Wednesday, May 24, 2017

तीन साल की कसौटी पर मोदी सरकार

इसमें कोई संदेह नहीं कि सुषासन की चाह रखने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बीते तीन सालों में अपनी पहचान बीजेपी और एनडीए से बाहर जाकर भी बनाई है। सरकार के कामकाज का आंकलन करते हुए मोदी फैक्टर को समझना भी इतना सहज नहीं है जितना आमतौर पर दिखाई देता है। पहले लोग मोदी को गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में जानते थे जबकि अब तीन साल से प्रधानमंत्री के रूप में जानते और समझते हैं। रही बात लोकप्रियता की तो इस मामले में भी उनका ग्राफ कईयों को पीछे छोड़ते हुए गगनचुम्भी बना हुआ है। देष-दुनिया में उन्हें बड़ी-बड़ी प्रसिद्धियां मिली साथ ही बदलते वैष्विक जगत में मोदी के नाम का जादू भी सर चढ़ कर बोला और इस क्रम में मामला अभी थमा नहीं है। चुनावी सभाओं में भी लाखों की भीड़ और कुछ राज्यों को छोड़ दिया जाय तो बहुतायत में जीत भी मोदी की वजह से ही मिली है। इस बात से विपक्ष भी बीते तीन वर्शों से काफी परेषान रहा है और मोदी की काट में एड़ी-चोटी का जोर लगाता रहा जबकि नतीजे ढाक के तीन पात रहे। गौरतलब है जिन कामों को लेकर मोदी सरकार को कसौटी पर कसना है उसके कई आयाम हैं। कुछ तो बेषुमार सफलता लिए हुए तो कुछ काज रस्म अदायगी मात्र हैं। मोदी का स्वच्छता के प्रति झुकाव, पीएम के मन की बात, भ्रश्टाचार पर अंकुष की कोषिष, सर्जिकल स्ट्राइक कर पाकिस्तान और विपक्ष का मुंह बंद करना, नोटबंदी का एलान और तकनीकी प्रगति में रूझान समेत डिजिटल भारत की मुहिम और कैषलेस भारत बनाने की कोषिष को देखा जाय तो तीन साल का षासन और प्रषासन आवेष से भरा दिखाई देता है चूंकि ये सभी कृत्य अभी लक्ष्य भेदने की दिषा में हैं ऐसे में दृश्टिकोण का पूरा स्पश्ट होना सम्भव नहीं है पर देष में पुराने पड़ चुके कानूनों की भी सफाई हुई है। प्रतिदिन की दर से एक कानून समाप्त करना, नेहरूवादी योजना आयोग को समाप्त कर मोदीवादी नीति आयोग का गठन करना भी ढांचागत विकास में उन्हें कदमताल करते देखा जा सकता है।
गौरतलब है कि वैष्विक फलक पर अपना कद बढ़ाते हुए मोदी ने भारत के मान को भी काफी ऊंचाई दिलाई है। पूरब और पष्चिम के देषों से गहरा नाता तो जोड़ा ही पाकिस्तान और चीन जैसे पड़ोसियों को भी कूटनीतिक मात देने की समय-समय पर उनके द्वारा कोषिष की गयी। मोदी के तीन साल की सरकार का बैलेंस षीत कितना लाभोन्मुख है इसे लेकर भी पड़ताल जरूरी है। समेकित मापदण्डों में देखा जाय तो मोदी सरकार के तीन साल को विपक्ष फेल की दृश्टि से देख रही है और नरेन्द्र मोदी को सपनों का सौदागर माना जा रहा है। लव-जिहाद, एंटी रोमियो, स्कवाॅड, घर वापसी, राम मंदिर समेत हिन्दू राश्ट्रवाद जैसे मुद्दे बाकायदा इनके कार्यकाल में छाये रहे। उत्तर प्रदेष में भाजपा सरकार के निर्माण के साथ इसे और बल मिला है। रोजगार, षिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य बुनियादी आवष्यकताएं सरकार के लिए माथापच्ची का विशय हमेषा से रहा है पर सफलता इसी आंकड़े से लगाया जा सकता है कि दो करोड़ प्रति वर्श रोज़गार की बात कहने वाली सरकार क्या अब तक छः करोड़ नौकरियां दे चुकी हैं, बिल्कुल भी नहीं जबकि नोटबंदी के दौर में ये बेरोजगारी और बढ़ी है। जाहिर है जिस इरादे के साथ वायदे किये गये उसमें बट्टा लगता दिखाई देता है। सितम्बर, 2016 का सर्जिकल स्ट्राइक और नवम्बर की नोटबंदी सरकार के मास्टर स्ट्रोक थे इसे लेकर देष में उनकी खूब जय जयकार हुई परन्तु सीमा पर तनाव कम नहीं हुआ और जवानों के षहीद होने का सिलसिला अभी भी नहीं रूका है। तीन साल समाप्त होते-होते बीते 24 मई को एक बार यह जरूर फिर हुआ है कि पाकिस्तानियों के बंकर को स्वाहा करके भारतीय सैनिकों ने सेना की षहादत का बदला ले लिया है। 
सरकार में आने से पहले विदेष में जमा काले धन को लेकर भी खूब ख्वाब दिखाये गये थे पर उनकी घर वापसी तो नहीं हुई, हां इतना जरूर है कि मोदी सरकार ने दुनिया के मंचों पर इसे लेकर दुनिया को न केवल चैकन्ना किया बल्कि कुछ नियम और काले धन की सूचना आदान-प्रदान आदि पर कुछ मील का रास्ता तो तय हुआ है। भ्रश्टाचार को लेकर ज़ीरो टोलरेंस की बात करने वाली इस सरकार के अब तक के कार्यकाल में एक भी भ्रश्टाचार का आरोप फिलहाल नहीं लगा है। इस मामले में सरकार अव्वल है इसे कहने में कोई गुरेज नहीं है। हालांकि भाजपा की राज्यों में काम कर रही सरकारें इन आरोपों से स्वयं को नहीं बचा पाई मसलन मध्य प्रदेष का व्यापमं घोटाला। प्रधानमंत्री मोदी ने भावनात्मक मुद्दों को भी खूब उभारा है। चुनावी दिनों में इसकी मात्रा बढ़त में रहती थी मगर सभी जुमले नहीं थे। कई मुद्दे हटकर भी हैं, मेक इन इण्डिया और स्वच्छ भारत ने भी सरकार को काफी वाहवही दी है। अच्छे दिन आयेंगे का नारा भी परवान चढ़ा परन्तु अभी भी लोग इसके इंतजार में हैं। सबका साथ, सबका विकास भी जुबान पर कैंची की तरह चला पर कसौटी पर इसकी भी हालत संतोशजनक नहीं है। आज से तीन बरस पहले 2014 में 16 मई को 16वीं लोकसभा के नतीजे घोशित हुए थे और 26 मई को मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत वाली केन्द्र सरकार का गठन हुआ था। जीत ऐतिहासिक थी परन्तु क्या सरकार की परिपाटी भी ऐतिहासिक है। असल में कामकाज और लोकप्रवर्धित अवधारणाएं सरकारों को ऐतिहासिक बनाती हैं। षायद इस मामले में अभी बात पूरी तरह पुख्ता नहीं हुई है। 
आन्तरिक सुरक्षा की बात करें तो सुकमा से लेकर नक्सलवादियों की वारदातें बढ़ी हैं और सरकार केवल अधिकारियों की बैठक तक ही सीमित रही है। इनके कार्यकाल में भी देष के किसानों ने फसल बर्बादी और तबाही के चलते खूब फांसी लगाई है अब तो फांसी लगाने वाले किसानों का आंकड़ा बीते दो-ढ़ाई दषक का मिला दिया जाय तो तीन लाख से ऊपर चला गया है। हालांकि सरकार का बजट किसानोन्मुख भी रहा है। समर्थन मूल्य में भी वृद्धि की गयी है। बेमौसम बारिष से तबाह अनाजों की बढ़ा कर कीमत देने की बात भी कही गयी है पर मुआवजे के बंटवारे में कितनी ईमानदारी थी यह भी समझने वाली बात है। अगर लोकतंत्र मजबूत रखना है तो सबका विकास होना चाहिए। सुषासन की डगर पर चलने वाले मोदी बिना भेदभाव के काम कर रहे हैं यह बात भी निःसंकोच कही जा सकती है पर सबका विकास हो रहा है यह कह पाना कठिन है। सरकार के बारे में पूरा विष्लेशण एक लेख मात्र में नहीं सिमट सकता पर जोष और होष के खेल में सरकार पीछे नहीं रही यह बात तीन सालों में बाखूबी मोदी सरकार ने बता दिया है। मीडिया से लेकर विपक्ष ने भी कई मौकों पर मोदी को घेरने की कोषिष की पर मोदी घेरे में नहीं आ पाये उसकी बड़ी वजह न खाऊंगा, न खाने दूंगा की तर्ज पर मोदी ने सत्ता चलाई। राजनीति में हर किसी का अपना नज़रिया होता है। कोई सोषल इंजीनियरिंग को महत्व देता है तो कोई पूरे समाज को ही प्रयोगषाला बना देता है। जिस कदर मोदी ने भारतीय राजनीति के क्षितिज पर अपने को पहुंचाया है उससे भी यह संकेत मिलता है कि जरूरत के हिसाब से सिद्धान्त भी बने हैं और उसे प्रयोग में भी ढाला गया है। एक बात तो सच है कि दषकों से चली आ रही धर्म और जात-पात की राजनीति भी मोदी के इन्हीं तीन वर्शों के कार्यकाल में खत्म हुआ है। कईयों को ऐसा लगता है कि मोदी का सिक्का दषकों तक चलेगा तो कईयों को 2019 में नये नतीजे की उम्मीद है पर एक विचारक होने के नाते मुझे ये लगता है कि तीन साल के कार्यकाल की जो बैलेंस षीट मोदी की दिखाई देती है वह संतोशजनक तो नहीं परन्तु मध्यम और निम्न वर्गों में मानो वह पाई-पाई का हिसाब हो और षायद यही वर्ग मोदी को आगे भी सफलता के षिखर पर बैठाती रहेगी।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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Monday, May 22, 2017

