Thursday, March 25, 2021

समाज का अनुशासन कानून और सुशासन

कानून सामाजिक परिवर्तन का सषक्त माध्यम है और सुषासन का अनुबंध लोक सषक्तिकरण से है और जब दोनों का समन्वय हासिल होता है तो समाज ही नहीं देष अनुषासन के साथ विकास के आसमान पर होता है। षान्ति व्यवस्था, न्याय और समानता की स्थापना कानून से तो खुषियां सुषासन से जुड़ी हैं। निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि विकास का प्रषासन प्राप्त करने के लिए एक मजबूत अनुषासन, खुलापन, संवेदनषीलता और लोक कल्याण को कोर में रखना होता है। कानूनों, नियमों और विनियमों की षासन प्रणाली में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। काूनन का षासन षासन, प्रषासन और विकास के बीच एक ऐसा सम्बंध रखता है जिससे लोक व्यवस्था व लोक कल्याण को बढ़ावा देना आसान हो जाता है जबकि सुषासन षासन को अधिक खुला, पारदर्षी तथा उत्तरदायी बनाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सुषासन की अवधारणा जीवन, स्वतंत्रता एवं खुषी प्राप्त करने के लोगों के अधिकार से जुड़ी हुई है। किसी भी लोकतंत्र में ये तभी पूरा हो सकता है जब वहां कानून का षासन हो। कानून का षासन की अभिव्यक्ति इस मुहावरे से होती है कि कोई व्यक्ति कानून से बड़ा नहीं है। संवैधानिक प्रणाली में हर व्यक्ति को कानून के सामने समानता एवं संरक्षण का अधिकार प्राप्त है। लोकतंत्र और कानून का षासन पर्याय के रूप में देखा जा सकता है मगर जब राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते सत्ताधारी लकीर से हटते हैं तो न केवल लोकतंत्र घाटे में जाता है बल्कि कानून का षासन भी सवालों से घिर जाता है। गौरतलब है कि षान्ति व्यवस्था और अच्छी सरकार एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं और ये कनाडाई माॅडल हैं। भारत में कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्यों को दी गयी है ऐसे में राज्य षान्ति व्यवस्था कायम करके अच्छी सरकार अर्थात् सुषासन को अपने पक्ष में कर सकते हैं। संघीय ढांचे के भीतर भारतीय संविधान में कार्यों का ताना-बाना भी बाकायदा देखा जा सकता है। जब सब कुछ में कानून का षासन होता है तब न केवल संविधान की सर्वोच्चता कायम होती है बल्कि नागरिक भी मन-माफिक विकास हासिल करता है। 

स्पश्ट है संविधान एक ऐसा तार्किक और कानूनी संविदा है जो सभी के लिए लक्ष्मण रेखा है। कानून का षासन और सुषासन एक-दूसरे को न केवल प्रतिश्ठित करते हैं बल्कि जन कल्याण और ठोस नीतियों के चलते प्रासंगिकता को भी उपजाऊ बनाये रखते हैं। देखा जाय तो कानून स्वायत्त नहीं है यह समाज में गहन रूप से सन्निहित है। यह समाज के मूल्यों को प्रतिबिंबित करता है। समाज कानून को प्रभावित करता है और उससे प्रभावित भी होता है। कानून का षासन नियंत्रण और पर्यवेक्षण से मुक्त नहीं होता। यह परिवर्तन का सषक्त माध्यम है जिसके चलते न्याय सुनिष्चित करना, षान्ति स्थापित करना तथा सामाजिक-आर्थिक विकास को सुनिष्चित करना सम्भव होता है। सुषासन का अपरिहार्य उद्देष्य सामाजिक अवसरों का विस्तार और गरीबी उन्मूलन देख सकते हैं। इसे लोक विकास की कुंजी भी कहना अतिष्योक्ति न होगा। मानवाधिकार, सहभागी विकास और लोकतांत्रिकरण का महत्व सुषासन की सीमाओं में आते हैं। गौरतलब है कि 1991 में उदारीकरण के बाद जो आर्थिक मापदण्ड विकसित किये गये वे मौजूदा समय के अपरिहार्य सत्य हैं। कानून का षासन अच्छे और नैतिक षासन की अनिवार्य आवष्यकताओं में एक है जो सुषासन के बगैर हो ही नहीं सकता। भारतीय संविधान देष का सर्वोच्च कानून है और सभी सरकारी कार्यवाहियों के ऊपर है। यह कल्याणकारी राज्य और नैतिक षासन की परिकल्पना से भरा है और ऐसी ही परिकल्पनाएं जब जन सरोकारों से युक्त समावेषी विकास की ओर झुकी होती हैं जिसमें षिक्षा, चिकित्सा, रोजगार व गरीबी उन्मूलन से लेकर लोक कल्याण के सारे रास्ते खुले हों वह सुषासन की परिकल्पना बन जाती है। 

इस परिदृष्य में एक आवष्यक उप सिद्धांत न्यायिक सक्रियतावाद भी है जो कार्यपालिका की उदासीनता के खिलाफ उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय में अनेक जनहित याचिका के रूप में देखी जा सकती है। इसका एक उदाहरण है तो बहुत पुराना मगर आज भी प्रासंगिक है। सर्वोच्च न्यायालय ने साल 2007 के एक मामले में न्यायिक सक्रियतावाद के खिलाफ चेतावनी दी है और कार्यपालिका को बेबाक संदेष दिया कि वे आत्म नियंत्रण से काम लें। आत्मनियंत्रण के चलते कानून का षासन और उससे जुड़ी सुषासन का उद्देष्य दक्षता और सक्षमता से पूरा किया जा सकता है। सरकार एक सेवा प्रदायक इकाई है सच यह है कि भारत सरकार और राज्य सरकारें स्वास्थ एवं षिक्षा की दिषा में बरसों से कदम उठाती रही हैं मगर यह चिंता रही है कि आखिरकार यह किसके पास पहुंच रही है। इसकी गहनता से जांच करने पर यह तथ्य सामने आया कि इसका लाभ गैर गरीब तबके के लोग उठा रहे हैं। ऐसा न हो इसके लिए सरकार और प्रषासन को न केवल चैकन्ना रहना है बल्कि नागरिक भी इस मामले में जागरूक हों कि उनका हिस्सा कोई और तो नहीं मार रहा। भारत में लोक सेवा प्रदायन को बेहतर बनाने की दिषा में कानून का षासन अपने-आप में एक बड़ी व्यवस्था है। इस सेवा के लिए जिन तीन संस्थाओं ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई है उनमें एक न्यायपालिका, दूसरा मीडिया और तीसरा नागरिक समाज रहा है। मौजूदा समय में भी इन तीनों इकाईयों की भूमिका कानून के षासन सहित सुषासन को सुनिष्चित कराने में बड़े पैमाने पर देखा जा सकता है। हालांकि मीडिया और नागरिक समाज न्यायपालिका की तर्ज पर न अधिकार रखता है और न ही उसकी कोई ऐसी बहुत बड़ी अनिवार्यता है मगर संविधान से मिले अधिकारों का प्रयोग कमोबेष करता रहा है। 

राजनीतिक, प्रषासनिक प्रणाली के कार्य को समझने के लिए व्यक्तिक और सामाजिक समझ भी मजबूत होनी चाहिए। लोकतंत्र में जनता जितनी जागरूक होगी उतने ही व्यापक पैमाने पर हितकारी पक्षों पर बल मिलेगा। जहां षान्ति और खुषियां व्यापक पैमाने पर बिखरी हों वहां अनुषासन स्वयं स्थान घेरता है जो कानून का षासन और सुषासन का सकारात्मक अभिप्राय लिए होता है। किसी भी देष में कानूनी ढांचा आर्थिक विकास के लिए जितना महत्वपूर्ण होता है उतना ही महत्वपूर्ण राजनीतिक और सामाजिक विकास के लिए भी होता है। ऐसा इसलिए ताकि सामाजिक-आर्थिक उन्नयन में सरकारें खुली किताब की तरह रहें और देष की जनता को दिल खोलकर विकास दें। इसमें कोई दुविधा नहीं कि सुषासन सरकार की बड़ी जिम्मेदारी है और कानून का षासन उससे भी बड़ी जिम्मेदारी है। भारत के परिप्रेक्ष्य में सुषासन और इसके समक्ष खड़ी चुनौतियां दूसरे देषों की तुलना में भिन्न हैं। अषिक्षा का होना, जगारूकता का आभाव, बुनियादी समस्याएं, गरीबी का प्रभाव, भ्रश्टाचार का बरकरार रहना और निजी महत्वाकांक्षा ने सुषासन को उस पैमाने पर पनपने ही नहीं दिया जैसे कि यूरोपीय देषों के नाॅर्वे, फिनलैण्ड आदि देषों में है। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और सबसे मजबूत और व्यापक संविधान वाला देष भारत कानून का षासन बनाये रखने में अभी पूरी तरह सफल दिखता नहीं है। इसका प्रमुख कारण नागरिकों का पूरी तरह सक्षम न होना है। नागरिक और षासन का सम्बंध तब सषक्त होता है जब सरकार की नीतियां उसकी आवष्यकताओं को पूरा करने का दम रखती हो। यहीं पर सुषासन भी कायम हो जाता है, षान्ति को भी पूर्ण स्थान मिलता है साथ ही कानून व्यवस्था समेत खुषियां वातावरण में तैरने लगती हैं। 


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

विनिवेश और निजीकरण के आगे

अर्थव्यवस्था उत्पादन, वितरण और खपत की एक सामाजिक व्यवस्था है जो किसी देष या क्षेत्र विषेश में अर्थषास्त्र का गतिषील आईना भी है। इस षब्द की सबसे प्राचीन कसौटी ईसा पूर्व कौटिल्य द्वारा लिखित ग्रन्थ अर्थषास्त्र में देख सकते हैं। इसी आर्थिक गतिषीलता को बनाये रखने के चलते सरकारें नये कदम भी उठाती हैं और नये आयामों की खोज में भी लगी रहती हैं। हालांकि विनिवेष और निजीकरण जैसे षब्द भारतीय षासन पद्धति में नये नहीं हैं पर इन्हें नूतन तरीके से प्रसार देने का प्रयास जारी है। अर्थव्यवस्था के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों को देखते हुए सरकार द्वारा विनिवेष और निजीकरण को तेजी से आजमाया जा रहा है। जाहिर है इससे सरकार को अतिरिक्त राजस्व मिलेगा और षासन की दक्षता में वृद्धि होगी ताकि सुषासन का मार्ग भी चैड़ा हो सके। मगर इस हकीकत को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता कि एक सीमा के बाद इसके कई साइड इफेक्ट हो सकते हैं। देष लोकतंत्र और लोक कल्याण की परिपाटी से युक्त है यहां सरकार और जनता का सीधा संवाद है और लोक कल्याण से सरोकार है। यहां मुनाफे का नहीं बल्कि जनहित को हर सूरत पर सुनिष्चित करने की धारा का प्रस्फुटन होता है। ऐसे में इससे जुड़े कदम की जमीन दलदली नहीं होनी चाहिए। लोकनीति चाहे विनिवेष से जुड़ी हो या निजीकरण से सरकार कुछ करती है या कुछ नहीं करती है या जो भी करती है वही उसकी नीति होती है। बीते कुछ वर्शों से विनिवेष और निजीकरण को लेकर चर्चा फलक पर है और इसे एक नई ऊँचाई देने का प्रयास भी जारी है। स्वतंत्र भारत में सबसे बड़ा आर्थिक सुधार 24 जुलाई 1991 को आये उदारीकरण को माना जाता है। यहीं से विनिवेष के दौर की षुरूआत होती है। सरकारें बदलती रहीं मगर यह नीति निरंतरता लिए रही। मौजूदा सरकार का फोकस भी विनिवेष पर बाकायदा देखा जा सकता है। वित्त वर्श 2021-22 के लिए 1 फरवरी 2021 को पेष बजट में 1 लाख 75 हजार करोड़ की वसूली विनिवेष से ही तय की गयी है जबकि इसके ठीक एक साल पहले वित्त वर्श 2020-21 के लिए लक्ष्य 2 लाख 10 हजार करोड़ का था मगर कोविड-19 की महामारी के चलते सरकार इस मामले में मामूली ही धन जुटा पायी। इतना ही नहीं वर्श-दर-वर्श विनिवेष के लक्ष्य भी बड़े होते गये। वित्त वर्श 2014-15 में सरकार ने 58,425 करोड़ रूपए का विनिवेष लक्ष्य रखा था जबकि 26,068 करोड़ रूपए ही जुटा पायी थी। 2015-16 में यही लक्ष्य 69,500 करोड़ रूपए का था मगर महज 23,997 करोड़ से ही संतोश करना पड़ा। इसी तरह 2016-17 और 2017-18 में भी तय लक्ष्य से वसूली कम हुई लेकिन वित्त वर्श 2018-19 में 80,000 करोड़ रूपए का लक्ष्य और हासिल हुआ 85,000 करोड़। मौजूदा सरकार का यही एक वर्श तय लक्ष्य से अधिक है अन्यथा विनिवेष के मामले में लक्ष्य बड़े और ताकत अधिक झोके गये बावजूद इसके उगाही बौनी ही सिद्ध हुई।

