Wednesday, September 21, 2016

सार्क देशों का भी नज़रिया साफ़ हो

यह पहली बार नहीं है जब आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान को अलग-थलग करने की मुहिम चली हो पर पहले की मुहिम की तुलना में इस बार बड़ा फर्क यह है कि अब पाक के पैतरे से दुनिया अंजान नहीं है। जिस प्रकार पाकिस्तान ने कष्मीर के अन्दर घुस कर गहरे घाव दिये हैं उसका दण्ड तो उसे मिलना ही चाहिए साथ ही उसे आतंकवादी देष घोशित करा कर उसकी रीढ़ तोड़ने का वक्त आ गया है। फिलहाल पाकिस्तान का कष्मीर मुद्दे का अन्तर्राश्ट्रीयकरण करने का दांव भी इन दिनों पूरी तरह विफल हो गया है। उरी घटना के चलते विष्व बिरादरी ने जिस प्रकार आतंकवाद के खात्मे के लिए एकजुटता दिखाने की कोषिष की है उससे भी यह साफ है कि पाकिस्तान इस मामले में या तो सुधरेगा या तो दण्ड भोगेगा। फिलहाल अभी की कार्यवाही के मामले में भारत को हिसाब बराबर करना ही होगा और रही बात सुधरने और बिगड़ने की तो यह पाकिस्तान जाने और उसके प्रधानमंत्री मियां नवाज़ षरीफ जाने। जर्मनी ने भारत का खुलकर समर्थन करते हुए यहां तक कह दिया कि पाकिस्तान के खिलाफ कार्यवाही करो। आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले देषों के खिलाफ किसी भी देष को कार्यवाही करना उसका हक है। जाहिर है पष्चिमी देषों से मिल रहे इस समर्थन से परिस्थितियां काफी बदलाव की ओर हैं। भारत सरकार की कूटनीति का जो नेटवर्क विष्व भर में फैल चुका है उस फसल को काटने का यह एक खूबसूरत मौका भी है। इससे वैष्विक स्तर पर न केवल पाकिस्तान बेनकाब हो होगा बल्कि आतंक जैसी बुराई को लेकर पूरी दुनिया के सुर भी एक किये जा सकते हैं। जैसा कि इन दिनों देखा जा सकता है। जिस तर्ज पर संसार भर के देषों ने उरी घटना को लेकर अपने तेवर दिखाये हैं उससे भी यह साफ है कि हमला करो, बहाना करो और बच जाओ की नीति में अब पाकिस्तान सफल नहीं होगा।
देखा जाय तो फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, अफगानिस्तान और कनाडा के बाद अब फेहरिस्त में जापान, जर्मनी, सऊदी अरब, यूएई, बहरीन, कतर, नेपाल, श्रीलंका, भूटान, मंगोलिया सहित मालदेव और दक्षिण कोरिया ने भी उरी हमले की कड़ी आलोचना की है। हालांकि चीन ने भी निन्दा करने की कोषिष की है पर पाकिस्तान का बेजोड़ समर्थक की इस निन्दा में भी चाल होगी ऐसा समझना सही ही होगा। आतंकी हमले की आलोचना करने वाले उक्त देषों में कई न केवल मुस्लिम देष हैं बल्कि इस्लामिक समूह 56 के सदस्य भी हैं। दृश्टिकोण और परिप्रेक्ष्य दोनों इस बात का इषारा करते हैं कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता और इस आड़ में कोई देष सफल भी नहीं हो सकता। अमेरिकी राश्ट्रपति ओबामा ने भी षरीफ को दो टूक कह दिया कि छद्म युद्ध बन्द करो। ओबामा ने संयुक्त राश्ट्र महासभा में पाकिस्तान का नाम लिये बिना उस पर करारा प्रहार किया। हालांकि पाकिस्तान का नाम यदि लेकर के यह प्रहार किया जाता तो बात और असरदार होती। दुनिया के देषों को अब यह भी समझ लेना चाहिए कि जो देष आतंक के मामले में अपनी आदत से बाज न आये उसका सरे आम खुले मंच पर नाम लेने से गुरेज न किया जाय। ऐसा करने से उसे अपनी गलतियों का न केवल एहसास दिलाया जा सकता है बल्कि सार्वजनिक नाम न उछले इसके लिए आतंक के प्रति अपना नजरिया भी बदल सकता है। हालांकि ऐसा कई बार देखा गया है कि प्रधानमंत्री मोदी भी आतंकवाद का विरोध करते हुए पाकिस्तान का नाम न लेकर पड़ोसी देष जैसे षब्दों से सम्बोधन करते हैं। अब षायद वे भी पाकिस्तान के मामले में ऐसा नहीं करेंगे। फिलहाल जिस तर्ज पर पाकिस्तान इन दिनों दुतकारा जा रहा है उसे देखते हुए सवाल उठता है कि क्या इससे वह कोई सबक लेगा जिस मिट्टी का पाकिस्तान बना है उसे देखते हुए अभी इस नतीजे पर पहुंचना जल्दबाजी है। साथ ही सीमा पार से जो आवाजें आ रही हैं उसे भी समझते हुए प्रतीत होता है कि विष्व बिरादरी की एकजुटता से हो सकता है पाक डरा और सहमा हो पर कोई पछतावा भी है इस पर संदेह है।
दक्षिण एषियाई देष भी अब पाकिस्तान के साथ खड़े होते दिखाई नहीं दे रहे हैं और षायद वह दिन दूर नहीं कि जब पाकिस्तान दक्षिण एषिया में अपना दोस्त खोजने निकलेगा तो उसके अलावा उसे कोई नहीं मिलेगा। अफगानिस्तान पहले ही पाकिस्तान द्वारा की गयी करतूत की निन्दा कर चुका है। यहां यह बात भी समझ लेना चाहिए कि दषकों तक तालिबानियों से लेकर अलकायदा जैसे आतंकी संगठनों का षिकार अफगानिस्तान जब आतंक के खिलाफ झण्डा बुलंद कर सकता है और इस बुराई से छुटकारा पाते हुए प्रजातांत्रिक मूल्यों को पुख्ता बनाने की कोषिष कर सकता है और तो यह बात पाकिस्तान की समझ में क्यों नहीं आती। आतंकवाद के मसले पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने हेतु भारत के प्रयासों को भी बल मिल रहा है। अफगानिस्तान ने इस मामले में समर्थन दे दिया है। गौरतलब है कि नवम्बर 2016 में पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में सार्क देषों की बैठक होनी है। भारत और अफगानिस्तान इसका बहिश्कार कर सकते हैं। खबर तो छन-छन कर यह भी आ रही है कि बहिश्कार करने वालों में बांग्लादेष भी षामिल हो सकता है। सार्क दक्षिण एषियाई देषों के 8 देषों का समूह है जिसकी स्थापना 1985 में काठमाण्डू में हुई थी। जिस तर्ज पर पाक को आतंकवाद के चलते अछूत मानने की प्रक्रिया बढ़ चली है उससे सम्भव है कि आने वाले दिनों में नेपाल और भूटान समेत कुछ और देष सार्क सम्मेलन का बहिश्कार कर दें। यदि ऐसा हुआ तो यह आतंकवाद के खिलाफ एकजुटता की जीत होगी और पाकिस्तान की सबसे बड़ी विफलता। ऐसे में सार्क देषों में षामिल अन्य देषों का भी इस मामले में नजरिया खुलकर सामने आना चाहिए। इस बार गरम लोहे पर हथौड़ा मार ही देना चाहिए कि जिस मंच पर और जिस देष के मंच पर आसीन होने की बात की जा रही है वह विष्व समुदाय के लिए खतरे से भरा है देष है। गौरतलब है कि सार्क सम्मेलनों में भी मुट्ठी भर देष कई मामलों में एकमत नहीं रहे हैं। विगत् डेढ़ दषकों से भारत और पाकिस्तान के बीच तना-तनी का मंजर सार्क बैठकों पर खूब देखने को मिलता रहा है। इस बार तो पानी सर के ऊपर चला गया। जाहिर है बहिश्कार के अलावा षायद ही कोई विकल्प हो।
हम आतंक के खिलाफ लड़ाई में भारत के साथ हैं यह कथन जापान का है। हम भारत को आतंकवाद मिटाने में हर मदद देने को तैयार हैं। हम आतंकवाद को पूरे जड़ से नश्ट करने का आह्वान करते हैं। यह कथन बेहरीन का है। ऐसे कई देषों के कथन समाचारपत्रों और टेलीविजनों के माध्यम से पढ़े और देखे जा सकते हैं। उरी हमले के चलते जिस प्रकार आतंकवाद को लेकर विष्व भर में गहमा गहमी का माहौल बना है उससे यह भी साफ है कि आतंक के माहौल से सभी छुटकारा पाना चाहते हैं। पाकिस्तान को ले दे कर अब सिर्फ इस्लामिक देषों के संगठन ओआईसी से कुछ समर्थन मिल रहा है। संयुक्त राश्ट्र की सालाना बैठक में भले ही पाकिस्तानी प्रधानमंत्री दहाड़ कर रोए हों पर अब ऐसे घड़ियाली आंसू से षेश दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ता। सबके बावजूद पाकिस्तान को यह भी समझ लेना चाहिए कि बलूचिस्तान का मुद्दा उठाकर भारत ने तो बानगी दिखाई है। अभी सिंध और पख्तूनख्वा के मुद्दे को अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर उठाना बाकी है। पाकिस्तान को अब यह भी समझ लेना चाहिए कि कष्मीर का राग अलापते-अलापते कहीं अपने देष को ही छिन्न-भिन्न न कर दें। फिलहाल पाकिस्तान आतंक को लेकर क्या सोचता है, क्या समझता है वो तो वही जाने पर यदि सीमा के अन्दर इसका प्रयोग-अनुप्रयोग करता है तो सवा अरब की इच्छा का ख्याल करते हुए भारत सरकार को आर-पार का विकल्प अब चुन लेना चाहिए।
सुशील कुमार सिंह