एनएसजी की राह में रोड़ा चीन

आगामी जून महीने में स्विट्जरलैण्ड की राजधानी बर्न में परमाणु आपूर्ति समूह यानि एनएसजी की बैठक होनी है जिसमें यह उम्मीद की जा रही है कि भारत की इस समूह में सदस्यता को लेकर एक बार फिर विचार किया जायेगा लेकिन चीन का विरोध बरकरार रहने से मामला एक बार फिर खटाई में पड़ सकता है। बीजिंग भारत को इसकी सदस्यता न मिल पाये इसके लिए पहले से ही कई बहाने बनाता रहा है। चीन का यह राग अलापना कि एनएसजी नियमों के मुताबिक सदस्यता उन्हीं देषों को दी जानी चाहिए जिन्होंने परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर किये हैं। इतना ही नहीं उसका यह भी मानना है कि भारत के साथ अन्य देषों को भी छूट दी जाय जबकि सच्चाई यह है कि भारत के परमाणु कार्यक्रमों को देखा जाय तो अन्य देषों से ये कहीं अधिक सभ्य और सौम्य रहा है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसे तमाम देष भारत के परमाणु कार्यक्रम रिकाॅर्ड को देखते हुए छूट देने के पक्षधर हैं परन्तु क्या यही बात पाकिस्तान के लिए कही जा सकती है जाहिर है चीन पाकिस्तान परस्त है, उसका पक्ष ले सकता है जबकि उत्तर कोरिया और ईरान को चोरी-छिपे परमाणु सामग्री देने के चलते पाकिस्तान का ट्रैक रिकाॅर्ड निहायत खराब है और इसे जानते हुए भी चीन अनभिज्ञ बना रहता है। पुराने अनुभवों के आधार पर यह भी आंकलन है कि भारत को दुनिया के चुनिंदा समूहों से बाहर रखने की कोषिष होती थी कमोबेष वह क्रम आज भी जारी है। अब फर्क यह है कि पहले पष्चिमी देष इस मामले में अव्वल थे अब पड़ोसी चीन नम्बर वन बना हुआ है। इसका मूल कारण एक यह भी है कि भारत की बढ़ती वैष्विक साख से चीन भयभीत और चिंतित है क्योंकि एषियाई देषों में उसकी एकाधिकार को भारत कहीं न कहीं चुनौती दे रहा है। 
जब वर्श 1974 में पोखरण परीक्षण हुआ तब इसी वर्श परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह से भारत को बाहर रखने के लिए एक समूह बनाया गया जिसमें अमेरिका, रूस, फ्रांस, पष्चिमी जर्मनी और जापान समेत सात देष थे जिनकी संख्या अब 48 हो गयी है। इतना ही नहीं वर्श 1981-82 के दिनों में भारत के समेकित मिसाइल कार्यक्रमों के तहत नाग, पृथ्वी, अग्नि जैसे मिसाइल कार्यक्रम का जब प्रकटीकरण हुआ और इस क्षेत्र में भरपूर सफलता मिलने लगी तब भी पाबंदी लगाने का पूरा इंतजाम किया जाने लगा। गौरतलब है कि 1997 में मिसाइल द्वारा रासायनिक, जैविक, नाभिकीय हथियारों के प्रसार पर नियंत्रण के उद्देष्य से सात देषों ने एमटीसीआर का गठन किया हालांकि जून, 2016 से भारत अब इसका 35वां सदस्य बना जबकि चीन अभी भी इससे बाहर है। जाहिर है पहले दुनिया के तमाम देष नियम बनाते थे और उसका भारत अनुसरण करता था परन्तु यह बदलते दौर की बानगी ही कही जायेगी कि दुनिया के तमाम देष अब भारत को भी साथ लेना चाहते हैं। हालांकि एनएसजी के मामले में अभी बात नहीं बन पाई है। गौरतलब है कि एनएसजी में भारत की सदस्यता के लिए अमेरिका के पूर्व राश्ट्रपति ओबामा एड़ी-चोटी का जोर लगा चुके हैं। चीन को छोड़ सभी एनएसजी में षामिल देष भारत को इसमें चाहते हैं। इतना ही नहीं एक वर्श पहले एमटीसीआर यानि मिसाइल तकनीक नियंत्रण व्यवस्था में भारत अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर नियमों का अनुसरणकत्र्ता ही नहीं नियमों का निर्माता भी बन गया था। साथ ही एमटीसीआर के क्लब में जाने से चीन जैसे देषों को भी हाषिये पर भी धकेलने में सफल रहा। जाहिर है पिछले 13 वर्शों से चीन एमटीसीआर में षामिल होने के लिए प्रयासरत् है परन्तु सफलता से अभी वो कोसो दूर है। एनएसजी के मामले में अडंगा लगाने वाला चीन भले ही अपनी पीठ थपथपा ले परन्तु एमटीसीआर में भारत की एंट्री के चलते यहां उसकी भी राह आसान नहीं है। बदले दौर के परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारत कहीं आगे है, उभरती अर्थव्यवस्था वाले देषों में षुमार है, वैष्विक कूटनीति में भी अव्वल है। मात्र एनएसजी में न होने से क्षमता बहुत कम नहीं हो जाती पर इसके लाभ से वंचित रहने पर भविश्य में दिक्कतें आयेंगी। 
