Monday, April 24, 2023

ताकि विकास की लकीर गाढ़ी हो सके

जहां विकास में ‘क्या और किसके लिए‘ जैसे प्रष्न प्राथमिक तौर पर राजनीतिक सवाल है वहीं इस प्रक्रिया में ‘कैसे‘ तथा ‘किस प्रकार‘ एक प्रषासनिक समस्या है। राजनीतिक सवाल और प्रषासनिक समस्या को एक सूत्र में पिरोकर अन्तिम व्यक्ति तक विकास को पहुंचाने का काम सदियों से होता आया है। प्रषासन के दो क्रियाकलाप हैं एक नीतियों के निर्माण में योगदान तो दूसरा उन नीतियों को क्रियान्वयन के माध्यम से नागरिकों को सषक्त बनाना। “विकसित भारत - नागरिकों को सषक्त करना और अन्तिम व्यक्ति तक पहुंचना।“ साल 2023 के सिविल सेवा दिवस की थीम है। इस दिन सिविल सेवक नागरिकों के लिए खुद को समर्पित करते हैं और कार्य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व उत्कृश्टता को नवीन स्वरूप देते हैं। सिविल सेवा दिवस मनाने हेतु इस दिन को चुनने की भी एक बड़ी वजह यह रही है कि स्वतंत्र भारत के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने इसी दिन दिल्ली के मेटकाॅफ हाउस में 1947 में प्रषासनिक सेवा के परिवीक्षाधीन अधिकारियों को सम्बोधित किया था। गौरतलब है कि भारत सरकार ने वर्श 2006 से प्रत्येक 21 अप्रैल को सिविल सेवा दिवस के रूप में इसे मनाने का निर्णय लिया। विदित हो कि केन्द्र सरकार ने इसी वर्श केन्द्र तथा राज्य सरकारों के संगठनों द्वारा लिये गये असाधारण और नवोन्मेशों कार्य को पहचान तथा उसे पुरस्कृत करने हेतु लोक प्रषासन में उत्कृश्टता के लिए प्रधानमंत्री परस्कार की योजना षुरू की गयी थी। इस बार भी देष के 748 जिलों से आये हजारों नामांकन में से 16 सिविल सेवकों को यह सम्मान दिया जायेगा। साल 2022 में लोक प्रषासन में उत्कृश्टता के लिए प्रधानमंत्री पुरस्कार उद्देष्य ‘हर घर जल योजना‘ के जरिये स्वच्छ जल तथा स्वास्थ्य केन्द्रों के द्वारा स्वस्थ भारत, समग्र षिक्षा द्वारा कक्षा का न्याय संगत और समावेषी माहौल समेत समग्र विकास को बढ़ावा देने में लोक सेवकों के योगदान को पहचानना था। गौरतलब है कि इसके अन्तर्गत विधायिका, न्यायपालिका और सैन्यकर्मी षामिल नहीं है।
वर्श 1965 में मनो-सामाजिक व प्रषासनिक चिंतक वारेन बेनिस ने कहा था कि आगामी 30 वर्शों में नौकरषाही समाप्त हो जायेगी। बेषक नौकरषाही समाप्त हुई है और 1991 के उदारीकरण के बाद यह सिविल सेवक की भूमिका में आयी जो विष्व बैंक की 1992 में दी गयी अवधारणा सुषासन की परिपाटी को सुसज्जित करने को लेकर स्वयं को परिमार्जित किया है। यह वही सिविल सेवा है जिसे 1947 में सम्बोधन के दौरान सरदार पटेल ने ‘भारत का स्टील फ्रेम‘ कहा था। द्वितीय प्रषासनिक सुधार आयोग की 21वीं सदी में आये रिपोर्ट में भी लोक सेवकों को लेकर अच्छे खासे सुधार सुझाये गये। गौरतलब है कि संविधान का अनुच्छेद 311 इन्हें सुरक्षा देने का काम करता है। यदि इसकी समाप्ति होती है तो उत्कृश्टता इनकी मजबूरी हो सकती है। हालांकि यह सुझाव माना नहीं गया। इसके पहले प्रथम प्रषासनिक सुधार आयोग (1966-1970) की रिपोर्ट में भी सिविल सेवकों के कायाकल्प की बात देखी जा सकती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सिविल सेवकों को कई मोर्चे पर तैयार रहना होता है। बदलते वैष्विक परिदृष्य में उत्कृश्टता एक ऐसा पैमाना है जहां से देष को चुनौतियों के अनुरूप बनाना इनकी जिम्मेदारी है। हालांकि राजनीतिक इच्छाषक्ति के बगैर यह सम्भव नहीं है। उदारीकरण के बाद प्रषासनिक सेवा में षनैः षनैः परिवर्तन निहित होता गया और मौजूदा समय में तो यह सिविल सर्वेंट की भूमिका में है। साल 2005 में सूचना का अधिकार लोक सेवकों में लगाम लगाने वाला और जनविकास के प्रति जिम्मेदारी बढ़ाने वाला मानो एक हथियार जनता को मिल गया। प्रषासनिक अध्येता भी यह मानते हैं कि सूचना के अधिकार में षासन-प्रषासन के कार्यों में झाकने की जो षक्ति दी उससे लोक सेवकों में एक नई अवधारणा का सृजन हुआ और जनता के प्रति जवाबदेही बढ़ी। साल 2006 में ई-षासन योजना के चलते इसमें और वृद्धि हुई। वर्तमान में डिजिटल गवर्नेंस को बढ़ावा मिलने से यह नई लोक सेवा के रूप में परिलक्षित होता है।
चुनौतियों से भरे देष, उम्मीदों से अटे लोग तथा वृहद् जवाबदेही के चलते मौजूदा मोदी सरकार के लिए विकास और सुषासन की राह पर चलने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है। भूमण्डलीकरण का दौर है लोक सेवा का परिदृष्य भी नया करना होगा जो कमोबेष हुआ भी है। ऐसा करने से न्यू इण्डिया में नये कवच से युक्त नई लोक सेवा, नई चुनौतियों को समाधान दे सकेगी। विकास की क्षमता पैदा करना, राजनीति का अपराधीकरण रोकना, प्रषासन को भ्रश्टाचार से मुक्त रखना और जनता का बकाया विकास उन तक पहुंचाना सही मायने में सिविल सेवकों की जिम्मेदारी है। सिविल सेवा दिवस तभी पूरी तरह सघन और समुचित करार दिया जा सकता है जब इसमें जनहित पोशण के सिद्धांत के साथ सर्वोदय का बाकायदा मिश्रण हो। प्रधानमंत्री मोदी से कई अपेक्षाएं हैं पूरी कितनी होंगी कहना मुष्किल है पर कोषिष भी न करें यह उचित नहीं है। देष का विकास नागरिकों के विकास के साथ समावेषी ढांचे और अन्तर्राश्ट्रीय चुनौतियों को हल करने से सम्बंधित है। न्यू इण्डिया फायदे का सौदा तभी है जब सिविल सेवा दिवस पर यह संकल्प बड़ा हो जाये कि साल 2023 की थीम कि नागरिकों को सषक्त करना और अन्तिम व्यक्ति तक पहुंचना सम्भव हो जायेगा। हालांकि ऐसा करने के लिए सषक्त लोकनीति और सजग लोक सेवकों की आवष्यकता पड़ेगी। पूर्व अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने कार्यकाल के दौरान भारत की नौकरषाही की तारीफ की थी। देष के प्रषासनिक तंत्र की रीढ़ सिविल सेवा प्रणाली है। यह भारत गणराज्य की एक ऐसी कार्यकारी षाखा है जो सरकार की नीतियों को क्रियान्वित करके सर्वोदय को उदयीमान बनाती है। गौरतलब है सरकार योजनाएं और नीतियां बनाती है जबकि प्रषासक सरकारी सेवक के तौर पर इसको कार्य रूप देते हैं। सिविल सेवा दिवस जब पहली बार नई दिल्ली के विज्ञान भवन में मनाया गया था तब षायद इस दिवस की प्रभावषीलता से लोग इतने वाकिफ नहीं थे जितने की मौजूदा समय में। वैसे देखा जाये जिस भी देष की सिविल सेवा समावेषी दृश्टिकोण से युक्त और जनसेवा से अभिभूत होती है वहां कश्टों का निवारण तय है।
हालांकि भारत एक ऐसा विकासषील देष है जहां गरीबी, बीमारी, बेरोजगारी, अषिक्षा व भुखमरी समेत सड़क, सुरक्षा, बिजली, पानी, षिक्षा, चिकित्सा आदि तमाम चुनौतियां कमोबेष बरकरार हैं। इतना ही नहीं लोक सेवकों में भ्रश्टाचार, लालफीताषाही, असंवेदनषीलता की समस्या के साथ नागरिक प्रथम को लेकर भी पूरा समर्पण नहीं दिखता है। महज विनिवेष, निजीकरण, पष्चिमीकरण, आधुनिकीकरण व वैष्विकरण से ही सब कुछ हासिल नहीं होगा। सिविल सेवक जन केन्द्रित, लोक कल्याणकारी, संवेदनषील और जनता के प्रति खुला दृश्टिकोण से युक्त होने से विकास की राह समतल करना सम्भव होगा। सिविल सेवा दिवस की अपनी एक अनूठी परम्परा है जिसमें नागरिकों की भलाई के लिए खुद को पुर्नसमर्पित करने के रूप में देखा और समझा जा सकता है। यह जितनी मात्रा में बढ़त बनायेगा अन्तिम व्यक्ति तक पहुंच उतनी ही सरल होती जायेगी। फलस्वरूप सुषासन जो एक लोक प्रवर्धित अवधारणा जहां जन सषक्तिकरण ही इसका अन्तिम उद्देष्य है की लकीर भी और गाढ़ी हो जायेगी।

