Wednesday, August 11, 2021

महंगाई बनाम आर्थिक सुषासन

चालू वित्त वर्श की तीसरी मौद्रिक नीति की समीक्षा से यह स्पश्ट हो चला है कि महंगाई का खतरा अभी बना रहेगा मगर विकास भी प्राथमिकता में रहेगा। गौरतलब है कि भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने बीते 6 अगस्त को उम्मीद के अनुरूप नीतिगत दर रेपों में कोई बदलाव नहीं किया लेकिन महंगाई के लक्ष्य को बढ़ा दिया है। आरबीआई ने 2021-22 के लिए खुदरा महंगाई के अनुमान को बढ़ाकर 5.7 फीसद कर दिया जो पहले 5.1 प्रतिषत था। हालांकि आरबीआई के गवर्नर डाॅ. षषिकांत दास ने महंगाई के खतरे के बावजूद आर्थिक विकास दर की रफ्तार को तेज रहने का इषारा किया है। देखा जाए तो कर वसूली में इजाफा, भुगतान गतिविधियों में बढ़त व खरीद-फरोख्त में तेजी इसके कुछ सकारात्मक पहलू दिखते है। गौरतलब है कि रिजर्व बैंक ने आपूर्ति बाधाओं, कच्चे तेल की कीमतों में तेजी और कच्चा माल महंगा होने के चलते चालू वित्त वर्श के लिए खुदरा महंगाई अनुमान बढ़ाया है। कोरोना की दूसरी लहर से अर्थव्यवस्था को उभारने का एक प्रयास यहां देखा जा सकता है। आरबीआई गवर्नर की माने तो कुछ महीने में काफी तेज गति से सुधार देखने को मिला है और इस साल विकास दर 9.5 फीसद रहने का अनुमान रखा गया हैं जो अपने आप में अद्भुत अर्थव्यवस्था का संकेत है। मगर इस हकीकत को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि अनुमान जिस आसमान पर होते हैं वहां से कभी-कभी ज़्ामीन ठीक से दिखती ही नहीं है। इसमे कोई दुविधा नहीं कि डीजल और पेट्रोल ने महंगाई को एक नया आकाष दिया है। यह समझना लाजमीं है कि जब तेल महंगा होता हैं तो वस्तुएं स्वयं महंगाई की ओर अग्रसर हो जाती है। बीते कई महीनों से तेल महंगाई की असीम सीमा से नीचे नहीं उतरा है जिसे खतरे के निषान से ऊपर कहना अतार्किक न होगा। अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने के संकेत भले ही देखे जा रहे हों मगर महंगाई का बोझ एक साल तक बना रहेगा ऐसे भी अनुमान बरकरार है। 

वास्तव में बाजार हमारी समुची अर्थव्यवस्था का दर्पण है और इस दर्पण में सरकार और जनता का चेहरा होता है। जाहिर है महंगाई बढ़ती है तो दोनों की चमक पर इसका असर पड़ता है। खास यह भी है कि अगर महंगाई और आमदनी के अनुपात में बहुत बड़ा अंतर आ जाये तो जीवन असंतुलित होता है। कोविड-19 के चलते कमाई पर पहले ही असर पड़ चुका है और अब महंगाई किसी दुर्घटना से कम नहीं होगा। वैसे महंगाई को कई समस्याओं की जननी कहा जाये तो अतार्किक न होगा। वैसे रिज़र्व बैंक आॅफ इण्डिया का अनुमान था कि जनवरी से मार्च के बीच खुदरा महंगाई दर 6.5 फीसद तक आ सकती है और 1 अप्रैल से षुरू नये वित्त वर्श की पहली छमाही पर 5 से 5.4 के बीच इसके रहने का अनुमान था। गौरतलब है कि रिज़र्व बैंक का यह पूरा प्रयास था कि मुद्रा स्फीति 2 से 6 प्रतिषत के बीच ही रहे ताकि महंगाई काबू में रहे और आर्थिक सुषासन को प्राप्त करना आसान हो। मगर इसे प्राप्त करने की चुनौती हमेषा रही है। गौरतलब है कि सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है और इसका पूरा ताना-बाना लोक सषक्तिकरण से है। महंगाई का मतलब सब्जी, फल, अण्डा, चीनी, दूध समेत तमाम रोज़मर्रा की उपयुक्त वस्तुओं का पहुंच से बाहर होना। हांलाकि अभी असर इतना गहरा नहीं हुआ है। मगर इसके लंबे समय तक बरकरार रहने से घटती कमाई के बीच लोगों की यह महंगाई कमर जरूर तोड़ सकता है जैसा कि अनुमान है कि अर्थव्यवस्था पर एक साल महंगाई का बोझ बना रहेगा। 