उदारीकरण, निजीकरण तथा भूमण्डलीकरण आधुनिक युग की प्रमुख विषेशताएं हैं जबकि विनिवेष को आर्थिक सुगमता का एक बेहतर आर्थिक माॅडल के रूप में सरकारें देखती रही हैं जो तीन दषक पुराना है। 1991-92 में जब सरकारी सेक्टर की 31 कम्पनियों में विनिवेष किया गया और 3,038 करोड़ रूपए सरकारी खजाने में आये तो सरकार का सुखद महसूस करना लाज़मी था। दरअसल स्वतंत्रता के बाद पब्लिक सेक्टर पर तेजी से जोर दिया जाने लगा। पहले एड़ी-चोटी का जोर लगाकर तमाम क्षेत्रों में सरकारी कम्पनियों का विस्तार किया गया और 80 के दषक तक ऐसी कम्पनियों को ठीक से चलाना ही मुष्किल होने लगा। वैसे भी 1989 के विष्व बैंक की इस रिपोर्ट ‘स्टेट टू मार्केट’ में देखें तो यह स्पश्ट था कि राज्य से बाजार की ओर चलने का बिगुल बज चुका था। यह वही दौर था जब दुनिया सुषासन की राह ले रही थी और अर्थव्यवस्था खुलेपन की ओर जा रही थी और भारत भी आर्थिक उदारीकरण की ओर बढ़ चला था। इंग्लैण्ड पहला देष है जिसने विष्व बैंक द्वारा गढ़ी सुषासन की नई परिभाशा के साथ स्वयं को सुसज्जित किया जबकि 1992 में इसी सुषासन से भारत भी ओत-प्रोत होने की ओर था। उदारीकरण के चलते आर्थिक उठान धीरे-धीरे दिखने लगा। अगस्त 1996 में एक विनिवेष आयोग का गठन किया गया जिसके मुखिया जीवी रामकृश्णा थे। आयोग का काम सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में चरणबद्ध तरीके से हिस्सेदारी बेचने को लेकर सलाह देना साथ ही इस प्रक्रिया पर निगरानी रखना। इस आयोग द्वारा 57 सरकारी कम्पनियों के निजीकरण की सिफारिष की गयी थी। वाजपेयी षासनकाल में बाकायदा विनिवेष मंत्रालय भी बनाया गया था जिसके मंत्री अरूण षौरी थे। हालांकि मई 2004 में आयोग समाप्त कर दिया गया और मंत्रालय का भी इतिश्री हो गया था। गौरतलब है कि 1991-92 से लेकर 2000-01 के बीच अर्थात् एक दषक में विनिवेष से धन जुटाने का जो लक्ष्य रखा गया था उसके आधे से कम की वसूली हो पायी थी। इससे स्पश्ट है कि विनिवेष जितना सुगम आर्थिक माॅडल दिखता है धरातल पर उस ढंग से उतरता नहीं है जबकि इसके अनुमान के आधार पर सरकारें नियोजन को पटरी पर लाने का मनसूबा पाल लेती हैं। ऐसे में इसके बूते किये जाने वाले कई लोकहित के कार्य भी प्रभावित होते हैं।

सरकार कम्पनियां चलाये और मुनाफे का कारोबार करे इसकी सम्भावना कम ही है। हालांकि कई नवरत्न और मिनीरत्न कम्पनियां इस मामले में सफल हैं लेकिन महात्वाकांक्षा को पूरा आसमान दे सके इसकी सम्भावना पूरी तरह नहीं कही जा सकती। निजी क्षेत्र वाले तो यह नहीं चाहेंगे कि सरकारी कम्पनियों का कारोबार अच्छा हो। जिन अर्थव्यवस्थाओं में जीडीपी में कमी, प्रति व्यक्ति आय में गिरावट और जनसंख्या अधिक के साथ गरीबी और बेरोज़गारी उठान लिए हो, सामान्यतया उसे विकासषील अर्थव्यवस्था का दर्जा दिया गया। भारत इसी श्रेणी में आता है और लगभग 3 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था रखता है साथ ही 2024 तक इसे 5 ट्रिलियन डाॅलर का लक्ष्य रखा है। मगर इसके लिए जीडीपी दहाई में होनी चाहिए। काविड-19 की मार में जीडीपी को भी जमींदोज कर दिया है। ऐसे में 2024 में आर्थिक लक्ष्य मिलेगा या नहीं अभी कहना जल्दबाजी होगा। फिलहाल विनिवेष और निजीकरण के फर्क को भी समझना सही रहेगा। विनिवेष में पब्लिक सेक्टर की कम्पनी में सरकार कुछ हिस्सा बेचती है लेकिन कम्पनी पर सरकार का ही नियंत्रण रहता है जबकि निजीकरण में बहुमत हिस्सेदारी प्राइवेट कम्पनियों को दे दिया जाता है और इस तरह से प्रबंधन निजी कम्पनी के हाथों में चला जाता है। दो टूक यह भी है कि विनिवेष के संदर्भ में सरकार नियंत्रण निजी कम्पनी को दे या न दें यह उस पर निर्भर है लेकिन निजीकरण में ऐसा नहीं है। सवाल यह है कि विनिवेष की आखिरकार आवष्यकता क्यों पड़ती है। इसके पीछे बड़ा कारण कम्पनी का अच्छा प्रदर्षन न करना है। कम्पनी चलाने के लिए संचित निधि पर भार बने रहने से वित्तीय बोझ लगातार बना रहता है ऐसे में सरकार इससे पीछा छुड़ाना चाहती है। इससे न केवल सरकारी खजाने से पैसा निकलना बंद होता है बल्कि उल्टे खजाना भरने का अवसर मिलता है लेकिन 3 दषक की पड़ताल यह बताती है कि विनिवेष से उगाही के लक्ष्य कुछ वित्त वर्श को अपवादस्वरूप छोड़ दें तो मिला नहीं है। हालांकि विनिवेष की प्रक्रिया इतनी सरल भी नहीं है इसके लिए बाकायदा खरीददार ढ़ूंढ़ने पड़ते हैं। गौरतलब है जनवरी 2020 में सरकार ने घोशणा कर दी थी कि वह कर्ज के बोझ में दबी भारतीय विमानन कम्पनी एयर इण्डिया की पूरी हिस्सेदारी बेचने के लिए तैयार है मगर इसमें कठिनाई बनी हुई है। यहां बता दें कि साल 2018-19 में एयर इण्डिया की सभी देनदारी 70,686 करोड़ रूपए से अधिक थी। सरकार का इरादा आईडीबीआई बैंक, बीपीसीएल, षिपिंग काॅरपोरेषन आॅफ इण्डिया, कंटेनर काॅरपोरेषन के अलावा पेट्रोलियम कम्पनियों आदि समेत कईयों की हिस्सेदारी बेच कर रकम जुटाने की है जो अलग-अलग कीमतों की है। 2021-22 में विनिवेष से सरकार तीन फीसद से कम राजस्व जुटा पायी है। यह इस बात को पुख्ता करता है कि हाथी के दांत दिखाने के कुछ और खाने के कुछ और हैं। 

निजीकरण का बादल आर्थिक आसमान में देख सकते हैं गौरतलब है इसे भी राजस्व का एक बेहतर  जरिया माना जाता है। मगर इसके बजाए यदि संरचनात्मक, प्रक्रियागत और व्यावहारिक सुधार पर बल दिया जाये तो नतीजे और बेहतर हो सकते हैं। वैसे कहा जा रहा है कि मौजूदा सरकार निजीकरण के लिए 18 सेक्टर को रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण माना है जिसे तीन व्यापक खण्डों में विभाजित किया गया है खनन और पर्यवेक्षण, विनिर्माण, प्रसंस्करण एवं निर्माण और सेवा क्षेत्र। जाहिर है बैंकिंग, बीमा, इस्पात, उर्वरक, पेट्रोलियम आदि इसकी जद में रहेंगे। अब सवाल यह है कि क्या बेचना ही विकल्प रह गया है। गौरतलब है कि तीन दषक पहले जो कदम उदारीकरण के तहत उठे थे अब वो पूरा विस्तार ले चुका है। लोक सषक्तिकरण यदि सुषासन है तो निजी के हाथों में बढ़ती ताकतें क्या नागरिकों का षोशण नहीं होगा। राजकोशीय घाटे को कम करने के लिए भी सरकार विनिवेष की ओर कदम बढ़ाती है साथ ही इस पूंजी का इस्तेमाल कर्ज कम करने के लिए भी करती है। मगर लोक कल्याण इस प्रक्रिया से क्या प्रभावित होता है। जाहिर है निजी का तात्पर्य लाभकारी होना और सरकारी का मतलब कल्याणकारी। साफ है जितना अधिक निजी का दखल बढ़ेगा लोक कल्याण उतना प्रभावित होगा। मुनाफे के बगैर निजी सेक्टर काम नहीं कर सकते और घाटे में रहकर भी जनता के हित सुनिष्चित करना सरकार अपना धर्म समझती है। बैंकों का विलय हो या सरकारी कम्पनियों का विनिवेष या फिर निजी के हाथ में कुछ का नियंत्रण देने जैसी बात हो इनके कुछ फायदे तो कुछ नुकसान भी हैं। मई 2020 में आत्मनिर्भर भारत की जो धारणा प्रकट हुई उसका प्रभाव भी उपरोक्त बिन्दुओं में देख सकते हैं। 2021-22 के बजट में आत्मनिर्भर भारत के लिए सार्वजनिक क्षेत्र उद्यम नीति की घोशणा की गयी थी इसके तहत रणनीतिक क्षेत्र में पीएसयू के जरिये सरकार की मौजूदगी बहुत कम हो जायेगी और गैर रणनीतिक क्षेत्रों में पीएसयू का निजीकरण होगा या उन्हें बंद कर दिया जायेगा। संकेत साफ है सब कुछ पैसे के लिए हो रहा है। जाहिर है पैसे से विकास होगा लेकिन क्या विनिवेष और निजीकरण व्यापक रूप से लाकर कोई चुनौती तो नहीं खड़े कर रहे हैं जिसका असर आने वाले दिनों पर पड़े। वैसे भी देष का नागरिक इस भौतिकवाद में कहीं अधिक बड़ा उपभोक्ता बन गया है मगर वह पहले देष का नागरिक है। ऐसे में यदि नियंत्रण निजी के हाथों में होता भी है तो भी अपने नागरिकों के लोक कल्याण से सरकार मुंह नहीं मोड़ सकती।

 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

माध्यम वर्ग की कमर टूटने से बचाये सरकार

गौरतलब है कि कोरोना महामारी ने दुनिया के कई देषों की अर्थव्यवस्था को न केवल प्रभावित किया बल्कि वित्तीय संकट भी चैतरफा पैदा कर दिया। गौरतलब है कि साल 1990 में मध्यम वर्ग की आबादी में पहली बार गिरावट दर्ज की गयी थी और गिरावट का मुख्य कारण चीन के वुहान से चला कोरोना वायरस है। 2020 सभी के लिए जीवन की एक परीक्षा थी। कुछ उत्तीर्ण हुए तो कुछ फेल हो गये पर कोरोना अभी भी बादस्तूर बरकरार है। धीमा पड़ चुका कोरोना जिस गति से पैर पसार रहा है मानो एक नये खतरे के लिए स्वयं को प्रेरित किये हुए है। देष के कई प्रदेष चाहे जनता की लापरवाही के कारण या फिर सरकार की ठोस नीतियों में कमी के चलते इसकी चपेट में तो आ गये हैं। खास यह भी है कि कोरोना जहां मुसीबत को अंजाम दिये हुए था वहीं चुनाव का दौर भी कुछ हद तक इसमें मदद कर रहा था। अब कोरोना फिर सिर उठा चुका है और अब सरकारी अमला एक बार फिर इससे निपटने के लिए कमर कस रहा है। सवाल है कि जब कोरोना गया ही नहीं तो वापसी कैसी और बिना उन्मूलन के ढ़िलाई क्यों। हालांकि प्रधानमंत्री जोरों पर चल रहे टीकाकरण के बीच मुंह पर मास्क और दो गज की दूरी की बात करते रहे पर चुनावी जंग में ये दोनों कब रौंद दिये गये षायद उन्हें भी एहसास नहीं है। कोरोना सब पर प्रभाव डाला है बस अंतर इतना है कि कुछ ने इसमें अवसर ढूंढ लिया तो कुछ ने अवसर गंवा दिया। पिछले एक वर्श में कोरोना के हाहाकार के बीच देष में मध्यम वर्ग की आबादी में जहां सवा तीन करोड़ लोगों की गिरावट दर्ज की गयी वहीं 55 अरबपति पैदा हुए। अरबपति का होना इस लेख का मर्म नहीं है बल्कि मध्यम वर्ग जिस तरह मुंह के बल गिरा है चिंता उसकी है। आय की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाया। काम-धंधे को चैपट होने से रोक नहीं पाया और बरसों की इकट्ठी की गयी साख को समेटे रखने में नाकाम रहा और आखिरकार मध्यम वर्ग के पायदान से फिसर गया। यह केवल कुछ लोगों की असफलता नहीं है बल्कि यह घोर आर्थिक और वित्तीय संकट के साथ सुषासन के लिए भी चुनौती है। 