दिनांक : 20/04/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

Sunday, April 23, 2023

न्यायपालिका और महिलाएं

अपने पूरे जीवनकाल में महिलाओं के अधिकारों, मतदान के अधिकारों और सभी के लिए समान अधिकारों के लिए लड़ाई में संलग्न अमेरिकी उच्चत्तम न्यायालय की महिला न्यायाधीष रहीं रूथ वेदर गिन्सबर्ग से जब एक बार पूछा गया था कि अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय में कितनी महिला न्यायाधीष पर्याप्त होंगी तब उन्होंने कहा कि मुझे तब संतोश होगा कि जब अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में सभी नौ न्यायाधीष महिलाएं होंगी। गौरतलब है कि साल 2020 में अपनी मृत्यु तक उन्होंने सत्ताईस वर्श अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय में अपनी सेवाएं दी। विदित हो कि अमेरिका की षीर्श अदालत में एक मुख्य न्यायाधीष समेत नौ न्यायाधीष होते हैं जबकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय में यही संख्या चैंतीस है। भारत स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के दौर में है 75 साल की आजादी के इस दरमियान महिला सषक्तिकरण को लेकर विविध क्षेत्रों में कार्य किये गये। सिविल सेवा, पुलिस सेवा, इंजीनियर, डाॅक्टर व मिलट्री व न्यायिक सेवा समेत विविध क्षेत्रों में महिलाओं की उपस्थिति बाकायदा देखी जा सकती है। मगर इस कसक के साथ कि उच्च एवं उच्चत्तम न्यायालय में महिलाओं के लिए पर्याप्त प्रतिनिधित्व का प्रयास बड़ा आकार नहीं ले पाया। सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीष के पद पर अभी तक किसी महिला न्यायाधीष की नियुक्ति नहीं हुई है। हालांकि न्यायाधीष के रूप में कई महिलाएं नियुक्त हो चुकी हैं और इस बार काॅलेजियम ने तीन महिला न्यायाधीषों को सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त करके एक बड़ी पहल किया है। सम्भव है कि 2027 तक देष को पहली महिला मुख्य न्यायाधीष मिले। ध्यानतव्य हो कि वर्श 1989 में न्यायमूर्ति एम. फातिमा बीबी सर्वोच्च न्यायालय की पहली न्यायाधीष बनी थीं उन्होंने केरल न्यायालय के न्यायाधीष के रूप में सेवानिवृत्ति के बाद सेवा निवृत्त किया गया था। यह सही है कि विविधीकरण सकारात्मक परिवर्तन को बढ़ावा देता है। सेवा का कोई भी क्षेत्र हो अधिक विविध होने से सम्भावनाएं बड़ी होती हैं न्यायपालिका भी इससे अछूती नहीं है। महिलाओं की संख्या अपेक्षानुरूप होना बदलाव को न केवल दृश्टिगोचर करेगा बल्कि लैंगिक रूढ़िवादिता को भी दूर करने में यह मददगार सिद्ध होगा।
न्यायपालिका के सभी स्तरों पर महिलाओं के लिए 50 फीसद आरक्षण के लिए भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीष एन.वी. रमन्ना का आह्वान सराहनीय है मगर वास्तुस्थिति यह है कि सर्वोच्च न्यायालय में अब तक 11 महिला न्यायाधीष की नियुक्ति हुई है जबकि उच्च न्यायालयों में लगभग 11.5 फीसद महिला न्यायाधीष हैं और अधीनस्थ न्यायालयों में यही आंकड़ा 30 प्रतिषत का है। इसी तर्ज पर देष में 17 लाख अधिवक्ताओं में से महज 15 फीसद महिला अधिवक्ता हैं। जाहिर है अभी इस क्षेत्र में कई बड़े कदम की आवष्यकता है। गौरतलब है कि देष में बढ़ते विधि विष्वविद्यालयों व काॅलेजों की संख्या और उनमें कानून की पढ़ाई का निहित होना उत्तरोत्तर वृद्धि लिए हुए है और विधि स्कूल की कक्षाओं में महिलाएं पुरूशों से आगे भी निकल रही हैं मगर एक रास्ता तेजी से काॅरपोरेट क्षेत्र की ओर भी जाता है। बेषक न्यायपालिका में महिला प्रतिनिधितव बढ़ाने की आवष्यकता है और इसके कई सकारात्मक पहलू भी हैं। महिला प्रतिनिधित्व बढ़ने से न्यायपालिका को कहीं अधिक सकारात्मक और अधिक समावेषी की ओर ले जाया जा सकता है और न्याय के क्षेत्र में इनकी प्रतिभा का बाकायदा उपयोग भी सम्भव होगा। समाज में एक षक्तिषाली संदेष यह भी है कि महिलाओं की उपस्थिति से जनता का विष्वास और वैधता के साथ अनुषासन को बड़ा किया जा सकता है। फलस्वरूप महिलाओं का उचित प्रतिनिधित्व भी न्यायपालिका को मिलेगा और नैतिक रूप से समाज को भी इस बात के लिए सषक्त बना देगा कि पितृसत्तात्मक जैसी न कोई बात है और न ही ऐसी कोई धारणा का अब कोई महत्व है। इसके अलावा आर्थिक न्याय के साथ-साथ व्यापक सामाजिक न्याय भी सुनिष्चित करने में सहायता मिलेगी। गौरतलब है कि महिला सषक्तिकरण दषकों से किया जा रहा एक ऐसा प्रयास है जिसमें सरकारें हमेषा चिन्तित रही हैं। सुषासन की परिपाटी में भी महिला सषक्तिकरण एक ऐसी आहट रही जिन्हें सामाजिक-आर्थिक न्याय देकर मुख्य धारा में लाना रहा है। लोक केन्द्रित अवधारणा के अन्तर्गत अवसर की उपादेयता और उन्हें हाषिये से समतामूलक दृश्टिकोण के तहत पूरा मौका देना भी सषक्तिकरण का आयाम है। वर्तमान दौर तो सभी दिषाओं में महिलाओं में होने का सूचक है ऐसे में न्यायपालिका के भीतर उनके प्रवेष को प्रोत्साहित करना इसी दिषा में उठाया गया एक मजबूत कदम कहा जायेगा।
संवैधानिक प्रावधानों के अन्तर्गत देखें तो अनुच्छेद 15, 15(3), 16, 39(क) के अन्तर्गत समाज में लैंगिक न्याय प्राप्त करने का प्रयास किया गया है। जाहिर है न्यायपालिका में महिलाओं को बड़ी भागीदारी देकर इस मामले में पथ और समतल किया जा सकता है। इतना ही नहीं यह सतत् विकास लक्ष्य-5 के अनुकूल है जो कि  लैंगिक समानता पर केन्द्रित है। वैसे एक बड़ा सच यह है कि न्यायपालिका में महिलाओं की उपस्थिति को लेकर बातें बड़ी षिद्दत से समझी और कही जा रही हैं मगर हैरत इस बात का भी है कि बीते पच्चहत्तर सालों में संसद और राज्य की विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फीसद आरक्षण देने की हिम्मत भी अब तक की सरकारें नहीं जुटा पायी हैं यह मामला आज भी खटायी में है और इससे जुड़ा विधेयक पारित नहीं हो पाया। मगर सभी राजनीतिक दल मंचों पर खड़े होकर इसका समर्थन जरूर करते हैं। आखिर क्या वजह है कि न्यायपालिका में महिलाओं की उपस्थिति एक व्यापक स्थान नहीं ले पायी। इसमें पारिवारिक उत्तरदायित्व से लेकर कई और कारण भी हो सकते हैं। हालांकि बदलते दौर के अनुपात में महिला षिक्षा और विधि क्षेत्र में उनका दखल तेजी से बढ़ रहा है ऐसे में न्यायिक क्षेत्र में उनका अधिक होना देर-सवेर सम्भव तो है। इसके अलावा महिलाओं को दिये गये आरक्षण की परिपाटी ने भी न्यायिक सेवा में उनकी पहुंच बढ़ाया है। असम, आन्ध्र प्रदेष, तेलंगाना, उड़ीसा और राजस्थान जैसे राज्यों में आरक्षण से लाभ हुआ है। यहां 40 से 50 फीसद महिला अधिकारी देखी जा सकती है। कई राज्यों में 30 फीसद के आरक्षण इस दिषा में कारगर कदम हैं जो षनैः षनैः इनकी उपस्थिति को और सघन बनाने में मददगार होगा। इस बात को भी षिद्दत से समझने की आवष्यकता है कि यह समय की मांग और अपरिहार्यता भी है कि महिलाओं को न्यायपालिका में व्यापक प्रवेष देकर उनके साथ भी न्याय किया जाये। अदालतों में जिस प्रकार मुकदमों का अम्बार है और निरंतर यह बोझ बढ़ता जा रहा है उसमें न्यायिक क्षेत्र को भी विविध करने की आवष्यकता है जो महिलाओं की संख्या बढ़ाने से हासिल किया जा सकता है। वैसे देखा जाये तो अमेरिका की न्यायपालिका में भी महिलाओं को लेकर बहुत सकारात्मक आंकड़े नहीं दिखाई देते। हालांकि प्रत्येक देष की अपनी सामाजिक-आर्थिक पारिस्थितिकी के साथ षासकीय और न्यायिक दृश्टिकोण होते हैं। जाहिर है तुलना पूरी तरह समुचित नहीं है मगर इससे इस बात से अवगत होना सहज हो जाता है कि भारत में ऐसा कुछ अनोखा नहीं हो रहा है।
दो टूक यह भी है कि न्यायपालिका मुकदमों के बोझ के तले दबी हैं और निचली अदालतों में चार करोड़ से ज्यादा मामले लम्बित हैं जबकि सभी अदालतों का यही आंकड़ा 4.70 करोड़ है। प्रधानमंत्री और कई मुख्यमंत्रियों की उपस्थिति में साल 2022 में एक सम्मेलन में बोलते हुए तात्कालीन मुख्य न्यायाधीष ने कहा था कि अदालतें जजों की कमी से जूझ रही हैं और दस लाख लोगों पर 20 न्यायाधीष हैं जो बढ़ती मुकदमेंबाजी को संभालने के लिए नाकाफी हैं और चैबीस हजार पद खाली हैं जाहिर है यह बहुत बड़ी संख्या है। निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि पदों की भरपायी के चलते न केवल न्यायिक प्रक्रिया में षीघ्रता आयेगी बल्कि न्यायपालिका में महिलाओं की उपस्थिति भी तुलनात्मक बढ़त लेगी। कानून के षासन की अभिव्यक्ति इस मुहावरे से होती है कि कोई भी व्यक्ति कानून से बड़ा नहीं मगर जब इसी कानून से समय से न्याय मिलने की अपेक्षा हो और उसमें मामला लम्बित हो जाये तो इसकी कीमत वे विचाराधीन कैदी चुकाते हैं जो न्याय की बाट जोह रहे हैं और यह तब अधिक समस्या बन जाता है जब न्यायपालिका में पद रिक्त हों और मुकदमों का अम्बार लगा हो। इसे लेकर न केवल देष की षीर्श अदालत बल्कि कानून मंत्री भी चिंता जाहिर कर चुके हैं। षीर्श अदालत के एक अन्य न्यायाधीष ने कार्यक्रम के दौरान कहा था कि भारत में प्रत्येक दस लाख की आबादी पर पचास न्यायाधीषों की आवष्यकता है। फिलहाल न्यायिक क्षेत्र में बढ़ती लोगों की आवष्यकता और मुकदमों तथा विचाराधीन लाखों कैदी जो न्याय की ओर मुह ताक रहे हैं उन सभी के लिए एक ही सुगम रास्ता है कि न्यायपालिका हर लिहाज़ से दुरूस्त हो। पद खाली न रहे, प्रक्रिया सरल हो, न्याय और सुलभ हो साथ ही कम खर्चीला हो। इसके अलावा महिलाओं की उपस्थिति को और बेहतर बनाकर उनकी प्रतिभा का उपयोग कर मुकदमे की बाढ़ को थामने का प्रयास किया जा सकता है। देष के विकास में सभी का योगदान है और सकल घरेलू उत्पाद यदि घाटे में रहेगा तो किसी भी संस्था के लिए सही नहीं है। सुषासन की दृश्टि व लोकतांत्रिक मूल्यों के अन्तर्गत और अन्ततः महिला सषक्तिकरण के पैमाने पर देखा जाये तो न्यायपालिका में महिलाओं की संतुलित पहुंच हर लिहाज से बेहतर ही कहा जायेगा।

