Wednesday, December 21, 2016

रिज़र्व बैंक की तिजोरी और जनता की जेब

जब सरकार यह कहती है कि रिज़र्व बैंक नोटबंदी के बाद पैदा हुए नोटों की कमी से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार है तब यह प्रष्न अनायास ही मन में उठता है कि रिज़र्व बैंक की इतनी तैयारी के बावजूद स्थिति काबू में क्यों नहीं है। इस अनुमान में कि 30 दिसम्बर के बाद इन जैसी समस्यायें नहीं रहेंगी मात्र सम्भावनाओं का खेल नजर आता है। 30 दिसम्बर में जमा कुछ ही दिन बाकी हैं पर जनता एटीएम और बैंक के सामने अभी भी डटी हुई है। कई पैसे की बाट जोहते-जोहते पूरा दिन बैंक की चैखट पर ही गुजार रहे हैं बावजूद इसके खाली जेब घर वापस जाना पड़ रहा है। ऐसे में सवाल है कि जब राजनीतिक और रणनीतिक तौर पर सरकार का रूख सही है, आरबीआई की तिजोरी भी नोटों से भरी है तो फिर जनता की जेब खाली क्यों है। इतना ही नहीं रिज़र्व बैंक द्वारा इन दिनों जिस तर्ज पर निर्णय लिए जा रहे हैं वह भी हतप्रभ करने वाले हैं। जिस देष में बैंकिंग पद्धति का प्रयोग और अनुप्रयोग अभी भी जटिल हो जहां इंटरनेट बैंकिंग से लेनदेन के मामले पूरी तरह विस्तारित न हो पाये हों और बैंक के अर्थषास्त्र से भारी-भरकम जनसंख्या नासमझ हो उसी देष में बैंकों का बैंक रिज़र्व बैंक औसत से अधिक स्पीड में नित नये फैसले ले रहा हो इसे कितना वाजिब कहा जायेगा। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने षायद इसी को देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी पर हमला बोलते हुए कहा कि नोटबंदी पर रिज़र्व बैंक के नियम उसी तरह बदल रहे हैं जिस तरह पीएम अपने कपड़े बदलते हैं। बीते 8 नवम्बर से अब तक नोटबंदी से जुड़े छोटे-बड़े फैसलों की संख्या 60 से अधिक हो गयी है। षायद सरकार और रिज़र्व बैंक भी इस गिनती से अनभिज्ञ हो पर असलियत यह है कि फायदे का सौदा नोटबंदी फिलहाल सरकार के गले की हड्डी भी बना हुआ है।
जब जनता के चिंतक और अर्थषास्त्र के विचारक ही भ्रमात्मक निर्णय में उलझ जायेंगे और अपने ही फैसले को लेकर संदेह में फंस जायेंगे तो देष के समाजषास्त्र को कैसे दिषा दी जायेगी। नोटबंदी के बाद 12 लाख करोड़ रूपए से अधिक नकद बैंको में जमा हो चुके हैं जो अनुमान से कहीं अधिक है बावजूद इसके रिज़र्व बैंक ने अपने सैद्धान्तिक नीतियों में अभी भी कोई परिवर्तन नहीं किया है मसलन रेपो रेट, रिवर्स रेपो रेट आदि। उम्मीद की जा रही थी कि रिज़र्व बैंक ब्याज दर में गिरावट लायेगा पर ऐसा नहीं हुआ। षायद इससे आरबीआई दीर्घकालिक रणनीति और नोटबंदी से बेअसर होने का संदेष दे रही हो पर कांटा तो आरबीआई को भी खूब चुभा है। अभी भी मांग के अनुपात में दो हजार और पांच सौ के नोट पहुंचाने में रिज़र्व बैंक हांफ रहा है। सारे जुगत भिड़ाने के बाद भी जनता की मुसीबत नहीं घट रही है। इतना ही नहीं नये फरमानों से सरकार और रिज़र्व बैंक की विष्वसनीयता भी कटघरे में जाती दिखाई दे रही है। रोचक यह भी है कि 30 दिसम्बर तक बैंक में नोट जमा करने का फरमान सरकार द्वारा पहले दिन ही सुनाया गया था जिस पर बीच में ही ब्रेक लगाते हुए एक नया फरमान जारी किया गया जिसके तहत 5 हजार से अधिक जमा करने पर जमाकत्र्ता को लिखित कारण बताने होंगे कि देरी की वजह क्या है? यह न केवल जनता के लिए मुसीबत है बल्कि चरमराई बैंकिंग व्यवस्था को एक और बोझ डालने जैसा है। हालांकि इस नियम में भी सरकार की तरफ से कुछ सफाई आ चुकी है और इसमें भी फेरबदल हो गया है। वित्त मंत्री अरूण जेटली ने नये साल में नोट की किल्लत नहीं होगी की बात कह रहे हैं और इसके लिए भी आष्वस्त कर रहे हैं कि मुद्रा की आपूर्ति के लिए रिज़र्व बैंक पूरी तरह तैयार है। सवाल है कि जब रिज़र्व बैंक इतना ही तैयार है तो किल्लत की सूरत क्यों नहीं बदल रही। 
इस बात पर भी गौर करने की आवष्यकता है कि बीते कई दषकों से एक हजार और पांच सौ के नये नोट को करेंसी कल्चर में इतने बड़े पैमाने पर विस्तार दिया गया कि बाकी सभी नोट और सिक्के कुल मुद्रा के मात्र 14 फीसदी रह गये। देखा जाय तो छः दषक से अधिक की सत्ता पर कांग्रेस काबिज रही है। जाहिर है कि नोटों का असंतुलन इन्हीं के कार्यकाल में कहीं अधिक व्याप्त हुआ है। हालांकि इससे सीधा सरोकार रिज़र्व बैंक का है पर षायद इस पर ध्यान नहीं गया या फिर यह समझने में चूक हुई कि आने वाले दिनों में कभी भी विमुद्रीकरण से जुड़े निर्णय लिए जायेंगे तो इसका क्या असर होगा। बड़े पैमाने पर बड़े नोटों को छापना और औसतन छोटी मुद्राओं को अनुपात से पीछे रखना भी आज रिज़र्व बैंक के लिए एक चुनौती बना हुआ है। यदि इस बात का ध्यान रखा गया होता कि छोटे-बड़े सभी प्रकार की मुद्राओं का अपना एक अनुपात होगा तो षायद ये परेषानी इतनी न होती। गौरतलब है कि दो प्रकार के नोट मात्र की बंदी से पूरी 86 फीसदी मुद्रा बाजार और लोगों के जीवन से बाहर हो गयी। इस बात से पूरी तरह सहमत हुआ जा सकता है कि एक हजार, पांच सौ के नोटों में काला धन छुपा था परन्तु साढ़े चैदह लाख करोड़ के इन दोनों करेंसी के एवज़ में 12 लाख करोड़ से अधिक रूपए बैंकों की तिजोरी में जमा हो जाना इसे पूरी तरह पुख्ता करार नहीं दिया जा सकता। फिलहाल अभी भी जनता की जेब खाली है भले ही रिज़र्व बैंक की तिजोरी क्यों न भरी हो। कुछ तो दर-दर की ठोकर खा रहे हैं फिर भी सरकार के निर्णय को सही ठहरा रहे हैं। 
नोटबंदी के बाद बीते दिनों दिसंबर माह में ही मौद्रिक नीति की समीक्षा के दौरान आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल ने बताया था कि नोटबंदी के बाद आरबीआई ने क्या किया और इससे क्या प्रभाव पड़ेगा तब तक 4 लाख करोड़ की नई करेंसी भी जारी हो चुकी थी अब यह छः लाख से अधिक बताई जा रही है। आरबीआई ने यह भी साफ किया था कि निर्णय जल्दबाजी में नहीं लिया गया था। उन्होंने यह भी कहा था कि इस फैसले से काले धन, फर्जी करेंसी और आतंकवाद के खात्मे में मदद मिलेगी। समीक्षात्मक टिप्पणी के दौरान उनका यह मानना था कि नोटबंदी का असर आरबीआई की बैलेंस षीट पर नहीं पड़ेगा। साफ है कि रिज़र्व बैंक के मजबूत मनोबल और वित्तीय नीति में कोई असमंजस नहीं है पर यह कितना सच है ये तो वही जानते हैं। इसके अलावा प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री समेत कई और मंत्रालय के सदस्य नोटबंदी को लगातार बेअसर करार दे रहे हैं और जनता को सियासी तौर पर अपने से जुड़ा हुआ अभी भी मानते हैं। बीते 20 दिसंबर को पंजाब में हुए स्थानीय निकाय के 26 सीटों के नतीजों में 20 पर अपनी जीत पक्का करने के चलते सरकार इसे और पुख्ता करार दे रही है। यह कहना गैरवाजिब नहीं होगा कि नोटबंदी से मचे अफरा-तफरी से सरकार काफी चिन्तित है और इसे षीघ्र हल करना चाहती है। इसके पीछे एक बड़ी वजह उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव का होना भी है पर इस सच्चाई से षायद ही किसी को गुरेज हो कि नोटबंदी के चलते तमाम अच्छे काज के बीच आम जनता काफी पिसी है साथ ही मुष्किल में रहते हुए भी सरकार की पीठ थपथपाई है। सबके बावजूद इस सवाल का जवाब कौन देगा कि जब रिज़र्व बैंक की रणनीति भी सही है और उसकी तिजोरी भी भरी है तो जनता की जेब खाली क्यों है?

