Wednesday, September 27, 2017

परेशानियों के कई आसमान से घिरी हैं एंजेला मर्केल

बीते 24 सितम्बर को जर्मनी में हुए आम चुनाव के नतीजे एक बार फिर तीन बार से चांसलर की कमान संभाल रहीं एंजेला मार्केल के पक्ष में रहे। पहली बार पार्टी के लिए तय किये गये 40 प्रतिषत वोट पाने में असफल जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल इसलिए दुःखी नहीं होंगी क्योंकि जर्मनी की जनता ने उन्हें फिर अव्वल बनाया है। इस चुनाव की एक खास बात यह है कि 7 दषक के इतिहास में पहली बार धुर दक्षिणपंथी अल्टरनेटिव फाॅर जर्मनी अर्थात् एएफडी 12.6 फीसदी वोट के साथ तीसरे नम्बर की पार्टी बनकर उभरी। मार्केल का चैथी बार चांसलर बनना भारत के लिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस समय वह यूरोप की सबसे ताकतवर नेता में षुमार हैं और भारत का जर्मनी समेत यूरोप से अच्छे सम्बंध हैं। जाहिर है कि आगे के चार सालों तक भारत को नये सिरे से जर्मनी के साथ सम्बंधों की व्यूह रचना तैयार नहीं करनी पड़ेगी। मार्केल की इस कामयाबी के साथ इसकी भी गुंजाइष खत्म हो गयी कि यूरोपीय यूनियन में उनका कद पहले जैसा नहीं रहा पर उनके सामने परेषानियों के कई आसमान विस्तार लिए हुए हैं जो मौजूदा समय में किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं हैं। मार्केल लगातार चैथी बार चुनाव तो जीत गईं हैं पर गठबंधन सरकार बनाना उनके लिए बड़ी चुनौती है। इसका मूल कारण इस बार उनसे बहुत सारे मतदाता का छिटक जाना हैं फलस्वरूप नये साझेदार को साथ लेना अब उनकी नई मजबूरी है। गौरतलब है कि मार्केल की पार्टी को 32.9 फीसदी मत मिले हैं जो पिछली बार की अपेक्षा 8.5 फीसदी कम हैं पर बड़े दल के रूप में उनका उभरना जर्मनी में लोकप्रियता बरकरार रहने का  एक बड़ा प्रमाण है। 
जर्मन की राश्ट्रवादी पार्टी एएफडी की जीत इस बात का सबूत है कि जर्मनी बदल रहा है। गौरतलब है कि द्वितीय विष्वयुद्ध के दौरान 1945 में हिटलर की हार के बाद पहली बार जर्मनी की संसद बुंडेस्टाग में किसी राश्ट्रवादी पार्टी की एंट्री होने जा रही है। कहा जाय तो यह जर्मनी के इतिहास में दक्षिणपंथियों की सर्वाधिक लम्बी छलांग है जिसके असर से दुनिया अछूती नहीं रहेगी। इन सबके बीच मार्केल के लिए चुनौती यह है कि धुर दक्षिणपंथी और इस्लाम विरोधी एएफडी के सामने अब उन्हें और अधिक रणनीतिक होना पड़ेगा। लगभग 13 फीसदी वोट के साथ तीसरे पायदान वाली यह पार्टी पहले भी मार्केल के खिलाफ बिगुल फूंक चुकी है। वर्श 2015 में 10 लाख षरणार्थियों को जर्मनी में प्रवेष की इजाजत देने के चलते एएफडी के नेता चांसलर एंजेला मार्केल को देषद्रोही तक करार दे चुके हैं। चुनावी नतीजे के बाद भी इस दल का कहना है कि आव्रजन और षरणार्थी के मुद्दे को लेकर उनका विरोध अभी भी जारी रहेगा। नीतिगत मापदण्डों में देखा जाय तो दल विषेश का विरोध जो पहले सड़क पर था अब वह संसद के अंदर हो सकता है। जाहिर है एक ओर एंजेला मार्केल की राजनीतिक पार्टी, क्रिष्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन को नये साझेदार की तलाष है तो दूसरी तरफ षरणार्थी के मुद्दे पर पहले से विरोध कर रही एएफडी और तल्ख हो सकती है। हालांकि एएफडी मुख्य विरोधी दल में षुमार नहीं है। इस चुनावी परिदृष्य की पड़ताल और बारीकी से की जाय तो यह स्पश्ट होता है कि चांसलर मार्केल की पार्टी ही इस बार के चुनाव में कमजोर नहीं हुई है बल्कि मध्य वाम सोषल डेमोक्रेट्स (एसपीडी) भी पहले की तुलना में कमजोर हुई है। इस पार्टी को 20.8 फीसदी मत मिले हैं। जाहिर है मुख्य विपक्ष की भूमिका में एसपीडी रहेगी। इससे पहले एसपीडी मार्केल की अगुवाई वाली गठबंधन सरकार में षामिल रही है। 
एंजेला मार्केल एक बार फिर इतिहास दोहरा चुकी हैं पर उनकी यह जीत इसलिए आसान नहीं रही क्योंकि षरणार्थी संकट से लेकर बेरोजगारी जैसे कई मुद्दे देष की अर्थव्यवस्था के लिए चुनौती बने हुए हैं जो इनके मिषन को फेल भी कर सकते थे जिसका हद तक प्रभाव पड़ा भी है परन्तु चमत्कारिक व्यक्तित्व के चलते वे मिषन में कामयाब हो गयीं। खास यह भी है कि मार्केल दुनिया की एक ऐसी महिला नेता हैं जो अपने बूते परिवर्तन लाने का माद्दा रखती हैं पर देखने वाली बात यह रहेगी कि जब उनका सामना धुर दक्षिणपंथी तूफान से होगा तब उनका करिष्मा पहले जैसा बरकरार रह पायेगा या नहीं। यहां यह भी समझना ठीक रहेगा कि दक्षिणपंथियों ने चांसलर मार्केल के विरोध को इस चुनाव में अपने लिए भी बहुत कुछ हासिल कर चुके हैं। जाहिर है उन्हें इस बात का आभास हो चुका है कि विरोध जर्मन की जनता को भा रहा है। चांसलर मार्केल गिने-चुने नेताओं में एक हैं उन्हें राजनीतिक गुर विरासत में मिले हैं उनकी मां सोषल डेमोक्रेटिक की सदस्य रहीं हैं और महिलाओं से जुड़े मुद्दे उनके कोर में होते थे। जाहिर है सकारात्मक राजनीति का वातावरण उन्हें षुरू से मिला है। षायद यही कारण है कि महिलाओं की समस्याओं को उन्होंने कभी नजरअंदाज नहीं किया और षायद यही मूल कारण भी है कि वे इनके बीच अच्छी पैठ बनाने में कामयाब रहीं। एंजेला मार्केल वर्श 2000 से क्रिष्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन (सीडीयू) पार्टी से जुड़ी है और 2005 में देष की पहली महिला चांसलर बनी है। तब से यह सिलसिला बादस्तूर अभी जारी है। 12 साल का षासन चलाने का अनुभव आगे के चार साल को ठीक से निभाने के काम तो आयेगा ही पर जो जमीनी और कड़वी सच्चाई है उसे तो वे भी नजरअंदाज नहीं कर सकती। चैथी बार सत्ता में आने के लिए मार्केल को परस्पर विरोधी एफडीपी और ग्रीन्स से गठजोड़ करना होगा। इसे फिलहाल जमैका का नाम दिया जा रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि पार्टियों के रंग जमैका देष के झण्डे से मिलते हैं। जीत से गद्गद चांसलर मार्केल ने कहा है कि हमें नई सरकार बनाने का जनादेष मिला है और हमारे खिलाफ कोई दूसरी सरकार नहीं बन सकती। उन्होंने यह भी स्पश्ट किया है कि मौजूदा दुनिया अस्थिर समय से गुजर रही है। ऐसे में जर्मनी में एक स्थिर सरकार बनाना उनका इरादा है। 
चुनाव से पहले और बाद की चुनौतियों की पड़ताल यह बताती है कि भारत के साथ मजबूत रिष्ते, षरणार्थियों का मुद्दा, परमाणु बिजली घरों का मुद्दे समेत आतंकवाद, सेम सेक्स मैरिज और पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन पर मजबूती से फैसला लेने को जर्मनी के मतदाता ने मार्केल के पक्ष में मतदान करके उन्हें सही ठहरा चुके हैं पर आगे की चुनौतियों में बेरोजगारी समेत कई मुद्दों से जर्मनी भी जकड़ा हुआ है। जर्मनी में अपने समर्थकों के बीच म्यूटी अर्थात् मदर के नाम से जानी जाने वाली एंजेला मार्केल का भारत के साथ गहरा सम्बंध है। इसी वर्श मई माह में प्रधानमंत्री मोदी जर्मनी के दौरे पर थे और कई व्यापारिक और वाणिज्यिक बातों पर बल दिया गया। मार्केल स्वयं भारत के साथ अच्छे सम्बंध की दरकार रखती हैं। अक्टूबर 2015 में वे भी भारत की यात्रा कर चुकी हैं। राजनीतिक फलसफा तो यही कहता है कि यदि गठबंधन सोषल डेमोक्रेटिक के साथ होता तो अच्छा होता पर वो विपक्ष में बैठने की बात पहले ही कह चुकी है जो जर्मनी और यूरोप दोनों के लिए थोड़ा चिंताजनक तो है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि इन दिनों यूरोप में भी कुछ हद तक उथल-पुथल का माहौल बना हुआ है। यदि जर्मनी में चांसलर मार्केल स्थिर सरकार बना पाने में कामयाब नहीं होती हैं तो परिणाम से दुनिया के कई हिस्से प्रभावित होंगे। सभी जानते हैं कि यूरोपीय संघ बनाने के मामले में जर्मनी एक धुरी का काम किया था। ऐसे में उसका सषक्त रहना कहीं अधिक आवष्यक है। जर्मनी की स्थिरता भारत की वैदेषिक नीति को भी मजबूत बनायेगी पर भारत को भी भ्रश्टाचार से लेकर गरीबी के भंवरजाल से बाहर निकलने की ठोस नीति बनानी होगी। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Monday, September 25, 2017

आईने पर दोष मढ़ता स्याह पाकिस्तान

जब भारत समेत दुनिया के तमाम देष संयुक्त राश्ट्र के मंच पर अपनी खूबियां गिना रहे थे तो उसी मंच से पाकिस्तान दुनिया को फर्जिस्तान होने का सबूत भी दे रहा था। कह सकते हैं कि आतंकवाद समेत पाकिस्तान से जुड़े कई मुद्दों पर भारतीय विदेष मंत्री सुशमा स्वराज के जोरदार जवाब से तिलमिला कर पाकिस्तान ने यहां भी ओछी हरकत कर दी। सुशमा स्वराज ने जिस भांति भारत का पक्ष रखा उसका विरोधी भी समर्थन कर रहे हैं। जिस तेवर के साथ भारतीय विदेष मंत्री ने संयुक्त राश्ट्र में भारत की उपलब्धियों को पाकिस्तान की तुलना में परोसा उसे देखते हुए पाकिस्तान को कुछ तो करना ही था पर राइट टू रिप्लाई के अंतर्गत जवाब देते हुए पाकिस्तान की स्थायी प्रतिनिधि मलीहा लोधी ने कष्मीर के मसले पर भारत की खामियां बताने की फिराक में दुनिया को गुमराह कर दिया। इतना ही नहीं उस पाकिस्तान को जो दुनिया को अपने फरेब से भ्रमित करता रहा है संयुक्त राश्ट्र के मंच पर भी फरेबी सिद्ध हुआ। दरअसल मलीहा लोधी ने भारत पर कष्मीर में मानवाधिकारों के हनन का आरोप लगाते हुए एक लड़की की तस्वीर दिखाई जिसके पूरे चेहरे पर जख्म के निषान देखे जा सकते हैं। इस दावे के साथ कि यही भारतीय लोकतंत्र का चेहरा है परन्तु उनकी यह करतूत पाकिस्तान के दामन को ही अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर दागदार बना दिया। इन दिनों यह तस्वीर समाचार पत्रों एवं टेलीविजन में सुर्खियां लिए हुए हैं। वास्तविकता यह है कि पाकिस्तान की स्थाई प्रतिनिधि जो तस्वीर दिखा रही थी वह कष्मीर से हजारों किलोमीटर दूर गाजा पट्टी के एक अस्पताल में इलाज कराते समय ली गयी एक फिलिस्तीनी राव्या अबू जोमा की थी जो 2014 में इज़राइल के हमले से घायल हुई थी। इस तस्वीर को कैमरे में कैद करने वाले फोटो पत्रकार हेइदी लेवाइन थे जिन्हें गाजा पट्टी में खींची गई तस्वीरों के लिए इंटरनेषनल वूमन मीडिया फेडरेषन ने पुरस्कृत भी किया था। 
फिलहाल पाकिस्तानी प्रधानमंत्री अब्बासी संयुक्त राश्ट्र में दिये 20 मिनट के भाशण में 17 बार कष्मीर और 14 बार भारत का नाम लेते हुए भारत के प्रति जहर उगलने के सिलसिले को बरकरार रखा। गौरतलब है कि पिछले वर्श जब नवाज़ षरीफ यहां प्रधानमंत्री की हैसियत से आये थे तब भी उन्होंने भारत के खिलाफ जहर उगला और कष्मीर को लेकर न केवल अपने विकृत मानसिकता का परिचय दिया बल्कि भारत के चेहरे को भी विकृत बनाने की कोषिष की थी। दुनिया जानती है कि पाकिस्तान का फरेब प्रति वर्श की दर से लगातार बढ़त बनाये हुए है और भारत के पास इस बात के प्र्याप्त आधार रहे हैं कि पाकिस्तान ने भारत को आतंकियों के माध्यम से आये दिन चोट पहुंचाई है। बावजूद इसके पाकिस्तान पर लगाम लगाना पूरी तरह सम्भव नहीं हुआ है। अमेरिका की ओर से दी जाने वाली आर्थिक सहायता को न रोक पाना भी पाकिस्तान के मनोबल को षिकस्त न मिल पाना रहा है। कई मौकों पर पाकिस्तान को अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने खरी-खोटी सुनाई। आतंक के मामले में तो ट्रंप ने पाकिस्तान को वह सब कहा जो पहले कभी नहीं कहा गया परन्तु पाकिस्तान अपने आप में कोई सुधार नहीं कर रहा है। दो टूक यह भी है कि अमेरिका जैसे धमकी देने वाले देष इसलिए भी कोरे सिद्ध हो रहे हैं क्योंकि जमीन पर वे भी कुछ करते दिखाई नहीं दे रहे हैं। फलस्वरूप आतंक के मामले में अमेरिका की धौंस पाकिस्तान केवल लफ्बाजी मान रहा है और सबूतों के बावजूद सुरक्षा परिशद् में चीन के वीटो के चलते उसका भारत भी कुछ खास बिगाड़ नहीं पा रहा है। स्पश्ट है कि फरेब के मार्ग पर चलने वाला पाकिस्तान अभी भी दुनिया को अपने जाल में कुछ हद तक फंसाये हुए है जिसमें चीन जैसे देष पाकिस्तान का साथ देकर भारत को हाषिये पर धकेलने की कोषिष में लगे हुए हैं। अजहर मसूद और लखवी के मामले में चीन की करतूत से सभी वाकिफ हैं। 
पाकिस्तानी प्रधानमंत्री अब्बासी इस्लामाबाद से कष्मीर को किस चष्मे से देखता है और भारत के लोकतांत्रिक चेहरे को किस आईने में झांकता है बता पाना बड़ा मुष्किल है। संयुक्त राश्ट्र के भीतर जब उन्होंने यह कहा कि भारत ने कष्मीरियों के संघर्श को कुचलने के लिए 7 लाख सैनिकों को यहां तैनात किया है तो उनकी कोरी बकवास एक बार फिर उजागर हो गयी। इतना ही नहीं यह भी आरोप मढ़ दिया कि भारत सुरक्षा परिशद् के प्रस्ताव को लागू करने से इंकार कर रहा है जबकि पाकिस्तान अपने गिरेबान में झांके तो उसको यह पता चल सकता है कि संयुक्त राश्ट्र ने स्वयं कहा है कि कष्मीर भारत का अभिन्न अंग है और संयुक्त राश्ट्र ने उस प्रस्ताव में पहले पाकिस्तान को अपनी सेना हटाने की बात कही है। अब्बासी का यह कहना कि कष्मीर मुद्दे को न्यायसंगत, षान्तिपूर्ण और तेजी से निपटाना चाहिए परन्तु भारत पाकिस्तान से षान्ति वार्ता के लिए तैयार नहीं है। दुनिया जानती है कि मात्र तीन वर्शों के इतिहास में ही प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तर्ज पर पाकिस्तान के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाया और जिस तरह एक सच्चे और अच्छे पड़ोसी होने का कत्र्तव्य निभाया इस उदारता को पाकिस्तान बेजा इस्तेमाल किया। सभी जानते हैं कि मोदी ने 25 दिसम्बर 2015 को लाहौर जाने का जो जोखिम लिया था वो षायद ही कोई षीर्शस्थ सत्ताधारियों ने कभी किया हो। अन्तर्राश्ट्रीय मंचों पर जिस प्रकार भारत ने पाकिस्तान को तवज्जो दिया और आतंक के मुद्दे पर जिस प्रकार पाकिस्तान ने भारत से वायदे किये उसको कभी उसने निभाया ही नहीं। कभी पठानकोट तो कभी उरी में हमले करके साथ ही सीमा पर आये दिन आतंकी गतिविधियों को बढ़ावा देकर भारत की भावनाओं से वह खेलता रहा और अपने फरेबी नीयत के साथ दुनिया को भी इस धोखे में रखने की कोषिष करता रहा कि आतंक का मारा तो वह स्वयं है। पाकिस्तान यह भूल गया कि जहर का पेड़ लगाओगे तो फल भी जहर का ही होगा। जैष-ए-मोहम्मद, जमात-उद-दावा से लेकर हक्कानी नेटवर्क तक की लहलहाती खेती पाकिस्तान की जमीन में अंदर तक है। विदेष मंत्री सुशमा स्वराज ने भारत के आईआईटी और आईआईएम की तुलना इन्हीं आंतकी संगठनों से किया। सुशमा स्वराज ने जिस तर्ज पर तुलना किया उसमें दर्जनों बातें हैं और जिसके एक-एक अक्षर सही है। 
भारत और पाकिस्तान के संयुक्त राश्ट्र के मंच पर दिये गिये भाशण की बारीक पड़ताल की जाय तो दोनों की नीयत का भी खुलासा होता है। सुशमा स्वराज ने भाशण का आरंभ विष्व में पनपे वर्तमान संकटों से किया। समाधान कैसे होगा तथा विष्व कल्याण के सम्बंध में भारत क्या सोचता है? आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन, बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी, समेत पलायन व साइबर खतरे जैसे तमाम संकट की चर्चा की। दुनिया के नेताओं को यह जताने की कोषिष की कि षिमला समझौते से लेकर लाहौर घोशणापत्र तक पाकिस्तान की रजामंदी रही है। बावजूद इसके इसे उसने कभी अमल में नहीं लाया। गौरतलब है कि 9 दिसम्बर 2015 में षीत सत्र के दौरान सुशमा स्वराज इस्लामाबाद गई थीं जबकि इसके ठीक पहले नवम्बर में पेरिस जलवायु सम्मेलन के दौरान करीब एक वर्श से अधिक वक्त के बाद षरीफ और मोदी की दो मिनट की बात हुई थी। जाहिर है आतंक के मामले पर पाकिस्तान की करतूतों के चलते मुख्यतः पठानकोट हमले के बाद दोनों देषों के बीच बातचीत बिल्कुल बंद हो गयी थी। 70 साल बीते चुके हैं रस्सी जल गयी पर पाकिस्तान की ऐंठन नहीं जा रही। द्विपक्षीय मामला हो या दुनिया के सामने पाकिस्तान का मुंह खोलना रहा हो। कष्मीर के बगैर उसके पेट का पानी नहीं पचता है। बार-बार स्याह चेहरे वाला पाकिस्तान आईने को ही दोशी ठहरा रहा है जबकि सच तो यह है कि उसकी सूरत में ही फरेब भरा हुआ है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