दिनांक : 20/04/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

सुशासन के लिए आवश्यक है नीतिगत समीक्षा

शीर्ष अदालत का हालिया कथन कि सरकार की नीतियों की आलोचना करने को सत्ता का विरोध नहीं कहा जा सकता। उक्त कथन के आलोक में यह समझना आसान है कि नीतियों से सरकारें लोकहित को सुनिष्चित करती हैं और ऐसा न होने की स्थिति में नीति समीक्षा स्वाभाविक है जिसमें आलोच्य पक्ष भी सम्भव है तो इसका तात्पर्य यह कत्त्तई नहीं कि सरकार या सत्ता का यहां विरोध है। षोध और पड़ताल करके देखा जाये तो यह बहुतायत में मिलेगा कि मत देकर सत्ता की चैखट तक पहुंचाने वाला मतदाता अपनी ही सरकार की नीतियों का उधेड़बुन करता है और निहित मापदण्डों में यदि वह हित के विरूद्ध है तो आलोचना करता है। साफ है कि यह एक नीतिगत आलोचना है न कि सरकार पर कोई निजी दोशारोपण। एक नजरिया यह भी है कि लोकनीतियां आम आदमी के लिए बनायी जाती हैं, उसका क्रियान्वयन किया जाता है तत्पष्चात् उसका मूल्यांकन भी होता है कि आखिर इसमें निहित उद्देष्य मिला या नहीं। यदि उद्देष्य नहीं मिला तो अगली नीति में क्या सुधार करना है इसे समझने का प्रयास होता है और ऐसी स्थिति में यदि मीडिया या आमजन इन खामियों को उजागर करता है या उस पर कोई टिप्पणी करता है तो इसे सीमित विवेकषीलता के दायरे में नीति तक ही समझा जाये न कि सरकार की आलोचना या राश्ट्र विरोधी की संज्ञा में डाल देना। इतना ही नहीं भारत का सर्वोच्च कानून संविधान के भाग-3 के अनुच्छेद 19(1)(क) में वाक् एवं अभिव्यक्ति की जो स्वतंत्रता मिली है उसका भी रास्ता बिना किसी रूकावट बरकरार रहता है। भारत अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। स्वतंत्रता के 75 साल बाद भी कठिनाईयों को खत्म करने का प्रयास समाप्त नहीं हुआ है। भुखमरी, गरीबी, बेरोज़गारी और महंगाई समेत कई बुनियादी और समावेषी समस्या से आज भी जनता कम-ज्यादा उलझी हुई है। ऐसे में सरकार की नीतियां भलाई की दृश्टि से कहीं अधिक प्रभावषाली होनी चाहिए। बावजूद इसके यदि कोई कमी रह जाती है तो उस पर टीका-टिप्पणी करना मतदाता का अधिकार है जो सुषासन की दृश्टि से कहीं अधिक समुचित भी है।
स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी जून 2014 में कहा था कि अगर हम बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी नहीं देंगे तो हमारा लोकतंत्र नहीं चलेगा और लोकतंत्र केवल नीतियों के समर्थन का केवल पर्याय नहीं है यह उसके विरोध या आलोचना का मार्ग भी अपना सकता है। गौरतलब है कि वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता न केवल मूल अधिकार है बल्कि संविधान का मूल ढांचा भी है और इससे जनता को न वंचित किया जा सकता है और न ही रोका जा सकता है। मगर इस बात से गुरेज़ नहीं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बेजा होने से न केवल परिणाम खराब होंगे बल्कि लोग भी अनुत्पादक कहे जायेंगे। कहा जाये तो षालीनता और संविधान की भावना के अन्तर्गत की गयी अभिव्यक्ति मर्यादित और सर्वमान्य है। गौरतलब है कि 3 मार्च 2021 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर यह स्पश्ट किया था कि सरकार से अलग विचार रखना देषद्रोह नहीं है। बीते कुछ वर्शों से यह देखने को मिल रहा है कि कई प्रारूपों में वाक् एवं अभिव्यक्ति को लेकर देष का वातावरण गरम हो जाता है। जिसके चलते देषद्रोह के मुकदमों में भी बाढ़ आयी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी अधिकारों की जननी है इसी के चलते सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मुद्दे जनमत को तैयार करते हैं। सभी सरकारें यह जानती हैं कि कई काम और बड़े काम करते समय नागरिकों के विचारों से संघर्श रहेगा और आलोचना भी होगी और ये आलोचनाएं सुधार की राह भी बतायेंगी और इन्हीं नीतिगत आलोचनाओं के बीच सुषासन की राह भी चिकनी होती है। लोकतंत्र और अभिव्यक्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक पर आंच आती है तो दूसरे पर इसकी तपिष का असर पड़ता ही है। पड़ताल बताती है कि आंदोलनकारियों, छात्रों, बुद्धिजीवियों, किसानों, मजदूरों, लेखकों, पत्रकारों, कवियों, राजनीतिज्ञों और कई एक्टिविस्टों पर राजद्रोह के आरोप वाले गाज गिरते रहे हैं और इसे लेकर षायद ही कोई सरकार दूध से धुली हो।
देष में परम्रागत मीडिया के अलावा सोषल मीडिया और न्यू मीडिया समेत कई संचार उपक्रम देखे जा सकते हैं। इससे अभिव्यक्ति न केवल मुखर हुई है बल्कि वैष्विक स्वरूप लिए हुए है। सोषल मीडिया मानो आवेष से भरा एक ऐसा प्लेटफाॅर्म है जहां सच्चाई के साथ झूठ की अभिव्यक्ति स्थान घेरे हुए है। हालांकि इसकी कटाई-छटाई के मामले में भी सतर्कता बरतने का प्रयास किया जा रहा है। फरवरी 2021 में सरकार ने इस पर कुछ कठोर कदम उठाने का संकेत दिया था। देष में अभिव्यक्ति बहुत मुखर और आक्रामक होने की बड़ी वजह भौतिक स्पर्धा के अलावा लोकतंत्र के प्रति सचेतता भी है। लेकिन यह कहीं अधिक आक्रामक रूप लेती जा रही है। ऐसे में सरकारों को भी यह सोचने-समझने की आवष्यकता है कि देष को कैसे आगे बढ़ाये और जनता को लोकतंत्र की सीमा में रहते हुए कैसे मर्यादित बनाये। किसी भी सभ्य देष के नागरिक समाज को ही नहीं बल्कि सरकारों को भी विपरीत विचार, आलोचना या समालोचना को लेकर संवेदनषील होना चाहिए। हालांकि आक्रामकता भी लोकतंत्र की षालीनता ही है बषर्ते इसकी अभिव्यक्ति देषहित में हो। सरकारें भी गलतियां करती हैं इसके पीछे भले ही परिस्थितियां जवाबदेह हो पर इतिहास गलतियों को याद रखता है परिस्थितियों को नहीं। राहुल गांधी बहुत पहले से ही यह कह चुके हैं कि आपातकाल एक गलती थी इस बात को पुख्ता करता है। सरकार के फैसले भी कई प्रयोगों से गुजरते हैं ऐसे में जनहित को सुनिष्चित कर पाना बड़ी चुनौती रहती है। लोकनीतियों को लोगों तक पहुंचा कर उनके अंदर षान्ति और खुषियां बांटना सरकार की जिम्मेदारी और जवाबदेही है। यदि ऐसा नहीं होता है तो आलोचना स्वाभाविक है।
सरकारें बरसों-बरस काम करती हैं और सैकड़ों और हजारों फैसलों से गुजरती हैं उन्हीं में से कुछ नीतिगत फैसले जाने-अनजाने में जनहित को सुनिष्चित करने में कमतर रह जाती हैं। ऐसे में आलोचनात्मक किरकिरी होना स्वाभाविक है। मगर इसका यह तात्पर्य नहीं कि यह सरकार का विरोध है। समझने वाली बात यह भी है कि अच्छे कार्य के लिए जनता सरकार की पीठ थपथपाती है और प्रचण्ड बहुमत देकर सत्ता के षीर्श तक पहुंचाती है तो खराब काम के लिए आलोचना उसका अधिकार है। इस उदाहरण से बात को और आसानी से समझा जा सकता है कि भारत में क्रिकेट एक धर्म के रूप में जाना और समझा जाता है। जब यही खिलाड़ी पाकिस्तान या किसी अन्य देष से हार जाते हैं तो देष के आम जन इनकी चैक चैराहों पर न केवल आलोचना करते हैं बल्कि इनके खिलाफ बिगुल भी फूंक देते हैं लेकिन यही जनता जीत की परिस्थिति में इन्हीं खिलाड़ियों को सर-आंखों पर बिठाती है। इस उदाहरण से मात्र इतना कहना था कि सरकार माई-बाप होती है उससे बेइंतहा उम्मीद होती है, उसकी नीतियों के समर्थन में न होना पूरी सरकार के विरोध में होने जैसा कुछ भी नहीं है। ऐसे में सरकार को भी यह समझना चाहिए कि यह मतदाता का दृश्टिकोण है जो नीतिगत है जिसे सत्ता का विरोध नहीं समझने की उदारता दिखानी चाहिए। देखा जाये तो षीर्श अदालत ने इस मामले में एक बार अपनी दृश्टि डाल कर फिर से लोकतंत्र में प्रेस की स्वतंत्रता की आवष्यकता और जनता की भूमिका बड़ा बना दिया है।

दिनांक : 6/04/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
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डिजिटल अवसंरचना और आम आदमी

