Thursday, January 26, 2023

तमाम नियोजन के बावजूद आबादी में अव्वल

बढ़ती आबादी का सीधा अर्थ सामाजिक, आर्थिक और प्राकृतिक संघर्श का बढ़त में होना। गरीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, अपराध समेत तमाम रोगों का स्वतः विकास हो जाना। ज्वलंत सवाल यह है कि क्या वाकई में भारत की आबादी चीन को पीछे छोड़ चुकी है। यदि यह वाकई में हुआ है तो भारत भले ही जनसंख्या में दुनिया में प्रथम पर आ गया हो मगर यह उसकी प्राथमिकता षायद ही रही हो। वर्श 2022 की पूर्व संध्या पर संयुक्त राश्ट्र ने एक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें अनुमान था कि 2022 के अंत तक चीन और भारत की जनसंख्या लगभग बराबरी के आस-पास होंगे और 2023 में भारत आबादी के मामले में चीन को पछाड़ देगा। अनुमान है कि 2022 के अंत तक भारत की आबादी एक अरब 41 करोड़ से अधिक हो चुकी है। यह दावा जनगणना पर केन्द्रित एक स्वतंत्र संगठन वल्र्ड पाॅपुलेषन रिव्यू का है जो चीन की जनसंख्या से 50 लाख अधिक बता रहा है। चीन ने कहा है कि उसकी जनसंख्या में 1960 के बाद पहली बार कमी दर्ज की गयी है। गौरतलब है कि साल 2022 में चीन की आबादी साढ़े आठ लाख कम हुई है। इसका नतीजा यह जनसंख्या नियंत्रण के चलते भी हो सकता है और कोरोना के चलते मौत की तादाद भी इसका कारण हो सकती है। हालांकि ऐसे आंकड़ों को बाहर नहीं करता है। इसलिए सही कारण बता पाना सम्भव नहीं है। फिलहाल संयुक्त राश्ट्र का अनुमान है कि भारत की आबादी साल 2023 के अंत तक चीन से ज्यादा होगी। आंकड़े यह भी दर्षातेे हैं कि 15 नवम्बर 2022 तक दुनिया 8 अरब की जनसंख्या वाले आंकड़े को छू लेगी जबकि 2030 तक यह 8.5 अरब हो जायेगी और 2050 तक यह आंकडा़ 9.7 अरब के साथ एक भारी-भरकम स्थिति को ग्रहण कर लेगा। संसाधन की दृश्टि से देखा जाये तो पृथ्वी संभवतः 10 अरब की आबादी को पोशण व भोजन उपलब्ध करा सकती है। इतना ही नहीं जनसंख्या का यह आंकड़ा 2080 तक 10.4 अरब की आबादी पर खड़ा दिखाई देगा। सुषासन लोक सषक्तिकरण का परिचायक है जबकि जनसंख्या विस्फोट समावेषी विकास के लिए चुनौती है। सुषासन उसी अनुपात में चाहिए जिस अनुपात में जनसंख्या है साथ ही समावेषी विकास का ढांचा और सतत् विकास की प्रक्रिया इस प्रारूप में हो कि समाज आदर्ष न सही व्यावहारिक रूप से सुव्यवस्थित और सु-जीवन के योग्य हो। इस सुव्यवस्था को प्राप्त करने में जनसंख्या नीति एक कारगर उपाय हो सकता है। यदि इसके गम्भीर पक्ष को देखें तो भारत में जनांककीय संक्रमण द्वितीय अवस्था में है। एक ओर जहां स्वास्थ्य सुविधाओं के विकेंद्रीकरण के चलते मृत्यु दर में कमी आयी है तो वहीं दूसरी ओर जन्म दर में अपेक्षित कमी ला पाने में सफलता नहीं मिल पायी है।  
भारत में जनसंख्या नीति को लेकर कवायद स्वतंत्रता के बाद ही षुरू हो गया था मगर इसे समस्या नहीं मानने के चलते तवज्जो ही नहीं दिया गया। तीसरी पंचवर्शीय योजना के समय जनसंख्या वृद्धि में तेजी महसूस की गयी। जाहिर है ध्यान का क्षेत्र भी व्यापक हुआ और चैथी पंचवर्शीय योजना में जनसंख्या नीति प्राथमिकता में आ गयी। तत्पष्चात् पांचवीं योजना में आपात के दौर में 16 अप्रैल 1976 को राश्ट्रीय जनसंख्या नीति घोशित हुई। इसकी पटकथा उस दौर के हिसाब से कहीं अधिक दबावकारी थी। जनसंख्या नियंत्रण हेतु अनिवार्य बंध्याकरण का कानून बनाने का अधिकार दे दिया गया था और इसे लेकर पहल भी हुई। फिलहाल सरकार के पतन के साथ यह नीति भी छिन्न-भिन्न हो गयी। जब 1977 में पहली गैर कांग्रेसी सरकार आयी तब एक बार फिर नई जनसंख्या नीति फलक पर तैरने लगी। पुरानी से सीख लेते हुए इसमें अनिवार्यता को समाप्त करते हुए स्वेच्छा के सिद्धांत को महत्व दिया गया और परिवार नियोजन के बजाय परिवार कल्याण कार्यक्रम का रूप दिया गया। इस जनसंख्या नीति से क्या असर पड़ा यह प्रष्न आज भी उत्तर की तलाष में है। जाहिर है इसका कुछ खास प्रभाव देखने को नहीं मिलता। जून 1981 में राश्ट्रीय जनसंख्या नीति में संषोधन हुआ। फिलहाल कवायद परिवार नियोजन की जारी रही मगर देष की आबादी बढ़ती रही। 1951 में भारत की जनसंख्या 36 करोड़ थी और 2001 तक यह आंकड़ा एक अरब को पार कर गया। यह इस बात का संकेत था कि जनसंख्या नियंत्रण हेतु जो नीति को लेकर कोषिष पहले की गयी थी उस पर पहल मजबूत किया जाना चाहिए था।
