Friday, June 5, 2020

वैश्विक समूहों की बदलती प्रासंगिकता

इन दिनों पूरी दुनिया एक षत्रु से लड़ रही है जो लाइलाज है साथ ही इसकी तबाही के स्वाद से सभी देष वाकिफ हैं। चीन से निकला दुष्मन कोरोना वायरस इन दिनों सभी की सांसों पर भारी पड़ा है और इससे सुरक्षित होने के लिए दुनिया दो-चार हो रही है। विष्व स्वास्थ संगठन से नाता तोड़ चुका अमेरिका यह संकेत दे दिया है कि ऐसे संगठनों की प्रासंगिकता अब खटाई में है। कई अन्तर्राश्ट्रीय संगठन दौर के अनुपात में अप्रासंगिक होते रहे हैं और कुछ नये स्वरूप लेते भी रहे हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में इन दिनों जी-7 की चर्चा है। जिसमें दुनिया के 7 सबसे बड़ी अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश द्वारा बतायी गयी विकसित अर्थव्यवस्थाएं षामिल हैं। 1975 में 6 विकसित देष फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, इंग्लैण्ड और अमेरिका बाद में कानाडा को जोड़ते हुए पथगामी हुआ जी-7 आज विस्तार की एक नई राह पर खड़ा दिखाई देता है। हालांकि दो दषक पहले आठवें देष के रूप में रूस भी इसका हिस्सा था पर अब मौजूदा समय में वह बाहर है। अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का इरादा है कि जी-7 को जी-10 या जी-11 में तब्दील किया जाये जिसमें भारत, आॅस्ट्रेलिया, रूस और दक्षिण कोरिया को षामिल करने की बात की जा रही है। गौरतलब है कि यह समूह आर्थिक विकास एवं संकट प्रबंधन, वैष्विक सुरक्षा, ऊर्जा एवं आतंकवाद जैसे वैष्विक मुद्दों पर आम सहमती को बढ़ावा देने हेतु सालाना बैठक आयोजित करता है। यह दुनिया का एक ऐसा धनी देषों का समूह है जो औद्योगिक और विकसित है जिनका वैष्विक निर्यात में 49 फीसद और विष्व की जीडीपी का 46 प्रतिषत है। इतना ही नहीं दुनिया का आधे से अधिक धन अर्थात् 58 फीसदी की मालिक यही समूह है। औद्योगिक आउटपुट में 51 प्रतिषत जबकि अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश की परिसम्पत्तियों में 49 फीसद हिस्सेदारी है। उक्त से यह साफ है कि यह समूह दुनिया को अपने आगे पीछे घुमाने की कूबत रखता है मगर कोरोना महामारी के बीच जापान और कुछ हद तक कानाडा को छोड़ दें तो बाकियों की आर्थिक उच्चस्थता और मजबूत सुरक्षा ढांचा स्वयं के नागरिकों के बचाने के काम न आ सका।
वैसे भारत को इस समूह में षामिल होने का अवसर मिलना हर लिहाज़ से बड़ी बात है मगर तुलनात्मक तौर पर देखें तो भारत की अर्थव्यवस्था न्यून है। अमेरिका जहां 19 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था रखता है वहीं भारत में यह तीन ट्रिलियन डाॅलर से भी कम है। हालांकि 2024 तक 5 ट्रिलियन डाॅलर होने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। मगर कोरोना ने इसे भी रोक दिया है। सवाल है कि जी-7 अभी तक कितना प्रभावी रहा है। वैसे देखा जाय तो इसकी आलोचना इस बात के लिए होती रही है कि यह कभी भी एक प्रभावी संगठन सिद्ध नहीं हुआ। हालांकि समूह कई सफलताओं का दावा करता है जिनमें एड्स, टीबी और मलेरिया से लड़ने के लिए वैष्विक फण्ड की षुरूआत करना भी है। जी-7 का दावा है कि बीते दो दषकों में करीब 3 करोड़ लोगों की उसने जान बचाई है। दावा तो यह भी है कि 2015 के पेरिस जलवायु