Friday, September 25, 2020

आर्थिक इंजन जीएसटी पर कोरोना की मार

जीएसटी को लागू हुए तीन साल से अधिक वक्त हो गया है। वन नेषन, वन टैक्स वाला जीएसटी इन दिनों कोरोना की चपेट में आने से संघ और राज्य दोनों पर भारी पड़ रहा है। अब तक जीएसटी को लेकर 41 बैठक हो चुकी हैं और जीएसटी कानून में हजार से अधिक संषोधन हो चुके हैं फिर भी पूरी तरह इसका पटरी पर लाना चुनौती बना हुआ है। जीएसटी को लेकर आने वाले दिनों में सरकार और विपक्ष में रार की सम्भावना साफ दिखती है। गौरतलब है कि पिछले माह 27 अगस्त को जीएसटी काउंसिल की 41वीं बैठक हुई जिसमें राज्यों को जीएसटी क्षतिपूर्ति के मुद्दे समेत कई उत्पाद पर जीएसटी के नये रेट में संषोधन को लेकर चर्चा हुई। हालांकि 42वीं बैठक 19 सितम्बर को होनी थी जो अब 5 अक्टूबर को होगी। ऐसा मानसून सत्र के चलते हुआ। कोविड-19 के कारण मौजूदा वित्त वर्श में जीएसटी कलेक्षन को काफी नुकसान हुआ है। जाहिर है पहले से ही राज्यों की क्षतिपूर्ति के मामले में परेषान केन्द्र के इन दिनों पसीने निकलने स्वाभाविक है। 1 जुलाई 2017 को जीएसटी इस वायदे के साथ आया था कि 2022 तक राज्यों के घाटे को पाटने का वह काम करेगा। इन दिनों केन्द्र और राज्य दोनों वित्तीय मामले में बैकफुट पर हैं और जीएसटी तुलनात्मक न्यून स्तर पर चला गया है। जिसे देखते हुए केन्द्र सरकार ने राज्यों के सामने दो विकल्प रखे जिसमें एक आसान षर्तों पर आरबीआई से क्षतिपूर्ति के बराबर कर्ज लेना जबकि दूसरे विकल्प में जीएसटी बकाये की पूरी राषि अर्थात् 2.35 लाख करोड़ रूपए बाजार से बातौर राज्य कर्ज ले सकते हैं। जो राज्य इन विकल्पों में नहीं जाते हैं उन्हें भरपाई के लिए जून-2022 तक इंतजार करना पड़ सकता है। जाहिर है ये दोनों षर्तें राज्यों के सामने किसी चुनौती से कम नहीं हैं। लगभग दो साल तक बकाया देने से पलड़ा झाड़ चुकी केन्द्र सरकार ने कभी नहीं सोचा होगा कि गाॅड आॅफ एक्ट का भी ऐसा कोई दौर आयेगा जब वह अपने तीन साल पुराने वायदे पर खरी नहीं उतर पायेगी।

फिलहाल जीएसटी क्षतिपूर्ति के मुद्दे पर 21 राज्यों ने पहले विकल्प को चुना है। जिससे सभी राज्य संयुक्त तौर पर करीब 97 हजार करोड़ रूपए आरबीआई से कर्ज लेंगे। जिसमें भाजपा षासित राज्यों के अलावा गैर भाजपायी षासित राज्य आंध्र प्रदेष और ओड़िषा जैसे भी षामिल हैं लेकिन झारखण्ड, केरल, महाराश्ट्र, दिल्ली, पंजाब, पष्चिम बंगाल, तेलंगाना सहित तमिलनाडु और राजस्थान ने अभी तक केन्द्र को यह नहीं कहा है कि वे क्या करेंगे। जाहिर है इन राज्यों के सामने एक नये किस्म का वित्तीय संकट न केवल खड़ा होगा बल्कि लम्बे समय तक केन्द्र से पैसा न मिलने के कारण इनके विकास कार्य भी प्रभावित होंगे। भारतीय संविधान के भाग 12 में केन्द्र-राज्य के वित्तीय सम्बंध की चर्चा है और इसे लेकर दोनों के बीच तकरार भी होती रही है। देष भर में लाॅकडाउन की वजह से मार्च महीने का जीएसटी लुढ़क कर 28 हजार करोड़ रूपए पर आकर सिमट गया जबकि 2019 में यह एक लाख 13 हजार करोड़ रूपए था। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अप्रत्यक्ष कर के मामले में स्थिति किस कदर बिगड़ी है। वित्त मंत्रालय के आंकड़े को देखें तो अप्रैल में मात्र 32 हजार करोड़ रूपए का राजस्व संग्रह हुआ और मई में यह 62 हजार करोड़ हुआ। जबकि जून में 40 हजार करोड़ रूपए का कलेक्षन देखा जा सकता है जो पिछले वर्श की तुलना में आधे से कम और कहीं-कहीं तो एक-तिहाई ही कलेक्षन हुए हैं। जीएसटी के मापदण्डों को यदि और गहराई से समझें तो सरकार एक साल में 13 लाख करोड़ रूपए इससे जुटाने का लक्ष्य रखा था जो अब तक तीन वर्शों में कभी पूरा नहीं हुआ। वर्श 2017-18 में केवल एक बार ही ऐसा हुआ जब जीएसटी का कलेक्षन एक लाख करोड़ रूपए के पार था। वित्त वर्श 2018-19 में ऐसा चार बार हुआ और 2019-2020 में 5 बार एक लाख करोड़ से अधिक की उगाही हुई 2020-21 का वित्त वर्श कोरोना की चपेट में है और आंकड़े जमीन पर धराषाही हैं। जुलाई 2017 जीएसटी का पहला माह था तब 95 हजार करोड़ से अधिक की वसूली हुई थी। 

प्रधानमंत्री मोदी के लिए जीएसटी उनकी महत्वाकांक्षी योजनाओं में एक है। मगर विकास दर इन दिनों सबसे बेहतर कृशि से मिल रहा है और देष का विकास दर ऋणात्मक 23 तक पहुंच चुका है। दुविधा यह है कि पैसों के अभाव में समस्याओं का निदान कैसे होगा। देष में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर के आंकड़े 25 लाख करोड़ रूपए की राषि एक साल में जुटा देते थे। भले ही वसूली न हो पाये पर कागजों में यह तो सजे होते थे। इसमें कोई दो राय नहीं कि प्रत्यक्ष कर वाला आयकर में भी आने वाले दिनों में गिरावट दिखेगी। टैक्स की वसूली बढ़ाने के लिए सरकार के पास कोई खास एजेण्डा नहीं दिखता है। ऐसा कोरोना से बढ़ी बेकारी भी समझी जा सकती है। वर्शों पहले टैक्स की वसूली बढ़ाने के मामले में सरकार आये दिन नये रास्ते खोजती थी अब राज्यों को क्षतिपूर्ति न दे पाने की स्थिति में कर्ज का रास्ता सुझा रही है। तब सरकार ने जीएसटी देने वालों की चार श्रेणियां बनाई थी जिसमें उदासीन, अवरोधी, उद्यमी और समर्थक के रूप में पहचाने गये थे। गिरते हुए टैक्स दर को देखकर तो लगता है कि टैक्स देने वाले उदासीन तो नहीं लेकिन कोरोना के अवरोध में जकड़ लिए गये हैं। इंग्लैण्ड के दार्षनिक जेरेमी बेंथम ने स्ट्रिक एवं केरेट थ्योरी दिया था जिसमें एक अर्थ सख्त तरीका है तो दूसरे का पुचकारना होता है। कोरोना ने जिस प्रकार विकास का नाष किया है आमदनी को खत्म किया है, कारोबार को नश्ट किया है साथ ही बेकारी और बेरोज़गारी बढ़ाया है उसे देखते हुए सरकार न तो बहुत सख्त कदम उठा पा रही है और न ही बहुत पुचकार पा रही है। कह सकते हैं कि समस्या से उबरने की कोषिष कर रही है। कब उबरेगी कहना मुष्किल है और कोरोना कब जायेगा इसका भी कोई अंदाजा नहीं। फिलहाल संघ और राज्य वित्तीय कठिनाईयों से जूझ रहे हैं लेकिन इन दोनों के बीच प्रदेष के निवासी और देष के नागरिक भी पिस रहे हैं। 


 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

डी-25, नेहरू काॅलोनी,

सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,

देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)

फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

तीन दशक पुराना समावेशी विकास और सुशासन

कोरोना ने बीते 6 माह में भारत की अर्थव्यवस्था जिस प्रकार मुरझाई है वह समावेषी विकास की वेषभूशा को चकनाचूर कर दिया है। बेइंतहा बेरोज़गारी और बेषुमार बीमारी इस बात का परिचायक है कि फिर से एक बार करवट आसान नहीं होगा। 8वीं पंचवर्शीय योजना से चला समावेषी विकास और तभी से यात्रा पर निकला सुषासन एक दूसरे के साथी भी हैं और पूरक भी मगर बात अब कहीं की कहीं हो गयी है। वैसे 1952 के सामुदायिक विकास कार्यक्रम से ही समावेषी की कार्यषाला षुरू हो गयी थी और पांचवीं पंचवर्शीय योजना में जब गरीबी उन्मूलन की बात आयी तब एक बार फिर समावेषी भारत के जनमानस में समाने का प्रयास किया पर षायद बड़ी सोच जमीन पर उतरती ही नहीं या तो नीतियां ढ़ीली होती हैं या फिर उसे लागू करने वाले जनता को हल कर लेते हैं। कोरोना के इस काल खण्ड में तो समावेषी विकास के साथ सुषासन में दूरियां भी हैं और फासले भी मगर मोदी सरकार यह बात क्यों मानेगी वो तो यही कहेंगे कि अभी भी सब कुछ वैसा ही कर रहे हैं। अब थोड़ा सरकार के सुषासन की पड़ताल पर निकलते हैं। स्वतंत्रता दिवस के दिन अगस्त 2015 में प्रधानमंत्री मोदी सुषासन के लिए आईटी के व्यापक इस्तेमाल पर जोर दिया था तब उन्होंने कहा था कि ई-गवर्नेंस आसान, प्रभावी और आर्थिक गवर्नेंस भी है और इससे सुषासन का मार्ग प्रषस्त होता है। गौरतलब है कि सुषासन समावेषी विकास का एक महत्वपूर्ण जरिया है। समावेषी विकास के लिए यह आवष्यक है कि लोक विकास की कुंजी सुषासन कहीं अधिक पारंगत हो। प्रषासन का तरीका परंपरागत न हो बल्कि ये नये ढांचों, पद्धतियों तथा कार्यक्रमों को अपनाने के लिए तैयार हो। आर्थिक पहलू मजबूत हों और सामाजिक दक्षता समृद्धि की ओर हों। 