बढ़ती जनसंख्या की स्थिति को देखते हुए फरवरी 2000 में नई जनसंख्या नीति की घोशणा की गयी जिसमें जीवन स्तर में गुणात्मक सुधार हेतु तीन उद्देष्य सुनिष्चित किये गये थे। बावजूद इसके 2011 की जनगणना में हर चैथा व्यक्ति अषिक्षित और इतना ही गरीबी रेखा के नीचे दर्ज था। सवाल दो हैं पहला यह कि भारत में जनसंख्या नीति को लेकर नैतिक सुधार किया जा रहा है यदि ऐसा है तो इसे जनसंख्या नियंत्रण के बजाय गुणवत्ता में सुधार की संज्ञा दी जा सकती है। दूसरा यह कि क्या वाकई में सरकारें परिवार नियोजन को लेकर संजीदा हैं। यदि ऐसा तो पानी सर के ऊपर पहले ही जा चुका है। भारत की जनसंख्या नीति अब केवल एक सरल मुद्दा नहीं है बल्कि यह धर्म और सम्प्रदाय में उलझने वाला एक दृश्टिकोण भी बन गया है। दिल्ली हाईकोर्ट में जनसंख्या नियंत्रण को लेकर एक याचिका दायर की गयी थी जिसमें इस दिषा में केन्द्र सरकार से कदम उठाने को लेकर निर्देष की मांग की गयी। अपील में यह था कि देष में अपराध, प्रदूशण बढ़ने और संसाधनों तथा नौकरियों में कमी का मूल कारण जनसंख्या विस्फोट है। दो टूक यह भी है कि ऐसी समस्याएं ही सुषासन की भी चुनौतियां हैं जहां पर लोक कल्याण ओर संवेदनषीलता आभाव में होगा वहां सुषासन खतरे में होगा। जनसंख्या विस्फोट सुदृढ़ विकास, सु-जीवन और लोक कल्याण को सभी तक पहुंचाने में कारगर तो नहीं हो सकता तो फिर सुषासन कैसे मजबूत होगा।
भारत दुनिया का ऐसा पहला देष है जो सबसे पहले 1952 में परिवार नियोजन को अपनाया। बावजूद इसके आज वह दुनिया की सबसे बड़ी आबादी बनने की कगार पर खड़ा है। यहां चीन की चर्चा लाज़मी है। चीन में एक बच्चा नीति की षुरूआत 1979 में हुई थी। तीन दषक के बाद एक बच्चा नीति पर इसे पुर्नविचार करना पड़ा। हालांकि चीन में जन्म दर में 2.81 फीसद से गिरावट साल 2000 आते-आते 1.51 हो गया था। मगर यहां युवाओं की संख्या घटी और बूढ़ों की संख्या बढ़ गयी। कई मानते हैं कि भारत में इस वजह को देखते हुए जनसंख्या नियंत्रण कानून की अभी जरूरत नहीं है। विभिन्न राज्यों में कई नीति-निर्माताओं ने जनसंख्या विस्फोट और जनसंख्या नियंत्रण की आवष्यकताओं को गलत बताया है। साल 2021 में उत्तर प्रदेष ने विष्व जनसंख्या दिवस के अवसर पर 2021-30 के लिए नई जनसंख्या नीति जारी की। जिसमें 2026 तक प्रति हजार जनसंख्या पर 2.1 और 2030 तक 1.9 तक लाने का लक्ष्य रखा गया था। भारत का क्षेत्रफल विष्व के क्षेत्रफल का महज 2.4 फीसद है और आबादी 18 फीसद है। दक्षिण भारत के अधिकांष राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण पर सराहनीय कार्य किया है। केरल, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेष में सर्वाधिक गिरावट है जबकि उत्तर प्रदेष, बिहार, राजस्थान, हरियाणा आदि में जनसंख्या दर उच्च बनी हुई है। हम दो हमारे दो का नारा भारत में चार दषक पहले गूंजा था मगर यह विज्ञापनों में ही सिमट कर रह गया। छोटा परिवार, सुखी परिवार की अवधारणा भी दषकों पुरानी है मगर इस सूत्र को भी लोग काफी हद तक अपनाने से पीछे हैं। छोटा परिवार, बेहतर परवरिष और परिवेष प्रदान करता है और सभी के लिए खुषहाली और षांति का राह तैयार करता है। कनाडाई माॅडल में देखें तो सुषासन षांति और खुषहाली का ही परिचायक है जो सीमित जनसंख्या से ही सम्भव है।
दिनांक : 19/01/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

सुशासन और नैतिकता का पारिस्थितिकी तंत्र