सुशील कुमार सिंह


Sunday, December 18, 2016

शीत सत्र समाप्त पर क्या मिला!

प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले साल षीत सत्र के दौरान एक अखबार के कार्यक्रम में यह साफ किया था कि लोकतंत्र किसी की मर्जी और पसंद के अनुसार काम नहीं कर सकता। गौरतलब है उन दिनों असहुश्णता का मुद्दा गर्म होने के चलते संसद का षीत सत्र कई बाधाओं से गुजर रहा था। कमोबेष इस बार के षीत सत्र में भी नोटबंदी के चलते स्थिति कुछ इसी प्रकार रही। देखा जाए तो नोटबंदी के चलते जनता सड़क पर बैंकों और एटीएम के सामने लाइन में तो जनता के प्रतिनिधि संसद में षोर षराबे में लगे हुए थे। 16 नवम्बर से षुरू षीत सत्र ठीक एक महीने में यानि 16 दिसम्बर को कई सवालों के साथ इतिश्री को प्राप्त कर लिया। गौरतलब है कि संसद के षीतकालीन सत्र से पहले ही सरकार और विपक्ष ने अपने-अपने ढंग से मोर्चे बंदी कर लिये थे पर नतीजे ढाक के तीन पात ही रहे। विपक्ष संसद के अंदर प्रधानमंत्री से नोटबंदी के मसले पर जवाब देने की बात पूरे सत्र तक  कहता रहा और स्वयं संसद न चलने देने में निरंतर योगदान भी देता रहा । नतीजा सबके सामने है कि एक महीने के षीत सत्र में 92 घंटे बर्बाद और 21 दिनों  में लोकसभा में 19 एवं राजसभा में महज 22 घंटे काम हुए । इस औसत से यह बात पुख्ता होती है कि देष की सबसे बड़ी पंचायत में बैठने वाले जनता के रहनुमा जनता की समस्याओं को लेकर कितने संजीदे है । जबकि प्रति घंटे के हिसाब से संसद में लाखों का खर्च आता है जो देष के करदाता के जेब से पूरा होता है। षीतकालीन सत्र घुलने से भाजपा के षीर्श नेता लाल कृश्ण आडवानी  की नराजगी इस कदर बढ़ गई कि वह इस्तीफा तक की सोचने लगे। जबकि राश्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने सत्र की हालत पर कहा था कि भगवान के लिये संसद चलने दे। 
ऐसा देखा गया है कि जब कभी विकास की नई प्रगति होती है तो कुछ अंधेरे भी परिलक्षित होते है जिसका सीधा असर जनजीवन पर भी पड़ता है पर यहीं प्रगति थम जाए तो इसके उलट परिणाम भी होते है। बीते 8 नवम्बर को सायं ठीक 8 बजे जब प्रधानमंत्री मोदी ने हजार और पांच सौ के नोट बंद करने की बात कहीं तब सत्र षुरू होने में मात्र एक सप्ताह बचा था। षायद वह भी इस मामले से वाकिफ रहे होंगे कि आगामी षीत सत्र में नोटबंदी का मसला गूंजेगा परंतु इस बात से षायद ही वह वाकिफ रहे हो कि 50 दिन में सब कुछ ठीक करने का उनके दावें की हवा निकल जायेगी हालांकि अभी इसमें कुछ दिन षेश बचे है पर हालात जिस तरह बेकाबू है उसे देखते हुए समय के साथ इससे निपट पाना कठिन प्रतीत होता है। फिलहाल एक अच्छी बात सत्र के आखिरी दिन में यह रहीं कि कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी समेत कई नेताओं की प्रधानमंत्री से मुलाकात हुई जिसमें राहुल गांधी ने किसानों से जुड़े मुद्दे समेत कई तथ्य मोदी के सामने उद्घाटित किये। षारीरिक भाशा और बातचीत से ऐसा लगा कि राहुल गांधी पहले से कुछ सहज हुए है बावजूद इसके उनका विपक्षी तेवर कायम रहा। फिलहाल इस बार का षीत सत्र में भी खेल बिगड़ चुका है। षीत सत्र कई सूरत में बंटा हुआ भी दिखायी दिया। सरकार नोटबंदी के चलते जनता के मान मनौव्वल में लगी रही। साथ ही नोट की छपाई से लेकर वितरित करने की मुहिम में जुटी रही । इसके अलावा संसद के भीतर विपक्ष का वार भी झेलती रही यह समझाने की कोषिष में भी लगी रही कि नोटबंदी कितना मुनाफे का सौदा है जबकि विपक्ष मिलीभगत मानते हुए जनता और विकास को हाषिये पर धकेलने वाला निर्णय बताता रहा।
फिलहाल प्ूारे एक महीने के सत्र में समावेषी राजनीति का अभाव पूरी तरह झलका। सहभागी राजनीति की पड़ताल की जाए तो दायित्व अभाव में सभी राजनेता आ सकते है। सभी की अपनी अपनी विफलताएं रही है। विकास का विशय जब भी मूल्यांकन की दीर्घा में आता है तो राजनीति से लेकर सरकार और प्रषासन का मोल पता चलता है। जिस दुर्दषा से षीत सत्र गुजरा है उससे साफ है कि यहां नफे-नुकसान के खेल में जनता पिस गई है।एक महीने चले षीत सत्र में न जनता के लिए अच्छी नीतियां बन पाई और न ही एटीएम और बैंक उन्हें जरूरी खर्चे दे पाये। हालांकि एटीएम और बैंक का षीत सत्र से ताल्लुक नहीं है पर इसी समय में पैसा बदलने और निकालने की समस्याएं भी समनान्त्तर चलती रही। धारणीय विकास की दृश्टि से भी देखें तो मानव विकास की प्रबल इच्छा रखने वाली मोदी सरकार नोट बंदी के चलते विकास दर के साथ सकल घरेलू उत्पाद में भी पिछड़ती दिखायी दे रही है। जो विकास दर 7.6 था अब वह लुढ़क कर 7.1 तक पहंुच गया है। आर्थिक उन्नति की इस प्रक्रिया में फिलहाल आंकड़े एक-दो तिमाही के लिये घाटे की ओर इषारा कर रहे है। मगर विरोधियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकतंत्र में सूरत एक दूसरे के आइने में देखी जाती है ऐसे में षीत सत्र में उनकी जवाबदेही कम नहीं होती हालांकि यहां सरकार की जिम्मेदारी विपक्ष से अधिक कहीं जायेगी। 
       इस बार का षीत सत्र पहले की तुलना में 10 दिन पहले षुरू हुआ था और एक सप्ताह पहले समाप्त हुआ है पर इसकी अवधि पहले की तुलना में अधिक रही है बावजूद इसके नतीजे असंतोशजनक वाले ही रहे। बामुष्किल दो विधेयक ही कानून का रूप अख्तियार कर पाये। वैसे 2015 का षीत सत्र भी कुछ इसी प्रकार का था पर यहां कानून की संख्या दर्जन के आस-पास थी। सत्र में कई ऐसे मुद्दंे उभरे जिसके चलते षोर षराबा होता रहा। सत्र के आखिरी दिन स्पीकर सुमित्रा महाजन ने सत्र समाप्ति की घोशणा करने के दौरान यह कहा कि उम्मीद करते है कि भविश्य में संसद अच्छे तरीके से चलेगी। कथन नया हो सकता है पर संसद का चरित्र पर संसद के चरित्र मंे यह सब कहां षामिल है। देखा जाए तो संसद के भीतर जन आदर्ष को स्थापित करने की बजाए अब सियासी दावपेंज को ज्यादा इस्तेमाल किया जाने लगा है। जिसके चलते जनता के मुद्दे पिछड़ जाते है और राजनेता बिना किसी उद्देष्य प्राप्ति के संसद का समय बर्बाद कर देते है। हालांकि यह कोई नई बात नहीं है। 1987 में बोफार्स कांड के चलते 45 दिन 2001 में तहलका के चलते 17 दिन और 2010 में टूजी घोटालें के चलते 23 दिन का सत्र के अंदर का समय बर्बाद किया जा चुका है। एक बात और अब उन दावों पर भी  षायद ही कोई विष्वास करता हो जिसे लेकर विपक्षी सरकार को घेरने का हथियार बनाते है मसलन राहुल गांधी का यह कहना कि प्रधानमंत्री संसद में जवाब देने से बचना चाहते है या उनके पास इस बात के पक्के सबूत है कि जिससे मोदी का भंडा फोड़ हो सकता है। वास्तव में यदि उनके पास ऐसा कोई पुख्ता घोटालें का सबूत है तो दस्तावेज पेष करना चाहिए था और देष की जनता को बताना चाहिए था न कि मनगढ़त और भ्रम फैलाने वाला वक्तब्य देना चाहिए था। फिलहाल तमाम नसीहत और नए वर्श की षुभकामना के साथ षीत सत्र समाप्त हो चुका है जाहिर है अगला सत्र बजट सत्र होगा। यह भी रहा है कि एक सत्र उम्मीदें पूरी नहीं करता तो दूसरे पर नजरे गढ़ाई जाती है यहीं करते करते मोदी का ढ़ाई वर्श में 8 सत्र निकल चुका है बावजूद इसके पूर्ण बहुमत की मोदी सरकार मनमाफिक काम नहीं कर पाई है जो प्रजातंत्र के लिए कहीं से समुचित नहीं कहा जायेगा। 