समावेषी विकास पुख्ता किया जाय, रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ, षिक्षा और चिकित्सा जैसी तमाम बुनियादी आवष्यकताएं पूरी हों। तब सुषासन की भूमिका पुख्ता मानी जायेगी। सुषासन का षाब्दिक अभिप्राय एक ऐसी लोक प्रवर्धित अवधारणा जो जनता को सषक्त बनाये। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिष्चित करे। मोदी सरकार का दूसरा संस्करण 30 मई 2019 से षुरू हो गया। बजट के माध्यम से सुषासन की धार मजबूत करने की कोषिष की क्योंकि उसने इसके दायरे में समावेषी विकास को समेटने का प्रयास किया। दूसरी पारी में मोदी सरकार बुनियादी ढांचे पर सौ लाख करोड़ का निवेष, अन्नदाता को बजट में उचित स्थान देने, हर हाथ को काम देने के लिए स्टार्टअप और सूक्ष्म, मध्यम, लघु उद्योग पर जोर देने के अलावा नारी सषक्तीकरण, जनसंख्या नियोजन और गरीबी उन्मूलन की दिषा में कई कदम उठाने की बात कही गयी मगर अब ऐसा होते नहीं दिखता है। क्योंकि इस समय देष में गाॅड आॅफ एक्ट जो लागू है। यह कहना सही है कि डिजिटल गवर्नेंस का दौर बढ़ा है पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि नौकरषाही में पूरी तरह पारदर्षिता आ गयी है। संवेदनषीलता, पारदर्षिता और प्रभावषीलता सुषासन के उपकरण हैं। जिसके माध्यम से लोक कल्याण को गति दी जाती है। दषकों पहले कल्याणकारी व्यवस्था के चलते नौकरषाही का आकार बड़ा कर दिया गया था और विस्तार भी कुछ अनावष्यक हो गया था। 1991 में उदारीकरण के फलस्वरूप प्रषासन के आकार का सीमित किया जाना और बाजार की भूमिका को बढ़ावा देना सुषासन की राह में उठाया गया बड़ा कदम है। इसी दौर में वैष्विकरण के चलते दुनिया अमूल-चूल परिवर्तन की ओर थी। विष्व की अर्थव्यवस्थाएं और प्रषासन अन्र्तसम्बन्धित होने लगे जिसके चलते सुषासन के मूल्य और मायने भी उभरने लगे। 1992 की 8वीं पंचवर्शीय योजना समावेषी विकास को लेकर आगे बढ़ी और सुषासन ने इसको राह दी। मोदी सरकार इन दिनों कई ऐसे कदम उठा रही है जो या तो निजीकरण की ओर जा रहे हैं या फिर असमंजस की ओर। अर्थव्यवस्था सम्भल नहीं रही है और कोरोना सम्भालने नहीं दे रहा है। विष्व बैंक के अनुसार सुषासन एक आर्थिक अवधारणा है और इसमें आर्थिक न्याय किये बगैर इसकी खुराक पूरी नहीं की जा सकती। 

सुषासन की कसौटी पर मोदी सरकार कितनी खरी है इसका अंदाजा किसानों के विकास और युवाओं के रोज़गार के स्तर से पता किया जा सकता है। किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य 2022 है पर कटाक्ष यह है कि किसानों की पहले आय कितनी है यह सरकार को षायद नहीं पता है। बजट में किसानों के कल्याण के लिए गम्भीरता दिखती है। गांव, गरीब और किसानों के लिए कई प्रावधान हैं जो समावेषी विकास के लिए जरूरी भी हैं। 60 फीसदी से अधिक किसान अभी भी कई बुनियादी समस्या से जूझ रहे हैं। अब हाल यह है कि 23 फीसद ऋणात्मक में जा चुकी जीडीपी को देखें तो किसानों ने ही भारत की लाज बचा रखी है। बेरोज़गार थाली और ताली पीट रहे हैं, दीप प्रज्जवलन कर रहे हैं ये उसी अंदाज में विरोध कर रहे हैं जैसे मोदी कोरोना को भगाने के लिए यह सब कर रहे थे। मई में 20 लाख करोड़ का आर्थिक राहत पैकेज कितनों को फायदा किया अभी इसका हिसाब मिलना मुष्किल है। वैसे हिसाब तो पिछले 6 साल के कार्यकाल का षायद ही मिल पाये। हालांकि सरकार ही पूरी तरह दोशी नहीं है मगर बीते 8 तिमाही से लगातार जारी आर्थिक मंदी पर सरकार के कान में जूं क्यों नहीं रेंगी। कोरोना तो 6 महीने से आया है मन्दी तो 2 साल से चल रही है, बेरोज़गारी दषकों पुरानी है। किसानों की हालत भी युगों से खराब चल रही है। सरकार इसलिए दोशी है क्योंकि जो कहा उसको सही समय पर न पूरा किया और न ही मजबूत आर्थिक कदम उठाये। षायद यही कारण है कि 6 माह के भीतर ही 5 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था का सपना पालने वाला भारत छिन्न-भिन्न हो गया है। 

सुषासन की क्षमताओं को लेकर ढ़ेर सारी आषायें भी हैं। काॅरपोरेट सेक्टर, उद्योग, जल संरक्षण, जनसंख्या नियोजन, पर्यावरण संरक्षण भी बजट में बाकायदा स्थान लिये हुए है। असल में सुषासन लोक विकास की कुंजी है। जो मौजूदा समय में सरकार की प्रक्रियाओं को जन केन्द्रित बनाने के लिए उकसाती हैं। एक नये डिज़ाइन और सिंगल विंडो संस्कृति में यह व्यवस्था को तब्दील करती है। लगभग तीन दषक से देष सुषासन की राह पर है और इतने ही समय से समावेषी विकास की जद्दोजहद में लगा है। एक अच्छी सरकार और प्रषासन लोक कल्याण की थाती होती है और सभी तक इसकी पहुंच समावेषी विकास की प्राप्ति है। इसके लिए षासन को सुषासन में तब्दील होना पड़ता है। मोदी सरकार स्थिति को देखते हुए सुषासन को संदर्भयुक्त बनाने की फिराक में अपनी चिंता दिखाई। 2014 से इसे न केवल सषक्त करने का प्रयास किया बल्कि इसकी भूमिका को भी लोगों की ओर झुकाया। वर्तमान भारत डिजिटल गवर्नेंस के दौर में है। नवीन लोक प्रबंध की प्रणाली से संचालित हो रहा है। सब कुछ आॅनलाइन करने का प्रयास हो रहा है। ई-गवर्नेंस, ई-याचिका, ई-सुविधा, ई-सब्सिडी आदि समेत कई व्यवस्थाएं आॅनलाइन कर दी गयी हैं। जिससे कुछ हद तक भ्रश्टाचार रोकने में और कार्य की तीव्रता में बढ़ोत्तरी हुई है। फलस्वरूप समावेषी विकास की वृद्धि दर भी सम्भव हुई है। साल 2022 तक सबको मकान देने का मनसूबा रखने वाली मोदी सरकार अभी भी कई मामलों में संघर्श करते दिख रही है। मौजूदा आर्थिक हालत बेहतर नहीं है, जीएसटी के चलते तय लक्ष्य से राजस्व कम आ रहा है। कोरोना ने सब पर प्रहार किया है प्रत्यक्ष करदाता की बढ़ोत्तरी हुई पर उगाही में दिक्कत है। राजकोशीय घाटा न बढ़े इसकी चुनौती से भी सरकार जूझ रही है। इस समय तो यह भी बेकाबू है फिलहाल वर्तमान में स्वयं को कोरोना से बचा ले तो यही उसका विकास है। दो रोटी गुजारा के लिए मिल जाये तो यही उसका सुषासन है। दो टूक यह भी है कि सुषासन जितना सषक्त होगा समावेषी विकास उतना मजबूत। अब समावेषी विकास के साथ सुषासन भी पेटरी है इसका सबसे बड़ा प्रहार आर्थिक के चलते हैं। 


सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

डी-25, नेहरू काॅलोनी,

सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,

देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)

फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com


Wednesday, September 2, 2020

अवसर के बावजूद खेल नहीं खिलौने का कारोबार

भारत में 85 फीसद से अधिक खिलौने चीन से आते हैं। इसके अलावा श्रीलंका, मलेषिया, जर्मनी और हांगकांग जैसे देषों से भी खिलौने आयात किये जाते हैं। ऐसे में चीन समेत अन्य देषों से निर्भरता हटाने और लोकल को वोकल करने की जो बात खिलौना उद्योग में कही जा रही है उसमें अवसर तो बहुत हैं पर चुनौती भी कम नहीं है। एक मार्केट रिसर्च फर्म आईएमआरसी का सर्वे बताता है कि भारत में खिलौने का करीब 10 के  करोड़ रूपए का कारोबार होता है जिसमें से संगठित खिलौना बाजार साढ़े तीन से साढ़े चार हजार करोड़ रूपए से अधिक मूल्य का है। अनुमान तो यह भी है कि 2024 तक भारत में खिलौने का कारोबार लगभग सवा तीन अरब डाॅलर के स्तर को पार कर सकता है। भारत की कुल आबादी में 21 फीसद की उम्र दो साल से कम है और अनुमान यह भी है कि साल 2022 तक 0 से 14 साल के उम्र के बीच वाले बच्चों की कुल आबादी 40 करोड़ होगी जो खिलौना कारोबार के लिए बड़े अवसर के लिए देख सकते हैं। प्रधानमंत्री मोदी के आत्मनिर्भर भारत के सपने में खिलौने कारोबार भी षामिल है। मन की बात कार्यक्रम में एक बार फिर आत्मनिर्भरता पर अच्छा खासा जोर दिया और स्पश्ट होता है कि देष के खिलौना बाजार में चीन के वर्चस्व को मोदी खत्म करना चाहते हैं। चीन भारत के बाजार में इतने बड़े पैमाने पर और इतने व्यापक स्तर पर कैसे जगह बना लिया इसे समझना इसलिए जरूरी है क्योंकि हर बार यह बात उठती है कि चीन के सामान सस्ते होते हैं और भारत में कम आमदनी वालों के लिए यह खरीद की प्राथमिकता में रहते हैं। 

