Wednesday, October 31, 2018

भारत और जापान दोनों संतुलन की खोज में

किसी भी देश की विदेश नीति का मुख्य आधार उस देश को वैष्विक स्तर पर न केवल उपस्थिति दर्ज कराना बल्कि अपनी नीतियों के माध्यम से नई ऊँचाई हासिल करना भी होता है। अक्टूबर के आखिर में प्रधानमंत्री मोदी की जापान यात्रा को सरसरी तौर पर देखा जाय तो सम्बंधों को नई ऊँचाई और संतुलनवादी सिद्धांत में बढ़त मिली है। जापानी प्रधानमंत्री षिंजो एबे से मोदी की यह बारहवीं मुलाकात थी जिसमें दोस्ती और भरोसा दोनों का समावेष था। हाल के वर्शों में दोनों देषों के बीच सम्बंधों के लिहाज से गुणात्मक बदलाव फिलहाल देखने को मिल रहा है। गौरतलब है कि जापान के प्रधानमंत्री एबे की पिछले साल सितम्बर यात्रा वैसे तो बुलट ट्रेन के चलते कहीं अधिक सुर्खियों में रही मगर गुजरात के गांधीनगर में मोदी के साथ द्विपक्षीय बैठक में जो कुछ हुआ था उससे यह स्पश्ट था कि रणनीति और सुरक्षा सम्बंधी मापदण्डों पर भारत और जापान कहीं अधिक स्पीड से आगे बढ़ना चाहते हैं। इसी समय षिंजो एबे ने जय जापान, जय इण्डिया का नारा दिया था। भारत के साथ जापान के बढ़ते रिष्तों को लेकर फिलहाल चीन भी हरकत में है। जापान के सहयोग से भारत चीन से लगी सीमा पर आधारभूत ढांचे का विकास कर रहा है और इसी इलाके पर चीन अपना दावा करता है। भारत और जापान की द्विपक्षीय वार्ता के दौरान पीएम मोदी और जापान के पीएम षिंजो एबे के बीच हाईस्पीड ट्रेन और नेवी काॅरपोरेष समेत कई समझौते हुए इस दौरान दोनों देषों के रक्षा मंत्रियों और विदेष मंत्रियों के बीच टू प्लस टू वार्ता को लेकर भी सहमति बनी। इतना ही नहीं दोनों डिजिटल पार्टनर्स से साइबर स्पेस, स्वास्थ, रक्षा, समुद्र से अंतरिक्ष में सहयोग बढ़ाने को लेकर सहमत हुए। खास यह भी है कि जापान के निवेषकों ने ढ़ाई मिलियन डाॅलर निवेष करने का भी एलान किया। बीते कुछ वर्शों से नैसर्गिक मित्रता की ओर बढ़ रहे भारत और जापान आपस में पहले भी दोस्ती के अच्छे संकेत दे चुके हैं। गौरतलब है कि अहमदाबाद से मुम्बई के बीच बुलेट ट्रेन की परियोजना के कुल खर्च 110 हजार करोड़ के निवेष में 88 हजार करोड़ निवेष जापान द्वारा किया जाना तय है साथ ही तकनीक की उपलब्धता भी वह करा रहा है। 
भारत का उत्कृश्ट नेता बताते हुए एबे ने मोदी को सबसे भरोसेमंद दोस्त कहा है। भारत और जापान के सम्बंध दुनिया को बहुत कुछ दे सकने की क्षमता रखता है। सुरक्षा, निवेष, सूचना प्रौद्योगिकी समेत कृशि, पर्यावरण और पर्यटन जैसे क्षेत्र में सहयोग बढ़ेगा। वैसे मोदी और एबे के चलते दोनों देषों के सम्बंध कहीं अधिक बेहतर तो हुए हैं। हालांकि इसके पीछे विष्व की बदलती परिस्थिति भी जिम्मेदार है। बरसों से जापान उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम को लेकर परेषानी महसूस कर रहा था और यह परेषानी तब और बढ़ जाती है जब चीन उत्तर कोरिया के समर्थन में खड़ा दिखता है। हालांकि दक्षिण कोरिया भी जापान की तरह ही मुसीबत महसूस कर रहा है। इतना ही नहीं उत्तर कोरिया के चलते अमेरिका भी काफी जिल्लते झेली। फिलहाल उत्तर कोरियाई तानाषाह किम जोंग और अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के बीच सिंगापुर में द्विपक्षीय वार्ता के चलते परेषानी घटी है। उत्तर और दक्षिण कोरिया के आपसी मुलाकात से ही समस्याएं कम होते दिख रही हैं। डोकलाम पर बीते वर्श चीन का मजबूती से काबिज होने वाला विचार तब थोड़ा दबाव में गया था जब जापान ने भारत का समर्थन किया। हालांकि अमेरिका समेत कई देष चीन के इस रूख के खिलाफ थे। इसमें कोई दुविधा नहीं कि भारत और जापान दोनों एक-दूसरे को समय-समय पर मनोवैज्ञानिक लाभ देते रहे हैं। इतिहास को खंगाला जाय तो दोनों देष सदियों से सम्बंध से अभिभूत रहे हैं। छठी षताब्दी में बौद्ध धर्म के उदय तथा जापान में इसके प्रचार-प्रसार के समय से ही यह मधुरता देखी जा सकती है। भारत और जापान के बीच अप्रैल 1952 से राजनयिक सम्बंधों की स्थापना हुई जो अब नैसर्गिक मित्रता की ओर बढ़ते दिख रही है। अनेक संयुक्त उपक्रमों की स्थापना सम्बंधों की गहराई का एहसास करा रहे हैं। दोनों देष 21वीं सदी में वैष्विक साझेदारी की स्थापना करने हेतु आपसी समझ पहले ही दिखा चुके हैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का भी इस दिषा में प्रयास सराहनीय रहा है। साल 2005 में तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और जापानी प्रधानमंत्री ने एक संयुक्त वक्तव्य जारी किया जिसका षीर्शक नये एषियाई युग में जापान-भारत साझेदारी था। गौरतलब है कि दिसम्बर 2006 में मनमोहन सिंह और यही षिंजो एबे ने सामरिक उन्मुखता को ध्यान में रखते हुए कई मसौदों को आगे बढ़ाया था। 
विष्व नई करवट ले रहा है और अमेरिका जैसे देष समझौतों और मसौदों से बाहर निकलते हुए अपनी ताकत को एकजुट करने की कोषिष में लगे हुए हैं। भारत-ईरान परमाणु समझौता, एषिया पेसिफिक पार्टनरषिप और पेरिस जलवायु समझौता समेत रूस से षीत युद्ध के दौरान 1987 में हुए आईएनएफ समझौते से हटकर अमेरिका ने इसका पुख्ता सबूत दिया है। अमेरिका रूस और चीन को सबक सिखाना चाहता है। चीन तमाम समझौतों के बावजूद सीमा विवाद के मामले में भारत को हमेषा आंख दिखाता रहता है। इतना ही नहीं पाकिस्तान को मनोवैज्ञानिक और आर्थिक ताकत देकर अपनी भड़ास भी यदा-कदा निकालता रहता है। न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप के 48 देषों में चीन भी षामिल है। जिसके चलते भारत की एंट्री कठिन हुई है क्योंकि बिना चीन की रजामंदी के भारत का प्रवेष सम्भव नहीं है। संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् में पाक आतंकियों को अंतरराश्ट्रीय आतंकी घोशित कराने को लेकर भारत के प्रयासों को वह कुंद करता रहा है। पिछले साल जून में उपजे डोकलाम विवाद से यह भी स्पश्ट हो गया था कि मोदी और चीनी राश्ट्रपति जिनपिंग कितनी बार एक-दूसरे के देष आये-गये हों पर स्वार्थ के मामले में चीन ही अव्वल रहेगा। खास यह भी है कि भारत और चीनियों की दुष्मनी की तुलना में चीनियों और जापानियों की दुष्मनी कहीं आगे है। जापानी मीडिया भी मानता है कि एबे मोदी से करीबी बढ़ाकर जापान बड़ी ताकतों के बीच जापान संतुलनवादी नीति से आगे बढ़ना चाहता है। इतिहास गवाह है कि भारत और जापान की साझेदारी का कोई विकल्प नहीं है। धुंधली तस्वीर यह भी है कि ट्रम्प ने जापान से दूरी बनायी है इसलिए जापान भारत और कुछ हद तक चीन से करीबी बढ़ाना चाहता है। कुछ दिन पहले एबे चीन के दौरे पर गये थे यह किसी भी जापानी प्रधानमंत्री का 7 साल बाद हुआ दौरा था। हालांकि जापान और भारत दोनों के रिष्ते चीन से करवाहट भरे है लेकिन दोनों इससे षत्रुता नहीं चाहते। जाहिर है कहीं न कहीं चीन से भी हित जुड़ता है। गौरतलब है कि चीन की महत्वाकांक्षी योजना वन बेल्ट, वन रोड़ का विरोध भारत और जापान कर चुके हैं। भारत का चीन के साथ सीमा विवाद है जबकि जापान का उससे समुद्री विवाद है। जापान अमेरिका और भारत दक्षिण चीन सागर में युद्धाभ्यास करके चीन को पहले उथल-पुथल में ला चुके हैं। सवाल यह है कि जिससे दुष्मनी है उसी से दोस्ती भी करनी है। परस्पर हित न टकरायें इसे लेकर सभी अपनी-अपनी चिंता में फंसे हैं पर एक बात तय है कि भारत जापान के जरिये चीन को चुनौती देने में बेहतर महसूस कर सकता है। मोदी अब तक 3 बार जापान जा चुके हैं जबकि षिंजो एबे भी 3 बार भारत आ चुके हैं। 2005 से दोनों देष के प्रमुख लगभग हर वर्श एक-दूसरे से मिल रहे हैं। यह अभी के वैष्विक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर बात कही जा रही है यदि आगे कुछ बदलाव होता है तो भी भारत और जापान एक-दूसरे पर भरोसा कर सकते हैं और फायदा ले सकते हैं अन्ततः मोदी का जापान दौरा भारत को न केवल आर्थिक बल्कि मनोवैज्ञानिक फायदा भी दे रहा है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Monday, October 29, 2018