पीटर पार्कर का एक प्रसिद्ध कथन है कि ”अधिक षक्ति या सत्ता के साथ अधिक जिम्मेदारी भी आती है।“ जिस प्रकार दायित्व की पूर्ति के लिए अधिकारों का होना आवष्यक है उसी प्रकार नीतियों को कारगर तरीके से प्रसार देकर जनहित को सुनिष्चित करने के लिए नैतिकता अनिवार्य है। एक सक्षम प्रषासक में निश्पक्षता और सत्यनिश्ठा के साथ पारदर्षिता का समावेषन हो तो बात सुषासन से युक्त हो जाती है। विदित हो कि जैसे राश्ट्र या राज्य के स्तर पर जैव भौगोलिक क्षेत्र होते हैं वैसे विधायी और कार्यकारी स्तर पर नैतिकता और निश्पक्षता के पारिस्थितिकी तंत्र की सघन आवष्यकता बनी रहती है। सिविल सेवकों के लिए आचार संहिता, भ्रश्टाचार निवारण अधिनियम और अनेक प्रषासनिक कानूनों से नैतिकता को सबल बनाने का प्रयास किया गया है पर इसे और किस कसौटी पर ले जाना है इसकी दूरदर्षिता भी आवष्यक है। मैक्स वेबर ने अपनी पुस्तक सामाजिक-आर्थिक प्रषासन में इस बात को उद्घाटित किया था कि नौकरषाही प्रभुत्व स्थापित करने से जुड़ी एक व्यवस्था है जबकि अन्य विचारकों की यह राय रही है कि यह सेवा की भावना से युक्त एक संगठन है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस्पाती ढांचे वाली नौकरषाही बीते तीन दषकों से प्लास्टिक फ्रेम वाली सिविल सेवक बन गयी है और ऐसा 1991 के उदारीकरण से देखा जा सकता है। मगर दो टूक यह भी है कि क्या राजनीतिक कार्यपालिका नैतिकता के इस पड़ाव पर आचार नीति के मामले में सफल कही जायेगी। संसद हो या विधानसभा दागी सांसदों और विधायकों की फहरिस्त भी लम्बी रही है जो तमाम कोषिषों के बावजूद बरकरार देखी जा सकती है। लोकतंत्र का लेखा-जोखा संख्या बल पर है न कि सत्यनिश्ठा और नैतिकता पर जैसा कि इन दिनों की राजनीतिक स्थितियों में यह झलकता है। जाहिर है आचरण नीति केवल सिविल सेवकों के लिए नहीं बल्कि उन तमाम कार्यकारी के लिए व्यापक रूप में होना चाहिए जो राश्ट्र और राज्य में ताकतवर हैं और वैधानिक सत्ता से पोशित हैं साथ ही देष बदलने की इच्छाषक्ति तो रखते हैं लेकिन लोभ और लालच से मुक्त नहीं हैं। इतना ही नहीं भरोसा तब डगमगाता है जब जनसेवा के प्रति समर्पण में कमी और भ्रश्टाचार में लिप्त मिलते हैं। न्यू इण्डिया में कम से कम तो यह बात आ जानी चाहिए कि नई लोकसेवा के साथ संसद और विधानमण्डल का पारिस्थितिकी तंत्र नई नैतिक आचरण से युक्त हो। हालांकि इस मामले में सकारात्मक विचार रखने में कोई बुराई नहीं है मगर इस पर अंधा विष्वास करने से बुरी बात कोई नहीं है।

स्पेन की सुषासनिक संहिता पर दृश्टि डाले तो यह दुनिया में कहीं अधिक प्रखर रूप में दिखती है जहां निश्पक्षता, तटस्थता व आत्मसंयम से लेकर जन सेवा के प्रति समर्पण समेत 15 अच्छे आचरण के सिद्धांत निहित हैं। आचार नीति मानव चरित्र और आचरण से सम्बंधित है। यह सभी प्रकार के झूठ की निंदा करती है। चुनाव के दिनों में तो आदर्ष चुनाव आचार संहिता भी पारदर्षिता और निश्पक्षता को लेकर राजनीतिक दलों और प्रत्याषियों पर लागू हो जाती है। मौजूदा समय में 3 पूर्वोत्तर राज्यों में मेघालय, त्रिपुरा और नागालैण्ड में चुनावी बिगुल बज चुका है और नैतिकता के साथ आचरण नीति की आवष्यकता एक बार फिर इन छोटे राज्यों में प्रवेष कर रहा है। निर्वाचन आयोग कितना सफल रहेगा और चुनावी होड़ में षामिल सियासतदान आचरण षास्त्र में कितने सषक्त और सहयोगी बनेगे। यह समय-समय पर प्रतिबिंबित होता रहता है और आगे भी परिलक्षित होता रहेगा। द्वितीय प्रषासनिक सुधार आयोग ने आचार नीति पर अपनी दूसरी रिपोर्ट में षासन में नैतिकता से सम्बंधित कई सिद्धांतों को उकेरा था। पूर्व राश्ट्रपति व मिसाइल मैन डाॅ0 एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा था कि भ्रश्टाचार जैसी बुराईयां कहां से उत्पन्न होती हैं? यह कभी न खत्म होने वाले लालच से आता है। भ्रश्टाचार मुक्त नैतिक समाज के लिए इस लालच के खिलाफ लड़ाई लड़नी होगी और मैं क्या दे सकता हूं की भावना से इस स्थिति को बदलना होगा। इस बात को बिना दुविधा के समझ लेना ठीक होगा कि देष तभी ऊंचाई को प्राप्त करता है जब षासन में आचार नीति सतही नहीं होता है बल्कि पूरी व्यवस्था इससे सराबोर रहती है साथ ही जब यह कागजी नहीं होती बल्कि स्नायुतंतुओं में घर कर चुकी होती है। जिम्मेदारी और जवाबदेही आचार नीति के अभिन्न अंग हैं और यह सुषासन की पराकाश्ठा भी है। आचार नीति एक ऐसा मानक है जो बहुआयामी है और यही कारण है कि यह दायित्वों के बोझ को आसानी से सह लेती है। यदि दायित्व बड़े हों और आचरण के प्रति गम्भीर न हों तो जोखिम बड़ा होता है।