Tuesday, September 20, 2016

चीन स्तब्ध, दुनिया हैरत में

इस सवाल के साथ कि क्या पाकिस्तान इस बार भी पहले की तरह ही उरी मामले से भी अपना पल्ला झाड़ लेगा या फिर इस बार के भारतीय सैन्य ठिकाने पर हुए हमले से उसने बड़ी मुसीबत को न्यौता दे दिया है। जिस तरह दुनिया भर के तमाम देषों ने इस हमले की चैतरफा निन्दा की है साथ ही भारत के प्रति संवेदना जताई है इससे भी साफ है कि इस बार पाकिस्तान कष्मीर की आड़ में षेश संसार को धोखा नहीं दे सकेगा। चीन स्तब्ध है जबकि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, कनाडा और अफगानिस्तान भारत के साथ खड़े हैं। उड़ी में हुए अमानवीय हमले की चीन ने कड़ी निन्दा की साथ ही चीन ने पाकिस्तान आर्थिक कोरिडोर के भविश्य पर भी खतरा उत्पन्न कर दिया है। हालांकि मौजूदा स्थिति में यह चीनी चाल भी हो सकती है क्योंकि चीन जितना स्तब्ध है असल में भी है कहना मुष्किल है। भारत का धुर-विरोधी चीन पाकिस्तान को षह देने में कभी भी पीछे नहीं रहा जब-जब पाकिस्तान पोशित आतंकियों को अन्तर्राश्ट्रीय आतंकवादी घोशित करने की बात आई तब-तब यही चीन राश्ट्रीय सुरक्षा परिशद् में वीटो करके भारत के इरादों पर पानी फेरने का काम करता रहा। इसके पहले भी भारत पर हमले हुए हैं पर चीन का यह रूख देखने को नहीं मिला। षायद चीन विष्व बिरादरी को ध्यान में रखते हुए निन्दा करने के लिए मजबूर है पर असल वास्तविकता क्या है यह तो वही जानता है। यदि वाकई में चीन इस मामले में संवेदनषील है तो पाकिस्तान की कूटनीति के लिए यह एक करारा घात होगा।
इतना ही नहीं उरी हमले के बाद पाकिस्तान के हिस्से वाले कष्मीर में होने वाले संयुक्त सैन्य अभ्यास को रूस ने भी निरस्त कर दिया है। गौरतलब है कि विगत् कुछ दिनों से यह देखा जा रहा था कि रूस पाकिस्तान की ओर झुक रहा है जबकि असल सच्चाई यह है कि पांच दषकों से भारत का वह दुर्लभ मित्र रहा है। पाकिस्तान को आइना दिखाते हुए रूस ने यह भी संकेत दे दिया है कि भारत पर हमले की षर्त पर कोई साझा अभियान फिलहाल नहीं सोचा जा सकता। जाहिर है रूस के इस कदम से पाकिस्तान की कूटनीति पर एक और करारा घात लगा है। गौरतलब है कि फ्रेंडषिप 2016 के नाम से यह अभियान होने वाला था। फिलहाल पाकिस्तान का परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण पूरी तरह से दुनिया के सामने है। दुनिया के देषों ने अपराधियों को सजा दिलाने की वकालत भी की है। यह बात और है कि चीन यहां मात्र स्तब्ध होकर रह गया है। विदेष मंत्री सुशमा स्वराज को इस समर्थन के बाद संयुक्त राश्ट्र में अपनी बात रखने में काफी सहूलियत होगी। बताते चलें कि इन दिनों संयुक्त राश्ट्र मानवाधिकार के 33वें सत्र में भारत ने पाकिस्तान को खूब खरी-खोटी सुनाई। यूएन में भारत ने बोला कि पाकिस्तान पीओके खाली करे। जिस तर्ज पर पाकिस्तान के आतंकी और वहां के संगठन सरकार के संरक्षण में पनपे हैं हाफिज़ सईद व मसूद जिस प्रकार बड़ी-बड़ी रैलियां करते हैं उससे भी साफ है कि वहां की सरकार में सरकार जैसा कुछ नहीं है। कड़े षब्दों में कहें तो नवाज़ षरीफ अपने नाम के साथ भी दगा कर रहे हैं। जब मीडिया ने उनसे कष्मीर मुद्दे पर सवाल किया तो जवाब देने के बजाय मुंह छुपाते आगे निकल गये। जाहिर है कि आतंक की खेती करने वाले नवाज़ षरीफ के पास किस मुंह से और कौन सा जवाब सम्भव होगा। 
दुनिया भर में आतंक के विरोध में झण्डा बुलन्द करने वाला भारत आतंकियों की जिस भीशण तबाही का सामना कर रहा है षायद ही ऐसे अनुभव से कोई देष गुजर रहा हो। मात्र 2016 में ही आधा दर्जन से अधिक  बड़े आतंकी हमले हो चुके हैं जिसकी षुरूआत पठानकोट से हुई और उरी तक पहुंचते-पहुंचते तो न केवल इसकी रफ्तार तेज हुई बल्कि सभी को हिलाने वाला मंजर भी सिद्ध हुआ। जिस प्रकार भारत की आम जनता गुस्से से भरी है और जिस तर्ज पर पाकिस्तान से हिसाब चुकता करना चाहती है उसे देखते हुए साफ है कि इस बार मोदी सरकार भी मामले की तह तक गये बिना चुप नहीं बैठ सकती यदि इसे भुलाने की कोषिष की गयी या इसके साथ कोई कमजोर रणनीति सामने आई तो एक बार फिर आतंक को जिताने में हम मदद जरूर कर देंगे। गौरतलब है कि पाकिस्तान से पल्ला झाड़ चुके रूसी राश्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन और प्रधानमंत्री मोदी के बीच अक्टूबर में एक षिखर बैठक होनी है। जाहिर है इस बैठक में भी उरी का मामला उठेगा और उस संतुलन पर भी चर्चा हो सकती है जिसकी वजह से दषकों पुराना मित्र रूस पाकिस्तान जैसे धोखेबाज के साथ गलबहियां करने के लिए तैयार था। प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री, रक्षामंत्री सहित मंत्रिपरिशद् के तमाम सदस्यों के तेवर तने हुए हैं। पाकिस्तान को बख्षने के मूड में कोई नहीं है पर इस खुन्नस को बरकरार रखना होगा ताकि इस बार हिसाब चुकता रखने में कोई बकाया न रह जाये। 
जहां एक ओर दुनिया के देष पाकिस्तान के इस हरकत को लेकर लानत-मलानत कर रहे हैं वहीं भारतीय सेना मुंहतोड़ जवाब देने को लेकर अपनी तैयारी में जुटी है। सेना का एलान है कि अब जवाबी कार्यवाही की जगह और वक्त हम तय करेंगे। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में मामले की गम्भीरता को देखते हुए बैठक में मुंहतोड़ जवाब देने का फैसला लिया गया। रणनीतिक और सुरक्षा बैठकों के बाद प्रधानमंत्री मोदी और राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के बीच भी मुलाकात हुई। राश्ट्रपति तीनों सेनाओं के कमांडर होते हैं। लिहाजा ऐसे समय में सरकार को उन्हें पूरी सच्चाई से अवगत कराना होता है साथ ही यह इसलिए भी जरूरी है ताकि जवाबी कदम उठाने के मामले में सारी औपचारिकताएं पूरी हों। इसी बीच एक दुखद खबर यह भी है कि अब षहीदों की संख्या 17 बढ़कर 18 हो गयी और जाहिर है घायलों की संख्या 20 से 19 हो गयी है। हमले के घायल सिपाही विकास जनार्दन भी पूरी षिद्दत के साथ जिन्दगी की जंग लड़ते-लड़ते षहीद हो गये। इस मुष्किल दौर में कई अनसुलझे सवाल भी पनप रहे हैं। समाचारपत्रों एवं टेलीविजन के माध्यम से जो कुछ पढ़ने और देखने को मिल रहा है उसे देखते हुए मन में भी कई कचोट उठ रहे हैं। षहीदों के घरवाले बेहाल हैं, बूढ़े मां-बाप से लेकर सैनिकों की विधवाओं पर आसमान टूट पड़ा है, बच्चे अनाथ हो गये हैं और देष के नागरिक गुस्से और दर्द से कराह रहे हैं और सभी इन्साफ की मांग कर रहे हैं। कईयों के आंसू थम नहीं रहे हैं, बीच-बीच में साहस की बात भी कर रहे हैं और पाकिस्तान को धूल चटाने की उम्मीद लगा रहे हैं। जाहिर है ऐसे में सरकार को भी इसका जवाब खोजना होगा। पाकिस्तान का एक और षरीफ जो पाकिस्तानी सेना का प्रमुख है जो जनरल राहिल षरीफ के नाम से जाना जाता है उसने भी साफ किया है कि उसकी सेना देष की सुरक्षा को लेकर पूरी तरह सतर्क है पर इस मिया षरीफ से पूछा जाय कि सीमा पार से आये आतंकी पर तुम्हारी नज़र क्यों नहीं पड़ती। रोचक यह भी है कि प्रधानमंत्री भी षरीफ हैं और सेना प्रमुख भी षरीफ हैं जबकि सच्चाई यह है कि षराफत से इनका कोई वास्ता नहीं है। तीन दषक से आतंक की मार झेलते-झेलते भारत अब उकता चुका है। प्राॅक्सी वाॅर में माहिर पाकिस्तान से चूहे-बिल्ली का खेल भी बहुत हो चुका है। फिलहाल जिस तरह दुनिया इस समय भारत के साथ है और जिस गुस्से और गम में भारत फंसा है इसे देखते हुए हिसाब चुकता करना ही अब मुनासिब लगता है।



सुशील कुमार सिंह


Monday, September 19, 2016

कब थमेगी हमलों की रफ़्तार

अब इस वजह को तलाषने में कि कष्मीर के उरी में हुए आतंकी हमले का जिम्मेदार देष कौन है महज वक्त बर्बाद करना होगा। हालांकि प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री तथा अन्य सहित पूरा देष इस बात से आष्वस्त है कि पाकिस्तान ने एक बार फिर अपनी पुरानी करतूत दोहरा दी है। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने साफ कर दिया है कि पाकिस्तान आतंकवादी देष है उन्होंने इसे अलग-थलग करने की भी बात कही। इसके पहले मोदी ब्रिक्स, जी-20 समेत आसियान देषों के सम्मेलन में पाकिस्तान को अलग-थलग करने की बात कह चुके हैं। देखा जाय तो यहां का आतंकी संगठन जैष-ए-मोहम्मद ने इस घटना को अंजाम देकर एक बार फिर यह साफ कर दिया कि पाकिस्तान की आतंक के विरूद्ध उठाया गया हर कदम केवल मात्र एक ढोंग था। ये वही जैष-ए-मोहम्मद है जिसने इसी साल 2 जनवरी को पठानकोट पर हमला किया था। दोनों घटनाओं में समानता यह है कि इसके लिए भोर का वक्त चुना गया। अब तक के सबसे बड़े आतंकी हमले में 17 जवान षहीद और 20 जख्मी हुए हैं। उरी स्थित सेना की 12वीं बिग्रेड मुख्यालय पर हमला बोलकर जैष ने एक बार फिर आतंक के विरूद्ध हो रही लड़ाई को बेमानी सिद्ध कर दिया है। सेना की वर्दी में आये आतंकियों ने मुख्यालय स्थित कैंप में धमाके किये, अंधाधुंध फायरिंग की, उस दौरान कैंप में डोंगरा और बिहार रेजीमेंट के जवान सो रहे थे। टेंट में आग लग गयी जिससे आस-पास की बैरकें भी आग की चपेट में आईं। इसके बाद मुठभेड़ षुरू हुई, तीन घण्टे की साहसिक लड़ाई के बाद चार आतंकियों को भारतीय जवानों ने ढ़ेर कर दिया। बावजूद इसके कचोटने वाली बात यह है कि कई सैनिकों को जिस तर्ज पर खोना पड़ा उसका मलाल हमेषा रहेगा।
 ड्यूटी बदलने के वक्त को ही न केवल हमला करने के लिए चुना गया बल्कि हथियारों से व्यापक पैमाने पर आतंकी लैस थे। हैरत यह है कि भारत सीमा पार आतंकियों का हमला सहने का मानो क्षेत्र निर्धारित कर दिया गया हो। अंधेरे में हमला, सीमा पार करके हमला, भारत की संसद पर हमला, मुम्बई में हमला कितने हमलों की यहां जिक्र करें। ये सब पाकिस्तान द्वारा दी गयी ऐसी षिनाख्त है जो आज भी भारत की धरती पर गहरी छाप लिये हुए है। आतंकियों की फितरत अंधेरे का लाभ उठाने की खूब रही है। दिसम्बर 2000 में लष्कर आतंकियों ने अंधेरे में ही दिल्ली के लालकिले के सेना के एक षिविर पर हमला किया था। मुम्बई हमला भी ऐसे ही एक अंधेरी रात में किया गया था। बड़ी मुष्किल यह है कि आतंकियों ने हमला करने के अपने-अपने क्षेत्र भी निर्धारित कर लिए है। लष्कर-ए-तैयबा के निषाने पर कष्मीर है तो जैष-ए-मोहम्मद की नजर में दिल्ली, मुम्बई सहित देष के कई षहर और सैन्य ठिकाने हैं। इसका खुलासा हाल ही में अमेरिका की ओर से भारतीय सुरक्षा एजेंसियों से मिले ट्रांसक्रिप्ट से हुआ है। खास यह भी है कि संसद और पठानकोट जैसे हमले को अंजाम देने के पीछे जैष-ए-मोहम्मद का हाथ था जिसकी वेदना से अभी भारत उबर नहीं पाया है। वर्श 2016 में हुए बड़े हमलों की पड़ताल की जाय तो पता चलता है कि पाकिस्तान के आतंकी संगठनों ने महीने की दर से भारत को छलनी करने का काम किया है। 2 जनवरी को हुआ पठानकोट हमला इसकी षुरूआत है जहां छः जवान षहीद हो गये थे। जैसे-तैसे चार-पांच महीने बीते कि जून की षुरू में ही अनंतनाग में हमला हुआ जहां बीएसएफ के तीन जवान सहित जम्मू-कष्मीर के दो पुलिस भी षहीद हो गये। इसी महीने के अंत होते-होते पंपोर में हमला हुआ जहां सीआरपीएफ के 8 जवान षहीद तो 20 घायल हो गये। अब बारी थी स्वतंत्रता दिवस पर कुछ करने की तमाम चाक-चैबंद के बाद श्रीनगर में हमला हो ही गया जिसमें सीआरपीएफ के एक कमांडेंट को षहीद होना पड़ा। ठीक दो दिन बाद ख्वाजाबाग हमला जहां आठ मरे और 22 घायल हुए। क्रमिक तौर पर देखे तो सिलसिला अभी भयावह होने वाला था। बीते 10 सितम्बर को बारामूला में हमला हुआ जिसमें जवानों ने चार आतंकियों को मार गिराया जबकि 11 सितम्बर को पुंछ में तीन दिन तक मुठभेड़ चली, आधा दर्जन जवान षहीद हुए और चार आतंकी मारे गये। बामुष्किल एक हफ्ता गुजरा था कि उरी पर हमला हो गया जिससे पूरा देष सन्न रह गया। इन सवालों के बीच कि आखिर हमले की यह रफ्तार कब थमेगी। 
गौरतलब है कि स्वतंत्रता दिवस के दिन प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान पर पलटवार करते हुए पाक अधिकृत कष्मीर और बलूचिस्तान पर अपने मन्तव्य को रखा था। कई जानकार उरी हमले को बलूचिस्तान मुद्दे पर बौखलाहट का नतीजा मान रहे हैं। हो सकता है कि यह कुछ हद तक सही हो लेकिन इस पर भी विचार करने की जरूरत है कि 15 अगस्त से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने तो कोई ऐसा वक्तव्य नहीं दिया था फिर क्यों हमलों की रफ्तार जारी रही। जाहिर है कि यह पूरा सच नहीं है। दरअसल पाकिस्तान के आतंकी संगठन पाकिस्तान सरकार के बूते के बाहर है। इतना ही नहीं सेना पर भी वहां की सरकार की पकड़ ढीली है। सेना, आईएसआई और आतंकी संगठन सभी चोर-चोर मौसेरे भाई हैं और मियां नवाज षरीफ की हैसियत प्रधानमंत्री के तौर पर पहले की तरह अभी भी नाकाफी ही सिद्ध हो रही है। आतंकवाद के पिछले इतिहास को खंगाले तो भी यह संकेत मिलते हैं कि पाकिस्तानी सरकार का षिकंजा इस मामले में निहायत कमजोर है। चिंता तो इस बात की है कि अब आतंकी हमले सैन्य षिविरों पर भी होने लगे हैं। पूर्व रक्षामंत्री ए.के. एंटोनी इसे बड़ी चूक के तौर पर देख रहे हैं। हालांकि पिछले 26 सालों में पहली बार आर्मी बेस पर इतना बड़ा हमला हुआ। गृहमंत्री राजनाथ सिंह हमले के दिन ही 5 दिवसीय यात्रा पर रूस और अमेरिका जाने वाले थे परन्तु मामले की गम्भीरता को देखते हुए दौरा रद्द कर दिया। गौरतलब है कि जब जुलाई में राजनाथ सिंह अमेरिका जा रहे थे तब उनका दौरा आतंकी बुरहान वानी के मारे जाने के चलते कष्मीर में बिगड़े हालात को देखते हुए पहले भी टाला जा चुका है। 
बहुत बड़ी क्षति हो चुकी है, आतंक के विरूद्ध खड़े होने की कोरी बयानबाजी करके पाकिस्तान ने कुछ नहीं करने का सबूत एक बार फिर दे दिया है। अब यह तय हो गया है कि पाकिस्तान बाज आने वाला नहीं है। हमारे अन्दर पनपे नैतिकता, हमारी क्षमता, हमारी उदारता और सौहार्द्र को वह हमारी कमजोरी मानने लगा है। एक बड़ा सवाल है कि अब भारत का क्या रूख होगा। क्या भारत फिर एक बार सबूत और गैर-सबूत के बीच फंस कर रहेगा या फिर पाकिस्तान को उसी की भाशा में जवाब देने का कोई ठोस कदम उठायेगा। हालांकि यह भी उतना मुनासिब हल नहीं है। इससे भी अधिक कुछ करने की जरूरत है। देष को तार-तार करने वाले पाकिस्तान के साथ विकल्प लेने के बजाय आर-पार की रणनीति पर चला जाय तो ही भारत का हित सधेगा। अन्यथा सीमा के अन्दर रहने वाले नागरिक सीमा पार से आये आतंकियों की दहषत में फंस कर रह जायेंगे। इतना ही नहीं वैष्विक पटल पर जितनी भी आतंक को मिटाने की कोषिषें हो रही हैं उतनी ही नाकामयाबी भी बरकरार रह जायेगी। गृहमंत्री राजनाथ सिंह हमले के बाद सुरक्षा हालात की समीक्षा के लिए तुरन्त एक उच्चस्तरीय बैठक की जिसमें अलग-अलग विंग के आला अफसर मौजूद थे साफ है कि भारत कुछ अलग सोच रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने कह दिया है कि सजा जरूर देंगे। इसमें भी कुछ कठोर रूख छुपा हुआ है पर यह तेजी अभी के लिए ही न हो तब तक के लिए भी हो जब तक ऐसे देष और वहां के आतंकी संगठनों को सबक न सिखा दिया जाय।

सुशील कुमार सिंह


Saturday, September 17, 2016

भारत-नेपाल सम्बन्ध बकाया न रहे.