समझौते को लागू कराने के पीछे इसी की भूमिका है जबकि सच्चाई यह है कि इसी समझौते से अमेरिका अपने को अलग कर लिया है। ऐसे में समूह की प्रासंगिकता तो हो सकती है पर उसमें षामिल अमेरिका पेरिस जलवायु के मामले में अप्रासंगिक सिद्ध हुआ। देखा जाये तो 45 बरस पुरानी यह संस्था और इतनी बार ही षिखर सम्मेलन आयोजित करने वाला यह समूह अब नूतनता की तलाष में है। भारत सहित अन्य देषों को इसमें षामिल करने का दृश्टिकोण दो इषारा करते हैं। पहला यह कि चीन अमेरिका का इस समय सबसे बड़ा दुष्मन है और दक्षिण चीन सागर पर अपना एकाधिकार रखना चाहता है। दक्षिण कोरिया, आॅस्ट्रेलिया, जापान सहित भारत और अमेरिका आदि को यह बहुत अखरता है। जापान पहले से ही जी-7 का सदस्य है जबकि दक्षिण कोरिया आॅस्ट्रेलिया और भारत तीनों यदि इस समूह में होते हैं तो जी-7 की ताकत एषिया के साथ आॅस्ट्रेलिया महाद्वीप में भी मजबूत होगी और चीन दक्षिण चीन सागर को लेकर हाषिये पर धकेला जा सकता है। दूसरा यह कि भारत को जी-7 में षामिल करने की वकालत करके अमेरिका एषियाई देषों में एक बड़ा संतुलन साधने की फिराक में है जो चीन को काउंटर करने के काम आ सकता है। हालांकि अर्थव्यवस्था को थोड़ी देर के लिए पीछे छोड़ दिया जाय तो भारत वैष्विक फलक पर यह सिद्ध कर चुका है कि वह किसी भी समूह का सदस्य बनने की योग्यता रखता है। रही बात रूस की तो रूस 1997 में इसका सदस्य बना था और 2014 में यूक्रेन, क्रीमिया हड़पने के बाद इसे जी-7 से निलम्बित कर दिया गया।
जब बात जी-7 के विस्तार की है और उसमें भारत को षामिल करने की है तो एक सवाल यह मन में आता है कि इस समूह का हिस्सा चीन क्यों नहीं है जबकि वह अमेरिका के बाद दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। गौरतलब है कि लगभग 13 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था चीन रखता है मगर दुनिया की सबसे बड़ी आबादी भी चीन के पास है। ऐसे में प्रति व्यक्ति आय के लिहाज़ से इसकी सम्पत्ति जी-7 समूह देषों के मुकाबले बहुत कम ठहरती है। यही कारण है कि चीन को उन्नत या विकसित अर्थव्यवस्था नहीं माना जा सकता। हालांकि जनसंख्या और प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत की स्थिति और खराब है। विकासषील देष भारत अल्पविकसित के हाषिये पर भी रहा है। ऐसे में विकसित देषों के साथ कंधे से कंधा मिलाना जितना सहज लगता है व्यावहारिक तौर पर उतना आसान नहीं है। अगर चीन उन्नत या विकसित अर्थव्यवस्था के चलते समूह में षामिल नहीं है लेकिन इसी स्थिति के बावजूद भारत को यदि आमंत्रण मिला है तो साफ है वैष्विक पटल पर भारत की साख केवल सम्पत्ति से नहीं सदाचार से भी आंकी जा रही है। जिस मामले में चीन निहायत फिसड्डी है। देखा जाये तो भारत और चीन जी-20 के देषों का हिस्सा हैं दोनों ब्रिक्स के सदस्य भी हैं जो विकसित और विकासषील देषों का पुल कहा जाने वाला समूह है। जी-20 में षामिल चीन षंघाई जैसे आधुनिकता षहरों की जनसंख्या बढ़ाने में इन दिनों लगा हुआ है। भारत और चीन द्विपक्षीय सम्बंधों के साथ कई अन्तर्राश्ट्रीय समूहों में षिरकत करते हैं मगर सीमा विवाद और पड़ोसी देषों को भारत के विरूद्ध भड़काने में चीन हमेषा मषगूल रहता है। मौजूदा समय में लद्दाख समस्या इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।