अगर पूर्ववर्ती सरकारों को इस बात के लिए दोश दिया जाय कि उनकी नीतियां इतनी उदासीन थी कि संगठित खिलौना बाजार में 80 फीसद से अधिक भारत चीन के आयात पर निर्भर हो गया तो यह सवाल भी जिन्दा होगा कि 6 साल से मोदी सरकार क्या कर रही थी। फरवरी 2020 में आयात षुल्क में 2 फीसद की वृद्धि की गयी थी लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि खिलौना आयात लगातार जारी रहा। देखा जाय तो खिलौना उद्योग के मामले में देष करीब 15 सौ कम्पनियां संगठित हैं और इसके दो गुना से अधिक असंगठित क्षेत्र भी हैं। इतनी बड़ी तादाद में कम्पनी होने के बावजूद ये खिलौना के कुल मांग की तुलना में 30 फीसद की ही पूर्ति कर पाती है। बाकी के लिए दूसरे देषों पर निर्भर रहते हैं। एसोचेम के एक अध्ययन से पता चलता है कि पिछले 5 सालों में 40 प्रतिषत खिलौना बनाने वाली भारतीय कम्पनी बंद हो चुकी हैं और 20 फीसद बंद होने के कगार पर है। बीते 30 अगस्त को मोदी मन की बात में यह बता रहे थे कि ग्लोबल टाॅय इण्डस्ट्री 7 लाख करोड़ रूपए से भी अधिक की है लेकिन भारत का हिस्सा इसमें बहुत कम है। साफ है कि जिस देष में करोड़ों बच्चे खिलौने की उम्र वाले हों वहां सस्ता और अच्छा खिलौने के लिए किसी दूसरे देष पर निर्भरता हो तो यह आत्मनिर्भर भारत के लिए एक चोट है। यदि विष्व बाजार में चीन को पछाड़ना है तो भारतीय खिलौना उद्योग को उससे बेहतर करना होगा। सवाल है कि क्या यह केवल कहने से हो जायेगा। प्रधानमंत्री की चिंता लाज़मी है पर जमीन पर कितना उतरती है असल सवाल तो इसका है। राजस्थान की कठपुतली विदेषी अक्सर ले जाते थे और विदेषों में डिमाण्ड भी थी यह इण्डोनेषिया, अफगानिस्तान, श्रीलंका जैेसे कइै देषों में मषहूर भी हैं। अब इसके कद्रदान तो देष में ही घट गये हैं। इसी तरह अन्यों की भी स्थिति देखी जा सकती है। 

भारतीय बाजार चीनी खिलौनों से पटा है। भारतीय खिलौना उद्योग की कमजोरी यह है कि देष में ज्यादातर खिलौना बनाने वाली कम्पनियां छोटी व सूक्ष्म स्तर की हैं जिसके चलते कम मात्रा में खिलौनों का उत्पादन होता है। इन कम्पनियों को कच्चा माल की आपूर्ति में भी कठिनाई है साथ ही इससे जुड़ी आधुनिक तकनीक का भी आभाव है। कुषल श्रमिकों की कमी और इसके प्रति घटता आकर्शण भी इस उद्योग को पीछे धकेलने में काम कर रहा है। कारोबार की दृश्टि से भारतीय खिलौना बनाने वाली कम्पनियां चीनी खिलौनों के दबाव में कई चुनौतियां झेलती हैं। खिलौने नये-नये आइडिया पर भी टिके होते हैं साथ ही विज्ञापन की भी आवष्यकता पड़ती है इन दोनों मामलों में चीनी कम्पनियां आगे हैं। गिफ्ट का चलन भी चीनी बाजार को बढ़ा दिया है। चीनी खिलौनों की कीमत कम होती है, आधुनिक मषीनरी से तैयार किये जाते हैं यही कारण है कि उनमें वैरायटी भी अधिक है। सरकार जिस तरह से चीनी खिलौने के आयात पर लगाम लगाने का मन बनाया है वह चीन की आर्थिक स्थिति पर असर डाल सकता है मगर भारत में इसका फायदा तभी होगा जब यहां कि कम्पनियां सस्ता और अच्छा खिलौना उत्पादित करेंगी। वैसे गुणवत्ता में भारतीय उत्पाद के सामने चीनी सामान नहीं ठहरते और यही कारण है कि वे महंगे होते हैं। हर बच्चे के हाथ में दिखने वाला खिलौना केवल मनोरंजन का साधन नहीं है। खिलौना ऐसा हो जो व्यक्तित्व के निर्माण में भी मदद करे। जैसा कि मोदी मन की बात में कह रहे हैं कि आईये मिलकर खिलौना बनायें खेलेगा बच्चा तो संवरेगा देष।

वैसे पीएम मोदी खिलौना उद्योग के प्रोत्साहन से एक तीर से कई निषाने साध रहे हैं। एक खिलौने के मामले में आत्मनिर्भरता, वोकल फाॅर लोकल और मेक इन इण्डिया को बढ़ावा देना। दूसरे इस क्षेत्र से जुड़े रोज़गार का अवसर खोजना, तीसरा चीन के भारत में फैले कारोबार को समेटना। देष के विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने के मकसद से सरकार खिलौना समेत अन्य क्षेत्रों में भी उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन दे रहे हैं मगर कोरोना महामारी ने जिस तरीके से अर्थव्यवस्था को तार-तार किया है उसे देखते हुए कारोबार से लेकर रोज़गार तक चीजे आसानी से नहीं संभलेंगी। मोदी की मन की बात में सबकी बात सम्भव नहीं है क्योंकि देष का नागरिक चाहे असंगठित मजदूर हो या स्वरोजगार से जुड़ा व्यक्ति सभी सड़क पर हैं। ऐसे में उन्हें सक्रिय रूप से आत्मनिर्भर भारत के लिए गतिमान होने के लिए वित्त की आवष्यकता है जो केवल कर्ज के रूप में ही उपलब्ध है। स्थिति को देखते हुए बहुत बड़ा तबका कर्ज से भी तौबा करना चाहता है। हालांकि कोषिष में कोई हर्ज नहीं है पर बात पूरी तभी होगी जब सोच जमीन पर उतरेगी।



 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं. 12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

सस्ता व अच्छा स्वदेशी उत्पाद ही विकल्प

भारत और चीन का द्विपक्षीय व्यापार इन दिनों नई करवट ले रहा है। दोनों देषों के बीच सालाना 95 अरब डाॅलर से अधिक का व्यापार है और जो निहायत असंतुलन से भरा हुआ है। गौरतलब है कि भारत का कुल व्यापार घाटा कोरोना से पहले 105 अरब डाॅलर के मुकाबले आधे से अधिक घाटा केवल चीन से था। इसमें कोई दुविधा नहीं कि चीनी उत्पाद भारत में चैतरफा पैर पसार चुके हैं। बदली परिस्थिति में भारत सरकार चीन को झटका देने की फिराक में लगी हुई है। सम्भव है कि इससे चीन की अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचेगी। फिलहाल आंकड़े इषारा करते हैं कि चीनी आयात में कमी आयी है। हालांकि इसके पीछे एक तो लाॅकडाउन के दौरान आयात-निर्यात का ठप्प हो जाना है दूसरा दोनों देषों की अर्थव्यवस्था का सिकुड़ना भी है। पड़ताल बताती है कि भारत खिलौने, बिजली उत्पाद, कार और मोटरसाइकिल के कल-पुर्जे सहित एंटीबायटिक दवाई व कम्प्यूटर और दूरसंचार से जुड़े विनिर्माण क्षेत्र के उत्पादों व अन्य का आयात करता है जबकि कृशि उत्पाद, सूती कपड़ा, हस्त षिल्प, टेलीकाॅम सामग्री व अन्य पूंजीगत वस्तुएं निर्यात करता है। दिलचस्प यह है कि एक तरफ जनवरी से जून तक चीन से आयात में कमी हुई तो दूसरी ओर भारत से चीन भेजे गये माल में बढ़ात्तरी हुई तो क्या यह समझा जाय कि भारत और चीन के बीच व्यापार संतुलन कायम हो रहा है। बीते तीन महीने में भारत के जो कदम चीन को लेकर उठे हैं उससे भारत के पक्ष में मामूली बेहतरी आयी है। लगातार चीन को भारत की ओर से झटका दिया जा रहा है इसी में एक नया झटका चीनी खिलौने के आयात पर षिकंजा कसने को लेकर है। गौरतलब है कि चीन से 80 फीसदी खिलौने आयात होते हैं जिसकी कीमत करीब दो हजार करोड़ रूपए है जो घटिया और खराब भी होते हैं और मोदी सरकार इस पर भी रोक लगाकर चीन को एक और आर्थिक झटका देना चाहती है। वैसे एक हकीकत यह भी है कि चाइनीज़ खिलौने की लागत इतनी कम है कि कोई भी भारतीय कम्पनी चीन की प्रतियोगिता करने में असमर्थ है। इतना ही नहीं पिछले साल भारतीय खिलौने के केवल 20 प्रतिषत बाजार पर भारतीय कम्पनियों का अधिकार था जबकि बाकी 80 फीसद पर चीन और इटली का कब्जा। एसोचेम के एक अध्ययन से पता चलता है कि पिछले 5 सालों में 40 प्रतिषत खिलौना बनाने वाली भारतीय कम्पनी बंद हो चुकी हैं और 20 फीसद बंद होने के कगार पर है। किस-किस आर्थिक मोर्चे चीनी को अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने के लिए और भारतीय स्वदेषी उत्पाद को बढ़ावा देने के लिए प्रयास करने होंगे यह षोध का विशय है। दीवाली में बिजली की लड़ियों से लेकर छोटे-से-छोटा प्लास्टिक का सामान से पूरे भारत का बाजार सजता है इसे उखाड़ना बड़ी कूबत के साथ सस्ते और भारतीय उत्पाद लाने ही होंगे। 

फिलहाल दोनों देषों के द्विपक्षीय व्यापार की पड़ताल बताती है कि अप्रैल में भारत ने चीन को लगभग दो अरब डाॅलर का सामान बेचा है जो जुलाई में बढ़कर साढ़े चार अरब डाॅलर हो गया। इस लिहाज़ से भारत दोगुने से अधिक निर्यात बीते 4 महीनों में किया है। यह एक अच्छा संकेत है बावजूद इसके यह समझना ठीक रहेगा कि चीन 13 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था वाला देष है जबकि भारत बामुष्किल तीन ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था रखता है। हालांकि 2024 तक 5 ट्रिलियन डाॅलर तक का लक्ष्य रखा है मिलेगा या नहीं यह कहना कठिन है। इसी क्रम में दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमेरिका 19 ट्रिलियन डाॅलर से युक्त है। यह आंकड़े यह समझने में मदद कर सकते हैं कि भारत की तुलना में चीन की अर्थव्यवस्था कहां है। ऐसे में विदेषी सामानों पर यदि निर्भरता बनी रहती है तो भारतीय अर्थव्यवस्था को गति लेने में कठिनाई होगी। जाहिर है कि भारत किसी दूसरे देष पर निर्भर नहीं रहना चाहता। ऐसे में जरूरी है कि भारत आत्मनिर्भरता की ओर आगे बढ़े। बीते मई में 20 लाख करोड़ रूपए के कोरोना राहत पैकेज के बीच आत्मनिर्भर भारत का बिगुल भी बजा था। जिसे जमीन पर उतारना आसान तो कतई नहीं है मगर कोषिष करने में कोई हर्ज नहीं है। हालांकि इसके पीछे दुनिया की अर्थव्यवस्था का तहस-नहस होना भी है। कोरोना काल में या उसके बाद कई देषों को अर्थव्यवस्था को मुख्य धारा में लाने में बरसों लगेंगे और इसमें भारत भी षामिल है। ऐसे में आत्मनिर्भरता की ओर मुड़ना मौजूदा परिस्थिति की देन भी है। एक ओर जहां 12 करोड़ से अधिक लोग एकाएक बेरोज़गार हो गये वहीं दूसरी ओर देष की अर्थव्यवस्था हर तरफ से बेपटरी हो गयी। जिसे देखते हुए आत्मनिर्भर भारत सरकार का अन्तिम विकल्प हो गया। यदि 5 साल पहले मेक इन इण्डिया पर बारीकी से गौर किया गया होता तो चीन जैसे सामानों का आयात कब का रोका जा चुका होता। आत्मनिर्भर भारत तो मुसीबत में उठाया गया कदम है जो अभी स्वयं मुसीबत में है।