दरकते कूटनीति के बीच प्रचण्ड के भारत में होने से सही होने के तर्क को न केवल भारत बल्कि सही होना ही चाहिए के तर्क से युक्त नेपाल खुरदुरे हो चुके सम्बंध को बेहतर और पुख्ता कर सकते हैं। सम्बंधों में टकराव या कहें कि घटाव की अपनी एक परिस्थिति रही है पर अब उसे पटरी पर लाना दोनों की जिम्मेदारी है। यहां स्पश्ट कर दें कि दुर्भाग्य से नेपाल की पिछली केपी षर्मा ओली की सरकार के समय भारत के साथ अनावष्यक कटुता बढ़ गयी। पिछले वर्श नेपाल के संविधान के विरूद्ध तराई में रहने वाले मधेसियों ने जो नाकेबंदी की थी उससे भारत की ओर से आवष्यक वस्तुओं की आपूर्ति बाधित हुई थी जिसके चलते नेपाल को बड़े संकट का सामना भी करना पड़ा था पर इसमें भारत का कोई दोश नहीं था। बावजूद इसके तत्कालीन नेपाली प्रधानमंत्री ने भारत पर दोश मढ़ने से बाज नहीं आये। प्रधानमंत्री मोदी की 2014 की नेपाल यात्रा और अप्रैल 2015 में नेपाल में आये भूकम्प से जो भीशण तबाही हुई थी और भारत ने जिस तर्ज पर राहत और बचाव को लेकर तत्परता तथा सक्रियता दिखाई थी बेषक इससे सम्बंध एक नई ऊँचाई पर पहुंच गये थे। उस दौरान सुषील कोइराला के हाथों में नेपाल की बागडोर थी। कूटनीति में यह प्रचलित है कि अभी की राय षुमारी हमेषा के लिए कायम नहीं रहती। ठीक यही भारत-नेपाल रिष्तों पर भी लागू होती है। दोनों देषों के सम्बंधों में टकराव की स्थिति या यूं कहें कि भटकाव की स्थिति नवम्बर, 2015 में तब पहुंचा जब नेपाली संविधान के लागू होने को लेकर मधेसी सड़क पर आ गये। हालांकि यह नेपाल का अंदरूनी मामला था लेकिन तराई में बसे भारतीय मूल के नेपाली जब संविधान में पौने तीन करोड़ के नेपाल में सवा करोड़ की आबादी होने के बावजूद हाषिये पर फेंक दिये गये तो इसकी तिलमिलाहट भारत को होना स्वाभाविक थी फिर भी भारत ने नपे-तुले अंदाज में बात कहते हुए पूरा संयम दिखाया। मधेसियों का आंदोलन अहिंसक नहीं रहा और यह इतना तूल पकड़ा कि संतुलन की चाह रखने वाले भारत पर सारे आरोप नेपाल ने बिना किसी सोच-समझ के मढ़ दिये।
अब नेपाल की स्थिति बदल गयी है, वहां के प्रधानमंत्री बदल गये हैं। दूसरी बार प्रधानमंत्री बने पुश्प कमल दहल उर्फ प्रचण्ड इन दिनों भारत प्रवास पर है। चार दिवसीय इस कार्यक्रम में काफी कुछ किया जाना है। उम्मीद दोनों तरफ से है ऐसे में आषा है कि अब तक के हुए कूटनीतिक डैमेज को मैनेज कर लिया जायेगा। दुनिया भर में कूटनीति में अव्वल होने का डंका बजा चुके प्रधानमंत्री मोदी भी नेपाल से सम्बंध को पटरी पर लाने का कोई अवसर फिलहाल नहीं छोड़ना चाहेंगे। खास यह भी है जब आज से आठ वर्श पहले प्रचण्ड पहली बार नेपाल के प्रधानमंत्री बने थे तब उन्होंने भारत आने की परम्परा को तोड़ते हुए पहली यात्रा के तौर पर चीन को चुना था। जाहिर है कि भारत के साथ कूटनीतिक संतुलन बनाने की फिराक में उन्होंने यह कदम उठाया था। तब से अब में बहुत कुछ बदल गया है। हिंसक माओवादी विद्रोह का नेतृत्व करने वाले प्रचण्ड  इस पूरे दौरान में व्यवहारिक समझ से भी ओत-प्रोत हो चुके हैं। केपी ओली के समय में बढ़ी दूरियों को प्रचण्ड अपने इस व्यवहारिक समझ के तहत समाधान की ओर ले जा सकते हैं बषर्ते उस हठ को छोड़ना होगा जिसके चलते मधेसी नेपाली होते हुए भी भेदभाव के षिकार हो रहे हैं। हालांकि इस समय भारत और नेपाल के सम्बंध धीरे-धीरे स्वयं सामान्य की ओर जा रहे हैं। भारत आने से पहले ऐसे बयान भी नेपाल की ओर से आये हैं कि दोनों देषों के बीच विष्वास बढ़ता है। यह भी कहा गया कि प्रधानमंत्री मोदी पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने नेपाल आकर हम सबको प्रेरित किया। गौर करने वाली बात यह भी है कि चीन के बारे में यह भी बात कही गयी कि वह विचारधारा पर नहीं चलता बल्कि उसका मुख्य लक्ष्य अपने राश्ट्रीय हितों की पूर्ति और मात्र मुनाफा है। उक्त बयानों के दायरे में प्रचण्ड को देखा जाय तो नये प्रधानमंत्री प्रचण्ड पुराने प्रचण्ड से काफी दूर हैं। 
चार दिवसीय यात्रा पर पहुंचे प्रचण्ड नेपाल के नये युग के प्रारम्भकत्र्ता भी सिद्ध हो सकते हैं। भारत और नेपाल संविधान विवाद से ऊपर उठकर सम्बंधों की नई गाथा लिख सकते हैं। प्रधानमंत्री से द्विपक्षीय वार्ता में जो सकारात्मकता का पुट निहित है उसे परवान चढ़ा सकते हैं। इस दौरान दोनों देषों के बीच 6800 मेगाहट्र्ज की तीन विद्युत परियोजनाओं के निर्माण पर समझौता होना है। इसके अलावा भारत-नेपाल के समक्ष सीमावर्ती एवं तराई के इलाके में 1800 किलामीटर लम्बी रेल लाइन बिछाने का भी प्रस्ताव रखेगा। भले ही नेपाल एक विदेषी मुल्क रहा हो पर भारत ने कभी भी नेपाल को लेकर स्वयं के अन्दर कोई दोश नहीं पनपने दिया बल्कि जितना हो सका समय-समय पर उसकी मदद के लिए तैयार रहा। नेपाली प्रधानमंत्री प्रचण्ड ने भी कहा है कि सभी को विष्वास में लेने के बाद ही संविधान में संषोधन होगा। जब तक थारूओं और मधेसियों को विष्वास में नहीं ले लिया जाता तब तक नये संविधान को लागू करने के लिए माहौल नहीं बनाया जा सकता। प्रचण्ड का यह तौर-तरीका इस ओर इषारा करता है कि नेपाली संविधान के मामले में वे भी बिना मधेसियों को संतुश्ट किये कोई जोखिम नहीं लेना चाहते। बीते 3 अगस्त को नेपाल की दूसरी बार बागडोर संभालने वाले नेपाली प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि नई व्यवस्था का षीर्श फोकस संविधान लागू होने से पहले सही माहौल बनाना है और जरूरी संषोधनों के लिए पथ भी चिकना करना है। जिस तर्ज पर प्रचण्ड अपना विचार सकारात्मक करने की कोषिष कर रहे हैं उससे भी यह साफ है कि लगभग एक बरस से दोनों देष के बीच बढ़ी कटुता को अब वे आगे नहीं बढ़ाना चाहते। नेपाल जानता है कि भले ही किसी भी परिस्थिति में सारी दुनिया उससे किनारा कर ले पर भारत है कि उसका हर हाल में साथ जरूर देगा। 
नेपाल अपना 60 फीसदी आयात भारत के जरिये पूरा करता है। इन्फ्रास्ट्रक्चर की हालत दयनीय होने के साथ ही दुर्गम भौगोलिक परिस्थितियां भी नेपाल को भारत की ओर बेहतर सम्बंध के लिए उकसाती रही हैं। हालांकि नेपाल इसके पहले चीनी कार्ड खेलकर भारत को झटका देने का काम भी कर चुका है। बीजिंग ने पेट्रोलियम पदार्थों और दूसरी जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति भी नेपाल में पहले की है। यहां बता दें कि कुछ भी हो चीन नेपाल की सभी जरूरतें कभी पूरा नहीं कर सकता जबकि भारत के बगैर नेपाल की जरूरत पूरी ही नहीं हो सकती पर बदलते हालात को देखते हुए चीन ने अपने हावभाव को बदलकर नेपाल को अपने पाले में थोड़े समय के लिए कर लिया था। भारत-नेपाल के रिष्तों में प्रचण्ड का यह दौरा कई मामलों में बेहतर हो सकता है। इनके आने से पहले भारत आये नेपाल के विदेष मंत्री और उप-प्रधानमंत्री ने संविधान विवाद के निपटारे हेतु भारत के पक्ष पर गम्भीरता से विचार करने का संदेष दे चुके हैं। दोनों देष को चाहिए कि तल्खी खत्म करने के लिए नई रणनीति पर काम करें। दोनों देषों का हित एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है एक के विकास से दूसरे की सुगमता बढ़ती है जाहिर है कि मन-मुटाव से कुछ हासिल नहीं होगा। दोनों के आपसी और मजबूत सम्बंध चीनी खतरों को भी कमजोर करेंगे। जिस तर्ज पर प्रचण्ड का राश्ट्रपति भवन के प्रांगण में स्वागत हुआ, सेना के तीनों अंगों की संयुक्त टुकड़ी की प्रचण्ड ने सलामी ली और जिस प्रकार भारत में पहुंचने का उनका स्वाभाविक और सकारात्मक एहसास देखने को मिला। इससे साफ है कि वे सम्बंधों की कटुता को अब बकाया नहीं छोड़ना चाहेंगे।

