Thursday, December 10, 2015

धुंध छंटने की प्रतीक्षा में विधेयक

संसद का षीतकालीन सत्र लगभग आधा रास्ता तय कर चुका है पर विधेयकों को लेकर कोहरा छंटने के बजाय कहीं अधिक गहराता जा रहा है। ऐसे में सत्ता पक्ष की बेचैनी और विपक्ष की बेरूखी स्पश्ट देखी जा सकती है। दरअसल संसद राश्ट्र की आवाज होती है और राश्ट्र के नागरिकों का दर्पण भी। यहां जब तक सामने के आईने में न निहारा जाए तब तक लोकतंत्र पूरा नहीं पड़ता। यही लोकतंत्र की विषेशता भी है। चूंकि बहुमत वाली मोदी सरकार की ऊपरी सदन में जरूरी संख्याबल नहीं है जिसके चलते विधेयक फलक पर आने के बजाय विपक्षी चक्रव्यूह में उलझे हैं। बीते 26 नवम्बर को षीतकालीन सत्र का आगाज हुआ जिसके षुरूआती दो दिन संविधान दिवस को समर्पित थे। वर्श 1949 की इसी तारीख को देष के संविधान के कुछ उपबन्ध लागू हुए थे जबकि 26 जनवरी, 1950 को पूरा संविधान धरातल पर आया था। यह महज संयोग है कि इसी 26 नवम्बर को मोदी सरकार के ठीक डेढ़ वर्श भी पूरे हुए। इन डेढ़ वर्शों के कार्यकाल में सरकार कई खट्टे-मीठे अनुभवों से गुजरी जिसमें सर्वाधिक दिक्कत का सामना विधेयकों को कानूनी रूप न दिला पाने का रहा है। सत्र के  षुरू में प्रधानमंत्री ने ‘आइडिया आॅफ इण्डिया‘ पर जोरदार भाशण तो दिया पर असल बात तब बनेगी जब लम्बित पड़े विधेयक कानूनी रूप अख्तियार करेंगे। 23 दिसम्बर तक चलने वाले इस 27 दिवसीय षीत सत्र में कई विधेयक सरकार अधिनियमित कराना चाहेगी पर सफलता दर क्या होगी ये आखिर में ही पता चलेगा।
नीति एवं कानून निर्माण सरकार की सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्रियाओं में से एक है। यह ऐसा माध्यम है जिसके सहारे जनहित को सुनिष्चित किया जाता है। सरकार के सामने कई आन्तरिक तथा बाह्य समस्याओं के साथ लोक कल्याणकारी दायित्वषीलता भी होती है। इसी को देखते हुए नीतियों की सख्त आवष्यकता पड़ती है। हालांकि संसद का जो माहौल इन दिनों है उसे देखते हुए उम्मीद पूरी होगी कहना मुष्किल है। इसके पूर्व 23 दिन के मानसून सत्र के 30 विधेयक अधिनियमित होने के मामले में सूखे ही रहे। सवाल है क्या जारी षीत सत्र में इन विधेयकों से कोहरा छंटेगा, यह विपक्ष पर निर्भर करेगा? फिलहाल दर्जनों विधेयक सदन में लम्बित हैं जिसमें फिलहाल जीएसटी सर्वाधिक संवेदनषील है। इसकी मुख्य वजह इसका आर्थिक विकास का धुरी होना है। इसकी गम्भीरता को देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी से सद्भावना बैठक भी की। हालांकि मनमोहन सिंह जीएसटी को आर्थिक विकास के धारा में मानते हैं और इसके सकारात्मक पहलू से सहमत हैं पर कांग्रेस की आनाकानी और राहुल गांधी के रवैये को देखते हुए मामला खटाई में ही है। इसी बीच विदेष राज्यमंत्री वी.के सिंह को लेकर कांग्रेस और बसपा का आक्रामक रूख रही सही कसर पूरी कर सकता है। रियल स्टेट विधेयक से लेकर भू-अधिग्रहण, बीमा और व्हिसल ब्लोअर सुरक्षा (संषोधन) सहित दर्जनों विधेयक कानून बनने की राह पर हैं पर राजनीतिक एका में कमी के चलते मामला अधर में है। बहरहाल देष की जनता जमीनी सुधार की प्रतीक्षा में है। सरकार से अच्छे दिन की दरकार रखती है पर असहिश्णुता, असंवेदनषीलता और कई अनचाही चर्चाओं के चलते संसद का बेषकीमती वक्त भी इसमें खपत हो रहा है। इसके पूर्व का मानसून सत्र भी ललित मोदी और व्यापमं घोटाले सहित तमाम विवादित बयानों के चलते गैर उत्पादक ही रहे जबकि बजट सत्र विधेयकों के मामले में आई-गई तक ही सीमित रहा। ऐसे में सरकार क्या विकल्प चुने चिंता लाजमी है। अध्यादेष भी बेहतर विकल्प नहीं सिद्ध हो सकते  क्योंकि इनकी भी सीमाएं हैं। राश्ट्रपति भी अध्यादेष की प्रथा को सही नहीं मानते।