स्टिक एंड कैरेट थ्योरी की राह पर जीएसटी

इंग्लैण्ड के दार्षनिक जेरेमी बेंथम ने अभिप्रेरणा के अन्तर्गत स्टिक एण्ड कैरेट थ्योरी को प्रतिबिम्बित किया जिसका एक अर्थ सख्त तरीका तो दूसरा पुचकारना है। इसी सिद्धांत का डगलस मैकग्रेगर ने आगे चलकर एक्स और वाई के रूप में प्रयोग किया। अब इसी तर्ज पर मोदी सरकार जीएसटी कर संग्रह बढ़ाने का मन बना रही है। हालांकि इसके लिए उन्होंने चार श्रेणियां बनाई हैं जिसमें सख्त तरीका से लेकर नरम रूख तक षामिल है। जीएसटी को लेकर समय-समय पर सरकार रणनीति बदलती रही पर ऐसा अभी तक नहीं हुआ कि खजाना भरने में वह खरा उतरा हो। गौरतलब है कि जब से गुड्स एण्ड सर्विसेज़ टैक्स (जीएसटी) आया है तब से जीएसटी परिशद् की 30 बैठकें हई हैं जिसमें 918 फैसले किये गये। यह इस बात की तस्तीक है कि यह कानून इतने सपाट रास्ते पर नहीं है जितना षायद सरकार समझती थी। जीएसटी परिशद् की बैठेकों में नई कर व्यवस्था से जुड़े कानूनी, नियम और कर दरों सम्बन्धित कई निर्णय समय-समय पर लिये जाते रहे और ऐसा करने के पीछे बड़ी वजह सरकारी खजाना भरने की ही रही है। ध्यानतव्य हो कि जीएसटी के तहत राज्यों को 5 साल तक मुआवजे देने की गारण्टी, राजकोशीय जैसे घाटों के बढ़ने के चलते सरकार की चिंता इन दिनों बढ़ी है। इतना ही नहीं राजनीतिक लाभ और चुनावी सोच के चलते कई ऐसे कदम भी सरकार ने उठाए हैं जिससे उन्हें पीछे भी हटना पड़ा। जीएसटी परिशद् ने 300 से ज्यादा बड़े उत्पादों पर बीते महीनों में कर भी घटाया है इससे भी कर संग्रह घटा है लिहाजा टैक्स वसूली बढ़ाने के नये तरीके खोजे जा रहे हैं। लगभग दो माह के आस-पास इस बात को भी हो चुके हैं कि 20 लाख रूपए से कम के व्यवसायी जीएसटी की अनिवार्यता और उसके कर से बाहर होंगे। जाहिर है टैक्स वसूली का स्तर अभी और गिरेगा। मजे की बात यह है कि जीएसटी काउंसिल ने इसका निर्णय ले लिया है जबकि राज्य सरकारों के पास इसकी औपचारिक सूचना नहीं है जिसके कारण जो उद्यमी जीएसटी की इस व्यवस्था में राहत पा सकते हैं वे अभी भी मजबूरन इसमें बने हुए हैं जबकि सरकारें अखबारों में यह विज्ञापन छाप कर कि लोगों को राहत दी गयी की वाहवही लूट रही हैं। 
जीएसटी को लागू हुए सवा साल हो गये हैं पर संषोधनों का सिलसिला रूका नहीं है। प्रति माह कर जमा करने की प्रथा जब अगस्त 2017 में षुरू हुई तो जुलाई माह की जीएसटी की राषि खजाने में 95 हजार करोड़ थी। सिलसिलेवार तरीके से देखें तो अगस्त में यह राषि 91 हजार करोड़ के आसपास रही लगातार गिरावट के साथ दिसम्बर आते-आते यह 80 हजार करोड़ पर सिमट गई। हालांकि इसी दौरान 10 नवम्बर 2017 को जीएसटी काउंसिल की गोवा में हुए बैठक के दौरान 28 फीसदी वाले कर में कुछ संषोधन किया था और डेढ़ करोड़ की राषि वालों के लिए रिटर्न त्रिमासिक किया था। गुजरात चुनाव को देखते हुए लेट फीस को भी वापस करने का काम भी इस दौरान हुआ था। सरकार का आंकलन था कि एक साल में जीएसटी से 13 लाख करोड़ रूपए खजाने में आयेगा जो हर माह एक लाख करोड़ से अधिक होता है पर अब तक के आंकलन में यह 90 से 92 हजार करोड़ रूपए के औसत पर जाकर ठहरता है। हालांकि अप्रैल 2018 में जीएसटी का कलेक्षन एक लाख करोड़ से अधिक बताया जाता है। गौरतलब है कि 52 हजार करोड़ रूपए से अधिक का मुआवजा राज्यों को जीएसटी के तहत देना पड़ता है जाहिर है सरकार लगातार घाटे का सामना कर रही है जिससे राजकोशीय घाटा भी बढ़ने का खतरा मंडरा रहा है। वर्तमान में यह घाटा 3.3 फीसदी तक है। जिस तरह फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य को डेढ़ गुना और किसानों की आय को दोगुना किये जाने की कसम सरकार ने खाई और निभाने की कोषिष कर रही हैं उसे लेकर भी कर वसूली बढ़ाने की रणनीति में बदलाव लाना उसकी मजबूरी है। मौजूदा स्थिति में रणनीति बहुत सफल नहीं दिखाई दे रही फलस्वरूप राजकोशीय घाटा बढ़ने का  डर सरकार में है यदि ऐसा हुआ तो बजटीय घाटा बढ़ना लाज़मी है। ऐसे में बोझ आखिरकार करदाताओं पर ही पड़ना है जिसे लेकर सरकार सख्त तरीका अख्तियार कर सकती है। मगर 2019 के लोकसभा के चुनाव को देखते हुए करदाताओं को निराष और नाराज करने से भी सरकार बाज आयेगी। 
टैक्स की वसूली बढ़ाने के मामले में सरकार आये दिन नये रास्ते खोजती है। अब सरकार ने इसकी चार श्रेणियां बनाने की बात कह रही है जिसमें उदासीन (डिसइंगेज्ड), अवरोधी (रिसिस्टर्स), उद्यमी (ट्रायर्स) और समर्थक (सपोर्टर्स) की संज्ञा दी जा रही है। वे जो कानून की अवहेलना कर जानबूझकर टैक्स नहीं चुकाते उन्हें उदासीन की श्रेणी में रखने की कवायद है जो कर व्यवस्था को दमनकारी मानते हैं लेकिन उन्हें कर चुकाने के लिए मनाया जा सकता है उन्हें अवरोधी की श्रेणी में रखा जायेगा तथा उन करदाताओं को जो कर चुकाना चाहते हैं पर कई कारणों से टैक्स नहीं चुका पाते उन्हें उद्यमी की श्रेणी में रखते हुए किस्तों मे कर चुकाने जैसे सहूलियते मुहैया करायी जायेंगी। अन्ततः ऐसे करदाता जो कानून का पूरी तरह पालन करते हुए समय पर कर चुकाते हैं और कर व्यवस्था से संतुश्ट भी हैं उनके प्रति सरकार नरमी बरतेगी और उनके सुझावों को भी प्राथमिकता देगी इन्हें सपोटर्स अर्थात् समर्थक की संज्ञा दी गयी है। कर चोरों से निपटने के लिए विषेश प्रकेाश्ठ व्यव्सथा की बात भी की जा रही है। गौरतलब है कि केन्द्र सरकार ने जीएसटी इंटेलिजेंस डायरेक्टरेट जनरल नाम का विषेश प्रकोश्ठ भी गठित किया है जो जीएसटी कानून के तहत कर चोरी के मामले की जांच करने के अलावा छोपमारी और जब्ती की कार्यवाही करेगा। सरकार के इस प्रकार के निर्धारण से यह स्पश्ट है कि खजाने में आने वाले धन संग्रह हर हाल में होना है। इसके लिए कठोर कदम भी उठाने पड़े तो उठाये जायेंगे। गोरतलब है कि करदाताओं के टैक्स चुकाने के रूख के आधार पर उनके साथ अलग-अलग तरीका अपनाये जाने वाली भारत सरकार की यह नई नीति विदेषों में पुरानी है। ब्रिटेन, आॅस्ट्रेलिया और मैक्सिको जैसे देषों में ऐसे ही तरीके अपनाये जाते हैं और इससे कर वसूली बढ़ाने में कामयाबी भी मिली है। 
इसमें काई दुविधा नहीं कि 70 साल के इतिहास में जीएसटी कर की एक नई व्यवस्था ही नहीं एक नई अर्थव्यवस्था है। दुनिया के सैकड़ों देष अब तक जीएसटी को अपना चुके हैं। इस सूची में सवा साल से भारत भी षामिल हैं। आंकड़े यह भी बता रहे हैं कि बहुतायत की स्थिति षुरूआती दिनों में सुखद नहीं रही। यही बात भारत के लिए भी कहना सही होगा। एषिया के 19 देष इसी प्रकार के कर के प्रावधान में हैं जबकि यूरोप में 53 देष इसमें सूचीबद्ध हैं जबकि अफ्रीका में 44 और दक्षिण अमेरिका में 11 देषों में जीएसटी लागू है। भारत में लागू जीएसटी के 4 स्लैब है और 5 से लेकर 28 फीसदी तक कर अधिरोपिण है। हालांकि कर लागू करने के षुरूआत में 32 फीसदी का स्लैब भी था जिसे 28 फीसदी तक सीमित कर दिया गया। अन्य देषों में कर के एक ही स्लैब हैं जबकि भारत में इसके चार स्लैब देखे जा सकते हैं। हालांकि यहां के आर्थिक वातावरण में भी भिन्नता है पर सरकार को यह भी गम्भीरता से समझना चाहिए कि यहां बहुतायत में किसान जो बेकार हैं, युवा हैं जो बेरोजगार हैं जिससे गैर उत्पादकों की संख्या अधिक हो जाती है पर जिम्मेदारी सभी की सरकार को लेनी होती है। कर चुकाने वाले दस फीसदी भी नहीं हैं ऐसे में कड़े कानून औपनिवेषिक सत्ता की याद दिलाते हैं ऐसे में स्टिक एण्ड कैरेट थ्योरी में कैरेट का प्रयोग अधिक हो तो अच्छा रहेगा।


सुशील कुमार सिंह
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Wednesday, October 24, 2018