सुशील कुमार सिंह


Wednesday, December 14, 2016

जीरो डिग्री पर घूमता चीन

किसी भी देष की भौगोलिक स्थिति को समुचित तरीके से समझने में अक्षांष और देषान्तर सटीक एवं कारगर उपाय हमेषा से रहे हैं पर देष विषेश की प्रकृति और प्रवृत्ति को इसके माध्यम से तब आंका जाना दुरूह हो जाता है जब देष ज़ीरो डिग्री पर ही घूम रहा हो। एनएसजी और मसूद अजहर के मामले में चीन का हालिया बयान इस बात को पुख्ता करता है। रोचक यह भी है कि ग्लोब का दो-तिहाई हिस्सा जलमग्न और एक-चैथाई में दुनिया बसी है और कुछ देष क्षेत्रफल के मामले में बेषुमार तो कई दीन-हीन भी हैं। विकास की बड़ी-बड़ी पाठषालायें चलाने वाले भी सीधे रास्ते पर चलने में आज भी कतरा रहे हैं। कुछ इसी प्रकार की अवधारणा से चीन भी ओत-प्रोत है। चीन ने एक बार फिर भारत की राह में अड़ंगा लगाने का काम किया है। एनएसजी की सदस्यता हासिल करने और जैष-ए-मौहम्मद के प्रमुख आतंकी मसूद अजहर को संयुक्त राश्ट्र द्वारा आतंकी घोशित कराने के मामले में चीन ने एक बार फिर साफ कर दिया है कि इन दोनों मामले में उसकी राय अभी जस की तस है अर्थात् जीरो डिग्री एक्षन और जीरो डिग्री रिएक्षन। इसके चलते भारत की कूटनीति एनएसजी के मामले में सिमटती नज़र आ रही है। हांलाकि उन दिनों यह चर्चा जोरों पर रही कि एमटीसीआर यानी मिसाइल तकनीक नियंत्रण व्यवस्था में उपस्थिति दर्ज करा कर भारत ने बड़ी कामयाबी हासिल की है और चीन को भी यह संकेत दे दिया है कि एनएसजी के मामले में सौदेबाजी के लिए भारत का दावा मजबूत हो सकता है। गौरतलब है कि चीन एनएसजी का सदस्य देष है जबकि एमटीसीआर की सदस्यता से बाहर है। ऐसे में एक दूसरे की सौदेबाजी से भरी कूटनीति परस्पर सदस्यता के मामले में कारगर उपाय हो सकती थी पर चीन के अड़ियल रवैये से यह साफ हो गया है कि एनएसजी के मामले में भारत की राह इतनी आसान नहीं है। गौरतलब है कि मौजूदा समय में 48 देष एनएसजी के सदस्य हैं जिसमें से यदि एक भी देष यदि अडंगा लगाता है तो कोई अन्य देष इसका सदस्य नहीं बन सकता।
पुराने अनुभवों के आधार पर यह भी आंकलन है कि पहले भी भारत को दुनिया के चुनिंदा समूहों से बाहर रखने की कोषिष की जाती रही है। वर्श 1974 में पोखरण परमाणु परीक्षण के चलते भारत को बाहर रखने के लिए एक समूह बनाया गया था। इतना ही नहीं 1981-82 के दौर में भी भारत के समेकित मिसाइल कार्यक्रमों के तहत नाग, पृथ्वी, अग्नि जैसे मिसाइल कार्यक्रम का जब प्रकटीकरण हुआ और इस क्षेत्र में भरपूर सफलता मिली तब भी भारत पर पाबंदी लगाने का पूरा इंतजाम किया गया। फिलहाल बीते कुछ दषकों से यह भी देखने को मिला कि वैष्विक समूह में भारत की उपस्थिति बढ़त बनाने लगी है और मोदी षासनकाल में भारत के प्रति बदली वैष्विक कूटनीति से यह और आसान हुई है। नतीजे के तौर पर बीते जून में एमटीसीआर में भारत की एंट्री इसका पुख्ता सबूत है पर एनएसजी में उसका प्रवेष न हो पाना बड़ी कूटनीतिक असफलता भी कही जा सकती है जबकि अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा एनएसजी में भारत की एंट्री को लेकर कहीं अधिक सकारात्मक राय रखते हैं। गौरतलब है कि एमटीसीआर की सदस्यता के लिए चीन पिछले 12 वर्शों से प्रयास कर रहा है। एनएसजी के मामले में अडंगा लगाने वाला चीन लगातार मानो इस बात पर कायम है कि वह पाकिस्तान के आतंकियों का संरक्षणकत्र्ता बना रहेगा। संयुक्त राश्ट्र संघ द्वारा जब-जब मसूद अज़हर को अन्तर्राश्ट्रीय आतंकी घोशित कराने की भारत ने कोषिष की है तब-तब चीन ने रूकावटें पैदा की है। कूटनीति के क्रम में भारत इस प्रकार की मजबूती रखता है कि उसके बगैर चाहे चीन एमटीसीआर का सदस्य नहीं बन सकता पर एनएसजी पर चीन जिस तरीके का रूख रखता है उससे भी साफ है कि एमटीसीआर में अपनी एंट्री को लेकर बहुत संवेदनषील नहीं है। चीन के अड़ियल रवैया यह भी संकेत करता है कि उसके सोचने और समझने की सीमा पाकिस्तान से होकर गुजरती है जिसके कोर में आतंकी और उसके संगठन आते हैं। चीन का यह कहना कि उसके लिए एनएसजी और अज़हर दोनों ही जरूरी है उसकी खराब मानसिकता का ही परिचायक है। देखा जाय तो पाकिस्तानी आतंकियों का जो कहर भारत ने सहा है उससे चीन नासमझ नहीं है पर प्रतिस्पर्धा के चलते उसे भारत के लिए समतल राह बनाना हमेषा कठिन रहा है। 
वैष्विक सियासत का रूप-रंग भी आने वाले दिनों में बदलेगा ऐसा व्हाइट हाउस में डोनाल्ड ट्रंप के होने के चलते होगा। डोनाल्ड ट्रंप पहले भी कह चुके हैं कि आतंकी देषों की खैर नहीं। पाकिस्तान के मामले में भी उनकी राय इस मामले में काफी सघन देखने को मिली है। भारत के प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों से वे कहीं अधिक प्रभावित भी रहे हैं। उन्होंने यहां तक कहा कि चुनाव जीतने के बाद मोदी की नीतियों को लागू करेंगे। हांलाकि यह सब मसले राश्ट्रपति बनने से पहले के हैं। आगामी 20 जनवरी को दुनिया के सबसे ताकतवर देष अमेरिका को चलाने का जिम्मा डोनाल्ड ट्रंप लेंगे तब की सियासत क्या होगी उस दौर में ही पता चल पायेगा पर ट्रंप के राश्ट्रपति का चुनाव जीतने और दिये गये बयानों से अमेरिका की दिषा और दषा क्या होगी इसका भी अंदाजा लगाया जा रहा है। चीन ने भी ट्रंप से कहा है कि चीन की नीति से समझौता करने पर सम्बंध प्रभावित होंगे। इसमें चीन की बहुत बड़ी कूटनीति छुपी हुई है। दरअसल चीन चाहता है कि उसे संतुलित करने की कोषिष अमेरिका कतई न करे और इस षर्त पर तो बिल्कुल नहीं कि वह भारत को बढ़ावा दे और पाकिस्तान को धौंस दिखाये। 
आगामी 16 दिसम्बर को वियना में होने जा रही न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप यानी एनएसजी की बैठक में क्या होगा यह चीन के बीते 12 दिसम्बर के बयान से साफ हो जाता है। चीन कहता रहा है कि भारत की एनएसजी सदस्यता पर विचार तभी मुमकिन है जब एनपीटी यानी परमाणु अप्रसार सन्धि पर दस्तखत नहीं करने वाले देषों को षामिल करने के लिए नियम तय कर दिये जायें। गौरतलब है कि भारत ने एनपीटी और सीटीबीटी पर हस्ताक्षर नहीं किया है। दरअसल चीन एनपीटी के बहाने भारत को एनएसजी से रोकने का रास्ता ढूंढ रहा है जबकि सच्चाई यह है कि दुनिया का 40 फीसदी यूरेनियम रखने वाला आॅस्ट्रेलिया भारत से एक बरस पहले ही इसकी सप्लाई को लेकर समझौता कर लिया है। ध्यानतव्य हो कि 1998 के परमाणु परीक्षण के बाद पूरी दुनिया ने भारत से नाता तोड़ लिया था। भारत की सकारात्मक स्थिति को देखते हुए अमेरिका ने पहल की तब भी आॅस्ट्रेलिया झुकने के लिए तैयार नहीं था। मनमोहन काल से यूरेनियम का अटका समझौता मोदी काल में पूरा हुआ तब भी चीन को झटका लगा था क्योंकि चीन भी आॅस्ट्रेलिया से ही यूरेनियम खरीदता है। रोचक यह भी है कि एनपीटी पर तो पाकिस्तान ने भी हस्ताक्षर नहीं किया है पर चीन उसके मामले में भारत जैसा रवैया नहीं रखता है। फिलहाल ये माना जा रहा है कि जिस रूख पर चीन कायम है उससे एनएसजी का रास्ता भारत के लिए चिकना तो नहीं होने वाला और न ही वह इस मामले में कोई भावुक कदम उठायेगा। गौरतलब है कि 48 सदस्यीय एनएसजी की दो दिवसीय बैठक में भारत का मुद्दा छाया रहेगा पर खाली हाथ रहने की सम्भावना इसलिए बनी रहेगी क्योंकि चीन पहले जैसे अभी भी जीरो डिग्री पर ही घूम रहा है।

