Thursday, September 29, 2022

विकास की उलझन सुलझाने में कारगर गांधी का सर्वोदय


गांधी दर्षन, समावेषी विकास और सुषासन का गहरा सम्बंध है। यदि समावेषी विकास पटरी पर है तो सुषासन का स्पीड और स्केल में रहना तय है जो गांधी दर्षन में निहित सर्वोदय से सुगम हो सकता है। मौजूदा वक्त सुषासन की उस धारा को तीव्र करने से युक्त होना चाहिए जहां से सु-जीवन प्रखर रूप ले ले। तब कहीं जाकर गांधी दर्षन को नया उठान मिलेगा। इसके लिए केवल परम्परागत नहीं बल्कि सरकार को उत्प्रेरित होना होगा। उत्प्रेरित सरकार जो अपनी भूमिका ‘नाव खेने‘ की जगह ‘स्टेयरिंग‘ संभालने के रूप में बदल लेती है। जब सड़क खराब हो तो ब्रेक और एक्सेलेरेटर पर कड़ा नियंत्रण और जब सब कुछ अनुकूल हो तो सुगम और सर्वोदय से भरी यात्रा निर्धारित करता है। जाहिर है ऐसी षासन पद्धति में लोक कल्याण की मात्रा में बढ़त और लोक सषक्तिकरण के आयामों में उभार को बढ़ावा मिलता है। सु-जीवन कोई आसान व्यवस्था नहीं है यह बड़े मोल और बड़े काज से सुनिष्चित होगा। जिसक कदर इन दिनों कमाई और महंगाई के बीच अंतर बढ़ा है वह सुजीवन के बीच और गांधी के सर्वोदय के लिए षुभ संकेत तो नहीं देता है। सरकार जनहित में कितना कदम बढ़ा चुकी है यह तब तक आभास नहीं किया जा सकता जब तक कदम सही से रखे न गये हो। इस बात का सभी समर्थन करेंगे कि 21वीं सदी के इस 22वें साल पर तुलनात्मक विकास का दबाव अधिक है क्योंकि इसके पहले का वर्श महामारी के चलते उस आईने की तरह चटक गया था जिसमें सूरत बिखरी-बिखरी दिख रही है। यदि इसे एक खूबसूरत तस्वीर में तब्दील किया जाये तो ऐसा सर्वोदय और सषक्तिकरण के चलते होगा जिसकी बाट बड़ी उम्मीद से जनता जोह रही है जो सर्वोदय और सुषासन पर पूरी तरह टिका है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में गांधी दर्षन जिस दृश्टि से जांचा और परखा जाता है उसमें बहुआयामी दृश्टिकोण न केवल संलिप्त हैं बल्कि बुनियादी और आसान जीवन के लक्षण भी निहित हैं। गांधी के लिए यह समझना आसान था कि भारतीयों को आने वाली सरकारों से क्या अपेक्षा रहेगी और षायद वे इस बात से भी अनभिज्ञ नहीं थे कि सरकारें छल-कपट से मुक्त नहीं रहेंगी। इसलिए उन्होंने कहा था कि मजबूत सरकारें असल में जो करते हुए दिखाती हैं वैसा होता नहीं है।
सर्वोदय सौ साल पहले 1922 में उभरा एक षब्द है जो गांधी दर्षन से उपजा है मगर इसकी प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है। एक ऐसा विचार जिसमें सर्वभूत हितेष्ताः को अनुकूलित करता है जिसमें सभी के हितों की भारतीय संकल्पना के अलावा सुकरात की सत्य साधना और रस्किन के अंत्योदय की अवधारणा मिश्रित है। सर्वोदय सर्व और उदय के योग से बना षब्द है जिसका संदर्भ सबका उदय व सब प्रकार के उदय से है। यह सर्वांगीण विकास को परिभाशित करने से ओतप्रोत है। आत्मनिर्भर भारत की चाह रखने वाले षासन और नागरिक दोनों के लिए यह एक अन्तिम सत्य भी है। समसमायिक विकास की दृश्टि से देखें तो समावेषी विकास के लिए सुषासन एक कुंजी है लेकिन सर्वज्ञ विकास की दृश्टि से सर्वोदय एक आधारभूत संकल्पना है। बेषक देष की सत्ता पुराने डिजाइन से बाहर निकल गयी है पर कई चुनौतियों के चलते समस्या समाधान में अभी बात अधूरी है। सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है जिससे लोक कल्याण को बढ़त मिलती है तत्पष्चात् नागरिक सषक्तिकरण उन्मुख होता है। गौरतलब है बेरोज़गारी, बीमारी, रोटी, कपड़ा, मकान, षिक्षा, चिकित्सा जैसी तमाम बुनियादी समस्याएं अभी भी चोटिल हैं। गरीबी और भुखमरी की ताजी सूरत भी स्याह दिखाई देती है। स्वतंत्रता के बाद 15 मार्च 1950 को योजना आयोग का परिलक्षित होना तत्पष्चात् प्रथम पंचवर्शीय योजना का कृशि प्रधान होना और 7 दषकों के भीतर ऐसी 12 योजनाओं को देखा जा सकता है जिसमें गरीबी उन्मूलन से लेकर समावेषी विकास तक की भी पंचवर्शीय योजना षामिल है। बावजूद इसके देष में हर चौथा व्यक्ति अषिक्षित और इतने ही गरीबी रेखा के नीचे हैं जो गांधी दर्षन के लिहाज से उचित करार नहीं दिया जा सकता।