भारत और चीन के बीच जिस तरीके से सीमा विवाद इन दिनों सामने आया उससे भारत की तल्खी लाज़मी है। एक तरफ कोरोना से संघर्श तो दूसरी तरफ चीन का नया बखेड़ा। देष में चीनी माल का बहिश्कार और सरकार के उठे कई कदम इसका प्रतिउत्तर था। भारत ने जब 59 चीनी मोबाइल एप्प बैन किये तो चीन ने इसे वल्र्ड ट्रेड आॅर्गेनाइजेषन के नियमों का उल्लंघन कहा। भारत ने आईटी एक्ट के 69ए सेक्षन के तहत इन एपों पर प्रतिबंध लगाने का फैसला किया था, इसी क्रम में प्रतिबंध का यह सिलसिला आगे बढ़ चुका है। इतना ही नहीं रेलवे के ठेके से लेकर भारत में उसकी अनेक आर्थिक संधियों एवं गतिविधियों पर फिलहाल रोक लगा कर चीन को भारत ने यह बताने का प्रयास किया कि जिस बाजार में अपना घटिया माल बेचकर मालामाल हो रहा है उसी के साथ बर्बरता नहीं चलेगी। गौरतलब है कि अमेरिका के बाद चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापार साझीदार है। 2019-20 में भारत और चीन के बीच पांच लाख 50 हजार करोड़ रूपए का व्यापार हुआ जो भारत-अमेरिका के बीच 5 लाख 85 हजार करोड़ रूपए की तुलना में थोड़ा ही कम है। भारत के कुल व्यापार में चीन की हिस्सेदारी 11 फीसदी है। मिल रही लगातार आर्थिक चोट से अब इसमें गिरावट दिख रही है। मोदी सरकार का चीन पर वर्चुअल से लेकर एक्चुअल स्ट्राइक के मामले में खुलकर आना यह जताता है कि भारत की सीमा विवाद सहित भारतीय अर्थव्यवस्था में चीन की मनमानी नहीं चलेगी। उधर अमेरिका चीन को लेकर जिस तरीके से रूख लिये हुए है वह भी उसे लगातार नुकसान पहुंचा रहा है। अमेरिका ने भी टिकटाॅक पर प्रतिबंध लगाते हुए आरोप लगाया कि यह निजी जानकारी को एकत्र कर रहा है। इसके अलावा भी कई कड़े कदम अमेरिका ने उठाये हैं। चीन में साम्यवादी षासन है, यहां लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं है। चीन प्रथम की नीति ही उसका अंतिम लक्ष्य है, जिनपिंग ताउम्र के लिए राश्ट्रपति बना दिये गये हैं और मोदी 2024 तक के लिए प्रधानमंत्री हैं। चीन और भारत के बीच व्यापार की यात्रा दो दषक में जमीन से आसमान पर पहुंच गयी। गौरतलब है कि 2008 में भारत का सबसे बड़ा बिजनेस पार्टनर चीन बन गया था और व्यापार लगातार बढ़ता गया। स्थिति यहां तक थी कि कुल व्यापार का 70 फीसद पर चीन काबिज हो गया। जिस तरह चीन के सामान भारत में बिके क्या उसी तरह सस्ते सामान भारत में बनाये जा सकते हैं। भारत में गरीबी और इनकम की कमी ने चीनी सामानों के प्रति बड़ा आकर्शण पैदा कर दिया। यदि भारत को चीन के सामान सीमा के उस पार ही रोकना है तो भारत में चीन से बेहतर और सस्ता सामाना बनाना ही होगा। 


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं. 12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

अस्तित्व की लड़ाई में दो-चार होते कोचिंग सेंटर

बीते जून विष्व बैंक का अनुमान था कि 1979 के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था सबसे बुरे दौर से गुजरने वाली है और यह आर्थिक विकास दर को ध्यान में रख कर आंका और नापा गया था परन्तु स्थिति देख कर तो ये लगता है कि भारत की अर्थव्यवस्था इतनी गर्त में कभी नहीं रही होगी। यहां बड़ी बातों का कोई मतलब नहीं है बल्कि बड़ी समस्याओं से जूझ रहे छोटी संस्थाओं और अर्थव्यवस्था के लिए संघर्श कर रहे लोगों की बात करना तार्किक होगा। इन्हीं में एक देष में फैले कोचिंग सेन्टर हैं हालांकि इसमें कई पूंजी की क्रान्ति ला चुकी हैं और कई किराये के लिए भी संघर्श करते हैं। इनसे जुड़ेे कार्मिक अर्थात् षिक्षक, सहायक व तकनीकी आदि देखे जा सकते हैं। मतलब साफ है कि एक सेंटर यदि बर्बाद होता है तो कई घर तबाह होते हैं। इनमें मसलन सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कराने वाली संस्थाएं, इंजीनियरिंग, मेडिकल से जुड़ी संस्थाएं व सीडीएस, एनडीए, एसएससी और बैंकिंग समेत अन्य संस्थाएं देखी जा सकती हैं। मसला यह है कि विगत् 5 माह से सब कुछ तहस-नहस हो गया है। पढ़ाई बदल गयी है, पढ़ाने वाले भी बदल गये हैं मगर अस्तित्व के संघर्श से कोचिंग सेन्टरों को मुक्ति नहीं मिल रही है। सरकार की तरफ बरबस नजर चली जाती है कि क्या पता कुछ सावधानी और गाइडलाइन के साथ गर्त में जा चुकी अर्थव्यवस्था को ध्यान में रखकर सेन्टर खोलने का कोई फरमान आ जाये मगर यहां बात उम्मीदों के सिवा आगे नहीं बढ़ पा रही है। हालांकि कोरोना ने ऐसा सरकार को भी सोचने नहीं दिया है। फिर भी सवाल यह है कि जो बिगड़ रहा है वह कैसे बनेगा और साथ ही क्या केवल कोचिंग सेंटर बर्बाद हो रहे हैं, एक चिंतक की दृश्टि से देखें तो भारत और राज्य सरकार को मिलने वाली 18 फीसद जीएसटी की प्राप्ति भी तो इसके चलते नहीं हो रही है। जिस तरह परीक्षाओं के आयोजन को लेकर संघ लोक सेवा आयोग व लोक सेवा आयोग तारीख घोशित कर रहा है, आगामी कलेन्डर जारी कर रहा है उसे देखते हुए यह भी लगता है कि कोरोना की दहषत इन पर नहीं है। हालांकि इसके लिए दुनिया नहीं रोकी जा सकती मगर पढ़ाई के संकट से जूझ रहे प्रतियोगी क्या मुक्त होकर उन्मुक्त भाव से परीक्षा दे रहे हैं। जबकि जिन कोचिंगों के सहारे प्रतियोगी अपनी पढ़ाई की कठिनाई को समाधान में बदलता था वे बंद पड़ी हैं। हालांकि आॅनलाइन में परिवर्तन भी तेजी से हो रहा है मगर इसमें भी सभी की पहुंच अभी बनी नहीं है। उसका प्रमुख कारण डूबी अर्थव्यवस्था और इंटरनेट की कनेक्टिविटी भी है।

कोरोना की वजह से छात्रों के अपने-अपने घर लौट जाने के कारण स्थानीय लोगों की आमदनी अचानक गिर गयी है। कोचिंग क्लासेज़ अमूमन जून तक अपना नया सत्र षुरू करते हैं और इसी समय स्थानीय मकान मालिक से लेकर चाय-समोसे या भोजन देने वाले भोजनालय भी बड़े रोज़गार की ओर चले जाते हैं। बात यहां प्रत्यक्ष रूप से कोचिंग सेंटर के बंद होने की हो रही है परन्तु इसके सहारे रहने वाले कई रोज़गार भी खत्म हो गये हैं। केपीएमजी की एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2016 में आॅनलाइन कोचिंग करने वालों की तादाद महज 16 लाख थी 2021 तक यह एक करोड़ हो जायेगी। वैसे देखा जाय तो कई मिथक भी टूटे हैं। पहले आॅनलाइन षिक्षा या कोचिंग उतनी असरदार नहीं मानी जाती थी लेकिन कोरोना ने आॅनलाइन कोचिंग को बड़ा अवसर दिया है। जिसके चलते अब प्रतियोगी भी डिजिटल कोचिंग को एक विकल्प बना रहे हैं। अच्छी बात यह है कि छोटे षहरों के प्रतियोगियों को कम खर्चे पर यह सुविधा मिल सकती है। दिल्ली समेत बड़े षहरों की कोचिंग सेंटरों में लाखों फीस जमा करने के बाद जो षिक्षा मिलती थी अब वह कुछ हजार रूपये में ही उनके घर पर पहुंच रही है। इंजीनियरिंग और मेडिकल की कोचिंग हब कोटा इन दिनों वीरान है। जिस तरह कोरोना अभी पैर पसार रहा है उसे देखते हुए लगता है कि इंतजार अभी लम्बा है। सरकार क्या सोचती है, कैसे करेगी यह तो वो जाने पर छोटे और मझोले किस्म के बहुतायत में कोचिंग सेंटर या तो इन दिनों बंद हो चुके है या बंद होने के कगार पर है। जिस तरह कोचिंग का कारोबार तेजी से बढ़ा है उसे देखते हुए बड़ी अर्थव्यवस्था की दृश्टि से इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। एसोचेम ने 2013 में अपनी एक रिपोर्ट में यह अनुमान लगाया था कि 2017 तक कोचिंग उद्योग 70 अरब डाॅलर तक पहुंच जायेगा। वैसे असंगठित क्षेत्र में होने की वजह से इसका पूरी तरह सटीक अनुमान लगाना मुष्किल है मगर वर्श 2014 में नेषनल सेम्पल सर्वे आॅरगनाइजेषन ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि देष में फिलहाल 7 करोड़ से अधिक बच्चे कोचिंग या निजी ट्यूषन लेते हैं। आंकड़े पुराने हैं पर अंदाजा यह लगाना आसान है कि कोचिंगों की बच्चों पर निर्भरता कितनी है और इसका कारोबार आर्थिक दृश्टि से कितना बड़ा है। 

