Friday, November 30, 2018

पूरा सच नहीं बोलता है पाकिस्तान

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने एक बार फिर दोहराया है कि वे भारत के साथ षान्ति बहाल करना चाहते है और प्रधानमंत्री मोदी से बात करने के लिए तैयार भी है। साथ ही यह भी कहा कि कष्मीर मसले का फौजी हल मुमकिन नहीं है पर कुछ असम्भव भी नहीं है। सफाई देते हुए इमरान ने आतंकी दाऊद और हाफिज सईद को विरासत में मिला बताया और जिसके लिए वे जिम्मेदार भी नहीं हैं। गौरतलब है कि बीते 28 नवम्बर को पाकिस्तान में स्थित करतारपुर में गुरूद्वारा दरबार साहिब को भारत के गुरदासपुर जिले में स्थित डेरा बाबा नानक गुरूद्वारा से जोड़ने वाली बहुप्रतीक्षित गलियारे की आधारषिला रखी। उक्त बातें पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने इसी दौरान कही। सिक्ख तीर्थ यात्रियों के लिए करतारपुर साहिब गुरूद्वारा जाने के लिए करतारपुर कोरिडोर को खोलने को लेकर पाकिस्तान का यह कदम बहुत अच्छा माना जा सकता है पर सावधानियों को दरकिनार नहीं किया जा सकता। हालांकि इसे खोलने की मांग तीन दषक पुरानी है। भारत ने 1988 में इसे लेकर पहली बार प्रस्ताव रखा था जिस पर बीते 22 नवम्बर को प्रधानमंत्री की अगुवाई में कैबिनेट की बैठक हुई जहां करतारपुर कोरिडोर के निर्माण को मंजूरी दी गयी। उपराश्ट्रपति वैंकेया नायडू व पंजाब के मुख्यमंत्री ने संयुक्त रूप से इसकी आधारषिला रखी थी। कार्यक्रम में भारत के केन्द्रीय मंत्री हरसिमरन कौर और पंजाब राज्य के मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू मौजूद थे। वैसे जब भी पाकिस्तान के किसी कार्यक्रम में सिद्धू की मौजूदगी होती है तो विवाद उनके साथ चल पड़ता है। इमरान के षपथ समारोह में अकेले भारतीय रहे सिद्धू उस समय तब विवाद में आ गये जब वहां के सेना प्रमुख बाजवा से गले मिलने के चित्र सामने आये और अब आतंकी के साथ फोटो खिंचवाने का उन पर आरोप है। 
करतारपुर कोरिडोर की आधारषिला रखने के इस ऐतिहासिक क्षण पर भारत को अमन-षान्ति का पाठ पढ़ाने वाले इमरान ने कष्मीर का जिक्र भी छेड़ा जो यह दर्षाता है कि वे या तो आधा सच बोलते हैं या फिर पूरा सच बोल ही नहीं सकते। इस कोरिडोर के पीछे उनकी स्पश्ट मंषा को भी समझा जाना जरूरी है। गौरतलब है कि इमरान की पहल पर षान्ति प्रक्रिया यदि भारत स्थापित करना भी चाहे तो आतंकी और वहां की सेना भारत के लिए मुसीबत बन सकती है क्योंकि ऐसा दषकों से देखा जा रहा है कि जब-जब ऐसा हुआ भारत के भीतर आतंकी हमले हुए हैं। खास यह भी है कि पाकिस्तान और भारत के बीच मधुर सम्बंध हों यह वहां की आईएसआई, सेना औेर आतंकी संगठन कतई नहीं चाहते और इमरान इस बात से षायद ही अनभिज्ञ हों। जबकि उनकी सरकार को पूर्व तानाषाह मुर्षरफ, पाकिस्तानी सेना और कुछ हद तक आतंकियों का भी समर्थन है। प्रधानमंत्री मोदी ने करतारपुर कोरिडोर की तुलना बर्लिन की दीवार के टूटने से की। पाकिस्तान ने कोरिडोर किस आधार पर खोला है इस बात की भी बारीकी से पड़ताल जरूरी है। संकेत यह है कि गलियारा बनाने का इरादा पाकिस्तानी सरकार का नहीं बल्कि सेना प्रमुख जनरल बाजवा ने दिया था। कार्यक्रम में पाकिस्तानी सेना प्रमुख की उपस्थिति इस बात को और पुख्ता करती है। कोरिडोर खोलने के पीछे जो इरादा जताया जा रहा है उसके पीछे सब कुछ नेक है ऐसा नहीं है। गौरतलब है आॅपरेषन आॅल आउट के तहत कष्मीर घाटी में सैकड़ों की तादाद में आतंकी मौत के घाट उतारे जा चुके हैं। सेना की चैकसी और जम्मू-कष्मीर पुलिस की सक्रियता ने पाक प्रायोजित आतंकियों को अब कोई अवसर नहीं दे रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि सिक्खों के प्रति सहानुभूति की आड़ में खालिस्तान के पक्षधर को उकसाकर पंजाब में अषान्ति का माहौल पैदा करने का इरादा पाकिस्तान का हो। कोरिडोर खुलने से खालिस्तान समर्थक समूहों के अलावा अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर सिक्ख समुदाय का भरोसा पाकिस्तान जीत सकता है। इसी के माध्यम से भारतीय सिक्ख युवाओं का भी भरोसा जीतने का काम पाक कर सकता है और समय और परिस्थिति को देख कर उन्हें उकसाकर भारत विरोधी गतिविधियों में प्रयोग कर सकता है। गुरूद्वारे के बहाने ऐसे युवाओं को उन्हें खालिस्तान का पाठ पढ़ाना आसान हो जायेगा जो पंजाब और भारत दोनों के लिए एक नई चुनौती हो सकता है। गौरतलब है कि कुछ समय पहले जब भारतीय तीर्थयात्री पाकिस्तान के गुरूद्वारे में गये थे तब इस्लामाबाद स्थित भारतीय वाणिज्य दूतावास के सदस्यों को गुरूद्वारे में प्रवेष करने से रोका गया था और रोकने का यह काम सुरक्षाकर्मियों का नहीं बल्कि खालिस्तान समर्थक गोपाल सिंह चावला और उनके सहयोगियों का था।
समझने वाली बात यह भी है कि अस्सी और नब्बे के दषक में खालिस्तानी आतंकियों के खात्मे के बाद पंजाब भारी विकास की ओर जा चुका है। ऐसा भी नहीं है कि पंजाब में खालिस्तान समर्थक बिल्कुल नहीं है बस इषारे की आवष्यकता है। कनाडा के प्रधानमंत्री का जब भारत में दौरा हुआ था तब उन्हें षायद इसलिए अधिक तवज्जो नहीं दिया गया क्योंकि उन्होंने कनाडा में खालिस्तान समर्थकों के सुर में कुछ सुर मिला दिया था। दो टूक यह है कि कोरिडोर स्वागत योग्य है पर इसकी आड़ में खालिस्तानी आंदोलन को पुनर्जीवित करने वालों को यदि मौका मिलता है तो समस्या बड़ी हो जायेगी। अमेरिका के खालिस्तान समर्थक जिसे आंदोलन सिक्ख फाॅर जस्टिस के नाम से जाना जाता है उन्होंने एक सर्कुलर जारी किया है जिसमें स्पश्ट है कि गुरूनानक देव जी के 550वीं जयन्ती के उपलक्ष्य में पाकिस्तान में करतारपुर साहिब सम्मेलन का 2019 में आयोजन किया जायेगा। इसी सम्मेलन में इसकी भी योजना है कि मतदाता पंजीकरण भी किया जायेगा साथ ही जनमत संग्रह पर भी जानकारी उपलब्ध करायी जायेगी। उक्त से स्पश्ट है कि कोरिडोर के पीछे सब कुछ सकारात्मक नहीं है बल्कि कष्मीर से घटते आतंक को देखते हुए पाकिस्तान पंजाब में आतंक को पुनर्जीवित करने के लिए कहीं बेताब न हो इसे लेकर चिंता बढ़ जाती है। करतारपुर साहिब सबसे पवित्र स्थलों में से एक है इसे पहला गुरूद्वारा भी माना जाता है। गुरूनानक ने जीवन के आखरी 18 साल यहीं बिताये थे और 1539 में यही आखरी सांस ली थी। भारत की सीमा से 3 किमी. भीतर रावी नदी के किनारे बसे इस गुरूद्वारे के भारत के सिक्ख श्रृद्धालु दूरबीन से दर्षन करते हैं। जब यह कोरिडोर संचालित हो जायेगा तब श्रृद्धालुओं की आवाजाही सुगम होगी और इसके लिए वीजा की भी आवष्यकता नहीं पड़ेगी। खास यह भी है कि इस कोरिडोर के लिए भारत सरकार फंड देगी। इमरान खान ने करतारपुर कोरिडोर की आधारिषला रखते हुए पूरी दुनिया के सामने स्वयं को युद्ध विरोधी नेता के रूप में पेष करने की कोषिष किया और कहा कि दोनों देषों के पास एटमी हथियार हैं इसलिए युद्ध की बात करना बेवकूफी है और दोस्ती एक मात्र विकल्प है। आदर्ष से भरी पाकिस्तान की ये बातें किसी के मन को छू सकती हैं पर इतिहास खंगाल के देखा जाय तो अविष्वास गहरा जाता है। 1972 के षिमला समझौते को आज भी पाकिस्तान रौंदने से बाज नहीं आता। 19 फरवरी 1999 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के समय दिल्ली से लाहौर तक बस चली थी। दोनों देषों के बीच ट्रेन भी चली पर सम्बंध न सड़क पर दौड़ पाये और न ही पटरी पर। तानाषाह परवेज मुषर्रफ के समय तो आगरा षिखर वार्ता खराब सम्बंधों को और पुख्ता करता है। सार्क में षामिल जमा 8 देषों में पाकिस्तान ऐसा है जिससे भारत की दुष्मनी है। पठानकोट हमले के बाद साल 2016 का इस्लामाबाद सार्क बैठक इसकी भेंट चढ़ चुका है और 2020 में इस्लामाबाद में होने वाली सार्क बैठक को लेकर पाकिस्तान के उस इरादे को भी विदेष मंत्री सुशमा स्वराज ने खारिज कर दिया जिसमें वह मोदी को आमंत्रित कर रहा है। स्वयं प्रधानमंत्री मोदी अपने समकक्ष नवाज षरीफ के साथ षपथ ग्रहण समारोह से लेकर 2 साल तक सम्बंधों के लिए प्रयासरत् रहे पर नतीजे ढाक के तीन पात ही रहे।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Monday, November 19, 2018