सुशील कुमार सिंह


Thursday, September 15, 2016

भारत-रूस की दोस्ती के बीच पाकिस्तान

इन दिनों दक्षिण एषिया में नये-नये समीकरण उभर रहे हैं। बीते दिनों यह खबर आई कि रूस और पाकिस्तान इस वर्श के अन्त में एक ज्वाइन्ट वाॅर एक्सरसाइज़ करने वाले हैं जिसे फ्रेन्डषिप 2016 नाम दिया गया है। इसके अलावा जो भी कूटनीतिक घटनाक्रम वैष्विक फलक पर बदलाव की ओर जा रहे हैं उसे देखते हुए यह लगने लगा है कि अमेरिका के साथ भारत के करीबियों के बाद अब रूस, पाकिस्तान और चीन भारत को अलग-थलग करने के चलते एक साथ आने की जद्दोजहद में है। साफ है कि जब चीन और रूस दक्षिणी चीन सागर में साथ होंगे तो अमेरिका और जापान की चिंता बढ़ेगी। इतना ही नहीं भारत की परेषानी के सबब यह है कि उसका दषकों पुराना मित्र रूस पाकिस्तान से मोह पाल रहा है। गौरतलब है कि बीते दिनों भारत, अमेरिका और जापान ने दक्षिण चीन सागर में अभ्यास करके चीन की मुष्किल बढ़ा दी थी। अब वार-पलटवार की बारी चीन की है। चीन और रूस के बीच इस एक्सरसाइज़ को ज्वाइन्ट सी 2016 नाम दिया गया है जो आठ दिनों तक चलेगा। इसके अलावा रूस और पाकिस्तान भी पहली बार संयुक्त अभ्यास करने की तैयारी में है। अमेरिका के साथ रिष्तों में आई खटास के चलते पाकिस्तान नये साझेदार के रूप में रूस की ओर झुका है। यहां स्पश्ट कर दें कि षीत युद्ध के दिनों में जब अमेरिका और सोवियत संघ आमने-सामने थे तब पाकिस्तान और सोवियत संघ भी एक-दूसरे के दुष्मन थे और भारत सोवियत संघ का सबसे बड़ा मित्र परन्तु अब हालात बहुत बदल चुके हैं। वांषिंगटन से रिष्ते में खटास के चलते हथियारों के मामले में पाकिस्तान अब मास्को की तरफ देख रहा है। खबर तो यह भी है कि दोनों देष रक्षा और सैन्य तकनीक सहयोग बढ़ाना चाहते हैं जो किसी भी हाल में भारत के लिए खतरे की घण्टी है। 
जब 1939 से 1945 के बीच हुए द्वितीय विष्वयुद्ध के बाद दुनिया दो ध्रुवों में बंटी थी जिसमें एक ध्रुव अमेरिका तो दूसरा रूस था तब पाकिस्तान अमेरिका के साथ था। भारत वैसे तो किसी गुट में न होने का दावा हमेषा से करता रहा है पर उसका झुकाव रूस की तरफ ही था और आज भी भारत और रूस गहरे मित्र हैं। दोनों देषों के बीच दषकों से जो दोस्ती रही है वह अवसरवादी सम्बंधों की दुनिया में अपने आप में दुर्लभ कही जायेगी। 1979 में जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में घुसपैठ की तो भारत ने उसके इस कृत्य की आलोचना नहीं की जिसे लेकर पष्चिमी देषों के पेट में खूब दर्द भी हुआ था। इस कदम को लेकर भारत पर यह भी आरोप मढ़ा गया था कि एक ओर तो वह स्वयं स्वतंत्रता का समर्थक बताता है परन्तु जब सोवियत संघ ने दक्षिण एषिया के एक देष पर आक्रमण किया तो वह चुपचाप था। असल सच यह है कि भारत रूस के साथ उस गहरी मित्रता का निर्वहन कर रहा था जो 1971 में सोवियत संघ द्वारा किये गये समर्थन के बदले था। इसी दौर में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जार्डन, इंडोनेषिया और चीन समेत कई पष्चिमी और मुस्लिम देषों ने पाकिस्तान का पक्ष लिया था। आज इन बातों पर पुनः जिक्र करने का अवसर इसलिए बना है क्योंकि यह बातें छन-छनकर आ रही हैं कि रूस का रूख पाकिस्तान की ओर झुक रहा है। यदि यह पूरी तरह सम्भव होता है तो वैष्विक फलक पर जो भारत की कूटनीति इन दिनों विस्तार ले चुकी है उसमें एक सेंधमारी कही जायेगी। गौरतलब है  कि भारत और रूस के बीच का सम्बंध पांच दषक पुराना है और दोनों देष एक-दूसरे के प्रति न केवल आदर भाव रखते हैं बल्कि वैष्विक फलक पर घटी घटनाओं के बीच एक-दूसरे का साथ देने में भी पीछे नहीं रहे हैं।
देखा जाय तो स्वतंत्रता से लेकर अब तक भारत की वैष्विक कूटनीति कभी अधिक उपजाऊ तो कभी कम उपजाऊ रही है। फिलहाल इन दिनों वैष्विक फलक पर भारतीय कूटनीति की बढ़ी हुई मात्रा देखी जा सकती है। पड़ोसी देष चीन और पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध कभी भी चरम पर नहीं पहुंच पाये। इसका कसूरवार भारत तो कतई नहीं है। भारत और चीन के बीच 1954 का पंचषील समझौता बेहतरी की दिषा में उठाया गया मजबूत कदम तो था परन्तु 1962 के चीनी प्रहार के चलते यह भी तार-तार हो गया। पाकिस्तान के साथ युद्ध तो कई हुए पर नतीजे जस के तस रहे। भारत बार-बार जीतता रहा पर पाकिस्तान एक बार भी हार नहीं माना। हालात को देखते हुए उसने प्रत्यक्ष युद्ध की नीति छोड़ छद्म तरीके से प्रहार करने पर उतारू रहा। मौजूदा आतंकी गतिविधियां इसी का नतीजा हैं। 1972 का षिमला समझौता दोनों देषों के बीच आज भी मील का पत्थर साबित नहीं हो पाया। मौजूदा स्थिति यह है कि चीन और पाकिस्तान भारत को नीचा दिखाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। गौरतलब है कि बीते एक वर्श से पड़ोसी नेपाल के साथ भी भारत की कूटनीति सकारात्मक दिषा में कम ही दिखाई दे रही है। हांलाकि यहां भी कसूरवार भारत नहीं है। असल में नेपाल के नये संविधान के चलते उपजे मधेसी आंदोलन ने भारत और नेपाल के बीच संदेह का एक मौका दे दिया। हमेषा से भारत के प्रति झुकाव रखने वाले नेपाल ने उन दिनों चीन के प्रति झुकने की चेतावनी भी दे थी। गौर करने वाली बात तो यह है कि मौजूदा नेपाली प्रधानमंत्री प्रचण्ड जब पहली बार नेपाल के प्रधानमंत्री बने थे तो वे भारत से पहले चीन गये थे। बदले परिप्रेक्ष्य और बदली कूटनीति में सारा तानाबाना तो सही नहीं होगा पर इसे साधने की जिम्मेदारी एक बार फिर बढ़त ले चुकी है। 
मुख्य चिंता इन दिनों रूस का पाकिस्तान की ओर चुकाव है। इस बात को स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं है कि भारत और रूस के लोग निजी तौर पर बेहद जीवंत और भावुक होते हैं। इतना ही नहीं तुरंत दोस्ती कर लेने में यकीन नहीं रखते हैं और ऐसा कहा जाता है कि दोनों के बीच एक बड़ी समानता यह है कि दोनों देषों के लोगों के जीवन में परिवार का बड़ा महत्व है। यूरेषिया की विस्तृत भू-भाग पर स्थिरता बनाये रखने के मामले में भारत और रूस के सामरिक हित बहुत मायने रखते हैं। अफगानिस्तान, सीरिया और यूक्रेन में भी दोनों के हित आपस में गुथे हुए हैं। षायद ही लोगों को पता हो कि यूक्रेन रक्षा उद्योगों का बड़ा केन्द्र है और भारतीय रक्षा उपकरणों की सर्विसिंग के लिए इसका बड़ा महत्व है। रूस पूरी दुनिया में ऊर्जा का सबसे बड़ा उत्पादक देष भी है जबकि अमेरिका और चीन के बाद भारत ऊर्जा का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। भारत की ऊर्जा सुरक्षा के मामले में भी रूस का साथ बड़ा जरूरी है। रक्षा प्रौद्योगिकी के मामले में भी रूस और भारत के बीच दषकों से सौदे होते रहे हैं। भारत पष्चिमी देषों के अनेकों प्रतिबन्ध झेल चुका है बावजूद इसके रूस ने दामन नहीं छोड़ा। एक-दूसरे के लिए खड़े होना और इसकी विष्व में यदि कोई मिसाल है तो वह भारत और रूस की मित्रता है। भारत भी जानता है कि अमेरिका और रूस अब विष्व के दो ध्रुव तो नहीं पर अभी भी आमने-सामने हैं। भले ही अमेरिका से भारत की प्रगाढ़ता तुलनात्मक खूब बढ़ी हो परन्तु भारत यह लगातार स्पश्ट करता रहा कि किसी भी तरह से रूस के साथ उसके दषकों पुराने व मजबूत रिष्ते को कमतर नहीं होने देंगे। प्रधानमंत्री मोदी ने अगस्त 2016 की षुरूआत में राश्ट्रपति पुतिन के साथ वीडियो कांफ्रेन्सिंग से हुई बातचीत में रूस की अहमियत भी बताई थी। भले ही रूस का रूझान किसी कारण पाकिस्तानमय इन दिनों हुआ हो पर रूस भी जानता है कि उसका असल मित्र कौन है।


सुशील कुमार सिंह

मोल-तोल वाले बाज़ार में रिलायंस जियो

आज से एक दषक पहले जब मोबाइल की दुनिया में क्रान्ति पुख्ता हो रही थी तब रिलायंस ने महंगे मोबाइल फोन और महंगी काॅल दर की होड़ के बीच अपना सिम सहित मोबाइल सस्ते दर पर बाजार में उतारा था जिसकी खरीदारी को लेकर उपभोक्ताओं में होड़ मची थी। तब संचार के क्षेत्र में रसूख की नई होड़ से युक्त रिलायंस ने इस कदर एंट्री मारी थी कि बाकी कम्पनियों को भी अपना होमवर्क ठीक करना पड़ा था। अब मुकेष अंबानी ने एक बार फिर रिलायंस जियो के माध्यम से डेढ़ लाख करोड़ रूपए का दुस्साहस से भरा दांव खेलकर प्रतिद्वन्दी कम्पनियों के बीच एक बार फिर बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। हालांकि इससे आम उपभोक्ता काफी सहज महसूस कर रहा है। सस्ती दरों पर बेहतर सेवायें मिलने की जो सम्भावना जियो में व्यक्त की गयी है उसे देखते हुए साफ है कि 21वीं सदी के दूसरे दषक के मध्य में एक नई संचार क्रान्ति का क्षितिज पर होना सुनिष्चित है। जियो के द्वारा किये गये पेषकष से पता चलता है कि ट्रैरिफ प्लान के हिसाब से वाॅयस काॅल फिलहाल मुफ्त है जो मोलतोल की बाजारी व्यवस्था से अभी बाहर है। रिलायंस जियो का परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण क्या है इसकी भी बारीकी से पड़ताल होनी चाहिए। कैसे एक कम्पनी अपने ग्राहकों के लिए इतना सुगम पथ विकसित कर सकती है इसे समझने की उत्सुकता भी षायद सभी में होगी। जिस तर्ज पर रिलायंस ने एक विस्फोटक अंदाज में जियो को बाजार के बीच उतारा है और उपभोक्ताओं को लुभाने वाले सारे साजो-सामान से इसे युक्त बनाया है इससे यह भी संकेत मिलता है कि रिलायंस जैसी कम्पनियां ऐसे ही बड़ी नहीं बनी हैं। 
फिलहाल जियो किसी धमाके से कम नहीं है। कई खासियत से युक्त जियो इन दिनों ग्राहकों के बीच धमाल मचाये हुये है। 5 सितम्बर, 2016 से लाॅन्च रिलायंस जियो में दरअसल इसी वर्श के 31 दिसम्बर तक प्रिव्यू पेषकष सभी ग्राहकों के लिए मुफ्त होगा। उसके बाद 2017 तक 1250 रूपए प्रति माह की कीमत वाले एप्स का प्रयोग मुफ्त रहेगा। वाईफाई, हाॅट स्पाॅट के माध्यम से अतिरिक्त डेटा तक पहुंच साथ ही मीडिया और मनोरंजन समेत भुगतान करने वाले विभिन्न एप्लीकेषन के अलावा वाॅयस काॅल और रोमिंग भी निःषुल्क है। 4जी डेटा से युक्त जियो महज़ कुछ दरों पर असीमित प्रयोग में लाया जा सकेगा जबकि छात्रों के लिए 25 फीसदी अतिरिक्त डेटा का प्रावधान भी इसमें देखा जा सकता है। सवाल है कि रिलायंस जियो दूसरी कम्पनियों की सेवाओं से किस तरह अलग है? देखा जाये तो इसके कई पहलू हैं। पहला पहलू तो इसकी तकनीक ही है। असल में एलटीई एक स्वतंत्र और नई तकनीक है जो मौजूदा प्रणालियों से भिन्न नेटवर्क पर काम करती है। पहले की सभी प्रणालियां सर्किट आधारित थी। देखा गया है कि जैसे-जैसे तकनीक क्षमता बढ़ती है वैसे-वैसे कई और सेवायें देना मुमकिन हो जाता है साथ ही इसमें गुणवत्ता भी समावेषित रहती है। किसी भी मोबाइल नेटवर्क का बुनियादी तत्व स्पेक्ट्रम है जो जियो जैसी तकनीक में काफी बढ़त के साथ है। जियो की क्षमता के मुकाबले एयरटेल फिलहाल 15, आइडिया 10 और वोडाफोन 8 सर्किल में 4जी सेवायें देने में सक्षम हैं। एक खासियत यह है कि जियो अपने समूचे स्पेक्ट्रम का प्रयोग एलटीई सेवाओं के लिये कर सकता है परन्तु उनके प्रतिद्वन्दी जो अपने मौजूदा स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल 2जी और 3जी के लिए कर रहे हैं उनके पास 4जी की भी क्षमता कम रह जायेगी। ऐसे में जियो बाकियों से अलग और आगे दिखाई देता है। इतना ही नहीं जियो के पास एक और लाभ उसके फाइबर आॅप्टिकल केबल नेटवर्क से आता है जिसमें डेटा की बड़ी क्षमता है जो आगे चलकर 5जी के लिए इस्तेमाल में आ सकता है। 5जी मोबाइल दूरसंचार मानकों के लिए प्रस्तावित अगला महत्वपूर्ण चरण है।
राज्यसभा सांसद और बीपीएल मोबाइल के संस्थापक राजीव चन्द्रषेखर का मानना है कि रिलायंस के लाॅन्च करने का तरीका अभूतपूर्व है। रिलायंस के आक्रामक प्रवेष रणनीति से क्षुब्ध कई कम्पनियों का दावा है कि रिलायंस का परीक्षण षुरूआत से ही वाणिज्य लाॅन्च की षक्ल में था। देखा जाय तो पिछले तीन साल में डेटा कीमतों में निरन्तर कमी आती रही है और बाजार में इस बात की प्रतिस्पर्धा रही है कि कौन कितने सस्ते दर पर डेटा पैकेज उपलब्ध करा पाता है। भारत में 90 करोड़ सक्रिय सिम इस्तेमाल करने वाले उपभोक्ता हैं जिनमें केवल 25 करोड़ को एयरटेल सेवायें देती है, लगभग 20 करोड़ ग्राहकों के साथ वोडाफोन और 18 करोड़ के आसपास आइडिया के अलावा 10 करोड़ के साथ आरकाॅम मौजूद है। जियो के मामले में भी अम्बानी कम कीमत और अधिक आकार का दांव खेल रहे हैं जिससे बाजार में तोड़फोड़ मचना स्वाभाविक है। जियो मोबाइल ब्राॅडबैंड बाजार को 2020 तक 65 करोड़ उपभोक्ता तक पहुंचने का लक्ष्य है जो अपने आप में किसी क्रान्ति से कम नहीं है। जियो का दावा है कि उसके पास 72 प्रतिषत आबादी को 4जी एलटीई सेवा मुहैया कराने के ढांचागत क्षमता है। यहां बताते चलें कि एलटीई यानि लाॅन्ग टर्म इवाॅल्यूषन का मतलब उच्च गति वाले वायरलेस नेटवर्क के बीच संचार का मानकीकृत तरीका। ऐसा लगता है कि रिलायंस कम दरों की भरपाई अधिक डेटा उपयोग से करेगा। आंकड़े इस बात का समर्थन करते हैं कि एक भारतीय औसतन प्रति माह 400 एमबी डेटा का उपभोग करता है। साफ है कि रिलायंस जियो के माध्यम से डेटा उपभोग को भी बढ़ाना चाहता है। एक षोध फर्म इण्डिया रेटिंग्स को उम्मीद है कि डेटा दरों में भारी बदलाव आने वाले दिनों में आयेगा। देखा जाय तो जियो की लाॅन्चिंग से टेलीकाॅम की दुनिया में आषंका भी बढ़ी है पर मोलतोल से पटी वर्तमान बाजारी व्यवस्था में जियो कितना सफल और सार्थक सिद्ध होगा अभी कहना कठिन है। 
कईयों का मानना है कि जियो का मौजूदा टैरिफ प्लान असल में कम दरों के बजाय स्मार्ट पैकेजिंग की मिसाल है। ऐसा भी देखा गया है कि टैरिफ प्लान इस तरह बनाये जाते हैं कि न्यूनतम दर पर अधिक से अधिक डेटा दिये जायेंगे परन्तु उपभोक्ता समय सीमा के अन्दर उसे खर्च नहीं कर पाता। ऐसे में कम्पनियों के डेटा बचे रह जाते हैं जबकि उपभोक्ता उसकी भी कीमत चुकाया होता है। सस्ते दर की नुमाइष करने वाली कम्पनियां किसी भी सूरत में उपभोक्ता से मन माफिक फायदे ले ही लेती है लेकिन जिस तर्ज पर जियो उपभोक्ताओं के बीच अपनी पैठ बना रहा है उससे साफ है कि उसके अर्थषास्त्र का कद तुलनात्मक बढ़ेगा। जियो की पहल के अपने जोखिम हैं और उसकी कामयाबी पर न केवल रिलायंस कम्पनी को मुनाफा होगा बल्कि देष की डिजीटल अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी साथ ही प्रतिद्वन्दियों में भी विभिन्न प्रकार की उथल-पुथल मचेगी। बाजार में उपलब्ध मौजूदा खिलाड़ियों को भी एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ेगा जाहिर है उनके ग्राहक भी उनसे बेहतर सेवा की मांग करेंगे। यह देखना भी दिलचस्प रहेगा कि अन्य कम्पनियां जियो के निर्धारित नये मापदण्ड की तुलना में अपने को कैसे पुख्ता करती हैं। यह देखना भी रोचक होगा कि जियो की मुफ्तगीरी को लेकर भी उनकी रणनीति क्या रहेगी। जियो की व्यावसायिक अवधारणा और उसकी पटकथा यह भी दर्षाती है कि उसे हर हाल में बाजार में न केवल अपना सिक्का जमाना है बल्कि औरों की तुलना में सौ कदम आगे भी रहना है। यदि यह सब कुछ मौजूदा सोच के अनुपात में आगे बढ़ा तो इसमें कोई षक नहीं कि जियो उपभोक्ताओं के जीवन में दाखिल हुए बगैर नहीं रह सकेगा।

