Monday, October 30, 2017

गुजरात से आती आंच का एहसास

सत्ता की उम्र कितनी भी लम्बी क्यों न हो चुनौतियां रह ही जाती हैं साथ ही इस बात का भी तनाव सत्ताधारी राजनीतिक दल में व्याप्त रहता है कि लोकतंत्र की करवट कहीं आगामी चुनाव में उलट न पड़ जाय। हिमाचल प्रदेष एवं गुजरात के विधानसभा चुनाव को लेकर दोनों राश्ट्रीय पार्टियां क्रमषः कांग्रेस और भाजपा फिलहाल इसी दौर से गुजर रही हैं। हिमाचल में कांग्रेस को सत्ता जाने का डर जबकि गुजरात में सत्ता बचाये रखने की कवायद में प्रधानमंत्री मोदी समेत भाजपा के षीर्शस्थ नेतृत्व को इन दिनों खूब कसरत करते हुए देखा जा सकता है। गौरतलब है कि बीते 40 महीनों में दर्जन भर से ऊपर राज्यों के विधानसभा के चुनाव में भाजपा की बाजी मारने का सिलसिला बादस्तूर जारी रहा। हालांकि पष्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल तथा पंजाब समेत कुछ राज्यों में इन्हें मायूसी भी मिली है। अब एक बार फिर नवम्बर और दिसम्बर में हिमाचल और गुजरात विधानसभा का चुनाव होना है जिसकी तारीखें चुनाव आयोग द्वारा घोशित की जा चुकी हैं। नतीजे 18 दिसम्बर को आयेंगे। भाजपा की षीर्शस्थ जोड़ी प्रधानमंत्री मोदी और राश्ट्रीय अध्यक्ष अमित षाह को गुजरात जीतने के मामले में सबसे मुष्किल चुनावी लड़ाईयों में घिरे हुये कहना अतार्किक न होगा। ऐसा इसलिए भी क्योंकि यह दोनों का गृह राज्य भी है। देष भर में बेखौफ होकर लोकतंत्र को अपने पक्ष में करने वाले ये भाजपाई नेता जाहिर है गृह राज्य गुजरात के मामले में कहीं अधिक सहमे और संजीदे होंगे। बीते डेढ़ महीने में प्रधानमंत्री मोदी की पांच बार गुजरात परिक्रमा इस बात को पुख्ता करती है कि वहां के बदले स्थानीय राजनीतिक हालात की आंच का एहसास उन्हें है। सवाल तो यह भी है कि गुजरात माॅडल को परोसकर 2014 में केन्द्र की सत्ता पर पूर्ण बहुमत से काबिज होने वाले प्रधानमंत्री मोदी की पेषानी पर बल क्यों? गौरतलब है वर्श 2002 से भाजपा के वोट में हिस्सेदारी कांग्रेस के मुकाबले 10 से 11 फीसदी अधिक रही है। इन बढ़े हुए हिस्से से महज़ आधे मतदाता भी यदि कांग्रेस की ओर झुकते हैं या छिन्न-भिन्न होते हैं तो भाजपा के सपनों में दरार पड़ सकती है। 
 गौरतलब है कि बीजेपी दो दषक से गुजरात में सत्ता की चाषनी चख रही है जिसमें लगातार तीन चुनाव बहुमत के साथ जीतने का श्रेय मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी को जाता है। लगभग 22 साल की सत्ता में 14 साल का कार्यकाल बातौर मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री मोदी का रहा है। जब वे गुजरात से केन्द्र की सत्ता की ओर प्रस्थान किये तो उनके उत्तराधिकारियों को इस बात का बिल्कुल ज्ञान रहा होगा कि 2017 के चुनावी परीक्षा में गढ़ बचाये रखना अब उनकी जिम्मेदारी होगी। जाहिर है कोई गलती की गुंजाइष नहीं थी पर तीन साल के दरमियान न केवल मुख्यमंत्री में रद्दोबदल हुआ बल्कि पाटीदार आंदोलन ने गुजरात में असंतुलन की एक नई लकीर खींच दी। आज वही आंदोलनकारी जिसमें हार्दिक पटेल का चेहरा सबसे ऊपर है कांग्रेस के साथ कदम से कदम मिला रहे हैं। हालांकि गुजरात की राजनीति में पाटीदार आंदोलन का अभी उतना बड़ा स्थान नहीं बन पाया है पर खेल बिगाड़ने के काम में तो यह आ ही सकते हैं। कांग्रेस ने भाजपा के खिलाफ तानाषाही के आरोप को खासा तूल दिया है। हार्दिक पटेल को राज्य सत्ता के खिलाफ होने के चलते राज्य बदर कर दिया गया था जो आज लोकतंत्र के तिराहे पर स्वयं एक रास्ता स्वयं बना रहे हैं साथ ही मनोवैज्ञानिक तौर पर कांग्रेस का पथ चिकना कर रहे हैं। बीते कुछ महीने पहले गुजरात में राज्यसभा के चुनाव में भी राजनीति काफी निम्न स्तर पर चली गयी थी। बावजूद इसके अहमद पटेल की जीत को भाजपा नहीं रोक पायी थी। इतना ही नहीं अमित षाह के बेटे जय षाह की कम्पनी पर 16 सौ गुना की तीन साल में हुई वृद्धि को लेकर भी मामला तूल पकड़े हुए है। भाजपा को घेरने की इन वजहों समेत किसानों, व्यापारियों तथा विकास सहित कई कारण कांग्रेस के पास अनचाहे तरीके से उपलब्ध हैं। दो टूक यह भी है कि कांग्रेस के पास खोने के लिए षायद ही कुछ हो पर यदि भाजपा गुजरात में कमजोर पड़ती है तो राजनीतिक दृश्टि से इसका मंथन केवल गुजरात तक ही सीमित नहीं रहेगा। गुजरात के विकास माॅडल को जिस तरह भाजपा ने देष भर में भुनाया ठीक उसी तर्ज पर यदि यहां के विधानसभा चुनाव में कोई अनहोनी होती है तो विरोधी मुख्यतः कांग्रेस इसे राश्ट्रीय स्तर पर जरूर भुनायेगी और यदि भाजपा सत्ता बचाने में कामयाब रहती भी है जैसा कि लग भी रहा है तो भी यदि कांग्रेस 2012 में प्राप्त 60 सीट के मुकाबले बढ़त बनाने में कामयाब होती है तो मनोवैज्ञानिक फायदा उसके लिए संजीवनी का ही काम करेंगे। सम्भव है कि कठिनाईयों के इस परिमार्जित दौर को देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी समेत सभी भाजपाई गुजरात से आने वाली आंच को महसूस कर रहे हैं। 
गुजरात मं 37 फीसदी ओबीसी और 16 फीसदी पटेलों का समर्थन किसी के भी हक को झुका सकता है। इस आंकड़े से स्पश्ट होता है कि 182 सीटों वाली विधानसभा पर आधे से अधिक इन्हीं का दबदबा है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि राज्य के कुल लगभग 4 करोड़, 32 लाख मतदाताओं में से 65 फीसदी 35 बरस से कम उम्र के मतदाता को कहीं न कहीं पाटीदार, ओबीसी और दलित समुदायों के नेताओं की तिकड़ी प्रभावित कर सकती है साथ ही इनके बल को भुनाने वाली कांग्रेस भी बढ़े मनोबल के साथ पूरी ताकत झोंके हुए है। राहुल गांधी के मध्य गुजरात और सौराश्ट्र की रैलियों में जो भीड़ देखी गयी उसके भी संकेत समझने होंगे। सरकार को यह भी समझना होगा कि 1 जुलाई से देष भर में लागू जीएसटी को लेकर गुजरात के व्यापारी पहले ही सड़क पर उतर चुके हैं साथ ही इस बात से भी अनभिज्ञ नहीं हुआ जा सकता कि जीएसटी लागू होने के पष्चात् का यह पहला चुनाव है। जीएसटी को लेकर जो षक-सुबहा है उसका असर भी चुनाव पर पड़ सकता है। हालांकि जुलाई से अब तक सरकार ने जीएसटी से सम्बंधित कठिनाईयों को दूर करने की कोषिष करती रही है। बीते 7 अक्टूबर को सरकार ने इससे जुड़ी कई प्रकार की राहत दी है। इसी क्रम में 10 नवम्बर को गुवाहाटी में जीएसटी काउंसिल की एक और बैठक होनी है जाहिर है यहां भी कुछ ऐसे सुधार देखने को मिलेंगे जिससे न केवल जीएसटी से जुड़ी समस्या दूर हो बल्कि इसके सकारात्मक पहलू को भी उभारा जाय। केन्द्र और राज्य दोनों सरकारें यह अच्छी तरह जानती हैं कि सबसे बड़ा कर सुधार जीएसटी को लेकर यदि जनता का भरोसा डगमगाता है तो सत्ता के सपनों के पर कतर दिये जायेंगे। जाहिर है गुजरात के चुनाव में आंच चैतरफा आ रही है ऐसे में गढ़ बचाने के लिए भाजपा को आगे भी कड़ी मषक्कत करनी होगी। गुजरात में 50 रैलियों का सम्बोधन प्रधानमंत्री मोदी करेंगे जो इस बात को पुख्ता करता है। इसके अलावा कई प्रदेष के मुख्यमंत्री और षीर्शस्थ नेतृत्व को गुजरात के मतदाताओं को अपने पक्ष में लाने की जिम्मेदारी दी गयी है। हालांकि सबके बावजूद यह भी समझना होगा कि लोकतांत्रिक सर्वे भाजपा की ओर झुका है। असल में मतदाताओं में एक असमंजस यह भी है कि यदि भाजपा को सत्ता से बेदखल किया भी जाय तो यहां स्थापित कौन होगा। सम्भव है कि कांग्रेस को अभी भी इतना भरोसे लायक नहीं समझा जाता। आंकड़े भी कांग्रेस को बहुत बौना बता रहे हैं। आक्रामक तेवर वाली कांग्रेस और करिष्माई विरोधियों के गठजोड़ की वजह से मोदी के गृह राज्य में भले ही भाजपा के लिए चुनौती बढ़ी हो पर सत्ता से बेदखल होना मुमकिन प्रतीत नहीं होता। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

