Monday, January 31, 2022

बाइस के बजट से बेशुमार उम्मीदें

बजट देष का वह आर्थिक आइना होता है जिसमें सभी नागरिक अपनी सूरत निहारते हैं। चाहे कृशि क्षेत्र हो, सेवा क्षेत्र हो या फिर उद्योग सभी के लिए यह बेषुमार उम्मीदों का ताना-बाना लिए रहता है। वर्श 2022 का पहला संसद सत्र बीते 31 जनवरी को षुरू हो गया है और आज 1 फरवरी बजट पेषगी का दिन है। वित्त मंत्री द्वारा आर्थिक सर्वेक्षण में यह अंदेषा पहले ही जताया जा चुका है कि अगले वित्त वर्श 2022-23 में विकास दर में गिरावट रहेगी। गौरतलब है कि चालू वित्त वर्श में विकास दर 9.2 फीसद है जो आगामी वित्त वर्श में 8 से 8.5 प्रतिषत रहने का अनुमान है। बावजूद इसके 31 जनवरी को संसद में पेष आर्थिक सर्वेक्षण में यह भरोसा जताया गया है कि देष की अर्थव्यवस्था सभी चुनौतियों का सामना करने में सक्षम है। सर्वेक्षण में यह भी स्पश्ट है कि देष का कृशि क्षेत्र ही नहीं बल्कि औद्योगिक उत्पाद के विकास दर में भी सुधार है। हालांकि वित्त वर्श 2021-22 के लिए ऐसे ही सर्वेक्षण में पिछले साल 11 फीसद विकास दर का अनुमान लगाया गया था जिसका सांख्यिकी मंत्रालय के मुताबिक 9.2 फीसद पर सिमटने का अनुमान है। दरअसल भारत का आर्थिक सर्वेक्षण भारत सरकार के वित्त मंत्रालय की ओर से जारी एक ऐसा वार्शिक लेखा-जोखा है जिसके अंतर्गत अर्थव्यवस्था से सम्बंधित आधिकारिक और ताजा आंकड़ा निहित होता है। गौरतलब है कि पहले बजट फरवरी के अन्तिम दिवस में पेष किया जाता था लेकिन साल 2017 से इसे 1 फरवरी से पेष किये जाने की परम्परा षुरू की गयी और इसी साल आम बजट और रेल बजट एक भी किया गया था तब के वित्त मंत्री अरूण जेटली थे। भाजपा सरकार का यह दसवां बजट होगा जबकि वित्त मंत्री के रूप में निर्मला सीतारमण चैथी बार बजट पेष कर रही हैं। 

अर्थव्यवस्था में मजबूती को लेकर सरकार का जोर लगातार रहा है मगर कोरोना के चलते कई कठिनाईयां भी बनी रहीं। मौजूदा दौर कोरोना की तीसरी लहर का है जो अर्थव्यवस्था की दृश्टि से समुचित करार नहीं दिया जा सकता। हालांकि अप्रत्यक्ष कर जीएसटी की उगाही के मामले में अर्थव्यवस्था अनुमान के इर्द-गिर्द है। नये बजट में ठोस कदम उठाने की जरूरत तो है ही साथ ही इससे जुड़ी चुनौतियों पर भी फोकस कहीं अधिक आवष्यक है। देखा जाये तो घरेलू स्तर पर महंगाई एक चिंता का सबब है। खुदरा महंगाई दर लगभग 14 फीसद के आंकड़े को छू रही है जिसे लेकर बजट में यह गुंजाइष बनती है कि इस दबाव से मुक्ति मिले। कोरोना महामारी के साथ और बाद नौकरी जाने और बेरोज़गारी का एक गगनचुम्बी पिरामिड देष में बन गया है और आंकड़े भी बताते हैं कि करोड़ों लोगों की नौकरियां और काम-काज अभी भी ठप्प है। दिसम्बर 2021 में बेरोज़गारी दर रिकाॅर्ड 7.91 फीसद का होना यह जताता है कि बजट से उम्मीदें इस मामले में सर्वाधिक है। विनिवेष, निर्यात, कच्चा तेल और विदेषी निवेषक आदि से जुड़े मसलों पर भी बजट को नया करवट देना ही होगा। वेतन भोगियों की नजर भी बाइस के बजट में इक्कीस है। कोरोना के चलते अधिकतर क्षेत्रों में वर्क फ्राॅम होम की स्थिति बनी हुई है। जाहिर है इससे इलेक्ट्राॅनिक, इंटरनेट चार्ज, किराया, फर्नीचर आदि पर खर्च तुलनात्मक बढ़ा है। यहां भी अतिरिक्त टैक्स छूट देने का संदर्भ हो सकता है। बीते दो वर्शों में कोविड-19 ने हेल्थ सेक्टर को काफी सक्रिय किया है। इतना ही नहीं स्वास्थ्य पर लोगों का खर्च भी तुलनात्मक काफी बढ़ गया है। ऐसे में मेडिकल क्लेम का दायरा और बीमा में छूट की सीमा भी बेहतर होने की आस है। गौरतलब है इनकम टैक्स एक्ट 1961 की धारा 80सी के तहत कर से छूट का प्रावधान है जो डेढ़ लाख रूपए ही है और बरसों से इसे बढ़ाया नहीं गया। इस छूट के दायरे में ईपीएफ, पीपीएफ, हाउसिंग लोन, बच्चों की ट्यूषन फीस, राश्ट्रीय बचत, जीवन बीमा समेत बचत निवेष और अनिवार्य खर्चों से जुड़ी एक लम्बी सूची इसमें षामिल है। 

बजट में किसानों को बड़ी सौगात मिल सकती है। उम्मीद की जा रही है कि प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना जो 6 हजार रूपए सालाना है। इस बजट में इस राषि को बढ़ाने का एलान हो सकता है। इसके अलावा भी बजट में किसानों को लेकर काफी कुछ गुंजाइषें हो सकती हैं। किसान आंदोलन के चलते जो डेंट सरकार को लगा है वह इस बजट में भरपाई करना जरूर चाहेगी। वैसे भी उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड, पंजाब समेत मणिपुर और गोवा में विधानसभा चुनाव प्रक्रिया जारी है। उत्तर प्रदेष में सत्ता पर एक बार फिर काबिज होना मौजूदा सरकार के लिए एक अग्नि परीक्षा है और भरोसा जीतने की एक ऐसी धारणा कि वह षासन के मामले में बेहतर है। ऐसे में बजट में सम्भावना बेहतर की है। खास यह भी है कि इनकम टैक्स स्लैब रेट में बदलाव को लेकर भी सेवारत् कर्मचारियों समेत सभी की नजर रहेगी। मौजूदा आयकर प्रावधानों के अनुसार 60 साल तक की उम्र के व्यक्तिगत करदाताओं के लिए इनकम टैक्स में छूट की सीमा सालाना ढ़ाई लाख रूपए ही है और यह सीमा 2014-15 से अब तक बढ़ाई नहीं गयी है। इस बार के बजट में 5 लाख रूपए तक की सीमा पर विचार किया जा सकता है। वेतनभोगी कर्मचारियों को खुष करने के लिए भी सरकार कुछ अच्छे कदम और उठा सकती है। मसलन स्टैण्डर्ड डिडक्षन को 50 हजार से बढ़ाकर एक लाख रूपए कर सकती है। विमानन उद्योग भी कोरोना के चलते आर्थिक कठिनाई से जूझ रहा है। इस मामले में भी बजट से उम्मीद बेमानी नहीं होगा। क्रिप्टोकरेंसी को लेकर भी आगामी बजट में खरीद-बिक्री को कर के दायरे में लाने पर विचार हो सकता है। पिछले साल 2021 में देष में वरिश्ठ नागरिकों की संख्या करीब 1.31 करोड़ थी जो आगामी बीस वर्शों में ढ़ाई करोड़ के आसपास होगी। गौरतलब है कि एक उम्र के बाद नियमित आय का कोई साधन नहीं रहता। ऐसे में रिटायरमेंट प्लान कहीं अधिक जरूरी हो जाता है। बजट में यह उम्मीद की जा सकती है कि धारा 80सी की सीमा को बढ़ाने पर न केवल विचार किया जायेगा बल्कि इसके लोगों को बचत करने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा और अपनी रिटायरमेंट की योजना ठीक से बना सकेंगे। 

बजट में आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा भी पुलकित हुए बगैर रह नहीं सकती। लोकल को वोकल की गति भी इस बजट में और सम्भव है। उम्मीद तो बेहतर की ही रहेगी मगर सरकार किस प्राथमिकता पर काम करना चाहेगी वह उसकी अपनी होगी। एमएसएमई को भी बजट से बड़ी उम्मीदें हैं इतना ही नहीं रियल स्टेट को बूस्ट करना, डिजिटल इण्डिया को बढ़ावा देना, आॅटोमोबाइल की उम्मीदों पर खरा उतरना और प्रोत्साहन पैकेज की उम्मीद समेत कई ऐसे संदर्भ हैं जो बजट पर टकटकी लगाये हुए हैं और यह उम्मीद भी है कि सरकार इन्हें निराष नहीं करेगी। फिलहाल कोरोना की काली छाया से यह बजट भी मुक्त नहीं है लेकिन बाइस के बजट में उम्मीदें इक्कीस इसलिए हैं क्योंकि आपदा के समय में सरकार का साथ भी जनता ने खूब दिया है। 

 दिनांक : 31/01/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Thursday, January 27, 2022

बढ़ानी होगी वोट के प्रति सोच

वर्श 1888 में कैम्ब्रिज में एक व्याख्यान के दौरान सर जाॅन स्ट्रैची ने बड़े अहंकार से कहा था कि भारत देष या भारत जैसी कोई और चीज न कभी थी और न है। इस कथन को 140 बरस से अधिक का समय हो गया है तब देष औपनिवेषिक सत्ता में फंसा हुआ था। भारत की आजादी का अब 75वां वर्श चल रहा है जिसे आजादी के अमृत महोत्सव के रूप में मनाया जा रहा है। उक्त कथन का यहां संदर्भ यह है कि जिस भारत को लेकर अस्तित्वहीन चर्चा को कभी अंजाम दिया जाता था अब वही दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। मगर 70 बरस के चुनावी इतिहास में मतदान के प्रति कमजोर रूझान चिंतन का सबब तो है। 17 बार लोकसभा का चुनाव भी हो चुका है और मौजूदा समय में उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड, पंजाब और मणिपुर समेत गोवा में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया जारी है। पड़ताल बताती है कि मतदाताओं का रूझान मतदान के प्रति षनैः षनैः बड़ा है हालांकि इसमें लोकतंत्र की मजबूती के लिए जितनी ताकत झोंकनी चाहिए वह नाकाफी दिखती है। 2017 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेष मंे 61 फीसद, उत्तराखण्ड में 65.64 जबकि पंजाब 78 प्रतिषत से अधिक वोटिंग हुई थी। वोट प्रतिषत बताते हैं कि उत्तर प्रदेष और उत्तराखण्ड में तो 2014 लोकसभा चुनाव में पड़े मतदान की तुलना में भी गिरावट है। 1951 में जब पहली बार लोकसभा का चुनाव हुआ तब मतदाता कुल 36 करोड़ जनसंख्या में महज 17 करोड़ से थोड़े अधिक थे और देष की साक्षरता दर बामुष्किल 18 प्रतिषत ही थी। आजादी मिले कुछ ही वर्श हुए थे सब कुछ संतुलित करने का प्रयास चल रहा था बावजूद इसके मतदान 61.32 फीसद था। उस दौर से वर्तमान की तुलना व्यापक अंतर के साथ देखा जा सकता है मगर उन परिस्थितियों में भी लोकतंत्र के प्रति भारतीयों की निश्ठा कतई कम न थी। साल 2019 में 17वीं लोकसभा का चुनाव हुआ और 70 साल के चुनावी इतिहास में बामुष्किल वोट प्रतिषत 5 प्रतिषत ही बढ़ पाया है। गौरतलब है कि इस चुनाव में 67.40 फीसद मतदान हुआ था जबकि साक्षरता की दृश्टि से देष 75 फीसद के आस-पास खड़ा है। यह आंकड़ा 2011 की जनगणना पर आधारित है। भारत अन्तरिक्ष विज्ञान में मील का पत्थर गाढ़ चुका है और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के मामले में चैतरफा कदम बढ़ा चुका है। दुनिया के तमाम देषों में षुमार भारत दक्षिण एषिया में एक ध्रुव की भांति स्वयं को विकसित कर लिया है। इसके अलावा भी कई मामलों में देष आगे है लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में मतदान का जो प्रतिषत है वह निराष करने वाला है ऐसे में वोट के प्रति सोच को विकसित करने का वक्त पहले भी रहा है पर अब देरी ठीक नहीं है। 