सवाल तो सरकार के साथ विरोधियों पर भी उठेगा। लोकतांत्रिक कल्याणकारी राज्य के विकास में चाहे बहुमत वाली सरकार हो या सामने बैठा विपक्ष, इस विरोधाभास में न रहे कि प्रतिउत्तरदायिता केवल बहुमत वाले की है। एक लोकतांत्रिक सरकार में धारणा यह है कि वे जनता की सेवा के लिए है पर क्या विपक्ष में रहकर यही भावना केवल विरोध की रह जाती है? देखा गया है कि विरोध की राजनीति के चलते कई अच्छे काज प्रभावित हो जाते हैं। फिलहाल हम समाज के तीन प्राथमिक कारकों में जनहित, लोककल्याण और विकास के संतुलन को प्राथमिकता दें तो भी इसकी प्राप्ति काफी हद तक विधेयकों के अधिनियमित होने से ही सम्भव है पर यह कैसे होगा, मामला बहुत साफ नहीं है। मंगलवार को तो इस पर एक और कोहरे की परत तब चढ़ गयी जब सदन में मुख्यतः ऊपरी सदन में विरोधियों का काफी हंगामा बरपा वजह नेषनल हैराल्ड मामले में हाईकोर्ट दिल्ली के समक्ष सोनिया और राहुल गांधी की पेषगी को लेकर था। हालांकि अब यह तारीख 19 दिसम्बर कर दी गयी है। कांग्रेस का आरोप है कि जीएसटी पर दबाव बनाने के लिए सरकार ऐसा कर रही है। दरअसल नेषनल हेराल्ड अखबार प्रकाषित करने वाली संस्था की दो हजार करोड़ रूपए की सम्पत्ति पर अवैध कब्जे का आरोप सोनिया और राहुल गांधी पर है। इस मामले में याचिकाकत्र्ता भाजपा के सुब्रमण्यम स्वामी हैं जिसके चलते इसे राजनीतिक रंग दिया जा रहा है और इसके कारण सदन एक बार फिर अनचाही चर्चा की षिकार होने की ओर है। सवाल है ऐसे में विपक्षी समर्थन को जुटाना कैसे सम्भव होगा।
विदित है कि सत्ताधारी एनडीए के पास राज्यसभा में संख्याबल की कमी है। सरकार इसके पहले भी एड़ी-चोटी का जोर लगाकर देख लिया है पर बात नहीं बनी। क्षेत्रीय पार्टियों की पड़ताल करें तो सपा के 15, तृणमूल कांग्रेस के 12, बसपा के 10, बीजू जनता दल के 6 और षरद पंवार की पार्टी के 6 सदस्य और द्रमुक के 4 को जोड़ दिया जाए तो बात काफी हद तक बन सकती है पर क्या ये राजनीतिक दल सरकार के समर्थन में आयेंगे। यह सही है कि कांग्रेस सहित तमाम दल जीएसटी को लेकर सरकार का साथ देने से बहुत देर तक पीछे नहीं रह सकते हैं। अन्य विधेयकों में खामी ढूंढ़ने वाले विरोधी भी अच्छी तरह जानते हैं कि जीएसटी देष के आर्थिक हित में है। फिलहाल इस सप्ताह जीएसटी बिल को आगे बढ़ाने वाली प्रतिबद्धता के बीच नीति आयोग के अरविन्द पनगड़िया ने इसके पास होने का भरोसा जताया है। यह अनुमान अधिक त्रुटिपूर्वक नहीं होगा कि कांग्रेस जीएसटी की खामियों की वजह से नहीं बल्कि राजनीतिक कारणों से आनाकानी में फंसी है। यदि खामियां हैं तो सरकार इसे दूर करने को लेकर पहले से ही तैयार है। इस सत्र में सरकार की कोषिष है कि जीएसटी कानूनी रूप ले ताकि आने वाले वित्त वर्श अर्थात् 1 अप्रैल, 2016 से इसे लागू किया जा सके जैसा कि प्रधानमंत्री कह चुके हैं। इस बीच दर्जनों लम्बित पड़े विधेयकों का क्या होगा, उन पर कैसे राय षुमारी बनेगी, फिलहाल अभी कहना कठिन है पर यह तय है कि सरकार उसके लिए भी अवसर खोजेगी। निहित मापदण्डों में ऐसा कम ही रहा है कि पूर्ण बहुमत वाली सरकार गैर मान्यता प्राप्त विपक्ष के सामने इतनी बेबस रही हो कि एक बेहतर ‘थिंक टैंक‘ साबित होने के लिए इतने पापड़ बेलने पड़े हों। संदर्भ तो यह भी है कि कुछ विरोध, विरोध के लिए भी हो रहे हैं न कि कानून में गड़बड़ी के चलते।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

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