जब भारत जुटाने में सियासत को बौना किया

जब भारत जुटाने में सियासत को बौना किया
आप अक्सर यह बात कहते और सुनते होंगे कि अगर दिमाग का सही प्रयोग किया जाय तो कुछ भी असम्भव नहीं पर जब असम्भव को सम्भव किया जाना हो तब दिल और दिमाग दोनों को कड़ी परीक्षा से गुजरना पड़ता है। औपनिवेषिक सत्ता से मुक्ति के साथ भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती बिखरे भारत को जुटाना था और इस असम्भव काज को करके गुजरात के बल्लभ भाई पटेल ने सरदार होने का पूरा हक अदा किया। इतिहास में रचे-बसे ऐसे युग पुरूशों का गौरव गान अवसर आने पर किया ही जाना चाहिए। वर्श 2014 में केन्द्र में पूर्ण बहुमत के साथ जब मोदी सत्ता दृष्यमान हुई तब मानो सरदार पटेल की षख्सियत को और समझने का अवसर मिला जो षायद 70 सालों के इतिहास में फलक पर कम ही थी। इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1992 में मरणोपरांत जब पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को भारत रत्न दिया गया तब उन्हीं के साथ नवभारत के निर्माता सरदार पटेल जिनका देवासान 1950 में हो चुका था जो गांधी और नेहरू के समकालीन थे को भारत रत्न दिया गया। बात थोड़ी अखरने वाली है पर सियासत में सब कुछ चलता है पर यह कई भूल गये कि सरदार पटेल जैसों ने सियासत को बौना सिद्ध किया है। भारत जुटाने में सरदार पटेल ने जो भूमिका अदा की और जिस तर्ज पर देष का भूगोल तैयार हुआ आज उस पर गौरव सभी को है। इतिहास और भूगोल दोनों के रचनाकार सरदार पटेल को मौजूदा सरकार जिस बुलन्दी के साथ महत्व दे रही है इससे स्वयं उसकी महत्ता भी बढ़ जाती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि एकता के प्रतीक सरदार पटेल ने रियासतों को एकजुट कर जिस तरह असम्भव काज को सम्भव कर दिखाया उससे साफ है कि जब देष की बात हो या फिर भारत के एक-एक इंच को जुटाने की बात हो तो सियासतें रास्ता बदल देती हैं। 
इतिहास की पड़ताल सत्तर बरस पुरानी है पर धुंधली नहीं है। गौरतलब है कि उन दिनों भारतीय रियासतें छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटी थी जिनकी संख्या 565 थी। स्वतंत्रता के समय ब्रिटिष षासन ने घोशणा की कि रजवाड़े या तो भारत में या पाकिस्तान में षामिल हो सकते हैं। चाहें तो स्वतंत्र अस्तित्व भी बनाये रख सकते हैं। भारतीय इतिहास का यह समय अतिरिक्त जटिलता एवं संवेदनषीलता लिए हुए था। रियासतें कहां जायेंगी इसका निर्णय राजाओं को करना था न कि प्रजा को। साथ ही अधिकांष रियासतें स्वतंत्र अस्तित्व चाहती थी। ऐसे में देषी रियासतों का भारत में विलय तथा अखण्ड भारत का निर्माण अपने-आप में एक बड़ी चुनौती थी। इन सब के बावजूद अखण्ड भारत की परिकल्पना को भी मुरझाने नहीं देना था।  ऐसे में कठोर निर्णय लेने की आवष्यकता आन पड़ी। फलस्वरूप अन्तरिम सरकार के प्रधानमंत्री नेहरू ने सरदार पटेल की नेतृत्व प्रतिभा को देखते हुए उन्हें रियासत मंत्रालय का जिम्मा दिया। चट्टानी इरादों वाले सरदार पटेल 22 जून से 15 अगस्त 1947 के बीच अल्प समय में ही 562 रियासतों को भारत में विलय करके नेहरू के विष्वास पर  पूरी तरह खरे उतरे। इस दौर में वल्लभ भाई पटेल ने वाकई में सरदार की भूमिका निभाई थी। जूनागढ़, हैदराबाद एवं जम्मू-कष्मीर अभी भी भारत विलय से अछूते थे। विलय के दौर में जहां एक ओर सामाजिक-सांस्कृतिक समस्यायें चुनौती दे रहीं थी वहीं दूसरी ओर धार्मिक कठिनाईयां भी थीं परन्तु इससे कहीं अधिक दृढ़ सरदार पटेल के इरादे थे।
जूनागढ़ में मुस्लिम नवाब और हिन्दू बाहुल्य प्रजा थी। नवाब पाकिस्तान में षामिल होना चाहता था। यहां स्थानीय जनता ने विरोध किया। अन्ततः फरवरी 1948 में जूनागढ़ का भारत में विलय हुआ। हैदराबाद एक बड़ी देषी रियासत थी। पाकिस्तान की सहायता से यहां का नवाब स्वतंत्र राश्ट्र बनाने की योजना में था। सितम्बर, 1948 में भारतीय सैन्य कार्यवाही के चलते हैदराबाद का विलय सम्भव हुआ। जहां तक सवाल जम्मू-कष्मीर का है यहां के षासक हिन्दू और प्रजा मुस्लिम थी। षुरूआती दिनों में षासक हरि सिंह स्वतंत्र अस्तित्व चाहते जरूर थे परन्तु जब अक्टूबर, 1947 में पाकिस्तानी सेना ने कबिलाइयों के भेश में कष्मीर पर आक्रमण किया तब हरि सिंह ने भारत से मदद की अपील की। सरदार पटेल ने कूटनीतिक कदम उठाते हुए पहले विलय पत्र पर हस्ताक्षर कराये तत्पष्चात् भारतीय सेना ने कष्मीर में हस्तक्षेप किया। ऐसे में अखण्ड भारत निर्माण के चलते इतिहास में सरदार पटेल एकता के प्रतीक बन गये। 31 अक्टूबर को मोदी सरकार ने राश्ट्रीय एकता दिवस के रूप में मनाने की प्रथा षुरू की। इन दिनों 30 अक्टूबर से 4 नवम्बर के बीच सतर्कता जागरूकता सप्ताह भी मनाया जा रहा है। कईयों का यह मानना है कि इतिहास में पटेल की भूमिका अत्यंत अद्वितीय है पर इसके अनुपात में कांग्रेस समेत अन्य सरकारों ने उन्हें वह सम्मान नहीं दिया जो लौह पुरूश को मिलना चाहिए था जिसकी भरपाई मोदी अपने षासनकाल में निरंतर कर रहे हैं। 
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने लोकसभा के चुनावी अभियानों के दौरान सरदार पटेल को महत्व देते हुए अमेरिका के ‘स्टैचू आॅफ लिबर्टी‘ से भी ऊँची सरदार पटेल की मूर्ति ‘स्टैचू आॅफ यूनिटी‘ के रूप में निर्माण करने की बात कही थी। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा था कि मूर्ति निर्माण हेतु देष के किसानों से लोहा इकट्ठा किया जायेगा। दरअसल मोदी, सरदार पटेल द्वारा किये गये ऐतिहासिक कृत्यों को नये रूप में यादगार बनाना चाहते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि सरदार पटेल जमीनी नेता थे। किसानों के पोशण के प्रति अंग्रेजों से लोहे लेते थे। साथ ही उनकी छवि सख्त नेतृत्व के तौर पर पहचानी जाती थी। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी गुजरात के वल्लभ भाई पटेल को जो देष के सरदार हैं उन्हें सम्मान देना नहीं भूले और पिछले वर्श 2014 से 31 अक्टूबर को सरदार पटेल की जयंती को एकता दिवस के रूप में मनाने की घोशणा की। इससे यह परिलक्षित होता है कि मोदी सरदार उन इतिहास पुरूशों को कहीं अधिक तवज्जो देने की कोषिष में हैं जिनके बगैर भारत की परिकल्पना संभव नहीं थी। इससे पहले वे सर्वपल्ली राधाकृश्णन जयन्ती को टीवी एवं रेडियो के माध्यम से षिक्षक दिवस को अतिरिक्त प्रभावषाली बना चुके हैं। 2 अक्टूबर गांधी जयन्ती के दिन को स्वच्छता अभियान कार्यक्रम के नाम कर चुके हैं। इसके अलावा 14 नवम्बर नेहरू जयन्ती जो बाल दिवस के रूप में प्रतिश्ठित है उसे भी नया रूप देने की भी कोषिष कर चुके हैं। 
सरदार पटेल इतिहास के छुपे हुए पन्नों की तस्वीर नहीं है और न ही कोई रहस्य हैं बल्कि भारत के एकीकरण के वे दूत हैं जहां पर वर्तमान भारत बसता है। इस सच को भी पूरे मन से मान लेना चाहिए कि ऐसे इतिहास पुरूशों को यदि सम्मान बढ़ता है तो इससे देष का ही गौरव बढ़ेगा। 31 अक्टूबर को पटेल जयन्ती के परिप्रेक्ष्य में प्रधानमंत्री का एकता के प्रतीक का यह दिवस भारत में असीम ताकत को जन्म देने के काम आ रहा है। इतना ही नहीं ऐसे लोगों की गौरवगाथा से आने वाली पीढ़ियां भी अनभिज्ञ नहीं रह सकेंगी साथ ही देष के किसानों में भी ऐसी विभूतियों को लेकर एक अलग विमर्ष तैयार होगा। फिलहाल सात दषक पहले जिस इतिहास और भूगोल को सरदार पटेल ने जमीन पर उतारा है उन्हें याद करने का जन्मदिन से बेहतर षायद ही कोई अवसर हो।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