प्रत्येक 25 जनवरी को राश्ट्रीय मतदाता के रूप में मनाया जाता है। इसके पीछे कारण इसी दिन 1950 में देष में निर्वाचन आयोग की स्थापना है। वैसे इस तारीख को मतदाता दिवस के रूप में साल 2011 में घोशित किया गया। इसके पीछे भी महत्वपूर्ण कारण यह था कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले भारत के नागरिकों को मतदान की प्रगाढ़ता और एहमियत को बताना था। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह भी था कि मतदाताओं के पंजीकरण में वृद्धि करना साथ ही वयस्क मताधिकार को सुनिष्चित करते हुए युवाओं की भागीदारी को प्रोत्साहित करना। जाहिर है कोई मतदान से पीछे न छूटे इसकी चिंता लाज़मी थी और राश्ट्रीय मतदान दिवस जैसे आयोजन के पीछे समावेषी और गुणात्मक भागीदारी भी सुनिष्चित करने का प्रयास था। सफलता कितनी मिली यह आंकलन का विशय है। भारत में बहुधा यह देखा गया है कि मतदान के मामले में रूचि कम ही है। आंकड़े बताते हैं कि साल 2014 के लोकसभा चुनाव में 28 करोड़ मतदाताओं ने मतदान बूथ की ओर रूख ही नहीं किया। उस समय कुल 83 करोड़ से थोड़े अधिक मतदाता थे स्पश्ट है कि एक-तिहाई मतदाता के वोट के बगैर ही चुनाव सम्पन्न हुआ। हालांकि सात दषकों की पड़ताल में मतदान को लेकर निराष करने वाले कई चुनावी वर्श मिल जायेंगे। 1951 में पहले लोकसभा चुनाव में मतदान जहां 61.16 फीसद था वहीं 11वीं लोकसभा 1991 में यह प्रतिषत महज 56.73 था। हालांकि 1962 में 55.42 और 1971 में 55.29 फीसद तक भी मतदान हुए हैं। मगर 1985 में मतदान 72 फीसद के आंकड़े को पार कर गया। उक्त से यह स्पश्ट है कि मतदान के प्रति यदि जागरूकता अभियान चलाया जाये, बेदाग और कर्मठ नेता चुनावी मैदान में हो साथ ही लोकतंत्र के प्रति बेहतरीन सोच का विकास किया जाये तो मत प्रतिषत को बड़े मतदान प्रतिषत में बदला जा सकता है। 

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देष है मगर अनिवार्य मतदान जैसी व्यवस्था यहां नहीं है। इंस्टीट्यूट आॅफ डेमोक्रेसी एण्ड इलेक्ट्राॅल असिस्टेंस से यह पता चलता है कि दुनिया में 30 देषों में मतदान को अनिवार्य बनाया गया है जिसमें आॅस्ट्रेलिया जैसे बड़े देष षामिल हैं तो वहीं सिंगापुर जैसे छोटे देष भी इसमें षुमार हैं। बेल्जियम, स्विटजरलैण्ड, अर्जेन्टीना आदि में मतदान अनिवार्य है। इतना ही नहीं कई देष मतदान नहीं करने की स्थिति में सजा का प्रावधान भी रखते हुैं जिसमें उपरोक्त के अलावा स्विट्जरलैण्ड, फिजी, तुर्की, उरूग्वे, अर्जेन्टीना जैसे 19 देष षामिल हैं। दुविधा यह है कि मतदान के प्रति सोच के लिए उकसाया जाये या फिर किसी सजा का प्रावधान किया जाये। भारत एक उदार विचारधारा से युक्त देष है यहां लोकतंत्र कहीं अधिक मुक्त अवस्था को प्राप्त किये हुए है। सहभागिता का दृश्टिकोण यहां के लोकतांत्रिक मूल्यों का संयोजन है षायद यही कारण है कि भारत में मतदान केवल नागरिक कत्र्तव्य मात्र है और इसे लेकर किसी प्रकार की बाध्यता भी नहीं है। वैसे देखा जाये तो फिलीपींस, थायलैण्ड, वेनेजुएला समेत कई देषों में मतदान नागरिक कत्र्तव्य घोशित किया गया है। मतदान प्रतिषत बढ़ाने के लिए कुछ नये अनुप्रयोग की आवष्यकता तो है। कुछ देषों में तो यह भी है कि कहीं भी रहकर अपने चुनाव क्षेत्र में मतदान करने में लोग सक्षम हैं। भारत में ऐसी स्थिति का आभाव है। षिक्षा, नौकरी या अन्य कारणों से लोग विस्थापन करते हैं ऐसे में अपने चुनाव क्षेत्र में मतदान न कर पाने की स्थिति में मतदाता वोट से वंचित हो जाते हैं। यहां इस प्रकार की छूट मतदान प्रतिषत को बढ़ा सकता है। अमेरिका में मतदान की तारीख से पहले और बाद में भी वोट दिया जा सकता है हालांकि इसके लिए विषेश अनुमति की आवष्यकता होती है। ब्रिटेन में तो मतदान के समय अनुपस्थिति की सूचना पूर्व में देनी होती है। तत्पष्चात् अन्य स्थान से वोट देना सम्भव है। जर्मनी में भी समय के बाद मतदान किया जा सकता है। बषर्ते इसकी कुछ प्रक्रिया है। आॅस्ट्रेलिया में मतदाता जिस राज्य का निवासी है वहां के लिए आॅनलाइन मतदान दे सकता है और न्यूजीलैण्ड में तो मतदान का हाल और निराला है। उपस्थिति न होने की स्थिति में यहां चुनाव आयोग की टीम लोगों के घर या अस्पताल तक जाती है। उक्त से यह स्पश्ट है कि मतदान के अनेक देषों में अपने तौर-तरीके हैं। फिलहाल भारत में जागरूकता और चेतना को व्यापक रूप दिया जाये तो मतदान के प्रतिषत को बड़ा करना कोई कठिन कार्य नहीं है। 

दिनांक : 27/01/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

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Monday, January 24, 2022

गांधी दर्शन और गण का तंत्र

जब सामाजिक-आर्थिक प्रणालियों की मौजूदा परिपाटी डगमगा जाये तो समझो कि परिवर्तन की गुंजाइष बढ़ गयी है। खराबियों को दुरूस्त करने का सही वक्त पहचानना भी दूरदर्षी दायित्व का बोध कराता है। औपनिवेषिक काल के उन दिनों में ऐसे ही तमाम खामियों की पहचान कर देष को आजादी को दूरदर्षिता से भरना गांधी दर्षन था जो इन दिनों 75वें साल में प्रवेष कर गया है और आजादी के अमृत महोत्सव के रूप में मनाया जा रहा है मगर यह तब पूरी तरह जन-जन का उत्सव बनेगा जब गण का तंत्र दायित्व और जवाबदेही के मामले में सर्वोदय और अन्त्योदय की भूमिका में होगा। प्रकृति और मानवता के बीच गहरा सम्बंध है और गांधी दर्षन का परिप्रेक्ष्य इन दोनों के समन्वय का परिचायक है। मौजूदा वक्त नीति और व्यवहार को सुचिता देने का है। नीति ऐसी जिसकी जदद् में आम आदमी और व्यवहार ऐसा जिसमें महामारी से निपटने का पूरा ताना-बाना हो। इतना ही नहीं समावेषी विकास में निहित षिक्षा, चिकित्सा, सड़क, बिजली, पानी समेत सुरक्षा और संरक्षा इत्यादि बुनियादी तत्व जिसका दषकों से आम आदमी बाट जोह रहा है उनकी भी भरपूर आपूर्ति गांधी दर्षन के साथ गणतंत्र की वास्तविकता है। भारत समेत तमाम विकासषील देषों को सबके लिए स्वास्थ का लक्ष्य प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर रखने की फिलहाल जरूरत है और ऐसा प्रयास जारी भी है। गणराज्य में राज्य की सर्वोच्च षक्ति जनता में निहित होती है तथा विधि की दृश्टि में सभी नागरिक बराबर होते हैं। स्वास्थ्य एक प्राथमिक अधिकार है वस्तुतः मानव अधिकारों का मुद्दा है ऐसे में स्वास्थ्य और मनोस्वास्थ पर जोर वर्तमान की आवष्यकता है। वैसे महामारी से पहले भारत अपनी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का करीब सवा प्रतिषत ही खर्च करता था जबकि विकसित देष अमेरिका लगभग 17 फीसद और स्विटजरलैण्ड 12 फीसद से अधिक। यहां तक कि बांग्लादेष और पाकिस्तान भी इस मामले में 3 प्रतिषत खर्च करते हैं। चीन में यह आंकड़ा 5 प्रतिषत का है। गौरतलब है कि उपरोक्त आंकड़े साल 2018 के हैं जबकि मौजूदा समय में स्थिति बदलाव लिए हुए है मगर अन्य देषों की तुलना में भारत अभी भी कहीं अधिक पीछे है।