स्विट्जरलैण्ड में एनएसजी को लेकर जो भी नतीजे होंगे उससे भारत की कूटनीति पर अलग तरीके का असर पड़ेगा। पिछले वर्श प्रधानमंत्री मोदी की वैदेषिक नीति की आलोचना इस बात के लिए भी हुई थी कि एनएसजी के मामले में उनकी कूटनीति विफल हो गयी। गौरतलब है कि मई, 2016 में भारत एनएसजी के मामले में पीछे रह गया था। उसके तीन दिन बाद ही एमटीसीआर में एंट्री मिलने से कूटनीतिक फलक पर भारत फिर चमक उठा था। फिलहाल विविधता और विस्तार से भरी दुनिया में ऐसे बहुत से दौर आते जाते रहेंगे। एनएसजी की सदस्यता मिलना इस लिहाज़ से बड़ा है कि भारत परमाणु ऊर्जा के लिए कच्चा माल और तकनीक आसानी से प्राप्त कर सकेगा। ध्यानतव्य हो कि वर्श 2014 जी-20 सम्मेलन के दौरान जब प्रधानमंत्री मोदी आॅस्ट्रेलिया में थे तभी यूरेनियम को लेकर एक बड़ा समझौता हुआ था। उस समय भी चीन की भंवे तनी थी। गौरतलब है कि द्वितीय पोखरण परीक्षण के बाद से आॅस्ट्रेलिया से सम्बंध इस मामले में पटरी पर नहीं आ रहे थे। मनमोहन काल में मामला काफी हद तक पटरी पर आ चुका था और मोदी काल में यूरेनियम समझौते की रेलगाड़ी उस पटरी पर दौड़ लगा दी। दो टूक यह भी है कि बीते तीन वर्शों से आॅस्ट्रेलिया से सम्बंध अच्छे हैं और दुनिया का 40 फीसदी यूरेनियम आॅस्ट्रेलिया के पास है। अपने परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को देखते हुए भारत मंगोलिया की ओर भी रूख किया था तब भी चीन ने नजरे तिरछी की थी। यह दौड़ कनाडा तक जारी रही। सभी जानते हैं कि भारत सवा अरब का देष है यहां दो लाख से अधिक मेगावाॅट बिजली की जरूरत पड़ती है जबकि एनटीपीसी, एनएचपीसी, सौर ऊर्जा समेत ऊर्जा के सभी आयामों से इतनी ऊर्जा नहीं मिल पाती ऐसे में परमाणु ऊर्जा की ओर रूख करना देष की मजबूरी भी है जिसके लिए ईंधन और तकनीक चाहिए और इसकी प्राप्ति के लिए एनएसजी की सदस्यता कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। 
यह भी कहा जाता रहा है कि भारत ने एनपीटी और सीटीबीटी पर बिना हस्ताक्षर के यह सुविधा चाहता है। दुनिया जानती है कि भले ही भारत परमाणु हथियार से सम्पन्न हो और परमाणु अप्रसार संधियों पर हस्ताक्षर न किये हों तब भी चीन को छोड़ सभी एनएसजी में उसकी एंट्री चाहते हैं यह उसकी परमाणु नीति को लेकर षान्तिप्रियता का ही नतीजा है जबकि पाकिस्तान इसी सम्पन्नता का बेजा प्रयोग कर सकता है। यहां तक कि आतंक को षरण देने वाला पाकिस्तान के परमाणु हथियार कब आतंकियों के हाथ लग जाये इसका भी संदेह बना रहता है साथ ही पाकिस्तान स्वयं अन्यों को इससे अवगत कराता रहता है। साफ है कि भारत और पाकिस्तान में कोई मेल नहीं है। भारत षान्ति का दूत है और उसकी नीयति में केवल विकास है। न्यूक्लियर सप्लायर्स समूह में होने से इस दिषा में उसका कदम तुलनात्मक बेहतर हो जायेगा परन्तु दुनिया के किसी कोने पर कोई बल नहीं पड़ेगा। निःसंदेह एनएसजी में सदस्यता को लेकर भारत को चिंता है पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि इसके बगैर गुजारा नहीं है। चीन जिन इरादों के साथ भारत की राह में रोड़ा बनता है इससे भी दुनिया के देष अनभिज्ञ नहीं हैं। पंचषील समझौते को तार-तार करने वाले चीन को तनिक मात्र भी यह समझ नहीं है कि भारत अपनी सम्प्रभुता और अखण्डता को लेकर कहीं अधिक प्राथमिकता और दूसरों के प्रति भी यही राय रखता है। चीन सीमा विवाद से लेकर अन्तर्राश्ट्रीय संगठनों की सदस्यता से जुड़े कई समस्याओं का निर्माता है। गाढ़ी दृश्टि डाली जाय तो स्विट्जरलैण्ड में होने वाली बैठक में एनएसजी की सदस्तया अभी भारत के लिए दूर की कौड़ी हो सकती है फिलहाल यदि चीन एनएसजी की राह में रोड़ा बनता है तो उसकी असलियत एक बार फिर दुनिया के सामने उजागर होगी।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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Sunday, May 21, 2017