बेषक देष की सत्ता पुराने डिजाइन से बाहर निकल गयी हो पर महंगाई पर काबू करने वाली यांत्रिक चेतना से अभी भी वह पूरी तरह षायद वाकिफ नहीं है। पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस महंगाई के आसमान में गोते लगा रहे हैं। तेल की महंगाई के लिए प्रधानमंत्री पिछली सरकारों को ऊर्जा आयात पर निर्भरता को कम न करने के चलते मध्यम वर्ग पर बोझ की बात कह चुके हैं। हांलाकि यह पड़ताल का विशय है कि इसकी हकीकत क्या है। फिलहाल तेल ने खेल तो बिगाड़ा है। महंगाई और आर्थिक जटिलताओं से यह संकेत है कि सुषासन का दावा कमोबेष यहां खोखला हो रहा है। आरबीआई गवर्नर ने बीते 6 अगस्त को बताया कि जून के मुकाबले जलाई में सरकारी के साथ निजी खपत बढ़ी है। निवेष में तेजी आई है और मांग में बढ़त देखने को मिली है। वाहनों की बिक्री, बिजली की मांग व टिकाऊ उपभोक्ता सामानों की बिक्री जैसे तमाम आंकड़ों ने कोरोना से जुड़ी पाबंदियों मंे ढील के बाद अर्थव्यवस्था में तेजी के संकेत दिए है। आकंड़ांे पर भरोसा किया जा सकता है। मगर जिस तरह जीवन बेपटरी हुआ हैं वह कहानी कुछ ओर बताते हैं। सरकार कोरोना की तीसरी लहर से निपटने के लिए तैयार है और आरबीआई भी इसी प्रकार कि तैयारी किए हुए है। जाहिर है केन्द्रीय बैंक का ध्यान सप्लाई और डिमांड को बेहतर करने का है। खास यह भी है कि देष में टीकाकरण एक ठीक अनुपात की ओर चला गया है हालांकि तीसरी लहर भी सिरहने बैठी है। इसी महीने इसके उठ खड़े होने का अनुमान लगाया गया है। जाहिर है चैकन्ना रहने की जरूरत है। जुलाई में जीएसटी की उगाही भी एक लाख करोड़ से अधिक रही है। जून को छोड़ दिया जाए तो दिसंबर 2020 से जीएसटी की उबाही एक लाख करोड़ से ऊपर बनीं हुई है। अप्रैल में तो यह आकंडा एक लाख 41 करोड़ के रिकाॅर्ड स्तर को पार कर गया जो अब तक का सर्वाधिक है।    