चीन में शी जिनपिंग की मज़बूत सूरत

चीन के चुनावी नतीजे एक बार फिर षी जिनपिंग की ताजपोषी तय कर दी। देखा जाय तो चीन के राश्ट्रपति जिनपिंग न केवल दोबारा सत्ता हथियाने में कामयाब रहे बल्कि सर्वाधिक ताकतवर नेता भी बनकर उभरे हैं। चीन ने अभूतपूर्व कदम उठाते हुए मौजूदा राश्ट्रपति जिनपिंग को अगले पांच साल के लिए न केवल बागडोर सौंपी बल्कि उनसे जुड़ी विचारधारा को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के संविधान का हिस्सा बना दिया। बात यहीं तक नहीं है राश्ट्रपति जिनपिंग के नाम और उनके राजनीतिक दर्षन को देष के संविधान का भी हिस्सा बनाये जाने की घोशणा सीपीसी यानी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने की है। इसके पहले राश्ट्रपति तेंग षियाओपिंग का नाम 1997 में उनके निधन के बाद संविधान में षामिल किया गया था। फिलहाल उक्त के चलते यह तय हो गया है कि षी जिनपिंग चीन के प्रथम कम्युनिस्ट नेता और संस्थापक माओत्से तुंग के कद के समकक्ष हो गये हैं। दो टूक यह भी है कि चीन के बुनियादी सिद्धान्तों से लेकर आम नागरिक की गतिविधियों को समझने में जिनपिंग ने फिलहाल कोई गलती नहीं की है। गौरतलब है कि चीन को 2050 तक ग्लोबल लीडर के रूप में सामने आना है जैसा कि जिनपिंग कह चुके हैं। सम्भव है ये उसी सपने की कताई-बुनाई की दिषा में उठाया गया बड़ा कदम हो। पांच साल पर होने वाले कम्युनिस्ट पार्टी के सम्मेलन में उपरोक्त संदर्भ को देखा जा सकता है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को देखें तो चीनी साम्यवादी दल जिसे संक्षेप में सीपीसी की संज्ञा दी जाती है 1921 में स्थापित हुई। हालांकि साम्यवादी आंदोलन की षुरूआत बंद कमरों में वार्ता, वाद-विवाद व परिचर्चा आदि के रूप में हुई पर समय के साथ लोग जुड़ते गये और कारवां बनता गया। माओत्सु तुंग, जिहूद और चाऊ एन लाई समेत चिंग यी जैसे तमाम नेताओं ने इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लगभग सौ वर्श के सीपीसी के इतिहास में माओ के बाद सर्वाधिक ताकतवर नेता बनने का अवसर षी जिनपिंग के हिस्से आया। वैष्विक फलक पर जिनपिंग की इस ताकत के कई अर्थ निकाले जा सकते हैं। एक वास्तविकता यह भी है कि पूंजीवादी विचारधारा की तुलना में साम्यवादी विचारधारा से युक्त चीन दुनिया मंे स्वयं को सर्वाधिक षक्तिषाली दिखाने की फिराख में भी है। जिनपिंग की बढ़ी हुई ताकत चीन के लिए कितनी कामयाब होगी ये तो आने वाले दिनों में पता चलेगा पर दुनिया को यह पता चल गया कि जिनपिंग की विचारधारा और उनके क्रियाकलाप चीन में कितनी एहमियत रखते हैं। 
बेषक मौजूदा चीनी राश्ट्रपति षी जिनपिंग बड़े कद के हो गये हों पर भारत जैसे देषों के साथ कद के मुताबिक कृत्य कर पाने में सफल नहीं करार दिये जा सकते। गौरतलब है कि बीते पांच वर्शों में जिनपिंग के कार्यकाल में सीमा विवाद से जुड़ा कोई भी मसला हल करने के बजाय न केवल बढ़ा है बल्कि कई अनचाही समस्याएं उभरी भी हैं। डोकलाम विवाद का षान्तिपूर्वक हल एक अपवाद हो सकता है परन्तु चीन की कुटिल चाल को देखते हुए अभी इसे पूरा हल मानना जल्दबाजी होगी। जिनपिंग ने अपने पूरे कार्यकाल में पाकिस्तान का समर्थन और भारत के विरोध में नीतियों को आबद्धरूप से जारी रखा। संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् में पाक आतंकियों अज़हर मसूद और लखवी पर वीटो कर भारत के इरादों पर कई बार पानी फेरा जो भारत में आतंकी हमले के जिम्मेदार हैं। पाक अधिकृत कष्मीर में वन बेल्ट, वन रोड़ की अवधारणा भी जिनपिंग की ही है जो भारत की चाहत के विरूद्ध है। आॅस्ट्रेलिया से नवम्बर 2014 में जी-20 सम्मेलन के दौरान यूरेनियम प्राप्ति को लेकर भारत का समझौता भी चीन को अखरा था। इसके अलावा दक्षिणी चीन सागर में पनपे विवाद से लेकर उत्तर कोरिया की मनमानी में काफी हद तक चीन षामिल रहा है। दुनिया की सत्ता को चुनौती देना चीन की