महिला आरक्षण का समाजशास्त्र

कई वर्शों से धूल खाती महिला आरक्षण की फाइल एक बार फिर फलक पर आ सकती है। असल में बीते दिन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने महिला आरक्षण विधेयक पारित कराने में मदद को लेकर प्रधानमंत्री मोदी को एक चिट्ठी लिखी है जिसके चलते एक बार फिर यह चर्चा आम है कि संसद में महिलाओं को दिये जाने वाले 33 फीसदी आरक्षण विधेयक अब अधिनियमित हो सकते हैं। गौरतलब है कि वर्श 2010 में राज्यसभा द्वारा पारित यह विधेयक लोकसभा में लटका हुआ है। चर्चा तो इस बात की भी है कि सोनिया गांधी का मोदी के नाम लिखा खत वाकई महिलाओं के प्रति चिंता है या फिर कोई राजनीतिक दांव। गौरतलब है कि मोदी कैबिनेट में विदेष व रक्षा मंत्री के तौर पर महिलाओं की तैनाती है। यह अपने आप में एक तार्किक पक्ष है कि विदेष और रक्षा मंत्रालय जैसे संवेदनषील विभाग महिलाओं के सुपुर्द करके मोदी ने बड़ा और कड़ा संदेष दिया है साथ ही कैबिनेट के अन्य हिस्सों में महिलाओं की हिस्सेदारी देकर इस बात की गुंजाइष भी बनाये रखा कि उनका अभियान बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओं तक ही सीमित नहीं है बल्कि सरकार चलाने में भी बातौर यह षामिल है। यदि कोई चुभने वाली बात है तो वह यह कि बिना आरक्षण के महिलाओं की संख्या सदन में निहायत अल्प रहती है और सुखद यह है कि मौजूदा 16वीं लोकसभा में 61 महिलाएं जो अब तक में सर्वाधिक हैं। इसके पहले 15वीं में 58 महिलाएं जबकि 14वीं लोकसभा में 45 महिलाएं थी। हालांकि 1999 में 13वीं लोकसभा के दौरान इनकी संख्या 49 थी जबकि सबसे कम 1957 में दूसरी लोकसभा में मात्र 22 महिलाएं चुनी गयी थी। स्पश्ट है कि 545 लोकसभा की तुलना में ये संख्या बहुत न्यून है। ऐसे में 33 फीसदी आरक्षण असंतुलन को समाप्त करने में काफी हद तक कारगर होगा।
सुगबुगाहट तो यह भी है कि सरकार षीतकालीन सत्र में महिला आरक्षण बिल लाने की तैयारी में है पर सोनिया गांधी की चिट्ठी सरकार को इस चिंता में डाल सकती है कि कहीं महिला आरक्षण पारित कराने की उनकी प्रतिबद्धता का श्रेय कांग्रेस को न मिल जाय। वैसे समाजवादी और आरजेडी जैसी पार्टियां इस बिल का विरोध करती रहीं हैं। गौरतलब है कि 9 मार्च 2010 को कांग्रेस की संयुक्त अर्थात् यूपीए सरकार ने राज्यसभा में इस विधेयक को पारित किया था परन्तु लोकसभा में इसे मंजूरी अभी तक नहीं मिली है। इसके पीछे राजनीतिक दलों में आम राय का न बन पाना रहा है। इतना ही नहीं 33 फीसदी महिला आरक्षण में भी वर्ग के आधार पर आरक्षण की मांग भी इसकी एक और पेंचीदगी थी। वैसे देखा जाय तो उज्जवला योजना के अन्तर्गत रसोई गैस के वितरण से गरीब महिलाओं के एक बड़े हिस्से को सरकार ने लाभ दिया है। तीन तलाक के मसले पर प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी राय स्पश्ट करके मुस्लिम महिलाओं का भी दिल जीता है। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ से लेकर कई ऐसी योजनाओं को धरातल पर उतारकर उन्होंने आधी दुनिया के प्रति सकारात्मक रूख दिखाया है। ऐसे में संसद में 33 फीसदी का महिलाओं को दिया जाने वाला आरक्षण यदि इनकी षासनकाल की देन होती है तो बेषक मुनाफा इन्हीं के हिस्से में जायेगा और देष की राजनीतिक संरचना तथा प्रषासनिक क्रियाकलाप में बड़ा बदलाव भी देखने को मिलेगा। 
गौरतलब है कि जब इन्दिरा गांधी 1975 के दौर में प्रधानमंत्री थी तब टुवर्ड्स इक्वैलिटी नाम की एक रिपोर्ट आई थी। इस रिपोर्ट में प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति का विवरण था और आरक्षण की बात भी की गयी थी। इसका एक रोचक पहलू यह भी है कि रिपोर्ट तैयार करने वाली कमेटी के अधिकतर सदस्य आरक्षण के खिलाफ थे और महिलाएं चाहती थी कि वे आरक्षण से नहीं अपने बलबूते स्थान बनायें पर आज की स्थिति में नतीजे इसके उलट दिखाई दे रहे हैं। रिपोर्ट के एक दषक बाद राजीव गांधी के षासनकाल में 64वें और 65वें संविधान संषोधन विधेयक द्वारा पंचायतों और नगर निकायों में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने की कोषिष की गयी। हालांकि यह कोषिष 1992 में 73वें, 74वें संविधान संषोधन के तहत मूर्त रूप लिया। अन्तर इतना था कि सरकार तो कांग्रेस ही थी पर प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव थे। हालांकि अब स्थानीय निकायों में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण है। ढ़ाई दषक से स्थानीय निकायों में आरक्षण के बावजूद देष की सबसे बड़ी पंचायत में महिलाओं को आरक्षण न मिल पाना थोड़ा चिंता का विशय है। वो भी तब जब पंचायतों में इनके द्वारा निभाई गयी भूमिका को सराहना मिल रही हो। वैसे कई आरक्षण को 33 फीसदी के बजाय 50 फीसदी के पक्ष में भी है। बसपा की मायावती दलित और ओबीसी महिलाओं को अलग आरक्षण की बात भी करती रही है। वर्तमान उपराश्ट्रपति और तत्कालीन संसदीय कार्यमंत्री वैंकेया नायडू का एक बयान था कि सरकार पार्टियों के बीच सहमति बनाने की कोषिष कर रही है। यह तर्क दमदार है कि जब महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण मिलेगा तब 50 फीसदी के सुर उठने लाज़मी होंगे। 
गौरतलब है कि दुनिया के कई देषों में महिला आरक्षण की व्यवस्था संविधान में दी गयी है। यदि संविधान में उपलब्ध नहीं था तो विधेयक द्वारा इसे प्रावधान में लाया गया। कई राजनीतिक दल तो अपने स्तर पर भी इसे लागू करते हैं मगर भारत में इसमें से कोई भी बात लागू नहीं होती केवल स्थानीय निकायों में आरक्षण को छोड़कर। पड़ताल बताती है कि अर्जेंटीना में 30 फीसदी, अफगानिस्तान में 27 जबकि पाकिस्तान में 30 प्रतिषत महिलाओं को देष की सबसे बड़ी पंचायत में जाने को लेकर आरक्षण मिला हुआ है। पड़ोसी बांग्लादेष में भी 10 प्रतिषत आरक्षण का कानून है। उक्त के अलावा राजनीतिक दलों में भी आरक्षण देने की परम्परा को बनाये रखने में डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन, फिनलैण्ड समेत कई यूरोपीय देष षामिल देखे जा सकते हैं। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देष है चीन के बाद जनसंख्या के मामले में दूसरे नम्बर पर है। भले ही महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था न हो पर दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका में 45 राश्ट्रपति बनने के बावजूद एक भी महिला षामिल नहीं है जबकि भारत में राश्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष समेत कई ऐसे संवैधानिक षीर्शस्थ पद मिल जायेंगे जहां महिलाएं विराजमान रही हैं। 
इस समय लोकसभा में राजग को बहुमत है और कांग्रेस यदि इसमें सहयोग कर देती है तो इसे पारित होने से कोई नहीं रोक सकता। जो महिला आरक्षण विधेयक का मुद्दा दो दषकों से ज्यादा समय से अटका पड़ा है उसे मूर्त रूप देने का यह एक सही वक्त भी है। हो सकता है कई राजनीतिक दलों की महत्वाकांक्षा किसी भी सूरत में पूरी न हो पर गांधी का यह कथन कि हर सुधार का कुछ न कुछ विरोध अनिवार्य है परन्तु विरोध और आंदोलन एक सीमा तक, समाज में स्वास्थ्य के लक्षण होते हैं। कथन के आलोक में यह कहना लाज़मी है कि दो दषक पुरानी महिला आरक्षण की कोषिष अब नई करवट की ओर जानी चाहिए। वो भी तब जब दुनिया में हमारी तूती बोल रही हो। संसद में महिलाओं के आरक्षण से फायदे और नुकसान की परिपाटी पर भी दृश्टि डाली जाये तो सामाजिक और राजनीतिक उत्थान इसका बड़ा लाभ है और पुरूशों का वर्चस्व का मात्रात्मक घटना उसका नुकसान है। अब सवाल यह है कि कौन, किस बिन्दु पर खड़ा है। जाहिर है महिलाओं का आरक्षण तय स्थानों के अंदर है न कि अलग से स्थान बनाना है। ऐसे में पुरूश वर्ग नुकसान में जायेगा पर ध्यान रहे कि आधी दुनिया का समाजषास्त्र दषकों तक असंतुलित रहा है। 21वीं सदी के दूसरे दषक में बड़े बदलाव और विकास के प्रेणेताओं को फिलहाल इस मानसिकता से बाहर निकलना होगा।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Wednesday, September 20, 2017

नहीं खुलेगा देश का दरवाज़ा

बेशक रोहिंग्या शरणार्थियों को लेकर हर भारतीय में सहानुभूति होगी पर अवैध ढंग से भारत में रह रहे इन रोहिंग्याओं को लेकर जो आषंका सरकार ने व्यक्त किया है उसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। गौरतलब है कि इस समय देष में करीब 40 हजार रोहिंग्या मुसलमान हैं और भारत सरकार के पास इस बात का पुख्ता सबूत है कि दलालों के जरिये इन्हें योजनाबद्ध तरीके से देष में कैसे प्रवेष कराया गया है। केन्द्र सरकार द्वारा रोहिंग्या षरणार्थियों के मसले पर देष की षीर्श अदालत में दायर हलफनामे में स्पश्ट किया है कि अवैध रूप से घुसे इन षरणार्थियों से देष की सुरक्षा को गम्भीर खतरा है। गौरतलब है कि रोहिंग्या षरणार्थियों को भारत से बाहर करने के सरकार के निर्णय को चुनौती दी गई है। अन्तर्राश्ट्रीय मानवाधिकार कानूनों का उल्लंघन करार देते हुए संयुक्त राश्ट्र षरणार्थी आयोग में पंजीकृत दो रोहिंग्या षरणार्थी ने इसके खिलाफ उच्चतम न्यायालय में अपील दायर किया है जिसे लेकर बीते 18 सितम्बर को केन्द्र सरकार ने अपना पक्ष रखा। इस मसले पर भारतीय नागरिकों के मूलभूत अधिकारों का जिक्र करते हुए सरकार ने कहा कि अवैध रोहिंग्या षरणार्थियों को नागरिकों के तरह के अधिकार यूं ही नहीं दिये जा सकते। स्पश्ट है कि सरकार इस रूख पर कायम है कि कोई भी सीमा का उल्लंघन करके किसी भी देष का नागरिक किसी भी वजह से यदि भारत में आता है तो उसके लिए अतिथि देवो भवः की अवधारणा प्रत्येक परिस्थितियों में सम्भव नहीं होगी और ऐसे में तो बिल्कुल नहीं जब इनकी वजह से देष कई षंकाओं से भरा हो। सरकार ने षीर्श अदालत में जो दलील दी है उसमें कुछ जगहों पर आबादी के अनुपात का बिगड़ना साथ ही नाॅर्थ ईस्ट काॅरिडोर की स्थिति को और बिगड़ने की आषंका व्यक्त करना षामिल है। इतना ही नहीं देष में रहने वाले बौद्ध नागरिकों के खिलाफ रोहिंग्या हिंसक कदम उठा सकते हैं साथ ही हलफनामे में यह भी कहा गया है कि इन षरणार्थियों में से कई के हवाला कारोबार, मानव तस्करी जैसे अवैध और देष विरोधी गतिविधियों में षामिल होने जैसी स्थिति भी है। इसी क्रम में यह भी है कि जम्मू, दिल्ली, हैदराबाद और मेवात में सक्रिय कुछ रोहिंग्या षरणार्थियों के पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठनों से संपर्क की भी जानकारी मिली है। गौरतलब है कि हाल ही में कुछ रोहिंग्या इसमें लिप्त पकड़े भी गये हैं। फिलहाल मामले का अदालती रूप होने के चलते गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने इसे न्यायालय पर टाल दिया है जबकि न्यायालय इसकी अगली सुनवाई 3 अक्टूबर तय करते हुए कहा है कि वह कानून के अनुरूप काम करेगा।
उपरोक्त को विवेचित किया जाय और यह समझने की कोषिष हो कि यदि जो जानकारियां सुरक्षा एजेंसियों ने सरकार को उपलब्ध कराई है यदि उसी प्रकार की सच्चाई से रोहिंग्या षरणार्थी ओतप्रोत है तो सरकार की चिंता नाजायज कैसे है। दूसरे अर्थों में देखें तो यदि इन्हें भारत में रहने का अवसर दे भी दिया जाय तो देष में पहले से बढ़े जन दबाव के चलते क्या और जन असंतुलन व्याप्त नहीं होगा। ऐसे में इनकी वजह से न केवल संसाधनों का बोझ बढ़ेगा बल्कि कुछ जगहों पर आबादी बेषुमार बढ़ जायेगी। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि इस समस्या को सिर्फ भारत की दृश्टि से न देखकर इस नज़रिये से भी देखने की जरूरत है कि आखिरकार म्यांमार में मौजूदा समय में ऐसे हालात क्यों बनी जिसकी वजह से ऐसी भीशण घटना हुई तथा रोहिंग्या को दर-बदर होना पड़ा। म्यांमार से उपजी इस समस्या को भारत आखिर क्यों झेले? वैसे भी भारत द्वारा किसी भी षरणार्थी को नागरिक का दर्जा देना साथ ही संविधान में निहित मूल अधिकार को उपलब्ध कराना इतनी आसान प्रक्रिया भी नहीं है। भारतीय संविधान के भाग 2 में अनुच्छेद 5 से 11 के बीच नागरिकता का वर्णन है जबकि भाग 3 में अनुच्छेद 12 से 35 के बीच मूलभूत अधिकारों की चर्चा है। नागरिकता अधिनियम 1955 की पड़ताल बताती है कि नागरिक बनने के पांच प्रमुख आधारों में एक में भी रोहिंग्या खरे नहीं उतरते। ऐसे में भारत सरकार यदि इन्हें बाहर नहीं करने के फैसले को वापस ले भी लें तो दूसरा संकट यह होगा कि देष के अंदर ये किस अधिकार से रहेंगे। गौरतलब है कि बिना नागरिकता के मूलभूत अधिकार निहायत संकुचित रहते हैं। ऐसे में केन्द्र सरकार द्वारा न्यायालय में दिये हलफनामे और कई वैधानिक स्थिति को देखते हुए रोहिंग्या को भारत से बाहर करने का उसका फैसला समुचित प्रतीत होता है परन्तु इस पर आखिरी निर्णय तो न्यायालय का ही होगा।
फिलहाल हालिया परिप्रेक्ष्य यह है कि म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर आंग सान सू की के ताजा बयान का भारत ने स्वागत किया। जिसमें सू ने कहा कि हाल के दिनों में राखिने प्रान्त में उत्पन्न स्थिति न केवल देष के लोगों के लिए बल्कि पड़ोसी देषों यहां तक कि हमारे लिए भी चिंता का विशय है। गौरतलब है कि चीन में इसी माह की षुरूआत में 3 से 5 सितम्बर तक ब्रिक्स सम्मेलन हुआ जिसमें प्रधानमंत्री मोदी ने षिरकत की थी तत्पष्चात् 5 से 7 सितम्बर के बीच उनकी यात्रा का पड़ाव म्यांमार भी था। उस दौरान भी दोनों देषों ने बड़ी षालीनता से इस मसले को निपटाने का रूख दिखाया। इस पहलू पर भी गौर कर लिया जाय कि इस समस्या के बुनियादी सवाल क्या थे। दरअसल साल 2012 में म्यांमार के रखाइन प्रान्त में एक हिंसा हुई जो मध्य म्यांमार और माण्डले तक फैल गयी। हिंसा के पीछे यौन उत्पीड़न और स्थानीय विवाद मुख्य रूप से देखे जा सकते हैं। छोटे तरीके से उठा ये विवाद साम्प्रदायिक संघर्श का कब रूप ले लिया इसका पता ही नहीं चला। इसी दौरान बौद्ध और रोहिंग्या मुसलमानों के बीच हुई हिंसा में 200 रोहिंग्या मारे गये और हजारों का दर-बदर होना पड़ा। तभी से हिंसा और विवाद की लपटें लगातार उठ रही हैं। अगस्त 2013, जनवरी 2014 और जून 2014 में हुई साम्प्रदायिक हिंसा से रोहिंग्या स्त्री, पुरूश समेत बच्चों के मरने की तादाद बढ़ गयी। एक विचारणीय सवाल है कि आखिर रोहिंग्या समुदाय म्यांमार की सरकार के साथ सामंजस्य क्यों नहीं बिठा पाते साथ ही आंग सान सू की जो म्यांमार में दषकों तक लोकतंत्र की लड़ाई लड़ी वे इनके मामले में इतनी उदार क्यों नहीं हैं? हालांकि उन्होंने मंगलवार को एक बयान में कहा कि म्यांमार के कुछ रोहिंग्या षरणार्थियों को वापस लेने के लिए वे तैयार है। बता दें कि रोहिंग्या को लेकर इन दिनों म्यांमार पर अन्तर्राश्ट्रीय दबाव बढ़ा है। संयुक्त राश्ट्र महासचिव गुटरेस ने कहा है कि रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ सैन्य अभियान बंद किया जाना चाहिए। फ्रांस ने भी इसी प्रकार का रूख दिखाया है साथ ही ब्रिटेन और अमेरिका भी इस मामले में अपने-अपने तरीके से प्रतिक्रिया कर रहे हैं। इस बीच भारत सरकार की ओर से ताजा बयान यह आया है कि किसी भी कीमत पर देष में रोहिंग्या मुसलमानों के लिए दरवाजा नहीं खुलेगा। पाकिस्तानी आतंकी संगठन जैष-ए-मोहम्मद मसूद अजहर ने रोहिंग्या मुसलमानों के समर्थन में म्यांमार के खिलाफ जिहाद छेड़ने की धमकी दी है। कहा जाय तो सभ्य दुनिया को तो छोड़िये आतंकी भी रोहिंग्या के मामले में चिंतित दिखाई दे रहे हैं। ये वही आतंकी हैं जो पठानकोट के हमले का जिम्मेदार है और जिसे भारत संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् में अन्तर्राश्ट्रीय आतंकी का तगमा दिलाना चाहता है जिसमें चीन रोड़ा बना हुआ है। फिलहाल म्यांमार से रोहिंग्या मुसलमानों के पलायन का मामला इन दिनों दुनिया भर में चर्चा का विशय बना हुआ है। सबके बावजूद रोहिंग्या को लेकर देष की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बताने वाली केन्द्र सरकार का एक बार फिर यह कहना कि रोहिंग्याओं के लिए भारत का दरवाजा नहीं खुलेगा इससे उसकी बड़ी चिंता परिलक्षित होती है। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