विविध देषों ने समय-समय पर अपनी मंत्री विधायकों और सिविल सेवकों के लिए नैतिक संहिता के निर्धारित करने से जुड़े मुद्दों का समाधान किया है। अमेरिका में यह मंत्री संहिता, संयुक्त राश्ट्र सिनेट में आचार संहिता और कनाडा में मंत्रियों के लिए मार्गदर्षन है जबकि बेलीज में आचार संहिता संविधान में ही निर्धारित की गयी है। भारत सरकार ने एक आचार संहिता निर्धारित की है जो केन्द्र और राज्य सरकार दोनों के मंत्रियों पर लागू होती है। इनमें कई अन्य बातों के साथ मंत्रियों द्वारा उसकी सम्पत्ति और देनदारियों का खुलासा करने साथ ही सरकार में षामिल होने से पहले जिस किसी भी व्यवसाय में थे उससे स्वयं को अलग करने के अलावा स्वयं या परिवार के किसी सदस्य आदि के मामले में कोई योगदान या उपहार स्वीकार नहीं करने की बात कही गयी है। गौरतलब है कि नैतिकता के पैमाने पर सुषासन को जब कसा जाता है तो बात काफी अधूरी दिखती है। इसकी बड़ी वजह आचरण नीति के अनुपालन में कमी है। राजनीतिक प्रक्रिया का अपराधीकरण तथा राजनेताओं, लोक सेवकों और व्यावसायिक घरानों के बीच अपवित्र गठजोड़, लोकनीति के निर्धारण और षासन पर घातक असर डालता है। भारत के लोकतांत्रिक षासन को ज्यादा गम्भीर खतरा अपराधियों और बाहुबलियों से है जो राज्य की विधानसभाओं और देष की लोकसभा में अच्छी-खासी जनसंख्या में घुसने लगे हैं। अब तो ऐसा लगता है कि एक ऐसी राजनीतिक संस्कृति अपनी जड़े जमा रही है जिसमें संसद या विधानसभा की सदस्यता को निजी फायदे और आर्थिक लाभ हासिल करने के अवसर के रूप में देखा जा रहा है। इस आधार को व्यापक समझ से देखें तो सुषासन और आचरण नीति दोनों घाटे में दिखते हैं। बावजूद इसके आचार नीति और उसके पारिस्थितिकी तंत्र को प्राप्त करने का भरोसा नहीं छोड़ा जा सकता। लाख टके का सवाल यह भी है कि देष में वैधानिक सत्ता से काम चलता है। विविध भाशा-भाशी और संस्कृति से युक्त भारत भावना और संस्कृति से भरा है मगर विष्वसनीयता और दक्षता के साथ ईमानदारी पर संषय भी उतना ही बरकरार रहता है कि जिन्हें जिम्मेदारी मिली है क्या वे पूरा न्याय भी करते हैं। नेता कौन होता है, उसके गुण और जिम्मेदारियां क्या होती हैं, एक समुदाय, समाज या राश्ट्र में समृद्धि, आर्थिक उन्नति स्थायित्व, षान्ति और सद्भाव आदि कैसे विकसित हों यह नेतृत्व को समझना होता है। देखा जाये तो नेतृत्व मुख्य रूप से बदलाव का प्रतिनिधित्व होता है और उन्नति उसका उद्देष्य। मात्र लोगों की आकांक्षाओं को ऊपर उठाना, सत्ता हथियाना और नैतिकविहीन होकर स्वयं का षानदार भविश्य तलाषना न तो नेतृत्व की श्रेणी है और न तो यह आचार नीति का हिस्सा है। यहां पूर्व राश्ट्रपति एपीजी अब्दुल कलाम का एक कथन फिर ध्यान आ रहा है कि सुयोग्य नेता नैतिक प्रतिनिधित्व प्रदान करता है। जाहिर है यदि नेता सुयोग्य है तो आचार नीति का समावेषन स्वाभाविक है।
लोक प्रषासन में नैतिकता के पारितंत्र को परिभाशित करने के लिए विभिन्न कानूनों, नियमों और विनियमों के माध्यम से इसे व्यापक रूप दिया गया है। 1930 के दषक में ब्रिटिष सिविल सेवकों के लिए क्या करें और क्या न करें निर्देषों का एक संग्रह जारी किया गया था। स्वतंत्रता के बाद भी आचार नीति का निर्माण इसी पारितंत्र का हिस्सा था। संविधान में काम-काज की समीक्षा के लिए राश्ट्रीय आयोग द्वारा साल 2001 में प्रषासन में ईमानदारी को लेकर जारी परामर्षपत्र में कई विधायी और संस्थागत मुद्दों पर प्रकाष भी डाला गया था जिसमें बेनामी लेन-देन, अवैध रूप से सिविल सेवकों द्वारा अर्जित सम्पत्तियां आदि षामिल थे। गौरतलब है कि सुषासन विष्वास और भरोसे पर टिका होता है। षासन में ईमानदारी से सार्वजनिक जीवन में जवाबदेही, पारदर्षिता और सत्यनिश्ठा का सुनिष्चित होना सुषासन की गारंटी है। सुषासन के चलते ही आचार नीति को भी एक आवरण मिलता है। दूसरे षब्दों में अच्छे आचरण से षासन, सुषासन की राह पकड़ता है। संयुक्त राश्ट्र महासभा ने 2003 में भ्रश्टाचार के खिलाफ संकल्प को मंजूरी दी है। ब्रिटेन में सार्वजनिक जीवन में मानकों पर समिति बनायी गयी जिसे नोलान समिति के रूप में