पुरानी है "अमेरिका फ़र्स्ट" की पॉलिसी

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल को अभी दो साल नहीं हुए हैं जबकि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन चैथी बार इस पद के लिए इसी वर्श फिर चुने गये। डोनाल्ड ट्रम्प ने जनवरी 2017 में जब व्ह्ाइट हाउस में प्रवेष किया था तब उन्होंने यह विष्वास जगाया था कि रूस के साथ भी उनका रवैया उदार रहेगा। तब उन दिनों कईयों को यह बात गले नहीं उतरी थी क्योंकि सभी अमेरिका और रूस के बीच दषकों के षीत युद्ध को अच्छी तरह जानते और पहचानते थे। फिलहाल अब उसका साइड इफेक्ट भी दिखने लगा है। ईरान-अमेरिका परमाणु संधि, ट्रांस पेसिफिक पार्टनरषिप और पेरिस जलवायु समझौता जैसे से पहले ही डील तोड़ चुके इस मामले के माहिर अमेरिका ने एक और कदम उठाते हुए रूस के साथ षीत युद्ध के समय हुए 1987 के षस्त्र नियंत्रण संधि (आईएनएफ) से भी कदम पीछे खींच लिया है। स्पश्ट है अमेरिका अपनी पुरानी नीति ‘अमेरिका फस्र्ट‘ का कड़ाई से पालन कर रहा है। षीत युद्ध में तत्कालीन अमेरिकी राश्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और सोवियत संघ के मिखाइल गोर्बाचोव के बीच आईएनएफ सन्धि हुई थी जिससे अमेरिका पीछे हट रहा है। डोनाल्ड ट्रम्प ने खुल्लमखुल्ला चेतावनी दी है कि जब तक रूस और चीन को होष नहीं आ जाता तब तक अमेरिका भी परमाणु हथियारों को बढ़ाता रहेगा। पड़ताल बताती है कि पहली बार 2008 में अमेरिका ने रूस पर इस संधि के उल्लंघन का आरोप लगाया था तब रूस ने एसएससी-8 मिसाइल का परीक्षण किया था। साल 2014 और 2017 में भी एसएस-24 और आरएस-26 जैसी मिसाइलों के परीक्षण के लिए अमेरिका की ओर से रूस पर इस संधि के उल्लंघन का आरोप लगाया गया था जिसके जवाब में रूस ने अमेरिका को पोलैंड और रोमानिया में मध्यम रेंज की मिसाइल टाॅमहाॅक के बेस बनाने का आरोप लगाया। फिलहाल इन आरोप-प्रत्यारोप के बीच अमेरिका बीते 20 अक्टूबर को इस संधि से स्वयं को अलग कर लिया है। गौरतलब है कि साल 2002 में भी एक रक्षा संधि से वह अलग हुआ था।
देखा जाय तो अमेरिका दुनिया के बदलते आयाम को समझते हुए एक बार फिर ‘अमेरिका फस्र्ट‘ की पाॅलिसी पर काम कर रहा है। दो टूक यह भी है कि दुनिया में बदलते षक्ति समीकरण और उभरती आर्थिक ताकतों के बीच वह कमजोर नहीं पड़ना चाहता। यही कारण है कि जो सन्धियां या समझौते उसे आगे बढ़ने में रोक रहे हैं उसे वो कुचलना चाहता है। हालांकि वह उसकी आंतरिक कूटनीति है मगर अमेरिका दुनिया में कुछ करे और बाकी देष प्रभावित न हो ऐसा षायद ही हुआ हो। गौरतलब है कि व्यापार और सियासी कटुता के बीच इन दिनों अमेरिका और चीन के रिष्ते भी सबसे खराब दौर में है जबकि रूस से लगातार खराब हो रहे रिष्ते इस मोड़ पर आकर खड़े हो गये हैं कि दोनों के बीच की सन्धि ध्वस्त हो गयी। वाजिब सवाल यह रहेगा कि अमेरिका ने जो चेतावनी इन्हें चेताने के लिए दिया है क्या उसका असर पूरी दुनिया पर नहीं होगा। हथियारों की होड़ में अमेरिका जाने की बात कह रहा है। गौरतलब है कि अमेरिका दुनिया में एकाधिकार के लिए जाना जाता रहा है। द्वितीय विष्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ का एक ध्रुव के रूप में उभरने से दुनिया दो ध्रुवीय हो गयी। समय के साथ आर्थिक विकास में बढ़ोत्तरी के चलते कई देष न केवल कई मामलों में साधन-सम्पन्न हुए बल्कि परमाणु सम्पन्न भी होते चले गये जिसमें भारत, चीन, जापान इंग्लैण्ड व फ्रांस समेत कई षामिल हैं। हालांकि इसकी फहरिस्त में ईरान, पाकिस्तान व उत्तर कोरिया जैसे देष भी देखे जा सकते हैं। स्पश्ट है ज्यों-ज्यों सम्पन्नता बढ़ी देषों के बीच हथियारों की होड़ भी बढ़ी। सभी जानते हैं कि अमेरिका और रूस हथियारों की बिक्री में सबसे आगे हैं और इनका दबदबा भी बाकायदा बरकरार है लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि दुनिया पर एकाधिकार रखने और धौंस जमाने वाला अमेरिका को अब कई देष चुनौती भी दे रहे हैं। षायद इसमें से एक वजह ये भी है कि अमेरिका अपनी पुरानी व्यवस्था को पाने के लिए संधि और समझौतों को ठोकर मार रहा है साथ ही सबक सिखाने की बात भी कह रहा है।
अब तक अमेरिका द्वारा तोड़ी गयी सभी सन्धियां खासा महत्व रखती हैं। रोचक यह भी है कि तमाम समझौतों की ट्रम्प ने पहले की सरकारों और राश्ट्रपतियों को सीधे तौर पर दोशी ठहराया। मात्र दो साल के कार्यकाल के भीतर ताबड़तोड़ समझौतों को तोड़ना, उनसे पीछे हटना कहीं न कहीं ट्रम्प की छवि को कुछ और ही दर्षा रहा है। द्विपक्षीय समझौते के तहत 1987 में यह सन्धि अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगियों की सुरक्षा सुनिष्चित करती है। इसमें यह निहित है कि दोनों देष सतह से दागी जाने वाली 500 से 5500 किलोमीटर रेंज वाली मिसाइलों का निर्माण या परीक्षण नहीं कर सकते मगर कुछ साल पहले रूस ने नोवाटर मिसाइल लाॅन्च की थी जिसे लेकर अमेरिका खफा है कि उसने प्रतिबंधित रेंज की मिसाइल लाॅन्च की है। हालंाकि रूस ने इसका खण्डन किया पर बात नहीं बनी। अमेरिका रूस की एसएस-20 की यूरोप में तैनाती से भी नाराज़ है। अमेरिका को डर है कि इस मिसाइल के जरिये नाटो देषों पर वह तत्काल परमाणु हमला कर सकता है। संधि लागू होने के बाद 1991 तक करीब 27 सौ मिसाइलों को नश्ट किया चुका था। खास यह भी है कि दोनों देष एक-दूसरे के मिसाइलों के परीक्षण और तैनाती पर नजर रखने की अनुमति भी देते हैं। गौरतलब है कि इस संधि से रूस और अमेरिका षायद दोनों घुटन महसूस कर रहे थे। साल 2007 में रूसी राश्ट्रपति पुतिन ने कहा था कि इस संधि से उसके हितों को कोई फायदा नहीं हो रहा है। वैसे रूस के उपविदेष मंत्री ने संधि से हटने को खतरनाक माना है। माना तो यह भी जा रहा है कि अमेरिका पष्चिमी प्रषान्त में चीन की बढ़ती मौजूदगी को देखते हुए इस सन्धि से बाहर निकलने का विचार कर रहा था जिसका मौका उसे मिल गया है। ट्रम्प ने कहा है कि जब तक रूस और चीन एक नये समझौते पर सहमत नहीं होते तब तक हम समझौते को खत्म कर रहे हैं और फिर हथियार विकसित करने जा रहे हैं। 
वैसे 2014 में तत्कालीन राश्ट्रपति बराक ओबामा के समय एक क्रूज मिसाइल के परीक्षण के बाद आईएनएफ संधि का उल्लंघन हुआ था तब ओबामा ने यूरोपीय नेताओं के दबाव में इस संधि केा नहीं तोड़ने का फैसला किया था। यूरोप का मानना है कि इस संधि के खत्म होने से परमाणु हथियारों की होड़ षुरू हो जायेगी। आईएनएफ समझौते के चलते रूस और अमेरिका मिसाइल परीक्षण के मामले में बंधे थे जबकि चीन इंटरमीडिएट रेंज की परमाणु मिसाइल बनाने और उसकी तैनती को लेकर स्वतंत्र है। ट्रंप को लगता है कि आईएनएफ संधि उसका हाथ बांधे हुए है जबकि चीन वह सारा काम कर रहा है जो अमेरिका संधि के कारण नहीं कर पा रहा है। अमेरिका का संधि से हटने के पीछे रूस एक कारण है पर उससे बड़ा कारण चीन है। चीन की बढ़ती परमाणु और आर्थिक षक्ति अमेरिका को रास नहीं आ रहा। दो टूक यह भी है कि भारत के लिए भी चीन की यह ताकत कहीं न कहीं घातक है क्योंकि प्रत्यक्ष एवं परोक्ष उसकी ताकत का फायदा न केवल पाकिस्तान को मिलेगा बल्कि उसका बेजा इस्तेमाल चीन तमाम पड़ोसी समेत भारत पर कर सकता है। अमेरिका और उत्तर कोरिया के बीच भले ही बातचीत हो गयी हो पर अभी भरोसा बढ़ा नहीं है। चीन, उत्तर कोरिया का सबसे बड़ा षुभ चिंतक है इसे देखते हुए भी अमेरिका को काफी कुछ समझना, सोचना पड़ रहा है। ऐसे में अमेरिका की चिंता लाज़मी प्रतीत होती है पर यदि वह दुनिया पर प्रभुत्व जमाने की फिराक में यह सब कर रहा है तो उसे भी सही करार नहीं दिया जा सकता। 

सुशील कुमार सिंह
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Monday, October 22, 2018