सुशील कुमार सिंह


Thursday, December 8, 2016

अम्मा विहीन तमिलनाडु की राजनीति

सियासी क्षितिज में जनप्रिय नेताओं की लम्बी फेहरिस्त दषकों से समय-समय पर उभरती रही है पर जन-जन में भाव परोसने और निहायत भावुक बना देने वाले नेतृत्व देष-प्रदेष में कम ही देखे गये हैं। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता को फिलहाल इस सूची में रखा जा सकता है। इतना ही नहीं जिस तर्ज पर जयललिता ने तमिलनाडु में अपनी सियासत की चमक बिखेरे हुए थीं वह उनके निधन तक बरकरार रही। तमिलनाडु के बाषिन्दों के दिलों पर राज करने वाली जयललिता एक ऐसी क्वीन थी जिसके विरोध को लेकर सुर षायद ही कभी मजबूती से उठे हों। गौरतलब है कि आय से अधिक धन रखने के मामले में उन्हें जेल तक जाना पड़ा था बावजूद इसके उनकी छवि पर कोई खास आंच नहीं आई। 234 विधानसभा वाले तमिलनाडु में 150 से अधिक विधायकों के साथ बादस्तूर वह निधन तक सत्ता चलाती रहीं। तमिलवासी उनके निधन से बहुत दुःखी हैं। कईयों का तो रो-रो के बुरा हाल है। उन्हें अपना नेता ही नहीं मानो अम्मा को खोने का बेइंतहां दर्द हो। यदि यह कहा जाय कि दक्षिण भारत के एक प्रांत की सियासत में खुद को समेट कर रखने वाली जयललिता भारत के किसी बड़े नेता से कम नहीं थी तो गलत न होगा। गौरतलब है कि 1984 में पहली बार उनकी सियासत राज्यसभा सदस्य के तौर पर ही षुरू हुई थी। फिलहाल देखा जाय तो इन दिनों भले ही तमिलनाडु को गति देने के लिए जयललिता के सबसे अधिक चहेते नेता पन्नीरसेल्वम मुख्यमंत्री बनाये गये हैं पर जो रिक्तता उनकी वजह से व्याप्त हुई है उसकी भरपाई करने में षायद बरसों खपाने पड़ेंगे। जयललिता का जाना देष के लिए भी बहुत भावुक क्षण था। उनके निधन की सूचना पर पूरा देष उमड़ पड़ा। प्रधानमंत्री के अलावा कई केन्द्रीय मंत्री तथा राहुल, सोनिया समेत कई प्रदेष के मुख्यमंत्री भी जयललिता के निधन पर श्रृद्धांजली देने चेन्नई पहुंचे। कई भावुक क्षण भी इस दरमियान विकसित हुए। प्रधानमंत्री मोदी भी उस दौरान काफी गमजदा दिखाई दे रहे थे। यह तब अधिक भावुक क्षण ले लिया जब तमिलनाडु के मुख्यमंत्री की षपथ लेने वाले पन्नीरसेल्वम उनके गले लगते हुए फूट-फूट कर रोए। जयललिता की हमराज और सर्वाधिक विष्वस्त षषिकला से प्रधानमंत्री की मुलाकात भी कुछ इसी तरह का माहौल लिए हुए थी।
तथ्य और सत्य यह है कि दुनिया में आम हो या खास इस सच का सामना सभी को करना ही पड़ता है। जयललिता बीते 22 सितम्बर से अस्पताल में इलाज करा रही थी पर 5 दिसम्बर के लगभग आधी रात में उनकी मृत्यु तमिलवासियों के लिए बड़ा आघात था। जो जन सैलाब उनकी षव यात्रा में देखा गया उसका भी हिसाब लगाना मुष्किल ही है। सिनेमा के रूपहले पर्दे से सियासी जमीन बनाना और उस पथ पर सरपट दौड़ना साथ ही विरोधियों से निपटने की कला में उनकी कोई सानी नहीं थी। तमिलनाडु की सियासत में अपने नियोजन और जनप्रिय योजनाओं के चलते घर-घर में मानो वह वास करती थी जिसका पुख्ता सबूत उन्हें अम्मा कहा जाना है। गौरतलब है कि सियासत की डगर सबके लिए आसान नहीं होती न ही सब इस मामले में पारंगत होते हैं। राजनीति में कई फलक होते हैं और हर फलक से वाकिफ होना सबके लिए सम्भव नहीं होता पर जयललिता के लिए यह सब मुमकिन था। राज्य की सत्ता से लेकर केन्द्र की सियासत तक अम्मा का प्रभाव बीते कई दषकों से देखा जा सकता है। जयललिता के जाने के बाद राजनीति कैसी होगी इसके भी कयास लगाये जा रहे हैं। कई मान रहे हैं कि केन्द्र की सियासत में तमिलनाडु की भूमिका अब कहीं अधिक मायने रखने वाली है और अन्नाद्रमुक की मजबूरी होगी कि वह भाजपा से नजदीकी बढ़ाये। हालांकि इस बात को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता कि ऐसी ही मजबूरी भाजपा पर भी लागू होती है। छः माह पहले जब विधानसभा का चुनाव तमिलनाडु में हो रहा था तब प्रधानमंत्री मोदी ने वहां कई रैलियां की थीं और सभी जानते हैं कि अम्मा के आगे वहां भाजपा की दाल तो बिल्कुल नहीं गली थी।