किसी भी देष का नीति और व्यवहार इस बात से तय होता है कि आम आदमी के लिए नीतियां कितनी बेहतर बनायी जाती हैं और वहां की जनसंख्या कितनी स्वस्थ है। गणराज्य में राज्य की सर्वोच्च षक्ति जनता में निहित होती है तथा विधि की दृश्टि में सभी नागरिक बराबर होते हैं। भारतीय संविधान की उद्देषिका में भारत को गणतंत्र घोशित किया गया है जिसका तात्पर्य है भारत का राश्ट्राध्यक्ष निर्वाचित होगा न कि आनुवांषिक। कई मुद्दे चाहे भारतीय जनता की सम्प्रभुता हो या सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय हो। इतना ही नहीं समता की गारंटी हो या धर्म की स्वतंत्रता हो या फिर निचले तबके के किसी वर्ग का उत्थान हो उक्त का संदर्भ संविधान में निहित है जो गांधी विचारधारा से ओत-प्रोत है। गांधी जी इस बात पर जोर देते थे कि हमारी सभ्यता इस बात में निहित है कि हम औरों के लिए कितने उदार और समान विचार रखते हैं। सदाचार, सत्य एवं अहिंसा, न्याय और निश्ठा एवं नैतिकता को गांधी अपने प्रयासों में हमेषा संजो कर रखते थे। इन्हीं की परिकल्पना सर्वोदय बीते सौ वर्शों से आज भी प्रासंगिक है साथ ही इस निहित परिप्रेक्ष्य को भी समेटे हुए है कि कोई भी नीति या निर्णय तब तक उचित नहीं जब तक अन्तिम व्यक्ति का उदय न हो। गणतंत्र की रूपरेखा भी उक्त बिन्दुओं से होकर गुजरती है। हम भारत के लोग इस बात का प्रकटीकरण हैं कि समता और दक्षता का संदर्भ सब में समान है, भेदभाव से परे संविधान नागरिकों की वह ताकत है जिससे स्वयं के जीवन और देष के प्रति आदर और समर्पण का भाव विकसित करता है। इतना ही नहीं संविधान में निहित मूल अधिकार और लोक कल्याण से ओत-प्रोत नीति निर्देषक तत्व गांधी दर्षन का आईना हैं। अनुच्छेद 40 के भीतर पंचायती राज व्यवस्था मानो गांधी दर्षन का चरम हो। संविधानविदों ने संविधान बनाने में 2 साल, 11 महीने, 18 दिन का लम्बा वक्त लिया और इस भरपूर समय में संविधान के प्रत्येक मसौदे के अंदर गांधी विचारधारा को नजरअंदाज नहीं किया गया। जिस तर्ज पर संविधान बना है इसका दुनिया में विषाल होना स्वाभाविक है मगर यही विषालता इस संसार में बेमिसाल भी बनाता है। 

गांधी दर्षन और सुषासन एक-दूसरे के पर्याय हैं जबकि गणतंत्र इसे कहीं अधिक ताकतवर बना देता है। सामाजिक-आर्थिक उन्नयन के मामले में सरकारें खुली किताब की तरह रहें इसका प्रकटीकरण भी उपरोक्त संदर्भों में युक्त है। बावजूद इसके राजनीतिक पहलुओं से जकड़ी सरकारें गणतंत्र की कसौटी पर कितनी खरी हैं यह प्रष्न कमोबेष उठता जरूर है। लोकतंत्र के देष में जनता के अधिकारों को अक्षुण्ण बनाये रखना सरकार का पहला कत्र्तव्य है। ऐसा संविधान के भीतर पड़ताल करके भी देखा जा सकता है। गणतंत्र की पराकाश्ठा जनता की भलाई में है तभी यह गण का तंत्र बनता है। सरकार कितनी भी ताकतवर हो यदि जनता कमजोर हुई तो गांधी दर्षन और गणतंत्र दोनों पर भारी चोट होगी। षासन कितना भी मजबूत हो यह इस बात का प्रमाण नहीं कि इससे देष मजबूत है बल्कि मजबूती इस बात में हो कि जनता कितनी सषक्त है। यह परिकल्पना सुषासन की दीर्घा में आती है। गणतंत्र और सुषासन का भी गहरा नाता है। संविधान स्वयं में सुषासन है और गणतंत्र इसी सुषासन का पथ और चिकना बनाता है। 26 जनवरी 1950 को लागू संविधान एक ऐसी नियम संहिता है जो दीन-हीन या अभिजात्य समेत किसी भी वर्ग के लिए न तो भेदभाव की इजाजत देता है और न ही किसी को कमतर अवसर देता है। सात दषक से अधिक वक्त बीत चुका है सरकारें आईं और गईं मगर गणतंत्र और गांधी दर्षन की प्रासंगिकता बरकरार रही। वैसे देखा जाये तो गणतंत्र के कई और मायने हैं मसलन देष के अलग-अलग हिस्सों के न केवल संस्कृतियों का यहां प्रदर्षन होता है बल्कि सभी सेनाओं की टुकड़ियां अपनी ताकत को सम्मुख लाकर देष की आन-बान-षान को भी एक नया आसमान देती है। मित्र देषों को भारत अपने परिवर्तन से परिचय कराता है तो दुष्मन देषों को अपनी ताकत का एहसास कराता है।

गणतंत्र हमारी विरासत है प्राचीन काल में गणों का उल्लेख मिलता है और मौजूदा समय में इसका लम्बा इतिहास। गांधी दर्षन को देखें तो नैतिकता और सदाचार के जो मापदण्ड उन्होंने कायम किये उनसे षाष्वत सिद्धान्तों के प्रति उनकी वचनबद्धता और निश्ठा का पता चलता है। गांधी दर्षन को यदि गणतंत्र से जोड़ा जाये तो यहां भी षान्ति और षीतलता का एहसास लाज़मी है। संविधान नागरिकों के सुखों का भण्डार है और गणतंत्र इसका गवाह है। गांधी ने सर्वोदय के माध्यम से प्रस्तावना में निहित उन तमाम मापदण्डों को संजोने का काम किया जिसका मौजूदा समय में जनमानस को लाभ मिल रहा है। स्वतंत्रता और समता व्यक्ति की गरिमा, बंधुता से लेकर राश्ट्र की एकता और अखण्डता सब कुछ संविधान की उद्देषिका में निहित है और उक्त संदर्भ गांधी दर्षन के कहीं अधिक समीप है। फिलहाल 2022 में 73वें गणतंत्र दिवस के इस पावन अवसर पर षासन से सुषासन की बयार की बाट जनता जोहती दिख रही है उसका बड़ा कारण कोविड-19 के चलते सब कुछ का उथल-पुथल में चले जाना है। आषा है कि यह गण का तंत्र गणतंत्र कई अपेक्षाओं को पूरा करेगा और नागरिकों को वो न्याय देगा जो गांधी दर्षन से ओत-प्रोत है।

दिनांक : 26/01/2022




डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिश्ठ स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

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Thursday, January 20, 2022

स्वदेशी उद्यमिता को मिले व्यापकता

महात्मा गांधी ने औपनिवेषिक काल के उन दिनों में कई सपने जो बुने और साकार करने का प्रयास किया उसमें ग्राम स्वराज और सर्वोदय के अलावा स्वदेषी भी था जिसका सीधा सरोकार बिना स्वदेषी उद्यमिता से फलित नहीं हो सकता था। भारत गांवों का देष है ऐसे में ग्राम उदय से भारत उदय की संकल्पना अतार्किक नहीं है। कृशि की दृश्टि से स्वदेषी उद्यमिता भी बहुतायत में है। भारत दुनिया की सबसे बड़ी तीसरी स्टार्टअप प्रणाली है जिसमें लगभग 12 से 15 प्रतिषत की निरंतर वार्शिक वृद्धि होती है। राश्ट्रीय स्तर पर कृशि आधारित स्टार्टअप्स 2013 से 2017 के बीच 366 थे जिन्हें भारत सरकार के उद्यम विकास हेतु योजनाओं जैसे स्टार्टअप इण्डिया, अटल इनोवेषन मिषन, न्यूजेन मिषन तथा उद्यमिता विकास केन्द्र व लघु कृशक एग्री बिजनेस संघ और एस्पाॅयर योजना आदि से सहयोग भी मिला। वर्तमान में कृशि से सम्बंधित स्टार्टअप्स की संख्या 450 से अधिक है। जाहिर है ये स्टार्टअप्स कहीं न कहीं उद्यमिता को एक नया आयाम दे रहे हैं और कृशि उत्पादों को स्वदेषी विनिर्माण के साथ बड़ा बाजार भी प्रदान कर रहे हैं। किसानों की आय बढ़ाने और युवाओं को रोजगार प्रदान करने हेतु कृशि क्षेत्र के स्टार्टअप्स को प्रोत्साहित करने वाली सरकार की हालिया नीति भी कुछ इसी प्रकार का संदर्भ लिए हुए है। राश्ट्रीय कृशि विकास योजना के तहत नवाचार और कृशि उद्यमिता विकास कार्यक्रम को अपनाया गया है जिसमें 112 कृशि स्टार्टअप्स को 1186 लाख रूपए देने की बात है। आजादी के बाद बहुत कुछ बदला है उद्यम के स्वरूप भी बदले हैं और नये-नये प्रयोग भी हुए हैं। स्वदेषी उद्यमिता एक ऐसा विचार और व्यवहार है जो आर्थिक रूप से बहुत सषक्त तो नहीं मगर देषीयकरण में बहुत उपजाऊ है। कोविड-19 के बुरे दौर में स्वदेषी उत्पाद और स्वदेषी उद्यम दोनों का फलक पर होना स्वाभाविक हो गया। गांव में डेरी उद्योग से लेकर तमाम कच्चे माल को परिश्कृत कर बाजार में उपलब्ध कराना और आत्मनिर्भर भारत की कसौटी पर खरे उतरने की परिकल्पना में कदमताल करना स्वदेषी उद्यमिता का ही परिचायक है। विष्व बैंक ने वर्शों पहले कहा था कि यदि भारत की महिलायें रोजगार और उद्यम के मामले में सक्रिय हो जायें तो देष की जीडीपी में 4.22 फीसद का बढ़ोत्तरी तय है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि स्वदेषी उद्यम रोज़गार को आसमान तो देते ही हैं आत्मनिर्भरता को भी ऊँचाई देने में कामयाब हैं। गौरतलब है कि केन्द्र सरकार ने लोकल के लिए वोकल बनाने का जो ष्लोगन महामारी के दौर में विकसित किया है वह कहीं-न-कहीं स्वदेषी उद्यमिता की अवधारणा को और प्रखर करता है। 

 सुषासन की परिधि में एक ऐसा समावेषित दृश्टिकोण है जो सभी के समेट कर चलता है जहां लोक कल्याण सर्वोपरि है और सर्वोदय ही नहीं अन्तिम व्यक्ति के उदय की कल्पना भी इसी का लक्षण है। जब स्वदेषी उद्यमिता की बात होती है तो औपनिवेषिक दौर का पूरे कालखण्ड से मस्तिश्क भर जाता है। गौरतलब है कि औपनिवेषिक सत्ता के दिनों में स्वदेषी आंदोलन भी एक व्यापक दृश्टिकोण के साथ भारत में स्थान ले रहे थे। स्वदेषी वस्तुओं का निर्माण व उपयोग का क्रम इन्हीं दिनों अंग्रेजी सत्ता विरोध का एक बड़ा कारण भी था। स्वराज आंदोलन और स्वदेषी उद्यम भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के ऐसे हथियार थे जिससे जन-जन को भागदारी के लिए उकसाना हद तक सहज था। इतिहास को उकेरा जाये तो आर्थिक स्वदेषी का विचार 19वीं सदी के उत्तरार्ध में उदित हुआ था और इसे आर सी दत्त, दादा भाई नौरोजी और एमजी रानाडे के लेखन के चलते विस्तार से समझने में सहायता मिली। ध्यानतव्य हो कि उन दिनों आर्थिक षोशण के बारे में परिचित होने का मौका यहीं से मिला था जो लगातार औपनिवेषिक सत्ता द्वारा की जा रही थी। स्वाधीनता की लड़ाई में स्वदेषी उद्यमिता एक ऐसा उपकरण था जो न केवल जरूरतों की पूर्ति हेतु बल्कि भारतीय समाज में भी बदलाव की दरकार लिए हुए था। प्रथम विष्व युद्ध के बाद बड़ी संख्या में भारतीय कारोबारियों ने व्यापार के बजाय निर्माण कार्य करना षुरू कर दिया। इस समय तक भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में महात्मा गांधी का प्रवेष हो चुका था। गांधी के उदय और अहिंसा के सिद्धांत तथा ट्रस्टीषिप के उनके विचार नामी भारतीय कारोबारियों पर गहरा प्रभाव डाला। इन्हीं में जीडी बिड़ला और जमनालाल बजाज जैसे व्यावसायी भी थे जिनका गांधी के साथ निकट का सम्बंध था। स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले तक भारत स्वदेषी उद्यमिता का एक ऐसा स्वावलंबन विकसित कर लिया था जो अपने आप में आत्मनिर्भरता का मानो परिचायक था। स्वतंत्रता के पष्चात् ग्रामीण विकास को स्वावलंबन देने के लिए 2 अक्टूबर 1952 को सामुदायिक विकास कार्यक्रम तो उससे पहले देष को विकास से ओत-प्रोत करने के लिए पंचवर्शीय योजना कदम ताल कर चुकी थी। हालांकि सामुदायिक विकास कार्यक्रम विफल हो गया था और इसी की असफलता पंचायती राज व्यवस्था का प्रस्फुटन था।