जाना जाता है। जिसमें सात मुख्य बाते निस्वार्थता, सत्यनश्ठिा, निश्पक्षता, जवाबदेही, खुलापन, ईमानदारी और नेतृत्व षामिल थी। देष में संस्थागत और कानूनी ढांचा कमजोर नहीं है दिक्कत इसके अनुपालन करने वाले आचरण में है। केन्द्रीय सतर्कता आयोग, सीबीआई, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, लोकपाल और लोकायुक्त जहां सुषासन स्थापित करने के संस्थान हैं तो वहीं भारतीय दण्ड संहिता, भ्रश्टाचार निवारण अधिनियम और सूचना के अधिकार समेत कई कानून देखे जा सकते हैं। गौरतलब है सुषासन की पराकाश्ठा की प्राप्ति हेतु एक ऐसे आचार नीति का संग्रह हो जो संस्कृति, पर्यावरण तथा स्त्री पुरूश समानता को बढ़ावा देने के अलावा आत्मसंयम और सत्यनिश्ठा के साथ निश्पक्षता को बल देता हो। हालांकि ऐसी व्यवस्थाएं पहले से व्याप्त हैं मगर अनुपालन के लिए एक नई संहिता की आवष्यकता है। दूसरे षब्दों में कहें तो न्यू इण्डिया को नई सुषासन संहिता चाहिए जिससे नैतिकता के समूचित पारिस्थितिकी तंत्र को विकसित किया जा सके। यह सच है कि जनता और मीडिया मूकदर्षक नहीं है साथ ही न्यायिक सक्रियता भी बढ़ी है। बावजूद इसके वह सवाल जो हम सबके सामने मुंह बाये खड़ा है कि लोकतंत्र के प्रवेष द्वार पर अपराध कैसे रूके और वैधानिक सत्ताधारक आचार नीति में पूरी तरह कैसे बंधे।
दिनांक : 19/01/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
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आधुनिक भारत में नारी की शैक्षणिक दुनिया

भारतीय राश्ट्रीय षिक्षा या षोध तब तक पूर्ण नहीं हो सकता जब तक सामुदायिक सेवा और सामुदायिक जिम्मेदारी से निहित षिक्षा न हो। ठीक उसी भांति षैक्षणिक दुनिया तब तक पूरी नहीं कही जा सकती जब तक स्त्री षिक्षा की भूमिका पुरूश की भांति सुदृढ़ नहीं हो जाती। आज यह सिद्ध हो चुका है कि अर्जित ज्ञान का लाभ कहीं अधिक मूल्य युक्त है। ऐसे में समाज के दोनों हिस्से यदि इसमें बराबरी की षिरकत करते हैं तो लाभ भी चैगुना हो सकता है। देखा जाय तो 19वीं सदी की कोषिषों ने नारी षिक्षा को उत्सावर्धक बनाया। इस सदी के अन्त तक देष में कुल 12 काॅलेज, 467 स्कूल और 5,628 प्राइमरी स्कूल लड़कियों के लिए थे जबकि छात्राओं की संख्या साढ़े चार लाख के आस-पास थी। औपनिवेषिक काल के उन दिनों में जब बाल विवाह और सती प्रथा जैसी बुराईयां व्याप्त थीं और समाज भी रूढ़िवादी परम्पराओं से जकड़ा था। बावजूद इसके राजाराम मोहन राय तथा ईष्वरचन्द्र विद्यासागर जैसे इतिहास पुरूशों ने नारी उत्थान को लेकर समाज और षिक्षा दोनों हिस्सों में काम किया। नतीजे के तौर पर नारियां उच्च षिक्षा की ओर न केवल अग्रसर हुईं बल्कि देष में षैक्षणिक लिंगभेद व असमानता को भी राहत मिली। हालांकि मुस्लिम छात्राओं का अभाव उन दिनों बाखूबी बरकरार था। वैष्विक स्तर पर 19वीं सदी के उस दौर में इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा जर्मनी में लड़कियों के लिए अनेक काॅलेज खुल चुके थे और कोषिष की जा रही थी कि नारी षिक्षा भी समस्त षाखाओं में दी जाये।
बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में यह आधार बिन्दु तय हो चुका था कि पूर्ववत षैक्षणिक व्यवस्थाओं के चलते यह सदी नारी षिक्षा के क्षेत्र में अतिरिक्त वजनदार सिद्ध होगी। सामाजिक जीवन के लिए यदि रोटी, कपड़ा, मकान के बाद चैथी चीज उपयोगी है तो वह षिक्षा ही हो सकती थी। सदी के दूसरे दषक में स्त्री उच्च षिक्षा के क्षेत्र में लेडी हाॅर्डिंग काॅलेज से लेकर विष्वविद्यालय की स्थापना इस दिषा में उठाया गया बेहतरीन कदम था। आजादी के दिन आते-आते प्राइमरी कक्षाओं से लेकर विष्वविद्यालय आदि में अध्ययन करने वाली छात्राओं की संख्या 42 लाख के आस-पास हो गयी ओर इतना ही नहीं इनमें तकनीकी और व्यावसायिक षिक्षा का भी मार्ग प्रषस्त हुआ। इस दौर तक संगीत और नृत्य की विषेश प्रगति भी हो चुकी थी। 