सुशील कुमार सिंह

Wednesday, September 14, 2016

देश किस सिद्धांत पर चले

उदारीकरण, निजीकरण और वैष्विकरण के ढ़ाई दषक का दौर बीतने के बाद अब एक बार फिर इस बात की पड़ताल करने की जरूरत है कि देष किस सिद्धान्त पर चले। दो टूक यह भी है कि प्रषासन आरंभ से ही वैष्विक वातावरण से प्रभावित होता रहा और लोकतंत्र में जन उत्थान की भावना सरकारों की प्राथमिकता रही है पर सफल कितनी हुई यह भी पड़ताल का ही विशय है। आज 21वीं सदी में यह मत मान्य है कि सुषासन कोई पष्चिमी अवधारणा नहीं है क्योंकि जो नकारात्मक तथ्य थे वे विष्व बैंक द्वारा हटा दिये गये। जाहिर है अब यह एक वैष्विक अवधारणा है जिसमें लोक प्रवर्धित विचारधारा का समावेषन है। जिस गति से देष में विकास की मांग है उसे देखते हुए हमारे प्रषासनिक सिद्धान्त भी बदलाव की मांग कर रहे हैं। डिजीटल इण्डिया समेत कई नूतन कार्यक्रमों में यदि गति बरकरार नहीं रही तो विरोधी पानी पी-पीकर सरकार की आलोचना करेंगे।
उदारीकरण के 25 वर्श बीत चुके हैं और देष ने बहुत कुछ हासिल भी किया है। वैष्विक ध्रुवीकरण की दिषा में भी इसके कदम अब कमजोर नहीं हैं। अमेरिका जैसे देषों से अब समकक्षता के साथ बातचीत होती है। मंगल ग्रह तक भारत की पहुंच हो चुकी है। बस जरूरत है तो जमीन पर बिखरी व्यवस्था को सुदृढ़ करने की। मोदी विगत् ढ़ाई वर्शों में करीब 60 देषों का दौरा कर चुके हैं। मेक इन इण्डिया और उसमें होने वाले निवेष को लेकर षेश विष्व को अवगत कराने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। कह सकते हैं कि कृशि प्रधान भारत अब धीरे-धीरे विष्व के तमाम देषों को अपनी ओर आकर्शित करने में काफी कूबत झोंक चुका है। दुनिया के तमाम महाद्वीप में बसे देष भारत की ओर भी काफी समझदारी भरी दृश्टि डाली है। जाहिर है अब देष चलाने के सिद्धान्त में भी पुराने नियम षायद उतने काम नहीं आयेंगे। 
दक्षिण अफ्रीका का एक सिद्धान्त लोकस-फोकस है जिसमें इस बात की गुंजाइष रहती है कि निहित उद्देष्य और स्थान पर उपजाऊ बल खर्च किया जाय। ध्यानतव्य हो कि 1960 के दषक में अमेरिकी समाज उथल-पुथल से भरा था। वियतनाम युद्ध, औद्योगिकरण, तीव्र नगरीकरण आदि प्रषासन के सामने नई चुनौतियां खड़ी की थीं जिससे उस दौर का प्रषासन निपटने में नाकाम रहा। तब प्रषासन के सिद्धान्त एवं व्यवहार की समीक्षा मिन्नोब्रुक सम्मेलन के तहत की गई। तभी से नूतन प्रविधियों का जन्म हुआ। 60 के दषक से 90 तक के बीच भारत भी इस मांग की ओर जा चुका था कि यहां भी नई प्रवृत्ति स्थान घेरे जिसका नतीजा उदारीकरण था पर अब इस पर भी ढ़ाई दषक खर्च हो चुके हैं। जाहिर है इसमें भी नयापन भरने की जरूरत है। 
सुधारात्मक प्रयासों के तहत बाजार और निजी क्षेत्र की भूमिका अब तीव्र स्थान ले रही है जबकि सरकार संरक्षक की भूमिका में है। सुषासन और सुराज को लेकर नये-नये पैमाने गढ़ने की कोषिष भी की जा रही है। यही कारण है कि प्रषासनिक, राजनीतिक प्रणाली में व्यापक सुधार की आवष्यकता पड़ी है। नीति आयोग इसी का परिणाम है। इतना ही नहीं सरकार को अधिक जनमित्र और संवेदनषील बनने की भी आवष्यकता है। नागरिक, प्रषासन और सरकार के अन्तरसम्बन्ध पहले से प्रगाढ़ हुए हैं और यह वर्तमान दौर की जरूरत भी है। प्रधानमंत्री मोदी जिस तर्ज पर जनता से संवाद करना चाहते हैं उसमें पुराने सिद्धान्त प्रचुर मात्रा में षायद ही काम कर पायें। ऐसे में नियमों को भी खुली हवा में सांस लेने का अवसर देना होगा जिसे कर पाने में मोदी सक्षम दिखाई देते हैं। राजनीतिक उत्तरदायित्व और नौकरषाही की जवाबदेहिता साथ ही सूचना और संचेतना के इस दौर में मानव अधिकारों को लेकर चिंतायें बढ़ी हैं। ऐसे में सरकार और प्रषासन को ऐसी सेवा से सम्बन्धित होना है जो दक्ष हो, न्यायिक हो और विष्वसनीय भी हो ताकि उसे बदले दौर के हिसाब से कहीं अधिक न्यायोचित करार दिया जा सके। यह व्यवस्था पहले चाहे जैसी रही हो पर अब इस सिद्धान्त को अपनाये बगैर वैष्विक फलक पर उठान लेना मुष्किल होगा।



सुशील कुमार सिंह

मोदी, राहुल और किसान

मोदी जी किसानों के बीच नहीं जाते क्योंकि 15 लाख का सूट गंदा हो जायेगा। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी अक्सर अपने वक्तव्य में कुछ इसी प्रकार के षब्दों के साथ प्रधानमंत्री मोदी पर प्रहार करना नहीं भूलते। बीते कुछ दिनों से उत्तर प्रदेष में उनकी खाट पंचायत वाली रैली जिस तर्ज पर चुनावी मुहिम को अंजाम देने की कोषिष में है उसमें यह भी झलकता है कि उनका अपना एजेंडा पीछे और मोदी पर निषाना आगे है। आजमगढ़ में बीते रविवार एक बार फिर तंज भरे लहज़े में राहुल गांधी ने रैली में लोगों से पूछा क्या आपने कभी नरेन्द्र मोदी की किसी किसान के साथ फोटो देखी है? स्वयं जवाब देते हुए कहा नहीं देखी क्योंकि उनके कपड़े गंदे हो जायेंगे। यही वजह है कि वो आपके बीच नहीं आते और ओबामा से मिलने अमेरिका जाते हैं। इसके अलावा उन्होंने बसपा और सपा पर भी निषाना साधा। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी बीते एक सप्ताह से उत्तर प्रदेष की अपनी किसान यात्रा में विरोधियों की लानत-मलानत कर रहे हैं। मामले को समझना कठिन नहीं है कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। जाहिर है आगामी वर्श के मुहाने पर उत्तर प्रदेष का विधानसभा चुनाव खड़ा है और 1989 से लगातार सदस्यों के मामले में वह यहां दहाई से आगे नहीं बढ़ पाई है। इस बार इस सूखे को खत्म करने की फिराक में ये सब कुछ किया जा रहा है। इसी के चलते तीन बार दिल्ली की मुख्यमंत्री रह चुकी षीला दीक्षित को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में उत्तर प्रदेष में उतार कर राजनीति की चाल कांग्रेस द्वारा पहले ही चली जा चुकी है। रोचक यह भी है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में चाय पर चर्चा जोरों पर थी तो उत्तर प्रदेष में राहुल गांधी की खाट पंचायत इन दिनों पर है। 
किसानों की रैली भारतीय राजनीति में किसानों की समस्या के समाधान के लिए होती रही या उनके अंदर छुपे वोट को आकर्शित करने के लिए इस पर भी नजरिया साफ होना चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी जब 2014 में षीत सत्र के बाद भूमि अधिग्रहण अध्यादेष लागू किया था तब देष भर के किसानों ने इसका विरोध किया था। 2015 के बजट सत्र के दौरान दिल्ली में भारत के आधे राज्यों से अधिक दूर-दराज से आये किसानों ने अपनी जमीन बचाने के लिए यहां जमकर हल्ला बोला था तभी से मोदी पर यह आरोप जड़ दिया गया कि वे किसान के हितैशी नहीं हैं। इतना ही नहीं उन्हें उद्योगपतियों का हित साधक के रूप में प्रचार-प्रसार किया जाने लगा। हांलाकि कई प्रयासों के बावजूद अभी भी उनका उद्योगपतियों के प्रति आकर्शण में घटाव नहीं माना जाता है। यह भी सही है कि मोदी ने 2016 के आम बजट में किसानों के लिए काफी कुछ करने की कोषिष की है। इस बजट को गांव उन्मुख बजट की भी संज्ञा दी गयी। यहां तक कि यह भी कहा जाने लगा कि इस बजट के माध्यम से मोदी अपनी छवि बदलना चाहते हैं। गौरतलब है कि वर्श 2015 के मार्च-अप्रैल में दर्जनों बार हुए बेमौसम बारिष से रबी की फसलें चैपट हो गयी थी और थोक के भाव किसानों ने आत्महत्या किया था जबकि कमजोर मानसून के चलते खरीफ की फसल की पैदावार में भी जोरदार गिरावट आई थी जिसके चलते किसानों की बची खुची उम्मीद भी हाषिये पर चली गयी थी। यह एक ऐसा दौर था जब किसी भी सरकार को एक बेहतर कार्यपालक की भूमिका में होना चाहिए था। प्रधानमंत्री मोदी पर यहां भी आरोप रहा कि किसानों के नुकसान की भरपाई में वे विफल रहे। हालांकि सरकार की ओर से किसानों के नुकसान को लेकर संजीदगी तो दिखाई गयी पर यह पड़ताल का विशय है कि मोदी का रिपोर्ट कार्ड इस मामले में कितना बेहतर है।
संदर्भ तो यह भी है कि किसान यात्रा करने वाले राहुल गांधी यह क्यों भूल जाते हैं कि मोदी से पहले 10 बरस की सरकार केन्द्र में उन्हीं के दल की रही है। उन्होंने 2004 से 2014 के बीच किसानों के लिए क्या किया आखिर इसका भी हिसाब कौन देगा? एक विपक्षी होने के नाते यदि राहुल गांधी इसका जवाब देना जरूरी नहीं समझते तो सरकार चला रहे मोदी पर किसानों को लेकर इतनी लानत-मलानत क्यों कर रहे हैं? मोदी पहले भी कह चुके कि राज्य सहयोग करे तो 2022 तक किसानों की इनकम दोगुनी कर देंगे। उन्होंने यह भी कहा है कि आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए कृशि को पहली प्राथमिकता बनाने की जरूरत है। गौरतलब है कि मोदी अपनी चुनावी रैलियों में भी किसानों के जीवन को ऊँचाई देने के तमाम वादे किये थे पर इसमें सफल कितने हुए यह बात भी साफ होनी चाहिए। किसानों को भारत की जान बताने वाले प्रधानमंत्री यह भी मानते हैं कि इनकी समृद्धि के बगैर देष की खुषहाली की बात सोची नहीं जा सकती। बावजूद इसके इनकी किसान विरोधी छवि क्यों है? देखा जाये तो केन्द्र सरकार ने किसान के हित में प्रधानमंत्री फसल बीमा, सिंचाई बीमा, मृदा राजस्व कार्ड जैसी कई योजनायें षुरू की है। जरूरत है कि राज्य कृशि और किसानों के काम को अपनी प्राथमिकता में लेकर दिगदर्षित करने की। बुंदेलखण्ड की हालत किसी से छुपी नहीं है। बेषक बसपा और सपा को इसके लिए कसूरवार ठहराया जा सकता है। हालात यह हैं कि पांच नदियों वाला बुंदेलखण्ड में ट्रेन से पानी भेजा जाता है। राहुल गांधी को पूर्वी एवं पष्चिमी उत्तर प्रदेष ही नहीं बल्कि बुंदेलखण्ड की भी चिंता करनी चाहिए और उन्हें भी यह जवाब देना चाहिए कि दस साल तक केन्द्र में रहते हुए बुंदेलखण्ड को संकट से उबारने में उन्होंने क्या किया?
साढ़े छः लाख गांवों से भरे भारत में अभी भी दो दृश्टिकोण चलते हैं एक ग्रामीण भारत तो एक षहरी। षहरी भारत का अपना जोखिम और अपनी समस्या है पर ग्रामीण भारत की बुनियादी समस्या यह है कि दो लाख से अधिक गांव अभी भी बिजली, पानी के लिए तरस रहे हैं। 2019 तक हर गांव में बिजली पहुंचाने की बात कही जा रही है। उत्तर प्रदेष के हजारों गांवों में अभी भी बिजली का खंभा नहीं गड़ा है और जहां गड़ा है वहां बिजली नहीं पहुंची है और जहां बिजली पहुंची है वहां भी पूरे मन से यह नहीं कहा जा सकता कि स्थिति संतोशजनक है। राहुल गांधी किसानों की बेहतरी चाहते हैं। पंजाब में भी उन्होंने मोदी को कई बार ललकारा कि यहां आकर किसानों की हालत देखें पर वही सवाल फिर खड़ा होता है कि क्या वाकई में राहुल गांधी किसानों के बड़े हितैशी हैं या फिर प्रधानमंत्री मोदी किसानों को लेकर अछूत राय रखते हैं। बड़ा सच यह है कि सियासी भंवर में जब भी किसानों को धकेला जाता है तो सियासतदान के हिस्से में मलाई और किसानों के हिस्से में सूखी रोटी ही आई है जब चुनाव सिर पर मंडराने लगता है तब खेत-खलिहान में नेता उग जाते हैं। इस वादे के साथ कि सत्ता पाने के बाद उनकी जिन्दगी को चकमक कर देंगे पर पिछले 65 वर्शों में सियासी हाथों से छले जाने वाले किसान क्या इन बातों पर एक बार फिर भरोसा कर सकते हैं। आधारभूत संरचना से कटे गांव और वहां के बाषिन्दे एक बेहतर सरकार लाने की बेचैनी में तो रहते हैं पर वह छले नहीं जायेंगे इसकी गारंटी कौन लेगा। इस बात को समझना भी मर्म से भरा होगा कि चाहे राहुल गांधी की किसान रैली हो या प्रधानमंत्री मोदी की या फिर किसी और सियासतदान की सत्ता हथियाने के बाद उनका रूख किसानों के प्रति क्या वैसा रहता है? क्या किसानों की उम्मीदों पर वे खरे उतरते हैं? जब ऐसा नहीं होता तब मन मारकर आखिरकार किसानों को अपनी किसमत के सहारे एक बार फिर जीवन ढोना ही पड़ता है।