मानो आदत हो। मोदी का इज़राइल दौरा भी जिनपिंग को नहीं भाया था साथ ही जापान से भारत की गहरी दोस्ती भी षी जिनपिंग को अखर रहा है। दुनिया में भारत की बढ़ती ताकत से चीन हमेषा असंतुश्ट रहा है और इस परम्परा का निर्वहन जिनपिंग ने भी किया है। चीनी राश्ट्रपति षी जिनपिंग और भारतीय प्रधानमंत्री मोदी के बीच बीते 40 महीनों में आधा दर्जन से अधिक बार मुलाकात हो चुकी है पर कूटनीतिक तौर पर हाथ खाली हैं। हां यह बात और है कि 70 अरब डाॅलर के आपसी व्यापार को सौ अरब डाॅलर तक पहुंचाने का मंसूबा दोनों राजनेता रखते हैं परन्तु 70 अरब डाॅलर के साझे व्यापार में 61 अरब डाॅलर के एकतरफा व्यापार पर चीन ही काबिज है। जिनपिंग का भारत दौरा हो चुका है, प्रधानमंत्री मोदी भी चीन का दौरा कई बार कर चुके हैं। बावजूद इसके दोनों देषों के बीच बेहतर मित्रता के वातावरण इस बीच षायद ही बने हों। ध्यान्तव्य हो कि जून में पनपे डोकलाम समस्या पर चीन ने भारत को कई तरह से दबाव में लेने की कोषिष की। आसार युद्ध तक के भी बन गये थे पर भारत संयम का परिचय देते हुए चीन को यह समझाने में सफल रहा कि उसे कम न आंके। गौरतलब है कि बीते 3 सितम्बर को ब्रिक्स सम्मेलन में भाग लेने के लिए प्रधानमंत्री मोदी चीन गये थे और डोकलाम को लेकर उपजी समस्या से ठीक इसके पहले ही निजात मिली थी। 
चीन में सर्वाधिक ताकतवर बने नेता षी जिनपिंग का राजनीतिक इतिहास चार दषक पुराना है। 64 वर्श की उम्र पार कर चुके जिनपिंग वर्श 1974 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में षामिल हुए थे। लम्बे समय की सियासत के बाद 2008 से 2013 तक चीन के उपराश्ट्रपति रहे। 2012 के आखिरी दिनों में पार्टी नेतृत्व संभालने के बाद जिनपिंग अपनी स्थिति को काफी हद तक मजबूती की ओर ले जाने में कामयाब रहे। वर्श 2013 में चीन के सातवें राश्ट्रपति बनने से पहले एक मजबूत नेता के तौर पर अपनी छवि उभारने वाले षी जिनपिंग दूसरी बार सत्ता पर काबिज हो रहे हैं। गौरतलब है वर्श 2016 में सीपीसी ने जिनपिंग की हैसियत को और ताकत देते हुए उन्हें प्रमुख नेता की उपाधि भी दी थी जो इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि उनको कम्युनिस्ट किस हद तक स्थापित होते देखना चाहते हैं। फिलहाल मौजूदा समय में चीन के सबसे षक्तिषाली नेता के रूप में जिनपिंग की तूती बोल रही है। जाहिर है जो पार्टी, षासन और सेना तीनों का नेतृत्व कर रहा हो उसकी स्थिति का अंदाजा सहज लगाया जा सकता है। सम्भावना तो यह भी व्यक्त की जा रही है कि अब 2022 तक चीन की सत्ता संभालने वाले जिनपिंग दो कार्यकाल के बाद रिटायर्ड होने की परम्परा को तोड़ते हुए तीसरे कार्यकाल पर भी विचार कर सकते हैं। 
चीनी राश्ट्रपति की बढ़ी हुई ताकत का आन्तरिक और बाह्य दोनों दृश्टि से क्या असर हो सकता है इसकी भी पड़ताल जरूरी है। सम्भव है कि चीन के अंदर सत्ता के प्रति लोगों का दृश्टिकोण तुलनात्मक अधिक सकारात्मक हो साथ ही ताकत और विष्वास से भरे दूसरी पारी खेलने वाले जिनपिंग निजी एजेण्डों पर काम करें। जहां तक बाह्य दृश्टिकोण का सवाल है जाहिर है आगे के पांच साल तक भारत को जिनपिंग के साथ ही कदमताल करना होगा। चीन की चतुराई और भारत के प्रति उसकी अब तक का धौंस वाला नज़रिया आगे बदलेगा इसकी सम्भावना कम ही दिखाई देती है। उत्तर कोरिया को मात्रात्मक ताकत मिलती रहेगी। इसके अलावा भारत को प्रभावित करने वाली नीतियों पर चीन की नज़र रहेगी। अमेरिका के समानांतर प्रभुत्व रखने की इच्छा रखने वाला चीन स्वयं को एक ध्रुव के रूप में जरूर विकसित करना चाहेगा। 2050 तक ग्लोबल लीडर बनने वाली सोच इस बात को पुख्ता करती है। वैष्विक फलक पर एकाधिकार बढ़ाना चीन की नीयत में है। फिलहाल चीन के पड़ोसी देष चीन की नीतियों से कभी संतुश्ट नहीं रहे हैं। ऐसे में षी जिनपिंग की बढ़ी ताकत और दोबारा हुई ताज़पोषी से चीन की सूरत बदलेगी षायद दुनिया की नहीं। 