ऐसा नहीं है कि जी-7 दुनिया का कायाकल्प कर देगा। पहले से षामिल देषों के बीच भी कई असहमतियां हैं। कनाडा और अमेरिका के बीच पिछले सम्मेलन में बड़ा मतभेद उभरा था जिसमें आयात षुल्क के साथ पर्यावरणीय मुद्दे मतभेद के कारणों में रहे हैं। अफ्रीका, लैटिन अमेरिका सहित दक्षिणी गोलार्द्ध के कोई देषा जी-7 में नहीं है। ऐसे में यह उत्तरी गोलार्द्ध के यूरोप और अमेरिका महाद्वीप और एषिया के जापान तक ही यह सीमित है। फलस्वरूप यह एक घिसा-पिटा और पुराना माॅडल बन कर रह गया है। अन्यों के इसमें षामिल होने से नये विचार और ताकत ही नहीं बल्कि दक्षिणी गोलार्द्ध में भी इसकी पहुंच बढ़ेगी। भारत आसियान में अपनी उपस्थिति बढ़ाना चाहता है साथ ही प्रषान्त महासागरीय देष एपेक समूह तक पहुंचना चाहता है। जी-7 का सदस्य बनना इन रास्तों को आसान कर सकता है। इसके साथ दक्षिण एषिया में भारत की साख भी बढ़ेगी और चीन की तुलना में वैष्विक कद ऊँचा होगा जिसे दक्षिण एषियाई देष सार्क समेत आसियान में संतुलन के काम आयेगा। गौरतलब है कि आसियान के बाजारों पर भी चीन का कब्जा है। हांलाकि कोरोना महामारी का जन्मदाता चीन इन दिनों दुनिया के निषाने पर है जिसे देखते हुए कई देष समूह और देष की दृश्टि से बदलाव लेंगे। ऐसी बीमारी या परेषानी फिर न घटित हो और चीन जैसे देष संकट के सबब न बनें इसके लिए भी समीकरण वैष्विक स्तर पर बदलेंगे। जी-7 को जी-11 बनाने का दृश्टिकोण इस बात को पुख्ता करते हैं। फिलहाल भारत का इसमें सदस्य होने का कितना लाभ होगा यह आने वाली परिस्थितियां निर्धारित करेंगी।


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

नस्लभेद के पुराने जीन से फिर जूझता अमेरिका

अमेरिका की सड़कों पर इन दिनों रंगभेद के चलते जो ताण्डव देखा जा रहा है। उसका कारण केवल पुलिस की एक मात्र हैवानियत नहीं बल्कि इसके पीछे सैकड़ों वर्शों से यहां विद्यमान गोरे और काले का भेदभाव है। गौरतलब है कि इस रंगभेद के चलते समय-समय पर अमेरिका के कल-पुर्जे ढ़ीले होते रहे हैं और दुनिया में इस बदनामी के दाग को ढ़ोने से वह मुक्त नहीं हो पा रहा है। ऐतिहासिक पड़ताल यह दर्षाती है कि जब संयुक्त राज्य अमेरिका 240 साल पहले स्वतंत्र हुआ था तब उसकी अर्थव्यवस्था अपने षैषव काल में थी उसका स्वरूप कुछ आदिम अर्थव्यवस्था जैसा था। तब अमेरिका निर्मित माल और पूंजीगत सहायता के लिए यूरोप पर आश्रित था। मगर एक षताब्दी के भीतर उसकी अर्थव्यवस्था की गाड़ी अपनी पटरियों पर तेजी से दौड़ने लगी। यही नहीं आर्थिक सर्वोच्चता की दौड़ में उसने कई देषों को पीछे छोड़ दिया। यह बात और है कि गोरे और कालों के भेद के साथ यह दौड़ निरंतरता लिए हुए थी। 20वीं षताब्दी के आरम्भिक वर्शों में अन्य देषों की तुलना में अमेरिका का जीडीपी सबसे अधिक हो गयी और समय के साथ इस सर्वोच्चता को बनाये रखने में वो सफल भी रहा। मौजूदा समय में जिस नस्लवाद से अमेरिका गुजर रहा है उससे एक बार यह विष्वास करना मुष्किल होता है कि यह दुनिया का सबसे षक्तिषाली देष है। हालांकि कोरोना वायरस के चलते भी इसकी बुनियादी विकास और जन सुरक्षा के मामले में कितना निपुण और दक्ष है इसकी भी पोल खुल चुकी है। हैरत यह है कि एक अष्वेत को एक ष्वेत