एपेक को मिला ट्रेड वॉर का दण्ड

पिछले कई महीनों से अमेरिका और चीन के बीच ट्रेड वाॅर जारी है जिसका साइड इफेक्ट बीते 18 नवम्बर को एपेक सम्मेलन में देखने को मिला। इतना ही नहीं जुबानी जंग के चलते एषिया-प्रषान्त आर्थिक सहयोग संगठन यानी एपेक सम्मेलन इस तनातनी के बीच असफल भी हो गया। गौरतलब है कि पाॅपुआ न्यू गिनी में चल रहे एपेक के सम्मेलन में 21 देषों के नेता भी मतभेद को दूर करने में सफल नहीं रहे बल्कि इन दोनों देषों के चलते आपसी तनातनी भी इनके बीच में भी देखी जा सकती है। इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अमेरिका और चीन के चलते सम्मेलन में प्रस्तावित औपचारिक घोशणा भी नहीं हो पायी और खबर तो यह भी है कि चीन के अधिकारियों ने बीते 17 नवम्बर को पापुआ न्यू गिनी के विदेष मंत्री के कार्यालय में घुसने का प्रयास किया इसके बाद पुलिस बल को भी बुलाया गया। उक्त घटना ने इस बात को और पुख्ता कर दिया कि निजी हितों के चलते वैष्विक संगठन अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। खास यह भी है कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि क्षेत्रीय बैठक में चीन के अधिकारी हंगामा न किये हों। इससे पहले इसी साल के सितम्बर में एक सम्मेलन के दौरान चीन से माफी मांगने को कहा गया था उस समय चीन के अधिकारी इस बात पर बैठक छोड़ कर चले गये थे कि मेजबान ने उनके दूत को अपनी बारी से पहले बोलने की इजाजत नहीं दी। एपेक के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि सदस्य देषों के नेता व्यापार नीति पर गहरे मतभेद के कारण औपचारिक लिखित घोशणा पर भी सहमत नहीं हो पाये और आयोजक पापुआ न्यू गिनी के प्रधानमंत्री को सम्मेलन असफल करार देना पड़ा। आयोजक प्रधानमंत्री ने तो यह भी कहा कि आप जानते हैं दो बड़े दिग्गज कमरे में हैं मैं क्या कर सकता हूं? 
अन्तर्राश्ट्रीय संगठनों पर अमेरिकी दबाव व प्रभुत्व को नकारा नहीं जा सकता पर चीन से उपजी समस्या के चलते यहां उसकी हेकड़ी भी नजरअंदाज नहीं की जा सकती। पहली बार पापुआ न्यू गिनी में हुए इस वार्शिक सम्मेलन में मामला ढाक-के-तीन पात रहा। तो क्या चीन को एपेक की सदस्यता से बाहर कर देना चाहिए। जो अपने स्वार्थ और अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए कहीं भी अनाप-षनाप के लिए उतारू हो जाता है। हालांकि ताली एक हाथ से नहीं बजती यहां अमेरिका को पूरी तरह क्लीन चिट नहीं दिया जा सकता। वैसे चीन एक बुरी आदत से भी जूझ रहा है वह यह कि पड़ोसी देषों को न चुकाये जा सकने वाले कर्ज भी खूब थोप रहा है। एपेक के इतिहास को देखें तो यह एषिया-पेसिफिक इकोनाॅमिक कारपोरेषन मुख्य व्यापार में विष्व की कुछ सबसे षक्तिषाली अर्थव्यवस्थाओं को संयुक्त करता है। आॅस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री बाॅबहाॅक की पहल पर 1989 में इसका गठन हुआ था जिसमें आॅस्ट्रेलिया, पापुआ न्यू गिनी, पेरू, फिलिपीन्स, रूस, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, ताइवान, चीन, अमेरिका तथा वियतनाम सहित 21 देष हैं। इसका मूल उद्देष्य अमेरिका को दक्षिण पूर्व एषियाई देषों विषेशकर एसोसिएषन आॅफ साउथ ईस्ट एषियन नेषन (आसियान) देषों से जोड़ना था। गौरतलब है आसियान 1967 में गठित दक्षिण पूर्व एषियाई देषों का संगठन हैं जिसमें 10 सदस्य हैं। वैष्विक परिप्रेक्ष्य में चीजें बहुत बदलती हुई दिखती हैं पर वे कितनी प्रासंगिक है यह विचार का विशय है। आसियान देषों से जोड़ने के फिराक में गठित एपेक अपने निजी महत्वाकांक्षा के चलते कठिन दौर से गुजर रहा है। दक्षिण एषिया का