सुशील कुमार सिंह


Thursday, September 8, 2016

अधूरे होमवर्क की वजह भी है डेंगू.

यह बेहद चिन्ताजनक है कि इन दिनों कई प्रदेष डेंगू की मार झेल रहे हैं। डेंगू और मलेरिया के प्रकोप बढ़ने के बीच एक खबर यह भी है कि श्रीलंका मलेरिया मुक्त हो गया है। हिन्द महासागर का एक छोटा सा द्वीप और भारत के दक्षिण में सबसे नज़दीकी पड़ोसी श्रीलंका से आई इस खबर से दो परिप्रेक्ष्य उभरते हैं एक यह कि यदि कोषिष की जाय तो मलेरिया जैसी बीमारी से न केवल निपटा जा सकता है बल्कि इससे मुक्ति भी पाई जा सकती है। दूसरा यह कि भारत में इसकी मुक्ति की डेडलाइन 2030 है। जाहिर है यहां भी कुछ सीख लेने की जरूरत है। पिछले पांच साल की तुलना में इस साल डेंगू के सबसे ज्यादा मामले सामने आ रहे हैं। भारत के कई प्रान्त कमोबेष इसकी चपेट में है। हिमालय में बसे और ठण्डे इलाके के लिए जाना जाने वाला उत्तराखण्ड भी इन दिनों डेंगू की चपेट में है। विगत् दो माह से यहां मरीजों की संख्या निरंतर वृद्धि लिए हुए है। वर्तमान में पूरे प्रदेष में यह आंकड़ा साढ़े सात सौ के आस-पास है जिसमें सात सौ से अधिक मामले तो राजधानी देहरादून से हैं। हैरत और रोचक तथ्य तो यह भी है कि प्रदेष के बड़े से बड़ा आला अफसर देहरादून में रहता है बावजूद इसके चैकसी की कमी के चलते और सरकारी तंत्र की लचर कार्यप्रणाली ने मरीजों की संख्या बढ़ाने में काफी मदद की है। दरअसल डेंगू की रोकथाम और इसके उपचार के मामले में प्रदेष की पूरी व्यवस्था केवल सरकारी अस्पतालों तक सिमटी हुई है जबकि यहां के अस्पतालों की बदहाली किसी से छिपी नहीं है। राजधानी का दून हाॅस्पिटल मरीजों के दबाव में हांफने लगता है। पारिस्थितिकी और अन्य समस्याओं के कारण पहाड़ी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं हमेषा से ही चरमराई रही है जिसे देखते हुए हर बीमारी के उपचार का रूख देहरादून की ओर रहता है। 
डेंगू के बचाव के लिए लोगों को जागरूक रहने की नसीहत देने वाला स्वास्थ्य महकमा भी स्वयं इसकी चपेट में है। क्या पुलिस, क्या प्रषासन और क्या चिकित्साकर्मी सभी को इसका डंक लग चुका है। अभी तक डेंगू का मच्छर मलीन बस्तियों व अन्य काॅलोनियों में ही आतंक मचा रहा था लेकिन अब इस प्रकोप की चपेट में चिकित्सालय भी आ चुके हैं। दून मेडिकल काॅलेज चिकित्सालय के महिला विंग में स्टाफ के ग्यारह लोगों को डेंगू हुआ है जिसमें डाॅक्टर, नर्स और वाॅर्ड ब्वाॅय सभी षामिल हैं। इतना ही नहीं दून अस्पताल की पैथोलाॅजी में ब्लड सैम्पल इक्ट्ठा करने वाले मरीजों के हालचाल पूछने तक से काम नहीं चलेगा इस पर कोई ठोस कदम उठाना होगा। हालांकि मुख्यमंत्री ने इसके लिए कई कदम उठाये हैं पर हालात को देखते हुए यह नाकाफी कहे जायेंगे। यहां के स्वास्थ्य मंत्री ने कह दिया है कि अकेले स्वास्थ्य विभाग का काम डेंगू से निपटना नहीं है। अपर पुलिस अधीक्षक समेत कई कानून के रखवाले भी डेंगू की मार झेल रहे हैं। जिस कदर प्रदेष में डेंगू को लेकर कहर बरपा है जाहिर है उसे देखते हुए सरकार की नींद भी टूटी है। दहषत अभी बरकरार है और इसके बीच उपचार और निदान के रास्ते खोजे जा रहे हैं। षहर की सफाई व्यवस्था के लिए अतिरिक्त तैनाती की जा रही है। फाॅगिंग मषीनों के लिए अलग से बजट भी मंजूर किये जा रहे हैं। कुछ समाज सेवी संगठन बदहाल स्वास्थ्य सेवा को लेकर स्वास्थ्य मंत्री का इस्तीफा भी मांग रहे हैं। फिलहाल प्रदेष में डेंगू को लेकर क्या स्थिति है इसका भी कोई स्थिर सरकारी आंकड़ा नहीं है। रोजाना आंकड़ों की तस्वीर बदलती जा रही है। हालांकि जिस खौफनाक मंजर तक डेंगू ने क्षेत्र विषेश को कब्जे में लिया है उसे देखते हुए स्पश्ट है कि आने वाले दिनों में इससे निपटने हेतु तंत्र को और गम्भीर बनना होगा। 
उत्तराखण्ड समेत भारत के कई प्रदेष इस जानलेवा समस्या से जूझ रहे हैं। कुछ इलाके तो ऐसे हैं जहां डेंगू के सैकड़ों मरीज हैं। पष्चिम बंगाल में इस साल डेंगू से सबसे ज्यादा मौत की सूचना है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने अपनी वेबसाइट पर कहा है कि राज्य में अगस्त में 22 लोगों की मौत हो गई जबकि पिछले साल यहां इसी बीमारी से मरने वालों की संख्या 14 थी। बंगाल के बाद उड़ीसा और केरल का नाम आता है, इसके बाद कर्नाटक को देखा जा सकता है। दिल्ली में दो लोगों की मौत की बात कही गयी है। इस साल अब तक देष के डेंगू प्रभावित राज्यों में करीब 28 हजार के आस-पास मामले रहे हैं जिसमें 60 की मौत बताई गयी है। देखा जाय तो डेंगू जैसी बीमारी प्रतिवर्श बढ़त के साथ गिरफ्त में लेती रहती है। डेंगू से बचाव का सबसे प्रभावषाली तरीका मच्छरों की आबादी पर काबू करना है। इसके लिए लार्वा पर नियंत्रण करना होता है या फिर वयस्क मच्छरों की संख्या पर। एडीज़ मच्छर कृत्रिम जल संग्रह पात्रों में जनन करते हैं जैसे टायर, बोतल, कूलर, गुलदस्ते आदि। इन जल पात्रों को अक्सर खाली करना चाहिए। यही लार्वा पर नियंत्रण का सबसे अच्छा तरीका है जबकि वयस्क मच्छरों को काबू में लाने के लिए कीटनाषक धुंए का सहारा लिया जाता है। कहने का आषय यह हुआ कि मच्छर को काट देने से रोकने का तरीका भी डेंगू से बचना है अर्थात् होमवर्क सटीक हो तो डेंगू को भयावह रूप लेने से रोका जा सकता है। खास यह भी है कि इस प्रजाति के मच्छर दिन में काटते हैं जिसे देखते हुए मामला गम्भीर बन जाता है। उपरोक्त बिन्दु से यह भी स्पश्ट होता है कि क्लीन इण्डिया भी इस बीमारी से निजात के बारे में मददगार सिद्ध हो सकता है। इसके अलावा जन जागरूकता और सरकारी महकमे के द्वारा इसके बचाव में उठाये गये कदम भी मारक सिद्ध हो सकते हैं पर ऐसा देखा गया है कि सरकारें अपनी दिनचर्या में ऐसे बिन्दुओं को दरकिनार रखती है और जब पानी सर के ऊपर जाता है तब वे भी गति में आ जाते हैं। 
देखा जाय तो दुनिया भर के कई देष डेंगू के प्रकोप में कभी न कभी रहे हैं। एषिया पेसिफिक के देषों में भारत समेत आॅस्ट्रेलिया, चीन, इण्डोनेषिया, मलेषिया, पाकिस्तान, फिलिपीन्स समेत कई देष समय-समय पर इस भयावह समस्या से गुजरते रहे हैं। वैसे तो डेंगू एक उश्णकटीबंधीय देषों की समस्या है। ऐसे में साफ है कि ज्यादातर डेंगू की समस्याएं कर्क और मकर रेखा के बीच स्थित देषों को होती है। हालांकि जिस प्रकार से जलवायु परिवर्तन अपनी बदलाव की मुहिम में है उसे देखते हुए बीमारी के विन्यास और विस्तार दोनों में बड़ा अन्तर आया है। अब बीमारियों का भी ग्लोबलाइजेषन हो रहा है। मौजूदा परिस्थिति में जीका, चिकनगुनिया, मलेरिया, स्वयं डेंगू इसका बेहतर उदाहरण है। एक सच यह भी है कि डेंगू के डंक से सरकारें भी बौनी हो जाती हैं और स्वास्थ्य के मामले में बड़े-बड़े दावे करने वाले महकमे बीमारियों के आगे घुटने टेकते हुए दिखाई देते हैं। स्पश्ट है कि सरकार को ऐसे मामलों में प्राथमिकता के साथ कदम उठाना चाहिए पर हैरत इस बात की है कि पर्याप्त सुविधाओं के आभाव में बड़ी से बड़ी बहुमत वाली सरकारें जो लोक कल्याण की भावनाओं से युक्त होती हैं वे भी आम जनता की तरह ही मजबूर हो जाती हैं। कुछ प्रदेषों में निजी क्षेत्र के अस्पतालों का अच्छा खासा विस्तार है, उत्तराखण्ड भी इसमें षुमार है। सरकार को चाहिए कि जन स्वास्थ्य अधिनियम व क्लीनिकल इस्टैब्लिष्मेंट एक्ट का पालन मजबूती से सुनिष्चित कराये। सरकारी के साथ निजी अस्पतालों का तालमेल बिठाये ताकि पैर पसार रही बीमारियों से निपटना आसान हो जाय साथ ही यह नहीं भूलना चाहिए कि आम जन की जिम्मेदारी इस मामले में सरकार से पहले है। 