उद्यम एक ऐसा विचार है जो जोखिम और मुनाफे का मिला-जुला स्वरूप है। वर्तमान में सरकारी नौकरियां संकुचित हो रही हैं तो उद्यम को अपनाना एक आवष्यकता बनती जा रही है। हालांकि भारतीय युवाओं के मानस पटल के केन्द्र में सरकारी नौकरी होती है उद्यम नहीं। मगर तकनीकी विकास के इस दौर में अब सम्भावनायें चैतरफा खुली हुई हैं जिसमें एक स्वदेषी उद्यमिता है जो लघु, मध्यम और कुटीर किसी भी प्रारूप में विकसित की जा सकती है। भारतीय उद्यम का ढांचा अब भी बड़े पैमाने पर पारम्परिक है। जाहिर है कि इसमें बदलाव की बयार लानी जरूरी है। उद्यमिता एक ऐसा समाकलित दृश्टिकोण है जिसमें रोजगार के साथ सामाजिक-आर्थिक विकास और जीवन सम्मान का संदर्भ निहित है। आम तौर पर उद्यमिता का तात्पर्य किसी उद्यमी के उस क्रियाकलाप से देखा जाता है जो कमोबेष जोखिम उठाकर लाभ कमाने के इरादे से कोई गतिविधि करता है। इसका मूल स्वरूप फ्रांसीसी भाशा के षब्द आंत्रप्रेन्योर में निहित है। व्यवहारिक तौर पर देखा जाये तो स्वदेषी उद्यमिता सतत् और समावेषी विकास के दायरे से बाहर नहीं है। भारत में अधिकतर उद्यमों के लिए सतत् विकास एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है। गौरतलब है कि संयुक्त राश्ट्र संघ के 2030 के एजेण्डे के हिसाब से अब उद्यम की तैयारी करनी होगी। भारत गांवों का देष है और इसकी आत्मा गांव में निवास करती है महात्मा गांधी का यह कथन मौजूदा समय में उतना ही प्रासंगिक है जैसा कि पहले। ग्रामीण आबादी का एक बड़ा हिस्सा बहुत व्यापक पैमाने पर बेरोजगारी का सामना कर रहा है। कोरोना के इस कालखण्ड में तो स्थिति बेपटरी है। अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन ने स्पश्ट किया है कि 2022 में वैष्विक बेरोज़गारी 207 मिलियन होने का अनुमान है और भारत की इस मामले में सूरत और विकृत है। बुनियादी ढांचे और नौकरियां बढ़ाने पर जोर देने की बात हमेषा कही जाती है मगर हकीकत यह है कि बेरोज़गारी अपने रिकाॅर्ड स्तर को पहले ही पार कर चुकी है। ऐसे में उद्यम का सहारा लेना भले ही उसमें जोखिम है पर सीमित विकल्प को देखते हुए इसे अपनाना उचित ही है। 

 भारतीय अनुसंधान कृशि परिशद् के एक अनुमान से पता चलता है कि खाद्यान्न की मांग साल 2030 में 342 मिलियन टन हो जायेगी। इस हिसाब से प्रतिवर्श उत्पादन दर मौजूदा समय की तुलना में 5.5 मिलियन टन बढ़ाना होगा। भारतीय कृशि कौषल परिशद का निर्माण वर्श 2013 में कृशि तथा कृशि से सम्बंधित क्षेत्रों में कौषल और उद्यमिता विकास हेतु किया गया। देष में खेती-बाड़ी के साथ पषुपालन, डेरी, मुर्गीपालन समेत अनेक कृशि सम्बंधित क्षेत्र से इसका सरोकार था। गौरतलब है कि भारतीय कृशि कौषल परिशद पूरे देष भर में 956 प्रषिक्षण संस्थाएं और 685 उद्योग साथियों के साथ मिलकर लगभग दस लाख प्रषिक्षार्थियों को प्रषिक्षण दे चुका है। भारत में मेक इन इण्डिया भी स्वदेषी उद्यम का ही एक उदाहरण कहा जा सकता है। कृशि वानिकी, कृशि पर्यटन, वाणिज्यिक स्तर पर विविधीकरण से युक्त खेती-बाड़ी कहीं-न-कहीं कृशि उद्यम के क्षेत्र में बढ़त लिए हुए है। स्वदेषी उद्यमिता का इतिहास सैकड़ों वर्श पुराना है मगर समय के साथ इसे व्यापक रूप देना अभी बाकी है। देष इन दिनों आजादी के 75वें वर्श में प्रवेष कर चुका है और आजादी का अमृत महोत्सव भी जारी है। देष के लोगों, संस्कृतियों और उपलब्धियों का षानदार उत्सव मनाया जा रहा है। कोरोना का भी भारतीय टीकाकरण स्वदेषी उद्यम का ही प्रारूप है। हालांकि इस मामले में अभी पूरी तरह आत्मनिर्भर है कहना मुष्किल है। गौरतलब है कि आजादी के अमृत महोत्सव का वास्तविक उद्देष्य प्रत्येक राज्य और प्रत्येक क्षेत्र में इसके इतिहास को संरक्षित करना ताकि भावी पीढ़ियों को प्रेरणा मिल सके। स्वदेषी उद्यम को भी ऐसी ही विरासत की श्रेणी में रखना लाजमी है। स्वदेषी आंदोलन से जन्मे ऐसे दृश्टिकोण जो अंग्रेजों के विरूद्ध एक हथियार भी थे और स्वयं की आत्मनिर्भरता के परिचायक भी। इसमें कोई दो राय नहीं कि देष को सषक्त, समृद्ध और आत्मनिर्भर बनाने के लिए सुषासनिक कदम के साथ बेहतरीन स्वदेषी उद्यमिता को व्यापक स्थान देना ही होगा।

दिनांक ; 20/01/2022 


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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ई-मेल:sushilksingh589@gmail.com


आजादी के सपने और सुशासन की आकांक्षा से परिपूर्ण गणतंत्र

नेताजी सुभाश चन्द्र बोस ने कहा था, “कोई एक व्यक्ति विचार के लिए मर सकता है परन्तु उसकी मृत्यु के बाद वह विचार जिन्दगियों में अवतार ले लेगा।” उक्त कथन के आलोक मे मौजूदा भारत को देखें तो औपनिवेषिक सत्ता के उस दौर में भारतीयों में पनपी स्वतंत्रता की भावना और स्वयं की सुषासन से भरी आकांक्षा तथा एक मजबूत लोकतंत्र व गणतंत्र की चाह ने अनगिनत विचारों को जन्म दिया था। आजादी की लड़ाई और उसमें खपायी गयी तमाम जिन्दगियों और विचारों को देष संजोता चला आया है। आजादी का अमृत महोत्सव का वास्तविक उद्देष्य भी ऐसे ही दर्षन से ओत-प्रोत है। जहां प्रत्येक राज्य और हर क्षेत्र में इस इतिहास को संरक्षित करना है जिससे भावी पीढ़ियों को भी प्रेरणा और ऊर्जा मिल सके। गौरतलब है कि भारत की स्वाधीनता के 75 वर्श पूरे होने के उपलक्ष्य में इस आयोजित पहल के अन्तर्गत आजादी का अमृत महोत्सव एक षानदार उत्सव का रूप ले चुका है। गौरतलब है कि भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के उन दिनों स्वतंत्रता संघर्श के दौरान अनेकोनेक महान क्षण आये जिसमें 1857 के विद्रोह को एक ऐसी ऐतिहासिक परिघटना के रूप में निहारा जा सकता है जहां से पहली भारतीय स्वाधीनता संग्राम का प्रकटीकरण होता है। क्रमिक तौर पर देखें तो स्वदेषी, असहयोग और सत्याग्रह आंदोलन, बाल गंगाधर तिलक का पूर्ण स्वराज का आह्वान, गांधी का दाण्डी मार्च और भारत छोड़ो आंदोलन समेत नेताजी सुभाश चन्द्र बोस का आजाद हिन्द फौज एक ऐसी विरासत है जिसे आने वाली पीढ़ियों को पूरी तरह अवगत होना ही चाहिए। आजादी के इन 75 वर्शों में देष विभिन्न क्षेत्रों में कई उपलब्धियों के साथ कई कड़े संघर्शों से भी जूझा है और यह सिलसिला अभी भी बना हुआ है। कोविड-19 के चलते उथल-पुथल का दौर भी रहा, बावजूद इसके आजादी का अमृत महोत्सव जन-जन का एक ऐसा उत्सव है जो सपनों और आकांक्षाओं का सजीव उदाहरण है। 

आजादी मिलने के बाद संविधान और कानून के षासन को पटरी पर लाना और सुषासन युक्त अवधारणा को समस्त भारत में अधिरोपित करना एक महान चुनौती के साथ उपलब्धि रही है। सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है जो सामाजिक-आर्थिक न्याय, संवेदनषीलता और खुले स्वरूप समेत लोक विकास की कुंजी का रूप है। देष में कानूनी ढांचा, लोक कल्याण के लिए जितना महत्वपूर्ण होता है उतना ही लोकतंत्र और गणतंत्र के लिए भी जरूरी है। सरकारें खुली किताब की तरह रहें और देष की जनता को दिल खोल कर विकास दें ताकि आजादी के सपने और स्वराज की अवधारणा को पूरा स्थान मिल सके और स्वतंत्रता के लिए चुकाई गयी कीमत को पूरा न्याय। जाहिर है उक्त संदर्भ को संजोए हुए 7 दषक हो गये हैं। संविधान के नीति निदेषक सिद्धांतों से जहां लोक कल्याण को ऊंचाई दी गयी वहीं मूल अधिकार से यह बात पुख्ता हुई कि राजनीतिक अधिकार और सुषासन से देष परिपूर्ण है। एक बेहतरीन संविधान का निर्माण और सभी की उसमें हिस्सेदारी साथ ही समाजवादी व पंथनिरपेक्ष की अवधारणा के साथ समतामूलक दृश्टिकोण के चलते यह स्पश्ट है कि स्वतंत्रता संग्राम में निवेष की गयी क्षमता और दर्षन का पूरा उपयोग हो रहा है। 26 जनवरी 1950 को जब देष में संविधान लागू हुआ और गणतंत्र को स्थापित किया गया तब एक बार फिर 26 जनवरी 1930 की वह घटना अनायास मुखर हुई जब लाहौर में रावी नदी के तट पर पूर्ण आजादी का संकल्प लेते हुए तिरंगे को आसमान दिया गया था। इसमें कोई दुविधा नहीं कि पंचवर्शीय योजना और सामुदायिक विकास कार्यक्रम तत्पष्चात् पंचायती राज व्यवस्था से प्रारम्भ देष की विकास यात्रा में अनेकों ऐसे विचार षामिल थे जो औपनिवेशिक काल से ही बाट जोह रहे थे।