सुषासन लोक विकास की कुंजी है जो षासन को अधिक खुला और संवेदनषील बनाता है। ऐसा इसलिए ताकि सामाजिक-आर्थिक उन्नयन में सरकारें खुली किताब की तरह रहें और देष की जनता को दिल खोलकर विकास दें। मानवाधिकार, सहभागी विकास और लोकतंात्रिकरण के साथ सर्वोदय व सषक्तिकरण का महत्व सुषासन की सीमा में ही हैं। सुषासन के लिए महत्वपूर्ण कदम सरकार की प्रक्रियाओं को सरल बनाना भी होता है और ऐसा तभी सम्भव है जब पूरी प्रणाली पारदर्षी और ईमानदार हो। कानून ने विवेकपूर्ण और तर्कसंगत सामाजिक नियमों और मूल्यों के आधार पर समाज में एकजुटता की स्थापना की है और षायद ही कोई क्षेत्र ऐसा हो जो कानून से अछूता हो। कानून और कानूनी संस्थाएं, संस्थाओं के कामकाज में सुधार लाने, सामाजिक-आर्थिक विकास को बढ़ाने और समाज में न्याय प्रदान करने के महत्वपूर्ण संदर्भ रोज की कहानी है। करोड़ों की तादाद में जन मानस षासन और प्रषासन से एक अच्छे सुषासन स्वयं के लिए सर्वोदय और अपने हिस्से के सषक्तिकरण को लेकर रास्ते पर खड़ा मिलता है। ऐसे में बड़ा सवाल यह खड़ा होता और आगे भी खड़ा होगा कि अंतिम व्यक्ति को उसके हिस्से का विकास कब मिलेगा। वर्तमान दौर कठिनाई का तो है पर बुनियादी विकास ऐसे तथ्यों और तर्कों से परे होते हैं। देष में नौकरियों के 90 प्रतिषत से ज्यादा अवसर सूक्ष्म, छोटे और मझोले उद्यम (एमएसएमई) क्षेत्र मुहैया कराता है। गांधी के लघु और कुटीर उद्योग की अवधारणा का पूरा परिप्रेक्ष्य इसमें प्रासंगिक होते देखा जा सकता है। जब हम समावेषी विकास की बात करते हैं तब हम गांधी विचारधारा के अधिक समीप होते हैं और जब सतत विकास को फलक पर लाने का प्रयास होता है तो यह पीढ़ियों को सुरक्षित करने वाला गांधी दर्षन उमड़ जाता है।
सामाजिक-आर्थिक प्रगति सर्वोदय का प्रतीक कहा जा सकता है। इसी के भीतर समावेषी विकास को भी देखा और परखा जा सकता है। मेक इन इण्डिया, स्किल इण्डिया, डिजिटल इण्डिया, स्टार्टअप इण्डिया और स्टैण्डअप इण्डिया जैसी योजनाएं भी एक नई सूरत की तलाष में है। जिस तरह अर्थव्यवस्था और व्यवस्था को चोट पहुंची है उसकी भरपाई आने वाले दिनों में तभी सम्भव है जब अर्थव्यवस्था नये डिजाइन की ओर जायेगी। कहा जाये तो ठहराव की स्थिति से काम नहीं चलेगा। सवाल तो यह भी है कि क्या बुनियादी ढांचे और आधारभूत सुविधाओं से हम पहले भी भली-भांति लैस थे। अच्छा जीवन यापन, आवासीय और षहरी विकास, बुनियादी समस्याओं से मुक्ति और पंचायतों से लेकर गांव तक की आधारभूत संरचनायें परिपक्व थी। इसका जवाब पूरी तरह न तो नहीं पर हां में भी नहीं दिया जा सकता। कुल मिलाकर विकास के सभी प्रकार और सर्वज्ञ विकास और सब तक विकास की पहुंच अभी अधूरी है और इसे पूरा करने का दबाव आगे आने वाले वर्शों पर अधिक इसलिए रहेगा क्योंकि घाटे की भरपाई तो करनी ही पड़ेगी। विकास कोई छोटा षब्द नहीं है भारत जैसे देष में इसके बड़े मायने हैं। झुग्गी-झोपड़ी से लेकर महलों तक की यात्रा इसी जमीन पर देखी जा सकती है और यह विविधता देष में बरकरार है ऐसे में विकास की विविधता कायम है। यह जरूरी नहीं कि महल सभी के पास हो पर यह बिल्कुल जरूरी है कि बुनियादी विकास से कोई अछूता न रहे। जब ऐसा हो जायेगा तब गांधी का सर्वोदय होगा और तब लोक सषक्तिकरण होगा और तभी उत्प्रेरित सरकार और सुषासन से भरी धारा होगी।
 दिनांक : 29/09/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