अवसर इतिहास का, सियासत आज का

बीते 21 अक्टूबर को आजाद हिन्द सरकार के गठन के 75 साल पूरा होने पर लाल किले से प्रधानमंत्री मोदी ने तिरंगा फहराया। ऐसा देश की आजादी के अब तक के इतिहास में पहली बार है जब किसी प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त के बाद ऐसा किया हो। इस अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस पर एक ही परिवार को आगे बढ़ाने का आरोप लगाते हुआ कहा कि नेताजी सुभाश चन्द्र बोस, सरदार वल्लभ भाई पटेल और बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर की अनदेखी और उनके योगदानों को भुलाने के प्रयास किये गये। फिलहाल लाल किले में 15 अगस्त के बाद 21 अक्टूबर को तिरंगा फहरा कर मोदी इतिहास रच चुके हैं और ऐसा करने वाले वे इकलौते प्रधानमंत्री हैं। इस तर्क से सभी वाकिफ है कि हजारों बरस पुराने और कई युगों के प्रतिनिधित्व करने वाले भारत के इतिहास के भीतर एक दो नहीं बल्कि अनेकों इतिहास समाये हुए हैं। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक के ऐतिहासिक यात्रा में कई ऐसे मोड़ निहित हैं जो आज भी मील के पत्थर माने जाते हैं। इसी इतिहास के भीतर 200 बरस अंग्रेजों की गुलामी की दास्ता भी है तो इसी के भीतर भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के लगभग 100 बरस का इतिहास भी समाहित है और इसके अंतिम छोर पर आजादी का वो विहंगम दृष्य भी है जिसे भारत छोड़ो आंदोलन की संज्ञा दी जाती है जो अगस्त 1942 में प्रस्फुटित हुआ था। गौरतलब है कि इन्हीं क्रान्तियों की वजह से अंग्रेजों की चूल्हें हिल गयी थीं और भारतीय स्वतंत्रता की दरकार और सरोकार को ऐसे आंदोलनों ने पूरा किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के इतिहास मे आजाद हिन्द फौज का उल्लेख किये बगैर आजादी की बात अधूरी रहेगी। गौरतलब है कि 21 अक्टूबर 1943 को नेताजी सुभाश चन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार की स्थापना की। यहीं दिल्ली चलो और तुम मुझ खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा का नारा दिया। जाहिर है वे स्वयं इस सरकार के प्रधानमंत्री तथा मुख्य सेनापति बन गये। पद की षपथ ग्रहण की, जिसमें स्वतंत्रता के लिए अपनी अंतिम सांस तक युद्ध करता रहूंगा का संकल्प निहित था। उन दिनों इस सरकार के रसूख का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत की आजादी की राह में एक और नया रास्ता बनाने वाला आजाद हिन्द फौज की पूरी दुनिया ने लोहा माना। संसार की नौ षक्तियों ने जिसमें जापान, जर्मनी, बर्मा, फिलिपीन्स, कोरिया, इटली, चीन, मान्चुको और आयरलैण्ड षामिल थे आदि ने इस सरकार को मान्यता दी। 
इस अवसर पर मोदी ने कहा कि अगर सम्प्रभुता को चुनौती मिली तो वे दुगुनी ताकत से पलटवार करेंगे। सम्भव है कि अप्रत्यक्ष तौर पर ये भारत और पाकिस्तान को दी गयी चेतावनी है। इस अवसर पर स्वतंत्रता आंदोलन में आजाद हिन्द फौज के योगदान और पराक्रम को याद करते हुए मोदी ने कहा कि दूसरे के भू-भाग पर नजर डालना भारत की परम्परा नहीं है। उन दिनों नेताजी के सहयोगी रहे लालती राम की तरफ से भेंट आजाद हिन्द फौज की टोपी पहने मोदी देष के भीतर और बाहर की ऐसी ताकतों को आगाह किया जो देष और संवैधानिक मूल्यों को निषाना बना कर इसके खिलाफ काम कर रहे हैं। गौरतलब है कि 1943 का आजाद हिन्द फौज के ज्यादातर सहयोगी अब इस दुनिया में नहीं हैं। लालती राम आजाद हिन्द फौज के जीवित बचे गिने-चुने सदस्यों में से एक हैं। यह बात भी गैर वाजिब नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी अवसरों को निर्मित करने की कला रखते हैं फिर चाहे इतिहास हो या इतिहास के भीतर का वह पक्ष जो मौजूदा सियासत में बाकायदा उतर सकती हो उसका लाभ लेने से नहीं चुकते हैं। बोस, पटेल और अम्बेडकर को दरकिनार करने के लिए नेहरू-गांधी परिवार पर हमला बोला। इषारे को समझते हुए कांग्रेस की ओर से भी कहा गया कि राश्ट्रीय आंदोलन की विरासत भाजपा हथियाना चाहती है। प्रधानमंत्री मोदी के आरोपों को खारिज करते हुए कांग्रेस ने उसी दिन पलटवार करते हुए कहा कि राश्ट्रीय आंदोलन में भाजपा और राश्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा वाले लोगों का योगदान नहीं रहा है बल्कि कई अवसरों पर उन्होंने ब्रिटिष षासन का साथ दिया है। आरोप तो यह भी है कि मोदी बोस, पटेल व अन्य राश्ट्रीय नेताओं का गलत संदर्भ देकर उन पर सियासत करते हुए इसका लाभ उठा रहे हैं। कांग्रेस के नेता मनु सिंघवी ने तो यहां तक कहा कि नेताजी के नारे तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा को मोदी ने बदलकर तुम मुझे खून-पसीना दो मैं तुम्हें भाशण दूंगा कर दिया है। प्रधानमंत्री मोदी को प्रत्येक अवसर पर गांधी-नेहरू परिवार समेत कांग्रेस को कोसते हुए आसानी से देखा जा सकता है। लगभग 5 साल की सत्ता चला चुके मोदी अपने कामकाज के लिए तो अपनी पीठ थपथपाते ही हैं साथ ही अब तक के सत्ताधारकों की बखिया भी उधेड़ते रहते हैं। कांग्रेस काल को तो वे देष के विकास में कहीं से योगदान मानते ही नहीं और यही बात कांग्रेस को बहुत खलती है। 
आगामी 2022 को भारत की आजादी के भी 75 साल हो जायेंगे। स्वतंत्रता दिवस के मौके पर अपने भाशण में पीएम मोदी ने भारतीयों को 2022 में अन्तरिक्ष में उतारने की घोशणा की थी। बता दें कि उन्होंने यह भी कहा कि एक बेटा या बेटी गगनयान पर राश्ट्रीय ध्वज लेकर प्रस्थान करेंगे। गौारतलब है गगनयान को अंतरिक्ष में भेजने का यह मिषन 2004 से ही चल रहा है जिसमें यूपीए सरकार का 10 साल इसमें षामिल है। हालांकि यह अवसर मोदी को तभी मिलेगा जब 2019 के लोकसभा में सत्ता हथियाने में वे कामयाब रहेंगे। इसी तरह मोदी का सपना यह भी है कि 2022 को हर भारतीय के पास अपना घर होगा। पीएम मोदी सबके लिए लगातार 24 घण्टे बिजली देने का लक्ष्य भी इसी वर्श को चुना है पर संकेत यह मिला है कि यह लक्ष्य 2019 में ही पूरा कर लेंगे। उनका संकल्प 2022 तक नये भारत का निर्माण भी है। स्पश्ट है कि 2022 भारत और वहां के निवासियों के लिए बहुत कुछ बदलाव ला सकता है बषर्ते कि कथनी और करनी में अंतर न आए। फिलहाल सियासत के धुरी पर चल रहे सब कुछ के निषाने पर यदि कुछ है तो वह 2019 का लोकसभा चुनाव है। आजाद हिन्द सरकार के गठन के 75 साल पूरे होने पर कई खास बातों का उल्लेख करते हुए मोदी जवानों की षहादत का जिक्र करते हुए कहीं अधिक भावुक भी दिखे। राश्ट्रीय पुलिस स्मारक बनाने में 70 वर्श का लम्बा समय लग जाने को लेकर पहले की सरकारों की इच्छाषक्ति पर भी सवाल उठाया। गौरतलब है कि राश्ट्रीय पुलिस स्मारक का भी उन्होंने उद्घाटन किया है। देष के नक्सल प्रभावी जिलों में काम कर रहे जवानों की सराहना की, पूर्वोत्तर में डटे जवानों के षौर्य और बलिदान को याद किया। यह बात काफी सषक्त है कि आजाद हिन्द फौज के लिए जर्मनी ने डाक टिकट जारी किये थे उस दौर में आजाद हिन्द सरकार ने औपनिवेषिक सत्ता के विरूद्ध जिस प्रकार साहस दिखाया ऐसा इतिहास के भीतर कम ही देखने को मिलता है। यदि सरकारों को नेताजी पर कुछ करने का इरादा है तो उनके सपनों को साकार करें न कि सियासत। नेताजी सुभाश चन्द्र बोस के बारे में आज भी कोई जानकारी नहीं है और समय-समय पर सरकारों ने इनकी खोजबीन की पर कुछ खास हाथ नहीं लगा। नेताजी स्वयं एक भारी-भरकम इतिहास थे, विजन, विजय और विकास के परिचायक थे। दुनिया को लोहा मनवाया और चुनौतियों के सामने कभी पिघले नहीं। नया भारत ऐसे विचारों की स्वीकार्यता से बनेगा। फिलहाल आज के राजनेता इस बात को भी षिद्दत से समझ लंे कि कहानी किसने अधूरी छोड़ी के बजाय, कैसे पूरी होगी इस पर जोर देना होगा।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Friday, October 19, 2018

जिनकी उपस्थिति सियासत का रुख मोड़ दे

बीते दो महीने के दरमियान देश ने तीन बड़े नेताओं को खोया जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और दक्षिण भारत के राजनीति के पुरोधा और तमिलनाडु के कई बार मुख्यमंत्री रहे एम करूणानिधि और अब एनडी तिवारी को। स्वतंत्रता सेनानी, आजाद भारत में राजनीति के युग के साथ यात्रा षुरू करने वाले दो-दो राज्यों के मुख्यमंत्री रहे एक मात्र राजनेता एनडी तिवारी उसी दिन दुनिया से विदाई ली जिस दिन वो यहां आये थे। 18 अक्टूबर, 1925 से 18 अक्टूबर, 2018 के बीच में अगर कुछ भी बदला है तो सिर्फ 1925 और 2018 का फर्क जबकि तिथि और माह वहीं की वहीं स्थिर रहे। 93 साल की उम्र में निधन हुआ जिसमें 65 साल की राजनीतिक यात्रा का बड़ा इतिहास छुपा हुआ है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि एनडी तिवारी जैसे नेता युग प्रवर्तक होते हैं। वर्तमान के साथ आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रेरणा का काम करते हैं। भारतीय राजनीति के क्षितिज में ऐसा कई राजनेताओं के साथ है जो डूब कर भी रोषनी बिखरने में कभी कमतर न थे। एनडी तिवारी का नाम ऐसे ही नेताओं में षुमार है। पहली बार 1976 में उत्तर प्रदेष के मुख्यमंत्री बने जबकि 1952 के पहले आम चुनाव में ही उन्होंने विधानसभा की यात्रा तय कर ली थी। यह भी सही है कि एनडी तिवारी के साथ राजनीति और विवाद दोनों यात्रा कर रहे थे। वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता तिवारी का विवादों से चोली-दामन का नाता रहा। आन्ध्र प्रदेष में राज्यपाल रहते हुए जैविक पुत्र का मामला चाहे प्रकाष में आया हो या फिर राजभवन में लगे अरोप ही क्यों न रहे हों। एनडी तिवारी ने उथल-पुथल के दौरान भी लाइफ मैनेजमेंट को संवारने की दिषा में प्रयासरत रहे। हतप्रभ करने वाली बात यह है कि जीवन के किसी भी मोड़ पर उन्हें सियासत ने कभी पीछा नहीं छोड़ा या फिर सियासत को उन्होंने नहीं छोड़ा। रोहित षेखर का मसला पिता-पुत्र में तब्दील हो गया और एक अच्छी बात यह रही कि आखरी क्षणों में इन सबका सुख भी उन्हें मिल सका।
1942 में स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले एनडी तिवारी का जीवन भले ही पहाड़ी विधाओं से युक्त था पर विकास पुरूश के तौर पर उनका लोहा पूरा भारत मानता है। तीन बार उत्तर प्रदेष के मुख्यमंत्री और एक बार उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री साथ ही राज्यपाल जैसे तमाम पदों के अलावा 9 बार वित्त मंत्री के तौर पर बजट पेष करने का अनुभव का श्रेय भी एनडी तिवारी को ही जाता है। इतना ही नहीं पेट्रोलियम मंत्रालय, उद्योग आदि समेत समय-समय पर केन्द्र में कई विभागों में मंत्री रहे। षुरूआती दिनों में वे कांग्रेस के नेता तो नहीं थे पर बाद में वे कांग्रेसी ही बन कर पूरा जीवन खपाया। इन्दिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी तक एनडी तिवारी होने का मतलब सभी समझते थे। एक ऐसा भी दौर आया जब कांग्रेस की राजनीति षून्य की ओर चली गयी थी और समय था 21 मई 1991 का। इसी दिन राजीव गांधी की हत्या हो गयी थी और दौर चुनाव का था। सोनिया गांधी दुःख के गर्त में थी, राहुल गांधी समेत अन्य उत्तराधिकारी सियासत से अछूते थे और उम्र भी इतनी नहीं थी। तब यह बात आम हो गयी कि कांग्रेस का नेतृत्व कौन करेगा। चुनाव के बीच में हुई पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या पूरे भारत को झकझोर दिया था। बचे हुए चुनावी चरण में कांग्रेस को सहानुभूति का फायदा मिला और वह सत्ता के समीप पहुंची। कुल आंकड़े में केवल 4 सदस्यों की घटोत्तरी थी उन दिनों कांग्रेस 267 सीटे जीती थी लेकिन इसी समय एक हैरत भरी घटना यह हुई कि नेतृत्व की भरपाई करने वाले एनडी तिवारी नैनीताल सीट से लोकसभा चुनाव हार गये। वो भी महज 800 वोटों के अंतर से। यदि भारतीय राजनीति में किसी की खराब किस्मत कही जाय तो इस दौर में एनडी तिवारी बाकी के दौर में अगर अच्छी किस्मत भी कही जाय तब भी बात एनडी तिवारी की ही बात होगी। इस बात को सभी मानते हैं यदि एनडी तिवारी लोकसभा की सीट जीतने में सफल होते तो 1991 में देष का प्रधानमंत्री पी0वी0 नरसिम्हा राव नहीं केवल और केवल एनडी तिवारी होते ये ऐसी चूक थी जिसकी भरपाई ताउम्र स्वयं एनडी तिवारी भी नहीं कर सकते थे। 
अगर एक षब्दों में समझा जाय कि एनडी तिवारी का क्या मतलब तो इसका अर्थ है विजन, विजय और विकास पर कहावत है कि दुनिया जीतने वाले भी कभी कभी छोटी रियासतों से चकनाचूर हो जाते हैं। विजन, विजय और विकास के रथ पर सवार एनडी तिवारी 1991 में विजय प्राप्त नहीं कर पाये और पूरे देष में विजन के लिए जाने जाने वाले एनडी तिवारी कई विवादों के चक्रव्यूह में जिस तरह उलझे वहां भी लम्बे वक्त के बाद रास्ते बने और कुछ मामले में तो तमाम विजन के बावजूद रास्ते मरते दम तक बंद रहे। हैदराबाद राजभवन की घटना के बाद एनडी तिवारी हाषिए पर चले गये थे। कांग्रेस के नेताओं ने उनसे मुंह मोड़ लिया। सोनिया गांधी, राहुल गांधी जैसे नेता मानो उनको भुला ही दिया हालांकि इसकी वजह सियासी भी है। गौरतलब है कि एक दौर ऐसा भी था जब एनडी तिवारी कांग्रेस से बाहर और कांग्रेस के विरोध में थे। हालांकि सब कुछ ठीक हुआ पर षायद इसी को राजनीति कहते हैं कि जितना ठीक दिखता है असल में उतना होता नहीं। विकास पुरूश की राह में उनका पथ काफी चिकना था साल 2002 में उत्तराखण्ड में पहली बार जब विधानसभा का चुनाव हुआ तो वे मुख्यमंत्री बने। प्रदेष को औद्योगिक पैकेज समेत औद्योगिक नीतियों से सराबोर किया। इसमें कोई दो राय नहीं कि एनडी तिवारी के कार्यकाल में उत्तराखण्ड संरचनात्मक तौर से बहुत मजबूत हुआ था जिसका फायदा आने वाली सरकारों को भी मिला। खास यह भी है कि 18 साल के उत्तराखण्ड में 9 मुख्यमंत्री हो चुके हैं जिसमें 5 साल का कार्यकाल पूरा करने के लिए केवल और केवल एनडी तिवारी को जाना जाता है। 
सभी दलों में पैठ बनाने वाले एनडी तिवारी भले ही डूब कर रोषनी बिखरने वाले रहे हों पर आखरी दिनों में वे डूबते सूरज की ही तरह थे। राजनीति के सूरमा भी अच्छी तरह जानते हैं कि एनडी तिवारी की उपस्थिति मात्र से सियासत का रूख बदल जाता था। अच्छे दोस्त और कठोर नेतृत्व से युक्त एनडी तिवारी जरूरतमंदों के लिए बड़ा मन रखते थे। कहा तो यह भी जाता है कि सत्ता में रहते हुए विरोधियां का वह पहले सुनते थे कई तो यह भी मानते हैं कि उन्होंने विरोधी पनपने ही नहीं दिये। एनडी तिवारी भारतीय राजनीति में ऐसे षलाखा पुरूश थे जिनके सम्बंध दल से ही नहीं पीढ़ियों में बंध जाती थी। समकालीन राजनीतिक लोग जिन्हें एनडी तिवारी के साथ सियासत हांकने का अवसर मिला है वह अच्छी तरह जानते हैं कि रास्ता बनाना और दूसरे के साथ इस पर रेस लगाना तिवारी की अभूतपूर्व क्षमताओं में निहित था। हैदराबाद में लगे ग्रहण से वे कभी उभर नहीं पाये और 16 महीने से दिल्ली के मैक्स में रहते हुए तमाम जद्दोजहद के बाद आखिरकार उन्होंने विदाई ले ही ली। एनडी तिवारी जब 7 बरस के थे तब से मां का साया सर से उठा और पिता के साथ एक कोठरी में महीनों कैद रहे तब दौर औपनिवेषिक सत्ता का था और लड़ाई स्वाधीनता की थी। एक खूबसूरत कहावत है कि रास्तों की दिलकषी अपनी जगह है चलने वालों की भी मर्जी चाहिए पर यहां कह सकते हैं कि रास्ते चाहे दिलकष रहे हों या न रहे हों पर विजन, विजय और विकास के संकल्प के साथ एनडी तिवारी न केवल रास्ते को दिलकश बनाया बल्कि उस पर अन्तिम समय तक चलते रहे।