हाईस्पीड में भारत-जापान सम्बन्ध

हाईस्पीड में भारत-जापान सम्बंध
हाल के वर्शों में भारत-जापान सम्बंधों में महत्वपूर्ण और गुणात्मक बदलाव आया है। मौजूदा समय में तो यह बुलेट ट्रेन सरीखी रफ्तार ले लिया है। जापानी प्रधानमंत्री षिंजो एबे द्वारा सृजित ष्लोगन ‘जय जापान, जय इण्डिया‘ इस बात को और पुख्ता करता है। गौरतलब है कि जापान के प्रधानमंत्री षिंजो एबे की सितम्बर यात्रा वैसे तो बुलेट ट्रेन के चलते कहीं अधिक सुर्खियों में रही है परन्तु गुजरात के गांधीनगर में प्रधानमंत्री मोदी के साथ द्विपक्षीय बैठक में जो कुछ हुआ उससे स्पश्ट है कि रणनीतिक व सुरक्षा सम्बंधी मापदण्डों पर भारत और जापान तुलनात्मक कहीं अधिक स्पीड से आगे बढ़ना चाहते हैं। दोनों देषों ने एक प्रकार से यह जता दिया कि दोनों रणनीतिक सहयोग के साथ दायरा बढ़ाने का मनसूबा फिलहाल रखते हैं। गौरतलब है कि भारत जापान की तरफ से जारी संयुक्त घोशणापत्र का सीधा तात्पर्य प्रषान्त महासागर से लेकर हिन्द महासागर तक किसी भी देष को मनमानी की छूट नहीं होगी। जाहिर है चीन और उत्तर कोरिया समेत कईयों के लिए यह एक बड़ा और कड़ा संदेष है। जिस तर्ज पर थल सेना से लेकर नौसैनिक क्षेत्र तक में दोनों देषों ने खाका खींचा है उससे भी स्पश्ट है कि अमेरिका के बाद अगर वैष्विक जगत में कोई रणनीतिक साझीदार भारत का है तो वह जापान ही है। जापानी प्रधानमंत्री की बीते 14 सितम्बर की यात्रा रेल परिवहन की दृश्टि से भारत में एक बड़ी दस्तक ही कही जायेगी। अहमदाबाद से मुम्बई के बीच की बुलेट ट्रेन की परियोजना के कुल खर्च 110 हजार करोड़ में 88 हजार करोड़ का निवेष जापान द्वारा किया जाना साथ ही तकनीक भी उपलब्ध कराना इस बात का इषारा है कि भारत और जापान के सम्बंध केवल कूटनीतिक नहीं बल्कि आर्थिक परिपाटी के साथ नैसर्गिक मित्रता की ओर बढ़ रहे हैं। वैसे इसमें इस बात का भी संकेत दिखाई देता है कि जापान भी नहीं चाहता कि भारत के इस प्रकार की सुविधा में किसी प्रकार से चीन का हस्तक्षेप हो। गौरतलब है कि बुलेट ट्रेन के मामले में जापान की भांति चीन भी अव्वल है। हो न हो चीन की नजर व्यापारिक दृश्टि से बुलेट ट्रेन के मामले में भारत की ओर रही हो पर जापान से मिली सौगात से यह रास्ता उसके लिए न केवल बंद हो गया बल्कि दोनों की गाढ़ी दोस्ती से उसे जोर का झटका भी लगा है। 
इतिहास को खंगाला जाय तो छठी षताब्दी में बौद्धिक धर्म के उदय तथा जापान में इसके प्रचार-प्रसार के समय से ही दोनों देषों के बीच मधुर सम्बंध रहे हैं। भारत और जापान के बीच अप्रैल 1952 से राजनयिक सम्बंधों की स्थापना हुई जो मौजूदा समय में सौहार्दपूर्ण सम्बंध का रूप ले चुकी हैं। दोनों देषों के द्वारा अनेक संयुक्त उपक्रमों की स्थापना से सम्बंधों की गहराई का पता चलता है। भारत और जापान 21वीं सदी में वैष्विक साझेदारी की स्थापना करने हेतु आपसी समझ पहले ही दिखा चुके हैं तब यह दौर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का था। इण्डो-जापान ग्लोबल पार्टनरषिप इन द ट्वेंटी फस्र्ट सेन्च्युरी इस बात का संकेत था कि जापान भारत के साथ षेश दुनिया से भिन्न राय रखता था। इतना ही नहीं वर्श 2005 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एवं जापानी प्रधानमंत्री के साथ एक संयुक्त वक्तव्य जारी हुआ जिसका षीर्शक था नये एषियाई युग में जापान-भारत साझेदारी। गौरतलब है कि दिसम्बर 2006 में मनमोहन सिंह और यही जापानी प्रधानमंत्री षिंजो एबे ने सामरिक उन्मुकता को ध्यान में रखते हुए मसौदे को आगे बढ़ाया। उपरोक्त परिप्रेक्ष्य इस बात को भावयुक्त करते हैं कि जापान और भारत कई दषकों से एक-दूसरे के लिए सकारात्मक रहे हैं। प्रधानमंत्री एबे ने एक दषक पहले कहा था कि किसी अन्य द्विपक्षीय सम्बंधों की तुलना में भारत और जापान के सम्बंधों में असीम सम्भावना है। जाहिर है वर्तमान में भी दोनों इसी कसौटी पर एक बार फिर खरे उतरते दिखाई दे रहे हैं। भारत और जापान के भावी रिष्ते को जिस तरीके से जापानी प्रधानमंत्री ने यह कहते हुए कि हम ‘जय जापान जय भारत‘ को सच साबित करने के लिए काम करेंगे उसमें भी गाढ़ी दोस्ती का ही रहस्य छुपा हुआ है। दो टूक यह भी है कि जापान की तुलना में इसका लाभ भारत के हिस्से में ही अधिक आने वाला है। हालांकि ‘जय जापान, जय भारत‘ के ष्लोगन से अनायास ही 1954 का हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा उभर आया जो 1962 में चीन आक्रमण के साथ इसलिए भरभरा गया क्योंकि इसकी व्यावहारिकता पर कभी काम ही नहीं किया गया था पर जापानी प्रधानमंत्री का नारा ‘जय जापान, जय भारत‘ इसलिए कहीं अधिक दृढ़ है क्योंकि यह सात दषकों के सम्बंधों के बाद पनपाया गया है। 
प्रधानमंत्री मोदी और उन्हीं के समकक्ष षिंजो एबे ने बुलेट ट्रेन के षिलान्यास के साथ रिष्तों की नई इबारत लिख दी है। मोदी ने साबरमती स्टेषन पर बुलेट ट्रेन के षिलान्यास के मौके पर कहा कि यह जापान से लगभग मुफ्त में मिल रही है। जापान का यह कहा जाना मेक इन इण्डिया के लिए जापान प्रतिबद्ध है। यह बात इसलिए दमदार है क्योंकि भारत इसी के बूते दुनिया से अपने देष में निवेष की इच्छा रखता है। षिंजो एबे का यह वक्तव्य कि मेरे अच्छे मित्र प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दूरदर्षी नेता हैं दषकों की गाढ़ी दोस्ती का एक दूसरा रंग ही है। जिस तर्ज पर एषिया और प्रषान्त महासागरीय देष आये दिन उथल-पुथल में रहते हैं और जिस प्रकार सीमा विवाद को लेकर चीन भारत को धौंस दिखाने का अवसर खोजता रहता है इसे भी संतुलित करने में जापान की दोस्ती बड़े काम की है। गौरतलब है कि 72 दिनों तक डोकलाम पर भारत और चीन की सेना आमने-सामने डटी रही। इसी तनातनी के दौर में जापान का बयान भारत के पक्ष में आया था। जाहिर है चीन पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने में यह काम आया और बीते 14 सितम्बर को प्रधानमंत्री मोदी और जापानी पीएम षिंजो एबे के संयुक्त बयान में यह कहना कि पाकिस्तान 2008 के मुम्बई और 2016 के पठानकोट हमलों के दोशियों को जल्द-से-जल्द सज़ा दिलवाये इससे पाकिस्तान को तो कड़ा संदेष मिला ही है साथ ही पाकिस्तान के आतंकियों का समर्थन करने वाले चीन और उसकी बढ़ती आक्रमकता को भी निषाने पर लिया गया है। सभी जानते हैं कि उत्तर कोरिया का भी चीन समर्थन करता है जिससे जापान इन दिनों काफी परेषान है और अमेरिका उत्तर कोरिया के दुस्साहस को देखते हुए सबक सिखाने के मूड में है। बीते 3 सितम्बर को चीन में ब्रिक्स सम्मेलन होने से पहले 28 अगस्त को डोकलाम समस्या से जैसे-तैसे छुटकारा मिला। यहां भी भारत की कूटनीति फलक पर जबकि चीन हाषिये पर जाता दिखाई देता है। भारत-जापान की दोस्ती भी चीन को फिलहाल बहुत खल रही होगी। भारत और जापान के बीच हुए 15 अहम समझौते और हाई स्पीड रेल परियोजना साथ ही चीन के वन बेल्ट, वन रोड की काट खोजना भी इस बात का द्योतक है कि दक्षिण एषिया में ही नहीं वरन् वैष्विक फलक पर भारत अपना कद तुलनात्मक कहीं अधिक विकसित कर चुका है। गौरतलब है कि जब बुलेट ट्रेन 1964 में जापान में पहली बार आई थी तब जापान का पुर्नजन्म हुआ था। जनसंख्या और क्षेत्रफल की दृश्टि से छोटा जापान और उसी की तुलना में दोनों मामले में अव्वल भारत भी रेल परिवहन में बुलेट ट्रेन का भूमिपूजन करके इस राह पर चल पड़ा है। इससे परिवहन के इस क्षेत्र में न केवल सरलता और सुगमता का विकास होगा बल्कि भारत और जापान के बीच दोस्ती भी कहीं अधिक हाईस्पीड वाले होंगे।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

हांफते पाकिस्तान के दौड़ यूएनओ तक

अज़हर मसूद को न्याय के कटघरे में लाकर रहेंगे। भारत की ओर से किया जा रहा यह दृढ़ संकल्प अब इसलिए रंग ला सकता है क्योंकि वैष्विक फलक पर भारत की कूटनीति तुलनात्मक चमकदार हुई है। संयुक्त राश्ट्र द्वारा अज़हर मसूद को अन्तर्राश्ट्रीय आतंकी घोशित कराये जाने की भारत की कोषिष पुरानी है पर सफलता दर से अभी यह दरकिनार है। इसके पीछे बड़ा कारण संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् को आगे बढ़ने से रोकने में चीन का वीटो है। गौरतलब है भारत ने अज़हर मसूद की पहचान 2 जनवरी, 2016 को पठानकोट में हुए आतंकी हमले के मास्टरमाइंड के रूप में की। इसके अलावा उसके भाई रऊफ समेत पांच अन्य को भी आरोपी बताया था। ध्यान्तव्य हो कि इस हमले में भारत के 7 जवान षहीद हुए थे जबकि 6 आतंकी भी ढेर हुए थे। तभी से यह मंथन है कि पाक को घुटने के बल लाने के लिए वहां के आतंकियों को नेस्तोनाबूत करना है पर इस दिषा में सफलता दर बहुत कम रही। संयुक्त राश्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि सैयद अकबरूद्दीन का यह कहना कि मामला विचाराधीन है और संयुक्त राश्ट्र समिति के समक्ष है उम्मीद है कि आतंकी घोशित करने में वह अपनी भूमिका का निर्वहन करेंगे। यह जान कर हैरत होगी कि पाकिस्तान का षरणागत आतंकी अज़हर मसूद पर चीन की बड़ी कृपा है। इसे वैष्विक आतंकी घोशित करवाने के भारत के प्रयासों को चीन बार-बार अवरूद्ध करता रहा है। इतना ही नहीं आतंकी लखवी के मामले में भी चीन अपने वीटो का बेजा इस्तेमाल किया है। भारत के इस मामले में दिये गये प्रस्ताव को अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन का समर्थन है पर पड़ोसी चीन अपनी कुटिल चाल के चलते भारत को पाकिस्तान के मुकाबले बनाये रखने तथा स्वयं की कूटनीति को तृप्ति के चलते प्रस्ताव के विरूद्ध हैं। दो टूक यह भी है कि पाकिस्तान संयुक्त राश्ट्र में पिछले 70 सालों से दौड़ लगाते-लगाते हांफने लगा है पर उसका मैराथन समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा है।
संयुक्त राश्ट्र संघ में भारत ने पाकिस्तान को दो टूक कह दिया है कि वह कष्मीर का सपना छोड़ दे। साथ ही यह भी चेताया कि आतंकियों को जड़ से खत्म करे और सरकारी नीति के हथियार के रूप में उनका इस्तेमाल बंद करे। गौरतलब है कि भारत की विदेष मंत्री सुशमा स्वराज 23 सितम्बर को संयुक्त राश्ट्र महासभा में अपना भाशण देंगी जाहिर है पाकिस्तान भी इसके उलट कुछ राय जरूर रखेगा। सभी जानते हैं कि नवाज़ षरीफ पनामा मामले के चलते पद गंवा चुके हैं और प्रधानमंत्री के तौर पर षाहिद खाकन अब्बासी काम कर रहे हैं। रोचक यह भी है कि यह अस्थाई प्रधानमंत्री हैं जब नवाज़ षरीफ के भाई इस पद की योग्यता में आ जायेंगे तब इनकी छुट्टी हो जायेगी। फिलहाल संयुक्त राश्ट्र महासभा को अब्बासी सम्बोधित करेंगे। आवाज भले ही अब्बासी की हो पर बोल पाकिस्तान पर दबाव बनाने वाले आकाओं का ही होगा। पाकिस्तानी विदेष मंत्रालय की मानें तो प्रधानमंत्री अब्बासी एक बार फिर संयुक्त राश्ट्र में कष्मीर का मुद्दा उठायेंगे। हालांकि पाकिस्तान की यह सोची-समझी चाल रहती है वह आतंक के मुद्दे को कष्मीर की आड़ में कमजोर करने की हमेषा कोषिष करता रहा है। एक सच्चाई यह भी है कि संयुक्त राश्ट्र में कष्मीर का मुद्दा उठाकर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इस्लामाबाद में कुछ दिन चैन से गुजार लेते हैं। गौरतलब है कि पाक यदि कष्मीर का मुद्दा छोड़ दे तो आतंक और आईएसआई के साथ वहां की सेना का गठजोड़ खत्म हो सकता है पर वह ऐसा करके स्वयं पर वार नहीं करा सकता। हो न हो पाकिस्तानी सत्तधारियों के लिए कष्मीर एक ऐसा अचूक हथियार है जिसके बूते सियासत की रोटियां सेकी जाती हैं जबकि पाक की जनता भूख, गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी तथा बेकारी से जूझ रही होती है। पाक अधिकृत कष्मीर इस बात का पुख्ता प्रमाण है। जहां के बाषिन्दे इस्लामाबाद के खिलाफ न केवल आवाज़ बुलन्द करते हैं बल्कि आतंकियों के सताये हुए भी हैं।
भारत ने आतंक पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कह दिया है कि पाकिस्तान में आतंकियों को सुरक्षित पनाह दिया जाना जारी है। संयुक्त राश्ट्र में बार-बार मुंहकी खाने वाला पाकिस्तान आदत से बाज नहीं आ रहा है उसके पीछे एक बड़ी वजह चीन का समर्थन भी है। पाकिस्तान द्वारा कष्मीर मुद्दा उठाने को लेकर भारत ने तंज कसा है और इसे मियां की दौड़ मस्जिद तक बताया है। इसी का दूसरा चरित्र यह है कि पाकिस्तान बीते कई दषकों से कष्मीर का मुद्दा उठाते-उठाते, संयुक्त राश्ट्र संघ की दौड़ लगाते-लगाते हांफने लगा है पर नीयत को दुरूस्त करने के बजाय बेहूदा नीति पर अभी भी अड़ा हुआ है जबकि पाकिस्तान के भारत में रहे पूर्व राजनयिक ने हाल ही में कहा था कि पाकिस्तान को कष्मीर मुद्दे के अलावा कुछ और सोचना चाहिए क्योंकि अब दुनिया अब उसके इस नीति पर संजीदा नहीं होती है। एक तरफ दुनिया आतंक को लेकर एकजुट हो रही है तो दूसरी तरफ चीन जैसे देष आतंक के प्रति स्पश्ट रूख नहीं अख्तियार कर रहे हैं। जापान के प्रधानमंत्री षिंजो एबे बीते 14 सितम्बर को भारत आये थे। जैष-ए-मोहम्मद और लष्कर-ए-तैयबा पर मोदी और जापानी प्रधानमंत्री ने खूब लानत-मलानत की। इन आतंकी संगठनों समेत अलकायदा के खिलाफ मिलकर मुकाबला करने पर सहमति जताई। मोदी और षिंजो एबे ने बीते 14 सितम्बर को संयुक्त बयान में कहा कि पाकिस्तान 2008 के मुम्बई और 2016 के पठानकोट आतंकी हमलों के दोशियों को जल्द-से-जल्द सजा दिलवाये। इस बयान से साफ है कि जापान भारत के साथ आतंक के मामले में होकर न केवल पाकिस्तान को सचेत किया है बल्कि चीन को भी कड़ा संदेष दिया है। जाहिर है भारत और जापान की दोस्ती से चीन के माथे पर बल आया है। चीन एक तरफ पाकिस्तान के आतंकियों का समर्थन करता है तो दूसरी तरफ दुस्साहस से भरे उत्तर कोरिया को भी समर्थन देने का ही काम करता रहा है। जिस तर्ज पर भारत और जापान समेत दुनिया के तमाम देष आतंक के विरोध में हैं वैसी हरकत चीन की नहीं दिखाई देती और ऐसा सिर्फ पाकिस्तान को लेकर इसलिए क्योंकि वह अपनी कूटनीति को इसके माध्यम से हल करता है। 
फिलहाल वैष्विक फलक पर अब सब कुछ इतना आसान नहीं है चीन जैसा चाहता है अब पूरी तरह वैसा कर पाये इसकी व्यावहारिकता थोड़ी कम ही दिखाई देती है। पाकिस्तान आतंकियों पर अपनी नीतियों से बाज नहीं आने वाला पर चीन कुछ मामलों में कमजोर दिखता है। एक तरफ भारत जापान की प्रगाढ़ होती दोस्ती तो दूसरी तरफ उत्तर कोरिया पर अमेरिका की टेढ़ी हुई नज़रें। इतना ही नहीं जिस पाकिस्तान के आतंकियों का वह मजबूत समर्थक है उस पर भी अमेरिका की नज़रे तिरछी हैं। बीते दिनों अमेरिकी राश्ट्रपति ट्रंप ने पाकिस्तान को खूब लताड़ लगाई और साफ किया कि वह नहीं सुधरेगा तो उसको वह स्वयं सुधार देंगे। संयुक्त राश्ट्र संघ भी अब पाकिस्तान के कष्मीर मुद्दे को बहुत संवेदनषीलता से नहीं लेता दिखाई देता है। इसका मुख्य कारण उसकी आतंकी छवि ही है। स्पश्ट यह भी है कि भारत पूरी दुनिया को यह बताने मेें सफल रहा कि वह पाक आयातित आतंकवाद से वह बेइंतहा परेषान है। बदली वैष्विक परिस्थितियां फिलहाल भारत के पक्ष में खड़ी दिखाई देती हैं। चीन को छोड़कर संयुक्त राश्ट्र के सभी स्थाई सदस्य भारत का साथ निभाने का वायदा कर चुके हैं पर इसकी एक गहरी बात यह भी है कि यदि सुरक्षा परिशद् के स्थाई सदस्यों में से एक ने भी मामले के विरूद्ध वीटो किया तो बात बनती नहीं है। ऐसे में सवाल है कि अज़हर मसूद को न्याय के कटघरे में लाने का जो संकल्प भारत कर रहा है क्या वह चीन की बेरूखी से अधर में नहीं है। सम्भव है कि वक्त के साथ कुछ और बदलाव आये पर वर्तमान की सच्चाई तो यही है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