Thursday, September 22, 2022

सुशासन के लिए सशक्त बने मीडिया

3 दिसम्बर 1950 को देष के प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू ने अपने एक सम्बोधन में कहा था मैं प्रेस पर प्रतिबंध लगाने के बजाय उसकी स्वतंत्रता के अनुचित इस्तेमाल के तमाम खतरों के बावजूद पूरी तरह स्वतंत्र प्रेस रखना चाहूंगा। इस कथन के पीछे षायद एक बड़ा कारण यह भी है कि औपनिवेषिक काल में अंग्रेजों के प्रतिबंधों से प्रेस और मीडिया की स्थिति और ताकत दोनों का अंदाजा नेहरू को था। उक्त कथन के आलोक में यह समझना भी कहीं अधिक प्रभावषाली है कि प्रेस व मीडिया की भूमिका न केवल लोकतंत्र व सुषासन की मजबूती के लिए बल्कि देष के हर पक्ष को सषक्तिकरण के मार्ग पर ले जा सकता है। गौरतलब है कि इसकी प्रमुखता को सैकड़ों वर्शों से इंगित किया जाता रहा है। औपनिवेषिक सत्ता के दिनों में प्रेस पर जो लगाम अंग्रेजी सरकारों ने लगाया उससे स्पश्ट है कि सरकारें प्रेस से घबराती तो हैं। स्वतंत्र भारत में इस पर राय अलग-अलग देखी जा सकती है। मगर दो टूक यह भी है कि जब यही मीडिया जनता की आवाज के बजाय सरकारों के सुर में सुर मिलाने लगे तो इसके मायने भी उलटे हो सकते हैं। पत्रकारिता समाज का ऐसा दर्पण है जिसमें समस्त घटनाओं की सत्य जानकारी की अपेक्षा रहती है मगर जब इसी आइने में सूरत समुचित न बन पाये तो लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ खतरे में होता है। भारतीय संविधान में मूल अधिकार के अंतर्गत अनुच्छेद 19(1)(क) में वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में ही प्रेस की स्वतंत्रता समझी जाती है। हाल के कुछ वर्शों में यह देखने को मिला है कि रिपोर्ट विदआउट बॉर्डर्स द्वारा प्रकाषित विष्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की रैंकिंग निरंतर कम होती जा रही है। हालांकि भारत सरकार विष्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक की रिपोर्ट पर सवाल उठाते हुए उसे मानने से इंकार करती रही है। इस संदर्भ में सरकार की ओर से संसद में लिखित जवाब भी दिया जा चुका है जिसमें यह कहा गया है कि इसका प्रकाषन एक विदेषी गैर सरकारी संगठन द्वारा किया जाता है और इसके निश्कर्शो से सरकार कई कारणों से सहमत नहीं है। हालांकि यह सरकार की ओर से अपनी दलील है मगर यह समझना कहीं अधिक उपयोगी है कि मीडिया एक उत्तरदायी व जवाबदेही से जुड़ा स्तम्भ है जिसके बेहतरी से देष में सुषासन की बयार बहायी जा सकती है।
पड़ताल बताती है कि साल 2022 में 180 देषों की सूची में भारत को विष्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में  150वां स्थान मिला जबकि यह 2021 में 142वां था और 2016 में यही रैंकिंग 133 पर थी। जाहिर है इस रैंकिंग के आधार पर प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर यह सबसे खराब प्रदर्षन कहा जायेगा। चौंकाने वाला तथ्य यह है कि नेपाल रैंकिंग के मामले में 30 पायदान की छलांग लगाते हुए 76वें स्थान पर है लेकिन अन्य पड़ोसी देषों में हालत इस मामले में भारत से भी गई गुजरी है। चीन विष्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में 180 के मुकाबले 175वें स्थान पर है। विदित हो कि चीन का मीडिया की अपनी कोई स्वतंत्र पहचान नहीं है। वहां का ग्लोबल टाइम्स सरकार का भोंपू है और जो उसे बताना है वही दुनिया के लिए खबर है। चीन की विष्वसनीयता को लेकर दुनिया अनभिज्ञ नहीं है। प्रेस के मामले में चीन यदि 180वें स्थान पर भी होता तब भी अचरज न होता। फिलहाल इसी क्रम में बांगलादेष 162वें और पाकिस्तान 157 नम्बर पर है। हालांकि श्रीलंका भारत से थोड़ा बेहतर हुए है 146वें पायदान पर है। मीडिया का अपनी सम्पूर्ण भूमिका में रहना इसलिए भी आवष्यक है क्योंकि उसके सरोकार में जनता होती है। हम सरकारों से अपेक्षा करते हैं कि अधिक लोक कल्याणकारी, मजबूत नियोजनकर्त्ता, जनता के प्रति संवेदनषील तथा जवाबदेही व पारदर्षिता के पैमाने पर खरी उतरे ताकि जन जीवन को जरूरी चीजें मिले और सुषासन के साथ सुजीवन का विकास हो। मगर सरकार के कार्यक्रमों की जानकारी जनता तक पहुंचाने में मीडिया एक सषक्त माध्यम है और इससे भी अपेक्षा रहती है कि सटीक, समुचित, स्पश्ट और बिना लाग-लपेट इसका प्रदर्षन जनहित में हुआ।
यह अतार्किक नहीं कि मौजूदा समय में मीडिया पर चौतरफा सवाल उठे हैं जिससे क्या यह संकेत समझना सही रहेगा कि मीडिया की जिम्मेदारी अब सरकार को जवाबदेह ठहराना नहीं रह गया है। वैसे मीडिया स्वतंत्र समाज को जोड़े रखने की कूबत रखती है। महात्मा गांधी कहते थे कि यही वह खुली खिड़की है जो दुनिया की खुली हवा को खुलकर घर में आने देती है। देखा जाये तो वैष्विक हालात में परिवर्तन हो रहे हैं देष प्रथम की नीति पर आगे बढ़ रहे हैं। भारत प्रथम को प्राथमिकता देते हुए आगे बढ़ने की कवायद हर लिहाज़ से उचित है मगर यह तभी संभव है जब जनता के बजाय नीतियों के बखान में ताकत झोंक रही मीडिया अपनी भूमिका में आती गिरावट के प्रति चौकन्नी होगी। 1975 से 1977 के आपातकाल के दौर में प्रेस पर लगे पूर्ण सेंसरषिप और षत्रुतापूर्ण वातावरण के प्रभाव से उबरने के लिए भारत की मीडिया ने हमेषा ही खुद की पीठ थपथपाई है। अब दौर बदल रहा है डिजिटल टेक्नोलॉजी पारम्परिक मीडिया को चुनौती दे रहा है ऐसे में सरकारी विज्ञापनों पर बढ़ती निर्भरता मीडिया को बदलने के लिए मजबूर कर रहा है। यह कहना सही होगा कि मीडिया वॉच डॉग की भूमिका में सरकार से सवाल करने के मामले में कदम पीछे तो खींचा है। हमें इस बात से आष्चर्य नहीं होना चाहिए कि पत्रकार और पत्रकारिता के प्रतिमान में बदलाव आया है बल्कि हमें इस परिमार्जन को समझने की आवष्यकता है कि क्या इस बदलाव से वैष्विक फलक पर देष की मजबूती और आन्तरिक दृश्टि से जनता में बड़ा अंतर तुलनात्मक है।
डिजिटल क्रान्ति की तकनीकों ने मीडिया के क्षेत्र को पूरी तरह बदल दिया। कभी अखबार फिर टेलीविजन और रेडियो के बाद सोषल मीडिया और न्यू मीडिया की अवधारणा भी इस समय देखी जा सकती है। विज्ञापन के प्रभाव से यह क्षेत्र भी अछूता नहीं है। कभी-कभी तो अखबारों में विज्ञापन अधिक और खबरे कम रहती हैं और अब तो खबरें भी प्रायोजित देखी जा रही हैं जिसकी सत्यता को लेकर संदेह बरकरार रहता है। गरीबों तक कैमरा कितना पहुंच रहा है यह पड़ताल का विशय है मगर बेहाल जिन्दगी के बीच खबरें यह बता रही हैं कि सब ठीक-ठाक है। टीवी डिबेट तो मानो आम जनसरोकारों से कट ही गयी हो। फायदे की सियासत के बीच मीडिया घराने भी लाभ को यदि तवज्जो देने लगेंगे तो लोकतंत्र और आम जनता का क्या होगा। जिस सुषासन की कसौटी पर देष को सरकारें कसना चाहती हैं उसमें लोक सषक्तिकरण ही केन्द्र में है। यदि लोकतंत्र को समुचित और सषक्त कर लिया जाये जो बिना मीडिया की सषक्त भूमिका के सम्भव नहीं है तो सुषासन की दिषा में सरकारों का पूरा नजरिया मोड़ा जा सकता है और इसका लाभ दसों दिषाओं में सम्भव है। मीडिया ताकत के साथ-साथ ऊर्जा भी है जिसमें सरकार और जनता दोनों की भलाई निहित है पर यह तो इसे लेकर कौन, कितना चैतन्य और सचेत है लाभ उसी के अनुपात में सम्भव है।