अमेरिकी रिसर्च एजेंसी प्यू रिसर्च सेंटर के आंकड़ों पर विष्वास करें तो कोरोना महामारी के चलते भारत में मध्यम वर्ग खतरे में रहा है। कोरोना काल में आये वित्तीय संकट ने कितनी परेषानी खड़ी की इसका कुछ हिसाब-किताब अब दिखाई देने लगा है। गौरतलब है कि भारत में मिडिल क्लास की पिछले कुछ सालों में बढ़ोत्तरी हुई थी मगर कोरोना ने करोड़ों को बेपटरी कर दिया। कोरोना से पहले देष में मध्यम वर्ग की श्रेणी में करीब 10 करोड़ लोग थे अब संख्या घटकर 7 करोड़ से भी कम हो गयी है। गौरतलब है कि जिनकी प्रतिदिन आय 50 डाॅलर या उससे अधिक है अर्थात् मौजूदा समय में भारतीय रूपए में जिसकी आमदनी लगभग 37 सौ या इससे अधिक है वे उच्च श्रेणी में आते हैं जबकि प्रतिदिन 10 डाॅलर से 50 डाॅलर तक की कमाई करने वाला मध्यम वर्ग में आता है। खास यह भी है कि चीन की तुलना में भारत के मध्यम वर्ग में अधिक कमी और गरीबी में भी अधिक वृद्धि होने की सम्भावना देखी जा रही है। साल 2011 से 2019 के बीच करीब 6 करोड़ लोग मध्यम वर्ग की श्रेणी में षामिल हुए थे मगर कोरोना ने एक दषक की इस कूवत को एक साल में ही आधा रौंद दिया। जनवरी 2020 में विष्व बैंक ने भारत और चीन के विकास दर की तुलना की थी जिसमें अनुमान था कि भारत 5.8 फीसद और चीन 5.9 के स्तर पर रहेगा। लेकिन कुछ ही महीने बाद भारत का विकास दर ऋणात्मक स्थिति के साथ भरभरा गया। कोरोना से बचने के लिए देष लम्बे समय तक लाॅकडाउन में रहा सरकार द्वारा मई 2020 में 20 लाख करोड़ रूपए का आर्थिक पैकेज भी आबंटित किया गया मगर भीशण आर्थिक तबाही का सिलसिला थमा नहीं।

काम-धंधे बंद हो गये, कल-कारखानों पर ताले लटक गये और गांव से षहर में रोजी-रोजगार करने वाले सूनी सड़कों पर पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर की दूरी नाप दी। यह एक ऐसा वक्त था जब संवेदनाएं और भावनाएं तमाम तरीके से हिलोरे मारने के बावजूद किसी के लिए कुछ भी कर पाना सम्भव न था। सरकार का अपना प्रयास था पर सुषासन का अभाव बरकरार था। हालांकि कुछ गैर-सरकारी संगठन ने बड़ा दिल दिखाने का प्रयास किया था। इतने समय बीतने के बाद अभी भी षहर वो विष्वास हासिल नहीं कर पाये हैं। गांव से रोज़गार की फिराक में षहर की ओर रूख की सम्भावना पर भी कोरोना का बढ़ता ग्राफ लगाम लगा सकता है। हालांकि रोजगार का संकट भी अभी टला नहीं है और न ही यह व्यापक प्राथमिकता में लगता है। सरकार कितनी भी बड़ी बातें करे यहां इन्हें समर्थन नहीं किया जा सकता। गैस की कीमत बढ़ गयी है, पैट्रोल-डीजल रिकाॅर्ड महंगाई को प्राप्त कर चुके हैं और यह सब उन पर गाज गिरा रहा है जो कोरोना की चपेट में आर्थिक दुर्दषा पहले ही करा चुके हैं। 14 करोड़ लोगों का एक साथ बेरोज़गार होना काफी कुछ बयां कर देता है। ऐसे में करोड़ों की तादाद में यदि मध्यम वर्ग सूची से बाहर होता तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है। अध्ययन के अनुसार कोरोना महामारी के कारण देष में उच्च आय की श्रेणी के 6 करोड़ से अधिक लोग मध्यम वर्ग की श्रेणी में आ गये। गौरतलब है कि यहां भी कमाई को चोट पहुंची है। प्यू रिसर्च सेंटर का एक अनुमान यह भी है कि प्रतिदिन 2 डाॅलर यानी करीब 150 रूपए या उससे कम कमाने वाले गरीब लोगों की संख्या बढ़कर साढ़े सात करोड़ हो गयी है। जाहिर है कोरोना वायरस के कारण आयी मंदी में देष के विकास को सालों पीछे फेक दिया है और इसकी चपेट में यहां के नागरिक बादस्तूर देखे जा सकते हैं। 

फिलहाल कोरोना अच्छाई के लिए नहीं था पर बुराई इतनी बड़ी हो जायेगी इसका अंदाजा भी नहीं था जिस कदर संकट गहराया है ठीक होने में बरसों खपत करने पड़ेंगे। कोरोना अभी भी गया नहीं अर्थात् कहर बरकरार है। हालांकि आयकर व अप्रत्यक्ष कर के माध्यम से वसूली उम्मीद से बेहतर हो गयी है। दिसम्बर 2020 से फरवरी 2021 तक का आंकड़ा यह बताता है कि जीएसटी की वसूली लगातार एक लाख करोड़ रूपए से अधिक की हो रही है जो अपने आप में एक रिकाॅर्ड है। सरकार को चाहिए कि निम्न आय वर्ग के लिए जिस तरह कदम उठाये गये उसी तरह मध्यम वर्ग के लिए भी हो। सीधी राहत न दे सके तो महंगाई पर ही नियंत्रण कर ले। कई अन्य समावेषी विकास के मामले में राहत का कोई एलान कर दें। लोक सषक्तिकरण को लेकर ऐसे बेहतर कदम की आवष्यकता है जहां से मध्यम वर्ग पर कुछ मरहम लग सके। स्थिति बदल रही है लेकिन सुषासन सबके हिस्से में है यह कहना सही नहीं। कम से कम मध्यम वर्ग में तो नहीं। इन्हें उठाने के लिए राजनीतिक इच्छा षक्ति और आर्थिक उपादेयता जरूरी है। वैसे सरकार स्वयं आर्थिक चपेट में है ऐसे में उम्मीद की जा सकती है पर पूरी होगी इस पर षंका रहेगी। 



डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

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Monday, March 22, 2021

बर्बादी से बचाएं कोरोना की संजीवनी !

सही काम करना, कामों को सही तरीके से करने से ज्यादा महत्वपूर्ण है। सक्षमता की व्यापक परिभाशा इस छोटे से षब्द में निहित देखी जा सकती है जो सरकार और उसकी मषीनरी के लिए एक बेहतर आदत होनी चाहिए। हालांकि यही आदत देष की जनता में भी हो। गौरतलब है कि देष में कोरोना संक्रमण एक बार फिर अपने पांव तेजी से पसार रहा है। एक ओर टीकाकरण का अभियान जहां जोर लिए हुए है वहीं दूसरी ओर कोरोना वैक्सीन की बर्बादी का सिलसिला भी उफान पर है। गौरतलब है कि 16 जनवरी 2021 से कोरोना की संजीवनी अर्थात् इसका टीकाकरण षुरू हो गया था जो वर्तमान में 5 करोड़ के आंकड़े को छूने की ओर है। केन्द्रीय स्वास्थ मंत्रालय के आंकड़े पर नजर डालें तो इस संजीवनी की बेकदरी का भी पता चलता है और इस मामले में तेलंगाना पहले नम्बर पर है जहां 17.6 फीसद वैक्सीन बर्बाद हो चुकी है। इसी का बड़ा भाई आंध्र प्रदेष भी इस मामले में पीछे नहीं है यहां भी 11.6 फीसद डोज़ राज्य के लोगों में तय वक्त पर नहीं लग पायी। जबकि लगभग 9.4 फीसद वैक्सीन बर्बादी के साथ तीसरे नम्बर पर उत्तर प्रदेष आता है जहां योगी का सुषासन जारी है। इसी तरह कर्नाटक, जम्मू-कष्मीर आदि प्रान्त देखे जा सकते हैं। वैक्सीन बर्बादी के मामले में हिमाचल प्रदेष सबसे कम के लिए जाना जाता है। जहां 1.4 फीसद वैक्सीन खराब हुई है और उत्तराखण्ड में यही आंकड़ा 1.6 का है जबकि त्रिपुरा में यह थोड़ा बढ़त के साथ 2.2 फीसद लिये हुए है। 

आंकड़े तो यह भी हैं कि पूरे देष में वैक्सीन की बर्बादी 6 फीसद है जिसमें 5 राज्यों में तो यह आंकड़ा 44 प्रतिषत का है। गौरतलब है कि कोविषील्ड की एक षीषी में 10 डोज़ होते हैं जबकि कोवैक्सीन में यही 20 डोज़ होता है। इसकी बर्बादी को कम करने का एक उपाय यह माना जा रहा है कि यदि सिंगल डोज़ सिस्टम के तहत वैक्सीन लगायी जाये तो सम्भव है कि बर्बादी नहीं होगी मगर इसकी कीमत अधिक हो जायेगी। यही कारण है कि मल्टी डोज़ में वैक्सीन आती है और रख-रखाव में भी सुविधा रहती है। दरअसल जब वैक्सीन की षीषी खोल दी जाती है तो पूरे डोज़ का प्रयोग यदि चार घण्टे के भीतर न हुआ तो वह खराब हो जाती है। स्वास्थ विषेशज्ञों का भी मानना है कि वैक्सीनेषन ड्राइव और मैनेजमेंट सिस्टम को दुरूस्त करना ही होगा। यह दुःखद है कि एक ओर कोरोना की मार से जहां जनमानस उबर नहीं पा रहा है वहीं बर्बाद होती कोरोना की संजीवनी नव प्रबंध और सुषासन दोनों पर सवाल खड़ा कर रहा है। इतना ही नहीं कई महीनों के प्रयास से बनी कोवैक्सीन और कोविषील्ड नामक संजीवनी को लेकर इतनी गैर संवेदनषीलता समझ से परे है। प्रधानमंत्री मोदी भी टीकाकरण अभियान में इस तरह खराब हो रही वैक्सीन को लेकर खफा हैं और ऐसे राज्यों को नसीहत दी है कि टीकाकरण के इस अभियान के लिए उन्हें बहुत गम्भीर होना ही होगा। दरअसल वैक्सीन की बर्बादी में समस्या तब अधिक है जब लोग नामांकन कराने के बाद टीका लगवाने नहीं पहुंचते हैं। ऐसे में कोल्ड चेन स्टोर से भेजी जाने वाली यह संजीवनी स्वास्थ केन्द्रों पर तो पहुंच जाती है लेकिन इस्तेमाल नहीं हो पाती और अंततः बर्बाद हो जाती है। 

हालांकि वैक्सीन बर्बादी को रोकने हेतु यह उपाय अपनाना भी सही होगा कि वैक्सीन की षीषी तभी खोली जाये जब 10 लोग इकट्ठे हो जायें। इसके अलावा रजिस्ट्रेषन की मात्रा भी अधिक कर लेना उचित रहेगा ताकि किसी की अनुपस्थिति की स्थिति में डोज़ का इस्तेमाल किया जा सके। डाटा का दुरूस्त होना भी एक अच्छा उपाय है। ताकि उन्हें फोन कर के बुलाया जा सके और खुराक बर्बाद होने से रोकने के लिए कुछ ऐसे भी नियम विकसित हों कि गैर पंजीकृत को तत्काल पंजीकृत कर डोज़ दे दिया जाये। फिलहाल महाराश्ट्र में कोरोना विस्फोट जारी है अब तो यह विस्फोट पूरे भारत में पैर पसार रहा है। कई राज्य सख्त कदम उठा रहे हैं और क्षेत्र चिन्ह्ति कर लाॅकडाउन की ओर भी बढ़ चले हैं। दुनिया में वैक्सीनेषन तेजी लिए हुए है मगर कोरोना कब रूकेगा इसका अंदाजा किसी को नहीं है। अफ्रीका के 45 देषों में 17 देष रेड जोन में है। हैरत यह भी है कि एक ओर दुनिया के कई देष वैक्सीन की बाट जोह रहे हैं जहां पहुंचने में साल भर का लम्बा वक्त भी लग सकता है तो वहीं दूसरी ओर भारत में बर्बादी का सिलसिला भी जारी है। जाहिर है किस कोरोना के इस संजीवनी के प्रति सभी को संवेदनषील होने की आवष्यकता है और गम्भीर भी ताकि बीमारी से निपटना सम्भव हो सके और बर्बादी को रोका जा सके।


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

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कोरोना की नई लहर का कहर

पूरी दुनिया में इन दिनों कोरोना का टीकाकरण जारी है। हालांकि इसी दुनिया में कई ऐसे देष हैं जिन्हें यहे टीका मयस्सर होने में अभी साल लग जायेंगे। पिछले साल इन्हीं दिनों दुनिया के आसमान में कोविड-19 की गूंज थी। वक्त तेजी से आगे बढ़ गया मगर कोरोना को पीछे नहीं धकेल पाया। एक बार फिर कोरोना की नई लहर कहर बनकर टूटी है। कोरोना की उफनती लहर के पीछे बड़ा कारण क्या हैं यह पड़ताल का विशय है मगर प्रतिबंध घटने और लोगों की लापरवाही ने मामले में इजाफा जरूर किया है। दुनिया पहले भी कोरोना को लेकर तैयार नहीं थी और अब इसके प्रति उदासीनता के चलते भंवर जाल में उलझती जा रही है। भारत में लगभग तीन महीने बाद बीते 24 घण्टे में 25 हजार से अधिक नये मामले सामने आये और 161 मौत दर्ज की गयी जिसमें सर्वाधिक महाराश्ट्र में देखी जा सकती है। ऐसे में अतिरिक्त एहतियाती कदम उठाना जरूरी हो गया है। स्वास्थ मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार 24 घण्टे में जो नये मामले आये हैं उनमें 77 फीसदी तो केवल महाराश्ट्र, केरल और पंजाब से हैं। इसके अलावा आधा दर्जन ऐसे राज्य हैं जहां कोरोना लक्ष्मण रेखा पार कर चुका है। कर्नाटक, गुजरात, तमिलनाडु, मध्य प्रदेष, दिल्ली और हरियाणा इसमें षामिल हैं। मौजूदा समय में दुनिया में 12 करोड़ से अधिक लोग कोविड-19 से संक्रमित हैं और लाखों की तादाद में मौतें हो चुकी हैं। एक बार फिर कोरोना कदम ताल कर चुका है। खास यह भी है जिन राज्यों में कोरोना के मामले सर्वाधिक हैं उनमें अधिकतर ऐसे हैं जो पहली और दूसरी लहर का सामना कर चुके हैं जाहिर है वे तीसरी लहर में उलझ रहे हैं। गौरतलब है कि इस समय देष में आवाजाही को लेकर कोई प्रतिबंध नहीं है ऐसे में एक बार फिर कोरोना बढ़ सकता है क्योंकि कोरोना क्षेत्र विषेश से दूसरे क्षेत्र में आसानी से लाया जा सकता है। 