सुशील कुमार सिंह
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Monday, October 15, 2018

जलवायु परिवर्तन चुनौतियाँ और भी हैं

स्पष्ट शब्दों में कहा जाय तो ग्लोबल वार्मिंग दुनिया की कितनी बड़ी समस्या है यह बात आम आदमी समझ नहीं पा रहा है और जो खास हैं और इसे जानते समझते हैं वो भी कुछ खास कर नहीं पा रहे हैं। साल 1987 से पता चला की आकाष में छेद है इसी वर्श मान्ट्रियाल प्रोटोकाॅल इस छिद्र को घटाने की दिषा में प्रकट हुआ पर हाल तो यह है कि चीन द्वारा प्रतिबंधित क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का व्यापक और अवैध प्रयोग के चलते मान्ट्रियाल प्रोटोकाॅल कमजोर ही बना रहा। जाहिर है ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने में इसकी बड़ी भूमिका है। गौरतलब है कि यूके स्थित एक एनजीओ एन्वायरमेंटल इन्वेस्टीगेषन एजेन्सी की एक जांच में पाया गया कि चीनी फोम विनिर्माण कम्पनियां अभी भी प्रतिबंधित सीएफसी-।। का उपयोग करती हैं। साल 2000 में अधिकतम स्तर पर पहुंच चुका ओजोन परत में छिद्र कुछ हद तक कम होता प्रतीत हो रहा है। पड़ताल बताती है कि 1987 में यह छिद्र 22 मिलियन वर्ग किलोमीटर था जो 1997 में 25 मिलियन किलोमीटर से अधिक हो गया। वहीं 2007 में इसमें आंषिक परिवर्तन आया। फिलहाल 2017 तक यह 19 मिलियन वर्ग किलोमीटर पर आ चुका है। ओजोन परत के इस परिवर्तन ने कई समस्याओं को तो पैदा किया ही है। विज्ञान की दुनिया में यह चर्चा आम है कि ग्लोबल वार्मिंग को लेकर यदि भविश्यवाणी सही हुई तो 21वीं षताब्दी का यह सबसे बड़ा खतरा होगा जो तृतीय विष्वयुद्ध या किसी क्षुद्रग्रह का पृथ्वी से टकराने से भी बड़ा माना जा रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते होने वाले जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैस है। अगर इन गैसों का अस्तित्व मानक सूचकांक तक ही रहता है तो पृथ्वी का वर्तमान में तापमान काफी कम होता पर ऐसा नहीं है। इस गैस में सबसे ज्यादा कार्बन डाई आॅक्साइड महत्वपूर्ण है जिसकी मात्रा लगातार बढ़ रही है और जीवन पर यह भारी पड़ रही है। 
बीते मई-जून में भारत के मैदानी इलाके ही नहीं बल्कि पहाड़ी राज्यों में पृथ्वी का तापमान अनुमान से कहीं अधिक था। मध्य प्रदेष और राजस्थान कहीं अधिक तप रहा था। खजुराहो का तापमान 47 डिग्री से ऊपर जबकि राजस्थान में यह अर्द्धषतक के इर्द-गिर्द था। पहाड़ी राज्य हिमाचल के उना में 43 डिग्री के ऊपर तापमान गया जबकि जम्मू क्षेत्र गरमी से झुलस गया था। दिल्ली में लू चल रही थी। इसी तरह भारत के तमाम क्षेत्रों में गर्मी का प्रकोप बढ़ा हुआ था। आॅस्ट्रेलिया में तापमान 80 साल के रिकाॅर्ड को पार कर गया था। दक्षिण यूरोप में भी गर्मी पहले की तुलना में बढ़ी हुई दिखने लगी। साफ संकेत है कि जलवायु परिवर्तन बेकाबू तरीके से जारी है। अब यह आषंका भी बन रही है कि जिस तर्ज पर पृथ्वी रूपांतरित हो रही उसे बचाने का कोई उपाय मानव का कारगर होगा भी या नहीं। संयुक्त राश्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने दक्षिण एवं एषियाई देषों में सरकारों से ग्लोबल वार्मिंग और इसके अभियान का नेतृत्व करने की अपील की। गौर तलब है कि संयुक्त राश्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार गुटेरेस बीते 11 अक्टूबर को इण्डोनोषिया की राजधानी बाली में आसियान की बैठक को सम्बोधित कर रहे थे। म्यांमार, फिलिपींस, थाईलैण्ड और वियतनाम इण्डोनेषिया के सुलावेसी द्वीप में आये भूकम्प के चलते पनपी सुनामी से कहीं अधिक प्रभावित हुए हैं। गुटेरेस ने एक बार फिर पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन को लेकर संयुक्त राश्ट्र के एक्षन प्लान की वचनबद्धता को दोहराया। उन्होंने अन्तर्राश्ट्रीय जलवायु परिवर्तन पैनल आईपीसीसी की रिपोर्ट का भी हवाला दिया। गौरतलब है कि ग्लेाबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक नियंत्रित रखने में विफल रहने पर विष्व में इसके होने वाले विनाषकारी परिणामों का इस रिपोर्ट में पेषगी है। कहा यह भी जा रहा है कि 2030 तक जलवायु परिवर्तन पर रोक लगाने के लिए कई महत्वाकांक्षी कदम उठाने होंगे। जमीन, ऊर्जा, उद्योग, भवन, परिवहन और षहरों में 2030 तक उत्सर्जन का स्तर आधा करने और 2050 तक षून्य करना जो स्वयं में एक चुनौती है। 
ग्लोबल वार्मिंग रोकने का फिलहाल बड़ा इलाज किसके पास है कह पाना मुष्किल है। जिस तरह दुनिया गर्मी की चपेट में आ रही है और इसी दुनिया के तमाम देष संरक्षणवाद को महत्व देने में लगे हैं उससे भी साफ है कि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौती निकट भविश्य में कम नहीं होने वाली। पृथ्वी को सही मायने में बदलना होगा और ऐसा हरियाली से सम्भव है पर कई देष में हरियाली न तो है और न ही इसके प्रति कोई बड़ा झुकाव दिखा रहे हैं। पेड़-पौधे बदलते पर्यावरण के हिसाब से स्वयं को ढ़ालने में जुट गये हैं। वह दिन दूर नहीं कि ऐसी ही कोषिष अब मानव को करनी होगी। मेसोजोइक युग में पृथ्वी का सबसे बड़ा जीव डायनासोर जलवायु परिवर्तन का ही षिकार हुआ था। ऐसा भी माना जा रहा है कि ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन की वजह से रेगिस्तान में गर्मी बढ़ेगी जबकि मैदानी इलाकों में इतनी प्रचण्ड गर्मी होगी जितना की इतिहास में नहीं रहा होगा। यदि साल 2030 तक पृथ्वी का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस यानी अनुमान से आधा डिग्री अधिक होता है तो थाइलैण्ड, फिलिपींस, इण्डोनेषिया, सिंगापुर, मालदीव तथा मेडागास्कर व माॅरिषस समेत कितने द्वीप व प्रायद्वीप पानी से लबालब हो जायेंगे। ऐसे में क्या करें, पहला प्रकृति को नाराज़ करना बंद करें, दूसरा प्रकृति के साथ उतना ही छेड़छाड़ करें जितना मानव सभ्यता बचे रहने की सम्भावना हो। उश्णकटिबंधीय रेगिस्तानों में विभिन्न क्षेत्रों द्वारा ग्रीन हाउस गैसों का विवरण देख कर तो यही लगता है कि पृथ्वी को विध्वंस करने में हमारी ही भूमिका है। पड़ताल से पता चलता है कि पावर स्टेषन 21.3 प्रतिषत, इंडस्ट्री से 16.8, यातायात व गाड़ियों से 14, खेती किसानों के उत्पादों से 12.5, जीवाष्म ईंधन के इस्तेमाल से 11.3, बायोमास जलाने से 10 प्रतिषत समेत कचरा जलाने आदि से 3.4 फीसीदी ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन होता है। ये सभी धीरे-धीरे इस मृत्यु का काल बन रही है। 
दुनिया भर की राजनीतिक षक्तियां बड़े-बड़े मंचों से बहस में उलझी हैं कि गर्म हो रही धरती के लिए कौन जिम्मेदारी है। कई राश्ट्र यह मानते हैं कि उनकी वजह से ग्लोबल वार्मिंग नहीं हो रही है। अमेरिका जैसे देष पेरिस जलवायु संधि से हट जाते हैं, दुनिया में सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन के लिए जाने जाते हैं और जब बात इसकी कटौती की आती है तो भारत जैसे देषों पर यह थोपा जाता है। चीन भी इस मामले में कम दोशी नहीं है वह भी चोरी-छिपे ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने वाली क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का उत्सर्जन अभी भी रोकने में नाकाम रहा। ग्लोबल वार्मिंग के लिए ज्यादातर अमीर देष जिम्मेदार हैं। जहरीली गैंसों का उत्सर्जन करने वालों की सूची में चीन, ब्राजील जैसे देष भी षामिल होते जा रहे हैं जो अपनी आबादी को गरीबी से निकालने के लिए कोयला, तेल और गैस का व्यापक इस्तेमाल कर रहे हैं। समुद्र में बसे छोटे देष का अस्तित्व खतरे में है यदि वर्तमान उत्सर्जन जारी रहता है तो दुनिया का तापमान 4 डिग्री सेल्सियस बढ़ जायेगा, ऐसे में तबाही तय है। सभी जानते हैं बदलाव हो रहा है। दुनिया में कई हिस्से में बिछी बर्फ की चादरे भविश्य में पिघल जायेंगी, समुद्र का जल स्तर बढ़ जायेगा और षायद देर-सवेर अस्तित्व भी मिट जायेगा। ग्लोबल वार्मिंग की स्थिति को देखते हुए साल 2015 तक संयुक्त राश्ट्र संघ के सदस्यों ने नई जलवायु संधि कराने के लिए बातचीत षुरू की जिसे 2020 तक लागू कर दिया जायेगा। गर्मी के कारण जो भी हों समस्याएं अनेकों हैं और इससे जुड़ी चुनौती भी इतनी ही नहीं और भी हैं। कृशि, वन, पर्यावरण और बारिष समेत जाड़ा और गर्मी को उथल-पुथल में जाने से रोकने के लिए इन चुनौतियों से दो-चार होना ही पड़ेगा।