दिनांक : 22/09/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

Monday, September 19, 2022

जनसंख्या नीति और सुशासन


वैष्विकरण के इस युग में जहां सु-जीवन और सु-षासन की प्राप्ति हेतु नित नये प्रयोग जारी हैं वहीं बढ़ती जनसंख्या ने नई तरह की विवेचना भी सत्ता और जनमानस के समक्ष खड़ी की है। जनसंख्या और सुषासन का गहरा सम्बंध है। सुषासन एक लोकप्रवर्धित अवधारणा है जिसके केन्द्र में जन सरोकार होता है। इसके निहित भाव में गांधी का सर्वोदय षामिल देखा जा सकता है। लोक सषक्तिकरण और जनसंख्या विस्फोट एक-दूसरे के विपरीत षब्द हैं। सुषासन लोक सषक्तिकरण का परिचायक है जबकि जनसंख्या विस्फोट समावेषी विकास के लिए चुनौती है। सुषासन उसी अनुपात में चाहिए जिस अनुपात में जनसंख्या है साथ ही समावेषी विकास का ढांचा और सतत् विकास की प्रक्रिया इस प्रारूप में हो कि समाज आदर्ष न सही व्यावहारिक रूप से सुव्यवस्थित और सु-जीवन के योग्य हो। इस सुव्यवस्था को प्राप्त करने में जनसंख्या नीति एक कारगर उपाय हो सकता है। यदि इसके गम्भीर पक्ष को देखें तो भारत में जनांककीय संक्रमण द्वितीय अवस्था में है। एक ओर जहां स्वास्थ्य सुविधाओं के विकंद्रीकरण के चलते मृत्यु दर में कमी आयी है तो वहीं दूसरी ओर जन्म दर में अपेक्षित कमी ला पाने में सफलता नहीं मिल पायी है। यह इस बात का संकेत है कि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या वाला भारत षीघ्र चीन को पीछे छोड़ सकता है। विष्व जनसंख्या सम्भावना रिपोर्ट 2022 में इसकी मुनादी हो भी चुकी है। गौरतलब है कि 11 जुलाई को विष्व जनसंख्या दिवस मनाया जाता है। इस वर्श इसी की पूर्व संध्या पर संयुक्त राश्ट्र ने यह रिपोर्ट जारी की थी जिसमें अनुमान है कि 2022 के अंत तक चीन और भारत की जनसंख्या लगभग बराबरी के आस-पास होंगे और 2023 में भारत आबादी के मामले में चीन को पछाड़ देगा। आंकड़े यह भी दर्षातेे हैं कि 15 नवम्बर 2022 तक दुनिया 8 अरब की जनसंख्या वाले आंकड़े को छू लेगी जबकि 2030 तक यह 8.5 अरब हो जायेगी और 2050 तक यह आंकडा़ 9.7 अरब के साथ एक भारी-भरकम स्थिति को ग्रहण कर लेगा। संसाधन की दृश्टि से देखा जाये तो पृथ्वी संभवतः 10 अरब की आबादी को पोशण व भोजन उपलब्ध करा सकती है। इतना ही नहीं जनसंख्या का यह आंकड़ा 2080 तक 10.4 अरब की आबादी पर खड़ा दिखाई देगा। जाहिर है उक्त आंकड़े केवल हमें सचेत नहीं कर रहे हैं बल्कि ये चेताने का भी काम कर रहे हैं कि यदि जनसंख्या नियंत्रण को लेकर अब भी दूरी बनाये रखा गया तो सु-जीवन के लिए खतरे कहीं अधिक बड़े रूप में खड़े होंगे।
भारत में जनसंख्या नीति को लेकर कवायद स्वतंत्रता के बाद ही षुरू हो गया था मगर इसे समस्या नहीं मानने के चलते तवज्जो ही नहीं दिया गया। तीसरी पंचवर्शीय योजना के समय जनसंख्या वृद्धि में तेजी महसूस की गयी। जाहिर है ध्यान का क्षेत्र भी व्यापक हुआ और चैथी पंचवर्शीय योजना में जनसंख्या नीति प्राथमिकता में आ गयी। तत्पष्चात् पांचवीं योजना में आपात के दौर में 16 अप्रैल 1976 को राश्ट्रीय जनसंख्या नीति घोशित हुई। इसकी पटकथा उस दौर के हिसाब से कहीं अधिक दबावकारी थी। जनसंख्या नियंत्रण हेतु अनिवार्य बंध्याकरण का कानून बनाने का अधिकार दे दिया गया था और इसे लेकर पहल भी हुई। फिलहाल सरकार के पतन के साथ यह नीति भी छिन्न-भिन्न हो गयी। जब 1977 में पहली गैर कांग्रेसी सरकार आयी तब एक बार फिर नई जनसंख्या नीति फलक पर तैरने लगी। पुरानी से सीख लेते हुए इसमें अनिवार्यता को समाप्त करते हुए स्वेच्छा के सिद्धांत को महत्व दिया गया और परिवार नियोजन के बजाय परिवार कल्याण कार्यक्रम का रूप दिया गया। इस जनसंख्या नीति से क्या असर पड़ा यह प्रष्न आज भी उत्तर की तलाष में है। जाहिर है इसका कुछ खास प्रभाव देखने को नहीं मिलता। जून 1981 में राश्ट्रीय जनसंख्या नीति में संषोधन हुआ। फिलहाल कवायद परिवार नियोजन की जारी रही मगर देष की आबादी बढ़ती रही। 1951 में भारत की जनसंख्या 36 करोड़ थी और 2001 तक यह आंकड़ा एक अरब को पार कर गया। यह इस बात का संकेत था कि जनसंख्या नियंत्रण हेतु जो नीति को लेकर कोषिष पहले की गयी थी उस पर पहल मजबूत किया जाना चाहिए था। इस बात को समझना हितकर रहेगा कि जनसंख्या विस्फोट कई समस्याओं को जन्म देता है। जाहिर है बेरोज़गारी, खाद्य समस्या, कुपोशण, प्रति व्यक्ति निम्न आय, निर्धनता में वृद्धि, गरीबी में वृद्धि और महंगाई का उभरना स्वाभाविक है। इतना ही नहीं कृशि पर बोझ बढ़ेगा, बचत और पूंजी निर्माण में कमी, अपराध में वृद्धि, पलायन का बढ़ना और षहरी दबाव के साथ समस्याएं सजित होना भी लाज़मी है। भले ही 136 करोड़ के आबादी वाले मौजूदा भारत में यहां-वहां की बातें करके जनसंख्या विस्फोट को नजरअंदाज किया जाये मगर जनसंख्या के आइने में ठीक से झांका जाये तो उक्त समस्याएं मौजूदा वक्त में प्रसार ले चुकी हैं।