1948-49 के विष्वविद्यालय षिक्षा आयोग ने नारी षिक्षा के सम्बंध में कहा था कि नारी विचार तथा कार्यक्षेत्र में समानता प्रदर्षित कर चुकी है, अब उसे नारी आदर्षों के अनुकूल पृथक रूप से षिक्षा पर विचार करना चाहिए। स्वतंत्रता के दस बरस के बाद छात्राओं की संख्या कुल 88 लाख के आस-पास हो गयी और इनका प्रभाव प्रत्येक क्षेत्रों में दिखने लगा। वर्तमान में स्त्री षिक्षा सरकार, समाज और संविधान की कोषिषों के चलते कहीं अधिक उत्थान की ओर हैं। नब्बे के दषक के बाद उदारीकरण के चलते षिक्षा में भी जो अमूल-चूल परिवर्तन हुआ उसमें एक बड़ा हिस्सा नारी क्षेत्र को भी जाता है। वास्तुस्थिति यह भी है कि पुरूश-स्त्री समरूप षिक्षा के अन्तर्गत कई आयामों का जहां रास्ता खुला है वहीं इस डर को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि आपसी प्रतिस्पर्धा भी बढ़ी है।
आज आर्थिक उदारवाद, ज्ञान के प्रसार और तकनीकी विकास के साथ संचार माध्यमों के चलते अर्थ और लक्ष्य दोनों बदल गये हैं। इसी के अनुपालन में षिक्षा और दक्षता का विकास भी बदलाव ले रहा है। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि तकनीकी विकास ने परम्परागत षिक्षा को पछाड़ दिया है और इस सच से भी किसी को गुरेज नहीं होगा कि परम्परागत षिक्षा में स्त्रियों की भूमिका अधिक रही है। अब विकट स्थिति यह है कि नारी से भरी आधी दुनिया मुख्यतः भारत को षैक्षणिक मुख्य धारा में पूरी कूबत के साथ कैसे जोड़ा जाये। बदलती हुई स्थितियां यह आगाह कर रही हैं कि पुराने ढर्रे अर्थहीन और अप्रासंगिक हो रहे हैं और इसका सबसे ज्यादा चोटी स्त्री षिक्षा पर होगा। यद्यपि विज्ञान के उत्थान और बढ़ोत्तरी के चलते कई चमत्कारी उन्नति भी हुई है। आंकड़े बताते हैं कि 1947 से 1980 के बीच उच्च षिक्षा में स्त्रियों की संख्या 18 गुना बढ़ी है और अब तो इसमें और तेजी है। कुछ खलने वाली बात यह भी है कि अन्तर्राश्ट्रीय स्तर की जो षिक्षा व्यवस्था है उससे देष पीछे हैं। विष्वविद्यालय जिस सरोकार के साथ षिक्षा व्यवस्था को अनवरत् बनाये हुए हैं उससे तो कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि संचित सूचना और ज्ञान मात्र को ही यह भविश्य की पीढ़ियों में हस्तांतरित करने में लगे हैं। इससे पूरा काम तो नहीं होगा। कैरियर के विकास में स्त्रियों की छलांग बहुआयामी हुई है पर इसके साथ पति, बच्चों, परिवार के साथ तालमेल बिठाना भी चुनौती रही है। काफी हद तक उनकी सुरक्षा को लेकर भी चिन्ता लाज़मी है। बावजूद इसके आज पुत्री षिक्षा को लेकर पिता काफी सकारात्मक महसूस कर रहे हैं।
स्वतंत्रता के पष्चात महिलाओं की साक्षरता दर महज 8.6 फीसद थी। 2011 की जनगणना के अनुसार 65 फीसदी से अधिक महिलाएं षिक्षित हैं पर सषक्तिकरण को लेकर संषय अभी बरकरार है इसके पीछे एक बड़ी वजह नारी षिक्षा ही हैं परन्तु जिस भांति नारी षिक्षा और रोजगार को लेकर बहुआयामी दृश्टिकोण का विकास हो रहा है। विगत कुछ वर्शों के आंकड़े देखें तो उच्च षिक्षा में कुल नामांकन का लगभग 47 फीसद महिलाएं हैं और जबकि कामगार की दृश्टि से यह महज एक-चैथाई से थोड़ा अधिक है। 2011 की जनगणना में निहित धार्मिक आंकड़ों का खुलासा मोदी सरकार द्वारा किया गया था जिसे देखने से पता चलता है कि लिंगानुपात की स्थिति बेहद चिंताजनक है। सर्वाधिक गौर करने वाली बात यह है कि सिक्ख, हिन्दू और मुस्लिम समुदाय को इस स्तर पर बेहद सचेत होने की आवष्यकता है इसमें भी स्थिति सबसे खराब सिक्खों की है जहां 47.44 फीसद महिलाएं हैं जबकि हिन्दू महिलाओं की संख्या 48.42 वहीं मुस्लिम महिलाएं 48.75 फीसदी हैं। केवल इसाई महिलाओं में स्थिति ठीक-ठाक और पक्ष में कही जा सकती है। देखा जाय तो स्त्रियों से जुड़ी दो समस्याओं में एक उनकी पैदाइष के साथ सुरक्षा का है, दूसरे षिक्षा के के साथ कैरियर और सषक्तिकरण का है पर रोचक यह है कि यह दोनों तभी पूरा हो सकता है जब पुरूश मानसिकता कहीं अधिक उदार के साथ उन्हें आगे बढ़ाने की है।