इसमें कोई दो राय नहीं कि जयललिता के निधन के बाद प्रदेष की राजनीति में एक बड़ी रिक्तता आ गयी है। अब देखना यह होगा कि सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक निकट भविश्य में क्या कदम उठाती है। साफ है कि जयललिता से पहले की राजनीति और बाद की राजनीति में अन्तर तो जरूर आयेगा। देखा जाय तो प्रधानमंत्री मोदी बीते ढ़ाई वर्शों से राज्यसभा में संख्याबल की कमी के चलते विरोधियों का निरन्तर दबाव झेलते रहे हैं जिसके चलते उनके कई महत्वाकांक्षी विधेयक आज भी धूल फांक रहे हैं। गौरतबल है कि अन्नाद्रमुक का मौजूदा लोकसभा में 37 और राज्यसभा में 13 सांसद हैं जो मोदी सरकार के लिए भविश्य की सियासत में अच्छा खासा असर रख सकते हैं और यह किसी बड़े संसाधन से कम नहीं है। इसे भी दरकिनार नहीं किया जा सकता कि आगामी जून-जुलाई (2017) में राश्ट्रपति और उपराश्ट्रपति का चुनाव भी होना है। केन्द्र सरकार मनमाफिक उम्मीदवार को इस पद पर पहुंचाना चाहेगी। ऐसे में अन्नाद्रमुक के इन सिपाहियों पर मोदी की जरूर नज़र होगी। जाहिर है सधी हुई राजनीति करने के माहिर मोदी फिलहाल राज्यसभा में भी अपनी कमी को दूर करने के लिए अन्नाद्रमुक के 13 सदस्यों के साथ आंकड़े को और पुख्ता करना चाहेंगे। प्रधानमंत्री मोदी ने तमिलनाडु में जयललिता के रहते हुए कोई ऐसी-वैसी व्यक्तिगत टिप्पणी भी नहीं की थी जो की उनके उत्तराधिकारियों को कचोटती हो। गौरतलब है कि मोदी पहले भी जयललिता से सियासी सम्बंध बनाने के प्रति उत्सुक रहे हैं। फिलहाल अन्नाद्रमुक के उत्तराधिकारियों से जो अपेक्षा केन्द्र की इन दिनों हो सकती है वह कैसे पूरी होगी यह देखना भी काफी दिलचस्प रहेगा। 
140 फिल्मों में अभिनेत्री की भूमिका निभा चुकी जयललिता की राजनीतिक पारी 1982 में एआईएडीएमके में षामिल होने से षुरू हुई। सिने स्टार रहे एम.जी. रामचन्द्रन अम्मा के राजनीतिक गुरू के तौर पर जाने जाते हैं। सियासी दांवपेंच की माहिर रहीं जयललिता कई अवसरों पर मोदी सरकार की योजनाओं पर पुरजोर विरोध करती रही हैं परन्तु अब ऐसा लगता है कि अम्मा के न होने से अन्नाद्रमुक ऐसा नहीं कर पायेगी। इसके पीछे कई ठोस वजह भी मानी जा रही है जिसमें सरकार चलाने के मामले में केन्द्र के सहयोग की आवष्यकता को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता। खास यह भी है कि अन्नाद्रमुक के करीब 90 फीसदी सांसद राजनीति में नौसिखिये हैं। ऐसे में अन्दरखाने कोई गड़बड़ी न हो इसे लेकर भी बच के ही कदम उठाना होगा। पन्नीर सेल्वम को अभी पूरे साढ़े चार साल सत्ता चलानी है जाहिर है केन्द्र से गैर वाजिब विरोध वह स्वयं नहीं रखना चाहेंगे। इतना ही नहीं जयललिता के राजनीतिक विरासत के तौर पर षषिकला का खेमा भी देर-सवेर आतुर हो सकता है। राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते अन्नाद्रमुक में भी यदि कोई फंसाद होता है तो यह अम्मा के उन आदर्षों को चोट पहुंचेगी जिसे उन्हें बनाने में दषकों लगे थे। गौरतलब है कि कि भाजपा का तमिलनाडु में महज़ दो फीसदी वोट है। ऐसे में रिक्तता का लाभ उठाते हुए वह इसे बढ़ाने को लेकर नये तरीके सोच सकती है। हालांकि जिस तर्ज पर जयललिता ने अपने चमत्कारिक नेतृत्व से तमिलनाडु की जनता को अपना अनुयायी बनाया था उसमें भाजपा का सेंध इतनी आसानी से नहीं लगेगा। पन्नीर सेल्वम भले ही भावुक होकर प्रधानमंत्री से गले मिलकर फूट-फूट कर रोए हों पर इस भावना में राजनीतिक आलिंगन की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। फिलहाल जयललिता की कमी से तमिलनाडु और वहां की सियासत को अच्छा खासा वक्त लग सकता है।