देशी हिंदी का विदेशी प्रभाव

अगर मुझे हिन्दी नहीं आती तो मैं लोगों तक कैसे पहुंच पाता। प्रधानमंत्री मोदी का यह कथन भाशाई सुचिता को समझने का बड़ा अवसर देता है। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि भाशा एक आवरण है जिसके प्रभाव में व्यक्ति न केवल सांस्कृतिक सम्बद्धता से अंगीकृत होता है बल्कि विकास की चोटी को भी छूता है। भाशा किसी की भी हो, कैसी भी हो सबका अपना स्थान है पर जब हिन्दी की बात होती है तो व्यापक भारत के विषाल जनसैलाब का इससे सीधा सरोकार होता है। इतना ही नहीं दषकों से प्रसार कर रही हिन्दी भाशा ने दुनिया के तमाम कोनों को भी छू लिया है। आज दुनिया का कौन सा कोना है जहां भारतीय न हो। भारत के हिन्दी भाशी राज्यों की आबादी लगभग आधी के आसपास है। वर्श 2011 की जनगणना के अनुसार देष की सवा अरब की जनसंख्या में लगभग 42 फीसदी की मातृ भाशा हिन्दी है। इससे भी बड़ी बात यह है कि प्रति चार व्यक्ति में तीन हिन्दी ही बोलते हैं। पूरी दुनिया का लेखा-जोखा किया जाय तो 80 करोड़ से ज्यादा हिन्दी बोलने वाले लोग हैं। तेजी से बदलती दुनिया का सामना करने के लिए भारत को एक मजबूत भाशा की जरूरत है। सभी जानते हैं कि अंग्रेजी दुनिया भर में बड़े तादाद की सम्पर्क भाशा है जबकि मातृ भाशा के रूप में यह संकुचित है। चीन की भाशा मंदारिन सबसे बड़ी जनसंख्या को समेटे हुए है पर एक सच्चाई यह है कि चीन के बाहर इसका प्रभाव इतना नहीं है जितना बाकी दुनिया में हिन्दी का है। पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेष, श्रीलंका से लेकर इण्डोनेषिया, सिंगापुर यहां तक कि चीन में भी इसका प्रसार है। तमाम एषियाई देषों तक ही हिन्दी का बोलबाला नहीं है बल्कि ब्रिटेन, जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका, आॅस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैण्ड समेत मानचित्र के सभी महाद्वीपों जैसे अमेरिका और मध्य एषिया में इसका बोलबाला है। स्पश्ट है कि हिन्दी का विस्तार और प्रभाव भारत के अलावा भी दुनिया के कोने-कोने में है। 
हिन्दी के बढ़ते वैष्वीकरण के मूल में गांधी की भाशा दृश्टि का महत्वपूर्ण स्थान है। दुनिया भर में गांधी की स्वीकार्यता भी इस दिषा में काफी काम किया है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान भी विदेषों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार व पाठ्यक्रमों के योगदान के लिए जानी-समझी जाती है। हिन्दी में ज्ञान, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विशयों पर सरल और उपयोगी पुस्तकों का फिलहाल अभी आभाव है पर जिस कदर भारत में व्यापार और बाजार का तकनीकी पक्ष उभरा है उससे यह संकेत मिलता है कि उक्त के मामले में भी हिन्दी बढ़त बना लेगी। दक्षिण भारत के विष्वविद्यालयों में हिन्दी विभागों की तादाद बढ़ रही है पर यह भी सही है कि उत्तर दक्षिण का भाशाई विवाद अभी भी जड़ जंग है। संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाशाओं का उल्लेख है जबकि कुल 53 भाशा और 1600 बोलियां भारत में उपलब्ध हैं। भारत विविधता में एकता का देष है जिसे बनाये रखने में भाशा का भी बड़ा योगदान है। हिन्दी के प्रति जो दृश्टिकोण विदेषियों में विकसित हुआ है वो भी इसकी विविधता का चुम्बकीय पक्ष ही है। बड़ी संख्या में विदेषियों को हिन्दी सीखने के लिए अभी भी भारत में आगमन होता है। दुनिया के सवा सौ षिक्षण संस्थाओं में भारत को बेहतर ढंग से जानने के लिए हिन्दी का अध्ययन हो रहा है जिसमें सबसे ज्यादा 32 षिक्षण संस्था अमेरिका में है। लंदन के कैम्ब्रिज विष्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। जर्मनी और नीदरलैंड आदि में भी हिन्दी षिक्षण संस्थाएं हैं जबकि 1942 से ही चीन में हिन्दी अध्ययन की परम्परा षुरू हुई थी और 1950 में जापानी रेडियों से पहली बार हिन्दी कार्यक्रम प्रसारित किया गया था। रूस में तो हिन्दी रचनाओं एवं ग्रन्थों का व्यापाक पैमाने पर अनुवाद हुए। उपरोक्त से पता चलता है कि वैष्विक परिप्रेक्ष्य में हमारी हिन्दी विदेष में क्या रंग दिखा रही है साथ ही हिन्दी भाशा में व्यापक पैमाने पर विदेषी षिक्षण संस्थाएं किस भांति निवेष कर रही हैं। 
सितम्बर 2015 के भोपाल में तीन दिवसीय हिन्दी अन्तर्राश्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने हिन्दी भाशा की गरिमा और गम्भीरता को लेकर कई प्रकार की बातों में एक बात यह भी कही थी कि अगर समय रहते हम न चेते तो हिन्दी भाशा के स्तर पर नुकसान उठायेंगे और यह पूरे देष का नुकसान होगा। प्रधानमंत्री मोदी के इस वक्तव्य के इर्द-गिर्द झांका जाय तो चिंता लाज़मी प्रतीत होती है। स्वयं मोदी ने बीते तीन वर्शों से अधिक समय से विदेषों में अपने भाशण के दौरान हिन्दी का जमकर इस्तेमाल किया। षायद पहला प्रधानमंत्री जिसने संयुक्त राश्ट्र संघ में षामिल एक तिहाई देषों को हिन्दी की नई धारा दे दी जिसका तकाजा है कि हिन्दी के प्रति वैष्विक दृश्टिकोण फलक पर है। यह सच है कि भाशा किसी भी संस्कृति का वह रूप है जिसके बगैर या तो वह पिछड़ जाती है या नश्ट हो जाती है जिसे बचाने के लिए निरंतर भाशा प्रवाह बनाये रखना जरूरी है। देष में हिन्दी सम्मेलन, हिन्दी दिवस और विदेषों में हिन्दी की स्वीकार्यता इसी भावना का एक महत्वपूर्ण प्रकटीकरण है। 14 सितम्बर हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है जबकि सितम्बर के पहले दो सप्ताह को हिन्दी पखवाड़ा के रूप में स्थान मिला हुआ है। यहां यह भी समझ लेना जरूरी है कि यदि हिन्दी ने दुनिया में अपनी जगह बनाई है तो अंग्रेजी जैसी भाशाओं से उसे व्यापक संघर्श भी करना पड़ा है। भारत में आज भी हिन्दी को दक्षिण की भाशाओं से तुलना की जाती है जबकि सच्चाई यह है कि कोई भी भाशा अपना स्थान घेरती है हिन्दी तो इतनी समृद्ध है कि कईयों को पनाह दे सकती है। संयुक्त राश्ट्र संघ में हिन्दी को अधिकारिक भाशा का दर्जा देने की मांग उठती रही है। डिजिटल दुनिया में अंग्रेजी, हिन्दी और चीनी के छाने की सम्भावना बढ़ी हुई है ऐसा प्रधानमंत्री मोदी भी मानते हैं। जिस तर्ज पर दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी का भाशाई प्रयोग हिन्दी की ओर झुक रहा है उसमें भी बड़ा फायदा हो सकता है। इंटरनेट से लेकर गूगल के सर्च इंजन तक अब हिन्दी को कमोबेष बड़ा स्थान मिल गया है साथ ही बैंकिंग, रेलवे समेत हर तकनीकी विधाओं में अंग्रेजी के साथ हिन्दी का समावेषन हुआ है। 
विष्व तेजी से प्रगृति की ओर है विकसित समेत कई विकासषील देष अपनी भाशा के माध्यम से ही विकास को आगे बढ़ा रहे हैं पर भारत में स्थिति थोड़ी उलटी है यहां अंग्रेजी की जकड़ बढ़ रही है। रोचक यह भी है कि विदेषों में हिन्दी सराही जा रही है और अपने ही देष में तिरछी नज़रों से देखी जा रही है। एक हिन्दी दिवस के कार्यक्रम में हिन्दी की देष में व्यथा को देखते हुए एक नामी-गिरामी विचारक ने हिन्दी समेत भारतीय भाशा को चपरासियों की भाशा कहा। यहां चपरासी एक संकेत है कि भारतीय भाशा को किस दर्जे के तहत रखा जा रहा है। हालांकि वास्तविकता इससे परे भी हो सकती है पर कुछ वर्श पहले सिविल सेवा परीक्षा के 11 सौ के नतीजे में मात्र 26 का हिन्दी माध्यम में चयनित होना और कुल भारतीय भाशा में से मात्र 53 का चयनित होना देष के अन्दर इसकी दयनीय स्थिति का वर्णन नहीं तो और क्या है। हालांकि अब इसमें भी सुधार हो रहा है। अंग्रेजी एक महत्वपूर्ण भाशा है पर इसका तात्पर्य नहीं कि इसे हिन्दी की चुनौती माना जाय या दूसरे षब्दों में हिन्दी को अंग्रेजी के सामने खड़ा करके उसे दूसरा दर्जा दिया जाय। प्रधानमंत्री मोदी का राजनीतिक और कूटनीतिक कदम चाहे जिस राह का हो पर इस बात को मानने से कोई गुरेज नहीं कि हिन्दी विस्तार की दषा में उनकी कोई सानी नहीं। फिलहाल हिन्दी भाशा में दुनिया के कोने-कोने से बढ़ते निवेष को देखते हुए कह सकते हैं कि हिन्दी धारा और विचारधारा के मामले में मीलों आगे है। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