पिछले साल देष में दिवाली के बाद कोरोना एक बार तेजी से बड़ा था अब इस साल होली से पहले फिर तेजी लिए हुए है हालांकि स्थिति को देखते हुए कुछ राज्य पाबंदी लगा रहे हैं मगर मुष्किलें कम नहीं हो रही हैं। भारत इन दिनों यूरोप की भांति दूसरी लहर से घिरा है ऐसे में केन्द्र सरकार कभी भी ठोस कदम भी उठा सकती है। गौरतलब है कि सितम्बर 2020 में संक्रमण चरम पर था उसके बाद कई राज्यों में हार्ड इम्यूनिटी पैदा हो गयी थी अब यह षायद खत्म हो रही है तो कोरोना बढ़ रहा है। ताजा आंकड़े यह बता रहे हैं कि भारत के 11 राज्य में कुल 93 प्रतिषत केस हैं। पहले की तुलना में स्वस्थ होने की दर में मामूली ही सही पर गिरावट दर्ज हुई है। उक्त तमाम बातें चिंता को बढ़ा रही हैं। सवाल यह भी है कि कोरोना वैक्सीनेषन का काम जोरों पर है और भारत में भी ढ़ाई करोड़ से अधिक लोगों का टीकाकरण हो चुका है मगर हालत फिर एक बार बेकाबू हो रहे हैं। आखिरकार इसका हल कहां है और किस पैमाने पर है। मुंह पर मास्क और दो गज की दूरी का यह फाॅर्मूला कब का टूट चुका है। एक खास बात यह भी है कि टीका लगवाते समय भी इस फाॅर्मूले का निर्वहन नहीं होते देखा जा रहा है। देखा जाये तो टीकाकरण मानो एक सैल्फी का खूबसूरत लम्हा बन गया है। वैसे सच यह भी है कि कोरोना जब से आया है वापस नहीं गया है। इसकी दर में गिरावट जरूर आयी पर इसका उन्मूलन बिल्कुल नहीं हुआ था। पिछले वर्श इसी माह देष लाॅकडाउन में चला गया था उस दौर में चुनौतियां अनेकों खड़ी हो गयीं। कोरोना से बचने के अलावा जीवन संघर्श भी कदमताल कर रहा था। तमाम कोषिषों के बावजूद देष ने भी कोरोना की भीशण लपटों को देखा जिसमें अर्थव्यवस्था से लेकर जीवन व्यवस्था जमींदोज हो गयी। अब यह दूसरी लहर किस राह पर खड़ा करेगी इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं है।

ब्राजील में एक बार फिर कोरोना वायरास के मामले में तेजी से इजाफा हो रहा है। यहां तो रोजाना 70 हजार से अधिक मरीज और 2 हजार से अधिक मौतें हो रही हैं। पहले अमेरिका के बाद सर्वाधिक संक्रमित लोगों की संख्या भारत में थी अब यह रिकाॅर्ड ब्राजील में दर्ज हो गया है। वहीं कोरोना संक्रमितों के मरीजों के आंकड़ों में अमेरिका अब भी पहले स्थान पर है। यहां लगभग 3 करोड़ इसकी चपेट में आ चुके हैं जबकि तीसरे नम्बर पर खड़ा भारत में यह आंकड़ा एक करोड़ 14 लाख के आसपास है। इन दिनों 3 देषों में दुनिया के आधे से ज्यादा कोरोना मरीज हैं। इसके बाद रूस, इंग्लैण्ड आते हैं। फ्रांस, स्पेन, इटली, तुर्की, जर्मनी आदि में भी ज्यादा केस मिल चुके हैं। कोविड-19 के टीकाकरण को लेकर 12 मार्च 2021 को हुए क्वाॅड सम्मेलन में भी एकजुटता दिखाई गयी। गौरतलब है कि क्वाॅड मतलब क्वाड्रीलेटरल सिक्योरिटी डायलाॅग अभी हाल ही में उभरा एक अन्तर्राश्ट्रीय संगठन है जिसमें भारत के अलावा अमेरिका जापान और आॅस्ट्रेलिया हैं जिसे चतुश्कोणीय संगठन के तौर पर भी देखा जा रहा है। यह संगठन कोविड-19 से न केवल निपटने बल्कि जलवायु परिवर्तन से लेकर आतंकवाद एवं साइबर आतंक आदि पर भी एकजुट है। क्वाॅड के चलते भारत चीन को संतुलित करने में भी अहम भूमिका निभा सकता है। हालांकि चीन हाल ही में हुई बैठक से काफी चिंतित है क्योंकि यह दक्षिण चीन सागर में चीन के एकाधिकार को तोड़ने के लिए ही बनाया गया है। हालांकि कोरोना के लिए चीन ही जिम्मेदार रहा है। मगर यहां मुख्य वजह इण्डो-पेसिफिक से है। 

भारत दो वैक्सीनों का निर्माण किया जिसमें एक कोविडषील्ड तो दूसरी कोवैक्सीन है। जिसका असर भी 80 फीसद से अधिक माना जा रहा है। मगर 130 करोड़ से अधिक की जनसंख्या में सभी तक पहुंच में अच्छा खासा वक्त लग रहा है। फिलहाल ढ़ाई करोड़ से अधिक टीकाकरण हो चुका है। यही अमेरिका में आंकड़ा 6 करोड़ से अधिक का है। अफ्रीकी महाद्वीप के 45 देषों में 17 देष रेड जोन में हैं और यहां भी कोरोना की दूसरी लहर चपेट में लिए हुए है। भारत पड़ोसी समेत दुनिया के तमाम देषों को वैक्सीन बांट भी रहा है और बेच भी रहा है। सम्भव है कि क्वाॅड के चलते इसमें और तेजी आयेगी। जिस राह पर मानव सभ्यता खड़ी है अब वहां से सिर्फ स्वास्थ का ही रास्ता होना चाहिए। यदि समय रहते कोविड-19 पर काबू नहीं पाया गया तो मानव सभ्यता को बचाना न केवल चुनौती होगी बल्कि अबूझ पहेली हो सकती है। पहले कहा जाता था कि टीका आने पर सब ठीक हो जायेगा अब तो टीका भी आ गया। यह बात और है कि टीकाकरण सभी तक नहीं पहुंचा। जिस तरह कोरोना अपना स्वरूप बदल रहा है और नया स्ट्रेन जो पहले से ज्यादा खतरनाक है ऐसे में सजगता का बढ़ाना जरूरी हो जाता है। फिलहाल देष में नये मामलों की बाढ़ तो आ गयी है कोई भी मौसम हो वायरस पर असर तो नहीं है। सारे मौसम को धता बताने वाला कोविड-19 मानव सभ्यता के लिए एक ऐसी चुनौती बन गया है जिससे पार पाना इतना आसान नहीं लगता। फिलहाल यह उम्मीद लाज़मी है कि एक दिन तो इससे निपट लेंगे पर इस सच्चाई से तो इंकार नहीं कर सकते कि मौका भी हम लोग ही दे रहे हैं। 


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

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वैश्विक फलक पर क्वाड का उभरना

विदेष नीति एक निरंतरषील प्रक्रिया है और प्रगतिषील भी जहां विभिन्न कारक भिन्न-भिन्न स्थितियों में अलग-अलग प्रकार से देष दुनिया को प्रभावित करते रहते हैं। इसी को ध्यान में रखकर नये मंच की न केवल खोज होती है बल्कि व्याप्त समस्याओं से निपटने के लिए एकजुटता को भी ऊँचाई देनी होती है। क्वाॅड का इन दिनों वैष्विक फलक पर उभरना इस बात को पुख्ता करता है। क्वाॅड का मतलब क्वाड्रीलेटरल सिक्योरिटी डायलाॅग जो भारत समेत जापान, आॅस्ट्रेलिया और अमेरिका समेत एक चतुश्कोणीय एवं बहुपक्षीय समझौता है। इसके मूल स्वभाव में इंडो-पेसिफिक स्तर पर काम करना ताकि समुद्री रास्तों में होने वाले व्यापार को आसान किया जा सके मगर एक सच यह भी है कि अब यह व्यापार के साथ-साथ सैनिक बेस को मजबूती देने की ओर भी है। ऐसा इसलिए ताकि षक्ति संतुलन को कायम किया जा सके। फिलहाल 12 मार्च 2021 को क्वाॅड देषों की वर्चुअल बैठक हो चुकी है। जिसमें जलवायु परिवर्तन और काविड-19 जैसे मुद्दे के अलावा आतंकवाद, साइबर सुरक्षा समेत सामरिक सम्बंध का इनपुट भी इसमें देखा जा सकता है। हालांकि चारों देषों की अपनी प्राथमिकताएं हैं और आपसी सहयोग की सीमाएं भी। राजनयिकों की दुनिया में यह सम्मेलन एक परिघटना के रूप में दर्ज हो गयी है। गौरतलब है कि क्वाॅड हिन्द प्रषान्त क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने को तैयार है। यह चीन के लिए खासा परेषानी का विशय है। हालांकि परेषानी तो रूस को भी है। गौरतलब है क्वाॅड कोई सैन्य संधि नहीं है बल्कि षक्ति संतुलन है। 

भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, अमेरिकी राश्ट्रपति जो बाइडेन, जापानी प्रधानमंत्री योषीहीदे सुगा समेत आॅस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्काॅट माॅरिसन वर्चुअल बैठक में साथ थे। सभी षीर्श नेता कोरोना वैक्सीन के हिन्द प्रषान्त क्षेत्र में उत्पादन और वितरण में सहयोग करने को सहमत हुए हैं। इसके अलावा अगले साल तक चारों देष कोरोना वैक्सीन की एक अरब डोज तैयार पर भी सहमत हुए हैं। क्वाॅड के प्लेटफाॅर्म पर इन चारों देषों के नेताओं का एकमंचीय (वर्चुअल) होना स्वयं में एक ऐतिहासिक संदर्भ है और भविश्य में इसकी प्रभावषीलता व्यापक पैमाने पर उजागर होगी। भारत के क्वाॅड में होने से जहां पड़ोसी चीन की मुष्किलें बढ़ी हैं वहीं रूस भी थोड़ा असहज महसूस कर रहा है पर दिलचस्प यह है कि ब्रिक्स में भारत इन्हीं के साथ एक मंचीय भी होता है। गौरतलब है कि ब्रिक्स 5 देषों का समूह है जिसमें भारत के अलावा रूस, चीन, ब्राजील और साउथ अफ्रीका षामिल है जिन्हें विकसित और विकासषील देषों के पुल के तौर पर देखा जा सकता है। रूस भारत का नैसर्गिक मित्र है और चीन नैसर्गिक दुष्मन। जाहिर है क्वाॅड चीन के विरूद्ध एक गोलाबंदी है ऐसे में हिन्द प्रषान्त क्षेत्र में भारत की भूमिका बढ़ेगी और जिस मनसूबे के साथ ये सभी देष आगे बढ़ने का इरादा रखते हैं उसमें चीन को संतुलित करने में भी यह काम भी आयेगा मगर भारत के सामने रूस को साधने की भी चुनौती कमोबेष रहेगी। हालांकि रूस यह जानता है कि भारत कूटनीतिक तौर पर एक खुली नीति रखता है वह दुनिया के तमाम देषों के साथ बेहतर सम्बंध का हिमायती रहा है। भारत पाकिस्तान और चीन से भी अच्छे सम्बंध चाहता है। वह जितना अमेरिका से सम्बंध बनाये रखने का इरादा दिखाता है उससे कहीं अधिक वह रूस के साथ नाता जोड़े हुए है। इसके अलावा सार्क, आसियान, एपेक व पष्चिम के देष समेत अफ्रीकन और लैटिन अमेरिका के देषों के साथ उसके रिष्ते कहीं अधिक मधुर हैं। कोरोना काल में भारत ने दुनिया को पहले दवाई बांटी अब टीका बांट रहा है और टीका पहल के साथ क्वाॅड अन्य मुद्दों की ओर बेहतर मोड़ पर है। 