सुशील कुमार सिंह


Monday, December 5, 2016

हार्ट ऑफ़ एशिया के केंद्र में आतंकवाद

हार्ट आॅफ एषिया के केन्द्र में आतंकवादअमृतसर में हार्ट आॅफ एषिया के भव्य मंच से जब अफगानिस्तान के राश्ट्रपति अषरफ गनी ने पाकिस्तान को आतंकवादी गतिविधियों के चलते खरी-खोटी सुनाई तो हृदय को बड़ा सुकून मिला पर रूस ने इसी मामले पर पाकिस्तान को घेरने की भारत की कोषिष के प्रति एक बार फिर प्रतिकूल रूख दिखाकर काफी हद तक हृदय को दुखी भी किया। रूस ने पाकिस्तान के रूख को न केवल जायज़ ठहराते हुए आपसी मतभेद नहीं उठाने की बात कही बल्कि भारत की कोषिषों को भी झटका दिया। गौरतलब है कि रूस पहले भी ब्रिक्स सम्मेलन में आतंक को लेकर पाकिस्तान को अलग-थलग करने वाली भारत की मुहिम को झटका दे चुका है जबकि रूस दषकों से भारत का प्रगाढ़ मित्र है। हालांकि संयुक्त घोशणापत्र में आतंकवाद के खिलाफ संयुक्त मोर्चा बनाने पर पूरी सहमति देखी जा सकती है परंतु अफगानिस्तान की ओर से आतंकवाद को मदद देने वाले राश्ट्रों के खिलाफ पेष किये गये काउंटर टेरर फ्रेमवर्क को मंजूरी न मिलना भारत और अफगानिस्तान के मन के विरूद्ध भी है। फिलहाल इस सम्मेलन में अफगानिस्तान को भारत के साथ जबरदस्त दोस्ती निभाते हुए देखा जा सकता है। जिस तर्ज पर पाकिस्तान को अफगानिस्तान ने लताड़ा है उससे भी साफ है कि भारत की कूटनीति आतंक के मामले में फिलहाल सफल सिद्ध हुई है। देखा जाय तो पाकिस्तान इस बात को लेकर पहले से ही षंकित था कि अफगानिस्तान इस मंच से उस पर हमला कर सकता है इसे देखते हुए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ षरीफ के सलाहकार सरताज अजीज एक दिन पहले अफगानी राश्ट्रपति से मुलाकात भी की थी पर इस भेंट का कोई मतलब नहीं निकला उलटे अषरफ गनी ने यह तक कह डाला कि जो पांच सौ करोड़ डाॅलर की मदद उन्हें पाकिस्तान दे रहा है उसे वह स्वयं आतंकवाद को खत्म करने में प्रयोग करें। साथ ही अफगानी राश्ट्रपति ने सीमापार आतंकवाद पर पाकिस्तान से हिसाब भी मांगा और आतंकी नेटवर्क को संरक्षण देकर अपने ही देष में अघोशित युद्ध छेड़ने का आरोप भी मढ़ा। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह इषारा करते हैं कि हार्ट आॅफ एषिया के मंच से पाकिस्तान को साफ संदेष दे दिया गया है कि आतंकियों और हिंसक चरमपंथियों को पनाह देना षान्ति के लिए कितना बड़ा खतरा हो सकता है। 
इस बीच इस बात पर भी चर्चा जोरों पर है कि क्या भारत के राश्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और सरताज अजीज के बीच कोई मुलाकात हुई है। दरअसल प्रधानमंत्री मोदी की ओर से बीते 3 दिसम्बर को विदेष मंत्रियों के लिए डिनर का आयोजन किया गया था। डिनर के बाद अजीत डोभाल और सरताज अजीत के बीच मुलाकात की बात कही जा रही है। पाकिस्तानी मीडिया मुलाकात होने का दावा कर रहा है जबकि भारत इससे इंकार कर रहा है। देखा जाय तो पाकिस्तानी मीडिया और पाकिस्तान सरकार समेत उसके तमाम प्रतिनिधि अक्सर बात को बढ़ा-चढ़ाकर पेष करते रहे हैं साथ ही अपनी षेखी बघारने में पीछे नहीं रहते। बीते दिनों पाकिस्तानी प्रधानमंत्री षरीफ ने तब हद कर दी जब उन्होंने यह कह डाला कि नवनिर्वाचित अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने उन्हें न केवल षानदार व्यक्ति कहा बल्कि पाकिस्तान को सम्भावनाओं वाला देष करार दिया जबकि व्हाईट हाउस की ओर से इस पर कोई तवज्जो नहीं दिया गया। पाकिस्तानी मीडिया किसी अपवाह तंत्र से कम नहीं है और सरताज अजीज जैसे लोग किसी भी परिस्थिति को भुनाने में तनिक मात्र भी पीछे नहीं रहते हैं। फिलहाल हार्ट आॅफ एषिया के मंच पर पाकिस्तान की आतंकवाद के मामले में बोलती बंद हो गयी। मुख्य विपक्षी कांग्रेस ने केन्द्र सरकार से भी सवाल दागा है कि अजीज को क्या बिरयानी खिलाने के लिए यहां बुलाया गया है। सरकारी सूत्रों की मानें तो दोनों के बीच कोई बैठक नहीं हुई है। बस सौ मीटर तक साथ टहलते हुए डिनर वेन्यू तक जरूर गये हैं जिस दौरान महज़ कुछ अनौपचारिक बातचीत हुई। ठीक उसी तर्ज पर जैसे प्रधानमंत्री मोदी ने सरताज अजीज से हाथ मिलाते हुए नवाज़ षरीफ का हालचाल पूछा था।