दमदार दलील से वापसी की उम्मीद

पाकिस्तान की जेल में बंद नौसैनिक अधिकारी कुलभूषण जाधव की फांसी की सज़ा पर रोक लगाने वाली अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट में बीते 15 मई को सुनवाई हुई परन्तु इस पर फैसला आना अभी बाकी है। गौरतलब है कि सुनवाई के बाद अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय ने आष्वासन दिया है कि जल्द से जल्द इस मामले में अपना फैसला वह सुना देगा। फैसले की जो भी तारीख होगी उससे भी दोनों पक्षों को अवगत करा दिया जायेगा। देखा जाय तो अन्तर्राश्ट्रीय कोर्ट में एक भारतीय नागरिक और अधिकारी को बचाने की मुहिम में भारत ने अपनी ओर से दमदार दलील पेष कर दी है। सबसे पहले अन्र्राश्ट्रीय कोर्ट में भारत ने अपना पक्ष रखा जबकि उसी दिन षाम को पाकिस्तान की दलील भी सुनी गयी। पाकिस्तान की दलील कमोबेष ठीक वैसी ही थी जैसी कि मीडिया के माध्यम से सुना जाता रहा है। खास यह है कि जिस प्रकार पाकिस्तान जाधव मामले को पेष करता रहा वह किसी नाटकीय प्रपंच से कम नहीं था। उसके द्वारा यह कहा जाना कि जाधव को बलूचिस्तान में गिरफ्तार किया गया यह उसके ताने-बाने का ही हिस्सा था जबकि सच्चाई यह है कि जाधव को ईरान से अपहरण करके पाकिस्तान लाया गया। उसका आरोप तो यह भी है कि भारत की अपील में कई खामियां हैं जबकि सच्चाई यह है कि कानून की बारीक समझ से वह स्वयं अनभिज्ञ है या अंजान बने रहने का ढोंग कर रहा है मसलन उसका यह कहा जाना कि जाधव मामले में वियना समझौता लागू ही नहीं होता जबकि संयुक्त राश्ट्र की 1963 की वियना संधि में वाणिज्य दूतावास स्तर के अधिकारियों की सुरक्षा और विषेशाधिकारों के बारे में धारा 40 और 41 में जो विवरण है वह पाकिस्तान के इस दलील से किसी प्रकार का मेल नहीं है।
भारत की ओर से पैरवी कर रहे अटर्नी हरीष साल्वे ने यह भी आषंका जताई है कि अन्तर्राश्ट्रीय कोर्ट का फैसला आने से पहले पाकिस्तान जाधव को फांसी दे सकता है जिसे गम्भीरता से लेने की आवष्यकता है क्योंकि वह देष किसी भी हद तक जाने का दुस्साहस कर सकता है। यह आषंका इसलिए भी पूरी तरह सच है क्योंकि इसके पहले पाकिस्तान की जेल में बंद भारतीयों की वापसी की सारी उम्मीदें न केवल नाकाम हुई हैं बल्कि उनकी लाषें भारत आई हैं। गौरतलब है कि सरबजीत के मामले में एड़ी-चोटी का जोर लगाने के बावजूद आखिर नतीजा क्या हुआ? दिल्ली से इस्लामाबाद तक चर्चा बेषुमार हुई। यह साबित किया जाना भी कहीं से कमतर नहीं था कि सरबजीत कोई जासूस नहीं है बावजूद इसके 1990 में भारत से लगती सीमा पर गिरफ्तार किये गये पंजाब के तरनतारन की निवासी और पेषे से किसान सरबजीत को दषकों बाद भारत लाने की सारी कोषिषें धरी की धरी रह गयीं। वैसे देखा जाय तो कुलभूशण जाधव के अलावा मौजूदा समय में 54 भारतीय सैनिक पाक की गिरफ्त में हैं जिसमें 29 थलसेना, 24 वायुसेना और एक नेवी से है। यह मामला 1965 से 1971 के बीच का है और भारतीय युद्धबंदी आज भी पाकिस्तान की जेलों में बन्द हैं। कौन बीमार है, किस हाल में है इन सभी से पाकिस्तान बेफिक्र है। हालांकि कुछ किस्मत वाले थे जो पाकिस्तान से भारत वापस भी आये हैं पर ऐसों की संख्या बहुत मामूली है। मौजूदा समय में यह कह पाना फिलहाल मुष्किल है कि 46 बरस के कुलभूशण जाधव की भारत वापसी कब होगी पर यह समझना आसान है कि पाकिस्तान किसी भी मोर्चे पर भारत पर प्रतिघात करने से बाज नहीं आता है। 
दरअसल कुलभूशण जाधव के पूरे मामले का अध्ययन किया जाय तो इसमें पाकिस्तान की पूरी नाटकीय पटकथा के साथ झूठ गढ़ने वाली व्यवस्था का चित्रण होता है जो अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय तक बादस्तूर यह क्रम जारी है। जब से यह मामला प्रकाष में आया है तब से भारत सरकार जाधव को बचाने के मामले में न केवल अपनी कूटनीतिक रफ्तार बढ़ा दी है बल्कि उनके देष वापसी को लेकर जनता को आष्वासन भी देती रही। पाकिस्तान द्वारा जाधव को लेकर एक तरफा फांसी की सजा सुना दिये जाने से यह भी साफ हो गया है कि अपील और दलील का पाकिस्तान से कोई वास्ता नहीं है और न ही उसे इस बात का लेना-देना है कि जाधव के बकसूर होने का पूरा पता कर लिया जाय उसे तो सिर्फ भारतीय नागरिक होने के नाते जाधव को सिर्फ सजा देना है। गौरतलब है कि भारत यह भी चाहता था कि अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय फांसी पर रोक को तब तक जारी रखे जब तक मामले की विधिवत सुनवाई नहीं हो जाती जबकि आमतौर पर पाकिस्तान के साथ भारत किसी भी मामले को अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय तक ले जाने से बचने की कोषिष में रहता है पर कुलभूशण जाधव के मामले में उसने ऐसा नहीं किया। जाहिर है कि यह न केवल भारतीय नागरिक को देष वापस लाने की मुहिम है बल्कि अन्तर्राश्ट्रीय पटल पर भारतीय कूटनीति की जीत का भी अक्स समाया हुआ है। अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय जाकर भारत ने यह भी स्पश्ट किया है कि पाकिस्तान की करतूतों से वह ऊब चुका है साथ ही न्याय व्यवस्था में उसका विष्वास कहीं अधिक मजबूत है। पाकिस्तान द्वारा कुलभूशण जाधव को लेकर एक तरफा लिया गया फैसला वाकई में हैरानी से भर देता है साथ ही यह भी हैरत भरी बात है कि सात दषक से लोकतांत्रिक देष होने का वाहवही लूटने वाला पाकिस्तान नियम को कैसे ताक पर रखता है। कमजोर होने के बावजूद भारत के समक्ष वह सीना तान कर जिस तरह खड़ा होता है, जिस प्रकार गलत बयानबाजी करता है और झूठ के साथ अपनी धूर्तता से बाज नहीं आता है उससे भी यह संकेत मिलता है कि किसी भी सूरत में भारत के पक्ष का उस पर अब तक कोई असर नहीं हुआ है। आतंक को षरण देने वाला पाकिस्तान और भारत की धरती को आतंकी हमलों से सराबोर करने वाला यह देष कई मोर्चों पर न केवल भारत को तबाह किया बल्कि अन्तर्राश्ट्रीय मंचों पर गलत बयानबाजी करके दुनिया को गुमराह करने की कोषिष भी की है बावजूद इसके भारत सधे हुए कदमों से समस्याओं का निवारण करता रहा है पर जिस तर्ज पर पाकिस्तान भारत को नीचा दिखाने की कोषिष में रहता है उसे देखते हुए यह भी लगता है कि भारत उदार पड़ोसी और सज्जन देष होने की कीमत चुका रहा है जो फिलहाल सही नहीं है।
 अन्तर्राश्ट्रीय कोर्ट में मामला जाने के बावजूद भी क्या पाकिस्तान की ढीठता में कोई कमी आयेगी। क्या पाकिस्तान अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय में हार के बाद कुलभूशण जाधव को बिना किसी समस्या के भारत के सुपुर्द कर देगा। अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय के फैसले की अवहेलना करने की क्या सजा होती है और क्या पाकिस्तान इससे वाकिफ है? उपरोक्त संदर्भ इसलिए जरूरी है क्योंकि जिस कसौटी पर भारत पाकिस्तान को कसने की कोषिष करता रहा उसमें वह कभी खरा नहीं उतरा है पर षायद अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय के 11 जजों की बेंच वाले निर्णय से उस पर कोई बड़ा असर हो। हरीष साल्वे की वह चिंता कि फैसले से पहले फांसी की सजा पाकिस्तान दे सकता है बिल्कुल लाख टके का है पर सवा लाख टके का सवाल यह भी है कि क्या दुनिया पाकिस्तान के इस दुस्साहस पर चुप रहेगी जिस वियना संधि और अमेरिकी कानून का हवाला ऐसे मामलों में आता है उसे लेकर किसी की जबान सच को नहीं उगलेगी। ये तमाम बातें चिंता का विशय हो सकती हैं और अन्तर्राश्ट्रीय कोर्ट के नतीजों से पहले यह केवल कयास अतार्किक भी नहीं है। इसमें कोई दो राय नहीं कि न्यायालय के नतीजे भारत के पक्ष में होते हैं जैसी कि सम्भावना है तो न केवल भारत की कूटनीतिक विजय होगी बल्कि पाकिस्तान की मनोवैज्ञानिक हार होगी बावजूद इसके वह सबक क्या लेगा कहना बहुत कठिन है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Monday, May 15, 2017