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Wednesday, October 25, 2017

आर्थिक इंजन जीएसटी कितना समुचित !

हाल ही में यह पढ़ने को मिला कि दिल्ली के कष्मीरी गेट में एषिया की सबसे बड़े आॅटोपार्ट्स बाजार में सन्नाटा छाया है। ऐसा इसलिए क्योंकि अधिकतर आॅटोपाटर््स पर 28 प्रतिषत जीएसटी है जिसके चलते व्यापार ठण्डा है। इसी क्रम में यह भी था कि इस बाजार में दो प्रकार के व्यापारी हैं। एक वे जो जीएसटी के अन्तर्गत रजिस्टर्ड हैं जिन्हें 28 फीसदी जीएसटी लगा कर माल बेचना है जबकि दूसरे वे व्यापारी जो बिल बिना दिये धड़ल्ले से माल बिना जीएसटी लिये बेच रहे हैं। जाहिर है कि जीएसटी लेने वाले नहीं लेने वालों की तुलना में मंदी से गुजर रहे होंगे। गौरतलब है कि जीएसटी के कई स्लैब हैं जिसमें 5 प्रतिषत से अधिकतम 28 प्रतिषत तक का कर दर निर्धारित है। सभी जानते हैं कि बरसों की कवायद के बाद जब जीएसटी इसी वर्श 1 जुलाई को धरातल पर उतरा तो उम्मीदें भी परवान चढ़ी थी। दषक से अधिक वक्त की कवायद और 2014 के षीत सत्र से मौजूदा सरकार द्वारा जीएसटी को लेकर की जा रही कोषिष जब सार्थक हुई तब षायद ही यह असमंजस रहा हो कि आने वाले दिनों में इसमें ढांचागत खामियों का खुलासा होगा। राजस्व सचिव हंसमुख अढ़िया ने रविवार 22 अक्टूबर को जीएसटी के ढांचे में संषोधन की बात कह कर यह जता दिया कि मौजूदा ढांचे में खामी तो है। राजस्व सचिव का यह बयान इस ओर भी इंगित करता है कि जीएसटी के वर्तमान स्वरूप से छोटे और मझोले व्यापारियों की समस्याएं बढ़ी हैं जिसे दुरूस्त किया जाना है। हालांकि बीते 7 अक्टूबर को समस्या को देखते हुए डेढ़ करोड़ तक के कारोबार करने वालों को मासिक रिटर्न से छुटकारा देते हुए तिमाही रिटर्न दाखिल करने की बात कही गयी थी। फिलहाल इसके पीछे एक बड़ा कारण बीते तीन महीने से कारोबारियों में पनपा रोश भी माना जा रहा है।
जीएसटी के क्या फायदे और क्या नुकसान हैं इसकी चिंता भी खूब होती रही। इसे लेकर आंकड़े और सूचनाएं भी खूब परोसे गये। सरकार इसे क्यों लागू कर रही है इस पर भी खूब सफाई दी गयी। बावजूद इसके मौजूदा कर ढांचे में कमी का होना होमवर्क का अधूरा होना कहा जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी नोटबंदी और जीएसटी को फायदेमंद तो बता रहे हैं साथ ही यह भी कह रहे हैं कि इससे कालाधन बाहर आया और अर्थव्यवस्था ने गति पकड़ी जबकि रिज़र्व बैंक के अनुसार 99 फीसदी पैसा बैंकों में जमा हो चुका है। सम्भव है बचा हुआ 1 फीसदी काला धन हो सकता है या फिर गलत तरीके से जमा किया गया पैसा इस श्रेणी में आ सकता है पर कितना है इसका कोई खुलासा नहीं हुआ है। फिलहाल प्रधानमंत्री का यह कहना कि आर्थिक सुधार के लिए कड़े कदम उठाते रहेंगे इससे भी साफ है कि विकास को टाॅप गियर में लाने के लिए जैसा कि वह स्वयं कह रहे हैं अर्थव्यवस्था को उथल-पुथल से बाहर निकालना ही होगा। जिस प्रकार जीएसटी को लेकर नित नये बयान और समीकरण उभर रहे हैं उससे भी यही लगता है कि कई क्षेत्रों में टैक्स को लेकर समस्या तो है। राजस्व सचिव ने भी माना है कि जहां टैक्स का बोझ ज्यादा हो गया है वहां उसे सरलीकृत करना होगा। जाहिर है जीएसटी की स्वीकार्यता को सकारात्मक रूप से बढ़ाना है तो जरूरी संषोधन करने ही होंगे परन्तु इस प्रकार के संदर्भ इस बात के लिए भी अवसर देते हैं कि जीएसटी लागू करने में ढांचागत खामियों से सरकार बच नहीं पायी है। जीएसटी में सुधार एवं विचार के लिए जीएसटी काउंसिल की 23वीं बैठक आगामी 10 नवम्बर को गुवाहाटी में हो रही है। वित्त मंत्री अरूण जेटली की अगुवाई में होने वाली इस बैठक में सभी राज्यों के प्रतिनिधि भी हिस्सा लेंगे। सम्भव है कि वस्तु एवं सेवा कर के मामले में नई बात देखने को मिले।
यह अच्छी बात है कि जीएसटी से पनपी समस्याओं को दूर करने को लेकर मंथन चल रहा है लेकिन यह कह पाना मुमकिन नहीं है इसके बाद समस्याएं नहीं पनपेगी। दो टूक यह भी है कि सरकार भले ही राहत के नाम पर संषोधन और परिवर्तन को अमली जामा देने की बात कर रही हो पर इससे यह भी पता चलता है कि जीएसटी लागू करने से पहले सरकार का सारा जोर आम सहमति बनाने पर था न कि इसके प्रति सटीक होमवर्क की। जिन नौकरषाहों के भरोसे जीएसटी को भव्यता दी जा रही थी खामियों ने उनकी भी पोल खोली है। भारत का प्रषासनिक अमला नीति निर्माण एवं क्रियान्वयन के मामले में कितना संजीदा है यह देष में पनपे भ्रश्टाचार से अंदाजा लगाया जा सकता है। 70 सालों से जिस विकास की धारा को देष में लाने की कोषिष रही है उसमें राजनीतिक कार्यपालिका के साथ प्रषासनिक कार्यपालिका का संयोजन है। लोक प्रषासन में यह बात स्पश्ट है कि सरकार वही अच्छी जिसका प्रषासन अच्छा। जब देष नई कर व्यवस्था को अपना रहा हो तो कोई सुराक छूटना नहीं चाहिए। जाहिर है नौकरषाहों ने सरकार को आधा-अधूरा जीएसटी परोसा है। नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक में तमाम निर्णयों का अम्बार लगा है। संषोधन, परिवर्तन समेत तमाम छानबीन के बावजूद अभी भी कमियों का मुंह खुला ही है। सरकार के लिए जरूरी केवल यह नहीं है कि वह विपक्ष की आलोचना का जवाब मात्र दे बल्कि आर्थिक विकास का इंजन जीएसटी के ढांचे को भी खामी मुक्त बनाना है। इस ममले में जीएसटी के दायरे में आने वाले उद्योग, व्यापार जगत के न केवल लोगों से विचार विमर्ष करना चाहिए बल्कि आर्थिक जानकारों का भी मंथन इसमें षुमार होना चाहिए। यह ठीक है कि जब भी कोई नई व्यवस्था स्वरूप लेती है तो नई-नई कठिनाईयों का सामना भी होता है परन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि कठिनाईयों में उलझ कर विकास की राह ही अवरूद्ध कर दिया जाय और लिये गये निर्णय पर संदेह उत्पन्न कराया जाय। 
उल्लेखनीय यह भी है कि जीएसटी काउंसिल ने अभी तक जितने भी फैसले लिए हैं वे सर्वसम्मति से अभिभूत रहे हैं। जाहिर है अभी तक ऐसी कोई नौबत नहीं आई जहां वोटिंग की आवष्यकता पड़ी हो। इसके बावजूद भी खामियां निरन्तर महसूस की जा रही हैं जो अतार्किक तो नहीं पर पूरी तरह संगत भी नहीं कहा जा सकता। राजस्व सचिव का यह कहना कि वैट, सर्विस टैक्स, एकसाइज़ ड्यूटी जैसे दर्जन भर टैक्स प्रणाली को खत्म कर नई टैक्स व्यवस्था जीएसटी को सामान्य होने में एक साल का समय लग सकता है। कहना उचित है पर 1 जुलाई को जीएसटी लागू करते समय ऐसे संकेत क्यों नहीं दिये गये। सरकार जानती है कि नई व्यवस्था से नई चुनौतियां सामने आयेंगी। हालांकि इससे निपटने का जिम्मा तो सरकार का ही है परन्तु कपड़ों की तरह निर्णय बदलने की प्रथा से यदि सरकार बाज नहीं आती है तो आलोचना भी उसी की होगी। जीएसटी लागू होने से पहले ही कपड़ा व्यापारी सड़क पर उतर चुके हैं। इसके अलावा कई कारोबारी इसके प्रति नकारात्मक नजरिया दिखा चुके है। गौरतलब है कि दुनिया के सैकड़ों देष अब तक जीएसटी अपना चुके हैं। बहुतायत की स्थिति सुखद नहीं रही है। एषिया के 19 देष यूरोप के 53, अफ्रीका के 44 समेत दक्षिण अमेरिका के 11 देष इसी प्रकार की कर व्यवस्था से युक्त है। कनाडा में जीएसटी 5 फीसदी तो आॅस्ट्रेलिया जैसे देषों में 10 है। सर्वाधिक जीएसटी 27 फीसदी हंगरी में देखने को मिला है जबकि डेनमार्क में 25 फीसदी जीसएसटी लागू है। जाहिर है भारत में 28 फीसदी जीएसटी का अधिकतम स्लैब है। अंततः जीएसटी की उड़ान को मजबूती देने के लिए बची हुई खामियों से न केवल निपटना होगा बल्कि ‘एक राश्ट्र, एक कर‘ की भावना से युक्त जीएसटी को कहीं अधिक प्रभावषाली भी सिद्ध करना होगा। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन  
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Wednesday, October 18, 2017