सुशासन के दौर में बच्चे असुरक्षित

हरियाणा के रेयान इंटरनेषनल स्कूल में एक बच्चे की हत्या और दिल्ली के एक स्कूल में एक बच्ची से बलात्कार इतना समझने के लिए पर्याप्त है कि वे मासूम जो न तो चमक-दमक की दुनिया समझते हैं और न ही ऐसी दुनिया का समाजषास्त्र और दर्षनषास्त्र फिर भी कुछ लोग उनकी जान के दुष्मन हैं। जब हम बड़ी षिद्दत से यह कहते हैं कि सुरक्षा और संरक्षा का वातावरण विकसित करने में हमारी कोई सानी नहीं साथ ही कानून और व्यवस्था भी बहुत चैकस है तब ऐसी घटनाएं इस बात का इषारा हैं कि गढ़े गये कषीदे सिद्धान्त में कुछ और व्यवहार में कुछ और हैं। स्कूल किसी भी कद का हो, षहर किसी भी स्तर का हो बच्चों की सुरक्षा में तो बेबस ही हैं। देखा जाय तो आधुनिक युग में षिक्षा को लेकर पैरामीटर बदले हैं साथ ही स्कूलों के मापदण्ड भी तुलनात्मक कहीं अधिक ऊँचे हुए हैं साथ ही षिक्षा व्यवस्था में भी व्यापक बदलाव आया है परन्तु इन्हीं ऊँची इमारतों में बच्चों के लिए असुरक्षा का वातावरण भी अब बनता दिख रहा है। रेयान इंटरनेषनल स्कूल के अंदर जिस तरह एक 7 बरस के एक मासूम को मौत के घाट उतारा गया इससे तो यही छवि बनती दिखाई देती है। साफ है कि स्कूल चलाने वाले प्रबंधक अच्छे वातारण का ढिंढोरा कितना भी पीट लें पर हालात यह बताते हैं कि बच्चों की सुरक्षा का जिम्मा वे भी नहीं उठा पा रहे हैं। आधुनिक युग में सुषासन की अवधारणा की यात्रा अनेक चरणों से गुजरी हैं कई वर्गों को इसका लाभ भी हुआ होगा पर कुछ वर्ग अभी इस सूनेपन से भरे हैं जाहिर है बच्चे इसकी जद्द में हैं। दृश्टिकोण व परिप्रेक्ष्य को देखते हुए एक स्वाभाविक प्रष्न उभरता है कि बच्चों के लिए आखिर कब होगा सुषासन। यह बात इसलिए भी क्योंकि बड़े षहरों में आये दिन बच्चे बड़े तादाद में गायब हो रहे हैं। आंकड़ों की मानें तो एक घण्टे में 12 बच्चे गुम हो जाते हैं।
बीते तीन बरसों से सुषासन की विषेशता और विष्लेशण दोनों में खूब इजाफा हुआ है पर कई वर्शों से बच्चों के गायब होने से जुड़ी समस्याएं भी बेलगाम हुई हैं। नौनिहालों की सुरक्षा और संरक्षा पर आज भी सवालिया निषान लगा हुआ है। विमर्ष यह है कि इस समाज व सरकार के बीच रहने वाले लाखों बच्चे आज भी षोशण का षिकार हो रहे हैं, लाखों की मात्रा में गुम हो रहे हैं और बहुतायत को जान से हाथ भी धोना पड़ रहा है। आंकड़ों पर नजर डालें तो भारत में प्रत्येक वर्श औसतन एक लाख बच्चे गायब हो रहे हैं। जनवरी 2011 से जून 2014 के बीच 3 लाख 27 हजार बच्चे लापता हुए जिनमें से 45 फीसदी बच्चों का अब तक कोई अता-पता नहीं है और यह क्रम कमोबेष आज भी कायम है। लापता बच्चों का न मिलना उनके अभिभावकों के लिए अन्तहीन पीड़ा है और जीवनपर्यनत उन्हें भोगना भी है। बच्चे किन परिस्थितियों में गायब हुए इसकी भिन्न-भिन्न विवेचना हो सकती है पर स्कूल प्रांगण के षौचालय में बच्चे की गर्दन चाकू से रेत दी जाय यह हतप्रभ करने वाली घटना नहीं तो क्या है? मामले की गम्भीरता को देखते हुए राज्य और केन्द्र सरकार इस मामले में हरकत में आई है पर स्कूल प्रबंधन और पुलिस का रवैया अभी भी भरोसा जगाने वाला नहीं लगता। जिस बस कंडक्टर को हत्या का जिम्मेदार ठहराया जा रहा है उस पर न तो बच्चे के माता-पिता और न ही उस व्यक्ति के घरवाले यह मानने के लिए तैयार हैं कि हत्या उसी ने की है इसे स्कूल और पुलिस का शड्यंत्र भी माना जा रहा है। घटना बड़ी है और देष को झकझोरने वाली है। जाहिर है इसके समाधान भी सटीक और न्यायोचित होने चाहिए।
दुष्वारियां तो बढ़ रही हैं समस्याएं भी बेलगाम हुई हैं सुरक्षा को लेकर मुख्यतः बच्चों के मामले में कोई समझौता न तो किया जा सकता है, न तो अभिभावक ऐसी कोई गलती करना चाहते हैं बावजूद इसके यह विकराल रूप लिए हुए है। अक्सर यह सुनने को मिलता है कि स्कूल के वाटरटैंक में गिर कर बच्चे की मौत हो गयी, षिक्षक ने होमवर्क नहीं करने पर बच्चे की पिटाई की और वह गम्भीर रूप से घायल हुआ, कभी-कभी मरने की भी खबर आती है। इसके अलावा स्कूल की बस और वैन में यौन षोशण व असुरक्षा का वातावरण साथ ही इनकी दुर्घटना के चलते दर्जनों बच्चे काल के ग्रास में भी चले जाते हैं। यह हैरान करने वाला है कि निजी स्कूल स्तरीय पढ़ाई और षानदार सुविधाओं के लिए भारी-भरकम फीस लेते हैं परन्तु बड़ा सवाल यह है कि जिन बच्चों के माता-पिता के पैसों से वे अपने स्कूल का कायाकल्प करते हैं उन्हीं के नौनिहाल यहां भी असुरक्षित क्यों हैं। इतना ही नहीं अपनी षर्तों पर प्रवेष देने वाले स्कूल जब प्रांगण में कोई ऊँच-नीच होने के बाद उन पर सवाल उठाये जाते हैं तो वे इससे पल्ला झाड़ने में तनिक मात्र भी देरी नहीं करते हैं। फिलहाल रेयान इंटरनेषनल स्कूल की घटना को लेकर सीबीआई जांच की मांग हो रही है। न्याय में क्या निकलेगा यह तो बाद में पता चलेगा पर एक मासूम की हत्या हुई है इस सच से सभी वाकिफ हैं। बच्चों से जुड़े कुछ अन्य पहलू पर नजर गड़ाई जाय तो पता चलता है कि मानसिक और षारीरिक रूप से अविकसित मासूम देष भर से आये दिन गुम होते रहते हैं। बच्चों के इस स्थिति को देखते हुए षीर्श अदालत ने वर्शों पहले सरकार को फटकार लगाई थी और कहा था कि देष में बच्चे गुम हो रहे हैं ऐसे में आपका रवैया सुस्त कैसे हो सकता है। यही फटकार एक बार भारी-भरकम फीस लेने वाले स्कूलों को भी लगाने की जरूरत है। बच्चों का गायब होना केवल देष की कानून व्यवस्था की ही नहीं बल्कि भारत के भविश्य पर भी सवाल खड़े कर रहा है। सवाल है कि व्यापक संख्या में गायब बच्चों का आखिर होता क्या है और यह बच्चे कहां जाते हैं। देह व्यापार, अंगों की तस्करी, बाल मजदूरी, भीग मंगवाना, वैष्यावृत्ति, चोरी और लूटपाट आदि में इनका उपयोग धड़ल्ले से किया जाता है। रिपोर्ट भी यह खुलासा करती है कि 5 से 12 वर्श के बच्चे षोशण और दुव्र्यवहार का सबसे अधिक षिकार होते हैं। आंकड़े तो यह भी है कि प्रत्येक तीन में से 2 बच्चे षारीरिक षोशण का षिकार बनते हैं। यकीनन लापता बच्चों का भविश्य अंधेरे में ही रहता है। मोदी सरकार का एक अच्छा काज यह है कि षिक्षा पर खर्च के लिए ज्यादा बड़ा वित्तीय हिस्सा राज्यों को सौंप दिया है परन्तु सषक्त माॅनिटरिंग के अभाव में उद्देष्य षायद ही पूरे हों। भारत में कानून और व्यवस्था को लेकर चिंता दषकों पुरानी है जबकि सुषासन ढ़ाई दषक पुरानी षब्दावली है। इसका तात्पर्य लोक प्रवर्धित अवधारणा से लगाया जाता है। बार-बार अच्छा षासन भी इसके अर्थ में आता है जिसमें सुरक्षा से लेकर कानून-व्यवस्था का परिप्रेक्ष्य निहित है पर नौनिहालों का गायब होना या हत्या होना सुषासन की अवधारणा को ही धता बताने का काम कर रहा है। क्या सरकार को बच्चों की सुरक्षा को लेकर कोई नायाब तरीका नहीं ढूंढना चाहिए। जिस प्रकार समाज बदल रहा है, षिक्षा बदल रही है और सोच बदल रही है साथ ही अपराध के प्रारूप भी बदल रहे हैं उसे देखते हुए नौनिहालों की सुरक्षा हेतु बेहतर होमवर्क की आवष्यकता नहीं है। समाज और सरकार दोनों को चाहिए कि लापता हो रहे बच्चों को लेकर अतिरिक्त संवेदनषीलता दिखायें और स्कूलों को चाहिए कि अपने कत्र्तव्यों की सूची में हर हाल में बच्चों की सुरक्षा वाले कत्र्तव्य जोड़ लें। जाहिर है बच्चों को अतिरिक्त सुरक्षा और संरक्षा चाहिए अन्यथा असुरक्षा के आभाव में अच्छे दिन की कल्पना भी कोरी रह जायेगी।




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

समतल मार्ग की खोज में भारत

भारत-म्यांमार के सम्बंधों की जड़ें सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और ऐतिहासिक जुड़ाव से जुड़ी है। भूगोल की पड़ताल बताती है कि दोनों देषों की लगभग 1650 किलोमीटर लम्बी साझी भू-सीमा है। पूर्वोत्तर के अरूणाचल, नागालैण्ड, मणिपुर समेत मिजोरम का म्यांमार की सीमा से सम्बंध है। कई पक्षों को ध्यान में रखते हुए भारत और म्यांमार के लिए आपसी सम्बंध बनाये रखना कहीं अधिक महत्वपूर्ण हमेषा से रहा है और आगे भी इसकी आवष्यकता बनी रहेगी। बीते 3 से 5 सितम्बर को चीन के षियामेन में समाप्त हुए ब्रिक्स सम्मेलन के बाद प्रधानमंत्री मोदी का अगला पड़ाव म्यांमार था। 5 से 7 सितम्बर का समय म्यांमार के साथ सम्बंध के अलावा कई बकाया कार्य को पूरा करने में खर्च किया जाना साथ ही दोनों देषों के बीच एक ऐसे समतल मार्ग की तलाष जिससे आगे की राह दुष्वारियों से भरी न रहे। दोनों पड़ोसियों के बीच ऐतिहासिक रिष्तों को और मजबूत करने पर जो चर्चा हुई कमोबेष ऐसा वर्शों से होता आया है पर मोदी षासनकाल में पड़ोसी समेत दुनिया के तमाम देषों के साथ सन्धि, समझौते व कूटनीति फलक पर रहे हैं। इसके पहले भी प्रधानमंत्री मोदी आसियान बैठक के दौरान म्यांमार जा चुके हैं। चीन से म्यांमार पहुंचे मोदी के जेहन में म्यांमार के साथ द्विपक्षीय मुद्दों सहित भारत में रहे 40 हजार रोहिंग्या मुसलमान भी हैं। म्यांमार में सबसे बड़े जातीय समूह बर्मन के लोगों का वहां प्रभुत्व है साथ ही यहां कई अल्वपसंख्यक समूहों का विद्रोह भी चलता रहता है। गौरतलब है कि बर्मा के नाम से जाना जाने वाला म्यांमार में साल 1962 से लेकर 2011 तक सैन्य षासन था।
भारत के लिए म्यांमार दक्षिण पूर्वी एषिया का प्रवेष द्वार है जबकि चीन के लिए एक रणनीतिक एहमियत वाला देष है। ऐसे में म्यांमार के साथ दायरे का और बढ़ना तथा मार्ग का और समतल होना कहीं अधिक जरूरी है। गौरतलब है कि म्यांमार चीन की वन बेल्ट, वन रोड़ परियोजना का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जबकि भारत इस परियोजना के विरोध में है। इतना ही नहीं भारत की लुक ईस्ट व एक्ट ईस्ट नीति के तहत भी म्यांमार कहीं अधिक महत्वपूर्ण देष है। पड़ताल बताती है कि दोनों देषों के बीच कई सकारात्मक तो कुछ नकारात्मक अनुभव रहे हैं। पचास के दषक में भारत एवं म्यांमार के आपसी सम्बंध मधुर थे परन्तु 60 के दषक में इसमें अवरोध आया था ऐसा इसलिए क्योंकि उस समय इसका झुकाव चीन की ओर हुआ था। लेकिन एक सही बात यह भी थी कि चीन से झुकाव के बावजूद अपनी विदेष नीति में म्यांमार ने कभी भी भारत को नजंरअंदाज नहीं किया। गौरतलब है कि म्यांमार की सामरिक स्थिति चीन और भारत के बीच बफर देष जैसी है। 1980 तथा 1990 के दषक में कुछ वर्शों तक म्यांमार के सम्बंध में भारत विदेष नीति का मुख्य जोर वहां लोकतंत्र की बहाली और मानवाधिकारों की सुरक्षा पर रहा। जाहिर है कुछ वर्शों तक भारत यथार्थवादी दृश्टिकोण अपनाते हुए कहा था कि लोकतंत्र की स्थापना म्यांमार का आन्तरिक मामला है और भारत को उसमें कोई भूमिका निभाने की आवष्यकता नहीं है।  म्यांमार के सम्बंध में भारतीय नीति वर्तमान में भारतीय राश्ट्रीय हित के परिप्रेक्ष्य में कहीं अधिक विचारपूर्ण है। वर्श 2011 से वहां लोकतंत्र की बहाली हुई। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो म्यांमार में लोकतंत्र की हरियाली के चलते भारत के साथ सम्बंध ही सुचारू और सकारात्मक बने हुए हैं। इन्हीं के बीच प्रधानमंत्री मोदी तीन दिवसीय दौरा इसे कहीं अधिक पुख्ता बनाने के काम आयेगा।
म्यांमार के रखाइन प्रान्त में रोहिंग्या मुसलमानों के साथ जातिय हिंसा की घटनाओं में तेजी आने के बीच मोदी की इस यात्रा के कुछ और भी मायने हैं। गौरतलब है कि भारत सरकार अपने देष में रोहिंग्या प्रवासी को लेकर भी चिंतित है और सरकार उन्हें स्वदेष वापस भेजने पर विचार कर रही है। 40 हजार रोंहिंग्या का भारत में अवैध रूप से रहना कहीं से वाजिब नहीं है साथ ही जिस तरह इन्हें लेकर म्यांमार में हिंसा बढ़ी है वह कहीं न कहीं नस्लवाद की अवधारणा से प्रेरित प्रतीत होता है। साल 2012 में रखाइन प्रान्त में हिंसा हुई और यह मध्य म्यांमार और माण्डले तक फैल गया। हिंसा के पीछे वजह यौन उत्पीड़न और स्थानीय विवाद मुख्य रहे हैं। छोटे तरीके से उठा यह विवाद साम्प्रदायिक संघर्श का रूप ले लिया है। अनुमान है कि 2012 की बौद्ध और मुसलमानों के बीच हुई हिंसा में 200 रोहिंग्या मुसलमानों की मौत हुई थी और हजारों को दर-बदर होना पड़ा था। तभी से हिंसा और विवाद की लपटें उठ रही हैं। अगस्त 2013, जनवरी 2014 और जून 2014 में हुए साम्प्रदायिक हिंसा से रोहिंग्या पुरूश, महिला, बच्चों के मरने वालों की तादाद बढ़ गयी है। अक्सर यह सवाल उठ खड़ा होता है कि आखिर हिंसा के पीछे कैसे धर्म का लब्बो-लुआब आ जाता है और किस प्रकार इसकी आड़ में सैकड़ों मौतें हो जाती हैं। सैन्य षासन के दौरान म्यांमार में तनाव का लम्बा इतिहास रहा है फलस्वरूप घटनायें भी होती रही हैं। रोहिंग्या के खिलाफ हिंसा को साम्प्रदायिक रूपरंग भी दिया गया है। महत्वपूर्ण यह भी है कि लोकतांत्रिक सरकार के समय में इस प्रकार की घटना का बने रहना लोकतंत्र की कमजोरी को लेकर चिंता बढ़ा देता है। म्यांमार को सामाजिक-आर्थिक विकास की दृश्टि से कहीं अधिक प्रभावित और स्वयं को पोशित करना है ऐसे में साम्प्रदायिक दंगों की चपेट में उसका होना कहीं से उचित नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी ने यात्रा से पहले कहा था कि भारत और म्यांमार सुरक्षा और आतंकवाद निरोध, एवं निवेष, बुनियादी ढांचा एवं ऊर्जा और संस्कृति के क्षेत्रों में सहयोग मजबूत करने पर गौर कर रहे हैं। 
म्यांमार के वास्तविक नेता और लोकतंत्र की प्रणेता आंग सान सू की से रोहिंग्या समस्या समेत कई मसलों का जमीनी हल भी निकालना है। जिस कद के साथ मोदी सरकार ने कूटनीतिक कदम अब तक उठाये हैं उसमें यह इतना कठिन नहीं है। भारत सरकार के लिए अवैध रोहिंग्या मुसलमान चिंता का कारण है पर समाधान षीघ्र होगा इसके आसार कम हैं परन्तु समय के साथ इससे निजात जरूर मिल सकती है। इससे पहले प्रधानमंत्री 2014 में आसियान बैठक में हिस्सा लेने म्यांमार गये थे और एक सकारात्मक वातावरण का निर्माण किया था। भारत-म्यांमार सम्बंधों को कई सम्भावनाओं के साथ भी जोड़ा जाता रहा है। दोनों के बीच व्यापक सैन्य सहयोग की भावना, द्विपक्षीय व्यापार बढ़ाने, प्राकृतिक, आर्थिक सामग्रियों को उपयोग में लाया जाना। खास यह भी है कि उर्जा समृद्ध देष म्यांमार से भारत गैस के मामले में और आगे की बात कर सकता है। इससे भारत की ऊर्जा आवष्यकताएं पूरी हो सकती हैं। जिस सौहर्द्रता की तलाष भारत को है देखा जाय तो उसका तलबगार म्यांमार भी है। आंग सान सू की दिल्ली विष्वविद्यालय की छात्र रह चुकी हैं और भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक दषा को बेहतर तरीके से पहचानती हैं। सम्भव है कि दोनों देषों के बीच कई बुनियादी जुड़ाव भी काम के होंगे। भारत म्यांमार सम्बंधों को दोनों देषों की अपनी सीमाओं पर षान्ति और सौहार्द्रता को बढ़ावा देने, दीर्घकालिक आर्थिक विकास समेत आम नागरिकों के बीच मेल-मिलाप तथा कई अन्य बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए एक साझी राह निकाली जा सकती है। गौरतलब है कि भारत और म्यांमार के बीच सम्बंध कहीं अधिक षान्तिपूर्ण हैं पर समय के साथ पड़ोसी देष के नाते जिस तरह की ऊर्जा सम्बंधों में भरनी है उसकी रिक्तता को ध्यान में रखकर चर्चा-परिचर्चा तथा संवाद होना लाज़मी है। प्रधानमंत्री मोदी की म्यांमार की इस यात्रा से कई नई राह खुलेगी साथ ही खुरदुरी राह समतल भी होगी ऐसी उम्मीद करना गैर आपेक्षित नहीं है। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

खतरा नहीं, अवसर है कितना वाजिब!