1960 के दषक में बेहद साधारण षुरूआत के बाद भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम में छलांग लगाना, भारतीय सषस्त्र सेनाओं को ताकत प्रदान करना और स्वदेषी उद्यमिता को परवान चढ़ाना, यह जताता है कि आजादी का महोत्सव अनायास उठाया गया कदम नहीं है। गांधी जी की सर्वोदय की अवधारणा भले ही 1922 का एक संकल्प रहा हो मगर आजाद भारत में इसका पूरा ताना-बाना आज भी देखा जा सकता है। कृशि और खाद्य क्षेत्र में चुनौतियां आजादी के साथ ही मिली थी मगर देष के अन्नदाताओं ने अपनी क्षमताओं से भारत को इस मामले में आत्मनिर्भर बना दिया। इतना ही नहीं कृशि और खाद्य क्षेत्र में विषाल जनसंख्या के लिए भारत ने खाद्य सुरक्षा प्राप्त कर ली है और वैष्विक कृशि षक्ति केन्द्र का खिताब भी हासिल किया है हालांकि अन्नदाता अभी भी बुनियादी विकास से जूझ रहे हैं। भारत को 1947 में जब आजादी मिली तो सामाजिक-आर्थिक ही नहीं राजनीतिक स्थितियां भी अस्थिर थी, खजाना खाली था और विदेषी मुद्रा नाममात्र की थी। इतना ही नहीं पष्चिमी देषों की ताकतों के आगे संतुलन बनाने की चुनौती भी बरकरार रही है और अपने आस-पास के देषों के साथ बेहतर सम्बंध के प्रति सक्रिय रहना जरूरी था। खास यह है कि आज भारत विदेषी मुद्रा भण्डार के मामले में दुनिया का चैथा देष है और कई क्षेत्रों में अग्रिम पंक्ति में है। वैष्विक पटल पर यूरोपीय और अमेरिकी देषों समेत भारत दुनिया में एक नई पहचान रखता है। दो टूक यह कि आजादी के सपने को पंख लगे हैं मगर उड़ान कहीं कम तो कहीं ज्यादा है। भारत युवाओं का देष है रोज़गार यहां चुनौती में हैं। वैसे तो षिक्षा, चिकित्सा, सुरक्षा, बिजली, पानी व सड़क जैसे तमाम बुनियादी विकास कमोबेष चुनौती में बने ही रहते हैं जिसके चलते समावेषी और सतत् विकास भी बेपटरी हो जाते हैं साथ ही सुषासन की आकांक्षा अधूरी रह जाती है। दो टूक यह भी है कि संभालने और संजोने का सिलसिला आजादी से अब तक जारी है। औपनिवेषिक काल के उन अनेक घटना और विचार को एक धरोहर के रूप में संभाले रखना और आने वाली पीढ़ियों से अवगत कराना साथ ही उन्नति के मार्ग पर देष को प्रषस्त करते रहना ही आजादी का अमृत महोत्सव है जो गणतंत्र की मजबूती का भी एक आयाम है।

दिनांक ; 20/01/2022 


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

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Monday, January 17, 2022

नैतिकता का पारिस्थितिकी तंत्र

उन्होंने सिद्ध कर दिया कि केवल प्रचलित राजनीतिक चालबाजियों और धोखाधड़ियों के मक्कारी भरे खेल के द्वारा ही नहीं बल्कि जीवन नैतिकतापूर्ण श्रेश्ठ आचरण के प्रबल उदाहरण द्वारा भी मनुश्यों का एक बलषाली और अनुगामी दल एकत्र किया जा सकता है। उक्त बातें बीसवीं सदी के महान वैज्ञानिक एल्बर्ट आइंस्टीन ने गांधी के बारे में कही थी जिसका पूरा ताना-बाना नैतिकता और उसके पारिस्थितकी तंत्र के इर्द-गिर्द घूमता दिखाई देता है। जैसे राश्ट्र या राज्य के स्तर पर जैव भौगोलिक क्षेत्र होते हैं वैसे विधायी और कार्यकारी स्तर पर नैतिकता और निश्पक्षता के पारिस्थितिकी तंत्र की सघन आवष्यकता बनी रहती है। जटिल मगर सरल दृश्टिकोण यह भी है कि संस्कृति, मूल्य और हितों का टकराव इसी के अन्तर्गत निहित भाव है। सिविल सेवकों के लिए आचार संहिता, भ्रश्टाचार निवारण अधिनियम और अनेक प्रषासनिक कानूनों से नैतिकता को सबल बनाने का प्रयास किया गया है पर इसे और किस कसौटी पर ले जाना है इसकी दूरदर्षिता भी आवष्यक है। मैक्स वेबर ने अपनी पुस्तक सामाजिक-आर्थिक प्रषासन में इस बात को उद्घाटित किया था कि नौकरषाही प्रभुत्व स्थापित करने से जुड़ी एक व्यवस्था है जबकि अन्य विचारकों की यह राय रही है कि यह सेवा की भावना से युक्त एक संगठन है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस्पाती ढांचे वाली नौकरषाही बीते तीन दषकों से प्लास्टिक फ्रेम वाली सिविल सेवक बन गयी है और ऐसा 1991 के उदारीकरण से देखा जा सकता है। मगर दो टूक यह भी है कि क्या राजनीतिक कार्यपालिका नैतिकता के इस पड़ाव पर आचार नीति के मामले में सफल कही जायेगी। लोकतंत्र का लेखा-जोखा संख्या बल पर है न कि सत्यनिश्ठा और नैतिकता पर जैसा कि इन दिनों की राजनीतिक स्थितियों में यह झलकता है। जाहिर है आचरण नीति केवल सिविल सेवकों के लिए नहीं बल्कि उन तमाम कार्यकारी के लिए व्यापक रूप में होना चाहिए जो राश्ट्र और राज्य में ताकतवर हैं और वैधानिक सत्ता से पोशित हैं साथ ही देष बदलने की इच्छाषक्ति तो रखते हैं लेकिन लोभ और लालच से मुक्त नहीं हैं। इतना ही नहीं भरोसा तब डगमगाता है जब जनसेवा के प्रति समर्पण में कमी और भ्रश्टाचार में लिप्त मिलते हैं। न्यू इण्डिया में कम से कम तो यह बात आ जानी चाहिए कि नई लोकसेवा के साथ संसद और विधानमण्डल का पारिस्थितिकी तंत्र नई नैतिक आचरण से युक्त हो। हालांकि इस मामले में सकारात्मक विचार रखने में कोई बुराई नहीं है मगर इस पर अंधा विष्वास करने से बुरी बात कोई नहीं है।

स्पेन की सुषासनिक संहिता पर दृश्टि डाले तो यह दुनिया में कहीं अधिक प्रखर रूप में दिखती है जहां निश्पक्षता, तटस्थता व आत्मसंयम से लेकर जन सेवा के प्रति समर्पण समेत 15 अच्छे आचरण के सिद्धांत निहित हैं। आचार नीति मानव चरित्र और आचरण से सम्बंधित है। यह सभी प्रकार के झूठ की निंदा करती है। चुनाव के दिनों में तो आदर्ष चुनाव आचार संहिता भी पारदर्षिता और निश्पक्षता को लेकर राजनीतिक दलों और प्रत्याषियों पर लागू हो जाती है। मौजूदा समय में 5 राज्यों उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड, पंजाब और गोवा समेत मणिपुर में चुनावी बिगुल बज चुका है और नैतिकता के पारिस्थितिकी तंत्र से नेता भी जूझ रहे हैं पर इसे बनाये रखने में कितने सहयोगी हैं और निर्वाचन आयोग कितना सफल है यह समय-समय पर प्रतिबिंबित होता रहता है। द्वितीय प्रषासनिक सुधार आयोग ने आचार नीति पर अपनी दूसरी रिपोर्ट में षासन में नैतिकता से सम्बंधित कई सिद्धांतों को उकेरा था। पूर्व राश्ट्रपति व मिसाइल मैन डाॅ0 एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा था कि भ्रश्टाचार जैसी बुराईयां कहां से उत्पन्न होती हैं? यह कभी न खत्म होने वाले लालच से आता है। भ्रश्टाचार मुक्त नैतिक समाज के लिए इस लालच के खिलाफ लड़ाई लड़नी होगी और मैं क्या दे सकता हूं की भावना से इस स्थिति को बदलना होगा। इस बात को बिना दुविधा के समझ लेना ठीक होगा कि देष तभी ऊंचाई को प्राप्त करता है जब षासन में आचार नीति सतही नहीं होता है बल्कि पूरी व्यवस्था इससे सराबोर रहती है साथ ही जब यह कागजी नहीं होती बल्कि स्नायुतंतुओं में घर कर चुकी होती है। जिम्मेदारी और जवाबदेही आचार नीति के अभिन्न अंग हैं और यह सुषासन की पराकाश्ठा भी है। आचार नीति एक ऐसा मानक है जो बहुआयामी है और यही कारण है कि यह दायित्वों के बोझ को आसानी से सह लेती है। यदि दायित्व बड़े हों और आचरण के प्रति गम्भीर न हों तो जोखिम बड़ा होता है।