दुनिया को सपना दिखाता चीन

जब भारत के विदेश  मंत्रालय द्वारा बयान दिया गया कि कोई देष ऐसी किसी परियोजना को स्वीकार नहीं कर सकता जो सम्प्रभुता और क्षेत्रीय अखण्डता पर उसकी मुख्य चिंता की उपेक्षा करती हो। तब इससे यह बात स्पष्ट  हो चली कि चीन जिस दम के साथ वन बेल्ट, वन रोड योजना में आगे निकलना चाहता है उसे लेकर भारत की राय दुनिया से अलग है और ऐसा क्यों है इसके कई तर्क भी हैं। गौरतलब है कि चीन की राजधानी बीजिंग में बीते 14 एवं 15 मई को वन बेल्ट, वन रोड इनिषिएटिव योजना के उद्घाटन समारोह का आयोजन हुआ जिसमें संसार के 29 देषों के राश्ट्राध्यक्षों एवं सौ देषों के प्रतिनिधिमण्डल की हिस्सेदारी रही। खास यह भी है कि भारत के छोटे-बड़े सभी पड़ोसी देष इस बैठक में षामिल हुए। जिस तर्ज पर चीन अपनी इस योजना के माध्यम से दुनिया को एक उपहार देने की कोषिष कर रहा है और उसकी पेषगी भी कुछ इसी तरह की है उसे लेकर भले ही कईयों की राय कुछ भी हो पर इसमें कोई दो राय नहीं कि देषों की सम्प्रभुता, अखण्डता और कूटनीति पर इसका फर्क आने वाले दिनों में दिखेगा। भारत की चिंता यह है कि चीन पाक अधिकृत कष्मीर के रास्ते अपनी इस योजना को अंजाम देने की फिराक में है। इसके लिए पाकिस्तान पूरी तरह राजी भी है जबकि सच्चाई यह है कि पीओके के मामले में कोई भी कृत्य बिना भारत की अनुमति के सम्भव ही नहीं है। संयुक्त राश्ट्र संघ भी मानता है कि पाक अधिकृत कष्मीर भारत का हिस्सा है। इतना ही नहीं दुनिया के वे तमाम देष भी इस बात से वाकिफ हैं बावजूद इसके बीजिंग में सभी एकमंचीय हुए हैं। जाहिर है सभी का हित इस योजना से मेल खाता होगा। जिन पड़ोसी देषों के साथ भारत का व्यापक, विस्तारवादी एवं समन्वयवादी संवाद है वे भी चीन के सपनों के साथ अपना हित देख रहे हैं।
इसमें भी कोई षक नहीं कि भारत के पड़ोसियों को चीन साधने की फिराक में है। हालांकि भारत अपने स्वभाव के अनुरूप कभी भी पड़ोसी देषों पर जादती नहीं किया और न ही उनकी सम्प्रभुता और अखण्डता को कभी चोट पहुंचाई है। गौरतलब है बीते 13 मई को प्रधानमंत्री मोदी श्रीलंका में थे और जब कोलंबो से मोदी दिल्ली के लिए रवाना हुए तो श्रीलंकाई प्रधानमंत्री बीजिंग के लिए रवाना होने की तैयारी में थे। ऐसी समरसता कि एक देष जिस योजना का समर्थन करता है और भारत उसी से संवाद में हो यह भावना केवल भारत में हो सकती है। जिस प्रकार पड़ोसियों को चीन चारा डाल रहा है उसकी इस रणनीति को भारत भांप भी लिया है। यही वजह है कि इस बैठक से भारत ने किनारा कर लिया है। विदेष मामलों के विषेशज्ञों की मानें तो अगर भारत चीन-पाक अधिकृत आर्थिक गलियारा पर सहमति देता है तो यह संदेष भी चला जायेगा कि पीओके पर भारत के दृश्टिकोण में बड़ा बदलाव हुआ है। इस तर्ज पर भी देखा जाय तो पीओके से गुजरने वाले आर्थिक गलियारे को लेकर भारत अब एक इंच भी पीछे नहीं हट सकता। जिस प्रकार चीन के राजदूत ने इस परियोजना का नाम बदलने की बात कही थी और बाद में पलटी मार दिया उससे भी साफ है कि चीन की मंषा आर्थिक गलियारा तक ही सीमित नहीं है। देखा जाय तो चीन बदलती दुनिया को वो सपने दिखा रहा है जिसे लेकर वह भी पूरा दावा नहीं कर सकता। भारत का विरोध किया जाना बिल्कुल सही है और कूटनीतिक स्तर पर ऐसा होना भी चाहिए। जाहिर है वन बेल्ट वन रोड के बहाने चीन अपनी धौंस को भी विस्तार देना चाहेगा और ड्रैगन की इस कुटिल चाल को प्रधानमंत्री मोदी भी समझ रहे हैं पर इसकी काट उनके पास है या नहीं कह पाना मुष्किल है। भारत यह भी कहता रहा है कि चीन को हमारी सम्प्रभुता का ख्याल रखना चाहिए। गौरतलब है कि चीन के राश्ट्रपति षी जिनपिंग ने बीजिंग में हो रहे ओबीओआर (वन बेल्ट, वन रोड) के दो दिवसीय सम्मेलन में पहले दिन सम्बोधन करते हुए कहा कि बीजिंग दुनिया के सभी देषों की सम्प्रभुता का ख्याल रखता है पर कहने और करने में फर्क होता है। इस बात को भारत से बेहतर षायद ही कोई और देष समझता हो। वर्श 1954 के पंचषील समझौते में एक समझौता एक-दूसरे की सम्प्रभुता के ख्याल से भी जुड़ा था जिसे 1962 में चीन ने तोड़ने में देरी नहीं की।
देखा जाय तो चीन जमीन से लेकर समुद्र तक विस्तार वाली सोच से जकड़ा हुआ है। दक्षिणी चीन सागर, तिब्बत, ताइवान और अरूणाचल प्रदेष को लेकर उसकी मनःस्थिति को देखते हुए उसकी सम्प्रभुता वाले दावे खोखले दिखाई देते हैं। खास यह भी है कि भारत, जापान और अमेरिका चीन के इस कुटिल चाल को जानते हैं साथ ही समय-समय पर नाखुषी भी जाहिर करते हैं पर इसके आगे वे भी कुछ नहीं कर पाये हैं। हाल ही में दक्षिण चीन सागर में भारत, अमेरिका और जापान के नौ सैनिक बेड़ों ने मिलकर युद्धाभ्यास किया था तब चीन की भंवे तनी थी। इससे भी साफ है कि इस सागर पर चीन अपनी बपौती मानता है। फिलहाल जिस पाकिस्तान ने कष्मीर के कुछ हिस्से पर अवैध कब्जा किया हुआ है उससे होकर अपनी आर्थिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने वाला एकतरफा निर्णय चीन की नीयत में खोट ही दर्षाता है। जब भारत ने वन बेल्ट, वन रोड योजना के लिए बुलाये गये सम्मेलन में भागीदारी से मना किया तो चीन ने किसी प्रकार की आतुरता या सौदेबाजी करने का इरादा नहीं जताया। चीन जानता है कि पाकिस्तान उसके सपने के साथ एक इषारे मात्र में आ जायेगा और अन्य पड़ोसियों को आर्थिक सपना दिखाकर अपनी ओर आकर्शित किया जा सकता है पर यह तो समय ही बतायेगा कि मनसूबे कितने फलित होते हैं देखा जाये तो जर्मनी समेत कई देषों ने चीन के इस क्रियाकलाप पर संदेह जताया है।
चीन की ग्लोबल योजना से फिलहाल भारत दूरी बनाये हुए है। चीन ने रेषम मार्ग पर वन बेल्ट, वन रोड को सदी की योजना करार देते हुए सौ अरब युआन की पेषकष कर दी है जो भारतीय रूपये में 930 अरब के बराबर होता है। गौरतलब है कि भारतीय प्राचीन इतिहास के पन्नों में सिल्क मार्ग का वर्णन मिलता है जिसका जिक्र इतिहास में चीनी यात्रियों द्वारा किया भी गया है। इस मार्ग द्वारा चीन की एषिया, यूरोप और अफ्रीका के अधिकतर देषों को जोड़ने की महत्वाकांक्षा फिलहाल बलवती होते दिखाई दे रही है। अलबत्ता मामला चाहे जैसा क्यों न हो एक बात तो तय है कि चीन एक खुली वैष्विक अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहा है और भारत को बड़ी आर्थिक चुनौती दे रहा है। जिस कीमत पर यह मार्ग निर्मित करने का उसका इरादा है जाहिर है उससे कई गुना वसूली का इरादा भी रखता होगा। चीन-पाकिस्तान इकोनोमिक कोरिडोर के मामले में तो भारत यह मान बैठा है कि चीन को इसमें सफल नहीं होने देंगे। बावजूद इसके यदि ऐसा होता है तो भारत को बहुत बड़ा कूटनीतिक धक्का पहुंचेगा। जिस मंच पर चीन ने दुनिया को इकट्ठा किया है उसमें भारत का दषकों पुराना और स्वाभाविक मित्र रूस भी षामिल है। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप का व्हाइट हाउस में पहुंचना, फ्रांस में नये राश्ट्रपति का फलक पर आना साथ ही जर्मनी में बदलाव के संकेत दिखना यह इषारा है कि अमेरिका और यूरोप समेत दुनिया के तमाम देषों की कूटनीति परम्परागत नहीं रहेगी। सबके बावजूद जिस तर्ज पर चीन के बुलाने पर तमाम देषों की उपस्थिति रही उसे चीन अपनी बड़ी सफलता मान रहा है। अमेरिका और जापान भी चीन से मतभेदों को भुला कर हिस्सेदारी दिये हैं। जाहिर है बड़े मंचों की बड़ी कूटनीति होती है, भारत को छोटे-छोटे पड़ोसियों को भी साधना है और अमेरिका, रूस समेत बड़े-बड़े देषों के मामले में कूटनीतिक चतुराई भी दिखानी है पर नतीजे क्या होंगे अभी कुछ भी कह पाना सम्भव नहीं है।