पुलिस वाला गर्दन को तब तक दबा कर रखता है जब तक उसके प्राण निकल नहीं जाते। वैसे भी सभ्य समाज में सजा देने का ऐसा कोई प्रावधान षायद ही किसी को स्वीकार है। बस यहीं से एक बार फिर नस्लभेद की भेंट अमेरिका चढ़ गया। इस घटना ने कोरोना से व्यापक पैमाने पर जूझ रहे अमेरिका को एक नई आग में झोंक दिया जिसकी लपटें 150 षहरों तक देखी जा सकती है। आग इतनी तेजी से विस्तार ले चुकी है कि व्हाइट हाउस की सुरक्षा भी दांव पर लगी हुई है। स्थिति तो यह हो गयी कि राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को बंकर में छिपना पड़ा। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि अष्वेतों का गुस्सा कोई एकाएक न होकर सैकड़ों वर्शों का परिणाम है।
अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिका के प्रमुख षहरों में हो रहे हिंसक प्रदर्षनों को रोकने का आह्वान कर रहे हैं। उन्होंने चेतावनी देते हुए यह भी कहा है कि यदि राज्यों के गवर्नर नेषनल गार्ड को लगाने से मना किया तो वह सेना की तैनाती करेंगे। गौरतलब है कि ट्रम्प समस्या से निकलने के लिए नई समस्या को विकसित करने में माहिर हैं। जो उनके लिए मुसीबत का सबब भी बनता रहा है। इन दिनों चैतरफा घिरे ट्रम्प एक बार फिर कईयों के निषाने पर हैं। माइक्रोसाॅफ्ट कम्पनी के सीईओ सत्या नडेला, गूगल के सुन्दर पिचई और पेप्सिको कम्पनी की पूर्व सीईओ इन्दिरा नूई समेत पूर्व अमेरिका राश्ट्रपति बराक ओबामा ट्रम्प के रवैये पर प्रष्न उठा रहे हैं। समस्या को जिस तरह ट्रम्प दबाव के साथ हल करने का प्रयास करते हैं षायद यही कारण है कि उनकी चैतरफा आलोचना होती रही है। कोरोना महामारी के बीच विष्व स्वास्थ संगठन से नाराजगी के चलते उससे नाता तोड़ने वाले ट्रम्प के इस कृत्य पर भी अमेरिका के भीतर और बाहर कई सवाल उठे हैं। गौरतलब है कि इसी साल नवम्बर में अमेरिकी राश्ट्रपति का चुनाव होना है और ट्रम्प इस चुनाव में एक बार फिर व्हाइट हाउस का रास्ता तलाषना चाहेंगे मगर कोरोना और बाद में नस्लभेद की आग ने उनके रास्ते को एक नई मुसीबत खड़ी कर दी है। विषेशज्ञ की राय यह बताती है कि जो आग इन दिनों अमेरिका में सुलगी है उसमें ट्रम्प झुलस सकते हैं। इस समय पूरी दुनिया की निगाह अमेरिका पर बनी हुई है। पहले महामारी की वजह से और अब नस्लीय हिंसा के कारण ऐसा है। करीब एक सप्ताह से अमेरिका जल रहा है। लोग सड़कों पर हैं और ट्रम्प सेना का सहारा लेने की बात कह रहे हैं। नस्लवाद अमेरिका की सबसे बड़ी महामारी है जिसका टीका अब तक नहीं खोजा जा सका है। नई-नई बीमारियों से निजात पाने वाला अमेरिका नस्लवाद को मानो असाध्य बीमारी मान लिया हो। 13 फीसदी अष्वेत जिस भेदभाव से गुजरते हैं और इससे जुड़ी घटनायें आये दिन सुर्खियों में रहती हैं लेकिन ऐसा अवसर कभी-कभी ही आता है जब रंगभेद का रंग सड़कों पर सैलाब बन कर उतरता है। गौरतलब है यह पहली बार नहीं है। अमेरिका में रंगभेद का इतिहास बहुत पुराना है। 1619 में जब पहली बार अमेरिका ने अफ्रीकी मूल के लोगों को गुलाम बनाकर लाया गया था तब से इसकी कड़ी जुड़ती है। इस घटना को हुए 400 साल हो गये पर यह जिन्न आज भी सभ्य अमेरिका में जिन्दा है। 
संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान की उद्देषिका में कहा गया है कि यह संविधान संयुक्त राज्य की जनता ने तैयार किया है मगर संविधान तैयार करने वाली जनता ने समतामूलक बातें मानो यहां कोई मायने नहीं रखती हैं। इतिहास की पड़ताल करें तो कहानी षीषे की तरह साफ हो जाती है। अमेरिका बरसों तक उपनिवेषवाद में रहा है और इसी उपनिवेषवाद के पहले चरण के दौरान 1619 में कुछ अष्वेत लोगों को लाकर जेन्सटाउन में बसाया गया था। षुरू-षुरू में तो ये लोग वेस्ट इंडीज़ से लाये गये किन्तु बाद में सन् 1674 में राॅयल अफ्रीकन कम्पनी ने काले लोगों को अफ्रीका से जहाजों में भर-भरकर लाना षुरू कर दिया। आरम्भ के वर्शों में सारे अष्वेत मज़दूर, दास बनाकर लाये गये मगर ज्यों-ज्यों विकासषील आर्थिक कारणों से मजदूरों की मांग बढ़ती गयी त्यों-त्यों अष्वेत लोगों की स्थिति बद् से बद्त्तर होती गयी। 17वीं षताब्दी के उत्तरार्ध में वर्जीनिया में एक दास नियमावली बन चुकी थी जिसके चलते दासों को उस व्यक्तिगत सम्पत्ति की तरह माना जाने लगा जिसे बाजार में खरीदा और बेचा जा सकता है। अष्वेत लोगों की इस दयनीय स्थिति के दुश्परिणाम तो निकलने ही थे। इसी वजह से अष्वेत और गोरे अमेरिकियों में विभाजन की रेखा अस्तित्व में आयी और जिसमें अमेरिका में नस्लवादी और रंगभेदी इतिहास को जन्म दिया। जिसका कच्चा चिट्ठा आज भी अमेरिका की सड़कों पर एक दस्तावेज के रूप में उभरा हुआ है। हैरत तो यह भी है कि सैकड़ों साल बीतने के बाद अमेरिकी स्वतंत्रता के घोशणापत्र में गुलामों के व्यापार के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया। उसमें स्वतंत्रता और समानता के सिद्धान्त पर जो बल दिया गया था वो गुलामों के लिए नहीं था। अमेरिका के संविधान में भी उनको नागरिकता के अधिकार नहीं मिले। बस इतना उल्लेख किया गया कि प्रतिनिधित्व के मामले में नीग्रो की गणना वास्तविक संख्या यदि 500 होगी तो 300 मानी जायेगी जो हर लिहाज़ से बड़े भेद को दर्षाता है। अमेरिकी राज्य में नये-नये राज्य षामिल होते गये और राज्य दास प्रथा के पक्ष में या विरोध में बंटते गये और यहां यह इतिहास बन गया कि कभी एक पक्ष का जोर रहता था तो कभी दूसरे पक्ष की षक्ति बढ़ जाती थी। अमेरिका के उत्तरी भाग में अप्रवासियों का आगमन अधिक था। हालांकि 1808 में अष्वेतों को लाने में रोक लगायी गयी। पहले राश्ट्रपति जाॅर्ज वांषिंगटन से लेकर ट्रम्प तक सत्ता यदा-कदा छोड़कर ष्वेतों के हाथ में रही। राश्ट्रपति अब्राहम लिंकन की 1865 में गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद हत्या कर दी गयी थी जिन्हें दासों को आजाद करने के लिए जाना जाता है। ट्रम्प से पहले बराक ओबामा अष्वेत राश्ट्रपति थे। फिलहाल सुलग रहे अमेरिका की दासतां नई नहीं है और न ही षीघ्र समाधान की ओर जाते दिखती है। 
अमेरिका के इतिहास में आंदोलन का बड़ा चेहरा रहे मार्टिन लूथर किंग जूनियर जो राश्ट्रपिता महात्मा गांधी को अपना आदर्ष मानते हैं उन्होंने कहा था कि आने वाले दिनों में क्या इसकी सम्भावना पूरी तरह होगी कि जब मेरे चारों बच्चे नस्लभेद से मुक्त अमेरिका में सांस लेंगे। मार्टिन लूथर किंग का यह भी दृश्टिकोण था कि आंदोलनों में हिंसा की कोई जगह नहीं है और एक बार उन्होंने यह भी कहा था कि दंगे वे लोग करते हैं जिनकी आवाज नहीं सुनी