वैष्विक महामारी कोरोना का प्रभाव हर सेक्टर पर पड़ा है। एजूकेषन इंडस्ट्री भी इससे अछुति नहीं है। लाॅकडाउन के साथ आये षब्द सोषल डिस्टेंसिंग ने भविश्य में आने वाले बदलाव के संकेत दिये हैं। बीते 5 माह में षिक्षा जगत के बड़े समूह कोचिंग इंडस्ट्री पर इस महामारी का जबरबस्त प्रभव पड़ा है। इसी के कारण इसने खुद को काफी बदल लिया है और यह बदलाव आॅनलाइन क्लासेज है। आॅनलाइन क्लास एक सुविधा तो है मगर कईयों के लिए यह एक नया संघर्श है। मैं स्वयं एक संस्था का संस्थापक हूं जिसकी स्थापना 2002 में हुई थी। मैं यह मानता हूं कि 2020 में आई कोरोना महामारी मेरे संघर्श को 2002 के बराबर में लाकर खड़ा कर दिया है। आॅनलाइन क्लास में मेरी संस्था भी जा चुकी है जिसके चलते यह रोज आभास होता है कि पहले एक प्राध्यापक के तौर पर कक्षा में जाते ही क्लास षुरू हो जाती थी और अब पहले मषीन, वीडियो, आॅडियो आदि दुरूस्त होता है तब अपनी बारी आती है। तकनीकी रूप से आॅनलाइन षिक्षा भारत में अभी भी काफी महंगी है मुख्यतः उपकरण की दृश्टि से। कोरोना काल में इस क्षेत्र के कारोबारी भी कोचिंग सेंटर की मजबूरी का लाभ उठा रहे हैं और उन्हें इससे जुड़ा सब सामान महंगा दे रहे हैं। अब कोचिंग सेंटर एक स्टूडियो में सिमटता जा रहा है। यदि यह लम्बे समय तक चला तो एक कयास यह है कि कहीं प्रतियोगी और पढ़ाने वाले आॅनलाइन के आदती न हो जायें।

कोरोना की वजह से देष में 75 हजार करोड़ के कोचिंग कारोबार को नुकसान पहुंचा है। देष में बहुत कम लोग होंगे जिन्होंने दिल्ली, इलाहाबाद और कोटा का नाम नहीं सुना होगा। हालांकि लखनऊ, देहरादून, हैदराबाद, बंगलुरू, जयपुर सिविल सेवा सहित अन्यों की कोचिंग के लिए उभरा क्षेत्र है। इन छोटे जगहों में भी लाखों-करोड़ों का खूब कारोबार होता है मगर यहां भी सन्नाटा उतना ही पसरा है। कोचिंग संस्थानों की सांस उखड़ रही है और यह कब खुलेगा इसके आसार बनते नहीं दिख रहे हैं। देष में कई स्थानों पर किराया माफी को लेकर कोचिंग संस्थानों ने एसोसिएषन बना लिया है इसके भी कई स्वरूप हैं। कोरोना जहां एक ओर जीवन पर भारी है वहीं बंद पड़ी कोचिंगें जेब पर भारी हैं। ई-एजूकेषन को इन दिनों बढ़ावा मिला है। छोटे बच्चों के स्कूल से लेकर बडे-बड़े विष्वविद्यालय इसी माध्यम का सहारा ले रहे हैं। मगर क्या षिक्षा की यह विधा कक्षा वाली षिक्षा का विकल्प बन पायेगी यह प्रष्न पहले भी जिन्दा था अभी भी है। कारोबार में आसमान छू रहे कोचिंग सेंटर जहां बच्चों का भविश्य संवार रहे थे वहीं अपनी और देष की अर्थव्यवस्था में भी योगदान कर रहे थे अब सब कुछ सिमटता दिख रहा है। स्वरूप इतना बिगड़ गया है कि कोचिंग सेंटर अस्तित्व की लड़ाई में दो-चार हो रहे हैं।


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं. 12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com


रोज़गार के सपनों के बीच एक देश एक परीक्षा

बीते 19 अगस्त को मोदी सरकार की कैबिनेट ने एक देष एक परीक्षा को मंजूरी दी। अब देखना यह होगा कि सरकारी नौकरी की तैयारी करने वाले करोड़ों युवाओं के लिए यह कितना लाभकारी सिद्ध होगा। षिक्षा और रोज़गार का गहरा नाता है। कोरोना के इस कालखण्ड में षिक्षा भी हाषिये पर है और रोजगार तो मानो निस्तोनाबूत हो गये हैं। इसी बीच नौकरी के लिए परीक्षा की एक नई प्रणाली का उदय होना कौतूहल के साथ रोचकता बढ़ा दिया है। फिलहाल एक देष एक परीक्षा नूतनता से भरी व्यवस्था प्रतीत होती है मगर देखने वाली बात यह रहेगी कि सरकारी नौकरी देने के मामले में सरकार का दिल कितना बड़ा है। सरकार के हाल के डाटा के अनुसार 1 मार्च 2018 तक केन्द्र सरकार के विभागों में 6 लाख 83 हजार से अधिक रिक्त पदों में पौने 6 लाख ग्रुप सी और करीब 90 हजार ग्रुप डी और 20 हजार के आसपास ग्रुप बी के पद रिक्त हैं। हर साल करीब सवा लाख पदों के लिए ढ़ाई से तीन करोड़ प्रतियोगी अलग-अलग परीक्षाओं में आवेदन करते हैं जिन्हें अलग-अलग भर्ती एजेंसियां सम्पन्न कराती हैं। जाहिर है अब इसकी नौबत नहीं आयेगी क्योंकि एक देष एक परीक्षा में अब केवल राश्ट्रीय भर्ती एजेंसी (एनआरए) के अन्तर्गत ही परीक्षा आयोजित होंगी। जिसके तहत ग्रुप बी और सी के नाॅनटेक्निकल पदों पर भर्ती के लिए अभ्यर्थियों को एक ही आॅनलाइन काॅमन एलिजिबिलिटी टेस्ट (सीईटी) देना होगा। मौजूदा समय में भर्ती एजेंसी के तौर पर संघ लोक सेवा आयोग सिविल सेवा एवं केन्द्रीय सेवा के लिए जबकि कर्मचारी चयन आयोग इसके नीचे की सेवाओं के लिए भर्ती करता रहा है। 

राश्ट्रीय भर्ती एजेंसी के गठन की मंजूरी के साथ ही इसमें फिलहाल तीन भर्ती बोर्डों मसलन रेलवे भर्ती बोर्ड, कर्मचारी चयन आयोग और बैंकिंग कर्मचारी संस्थान को इसमें षामिल किया गया है। मौजूदा समय में केन्द्रीय स्तर की नौकरी से जुड़े करीब 20 भर्ती बोर्ड हैं जिसे आने वाले समय में एकीकृत करने का प्रयास रहेगा। ढांचागत रूप से नई भर्ती व्यवस्था सघन और स्पश्ट तो दिखती है मगर कई मामलों में यह कितनी प्रखर होगी इसके धरातल पर आने के बाद ही पता चलेगा। फिलहाल इस नई पद्धति में देष के 676 जिलों में परीक्षा केन्द्र के साथ कुल केन्द्रों की संख्या एक हजार रखने की योजना है साथ ही 117 जिलों में परीक्षा हेतु आधारभूत संरचना के निर्माण की बात भी षामिल है। राज्य की नौकरियों के लिए अलग से आवेदन नहीं देने की स्थिति भी इसमें दिखती है। पारदर्षिता को बढ़ावा मिलेगा इसकी सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। प्रधानमंत्री मोदी देष के करोड़ों युवाओं के लिए राश्ट्रीय भर्ती एजेंसी को एक वरदान साबित होने की बात कह रहे हैं। जाहिर है इस नई परीक्षा प्रणाली के चलते परीक्षा पर होने वाले खर्च में गिरावट आयेगी और बार-बार आवेदन करने का झंझट भी नहीं रहेगा। परीक्षा आॅनलाइन होने के कारण पारदर्षिता का भी प्रभाव होगा मगर देष में इंटरनेट कनेक्टिविटी को भी मजबूती देनी होगी। कोरोना काल में जिस तरह आॅनलाइन षिक्षा से दूर-दराज के विद्यार्थी वंचित हैं इससे यह स्पश्ट हो गया कि ऐसी सुविधाओं के अभाव में कई नुकसान हुए हैं। हालांकि एक हजार परीक्षा केन्द्र को सुसज्जित करना सरकार की जिम्मेदारी होगी। इसमें कोई दुविधा नहीं कि यह एक पारदर्षी व्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा। फिलहाल 2025 तक इंटरनेट कनेक्टिविटी देष के 90 करोड़ जनमानस तक पहुंच बना लेगी। पढ़ाई और परीक्षा का गहरा नाता है ऐसे में इंटरनेट की सुविधा दो तरफा काम कर रही है। भारत में ढ़ाई लाख पंचायत और साढ़े 6 लाख से अधिक गांव जिसमें काफी पैमाने पर अभी ऐसी सुविधाएं पहुंचनी बाकी हैं। साथ ही बिजली की भी पहुंच के साथ बड़ी हुई मात्रा आॅनलाइन के लिए एक बड़ी सुविधा होगी। जाहिर है आॅनलाइन परीक्षा तभी मजबूती पकड़ेगी जब आॅनलाइन षिक्षा को भी बढ़ावा मिलेगा। 

एक देष एक कर 1 जुलाई 2017 से लागू है। एक देष एक राषन कार्ड भी स्वरूप ले लिया है। एक देष और एक चुनाव पर चर्चा कई वर्शों से जारी है। इसी बीच एक देष एक परीक्षा की मंजूरी मिलना और इसके पहले बीते 29 जुलाई को नई षिक्षा नीति 2020 का कैबिनेट द्वारा मंजूरी देष को एक नई सुचिता की ओर ले जाने का प्रयास तो है। मगर आर्थिक हालात कई मामलों में जमींदोज हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि बेरोज़गारी अपने सारे रिकाॅर्ड को तोड़ दिया है। इस दरमियान यदि सरकार खाली पदों की भरपाई करती है तो बेरोज़गारों के लिए यह किसी बड़े उपहार से कम नहीं होगा। नई परीक्षा प्रणाली महंगी हुई परीक्षाओं को भी न केवल सस्ता करेगी बल्कि समय और संसाधन को भी बचायेगी। यहां वहां की भाग-दौड़ से बचत तो होगी ही महिलाओं और ग्रामीण उम्मीदवारों के लिए यह बड़ी सुविधा के रूप में देखी जायेगी। परीक्षा केन्द्र का समीप होना और बारबार यात्रा करने और ठहरने आदि के खर्चे से मुक्ति भी मिलेगी। गौरतलब है सीईटी में प्राप्त अंक परिणाम घोशित होने की तिथि से तीन साल के लिए वैध होंगे। दोबारा सीईटी में भाग लेने के लिए यहां अवसरों की भी कोई सीमा नहीं है। इसी तीन सालों के बीच वे मुख्य परीक्षा में षामिल होते रहेंगे। सम्भावना जताई गयी है कि यह परीक्षा साल में एक या दो बार भी आयोजित की जा सकती है। ये सब सुविधाएं बेरोज़गारों के लिए संतोश प्रदान करने वाली तो लगती हैं। वैसे इसे परीक्षा में सुधारवादी संकल्पना से निहित एक ऐसी योजना के रूप में देखा जा सकता है जो भविश्य की तस्वीर बदल सकती है। देष में पारदर्षी परीक्षा करा लेना भी हमेषा चुनौती रही है। कर्मचारी चयन आयोग जैसी संस्थाएं परीक्षा में अनियमितता के लिए बदनाम हो चुकी हैं। यदि इस प्रणाली से पारदर्षिता का भरपूर विकास होता है तो यह मेहनतकष युवाओं के लिए बेहतर ही कहा जायेगा। 