मानव विकास सूचकांक को तैयार करने की षुरूआत 1990 से किया जा रहा है। ठीक पांच वर्श बाद 1995 मे जैंडर सम्बंधी सूचकांक का भी उद्भव देखा जा सकता है। जीवन प्रत्याषा, आय और स्कूली नामांकन तथा व्यस्क साक्षरता के आधार पर पुरूशों से तुलना किया जाए तो आंकड़े इस बात का समर्थन करते हैं कि नारियों की स्थिति को लेकर अभी भी बहुत काम करना बाकी है। विकास की राजनीति कितनी भी परवान क्यों न चढ़ जाए पर स्त्री षिक्षा और सुरक्षा आज भी महकमों के लिए यक्ष प्रष्न बने हुए हैं। स्वतंत्र भारत से लेकर अब तक लिंगानुपात काफी हद तक निराषाजनक ही रहा है। हालांकि साक्षरता के मामले में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ से लेकर कई ऐसे कार्यक्रमों को विकसित करने का प्रयास किया है जिससे कि इस दिषा में और बढ़त मिल सके फिर भी कई असरदार कार्यक्रमों और परियोजनाओं को नवीकरण के साथ लाने की जगह आगे भी बनी रहेगी साथ ही उनका क्रियान्वयन भी समुचित हो जिससे कि षैक्षणिक दुनिया में नारी को और चैड़ा रास्ता मिल सके।
दिनांक : 13/01/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

सिविल सेवा परीक्षा का सुशासनिक परिप्रेक्ष्य

लोक प्रषासन एक ऐसी आवष्यकता है जिसकी उपस्थिति में समानता और स्वतंत्रता को कायम रखना आसान है। सिविल सेवा परीक्षा उस मैराथन दौड़ की तरह है जिसमें हर किसी का मकसद केवल और केवल जीत हासिल करना होता है मगर लाखों युवाओं की दौड़ वाली ये परीक्षा महज सैकड़ों के चयन तक ही  सीमित हो जाती है। भारत जैसे विषाल और विविधतापूर्ण समाज में संसाधनों और सेवाओं का न्यायपूर्ण वितरण ही सभी की समृद्धि का मूल मंत्र है। यहां गांधी जी का वो कथन याद आ रहा है जहां से संयम, संतुलन और अहंकार के निहित संदर्भ को समझना आसान हो जाता है। गांधी के षब्दों में “तुम्हें एक जंतर देता हूं जब भी तुम्हे संदेह हो या तुम्हारा अहं हावी होने लगे तो ये कसौटी अपनाओ - जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो उसकी षक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा।” सिविल सेवा परीक्षा पाठ्यक्रम को विष्लेशित करके देखा जाये तो साल 2013 में मुख्य परीक्षा की दृश्टि से जो बदलाव किये गये वह बाह्य और आंतरिक दोनों संदर्भों में कहीं अधिक सघन और सार्थक जीवन के समीप खड़ा दिखता है। परम्परागत विशय मसलन इतिहास, भूगोल, अर्थव्यवस्था, विज्ञान व तकनीक तथा राजव्यवस्था आदि का समावेषन हर युग में सुलभ रहा है। मगर बदलाव के साथ बीते एक दषक में सिविल सेवा परीक्षा के पाठ्यक्रम ने जो विस्तार लिया है वह समावेषी और सतत विकास के साथ सुषासन के मापदण्डों को भी बेहतरीन डिजाइन देने जैसा है। सामान्य अध्ययन के प्रथम प्रष्न पत्र में जहां भारतीय समाज को समझना आवष्यक है वहीं द्वितीय प्रष्न पत्र सामाजिक न्याय और षासन को विस्तृत रूप से एक नये अंदाज और स्वरूप में प्रतियोगियों के लिए परोसा गया। जहां समता, स्वतंत्रता, सषक्तिकरण और वर्ग विषेश को एक नई ताकत देने की चिंता निहित है वहीं भुखमरी और गरीबी से जुड़े तमाम दषकों पुराने संदर्भ सामाजिक न्याय के अंतर्गत एक नये चिंतन की ओर युवा पीढ़ी को धकेलता है।
अधिकार एवं दायित्व किसी भी सेवा के दो पहलू होते हैं सिविल सेवा और प्रांतीय सिविल सेवा में यह परिप्रेक्ष्य कहीं अधिक षिखर से भरा रहता है। सिविल सेवक प्रषासन का आधार होते हैं उन पर कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों का भार होता ही है साथ ही कार्यों को समाज से प्रेरणा मिलती है और स्वयं मान-सम्मान से अभिभूत रहते हैं। सिविल सेवा परीक्षा के पाठ्यक्रम में बदलाव के पीछे कई महत्वपूर्ण कारक रहे हैं जिसमें परिवर्तित और वैष्विक संदर्भ को संतुलित करने हेतु कईयों का परिमार्जन स्वाभाविक था। आचरण और अभिवृद्धि की दृश्टि से देखा जाये तो इस परीक्षा की अपनी एक सूरत है और इसमें चयन होने वाले से यह उम्मीद होती है कि वह देष के चेहरे को विकासमय बनाये मगर भ्रश्टाचार एक ऐसी जड़ जंग व्यवस्था है जिससे यह सेवा बाकायदा इसमे भी फंसी हुई है। कुछ महीने पहले पिछले साल झारखण्ड कैडर के आईएएस के आवास से 20 करोड़ की नकदी बरामद हुई। आंकड़े यह भी बताते हैं कि भारतीय प्रषासनिक सेवा समेत कई सेवाओं के अधिकारी ऊपर से नीचे तक कमोबेष रिष्वत और लेनदेन के मामले में अव्वल रहे हैं। करप्षन परसेप्षन इंडेक्स 2021 के आंकड़े यह इषारा करते हैं कि भारत भ्रश्टाचार के मामले में 