सुषासन को तब तकलीफ होती है जब आंकड़े गिनाए जाते हैं मगर जमीन पर उतरते नहीं। यदि बढ़ती जनसंख्या कई समस्याओं को हवा दे रही है तो यह सुषासन की गर्मी को ठण्ड भी कर सकता है। जो सत्ता और जनता के हित में बिलकुल नहीं है। बढ़ती जनसंख्या की स्थिति को देखते हुए फरवरी 2000 में नई जनसंख्या नीति की घोशणा की गयी जिसमें जीवन स्तर में गुणात्मक सुधार हेतु तीन उद्देष्य सुनिष्चित किये गये थे। बावजूद इसके 2011 की जनगणना में हर चैथा व्यक्ति अषिक्षित और इतना ही गरीबी रेखा के नीचे दर्ज था। सवाल दो हैं पहला यह कि भारत में जनसंख्या नीति को लेकर नैतिक सुधार किया जा रहा है यदि ऐसा है तो इसे जनसंख्या नियंत्रण के बजाय गुणवत्ता में सुधार की संज्ञा दी जा सकती है। दूसरा यह कि क्या वाकई में सरकारें परिवार नियोजन को लेकर संजीदा हैं। यदि ऐसा तो पानी सर के ऊपर पहले ही जा चुका है। भारत की जनसंख्या नीति अब केवल एक सरल मुद्दा नहीं है बल्कि यह धर्म और सम्प्रदाय में उलझने वाला एक दृश्टिकोण भी बन गया है। दिल्ली हाईकोर्ट में जनसंख्या नियंत्रण को लेकर एक याचिका दायर की गयी थी जिसमें इस दिषा में केन्द्र सरकार से कदम उठाने को लेकर निर्देष की मांग की गयी। अपील में यह था कि देष में अपराध, प्रदूशण बढ़ने और संसाधनों तथा नौकरियों में कमी का मूल कारण जनसंख्या विस्फोट है। दो टूक यह भी है कि ऐसी समस्याएं ही सुषासन की भी चुनौतियां हैं जहां पर लोक कल्याण ओर संवेदनषीलता आभाव में होगा वहां सुषासन खतरे में होगा। जनसंख्या विस्फोट सुदृढ़ विकास, सु-जीवन और लोक कल्याण को सभी तक पहुंचाने में कारगर तो नहीं हो सकता तो फिर सुषासन कैसे मजबूत होगा।
भारत दुनिया का ऐसा पहला देष है जो सबसे पहले 1952 में परिवार नियोजन को अपनाया। बावजूद इसके आज वह दुनिया की सबसे बड़ी आबादी बनने की कगार पर खड़ा है। यहां चीन की चर्चा लाज़मी है। चीन में एक बच्चा नीति की षुरूआत 1979 में हुई थी। तीन दषक के बाद एक बच्चा नीति पर इसे पुर्नविचार करना पड़ा। हालांकि चीन में जन्म दर में 2.81 फीसद से गिरावट साल 2000 आते-आते 1.51 हो गया था। मगर यहां युवाओं की संख्या घटी और बूढ़ों की संख्या बढ़ गयी। कई मानते हैं कि भारत में इस वजह को देखते हुए जनसंख्या नियंत्रण कानून की अभी जरूरत नहीं है। विभिन्न राज्यों में कई नीति-निर्माताओं ने जनसंख्या विस्फोट और जनसंख्या नियंत्रण की आवष्यकताओं को गलत बताया है। साल 2021 में उत्तर प्रदेष ने विष्व जनसंख्या दिवस के अवसर पर 2021-30 के लिए नई जनसंख्या नीति जारी की। जिसमें 2026 तक प्रति हजार जनसंख्या पर 2.1 और 2030 तक 1.9 तक लाने का लक्ष्य रखा गया था। फिलहाल भारत का सबसे बड़ी जनसंख्या वाला राज्य यूपी में मौजूदा प्रजनन दर 2.7 फीसद है। आंकड़ों को हकीकत में में बदलने के लिए केवल कागजी कार्यवाही से काम नहीं चलता। दो बच्चा नीति को लेेकर भी भारत में चर्चा जोरों पर रही है मगर इसके लिए न तो कदम उठाये गये हैं और न ही कहीं रखे गये है। हालंाकि असम में 2021 में दो बच्चे की नीति अपनाने का फैसला किया था। कई राज्यों में पंचायतों में चुनाव लड़ने वालों के लिए ऐसी योग्यता निर्धारित की गयी है।
संसाधन और सुषासन का भी गहरा नाता है और बढ़ रही जनसंख्या के लिए संसाधन को बड़ा करना सुषासन का ही दायित्व है। किसी राश्ट्र अथवा क्षेत्र की जनसंख्या और संसाधनो के मध्य घनिश्ठ सम्बंध पाया जाता है। भारत एक कृशि प्रधान देष है, खाद्य समाग्री को लेकर यहां चुनौतियां घटी तो हैं मगर खत्म नहीं हुई है। दरअसल देष की समस्याओं की मूल वजह जनसंख्या विस्फोट मानी जाती है। भारत का क्षेत्रफल विष्व के क्षेत्रफल का महज 2.4 फीसद है और आबादी 18 फीसद है। दक्षिण भारत के अधिकांष राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण पर सराहनीय कार्य किया है। केरल, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेष में सर्वाधिक गिरावट है जबकि उत्तर प्रदेष, बिहार, राजस्थान, हरियाणा आदि में जनसंख्या दर उच्च बनी हुई है। हम दो हमारे दो का नारा भारत में चार दषक पहले गूंजा था मगर यह विज्ञापनों में ही सिमट कर रह गया। छोटा परिवार, सुखी परिवार की अवधारणा भी दषकों पुरानी है मगर इस सूत्र को भी लोग काफी हद तक अपनाने से पीछे हैं। छोट परिवार, बेहतर परवरिष और परिवेष प्रदान करता है और सभी के लिए खुषहाली और षांति का राह तैयार करता है। कनाडाई माॅडल में देखें तो सुषासन षांति और खुषहाली का ही परिचायक है जो सीमित जनसंख्या से ही सम्भव है। ऐसे में भले ही देष में दो बच्चा नीति या कोई सषक्त जनसंख्या नियंत्रण का उपाय न भी हो बावजूद इसके देष के नागरिकों के सार्थक सहयोग से सुखी परिवार और मजबूत देष को जमीन पर उतारा जा सकता है।