भारत सरकार ने एक आचार संहिता निर्धारित की है जो केन्द्र और राज्य सरकार दोनों के मंत्रियों पर लागू होती है। इनमें कई अन्य बातों के साथ मंत्रियों द्वारा उसकी सम्पत्ति और देनदारियों का खुलासा करने साथ ही सरकार में षामिल होने से पहले जिस किसी भी व्यवसाय में थे उससे स्वयं को अलग करने के अलावा स्वयं या परिवार के किसी सदस्य आदि के मामले में कोई योगदान या उपहार स्वीकार नहीं करने की बात कही गयी है। गौरतलब है कि नैतिकता के पैमाने पर सुषासन को जब कसा जाता है तो बात काफी अधूरी दिखती है। इसकी बड़ी वजह आचरण नीति के अनुपालन में कमी है। राजनीतिक प्रक्रिया का अपराधीकरण तथा राजनेताओं, लोक सेवकों और व्यावसायिक घरानों के बीच अपवित्र गठजोड़, लोकनीति के निर्धारण और षासन पर घातक असर डालता है। भारत के लोकतांत्रिक षासन को ज्यादा गम्भीर खतरा अपराधियों और बाहुबलियों से है जो राज्य की विधानसभाओं और देष की लोकसभा में अच्छी-खासी जनसंख्या में घुसने लगे हैं। अब तो ऐसा लगता है कि एक ऐसी राजनीतिक संस्कृति अपनी जड़े जमा रही है जिसमें संसद या विधानसभा की सदस्यता को निजी फायदे और आर्थिक लाभ हासिल करने के अवसर के रूप में देखा जा रहा है। इस आधार को व्यापक समझ से देखें तो सुषासन और आचरण नीति दोनों घाटे में दिखते हैं। बावजूद इसके आचार नीति और उसके पारिस्थितिकी तंत्र को प्राप्त करने का भरोसा नहीं छोड़ा जा सकता। लाख टके का सवाल यह भी है कि देष में वैधानिक सत्ता से काम चलता है। विविध भाशा-भाशी और संस्कृति से युक्त भारत भावना और संस्कृति से भरा है मगर विष्वसनीयता और दक्षता के साथ ईमानदारी पर संषय भी उतना ही बरकरार रहता है कि जिन्हें जिम्मेदारी मिली है क्या वे पूरा न्याय भी करते हैं। नेता कौन होता है, उसके गुण और जिम्मेदारियां क्या होती हैं, एक समुदाय, समाज या राश्ट्र में समृद्धि, आर्थिक उन्नति स्थायित्व, षान्ति और सद्भाव आदि कैसे विकसित हों यह नेतृत्व को समझना होता है। देखा जाये तो नेतृत्व मुख्य रूप से बदलाव का प्रतिनिधित्व होता है और उन्नति उसका उद्देष्य। मात्र लोगों की आकांक्षाओं को ऊपर उठाना, सत्ता हथियाना और नैतिकविहीन होकर स्वयं का षानदार भविश्य तलाषना न तो नेतृत्व की श्रेणी है और न तो यह आचार नीति का हिस्सा है। यहां पूर्व राश्ट्रपति एपीजी अब्दुल कलाम का एक कथन फिर ध्यान आ रहा है कि सुयोग्य नेता नैतिक प्रतिनिधित्व प्रदान करता है। जाहिर है यदि नेता सुयोग्य है तो आचार नीति का समावेषन स्वाभाविक है।

लोक प्रषासन में नैतिकता के पारितंत्र को परिभाशित करने के लिए विभिन्न कानूनों, नियमों और विनियमों के माध्यम से इसे व्यापक रूप दिया गया है। 1930 के दषक में ब्रिटिष सिविल सेवकों के लिए क्या करें और क्या न करें निर्देषों का एक संग्रह जारी किया गया था। स्वतंत्रता के बाद भी आचार नीति का निर्माण इसी पारितंत्र का हिस्सा था। संविधान में काम-काज की समीक्षा के लिए राश्ट्रीय आयोग द्वारा साल 2001 में प्रषासन में ईमानदारी को लेकर जारी परामर्षपत्र में कई विधायी और संस्थागत मुद्दों पर प्रकाष भी डाला गया था जिसमें बेनामी लेन-देन, अवैध रूप से सिविल सेवकों द्वारा अर्जित सम्पत्तियां आदि षामिल थे। गौरतलब है कि सुषासन विष्वास और भरोसे पर टिका होता है। षासन में ईमानदारी से सार्वजनिक जीवन में जवाबदेही, पारदर्षिता और सत्यनिश्ठा का सुनिष्चित होना सुषासन की गारंटी है। सुषासन के चलते ही आचार नीति को भी एक आवरण मिलता है। दूसरे षब्दों में अच्छे आचरण से षासन, सुषासन की राह पकड़ता है। संयुक्त राश्ट्र महासभा ने 2003 में भ्रश्टाचार के खिलाफ संकल्प को मंजूरी दी है। ब्रिटेन में सार्वजनिक जीवन में मानकों पर समिति बनायी गयी जिसे नोलान समिति के रूप में जाना जाता है। जिसमें सात मुख्य बाते निस्वार्थता, सत्यनश्ठिा, निश्पक्षता, जवाबदेही, खुलापन, ईमानदारी और नेतृत्व षामिल थी। देष में संस्थागत और कानूनी ढांचा कमजोर नहीं है दिक्कत इसके अनुपालन करने वाले आचरण में है। केन्द्रीय सतर्कता आयोग, सीबीआई, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, लोकपाल और लोकायुक्त जहां सुषासन स्थापित करने के संस्थान हैं तो वहीं भारतीय दण्ड संहिता, भ्रश्टाचार निवारण अधिनियम और सूचना के अधिकार समेत कई कानून देखे जा सकते हैं। गौरतलब है सुषासन की पराकाश्ठा की प्राप्ति हेतु एक ऐसे आचार नीति का संग्रह हो जो संस्कृति, पर्यावरण तथा स्त्री पुरूश समानता को बढ़ावा देने के अलावा आत्मसंयम और सत्यनिश्ठा के साथ निश्पक्षता को बल देता हो। हालांकि ऐसी व्यवस्थाएं पहले से व्याप्त हैं मगर अनुपालन के लिए एक नई संहिता की आवष्यकता है। दूसरे षब्दों में कहें तो न्यू इण्डिया को नई सुषासन संहिता चाहिए जिससे नैतिकता के समूचित पारिस्थितिकी तंत्र को विकसित किया जा सके। यह सच है कि जनता और मीडिया मूकदर्षक नहीं है साथ ही न्यायिक सक्रियता भी बढ़ी है। बावजूद इसके वह सवाल जो हम सबके सामने मुंह बाये खड़ा है कि लोकतंत्र के प्रवेष द्वार पर अपराध कैसे रूके और वैधानिक सत्ताधारक आचार नीति में पूरी तरह कैसे बंधे। 

दिनांक : 17/01/2022 


सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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सुरक्षा में सेंध और सियासत

प्रधानमंत्री मोदी की 5 जनवरी को पंजाब यात्रा के दौरान हुई सुरक्षा चूक के मामले की जांच फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीष की अध्यक्षता वाली कमेटी करेगी। जाहिर है इस कदम से बीते कई दिनों से इस पर हो रही सियासत न केवल धीमी पड़ेगी बल्कि सुरक्षा में हुई सेंध को लेकर मामला भी दूध का दूध, पानी का पानी हो जायेगा। गौरतलब है कि षीर्श अदालत के प्रधान न्यायाधीष व दो अन्य न्यायाधीषों की पीठ ने बीते 10 जनवरी को सभी पक्षों की दलील सुनने के बाद कहा था कि मामला गम्भीर है। इसी को देखते हुए जांच कमेटी बनाने की बात कही गयी। सुरक्षा चूक के मामले की जांच के लिए उच्चत्तम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीष इंदू मल्होत्रा की अध्यक्षता में यह समिति गठित की गयी। समिति के अन्य सदस्यों में राश्ट्रीय अन्वेशण अभिकरण-एनआईए के महानिदेषक, पंजाब के सुरक्षा महानिदेषक, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के महापंजीयक षामिल हैं। मामले की पड़ताल बताती है कि प्रधानमंत्री मोदी पंजाब के फिरोज़पुर में एक रैली सम्बोधित करने जा रहे थे मगर कुछ प्रदर्षनकारियों ने सड़क जाम कर रखी थी। प्रधानमंत्री का काफिला हुसैनीवाला से 30 किमी से पहले ही एक फ्लाईओवर पर 15 से 20 मिनट फंसा रहा। यह प्रकरण सुरक्षा की दृश्टि से बड़ी चूक के तौर पर देखा जा रहा है। राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप भी इस मामले में कहीं अधिक मुखर रहे। केन्द्र सरकार ने जहां पंजाब राज्य की चरण सिंह चन्नी सरकार पर पीएम रूट की जानकारी लीक करने का आरोप लगाया तो वहीं पंजाब के मुख्यमंत्री का कहना था कि मोदी का सड़क मार्ग से जाने का कार्यक्रम एकाएक बना था। कहा तो यह भी गया कि पहले उन्हें हेलीकाॅप्टर के जरिये फिरोज़पुर की रैली स्थल पर जाना था। हालांकि इस मामले में केन्द्र और राज्य सरकार के अपने-अपने तर्क हैं। बावजूद इसके लाख टके का सवाल यह है कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा में यदि सेंध हुई है तो यह गम्भीर मामला है। 

वैसे तो प्रधानमंत्री के दौरे से पहले बहुत व्यापक स्तर पर तैयारी की जाती है और कहा यह भी जाता है कि चुनावी रैली में यही तैयारी कुछ अलग किस्म की होती है। पीएम के किसी भी दौरे से पहले एसपीजी रेकी करती है। एसपीजी के दस्ते की तैनाती की जाती है। साथ ही इंटेलीजेंस ब्यूरो राज्य की सुरक्षा एजेंसी के साथ लगातार सम्पर्क में रहती है। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री के मूवमेंट की पूरी ड्रिल की जाती है और इसी के मद्देनजर सुरक्षा के इंतजाम किये जाते हैं। इतना ही नहीं हर चीज का विकल्प रखा जाता है। ठहरने का विकल्प, रूट का विकल्प और आपात स्थिति के लिए सुरक्षित ठिकाने भी तैयार रखे जाते हैं। पंजाब में जो घटा वह सुरक्षा चूक है या फिर लापरवाही इस पर अपने-अपने तर्क हैं। जहां तक रूट अचानक बदलने का है तो जाहिर है स्थिति को देखते हुए ऐसा होना स्वाभाविक है और रूट तो अचानक ही बदले जायेंगे। हां यह बात भी सही है कि प्रदर्षनकारी एकाएक नहीं आये होंगे ऐसे में सुरक्षा एजेंसियों को पूरी जानकारी होनी चाहिए थी। तर्क यह भी है कि प्रदर्षनकारी प्रधानमंत्री के काफिले से कहीं अधिक दूरी पर थे। बावजूद इसके वास्तविक स्थिति क्या है यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा। प्रधानमंत्री की सुरक्षा में एसपीजी की भूमिका कहीं अधिक महत्वपूर्ण होती है। प्रधानमंत्री की सुरक्षा में जुटे दस्ते के विषेश समूह को एसपीजी की संज्ञा दी जाती है जिसे एसपीजी एक्ट में सषस्त्र बल के रूप में वर्णित किया गया है। यह एक्ट 1988 में अस्तित्व में आया और एक्ट में यह भी स्पश्ट है कि राज्य की सरकारें आवष्यकता पड़ने पर एसपीजी की सहायता करेंगी। इसके अलावा इसमें यह भी है कि केन्द्र सरकार या राज्य सरकार या फिर केन्द्र षासित प्रदेष के प्रत्येक मंत्रालय, विभाग, स्थानीय या अन्य अथोरिटी या फिर नागरिक का कत्र्तव्य होगा कि वह एसपीजी की सहायता करें।