सुशील कुमार सिंह
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Wednesday, October 10, 2018

विकास व बेरोजगारी के बीच महिला संसार

दुनिया में बढ़ रहे आॅटोमेषन और नई प्रौद्योगिकी के चलते फिलहाल करोड़ों महिलाओं के रोज़गार पर तलवार लटक रही है। अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश (आईएमएफ) ने बीते 9 अक्टूबर को एक ऐसी चेतावनी जारी की जिसमें स्पश्ट किया गया है कि नई प्रौद्योगिकी के चलते विष्व स्तर पर महिलाओं से जुड़ी 18 करोड़ नौकरियां जोखिम में हैं। इस संस्था ने इस बात के लिए भी निवेदन किया है कि दुनिया भर के नेता महिलाओं को जरूरी कौषल प्रदान करें और ऊँचे पदों पर लैंगिक अन्तर को भी कम करें। इतना ही नहीं डिजिटल अंतर को पाटने को लेकर भी काम करने की बात कही गयी। गौरतलब है कि आईएमएफ और विष्व बैंक की बाली में हुई सालाना बैठक में यह विष्लेशण सामने आया कि महिलाओं की नौकरी खतरे में है इसमें 30 देषों का विष्लेशण षामिल था। दुनिया में दो देष चीन और भारत ऐसे हैं जिनकी जनसंख्या मिला दी जाय तो संसार की कुल एक तिहाई जनसंख्या से अधिक है। साफ है कि इन देषों को चोट अधिक लग सकती है। दुनिया में इस बात का भी डंका बज रहा है कि महिलाओं की भागीदारी से विकास की रफ्तार बढ़ेगी परन्तु वहीं रोज़गार की घटती सम्भावनाओं को देखते हुए तरक्की और विकास के बीच महिलाओं से भरी आधी दुनिया जूझते दिख रही है। जहां एक ओर अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश ने चालू वित्त वर्श में भारत की आर्थिक वृद्धि दर 7.3 फीसद और आगामी वित्त वर्श में 7.4 फीसद रहने का अनुमान जताया है जो चीन से भी तेज है। वहीं कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की चुनौती बनी हुई है। गौरतलब है कि कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से भारत जैसे देषों में उत्पादकता में वृद्धि को बल मिलने का अनुमान है और यह तभी सम्भव है जब नये कौषल को प्रमुखता दिया जाय। हालांकि आईएमएफ ने यह भी स्पश्ट किया है कि पिछले दो दषक से महिला कर्मचारियों की संख्या तेजी से बढ़ी है लेकिन जिस तरह नई-नई व्याख्याएं यह आ रही हैं कि आॅटोमेषन और नई तकनीक के बदलते स्वरूप में इन्हें बेरोजगारी के कतार में खड़ा कर सकता है वह बड़ी चिंता का विशय है। 
वर्तमान में आर्थिक उदारवाद, ज्ञान के प्रसार और तकनीकी विकास के साथ संचार माध्यमों के चलते तरक्की के लक्ष्य और अर्थ दोनों बदल गये। महिलाओं के हाथ में भारत की तरक्की की चाबी की बात विष्व बैंक पहले ही कह चुका है। विष्व बैंक इसी साल मार्च में कहा था कि अगर भारत दो अंकों वाली आर्थिक वृद्धि चाहता है तो उसे नौकरियों में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ानी होगी पर हालिया रिपोर्ट यह कहता है कि भारत में केवल 27 फीसदी औरते या तो काम कर रही हैं या सक्रिय रूप से नौकरी तलाष रही हैं जबकि बंग्लादेष में यह आंकड़ा 41 प्रतिषत है और इंण्डोनषिया और ब्राजील में 25 प्रतिषत है। साल 2007 के बाद भारत में कामकाजी महिलाओं की संख्या घटने के संकेत मिले हैं मुख्यतः ग्रामीण इलाकों में। आंकड़ों की समीक्षा यह इषारा करती है कि 34 प्रतिषत काॅलेज ग्रेजुएट महिलाएं ही कामकाजी हैं जाहिर है आर्थिक विकास को दहाई रखने के इरादे तब तक अधूरे रहेंगे जब तक तरक्की में महिलाएं की भागदारी को लेकर संजीदगी नहीं बढ़ेगी। आईएमएफ ने भी माना है कि महिला कर्मचारियों की संख्या बढ़ी है मगर यह वृद्धि पुरूशों की तुलना में कहीं अधिक असमान है। आईएमएफ की हालिया रिपोर्ट की नई प्रौद्योगिकी नौकरियों को कम कर सकती हैं यह दुनिया के किसी भी देष के लिए अच्छी खबर नहीं है। भारत जैसे देषों समेत महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से उत्पादकता में वृद्धि को गति मिलने का अनुमान है। गौरतलब है कि अगले दो दषक में नई तकनीक के चलते उक्त 30 देषों के कुल साढ़े पांच करोड़ श्रमिकों में 10 फीसदी महिलाएं और पुरूश श्रमिकों की नौकरी पर सबसे ज्यादा खतरा होगा जबकि पूरी दुनिया के 18 करोड़ महिलाओं की नौकरी खतरे की जद्द में है। 
इसमें कोई दो राय नहीं कि तकनीकी विकास ने परम्परागत षिक्षा को पिछाड़ दिया और आने वाले दिनों में नौकरी षुदा लोगों को भी बेरोज़गार करेगा जैसा कि रिपोर्ट बता रही है। अब विकट स्थिति यह है कि कौषल की कूबत किस तरह बढ़ाई जाय जबकि भारत में इसे लेकर एक मंत्रालय कार्य कर रहा है। बदलती स्थितियां यह आगाह कर रही हैं कि पुराने ढ़र्रे अर्थहीन और अप्रासंगिक हो रहे हैं और इसमे सबसे ज्यादा चोट स्त्रियों पर है। जाहिर है यदि तकनीकी और रोज़गारपरक षिक्षा से महिलाएं दूर रहेंगी तो न केवल उनमें बेरोज़गारी व्याप्त होगी बल्कि एक बड़ा मानव श्रम का लाभ लेने से देष दुनिया वंचित भी हो जायेगी। महिला सषक्तीकरण और दुनिया का विकास एक-दूसरे के पूरक हैं । भारत की दृश्टि से देखें तो आंकड़े स्पश्ट करते हैं कि यदि देष की 70 फीसदी महिला श्रम का इस्तेमाल किया जाय तो जीडीपी में साढ़े चार प्रतिषत की वृद्धि हो सकती है। अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की बेटी एवं व्हाइट हाउस में सलाहकार इवांका ट्रम्प ने इसी साल के षुरू में भारत की उपलब्धियों की तारीफ करते हुए महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की जरूरत बतायी। अगर सब कुछ सामान्य रहे तो आगामी 2025 तक भारत की अनुमानित जीडीपी दोगुनी हो सकती है। अभी भी इसमें महिलाओं की भागीदारी सबसे कम है जो महज़ 17 फीसदी है जबकि चीन में 41 फीसदी, दक्षिण अमेरिका में 33 फीसदी और पूरी दुनिया का औसत में महिलाओं की भूमिका जीडीपी के मामले में 37 फीसदी है। विवेचनात्मक पक्ष यह है कि भारत में महिला श्रम का भरपूर प्रयोग नहीं हो पा रहा है। षायद यही वजह है कि तमाम कोषिषों के बावजूद मन चाहा आर्थिक विकास नहीं मिल पा रहा। 
आईएमएफ ने महिलाओं के समावेष के आर्थिक लाभ: नये तंत्र, नये प्रमाण में कहा कि महिलाओं के साथ कार्यस्थलों पर नये कौषल भी आते हैं जाहिर है यह विकास की सम्भावनाओं को बढ़ाते हैं। तुलनात्मक वृद्धि दर को देखा जाय तो यह भी पता चलता है कि भारत दुनिया में तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था की ओर है हालांकि कई मामलों में दूसरे देषों से यह कहीं पीछे भी है। मानव विकास सूचकांक में भारत सषक्त के बजाय कहीं अधिक संघर्श करता दिख रहा है जबकि पड़ोसी चीन दुनिया के सबसे तेज आर्थिक वृद्धि वाली अर्थव्यवस्था 2017 में चीन था तब यह भारत से महज 0.2 फीसदी ही आगे था मगर वहां का संरचनात्मक विकास कहीं अधिक मजबूत और विस्तृत है। इस दुविधा से परे कि संरचनात्मक तौर पर जो राश्ट्र जितना अधिक विकसित होगा उसके विकास की सम्भावनाएं उतनी ही अधिक होंगी। कहा तो यह भी गया है कि महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से भारत की अर्थव्यवस्था तीन साल में 150 अरब डाॅलर से ज्यादा बढ़ सकती है और महिला-पुरूश उद्यमियों की भागीदारी बराबर होने पर जीडीपी दो प्रतिषत से ज्यादा बढ़ सकती है। दुनिया में महिलाओं को लेकर किस प्रकार की अवधारणा है इस पर राय अलग-अलग हो सकती है पर यह तथ्य निविर्वाद रूप से सत्य है कि भारतीय समाज में महिलाओं की उपेक्षा की जाती है। महिलाओं की साक्षरता, षिक्षा, उद्यमिता से लेकर कौषल विकास एवं नियोजन आदि में भूमिका चैगुनी की जा सकती है। झकझोरने वाला सवाल तो यह भी है कि क्या कभी किसी ने इस बात पर गौर किया कि दुनिया में सबसे तेजी से आगे बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था भारत के हालात में चमत्कारिक परिवर्तन क्यों नहीं कर पायी। इसका उत्तर मात्र एक है महिलाओं की सक्रिय भागीदारी का आभाव। दुनिया के जिन देषों में विकास और इनमें निहित रोजगार के संतुलन को बरकरार रखा है वे तरक्की कर रहे हैं। आईएमएफ के हालिया रिपोर्ट के मद्देनजर विष्व में 18 करोड़ की नौकरियों पर खतरा है इस समस्या को लेकर सभी अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभाने को आगे आये।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