सार्क, यूरोप का यूरोपीय संघ तथा अमेरिका, कनाडा और मैक्सिको को मिलाकर बने नाफ्टा के अलावा कई ऐसे क्षेत्रीय संगठन मिल जायेंगे जो आज अपने उद्देष्यों को लेकर कुछ हद तक संघर्श कर रहे हैं। एपेक से बिगड़ी बात कहां जाकर ठहरेगी इसे अभी कह पाना कठिन है पर ऐसी बातों का वैष्विक पटल पर बड़े नुकसान होते हैं। आपसी एकजुटता के लिए बने देष जब बिखरते हैं तो कई दूसरे देषों पर भी प्रभाव छोड़ते हैं। अमेरिका और चीन ने जहां एक-दूसरे पर सीधा निषाना साधा है वहीं अन्य देष इससे बंटे दिखते हैं जो कहीं से उचित नहीं कहा जा सकता। 
खास यह भी है कि आज एपेक विष्व के सर्वाधिक आर्थिक षाक्तिषाली देषों में से एक है और षायद हाल की घटना को देखते हुए कमजोर भी। इस संगठन का हिस्सा फिलहाल भारत नहीं है मगर रूस समेत कई देष जिसमें अमेरिका की भी यह कोषिष है कि भारत इसका सदस्य बने। इसके संगठन की स्थापना के लक्ष्यों में अमेरिका जैसे देष सफल तो हुए पर उत्पन्न मतभेद को रोक पाने में असफल भी हुए। हालांकि एकमात्र घटना से एपेक को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि यह आसियान व नाफ्टा के बीच सम्पर्क सूत्र का काम कर रहा है। भारत का एपेक का सदस्य बनना भारत एवं एपेक दोनों के हित में है। एपेक के अधिकांष सदस्यों के साथ भारत के सम्बंध मजबूत हैं हालांकि चीन के बारे में ऐसा कहना पूरी तरह तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता। भारत आसियान के साथ षिखर बैठक 2002 से ‘आसियान$1‘ प्रारूप के तहत काम कर रहा है। साथ में औरों के साथ मजबूत सम्बंध कायम किये हुए हैं। साल 2007 में जापानी प्रधानमंत्री षिंजो एबे के चतुश्कोण नीति भारत, जापान, आॅस्ट्रेलिया और अमेरिका इसके पुख्ता प्रमाण हैं। इसी को देखते हुए 2010 में ही लगा था कि यदि कोई नया सदस्य एपेक में आयेगा तो भारत पहले नम्बर पर होगा पर यह अभी तक ऐसा नहीं हुआ है। गौरतलब है कि पापुआ न्यू गिनी में जो हुआ वह आगे के सम्मेलनों के लिए एक मंथन का विशय होगा।
वैष्विक फलक पर चीन स्वयं को एक ध्रुव के रूप में उभारने की फिराक में है जबकि अमेरिका इससे अनभिज्ञ नहीं है। अमेरिका और चीन के बीच रंजिष केवल ट्रेड वाॅर ही नहीं है बल्कि दक्षिण-चीन सागर में चीन के प्रभुत्व को लेकर अमेरिका से चल रही अनबन भी है। गौरतलब है कि भारत का 40 फीसदी व्यापार दक्षिण-चीन सागर से होकर गुजरता है और इस सागर में चीन की प्रभुत्व से भारत भी काफी हद तक चिंतित रहता है। भारत, जापान और अमेरिका मिलकर दक्षिण-चीन सागन में पहले युद्धाभ्यास कर चुके हैं जिसका मलाल आज भी चीन को रहता है। फिलहाल भारत एपेक में षामिल होकर एक ओर इस संगठन से सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करेगा तो दूसरी ओर एपेक के माध्यम से उत्तर-दक्षिण संवाद को बढ़ावा देकर न्याय एवं समानता पर आधारित नई अन्तर्राश्ट्रीय व्यवस्था की स्थापना कर पायेगा। वैसे भी भारत पूरब की ओर देखों नीति पर तेजी से अमल कर रहा है जो 1990 से लगातार जारी है। फिलहाल बेनतीजा रही एपेक की इस बैठक ने कई सवालों को अपने पीछे छोड़ दिया है। षक्तिषाली देष के तौर पर जब कई एक साथ होते हैं तो संरक्षणवाद से लेकर व्यक्तिवाद की स्थिति भी व्याप्त हो सकती है। हालांकि चेक बुक कूटनीति की राह पर भी कई हैं। कई छुपे एजेण्डे के तहत ऐसे मंचों पर काम करते हैं। अमेरिका पर भी यह आरोप है कि वह लगातार संकीर्ण होता जा रहा है और ऐसे संगठनों पर ऐसे विचारों का दृश्प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ेगा ही। ऐसे में बड़ा सवाल यह रहेगा कि आगे जब भी बड़े उद्देष्यों से जुड़े अन्तर्राश्ट्रीय सम्मेलन हों तो देष निजी महत्वाकांक्षा के बजाय बड़े मन के साथ व्यवहार करें पर षायद यह आदर्ष रूप न ले पाये। फिलहाल यूएस और चीन के बीच तनातनी से पापुआ न्यू गिनी में जो हुआ वह सभी के लिए सबक है और सही सोच के साथ आगे बढ़ने का अवसर भी। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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Tuesday, November 13, 2018