चीनी राश्ट्रपति षी जिनपिंग का यह कथन कि चीन और भारत एक दूसरे के लिए खतरा नहीं, अवसर है यह द्विपक्षीय समझ का सकारात्मक इषारा है। गौरतलब है कि एक समय ऐसा भी था कि जब हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा भी गूंजा था जिसका 1962 में भारत पर चीन के आक्रमण के साथ लोप हो गया था। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा उतना व्यावहारिक षायद कभी नहीं रहा जितना कूटनीतिक तौर पर इसे फलक पर उभारने की कोषिष की गयी थी। वास्तुस्थिति यह भी है कि चीन के लिए भारत कभी भी किसी प्रकार का खतरा नहीं रहा जाहिर है चीनी राश्ट्रपति का कथन पहले उन्हीं पर लागू होता है। देखा जाय तो तमाम विवाद खड़ा करने के चलते चीन भारत के लिए आये दिन मुसीबत का सबब बनता रहा है। बावजूद इसके रोचक पहलू यह है कि अरबों का कारोबार भी वह हमारे देष से करता है। गौरतलब है कि वर्तमान में 70 अरब डाॅलर का व्यापार दोनों देषों के बीच हाता है जिसमें अकेले 61 अरब डाॅलर के व्यापार पर चीन का कब्जा है। कहा जाय तो माल चीन का, बाजार भारत का। मुनाफा भी भारत से और आंख भी भारत पर ही तरेरता रहा है। देखा जाय तो भारत के लिए चीन कई प्रारूपों में समस्यायें लाता रहा है। मसलन पाकिस्तान को भारत के खिलाफ भड़काने से लेकर, पाक आतंकियों पर सुरक्षा परिशद् में वीटो का प्रयोग करने तक साथ ही भारत की जमीन पर कब्जा जमाने जैसा कृत्य। हालिया दौर में ही देखें तो 16 जून से 28 अगस्त तक डोकलाम मुद्दे को लेकर चीन ने भारत को पिछले 72 दिनों से मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर करने के लिए सारे हथकण्डे अपनाये जिसमें युद्ध की धमकी समेत कई कृत्य षामिल हैं। जबकि भारत चीन की गीदड़ भपकी से न तो डरा और न ही किसी प्रकार का असंतुलन दिखाया। यह इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि किसी की सम्प्रभुता को चुनौती देना और बेवजह का विवाद खड़ा करने के मामले में चीन ही आगे है और उक्त कथन पर पहले उसे ही अमल करने की अब जरूरत है। 
भारत की कूटनीति का रूप रंग वैष्विक मंचों पर बीते कुछ वर्शों से कहीं अधिक मजबूती लिए हुए है। इसी का नतीजा है कि ब्रिक्स सम्मेलन से पहले चीन के सुर और मिजाज दोनों बदले। नतीजन तनाव व मतभेद के बजाय आगे बढ़ने और एक-दूसरे में अवसर झांकने की बात हो रही है। गौरतलब है कि 3 से 5 सितम्बर के बीच चीन के षियामेन में पांच देष ब्राजील, रूस, भारत और चीन समेत दक्षिण अफ्रीका का एक सम्मेलन हुआ जिसे आमतौर पर ब्रिक्स सम्मेलन की संज्ञा दी जाती है। इस सम्मेलन से ठीक पहले भारत और चीन के बीच डोकलाम को लेकर पनपे तनाव पर विराम लगना कूटनीतिक दृश्टि से चीन पर ही कई सवाल खड़े करता है। हालांकि षान्ति की इस पहल को सराहा जाना ही सही है पर चीन की चाल नाकामयाब हुई है यह भी भारत समेत दुनिया को पता चल गया है। चीन भारत को लेकर अब एक नई राय रखता दिखाई दे रहा है। जिस तर्ज पर जिनपिंग ने भारतीय प्रधानमंत्री मोदी के साथ द्विपक्षीय वार्ता की और दोनों ने संयुक्त आर्थिक समूह, सुरक्षा समूह व रणनीतिक समूह जैसी अन्र्तसरकारी व्यवस्थाओं के अलावा कई मुद्दों पर बात की उससे साफ है कि मतभेद को भुलाकर आगे बढ़ने की इच्छा भारत के साथ चीन में भी तुलनात्मक खूब बढ़ी है। सबके बावजूद देखने वाली बात यह रहेगी कि दोनों देषों के बीच परस्पर विष्वास को बढ़ाने और मजबूत करने को लेकर जो इरादे फिलहाल चीन की ओर से जताये जा रहे हैं वह उस पर कितना खरा उतरता है। चीन के विदेष मंत्रालय की मानें तो जिनपिंग ने मोदी से कहा है, कि चीन षान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के सिद्धान्त ‘पंचषील‘ को बरकरार रखने जैसे अन्य मुद्दों के साथ काम करने का इच्छुक है। चीन के इस मन्तव्य को लेकर भारत को आखिर गुरेज क्यों होगा पर जिस षान्तिपूर्ण सहअस्तित्व को लेकर चीन एक बार फिर सुर देने की कोषिष कर रहा है उसे तार-तार 1962 में करके यह विष्वास पहले भी खो चुका है बावजूद इसके एक पड़ोसी होने के नाते इसको अमल में लाना ही ठीक रहेगा परन्तु इस ध्यान के साथ कि कूटनीतिक लोचषीलता चीन के मामले में आने न पाये।
इस सच के साथ भी तोड-मरोड़ नहीं हो सकती कि चीन डोकलाम की परछाई को ब्रिक्स पर पड़ने नहीं देना चाहता था। इसके पीछे बड़ी वजह भारत की मजबूत कूटनीति भी कह सकते हैं। असल में चीन इन दिनों चैतरफा घिरा हुआ था कुछ हद तक अभी भी। अमेरिका और जापान की तरफ से आये बयान, उत्तर कोरिया को लेकर अमेरिका की धमकी तथा भारत के साथ 70 अरब डाॅलर का वर्तमान में किया जा रहा व्यापार भी काफी कुछ सोचने के लिए उसे मजबूर किया है। वैसे वैष्विक फलक पर चीन की दादागिरी को लेकर लगभग सभी देषों को यह पता चलने लगा है कि उसकी नीति भारत को जानबूझकर नुकसान पहुंचाने वाली रहती है। इज़राइल के साथ भारत का प्रगाढ़ होता सम्बंध भी चीन को कहीं-न-कहीं खूब खटका है। पेरिस में डोकलाम विवाद के दौरान भी मोदी और जिनपिंग की मुलाकात ब्रिक्स से पहले भी हो चुकी है पर वहां कोई ऐसी सकारात्मक बातचीत के आसार नहीं बने थे। मोदी जिनपिंग की बीते 5 सितम्बर को ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान हुई द्विपक्षीय वार्ता में मतभेद को छोड़ आगे बढ़ने का चिंतन समाहित है। एक घण्टे की मुलाकात फिलहाल सफल कही जायेगी। प्रधानमंत्री मोदी का ब्रिक्स के जरिये यह कहना कि बेहतर दुनिया बनाये यह हमारी जिम्मेदारी है। सबका साथ, सबका विकास जरूरी है कहीं न कहीं भारत की उदारता और आगे बढ़ने की भावना का परिलक्षण निहित है। यह प्रसंग भी बड़ा उम्दा है कि जिस देष से युद्ध जैसे आसार बन रहे हों उसी देष में द्विपक्षीय वार्ता से षान्ति की पहल हो और मतभेद छोड़ आगे बढ़ने की बात की जाय साथ ही खतरे की भावना से मुक्त होकर अवसर के सुर में सुर मिलाया जाय यह अपने आप में एक अनोखा विस्तार है। अक्सर कहा जाता है कि मामले कूटनीति से अपनाये जायें बेषक भारत चीन के बीच जो हुआ वह कुछ और नहीं एक मजबूत कूटनीति ही तो है। 
खास यह भी है कि ब्रिक्स के मंच से चीन समेत सभी सदस्य देष पाकिस्तान के आतंक पर जो संयुक्त पक्ष रखा वह भी भारत की दृश्टि से इसलिए ठीक है क्योंकि चीन में पाक के खिलाफ या उसके आतंकियों के खिलाफ कुछ भी हासिल कर पाना नामुमकिन जैसा है जो इस बार ऐसा नहीं रहा। चीन से हमारे कई विवाद हैं। सरहदी इलाकों में पनपी समस्या यदि समाधान को किसी तरह प्राप्त कर ले तो यह दोनों की दोस्ती में मील का पत्थर सिद्ध होगा पर रूस की तरह चीन हमारा नैसर्गिक मित्र नहीं है। यही कारण है कि भारत पड़ोसी हो सकता है पर टूट कर चीन दोस्ती करे ऐसा षायद नहीं हो सकता। यदि इसमें भी चीन ने चालबाजी दिखाई तो अवसर के बजाय खतरे बढ़ेंगे पर संतुलन बरकरार रहता है तो आर, पार और व्यापार समेत कई कृत्य आसान बने रहेंगे। निहित भाव यह भी है कि भारत और चीन एक बार फिर षान्ति को अपनाने और मतभेद को छोड़ने को लेकर आगे बढ़ चले हैं पर इरादों की परख अभी होना बाकी है मुख्यतः यह बात चीन पर लागू होती है क्योंकि लद्दाख की सीमा से लेकर अरूणाचल की सीमा तक षान्ति भंग करने में चीन ने कभी कोई अवसर नहीं गंवाया है। फिलहाल अब उसे तय करना है कि भारत के लिए वह खतरा है या भारत उसके लिए एक अवसर है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Monday, September 4, 2017

छोटे देश का बड़ा दुस्साहस

अमेरिकी राष्ट्रपति  डोनाल्ड ट्रंप के तमाम नसीहत और धमकी के बावजूद उत्तर कोरिया ने वो कर दिखाया जिसकी उम्मीद दुनिया के किसी देश को नहीं रही होगी। गौरतलब है कि अमेरिका, जापान और चीन समेत पूरी दुनिया की हिदायतों को दरकिनार करते हुए उत्तर कोरिया ने रविवार को छठा परमाणु परीक्षण कर दिया। इस बार उसने हाइड्रोजन बम का परीक्षण किया है जो परमाणु बम की तुलना में सैकड़ों गुना अधिक ताकतवर होता है। उत्तर कोरिया के इस दुस्साहस के चलते वैष्विक फलक पर यह चर्चा अब आम है कि आखिर ऐसी मनमानी का क्या उपचार हो। वैसे देखा जाय तो निडर उत्तर कोरिया ने पहले ही कई बार दुस्साहस का परिचय देते हुए दुनिया के माथे पर बल ला चुका है। संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् की बंदिषें कई बार इस पर थोपी गई बावजूद इसके यहां के तानाषाह किम जोंग को काबू करना तो छोड़िए इसके दुस्साहस का कोई तोड़ नहीं ढूंढ़ा जा सका। वैष्विक कूटनीति और संसार के रक्षा मामलों को गम्भीर वर्णन की ओर मोड़ा जाय तो मामला अब प्रतिबंधों तक ही सीमित न होकर वैष्विक समुदाय से उत्तर कोरिया को अलग-थलग करना ही एक मात्र रास्ता दिखाई देता है। हालांकि यह भी षायद स्थायी हल नहीं है क्योंकि इससे दुनिया का खौफ खत्म होता नहीं दिखाई देता। कहा जाय तो जब तक यहां के तानाषाह किम जोंग को सबक नहीं सिखाया जायेगा तब तक वह दुनिया की चिंता को समझ नहीं पायेगा। गौर करने वाली बात यह भी है कि इन दिनों अमेरिका और उत्तर कोरिया के बीच युद्ध जैसी स्थिति बनी हुई है। बावजूद इसके उत्तर कोरिया के परमाणु परीक्षण से यह साफ है कि फिलहाल उसे किसी धमकी का असर बिल्कुल नहीं है। इतना ही नहीं अभी चंद दिनों पहले ही उसके द्वारा दागी गयी एक मिसाइल जापान के ऊपर से गुजरी थी जिसे लेकर चर्चा अभी षांत नहीं हुई थी कि एक और परीक्षण करके उसने दुनिया को फिलहाल थर्रा दिया है। हाइड्रोजन बम के परीक्षण के दौरान चीन, जापान, दक्षिण कोरिया व रूस समेत कई देषों मंे 6.3 रिएक्टर पैमाने पर भूकम्प दर्ज किया गया। गौरतलब है कि चीन में बीते 3 सितम्बर से ही ब्रिक्स देषों की बैठक आरंभ हुई और प्रधानमंत्री मोदी भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। जाहिर है उत्तर कोरिया के इस कृत्य का प्रभाव ब्रिक्स की बैठक पर भी पड़ेगा। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह भी है कि यह बम 9 अगस्त 1945 को नागासाकी पर गिरे बम से पांच गुना ज्यादा षक्तिषाली तो है ही इसके अलावा इसे मिसाइल से भी दागना पूरी तरह सम्भव है। 
क्या उत्तर कोरिया का परमाणु हथियार आखिरी लक्ष्य है। किम जोंग के 2011 में सत्ता में आने के बाद से उसका पूरा ध्यान सैन्य आधुनिकीकरण पर है। फलस्वरूप तभी से परमाणु हथियार को लेकर मनमानी भी अधिक हुई है। वैसे उत्तर कोरिया में परमाणु आकांक्षा 1960 के दषक से ही देखी जा सकती है। यह चाहत न केवल अमेरिका, जापान और दक्षिण कोरिया के खिलाफ है बल्कि वह ऐतिहासिक साझेदार चीन और रूस पर निर्भरता से भी मुक्त होने के चलते है। तो क्या यह मान लिया जाय कि उत्तर कोरिया का तानाषाह किम जोंग तमाम प्रतिबंधों और धमकियों के बावजूद विध्वंसक मनमानी करता रहेगा। क्या उत्तर कोरिया का कोई इलाज है? जिस तर्ज पर अमेरिका ने उत्तर कोरिया को धमकाया और सबक सिखाने की बात कही क्या उसका असर उस पर हुआ। परीक्षण इस बात के सबूत हैं कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उत्तर कोरियाई मिसाइलों की रेंज पर एक दृश्टि डाली जाय तो साफ है कि चीन के बीजिंग से लेकर जापान के टोकियो समेत सिंगापुर, सिडनी, सैनफ्रांसिस्को और 10 हजार किलोमीटर हवाई तक इसकी पहुंच है। बीते 3 सितम्बर के परमाणु परीक्षण को जोड़ कर अब तक 6 परमाणु परीक्षण करने वाला उत्तर कोरिया विध्वंस की मानो भट्टी पर बैठा है। जब 9 अक्टूबर 2006 को इसने पहला भूमिगत परमाणु परीक्षण किया था तब दुनिया के तमाम देषों की चिंता बढ़ा दी थी। इस दौरान 4.3 तीव्रता का भूकम्प दर्ज किया गया था। बामुष्किल तीन साल भी नहीं बीते थे तभी उसने मई 2009 में एक बार फिर परमाणु परीक्षण करके दुनिया में अपने खौफ के प्रति सघनता बढ़ा दी। सिलसिला यहीं नहीं रूका फरवरी 2013 में एक बार फिर परमाणु परीक्षण उत्तर कोरिया ने किया। हद तब हो गयी जब वर्श 2016 में 6 जनवरी और 9 सितम्बर को उसने परमाणु परीक्षण करके सारी सीमायें लांघ दी। हालांकि इस दौरान संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् ने इस पर प्रतिबंध भी लगाये पर उत्तर कोरिया का तानाषाह किम जोंग अपनी सनकपन से कभी पीछे नहीं हटा। देखा जाय तो वर्श 2006 से 2017 के बीच आधा दर्जन बार परमाणु परीक्षण और बैलिस्टिक मिसाइल का परीक्षण करके उत्तर कोरिया दुनिया के लिए न केवल चुनौती खड़ा किया है बल्कि दुनिया की रत्ती भर भी चिंता नहीं करता इसे भी बार-बार दिखाया है। 
क्षेत्रफल और जनसंख्या की दृश्टि से विष्व के कई छोटे देषों में षुमार उत्तर कोरिया वैष्विक नियमों को दरकिनार करते हुए अपने निजी एजेण्डे को तवज्जो दे रहा है। इसकी प्राथमिकता है कि वह मिसाइल और परमाणु परीक्षण जारी रखे ताकि युद्ध की स्थिति में उसके पास पर्याप्त प्रतिरोधक क्षमता हो। उत्तर कोरिया अक्सर लीबिया और इराक जैसे देषों का उदाहरण देता है और उसका मानना है कि यदि वे क्षमताषील होते तो उनका हश्र ऐसा न होता। वह लगातार अमेरिका की निंदा भी करता रहा है। उसके मुताबिक अमेरिका किम जोंग की सरकार का सिर कलम करने की कोषिष कर रहा है। दो टूक यह भी है कि अमेरिका, रूस, ब्रिटेन समेत चीन और फ्रांस हाइड्रोजन बम की फहरिस्त में पहले से षामिल है तो क्या अब उत्तर कोरिया भी इसमें षुमार हो गया है। विष्लेशकों का मानना है कि यह सम्भव है कि उत्तर कोरिया परमाणु हथियारों के दम पर दक्षिण कोरिया की अर्थव्यवस्था और जनसंख्या को चुनौती दे साथ ही अमेरिका के गले की हड्डी भी बने। गौरतलब है कि अमेरिका और उत्तर कोरिया कहीं न कहीं युद्ध के मुहाने पर भी खड़े हैं पर असल चिंता यह है कि जिस सीटीबीटी और एनपीटी सहित कई कार्यक्रमों के सहारे परमाणु हथियारों की रोकथाम के लिए बीते पांच दषकों से तमाम कोषिषें की जा रही हैं आखिर उसका क्या होगा। परमाणु बम की होड़ में दुनिया को खड़ा करके उत्तर कोरिया बड़े अपराध को न्यौता फिलहाल बरसों से देने में लगा है। सभ्य दुनिया का चेहरा ऐसा तो नहीं होता जैसा वहां के तानाषाह किम जोंग का है और सहने की सीमा भी इतनी नहीं होती जैसे कि षेश दुनिया इन दिनों तमाषबीन बनी हुई है। उत्तर कोरिया के अब इस दुस्साहस के बाद रूस ने षान्त रहने का आग्रह किया। भारत ने भी षान्ति की अपील की, अमेरिका और जापान ने लगाम लगाना जरूरी बताया साथ ही उत्तर कोरिया को षह देने वाला चीन भी इस पर एतराज जताया है पर सवाल इस बात का है कि बात तो इससे आगे निकल चुकी है। जो दुनिया परमाणु हथियारों का समाप्त करने की मनसूबा रखती है उसी में से एक अदना सा देष अगर इसकी होड़ विकसित करे तो क्या रास्ता अपनाया जाय। इस पर अभी कुछ भी स्पश्ट नहीं है। यह बात अक्सर कही जाती रही है कि मामले कूटनीति से निपटाये जायेंगे पर उत्तर कोरिया षायद इसकी परिभाशा और व्याख्या से भी अछूता है। फिलहाल दुनिया के मानचित्र में छोटा दिखने वाला उत्तर कोरिया बड़ा दुस्साहस दिखाकर सभी को एक बार फिर बेचैन कर दिया है। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