जाती है। उक्त कथन के आलोक में घटे प्रकरण को देखें तो मार्टिन लूथर किंग के कथन सत्यता की पुश्टि करते हैं। एक पुलिसवाला एक अष्वेत के गर्दन को अपने घुटने से 8 मिनट तक दबाये रखता है और तिल-तिल कर उसकी सांस उखड़ रही है, आवाज़ बंद हो रही है पर षायद वह पुलिसवालायह इंतजार कर रहा है कि इसका षरीर षिथिल पड़े, स्थिर हो और यह प्राण से हाथ धो ले तब वह उसकी दबोची हुई गर्दन छोड़ेगा। यदि यह हकीकत है तो मार्टिन लूथर किंग की बातें अमेरिका की फिजा की हिसाब से कहीं अधिक पुख्ता सबूत की तरह है। अमेरिका में हो रहे दंगे और प्रदर्षन यही बताते हैं कि अष्वेतों को वह न्याय और वह स्थान नहीं मिला जो असल में मिलनी चाहिए। गौरतलब है कि जिस अमेरिका के संविधान से भारत ने मूल अधिकार का अनुसरण करते हुए अपने संविधान का हिस्सा बनाया अभी भी उसी अमेरिका में रंगभेद सर चढ़ कर बोल रहा है जबकि उसके संविधान को बने 230 साल से अधिक हो चुके हैं। हालांकि अमेरिका ने मूल अधिकार को पहले से 10वें संविधान संषोधन के भीतर समावेष किया था। फिलहाल अमेरिका में 50-60 के दषक में बड़े पैमाने पर दंगे हुए थे। गौरतलब है कि अष्वेत नागरिकों को यहां तरक्की के अवसर किसी छोर पर छूट गये हैं मगर यहां रंगभेद इतनी मजबूती से खड़ा है कि अधिकतर अष्वेत नागरिक आज भी अपने अधिकारों के लिए संघर्श कर रहे हैं। 
अमेरिका में जो दंगे चल रहे हैं उसमें अमेरिका और चीन के बीच की तल्खी को भी एक वजह समझा जा रहा है। बात छन-छन कर यह भी आ रही है कि चीन के प्रति अमेरिका का कड़ा रूख ट्रम्प के लिए एक मुसीबत बन गया। व्हाइट हाउस के घेराव और हमले के दौरान कुछ विरोधियों को चीनी भाशा में बात करते हुए सुने जाने की बात कही गयी। सम्भव है कि चीन ने ट्रम्प विरोधी गुट को हवा देने का काम किया होगा। फिलहाल नस्लभेद की इस लड़ाई में सबसे ज्यादा नुकसान में अमेरिका रहेगा और दुनिया में इसका संदेष बिल्कुल गलत जायेगा जो ट्रम्प के व्यक्तित्व के लिहाज़ से कहीं अधिक नकारात्मक है। अमेरिका और चीन कोरोना के चलते जिस तरह आमने-सामने हैं उसे देखते हुए कुछ भी घटित हो सकता है। इतना ही नहीं जब दुनिया इस महामारी से जूझ रही है तब चीन लद्दाख में भारत के लिए मुसीबत का सबब बन गया है और एक बार फिर द्विपक्षीय सम्बंध रसातल में चले गये हैं। चीन अपनी आन्तरिक समस्याओं से जूझने का रास्ता फिलहाल भारत से उलझने के मार्ग से निकाल रहा है। जबकि अमेरिका नासूर बनी समस्या से इन दिनों दो-चार हो रहा है। अगस्त 1965, जुलाई 1967 और अप्रैल 1968 के दौर को देखें तो यहां रंगभेद की लड़ाई जिस उठान पर थी उसमें अमेरिका नस्लभेद की स्याही को कहीं अधिक गाढ़ी कर रहा था। जिस तर्ज पर हाल में अमेरिका में घटना घटी है उसी तर्ज पर दिसम्बर 1979 में चार ष्वेत पुलिस अधिकारियों ने अष्वेत मोटरसाइकिल सवार को पीट-पीटकर मार दिया था। हालांकि सुनवाई के बाद पुलिसकर्मी को बरी कर दिया गया तब भी अष्वेतों द्वारा हिंसा की गयी थी पर इसका साइज़ छोटा था। 1992 में अष्वेत रंगभेद की हिंसा ने 59 लोगों की जान ली थी और ठीक इसके 19 साल बाद ऐसी घटना के चलते सिन सिनेटी षहर में कफ्र्यू लगाना पड़ा था। अगस्त 2014 में भी एक पुलिसवाले निहत्थे अष्वेत किषोर को मौत के घाट उतार दिया। इसके कारण भी हिंसा और तनाव का कारण बना था। पड़ताल बताती है कि ष्वेत पुलिसकर्मियों के निषाने पर अष्वेत अक्सर रहे हैं और हजारों की तादाद में मौत इसी तरह हुई है। जिसके चलते अमेरिका हिंसा की चपेट में और रंगभेद के षिकार होने से स्वयं को कभी बचा नहीं पाया। 

डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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सीमा पर घटना रचित करता है चीन

इतिहास के पन्नों में इस बात के कई सबूत मिल जायेंगे कि भारत और चीन के बीच सम्बंध भी पुराना है और रार भी पुरानी है। कूटनीति में अक्सर यह देखा गया है कि मुलाकातों के साथ संघर्शों का भी दौर जारी रहता है। भारत और चीन के मामले में यह बात सटीक है पर यह बात और है कि चीन इसका रणनीतिक फायदा उठाता है और भारत भावनाओं में बह जाता है। षीषे में उतारने वाली बात तो यह भी है कि चीन एक ऐसा पड़ोसी देष है जो सिर्फ अपने तरीके से ही परेषान नहीं करता बल्कि अन्य पड़ोसियों के सहारे भी भारत के लिए नासूर बनता है। मसलन पाकिस्तान और नेपाल इतना ही नहीं श्रीलंका और मालदीव यहां तक कि बांग्लादेष से भी ऐसी ही अपेक्षा रखता है। गौरतलब है जब पाकिस्तान और भारत के बीच की दुष्मनी प्रकट होती है तब यह बात सभी को आसानी से पच जाती है कि भारत के आगे पाकिस्तान बिल्कुल नहीं टिक पायेगा मगर जब चीन आंख दिखाता है तब भारत की मीडिया से लेकर तमाम जानकार चीन की षक्ति का बखान करते हुए भारत का हौसला बढ़ाते हैं। सवाल यह है कि क्या हमेषा के लिए यह तय हो गया है कि समस्या सदैव चीन ही बढ़ायेगा। डोकलाम विवाद से लेकर लद्दाख तक तीन साल के दरमियान में देखें तो चीन ने हमें बेवजह कई तकलीफें दी हैं और भारत सिर्फ संयम दिखाता रहा। यह बात उचित है कि युद्ध समस्या का सम्पूर्ण हल कभी हो नहीं सकता पर चीन की दबंगाई हमेषा के लिए क्यों स्वीकारी जाये। अरूणाचल से लेकर लद्दाख तक जमीन हड़पने का पक्षधर चीन जब-तब भारत के लिए मुसीबत का सबब बनता है तब-तब भारत संयम और षान्ति के साथ उसके षान्त होने का इंतजार करता है। दुविधा यह है कि इस तरीके से भारत-चीन सीमा विवाद का कोई हल क्या निकल पायेगा। 
लद्दाख पर चीन की नई करतूत ने द्विपक्षीय सम्बंध को रसातल में धकेल दिया है और कोरोना महामारी के बीच बेवजह वह एक मुसीबत बन गया है। सीमा पर अच्छी खासी संख्या में चीनी सैनिक मौजूद है उसके मुकाबले में भारतीय सेना भी वहां बहुतायत में उपस्थित है। रक्षा मंत्री की मानें तो लद्दाख में लड़ाकू विमान सुखोई तथा तेजस मिराज उड़ान भर रहे हैं। गौरतलब है कि भारत सीमा पर सड़क बना रहा है और चीन को यह अखर रहा है। चीन की आपत्ति के बावजूद काम नहीं रोकने बल्कि काम तेज करने की बात कही गयी है। मई में दो समस्याएं उपजी पहला नेपाल ने अपने नक्षे में काला पानी और लिपुलेख को दिखाकर मानो भारत को एक मौन चुनौती दे दी हो जाहिर है यह चीन की कुटिल चाल का हिस्सा है। दूसरी समस्या स्वयं चीन है जो लद्दाख में भारत से भिड़ने के लिए तैयार बैठा है। चीन को यह कौन समझाये यह 1962 का नहीं यह 2020 का भारत है। सभी जानते हैं कि साल 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण करके वर्श 1954 के पंचषील समझौते की धज्जियां उड़ाई थी। इतना ही नहीं पाकिस्तान का लगातार साथ देकर भारत की कूटनीति को बौना करना इसकी फितरत रही है। संयुक्त राश्ट्र संघ की सुरक्षा परिशद् में पाक आतंकियों का पक्ष लेकर वीटो को रोकने वाला चीन कई बात अपनी संकीर्णता का परिचय कई बार दे चुका है।