बहुत ज़रूरी है नई राह का खुलना

यह एक बड़ा सच है कि पिछले कई वर्शों से नदियों पर कोई ध्यान नहीं जा रहा है यदि जा भी रहा है तो सिर्फ इसलिए कि नदी प्रदूशित हो रही है पर उसे रोक पाना भी सम्भव नहीं हो पा रहा है। जबकि इन्हीं नदियों के माध्यम से सदियों से परिवहन होता रहा, पीने का जल लिया जाता रहा, षहरों की बसावट इनके किनारे होती रही और सभ्यताओं की मुखर इतिहास की ये गवाह रही हैं पर अब यह हांफ रही हैं। गंगा हो या यमुना या अन्य सहायक नदियां सभी का हाल आमतौर पर बेहाल ही है। सदियों पुराने जल मार्गों के इतिहास को समेटे इन नदियों में समय-समय पर नई राह खोजी जाती रही है। इसी तर्ज पर वाराणसी-हल्दिया के बीच एक बार फिर यह प्रयास हुआ। प्रधानमंत्री मोदी ने वाराणसी में गंगा तट पर बने देष के पहले मल्टी माॅडल टर्मिनल अर्थात् बंदरगाह को बीते सोमवार देष को समर्पित किया जो वाराणसी से हल्दिया के बीच ऐसा पहला राश्ट्रीय जलमार्ग है जिसमें माल वाहक जहाजों का आवागमन होगा। गौरतलब है कि इस मौके पर कोलकाता से वाराणसी पहुंचे जहाज की अगवानी भी मोदी ने की। उत्साह से भरे प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि केन्द्र सरकार देष में 100 से ज्यादा राश्ट्रीय जलमार्गों पर काम कर रही हैं जिसमें वाराणसी-हल्दिया जलमार्ग भी षुमार है। गौरतलब है कि इस जलमार्ग के प्रकाष में आने से बिहार, झारखण्ड और पष्चिम बंगाल के बड़े हिस्से को बड़ा फायदा मिल सकता है। इससे मोदी का न्यू इण्डिया और न्यू विजन भी समझा जा सकता है। खास यह भी है कि पष्चिम बंगाल के हल्दिया से खाद्य सामग्री लाद कर जो जलयान वाराणसी पहुंचा वह उम्मदों का एक पिटारा भी था। नदियां हमेषा से जीवनदायनी रही हैं और यातायात का प्रमुख साधन भी रही है। बस दौर के साथ इनके साथ नाइंसाफी हुई है। यदि वाकई में नदियों की वेदना को समझा जाय तो सबसे पहले इन्हें प्रदूशण मुक्त करना होगा फिर इनसे लाभ के अम्बार को इकट्ठा करना और आसान हो जायेगा।
फिलहाल 2400 करोड़ परियोजन की यह सौगात देष को मिल गयी है और आने वाले भविश्य में इससे होने वाले कई लाभ देखने को मिलेंगे। समझने वाली बात यह भी है कि आंतरिक जल परिवहन के मामले में भारत का आंकड़ा कुल परिवहन का आधा फीसदी भी नहीं है जबकि चीन में 8 प्रतिषत परिवहन नदियों के माध्यम से होता है। यही आंकड़ा अमेरिका पर भी लागू होता है। नीदरलैण्ड जैसे देषों में यह 42 फीसदी है। खास यह भी है कि भारत का उत्तर का हिमालयी क्षेत्र से निकलने वाली नदियां हों या प्रायद्वीपीय क्षेत्र की नदियां हो परिवहन के मामले में बहुत बेहतर राय नहीं बन पायी है जबकि जल मार्गों का सदियों पुराना इतिहास भारत में ही रहा है। 305 ई.पू. में भारत आये यूनानी राजदूत मैगस्थनीज़ ने गंगा की बड़ी षिद्दत से चर्चा की है और 17 अन्य सहायक नदियों को अपनी पुस्तक इण्डिका में लिखा है। इतना ही नहीं सिन्धु एवं इसकी 13 उपनदियों से जल यात्रा की जा सकती थी इसका चित्रण भी इतिहास में मिलता है। नवीं षताब्दी के षिलालेखों से पता चलता है कि तत्कालीन राजा के पास उन दिनों नौकाओं के बेड़े हुआ करते थे। इतिहास के जैसे-जैसे आगे बढ़ने का सिलसिला आता गया जलमार्गों को लेकर अभिरूचि भी कम-ज्यादा होती रही मगर 15वीं और 16वीं सदी में जल परिवहन चरम पर था। मुगल षासनकाल में ऐसे मार्गों का सर्वाधिक इस्तेमाल किया जाता था। इतिहास के पन्ने इस बात के गवाह हैं कि नदियां जलमार्गों के मामले में सुगम, सुलभ और कहीं अधिक सुरक्षित मार्ग सिद्ध हुई हैं साथ ही बिना किसी खास निवेष के इसमें रास्ता ढ़ूंढ़ना भी आसान रहा है और मंजिल तक पहुंचना भी सुगम रहा है। 