फिलहाल राश्ट्रीय भर्ती एजेंसी का मुख्यालय दिल्ली में रहेगा और इसका चेयरमैन सचिव स्तर का अधिकारी होगा। इसके बोर्ड में उन सभी विभागों का प्रतिनिधित्व होेगे जिनके भर्ती बोर्ड को इसमें जोड़ा जायेगा। यह भी समझना ठीक रहेगा कि आखिर ये नई व्यवस्था क्यों लायी गयी क्या पहले फुटकर में बनी भर्ती एजेंसियां इस मामले में सार्थक कार्य नहीं कर पा रही थी। असल में सरकारी नौकरी के लिए अभ्यर्थियों की एक जैसी पात्रता के बावजूद अलग-अलग परिक्षाओं में षामिल होना पड़ता था जिसके चलते उन्हें न केवल आर्थिक दबाव से जूझना पड़ता था बल्कि आये दिन परीक्षाओं से भी गुजरना पड़ता था। गौरतलब है कि प्रत्येक परीक्षा में करीब ढ़ाई से तीन करोड़ अभ्यर्थी आवेदन करते थे जिसे अब एक छतरी के नीचे ला दिया गया है। सरकार ने भर्ती एजेंसी के लिए 15 सौ करोड़ से अधिक रूपए का आबंटन किया है जिसे तीन साल में व्यय किया जाना है। एक देष एक परीक्षा एक अनूठी व्यवस्था है इसके तहत सीईटी के अंतर्गत तीन स्तरों पर परीक्षा को आयोजित करने का जो सुझाव है उसमें 10वीं, 12वीं और स्नातक स्तर षामिल है। इसमें गौर करने वाली बात यह है कि प्रस्ताव के अनुसार षुरूआत में सीईटी द्वारा परीक्षा सिर्फ अंग्रेजी और हिन्दी माध्यम में आयोजित होंगे, क्षेत्रीय भाशाओं में यह नहीं होगा। जाहिर है जो अन्य भाशा के अभ्यर्थी हैं उनके लिए यह एक समस्या होगी। वैसे यहां बताते चलें कि नई षिक्षा नीति 2020 में षुरूआती षिक्षा क्षेत्रीय भाशा के लिए भी कही गयी है। यहां एक देष एक परीक्षा का दृश्टिकोण थोड़ा लचर दिखाई देता है। ऐसे में इसे क्षेत्रीय भाशाओं के भीतर षीघ्र लाना ही होगा ताकि देष का कोई भी परीक्षार्थी वंचित न रहे। फिलहाल एक देष एक परीक्षा का यह नया दृश्टिकोण जो आने वाले दिनों में बेरोज़गारी से जकड़े युवाओं के लिए कई राहत देगा। 


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं. 12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com


बालश्रम वो सवाल जिसका जवाब शेष है

बालश्रम सम्पूर्ण विष्व में व्याप्त एक ऐसी समस्या है जिसका निदान किये बिना बेहतर भविश्य की कल्पना सम्भव नहीं है। यह स्वयं में एक राश्ट्रीय और सामाजिक कलंक तो है ही साथ ही अन्य समस्याओं की जननी भी है। देखा जाय तो यह नौनिहालों के साथ जबरन की गयी एक ऐसी क्रिया है जिससे राश्ट्र या समाज का भविश्य खतरे में पड़ता है। यह एक संवेदनषील मुद्दा है जो लगभग सौ वर्शों से चिंता और चिंतन के केन्द्र में है। अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर इसे लेकर वर्श 1924 में विचार तब पनपा जब जेनेवा घोशणा पत्र में बच्चों के अधिकारों को मान्यता देते हुए 5 सूत्रीय कार्यक्रम को प्रकाष में लाया गया था। इसके चलते बालश्रम को प्रतिबंधित किया गया साथ ही विष्व के बच्चों के लिए जन्म के साथ ही कुछ विषिश्ट अधिकारों को लेकर स्वीकृति दी गयी। बचपन सूचकांक ग्लोबल चाइल्डहुड रिपोर्ट की ताजा रिपोर्ट को देखें तो 176 देषों में भारत हजार में से 769 स्कोर के साथ 113वें स्थान पर है। संयुक्त राश्ट्र का मानना है कि 5 से 14 साल के किसी भी बच्चे को किसी भी काम के माध्यम से बन्दी बनाना, उन्हें हानि पहुंचाना, अन्तर्राश्ट्रीय कानून और राश्ट्रीय कानून का उल्लंघन करना माना जायेगा। अगर काम उन्हें स्कूली षिक्षा से वंचित करता है या स्कूली षिक्षा के साथ काम का दबाव डाला जाता है तो वह बालश्रम है। भारत में बालश्रम को लेकर स्पश्ट आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं लेकिन 2011 की जनगणना के अनुसार 5 से 14 वर्श के करोडों बच्चे बालश्रम की दलदल में हैं जबकि अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट को देखें तो पूरी दुनिया में 15 करोड़ से अधिक बच्चे इससे षोशित हैं जिसमें सबसे ज्यादा संख्या अफ्रीका में है। 7 करोड़ से अधिक बच्चे अफ्रीका में बालश्रम की कैद में हैं जबकि एषिया-पैसिफिक में यह करीब सवा छः करोड़ है। हैरत यह है कि दुनिया के सबसे विकसित कहे जाने वाले देष अमेरिका में बाल मजदूरों की संख्या एक करोड़ के पार बतायी जाती है। भारत में बाल मजदूरी की संख्या वाले राज्यों में क्रमषः उत्तर प्रदेष, बिहार, राजस्थान, महाराश्ट्र और मध्य प्रदेष षामिल है। यहां बाल मजदूरों की कुल 55 फीसद जनसंख्या है। राज्यवार देखें तो उत्तर प्रदेष और बिहार में यह आंकड़ज्ञ 21.5 प्रतिषत, 10.7 फीसद है। 

केन्द्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के अनुसार बाल श्रम (प्रतिबंध और नियमन) संषोधन विधेयक 2012 को 2012 में मंजूरी मिल गयी थी और उसे षीत सत्र में पेष किये जाने की बात थी हालांकि यह कानून दोनों सदन से 2016 में पारित हुआ। जिसमें 1986 के कानून को न केवल परिमार्जित करने की बात देखी जा सकती है साथ ही 14 से 18 वर्श के उम्र के किषोरों के काम को लेकर नई परिभाशा भी गढनी थी। इसके पहले साल 2006 में भी कुछ संषोधन किये गये थे। संषोधन में यह कोषिष की गयी कि सभी कार्य और प्रक्रियाओं में 14 साल से कम उम्र के बच्चों को काम पर रखना प्रतिबंधित होगा। देखा जाये तो इसे अनिवार्य षिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 से जोड़ने का भी प्रावधान किया गया। हालांकि इन सबके बावजूद कुछ मामले मसलन परम्परागत व्यवसाय, गुरू षिश्य सम्बंधों के तहत काम करने वाले बच्चों को इससे बाहर रखा गया। मगर इनका भी स्कूल जाना अनिवार्य किया गया। सामाजिक-आर्थिक बदलाव के इस दौर में काफी कुछ बदल रहा है बावजूद इसके कई मामले स्तरीय सुधार से वंचित हैं जिसमें बालश्रम भी षामिल है। भारतीय संविधान में बालश्रम को रोकने के लिए मूल अधिकार के अंदर अनुच्छेद 24 में इसका उल्लेख देखा जा सकता है। स्वतंत्रता के बाद लागू संविधान में इसके अलावा कई और प्रावधान किये गये जो बच्चों को नैसर्गिक न्याय प्रदान करते हैं। अनुच्छेद 21(क) षिक्षा का मौलिक अधिकार देता है जबकि नीति-निर्देषक तत्व के अंतर्गत अनुच्छेद 45 में यह अनिवार्य किया गया है कि 6 से 14 वर्श के बालकों को राज्य निःषुल्क व अनिवार्य षिक्षा देगा। इतना ही नहीं अनुच्छेद 51(क) के अन्तर्गत मौलिक कत्र्तव्य में साल 2002 में यह प्रावधान लाया गया कि ऐसे बालकों के अभिभावक उन्हें अनिवार्य रूप से षिक्षा दिलवायेंगे। गौरतलब है कि मौलिक कत्र्तव्य 42वें संविधान संषोधन के अन्तर्गत 1976 में जोड़ा गया था और 2002 में संषोधन के बाद पहले से चली आ रही 10 कत्र्तव्यों में एक जुड़ते हुए अब संख्या 11 हो गयी है। देखा जाय तो संविधान में बालश्रम को 26 जनवरी 1950 से ही प्रतिशेध किया गया है मगर इस कलंक से देष को मुक्ति नहीं मिल रही है। भारत में मजदूरी करने वाले बच्चों में एक बड़ी तादाद ग्रामीण इलाकों से ताल्लुक रखती है। आंकड़ों को देखें तो लगभग 80 प्रतिषत बाल मजदूरी की जड़े ग्रामीण भारत में ही हैं। जिसमें खेती से जुड़े काम वालों की संख्या सर्वाधिक है। इतनी वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के बावजूद संसार में करोड़ों की तादाद में बाल मजदूर बढ़ रहे हैं जिन्हें सामान्य जीवन जीने की षायद ही कोई आषा हो। सवाल है कि क्या बालश्रम जैसी समस्या का समाधान स्पश्ट रूप से कोई देख पा रहा है। 

अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन बाल श्रम को बच्चे के स्वास्थ की क्षमता, उसकी षिक्षा को बाधित करना और षोशण करने में परिभाशित किया है। वैष्विक पटल की पड़ताल करें तो बच्चों की स्थिति कहीं अधिक चिंताजनक है। बालश्रम का जंग बहुत पुराना है। काल माक्र्स की विचारधारा के अनुसार बालश्रम का यह रोग औद्योगिक क्रान्ति के षुरूआती दिनों में ही देखा जा सकता है। संयुक्त राश्ट्र संघ, अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन व अमेरिका सहित दुनिया के देष बालश्रम में आने वाले बालकों की उम्र पर अपना-अपना नजरिया रखते हैं। अमेरिका में 12 साल या उससे कम के लोगों को बाल श्रमिक माना जाता है जबकि संयुक्त राश्ट्र संघ यही उम्र 18 वर्श बताता है। अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन की नजरों में यह 15 वर्श है जबकि भारत में यह उम्र 14 वर्श है। भारत में 1979 में सरकार द्वारा बाल मजदूरी को खत्म करने के उपाय के रूप में गुरूपाद स्वामी समिति का गठन किया गया। सभी समस्याओं का अध्ययन करके समिति ने रिपोर्ट प्रस्तुत की और इसके निराकरण के लिए बहुआयामी नीति पर बल दिया। समिति की सिफारिष को ध्यान में रखकर 1986 में बाल मजदूरी (प्रतिबंध विनियमन) अधिनियम प्रकाष में आया। इसके बाद 1987 में इससे जुड़ी विषेश नीति बनाई गयी जिसमें जोखिम भरे व्यवसाय एवं प्रक्रियाओं में लिप्त बच्चों के पुर्नवास पर ध्यान देने की आवष्यकता पर जोर दिया गया। अक्टूबर 2006 तक बालश्रम कानून में एक असमंजस प्रकट हुआ कि किस काम को खतरनाक कहें और किसे गैर खतरनाक। इसी के बाद 1986 के अधिनियम में संषोधन करते हुए ढ़ाबों, घरों, होटलों पर बाल श्रम करवाने वालों को दण्डनीय अपराध की श्रेणी में रखा गया। भारत में वैसे कानून की भरमार है मगर बालश्रम का विस्तार भी उतने ही व्यापक रूप में है। लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम 2012, किषोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम 2015 आदि को देखा जा सकता है। गौरतलब है कि 1986 के बालश्रम अधिनियम में 83 कामों को खतरनाक की श्रेणी में रखा गया था जो संषोधन के बाद 3 क्षेत्रों को ही खतरनाक बताया गया जहां किषोर बच्चे काम नहीं कर सकते जिसमें खनन, ज्वलनषील पदार्थ और खतरनाक प्रक्रिया षामिल है। 

अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट को देखें तो कुल बालश्रम के आधे बच्चे खतरनाक कामों में लगे हुए हैं। सवाल है कि बालश्रम क्यों बढ़ता है यूनिसेफ के अनुसार बच्चों का नियोजन इसलिए किया जाता है क्योंकि उनका आसानी से षोशण किया जा सकता है। बच्चे अपनी उम्र के अनुरूप कठिन काम जिन कारणों से करते हैं उनमें आम तौर पर गरीबी पहला कारण है। जनसंख्या विस्फोट, सस्ता श्रम और कानूनों का सही ढंग से लागू न होना। बच्चों के स्कूल गरीबी के कारण छूट जाना आदि तमाम कारण इन्हें बालश्रम की ओर झोंकती है। भारत में बच्चे ईष्वर का रूप माने जाते हैं लेकिन यहां भी बालश्रम की स्थिति को देखकर कथनी और करनी में व्यापक अन्तर दिखाई देता है। जिस तरह करोड़ों बच्चे नियोजन किये जा रहे हैं उससे स्पश्ट है कि अपने कानून और अपने गिरेबान दोनों को एक बार फिर से झांकने की जरूरत है। हालंाकि पिछले कुछ सालों में भारत सरकार और राज्य सरकारों की बालश्रम को लेकर सराहनीय प्रयास रहे हैं। षिक्षा का अधिकार कानून सहित पाॅक्सो कानून व बालश्रम कानूनों में संषोधन इस दिषा में अच्छे संकेत हैं मगर कठोरता से इन्हें लागू करना अभी बाकी है। बचपन बचाव आंदोलन के कैलाष सत्यार्थी की भी यहां सराहना की जा सकती है जिन्होंने लाखों बच्चों को इस दलदल से बाहर निकाला है इस काम के लिए उन्हें नोबल पुरस्कार भी दिया जा चुका है। अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट यह बताती रही है कि मजदूरी करवाने वाले देषों में भारत भी षामिल है। दुखद है कि नन्हें हाथों में बीड़ी, पटाखे, माचिस, ईंटें, जूते यही सब दिखाई देते हैं। कालीन बुनवाये जाते हैं, कढ़ाई करवाई जाती है और रेषम के कपड़े बनवाये जाते हैं। चैकाने वाला सच यह है कि रेषम के तार खराब न हो इस हेतु बच्चों से ही काम करवाया जाता है। फाइंडिंग आॅन द फाॅम्र्स आॅफ चाइल्ड लेबर नाम की एक रिपोर्ट से बरसों पहले यह झकझोरने वाले सच का खुलाया हुआ था। विकासषील देषों में बालश्रमिकों की संख्या सबसे अधिक है। भारत में स्टील का फर्नीचर बनाने व चमड़े इत्यादि में नौनिहालों को देखा जा सकता है। फिलिपीन्स, बांग्लादेष समेत कई एषियाई देष अलग-अलग रूपों में इनका षोशण कर रहे हैं। भारत में 1948 के कारखाना अधिनियम से लेकर नित नये कानून बने पर बालश्रम नहीं रोक पाये। कुल श्रम षक्ति का 5 फीसद बालश्रम ही है। 1996 में उच्च न्यायालय ने बालश्रम पुर्नवास कोश की स्थापना का निर्देष दिया था जिसमें नियोजित करने वाले व्यक्ति द्वारा प्रति बालक 20 हजार रूपये कोश में जमा करने का प्रावधान था। फिलहाल यक्ष प्रष्न यह रहेगा कि क्या केवल कानूनों से ही बालश्रम को समाप्त किया जा सकता है। सम्भव है कि उत्तर न में ही होगा। जब तक षिक्षा और पुर्नवास के पूरे विकल्प सामने न हीं होंगे तब तक कानून लूले-लंगड़े ही सिद्ध होंगे। चाहे सरकार हो या संविधान बालश्रम के उन्मूलन वाले आदर्ष विचार बहुत उम्दा हो सकते हैं पर धरातल पर देखें तो बचपन आज भी पिस रहा है। ऐसे में बालश्रम वो सवाल है जिसका जवाब अभी षेश है।


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com


रोचक मोड़ लेता अमेरिका में चुनाव

डेमोक्रेटिक पार्टी के अमेरिकी राश्ट्रपति उम्मीदवार जोए बिडेन ने अपनी पार्टी से भारत-अमेरिका मूल की कमला हैरिस का नाम उपराश्ट्रपति के लिए आगे लाकर एक तीर से कई निषाने लगाये हैं। पहला यह कि अष्वेतों का वोट उन्हें मिलेगा, दूसरा महिला होने का लाभ भी उनके हिस्से में ही जायेगा। इतना ही नहीं बीते कुछ दिनों पहले अष्वेत हिंसक आंदोलन को भी वे चुनाव में भुना सकते हैं साथ ही भारत के रूख को भी अपनी ओर आकर्शित करने का काम किया है। सब कुछ अुनकूल रहा तो अमेरिका के 245 साल के लोकतांत्रिक इतिहास में भारतीय मूल की कमला हैरिस उपराश्ट्रपति बन सकती हैं और ट्रम्प की किस्मत यदि कोरोना के इस दौर में उनके साथ नहीं रही तो कमला हैरिस के चिकने पथ पर बिडेन का भी भाग्य खुल जायेगा और 4 साल के लिए व्ह्ाइट हाऊस पर उनका कब्जा होगा। गौरतलब है कि डेमोक्रेटिक पार्टी ने कमला हैरिस को उपराश्ट्रपति का उम्मीदवार बनाकर अमेरिकी राश्ट्रपति के चुनाव को भी एक नया स्वरूप दे दिया है। ऐसा पहली बार हुआ है जब उपराश्ट्रपति के लिए किसी भारतीय-अमेरिकी महिला को टिकट मिला है। हालांकि कमला हैरिस की मां भारतीय मूल की हैं जबकि उनकी पैदाइष विदेष की है और उनकी नानी तमिलनाडु की हैं। अमेरिका में इसके पहले उपराश्ट्रपति के लिए दो महिलाएं गेराल्डाइन फरेरो 1984 और सारा पालेन 2008 में इस पद के लिए चुनाव हार चुकी हैं। साल 2016 में हिलेरी क्लिंटन अमेरिका में पहली ऐसी महिला थी जिन्हें व्ह्ाइट हाऊस जाने का अवसर मिला था मगर वह डोनाल्ड ट्रम्प से चुनाव हार गयी थी और 45वें राश्ट्रपति के रूप में ट्रम्प की ताजपोषी हुई जो कोविड-19 के बीच पुनः सत्ता पाने के संघर्श में देखे जा सकते हैं। यहां एक खास बात यह है कि अमेरिका में अभी तक कोई महिला न तो राश्ट्रपति बनी है और न ही उपराश्ट्रपति। कमला हैरिस यदि चुनाव जीतती हैं तो कुछ हद तक इस मिथक को टूटते हुए देखा जा सकेगा। इस बार के चुनाव को काफी रोचक भी माना जा रहा है। माना तो यह भी जा रहा है कि कमला हैरिस और बिडेन की जोड़ी बराक ओबामा वाला जादू वापस ला सकती है। गौरतलब है कि बराक ओबामा 2008 से 2016 तक अमेरिका के राश्ट्रपति रहे हैं और भारत से सम्बंध प्रगाढ़ थे। हालांकि यह स्पश्ट नहीं है कि कमला हैरिस किस हद तक अष्वेत वोटों से बिडेन को फायदा पहुँचा पायेंगी मगर नस्लभेद के पुराने जिन्न से जूझते अमेरिकी राश्ट्रपति के चुनाव में इसके प्रभाव को कमतर आंकना सही नहीं होगा।

कमला हैरिस की उम्मीदवारी ट्रम्प को अखर रही है क्योंकि अष्वेत वोटों का ध्रुवीकरण अब डेमोक्रेटिक की ओर जा सकता है। यही कारण है कि स्थिति को भंापते हुए डोनाल्ड ट्रम्प ने हैरानी जताते हुए कहा कि बिडेन ने भारतीय मूल की सीनेटर हैरिस को उपराश्ट्रपति पद का उम्मीदवार चुना जबकि वह लगातार उनका अनादर करती रहीं। इस चयन पर उन्हें थोड़ा अचम्भा हो रहा है। यहां ट्रम्प ने हैरिस को अष्वेत के बजाय भारतीय मूल का कहकर अप्रत्यक्ष तौर पर एक संकुचित दृश्टिकोण देने का प्रयास किया है। हैरिस खुद को भारतीय मूल के रूप में देखती हैं या फिर अष्वेत इस पर भी अमेरिका का मतदाता विचार मंथन करेगा। वैसे अष्वेत के रूप में भी इन्हें बाकायदा मान्यता दी जा रही है। अमेरिका के राजनीतिक विष्लेशकों का मानना है कि हैरिस को अष्वेत उम्मीदवार के रूप में पेष किया जा रहा है ताकि अष्वेत आंदोलन के मौजूदा माहौल में बिडेन को जीत की ओर ले जाया जा सके। गौरतलब है कि अमेरिका में सैकड़ों वर्शों से नस्लभेद की जड़ें फैली हुई हैं। हाल ही में एक अष्वेत की गर्दन को एक ष्वेत पुलिस वाला तब तक दबाकर रखा जब तक उसके प्राण नहीं निकल गये। जिसके चलते पूरा अमेरिका अष्वेत हिंसक आंदोलन का षिकार हुआ था। हालांकि यह चिंगारी अभी पूरी तरह बुझी नहीं है। जाहिर है राश्ट्रपति चुनाव में यह भी एक नया गुल खिलायेगा। हैरिस का उपराश्ट्रपति बनने के बाद भारत के प्रति उनकी नीतियां अधिक लचीली न हो ऐसी कोई खास वजह नहीं दिखाई देती। मगर जम्मू-कष्मीर के अनुच्छेद 370 को खत्म करने के बाद वहां के हालात को काबू में करने के लिए पाबंदी लगाये जाने का हैरिस ने विरोध किया था। उन्होंने पाबंदियों को हटाने की मांग की और जब दिसम्बर 2019 में विदेष मंत्री एस जयषंकर ने भारतीय मूल के अमेरिकी सांसद प्रमिला जयपाल से मुलाकात नहीं की उसे लेकर भी वह हमलावर थी। इसके अलावा लोकतांत्रिक मूल्यों और धार्मिक एकता को लेकर वे काफी मुखर रही हैं। ऐसे में यह कह पाना कठिन है कि उनके उपराश्ट्रपति बनने से भारत को हर्श व गर्व कितना होगा। अगर कमला हैरिस और बिडेन की जोड़ी 2020 चुनाव में जीत दर्ज करती है तो कयास यह भी लगाये जा रहे हैं कि साल 2024 के राश्ट्रपति चुनाव में हैरिस की दावेदारी मजबूत हो जायेगी। फिलहाल हैरिस ने चुनाव प्रचार में बाइडेन की तुलना में अधिक उदारवादी कदम उठाये हैं चाहे वह हेल्थ केयर हो या इमीग्रेषन। 

