तमाम एषियाई देषों तक ही हिन्दी का बोलबाला नहीं है बल्कि ब्रिटेन, जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका, आॅस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैण्ड समेत मानचित्र के सभी महाद्वीपों जैसे अमेरिका और मध्य एषिया में इसका बोलबाला है। स्पश्ट है कि हिन्दी का विस्तार और प्रभाव भारत के अलावा भी दुनिया के कोने-कोने में है। 

हिन्दी के बढ़ते वैष्वीकरण के मूल में गांधी की भाशा दृश्टि का महत्वपूर्ण स्थान है। दुनिया भर में गांधी की स्वीकार्यता भी इस दिषा में काफी काम किया है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान भी विदेषों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार व पाठ्यक्रमों के योगदान के लिए जानी-समझी जाती है। हिन्दी में ज्ञान, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विशयों पर सरल और उपयोगी पुस्तकों का फिलहाल अभी आभाव है पर जिस कदर भारत में व्यापार और बाजार का तकनीकी पक्ष उभरा है उससे यह संकेत मिलता है कि उक्त के मामले में भी हिन्दी बढ़त बना लेगी और यह क्रम जारी भी है। दक्षिण भारत के विष्वविद्यालयों में हिन्दी विभागों की तादाद बढ़ रही है पर यह भी सही है कि उत्तर दक्षिण का भाशाई विवाद अभी भी जड़ जंग है। संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाशाओं का उल्लेख है जबकि कुल 53 भाशा और 1600 बोलियां भारत में उपलब्ध हैं। भारत विविधता में एकता का देष है जिसे बनाये रखने में भाशा का भी बड़ा योगदान है। हिन्दी के प्रति जो दृश्टिकोण विदेषियों में विकसित हुआ है वो भी इसकी विविधता का चुम्बकीय पक्ष ही है। बड़ी संख्या में विदेषियों को हिन्दी सीखने के लिए अभी भी भारत में आगमन होता है। दुनिया के सवा सौ से अधिक षिक्षण संस्थाओं में भारत को बेहतर ढंग से जानने के लिए हिन्दी का अध्ययन हो रहा है जिसमें सबसे ज्यादा 32 षिक्षण संस्था अमेरिका में है। लंदन के कैम्ब्रिज विष्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। जर्मनी और नीदरलैंड आदि में भी हिन्दी षिक्षण संस्थाएं हैं जबकि 1942 से ही चीन में हिन्दी अध्ययन की परम्परा षुरू हुई थी और 1950 में जापानी रेडियों से पहली बार हिन्दी कार्यक्रम प्रसारित किया गया था। रूस में तो हिन्दी रचनाओं एवं ग्रन्थों का व्यापाक पैमाने पर अनुवाद हुए। उपरोक्त से पता चलता है कि वैष्विक परिप्रेक्ष्य में हमारी हिन्दी विदेष में क्या रंग दिखा रही है साथ ही हिन्दी भाशा में व्यापक पैमाने पर विदेषी षिक्षण संस्थाएं किस भांति निवेष कर रही हैं। 

