Monday, December 28, 2015

कितनी कारगर है सरकार की सुशासन पर चिंता

सुषासन के लिए यह आवष्यक है कि प्रषासन का तरीका परम्परागत न हो बल्कि ये नये ढांचों, पद्धतियों तथा कार्यक्रमों को अपनाने के लिए भी तैयार हो। सुषासन के कुछ निर्धारक तत्व हैं जो वस्तुतः सुषासन के साध्य भी हैं जिसमें नौकरषाही की जवाबदेयता, सूचना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सरकार और सिविल सोसायटी के मध्य सहयोग के साथ मानवाधिकारों का संरक्षण भी षामिल है। इसके अतिरिक्त इसमें सूचना का अधिकार, नागरिक घोशणापत्र सहित सूचना प्रौद्योगिकी आदि का समावेषन भी है। नागरिकों के सषक्तिकरण, नागरिक प्रषासन अन्र्तसम्बन्ध, पारदर्षिता, संवेदनषीलता व भ्रश्टाचार में कमी का संदर्भ भी इसमें निहित लक्षण है। सुषासन को लेकर विष्व बैंक की संकल्पना का निहित पक्ष यह है कि यह जन केन्द्रित, लोक कल्याणकारी, पारदर्षी व जवाबदेय षासन व्यवस्था है जिसमें लोकतांत्रिक मूल्य गुणात्मक माने जाते हैं। भारत विकासषील देष है जबकि सुषासन की अवधारणा विकासषील देषों की पारिस्थितिकी को बिना ध्यान में रखकर दी गयी है। ऐसे में इस पर यह आरोप रहता है कि यह विकसित देषों के हितों का संवर्द्धन करता है। प्रधानमंत्री मोदी सुषासन के मामले में अतिरिक्त चिंता जता रहे हैं जिसका निहित मापदण्डों में ‘मेक इन इण्डिया‘ से लेकर ‘डिजिटल इण्डिया‘ तक देखा जा सकता है। सुषासन के लिए महत्वपूर्ण कदम सरकार की प्रक्रियाओं को सरल बनाना भी है ताकि पूरी प्रणाली को पारदर्षी एवं तीव्र बनाया जा सके। सरकार जन षिकायतों के निपटान को जिम्मेदार प्रषासन का एक महत्वपूर्ण घटक मानती है। ऐसे में मन्त्रालयों को यह निर्देष दिया जाना कि षिकायतें प्राथमिकता पर हों सुषासन की सही राह कही जा सकती है।
दषकों पहले कल्याणकारी व्यवस्था के चलते नौकरषाही का आकार बड़ा कर दिया था और विस्तार भी कुछ अनावष्यक हो गया था। 1991 में उदारीकरण के फलस्वरूप प्रषासन के आकार का सीमित किया गया एवं बाजार की भूमिका को बढ़ा दिया गया। वैष्विकरण के चलते कई अमूल-चूल परिवर्तन भी हुए। विष्व की अर्थव्यवस्था एवं प्रषासन अन्र्तसम्बन्धित होने लगे जिसके चलते सार्वजनिक क्षेत्र एक नये माॅडल की ओर झुकने लगे। सुषासन के मूल्य और मायने 21वीं सदी के इस दौर में इसलिए भी अधिक प्रासंगिक हुए क्योंकि सुधारात्मक प्रयासों के तहत बाजार और निजी क्षेत्रों की भूमिका बढ़ी है। नागरिकों की मूल्य प्रत्याषा में भी इजाफा हुआ है। ऐसे में लोक सेवाओं को अधिक गुणवत्तापरक करना तुलनात्मक जरूरी हुआ। बाजारवाद के बढ़ने से सरकार की भूमिका न्यूनवाद की ओर भी गयी। लोक प्रषासन में सुधार करते हुए नव लोक प्रबन्ध की अवधारणा का परिप्रेक्ष्य लाया गया। इस सुधार प्रक्रिया को सबसे पहले ब्रिटेन में मार्गेट थैचर और अमेरिका में रोनाल्ड रीगन ने अपनाया था। फिलहाल वर्तमान मोदी का षासन एक अच्छा सुषासन कैसे दे इन दिनों चिंता का सबब है और इस बात का चिंतन भी है कि इसकी खुराक कहां से पूरी होगी। योजना आयोग के बदले नीति आयोग जैसे ‘थिंक