 दिनांक : 18/09/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

ब्रिटेन में नई सत्ता और भारत


ब्रिटेन को पछाड़ते हुए भारत दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। जाहिर है यह एक उपलब्धि है जो भविश्य की कई उम्मीदों को और ताकत देने का काम करेगी। अर्थषास्त्री जिम ओ नील ने भी लिखा है कि भारत जल्द ही विष्व को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले देषों में से एक होगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि जैसे-जैसे भारत की अर्थव्यवस्था बदलेगी इसकी राजनीतिक, सैन्य और सांस्कृतिक षक्ति के साथ वैष्विक प्रभाव में भी परिवर्तन आयेगा। षायद यही कारण है कि भारत को 21वीं सदी की महाषक्ति व विष्व गुरू के रूप में प्रचारित व प्रसारित किया जाता है। फिलहाल इसी परिमार्जित और परिवर्तित दुनिया में लिज ट्रस ब्रिटेन की नई प्रधानमंत्री चुनी गई। खास यह है कि भारतीय मूल के ऋशि सुनक को करीब 21 हजार वोटों से हराया। षुरूआती दिनों में ऋशि सुनक के प्रधानमंत्री बनने की सुगबुगाहट तेज थी मगर ट्रस टस से मस नहीं हुई और अन्ततः सत्ता हथियाने में कामयाब रहीं। नई प्रधानमंत्री ने अपने देष को इस बात का भरोसा दिलाया है कि आर्थिक नीतियों पर लोगों की नाराजगी तो दूर करेंगी ही साथ ही 2025 के आम चुनाव में कंजर्वेटिव पार्टी को जितायेंगी। भारत और ब्रिटेन दुनिया के अग्रणी और तेजी से बढ़ती आर्थिक षक्तियों में षुमार है। भारत की जीडीपी साढ़े तीन ट्रिलियन डाॅलर हो चुकी है जिसके चलते ब्रिटेन को पीछे छोड़ने में वह कामयाब रहा।
लिज़ ट्रस विदेष मंत्री रहने के दौरान भारत के प्रति सकारात्मक नज़रिया रखती रही हैं। यहां तक कि रूस-यूक्रेन युद्ध के दरमियान भी भारत को लेकर सख्त टिप्पणियों से परहेज़ किया। भारत-ब्रिटेन सम्बंधों को मजबूत करने समेत रक्षा, षिक्षा, व्यापार, पर्यावरण आदि के मामले में भी उनका दृश्टिकोण समर्थन वाला ही रहा है। वैसे इस बात को इंकार नहीं किया जा सकता कि ब्रिटेन में प्रधानमंत्री कोई भी हो भारत को नजरअंदाज नहीं कर सकता। लिज़ ट्रस भी इस बात को जानती हैं कि भारत तुलनात्मक उनसे भी बड़ी अर्थव्यवस्था है साथ ही निवेष और बाजार के लिए सर्वाधिक सुरक्षित और बड़ा स्थान है। भारत और ब्रिटेन के मध्य मजबूत ऐतिहासिक सम्बंधों के साथ-साथ आधुनिक और परिमार्जित कूटनीतिक सम्बंध भी देखे जा सकते हैं। साल 2004 में दोनों देषों के बीच द्विपक्षीय सम्बंधों में रणनीतिक साझेदारी ने विकास का स्वरूप लिया और यह निरंतर मजबूत अवस्था को बनाये रखा। इतना ही नहीं अमेरिका और फ्रांस जैसे देषों के साथ भी भारत का रणनीतिक सम्बंध कहीं अधिक भारयुक्त है। षेश यूरोप में भी भारत के साथ द्विपक्षीय सम्बंध विगत कुछ वर्शों में कहीं अधिक प्रगाढ़ हो गये हैं। स्केण्डिनेवियाई देषों के साथ भी भारत का सम्बंध तेजी लिए हुए है। यूरोप में व्यापार करने के लिए भारत ब्रिटेन को द्वार समझता है ऐसे में नई सरकार के साथ भारत की ओर से नई रणनीति और प्रासंगिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रख कर गठजोड़ को बेजोड़ बनाने की कवायद रहेगी।
इस बात की भी सम्भावना है कि आर्थिक मोर्चे पर ब्रिटेन भारत की ओर देखना पसंद करेगा। लिज ट्रस कैबिनेट मंत्री के रूप में भारत की यात्रा कर चुकी हैं और वो मानती रही हैं कि भारत निवेष के लिए बड़ा और प्रमुख अवसर है। भारत के लिए ब्रिटेन एक महत्वपूर्ण आयातक देष है। ऐसे में भारत से होने वाले मुक्त बाजार समझौते पर लिज ट्रस षीघ्र सहमति दे सकती हैं। गौरतलब है कि भारत और ब्रिटेन के बीच तकरीबन 23 अरब पाउंड का सालाना व्यापार होता है और ब्रिटेन को यह उम्मीद है कि मुक्त व्यापार के जरिये इसे 2030 तक दोगुना किया जा सकता है। हिन्द प्रषांत क्षेत्र में बाजार हिस्सेदारी और रक्षा विशयों पर 2015 में दोनों देषों के बीच समझौते हुए हैं। ध्यानतव्य हो कि सम्बंधों को मजबूत करके ब्रिटेन हिन्द प्रषांत क्षेत्र की विकासषील अर्थव्यवस्था को अपना अवसर बना सकता है। इस क्षेत्र से लगे दुनिया के 48 देष के करीब 65 फीसदी आबादी रहती है। यहां के असीम खनिज संसाधनों पर चीन की नजर हमेषा रही है। कई देषों के बंदरगाहों पर कब्जा करना चीन की मानो सामरिक नीति रही हो। अमेरिका, आॅस्ट्रेलिया और जापान समेत भारत का रणनीतिक संगठन क्वाड चीन को नकेल कसने और दक्षिण चीन सागर में उसके एकाधिकार को कमजोर करने के लिए कदम बढ़ाया जा चुका है। बावजूद इसके वैष्विक पटल पर तमाम घटनाओं के बीच कुछ भी स्थिर नहीं रहता आर्थिक वर्चस्व और बाजार तक जाने की लड़ाई में कौन, किस हद तक चला जायेगा इसका अंदाजा लगाना सहज नहीं है।
विदित हो कि भारत और ब्रिटेन के बीच जो प्रमुख समझौते इस वर्श हुए हैं उनमें ब्रिटेन द्वारा नये लड़ाकू विमानों की प्रौद्योगिकी और नव वाहन प्रौद्योगिकी पर भारत के साथ सहयोग और सुरक्षा के मसले पर बदलाव लाने की प्रतिबद्धता पर जोर दिया गया है। तब के तत्कालीन ब्रिटिष प्रधानमंत्री ने द्विपक्षीय व्यापार को दोगुना करने का रोडमैप भी 2030 तक विकसित किया था। वास्तव में देखा जाये तो ब्रिटेन में सत्ता परिवर्तन का भारत पर तनिक मात्र भी नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगा। दरअसल भारत की असल चिंता चीन है यूरोपीय और अमेरिकी देषों के साथ भारत के प्रगाढ़ सम्बंध चीन को संतुलित करने के काम आ सकते हैं। हालांकि यही बात आॅस्ट्रेलिया, जापान और दक्षिण कोरिया के संदर्भ में भी लागू होती है। भारत की दुखद समस्या यह है कि सीमा पर तनाव के बाद भी व्यापार को लेकर चीन पर निर्भरता कम नहीं हो रही। यदि कम हो भी रही है तो खत्म नहीं हो रही। हालांकि चीन से पूरी तरह व्यापार समाप्त करना संभव भी नहीं है। भारत इस असंतुलन से निपटना चाहता है और सबसे अच्छे उपायों में से मेक इन इण्डिया में ब्रिटिष निवेष को बढ़त देने का प्रयास करना। भारत के परिप्रेक्ष्य में ब्रिटेन की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। नई प्रधानमंत्री लिज़ ट्रस के लिए अपने देष को मजबूत करने को लेकर कई अवसर हैं। मगर इनका फायदा वे कैसे उठायेंगे इस पर विचार उन्हें ही करना है। बावजूद इसके दो टूक कहें तो 1990 के बाद पष्चिमी देषों के साथ भारत के जो रिष्ते बने आज वो परवान चढ़ रहे हैं जो आर्थिक विकास की दृश्टि से तो महत्वपूर्ण हैं ही, चीन को भी संतुलित करने के काम आ रहे हैं।