कश्मीर नीति के आईने में पाक की सूरत

आतंक के विरूद्ध जहां भारत दुनिया में सबसे बुलंद आवाज के लिए जाना जाता है वहीं इसके पैरोकार के रूप में पाकिस्तान का नाम अव्वल नम्बर पर है। आतंक के मुद्दे पर अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की विगत् दिनों जो फटकार पाकिस्तान को मिली उससे भी साफ है कि अब झूठ के खेल से बहुत दिनों तक पाकिस्तान दुनिया को धोखा नहीं दे सकता। गौरतलब है कि विगत् दिनों अमेरिका की दक्षिण एषिया सम्बंधी नीति घोशित करते हुए डोनाल्ड ट्रंप आतंकियों के पनाहगार पाकिस्तान को खूब खरी-खोटी सुनाई थी जबकि अफगान नीति को लेकर उन्होंनंे भारत से सहायता की अपेक्षा रखी। कष्मीर की आड़ में आतंक का गोरखधंधा करने वाला पाकिस्तान अब चैतरफा घिरा हुआ है और बौखलाया भी है। पाकिस्तान की कष्मीर नीति फेल हो चुकी है। यह बात भारत की ओर से नहीं बल्कि भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त रह चुके अब्दुल बासित ने कही है। बासित ने पाकिस्तान को इस बात के लिए भी आगाह कर दिया है कि उसे कष्मीर नीति पर पुर्नविचार करना चाहिए। पाकिस्तान की आतंकी कालगुजारियों के बावजूद जोर-जोर से कष्मीर के नाम पर ढोल पीटने वाले अब्दुल बासित आखिर अपने देष के हुक्मरानों को नीति बदलने का सुझाव क्यों दे रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि अमेरिका में 9/11 के हमले के बाद आतंकवाद को लेकर जो चित्र दुनिया में उभरा और भारत ने जिस प्रकार षेश दुनिया को यह समझाने में सफल रहा कि कष्मीर में आजादी की लड़ाई नहीं बल्कि आतंक का घिनौना खेल चल रहा है। उक्त संदर्भ से अब्दुल बासित भी इत्तेफाक रखते हैं। बासित के इस दृश्टिकोण का कि पाकिस्तान अन्तर्राश्ट्रीय मंचों पर केवल कष्मीर का राग अलापता रहा। इससे भी साफ है कि पाक की कष्मीर नीति आतंक की आड़ लिए हुए थी जबकि भारत इसे बेपर्दा करने में सफल रहा। यदि इस बात की सच्चाई को और बारीकी से पड़ताल की जाय तो यह भी उजागर होता है कि भारत पाकिस्तान की उस कष्मीर नीति से दुनिया का परिचय कराना चाहता था जहां आतंक के बेहिसाब अड्डे हैं। कमोबेष दुनिया के कई देष इसे समझते तो थे पर खुलकर मानने के लिए तैयार नहीं थे परन्तु जिस प्रकार डोनाल्ड ट्रंप ने आतंक के मामले में पाकिस्तान को आड़े हाथ लिया है उससे उसकी कलई फिलहाल खुल गई है। 
पाकिस्तान को अल्लाह ही बचा सकता है अब्दुल बासित का यह बयान भी पाकिस्तान के अंदर बड़े उथल-पुथल का संकेत दे रहा है। देखा जाय तो बीते कई दषकों से पाकिस्तान ने आतंकियों पर भरोसा जता कर बड़ा अपराध किया है। सरकारें बदलीं, सत्ता का ओर-छोर बदला साथ ही परवेज़ मुर्षरफ जैसे तानाषाह भी आये पर सभी भारत को चोट पहुंचाने के मंसूबे से ही भरे रहे। जिस तर्ज पर पाक ने आतंक को पाला-पोसा और इसे लेकर दुनिया से जो झूठ बोला साथ ही जो अनगिनत वादा खिलाफी की है उसे देखते हुए भी यह तय था कि हश्र तो एक दिन बुरा ही होगा। इतना ही नहीं भारत जैसे देष में आतंकियों को हिंसा फैलाने के लिए उकसाकर जो अपराध पाकिस्तान ने किये हैं और जिस तरह भारत ने उसे अलग-थलग करने के लिए मुहिम छेड़ी है उससे भी साफ था कि एक दिन ऊंट पहाड़ के नीचे आयेगा। हद तब हो गयी जब आतंकियों की पैरोकारी करते-करते पाकिस्तान यह भूल गया कि जब यह तिलिस्म टूटेगा तब कौन सा मुंह लेकर दुनिया का सामना वह करेगा। अमेरिका की ओर से लगातार दी जा रही धमकी भरी चेतावनी और भारत द्वारा आतंक के विरोध में निरंतर बढ़ाई जा रही दुनिया भर में इसके प्रति चेतना भी उसकी मुसीबत का सबब है। पाकिस्तान अपनी करतूतों के चलते दुनिया की नजरों में कमोबेष आतंकी देष हो गया है और इसी दुनिया के अन्तर्राश्ट्रीय मंचों पर इस परछाई से मुक्त न होने के कारण गम्भीर देषों की सूची से भी मानो बेदखल की ओर है। षायद इसी के चलते अब्दुल बासित ने पाकिस्तान को चेताया है कि अब उसे कष्मीर पर रोना-धोना छोड़कर सक्रिय कूटनीति का सहारा लेना चाहिए। गौरतलब है कि कष्मीर राग की आड़ में ही दषकों से पाकिस्तान दहषत की रोटियां सेकता रहा है। हालांकि यहां स्पश्ट कर दें कि पाकिस्तान के गलत नीतियों की पैरोकारी करने में अब्दुल बासित जैसे लोगों का भी योगदान है। गौरतलब है जिस कूबत के साथ सत्ता में समझ होनी चाहिए और जिस तरह सत्ता के साथ संलग्न इकाईयों को अपनी भूमिका निभानी चाहिए उसमें पाक के भारत में उच्चायुक्त रहे बासित भी आते हैं परन्तु जब-जब भारत आतंक को लेकर पाकिस्तान से उम्मीदें की तब-तब उसे आईना दिखाने में ये भी पीछे नहीं रहे। दो टूक यह भी है कि अभी भी पाकिस्तान को कष्मीर नीति पर पुर्नविचार की बात तो बासित कर रहे हैं परन्तु इस्लामाबाद को इस बात के लिए आगाह नहीं कर रहे हैं कि देष से आतंक का खात्मा करें। 
जितनी पुरानी भारत की आजादी है, उतनी ही पाकिस्तान की है। जितना पुराना भारत का लोकतंत्र, उतना ही पुराना पाकिस्तान का भी लोकतंत्र है और कष्मीर का विवाद भी उतना ही पुराना है पर अन्तर इस बात का है कि भारत संयमित, संतुलित तथा संदर्भित देषों की पराकाश्ठा है जबकि पाकिस्तान नकारात्मक विचारों से भरा कष्मीर राग अलापने वाला, लोक कल्याण को हाषिये पर रखने वाला तथा लोकतंत्र के मामले में नकारा देष है। मानचित्र को देखें तो पाक अधिकृत कष्मीर का क्षेत्र हरे रंग में दिखता है पर वहां की जमीन आतंकियों के दहषत से खौफजदा और हिंसा से लहुलुहान है। गहरा भूरा क्षेत्र भारतीय कष्मीर और अक्साई चीन जो कभी भारत का हिस्सा था वहां चीन का अधिकार है। ये वही चीन है जो बीते 16 जून से 28 अगस्त तक डोकलाम पर कुंडली मारे बैठा था पर कूटनीतिक दांवपेंच के चलते बीते 28 अगस्त को समस्या फिलहाल टल गयी है। भारत-पाकिस्तान के बीच कष्मीर का मसला कहीं अधिक विवादित है। पाक अधिकृत कष्मीर जिसे संक्षिप्त षब्दों में पीओके कहते हैं और जिस पर संयुक्त राश्ट्र सहित अधिकांष संस्थायें भी भारत के इसी नाम के साथ सहमति जताती हैं। पीओके में बेरोजगारी, षिक्षा, स्वास्थ समेत अनेकों बुनियादी कठिनाईयां हैं। यहां के बाषिन्दे पाकिस्तान से इस क्षेत्र में मुक्ति चाहते हैं दूसरे षब्दों में पाकिस्तान की बर्बरता से आजादी। वैसे देखा जाय तो पीओके को लेकर पाकिस्तान ने कभी विकास का बड़ा मन नहीं दिखाया। लोक कल्याण को यहां पनपने नहीं दिया। कहा जाय तो पीओके में व्याप्त दर्जनों समस्याएं जो आज भी हैं पाक के सत्ताधारकों ने उसे हल करने के बजाय आतंकियों की पाठषाला खोलने पर ही पूरा ध्यान दिया। पीओके एक ऐसी धरती है जो पाकिस्तान का जुल्म सह रही है। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि कष्मीर घाटी भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दषकों से पाक के जुर्म से मुक्त नहीं हो पायी है जब भारत के अंदर का कष्मीर पाक के आतंकी जुल्मों से मुक्त नहीं हो पा रहा है तो जरा सोचिये पीओके किस कठिनाई से गुजर रहा होगा।
अन्ततः यह कि पाकिस्तान की यह सोच थी कि कष्मीर नीति पर अडिग रहो और इसकी आड़ में आतंक का खेल खेलते रहो साथ ही दुनिया को यह जताते रहो कि वहां आजादी की लड़ाई चल रही है जबकि कहानी इससे उलट है। भारत पाक प्रायोजित आतंक को लेकर दषकों से मुसीबत झेलता रहा और दुनिया को यह समझाने में सफल रहा कि पाकिस्तान आतंकियों का षरणगाह है नतीजन अमेरिका समेत कई बड़े देष अब भारत के इस रूख के साथ हैं। सम्भव है पाकिस्तान अब घिरा हुआ महसूस कर रहा है साथ ही आर्थिक नुकसान की ओर भी है। ऐसे में कष्मीर पर राग अलापने के सुर में परिवर्तन वाली बात लाज़मी प्रतीत होती है पर इतने मात्र से बात नहीं बनेगी जब तक कि पाकिस्तान की जमीन से आतंक का पूरी तरह सफाया नहीं होता। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

चमत्कारिक सत्ता का समाजशास्त्र

जब बीते 25 अगस्त को हरियाणा के पंचकुला की सीबीआई कोर्ट ने डेरा सच्चा सौदा के गुरमीत राम रहीम को दुश्कर्म के चलते आरोपी करार दिया था तब एक बार फिर यह साफ हो गया कि चमत्कार का दावा करने वाले बाबाओं का समाजषास्त्र कितना स्याह है। समाजकार्य के अन्तर्गत यदि इसे देखें तो यह सीधे तौर पर सफेदपोष अपराध की संज्ञा में आता है। जिस सिलसिलेवार तरीके से बीते कुछ वर्शों से आसाराम बापू, हरियाणा के ही रामपाल तथा स्वामी भीमानंद समेत कई बाबाओं का कच्चा चिट्ठा सामने आया उससे चिंता बढ़ी है। फिलहाल गुरमीत राम रहीम को सीबीआई कोर्ट ने 28 अगस्त के अपने निर्णय में 10 वर्श की सजा सुना दी है। इस आलोक में एक बार फिर यह सुनिष्चित होता है कि देष में विधि का षासन है और संविधान के अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत सभी को कानून के समक्ष बराबर का दर्जा मिला हुआ है। यह भी स्पश्ट होता है धार्मिक-सामाजिक कार्यों की आड़ में यदि गलत कृत्य होंगे तो वह भारतीय दण्ड संहिता के निषाने पर होगा। सोमवार को सजा से जुड़े निर्णय के बाद हिंसक घटनायें एक बार फिर कुछ मात्रा में सामने आई। गौरतलब है कि 25 अगस्त के निर्णय के बाद हरियाणा में जो हुआ वह कानून-व्यवस्था को लहुलुहान करने वाला था। कुछ ही घण्टों में जहां-तहां सैकड़ों गाड़ियां धूं-धूं कर जलने लगी, सरकारी सम्पत्तियां आग के हवाले कर दी गईं और पूरे घटनाक्रम में 32 की जान गई। पंचकुला समेत हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेष एवं अन्य प्रांतों के कई हिस्सों में कानून व्यवस्था कुछ घण्टों के लिए बेबस भी हुई। इससे भी साफ होता है कि राम रहीम का बीते ढ़ाई दषकों में कितना प्रभाव बढ़ चुका था। घटना को लेकर हरियाणा की खट्टर सरकार पर चैतरफा सवाल उठे। एक बार तो ऐसा लगा कि इस बार खट्टर सरकार का बच पाना मुष्किल है पर ऐसा नहीं हुआ। आखिरकार उन्हें जीवनदान मिला जबकि उच्च न्यायालय ने भी घटना को लेकर हरियाणा सरकार को कटघरे में खड़ा किया था। ऐसा क्यों किया गया इस सवाल पर भी चिंतन थोड़ा गाढ़ा तो होना ही चाहिए। आखिरकार बार-बार असफल रहने वाली खट्टर सरकार के खिलाफ केन्द्र ने कड़ा रूख क्यों नहीं अपनाया जबकि जाठ आंदोलन समेत यहां प्रतिवर्श की दर से जान-माल को नुकसान पहुंचाने वाली घटनाएं लगातार हो रही हैं। जहां तक समझ जाती है लगता है कि इसके पीछे एक बड़ा कारण यह भी है कि मोदी सरकार हरियाणा की खट्टर सरकार को बेदखल करके यह आरोप पुख्ता नहीं होने देना चाहती कि वाकई में सरकार कानून-व्यवस्था को बचाये रखने में असफल रही है। बल्कि इसकी जगह पर दलील यह है कि कुछ घण्टों के भीतर ही इस पर काबू पा लिया गया।
फिलहाल ये तय हो चुका है कि राम रहीम दस वर्श तक जेल में सजा भुगतेंगे। यह कम बड़ी बात नहीं है कि वे दो लड़कियां जो समाज में सामान्य से ऊपर नहीं थी उनकी बदौलत षासन, सत्ता और राजनीति का सिरा मोड़ देने वाले बाबा को सजा मिली। उन पत्रकारों को भी सम्मान मिलना चाहिए जिन्होंने बाबा के रसूख के आगे हथियार नहीं डाले बल्कि अपनी जान गंवा दी। साथ ही सीबीआई कोर्ट के उन अधिवक्ताओं एवं न्यायाधीष को भी नहीं भूलना चाहिए जिन्होंने न्याय के लिए आम और खास में कोई फर्क नहीं किया। जब इस तरीके के संदर्भ कई कानूनी और सामाजिक पेंचीदगियों के बाद और वर्शों खर्च करने के पष्चात् निर्णय का रूप लेते हैं तब न्यायपालिका पर भरोसा पहले की तुलना में स्वयं अपने आप बढ़ जाता है। धार्मिक एवं सामाजिक क्रियाओं के अन्तर्गत गुरमीत राम रहीम ढ़ाई दषक से अधिक लम्बे वक्त के चलते एक मजबूत पूंजीवाद की ओर भी अग्रसर हुआ पर सकारात्मक भूमिका का निर्वहन न करने के चलते आज सलाखों के पीछे है। धर्मषास्त्र की अपनी एक स्पश्ट धारा है और समाजषास्त्र की भी निहित एक विचारधारा है जाहिर है इसके उल्लंघन से कोई भी मकड़जाल में फंस सकता है। गुरमीत राम रहीम समेत दर्जनों बाबा इसके पुख्ता उदाहरण हैं। धर्म ने मनुश्य को मनुश्य बनाने में कहीं अधिक भूमिका अदा की है परन्तु इसी की आड़ में चमत्कारिक सत्ता हथियाने वाले बाबा ये भूल जाते हैं कि धर्म का अनुपालन भी उन्हीं की नैतिकता में षुमार था। यहां धर्म का तात्पर्य कत्र्तव्य से है न कि हिन्दू , मुस्लिम, सिक्ख, ईसाइ से है।
ऐसा भी देखा गया है कि समय के साथ जब आर्थिक ताकत बढ़ती है और विकार को गैर अनुषासित होने का मौका दे दिया जाता है तब ऐसे संगठनों के लिए कई चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं। आसाराम बापू से लेकर गुरमीत राम रहीम तक दर्जनों ऐसे बाबा मिल जायेंगे जिन्होंने अपने करिष्माई सत्ता के प्रभाव में कुछ भी करेंगे उन्हें चुनौती नहीं मिलेगी का भ्रम हमेषा पाले रहे जिसका नतीजे में जेल की सलाखें आईं। मैक्स वेबर ने भी नौकरषाही के अन्तर्गत तीन सत्ताओं की बात की है जिसमें पारम्परिक, कानूनी और करिष्माई सत्ता षामिल है। करोड़ों अनुयायी से परिपूर्ण राम रहीम का नेटवर्क जिस तर्ज पर फैला था उसे करिष्माई में परखा जा सकता है। वैसे राश्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के उन दिनों में करिष्माई नेतृत्व के लिए जाना जाता था और इससे जुड़े अनुषासन का अनुपालन उन्होंने ताउम्र किया। जितना बड़ा करिष्मा उतना बड़ा नैतिक बोध से अभिभूत होने के बजाय दुश्कर्म और अपराध से युक्त राम रहीम जैसे बाबाओं का जब असली चेहरा सामने आता है तब न तो करिष्मा रह जाता है न रसूख बचता है, ऐसे में अनुयायी समेत पूरी व्यवस्था बड़े सदमे से गुजरती है। 
डेरा सच्चा सौदा जैसे आश्रमों की दो दुनिया है एक दुनिया वो है जो लोगों को नज़र आती है, जो लोगों के लिए है जिसमें उनकी भलाई के लिए कार्यक्रम चलते हैं जिसमें रहने, ठहरने और खाने का पूरा पुख्ता इंतजाम होता है। धर्मषालायें भी होती हैं और अस्पताल भी होते हैं इतना ही नहीं जीवन के हर कठिन मोड़ को सरल बनाने वाले उपाय भी उपलब्ध होते हैं। गरीब से गरीब व्यक्ति भी यहां लोक कल्याण और बुनियादी विकास से स्वयं को जुड़ा हुआ पाता है। ऐसी दुनिया में अनुयायियों की संख्या बेहिसाब बढ़ती है पर बाबा राम रहीम की एक दूसरी दुनिया भी है जिसे न तो अनुयायी जानते हैं और न ही आश्रम के बाहर के लोग ही इसे जानते हैं। गुरमीत राम रहीम जैसे बाबा जब आम लोगों के बीच होते हैं तो भगवान होते हैं उनके सुख-दुःख के साझीदार होते हैं। गौरतलब है कि बाबा राम रहीम ने जो दुनिया बसाई उसमें हर चीज़ मौजूद है षायद जिसके बारे में सोचा न जा सके वो भी परन्तु आंखों को चकाचैंध कर देने वाली और लोक कल्याण के गौरव गाथा से युक्त आश्रम के बीच गुफा क्यों होती है और उस गुफा में कैसे तीसरी और चैथी दुनिया पनपाई गयी होती है इसकी भनक तो उन्हें ही होती है जो भुग्तभोगी होते हैं। साफ है गुरमीत राम रहीम ने धार्मिक कामकाज की आड़ में सामाजिक ताने-बाने को तार-तार किया है। न केवल स्त्रियों का षोशण किया बल्कि रिष्तों की आड़ में मर्यादाओं को भी स्याह किया है। इतना ही नहीं गुरमीत राम रहीम जैसे लोग ही हैं जिनकी वजह से अनुषासित और मर्यादित साधु व संत समाज आज कटघरे में है। सजा तो उस जुर्म की मिली है जो गुरमीत राम रहीम ने किया है परन्तु चमत्कारिक और संत होने की आड़ में जो भरोसा समाज ने किया और जो चोट समाजषास्त्र को पहुंची उसकी भरपाई कौन करेगा?