  
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Monday, May 8, 2017

सिसकती नदियों की तुरपाई करती सरकारें

बीते 11 मार्च को पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद क्रमशः  18 एवं 19 मार्च को उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश  में सरकारें सत्तासीन हुईं। जाहिर है जिस कूबत के साथ इन प्रान्तों में सरकारों का उदय हुआ उससे भी साफ था कि इनसे उम्मीदें भी गगनचुम्भी होंगी और सुनिष्चित मापदण्डों में जनहित को साधने वाली नीतियों के भी अम्बार लगेंगे। तमाम उम्मीदों से अटीं और परिपूर्ण यूपी व उत्तराखण्ड की सरकारों को तमाम कृत्यों के साथ सिसक रही नदियों को लेकर भी कुछ कदम उठाने थे। ऐसे में बरसों से कूड़े-कचरे का ढ़ेर बन चुकी और नदी से नालों में तब्दील हो चुकी नदियों की चिंता भी फिलहाल इनमें देखी जा सकती है। उत्तर प्रदेष के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बीते 7 मई को औच्चक आगरा का दौरा किया और अस्पताल के निरीक्षण के साथ ताज नगरी में बह रही यमुना की हालत भी देखी। स्थिति देखकर नाराज़गी भी प्रकट की। जाहिर है यमुना की हालत किसी से छुपी नहीं है। यमुना एक्षन प्लान की खराब अवस्था को लेकर अधिकारियों की जम कर योगी ने क्लास ली। नदी में गंदा पानी न जाय इसके लिए तीन नये सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाने के निर्देष भी जारी किये। दुनिया के आठ अजूबों में एक ताजमहल को योगी ने कुछ और चीजों से भी जतन करने की बात कही। ताज को धूल, बालू से बचाने के उपाय करने को लेकर न केवल चेताया बल्कि नदी को नाले की षक्ल में देख जल निगम अधिकारियों को भी लताड़ा। 14 सौ किलामीटर की उत्तराखण्ड के यमुनोत्री से यात्रा करने वाली यमुना दिल्ली, आगरा समेत इलाहाबाद तक कई छोटे-बड़े षहरों से गुजरती है जिसके होने से जिन्दगी चलती है पर यमुना स्वयं खतरे से गुजर रही है इसे लेकर आखिर कौन फिक्रमंद है। योगी ने यमुना को स्वच्छ बनाने के लिए और जल स्तर बढ़ाने के लिए सिंचाई विभाग की 281 करोड़ रूपए की रबड़ डैम परियोजना को तेजी से बढ़ाने के निर्देष भी दिये।
सबको पता है कि गंगा की सहायक यमुना नदी जिस हाल में है इसी हाल से कमोबेष गंगा भी गुजर रही है। गौरतलब है कि हाल ही में उत्तराखण्ड के उच्च न्यायालय ने बीते 20 मार्च को देष की इन दो बेषकीमती नदियों को जीवित मानव का दर्जा दिया है। यही दर्जा यमुनोत्री एवं गंगोत्री ग्लेषियर को बीते 31 मार्च को दिया गया। गौरतलब है कि न्यूज़ीलैण्ड की वांगनुई को ऐसा दर्जा पहले दिया जा चुका है। गंगा, यमुना को जीवित मानव का दर्जा देने के पीछे संवेदनषील एवं सकारात्मक धारणा का परिप्रेक्ष्य निहित है बावजूद इसके क्या गंगा, यमुना अपने पुराने अस्तित्व को हासिल कर पायेंगी। दषकों से चल रहे सफाई अभियान को देखें तो निराषा ही हाथ लगती है। रही बात इनसे भिन्न नदियों की तो उनकी तो दुर्दषा ही हो गयी है। हालात इस कदर बिगड़े हैं कि उत्तर प्रदेष से उत्तराखण्ड तक अब सरकारें बची-खुची नदियों में उनका जीवन खोजती दिख रहीं हैं। उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून के बीचो-बीच रिस्पना और बिंदाल नामक नदियां गुजरती हैं साथ ही सुसवा नदी भी यहां की पहचान रही है पर बेरहम वक्त की षिकार ये भी खूब हुई है। हालात यह है कि ये नदियां षहर के कूड़ों के निपटान के केन्द्र हैं और इसमें अगर कुछ भी षेश है तो आवाजाही के बचे हुए पुल। न इसमें पानी है न प्रवाह है और न ही इसे लेकर आम षहरी की चिंता। रही बात सरकार की तो वह भी रस्म अदायगी में वक्त बिता रही है। बीते दिनों मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने रिस्पना नदी के साफ-सफाई को लेकर अपने आला अफसरों के साथ एकजुटता दिखाई पर एक दिन से भला क्या होता है। गौरतलब है कि यह वही नदी है जिसे लेकर देहरादून की बारहवीं कक्षा की एक छात्रा गायत्री ने प्रधानमंत्री मोदी को चिट्ठी लिखी थी और मोदी के मन की बात से इसकी जानकारी दुनिया को मिली थी। जब मामला खुला तब सिंचाई विभाग, नगर निगम, षहरी विकास मंत्रालय समेत मुख्यमंत्री को इसकी सुध आई जबकि इसी सिसकती नदी के किनारे उत्तराखण्ड का विधानसभा भी बना है। इससे बड़ी सच्चाई यह भी है कि विधानसभा का कुछ हिस्सा नदी की जमीन पर बना हुआ भी बताया जाता है। नदी के अवषेश हैं पर नदी नहीं हैं। सरकारों में भगीरथ बनने की तमन्ना तो है पर नीयत में खोट है। इतना ही नहीं निजी और सरकारी सभी संस्थाओं में नदी की जमीन पर खूब कब्जा किया है और इसकी चैड़ाई नाले की तरह ही रह गयी। अब तो इसके अंदर सीवर लाइन भी डाली जा रही है। रही सही कसर इससे पूरी हो गयी। 
कभी संसाधनों का बहाना तो कभी स्वयं की सीमाओं की आड़ में इससे पल्ला झाड़ना आम रहा है। इसी क्रम में जब उत्तराखण्ड के देहरादून की ही सुसवा नदी की बारी आई जहां एक बार फिर प्रषासन, पुलिस, छात्र यहां का प्राधिकरण और नगर निगम समेत सरकार के तमाम आला अफसर जुटे तो लगा कि हाषिये पर जा चुकी यह नदी भी जीवित होगी। सबके बावजूद क्या इस बात के आधार पर उक्त को आंकना सही होगा कि तीन दषक से गंगा सफाई करते-करते टनों का मलबा गंगा में और धकेल दिया गया जो गंगा देष के पचास करोड़ लोगों की जीवनदायनी है उसकी सुध लेने में और उसे साफ-सुथरा रखने में साथ ही उसके रख-रखाव को लेकर सरकार समेत आम जन इतना बेरूख हुआ हो क्या वही ऐसी छोटी नदियों के मोल समझ पायेंगे। मन तो यही कहता है कि जवाब न ही में समझा जाय पर संवेदनषीलता को एक कोने लगा दिया जाय तो नियोजन को बल देने वालों ने प्रवाहषील नदियों को कभी अपनी विचारधारा का हिस्सा ही नहीं बनाया। जिस तरह नदी में धारा नहीं है वैसे ही सरकार समेत आम जनमानस के विचार में षायद विचार में आज धारा का लोप हो गया है। 
उत्तराखण्ड की नदी सूखने का मतलब उत्तर प्रदेष के प्रवाह का सूखना है। पर्यावरण में हो रहा बदलाव नदियों के निगलने का पूरा इंतजाम है। यमुनोत्री और गंगोत्री ग्लेषियर भी सिकुड़ रहे हैं। आईपीसीसी की 2007 में आई रिपोर्ट पहले ही आगाह कर चुकी है पर इसके प्रति चिंता का आभाव आज भी बना हुआ है। गरमी के कारण ग्लेषियर तेजी से पिघल रहे हैं। उत्तराखण्ड भी तुलनात्मक पहले से अधिक गरम जलवायु वाला प्रदेष बनता जा रहा है। वैज्ञानिक रिसर्च भी यह इषारा करते हैं कि ग्लेषियर पहले जैसे नहीं रहे, बर्फ की मात्रा में कमी आई है। जाहिर है नदियों में पानी भी घट रहा है। ऐसे में गंगा हो या यमुना यदि उसे और दूशित किया गया और हो रही दुर्दषा पर लगाम नहीं लगा तो सभ्यता बचाना मुष्किल हो जायेगा। योगी ने आगरा में यमुना को देखकर जो महसूस किया और मोदी नमामि गंगे से जो अविरलपन गंगा में लाना चाहते हैं वह सब नदियों के बचाने तक ही सीमित नहीं है बल्कि देष की आधी आबादी को बनाये रखने की जद्दोजहद भी है षायद सत्ता भी। उत्तराखण्ड सरकार लुप्त हो रही नदियों को लेकर जो सक्रियता दिखा रही है वह भी भविश्य को सुरक्षित रखने और जल संसाधन की दिषा में उठाया गया कदम ही है पर इन्हीं सरकारों से कोई पूछे कि कूड़े निपटान के लिए जगह कहां है। नदियों की जमीन पर कब्जा करने वालों को मौन स्वीकृति कौन देता है। गौरतलब है दिल्ली में भी यमुना के किनारे दर्जनों किलोमीटर में स्लम बस्ती बसी हुई है। ये सिलसिले हर नदियों के साथ जुड़े हैं। सरकार से यह भी पूछा जाना चाहिए कि एक-दो दिन की सक्रियता से क्या पूरा काम होगा। षायद यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायाल भी गंगा सफाई योजना से अप्रसन्न है इतना ही नहीं लाखों करदाताओं की करोड़ों की गाढ़ी कमाई पानी में बहाने वाली सरकारें आखिर नदियों को साफ क्यों नहीं कर पा रही हैं। उनके अस्तित्व को क्यों नहीं पुराना रूप दे पा रही हैं जाहिर है तुरपाई करने से अब काम नहीं चलेगा। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
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Wednesday, May 3, 2017