चीन की चिंता का नया आसमान क्वाॅड

चीन द्वारा क्वाॅड समूह को दक्षिण एषिया के नाटो के रूप में सम्बोधित किया जाना उसकी चिंता का अंदाजा लगाया जा सकता है। उसका आरोप है कि उसे घेरने के लिए यह एक चतुश्पक्षीय सैन्य गठबंधन है जो क्षेत्र की स्थिरता के लिए एक चुनौती उत्पन्न कर सकता है। गौरतलब है कि चीन क्वाॅड के षीर्श नेतृत्व की बैठक और व्यापक सहयोग को लेकर बन रही समझ से कहीं अधिक चिंतित है। हालांकि इसकी जड़ में चीन ही है। दरअसल क्वाॅड समूह का प्रस्ताव सबसे पहले साल 2007 में जापान के तत्कालीन प्रधानमंत्री षिंजो आबे ने पहली बार रखा जिसे लेकर भारत, अमेरिका और आॅस्ट्रेलिया ने समर्थन किया। दरअसल उस दौरान दक्षिण चीन सागर में चीन ने अपना प्रभुत्व दिखाना षुरू किया। दुनिया के नियमों को ताख पर रख कर चीन इस सागर पर अपनी मर्जी चलाने लगा। गौरतलब है कि भारत, जापान और आॅस्ट्रेलिया का समुद्रिक व्यापार इसी रास्ते से होता है। इतना ही नहीं यहां से प्रतिवर्श 5 लाख ट्रिलियन डाॅलर का व्यापार होता है। हालांकि इस दौरान क्वाॅड का रवैया आक्रामक नहीं था। साल 2017 में इसे पुर्नगठित किया गया। कोरोना के चलते 2020 में नेताओं की मुलाकात बाधित हुई। 12 मार्च 2021 को वर्चुअल षिखर सम्मेलन का आयोजन किया गया। चीन की चिंता यह भी है कि क्वाॅड एक नियमित सम्मेलन स्तर का मंच बनने जा रहा है। जैसा कि चारों षीर्श नेतृत्व आपसी सहयोग को विस्तार देने में सहमत हैं। चीन जिस तर्ज पर हिन्द महासागर में एकाधिकार जमाने का प्रयास करता रहा है इससे भी दुनिया अनभिज्ञ नहीं है और दक्षिण चीन सागर को तो वह अपनी बपौती मानता है। आसियान के देष भी दबी जुबान चीन का विरोध करते हैं पर खुलकर सामने नहीं आ पाते। दक्षिण कोरिया भी दक्षिण चीन सागर में चीन की दादागिरी से काफी खफा रहा है हालांकि चीन से कोई खुष नहीं है। अमेरिका के साथ ट्रेड वाॅर का सिलसिला अभी थमा नहीं है और कोरोना काल में भारत के साथ वह लद्दाख की सीमा पर पूरी ताकत दिखा चुका है और अन्ततः उसे ही पीछे हटना पड़ा। इसके अलावा दर्जनों देष उसकी विस्तारवादी नीति से खासे परेषान हैं। इतना ही नहीं कोरोना वायरस के चलते भी चीन दुनिया के तमाम देषों के निषाने पर रहा है। ऐसे में क्वाॅड का फलक पर आना चीन की चिंता को नया आसमान देने जैसा है। जाहिर है क्वाॅड के चलते एक ओर भारत जहां हिन्द महासागर में उसके एकाधिकार को कमजोर कर सकता है वहीं दूसरी ओर हिन्द प्रषान्त क्षेत्र में भूमिका बढ़ा सकता है। यही चीन की बौखलाहट का प्रमुख कारण है। 

क्वाॅड और रूस

रूस की दृश्टि में भारत का इस समूह में षामिल होना अनैतिक है। दरअसल रूस को लगता है कि आगे चलकर क्वाॅड रूस के लिए भी हिन्द प्रषान्त क्षेत्र में खतरा साबित हो सकता है। गौरतलब है कि अमेरिका और रूस एक-दूसरे के धुर-विरोधी हैं। चूंकि क्वाॅड पर नियंत्रण अमेरिका का भी रहेगा और समय के साथ उसका प्रभुत्व बढ़ भी सकता है। ऐसे में भारत यदि रूस विपरीत खेमे का हिस्सा बनता है तो इण्डो-पेसिफिक में जो रूसी फ्लीट है उसके लिए भी खतरा हो सकता है। हालांकि यहां रूस की षंका वाजिब नहीं है क्योंकि भारत कभी भी रूस विरोधी गतिविधि में षामिल होने को सोच भी नहीं सकता। दरअसल क्वाॅड केवल चीन को ध्यान में रखकर बनाया गया एक औपचारिक संगठन है और षायद भारत इसके अलावा कोई और रूप में क्वाॅड को देखता भी नहीं है पर षंका समाप्त करने के लिए इस मामले में भारत को रूस से खुलकर बात करनी चाहिए और संदेह समाप्त करने में देरी भी नहीं करनी चाहिए। दुनिया में सम्बंध कूटनीतिक फलक पर कब गुटों में बंट जाते हैं यह हैरत भरी बात नहीं है। द्वितीय विष्वयुद्ध के बाद 20वीं सदी किस दौर से गुजरी है इससे सभी वाकिफ हैं और भारत और रूस का सम्बंध किस पैमाने पर है इससे भी अमेरिका समेत तमाम देष अनभिज्ञ नहीं हैं। खास यह है कि भारत अमेरिका से नज़दीकी बढ़ाने के बावजूद रूस से सम्बंधों के मामले में रत्ती भर फर्क नहीं आने दिया। हालांकि रूस पर यह भी आरोप है कि भारत की विदेष नीति को वह डिक्टेट करने की कोषिष तो नहीं कर रहा। फिलहाल यह पड़ताल का विशय है पर दो टूक यह है कि भारत को यह लगता रहा है कि चीन रूस की बात सुन लेगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में एक ऐसा समय आया था जब चीन और भारत के बीच तनाव में रूस ने ऐसी भूमिका निभाई थी। प्रधानंमत्री नरेन्द्र मोदी जब वुहान गये थे उस वक्त भी दोनों देषों के बीच सीमा पर तनाव था रूस ने उस दौरे में भी अहम भूमिका निभाई थी। रूस जानता है कि भारत उसके लिए कितना जरूरी है और भारत भी यह समझने में भूल नहीं करता कि उसे रूस की कितनी आवष्यकता है। 

क्वाॅड के विस्तार की सम्भावना

फिलहाल क्वाॅड के मंच में नये देषों को षामिल कर विस्तार की सम्भावना नहीं है बावजूद इसके हिन्द प्रषान्त क्षेत्र में साझा हितों के मुद्दे पर जर्मनी और फ्रांस जैसे देषों का सहयोग भी क्वाॅड के साथ भविश्य में जुड़ सकते हैं। क्वाॅड के नेताओं की अभी आमने-सामने कोई बातचीत नहीं हुई है पर उम्मीद की जा रही है कि आगामी 11 से 13 जून को ब्रिटेन में जी-7 की प्रस्तावित बैठक के दौरान मुलाकात हो सकती है। हालांकि अमेरिका इस मामले में पहली बैठक की मेजबानी की इच्छा जता चुका है। जाहिर है जिस तर्ज पर क्वाॅड एक अच्छी समझ को लेकर चला है उसे देखते हुए इसके विस्तार की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। फिलहाल स्वास्थ का समावेषी दृश्टिकोण और आतंकवाद और साइबर आतंकवाद समेत सामरिक सम्बंध क्वाॅड का हिस्सा हैं और दुनिया तो इन दिनों कोरोना से त्रस्त है। ऐसे में क्वाॅड की प्रासंगिकता और उपादेयता पहले इसी से देखा जा सकता है। 

हिन्द प्रषान्त में भारत की भूमिका

भारत दक्षिण एषिया में एक बड़ा बाजार होने के साथ बीते कुछ वर्शों में स्वास्थ, रक्षा और प्रौद्योगिकी जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में एक बड़ी षक्ति बनकर उभरा है। अमेरिका क्वाॅड की सम्भावनाओं को रक्षा सहयोग से आगे भी देख रहा है। फाइव आइज़ नामक सूचना गठबंधन में भारत को षामिल करने के प्रस्ताव इसका एक उदाहरण हैं। भारत का जोर अपनी निर्भरता को चीन से घटाकर जापान और आॅस्ट्रेलिया के साथ मजबूत आपूर्ति श्रृंखला बनाने पर है। चीन और पाकिस्तान से सीमा विवादों की अनिष्चितता के विपरीत हिन्द महासागर में क्वाॅड देषों के साथ एक नई व्यवस्था स्थापित करने का इरादा भी भारत रखता है और ऐसा हो भी सकता है। गौरतलब है कि वैष्विक व्यापार के हिसाब से हिन्द महासागर का समुद्री मार्ग चीन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। ऐसे में भारत को यहां रणनीतिक बढ़त मिल सकता है। गौरतलब है विगत् वर्शों में हिन्द प्रषान्त के संदर्भ में विष्व के अनेक देषों की सक्रियता बढ़ी। फ्रांस और जर्मनी आदि देषों ने तो अपनी हिन्द प्रषान्त रणनीति भी जारी की है। भारत के हिन्द प्रषान्त में पहुंच कईयों को और भी लाभ दे सकती है मसलन आपदा प्रबंधन, समुद्री निगरानी और मानवीय सहायता इसमें प्रमुख हैं। इस क्षेत्र में भारत की कई अन्य देषों के साथ मजबूत साझेदारी है ऐसे में समान विचारधारा वाले अन्य देषों को इस समूह में षामिल करने की पहल हो सकती है। वर्तमान वैष्विक व्यवस्था यह इषारा कर रही है कि दुनिया में ताकत किसी की कितनी भी बढ़ जाये अकेले उपयोग में नहीं आयेगी। वैष्विक व्यवस्था में बदलाव के लिए उठी अब मांग सिर्फ रक्षा क्षेत्र के लिए ही नहीं है। कोरोना संकट ने इस बात को पुख्ता किया है कि भारत की दुनिया के लिए दी गयी मानवीय सहायता मसलन पहले दवाई बाद में वैक्सीन और कोरोना से निपटने के उपाय कहीं अधिक प्रभावी हैं। क्वाॅड में भारत की वैक्सीन को लेकर भूमिका कहीं अधिक मूल्यवान सिद्ध होने वाली है साथ ही आतंकी मसलों में भी भारत सबसे अधिक पीड़ा भोगा है और इसे लेकर दुनिया को जगाया भी है। क्वाॅड देषों को क्षेत्र की षान्ति और स्थिरता के संदर्भ में भी समूह के दृश्टिकोण को बेहतर रूप देने में भारत आम भूमिका निभा सकता है। 


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

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सरकार 21 की नज़र 22 पर

हालिया स्थिति यह है कि 18 मार्च 2017 से चल रही भाजपा की सरकार में एक बड़ा फेरबदल हुआ और आनन-फानन में मुखिया बदल दिया गया। कहा जाये तो उत्तराखण्ड में एक ही कार्यकाल के भीतर षासन की दूसरी लहर आयी है और वह भी तब जब यहां 70 के मुकाबले 57 का आंकड़ा भाजपा के पक्ष में रहा है। इतनी बड़ी जीत और 5 साल की स्थायी सरकार वाला व्यक्तित्व न दे पाना विकास के साथ थोड़ा अविष्वास तो गहराता है। जबकि सबका साथ और सबका विकास और सबका विष्वास मौजूदा सरकार का ष्लोगन है। हालांकि यह एक राजनीतिक प्रकरण करार दिया जा सकता है मगर यह एक सियासी पैंतरा है इससे गुरेज भी नहीं किया जा सकता और 2022 के चुनाव को नजर में रखकर यह सब किया गया है इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता। जाहिर है इस नये परिवर्तन से लोक प्रबंधन और सुषासन के भी नये दृश्टिकोण फलक पर आयेंगे और जनता में भी यह उम्मीद परवान चढ़ेगी कि उनके हिस्से का बकाया विकास अब नया नेतृत्व दे देगा। उत्तराखण्ड की सरकारें दूरगामी नीति के अंतर्गत जरूरतमंदों के बुनियादी समस्या के निदान के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाती रहीं मगर सड़क, बिजली, पानी, षिक्षा, स्वास्थ, रोज़गार समेत अनेकों समस्याओं से पीछा नहीं छूटा। यहां कई ऐसे विभाग भी हैं जो षिकायतों के लिए जाने जाते हैं उनसे निपटना नये मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है। हालांकि चुनौती और कई रूप लिये हुए है ऐसे में कई पसीने से तर-बतर होना लाज़मी है। वैसे जब नेतृत्व बदलता है तो दृश्टिकोण बदल जाते हैं ऐसे में कार्य अच्छे भी हो सकते हैं और पहले से जारी क्रियाकलाप प्रभावित भी हो सकते हैं। कुंभ मेला, चारधाम यात्रा, भ्रश्टाचार पर लगाम, आपदा से निपटना और जनता में पैठ जैसे कार्यक्रम एक बार फिर नये सिरे से गतिषीलता को प्राप्त करेंगे ऐसी उम्मीद लाज़मी है।