अमेरिका, चीन व पाक को आईना दिखाता भारत

यह बात तार्किक है कि यदि भारत की सामरिक ताकत बढ़ेगी तो चीन और पाकिस्तान की पेषानी पर बल पड़ेगा पर अमेरिका भी बेचैन हो जाय ऐसा कम ही रहा है। अरबों डाॅलर के रक्षा सौदे को लेकर भारत और रूस इन दिनों फलक पर हैं जबकि अमेरिका के साथ चीन और पाकिस्तान की बौखलाहट साफ देखी जा सकती है। गौरतलब है कि भारत अमेरिकी प्रतिबंधों का जोखिम उठाते हुए एस-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम रूस से खरीद रहा है जिसे लेकर भारत को तकरीबन 5 अरब डाॅलर खर्च करने पड़ेंगे। रूस से खरीदे जाने वाले इस डिफेन्स सिस्टम को लेकर अमेरिका की भंवे क्यों तनी हैं और भारत पर प्रतिबंध की तलवार क्यों लटक रही है इसे भी समझा जाना जरूरी है। स्पश्ट कर दें कि अमेरिका ने अपने दुष्मन देषों को प्रतिबंधों के जरिये दण्डित करने के लिए एक कानून काउंटरिंग अमेरिकन एडवर्सरीज थ्रू सैंकषन्स एक्ट बनाया है जिसे संक्षिप्त में काटसा कहा जाता है इन देषों के साथ अर्थात् अमेरिका के घोशित दुष्मन देषों के साथ यदि कोई देष सौदा करता है तो उस पर यह कानून लागू होता है। गौरतलब है कि रूस अमेरिका के दुष्मन देषों में षुमार है जाहिर है भारत को इसकी चिंता कुछ हद तक सता रही थी पर भारत ने यह तय कर लिया है कि भले ही अमेरिका आंखे दिखाए पर यह समझौता उसकी अपनी रक्षा के लिए जरूरी है। हालांकि भारत रूस से एस-400 खरीदने के मामले में काटसा कानून से अपने रियायत चाहता था जिसे अमेरिका खारिज कर चुका है। जाहिर है भारत को अपनी रक्षा सोचनी है ऐसे में अमेरिका को लेकर आखिर फिक्र क्यों? दो टूक यह भी है कि चीन और पाकिस्तान के सम्भावित खतरे को देखते हुए एस-400 सिस्टम कहीं अधिक जरूरी है। सामरिक दृश्टि से भी भारत को ताकतवर होना समय की मांग है ऐसे में दुनिया का कोई देष धौंस नहीं दिखा सकता। इसमें कोई दुविधा नहीं कि फ्रांस से खरीदे जा रहे 36 राफेल फाइटर विमान और रूस से एस-400 को लेकर हुए ताजा समझौते से देष की सैन्य क्षमता मजबूत होगी। 
अमेरिका दुनिया का एक ऐसा देष है जो जोर-जबरदस्ती के लिए भी जाना जाता है हालांकि इस मामले में पड़ोसी चीन भी कम नहीं है। रही बात पाकिस्तान की तो वह आंतरिक मुफलिसी के बावजूद भारत से दो-चार करने को आमादा रहता है। बीते कई सालों से अमेरिका कई देषों को रूस और ईरान के साथ समझौता करने पर प्रतिबंधों और तमाम तरह की धमकियां देता रहा। इन सबके बीच पीएम मोदी और रूसी राश्ट्रपति पुतिन ने एस-400 डील पर मोहर लगाकर अमेरिका समेत दुनिया को यह संकेत दे दिया कि वह अमेरिका पर निर्भर जरूर है परन्तु रणनीतिक तौर पर वह पूरी तरह स्वतंत्र है। हालांकि धमकाने वाला अमेरिका भारत-रूस के बीच हुए रक्षा सौदे के तत्काल बाद अपने तेवर में कुछ नरमी ला ली है। उसने कहा कि उसकी ओर से लगाये जाने वाले प्रतिबंध वास्तव में रूस को दण्डित करने के लिए हैं साथ ही अमेरिका दूतावास से जारी बयान यह भी था कि अमेरिकी प्रतिबंधों का मकसद सहयोगी देषों की सैन्य क्षमताओं को नुकसान पहुंचाना कत्तई नहीं है। तो क्या यह मान लिया जाय कि अमेरिका ने जिस तर्ज पर काटसा कानून के सहारे इस रक्षा सौदे को लेकर भारत को दबाव में लेने की कोषिष कर रहा था उससे अब वह पीछे हट गया है। अमेरिका भली-भाँति जानता है कि भारत एक ताकतवर देष है और उसके बीच कई मामलों में सम्बंध अन्य देषों की तुलना में कहीं अधिक प्रगाढ़ भी हैं। भारत के पड़ोसी चीन से अमेरिका की निरंतर मतभेद चलते रहते है। इन दिनों तो दोनों के बीच ट्रेड वाॅर भी चल रहा है। इतना ही नहीं भारत के दूसरे पड़ोसी पाकिस्तान पर वह कई आर्थिक प्रतिबंध पहले लगा चुका है और वहां के भीतर पनपे आतंकवाद को लेकर उसे निस्तोनाबूत करने तक की धमकी दे चुका है। ऐसे में यदि भारत पर भी वह नजर टेढ़ी करता है तो उसी का नुकसान होगा। अमेरिका को भी मालूम है कि चीन को संतुलित करने के लिए भारत से द्विपक्षीय सम्बंध मधुर रखने होंगे और पाकिस्तान को कहीं से बढ़ावा नहीं दिया जा सकता। भारत का ही प्रयास है कि इन दिनों पाकिस्तान आतंकवाद के चलते ग्रे लिस्ट में षामिल है। 
सामरिक दृश्टि से देखा जाय तो भारत के लिए हथियार इसलिए भी जरूरी है क्योंकि चीन की नीयत पर भरोसा नहीं किया जा सकता और पाकिस्तान की न नीति है और नीयत। चीन पड़ोसी हो सकता है पर बेहतर मित्र नहीं जबकि पाकिस्तान तो पड़ोसी होने लायक ही नहीं है। चीन ऐसा पहला देष है जिसने गर्वनमेन्ट-टू-गर्वनमेन्ट डील के अन्तर्गत 2014 में रूस से एस-400 डिफेन्स सिस्टम को खरीदा था और रूस इसकी आपूर्ति भी कर चुका है पर संख्या कितनी है स्पश्ट नहीं है। हालांकि स्पश्ट कर दें कि भारत के अलावा रूस कतर को भी यह मिसाइल सिस्टम बेचने की बात कर रहा है। पड़ोसियों की ताकत को कमजोर करने के लिए भारत को यह कदम उठाना ही था। चीन से भारत की 4 हजार किलोमीटर की सीमा लगती है। वायु रक्षा प्रणाली मजबूत करने के लिए एस-400 कहीं अधिक जरूरी है। इस सुरक्षा प्रणाली की मदद से तिब्बत में होने वाली चीनी सेना की गतिविधियों पर नजर रखने में आसानी होगी और हिन्द महासागर में चीन के बढ़ते प्रभाव को भी कम करने में यह मददगार होगा। चीन पिछले साल जिबूती में अपना पहला विदेषी सैन्य अड्डा बनाया। वहीं भारत इण्डोनेषिया, ईरान, ओमान और सेषेल्स में नौसैनिक सुविधाओं तक पहुंच बना ली है। एस-400 भारत के लिए बहुत अहम होने वाला है। इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि जब सीरिया युद्ध के दौरान तुर्की के लड़ाकू विमानों ने वहां तैनात रूस के फाइटर जैट एसयू-24 को भी मार गिराया था। स्थिति को देखते हुए रूस ने सीरिया बाॅर्डर पर एस-400 तैनात किया इसके बाद ही नाटो समर्थित तुर्की के लड़ाकू विमान सीरिया के हवाई सीमा से मीलों दूर चले गये। एस-400 की मारक क्षमता के दायरे में पूरा पाकिस्तान आयेगा। स्पश्ट है कि पाकिस्तान के सभी लड़ाकू विमान इसके निषाने पर होंगे जाहिर है पाकिस्तान का एक गलत कदम उसे तबाह कर देगा जबकि सामरिक दृश्टि से मजबूत चीन को भी संतुलित करने में एस-400 कहीं अधिक मददगार सिद्ध होगा। 
फिलहाल एस-400 को लेकर अमेरिका कितना परेषान है और आगे क्या सोचता है इसका फैसला उसी को लेना है। मगर पड़ोसी चीन और पाकिस्तान पर नजर गड़ाई जाय तो यहां की सूरत-ए-हाल कुछ और दिखेगी। दुनिया का सबसे खतरनाक हथियार एस-400 खरीदने का सौदा करके भारत ने दोनों पड़ोसियों की फिलहाल नींद तो उड़ा दी है। इस डील से पाकिस्तान बहुत परेषान है और सूचना यह है कि वह चीन से 48 ड्रोन खरीद रहा है। यह उसकी बौखलाहट ही कही जायेगी कि आर्थिक रूप से अपाहिज हो चुका पाकिस्तान एस-400 के मुकाबले ड्रोन से भड़ास निकाल रहा है वह भी जिससे आर्थिक गुलामी झेल रहा है। गौरतलब है कि चीन से पाकिस्तान अरबों के कर्ज में डूबा है और उसकी माली हालत बहुत बुरे दौर से गुजर रही है। सेना और आतंक पर पैसा लुटाने वाला पाक अब चीन के गुलामी के कगार पर है गौरतलब है कुल धन का 40 फीसदी यहां सेना और आतंकवादियों पर लुटाया जाता है जबकि यहां कि आम जनता बेरोज़गारी, बीमारी और बदहाली से दो-चार हो रही है। सेना की बैसाखी वाली नई इमरान सरकार आर्थिक दुविधा को समझते हुए कुछ सोच तो रही है पर भारत से तुलना करने में ये भी बाज नहीं आ रहे हैं। फिलहाल भारत और रूस के बीच हुए एस-400 को लेकर अमेरिका के लिए भी संदेष छुपा है और पड़ोसी चीन और पाकिस्तान के लिए भी। जाहिर है परिपक्वता दिखाने का जिम्मा इन्हीं पर है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Monday, October 8, 2018