तबाही की भट्टी पर बैठा है उत्तर कोरिया

इस सवाल के साथ कि जहां 21वीं सदी की दुनिया में एक देष का सरोकार दूसरे से तेजी से जुड़ रहा हो वहीं परमाणु युद्ध का भी अवसर निर्मित हो रहा हो ये वाकई हैरत पैदा करता है। किसी भी देष की सुरक्षा और आंतरिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिए युद्ध सामग्री व संसाधन कितने पैमाने पर होने चाहिए इसका जवाब षायद ही किसी के पास हो पर इस बात की चिंता करते हुए कई देष मिल जायेंगे कि अभी इसकी आवष्यकता उन्हें है। इसी सूची में उत्तर कोरिया को स्पश्ट तौर पर रखा जा सकता है। दुनिया को परमाणु युद्ध में झोंकने की धमकी देना अब उत्तर कोरिया की फितरत बन गयी है। अलबत्ता यह चुनौती सीधे तौर पर अमेरिका के लिए है पर युद्ध के समय स्थिति दो देषों तक सीमित नहीं रहेगी। एक नासमझ या सनकपन की हद तक जा चुका तानाषाह किम जोंग कितना खतरनाक हो सकता है इसे उसकी मौजूदा हरकतों को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है। गौरतलब है कि संयुक्त राश्ट्र संघ में उत्तर कोरिया के राजदूत किम यांग ने यह कह कर इस बात को और पुख्ता कर दिया है कि उत्तर कोरिया और अमेरिका के बीच कभी भी परमाणु युद्ध छिड़ सकते हैं। लम्बी ज़बान से बड़ी बात कहने वाले उत्तर कोरियाई सिर्फ युद्ध का नेतृत्व कर रहे हैं। यह सही है कि उत्तर कोरिया पूरी तरह परमाणु सम्पन्न देष बन चुका है और ऐसे हथियारों का जखीरा इकट्ठा कर लिया है जिससे उसके बोल इस कटुता तक हो सकते हैं पर षायद किम जोंग इस बात में कहीं न कहीं अपरिपक्वता दिखा रहा है कि उसके सामने अमेरिका है। उत्तर कोरिया के घातक हथियारों में परमाणु बम, इंटर-काॅन्टिनेंटल बेलिस्टिक मिसाइल जिसकी जद्द में पूरा अमेरिका आ सकता है इत्यादि के बूते युद्ध की धमकी दे रहा है। यथार्थ यह भी है कि यदि ऐसी नौबत आती है तो इस जद्द में पूरी दुनिया आयेगी। 
दो टूक यह भी है कि अमेरिका के राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सत्तासीन होने के बाद उत्तर कोरिया तुलनात्मक अधिक हमलावर होते दिखाई देता है। जुबानी हमले के साथ परमाणु परीक्षण से लेकर मिसाइल परीक्षण तक में वह तेजी भी लाया है। हालांकि पूरी तरह तो नहीं पर यह आषंका जताई जा सकती है कि ट्रंप के तेवरों को देखते हुए किम जोंग कहीं अधिक सतर्क होने की फिराक में परमाणु परीक्षणों की गति बढ़ाई हो जैसा कि तानाषाह किम जोंग पहले भी कह चुका है कि यदि इराक और लीबिया जैसे देष परमाणु सम्पन्न होते तो उनका हाल यह न होता। साफ है कि हथियारों के बूते अपनी सुरक्षा की गारंटी वह पाना चाहता है। इसमें कोई षक नहीं कि मौजूदा समय में वह परमाणु हथियार वाले देषों की सूची में है और बेहद सषक्त भी है साथ ही कहीं भी समझौता करने के लिए तैयार नहीं। ऐसे में उसके सनकपन से यदि युद्ध छिड़ भी जाय तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। पिछले साल जब 6 जनवरी को जब उसने चैथा परमाणु परीक्षण किया तब उस पर पाबंदियों का एक और वार चला। कई वैष्विक चेतावनी भी दी गयी पर सभी को नजरअंदाज किया। गौरतलब है कि 2006 से अब तक वह पांच बार परमाणु परीक्षण और अनेकों मिसाइलों का परीक्षण कर चुका है। उत्तर कोरिया अपनी करतूतों के चलते पिछले एक दषक से केवल विवादों को जन्म देने वाला देष नहीं बना हुआ है बल्कि दुनिया को ध्रुवों में बांटने की पूरी स्थिति पैदा कर दिया है। निडर उत्तर कोरिया का लगातार बढ़ता दुस्साहस अमेरिका के माथे पर बल ला रहा है पर अमेरिका इसके समाधान के कुछ और विकल्प देख रहा है। यह बात गौर करने वाली है कि जब कुछ दिनों पहले ट्रंप ने उत्तर कोरिया को पूरी तरह तबाह करने की धमकी दे रहे थे तो इसकी आड़ में केवल उत्तर कोरिया ही नहीं बल्कि आंषिक चेतावनी चीन के लिए भी थी। ऐसा इसलिए क्योंकि चीन उत्तर कोरिया पर इस हद तक दबाव बना दे कि ट्रंप की कोषिषों के बगैर ही समस्या हल हो जाय।
बेषक अमेरिका दुनिया का मजबूत देष है पर बदले वैष्विक वातावरण में इसकी नीतियां भी कहीं अधिक व्यावसायिक और व्यावहारिक हुईं हैं। इतना ही नहीं कई देषों की चुनौतियों से भी बीते कुछ वर्शों में अमेरिका घिरा है। कई देष जो द्वितीय पंक्ति के थे अपनी आर्थिक और व्यापारिक समृद्धि के चलते काफी मजबूती हासिल कर चुके हैं साथ ही अमेरिका के एकाधिकार को भी चुनौती दी है जिसमें चीन जैसे देष काफी ऊपर हैं। इसी प्रकार कई यूरोपीय और एषियाई देष भी देखे जा सकते हैं। इस श्रेणी में भारत को भी रखा जा सकता है परन्तु भारत आर्थिक विकास की अवधारणा में किसी के लिए चुनौती न बन कर स्वयं की व्यवस्था को समुचित करने की दिषा में संलिप्त रहा है जबकि भारत की निरंतर विकास से चीन जैसे देष जो एषिया में एकाधिकार का मनसूबा रखते हैं उनको बड़ा कश्ट हुआ है पर वहीं जापान जैसे देष अच्छे दोस्त भारत के साथ हैं। परमाणु युद्ध की धारणा दुनिया की तबाही का पर्यायवाची है। जंग भले ही कोई जीते पर कीमत सबको चुकानी पड़ेगी। बदलते हुए अन्तर्राश्ट्रीय परिदृष्य में व्यापार, बाजार, सुरक्षा और संरक्षा आदि के स्वरूप भी बदले हैं। यह कह पाना अब थोड़ा मुष्किल है कि विभिन्न महाद्वीप के कितने ध्रुव बनेंगे पर यह समझना आसान है कि भारत जैसे देष ऐसी संकल्पनाओं को छूना भी नहीं चाहेंगे। गौरतलब है कि रूस, जापान, जर्मनी, अमेरिका, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका एवं आॅस्ट्रेलिया समेत दुनिया के सभी महाद्वीपों के देषों से भारत की अच्छी मित्रता है। यहां तक कि तकनीकी रूप से दक्ष इजराइल का दौरा करके प्रधानमंत्री मोदी ने इसे और मजबूत कर दिया है। हालंाकि समझदार और हकीकत को समझने वालों के बीच युद्ध को पैठ बनाने की जगह नहीं मिलनी चाहिए पर यह नहीं भूलना चाहिए कि छोटी दिखने वाली घटनाओं ने महायुद्धों को जन्म दिया है। 
1914 का प्रथम विष्वयुद्ध निहायत छोटी घटना का नतीजा था। गौरतलब है कि द्वितीय विष्वयुद्ध के पहले इसे ग्रेट वाॅर कहा जाता था। 1939 में द्वितीय विष्वयुद्ध के बाद इसे प्रथम विष्ववयुद्ध की संज्ञा दी गई। दोनों युद्धों के इतिहास पर बारीकी से नजर डाली जाय तो युद्ध के कारण और परिणाम दोनों चिंतित करने वाले हैं। यदि अब ऐसा माहौल बनता है तो तीसरा विष्वयुद्ध ही कहा जायेगा पर इसके आसार इसलिए कम हैं क्योंकि इस उलझन को सुलझाने के लिए बेबाक और व्यापक कूटनीति का सहारा लिया जा रहा है। क्या यह बात वाजिब नहीं है कि डोनाल्ड ट्रंप स्वयं को ऐसी षख्सियत के तौर पर परोस रहे हैं कि सबको डरना चाहिए। सात मुस्लिम देषों पर पद धारण करने के एक सप्ताह के भीतर प्रतिबंध लगाना, कई देषों को धमकाना, कईयों के राश्ट्राध्यक्षों को भाव न देना इत्यादि ट्रंप के षुरूआती फितरत में देखा जा सकता है। हालांकि पाकिस्तान को आतंक के मामले में डोनाल्ड ट्रंप ने जो जली-कटी सुनाई और जिस पैमाने पर उसे धमकाया है वह हर हाल में काबिल-ए-तारीफ है। इसी सबके बीच एक बात पूरी तरह सच है कि किम जोंग नहीं डर रहा है। किम जोंग की हरकतों को देखते हुए ऐसा महसूस होता है कि उसकी उंगली हमेषा ट्रिगर पर है और उसके निषाने पर प्रषान्त महासागर में अमेरिका अधिकृत गुआम द्वीप से लेकर वाषिंगटन और न्यूयाॅर्क है। वैसे चीन चाहे और दिल से चाहे तो किम जोंग को पटरी पर लाने में मदद कर सकता है। व्यापार और आर्थिक संरक्षण के मामले में चीन उत्तर कोरिया के लिए किसी आका से कम नहीं है पर अपने पड़ोस के दर्जनों देषों से उसकी स्वयं की दुष्मनी है। फिलहाल उत्तर कोरिया की लगातार धमकी चिंता करने वाली है जिस पर केवल अमेरिका ही नहीं बल्कि षेश दुनिया को इसलिए आगे आना चाहिए ताकि न तो युद्ध की नौबत आये और न ही परमाणु युद्ध छिड़े क्योंकि लम्हों की खता सदियों को चुकाना पड़ता है। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