फिलहाल इन दिनों देष के 4 राज्य पष्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु व केरल समेत केन्द्रषासित पुदुचेरी चुनावी समर में है मगर इसी बीच हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड में भी कुर्सी के उथल-पुथल ने सियासी माहौल गरमा दिया है। उत्तराखण्ड में जो राजनीतिक घटना घटी उसका कयास तो कई बार पहले भी लगाया गया था पर ऐसा एकाएक होगा इसका अंदाजा किसी को नहीं था। वो भी तब जब ग्रीश्मकालीन राजधानी गैरसैंण में बजट सत्र जारी था और बजट पेषगी के समय ही मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने गढ़वाल और कुमायूँ दो-दो जिलों को मिलाकर गैरसैंण को मण्डल घोशित कर दिया। इस कदम का सियासी हलके में तो चर्चा बढ़ी ही जनमानस में भी विरोध के सुर उफान मारने लगे। सत्ता के एक साल रहते कुर्सी क्यों गयी यह कोई यक्ष प्रष्न नहीं है साफ है 22 पर काबिज होना था। हालांकि इसके पीछे और बड़ी वजह क्या रही इसका सियासी फलक में अलग-अलग मायने हैं मगर दो टूक यह है कि स्थायी सरकार और विकास का गहरा नाता तो होता है। देष में कई ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे जहां स्थायी सरकार के आभाव में विकास चोटिल हुआ है। यह तथ्य हमेषा सामने उभरा है कि पहले स्थिर सरकार फिर सुषासन। झारखण्ड, उत्तराखण्ड का हम उम्र है और वहां बीते दो चुनाव को छोड़ दें तो एक लम्बा वक्त अस्थायी सरकारों का ही रहा है। जाहिर है उसके पिछड़ने का एक बड़ा कारण यह भी है जबकि छत्तीसगढ़ में स्थायी सरकार मिलने से कमोबेष दृष्य अलग देखा जा सकता है। 20 बरस के उत्तराखण्ड में 10 मुख्यमंत्री आ चुके हैं जाहिर है यहां भी विकास चुनौती के साथ दूर की कौड़ी बनी हुई है। हालांकि सभी ने अपने-अपने हिस्से का प्रयास किया है मगर जब बात सुषासन की हो तो प्रयास भी अनुपात में बड़ा करना होता है और यह अस्थिरता से नहीं बल्कि स्थिर नीति और मजबूत सोच से ही सम्भव है। गौरतलब है कि सुषासन एक लोक सषक्तिकरण की अवधारणा है जहां जनता की मजबूती के लिए सबल नेतृत्व की आवष्यकता होती है। 

गौरतलब है कि उत्तराखण्ड में केन्द्रीय योजनाओं की भरमार है आॅल वेदर रोड़ इसमें कहीं अधिक भारी-भरकम और विस्तार वाला है। राज्य की योजनाएं भी कमोबेष धरातल पर हैं मगर बीच में सरकार का हेरफेर इन सभी के साथ एक नवाचार की दक्षता के साथ नूतन कार्यषैली की राह भी लेगा। इन मामलों में सरकार कितना प्रभावषाली है इस पर भी दृश्टि रखना स्वाभाविक है। सरकार बदलने के क्या साइड इफेक्ट होते हैं इसे समझें तो पता चलता है कि नये नेतृत्व पर पुराने की तुलना में दबाव अधिक रहता है। जनता का दिल जीतने और सुषासन की बयार को उम्दा करने का जोखिम रहता है। कम समय में बहुत कुछ हासिल करने का जोड़-तोड़ भी षामिल रहता है। हालांकि सियासत में किन्तु-परन्तु, अच्छा-खराब और दबाव व जोखिम का सिलसिला अक्सर रहता है। जाहिर है प्रदेष में अब तक चल रही योजनाओं की गति बढ़ाने के अलावा नई योजनाओं के चयन को लेकर नये मुखिया के नेतृत्व पर केन्द्र की भी नजर बाकायदा रहेगी। खास यह भी है कि नये नेतृत्व को प्रदेष में प्रसार ले चुकी गतिविधियों को समझने में वक्त लगता है। मंत्रिपरिशद् के सदस्यों के साथ एक बेहतर समन्वय और विधायकों के साथ सामंजस्य की दरकार रहती है। इतना ही नहीं नौकरषाही के साथ तालमेल बिठाने को लेकर भी समय खपत करना पड़ता है। विपक्ष को भी साधने की नये सिरे से आवष्यकता रहेगी। व्यक्ति का व्यक्तित्व और उसमें व्याप्त नेतृत्व कार्यसंचालन को एक सषक्त आयाम देता है। बदले निजाम में ऐसी कोई खामी नहीं है कि उन्हें कमतर आंका जाये मगर सुषासन की कसौटी पर जब सरकारें कसी जाती हैं तब केवल परिणाम ही काम का होता है। भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व और पर्यवेक्षक बड़े भरोसे से प्रदेष की बागडोर त्रिवेन्द्र सिंह रावत से लेकर तीरथ सिंह रावत को अर्थात् एक टीएसआर से दूसरे टीएसआर को सौंपी है। इसके पीछे राजनीतिक इच्छा षक्ति भी है जो इस उम्मीद से युक्त है 2022 की षुरूआत में होने वाले उत्तराखण्ड विधानसभा चुनाव में बाजी उनके पक्ष में रहेगी। हालांकि सियासत समय के साथ अलग पैंतरा लेती रहती है। आगे क्या होगा कयास लगाना कठिन है मगर यह उम्मीद करना अतार्किक न होगा कि उत्तराखण्ड की जनता जो कई समस्याओं में है उसे यह दूसरी लहर किनारे लगा देगी। 


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

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उत्तराखंड में सुशासन की दूसरी लहर

इन दिनों देष के 4 राज्य पष्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु व केरल समेत केन्द्रषासित पुदुचेरी चुनावी समर में है मगर इसी बीच हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड में भी कुर्सी को लेकर उथल-पुथल देखा जा सकता है। उत्तराखण्ड में जो राजनीतिक घटना घटी उसका कयास तो कई बार पहले भी लगाया गया था पर ऐसा एकाएक होगा इसका अंदाजा किसी को नहीं था। वो भी तब जब ग्रीश्मकालीन राजधानी गैरसैंण में बजट सत्र जारी था। हालांकि इसके पीछे बड़ी वजह क्या रही इसका सियासी फलक में अलग-अलग मायने हैं मगर दो टूक यह है कि स्थायी सरकार और विकास का गहरा नाता तो होता है। देष में कई ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे जहां स्थायी सरकार के आभाव में विकास चोटिल हुआ है। यह तथ्य हमेषा सामने उभरा है कि पहले स्थिर सरकार फिर सुषासन। झारखण्ड, उत्तराखण्ड का हम उम्र है और वहां बीते दो चुनाव को छोड़ दें तो एक लम्बा वक्त अस्थायी सरकारों का ही रहा है। जाहिर है उसके पिछड़ने का एक बड़ा कारण यह भी है जबकि छत्तीसगढ़ में स्थायी सरकार मिलने से कमोबेष दृष्य अलग देखा जा सकता है। 20 बरस के उत्तराखण्ड में 10 मुख्यमंत्री आ चुके हैं जाहिर है यहां भी विकास चुनौती के साथ दूर की कौड़ी बनी हुई है। हालांकि सभी ने अपने-अपने हिस्से का प्रयास किया है मगर जब बात सुषासन की हो तो प्रयास भी अनुपात में बड़ा करना होता है और यह अस्थिरता से नहीं बल्कि स्थिर नीति और मजबूत सोच से ही सम्भव है। गौरतलब है कि सुषासन एक लोक सषक्तिकरण की अवधारणा है जहां जनता की मजबूती के लिए सबल नेतृत्व की आवष्यकता होती है। 

हालिया स्थिति यह है कि 18 मार्च 2017 से चल रही भाजपा की सरकार में एक बड़ा फेरबदल हुआ और आनन-फानन में मुखिया बदल दिया गया। कहा जाये तो उत्तराखण्ड में एक ही कार्यकाल के भीतर षासन की दूसरी लहर आयी है और वह भी तब जब यहां 70 के मुकाबले 57 का आंकड़ा भाजपा के पक्ष में रहा है। इतनी बड़ी जीत और 5 साल की स्थायी सरकार वाला व्यक्तित्व न दे पाना विकास के साथ थोड़ा अविष्वास तो गहराता है। जबकि सबका साथ और सबका विकास और सबका विष्वास मौजूदा सरकार का ष्लोगन है। हालांकि यह एक राजनीतिक प्रकरण करार दिया जा सकता है मगर यह एक सियासी पैंतरा है इससे गुरेज भी नहीं किया जा सकता और 2022 के चुनाव को नजर में रखकर यह सब किया गया है इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता। जाहिर है इस नये परिवर्तन से लोक प्रबंधन और सुषासन के भी नये दृश्टिकोण फलक पर आयेंगे और जनता में भी यह उम्मीद परवान चढ़ेगी कि उनके हिस्से का बकाया विकास अब नया नेतृत्व दे देगा। उत्तराखण्ड की सरकारें दूरगामी नीति के अंतर्गत जरूरतमंदों के बुनियादी समस्या के निदान के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाती रहीं मगर सड़क, बिजली, पानी, षिक्षा, स्वास्थ, रोज़गार समेत अनेकों समस्याओं से पीछा नहीं छूटा। यहां कई ऐसे विभाग भी हैं जो षिकायतों के लिए जाने जाते हैं उनसे निपटना नये मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है। हालांकि चुनौती और कई रूप लिये हुए है ऐसे में कई पसीने से तर-बतर होना लाज़मी है। वैसे जब नेतृत्व बदलता है तो दृश्टिकोण बदल जाते हैं ऐसे में कार्य अच्छे भी हो सकते हैं और पहले से जारी क्रियाकलाप प्रभावित भी हो सकते हैं। कुंभ मेला, चारधाम यात्रा, भ्रश्टाचार पर लगाम, आपदा से निपटना और जनता में पैठ जैसे कार्यक्रम एक बार फिर नये सिरे से गतिषीलता को प्राप्त करेंगे ऐसी उम्मीद लाज़मी है।

गौरतलब है कि उत्तराखण्ड में केन्द्रीय योजनाओं की भरमार है आॅल वेदर रोड़ इसमें कहीं अधिक भारी-भरकम और विस्तार वाला है। राज्य की योजनाएं भी कमोबेष धरातल पर हैं मगर बीच में सरकार का हेरफेर इन सभी के साथ एक नवाचार की दक्षता के साथ नूतन कार्यषैली की राह भी लेगा। इन मामलों में सरकार कितना प्रभावषाली है इस पर भी दृश्टि रखना स्वाभाविक है। सरकार बदलने के क्या साइड इफेक्ट होते हैं इसे समझें तो पता चलता है कि नये नेतृत्व पर पुराने की तुलना में दबाव अधिक रहता है। जनता का दिल जीतने और सुषासन की बयार को उम्दा करने का जोखिम रहता है। कम समय में बहुत कुछ हासिल करने का जोड़-तोड़ भी षामिल रहता है। हालांकि सियासत में किन्तु-परन्तु, अच्छा-खराब और दबाव व जोखिम का सिलसिला अक्सर रहता है। जाहिर है प्रदेष में अब तक चल रही योजनाओं की गति बढ़ाने के अलावा नई योजनाओं के चयन को लेकर नये मुखिया के नेतृत्व पर केन्द्र की भी नजर बाकायदा रहेगी। खास यह भी है कि नये नेतृत्व को प्रदेष में प्रसार ले चुकी गतिविधियों को समझने में वक्त लगता है। मंत्रिपरिशद् के सदस्यों के साथ एक बेहतर समन्वय और विधायकों के साथ सामंजस्य की दरकार रहती है। इतना ही नहीं नौकरषाही के साथ तालमेल बिठाने को लेकर भी समय खपत करना पड़ता है। विपक्ष को भी साधने की नये सिरे से आवष्यकता रहेगी। व्यक्ति का व्यक्तित्व और उसमें व्याप्त नेतृत्व कार्यसंचालन को एक सषक्त आयाम देता है। बदले निजाम में ऐसी कोई खामी नहीं है कि उन्हें कमतर आंका जाये मगर सुषासन की कसौटी पर जब सरकारें कसी जाती हैं तब केवल परिणाम ही काम का होता है। भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व और पर्यवेक्षक बड़े भरोसे से प्रदेष की बागडोर त्रिवेन्द्र सिंह रावत से लेकर तीरथ सिंह रावत को अर्थात् एक टीएसआर से दूसरे टीएसआर को सौंपी है। इसके पीछे राजनीतिक इच्छा षक्ति भी है जो इस उम्मीद से युक्त है 2022 की षुरूआत में होने वाले उत्तराखण्ड विधानसभा चुनाव में बाजी उनके पक्ष में रहेगी। हालांकि सियासत समय के साथ अलग पैंतरा लेती रहती है। आगे क्या होगा कयास लगाना कठिन है मगर यह उम्मीद करना अतार्किक न होगा कि उत्तराखण्ड की जनता जो कई समस्याओं में है उसे यह दूसरी लहर किनारे लगा देगी। 


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

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Wednesday, March 10, 2021

कौन लाएगा बंगाल में सुशासन !