फिर आइने को चकनाचूर किया पाकिस्तान

बरसों से यह लिखा जाता रहा है शायद दशकों से भी कि पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है। दूसरे शब्दों  में कहें तो साल दर साल की दर से पाकिस्तान न केवल समय के साथ बर्बर हुआ बल्कि बेगैरत भी होता चला गया। ताजा उदाहरण कश्मीर  के  कृष्णा  घाटी में घटी वह घटना जिसमें पाक सैनिकों ने एक बार फिर दो भारतीय जवानों के सिर काटे। गौरतलब है कि इसके पहले भी इस प्रकार के कुकर्म पाकिस्तान कर चुका है और संवेदनषीलता की सारी हदे पार कर चुका है। ऐसी घटनाओं के बाद अक्सर यह कहा जाता है कि पाकिस्तान को उसके किये की कीमत चुकानी पड़ेगी, जवानों की कुर्बानी बेकार नहीं जायेगी, सारा देष जवानों के साथ खड़ा है, इस मुसीबत की घड़ी में जवानों का परिवार अकेला न समझे साथ ही कुछ जुमलेबाजी मसलन एक के बदले दस सिर लायेंगे इत्यादि इत्यादि पर क्या इतने मात्र से काम चलेगा। हर भारतीय षायद इस बात से ऊब चुका है कि पाकिस्तान आये दिन हमारी सीमा में घुस कर सेना के साथ बर्बरता करे, सिर कलम करके ले जाये, षव को क्षत-विक्षत करे और हम षब्दों तक सीमित रहें। गौरतलब है कि 29 सितम्बर, 2016 को जब सर्जिकल स्ट्राइक हुई थी और पाक अधिकृत कष्मीर में घुस कर भारतीय सेना ने आतंकी ठिकानों को ध्वस्त किया और 40 से अधिक आतंकियों को ढ़ेर किया था तब सरकारी अमले ने वाहवही लूटने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी पर उसका नतीजा क्या हुआ? सिलसिलेवार तरीके से देखा जाय तो सीमा पर न केवल तनाव बढ़ा रहा बल्कि सैनिकों की कुर्बानी औसत से अधिक आगे निकल गयी। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद से लेकर अब तक महज़ दर्जन भर आतंकी भी निषाने पर नहीं आये जबकि सैकड़ों भारतीय जवान षहीद हो गये। इस दौरान 193 आतंकी घटनायें हुई हैं जबकि दो हजार से अधिक बार सीमा के अंदर पत्थरबाजी की घटना हुई। अप्रैल का पूरा महीना पत्थरबाजी में ही बीता है। सीमा के बाहर पाकिस्तान को लेकर जो समस्या है उसमें तनिक मात्र भी कमी नहीं आई साथ ही कष्मीर के अंदर उपद्रव इन दिनों भी उफान पर है। 
कभी-कभी मन में यह भी ख्याल उठता है कि पाकिस्तान के लोकतंत्र की सटीक परिभाशा क्या हो सकती है साथ ही विचारों में यह भी पनपता है कि जो देष कभी भारत का हिस्सा रहा हो और लाल कुर्ती आंदोलन से जुड़े सीमांत गांधी जैसे लोग पाकिस्तान के मूल धरातल के हिस्सा रहे हों जो भारत पर जान छिड़कते थे आखिर उनकी जमीन में ऐसे झाड़ कैसे उगे होंगे। एक तरफ आतंक की खेती होती है तो दूसरी तरफ लोकतंत्र को निगलने वाली सेना साथ ही आईएसआई का जोड़ इनके करतूतों को और पुख्ता कर देता है। इन सबके बीच षरीफ की षराफत का कितना मोल होगा अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। कहने को तो लोकतंत्र से गढ़े गये प्रधानमंत्री हैं पर कृत्य किसी वहषी से कम नहीं है। इस बात में भी दुविधा नहीं कि पाकिस्तान में लोकतंत्र की मौजूदा स्थिति यह दर्षाती है कि इसकी लोकतांत्रिक उपज को पाला मार गया है जबकि आतंकी खेती लहलहा रही है। भारत के समान ही लोकतंत्र लेकर चलने वाला पाक जिहाद की आड़ में न केवल आतंक और दहषत को जन्म देता है बल्कि उसे संरक्षण देने और पेट भर खुराक देने में भी पीछे नहीं है जिसका खामियाजा आये दिन भारत को भुगतना पड़ता है। हाफिज़ सईद से लेकर अजहर मसूद तक की खेती यहां आम है। पाक अधिकृत कष्मीर में तो बाकायदा आतंकियों की पाठषालायें चलती हैं और यहां के आम पाकिस्तानी गरीबी, बेरोजगारी और बीमारी के आगे लाचार हैं। दुविधा तब और बढ़ जाती है जब भारत के धैर्य को उसकी कमजोरी समझने की भूल पाकिस्तान करने लगता है। 
फिलहाल जवानों से बरर्बता की घटना के बाद एक नये सिरे की बहस देष में छिड़ गयी है। पाक को जवाब देने का वक्त आ गया है ऐसी भी बात हो रही है। राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप भी वातावरण में स्थान घेरे हुए हैं। यूपीए में केन्द्रीय मंत्री रहे कपिल सिब्बल ने विदेष मंत्री सुशमा स्वराज से फिलहाल पूछ लिया है कि क्या वे अब पीएम को चूड़ियां भेजेंगी। दरअसल यह तल्ख भरा बयान कपिल सिब्बल ने इसलिए दिया क्योंकि इसके पहले मनमोहन काल में जब पाकिस्तानी सैनिकों की बर्बरता सीमा पार कर गई और दो भारतीय सैनिकों का सिर कलम कर दिया गया तब सुशमा स्वराज जो नेता प्रतिपक्ष थीं ने जनवरी 2013 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चूड़ियां भेजने की बात कही थी। इतना ही नहीं वर्तमान प्रधानमंत्री और उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री रहे मोदी ने भी 2 मई, 2013 को एक ट्वीट किया था कि केन्द्र पाकिस्तान के अमानवीय कृत्यों का करारा जवाब दे पाने में नाकाम है, हमारे सैनिकों के सिर काटना और अब सरबजीत की मौत हालिया उदाहरण हैं। ऐसा देखा गया है कि जब भी देष में इस तरह की घटना घटती है तब सरकार की कमजोरी मानते हुए विपक्ष ताने मारता है पर यह नहीं भूलना चाहिए कि राजनीतिक विचारधारा में राजनेता भले ही बंटे हों मगर देषहित से इसका कोई वास्ता नहीं है। प्रधानमंत्री चाहे मनमोहन सिंह रहे हों या मोदी हों जवाब तो अपनी-अपनी बारी में दोनों को देना बनता है। देखा जाय तो पाकिस्तान एलओसी पर भारतीय सैनिकों पर हमला के लिए जिस बैट का प्रयोग किया वह दुनिया में किसी फौज का अकेला दस्ता है। बैट अर्थात् बाॅर्डर एक्षन टीम ने भारतीय सीमा में 250 मीटर से अधिक घुसकर ये कारनामा किया। फलस्वरूप दो भारतीय सैनिक षहीद हो गये। बैट खासतौर पर पैट्रोलिंग कर रहे जवानों पर घात लगाकर हमला करती है और उनके षवों को क्षत-विक्षत कर देती है। वर्श 2011 में कुपवाड़ा में कुमायूँ रेजीमेंट के जवान के साथ भी ऐसा पहले हो चुका है तब भारतीय सेना ने 8 पाकिस्तानी जवानों को मारा था। इसी क्रम में वर्श 2013 में पुंछ में जवान हेमराज और सुधाकर का भी सिर कलम किया गया था तब भी सेना ने बदला लेते हुए 20 पाकिस्तानी जवानों को ढ़ेर किया था। 
मुख्य प्रष्न यह है कि पाकिस्तान के इस करतूत पर भारत की ओर से क्या कार्यवाही होगी जिससे कि न केवल पाकिस्तान को सबक सिखाया जा सके बल्कि गिर रहे सेना के मनोबल को भी बुलंदी दी जा सके। सभी जानते हैं कि मोदी सरकार से देष को बहुत उम्मीदें हैं पर यह भी सब जानते हैं कि दुनिया में भारत को ख्याति और बुलंदी दिलाने वाले मोदी पाकिस्तान के मामले में फिलहाल बैकफुट पर हैं। कचोटने वाला सवाल तो यह भी है कि भारतीय सेना की सर्जिकल स्ट्राइक के बाद फिर से आतंकी लांच पैड पाक अधिकृत कष्मीर में सक्रिय हो गये हैं। उक्त को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि अब योजनाबद्ध तरीके से बड़ी और कठोर कार्यवाही करने की आवष्यकता है। हालांकि कूटनीतिक कार्यवाही, आर्थिक प्रतिबंध और सिन्धु जल के प्रवाह को रोकने जैसे उपाय भारत के पास मौजूद हैं पर ये भी जुमले ही सिद्ध हो रहे हैं। ऐसे में सैन्य कार्यवाही की दरकार देष महसूस कर रहा है। जिस राह पर पाकिस्तान है उसे देखते हुए भारत को अपनी राह भी चुन लेनी चाहिए। फिलहाल षहीद परमजीत सिंह से लेकर प्रेम सागर के परिवार में षोक की लहर है और एक के बदले 50 सिर की भी मांग कर रहे हैं। सबके बावजूद दो टूक यह भी है कि एक बार फिर आइना चकनाचूर हुआ है साथ ही पाकिस्तान पर किसी प्रकार का दबाव फिलहाल काम नहीं आ रहा है, अन्तर्राश्ट्रीय कूटनीति भी हमारी बौनी ही सिद्ध हो रही है और जिस चीन के बूते पाक छाती चैड़ी किये हुए है उसका भी कहीं न कहीं हमारी नीतियों का असर है पर समस्या से मुक्ति पाने के लिए कठोर कदम तो उठाने ही पड़ेंगे।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Monday, May 1, 2017