सुशील कुमार सिंह


Wednesday, September 7, 2016

पिटी लकीर पर हुर्रियत

हुर्रियत कांफ्रेंस के नेताओं की ओर से पहले पाकिस्तान से बातचीत की षर्त से एक बार फिर यह साफ हो गया कि दषकों से कष्मीर की घाटी में जड़े जमा चुके अलगाववादी कष्मीर के हितैशी तो कतई नहीं हैं और यह भी स्पश्ट कर दिया कि पिटी लकीर पर ही चलना इनकी फितरत है। जिस तर्ज पर बातचीत बेनतीजा रही उससे भी यह संकेत मिलता है कि हुर्रियत के नेताओं और सरकार के बीच कोई तालमेल था ही नहीं। हालांकि गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने इस पर स्पश्ट कह दिया है कि हम पहले देष में रहने वाले लोगों से बात करेंगे, पाकिस्तान से बात करने का कोई सवाल ही नहीं उठता जबकि हुर्रियत कांफ्रेंस पाकिस्तान को साथ लिये बिना चलना ही नहीं चाहता। ऐसे में आगे क्या होगा कहना बहुत मुष्किल है। देखा जाय तो सर्वदलीय प्रतिनिधिमण्डल के घाटी दौरे से मुख्य धारा के राजनीतिक दलों को एक साथ लाने में सरकार को सफलता तो मिली परन्तु कष्मीर में षान्ति बहाली को लेकर चुनौती कहीं से कम नहीं हुई। अलगाववादियों ने सर्वदलीय प्रतिनिधिमण्डल के सदस्यों से बात न करके एक और कोषिष को नाकाम कर दिया है। पाकिस्तान परस्त हुर्रियत जिस घाटी के ठेकेदार बनने की कोषिष करते हैं वे उसी के रसूक को तिनका-तिनका करने में दषकों से प्रयासरत् हैं। संदर्भ और परिप्रेक्ष्य तो यह भी है कि दो महीने से कष्मीर कफ्र्यू से कराह रहा है और अलगाववादी अपने सियासी बाजार को गरम किये हुए हैं। 
आॅल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस जम्मू-कष्मीर के 23 विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक संगठनों का गठबंधन है जो कष्मीर के भारत से अलगाव की वकालत करता है और भारतीय सेना की कार्यवाही को सरकारी आतंकवाद तक का नाम देता है। इतना ही नहीं कष्मीर पर भारत के षासन के खिलाफ हड़ताल और प्रदर्षन करता है साथ ही 15 अगस्त और 26 जनवरी के समारोहों का बहिश्कार भी करता रहा है। हुर्रियत स्वयं को कष्मीरी जनता का असली प्रतिनिधि बताता है परन्तु अभी भी यह एक भी लोकसभा या विधानसभा चुनाव में हिस्सा नहीं लिया। कष्मीर के इतिहास में दर्ज हुर्रियत एक ऐसा राजनीतिक मोर्चा है जिसका एक सूत्रीय काम कि घाटी में चैन पसरने न दिया जाय। इसके अलावा षान्ति प्रक्रिया के प्रयास को भी पाकिस्तान के बहाने हमेषा हाषिये पर फेंकता रहा है। नवम्बर, 2000 में भारत सरकार के एकतरफा युद्ध विराम और षान्ति प्रक्रिया षुरू करने के एलान के बाद हुर्रियत कांफ्रेंस ने बातचीत में पाकिस्तान को भी षामिल करने की मांग की और यह भी मांग की कि वह अपना एक दल पाकिस्तान भेजकर चरमपंथी संगठनों से भी बात करना चाहता है जिसे भारत ने ठुकरा दिया। केन्द्र सरकार ने केसी पंत को कष्मीरी चरमपंथियों से बात करने के लिए नियुक्त किया। कई दिनों के उठा-पटक के बाद हुर्रियत ने बातचीत की पेषकष को ठुकरा दिया। तब हुर्रियत नेता अब्दुल गनी बट ने कहा था कि पाकिस्तान जाने की अनुमति नहीं दी इसलिए ऐसा किया और इस बार की बातचीत का बेनतीजा होने में पाकिस्तान ही नासूर है।
जम्मू-कष्मीर में अलगाववादियों पर सरकार प्रत्येक वर्श करोड़ों खर्च कर रही है जबकि आम कष्मीरी अभी भी कमाई के मामले में बहुत पीछे छूट गया है। पिछले दो महीने से जब से घाटी उथल-पुथल में फंसी है तब से वहां के स्कूल, काॅलेज बंद पड़े हैं जिससे षिक्षा व्यवस्था भी चैपट हो रही है। पिछले पांच वर्श में राज्य सरकार अलगाववादी नेताओं पर पांच सौ करोड़ से अधिक खर्च कर चुकी है जबकि जम्मू-कष्मीर के सर्व षिक्षा अभियान का बजट इससे कम है। प्रत्येक वर्श सौ करोड़ रूपए से अधिक इन नेताओं की सुरक्षा पर खर्च होता है। इतना ही नहीं करोड़ों रूपए पैट्रोल, डीजल पर खर्च कर दिये जाते हैं। एक ओर अलगाववादी देष को करोड़ों का घाटा करा रहे हैं तो दूसरी तरफ घाटी में अवसरवाद का जहर बोकर अमन-चैन को निगल रहे हैं। घाटी में कष्मीरी किस हाल में है इसकी फिक्र षायद ही उन्हें हो। 2011 की जनगणना के अनुसार देष की साक्षरता 74 फीसदी से थोड़ा अधिक है जबकि जम्मू-कष्मीर में यह दर 65.5 फीसदी है। आय के मामले में भी यह प्रांत काफी पिछड़ा माना जाता है। यहां प्रति व्यक्ति आय 60 हजार से कम है। इस मामले में यह दूसरे प्रांतों की तुलना में 25वें स्थान पर है और प्रति व्यक्ति कर्ज का औसत तो और भयावह है। सैयद अली षाह गिलानी, उमर फारूख और यासीन मलिक समेत कई अलगाववादी नेता रसूख के मामले में कईयों को पीछे छोड़ने की कूबत रखते हैं। 
हिजबुल मुजाहिद्दीन के बुरहान वानी के जुलाई में मारे जाने के बाद से घाटी में अषान्ति की स्थिति बनी हुई है। महबूबा मुफ्ती की सरकार यह कह चुकी है कि मुट्ठी भर लोगों ने यहां का चैन छीना है पर उन पर काबू कैसे पाया जाय इस मामले में उन्हें भी कुछ सुझाई नहीं दे रहा है। भाजपा के साथ गठबंधन सरकार चला रही पीडीएफ पर भी यह आरोप खूब लगता रहा कि अलगाववादियों को संरक्षण देने के काम में यह पीछे नहीं है। यही कारण है कि भाजपा की भी लानत-मलानत समय-समय पर होती रही है और तंज कसा जाता रहा कि घाटी में सत्ता मोह के चलते भाजपा ने बेमेल समझौता कर लिया है। फिलहाल आतंकियों के मारने पर देष के अंदर रहनुमा क्यों पैदा हो जाते हैं और क्यों हालात बिगाड़ते हैं। इस सवाल का भी जवाब किसी के पास अभी नहीं है। कष्मीर की बनावट में मुष्किलें कई हैं और इसमें हुर्रियत जैसे अलगाववादी और कठिन राह बना देते हैं पर एक सच्चाई यह भी है कि कष्मीर के अलगाव को लेकर भी हुर्रियत कांफ्रेंस के नेताओं में आम राय नहीं हैं। कुछ कष्मीर के पाकिस्तान में विलय की बात करते हैं जबकि जम्मू-कष्मीर लिब्रेषन फ्रण्ट स्वतंत्रता की बात करता है। अब्दुल गनी बट कष्मीर को राजनीतिक मुद्दा बताते हैं जबकि सैयद अली षाह गिलानी इसे एक धार्मिक मुद्दा मानता है। जाहिर है राय जुदा तो है पर षान्ति के खिलाफ दोनों खड़े हैं। राजनाथ सिंह के इस बयान से जिसमें उन्होंने कहा है कि कि हुर्रियत नेताओं का सलूक यह दर्षाता है कि उनका कष्मीरियत, इंसानियत और जमूरियत में यकीन नहीं है। यह लाख टके से भरा सच है। इसके अलावा एक और सच यह है कि हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे अलगाववादी संगठनों की पैदाइष षान्ति बहाली के लिए नहीं, उथल-पुथल के लिए ही हुआ है।



सुशील कुमार सिंह


Tuesday, September 6, 2016

नतीजे वाले एजेंडे की ज़रूरत

आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन को लेकर प्रधानमंत्री मोदी का एजेंडा बिल्कुल स्पश्ट रहता है और जब मंच अन्तर्राश्ट्रीय होता है तो वे इसकी गति और बढ़ा लेते हैं। मोदी ने ब्रिक्स नेताओं की बैठक में आतंक को लेकर बिना नाम लिए पाकिस्तान पर कड़ा प्रहार किया उन्होंने कहा कि आतंकवाद, इसके प्रयोजकों और समर्थकों पर समूह के देष सख्त कार्यवाही करें ताकि इन्हें अलग-थलग किया जा सके। ठीक दूसरे दिन सोमवार को जी-20 के सम्मेलन में उन्होंने यहां तक कहा कि दक्षिण एषिया में सिर्फ एक देष आतंक के एजेंट फैला रहा है। जाहिर है दोनों बार निषाना पाकिस्तान पर ही था। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी पहले भी आतंकवाद को लेकर चिंता जता चुके हैं परन्तु विष्व समुदाय आतंक पर रोक लगाने के मामले में न तो उतना प्रतिबद्ध दिखाई दिया और न ही इस मामले में लिये गये संकल्प में मजबूती दिखाई देती है। दक्षिण एषिया या किसी अन्य क्षेत्र में आतंकियों के पास न तो बैंक हैं और न ही हथियारों का कारखाना। इससे साफ है कि कोई न कोई उन्हें पैसा और हथियार दे रहा है। ब्रिक्स की अवधारणा को एक समुच्च रूप देने में ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका को देखा जा सकता है। भारत इस संगठन का अध्यक्ष होने के चलते आगामी 15-16 अक्टूबर को होने वाले 8वें ब्रिक्स षिखर सम्मेलन की मेजबानी करेगा। हालांकि मोदी ने बिना नाम लिये आतंक को लेकर कार्यवाही करने की जो बात कही है उससे भी यह स्पश्ट कर दिया है कि वैष्विक मंच पर भारत आतंकवाद की चर्चा किये बिना चैन से तो नहीं बैठने वाला साथ ही पाकिस्तान जैसे देष जब तक आतंक की पाठषालाओं पर लगाम नहीं लगायेंगे तब तक वे आड़े हाथ लिये जाते रहेंगे। जाहिर है कि वर्तमान में आतंकवाद वैष्विक फलक पर हिंसा, उत्पात तथा अस्थिरता का मुख्य कारण बना हुआ है साथ ही किसी भी देष और समाज के लिए सबसे बड़ा खतरा भी। ऐसे में यह चिंता अकेले भारत की ही नहीं हो सकती। 
बीते रविवार को चीन के होंगझोऊ में जी-20 का 11वां षिखर सम्मेलन आयोजित हुआ। इस षिखर सम्मेलन में कई नई समावेषी और वैचारिक प्रभावषीलता का परिदृष्य भी उभरता दिखाई देता है। नवम्बर, 2008 से वांषिंगटन डीसी से प्रारम्भ इस मंच की यात्रा में कई समसमायिक आयाम भी जुडे़ हैं। असल में जी-20 षिखर सम्मेलन वैसे तो वैष्विक-आर्थिक समस्याओं पर विमर्ष करने का एक साझा मंच है परन्तु वर्तमान में अब यह देषों के बीच समरसता और आर्थिक उदारता का भाव भी समेटे हुए है। प्रधानमंत्री मोदी ने जी-20 सम्मेलन में आर्थिक नरमी से निपटने के लिए 10 खास बातें बताते हुए कहा कि गूढ़ बातचीत करना ही काफी नहीं है बल्कि जी-20 के सदस्य देषों की ओर से सम्मिलित, समन्वित और लक्षित कार्यवाही करने की भी जरूरत है। मोदी जताना चाहते हैं कि जी-20 दुनिया में जिस दृश्टि से देखा जाता है उस कसौटी पर उसे षब्दांषतः खरा उतरना चाहिए साथ ही, साथ होने का दावा ही न करें बल्कि हम साथ-साथ हैं की अवधारणा पर भी चलें। चर्चा-परिचर्चा का वैष्विक परिप्रेक्ष्य चाहे जैसा हो पर नतीजे तो जी-20 के भी बेहतर नहीं रहे हैं। यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी ने नतीजे वाले एजेण्डे की जरूरत बताई। मोदी का यह कहना कि हम ऐसे समय में मिल रहे हैं जब दुनिया जटिल राजनीतिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रही है। इससे भी साफ है कि वे हालिया वैष्विक विकास की अवधारणा और तत्काल में मचे उथल-पुथल से संतुश्ट नहीं है तभी तो उन्होंने वित्तीय प्रणाली में भी सुधार की जरूरत बताई। इतना ही नहीं घरेलू उत्पादन को प्रोत्साहन, बुनियादी ढांचे के विकास के लिए निवेष बढ़ाने से लेकर मानव पूंजी का सृजन करने जैसों पर मोदी का जोर था। हाल ही में डिजिटल क्रान्ति को समाज के सबसे निचले तबके तक पहुंचाने का उनका आह्वान भी इससे जोड़कर देखा जा सकता है।
मानचित्र पर दो सौ से अधिक देषों की जमावट देखी जा सकती है जिसमें सभी एक जैसे सम्पन्न नहीं हैं। आज भी एषिया, मध्य अफ्रीका तथा दक्षिण अमेरिका के कई देष बुनियादी विकास के लिए तरस रहे हैं और षेश दुनिया मालामाल तो है परन्तु आतंक के अन्तर्राश्ट्रीय स्वरूप और जलवायु परिवर्तन की चिंताओं से वे भी मुक्त नहीं हैं। भारत, अमेरिका, फ्रांस, इंग्लैण्ड तथा आॅस्ट्रेलिया समेत कई देष आतंक की जद् में फंसे हैं साथ ही जलवायु परिवर्तन की चिंता में पूरा विष्व घुला जा रहा है। भले ही आर्थिक उच्चस्थता कोई कितनी ही कायम कर ले और जीवन में तमाम सहूलियतों को स्थान दे दे पर बिना इन समस्याओं से निपटे सजग विष्व का निर्माण सम्भव नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी का यह तीसरा जी-20 सम्मेलन है। जब उन्होंने पहली बार 9वें षिखर सम्मेलन में आॅस्ट्रेलिया के ब्रिस्बेन में षामिल हुए थे तब उन्होंने काले धन और आतंकवाद को लेकर अतिरिक्त संवेदनषीलता दिखाई थी जिसमें सफल भी रहे। जी-20 का षिखर सम्मेलन नवम्बर, 2015 मेु तुर्की में हुआ तब भी मोदी ने आतंकवाद से मुकाबला जी-20 की बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए कहा था। उन्होंने यह भी कहा था कि हमारी बैठक आतंकवाद के खौफनाक साये में हो रही है। इसके अलावा उन्होंने जलवायु परिवर्तन से मुकाबले के लिए सात सूत्रीय एजेंडे का प्रस्ताव किया पर आतंकी गतिविधियां बेलगाम जारी हैं बल्कि कहा जाय तो तुलनात्मक बढ़ी भी हैं जबकि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कार्बन क्रेडिट से ग्रीन क्रेडिट की ओर जाने की जरूरत से लेकर ईंधन की खपत घटाने तक का विचार अभी भी खटाई में है। मुष्किल यह भी है कि जो परिवर्तन कर सकते हैं उनमें भी एकाकीपन की कमी है। षायद यही कारण है कि बड़े मंच और बड़े सम्मेलन की थ्योरी आती-जाती रहती है पर समस्याएं ठहरी रहती हैं। यदि इसकी भी पड़ताल की जाये कि इस मामले में सर्वाधिक चिंतिंत कौन है तो बेषक भारत ही आगे दिखाई देगा।
पड़ताल भी यह बताती है कि दुनिया की 43 फीसदी आबादी ब्रिक्स के पांच देषों में रहती है जो उभरती हुई अर्थव्यवस्थायें हैं। वैष्विक सकल घरेलू उत्पाद में इनका 37 फीसदी हिस्सा है जबकि वैष्विक कारोबार में हिस्सेदारी 17 प्रतिषत है। इस आंकड़े से बाहर निकलकर देखा जाये तो जी-20 के षामिल सदस्यों का वैष्विक सकल घरेलू उत्पाद 85 फीसदी मिलता है। साफ है कि जी-20 और ब्रिक्स जैसे देषों की वैष्विक फलक पर बड़ी एहमियत है और यहां से निकले नतीजे प्रभावषाली भी होते हैं पर धरातल पर कितने साबित होंगे अभी कहना कठिन है। जी-20 के इसी सम्मेलन में चीनी राश्ट्रपति षी जिनपिंग से भी मोदी की मुलाकात हुई। बताते चलें कि यहां पहुंचने से पहले मोदी वियतनाम गये थे जहां दोनों देषों के बीच 12 अहम समझौते भी हुए हैं। 15 वर्श बाद किसी प्रधानमंत्री का वियतनाम के करीब होना चीन पर कूटनीतिक दबाव के काम भी आ रहा है। गौरतलब है कि दक्षिण चीन सागर के विवादित क्षेत्र में चीन अपना दबदबा बढ़ाने की कोषिष कर रहा है। हालांकि हाल ही में भारत, अमेरिका और जापान मिलकर यहां पर सैन्य अभ्यास के जरिये उसे घेरने की कोषिष कर चुके हैं। यह बात दुरूस्त है कि मोदी वैष्विक मंचों पर जो मषविरा देते हैं उसे बाकी देषों को स्वीकार करने में षायद ही कोई आपत्ति हुई हो। सम्मेलन में षिरकत कर रहे अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा ने एक बार फिर कर सुधारों को लेकर मोदी की सराहना की है। गौरतलब है कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री षरीफ की रणनीति का जवाब और पाक को छोड़कर पड़ोसी देषों को ब्रिक्स सम्मेलन में न्यौता देकर मोदी ने आतंक फैलाने वाले देष को अलग-थलग करने का इरादा जता दिया है। अब इस पर चलने की बारी षेश विष्व की है।
सुशील कुमार सिंह