वैसे भारतीय मूल के अमेरिकी रिपब्लिकन की बजाय डेमोक्रेट की ओर झुकाव रखते हैं। बिडेन ने स्पश्ट किया है कि यदि वे चुनाव जीतते हैं तो भारतीय आईटी पेषेवर में सबसे अधिक मांग वाले एच-1 बी वीजा पर लगायी गयी स्थायी रोक हटा देंगे। गौरतलब है कि ट्रम्प ने इस वीजा को निलम्बित कर रखा है। भारत में अमेरिकी राजदूत रह चुके रिचर्ड वर्मा के द्वारा यह पता चला था कि यदि बिडेन राश्ट्रपति बनते हैं तो संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् में स्थायी सीट दिलाने का प्रयास करेंगे, इसके अलावा सपने देखने वालों की सुरक्षा का काम करने का वादा, मुस्लिम यात्रा प्रतिबंध को रद्द करने और संयुक्त राज्य अमेरिका के मूल्यों और ऐतिहासिक नेतृत्व के अनुरूप षरणार्थी प्रवेष को तुरन्त बहाल करने की जो बात कही है जो अष्वेत वोटरों को लुभा सकता है। हर साल अमेरिका 1 लाख 40 हजार ग्रीन कार्ड देता है। वर्तमान में 10 लाख विदेषी नागरिकों का बैकलाॅग है। ऐसे में बिडेन को यह मुद्दा भी वोट दे सकता है। 44वें राश्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल में उपराश्ट्रपति बिडेन दुनिया में उतनी बड़ी पहचान नहीं रखते जितना की ट्रम्प। ट्रम्प की नीति और नजरिया भारत के साथ कहीं अधिक सकारात्मक देखा जा सकता है। मगर चीन और इरान जैसे देष को वो फूटी आंख नहीं भाते। ऐसे में वैष्विक दृश्टिकोण से देखें तो ट्रम्प के दुष्मन दुनिया में ज्यादा हैं दोस्त कम। हालांकि मतदान अमेरिकी करेंगे मगर चुनाव में पूरी दुनिया दिखेगी। कमला हैरिस में वे सारी खूबियां हैं जो चुनाव में पार्टी को फायदा करवा सकती हैं। वो एक प्रवासी परिवार से हैं, अष्वेत महिला हैं, राश्ट्रीय स्तर पर उनकी पहचान है, एक बड़े राज्य और देष में भी उन्हें नेतृत्व का अनुभव है। इतना ही नहीं बातौर कमेन्टेटर भी उन्हें लोग जानते हैं। प्रगतिषील मतदाताओं पर इन तमाम योग्यताओं का असर पड़ेगा जरूर। 55 वर्शीय कमला हैरिस ट्रम्प की काट भी खोजने में माहिर बतायी जा रही है। एक खास बात यह भी रही है कि जब 2016 में ट्रम्प राश्ट्रपति बने थे तब यह सबसे उम्र दराज राश्ट्रपति कहलाये थे। यदि इस बार पासा 77 वर्शीय बिडेन के पक्ष में होता है तो उम्र दराज वाला खिताब इनके हिस्से में चला जायेगा। 

वैसे तो भारत किसी दूसरे देष के चुनाव में कभी कोई मतलब नहीं रखता है मगर अमेरिका में राश्ट्रपति का चुनाव हो तो कूटनीतिक और रणनीतिक तौर पर नजर सबकी रहती है। अबकी बार ट्रम्प सरकार की बात मोदी ह्यूस्टन में कहा था। वैसे मोदी और ट्रम्प के सम्बंध हर लिहाज़ से ठीक हैं। इसके पहले ओबामा से भी सम्बंध अच्छे थे। जाॅर्ज डब्ल्यू बुष से पहले बिल क्लिंटन से भी सम्बंध भारत के बहुत अच्छे थे। 1980 के दषक में या फिर 1998 के परमाणु परीक्षण के बाद दोनों देषों के सम्बंध खराब थे को छोड़कर देखा जाय तो दोनों के बीच सम्बंध हमेषा ठीक-ठाक रहे हैं। अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी से चुने गये राश्ट्रपति से सम्बंध रिपब्लिकन की तुलना में अधिक प्रगाढ़ देखे जा सकते हैं मगर मोदी षासनकाल में ट्रम्प से भी प्रगाढ़ दोस्ती इस मिथक को भी तोड़ दिया अब कोई भी हो मित्रता अच्छी रहती है। गौरतलब है भारतीय मूल के वोट को संतुलित करने के लिए ट्रम्प सितम्बर 2019 में भी कोषिष कर चुके हैं और फरवरी 2020 में भारत का दौरा कर के इसे पुख्ता बनाने का प्रयास भी मान सकते हैं। मगर कमला हैरिस के चलते स्थिति कुछ बदलते हुए दिखती है। गौरतलब है भारत के प्रधानमंत्री मोदी सितम्बर 2019 में अमेरिका के ह्यूस्टन में हाऊडी मोदी कार्यक्रम का एक दृश्टिकोण भारतीय मूल के लोगों का वोट भी था। गौरतलब है कि ह्यूस्टन में भारी तादाद में भारतीय मूल के लोग रहते हैं। 2016 के चुनाव में इन्होंने ट्रम्प के विरूद्ध मतदान किया था। कमला हैरिस के मैदान में उतारने से एक बार फिर ट्रम्प को यहां पार पाना मुष्किल होगा। फिलहाल अमेरिकी राश्ट्रपति के चुनाव में षायद ऐसा पहली बार हो रहा है जब उपराश्ट्रपति की उम्मीदवारी के चलते राश्ट्रपति के लिए चुनाव आसान हो रहा है। अमेरिका में उम्मीदवार अपनी-अपनी ओर से पाॅलिसी पेपर जारी करते हैं। बिडेन के पाॅलिसी पेपर की पड़ताल बताती है कि वे मुस्लिम बाहुल्य देषों, चीन के उइगर मुसलमानों और कष्मीर के स्थानीय लोगों के अधिकारों के पुनःस्थापन को लेकर चिंता जता रहे हैं।

उपरोक्त बिन्दु यह अनुपातिक तौर पर स्पश्ट कर रहे हैं कि अमेरिका में हवा किसी की रहे भारत से सम्बंध प्रगाढ़ ही रहेंगे। ट्रम्प प्रषासन ने पिछले चार वर्शों में जो भी कदम उठाये वह अपने व्यक्तित्व के अनुपात में कईयों के लिए अखरने वाले थे। अमेरिका प्रथम की नीति पर चलते हुए कई देषों से सम्बंध तोड़ने और दुष्मनी के चलते अमेरिका में ही उनके विरोधी पनपे। चीन और ईरान से सीधे दो-दो हाथ करना, रूस से 1987 में की गयी डील को समाप्त करना, मैक्सिको से लेकर कनाडा और आॅस्ट्रेलिया यहां तक कि खाड़ी के देषों और वेनेजुएला जैसे देष के लिए भी काफी हद तक चुनौती रही। उत्तर कोरिया के साथ तो दुष्मनी जग जाहिर है। पाकिस्तान को ट्रम्प ने कई मामले में फटकार लगायी तो भारत के साथ मित्रता को कायम रखा। इसका फायदा वोट के रूप में कितना होगा कह पाना मुष्किल है। यदि बिडेन चुनाव जीतते हैं तो भारत को कई मामलों में राहत मिलेगी। संरचनात्मक तौर पर सम्बंध और स्थिर होंगे साथ ही व्यापार घाटे में संतुलन, ईरान से तेल न लेने पर प्रतिबंध के साथ तरजीही का दर्जा की बहाली सहित कई अन्य बातों का निपटारा सम्भव है। लेकिन डर यह भी है कि डेमोक्रेटिक पार्टी का वामपंथी धड़ा नागरिकता संषोधन कानून और जम्मू-कष्मीर के अनुच्छेद 370 को लेकर मुखर आलोचक हो सकता है। जहां तक ट्रम्प का सवाल है भारत को लेकर कुछ बातों के अलावा ऐसी कोई विपदा इस सरकार ने नहीं खड़ी की। ऐसे में इनके जीतने से भी भारत अपनी गति में रहेगा। बल्कि चीन और दक्षिण चीन सागर में अमेरिकी दखल और प्रभाव हिन्द महासागर को संतुलित करने के काम आयेगा। साथ ही दुनिया में कुछ खास परिवर्तन न होकर ट्रम्प अपने पिछले 4 साल के अनुभव और मुनाफे को भुनाने का प्रयास करेंगे। ऐसे में द्विपक्षीय व बहुपक्षीय सम्बंध को व्यापकता मिल सकती है और जो खोया है उसे पाने के लिए एक अकुलाहट भी हो सकती है। ट्रम्प जानते हैं कि उन्होंने 4 सालों में क्या किया है और आगे उन्हें क्या करना है। कोरोना वायरस का संकट, चीन के साथ ट्रेड वाॅर, पुलिस रिफाॅर्म पर ट्रम्प का आक्रामक रवैया और रूस के साथ कोल्ड वाॅर तथा रूस का अमेरिकी चुनाव में दखल जैसे मुद्दे भी यहां के चुनावी फिजा में तैरेंगे। फिलहाल अमेरिकी राश्ट्रपति का चुनाव का ऊँट किसी भी करवट बैठे भारत को अधिक चिंता करने की आवष्यकता नहीं है बल्कि कोई भी आये सम्बंध और कैसे प्रगाढ़ हो इसका चिंतन जरूर करना चाहिए।


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com