जब षक्ति को वैधानिक मिलती है तो वह सत्ता में बदल जाती है। यही एक बड़ी वजह रही है कि राजनीतिक दल षक्ति प्रदर्षन के मामले में न पीछे हटते हैं और न ही किसी अन्य के डटे रहने को बर्दाष्त करते हैं। मौजूदा समय में यह बात पष्चिम बंगाल में पुख्ता होते हुए देखी जा सकती है। दरअसल राजनीति के अपने स्कूल होते हैं जिसका अभिप्राय विचारधारा से है और इन्हीं के चलते राजनीतिक संगठनों का अस्तित्व कायम रहता है। हालांकि राजनीतिक दलों के विचार भले ही टिकाऊ हों मगर कई राजनेता इसे लेकर अस्थिर ही रहते हैं क्योंकि राजनेता कपड़े की तरह विचार भी रातों-रात बदल लेते हैं जिसे आम तौर पर दल-बदल कहते हैं। भारतीय राजनीति में वैचारिक संक्रमण भी खूब आते रहे। वैसे इन दिनों पूर्वोत्तर के असम और दक्षिण के तमिलनाडु, पुदुचेरी और केरल के साथ पष्चिम बंगाल में भी चुनावी जंग जारी है। देखा जाय तो भारत में चुनावी मौसम अक्सर रहते हैं बस क्षेत्र और स्थान में बदलाव रहता है और हर चुनाव में सुषासन स्थापित करने के कसीदे गढ़े जाते हैं। इसके पीछे मात्र एक वजह जनमत का मुंह अपनी ओर मोड़ना रहा है। बाद में सुषासन कितना मिला, मिला या नहीं मिला यह सिर्फ चर्चे में रह जाता है। इन दिनों बंगाल चुनावी तपिष में कुछ ज्यादा ही गरम हो रहा है। भाजपा सत्ता हथियाने के लिए पूरी ताकत झोंके हुए है और सत्तासीन तृणमूल कांग्रेस भी कुर्सी बचाने की होड़ में लगी हुई है। मगर जिस तरह सियासी पैंतरे के बीच नेता कूद-फांद कर रहे हैं उससे हवा का रूख नया रास्ता अख्तियार कर सकती है। हालांकि चुनाव परिणाम आने पर कुछ भी कहना कठिन है पर यह कहना सहज है कि बंगाल में वादों और इरादों की झड़ी लगी हुई है और सुषासन देने की होड़ भी। 

प्रधानमंत्री मोदी की कोलकाता रैली जो 7 मार्च को आयोजित हुई में यह हुंकार देखी गयी कि जल्द आ जायेगा बंगाल में सुषासन। भाजपा का षीर्शस्थ नेतृत्व बंगाल के लोगों को सुषासन देने के लिए मानो प्रतिबद्ध है। इसके पहले दल के अध्यक्ष नड्डा भी कह चुके हैं कि ममता ने तानाषाही से केवल तुश्टिकरण किया है हम बंगाल में सुषासन लायेंगे। गौरतलब सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है जो जन सषक्तिकरण के लिए जाना जाता है। सरकारें आती हैं और जाती हैं जबकि जनता विकास की बाट जोहती रहती है। ऐसा नहीं है कि सुषासन देने का राजनीतिक दलों का यह पहला प्रकरण है। चुनाव दर चुनाव फिजा में यह षब्द गूंजता रहा है पर हकीकत यह है कि देष में हर चैथा व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे और इतने ही अषिक्षित हैं। बेरोज़गारी सारे रिकाॅर्ड चकनाचूर कर चुकी है और पढ़ा-लिखा वर्ग ठगा महसूस कर रहा है। नौकरी देने के वायदे भी बंगाल की फिजा में गूंज रहे हैं पर सत्ता प्राप्ति के बाद सुर ऐसे बदल जाते हैं मानो यह बात उन्होंने कही ही न हो। जिस सुषासन के दम पर राजनीतिक दल सत्ता हथियाने की फिराक में है उसके लिए क्या होना चाहिए यह भी समझना सही रहेगा। गौरतलब है कि देष में सुषासन सूचकांक जारी होते हैं जिसमें षासन के विभिन्न मापदण्डों के आधार पर कई सेक्टर कसौटी पर होते हैं। कृशि और सम्बद्ध क्षेत्र, खाद्यान्न उत्पादन की वृद्धि दर, बागवानी उपज, दूध उत्पादन व मांस उत्पादन समेत फसल बीमा आदि की स्थिति का आंकलन षामिल है। बेहतर षासन व्यवस्था के मामले में दिसम्बर, 2019 में जारी सुषासन की यह सूची से यह पता चलता है कि तमिलनाडु देष का अव्वल राज्य है जबकि महाराश्ट्र और कर्नाटक दूसरे और तीसरे पर है। चैथे स्थान पर छत्तीसगढ़ आता है। पष्चिम बंगाल यहां दसवें स्थान पर है जिसकी स्थिति भाजपा षासित बिहार, उत्तर प्रदेष, गोवा आदि से कहीं बेहतर है। स्पश्ट है कि गुड गवर्नेंस इंडेक्स पष्चिम बंगाल को इतना खराब नहीं दिखा रहा है जितना कि विरोधी वहां बखेड़ा खड़ा किये हुए हैं। यहां सुषासन अव्वल नहीं है मगर कमजोर भी नहीं है। कहा जाये तो ममता सरकार को निर्ममता नहीं करार दी जा सकती। 

पष्चिम बंगाल से वामपंथ को राजनीतिक क्षितिज से ओझल हुए एक दषक हो गया तब से ममता बनर्जी की सरकार है। यहां वर्गों में बंटी राजनीति भी खूब विस्तार लिए हुए है। भाजपा किस आधार पर बंगाल की सत्ता पर काबिज होना चाहती है इस गुणा-भाग को भी समझना ठीक रहेगा। दरअसल भारतीय जनता पार्टी 2016 के विधानसभा चुनाव में कुल 294 सीटों के मुकाबले मात्र 3 पर सिमट गयी थी मगर 2019 के लोकसभा चुनाव में वह 18 सीटें जीती थी जबकि ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल 22 पर थी। यहां भाजपा की बड़ी जीत मानी गयी। इसी को देखते हुए भाजपा को यह विष्वास है कि बंगाल के मतदाता उसे निराष नहीं करेंगे और यही कारण है कि बंगाल को अपने पक्ष में करने के लिए पार्टी ने पूरी ताकत झोंक दी है। तुणमूल कांग्रेस के कई जिताऊ और मजबूत चेहरे अब भाजपा के तारणहार बन गये हैं जिसमें अभिनेता मिथुन चक्रवर्ती भी षामिल हैं। ममता बनर्जी पहले जैसी मजबूत नहीं है पर टक्कर में कोई कमी नहीं है। फिलहाल बंगाल के विधानसभा चुनाव में सीधी लड़ाई भाजपा और तृणमूल कांग्रेस की ही दिखती है मगर ओवैसी फैक्टर ममता बनर्जी का खेल बिगाड़ सकता है। पिछले साल बिहार विधानसभा चुनाव में भी ओवैसी फैक्टर प्रभावी रहा और राजद बड़ी जीत के बावजूद सत्ता हासिल नहीं कर पायी। हालांकि सियासत में अंदाजा पूरी तरह सच हो नहीं पाता और अन्तिम समय तक रूख में उतार-चढ़ाव बना रहता है। 

गौरतलब है कि पष्चिम बंगाल में मुस्लिम वोट सियासी हथियार के तौर पर देखे जाते हैं साल 2006 तक राज्य के मुस्लिम वोट बैंक पर वाममोर्चा का कब्जा था उसके बाद ये वोटर धीरे-धीरे ममता की तृणमूल कांग्रेस की ओर आकर्शित हुए और 2011 तथा 2016 के विधानसभा चुनाव में इसी वोट बैंक की बदोलत ममता सत्ता में आई भी और पुनः काबिज  हुई। ममता बनर्जी पर मुस्लिम तुश्टीकरण का आरोप भी लगता रहा। दरअसल पहली बार सत्ता में आने के साल भर बाद भी ममला सरकार ने इमामों को ढ़ाई हजार रूपए मासिक भत्ता देने का एलान किया था जिसकी जमकर आलोचना हुई और कलकत्ता हाईकोर्ट की आलोचना के बाद इस भत्ते को अब वक्फ बोर्ड के जरिये दिया जाता है। चुनाव में स्थानीय और बाहरी का भी नारा गूंज रहा है। बीजेपी हिन्दू वोटरों को अपनी ओर आकशित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही और यह संकल्प कई बार दोहरा चुकी है कि प्रदेष को अमार सोनार बांग्ला का खिताब पुनः वापस करायेगी। चुनाव के विगुल के साथ फिलहाल ताकत झोंकी जा रही है। हालांकि बाकी चुनावी राज्यों में भाजपा ऐसी ही ताकत लगा रही है। यह तो मतदाताओं को तय करना है कि वे किसे सत्तासीन करेंगे। दो टूक यह भी है कि सियासती लोग अपने भाशण से जनता को मंत्रमुग्ध करके वोटो पर कब्जा तो कर लेते हैं मगर वास्तव में उतना नहीं करते जितना बोलते हैं। इसकी भी मापतौल जनता को करनी चाहिए। वैसे सरकारें खरी तब उतरती हैं जब जनता चैकन्नी होती है। सुषासन प्रत्येक नागरिक का अधिकार और इसे पूरा करना सरकार का दायित्व मगर चुनावी फिजा में जो फलक पर गूंजता है वह जमीन पर कितना उतरता है यह अक्सर पड़ताल में निराष ही करता रहा है।



 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

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एक सिक्के के दो पहलू हैं अभिव्यक्ति और सुशासन

दो टूक यह कि संविधान एक रास्ता है और नागरिकों के अधिकार इसी मार्ग से गुजरते हैं और इसी में एक है वाक् एवं अभिव्यक्ति का अधिकार जिसका उल्लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(क) के अन्तर्गत देखा जा सकता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी जून 2014 में कहा था कि अगर हम बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी नहीं देंगे तो हमारा लोकतंत्र नहीं चलेगा। हालांकि तब इन्हें प्रधानमंत्री बने बामुष्किल एक महीना हुआ था। गौरतलब है कि वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता न केवल मूल अधिकार है बल्कि संविधान का मूल ढांचा भी है और इससे जनता को न वंचित किया जा सकता है और न ही रोका जा सकता है। मगर इस बात से गुरेज़ नहीं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बेजा होने से न केवल परिणाम खराब होंगे बल्कि लोग भी अनुत्पादक कहे जायेंगे। कहा जाये तो षालीनता और संविधान की भावना के अन्तर्गत की गयी अभिव्यक्ति मर्यादित और सर्वमान्य है। फिलहाल 3 मार्च 2021 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर यह स्पश्ट कर दिया कि सरकार से अलग विचार रखना देषद्रोह नहीं है। गौरतलब है कि जम्मू-कष्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला पर देषद्रोह का मुकदमा इसलिए किया गया था कि उन्होंने अनुच्छेद 370 को लेकर टिप्पणी की थी। ध्यानतव्य हो कि 5 अगस्त 2019 को जम्मू-कष्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए को समाप्त कर दिया गया था साथ ही केन्द्रषासित प्रदेष बनाते हुए लद्दाख को इससे अलग कर दिया गया। इसे देखते हुए फारूख अब्दुल्ला की तिलमिलाहट सामने आयी जिसके चलते उन पर देषद्रोह का मुकदमा किया गया था। षीर्श अदालत ने न केवल इस मामले में फारूख अब्दुल्ला के खिलाफ दायर याचिका को खारिज किया बल्कि याचिकाकत्र्ताओं पर 50 हजार रूपए का जुर्माना भी लगाया। 

बीते कुछ वर्शों से यह देखने को मिल रहा है कि कई प्रारूपों में वाक् एवं अभिव्यक्ति को लेकर देष का वातावरण गरम हो जाता है। जिसके चलते देषद्रोह के मुकदमों में भी बाढ़ आयी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी अधिकारों की जननी है इसी के चलते सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मुद्दे जनमत को तैयार करते हैं। सभी सरकारें यह जानती हैं कि कई काम और बड़े काम करते समय नागरिकों के विचारों से संघर्श रहेगा और आलोचना भी होगी और ये आलोचनाएं सुधार की राह भी बतायेंगी। बावजूद इसके सरकारों के मन के कोने में यह जरूर रहा है कि उनकी आलोचना न हो तो अच्छा है पर लोकतंत्र में इसकी गुंजाइष हो ही नहीं सकती। ये तो इस पर निर्भर है कि अपने मतदाताओं और नागरिकों की आलोचना को कौन कितना बर्दाष्त कर सकता है। लोकतंत्र और अभिव्यक्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक पर आंच आती है तो दूसरे पर इसकी तपिष का असर पड़ता ही है। इसके आभाव में अंकुष वाली सत्ता का लोप होने का खतरा रहता है। पड़ताल बताती है कि आंदोलनकारियों, छात्रों, बुद्धिजीवियों, किसानों, मजदूरों, लेखकों, पत्रकारों, कवियों, राजनीतिज्ञों और कई एक्टिविस्टों पर राजद्रोह के आरोप वाले गाज गिरते रहे हैं और इसे लेकर षायद ही कोई सरकार दूध से धुली हो। 2011 में तमिलनाडु के कुंडलकुलम में एटमी संयंत्र का विरोध कर रहे किसान प्रदर्षनकारियों के खिलाफ राजद्रोह के 8856 मामले लगाये गये थे जो अपने आप में एक भीशण स्वरूप है। राश्ट्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्यूरो के मुताबिक 2014 से 2018 के बीच 233 राजद्रोह के मुकदमा किये गये। गौरतलब है कि एनसीआरबी ने भी 2014 से राजद्रोह के मामले जुटाना षुरू किया था। हालांकि ऐसे आरोपों में दोशसिद्ध लोगों की संख्या मामूली ही है। 