आर्थिक सुषासन जनता को सषक्त बनाती है जबकि महंगाई जनता को जमींदोज करती है। देष की आर्थिक स्थिति कितनी ही व्यापक और सुदृढ़ क्यों न हो। महंगाई से जनता के हालात खराब होते ही है। गैरसंवेदनषीलता के कटघरे में भी यह सरकार को खड़ा करती रही है जबकि सुषासन से युक्त सरकारें महंगाई जैसी डायन से हमेषा जान छुड़ाने की फिराक में रहती हैं पर ऐसा हो नहीं पाता है। फिलहाल भोजन महंगा हो गया है और आमदनी अभी बेपटरी ही है। सरकार को तेल के साथ अन्य से भी निपटना होगा। कोरोना की मार झेल चुकी जनता पर कोई और मार न पड़े इसके लिए सरकार को माई-बाप के रूप में काम करना ही होगा। हम लोकतंत्र से बंधे हुए हैं और सरकार में भरपूर आस्था होती है। ऐसे में राहत देना सरकार की जिम्मेदारी है। असल में देष में कारोबार और बेरोज़गार को व्यापक पैमाने पर काम की आवष्यकता है। सारी फंसाद की जड़ कमाई का कम होना है और महंगाई आ जाये तो यह चैतरफा वार करती है। कोरोना काल में देष का घरेलू व्यापार अपने सबसे खराब दौर से गुजरा है और रिटेल व्यापार पर भी चारों तरफ से बुरी मार पड़ी। देष भर में लगभग 20 प्रतिषत दुकानों को बंद करने पर मजबूर होना पड़ा। फलस्वरूप बड़ी संख्या में बेरोज़गारी बढ़ी। सबसे ज्यादा नुकसान अप्रैल 2020 में हुआ था। वैसे 2020 के वित्त वर्श की पहली छमाही में भारतीय खुदरा व्यापार को लगभग 19 लाख करोड़ रूपए के व्यापार घाटे का सामना करना पड़ा था। फिलहाल सबका साथ, सबका विकास और सबका विष्वास कायम रखने के लिए सरकार को महंगाई से मुक्ति और आर्थिक सुषासन से भरी थाली परोसने की कवायद करनी ही होगी। 


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com


चलो स्कूल चलें मगर कैसे!

कोरोना का खतरा फिर बढ़ता दिख रहा है केरल व पूर्वोत्तर राज्यों में नये मामलों में बढ़ोत्तरी के चलते सक्रिय मरीजों की संख्या में बढ़त दिखने लगी है साथ ही संक्रमण दर में भी इजाफा हो रहा है। एक ओर तीसरी लहर की आषंका है तो दूसरी ओर स्कूल, काॅलेज व विष्वविद्यालय को खोलने की तैयारी। कई राज्य तो यह काम पहले ही कर चुके हैं। गौरतलब है मध्य प्रदेष, गुजरात, बिहार, महाराश्ट्र, हरियाणा व पंजाब समेत कई राज्यों में कक्षा 9 से ऊपर के स्कूल जुलाई में ही खोल दिये थे। हालांकि आॅफलाइन कक्षा में छात्रों की संख्या काफी कम है। देखा जाये तो कोरोना वायरस की दूसरी लहर के दरवाजे जैसे-जैसे बंद होने लगे राज्यों ने वैसे-वैसे स्कूलों के दरवाजों बच्चों के लिए खोलने षुरू किये। इसी कड़ी में उत्तराखण्ड में भी 2 अगस्त से कक्षा 9 से ऊपर के स्कूल खुलने जा रहा है जबकि 16 अगस्त से कक्षा 6 से 8 के लिए भी यह व्यवस्था षुरू हो जाएगी। अगस्त में ही राजस्थान, हिमाचल प्रदेष, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेष और उत्तर प्रदेष में भी स्कूल खुलेंगे। बिहार में कक्षा 1 से 10 के बीच और पंजाब में तो 2 अगस्त से सभी बच्चों के लिए स्कूल खुल रहें हैं।  जबकि इसके ऊपर की कक्षा के लिए स्कूल पहले ही खोले जा चुके थे। इसके अलावा कई राज्य स्कूल खोलने की कतार में देखे जा सकते हैं। हालिया सीरो सर्वे से यह भी पता चलता है कि देष में 6 से 9 साल के 57 फीसद बच्चों में एण्टीबाॅडी मिली है वहीं 10 से 17 साल के बच्चों में यह 62 फीसद है। इस आधार पर तर्क भी दिया गया है कि भारत में प्राइमरी स्कूल के बच्चों के लिए स्कूल खोले जा सकते हैं। गौरतलब है कि देष में प्राइमरी स्कूल मार्च 2020 से ही बंद हैं। 9वीं से 12वीं कक्षा के छात्रों के लिए कुछ राज्यों ने थोड़ी छूट दी थी मगर प्राइमरी कक्षा के नौनिहालों ने तो ढे़ड साल से स्कूल का मुंह नहीं देखा। 