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन  
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

नई करवट लेती तमिलनाडु की राजनीति

भारतीय राजनीति में उत्तर के बाद दक्षिण का बड़ा महत्व है जिसमें तमिलनाडु की अपनी अलग महत्ता रखता है। जहां इन दिनों राजनीति नई करवट ले रही है। तमिलनाडु की सियासत मौजूदा समय में जिस रूप-रंग को धारण कर रही है इसकी आहट पहले से ही थी। जिस तर्ज पर सियासी बटवारे यहां की जमीन पर हुए उससे भी यह लगता था कि समय के साथ मोलतोल और सौदेबाजी के चलते यहां की राजनीति नई राह ले लेगी। बामुष्किल छः महीने बीते होंगे कि सब कुछ आईने की तरह साफ हो गया और अब गुटों में बंटे नेता एक साथ हैं पर सरकार खतरे में है। असल में 25 विधायकों समेत टीटीवी दिनाकरन गुट के बगावत से सरकार पर संकट बढ़ गया है। देखा जाय तो सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक के ई. पलानीस्वामी और तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री रहे पन्नीरसेल्वम के गुटों का आपसी विलय कोई एकाएक परिणाम नहीं है बल्कि इसके पीछे महीनों की राजनीति है। इतना ही नहीं दोनों धड़ों के नेताओं ने बीते सप्ताह प्रधानमंत्री मोदी से अलग-अलग मुलाकात भी की थी। वैसे एक सच यह भी है कि जयललिता के निधन के बाद भाजपा की नजर अन्नाद्रमुक पर थी साथ ही भाजपा उन दिनों पन्नीरसेल्वम को मुख्यमंत्री बनाये रखने के पक्ष में भी थी। जयललिता की बहुत करीबी वी.के. षषिकला और दिनाकरन गुट से तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पलानीस्वामी की बढ़ती दूरियों ने यह साफ कर दिया था कि पन्नीरसेल्वम का गुट कभी भी उनके साथ हो सकता है। गौरतलब है कि अन्नाद्रमुक के अन्दर जो धड़े बने उनमें कोई बड़ा वैचारिक विभाजन नहीं था बल्कि जे. जयललिता के विरासत पर कब्जे को लेकर उनके नज़दीकियों के बीच के लोगों का आपसी झगड़ा था। जब तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता का पिछले वर्श दिसम्बर में स्वर्गवास हुआ तब तमिलनाडु की सियासत हिचकोले लेने लगी थी। बामुष्किल महीने भर बीते थे कि उनकी खास सहयोगी वी.के. षषिकला सत्ता पर काबिज होने वाले मनसूबे के चलते तत्कालीन मुख्यमंत्री पन्नीरसेल्वम को गद्दी छोड़ने का खुले मन से आदेष दे दिया। यही सियासत के वैचारिक बंटवारे का बड़ा मोड़ था। हालांकि षषिकला की मुराद पूरी नहीं हुई क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले ने बीते फरवरी में उन्हें सलाखों के पीछे कर दिया। मौजूदा समय में वे कर्नाटक की एक जेल में निर्धारित सजा काट रही हैं। जेल जाने से पहले तमिलनाडु की राजनीति में षषिकला ने काफी उथल-पुथल किया था। पन्नीरसेल्वम से नाराज षषिकला ने न केवल पलानीस्वामी को तमिलनाडु का मुख्यमंत्री बनवाया बल्कि सेल्वम को पार्टी से बाहर का रास्ता भी दिखाया और अब यही दोनों एक साथ तो हुए हैं पर दिनाकरन गुट ने सरकार के लिए संकट खड़ा कर दिया है। वैसे तमिलनाडु की राजनीति इस बात के लिए अधिक जानी जायेगी कि गैर महत्वाकांक्षी मुख्यमंत्री बने और अति महत्वाकांक्षी षषिकला को जेल जाना पड़ा। 
फिलहाल एआईडीएमके के दोनों धड़े के विलय के बावजूद राज्य में राजनीतिक उथल-पुथल थमने का नाम नहीं ले रहा है। बीते 22 अगस्त को षषिकला और टीटीवी दिनाकरन के करीबी विधायकों ने राज्यपाल से मुलाकात कर मुख्यमंत्री पलानीस्वामी को हटाने की मांग की साथ ही यह भी कहा कि उनके पास बहुमत नहीं है। जैसा कि इन दिनों राजनीति में खूब देखा जा रहा है कि जब भी कोई बगावती समूह बनता है तो उसे सियासी बीमारियों से बचाने के लिए किसी स्थान विषेश पर भेज दिया जाता है। दिनाकरन समर्थक विधायकों को भी पाण्डेचेरी के रिसाॅर्ट में रखा गया है। इसके पहले गुजरात और उत्तराखण्ड में भी ऐसा हो चुका है। हालांकि कहा यह जा रहा है कि वे वहां गये हैं। सरकार पर संकट क्यों है इसे समझना भी सही होगा। असल में तमिलनाडु में कुल 234 विधायक हैं जिसमें एआईडीएमके के 134 और विरोधी करूणानिधि की डीएमके के 89 इसके अलावा कांग्रेस के आठ और अन्य के एक विधायक हैं। दिनाकरन समर्थक यह दावा कर रहे हैं कि 25 विधायक फिलहाल पलानीस्वामी के विरूद्ध हैं। इस स्थिति से स्पश्ट है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री की सरकार संख्याबल के मामले में कमजोर है। विवाद को देखते हुए द्रमुक ने भी राज्यपाल को चिट्ठी लिखकर विधानसभा सत्र बुलाने और मुख्यमंत्री को बहुमत साबित करने की मांग की। गौरतलब है कि कर्नाटक में भी जब बरसों पहले कुछ ऐसी ही स्थिति बनी थी तब यदुरप्पा सरकार को विष्वास मत हासिल करने का निर्देष दिया गया था। वैसे भी यह कोई अचरज वाली बात नहीं है कि सत्ताधारी दल के अंदर जब धडे़ बनते हैं तो सरकार के संख्याबल में कमी होना स्वाभाविक है। पलानीस्वामी की सरकार फिलहाल इस मुष्किल से घिरती दिखाई देती है। जाहिर है यदि दिनाकरन समर्थक अडिग रहते हैं तो मौजूदा सरकार के लिए जरूरी संख्याबल जुटाना असम्भव होगा। ऐसी स्थिति में सत्ता परिवर्तन भी सम्भव है। फिलहाल तमिलनाडु की सियासत किस करवट बैठेगी आगे के दिनों में बिल्कुल स्पश्ट हो जायेगा। 
तमिलनाडु की राजनीति इसलिए भी मौजूदा समय में रसूखदार है क्योंकि यहां की अगली विधानसभा का गठन होने में चार वर्श का वक्त लगेगा। दोनों गुटों अर्थात् पूर्व मुख्यमंत्री पन्नीरसेल्वम और मौजूदा मुख्यमंत्री पलानीस्वामी का एक साथ होने से बेषक पार्टी को मजबूती मिलती हो पर सरकार खोने के भय से अभी यह दल मुक्त नहीं हैं और इस परीक्षा में सफल होना इसलिए भी आवष्यक है क्योंकि विरासत की होड़ में इन्हें स्वयं को अव्वल भी सिद्ध करना है। गौरतलब है कि जब तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता को आय से अधिक के मामले में जेल हुई थी तब उनके सबसे अधिक करीबी पन्नीरसेल्वम मुख्यमंत्री बने थे जाहिर है जयललिता के विरासत का सही हकदार तो पन्नीरसेल्वम ही हैं पर राजनीतिक उतार-चढ़ाव के बीच वी.के. षषिकला ने पलानीस्वामी को इसका हकदार बना दिया था। फिलहाल वी.के. षषिकला जेल में हैं और ये दोनों विरासत के अगुवा बने हुए हैं। जिस तरह यहां की सियासत बदली है और इनकी केन्द्र में सत्तारूढ़ एनडीए के प्रति सूझबूझ बढ़ी है उससे भी साफ है कि बिहार में जेडीयू के तर्ज पर अब एआईडीएमके भी मोदी के साथ सफर करने के मामले में कुछ ही दूरी पर खड़ी है। देखा जाय तो प्रधानमंत्री मोदी जयललिता के समय से ही एआईडीएमके को एनडीए के साथ लाने की पहल करते रहे हैं। हालांकि उनकी ऐसी ही पहल पष्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को लेकर भी थी पर वहां दाल नहीं गली। आज भी मोदी और ममता ठीक-ठाक राजनीतिक विरोधी के तौर पर जाने जाते हैं। ऐसा ही कुछ दृष्य 2015 के बिहार चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी और नीतीष कुमार के बीच था पर लालू के खानदानी भ्रश्टाचार के चलते सुषासन बाबू नीतीष ने लालू का न केवल साथ छोड़ना ठीक समझा बल्कि महागठबंधन को भी ठेंगा दिखा दिया। इतना ही नहीं 24 घण्टे के भीतर भाजपा का साथ लेकर वे सत्तासीन हुए और कुछ ही दिन पहले चार साल का वनवास तोड़ते हुए एनडीए में अपने दल का विलय कर दिया। 
फिलहाल तमिलनाडु की सियासत कमोबेष उथल-पुथल से पूरी तरह बाहर नहीं है। ऐसे में बड़े सहारे की जरूरत उन्हें भी है और वहां की बदली राजनीति में भाजपा को दक्षिण के सबसे महत्वपूर्ण राज्य में दमदार प्रवेष का बड़ा सियासी मौका हाथ लगा है। वर्श 2019 में सरकार दोहराने का मनसूबा रखने वाले प्रधानमंत्री मोदी को भी एक बड़े दल का सहारा मिलता दिखाई देता है। कुछ ही दिनों में मंत्रिपरिशद् का विस्तार होगा जाहिर है अन्नाद्रमुक और जेडीयू के लोग भी इसमें षामिल होंगे। हालांकि अन्नाद्रमुक के एनडीए में षामिल होने की घोशणा अभी षेश है पर स्थिति को देखते हुए लगता है कि अब यह महज एक औपचारिकता है। फिलहाल जयललिता की विरासत पर जो सियासत इन दिनों गरमाई है उसमें दिनाकरन ने लंगी मार दी है। ऐसे में पलानीस्वामी और पन्नीरसेल्वम की जोड़ी को परिपक्व कूटनीतिक खेल तो दिखाना ही होगा।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

कूटनीतिक फलक पर फिर भारत

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बीते मंगलवार को नई अफगान नीति का एलान किया जो भारत के हितों और उम्मीदों के मुताबिक है। इस नीति के एलान के साथ ही ट्रंप ने भारत को अहम षक्ति मानते हुए रणनीतिक सहयोग और मजबूत करने का भी आह्वान किया है। गौरतलब है कि भारत और अफगानिस्तान का सम्बंध पहले से ही कहीं अधिक प्रगाढ़ है। अफगानिस्तान के आधारभूत संरचना के निर्माण में भी भारत ने महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई है यहां तक कि अफगानी संसद के निर्माण में भी उसका योगदान है। डोनाल्ड ट्रंप यह अच्छी तरह जानते हैं कि पाकिस्तान के दिमाग को सही करने के लिए उसे धमकाना और अफगानिस्तान के प्रति रचनात्मक रूख रखना क्यों जरूरी है। ट्रंप ने यह भी साफ कर दिया है कि भारत अमेरिका के अफगान नीति का एक अहम हिस्सा है। इसी बीच चेतावनी भरे लहजे में ट्रंप ने पाकिस्तान को कहा है कि अगर वह नहीं सुधरा तो उसे बहुत कुछ खोना पड़ सकता है। गौरतलब है कि अरबों डाॅलर अमेरिका से प्राप्त करने वाला पाकिस्तान आतंकियों का बरसों से पनाहगार बना हुआ है। अफगानिस्तान और पाकिस्तान में अभी भी अमेरिका द्वारा सूचीबद्ध 20 विदेषी आतंकी संगठन सक्रिय हैं। वैसे देखा जाय तो ट्रंप की फटकार अमेरिका को लेकर कोई पहली बार नहीं है इसके पहले वे पाक को आतंकियों का स्वर्ग बता चुके हैं। हालांकि इसी बीच तालिबान ने ट्रंप को भी चेतावनी दी है कि यदि अमेरिका अफगानिस्तान से अपने सैनिक नहीं हटाता तो जल्द ही 21वीं सदी की इस महाषक्ति के लिए अफगानिस्तान एक अन्य कब्रगाह बन जायेगा। गौरतलब है कि बीते डेढ़ दषक से अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में डटी हुई है। हालांकि पहले की तुलना में इनकी मात्रा कम है। फिलहाल डोनाल्ड ट्रंप के पाकिस्तान पर किये गये तीखे वार से चीन झुंझला गया है और सच्चे और अच्छे मित्र की भांति पाकिस्तान के पक्ष में खड़ा हो गया है। गौरतलब है कि अमेरिकी राश्ट्रपति  द्वारा  पहले उत्तर कोरिया और अब एक बार फिर पाकिस्तान को धमकाना चीन को पच नहीं रहा है साथ ही मौजूदा समय में उसकी कूटनीति भी इसके चलते कमजोर हो रही है। भारत से अफगान मसले में डोनाल्ड ट्रंप द्वारा सहयोग की मांग और एक अहम् षक्ति के रूप में स्वीकार्यता चीन को जरूर अखर रहा होगा और वह भी ऐसे समय में जब डोकलाम को लेकर भारत और चीन आमने-सामने हैं।
दो महीने से अधिक वक्त बीत चुका है डोकलाम पर भारतीय और चीनी सेना टस से मस नहीं हुई हैं। चीन ने भारत को डराने-धमकाने से लेकर दबाने तक के तमाम हथकंडे अपनाये बावजूद इसके उसे मनचाही सफलता हासिल नहीं हो पायी। भारत को बार-बार धौंस दिखाने वाला चीन इस बार भारतीय कूटनीति के आगे बेबस हुआ है। इसी बीच बीते 20 अगस्त को अमेरिकी संसद में पेष की गई डोकलाम विवाद की रिपोर्ट में कहा गया है कि यह गतिरोध दोनों देषों के बीच युद्ध भी करा सकता है। ऐसे में अमेरिका और भारत का सामरिक सहयोग चीन के साथ अमेरिकी रिष्तों के लिए मुष्किलें पैदा कर सकता है। अमेरिकी कांग्रेस की षोध सेवा की ओर से आई यह मामूली और संक्षिप्त रिपोर्ट जिसका षीर्शक डोकलाम में चीन सीमा पर तनाव है। इसमें कुछ नई बात बताने की कोषिष की गई है पर भारत की रणनीति को देखते हुए इस रिपोर्ट के अनुमान को सही कहना संदर्भित प्रतीत नहीं होता। हालांकि चीन ने 22 अगस्त को एक बार फिर धमकी दिया है यदि उसकी सेना भारत में घुसी तो कोहराम मच जायेगा। वास्तुस्थिति को देखते हुए फिलहाल डोकलाम मुद्दे पर अब यह लगता है कि चीन अपनी रणनीति में नई बातें लायेगा और युद्ध से बचने की कोषिष भी करेगा। इसके अलावा उत्तराखण्ड की सीमा में भी उसके दखल को नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता। पूर्वोत्तर की सीमाओं मुख्यतः अरूणाचल में परेषानी खड़ी करने वाली गतिविधियां भी चीन बढ़ा सकता है। डोकलाम पर नाकाम चीन कुछ ऐसे हथकण्डे भी इन दिनों अपना रहा है जिस पर यकीन करना फिलहाल मुष्किल है पर इसमें काफी हद तक सच्चाई है। ब्रह्यपुत्र नदी में आई बाढ़ और पानी के हाहाकार से जूझते असम के लिए काफी हद तक चीन ही जिम्मेदार है। ऐसा नहीं है कि असम की घाटियों में पहले बाढ़ नहीं आई हो पर इस बार ज्यादा और अधिक समय की बाढ़ है। सम्भव है कि चीन डोकलाम विवाद में बैकफुट में होने के चलते पानी से बदला ले रहा है। माना जा रहा है कि चीन भारतीयों को डुबोने के लिए पानी छोड़ रहा है और उसे इस बात की भी पूरी जानकारी है कि कब, कितना पानी छोड़ने पर जान-माल का अधिक नुकसान होगा। 
वैष्विक फलक के बदले मिजाज में उत्तर कोरिया का भी मिजाज़ इन दिनों सातवें आसमान पर है और अमेरिका के निषाने पर है। बीते कई दिनों से अमेरिका और उत्तर कोरिया के बीच युद्ध का वातावरण निर्मित होता जा रहा है। गौरतलब है कि उत्तर कोरिया से 11 हजार किलीमीटर दूर अमेरिका उसके परमाणु एवं मिसाइल कार्यक्रम के चलते खार खाये हुए है। बात यहीं तक नहीं है उत्तर कोरिया के दुस्साहस का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि साल 2006 से 2016 के बीच चार बार परमाणु परीक्षण समेत कई मिसाइलों का परीक्षण किया है। उत्तर कोरिया ने बीते माह बैलेस्टिक मिसाइल का परीक्षण करके मानो अमेरिका को खुली चुनौती दे दी हो। हालांकि परीक्षण सफल नहीं था। संयुक्त राश्ट्र संघ की सुरक्षा परिशद् के प्रतिबंधों से भी मानो उसका कोई लेना-देना न हो। दक्षिण कोरिया व जापान सहित कई प्रषान्त महासागरीय देष उत्तर कोरिया के हरकतों से बे-इंतहा परेषान हैं। वैसे उत्तर कोरिया के व्यापार और अन्य मामलों में बढ़त दिलाने में चीन का बड़ा हाथ है। यहां तक कि उत्तर कोरिया के कल-कारखानों में बनने वाले सामान पर मेड इन चाइना का छाप होता है। इससे यह अंदाजा लगाना आसान है कि दोनों की आपस में कितनी छनती है। फिलहाल कोरियाई प्रायद्वीप में बढ़े तनाव के बीच 21 अगस्त से अमेरिका और दक्षिण कोरिया युद्धाभ्यास की षुरूआत कर चुके हैं। जिसे लेकर उत्तर कोरिया ने अमेरिका को चेताने का दुस्साहस किया है कि ऐसा करके वह आग में घी डालने का काम कर रहा है। गौरतलब है कि उत्तर कोरिया के साथ चीन को भी यह युद्धाभ्यास अखर रहा है। चीन ने भी इस पर आपत्ति दर्ज की थी। उलची फ्रीडम गार्डियन नामक इस युद्धाभ्यास में दोनों देषों के करीब एक लाख सैनिक हिस्सा ले रहे हैं। चीन के लिए यह युद्धाभ्यास एक प्रकार से भारत के प्रति उसका उठा हुआ कदम पर मोवैज्ञानिक प्रहार भी है। साथ ही सप्ताह भर पहले जापान का डोकलाम पर रूख भारत की ओर होना भी चीन के लिए चिंता का सबब बना हुआ है। जाहिर है जापान के इस कदम से भारत को मनोवैज्ञानिक बढ़त और भूटान को भी राहत मिली होगी। 
स्पश्ट है कि भारत चीन के साथ बढ़ते तनाव और उसकी बढ़ती दादागिरी से अब हर हाल में मुक्ति चाहता है। ऐसे में अमेरिका का भारत के साथ इस तरह का रवैया इस मामले में मददगार सिद्ध हो सकता है। गौरतलब है कि सितम्बर के प्रथम सप्ताह में ब्रिक्स देषों की चीन में बैठक होनी है और प्रधानमंत्री मोदी के षामिल होने की सम्भावना है। फिलहाल वैष्विक परिदृष्य में दुनिया के अनेक देषों समेत पूरब के देषों के बीच मौजूदा दौर में तनाव सतरंगी रूप ले चुका है। दो टूक यह भी है कि चीन भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था के चलते भी यहां-वहां की उछलकूद करता रहता है पर उसे यह नहीं पता कि पड़ोस के साथ आर, पार और व्यापार के अलावा सुगम रिष्ते की सम्भावना हमेषा फलक पर होती है। केवल तनाव देने से तनाव ही मिलता है और फायदे के रास्ते बंद हो जाते हैं। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल:sushilksingh589@gmail.com