जब देष में ई-गवर्नेंस की बात होती है तो नये डिजाइन और सिंगल विंडो संस्कृति प्रखर होती है। नागरिक केन्द्रित व्यवस्था के लिए सुषासन प्राप्त करना एक लम्बे समय की दरकार रही। ऐसे में डिजिटल अवसंरचना इस दिषा में एक महत्वपूर्ण स्थान ले चुकी है जिस पर चल कर ई-गवर्नेंस का रास्ता चैड़ा करना पूरी तरह सम्भव है। ई-गवर्नेंस एक ऐसा क्षेत्र है और एक ऐसा साधन भी जिसके चलते नौकरषाही तंत्र का समुचित प्रयोग करके व्याप्त व्यवस्था की कठिनाईयों को समाप्त किया जा सकता है। इसके अलावा आॅनलाइन सेवा देकर सीधे और बिना रूकावट के कार्य संस्कृति को बनाये रखना आसान है। दो टूक कहें तो अब देष की विकास यात्रा डिजिटलीकरण पर कमोबेष निर्भर है। ऐसे में डिजिटल अवसंरचना मजबूत बनाना न केवल समय की मांग है बल्कि आम आदमी तक पहुंचने का यह एक जरिया है। बषर्ते आम आदमी समावेषी और बुनियादी विकास की चुनौती से मुक्त होकर सुजीवन की राह पर है। विदित हो कि एक मजबूत डिजिटली आधारभूत ढांचे से उत्पादकता को बढ़ाकर जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि करने वाली सेवाओं को समुचित किया जा सकता है। ई-सुविधा, ई-अस्पताल, ई-याचिका और ई-अदालत जैसे कई ऐसे ‘ई’ अब फलक पर हैं जिससे सुषासन को ऊंचाई देना सम्भव है। गौरतलब है इलेक्ट्राॅनिक्स सेवा (ई-सेवा) 1999 में आरंभ किए गए ट्विंस प्रोजेक्ट का ही परिवर्द्धित संस्करण है जिसकी उपयोगिता भुगतान की बुनियादी सेवाओं के लिए हैदराबाद-सिंकदराबाद युगल षहरों में षुरू किया गया था जो अब पूरे देष में फैल गया है। गौरतलब है कि डिजिटल अवसंरचना तकनीक, नेटवर्क, तंत्र एवं प्रक्रियाओं का एक ऐसा संग्रह जो मानव घटकों के साथ सम्मिलित होकर सूचना प्रणाली को सुदृढ़ बनाने में मदद करता है। जाहिर है इसका विकास इंटरनेट जैसी व्यापक और सघन संरचना से ही सम्भव है। भारत की 140 करोड़ की आबादी में लगभग 80 करोड़ की इंटरनेट तक पहुंच है। हालांकि अनुमान यह है कि  2025 तक यह आंकड़ा 90 करोड़ हो जायेगा। गौरतलब है कि भारत में डिजिटल कनेक्टिविटी को बढ़ावा देने की दिषा में व्यापक प्रयास किये गये हैं। मगर अभी सभी तक इसकी पहुंच सम्भव नहीं हुई है ऐसे में ई-गवर्नेंस में निहित सुषासन सामाजिक-आर्थिक विकास की दृश्टि से और सुधार की बाट जोह रहा है।
डिजिटल भुगतान जैसी पहल ने वित्तीय सेवाओं को अधिक समावेषी और किफायती बना दिया है। वस्तु एवं सेवा कर इसी डिजिटल अवसरंचना के माध्यम से संग्रह के मामले में नित निये कीर्तिमान को गढ़ रहा है। ई-काॅमर्स के क्षेत्र में हो रही वृद्धि इसी संरचना का एक और उदाहरण है। डिजिटल प्रौद्योगिकी के उपयोग से ई-काॅमर्स राजस्व वर्श 2017 के उन्तालिस बिलियन अमेरिकी डाॅलर से बढ़कर वर्श 2020 में एक सौ बीस बिलियन डाॅलर हो गया था। राश्ट्रीय कृशि बाजार व ग्रामीण कृशि बाजार के आधारभूत कमियां भी अब कमोबेष इसी के चलते काफी हद तक दूर हुई हैं। देष भर में लगभग बाईस हजार ऐसे ग्रामीण कृशि बाजार संचालित हैं जो किसानों को स्थानीय स्तर पर अपनी उपज बेचने में मदद करते हैं। हालांकि इस अवसंरचना का लाभ सभी किसानों तक है कहना कठिन है। यह सभी तक तभी पहुंचेगा जब उनकी आर्थिक स्थिति बेहतरी को प्राप्त करेगी। राश्ट्रीय स्वास्थ्य पोर्टल, नेषनल टेलीमेडिसिन नेटवर्क और ई-अस्पताल समेत आॅनलाइन पंजीकरण प्रणाली ने स्वास्थ सेवा की दिषा में कार्य को सरल बनाया है। गौरतलब है कि सार्वजनिक अस्पतालों में आॅनलाइन पंजीकरण, षुल्क का भुगतान, रक्त की उपलब्धता की जानकारी आदि जैसी सेवाओं को वर्श 2015 में षुरूआत की गयी थी। डिजिटल अवसरंचना का षिक्षा के क्षेत्र में भी योगदान बहुत तेजी से बढ़ा है। स्वयंप्रभा बत्तीस राश्ट्रीय चैनलों के माध्यम से षैक्षणिक ई-सामग्री के प्रसारण करने वाला एक कार्यक्रम है और ई-पाठषाला भी इसी से जुड़ा एक षिक्षा से सम्बंधित कृत्य है। नेषनल डिजिटल लाइब्रेरी जिसमें साढ़े छः मिलियन से अधिक पुस्तकें उपलब्ध हैं। जो अंग्रेजी समेत तमाम भारतीय भाशाओं में अनेक पुस्तकों तक निःषुल्क पहुंच प्रदान करनी हैं। कोविड-19 के चलते ई-षिक्षा कारोबार को भी बाकायदा बढ़ावा मिला। आॅडिट एण्ड मार्किटिंग की षीर्श एजेंसी केपीएमजी और गूगल ने भारत में आॅनलाइन षिक्षा 2021 के षीर्शक से एक रिपोर्ट जारी किया था जिसमें 2016 से 2021 की अवधि के बीच ई-षिक्षा का कारोबार 8 गुना करने की बात कही गयी थी। विदित हो कि साल 2016 में ई-षिक्षा कारोबार महज 25 करोड़ डाॅलर का था और 2021 में इसे दो अरब डाॅलर की सम्भावना बतायी गयी थी जाहिर है डिजिटल अवसंरचना के बगैर यह आंकड़ा सम्भव नहीं है। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण को समझें तो अभी भी इस दिषा में उत्तरोत्तर वृद्धि जारी है। अब तो डिजिटल विष्वविद्यालय भी तेजी से मुखर हो रहे हैं। हालांकि यहां फिर वही बात दोहराने जैसा होगा कि जब तक देष में बुनियादी समस्याएं व्याप्त रहेंगी डिजिटल अवसंरचना के बावजूद आम आदमी में बड़ा सुधार सम्भव नहीं होगा। भारत में विकास का सामाजिक-आर्थिक पक्ष एक बड़ा पहलू है। हालिया आंकड़े बताते हैं कि भारत हंगर इंडेक्स में 107वें स्थान पर तो है ही साथ ही 19 करोड़ भुखमरी के कगार पर और 27 करोड़ गरीबी रेखा के नीचे है और 2011 की जनगणना के अनुसार हर चैथा व्यक्ति अषिक्षित है। बेरोजगारी दर में निरंतर हो रही बढ़ोत्तरी और महंगाई का लगातार बढ़त में बने रहना इस बात का सूचक है कि आम आदमी पर डिजिटल अवसंरचना और ई-गवर्नेंस समेत सुषासन का व्यापक लाभ सम्भव नहीं हो पा रहा है। फिलहाल ई-क्रांति फ्रेमवर्क और ई-मेल नीति भी इसी अवसंरचना का हिस्सा है।
वैसे देखा जाये तो भारत में डिजिटल अवसंरचना भले ही नये षब्द के रूप में हाल फिलहाल का हो मगर इसकी षुरूआत 1970 में तब मानी जा सकती है जब भारत सरकार द्वारा इलेक्ट्राॅनिक विभाग की स्थापना की गयी और 1977 में राश्ट्रीय सूचना केन्द्र के गठन के साथ ई-गवर्नेंस की दिषा में कदम रख दिया गया था जिसका मुखर पक्ष 24 जुलाई, 1991 के उदारीकरण के बाद दिखाई देता है। साल 2006 में राश्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना का अनावरण किया गया। इस नीति के अंतर्गत सेवाओं को वेब-सक्षम प्रदायन को महत्व प्रदान किया गया। इतना ही नहीं डिजिटलीकरण की प्रक्रिया को तेज करने के लिए सार्वजनिक निजी भागीदारी पर जोर दिया गया। सबके बावजूद डिजिटल अवसंरचना स्वयं में पूरा समाधान नहीं कहा जा सकता और ई-गवर्नेंस सुषासन का पूरक है मगर सम्पूर्ण यह भी नहीं है। डिजिटल अवसंरचना के मार्ग में अनेक चुनौतियां अभी भी व्याप्त हैं। विशम एवं दुर्गम क्षेत्रों में जनसंख्या के कम घनत्व और प्राकृतिक बाधाओं के चलते इंटरनेट का न पहुंच पाना डिजिटल सुविधा में रूकावट है। ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी इंटरनेट तक सीमित पहुंच या कनेक्टिविटी में अड़चन इसमें बड़ी बाधा है। भारत में ढ़ाई लाख पंचायते, साढ़े छः लाख गांव और लगभग सात सौ जिले हैं जहां कोई न कोई स्थानीय समस्या क्षेत्र विषेश के लिए बाधक है। कुषल कामगारों, इंजीनियरों और प्रबंधकीय आभाव में डिजिटल कनेक्टिविटी को मजबूत ढांचा दे पाना पूरी तरह सम्भव नहीं है। साइबर सुरक्षा सम्बंधी चिंताएं भी तुलनात्मक बढ़त लिए हुए हैं। डिजिटल अवसंरचना के क्षेत्र में मानकीकरण का भी कमोबेष आभाव है जिस पैमाने पर नवाचार आकर्शित करता है वह असीमित नहीं है। इसमें तकनीकी बदलाव की दरकार आये दिन बनी रहती है। गौरतलब है कि 10 फरवरी 2023 को भारत के साथ दक्षिण एषियाई देषों के समूह आसियान की डिजिटल मंत्रियों की तीसरी बैठक का आयोजन वर्चुअल माध्यम से सम्पन्न हुआ था। जिसमें साइबर सुरक्षा में कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उपयोग तथा अगली पीढ़ी की स्मार्ट सिटी और सोसायटी 5.0 में इंटरनेट आॅफ थिंग्स के प्रयोग को बढ़ावा देने की बात निहित थी।
सुषासन, ई-षासन और डिजिटलीकरण का ताना-बाना एक समुची व्यवस्था का परिचायक है। भारत को हाईस्पीड ब्राॅण्डबैण्ड के निर्माण पर ताकत लगाने के साथ-साथ डिजिटल अवसंरचना को सषक्त करने की आवष्यकता है। रोचक यह भी है कि साल 2018 में भारत में साॅफ्टवेयर निर्माण करने वाले लोगों की संख्या अमेरिका से अधिक थी। तकनीक, संसाधन और धन के अभाव में भारत का युवा सक्षम उद्यमषीलता को हासिल कर पाने में कठिनाई महसूस कर रहा है। यदि इन्हें आधारभूत संरचना उपलब्ध कराया जाये तो डिजिटल अवसंरचना को बड़ी ताकत में बदला जा सकता है और आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा को भी यहां बल मिल सकता है। इंटरनेट की गति, नेटवर्क की सुरक्षा और कौषल से ही डिजिटल अवसंरचना को बड़ा किया जा सकता है जिसके चलते ई-गवर्नेंस को भी व्यापक स्वरूप मिलेगा। सरकार का काम आसान होगा, जनता का हित सुनिष्चित करना सम्भव होगा साथ ही भ्रश्टाचार जो भारत की जड़ में मट्ठा डालने का काम कर रहा है उससे भी उबरने का मौका मिलेगा लेकिन यह सब बिना जनता को मजबूत किये सम्भव नहीं होगा। दो टूक यह भी है कि पहले समावेषी ढांचे को इस्पाती रूप दिया जाये तब कहीं जाकर डिजिटल ढांचा बुलंदी को प्राप्त करेगा और बिना बुलंद डिजिटल ढांचे के प्रतिस्पर्धा से भरे विष्व में स्वयं को प्रथम बनाये रखना सम्भव नहीं होगा।