जिनके दीये आँधियों से घिरे हैं

कुछ समय पहले एक समाचार रिपोर्ट से यह पता चला था कि एक 18 वर्शीय लड़के की भुखमरी से मौत हो गयी। हतप्रभ करने वाली बात यह रही कि उसके माता-पिता की मृत्यु भी वर्श 2003 में भुखमरी से ही हुई थी। दोनों घटनाओं में जो एक समानता है वह है भुखमरी। हैरत इस बात की है कि दषक के अंतर के बावजूद भुखमरी के तिलिस्म से यह परिवार बाहर नहीं निकल पाया। इस आलोक में यह बात स्वाभाविक रूप से उभरती है कि समय बीता, सत्ता बदली और आर्थिक दिषा तथा दषा के साथ तकनीक में भी बेजोड़ परिवर्तन हुए पर भुखमरी की परम्परा का निर्वहन जारी रहा। देष में कभी भी ऐसा नहीं रहा जब समाज में गरीबी और भुखमरी पर विमर्ष न हुआ हो। अभी चंद दिन पहले बीते 13 अक्टूबर को भुखमरी पर एक रिपोर्ट जारी हुई जिसमें 119 देष सूचीबद्ध हैं और भारत इसमें 100वें स्थान पर है। यह रिपोर्ट इस बात को तस्तीक करती है कि 70 सालों के लोकतंत्र में जितना सुधार फलक पर दर्षाया गया असल में उतना है नहीं। आज दीपावली है जाहिर है रोषनी के इस महोत्सव में कईयों के दीये आंधियों से अभी भी घिरे हैं। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि भुखमरी और गरीबी के तूफान से घिरे करोड़ों लोग के दीये में न तो तेल है, न बाती है और न ही रोषनी। बावजूद इसके दीपावली तो उनकी भी है। कहा जाय तो एक अदद रोषनी की तलाष में कईयों की जिन्दगी बरसों से घनघोर अंधेरे में गुजर-बसर कर रही है। इसमें भी कोई दुविधा नहीं कि भारत में भुखमरी की स्थिति गम्भीर रूप लेती जा रही है। बच्चों में भुखमरी की समस्या सबसे ज्यादा कुपोशण की वजह बनी हुई है। भारत में पांच साल से कम उम्र के हर बच्चे का वजन यहां कम बताया जा रहा है। ताज्जुब यह है कि इस मोर्चे पर भारत उत्तर कोरिया, बांग्लादेष और इराक जैसे देषों से पीछे चल रहा है। 
अन्तर्राश्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान यानी आईएफपीआरआई के ग्लोबल हंगर इंडैक्स से उक्त बातों का पता चला है जिसका खुलासा इसी माह में चंद दिन पहले हुआ है। अपने नागरिकों को स्वास्थ्य और पौश्टिक भोजन प्रदान करना किसी भी सरकार की आर्थिक जिम्मेदारी है। भारत में चाहे कांग्रेस की सत्ता रही हो या फिर भाजपा की। तमाम नेता लगातार देष में प्रगति और विकास के लम्बे-चैड़े दावे करते रहे लेकिन सच्चाई की सूरत इससे इतर है। देष में हर पांचवां व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे है और हर चैथा व्यक्ति अषिक्षित। 21वीं सदी के दूसरे दषक में और प्रगति के इन दिनों में ये आंकड़े क्षुब्ध करने वाले हैं। विभिन्न वैष्विक संगठनों के समय-समय पर होने वाले अध्ययनों और रिपोर्टों से सरकार के दावे की कलई खुलती रही है बावजूद इसके सरकारों ने अपने चरित्र में परिवर्तन नहीं किया। दो साल पहले जब अक्टूबर माह में ही विष्व बैंक की एक रिपोर्ट आई थी तो उसने देष को एक नई उम्मीद से भरा था। रिपोर्ट में यह कहा गया कि वर्श 2030 तक दुनिया से गरीबी का सफाया हो सकता है। वर्श 2015 के 5 अक्टूबर को जारी विष्व बैंक की इस रिपोर्ट में यह भी दर्षाया गया था कि 2012 में किसी भी देष के मुकाबले सबसे ज्यादा गरीब आबादी भारत में थी। मगर राहत वाली बात यह है कि बड़े देषों के बीच भारत का नम्बर सबसे नीचे है। अब इन दिनों एक नई चिंता आईएफपीआरआई की हालिया रिपोर्ट से उजागर हुई है जो यह दर्षाती है कि भारत के पड़ोसी देष में से अधिकतर की रैंकिंग उससे बेहतर है। चीन सबसे आगे 29वें स्थान पर है जबकि नेपाल 72वें, म्यांमार 77वें, श्रीलंका 84वें, बांग्लादेष 88वें स्थान पर हैं। पाकिस्तान और अफगानिस्तान क्रमषः 106वें और 107वें नम्बर पर आते हैं। आंकड़े इस बात का समर्थन करते हैं कि चीन की तुलना में भारत को भुखमरी के मामले में बहुत मेहनत की जरूरत है जबकि अन्य पड़ोसियों की तुलना में उसकी हालत कुछ खास ठीक नहीं है। सवाल है कि यदि आंकड़ों पर विष्वास किया जाय तो क्या सरकारें 119 के मुकाबले 100वें स्थान से भारत को मर्यादित स्थान दिलाने का सबक लेंगी या इस पर भी राजनीतिक लीपापोती करके इतिश्री करेंगी और दीये में तेल की फिराक में साथ ही एक अदत रोषनी की तलाष में भटक रहे गरीबी और भुखमरी से जूझने वालों के प्रति संवेदनहीन बनी रही। जाहिर है सरकार को माई-बाप भी कहा जाता है ऐसे में इस धर्म का भी सही निर्वहन दिया जाय तो कुछ की यह दीपावली न सही आगे की दीपावली रोषनी से भर सकती है। 
पांचवीं पंचवर्शीय योजना (1974-1979) गरीबी उन्मूलन की दिषा में देष में उठाया गया बड़ा दीर्घकालिक कदम था। 1989 के लकड़ावाला कमेटी की रिपोर्ट को देखें तो स्पश्ट था कि ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी और षहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी ऊर्जा जुटाना वाला गरीब नहीं होगा। तब उस समय भारत की गरीबी 36.10 हुआ करती थी। एक दषक बाद यह आंकड़ा 26.1 प्रतिषत हो गया तत्पष्चात् राजनीतिक नोंक-झोंक के बीच आंकड़ा 21 प्रतिषत कर दिया गया। गरीबी का 26 सं 21 फीसदी होने में जिस तरह से राजनीतिक बयानबाजी हो रही थी उससे ऐसा लग रहा था कि गरीबी दूर करना एक आर्थिक नहीं बल्कि राजनीतिक समस्या है। उन दिनों कोई राजनेता एक थाली भोजन की कीमत 20 रू. तो कोई 10 रू. तो कोई इससे भी कम में पेट भरा जा सकता है पर दलीले दे रहा था। भारत में गरीबी रेखा के नीचे वह नहीं है जिसकी कमाई प्रतिदिन सवा डाॅलर थी। हालांकि विष्व बैंक के रिपोर्ट में अब यह बढ़ा कर 1.90 डाॅलर प्रतिदिन कर दिया गया है। गरीबी ही भुखमरी का प्रमुख कारण है, अषिक्षा और बीमारी का भी प्रमुख कारण है। ये तमाम कारण गरीबी के भी बड़े कारण बन जाते हैं। साफ है कि ये परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करने वाली क्रिया है। देष में दो भारत हैं एक ग्रामीण और एक षहरी। षहरी जहां बिजली, पानी, सड़क, चिकित्सा, षिक्षा समेत सभी बुनियादी समस्याओं को हल करने पर जोर है। कहा जाय तो काफी हद तक सहज, सुलभ और सभ्य जीवन की पटकथा यहां निरन्तरता लिए हुए है परन्तु ग्रामीण भारत में चित्र थोड़ा उल्टा है। यहां गर्मी, जाड़ा और बारिष के बीच हाड़-तोड़ मेहनत होती है। बाढ़, अकाल और बेमौसम बारिष से फसलें ही नहीं बर्बाद होती बल्कि जिन्दगियां भी उजड़ती हैं। सभी जानते हैं कि लाखों की तादाद में किसान आत्महत्या कर चुके हैं। जाहिर है दोनों भारत में दीवाली का व्यापक असर और अंतर होगा। 
किसी भी त्यौहार में सर्वाधिक आनंद बच्चे ही लेते हैं। ऐसे में थोड़ी चर्चा उनसे जुड़ी परेषानियों की भी हो जाय तो अनुचित न होगा जो इसका अर्थ समझे बगैर ही दुनिया से जुदा हो जाते हैं। परेषान करने वाला यथार्थ यह है कि प्रतिवर्श 14 लाख बच्चे जिस देष में पांच वर्श की आयु तक पहुंचने से पहले मौत के मुंह में चले जाते हों, जहां बुनियादी संरचना की कमी के चलते छोटी-मोटी बीमारियों से जिन्दगी हाथ से निकल जाती हो। इतना ही नहीं तमाम कोषिषों के बावजूद दो वक्त की रोटी के लिए करोड़ों मोहताज हों वहां दिवाली का दीया कितनी रोषनी करेगा इसका अंदाजा कोई भी लगा सकता है। दीपावली का त्यौहार उत्साह और उमंग से भरा होता है जाहिर है कि इसका आनंद तभी चैगुना हो सकता है जब गरीबी और भुखमरी से मुक्ति मिली हो पर यह बात सभी पर लागू नहीं होती। जब कभी ऐसे मुद्दों पर विमर्ष होता है तो मन अवसाद से घिरता है। बावजूद इसके यह दीपावली सभी के लिए सुखकारी हो इस उम्मीद में कि कल की नीतियां, नियम और आर्थिक नियोजन उनके भी दिन बदलेंगे। माना गरीबी में रस्में पूरी न होती हों पर जज्बों में सभी की दीपावली एक जैसी ही है। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

अर्थव्यवस्था पर हमारा रास्ता क्या हो!