परिवहन के लिए सड़क मार्गों और वायु मार्गों के विकास की होड़ में कहीं न कहीं भारत में जलमार्गों को नजरअंदाज किया गया था। षायद नदियों के प्रदूशित होने की वजह में एक यह भी है। निहित परिप्रेक्ष्य यह है कि यदि नदियों में जलमार्गों को लेकर मात्रात्मक बढ़ोत्तरी की गयी होती तो आबाध रूप से उसकी प्रवाहषीलता और बढ़ रहे प्रदूशण को लेकर चिंता कहीं अधिक होती। इससे नदियों का जल न केवल साफ होता बल्कि अधिक भी होता। इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि जल मार्ग में 1 किमी की यात्रा में मात्र 50 पैसे का खर्च आ रहा है जो अन्य किसी भी मार्ग से यात्रा करने में सबसे सस्ता है। करीब 5 करोड़ टन सालाना ढ़ुलाई इन जलमार्गों से की जा सकती है जो सस्ते दामों में यहां से वहां पहुंचायी जा सकती है। भारत में जल परिवहन का फैलाव अभी कहीं अधिक करने की आवष्यकता है। 20 हजार किमी से थोड़े ही अधिक क्षेत्रों में इनका विस्तार देखा जा सकता है। राश्ट्रीय जलमार्ग एक्ट-2016 में इसी स्थिति को देखते हुए 106 नये जलमार्ग का प्रस्ताव देखने को मिलता है। फिलहाल तीन जलमार्ग यात्री और मालवाहक जहाजों की परिवहन के लिए खुल चुके हैं। समय के साथ औरों की सम्भावना बनी रहेगी। इन जलमार्गों पर सुचारू रूप से परिवहन हो सके इसके लिए फिर वही बात कि नदियों की सूरत बदलनी पड़ेगी और इस पर बार-बार ध्यान देना होगा। इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि नदियां समय के साथ उथली होती जा रही हैं, जल संचय निरंतर घटता जा रहा है और प्रदूशण की प्रलय से मरती जा रही हैं। गर्मियों में ये नदी नहीं बल्कि पानी की लकीरें मात्र बन कर रह जाती हैं जिसका खामयाजा सभी को उठाना पड़ता है। गौरतलब है कि हिमालय से निकलने वाली गंगा जिसकी कुल लम्बाई 2510 किमी है बंगाल की खाड़ी पहुंचते-पहुंचते स्वयं मृतप्राय हो जाती है। प्रवाह के मामले में हांफने लगती है। ऐसे 1400 किमी लम्बी यमुना समेत कई भारतीय नदियों का हाल है।
राश्ट्रीय जल मार्ग का आगाज एक अच्छा संकेत है कुछ नयापन का भी है और कुछ नये विजन का भी। अगर ठीक ढंग से इसे विकसित किया गया और आने वाले जलमार्गों को निर्मित कर सुचारू कर लिया गया तो देष की सूरत भी बदल सकती है। वैसे भारत में कुल करीब 15 हजार किमी. तक नौवाहन हो सकता है। माल ढ़ुलाई से लेकर आवागमन को भी सुखद बनाया जा सकता है। ब्रह्यपुत्र नदी में भी ऐसी ही बड़ी सम्भावना दिखती है। यदि परिवहन के मामले में नदी जलमार्गों को मजबूती से इस्तेमाल में ला लिया गया तो सड़कों से दबाव घट सकता है। जाम के झंझटों से भी कुछ मुक्ति मिल सकती है और देष प्रदूशण के मार से भी कुछ हद तक बच सकता है। लेकिन यह सब इतना आसान नहीं है। यह तभी सम्भव है जब नदियां जीवित रहेंगी। नदियां बाढ़ में प्रलयकारी बनती हैं और गर्मी में सूखे की चपेट में होती है तो फिर जल परिवहन का क्या होगा सम्भव है कि इन दोनों पक्षों पर भी गौर करना होगा। इतना अधिकतम दोहन कैसे हो इसके लिए नियमित तौर पर गाद की न केवल सफाई हो बल्कि छोटे-बड़े षहरों के कारोबार से पनपे मलबे को इनमें जाने से रोका जाय। अविरल नदी परिवहन के लिए कभी विरल नहीं होगी बल्कि पानी के मामले में सघन रहेगी। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सड़क और परिवहन देष की संरचना है यह जितना अधिक विस्तार लेंगे सुगमता और सरलता सभी के हिस्से में आयेगी। नदियों के मामले में यह इसलिए और अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें भारी निवेष की आवष्यकता के बजाय बड़ी सोच की आवष्यकता है। सम्भव है जो पहल बीते 12 नवम्बर को वाराणसी में देखने को मिला है वह आने वाले दिनों में दोहराया जायेगा साथ ही परिवहन के मामले में नदियों की प्रमुखता को बढ़ावा मिलेगा।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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समुचित नहीं शोध पर विश्वविद्यालयी सोच !