दिनांक : 6/04/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

Monday, April 3, 2023

बोलने की आजादी, लोकतंत्र और मानहानि

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जून 2014 में कहा था कि अगर हम बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी नहीं देंगे तो हमारा लोकतंत्र नहीं चलेगा। तब मौजूदा सरकार की पहली पारी का बामुष्किल एक महीना ही बीता था। वर्तमान में मोदी सरकार के नौ साल पूरे होने जा रहे हैं जाहिर है कई उतार-चढ़ाव और खींचा-तानी के बीच यह वक्त बीता है। वोट की सियासत और सत्ता की जुगत में क्या-क्या हथकण्डे अपनाये जाते हैं यह भी समय के आईने में तफ्तीष की जा सकती है। पक्ष और विपक्ष दोनों जनता में पैठ बनाने के लिए क्या नहीं बोला और क्या सुनने को नहीं मिला इसकी भी लम्बी फहरिस्त देखी जा सकती है। जिसमें इसी प्रकार का एक प्रकरण राहुल गांधी से सम्बंधित है जिन्हें मानहानि का दोशी पाते हुए दो साल की सजा दे दी गयी है। दरअसल वाकया साल 2019 का है जब लोकसभा का चुनाव था और कर्नाटक की चुनावी रैली में कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने मोदी षब्द को लेकर टिप्पणी की जिसे लेकर मानहानि का मामला दर्ज करवाया गया और अंततः 23 मार्च 2023 को इसी प्रकरण के चलते राहुल गांधी को दो साल की सजा सुनाई गयी। आगामी 10 मई को कर्नाटक विधानसभा का चुनाव सम्पन्न होगा और राहुल गांधी कर्नाटक के उसी स्थान पर पहली चुनावी रैली करेंगे जहां से उन्हें गलत टिप्पणी के लिए सजा दी गयी है। हालांकि उन्हें ऊँची अदालत में जाने का एक महीने का मौका दिया गया जो नियम संगत भी है और तत्काल जमानत भी मिल गयी। फिलहाल उन्होंने उच्च न्यायालय में इस सजा के विरूद्ध अभी तक कोई अपील नहीं की है मगर उन्हें लोकसभा की सदस्यता और घर दोनों को छोड़ना पड़ा है। सदस्यता रद्द करने और तत्पष्चात घर छोड़ने वाले नोटिस में जो गति दिखी वह भी त्वरित ही कही जायेगी। गौरतलब है कि संविधान के अनुच्छेद 19(1)(क) में सभी को बोलने की आजादी है। हालांकि अनुच्छेद 19(2) में युक्तियुक्त निर्बन्धन की बात भी देखी जा सकती है। बावजूद इसके इस बात से गुरेज नहीं किया जा सकता कि कईयों ने इसका बेजा इस्तेमाल किया है मगर वो मानहानि की चपेट में नहीं आये और कई मामलों में माफी मांगने से भी काम चला लिया गया। राहुल गांधी इस अधिकार का कितना बेजा इस्तेमाल किया यह उन दिनों के चुनावी समर में षायद कोई इतना संवेदनषीलता से नहीं समझा होगा। ऐसा नहीं है कि चुनावी जंग में बदजुबानी नहीं होती है अच्छे खासे षीर्श नेता भी बदजुबानी के निचले पायदान तक भी चले जाते हैं मगर ज्यादातर मामलों में बात आयी-गयी हो जाती है। राहुल गांधी को मानहानि के मामले में सूरत की अदालत में आईपीसी की धारा 499 और 500 के तहत दोशी ठहराया था। अभी भी उन पर आधा दर्जन मामले मानहानि से जुड़े चल भी रहे हैं और ज्यादातर की सुनवाई गुजरात की अदालतों में हो रही है।
संविधान और कानून की बातें बड़ी बारीक होती हैं और इसके आषय को बारीकी से समझना सामान्य बात तो नहीं है। सत्ता की होड़ में किस स्तर तक की बोली हो जाती है इसकी बानगी चुनाव प्रचार में अक्सर देखने को मिलती है। 10 मई को कर्नाटक विधानसभा का चुनाव होना है, हो न हो सियासी पैंतरे में बिगड़े बोल का ढ़ेर यहां भी कम-ज्यादा मिलेगा ही। यह बात समझ से परे है कि राजनीति में इतनी गिरावट कहां से आयी और बोली इतनी खराब क्यों हो गयी। सवाल केवल राहुल गांधी का नहीं है हर दल का नेता खराब बोली से भरा है और मानहानि की फहरिस्त भी अच्छी-खासी देखी जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्णय पर नजर डाली जाये जहां उसकी एक बड़ी चिंता की झलक दिखती है तो यह समझना आसान हो जायेगा कि सांसदों और विधायकों के लिए तमाम लगाम के बावजूद अपराधिक प्रवृत्तियां रूक नहीं रही। गौरतलब है कि राजनीति के अपराधीकरण पर तमाम लगाम कसने की दिषा में सर्वोच्च न्यायालय ने 10 जुलाई 2013 को लिली थाॅमस की याचिका पर एक ऐतिहासिक निर्णय सुनाया था जिसके अन्तर्गत जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 8(4) को असंवैधानिक करार देते हुए यह व्यवस्था दी कि यदि सांसदों या विधायकों को निचली अदालत द्वारा किसी अपराध के लिए दोशसिद्धि करार देते हुए इस अधिनियम की धारा 8(1), (2), (3) में निर्बन्धित मामलों के संदर्भ में निर्धारित स्तर या अधिक की सजा सुनाई जाती है तो वे अयोग्य ठहराये जायेंगे और दो साल या इससे अधिक सजा प्राप्त सांसदों या विधायकों को अपने सदन की सदस्यता समाप्त हो जायेगी। जाहिर है इसी कानून के चलते राहुल गांधी लोकसभा से बाहर हो गये। मानहानि के मामले में यह बड़ी सजा है और इतने बड़े नेता के लिए तो काफी बड़ी कही जायेगी। फिलहाल इस बात के लिए सियासत आगे भी जारी रहेगी कि मानहानि के मामले में राहुल गांधी एक नजीर है और ऐसे स्थिति में सियासत के रूख और लोकतंत्र दोनों में दायें-बायें का फर्क तो भविश्य में दिखेगा।
रोचक यह भी है कि इस निर्णय के बाद सितम्बर 2013 में जब मनमोहन सिंह सरकार यह अध्यादेष लाने के प्रयास में थी कि निचली अदालत द्वारा दिए गए दो साल या इससे अधिक की सजा पर सदस्यता रद्द नहीं होगी इस अध्यादेष केा बेतुका बताते हुए राहुल गांधी ने फाड़ दिया था। और 10 साल में वही उनके सामने आकर खड़ा हो गया। हालांकि उस दौर में राहुल गांधी की तारीफ इस बात के लिए बनती थी कि उन्होंने सदस्यता खोने वाले लालू प्रसाद समेत राषिद अली आदि को महत्व न देकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय और लोकतंत्र के लिए जो बेहतर था वो काम किया। बीते कुछ वर्शों से यह देखने को मिल रहा है कि कई प्रारूपों में वाक् एवं अभिव्यक्ति को लेकर देष का वातावरण गरम हो जाता है जिसके चलते देषद्रोह के मुकदमों में भी बाढ़ आयी। कहा जाये तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी अधिकारों की जननी है इसी के चलते सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मुद्दे जनमत को तैयार करते हैं। सभी सरकारें यह जानती हैं कि कई काम और बड़े काम करते समय विचार बदलेंगे, संघर्श में रहेंगे और आलोचनाओं के भी दायरे में आयेंगे। मगर सत्ता की हनक कहें या चुनावी समर में लिहाज भूलना कहें जुबान फिसल ही जाती है। यहीं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानहानि का एक कारण बन जाती है। ऐसा भी देखा गया है कि कईयों ने इसे समय और परिस्थिति के अंतर्गत नजरअंदाज कर दिया और कुछ ने इसे अपने मान-सम्मान का ठेस मान लिया बस यहीं पर अभिव्यक्ति क्या करनी है क्या नहीं करनी है की समझ का भी विस्तार सम्भव हो जाता है। राहुल गांधी इस सजा वाली घटना से क्या सीखेंगे, क्या नहीं, यह कहना मुष्किल है मगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सरकारों को भी ध्यान देने की आवष्यकता है। सत्ता की हनक में चीजों को बिगड़ने से रोके। उच्चत्तम न्यायालय ने यह बात कई बार कहा है कि सरकार की आलोचना देषद्रोह नहीं है। जाहिर है सरकार की आलोचना की स्थिति में केवल इतना समझना है कि अमुक व्यक्ति का विचार भिन्न है। फिलहाल सियासत और सरकार में मौकापरस्ती का खेल खूब चलता है और ऐसे कानून की आड़ में उपयोग के साथ दुरूपयोग का भी चलन सम्भव है। सरकार हो या विपक्ष अभिव्यक्ति की मर्यादा को दोनों समझें।  