कोरोना से जंग जारी है साथ ही षिक्षा और चिकित्सा के मामले में भी संघर्श निरन्तर प्रवाह लिये हुए है। हालांकि दौर के अनुपात में स्वास्थ प्राथमिकता है मगर देर तक षिक्षा को भी पीछे नहीं छोड़ा जा सकता। आपदा एक अव्यवस्था को जन्म देती है मगर इसका प्रभाव आने वाली पीढ़ियों के लिए नासूर न बने इसे भी रोकने की भरसक कोषिष होनी चाहिए। षायद यही कारण है कि दूसरी लहर के ढलान के बाद राज्यों ने स्कूल खोलने का एक सकारात्मक रूप दिखाया मगर यह भी पूरी तरह सुरक्षित दिखता नहीं है। गौरतलब है कि महाराश्ट्र के षोलापुर में 6 सौ से अधिक बच्चे वायरस से संक्रमित पाये गये। देष में वायरस जिस तरह ठहराव लिये हुए है और केरल में जिस भांति कोरोना जड़-जंग हुआ है वह किसी अषुभ संकेत से कम नहीं है। तीसरी लहर के मामले में भी लापरवाही तो कतई नहीं की जा सकती। कोरोना का डेल्टा वेरिएंट इन दिनों 132 देषों को कमोबेष अपनी चपेट में ले लिया है और इसकी भीशणता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले सप्ताह 125 देषों में था। डेल्टा वेरिएंट की गति यह बताती है कि यह षीघ्र ही दुनिया को दबोचने की फिराक में है। यूरोपीय देष एक बार फिर कोरोना को लेकर सजग दिखाई दे रहे हैं। अमेरिका में मास्क न लगाने की छूट एक बार फिर रद्द कर दी गयी है। खास यह भी है कि अमेरिका जैसे देषों में लगभग 50 फीसद टीकाकरण हो चुका है जबकि भारत में यह आंकड़ा बहुत कम है। यहां अभी तक केवल एक डोज़ वालों की संख्या 45 करोड़ बामुष्किल से पहुंची है जबकि दूसरी डोज के लिए अच्छा-खासा लम्बा वक्त लग रहा है। इसके अलावा 18 बरस से कम उम्र के बच्चों के लिए अभी टीका का कोई अभियान नहीं है। ऐसे में खुल रहे स्कूल कोरोना की चपेट में नहीं होंगे ऐसा कोई कारण दिखता नहीं है। हालांकि सावधानी इससे बचने का एक बेहतर उपाय है मगर इसका कितना अनुपालन होगा इसे भी पूरे दावे से नहीं कहा जा सकता। 