सितम्बर 2015 के भोपाल में तीन दिवसीय हिन्दी अन्तर्राश्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने हिन्दी भाशा की गरिमा और गम्भीरता को लेकर कई प्रकार की बातों में एक बात यह भी कही थी कि अगर समय रहते हम न चेते तो हिन्दी भाशा के स्तर पर नुकसान उठायेंगे और यह पूरे देष का नुकसान होगा। प्रधानमंत्री मोदी के इस वक्तव्य के इर्द-गिर्द झांका जाय तो चिंता लाज़मी प्रतीत होती है। स्वयं मोदी ने बीते सात वर्शों से अधिक समय से विदेषों में अपने भाशण के दौरान हिन्दी का जमकर इस्तेमाल किया। षायद पहला प्रधानमंत्री जिसने संयुक्त राश्ट्र संघ में षामिल एक तिहाई देषों को हिन्दी की नई धारा दे दी जिसका तकाजा है कि हिन्दी के प्रति वैष्विक दृश्टिकोण फलक पर है। यह सच है कि भाशा किसी भी संस्कृति का वह रूप है जिसके बगैर या तो वह पिछड़ जाती है या नश्ट हो जाती है जिसे बचाने के लिए निरंतर भाशा प्रवाह बनाये रखना जरूरी है। देष में हिन्दी सम्मेलन, हिन्दी दिवस और विदेषों में हिन्दी की स्वीकार्यता इसी भावना का एक महत्वपूर्ण प्रकटीकरण है। 14 सितम्बर हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है जबकि सितम्बर के पहले दो सप्ताह को हिन्दी पखवाड़ा के रूप में स्थान मिला हुआ है। यहां यह भी समझ लेना जरूरी है कि यदि हिन्दी ने दुनिया में अपनी जगह बनाई है तो अंग्रेजी जैसी भाशाओं से उसे व्यापक संघर्श भी करना पड़ा है। भारत में आज भी हिन्दी को दक्षिण की भाशाओं से तुलना की जाती है जबकि सच्चाई यह है कि कोई भी भाशा अपना स्थान घेरती है हिन्दी तो इतनी समृद्ध है कि कईयों को पनाह दे सकती है। संयुक्त राश्ट्र संघ में हिन्दी को अधिकारिक भाशा का दर्जा देने की मांग उठती रही है मगर बिना किसी खास प्रयास के संयुक्त राश्ट्र में हिन्दी मानो स्वयं एक भाशा बन गयी हो। डिजिटल दुनिया में अंग्रेजी, हिन्दी और चीनी के छाने की सम्भावना बढ़ी हुई है ऐसा प्रधानमंत्री मोदी भी मानते हैं। जिस तर्ज पर दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी का भाशाई प्रयोग हिन्दी की ओर झुक रहा है उसमें भी बड़ा फायदा हो सकता है। इंटरनेट से लेकर गूगल के सर्च इंजन तक अब हिन्दी को कमोबेष बड़ा स्थान मिल गया है साथ ही बैंकिंग, रेलवे समेत हर तकनीकी विधाओं में अंग्रेजी के साथ हिन्दी का समावेषन हुआ है। 

विष्व तेजी से प्रगति की ओर है विकसित समेत कई विकासषील देष अपनी भाशा के माध्यम से ही विकास को आगे बढ़ा रहे हैं पर भारत में स्थिति थोड़ी उलटी है यहां अंग्रेजी की जकड़ बढ़ रही है। रोचक यह भी है कि विदेषों में हिन्दी सराही जा रही है और अपने ही देष में तिरछी नज़रों से देखी जा रही है। एक हिन्दी दिवस के कार्यक्रम में हिन्दी की देष में व्यथा को देखते हुए एक नामी-गिरामी विचारक ने हिन्दी समेत भारतीय भाशा को चपरासियों की भाशा कहा। यहां चपरासी एक संकेत है कि भारतीय भाशा को किस दर्जे के तहत रखा जा रहा है। हालांकि वास्तविकता इससे परे भी हो सकती है पर कुछ वर्श पहले सिविल सेवा परीक्षा के 11 सौ के नतीजे में मात्र 26 का हिन्दी माध्यम में चयनित होना और कुल भारतीय भाशा में से मात्र 53 का चयनित होना देष के अन्दर इसकी दयनीय स्थिति का वर्णन नहीं तो और क्या है। हालांकि अब इसमें भी सुधार हो रहा है। अंग्रेजी एक महत्वपूर्ण भाशा है पर इसका तात्पर्य नहीं कि इसे हिन्दी की चुनौती माना जाय या दूसरे षब्दों में हिन्दी को अंग्रेजी के सामने खड़ा करके उसे दूसरा दर्जा दिया जाय। प्रधानमंत्री मोदी का राजनीतिक और कूटनीतिक कदम चाहे जिस राह का हो पर इस बात को मानने से कोई गुरेज नहीं कि हिन्दी विस्तार की दषा में उनकी कोई सानी नहीं। फिलहाल हिन्दी भाशा में दुनिया के कोने-कोने से बढ़ते निवेष को देखते हुए कह सकते हैं कि हिन्दी धारा और विचारधारा के मामले में मीलों आगे है। 

(दिनांक : 13 सितम्बर, 2021)


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

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