गौरतलब है कि भारत के अमृतसर में हार्ट आॅफ एषिया के मंच पर पाकिस्तान के किसी प्रतिनिधि का उपस्थित होना किसी बड़े सवाल से कम नहीं है जिस पाकिस्तान ने 18 सितम्बर को उरी में आतंकी हमला के माध्यम से भारत के 18 सैनिकों को षहीद कर दिया जिसके चलते इस्लामाबाद में होने वाले सार्क बैठक को भारत के साथ कई देषों ने बायकाॅट किया साथ ही 28-29 सितम्बर को पाक अधिकृत कष्मीर में घुसकर भारतीय सेना ने सर्जिकल स्ट्राइक करके आतंकी कैंपों और आतंकियों को नश्ट करने का जोखिम लिया। इतना ही नहीं अभी भी लगातार सीमा पर पाकिस्तान की ओर से गोलीबारी जारी है जिसके चलते सेना के जवान षहीद हो रहे हैं और हमले की जद में सीमा पर बसे गांव वहां के बाषिन्दे और मवेषी हैं। ऐसे में भारत के किसी मंच पर पाकिस्तान के किसी प्रतिनिधि का होना कितना वाजिब कहा जायेगा। विपक्ष का आरोप भले ही राजनीतिक माना जाय पर सच्चाई यह है कि हार्ट आॅफ एषिया के माध्यम से भी पाकिस्तान से भारत को कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। वैष्विक मंचों पर पाकिस्तान की ये फितरत रही है वादे करो फिर मुकर जाओ और डांट खाने के बाद भी जस के तस रहो। रूस के उफा में भी षरीफ ने आतंक को लेकर जो वादे किये थे उस पर कोई अमल न करना साथ ही 2 जनवरी को पठानकोट के हमले के बाद पाक जांच एजेंसी का मार्च में सप्ताह भर के लिए भारत आना और जब भारत की एनआईए को इस्लामाबाद जाने की बारी आई तब कष्मीर के मुद्दे सामने लाकर पाकिस्तान इससे एक बार फिर मुकर गया। सम्भव है कि सरताज अजीज भारत से कुछ भी सीख कर नहीं जायेंगे और दोनों देषों के बीच पहले और अब में कोई फर्क भी नहीं होने वाला। कुल मिलाकर समस्या भी पुरानी, बातें भी पुरानी अन्तर है तो केवल इस बात का कि मंच नया था।
हार्ट आॅफ एषिया की स्थापना 2 नवम्बर, 2011 को तुर्की की राजधानी इस्तांबुल में हुई थी जिसका उद्देष्य अफगानिस्तान की स्थिरता को समृद्धि प्रदान करना था। एषिया के 14 देषों का यह संगठन क्षेत्रीय देषों के बीच संतुलन साधने, समन्वय बिठाने साथ ही आपसी सहयोग बढ़ाने का भी काम करता है। 18 सहयोगी देष और 12 सहायक और अन्तर्राश्ट्रीय संगठन भी इसमें षामिल हैं। अमृतसर में हुए हार्ट आॅफ एषिया का यह छठवां आयोजन था जिसका मुख्य उद्देष्य आतंकवाद का खात्मा है पर इस मामले में कितने कदम आगे बढ़े इसका भी लेखा-जोखा किया जाना चाहिए। इसकी खासियत घोशणापत्र में पाकिस्तानी आतंकी संगठन लष्कर और जैष-ए-मौहम्मद का नाम षामिल किया जाना है। गौरतलब है कि इन संगठनों का नाम पहले भी गोवा के ब्रिक्स घोशणापत्र में षामिल किये जाने का प्रयास किया गया था पर चीन की वजह से सम्भव नहीं हो पाया था। 40 देषों की मौजूदगी वाला हार्ट आॅफ एषिया में चीन भी षामिल था लेकिन विष्व के अनेक देषों के रूख को देखते हुए इस बार पाकिस्तान समर्थक चीन भी चुप्पी साधना ही सही समझा। कहा जाय तो यह भारत की सधी हुई कूटनीति का ही नतीजा है साथ ही जिस तरह अफगानिस्तान बीते कुछ वर्शों से लोकतंत्र के रास्ते पर सरपट दौड़ा है और आतंकवाद मुक्त किसी देष के क्या मायने होते हैं इसको भी समझा है। अफगानिस्तान यूरेषिया के बीच एक बेहतरीन पुल का भी काम कर सकता है। इससे भारत को कई आर्थिक मुनाफे के अतिरिक्त आतंकी गतिविधियों पर लगाम की गुंजाइष भी बढ़ती दिखाई देती है। फिलहाल आतंकियों के षरणगाह पाकिस्तान के मन-मस्तिश्क पर इस आयोजन की कितनी छाप पड़ी होगी यह आने वाले दिनों में उसकी आदतों की पड़ताल करके परखा जा सकेगा।