85वें स्थान पर हैं जबकि 2020 में यही आंकड़ा 86वें स्थान पर था। सिविल सेवा परीक्षा में निहित पाठ्यक्रम में सामान्य अध्ययन का चैथा प्रष्न पत्र जो एथिक्स से लबालब है वहां प्रतियोगी के मानस पटल और कार्मिक व सामाजिक दृश्टि से एक संतुलित अधिकारी होने की धारणा का समावेषन दिखता है। व्यक्ति उदार हो, आचरण से भरा हो, ज्ञान की अविरल धारा लिए हो तथा स्वतंत्रता और समानता का सम्मान करता हो तो सिविल सेवक के रूप में समाज और देष को तुलनात्मक अधिक लाभ मिलना तय है। ऐसी ही मनो इच्छा से यह प्रष्न पत्र युक्त देखा जा सकता है जहां नैतिकता, ईमानदारी और मनोवृत्ति व अभिवृत्ति का पूरा लेखा-जोखा है। मानव स्वभाव से दयाषील हो तो दण्ड का वातावरण कमजोर होता है और यदि मानव एक प्रषासक के रूप में निहायत कठोर और सहानुभूति से परे हो तो विकास और सामाजिक संतुलन दोनों उथल-पुथल में जा सकते हैं। गरीबों के प्रति साहनुभूति, दया की भावना, भावात्मक बुद्धिमत्ता, प्रषासन में ईमानदारी समेत पूरब और पष्चिम के तमाम चिंतकों को अध्ययन करने के लिए यह प्रष्न पत्र मजबूर करता है जो हर लिहाज से एक सकारात्मक दृश्टिकोण न केवल प्रतियोगिता की दृश्टि से विकसित करता है बल्कि मानव की सामाजिक भूमिका और एक सिविल सेवक के रूप में प्रषासनिक भूमिका के लिए भी कहीं अधिक पुख्ता करता है।
सार्वजनिक जीवन के सात सिद्धांत नोलन समिति ने भी दिये थे। जिसमें निस्वार्थता, सत्यनिश्ठा, निश्पक्षता, जवाबदेही, खुलापन, ईमानदारी और नेतृत्व षामिल है। सुषासन लोक सषक्तिकरण का पर्याय है जिसमें लोक कल्याण, संवेदनषील षासन और पारदर्षी व्यवस्था के साथ खुला दृश्टिकोण व सामाजिक-आर्थिक विकास षामिल है। यह समावेषी ढांचे को त्वरित करता है, सतत विकास को महत्व देता है और जन जीवन को सुजीवन में तब्दील करता है। सिविल सेवा परीक्षा के पूरे पाठ्यक्रम को और लाल बहादुर षास्त्री राश्ट्रीय प्रषासनिक आकादमी मसूरी के पूरे ताने-बाने को समझा जाये तो एक अच्छे प्रषासक की तलाष हर दृश्टि से इसमें है। फाउंडेषन कोर्स, प्रोफेषनल ट्रेनिंग, टेªनिंग के दौरान पाठ्यक्रमों का अनुपालन, संरचनात्मक तौर पर एक मजबूत तैयारी की ओर ले जाता है। देष की विविधता को समझने का मौका मिलता है। भारत दर्षन का दृश्टिकोण इसमें षामिल है। मिषन कर्मयोगी का संदर्भ से भी यह ओत-प्रोत है। यह कुषल सार्वजनिक सेवा वितरण के लिए व्यक्तिगत, संस्थागत और प्रक्रिया स्तरों पर क्षमता निर्माण तंत्र में व्यापक सुधार है। देखा जाये तो सिविल सेवा एक ऐसी धारणा से युक्त परीक्षा है तत्पष्चात् प्रषिक्षण है जो नीति निर्माण को लेकर नीति क्रियान्वयन तक बेहद महत्वपूर्ण है। विष्व बैंक ने अपने अध्ययन में पाया है कि जहां कहीं भी सिविल सेवा को राजनीतिक नेतृत्व द्वारा सषक्त किया गया था वहां बदलाव के लगभग हर मामले का नेतृत्व एक सिविल सेवक ने किया था। भारत की संविधान सभा में अखिल भारतीय सेवाओं के बारे में चर्चा के दौरान सरदार पटेल ने कहा था कि “प्रषासनिक प्रणाली का कोई विकल्प नहीं है। संघ चला जायेगा अगर आपके पास ऐसी अच्छी अखिल भारतीय सेवा नहीं है जिसे अपनी राय देने की आजादी हो, जिसे यह विष्वास हो कि आप उसके काम में उसका साथ देंगे तो अखण्ड भारत नहीं बना सकते। अगर आप इस प्रणाली को नहीं अपना सकते हैं तो मौजूदा संविधान का पालन न करें इसकी जगह कुछ और व्यवस्था करें। यह लोक औजार हैं इन्हें हटाने पर और मुझे देष भर में उथल-पुथल की स्थिति के सिवा कुछ नजर नहीं आता।“ दो टूक यह भी है कि देष में प्रषासनिक सेवा जितनी कीमत की है वैसी ही कीमत युवाओं को चयन तक पहुंचने के लिए चुकानी पड़ती है। जवानी गलानी पड़ती है, दिन-रात एक करना पड़ता और अध्ययन के साथ अच्छा इंसान की परिपाटी से युक्त रहना भी इसका हिस्सा है और ऐसा करने में सिविल सेवा परीक्षा के निहित पाठ्यक्रम कारगर सिद्ध होते हैं जो सुषासनिक दृश्टि से भी भारत के लिए अच्छी क्षमता वाला लोक सेवक देने का काम करता है।
 दिनांक : 05/01/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
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