टैंक‘ लाने के पीछे यही उद्देष्य था, कौषल विकास, मानव विकास, मजबूत विकास आदि की ओर रूख करना सुषासन की सरकारी चिंता ही है। भारत सरकार के मंत्रालय और विभागों को उनके कार्यक्षेत्रों और उनकी आंतरिक प्रक्रियाओं पर न केवल गौर करने बल्कि सरल और तर्कसंगत बनाने के लिए भी जो जोड़-जुगाड़ हो रहा है वह चिंता भी सुषासन से जोड़ी जा सकती है। वैसे तो नेहरू के काल से ही बहुलवादी चिंताओं से देष षुमार रहा है। गरीबी, अज्ञानता, बीमारी और असमानता को खत्म करने की वकालत भी की जाती रही है पर आज की तारीख में भी ये चिंताएं न केवल बनी हुई हैं बल्कि चुनौती बनी हुई हैं। ऐसे में सवाल यही होगा कि जब तक इनके खात्मे की अवधारणा नहीं आयेगी तब तक सुषासन पर की गयी चिंता बेमानी ही कहीं जायेगी। निहित संदर्भ यह भी रहेगा कि भारी पैमाने पर ग्रामीण समस्याएं अभी भी विद्यमान हैं जिसमें बुनियादी जीवन की जरूरतें हाषिये पर हैं। भले ही डिजिटल गवर्नेंस के चलते आंकड़े बेहतर हो गये हैं पर यहां जीवन की कसौटी अभी भी जरजर और दूभर किस्म की है जिसे लेकर चिंता लाजमी है।
बीते 2014 के 25 दिसम्बर को प्रधानमंत्री मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी के जन्मदिन को सुषासन दिवस के रूप में प्रतिश्ठित किया था कहा जाए तो इसी दिन सुषासन का वाजपेयीकरण हुआ। मोदी सरकार 28 दिसम्बर को डिजिटल गवर्नेंस परियोजना भी लांच करेगी। फिलहाल जिस प्रकार सुषासन को लेकर चिंतन चाहिए वैसा अभी नहीं दिखाई देता क्योंकि सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है और जब तक लोगों की बुनियादी आकांक्षाओं और आवष्यक विकास अधूरे रहेंगे तब तक इसे पूरा पड़ता हुआ नहीं माना जायेगा। ऐसे में ई-गवर्नेंस इसकी भरपाई है हालांकि विगत् कुछ वर्शों से ई-एजुकेषन, आॅनलाइन मेडिकल परामर्ष, ई-हैल्थ, ई-कोर्ट, ई-पुलिस, ई-जेल, ई-बैंकिंग और ई-बीमा के चलते सुषासन को सुसज्जित किये जाने का प्रयास चल रहा है पर देष में व्यापक पैमाने पर किसानों की आत्महत्या, जन-जीवन को लेकर सुचिता का आभाव, मानव विकास सूचकांक का पिछड़ापन, लिंगानुपात का गिरा होना तथा कई वैष्विक स्तर की चुनौतियों में मीलों पीछे रहना इसमें निहित दोश की तरह हैं। सुषासन का तात्पर्य इतना ही नहीं है कि कोई सरकार या सामाजिक संगठन किस प्रकार आपसी अभिक्रिया करते हैं बल्कि जन सुरक्षा, कानून का षासन, नागरिक समाज के लिए सहायता, पर्यावरण के संदर्भ में बेहतर सोच और अलिखित आचार संहिताएं भी इसे पुख्ता करती हैं। प्रधानमंत्री मोदी ‘मैन आॅफ एक्षन‘ की अवधारणा में सुसंगत हैं पर नौकरषाही का औपनिवेषिक धारणा से अभी पीछा नहीं छूटा है जो सुषासन के लिए बड़ा खतरा है। सुषासन मांगने की नहीं, देने की चीज है मगर देष में कानून और व्यवस्था हो या बुनियादी आवष्यकता, सड़क पर उतरने से ही पूरी होती है। लोकपाल अन्ना आंदोलन के चलते तो जुवेनाइल जस्टिस आम आदमी के आंदोलन के चलते सम्भव हुआ है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

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