दिनांक : 8/09/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

नौनिहालों की शिक्षा और मिड-डे मील


भारत में किसी भी नीति की पहली षर्त यह है कि वह किसी भी हालत में संविधान की मूलभावना के विरूद्ध न हो और प्राथमिकता इस आषय के साथ कि सरकारें काम वह करें जो संविधान में निहित सम्भावना को बल मिले। ऐसी ही तमाम सम्भावनाओं के बीच षिक्षा को प्राथमिकता में रखना किसी भी सरकार के लिए भले ही आसान प्रक्रिया रही हो मगर सर्वोदय और अन्त्योदय की भावना से युक्त होकर षिक्षा से अन्तिम बच्चा भी वंचित न रहे इस पर अभी खरा उतरना दूर की कौड़ी है। भारतीय संविधान के भाग 3 के अंतर्गत उल्लेखित मूल अधिकार के अनुच्छेद 21क में षिक्षा का अधिकार दिया गया है जबकि भाग 4 में निहित नीति निदेषक तत्व के अन्तर्गत अनुच्छेद 45 में राज्यों को यह निर्देष है कि वह 14 वर्श तक के बच्चों की निःषुल्क व अनिवार्य षिक्षा की व्यवस्था करंे। इतना ही नहीं इसे और ताकत देने के लिए षिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 भी पारित किया गया जो 1 अप्रैल 2010 से प्रभावी है। उक्त उपबंध के आलोक में यह समझना कहीं अधिक आसान है कि षिक्षा वह नींव है जहां से भारत का निर्माण प्रारम्भ होता है। ऐसे में जितना भी और जो भी बन पड़े नौनिहालों की षिक्षा के लिए किया ही जाना चाहिए। षायद यही कारण है कि साल 1990 में विष्व कांफ्रेंस में सबके लिए षिक्षा की घोशणा की गयी और 15 अगस्त 1995 को सरकार ने बच्चों को स्कूलों की तरफ ध्यान आकर्शित करने और उन्हें रोके रखने के लिए मिड-डे मील योजना षुरू की। चलो स्कूल चलें से लेकर बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ की अवधारणा इसी षिक्षा को बढ़ाने की दिषा में तमाम नई-पुरानी संकल्पनायें हैं। आजादी के 75 वर्श बीत चुके हैं और अमृत महोत्सव का वातावरण जारी है। ऐसे में यह प्रष्न स्वाभाविक रूप से उभरता है कि क्या भारत में प्राथमिक षिक्षा की उत्तम व्यवस्था इतने वर्शों में बन पायी है। फिलहाल यह सवाल अभी अधूरे उत्तर के साथ फलक पर तैर रहा है। सभी बच्चों के लिए प्राथमिक षिक्षा निःषुल्क व अनवार्य षिक्षा का लक्ष्य महज कुछ वर्श पुराना नहीं है, इसकी यात्रा कमोबेष आजादी जितनी ही पुरानी है। बावजूद इसके नौनिहालों की स्कूली षिक्षा को लेकर चित्र बहुत अच्छा उभरता हुआ दिखता नहीं है। हां यह बात और है कि जारी प्रयास के बीच इसमें उत्तरोतर वृद्धि हुई है मगर कोविड-19 के दो वर्श ने तमाम के बीच स्कूली षिक्षा को भी चोटिल किया है। गौरतलब है कि 14 मार्च 2020 मिड-डे मील पर लगाम लग गया था और साथ ही उन बच्चों के लिए भी अधिक घातक था जो भोजन की चाहत के लिए षिक्षा और स्कूल से जुड़े थे। हालांकि मिड-डे मील अब एक बार फिर अपने पथ पर चल पड़ा है मगर बरसों पहले से जिन बच्चों को भोजन की चाहत से षिक्षा को जोड़ने का काम हुआ था उनकी कितनी वापसी हुई है यह पड़ताल का विशय है। फिलहाल वर्तमान में इस योजना के चलते 6 से 14 आयु वर्ग और कक्षा 1-8 तक के लगभग 12 करोड़ बच्चे षामिल हैं।
विदित हो कि सरकार की ओर से सरकारी, गैर सरकारी व अषासकीय समेत मान्यता प्राप्त विद्यालय में कक्षा 1 से लेकर 8 तक के छात्र-छात्राओं को दोपहर का भोजन कराया जाता है जिसे मिड-डे मील की संज्ञा दी जाती है। मगर वर्श 1921 में इसका नाम परिवर्तित कर पीएम पोशण योजना कर दिया गया। बच्चों का बेहतर विकास हो और ज्यादा से ज्यादा बच्चे स्कूल आ सकें। इसी उद्देष्य को देखते हुए मिड-डे मील योजना 1995 में लायी गयी। अक्टूबर 2007 में इसे विस्तार देते हुए 5वीं कक्षा से बढ़ाकर कक्षा 8वीं तक के लिए कर दिया गया था। वैसे औपनिवेषिक सत्ता के दिनों में ऐसा कार्यक्रम पहली बार 1925 में मद्रास नगर निगम में वंचित बच्चों के लिए षुरू किया गया था। इसमें कोई दो राय नहीं यह योजना बच्चों को स्कूल तक लाने में सफल तो रही है मगर जितने आंकड़े गिनाये या जताये जाते हैं, सफलता दर उतना ही है तो देष की अषिक्षा अब तक सिमट जाना चाहिए। साफ है कि आंकड़े और हकीकत में अभी और फासला है और इसे पाटने की जिम्मेदारी सरकार और उसके अभिकरणों की है। गौरतलब है कि योजना कितनी भी सषक्त और कारगर क्यों न हो उसका निश्पादन पूरी तरह सुनिष्चित हो ऐसा षायद ही कभी सम्भव हुआ हो। मिड-डे मील योजना भी इससे अलग नहीं है। यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इन्फाॅर्मेषन सिस्टम फाॅर एजुकेषन की रिपोर्ट बताती है कि देष में सरकारी स्कूलों की संख्या में कमी आयी है जबकि प्राइवेट स्कूलों की संख्या बढ़ी है। रिपोर्ट के अनुसार 2018-19 में देष में 50 हजार से अधिक सरकारी स्कूल बंद हो गये हैं। मिड-डे मील योजना के बावजूद बच्चों को पूरी तरह स्कूल पहुंचने, यदि पहुंच भी गये है तो बीच में पढ़ाई छोड़ने का सिलसिला थमा नहीं है। यूनेस्को की हालिया रिपोर्ट यह स्पश्ट करती है कि कोरोना महामारी के कारण पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों की संख्या और तेजी से बढ़ी है।