भारत में बरसों से उच्च षिक्षा, षोध और इनोवेषन को लेकर चिंता जतायी जाती रही है पर गुणवत्ता के मामले में अभी भी यह नाकाफी बना हुआ है। वास्तविकता यह है कि तमाम विष्वविद्यालय षोध के मसले में न केवल खाना पूर्ति करने में लगे हैं बल्कि इसके प्रति वे काफी बेरूखी भी दिखा रहे हैं। षायद इसी को ध्यान में रखते हुए यूजीसी ने षोध को लेकर नित नये नियम निर्मित करती रही पर नतीजे मन माफिक नहीं मिल रहे हैं। हालांकि यूजीसी जैसी संस्था पर भी कई सवाल उठते रहे हैं। फिलहाल षोध और इनोवेषन को बढ़ावा देने में जुटी सरकार की मुहिम में विष्वविद्यालय की बेरूखी सामने आयी है। इस बात का अंदाजा लगाना आसान है कि देष भर में सभी प्रारूपों के 800 से ज्यादा विष्वविद्यालय हैं जबकि केवल 100 विष्वविद्यालयों ने ही इनोवेषन काउंसिल गठित करने के सरकार की पहल को आगे बढ़ाने का मन बनाया है। गौरतलब है कि उच्च षिक्षण संस्थानों में सरकार द्वारा इनोवेषन काउंसिल गठित करने की पहल की गयी है। विष्वविद्यालयों की बेरूखी से विष्वविद्यालय अनुदान आयोग इन दिनों ना खुष है। जब भी षोध पर सोच जाती है तब उच्च षिक्षा को लेकर दो प्रष्न मानस पटल पर उभरते हैं प्रथम यह कि क्या विष्व परिदृष्य में तेजी से बदलते घटनाक्रम के बीच उच्चतर षिक्षा, षोध और ज्ञान के विभिन्न संस्थान स्थिति के अनुसार बदल रहे हैं। दूसरा क्या अर्थव्यवस्था, दक्षता और प्रतिस्पर्धा के प्रभाव में षिक्षा के हाइटेक होने का कोई बड़ा लाभ मिल रहा है। यदि हां तो सवाल यह भी है कि क्या परम्परागत मूल्यों और उद्देष्यों का संतुलन इसमें बरकरार है। तमाम ऐसे और कयास हैं जो उच्च षिक्षा को लेकर उभारे जा सकते हैं। विभिन्न विष्वविद्यालयों में षुरू में ज्ञान के सृजन का हस्तांतरण भूमण्डलीय सीख और भूमण्डलीय हिस्सेदारी के आधार पर हुआ था। षनैः षनैः बाजारवाद के चलते षिक्षा मात्रात्मक बढ़ी पर गुणवत्ता के मामले में फिसड्डी होती चली गयी।
वर्तमान में तो इसे बाजारवाद और व्यक्तिवाद के संदर्भ में परखा और जांचा जा रहा है। तमाम ऐसे कारकों के चलते उच्च षिक्षा सवालों में घिरती चली गयी। यूजीसी द्वारा जारी विष्वविद्यालयों की सूची में 319 निजी विष्वविद्यालय पूरे देष में फिलहाल विद्यमान हैं जो आधारभूत संरचना के निर्माण में ही पूरी ताकत झोंके हुए हैं। यहां की षिक्षा व्यवस्था अत्यंत चिंताजनक है जबकि फीस उगाही में ये अव्वल है। भारत में उच्च षिक्षा की स्थिति चिंताजनक क्यों हुई ऐसा इसलिए कि इस क्षेत्र में उन मानकों को कहीं अधिक ढीला छोड़ दिया गया जिसे लेकर एक निष्चित नियोजन होना चाहिए था। विष्वविद्यालय के कई प्रारूप हैं जहां से उच्च षिक्षा को संचालित किया जाता है। सेन्ट्रल एवं स्टेट यूनिवर्सिटी के अतिरिक्त प्राईवेट तथा डीम्ड यूनिवर्सिटी के प्रारूप फिलहाल देखे जा सकते हैं। पड़ताल बताती है कि अन्तिम दोनों विष्वविद्यालयों में मानकों की खूब धज्जियां उड़ाई जाती हैं। 3 नवम्बर 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय में डीम्ड विष्वविद्यालयों के दूरस्थ षिक्षा पाठ्यक्रमों को लेकर चाबुक चलाया था। सुप्रीम कोर्ट ने यहां से संचालित होने वाले ऐसे कार्यक्रमों पर रोक लगा दी। गौरतलब है कि उड़ीसा हाईकोर्ट के इस फैसले को कि पत्राचार के जरिये तकनीकी षिक्षा सही है। जिसे खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने स्पश्ट कर दिया है कि किसी भी प्रकार की तकनीकी षिक्षा दूरस्थ पाठ्यक्रम के माध्यम से उपलब्ध नहीं करायी जा सकती। देष की षीर्श अदालत के इस फैसले से मेडिकल, इंजीनियरिंग और फार्मेसी समेत कई अन्य पाठ्यक्रम जो तकनीकी पाठ्यक्रम की श्रेणी में आते हैं इसे लेकर विष्वविद्यालय मनमानी नहीं कर पायेंगे। इतना ही नहीं इस फैसले से पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के उस निर्णय को भी समर्थन मिला था जिसमें कम्प्यूटर विज्ञान पत्राचार के माध्यम से ली गयी डिग्री को नियमित तरीके से हासिल डिग्री की तरह मानने से इंकार कर दिया गया था। हर पढ़ा-लिखा तबका यह जानता है कि दूरस्थ षिक्षा के माध्यम से डिग्री कितनी सहज तरीके से घर बैठे उपलब्ध हो जाती है। हालांकि इग्नू जैसे विष्वविद्यालय इसके अपवाद हैं। कचोटने वाला संदर्भ यह भी है कि उच्च षिक्षा के नाम पर जिस कदर चैतरफा अव्यवस्था फैली हुई है वह षिक्षा व्यवस्था को ही मुंह चिढ़ा रहा है। बीते डेढ़ दषक में दूरस्थ षिक्षा को लेकर गली-मौहल्लों में व्यापक दुकान खुलने का सिलसिला जारी हुआ। तमाम कोषिषों के बावजूद कमोबेष यह प्रथा आज भी काफी हद तक कायम है।