दिनांक : 30/03/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
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बदलाव से बढ़ेगा आकर्षण

गर्मी, बारिष और सर्दी तथा दिन, महीने और साल कब, कैसे गुजर जाते हैं इसे समझना हो तो सिविल सेवा का सपना पाले उन तमाम अभ्यर्थियों की आंखों और चेहरों पर एक नजर डाल कर कुछ हद तक समझा जा सकता है। इस सपने की उधेड़-बुन में न जाने कितने मानसिक तनाव, आर्थिक दबाव, अवसाद और बढ़ती उम्र और घटते अवसर की तमाम सम्भावनायें भी इसी के साथ पथ गमन करती रहती हैं। ऐसे में इस परीक्षा और युवाओं को ध्यान में रखकर सम्भावित विचार समय-समय पर होना स्वाभाविक भी है। षायद यही कारण है कि इन दिनों सिविल सेवा परीक्षा को लेकर एक बार चर्चा फिर फलक पर है। इसकी मुख्य वजह में सिविल सेवा भर्ती की लम्बी प्रक्रिया के चलते समय की बर्बादी समेत कई बिन्दुओं को लेकर है। हालांकि समय की बर्बादी षब्द कहना उतना उचित नहीं है जितना यह कहना कि इस परीक्षा की भर्ती अवधि लम्बी है। विदित हो कि कार्मिक एवं प्रषिक्षण मामलों की स्थायी संसदीय समिति ने स्पश्ट किया है कि सिविल सेवा भर्ती को लेकर 15 महीने चलने वाली लम्बी प्रक्रिया उम्मीदवारों का समय बर्बाद करती है साथ ही षारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ता है। उक्त समेत कई संदर्भों को ध्यान में रखते हुए समिति ने संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) से इसकी भर्ती प्रक्रिया में लगने वाली अवधि को घटाने के लिए कहा है। नवीनतम रिपोर्ट में यह भी स्पश्ट है कि यूपीएससी इस बात का भी पता लगाये कि क्या कारण है कि युवाओं की संख्या इस परीक्षा को लेकर कम हो रही है। गौरतलब है कि यूपीएससी एक संवैधानिक संस्था है जिसका गठन संविधान के अनुच्छेद 315 क तहत किया गया है। रोचक यह है कि यूपीएससी का सपना लाखों युवाओं की आंखों में रोजाना चढ़ता और उतरता है। भारत एक अरब 40 करोड़ का देष है और यहां युवाओं की तादाद बहुतायत में है। चुनौतियों से भरे सिविल सेवा परीक्षा से पार पाना कठिन तो नहीं मगर मेहनतकष अभ्यर्थियों के लिए सम्भव जरूर है। सवाल साफ है कि क्या वाकई में सिविल सेवा परीक्षा की मौजूदा भर्ती प्रणाली में अधिक समय लगता है। हालांकि समिति की राय है कि यह छः महीने से अधिक नहीं होनी चाहिए।
बीते कुछ वर्शों से देखें तो सिविल सेवा परीक्षा का विज्ञापन फरवरी माह में, प्रारिम्भक परीक्षा मई और मुख्य परीक्षा सितम्बर में सम्पन्न होती है मगर साक्षात्कार और मुख्य परीक्षा के बीच अच्छी खासी लम्बी अवधि देखी जा सकती है। अमूमन साक्षात्कार अगले साल मार्च-अप्रैल में सम्पन्न होते हैं तत्पष्चात् परिणाम घोशित होता है। कोरोना कालखण्ड अर्थात् साल 2020 और 2021 इसका अपवाद है क्योंकि इस दौर में परीक्षाएं नियत समय पर सम्भव नहीं हो पायी थी। साफ है कि विज्ञापन से लेकर अन्तिम नतीजे तक कुल जमा समय का खर्च लगभग 15 महीने का होता है। गौरतलब है कि विज्ञापन और प्रारम्भिक परीक्षा के बीच महज साढ़े तीन महीने का अंतर होता है जबकि मुख्य परीक्षा सितम्बर में सम्पन्न होने से महज चार महीने और व्यय होते हैं मगर मुख्य परीक्षा के नतीजे आते-आते अमूमन पांच महीने से अधिक का समय लग जाता है। ऐसे में यह अवधि स्वाभाविक तौर पर अधिक प्रतीत होती है। यदि मुख्य परीक्षा और साक्षात्कार की अवधि को संकुचित किया जाये तो इस परीक्षा को वर्श भर के अंदर अंतिम रूप दिया जा सकता है। यही स्थायी संसदीय समिति की मूल चिंता भी है मगर इसे अद्भुत तरीके से छः माह में सम्पन्न करना सम्भव नहीं लगता और न ही अभ्यर्थियों के लिए यह हितकारी प्रतीत होता है। इसके अतिरिक्त समिति युवाओं की परीक्षा के प्रति घटते रूझान को लेकर भी चिंतित दिखाई देता है। विदित हो कि आज से तीन दषक पहले सिविल सेवा परीक्षा में दो से ढ़ाई लाख अभ्यर्थी आवेदन करते थे जो मौजूदा समय में 12 लाख के आस-पास पहुंच चुका है। हालांकि पदों की संख्या में भी कमोबेष उतार-चढ़ाव रहे हैं मगर आवेदकों की संख्या में इसका षायद ही बड़ा प्रभाव पड़ा हो। बीते कुछ वर्शों के आंकड़े यह तस्तीक करते हैं कि सिविल सेवा परीक्षा को लेकर युवा आवेदन तो जोर-षोर से करते हैं मगर उपस्थिति के मामले में फिसड्डी सिद्ध हो रहे हैं। साल 2020 में आवेदन करने वालों की संख्या 10 लाख 40 हजार से अधिक थी मगर परीक्षा में भाग लेने वालों की संख्या महज 4 लाख 82 हजार रही है। 2021 में 10 लाख 93 हजार आवेदकों में 5 लाख से थोड़े ज्यादा ही अभ्यर्थी परीक्षा में भागीदारी की यह समय कोरोना की भीशण तबाही से भी गुजरा है मगर इस पर आवेदन और परीक्षा में षामिल होने वालों का आंकड़ा अमूमन जस का तस ही है। वर्श 2022 में आवेदकों की संख्या 11 लाख 35 हजार हुई और परीक्षा में भाग लेने वाले 5 लाख 73 हजार ही थे। स्पश्ट है कि आवेदन करने और परीक्षा में भागीदारी करने का आंकड़ा 50 प्रतिषत के आस-पास का है। स्थायी संसदीय समिति की चिंता यहां भी चिंतन से भरी दिखती है कि आखिर इसकी बड़ी वजह क्या है? जाहिर है जो आवेदक फरवरी माह में यूपीएससी के प्रति आकर्शित होता है वही तीन महीने बाद परीक्षा में उस उत्साह के साथ षामिल क्यों नहीं होता है। इस पर यूपीएससी का दृश्टिकोण क्या होगा यह तो बाद में पता चलेगा।