देखा जाय तो सीमा विवाद के मामले में चीन का रवैया कभी उदार नहीं रहा है। भारत सहित दर्जन भर से अधिक पड़ोसी देषों का दुष्मन चीन कोरोना महामारी का जन्मदाता है। हांगकांग में स्वतंत्रता की आवाज इन दिनों दबा रहा है। अमेरिका से चलने वाला ट्रेड वाॅर अब कोरोना वाॅर में तब्दील हो गया है। दुनिया को कोरोना वायरस बांट कर चीन अब अपनी अर्थव्यवस्था के गुणा-भाग में न केवल षामिल है बल्कि सीमा विवाद खड़ा करके अपनी भीतरी समस्या को सुलझाने की राह को भारत के धमकाने से खोज रहा है। गौरतलब है कि चीनी राश्ट्रपति जिनपिंग ताउम्र के लिए राश्ट्रपति हैं और वहां लोकतंत्र का तो नामोनिषान नहीं है। ताकत और दबंगाई के बल पर चीनी नागरिकों को हांका जाता है पर कईयों ने जिनपिंग के खिलाफ आवाज उठाई। जिनपिंग को डर है कि यह आवाज अगर चीन की गूंज और क्रान्ति बन गयी तो उनकी सत्ता का तख्त पलटा जा सकता है। ऐसे में सीमा विवाद खड़ा करके चीनियों का ध्यान ही पलट दिया जाये। जिनपिंग जो नाटक कर रहे हैं वह द्विपक्षीय सम्बंध के लिहाज से कतई उचित नहीं है। यूरोप के कई देष चीन पर जुर्माने की बात कह रहे हैं। अमेरिकी राश्ट्रपति ट्रम्प विष्व स्वास्थ संगठन से इस बात के लिए नाता तोड़ लिया कि यह चीन परस्त है। ट्रम्प तो कोरोना को चीनी वायरस की संज्ञा दे रहे हैं। जिस राह पर दुनिया खड़ी है चीन फिलहाल उसके केन्द्र में है।
संयोग से चीन भारत की तुलना में आर्थिक और सामरिक दृश्टि से षक्तिषाली देष है जो जब चाहे भारत-चीन सीमा पर धमक जाता है और मुसीबत को स्वयं अपने मन-माफिक बढ़ा लेता है। वैसे चीन इन दिनों कई चीजों से उलझ रहा है। हांगकांग से लेकर ताइवान तक और यूरोप से लेकर अमेरिका तक। विवाद हर जगह भिन्न-भिन्न प्रकृति का है। ताजा-तरीन मामला भारत के साथ है। लद्दाख की समस्या डोकलाम की याद ताजा कर देती है। जब 16 जून 2017 को चीन डोकलाम की चुम्बी घाटी पर दावा करना चाह रहा था। करीब ढ़ाई महीने तक चली इस तनातनी के बीच दोनों सेनाएं वापस हुई। इसके पीछे एक बड़ा कारण भारत का संयम से उठाया गया कदम और सितम्बर 2017 के प्रथम सप्ताह में चीन में होने वाले ब्रिक्स देषों की बैठक मानी जा सकती है। अब सवाल यह है कि क्या भारत और चीन के बीच युद्ध की स्थिति बन रही है और यदि ऐसा है तो क्या यह विष्व युद्ध का संकेत दे रहा है। इन दिनों सभी की अर्थव्यवस्था उखड़ी है ऐसे में सद्भाव की आवष्यकता सभी को है। यह बात ठीक है कि भारत पहले जैसा नहीं है पर चीन से मजबूत भी तो नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी ने कहा था कि पड़ोसी नहीं बदल सकते। चीन और भारत की 4 हजार किलोमीटर की सीमा जब-तब विवाद को उत्पन्न करती है। जाहिर है समाधान बातचीत ही है मगर औजारों और हथियारों के इस युग में संयम खो चुके देष इस रास्ते से भटक गये हैं जिसमें चीन पहले नम्बर पर है। जबकि संयम के मामले में यही स्थान भारत का है। 

डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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