स्पश्ट है कि एसपीजी प्रधानमंत्री की सुरक्षा की दृश्टि से एक ऐसा दस्ता है जहां सुरक्षा में चूक या लापरवाही को कोई अवसर नहीं मिल सकता। सड़क, रेल, वायुयान या जलयान या पैदल या परिवहन के किसी अन्य साधन से यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री या पूर्व प्रधानमंत्रियों के सामने से सुरक्षा दी जाती है जो एक से अधिक स्तर में की जाती हैं। इनमें राउंड टीमें और आइसोलेषन कार्डन जैसी टीमें षामिल होती हैं। पंजाब में जब खराब मौसम के चलते प्रधानमंत्री का हेलीकाॅप्टर नहीं उड़ सका तो रूट में बदलाव किया गया और सड़क मार्ग से गंतव्य तक पहुंचने का प्रयास जारी हुआ। एसपीजी एक्ट के अनुसार प्रधानमंत्री के साथ रिंग राउंड टीम, आइसोलेषन कार्डन और एक्सल कंट्रोल टीमें मौजूद रहीं। दो टूक यह है कि ऐसा रक्षा कवच है जिसे भेदना नामुमकिन है और एसपीजी के पास उपलब्ध हथियार एक मिनट के भीतर नौ सौ राउंड का फायर कर सकते हैं जो किसी भी दुस्साहस  को सेकंडों में नेस्तोनाबूत कर सकते हैं।

पड़ताल से यह भी पता चलता है कि प्रधानमंत्री मोदी की सुरक्षा में चूक पहले भी हुई है और कई बार तो सुरक्षा प्रोटोकाॅल को उन्होंने स्वयं तोड़ा है। मई 2018 में पष्चिम बंगाल के विष्व भारती विष्वविद्यालय में जब एसपीजी का घेरा तोड़ते हुए एक युवक मोदी का पैर छू लिया था। तब स्थिति असहज हो गयी थी जो एक प्रकार से सुरक्षा में चूक ही थी। दिसम्बर 2017 में पीएम का काफिला नोएडा के महामाया फ्लाईओवर पर दो मिनट तक ट्रैफिक जाम में फंस गया था। यहां भी सुरक्षा में लापरवाही बरती गयी थी। मोदी से पहले सुरक्षा चूक की घटनाएं कई प्रधानमंत्री और कुछ महत्वपूर्ण पदों पर कार्यरत लोगों के साथ भी हो चुका है। सुरक्षा चूक का ही कारण है कि प्रधानमंत्री रहते हुए इन्दिरा गांधी की 1984 में हत्या हुई और जबकि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के मामले में सुरक्षा एजेंसियां यह भापने में असफल रहीं कि उनकी हत्या की योजना बनायी जा रही है। साल 2007 में रूस के दौरे के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का विमान दुर्घटनाग्रस्त होने से बाल-बाल बचा था। हालांकि यहां पायलेटों की गलती थी। दरअसल विमान के पायलेटों ने लैण्डिंग के लिए जरूरी लैण्डिंग गियर को नीचे नहीं किया था बाद में इस तकनीकी गड़बड़ी को ठीक कर लिया गया था जो एक प्रकार से भारी चूक ही कही जायेगी। नवम्बर 2021 में राश्ट्रपति रामनाथ कोविंद की सुरक्षा चूक का मामला भी सामने आया था तब वह उत्तर प्रदेष के कानपुर दौरे पर थे और इससे जुड़ी पूरे दिन के काम की जानकारी सोषल मीडिया पर लीक हो गयी थी। उक्त घटना यह दर्षाता है कि सुरक्षा में चूक का मामला पहले भी कई बार हो चुका है जिसमें प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए इन्दिरा गांधी की 1984 में हत्या भी हो चुकी है जबकि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी मई 1991 में चुनाव प्रचार के दौरान ही मानव बम से उड़ा दिये गये थे। सुरक्षा में चूक कोई सामान्य घटना नहीं है यह न केवल हमारी सुरक्षा एजेंसियों पर सवाल खड़ा करती है बल्कि दुनिया में बढ़ती भारत की ताकत को भी कमतर दर्षाती है। सुरक्षा से सम्बंधित मामले को सियासी तौर पर यदि दो सरकारों ने टकराव का रूख लेती है तो यह सही नहीं कहा जायेगा। सही तो यह है कि इस मामले को स्पश्टता मिले कि आखिर असलियत क्या है?

दिनांक : 13/01/2022 


 सुशील कुमार सिंह

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आदर्श चुनाव आचार संहिता की चुनौतियां

जिम्मेदारी और जवाबदेही आचारनीति के अभिन्न अंग हैं जिसकी कई स्तरों पर आवष्यकता पड़ती रहती है। इसी में से एक है आदर्ष चुनाव आचार संहिता जिसमें इस बात की गुंजाइष बरकरार रहती है कि इसके होते हुए चुनाव पारदर्षी और निश्पक्ष रूप से हो सकते हैं। बीते सात दषकों से देष में चुनाव की परम्परा देखी जा सकती है जो लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण महोत्सव है। समय के उतार-चढ़ाव और बदलते राजनीतिक रंग-ढंग को देखते हुए 1960 में ऐसे नियम की आवष्यकता महसूस की गयी जो निश्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव के लिए उत्तरदायी हो तब आदर्ष चुनाव आचार संहिता राजनीतिक दलों की सहमति से अस्तित्व में आयी। षुरूआती दौर में इसमें यह तय था कि क्या करें और क्या न करें मगर समय के साथ इसका दायरा भी बढ़ता गया। गौरतलब है कि चुनाव अधिसूचना जारी होते ही आचार संहिता प्रभावी हो जाती है जिसमें इस बात की गारंटी सम्भव रहती है कि चुनाव पारदर्षी और बिना किसी भेदभाव के पूरा होगा। चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित नियमों का बाकायदा अनुपालन होगा और राजनीतिक दल एक साफ-सुथरा आचरण का परिचय देंगे। हालिया परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह दर्षाता है कि चुनाव आचार संहिता को लेकर राजनीतिक दलों ने इसके प्रति एक सामान्य धारणा ही बना रखी है। हर हाल में चुनावी जीत की चाह में आचरण का यह सिद्धांत कैसे छिन्न-भिन्न किया जाता है यह किसी से छुपा नहीं है और षायद ही इसकी चिंता कोई राजनीतिक दल गम्भीरता से करता भी हो। बीते 8 जनवरी को उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड, पंजाब समेत गोवा और मणिपुर विधानसभा चुनाव का बिगुल बजा दिया गया। जाहिर है आदर्ष चुनाव आचार संहिता भी यहीं से साथ हो चला और यहीं से इसके उल्लंघन की यात्रा भी षुरू हो गयी जिसकी बानगी उत्तराखण्ड में देखने को मिलती है। यहां सरकार पर यह आरोप लगाया गया कि उसने आचार संहिता का जमकर उल्लंघन किया है। विरोधियों का आरोप है कि चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद सैकड़ों आदेष सरकार द्वारा जारी किये गये जो इसका उल्लंघन है। हालांकि इसका न्यायोचित दृश्टिकोण क्या होगा इसे तय करने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की है।

राजनीतिक दलों का नैतिक दायित्व आचार संहिता का पालन करना और लोकतंत्र के भीतर एक साफ-सुथरी छवि बनाये रखने के साथ निश्पक्ष चुनाव में अपना योगदान देना है। मगर सैद्धांतिक रूप से यह जितना आदर्ष से युक्त है व्यवहार में इसका अनुपालन कम ही होता दिखाई देता है। जातिवाद, क्षेत्रवाद, बाहुबल और धनबल के रसूक से भरे चुनावी अभियान में राजनीतिक दल छवि को लेकर कितने चिंतित रहते हैं इसकी बानगी आये दिन देखने को मिलती रहती है। चुनाव आचार संहिता चुनावी मौसम में कई चुनौतियों से जूझता है इसकी षिकवा-षिकायत भी चुनाव आयोग के पास बड़े पैमाने पर पहुंचती रहती है जिसे लेकर आयोग प्रभावी कदम उठाता रहा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 के बीच निर्वाचन आयोग की चर्चा है। गौरतलब है कि प्रति 5 वर्श पर लोकसभा और विधानसभा का चुनाव कराना आयोग की जिम्मेदारी है साथ ही इसमें निश्पक्षता बरकरार रहे इसे तय करना भी उसकी कसौटी में है। मगर यह तभी पूरी हो सकती है जब राजनीतिक दल और चुनाव लड़ रहे प्रत्याषी इसकी गरिमा को समझेंगे। इसमें कोई दुविधा नहीं है कि चुनाव आयोग अपनी भूमिका में इसलिए कभी-कभी कमतर पड़ता है क्योंकि जिन दलों और प्रत्याषियों को आचार संहिता का पालन करना है वही इसे धुंआ-धुंआ करते रहते हैं। गौरतलब है कि 1951-52 में जब देष में पहला चुनाव हुआ था तब देष की जनसंख्या 36 करोड़ थी। खास यह भी है कि दो लोकसभा चुनाव तक आचार संहिता का निर्माण तक नहीं हुआ था। स्पश्ट है कि उन दिनों चुनाव को निश्पक्ष और पारदर्षी कराना बड़ी चुनौती थी मगर राजनीतिक दल असहयोगी कतई नहीं रहे होंगे। 1962 के लोकसभा के चुनाव में आचार संहिता का पहली बार पालन किया गया जबकि 1960 में केरल विधानसभा चुनाव में इसे पहली बार अपनाया गया था। समय के साथ राजनीतिक दलों का विकास और विस्तार हुआ सरकार बनाने की महत्वाकांक्षा के चलते इनके मूल्यों में गिरावट भी जगह लेने लगी नतीजन आचार संहिता को मजबूती से लागू करना देखा जा सकता है। 

बानगी के तौर पर आचार संहिता के कुछ प्रमुख बिन्दुओं को उकेरा जा सकता है। चुनाव अधिसूचना जारी होने के बाद सत्तारूढ़ दल कोई ऐसी घोशणा न करे जिससे मतदाता प्रभावित होते हों मसलन अनुदान की घोशणा, परियोजनाओं का प्रारम्भ और कोई नीतिगत घोशणा। प्रत्याषी अपने प्रतिद्वन्द्वी की आलोचना व्यक्तिगत अथवा चारित्रिक आधार पर न करे, धार्मिक तथा जातीय उन्माद बढ़ाने वाले वक्तव्य न दे, मतदाताओं को किसी प्रकार का प्रलोभन (षराब, पैसा) देने से मनाही। इसके अलावा भी दर्जनों आयाम इससे जुड़े देखे जा सकते हैं। मौजूदा स्थिति कोरोना काल की है और 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव सम्पन्न होने हैं। यहां चुनाव आयोग ने स्पश्ट रेखा खींचते हुए दलों को बता दिया है कि उन्हें क्या करना है और क्या नहीं करना है। आचार संहिता के उल्लंघन की स्थिति में इसके प्रचार पर रोक लगाई जा सकती है। प्रत्याषी के खिलाफ आपराधिक मुकदमा भी दर्ज किया जा सकता है। इतना ही नहीं जेल जाने का प्रावधान भी है। गौरतलब है कि दौर सोषल मीडिया का है जाहिर है चुनाव प्रचार के लिए यह एक सब तक पहुंच वाला प्लेटफाॅर्म है। इस बार का चुनाव कोरोना के चलते कई पाबंदियों में है जिसमें चुनावी रैली और भीड़ जुटाने जैसी स्थिति पर चुनाव आयोग ने रोक लगाई है। हालांकि इसकी सीमा निर्धारित है इसमें कितनी ढील दी जायेगी यह चुनाव आयोग ही तय करेगा। एक अच्छी बात राजनीतिक दलों और प्रत्याषितों के लिए है कि उन्हें सोषल मीडिया प्रचार में छूट दी गयी है लेकिन षर्त यह है कि दल एवं प्रत्याषियों को प्रचार से पहले आयोग के प्रमाणन समिति से सत्यापन कराना होगा। सोषल मीडिया के सभी प्लेटफाॅर्म ने भी कहा है कि वह इन नियमों का पालन करेगा। मौजूदा समय में जनसंख्या के लिहाज़ से भी देष बड़ा है और चुनाव लड़ने वाले तमाम प्रत्याषी भी आचरण और मूल्य के मामले में कहीं अधिक पीछे जा चुके हैं। ऐसे में आचार संहिता का आदर्ष बने रहना चुनौती तो है।