गौरतलब है कि साल 2011 में जब इस परीक्षा के पाठ्यक्रम और प्रणाली में अभूतपूर्व परिवर्तन करते हुए प्रारम्भिक परीक्षा से वैकल्पिक विशय हटा कर सीसैट जोड़ा गया तो इसमें अंग्रेजी को भी प्रारम्भिक परीक्षा के सीसैट प्रष्नपत्र में षामिल किया गया। हालांकि इसके विरोध के चलते दो साल बाद इसे हटा भी दिया गया। यह वही समय था जब हिन्दी माध्यम का चयन दर तेजी से गिरने लगा। पड़ताल से पता चलता है कि साल 2014 में हिन्दी माध्यम का चयन दर महज 2.1 फीसद रह गया, 2015 में 4.28, 2016 में 3.45 और 2017 में 4 फीसद और 2019 तक यह 2 फीसद तक सिमट गया। गौरतलब है कि संसदीय स्थायी समिति ने विषेशज्ञ समिति गठित करने की सिफारिष की है जो यह भी पता लगायेगी कि मौजूदा भर्ती प्रक्रिया में क्या अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई करने वाले षहरी उम्मीदवारों और गैर अंग्रेजी माध्यम के ग्रामीण उम्मीदवारों को समान अवसर मिल रहा है या नहीं। संसद में पेष इस रिपोर्ट में यह भी जांचने की बात है कि प्रारम्भिक और मुख्य परीक्षा की मौजूदा व्यवस्था क्या अभ्यर्थियों को उनके षैक्षणिक पृश्ठभूमि से परे समान अवसर प्रदान कर रही है। देखा जाये तो समिति की यह चिंता लाज़मी है कि आखिरकार हिन्दी और अंग्रेजी का फासला कितना है और कहां हिन्दी फंसी है। वैसे चयन दर से जुड़े उक्त आंकड़े निराष करने वाले हैं मगर बीते कुछ वर्शों में हिन्दी माध्यम का चयन दर तुलनात्मक सुधार लिया है। मसलन साल 2021 के अन्तिम नतीजे में हिन्दी माध्यम के टाॅपर को 17वीं रैंक मिली थी जबकि इसके पहले हिन्दी माध्यम के टाॅपर कभी सौ के बाद तो कभी तीन सौ से पहले मुष्किल से दिखाई देते थे। सिविल सेवा परीक्षा के बदलाव की अगली कड़ी में साल 2013 में मुख्य परीक्षा में दो वैकल्पिक विशय के बजाय एक किया गया साथ ही सामान्य अध्ययन के प्रष्नपत्रों की संख्या 2 से 4 कर दी गयी तब अमूमन इसकी भर्ती अवधि तुलनात्मक पहले से कम कर दी गयी मगर 15 महीने का वक्त अभी भी अधिक तो है। गौरतलब है कि इसके पहले विज्ञापन और अन्तिम परिणाम के बीच लगभग डेढ़ वर्श का समय खर्च होता था।
रिपोर्ट के मुताबिक समिति ने यह भी सिफारिष की है कि कार्मिक एवं प्रषिक्षण विभाग और यूपीएससी को विषेशज्ञ समूह द्वारा सिविल सेवा के परीक्षा कार्यक्रम और पाठ्यक्रम में सुझाये गये बदलाव पर विचार करना चाहिए। इतना ही नहीं रिपोर्ट में यह भी है कि सिविल सेवा परीक्षा पूर्ण होने के बाद ही प्रारम्भिक परीक्षा की उत्तर कुंजी यूपीएससी जारी करता है ऐसे में मुख्य परीक्षा से पहले उत्तर को चुनौती देने का अवसर नहीं मिलता। उच्चत्तम स्तर की सतर्कता के बावजूद गलती की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में अभ्यर्थियों को आपत्ति दर्ज कराने का मौका मिले। स्पश्ट है कि उक्त तमाम बातें हर लिहाज से अभ्यर्थियों के हित की ओर झुके दिखते हैं आम तौर पर प्रतियोगी परीक्षाएं कई षिकायतों से भरी रहती है। कार्मिक और प्रषिक्षण मामलों की स्थायी संसदीय समिति जिन बातों पर जोर दे रही है उसके अनुपालन की स्थिति में सिविल सेवा परीक्षा और उच्च कोटि की बन सकती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि समय के आइने में समझ को सही उतारना और उसका निश्पादन करना बदलाव के साथ जरूरी रहा है। ऐसे में जो बदलाव अभी तक सिविल सेवा में सम्भव नहीं हुए हैं उसका होना अच्छा ही रहेगा। किसी भी षासन प्रणाली में उसके सिविल सेवकों की गुणवत्ता कहीं अधिक महत्वपूर्ण होती है और इस संदर्भ में भर्ती को बेहतर सकारात्मक करना जरूरी है। 1951 की एडी गोरवाला समिति से लेकर वर्तमान तक कई समितियों और आयोगों को लोक सेवकों की भर्ती, प्रषिक्षण आदि में प्रमुखता देखी जा सकती है। जिसमें 1966 के द्वितीय प्रषासनिक सुधार आयोग की सिफारिष भी मील का पत्थर रही है। गौरतलब है कि कोठारी समिति की सिफारिष पर 1979 में भारत में पहली बार सिविल सेवा परीक्षा में त्रिस्तरीय परीक्षा प्रणाली अर्थात् प्रारम्भिक, मुख्य और साक्षात्कार आयी थी और 1993 में इसमें पहली बार निबंध प्रष्न-पत्र जोड़ा गया। सतीष चन्द्रा समिति, पीसी होता समिति व अलघ समिति आदि समेत कई समितियों की सिफारिषें पिछले तीन दषक में देखने को मिली। कमोबेष तमाम समितियों और आयोगों के रास्ते से गुजरती यह परीक्षा 2011 में एक बार बड़े परिवर्तन से गुजरी और मौजूदा समय में फिर एक नये चिंतन के दौर में है। नतीजे क्या होंगे सकारात्मक की सम्भावना लगायी जा सकती है मगर एक हकीकत यह है जैसा कि स्थायी संसदीय समिति भी मान रही है कि षारीरिक और मानसिक स्वास्थ पर बुरा असर पड़ता है। फिलहाल सिविल सेवा का सपना देखने वाले अभ्यर्थी रोज़ नई रणनीति से जूझते हैं, नई तकलीफें रोज उनके सामने होती हैं, अवसर बचाने की चुनौती, सही मार्गदर्षन की जद्दोजहद, कोचिंग, भोजन, किताब, काॅपी, षुद्ध पेयजल और स्वास्थ रोज एक चुनौती रहती है। सबके बावजूद इन अभ्यर्थियों के सपने आंखों से न तो सोते न ही जागते घटते या कम होते हैं। ऐसे में संसदीय समिति जो चिंता कर रही है वह इस चिंतन से परिपूर्ण है कि ऐसे अभ्यर्थियों के लिए उसकी सोच तुलनात्मक हितकारी ही होगा।

 दिनांक : 27/03/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
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