सुशील कुमार सिंह


Sunday, December 4, 2016

सवालों में घिरा राहत भरा फैसला

यदि यह कहा जाय कि सरकार द्वारा पांच सौ और हजार रूपए के पुराने नोट को प्रचलन से बाहर करने वाला निर्णय हर हाल में नेक इरादे से परिपूर्ण था तो यह कहीं से असंगत नहीं है परन्तु यदि यह माना जाय कि इस मामले में सरकार की पूरी तैयारी थी तो यह बात पूरी तरह गले नहीं उतरती। पुराने नोटों की बंदी और नये नोटों की कमी के चलते किस प्रकार की दिक्कतें उत्पन्न होंगी भले ही इसका अनुमान सरकार को न रहा हो पर इस तर्क में दम है कि मोदी सरकार ने काली कमाई पर करारी चोट की है। गौरतलब है कि ऐसी चोट करने से पहले सरकार ने 30 सितम्बर तक का वक्त दिया था जिसमें 45 फीसदी कर चुका कर इस समस्या से निजात पाई जा सकती थी। इस सरल उपाय को कईयों ने अपनाया और राहत भरी सांस ली साथ ही राजकोश भी मुहाने पर पहुंचा पर इस सीधे सपाट रास्ते से कुछ ने वास्ता नहीं रखा। षायद उन्हें अनुमान भी नहीं रहा होगा कि उनकी काली कमाई पर सरकार का ऐसा हथौड़ा गिरने वाला है। बीते 8 नवंबर को जिस तर्ज पर नोटबंदी की घोशणा हुई वह कईयों को आष्चर्य में डाला तो कईयों के लिए बड़ा संकट भी बना। इस निर्णय के बाद जनमानस में विभिन्न प्रकार की समस्यायें भी व्याप्त हुई साथ ही विरोधी दलों ने सरकार के खिलाफ लामबंध होकर जनता के बहाने इस पर खूब राजनीति भी की जो अभी भी जारी है। रोचक यह भी है कि नोटबंदी के चलते बढ़ती जन समस्याओं के अनुपात में सरकार अपने निर्णय में भी निरंतर सुधार करती रही। उसी दिषा में एक बड़ा कदम उठाते हुए आयकर अधिनियम 1961 में भी नये संषोधन की दरकार महसूस की गयी। इस संषोधन के चलते काले धन रखने वालों को एक और मौका देने का काम किया गया है पर सरकार के इस कदम से कई सवाल भी खड़े हुए हैं कि जब सरकार का होमवर्क दृढ़ता लिये हुए था तो निर्णयों को लेकर परिवर्तनों की लगातार झड़ी क्यों लगाई गयी। साफ है कि होमवर्क के मामले में सरकार की तरफ से जल्दबाजी हुई है। इसके अलावा भविश्य की समस्याओं के प्रति काफी हद तक सरकार अंजान भी रही है।
आयकर अधिनियम में संषोधन करके सरकार इन उपजी समस्याओं के बीच कुछ नये संदेष भी देना चाह रही है। जाहिर है कि काली कमाई वालों के रूख को भांप कर सरकार ने उदार रास्ता अख्तियार करना जरूरी समझा। ऐसा करने से न केवल राजकोश में वृद्धि की जा सकती है बल्कि झंझवात में फंसी सरकार कुछ राहत की सांस भी ले सकती है। सरकार की सबसे बड़ी कमी तमाम सीमाओं के बावजूद बैंकों और एटीएम में नोटों को न पहुंचा पाना भी रहा है। कुछ इलाकों में तो षायद आज भी पांच सौ के नोट बामुष्किल ही मिल रहे होंगे। हो सकता है आयकर अधिनियम में हो रहे संषोधन के मामले में विरोधी दलों का भी असर हो पर यह पूरी तरह कहना सम्भव नहीं है क्योंकि कानून पारित करते समय विरोधियों का हो हंगामा बादस्तूर लोकसभा में कायम रहा। सवाल तो यह भी है कि आखिर जब पहले ही सरकार हजार, पांच सौ के नोटों को अवैध करार दे चुकी है तो वह कानून के माध्यम से 50-50 का खेल क्यों खेल रही है। प्रष्न तो यह भी उठ रहा है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार जो 50 दिन का वक्त मांगा है उसमें उसे कारगर न उतर पाने का अंदेषा हो जिसकी वजह से यह कदम उठाना पड़ रहा हो। फिलहाल संषोधन विधेयक सभी बाधायें पार कर चुका है। इसे लेकर राज्यसभा की ओर से भी कोई अड़चन इसलिए नहीं है क्योंकि इसे धन विधेयक की श्रेणी में रखा गया है। संविधान के अनुच्छेद 110 में धन विधेयक का वर्णन देखा जा सकता है। कोई भी विधेयक धन विधेयक होगा इसकी घोशणा लोकसभा अध्यक्ष करते हैं। इसमें खास यह है कि लोकसभा में पारित होने के बाद राज्यसभा से सहमति मिलने की अनिवार्यता से यह मुक्त होता है। इसकी पेषगी भी राश्ट्रपति से पूछ कर लोकसभा में ही की जाती है।
आधा देकर, आधा सफेद करें पर पकड़े गये तो 85 फीसदी देना होगा। फिलहाल प्रावधानों में प्रस्तावित बदलाव को देखें तो आयकर अधिनियम 1961 में धारा 270 के तहत पेनाल्टी और धारा 271एएबी के तहत तलाषी एवं जब्ती के प्रावधान निहित हैं साथ ही कई अन्य प्रावधान भी देखे जा सकते हैं। फिलहाल मौजूदा प्रावधान के अन्तर्गत नई कर व्यवस्था में अघोशित नकदी और बैंक जमा को घोशित किया जा सकता है ऐसी स्थिति में 30 फीसदी टैक्स के अलावा कर राषि का 33 फीसदी सरचार्ज और 10 प्रतिषत पेनाल्टी देना होगा। इस प्रकार कुल राषि का 50 फीसदी टैक्स में जायेगा जबकि 25 फीसदी राषि चार साल के लिए प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना में जमा होगी। इस तरीके के बंटवारे के बाद घोशित राषि का मात्र 25 फीसदी ही व्यक्ति विषेश को प्राप्त होगा। हालांकि चार वर्श बाद प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना में जमा राषि वापस मिल जायेगी जो केवल मूलधन होगा। बेषक सरकार ने नये कानून के माध्यम से धन कुबेरों को राहत दिया हो पर आम जनमानस के मामले में अभी सब कुछ ठीक नहीं हुआ है। नोटबंदी से नुकसान भी बताये जा रहे हैं। एजेंसियों का मानना है कि मांग की कमी से उद्योग व अर्थव्यवस्था के लिए ये अच्छे दिन नहीं हैं। कहा जाय तो मौजूदा वक्त चुनौती से भरे हुए हैं। हालत सुधारने के अभी आसार कम ही बताये जा रहे हैं साथ ही बैंकों के लिए दिसम्बर का महीना बेहद चुनौतीपूर्ण रहने वाला है। इसकी एक मुख्य वजह प्रथम सप्ताह में निकलने वाला भारी भरकम वेतन है। दुनिया के दो बड़े रेटिंग एजेंसियां मूडीज़ एण्ड स्टैण्डर्ड एण्ड पुअर्स की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि नोटबंदी का फैसला तात्कालिक तो परेषान करने वाला है पर आगे यह फायदे का सौदा साबित होगा। कुछ सर्वे को देखें तो 85 से 90 फीसदी जनता मोदी के साथ खड़ी दिखाई देती है। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि उसे भी इस बात का अंदाजा है कि सरकार के इस कदम से उसके भी अच्छे दिन आने वाले हैं। 
नये नोट की अपर्याप्त उपलब्धता के चलते हो रही समस्याओं के मद्देनजर प्रदेष के मुख्यमंत्रियों से भी राय लेने की बात हो रही है। केन्द्र सरकार ने यह निर्णय लिया है कि आन्ध्र प्रदेष के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू की अध्यक्षता में समिति बनाई जायेगी। कहा तो यह भी जा रहा है कि नोटबंदी के मामले में मोदी के राजनीतिक दुष्मन से दोस्त बने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीष कुमार समेत असम, महाराश्ट्र तथा कर्नाटक के मुख्यमंत्रियों से भी इस मामले में बात हुई है और वे इस कमेटी के हिस्सा भी बनेंगे। प्रजातांत्रिक देषों की एक परम्परा रही है कि जब भी देष हित में बड़े फैसले होते हैं तो विपक्ष की भूमिका भी विस्तार ले लेती है। जाहिर है मुख्य विपक्षी कांग्रेस को भी इसका हिस्सा बनाना लाज़मी है। हालांकि इसकी कोई औपचारिक घोशणा नहीं हुई है। प्रधानमंत्री ने षुरूआत में ही सब कुछ ठीक करने के लिए देष की जनता से 50 दिन का वक्त मांगा है। जापान यात्रा से वापसी के बाद गोवा में पहला सम्बोधन देने वाले मोदी अब तक उत्तर प्रदेष में तीन रैलियों को सम्बोधित कर चुके हैं और सभी में 50 दिन वाली बात लगभग दोहराई है। फिलहाल मौजूदा स्थिति में आयकर कानून में संषोधन करके सरकार ने काली कमाई को सफेद करने का एक और अवसर देने की फिराक में है पर इस सवाल के साथ बात समाप्त की जा सकती है कि जिस उद्देष्य के चलते सब कुछ हुआ क्या उसमें यह संषोधन मील का पत्थर साबित होगा। 
सुशील कुमार सिंह