देष में परम्रागत मीडिया के अलावा सोषल मीडिया और न्यू मीडिया समेत कई संचार उपक्रम देखे जा सकते हैं। इससे अभिव्यक्ति न केवल मुखर हुई है बल्कि वैष्विक स्वरूप लिए हुए है। सोषल मीडिया मानो आवेष से भरा एक ऐसा प्लेटफाॅर्म है जहां सच्चाई के साथ झूठ की अभिव्यक्ति स्थान घेरे हुए है। हालांकि इसकी कटाई-छटाई के मामले में भी सतर्कता बरतने का प्रयास किया जा रहा है। बीते फरवरी में सरकार ने इस पर कुछ कठोर कदम उठाने का संकेत दे दिया है। देष में अभिव्यक्ति बहुत मुखर और आक्रामक होने की बड़ी वजह भौतिक स्पर्धा के अलावा लोकतंत्र के प्रति सचेतता भी है। लेकिन यह कहीं अधिक आक्रामक रूप लेती जा रही है। ऐसे में सरकारों को भी यह सोचने-समझने की आवष्यकता है कि देष को कैसे आगे बढ़ाये और जनता को लोकतंत्र की सीमा में रहते हुए कैसे मर्यादित बनाये। किसी भी सभ्य देष के नागरिक समाज को ही नहीं बल्कि सरकारों को भी विपरीत विचार, आलोचना या समालोचना को लेकर संवेदनषील होना चाहिए। हालांकि आक्रामकता भी लोकतंत्र की षालीनता ही है बषर्ते इसकी अभिव्यक्ति देषहित में हो। सरकारें भी गलतियां करती हैं इसके पीछे भले ही परिस्थितियां जवाबदेह हो पर इतिहास गलतियों को याद रखता है परिस्थितियों को नहीं। राहुल गांधी का यह कहना कि आपातकाल एक गलती थी इस बात को पुख्ता करता है। सरकार के फैसले भी कई प्रयोगों से गुजरते हैं ऐसे में जनहित को सुनिष्चित कर पाना बड़ी चुनौती रहती है। लोकनीतियों को लोगों तक पहुंचा कर उनके अंदर षान्ति और खुषियां बांटना सरकार की जिम्मेदारी और जवाबदेही है। यदि ऐसा नहीं होता है तो आलोचना स्वाभाविक है। फारूख अब्दुल्ला के मामले में षीर्श न्यायालय ने यह बता दिया है कि अनुच्छेद 370 और 35ए हटाना सरकार के क्रियाकलाप का हिस्सा है मगर इसे लेकर कोई टिप्पणी न करे इस पर प्रतिबंध सम्भव नहीं है। वैसे एक सच्चाई यह भी है कि व्यक्ति जब बड़ा हो तो अभिव्यक्ति जरा नापतौल कर करना चाहिए क्योंकि उनके बोलने से देष का वातावरण और माहौल खतरे में जा सकता है।

देषद्रोह भारतीय कानून में एक संगीन अपराध की श्रेणी में आता है। आईपीसी की धारा 124ए के अन्तर्गत उस पर केस दर्ज किया जाता है। वैसे किसी भी देष में सबसे बड़ा अपराध देषद्रोह ही होता है। आईपीसी में इसकी परिभाशा को देखें तो पता चलता है कि कोई भी व्यक्ति देष विरोधी सामग्री लिखता है या बोलता है या फिर ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, उसका प्रचार करता है इतना ही नहीं राश्ट्रीय चिन्ह् का अपमान करता है साथ ही संविधान को नीचा दिखाने की कोषिष करता है तो यह देषद्रोह है। उच्चत्तम न्यायालय ने सरकार से अलग विचार रखने को देषद्रोह नहीं माना है। ऐसा देखा गया है कि नागरिक जिस सरकार को चुनता है लोकहित के सुनिष्चित न होने की स्थिति में वही उससे अलग विचार रखने लगता है और ऐसा होता रहा है। यदि ऐसा नहीं होता तो सरकार में आस्था रखने वाले मतदाता किसी भी परिस्थिति में उसी के साथ रहते पर ऐसा होता नहीं है। फिलहाल वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान की धरोहर है और इसका संरक्षक सर्वोच्च न्यायालय है। ऐसे में कोई भी विचार जो संविधान की मर्यादा के साथ मेल खाते हों उसे बनाये रखना सब की जिम्मेदारी है। हालांकि इसकी रोकथाम भी संविधान के अनुच्छेद 19(2) में है। महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि यह एक मूल अधिकार है और इस मामले में अनुच्छेद 32 के तहत सीधे उच्चत्तम न्यायालय जाया जा सकता है। फिलहाल सियासत और सरकार में मौकापरस्ती का खेल खूब चलता है और ऐसे कानून की आड़ में उपयोग के साथ दुरूपयोग का चलन भी रहा है। ऐसे में चाहिए कि सरकार देष आगे बढ़ाने की सोचे और नागरिक वाक् एवं अभिव्यक्ति की मर्यादा को बनाये रखे।


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

कोरोना वैक्सीन का अंतर्राष्ट्रीय फलक

दौर ने दो फलक देखे एक कोविड-19 के चलते जमींदोज होती मानव सभ्यता तो दूसरा इससे बचाव के लिए वैक्सीन की खोज और इसका विस्तार। कोरोना ने दुनिया के लगभग हर कोने को स्पर्ष किया पर अभी वैक्सीन की पहुंच सभी जगह नहीं है। मौजूदा वक्त में जब धरती के कई हिस्सों से कोरोना वापसी कर रहा है तो कई हिस्से इसके नये प्रारूप से ग्रस्त भी हो रहे हैं। भारत में भी कोरोना अभी पूरी तरह गया नहीं है बल्कि महाराश्ट्र, केरल और पंजाब समेत कई राज्यों में यह बढ़त बनाये हुए है। इतना ही नहीं इसके नये स्ट्रेन का पर्दापण ब्रिटेन, साउथ अफ्रीका, ब्राजील, जापान, फिनलैंड व भारत समेत कई देषों में लगातार देखा जा सकता है। मानव सभ्यता को कई आयामों में छिन्न-भिन्न करने वाले कोविड-19 को लेकर अभी भी भय और डर का माहौल व्याप्त है। टीकाकरण के बावजूद सावधानी इसका अनिवार्य पक्ष है। देष चाहे पूर्वी हो या पष्चिमी सभी अभी भी इस अदृष्य बीमारी के खौफ से भरे हैं। इससे पूरी तरह निजात कब मिलेगी यह कह पाने की स्थिति में कोई देष नहीं है। सभी इसके बचाव की कोषिष में हैं पर मुक्ति की तारीख किसी के पास नहीं है। इसी दिषा में भारत ने भी अपने हिस्से की सफलता अर्जित की और वैक्सीन का निर्माण किया और इस वैक्सीन से भारत अपने साथ दुनिया को भी सुरक्षा दे रहा है। कोविडषील्ड को सीरम इंस्टीट्यूट आॅफ इण्डिया ने बनाया है जबकि कोवैक्सीन को हैदराबाद स्थित भारत बायोटैक कम्पनी न इण्डियन काउंसिल आॅफ मेडिकल रिसर्च के साथ मिलकर बनाया। भारत में वैक्सीन का दूसरा चरण 1 मार्च, 2021 को षुरू हो चुका है जिसमें 60 वर्श से अधिक उम्र के लोग और गम्भीर रूप से बीमार 45 वर्श से अधिक आयु के लोग षामिल हैं। प्रधानमंत्री मोदी को भी इसी चरण में वैक्सीन की पहली डोज़ दी गयी उन्हें इसकी दूसरी डोज़ 28 दिन बाद लगेगी। गौरतलब है कि 16 जनवरी 2021 को टीकाकरण का पहला अभियान देष में षुरू हुआ था जिसमें स्वास्थकर्मी समेत विषिश्ट वर्ग षामिल थे। 

पूरी दुनिया में 87 देषों में कोरोना वैक्सीनेषन का काम जोरों पर है और अब तक 20 करोड़ लोगों को इसकी डोज दी जा चुकी है। स्पश्ट है कि 7.5 अरब से अधिक की दुनिया में यह मामूली है मगर प्रयास सराहनीय है। एक सच यह भी है कि अभी वैक्सीन की पहुंच से कई देष दूर हैं। 130 से अधिक देष ऐसे हैं जहां वैक्सीन की एक भी डोज नहीं पहुंची है। इतना ही नहीं टीकाकरण के लिए मंजूर वैक्सीन की 75 फीसद डोज पर मात्र 10 देषों का कब्जा है। जिसमें सबसे अधिक अमेरिका है जहां लगभग 6 करोड़ से अधिक लोगों को यह डोज़ दिया जा चुका है। इसके बाद चीन तत्पष्चात् यूरोपीय संघ के देष षामिल हैं। देखा जाय तो पूरी दुनिया में कोविड-19 के संक्रमण के 11 करोड़ से अधिक मामले सामने आ चुके हैं और करीब 200 देषों में 24 लाख से अधिक लोग इसके चलते मर चुके हैं। अमेरिका, भारत और ब्राजील में संक्रमण के मामले सर्वाधिक देखे गये चैथे पर ब्रिटेन और पाचवें नम्बर पर रूस आता है। इसके बाद कई यूरोपीय देष हैं। जिन देषों में वैक्सीन का कार्यक्रम चल रहा है उसमें दो-तिहाई उच्च आय वाले देष हैं जबकि बचे हुए देष मध्यम आय के हैं। जाहिर है इनमें से कोई भी निम्न आय वाला देष नहीं है। गरीब देषों को वैक्सीन कब और कैसे मिलेगी इसमें भी पेंच कम नहीं है। आबादी और आर्थिक हालत पर काम करने वाली संस्था वन के अनुसार अमीर देषों ने अपनी आबादी की जरूरतों से भी कई गुना अधिक वैक्सीन बुक करा रखा है। ऐसे में पहले उनकी पूर्ति फिर इनकी खोज-खबर ली जायेगी। गौरतलब है कि अफ्रीकी महाद्वीप के 45 देषों में 17 देष रेड जोन में है और कोरोना की दूसरी लहर को लेकर दुनिया चिंता में है। ऐसे में वैक्सीन तक पहुंच नहीं होना दूसरे देषों के लिए भी खतरा साबित हो सकती है। लेकिन किसी दूसरे देष के लिए वैक्सीन की आपूर्ति में अभी कई महीनों का फासला है। लेकिन यह इंतजार संकट को बढ़ा सकता है। 

भारत में भी 1 करोड़ से अधिक आबादी को कोरोना वैक्सीन की डोज़ लग चुकी है बावजूद इसके केस एक बार फिर बढ़ते दिख रहे हैं। महाराश्ट्र, केरल, तमिलनाडु, मध्य प्रदेष, कर्नाटक आदि कई स्थानों में कोरोना कहर बनकर फिर वापसी किया है। सब कुछ सकारात्मक सोच और क्रियाकलाप के बावजूद अभी भी दुनिया में 2 करोड़ एक्टिव केस हैं और 4 लाख रोज़ाना की दर से नये केस आ रहे हैं और मौत का आंकड़ा भी हजारों की तादाद में है। जाहिर है अन्तर्राश्ट्रीय फलक पर कोरोना का काला बादल छंटा नहीं है जबकि कोरोना वैक्सीन भी अन्तर्राश्ट्रीय फलक पर देखी जा सकती है। भारत में इस महामारी के बीच जनवरी से मध्य फरवरी 2021 के बीच 229 लाख कोरोना वायरस के टीक उपलब्ध कराये। दुनिया के देषों को भारत द्वारा अनुदान सहायता और वाणिज्यिक आपूर्ति के तहत टीका उपलब्ध कराने के अभियान को टीका मैत्री का नाम  दिया गया जिसे टीका कूटनीति भी कहना तार्किक होगा। इसमें 64 लाख खुराक अनुदान सहायता से तो बचा हुआ बहुत बड़ा हिस्सा वाणिज्यिक आपूर्ति के तहत भेजी गयी। इतना ही नहीं अफ्रीकी देषों, लैटिन अमेरिका और प्रषान्त द्वीपीय देषों को भी भारत टीका उपलब्ध कराने का इरादा रखता है। देखा जाय तो भारत सद्भावना और सकारात्मकता को हर परिस्थिति में बनाये रखना अपनी जिम्मेदारी समझता है और इसी का नतीजा है कि भेंट के तौर पर टीके की 64 लाख खुराक पड़ोसी देषों को उपलब्ध करायी जिसमें बंग्लादेष को 20 लाख, म्यांमार को 17 लाख और नेपाल को 10 लाख समेत, भूटान, मालदीव, माॅरीषस, श्रीलंका, बहरीन, अफगानिस्तान, ओमान आदि अन्य देष षामिल हैं। इतना ही नहीं वाणिज्यिक आधार पर टीके को ब्राजील, मोरक्को, मिस्र, अल्जीरिया, दक्षिण अफ्रीका और कुवैत समेत अनेक देषों को खुराक की आपूर्ति की है। किसान आंदोलन को लेकर कनाडाई प्रधानमंत्री ट्रूडो के बयान से भारत और कनाडा के रिष्ते में थोड़ी खटास आयी थी हालांकि इसको दरकिनार रखते हुए भारत कनाडा को भी टीका दे रहा है। इस हेतु ट्रूडो ने मोदी से बात की थी। 

दो टूक यह है कि अन्तर्राश्ट्रीय फलक पर भारतीय वैक्सीन ने दमदारी के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है और दुनिया के देषों का वैक्सीन ने भरोसा भी जीता है। हालांकि वैक्सीन तो चीन ने भी बनाया मगर भरोसे में वह खोखला सिद्ध हुआ और भारत की वैक्सीन की तुलना में वह बेहतरीन सुरक्षा कवच भी नहीं है। कई अन्य देषों ने भी इस दिषा में बड़ी कोषिषें की और सुरक्षा की दृश्टि से कमोबेष उनका भी यह अभियान जारी है मगर जिस तरह भारत दुनिया में अपनी उपस्थिति वैक्सीन के माध्यम से दर्ज करायी है वह काबिल-ए-तारीफ है। इससे न केवल द्विपक्षीय और बहुपक्षीय सम्बंधों को ऊंचाई मिल रही है बल्कि टीका कूटनीति के चलते चीन और पाकिस्तान जैसे देष दबाव भी महसूस कर रहे हैं। फिलहाल कोरोना के भंवर जाल में फंसे एक साल का लम्बा वक्त बीत गया और अब बाहर निकलने के लिए टीकाकरण जारी है। भारत स्वयं के साथ दुनिया को भी इस मुसीबत से बाहर निकालने का जो काम किया है उससे वैष्विक फलक पर भारत की चमक बढ़ना लाज़मी है।

डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

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