मिड-डे मील योजना 1997-98 तक देष के सभी राज्यों में लागू हो चुकी थी। इतना ही नहीं 2002 में मदरसों को भी इसमें षामिल किया गया। 2014-15 में यह योजना साढ़े ग्यारह लाख प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में चल रही थी तब के आंकड़े बताते हैं कि 10 करोड़ बच्चे लाभान्वित हो रहे थे। 2011 मे योजना आयोग द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार भारत में स्कूलों की संख्या 15 लाख थी। षिक्षा के उत्तरोतर विकास को देखते हुए यह समझना सहज है कि एक दषक बाद यह आंकड़ा और गगनचुम्बी हुआ होगा। जिस देष में हर चैथा व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे हो और यही आंकड़ा अषिक्षा का भी हो तो ऐसी योजनाओं का मूल्य कहीं अधिक बड़ा हो जाता है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि षिक्षा गरीबी, मुफलिसी व आर्थिक तंगी में बहुत मुष्किल से पनपती है। जिन्होंने इसके रहते षिक्षा पोशित करने में सफल रहे वे दुनिया मं विरले थे और अपवाद भी। संदर्भ निहित बात यह भी है कि कक्षा 1 से 5 तक के सभी बच्चों को प्रतिदिन 100 ग्राम अनाज, दाल और सब्जी दिया जा रहा है और कक्षा 6 से 8 तक के बच्चों को यही खाद्य सामग्री 150 ग्राम दी जा रही है। उद्देष्य यह है कि बच्चों को कैलोरी और प्रोटीन के अलावा लौह और फोलिक एसिड जैसे सूक्ष्म पोशक तत्वों को भी प्रदान किया जाये। विदित हो कि मिड-डे मील केवल एक योजना नहीं है बल्कि राश्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 के माध्यम से प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक कक्षाओं के बच्चों का यह कानूनी अधिकार है। गौरतलब है कि प्राथमिक षिक्षा के प्रसार और उन्नयन हेतु 1957 में सरकार ने अखिल भारतीय प्राथमिक षिक्षा का गठन किया गया। इसकी ओर से ठोस सुझाव भी आये और प्राथमिक षिक्षा प्रसार भी किया। इसी क्रम में 1965 में राश्ट्रीय षिक्षा आयेाग ने अपनी रिपोर्ट पेष की जिसमें बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक धर्म, जाति व लिंग के छात्रों के लिए षैक्षिक अवसरों को समान बनाये रखने पर बल दिया गया। इसी आयोग के चलते राश्ट्रीय षिक्षा नीति 1968 प्रकाष में आयी। यहां भी षिक्षा को निःषुल्क और अनिवार्य करने को लेकर ठोस उपाय देखने को मिले। राश्ट्रीय षिक्षा नीति 1986 जहां षैक्षणिक वातावरण में एक नई अवधारणा को अवतरित किया वहीं 1985 का आॅपरेषन ब्लैक बोर्ड आधारभूत सुविधाओं के दृश्टिकोण से ओतप्रोत थी। मौजूदा दौर षिक्षा के बदलते हुए आयाम से युक्त है जो नई षिक्षा नीति 2020 से बेहिसाब उम्मीदें रखती है। जिसमें षायद इस सपने को पिरोना अतार्किक न होगा कि भारत षिक्षा के मामले में न केवल न्यू इण्डिया की ओर होगा बल्कि आत्मनिर्भर और पूर्ण षिक्षित भी होगा।
षिक्षाविद और पूर्व राश्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृश्णन ने भी षिक्षा के महत्व पर अनेकों बार प्रकाष डाला है। षिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिश्क का सदुपयोग किया जा सकता है। ध्यानतव्य हो कि वर्तमान युग सूचनाओं का है और इन्हीं सूचनाओं के संकलन तत्पष्चात् उसकी प्रस्तुति आज की दुनिया में बौद्धिकता का प्रमाण है। ऐसे में नौनिहालों की षिक्षा पर न तो कोई समझौता हो सकता है और न ऐसी कोई समझ लायी जा सकती है जो इनके षिक्षा अधिकार को तनिक मात्र भी चोटिल करता हो। मिड-डे मील योजना को लेकर किसी तरह की कोई घोटाला और लापरवाही न बरती जाये इसके लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने जो अब षिक्षा मंत्रालय है एक कमेटी का भी गठन किया। कमेटी राश्ट्रीय स्तर पर इस योजना की निगरानी रखती है। जबकि कुछ राज्य, जिला, नगर, ब्लाॅक, गांव और स्कूल स्तर पर इस योजना के कार्य को देखती है। जिसके चलते यह सुनिष्चित किया जाता है कि देष के हर स्कूल में सही तरह का खाना बच्चों को दिया जाये। बावजूद इसके इसमें इतनी त्रुटियां हैं कि षिकायतों का अम्बार लगा रहता है। मिड-डे मील के तहत मिलने वाले भोजन विशैले और जहरीले भी परोसे गये हैं, बच्चे बीमार भी हुए हैं और मौत के आंकड़े भी समय-समय पर देखे गये हैं। इस योजना के लाभ बच्चों को जहां मिलता है वहीं इसका दुरूपयोग भी कईयों के द्वारा जारी है। मिड-डे मील योजना लगभग तीन दषक पुरानी हो रही है फिर भी भारत भुखमरी के सूचकांक में अपना स्तर सुधारने में नाकाम ही रहा है। इन सबके बावजूद भी इस योजना की कड़वी  सच्चाई यह है कि इसने प्राथमिक षिक्षा को बढ़ावा दिया है। देष के गरीब और कुपोशित बच्चों को स्कूल का रास्ता दिखाया है। विद्यालयों में छात्रों की संख्या बढ़ी है। स्कूल आने के लिए इन्हें प्रोत्साहन मिल रहा है। स्कूल छोड़ने पर लगाम तो नहीं लगी है पर कमी में यह योजना कारगर सिद्ध हो रही है। कुल मिलाकर यह कहना वाजिब होगा कि मिड-डे मील योजना देष के करोड़ों नौनिहालों को वो उम्मीद है जहां षिक्षा के साथ पेट की भी चिंता की जाती है और उनके पोशण को सुधार कर सीखने के स्तर को बड़ा बना रही है।

  दिनांक : 3/09/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)