सबके बावजूद इस सच को भी इंकार नहीं किया जा सकता कि लम्बे समय तक स्कूलों के बंद रहने से बच्चों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बढ़ा है और विकास भी प्रभावित हुआ है। षैक्षणिक नुकसान तो व्यापक पैमाने पर देखा जा सकता है। स्कूलों ने आॅनलाइन षिक्षा के माध्यम से इस कमी को पूरा करने का प्रयास जरूर किया है मगर यह नाकाफी ही रहा है। षोध और अनुसंधानों से भी यह बात स्पश्ट हुई है कि मनोवैज्ञानिक दबाव व प्रभाव से बच्चे गुजर रहे हैं। हालांकि बड़े भी इससे अछूते नहीं है और दुनिया का कोई देष भी इससे बचा नहीं है। स्कूल खोलेने का यह सही समय है या नहीं यह एक चर्चा का विशय हो सकता है मगर स्कूल कब तक बंद रहेंगे यह विशय चिंता का जरूर है। कोरोना जिस स्थिति को बनाये हुए है उसे देखते हुए स्कूल खोलने का निर्णय भी कोई मामूली बात नहीं है। राज्य सरकारों को इस मामले में भी तमाम दिमागी कसरत करनी पड़ रही है। अभिभावकों की विचारों को भी यहां पूरा तवज्जो दिया जा रहा है। मगर स्कूलों को यह भरोसा देना होगा कि बच्चों के लिए कक्षायें मुफीद हैं। छात्र, षिक्षक और अभिभावक साथ ही स्कूल का प्रबंधन सभी को अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभानी होगी किसी एक की लापरवाही से नुकसान सबका है। वैसे स्कूल खोलना जायज ही करार दिया जाना चाहिए। इसके पीछे अपने एक सकारात्मक तर्क भी हैं ऐसा देखा गया है कि महामारी के दौरान विष्व के कई देषों ने प्राइमरी कक्षा के बच्चों के लिए स्कूल खोले रखा और महामारी का खतरा ज्यादा नहीं हुआ। वर्तमान में भी विष्व के 170 देषों में स्कूल खुले हुए हैं। यह भी देखने को मिला है कि बच्चों में कोविड-19 का संक्रमण आया जरूर है मगर बीमारी गम्भीर रूप नहीं ली और फिर बिना बीमारी के ही बच्चों में एण्टीबाॅडी कैसे बढ़ गयी। आंकड़े तो यही इषारा करते हैं कि बच्चे भी कोरोना से प्रभावित हुए हैं मगर हालात भयावह नहीं हुआ। हैरत तो यह भी है कि दिल्ली के कुछ स्लम कलस्टर के बच्चों में 80-90 फीसद में एण्टीबाॅडी पायी गयी जो राश्ट्रीय स्तर के 55 से 60 फीसद के आंकड़े से कहीं ज्यादा है। वैक्सीन अभी दुनिया के किसी देष में 11 साल से कम उम्र के बच्चों को नहीं लगायी जा रही भारत में तो 18 साल के नीचे अभी यह सम्भव नहीं है। अमेरिका की संस्था सेन्टर फाॅर डिजीज कंट्रोल ने इसी साल फरवरी में कहा था कि टीचर्स को वैक्सीन लगाना स्कूल खोलने की पहली षर्त नहीं होनी चाहिए। हालांकि भारत में यह षर्त रखना गैर वाजिब नहीं है क्योंकि 18 साल के ऊपर के लोगों का टीकाकरण चल रहा है। 

स्कूल खोलने की बड़ी वजह में कोरोना की स्थिति षामिल है। गौरतलब है कि संविधान में स्कूली षिक्षा राज्यों का विशय है। देष में पिछले डेढ़ सालों में निजी स्कूलों की हालत भी आपे से बाहर हुई है। अर्थव्यवस्था डगमगायी है, षिक्षकों का वेतन दे पाना भी मुष्किल हुआ है और कई स्कूल तो बंदी की कगार पर चले गये। भारत में अलग-अलग राज्यों में स्कूल बंद रखने की अपनी अलग-अलग परिस्थिति है। झारखण्ड, असम, जम्मू-कष्मीर, तमिलनाडु व तेलंगाना में तो स्कूल अभी भी पूरी तरह बंद हैं। डर तीसरी लहर का है जिसमें 40 फीसद आबादी के लिए यह खतरा माना जा रहा है मगर स्कूल खोलने का साहस भी अनुचित नहीं है। बावजूद इसके सवाल यह कहीं गया नहीं है कि चलों स्कूल चले मगर कैसे!

दिनांक : 31 जुलाई, 2021 


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com