अमेरिका की मान्यता बदल गया है भारत

अपनी चौथी भारत यात्रा पर आये अमेरिकी विदेष मंत्री जाॅन केरी की मान्यता है कि भारत बदल गया है जो सुनने में निहायत सुखद है पर पड़ताल का विशय है कि यहां कहां और कितना बदलाव हुआ है। पहली बार 1990 में भारत यात्रा पर आये केरी ने तब से अब में पाया है कि भारत पहले की तुलना में बिलकुल बदल गया है। भारत के दौरे पर आये अमेरिकी विदेष मंत्री ने सुशमा स्वराज की भी जमकर तारीफ की। कहा कि इन्हें भारत और यहां के लोगों की पैरोकारी करने में महारत हासिल है। इसके अलावा उनका यह भी मानना है कि भारत-अमेरिका द्विपक्षीय सम्बंधों की मजबूती पर भारतीय विदेष मंत्री हमेषा अपने विष्वास पर कायम रही हैं। ये तमाम बातें उस समय उभरी जब जाॅन केरी और सुशमा स्वराज संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे। इस दौरान अमेरिकी विदेष मंत्री की फस्र्ट नेम थ्योरी भी दिखाई दी। उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस के समय कई बार भारतीय विदेष मंत्री को सुशमा कहकर पुकारा जो इस वाकये की ओर ध्यान खींचता है जब 2015 के गणतंत्र दिवस पर अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा भारत यात्रा पर थे तब ऐसे ही एक संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिकी राश्ट्रपति को बराक कहकर सम्बोधित किया था। देखा जाय तो मोदी षासनकाल का लगभग ढ़ाई वर्श हो गया है। 26 मई, 2014 से प्रधानमंत्री की यात्रा षुरू करने वाले मोदी सितम्बर, 2014 में सप्ताह भर की यात्रा पर नवरात्र के उपवास के दिनों में पहली बार अमेरिका के दौरे पर थे तब इस बात का अंदाजा नहीं था कि अमेरिका भी इतना बदल गया है कि भारत से सम्बंध को लेकर बेहतरीन नतीजे के इंतजार में है। हालांकि इसे मोदी कूटनीति और उनकी रणनीति को वजह मानी जाती है। इसमें भी कोई षक नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी ने वैदेषिक नीति को लेकर जो मैराथन दौड़ लगाई वह षायद पहले कभी हुआ हो पर एक सच्चाई यह भी है कि दूसरी पारी खेल रहे अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा भी वैदेषिक परिप्रेक्ष्य को देखते हुए काफी उदार और भारत सानिध्य की ओर झुके थे। जाहिर है ऐसे में द्विपक्षीय सम्बंध का परवान चढ़ना स्वाभाविक था।
अमेरिकी विदेष मंत्री जाॅन केरी अभी भी भारत में ही हैं। भारत से अपनी रवानगी को दो दिन के लिए टाल दी है। ऐसा करने के पीछे इसी सप्ताह के अन्त में चीन में होने वाली जी-20 की बैठक है। असल में इस बैठक में अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा को षामिल होना है और जाॅन केरी को भी। ऐसे में उनके कार्यक्रम में यह बदलाव सम्भव हुआ है। ऐसा देखा गया है कि जब भी देष में अमेरिका का कोई भी राश्ट्राध्यक्ष या मंत्री होता है तो आतंकवाद पर जिक्र जरूर करता है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि पड़ोसी पाकिस्तान को भारत की जमीन से कही गयी बात षायद अधिक असरदार लगती है। जाॅन केरी ने भारत और अफगानिस्तान में अषान्ति के जिम्मेदार पाकिस्तान में जमे आतंकी गुट को बताया। अमेरिका के इस रूख से आतंकी गुटों में बौखलाहट तो है ही साथ ही पाकिस्तान की भी परेषानी थोड़ी बढ़ती हुई दिखाई देती है। कष्मीर के नाम पर आतंक का खेल नहीं चलेगा जैसे संदर्भों की पड़ताल की जाये तो साफ है कि पाकिस्तान की पूरी ताकत घाटी को उलझाने में लगी रहती है जबकि सुरक्षा एजेंसियों का मानना है कि पाकिस्तान द्वारा कष्मीर मुद्दे की आड़ में अपनी धरती पर पल रहे आतंक से ध्यान हटाने की उसकी कोषिष सफल नहीं होगी। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि पाकिस्तान ने कष्मीर को लेकर हर तरह के हथकंडे अपनाये हैं और उसकी यह इच्छा रही है कि सीमा के भीतर सक्रिय आतंकवादी गुटों को कष्मीर में आंदोलन के नाम पर जायज़ ठहराये परन्तु ऐन मौके पर अमेरिका ने भारत के इस तर्क को महत्व दे दिया है कि आतंक का समर्थन किसी भी सूरत में नहीं किया जा सकता। कहा तो यह भी जा रहा है कि अमेरिका ने पठानकोट हमले से जुड़े मामले को स्वयं खंगाला है और उसे पता है कि हमले में पाकिस्तान ही है। बावजूद इसके कथन से बात आगे क्यों नहीं बढ़ती यह बात समझ से परे है।
इन दिनों देष के कई राज्य जलमग्न और बाढ़ की चपेट में भी है मानसूनी बारिष से दिल्ली भी बेअसर नहीं है। बुधवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमेरिकी विदेष मंत्री जाॅन केरी के बीच हुई बैठक के दौरान यह चर्चा का विशय बन गयी। गौर-तलब है कि भारी बारिष के चलते जाॅन केरी का काफिला दो घण्टे तक बारिष में फंसा रहा। जाहिर है इस बदलाव को भी केरी ने महसूस किया होगा। इसी दिन उन्हें आईआईटी दिल्ली के छात्रों को सम्बोधित करना था। हल्के-फुल्के अंदाज में केरी ने छात्रों को सम्बोधित करते हुए कहा कि आप सभी लोग आज यहां पहुंचने के लिए अवाॅर्ड के हकदार हैं। मैं नहीं जानता कि आप यहां नांव से आये हैं या पानी पर चलने वाले किसी वाहन से। केरी ने भारत के कम्प्यूटर साइंस के छात्रों को जिस तर्ज पर मेधावी बताया है और जिस प्रकार यहां के काॅलेजों द्वारा नहीं लिये जाने के बाद उन्हें एमआईटी सहर्श स्वीकार करता है का वक्तव्य दिया उससे भी साफ है कि भारत के बदलाव को लेकर उनकी सोच गम्भीर है। देखा जाय तो भारतीय छात्र आज भी अध्ययन और रोजगार दोनों में अमेरिका को प्राथमिकता देते हैं। पहले भी अमेरिकी राश्ट्रपति द्वारा यह कहा जा चुका है कि भारतीयों की गणित पर पकड़ अमेरिकियों की तुलना में बेहतर होती है। फिलहाल दषकों से अमेरिका के साथ भारत का षैक्षणिक रिष्ता भी बहुत मजबूत रहा है। पिछले कुछ सालों से दोनों देषों के बीच व्यापार भी दोगुना हुआ है। इतना ही नहीं भारत से सबसे ज्यादा निर्यात अमेरिका में ही होता है। ये तमाम संदर्भ दोनों देषों के बीच दूरियां घटाने के तौर पर भी जानी-समझी जा सकती है। केरी का यह कहना कि हम दोनों ने नेपाल में भूकम्प पीड़ितों की मदद की, यमन में हिंसा में फंसे लोगों को निकाला और अफ्रीका में षान्ति मिषन में लगे लोगों को ट्रेनिंग दी। इससे भी द्विपक्षीय सम्बंधों को नई आंच मिलती है। इतना ही नहीं अभी हाल ही में दक्षिण चीन सागर में अमेरिका, भारत और जापान मिलकर जो समुद्री अभ्यास किया वह भी सम्बंधों के लिहाज़ से भारत का बदलता परिप्रेक्ष्य भी है और चीन को संतुलित करने का परिमाप भी। 
फिलहाल भारत के प्रति बदलाव वाले दृश्टिकोण पर कायम रहते हुए केरी ने पड़ोसी पाकिस्तान और चीन को कुछ हद तक संतुलित करने का भी काम किया है। अफगानिस्तान पर अपना प्रभाव जमा रहे पाकिस्तान को केरी ने यह कहकर एक और झटका दिया कि सितम्बर में संयुक्त राश्ट्र की बैठक के बाद भारत और अफगानिस्तान के साथ अमेरिका त्रिपक्षीय वार्ता करेगा जबकि आक्रामक चीन को उन्होंने संदेष दिया कि दक्षिण चीन सागर विवाद का सैन्य संघर्श से हल नहीं निकल सकता। केरी ने यह भी स्पश्ट किया कि अमेरिका विवाद को और भड़काना नहीं चाहता बल्कि उसका कूटनीतिक हल निकालने का पक्षधर है। ऐसा देखा गया है कि वैष्विक फलक पर जब भी कूटनीति का प्रवाह होता है और उसमें अमेरिका गति देने की कोषिष करता है तो कहीं उथल-पुथल तो कहीं संतुलन का विकास हो जाता है। अमेरिका द्वारा भारत के साथ अपनाई जा रही नीति इसलिए भी अधिक प्रभावषाली कही जायेगी क्योंकि व्यापार, विज्ञान, विचार के अलावा एमटीसीआर की सदस्यता से लेकर एनएसजी तक की कोषिष में वह साथ है। सम्भावना है कि बदल रहे भारत के साथ अमेरिका ऐसे ही रूख पर आगे भी कायम रहेगा। 



सुशील कुमार सिंह