चुनौती तो एएमयू को धरातल पर उतारने की है

ठीक एक महीने बाद उत्तराखण्ड को बने 18 साल पूरे हो जायेंगे। पड़ताल बताती है कि सामाजिक-आर्थिक विकास को लेकर जो कोषिषें यहां साल 2000 से जारी हैं उसमें सफलता के कषीदे कहीं अधिक गढ़े गये जबकि विफलता की कहानी भी उससे कहीं अधिक प्रतीत होती है। उत्साह और उल्लास से भरे उत्तराखण्ड और यहां की सरकार ने बीते 7 और 8 अक्टूबर को इन्वेसटर्स समिट का आयोजन किया जिसमें यह दावा है कि 80 हजार करोड़ के आसपास के एएमयू पर हस्ताक्षर हुए हैं जबकि षुरूआत में सरकार ने समिट के माध्यम से 40 हजार करोड़ के निवेष का लक्ष्य तय किया था लेकिन यह आंकड़ा अब दोगुना हो चुका है। दो दिनी इस समिट में जिस तर्ज पर हजारों उद्यमियों को पहाड़ी राज्य उत्तराखण्ड में आमंत्रित किया गया और प्रधानमंत्री मोदी की जिस प्रकार की भूमिका थी उसे देखते हुए आयोजन के सफल होने की पूरी गुंजाइष दिखती है पर पूरी तरह सफलता तब मानी जायेगी जब यह धरातल पर उतरे। गौरतलब है कि हजारों करोड़ के निवेष के एएमयू पर हस्ताक्षर तो होते हैं पर इसकी जमीनी हकीकत वक्त के साथ कुछ और देखने को मिलती है। इसके पहले इसी साल के फरवरी माह में लखनऊ में इन्वेसटर्स समिट आयोजित हो चुका है जहां 4 लाख करोड़ से अधिक के निवेष पर निवेषकों ने एएमयू पर हस्ताक्षर किये थे। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी ने साल 2003 में पहली बार वाइब्रेंट गुजरात का आयोजन किया जो इन्वेसटर्स समिट का ही रूप था तब से प्रति 2 वर्श पर यह सिलसिला बना रहा। 2015 में यह बहुत व्यापक पैमाने पर आयोजित किया गया था। इसमें कोई दुविधा नहीं कि प्रदेष को इससे फायदा होता है। गुजरात के कई उद्योग ऐसे समिट के चलते पनपे हैं। उत्तर प्रदेष में भी यह सिलसिला आगे बढ़ चला है इसी क्रम में अब उत्तराखण्ड की बारी है। मगर यह सवाल जिंदा है कि समावेषी विकास से लेकर दीर्घकालिक विकास तक क्या यह उसी तरह से बने रहते हैं जैसा एएमयू हस्ताक्षर के समय रहता है।
18 साल के उत्तराखण्ड ने कुछ पाया है तो कुछ खोया भी है। आज भी तमाम सेक्टर ऐसे हैं जो विकास की बाट जोह रहे हैं। 45 हजार करोड़ रूपए के कर्ज में डूबे इस प्रदेष का वार्शिक बजट भी इसी राषि के इर्द-गिर्द है। यहां की कुल आमदनी का तीन चैथाई रकम नाॅन प्लान पर खर्च हो रहा है। वेतन देने के लिए कभी-कभी कर्ज का सहारा लिया जाता है जबकि प्रति व्यक्ति आय यहां डेढ़ लाख से ऊपर चली गयी है। मौजूदा सरकार प्रचण्ड बहुमत की है 70 के मुकाबले 57 सीट जो 18 सालों में कभी नहीं हुआ। सामाजिक विकास में यह देष में चैथे नम्बर पर है मगर रोजगार से लेकर समावेषी विकास तक इसकी यात्रा अभी बहुत अधूरी है। षिक्षा, चिकित्सा समेत कई आधारभूत संरचनाएं अभी यहां आधी-अधूरी हैं। इन सबके बीच पलायन यहां की सबसे बड़ी विकट समस्या है। 70 फीसदी वन क्षेत्र रखने वाला उत्तराखण्ड भारत ही नहीं दुनिया को पर्यावरण की रक्षा में सहयोग कर रहा है पर यहां के पहाड़ी बाषिन्दे पीने के पानी, सड़क नेटवर्क, बेहतर चिकित्सा और रोजी-रोटी समेत कई समस्याओं के चलते असुरक्षित हैं। पलायन से गांव खाली हो गये। रोचक यह है कि उत्तराखण्ड की तुलना स्विटजरलैण्ड से होती है, यहां पर्यटन के विकास की अपार सम्भावनायें हैं। चारधाम यात्रा दुनिया के लिए आकर्शण का केन्द्र है पर उत्तराखण्ड के भीतर और अंदर माली हालत जस की तस बनी हुई है। इन्वेसटर्स समिट के माध्यम से सरकार न केवल जनता को लुभाने की कोषिष कर रही है बल्कि यह भी संदेष दे रही है कि पहाड़ी राज्य उत्तराखण्ड के विकास के प्रति वह गंभीर है। 17 सौ से अधिक इन्वेसटर्स इस दो दिनी समिट में देखे गये जिसमें देषी और विदेषी दोनों षामिल हैं। यदि निवेष के बताये गये आंकड़े वाकई में सही है और धरातल पर इस पैसे का विस्तार होता है तो यकीनन उत्तराखण्ड की न केवल सूरत बदलेगी बल्कि सीरत भी बदल जायेगी। आषा की जा रही है कि इसके षुरूआती चरण में ही 20 हजार रोजगार मिलेंगे। यदि बताने के हिसाब से हुआ तो युवाओं के चेहरे भी चमक जायेंगे। 
उत्तराखण्ड की उम्मीदों को देष-दुनिया के तमाम निवेषकों ने पंख लगा दिये हैं। दर्जन भर से अधिक क्षेत्रों में निवेष करने की बात कहीं गयी। कई चीजों के लिए खजाना उत्तराखण्ड, कई निवेषकों के लिए चाहत का केन्द्र भी रहा है। चेक गणराज्य के राजदूत ने माना उत्तराखण्ड निवेष के लिए अनुकूल है। बायोमास, सोलर एनर्जी और आॅटोमोबाइल के क्षेत्र में इनकी रूचि दिखी। जापान के राजदूत का मानना है कि जापान और भारत के बीच अच्छे सम्बंध रहे हैं। उत्तराखण्ड में निवेष को जापान सहयोग देगा। सेनिटेषन और एग्रीकल्चर में निवेष का इन्होंने इरादा जताया साथ ही प्रधानमंत्री मोदी को जापान आने का निमंत्रण दिया। वैसे यह सही है कि समिट पर सवाल नहीं उठा सकते निवेषकों द्वारा एएमयू पर जो हस्ताक्षर हुए उस पर भी अभी सवाल नहीं दागे जा सकते जब तक कि इसकी जमीनी हकीकत को न देख लिया जाए। वैसे उद्योगों का लगना किसी भी प्रदेष के लिए सुखद है तो उनका पलायन करना नुकसानदेह साबित होता है। राज्य छोटा हो तो यह चिंता और बढ़ जाती है। उत्तराखण्ड पर यह पूरी तरह लागू होता है। पीएचडी चैम्बर आॅफ काॅमर्स ने दो साल पहले ही सरकार को चेताया था कि उत्तराखण्ड की कई कम्पनियों का उत्पादन तेजी से घट रहा है। 2015 में ईज आॅफ डूइंग बिजनेस में जब उत्तराखण्ड 23वें नम्बर पर था तभी यह साफ था कि राज्य से कुछ उद्योग पलायन करेंगे। हालांकि पलायन का सिलसिला तब षुरू हुआ जब 2009 में विषेश औद्योगिक पैकेज के समाप्त होने की बात आयी। इसकी चलते नया निवेष प्रभावित हुआ पर अगले दस साल तक टैक्स लाभ को देखते हुए कई उद्योगों ने फिलहाल प्रदेष से बाहर की ओर रूख नहीं किया। उत्तराखण्ड में 2003 में नई औद्योगिक नीति आयी थी सस्ती जमीन, सस्ती बिजली, पानी और यहां तक कि इकाई स्थापित करने वालों के लिए टैक्स में छूट दी गयी कईयों ने इसका फायदा उठाया और छूट समाप्त होने के साथ पलायन किया। अब नये सिरे से एक बार फिर विभिन्न क्षेत्रों में उद्योगपतियों को आकर्शित किया जा रहा है चिंता वही है कि क्या 80 हजार करोड़ से अधिक का निवेष जमीन पर उतरेगा यदि उतरेगा तो टिकाऊ कितना होगा। इतना ही नहीं उत्तराखण्ड जिस लाभ को ध्यान में रखकर निवेषकों को गले लगा रहा है क्या उसे रोजी, रोजगार और विकास आदि आने वाले समय में तुलनात्मक बेहतर मिलेगा। 
असल चुनौती तो अब सरकार के सामने पेष आयेगी वह यह कि हजारों करोड़ के निवेष को पूरी तरह धरातल पर भी उतारना होगा। पिछले 18 वर्शों में राज्य में जितने भी उद्योग स्थापित हुए वे लगभग सभी देहरादून, हरिद्वार व उधमसिंहनगर तक ही सीमित रहे जो प्रदेष के मैदानी जिले हैं। पहाड़ी जिलों में उद्योगों की स्थापना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। यदि उद्योगों को पहाड़ चढ़ाने को लेकर निवेषकों को राजी कर भी लिया गया है तो फिर भी सरकार दो-चार नहीं अनगिनत चुनौतियों से जूझेगी। वन-भूमि का हस्तांतरण मुख्य मुद्दा होगा। पारदर्षिता और सुषासन, विद्युत की आपूर्ति, एकल खिड़की की व्यवस्था साथ ही उद्योग और पर्यावरण के बीच सामंजस्य रखने की चुनौती अलग से रहेगी। फिलहाल उत्तराखण्ड में एक नये अध्याय की षुरूआत कर सरकार ने प्रदेष का कायाकल्प करने का मंसूबा दिखाया है। केन्द्र और राज्य दोनों सरकारें दो इंजन की तरह हैं जैसा कि मोदी कहते हैं। यदि निवेषकों के माध्यम से यहां ईंधन भरा गया तो जो उत्तराखण्ड को पंख लगे हैं वह उड़ान भर सकते हैं मगर इस सवाल के साथ कि क्या हकीकत में हस्ताक्षर हुए एएमयू भविश्य में धरातल पर हूबहू उतरेगा।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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