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश की अध्यक्ष क्रिस्टीन लिगार्ड का कथन कि भारतीय अर्थव्यवस्था बेहद मजबूत राह पर है। आईएमएफ के इस आंकलन से बीते कुछ महीने से भारत में विकास दर की गिरावट को लेकर सरकार पर जो तल्खी दिखाई गयी उसमें कमी आ सकती है। इस बात से हैरानी नहीं कि नोटबंदी और जीएसटी के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था पटरी पर है पर चिंता इस बात की जरूर है कि क्या वाकई में अर्थव्यवस्था को लेकर संरचनात्मक सुधार मजबूती की ओर है? आईएमएफ का भारतीय अर्थव्यवस्था की तारीफ से भरा हालिया बयान उत्साहवर्धक है। हो सकता है नोटबंदी और जीएसटी से होने वाला नुकसान महज़ अल्पकालिक हो परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि ढांचागत सुधारों में अमल करने से सरकार को छूट मिल जाती है। वित्त मंत्री अरूण जेटली मौजूदा आर्थिक सुधार को सही समय पर उठाया गया कदम बता रहे हैं जबकि नीति आयोग का मानना है कि भारत आर्थिक नरमी से उबरा है पर महंगाई से लेकर बेरोज़गारी और आम जन-जीवन में उपजी समस्याएं इस बात को मानने की इजाजत षायद ही दें। बेषक अर्थव्यवस्था को नई राह पर ले जाना था पर सरकार का समय के साथ बदलते निर्णय षंका को और पुख्ता बना देते हैं। गौरतलब है कि आईएमएफ सहित कई एजेंसियों ने खासतौर पर नोटबंदी से अर्थव्यवस्था के प्रभावित होने की बात कही थी जबकि सरकार ने इससे इंकार किया था। आर्थिक षोध की एजेंसी मुडीज़ ने भी नोटबंदी के बाद अर्थव्यवस्था को जून तक लगभग न संभलने की बात कही थी जो सच भी था। जून के बाद ही यह पता चला था कि देष का विकास दर जो 7 प्रतिषत से ऊपर था पिछले कई वर्शों की तुलना में नीचे लुढ़क कर 5 के इर्द-गिर्द रह गया। गौरतलब है कि आईएमएफ ने पिछले सप्ताह 2017 के लिए भारत की वृद्धि दर के अनुमान को घटा कर 6.7 प्रतिषत कर दिया। यह उसके अप्रैल और जुलाई के अनुमान से आधा प्रतिषत कम है। इसके लिए आईएमएफ ने नोटबंदी और जीएसटी को प्रमुख बताया। 
आईएमएफ ने अपनी नवीनतम विष्व आर्थिक परिदृष्य रिपोर्ट में वृद्धि दर के लिहाज़ से चीन को भारत से आगे रखा है जिसमें कोई अचरज वाली बात नहीं है पर गौर करने वाली बात यह है कि वर्श 2018 में भारत दुनिया में सबसे तेज वृद्धि करने वाली अर्थव्यवस्था का दर्जा फिर हासिल कर सकता है का अंदाजा भी लगाया गया है। नीति आयोग भी 2018 की पहली तिमाही में ऐसी ही बढ़त की उम्मीद लगाये हुए है। बेषक जीएसटी सरकार के लिए एक दुधारू गाय की तरह है पर इससे प्रभावित कई वर्गों में असंतुश्टि का दौर अभी थमा नहीं है। जुलाई से लेकर सितम्बर तक की एक तिमाही का आंकलन यह बताता है कि अप्रत्यक्ष कर में तुलनात्मक वृद्धि हुई है हालांकि थोड़ी चिंता यह भी हुई कि जुलाई माह में लगभग 94 हजार करोड़ का कर संग्रह अगस्त में 90 हजार के आसपास ही सिमट गया। जीएसटी के बाद पनप रही कठिनाई को देखते हुए सरकार ने अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में एक बार फिर संषोधन करते हुए कुछ वर्ग को राहत दिया है और रिटर्न दाखिल करने को मासिक से त्रिमासिक कर दिया। सरकार जानती है कि जीएसटी उन प्रमुख ढांचागत सुधारों में एक है जिसके माध्यम से विकास दर को दहाई में तब्दील किया जा सकता है परन्तु यदि विकास दर 8 फीसदी भी मिलता है तो भारत की बुनियादी समस्याएं मसलन हर पांचवां गरीबी रेखा के नीचे रहने वाला और हर चैथा अषिक्षित समेत अनेकों व्याधियों से देष को छुटकारा मिल सकता है। जब भी ढांचागत सुधार की बात होती है तो राजस्व और राजकोश पर पूरा ध्यान होता है। आईएमएफ जिस राह पर भारत को चलने की बात कही है उससे साफ है कि वह भारत की अर्थव्यवस्था के प्रति अच्छी समझ रखता है और सरकार इसके प्रति अच्छी उम्मीद। बावजूद इसके इस बात को भी तवज्जो देना होगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था को भारत की पारिस्थितिकी के अनुपात में संचालित करते हुए प्राथमिकताओं पर काम करना जिसका देष में अम्बार लगा हुआ है।
भारत की मंद पड़ी अर्थव्यवस्था पर आईएमएफ की उम्मीद से भरी टिप्पणी को तभी प्रमाणित माना जा सकेगा जब सरकार प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को बुनियादी हल दे देगी। देष में 60 प्रतिषत से अधिक तादाद में किसान हैं जिसमें बड़े जोत से लेकर खेतिहर मज़दूर भी षामिल हैं। जाहिर है इनसे कोश में इज़ाफा नहीं होता है पर जिनसे कर वसूला जाता है उनकी रोटी इन्ही केे श्रम से बनती है। इसके अलावा 80 करोड़ के आस-पास देष के युवाओं को रोज़गार का भी रास्ता सुझाना है। गौरतलब है कि मौजूदा सरकार प्रतिवर्श दो करोड़ रोज़गार देने का वायदा किया था जो सम्भव नहीं हुआ। युवाओं को हुनरमंद बनाने हेतु स्किल डवलेपमेंट की संस्थाएं भी देष में महज 15 हजार ही हैं जबकि चीन में इसकी संख्या पांच लाख से अधिक है। इतना ही नहीं दक्षिण कोरिया जैसे छोटे देषों में यह संख्या एक लाख है। युवा ऊर्जा है, रोज़गार की स्थिति में सरकार के लिए कोश भरने के काम भी आता है। स्आर्टअप इंडिया एण्ड स्टैंडअप इंडिया से ही काम नहीं चलेगा। बदले समय में इकोलाॅजी के मुताबिक रोज़गार के रास्ते चैड़े करने होंगे। आईएमएफ द्वारा सुझाये गये ढांचागत सुधारों पर सरकार को तत्काल कदम उठाना चाहिए साथ ही अपनी आर्थिक पारिस्थितिकी को भी ध्यान में रखना चाहिए। बेघर लोगों की भी देष में बहुत बड़ी जमात है। सरकार ने 2022 तक सभी को घर देने का आह्वान किया है। षिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, सड़क और रेल परिवहन समेत कई अन्य भी ढांचागत परिवर्तन व सुधार की राह ताक रहे हैं। हालांकि बुलेट ट्रेन की परिकल्पना परिवहन में एक बड़ा सुधार है। जाहिर है इन्हें पूरा करने में सरकार को व्यापक पैमाने पर राजस्व की आवष्यकता पड़ेगी। इसे देखते हुए सरकार आर्थिक नीति को लेकर कड़े कदम उठा रही है मसलन रसोई गैस पर मिलने वाली सब्सिडी को भी मार्च 2018 तक समाप्त की जा सकती है।
संषोधन तो अनेकों करने हैं काॅरपोरेट व बैंकिंग क्षेत्र को लम्बे समय तक कमज़ोर हालत में नहीं रखा जा सकता। श्रम एवं उत्पाद बाजार की क्षमता को बेहतर सुधार देना ही होगा। श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी पुरूशों के समान हो जाय तो भारत में जीडीपी की वृद्धि दर 27 प्रतिषत बढ़ जायेगी। हालांकि इसी मामले में आईएमएफ का मानना है कि अमेरिका में 5 प्रतिषत, मिस्र में 34 प्रतिषत की बढ़त की संभावना है। दुनिया वैष्विक अर्थव्यवस्था के साथ कदमताल कर रही है। समावेषी अर्थव्यवस्था के इस दौर में चीजें इतनी प्रतिकूल नहीं हैं कि वैष्विक सुधार का लाभ न लिया जा सके। वित्त मंत्री अरूण जेटली ने संरचनात्मक बदलाव और वैष्विक अर्थव्यवस्था में परिवर्तन के कारण भारत को अगले एक या दो दषक में उच्च स्तर तक वृद्धि करने की क्षमता वाला देष बता रहे हैं। गौरतलब है भौगोलिक परिस्थिति के अनुपात में देखें तो भारतीय अर्थव्यवस्था का रास्ता अन्य देषों से भिन्न भी है। कृशि, उद्योग एवं सेवा क्षेत्र को एक ही मानक से ऊंचाई नहीं दी जा सकती। वर्श 1952 में तुलनात्मक लोक प्रषासन के अन्तर्गत फ्रेडरिग्स ने तीसरी दुनिया के देषों जिसमें भारत भी षामिल था को यह मंत्र दिया था कि विकास को गैर पारिस्थितिकी के बजाय पारिस्थितिकी के अन्तर्गत करना चाहिए। ठीक इसी तर्ज पर भारतीय अर्थव्यवस्था को मात्र आईएमएफ के सुझाव पर न चलके स्वयं के षोध और स्वयं अंकगणित पर आधारित बनाना चाहिए। आईएमएफ के सकारात्मक बोल से मन अच्छा हो गया है पर जमीन पर बिखरी समस्याएं जब तक हल नहीं प्राप्त करेंगी यह कह पाना मुष्किल होगा कि हमारी अर्थव्यवस्था पटरी पर है या यह समझ पाना भी कठिन होगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था का रास्ता फिलहाल क्या है। 



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilkumarsingh589@gmail.com