दिनांक : 13/01/2022 


 सुशील कुमार सिंह

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सुशासन के लिए अहम् नागरिक अधिकार पत्र

साल 2020 और 2021 जीवन के लिए एक चुनौती रहा ऐसे में नागरिक अधिकार पत्र की उपयोगिता और षिद्दत से महसूस की गयी। कोरोना के काल चक्र में सुषासन का दम भरने वाली सरकारों को ठीक से षासन करने लायक भी नहीं छोड़ा। ऐसे में नागरिक अधिकार पत्र भले ही महत्वपूर्ण हो पर और दरकिनार होना लाज़मी है। फिलहाल सुषासन प्रत्येक राश्ट्र के विकास के लिए एक महत्वपूर्ण तत्व है। सुषासन के लिए यह जरूरी है कि प्रषासन में पारदर्षिता तथा जवाबदेही दोनों तत्व अनिवार्य रूप से विद्यमान हों। सिटिजन चार्टर (नागरिक अधिकार पत्र) एक ऐसा हथियार है जो कि प्रषासन की जवाबदेहिता और पारदर्षिता को सुनिष्चित करता है। जिसके चलते प्रषासन का व्यवहार आम जनता (उपभोक्ताओं) के प्रति कहीं अधिक संवेदनषील रहता है। दूसरे अर्थों में प्रषासनिक तंत्र को अधिक जवाबदेह और जनकेन्द्रित बनाने की दिषा में किये गये प्रयासों में सिटिजन चार्टर एक महत्वपूर्ण नवाचार है। दो टूक कहें तो इस अधिकार के मामले में कथनी और करनी में काफी हद तक अंतर रहा है। देष भर में विभिन्न सेवाओं के लिए सिटिजन चार्टर लागू करने के मामले में अगस्त 2018 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका पर सुनवाई करने से ही इंकार कर दिया। षीर्श अदालत का तर्क था कि संसद को इसे लागू करने के निर्देष दे सकते हैं। इस मामले को लेकर न्यायालय ने याचिकाकत्र्ता के लिए बोला कि वे सरकार के पास जायें जबकि सरकारों का हाल यह है कि इस मामले में सफल नहीं हो पा रहीं हैं। यूपी में सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री येागी ने कहा कि सिटिजन चार्टर को कड़ाई से लागू करेंगे पर स्थिति संतोशजनक नहीं है। 

भारत में कई वर्शों से आर्थिक विकास के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई। इसके साथ ही साक्षरता दर में पर्याप्त वृद्धि हुई और लोगों में अधिकारों के प्रति जागरूकता आयी। नागरिक और अधिकार और अधिक मुखर हो गये तथा प्रषासन को जवाबदेह बनाने में अपनी भूमिका भी सुनिष्चित की। अन्तर्राश्ट्रीय परिदृष्य में देखें तो विष्व का नागरिक पत्र के सम्बंध में पहला अभिनव प्रयोग 1991 में ब्रिटेन में किया गया जिसमें गुणवत्ता, विकल्प, मापदण्ड, मूल्य, जवाबदेही और पारदर्षिता मुख्य सिद्धांत निहित हैं। चूंकि सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है ऐसे में षासन और प्रषासन की यह जिम्मेदारी बनती है कि जनता की मजबूती के लिए हर सम्भव प्रयास करें साथ ही व्यवस्था को पारदर्षी और जवाबदेह के साथ मूल्यपरक बनाये रखें। इसी तर्ज पर आॅस्ट्रेलिया में सेवा चार्टर 1997 में, बेल्जियम में 1992, कनाडा 1995 जबकि भारत में यह 1997 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में इसे मूर्त रूप देने का प्रयास किया गया। पुर्तगाल, स्पेन समेत दुनिया के तमाम देष नागरिक अधिकार पत्र को अपनाकर सुषासन की राह को समतल करने का प्रयास किया है। प्रधानमंत्री मोदी सुषासन के मामले में कहीं अधिक गम्भीर दिखाई देते हैं परन्तु सर्विस फस्र्ट के आभाव में यह व्यवस्था कुछ हद तक आषातीत नहीं रही। भारत सरकार द्वारा इसे लेकर एक व्यापक वेबसाइट भी तैयार की गयी जिसका प्रषासनिक सुधार और लोक षिकायत विभाग द्वारा 31 मार्च 2002 को लांच की गयी। वैसे सुषासन को निर्धारित करने वाले तत्वों में राजनीतिक उत्तरदायित्व सबसे बड़ा है। यही राजनीतिक उत्तरदायित्व सिटिजन चार्टर को भी नियम संगत लागू कराने के प्रति जिम्मेदार है। सुषासन के निर्धारक तत्व मसलन नौकरषाही की जवाबदेहिता, मानव अधिकारों का संरक्षण, सरकार और सिविल सेवा सोसायटी के मध्य सहयोग, कानून का षासन आदि तभी लागू हो पायेंगे जब प्रषासन और जनता के अन्र्तसम्बंध पारदर्षी और संवेदनषील होंगे जिसमें सिटिजन चार्टर महत्वपूर्ण पहलू है। 

एक लोकतांत्रिक देष में नागरिकों को सरकरी दफ्तरों में बिना रिष्वत दिये अपना कामकाज निपटाने के लिये यदि सात दषक तक इंतजार करना पड़े तो षायद यह गर्व का विशय तो नहीं होगा। जिस प्रकार सिटिजन चार्टर के मामले में राजनीतिक भ्रश्टाचार एवं प्रषासनिक संवेदनहीनता देखने को मिल रही है वह भी इस कानून के लिए ही रोड़ा रहा है। सूचना का अधिकार कानून के साथ अगर सिटिजन चार्टर भी कानूनी षक्ल, सूरत ले ले तो यह पारदर्षिता की दिषा में उठाया गया बेहतरीन कदम होगा और सुषासन की दृश्टि से एक सफल दृश्टिकोण करार दिया जायेगा। जिन राज्यों में पहले से सिटिजन चार्टर कानून अस्तित्व में है वहां कोई नये तरीके की अड़चन देखी जाती है। प्रषासनिक सुधार और लोक षिकायत विभाग ने नागरिक चार्टर का आंतरिक व बाहरी मूल्यांकन अधिक प्रभावी, परिणामपरक और वास्तविक तरीके से करने के लिए मानकीकृत माॅडल हेतु पेषेवीर एजेंसी की नियुक्ति दषकों पहले किया था। इस एजेंसी ने केन्द्र सरकार के पांच संगठनों और आन्ध्र प्रदेष, महाराश्ट्र और उत्तर प्रदेष राज्य सरकारों के एक दर्जन से अधिक विभागों के चार्टरों के कार्यान्वयन का मूल्यांकन भी किया। रिपोर्ट में रहा कि अधिकांष मामलों में चार्टर परामर्ष प्रक्रिया के जरिये नहीं बनाये गये। इनका पर्याप्त प्रचार-प्रसार नहीं किया गया। नागरिक चार्टर के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए किसी प्रकार की कोई धनराषि निर्धारित नहीं की गयी। उक्त मुख्य सिफारिषें यह परिलक्षित करती हैं कि सिटिजन चार्टर को लेकर लेकर जितनी बयानबाजी की गयी उतना किया नहीं गया। यद्यपि सिटिजन चार्टर प्रषासनिक सुधार की दिषा में एक महत्वपूर्ण पहल है तथापि भारत में यह अधिक प्रभावी भूमिका नहीं निभा पा रहा। इसके कारण भी हतप्रभ करने वाले हैं। पहला यह कि सर्वमान्य प्रारूप का निर्धारण नहीं हो पाया, अभी भी कई सरकारी एजेंसियां इसका प्रयोग नहीं करती हैं। स्थानीय भाशा में इसे लेकर बढ़ावा न देना, इस मामले में उचित प्रषिक्षण का अभाव तथा जिसके लिए सिटिजन चार्टर बना वही नागरिक समाज भागीदारी के मामले में वंचित रहा। 

प्रधानमंत्री मोदी की पुरानी सरकार सबका साथ, सबका विकास की अवधारणा से युक्त थी तब भी सिटिजन चार्टर को लेकर समस्यायें कम नहीं हुईं। अब वह नई पारी खेल रहे हैं और इस ष्लोगन में सबका विष्वास भी जोड़ दिया है पर यह तभी सफल करार दी जायेगी जब सर्विस फस्र्ट की थ्योरी देखने को मिलेगी। उल्लेखनीय है कि भारत में नागरिक चार्टर की पहल 1997 में की गयी जो कई समस्याओं के कारण बाधा बनी रही। नागरिक चार्टर की पहल के कार्यान्वयन से आज तक के अनुभव यह बताते हैं कि इसकी कमियां भी बहुत कुछ सिखा रही हैं। जिन देषों ने इसे एक सतत् प्रक्रिया के तौर पर अपना लिया है वे सघन रूप से निरंतर परिवर्तन की राह पर हैं। जहां पर रणनीतिक और तकनीकी गलतियां हुई हैं वहां सुषासन भी डामाडोल हुआ है। चूंकि सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है ऐसे में लोक सषक्तीकरण ही इसका मूल है। सुषासन के भीतर और बाहर कई उपकरण हैं। सिटिजन चार्टर मुख्य हथियार है। सिटिजन चार्टर एक ऐसा माध्यम है जो जनता और सरकार के बीच विष्वास की स्थापना करने में अत्यंत सहायक है। एनसीजीजी का काम सुषासन के क्षेत्र में षोध करना और इसे लागू करने के लिए आसान तरीके विकसित करना है ताकि मंत्रालय आसानी से सुषासन सुधार को लागू कर सकें। सरकारी कामकाज में पारदर्षिता, ई-आॅक्षन को बढ़ावा देना, अर्थव्यवस्था की समस्याओं का हल तलाषना, आधारभूत संरचना, निवेष पर जोर, जनता की उम्मीद पूरा करने पर ध्यान, नीतियों को तय समय सीमा में पूरा करना, इतना ही नहीं सरकारी नीतियों में निरंतरता, अधिकारियों का आत्मविष्वास बढ़ाना और षिक्षा, स्वास्थ, बिजली, पानी को प्राथमिकता देना ये सुषासनिक एजेंण्डे मोदी के सुषासन के प्रति झुकाव को दर्षाते हैं। लोकतंत्र नागरिकों से बनता है और सरकार अब नागरिकों पर षासन नहीं करती है बल्कि नागरिकों के साथ षासन करती है। ऐसे में नागरिक अधिकार पत्र को कानूनी रूप देकर लोकतंत्र के साथ-साथ सुषासन को भी सषक्त बनाया जाना चाहिए। 

दिनांक : 6/01/2022 


सुशील कुमार सिंह

निदेशक

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