उक्त के परिप्रेक्ष्य में यह सुनिष्चित है कि उच्च षिक्षा को लेकर हमारी षिक्षण संस्थाओं ने व्यवसाय अधिक किया जबकि नैतिक धर्म का पालन करने में कोताही बरती है। जब देष की आईआईटी और आईआईएम निहायत खास होने के बावजूद दुनिया भर के विष्वविद्यालयों एवं षैक्षणिक संस्थाओं की रैंकिंग में ये सभी 200 के भीतर नहीं आ पाते हैं तो जरा सोचिए कि मनमानी करने वाली संस्थाओं का क्या हाल होगा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय के माध्यम से यह जता दिया कि उसे षिक्षा को लेकर कितनी चिंता है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला इस लिहाज़ से भी अहम है कि दूरस्थ षिक्षा के माध्यम से विद्यार्थी व्यावहारिक ज्ञान से या तो विमुख होता है या तो बहुत कम होता है। खास यह भी है कि तकनीकी षिक्षा के लिए आॅल इण्डिया काउंसिल आॅफ टेक्निकल एजुकेषन (एआईसीटीई) को मानक तय करने के लिए 1987 में बनाया गया था जिसकी खूब अवहेलना हुई है और समय के साथ विष्वविद्यालय अनुदान आयोग भी नकेल कसने में कम ही कामयाब रहा है। अब एक बार फिर षोध पर यूजीसी की बड़ी चिंता सामने देखने को मिल रही है। जब देष में मौजूदा समय में 47 केन्द्रीय विष्वविद्यालय 385 राज्य विष्वविद्यालय, 319 निजी विष्वविद्यालय, 131 डीम्ड यूनिवर्सिटी मौजूद हैं जो कहीं न कहीं बड़ी संख्या कही जा सकती है तब भी उच्च षिक्षा मुख्यतः षोध का हाल बेहाल क्यों है। यूजीसी ने विष्वविद्यालयों को साफ कह दिया है कि 20 नवम्बर तक काउंसिल गठित करें। इस सम्बंध में विष्वविद्यालय को पत्र भी लिखा जा चुका है। गौरतलब है कि 1 अक्टूबर से षुरू की गई सरकार की इस मुहिम में अब तक देष के करीब 800 उच्च षिक्षण संस्थान ही जुड़े हैं जिसमें ज्यादातर इंजीनियरिंग मैनेजमेंट और दूसरे उच्च षिक्षण संस्थान है। सवाल उठता है कि विष्वविद्यालय उद्योग की तरह क्यों चलाये जा रहे हैं जबकि भारत विकास की धारा और विचारधारा के ये निर्माण केन्द्र हैं। बाजारवाद के इस युग मे सबका मोल है पर यह समझना होगा कि षिक्षा अनमोन है बावजूद इसके बोली इसी क्षेत्र में ज्यादा लगायी जाती है।
षोध की कमी के कारण ही देष का विकासात्मक विन्यास भी गड़बड़ाता है। भारत में उच्च षिक्षा ग्रहण करने वाले अभ्यर्थी षोध के प्रति उतना झुकाव नहीं रखते जितना पष्चिमी देषों में है। भारत की उच्च षिक्षा व्यवस्था उदारीकरण के बाद जिस मात्रा में बढ़ी उसी औसत में गुणवत्ता विकसित नहीं हो पायी और षोध के मामले में ये और निराष करता है। अक्सर अन्तर्राश्ट्रीय और वैष्वीकरण उच्च षिक्षा के संदर्भ में समानांतर सिद्धान्त माने जाते हैं पर देषों की स्थिति के अनुसार देखें तो व्यावहारिक तौर पर ये विफल दिखाई देते हैं। भारत में विगत् दो दषकों से इसमें काफी नरमी बरती जा रही है और इसकी गिरावट की मुख्य वजह भी यही है। दुनिया में चीन के बाद सर्वाधिक जनसंख्या भारत की है जबकि युवाओं के मामले में संसार की सबसे बड़ी आबादी वाला देष भारत ही है। जिस गति से षिक्षा लेने वालों की संख्या यहां बढ़ी षिक्षण संस्थायें उसी गति से तालमेल नहीं बिठा पायीं। इतना ही नहीं कुछ क्षेत्रों में बिना किसी नीति के कमाने की फिराक में बेतरजीब तरीके से षिक्षण संस्थाओं की बाढ़ भी आयी। अब यूजीसी और सरकार बदलाव के साथ कुछ कर पाने में कितना सफल होगी यह बाद में देखा जाने वाला विशय रहेगा।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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