लाल बत्ती, लाल फीताशाही और सुशासन

मैक्स वेबर ने अपनी पुस्तक सामाजिक-आर्थिक प्रशासन में इस बात को उद्घाटित किया है कि नौकरशाही प्रभुत्व स्थापित करने से जुड़ी एक व्यवस्था है जबकि अन्य विचारकों की यह राय रही है कि यह सेवा की भावना से युक्त है। पुस्तक विषेश में दिया गया यह वक्तव्य वर्ष 1920 का है तब भारत में दौर औपनिवेषिक सत्ता का था पर स्वतंत्रता के पष्चात् क्या नौकरषाही अपेक्षानुरूप उस बदलाव तक पहुंच पाई जहां से वीआईपी कल्चर को विराम लगता हो और भारत की उस संस्कृति का आगाज होता हो, जहां मनोवैज्ञानिक संघर्श इस बात का न हो कि कईयों ने समाज में उच्च दर्जा किसी को नीचा दिखाने के लिए प्राप्त किया हुआ है। लालफीताषाही की पर्याय रही नौकरषाही और उसके सिर पर चमकती लाल, नीली बत्तियां वाकई में सेवा के बजाय प्रभुत्व से कहीं अधिक जुड़ी समझी जाती रही है। बदली हुई सूरत और बदले देष में बड़े बदलाव का जिम्मा तो सभी के हिस्से में समय-समय पर आया और परिवर्तन को लेकर खूब वायदे भी किये गये पर खरे उतरने के मामले में षायद कम ही लोगों को जांचा और परखा जाता है। फिलहाल इन दिनों लाल बत्ती गुल करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी की वाहवही हो रही है। जिन्होंने वीआईपी कल्चर खत्म करने के लिए अप्रैल में एक बड़ा फैसला लिया कि लाल बत्ती वाली गाड़ियां फिलहाल 1 मई से सड़कों पर नहीं दिखाई देंगी। हालांकि फैसले के दिन से ही कई मंत्री अपनी गाड़ियों से लाल बत्ती उतारते देखे भी गये। सम्भव है कि वीआईपी कल्चर को विराम लगाते हुए मोदी ने यह संकेत दे दिया है कि सात दषक की आजादी से युक्त भारत समतामूलक मनोविज्ञान से अब आगे का रास्ता तय करेगा। बावजूद इसके इस दृश्टिकोण पर भी दृश्टि होगी कि लाल बत्ती, नीली बत्ती एवं हूटर की आदत डाल चुके मंत्री व नौकरषाह वर्ग क्या इसे लेकर मन से भी पूरी तरह मुक्त हो पायेंगे। मोदी के मन की बात में भी कुछ इस प्रकार का ही प्रसंग सुनने को मिला। जाहिर है इसे लेकर ज़ेहन से पूरी मुक्ति में अभी षायद वक्त लगेगा। 
देष में लाल बत्ती के बैन को लेकर फैसले ने नये सिरे से देष में बहस छेड़ दी है। यह सही है कि भारतीय जनमानस में वीआईपी की जो छवि उभरती है उसमें लाल बत्ती अव्वल है। हालांकि यह एक प्रतिकात्मक परिप्रेक्ष्य है बावजूद इसके कईयों को रूतबा दिखाने का यह एक तरीका भी बन गया था। स्वीडन और नोर्वे जैसे देष वीआईपी कल्चर से अछूते माने जाते हैं साथ ही कई अन्य देष भी जनमानस के बीच स्वयं को उनके जैसा होने का एहसास कराने में पीछे नहीं रहते। गौरतलब है कि जब प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका की यात्रा पर थे तब वे मैक्सिको भी गये थे उस दौरान वहां के राश्ट्रपति स्वयं गाड़ी चला रहे थे और बगल की सीट पर मोदी बैठे थे। ऐसे कई और उदाहरण मिल जायेंगे जहां के उच्च पदों पर आसीन लोग वीआईपी कल्चर से दूर सामान्य संस्कृति का निर्वहन करते हैं। हालांकि इसका आज से तीन दषक पहले एक साइड इफेक्ट यह रहा है कि बहुत अधिक सामान्यता में स्वीडन के पूर्व प्रधानमंत्री ओलेफ पामे की हत्या हो गयी थी जब वे सिनेमा देखने के बाद पैदल घर लौट रहे थे। मामला चाहे जैसा हो पर यह तो है कि अन्य देषों के प्रधानमंत्री या मुख्य पदों पर बैठे लोग सड़कों पर आम जन की तरह भी चलते हैं। आज से आठ बरस पहले न्यूज़ीलैण्ड के प्रधानमंत्री हेलन क्लार्क के काफिले को तेज गति से गाड़ी चलाने के लिए पकड़ा गया था और उनके साथ भी कानूनी प्रक्रिया ऐसे हुई थी मानो वे आम जन हो। इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत में वीआईपी कल्चर की जड़ें काफी गहरी हैं। बदलते दौर में इनको नेस्तोनाबूत करना समय की मांग भी है। आम और खास के बीच का अंतर मिटाना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि समाज निर्माण और सामाजिक सरोकार किसी एक मात्र से सम्भव नहीं है। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि सामंतवाद से ग्रस्त भारत बरसों तक गुलामी से जकड़ा रहा। यदि कहा जाय कि लाल बत्ती पुराने सामंतवाद के उस मनोविज्ञान से जकड़ी व्यवस्था थी जहां एक तबका दूसरों की तुलना में श्रेश्ठ बन गया था तो गलत न होगा। 
देखा जाय तो सुषासन प्राप्ति के मार्ग में लाल बत्ती, लाल फीताषाही और अकर्मण्यता जैसे तमाम पहलू बड़े रूकावट से कम नहीं हैं। हालांकि इसकी संख्या दर्जनों और सैकड़ों में भी हो सकती है जिसे निपटे बगैर  मनचाहा सुषासन विकसित करना सम्भव नहीं होगा। जाहिर है जनहित को सुनिष्चित करने की जिम्मेदारी सरकार की होती है और इसके लिए उन्हें नीतियों के निर्माण से लेकर क्रियान्वयन तत्पष्चात् मूल्यांकन का सफर तय करना होता है। ऐसा भी देखा गया है कि लोकतंत्र की ढांचागत व्यवस्था होने के बावजूद कई जिम्मेदार पदाधिकारियों ने जनहित से मुंह भी मोड़ा है और रीति तथा प्रथा को तवज्जो देते हुए समाज में अपनी प्रभुत्ववादी दृश्टिकोण पर ही चलते रहे जबकि सच्चाई इसके उलट होनी चाहिए थी। इसके चलते भी लाल बत्ती का गुल होना स्वाभाविक था। दो टूक यह भी है कि नये प्रयोग युवाओं के मन को तो भा ही रहा है साथ ही आम जनता जो सरकार, प्रषासन या सुषासन कि परिभाशा व महत्व को पूरी तरह षायद ही समझ पाती हो वह भी इसे सही करार दे रही है। इसमें कोई दिक्कत नहीं कि न्यू इण्डिया की अवधारणा और मजबूत सुषासन की प्राप्ति में लाल बत्ती विहीन व्यवस्था सहायक ही होगा। उदारीकरण के बाद से ही भारत काफी खुले मन से आगे बढ़ रहा है। विनिवेष, निजीकरण, पष्चिमीकरण, आधुनिकीकरण तथा वैष्वीकरण की प्रसार होती व्यवस्था में लोकतांत्रिक मूल्यों को संजोना महज़ एक जरूरत नहीं बल्कि सुषासन साबित करने का बड़ा प्रसंग भी है। ढ़ाई दषक से अधिक की यात्रा में उदारीकरण ने देष को बदलाव दिया है पर काम इतने से नहीं चलेगा ऐसे में कुछ और रूपांतरण उभारने होंगे। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि इतने ही वर्शों में अभिषासन का रूपांतरण हुआ है, सूचना युग, ई-गवर्नेंस और ई-लोकतंत्र की ओर देष बढ़ा है। भूमण्डलीयकरण का दौर है जाहिर है सुषासन का पूर्ण होना निहायत जरूरी है। विकेन्द्रीकरण दौर की मांग है और बिना सेवा प्रदायक बने भूमिका में खरे उतर पाना सम्भव नहीं है। विकास की क्षमता पैदा करना, राजनीति का अपराधीकरण रोकना, भ्रश्टाचार पर लगाम लगाना और चुनाव सुधार की दिषा में भी कदम उठाने समेत कई सुषासनिक लक्षण से देष को अभी पोशण देना बाकी है। निहित भाव यह भी है कि नौकरषाही देष का प्रषासनिक बल है और इसमें निहित सकारात्मक मनोविज्ञान ही जनता को बल दे सकता है।
चुनौतियों से भरे देष, उम्मीदों से अटे लोग तथा वृहद जवाबदेही के चलते मौजूदा मोदी सरकार के लिए विकास व सुषासन की राह पर चलने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है। यह कहना भी लाज़मी है कि बीते तीन वर्शों में सरकार ने कई आकस्मिक और जोखिम भरे निर्णय लिये हैं जिसमें नोटबंदी इस मामले में सबसे बड़े रूप में षुमार है। बावजूद इसके यह बात तभी चैबीस कैरेट खरी उतरी मानी जायेगी जब देष के अन्तिम व्यक्ति की आवष्यकता इस सरकार से पूरी होगी। लाल बत्ती पर विराम कठिन तो नहीं पर सहज भी नहीं था। असल सफलता तो इसके मनोविज्ञान से उबरने पर मिलेगी। उदारीकरण के बाद से नौकरषाही सिविल सेवक बन गयी पर लाल फीताषाही से पीछा नहीं छूटा। सरकारें बहुत आईं पर सुषासन को लेकर मील का पत्थर षायद ही किसी ने गाड़ा हो। माना मार्ग में बहुत अड़चने हैं और सवा अरब के देष को पूरी निश्ठा से चला पाना बड़ी चुनौती भी पर यह नहीं भूलना चाहिए कि बड़ी समस्याओं के हल के लिए ही बड़ी सरकारों का निर्माण होता है। ऐसे में बात महज़ लाल बत्ती तक ही न हो बल्कि सुषासन की अन्य रूकावटों की भी बाकायदा कांट-छांट हो। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
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